ऐश्वर्या राय बच्चन की इस ड्रेस की कीमत जानकर हैरान हो जाएंगी आप

ऐश्वर्या राय एक ऐसी एक्ट्रेस हैं जो हमेशा अपने फैशन और स्टाइल से लोगों का दिल जीत लेती हैं. बहुत सी एक्ट्रेस उनकी तरह अपने कैजुअल बेस्ट में दिखने की कोशिश करती हैं लेकिन उनकी तरह सफल नहीं हो पाती हैं.

पूर्व मिस वर्ल्ड हमेशा अपने आउटफिट के जरिए सभी को चौंका देती हैं. इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया. हाल ही में एक्ट्रेस अपने पति अभिषेक बच्चन के साथ अंबानी के घर डिनर के लिए पहुंची थीं. जहां पहुंचकर उन्होंने सभी से लाइमलाइट छीन ली थी.

ऐश्वर्या की स्टाइलिस्ट आस्था शर्मा ने उनकी कुछ तस्वीरें अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर शेयर की हैं. पीले रंग का यह गाउन बौलरुम गाउन और कोट का परफ्केट मिश्रण है. इसमें एक्ट्रेस काफी खूबसूरत और स्टनिंग लग रही हैं.

This Stunner ??? #mostfavorite #aishwaryaraibachchan @alexismabille @louboutinworld @h.ajoomal @wardrobist

A post shared by Aastha Sharma (@aasthasharma) on

यह एलेक्सिस मैबिले के फौल विंटर 2017-18 के कलेक्शन का है. अगर आप भी उनकी तरह इस गाउन को पहनना चाहती हैं तो आपको अपनी जेब काफी ज्यादा ढीली करनी पड़ेगी. ऐश्वर्या के इस गाउन की कीमत 4,925 यूरो यानी कि लगभग 3.7 लाख रुपए है.

वर्कफ्रंट की बात करें तो ऐश्वर्या इस समय फन्ने खां की शूटिंग में बिजी हैं. फिल्म में पहली बार वो राजकुमार राव के साथ नजर आएंगी. वहीं तीसरी बार अनिल कपूर के साथ काम करेंगी. हाल ही में फिल्म की शूटिंग के दौरान एक हादसा हो गया था.

???

A post shared by Aastha Sharma (@aasthasharma) on

दरअसल, फिल्म के सेट पर एक क्रू मेंबर का एक्सिडेंट हो गया, मुंबई में इस फिल्म का एक सीन ऐश्वर्या राय बच्चन के साथ शूट किया जाना था, इसी दौरान यह हादसा हुआ था.

ओ-शाट लें और भरपूर सेक्स लाइफ का मजा उठाएं

पीआरपी (प्लेटलेट-रीच प्लाज्मा) थेरेपी में त्वचा को नया रूप देने के लिए प्लेटलेट और प्लाज्मा (रक्त के भीतर मौजूद तत्व) की उपचारात्मक शक्ति का इस्तेमाल किया जाता है. प्लेटलेट्स रक्त में पाई जाने वाली एक प्रकार की कोशिकाएं हैं. इनमें वृद्धि करने की शक्ति होती है और वे चोट के क्षेत्र में थक्का बनाने में अहम भूमिका निभाती हैं, इसलिए रक्त स्राव रोक देते हैं. प्लाज़्मा रक्त का तरल हिस्सा है.

हमारी उम्र बढ़ने के साथ ही त्वचा के नीचे स्थित ऊतकों से वसा की मात्रा कम होने लगती है. इसके साथ ही सूर्य की रोशनी और प्रदूषण की वजह से होने वाले नुकसान के कारण रेखाओं और झुर्रियों के साथ त्वचा की चमक खो जाती है, जिसके कारण हम वृद्ध और थके हुए नजर आते हैं. पीआरपी थेरेपी में हमारे रक्त में पाई जाने वाली वृद्धि की क्षमताओं का इस्तेमाल कर त्वचा की खोई हुई टेक्सचर, टोन और प्राकृतिक चमक को वापस पाने में मदद मिलती है.

यह एक साधारण प्रक्रिया है और इसे एक से दो घंटे के वक्त में किया जा सकता है. लोकल एनेस्थेटिक क्रीम को चेहरे या जिस भी हिस्से का इलाज किया जाना है, वहां लगाया जाता है और उसे करीब 1 घंटे के लिए छोड़ दिया जाता है. इसी बीच हाथ की बड़ी नसों में से एक में से 10-20 मिली रक्त निकाला जाता है और लाल रक्त कणिकाओं व अन्य में से प्लेटलेट्स एवं प्लाज़्मा को अलग करने के लिए अपकेंद्रित किया जाता है. प्लेटलेट और प्लाज़्मा युक्त इस फ्लूइड को बहुत ही बारीक सूई का इस्तेमाल कर त्वचा के भीतर डाल दिया जाता है. इससे प्लेटलेट के वृद्धि के कारक और साइटोकींस में तेजी आती है जिससे सुधार की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है और कोलाजेन बनने की प्रक्रिया तेज हो जाती है. कोलाजेन त्वचा की मदद करता है और बारीक लकीरों और झुर्रियों में सुधार होता है. सुधार की प्रक्रिया की वजह से बेहतर हुआ रक्त प्रवाह त्वचा की टोन और टेक्स्चर बेहतर होता है और त्वचा को सेहतमंद और युवा चमक मिलती है.

पीआरपी थेरेपी एक से अधिक बार की जाती है और सर्वश्रेष्ठ परिणाम देने के लिए इसकी सलाह दी जाती है.

प्रक्रिया के बाद त्वचा को मामूली रूप से कुछ नुकसान देखने को मिल सकता है. अच्छी तरह सुधार के लिए त्वचा को कुछ दिनों तक सूर्य की रोशनी से बचाना महत्वपूर्ण है. फैक्टर 50 सनब्लाक क्रीम का इस्तेमाल लाभदायक साबित हो सकता है.

ओ-शाट

करीब 40 फीसदी महिलाओं को यौन संबंधी गड़बड़ियों की वजह से मनोवैज्ञानिक परेशानी होती है, लेकिन बहुत कम महिलाएं ही चिकित्सकीय मदद लेती हैं. आरगैज्मिक परेशानी बहुत ही सामान्य दिक्कत है और अब इसे ओ-शाट की मदद से ठीक किया जा सकता है. ओ-शाट या आरगैज्म शाट का इस्तेमाल महिलाओं में यौन संबंधी परेशानियों के उपचार में और योनि को आरगैज्म हासिल करने में मदद करने में किया जाता है. प्लेटलेट-रीच प्लाज्मा (पीआरपी) को मरीज के रक्त में से निकाला जाता है और क्लिटरिस के आसपास के हिस्से और योनि के भीतर पहुंचा दिया जाता है. शाट मरीज की बांह से निकाले गए रक्त में मौजूद प्लेटलेट का इस्तेमाल कर काम करता है. इस रक्त को अपकेंद्रण के लिए रख दिया जाता है जो प्लेटलेट रीच प्लाज्मा (पीआरपी) बनाते हैं. इसे योनि के विशेष हिस्से में पहुंचा दिया जाता है और मरीज सिर्फ एक शाट ले सकती हैं या फिर इससे अधिक शाट के लिए भी आ सकती है, जिसे मौजूदा पीआरपी से ही तैयार किया जाएगा.

लक्ष्य नई कोशिकाओं की वृद्धि में तेजी लाना और इंजेक्टेड हिस्से को संवेदनशील बनाना है. इसका असर करीब एक वर्ष तक रहता है. इस प्रक्रिया के बाद आरगैज्म अधिक मजबूत और जल्दी होता है, प्राकृतिक लुब्रिकेशन और उत्तेजना बेहतर होती है. लोकल एनेस्थेटिक के अंतर्गत इस प्रक्रिया में 40 मिनट लगते हैं और मरीज आराम से घर जा सकती हैं.

(कॉस्मेटिक एंड एस्थेटिक सर्जरी विशेषज्ञ और इंडियन एसोसिएशन ऑफ एस्थेटिक प्लास्टिक सर्जन्स के प्रेसिडेंट डॉ. अनूप धीर से बातचीत के आधार पर)

रुपहले पर्दे की तवायफ : आधी हकीकत, आधा फसाना

इसी साल अप्रैल में प्रदर्शित फिल्म ‘बेगम जान’ निस्संदेह खास किस्म के दर्शकों को ध्यान में रखते हुए बनाई गई थी, लेकिन इस फिल्म में अभिनेत्री विद्या बालन का जीवंत अभिनय हर वर्ग के दर्शकों को पसंद आया. जिस ने भी फिल्म देखी, विद्या बालन की अभिनय प्रतिभा का लोहा माना.

बंगला फिल्म ‘राजकहिनी’ की रीमेक ‘बेगम जान’ कई मायनों में एक अहम फिल्म थी, जो भारत पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी में तवायफों के दर्द को बयां करती थी, इस फिल्म की जान केंद्रीय पात्र बेगम जान उन्मुक्त और सख्त स्वभाव की औरत है, जो कोठा चलाती है. कोठा चलाना कभी भी आसान काम नहीं रहा, इस बात को श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म ‘मंडी’ में बड़ी ईमानदारी से दिखाया गया था.

बंटवारे के दौरान कैसेकैसे कहर टूटे यह कई फिल्मों में दिखाया गया है, लेकिन बेगम जान के कोठे की बात ही कुछ और है. उस का कोठा एक ऐसी जगह बना हुआ है, जो दोनों देशों की सीमा पर है. इस कोठे को तोड़ना प्रशासनिक मजबूरी भी है और जरूरत भी. नाटकीय अंदाज में अधिकारी साम, दाम, दंड, भेद अपनाते हैं तो बेगम जान चौकन्नी हो जाती है. तवायफों से सख्ती से पेश आने वाली बेगम जान कोठा बचाने के लिए जीजान लगा देती है, पर सरकार से जीत नहीं पाती.

फिल्म का दूसरा अहम पहलू बेगम जान की कोठे और अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्धता है. बेगम जान को आजादी से कोई सरोकार नहीं है, क्योंकि आर्थिक और सामाजिक रूप से गुलाम तवायफों की दुनिया कोठे तक ही सीमित रहती है. इस के बाहर वे झांकती तक नहीं कि कहां क्या हो रहा है? मसाला फिल्मों की तरह फिल्म आगे बढ़ती रहती है, उस के साथसाथ चलती है तवायफों की बेबस जिंदगी, अनिश्चितता, असुरक्षा और अकेलापन.

बंगला निर्देशक श्रीजीत मुखर्जी ने इस फिल्म को निखारने और संवारने में खुद को पूरी तरह झोंक दिया है. विद्या बालन के कंधों पर टिकी फिल्म ‘बेगम जान’ दरअसल एक ऐसी तवायफ की कहानी है, जिस के कोठा चलाने के अपने उसूल हैं. वह मर्दों की कमजोरी पहचानती है और अपना काम साधने के लिए उसूलों से भी समझौता करने को तैयार हो जाती है.

रुपहले पर्दे की कोई भी अभिनेत्री तब तक पूर्ण नहीं मानी जाती, जब तक वह किसी फिल्म में तवायफ का किरदार न निभा ले. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हर सफल अभिनेत्री ने किसी न किसी फिल्म में तवायफ की भूमिका की है. तवायफ की भूमिका निभाना कोई आसान काम नहीं होता, यह बात ‘पाकीजा’ से ले कर ‘बेगम जान’ तक साबित हुई है.

कोठों और तवायफों की जिंदगी पर दर्जनों फिल्में बनी हैं. उन में से कुछ तो आज भी ब्रांड की तरह हैं. दरअसल, आम लोगों के लिए तवायफें और कोठे हमेशा से ही बेहद जिज्ञासा, उत्सुकता और आकर्षण का केंद्र रहे हैं. बावजूद इस के कि कोठों पर हर कोई नहीं जाता. एक ऐसा वक्त भी था, जब तवायफों के कोठे या तो राजाओं और नवाबों की विलासिता अथवा मनोरंजन के महफूज अड्डे हुआ करते थे या फिर बेहद खास लोगों की अय्याशी के ठिकाने. अभिजात्य मध्यमवर्ग का वास्ता उन से फिल्मों के जरिए ही पड़ा. धार्मिक सामाजिक और पारिवारिक बंदिशों में जीने वाले लोगों ने तवायफों और कोठों को सिर्फ फिल्मी परदे पर ही देखा और समझा.

समानांतर या कला फिल्मों की तवायफ भी पर्दे पर दिखाई गईं और तवायफों वाली व्यावसायिक फिल्में भी खूब चलीं. इन दोनों किस्म की तवायफों में एक फर्क रहा. फर्क यह कि कला फिल्मों की ज्यादातर तवायफ बुद्धिजीवी महिला होती थीं और साथ में अच्छी शायरा भी. पर व्यासायिक सिनेमा की तवायफ एक खूबससूरत जिस्म भर होती थी, जो शाम ढलते ही कोठों की रौनक में ढल जाती थीं. घुंघरुओं की छमछम और वाद्य यंत्रों की थाप पर जब वह नाचती थीं तो उन के कद्रदान झूम उठते थे.

इन फिल्मों ने तवायफों और कोठों की जो छवि गढ़ी, उस में एक गुलजार गली होती थी, जिस के नीचे पान की दुकानें होती थीं. उन दुकानों पर लोगों की खासी चहलपहल रहती थी. सूरज ढलते ही ये गलियां उजियारी हो जाती थीं और कोठे रोशनियों से नहा उठते थे. गलियों में दलाल घूमते नजर आते थे, जो ग्राहकों से मुजरा सुनने की गुजारिश करते थे.

इन का ग्राहक वर्ग भी अलग था, जो हाथ में गजरा लपेटे रहता था. उस के गले में रंगीन स्कार्फ या रूमाल झूलता रहता था. मुंह में पान की पीक भरी रहती थी और सिर से तेल टपकता रहता था. ग्राहकों में गुंडे, मवालियों से ले कर पैसे वाले और इज्जतदार लोग भी शुमार रहते थे. कोठे पर पहुंच कर ये लोग गावतकिए का सहारा ले कर टिक जाते थे और मुजरे का लुत्फ उठाते हुए तवायफ की हर अदा पर नोट लुटाते थे. इन में से ही कोई तवायफ पर फिदा हो कर उस से मोहब्बत कर बैठता था. फिर शुरू होती थी एक प्रेम कहानी, जिस का अंत अकसर ट्रेजेडी में होता था.

इन व्यावसायिक फिल्मों की एक कमी यह थी कि इन में तवायफ की जिंदगी की कहानी कम ही होती थी, क्योंकि ये फिल्में नीचे के दर्शकों के मनोरंजन के लिए और फिल्म में नाचगाने के दृश्य ठूंसने के लिए बनती थीं.

हर एक फिल्म में कोठे की संचालिका यानी मौसी जरूर होती थी, जिस के इशारे पर महफिल शुरू और खत्म होती थी. यह मौसी आमतौर पर रिटायर्ड तवायफ होती थी, जिसे कोठे की गार्जियन भी कहा जा सकता है्. कोठों का संचालन और प्रबंधन करने वाली इस महिला के ताल्लुकात मालदारों के अलावा गुंडों और पुलिस वालों तक से होते थे. बेगम जान में विद्या बालन लगभग इसी अंदाज में दिखीं, जो कहानी की मांग के मुताबिक जरूरत से ज्यादा क्रूर दिखाई गई है, लेकिन वह तवायफों का दर्द भी समझती है और उन्हें सांत्वना भी देती है.

कोठा संस्कृति का पूरा ऐतिहासिक सच दर्शकों ने 1972 में प्रदर्शित अपने जमाने की सुपर डुपर हिट फिल्म ‘पाकीजा’ से समझा था.

कमाल अमरोही की निर्देशन क्षमता किसी सबूत या तारीफ की मोहताज नहीं रही. वह कहानी में डूब कर फिल्में बनाते थे. पाकीजा की केंद्रीय भूमिका में उन की पत्नी और अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी थीं. इस फिल्म के गाने आज भी शिद्दत से गाए और सुने जाते हैं.

नवाबी दौर को जीवंत करती पाकीजा की कहानी आम कहानियों से हट कर थी. साहिब जान बनी मीना कुमारी की एक्टिंग ने साबित कर दिया था कि हर तवायफ के अंदर एक औरत भी होती है, जिस के अपने जज्बात होते हैं. वह महज पैसों या मनोरंजन के लिए नहीं जीती, बल्कि प्यार भी कर सकती है और उसे आखिरी सांस तक निभा भी सकती है.

‘पाकीजा’ की पाकीजा उर्फ नरगिस उर्फ साहिबजान की भूमिका मीना कुमारी ने बेहद सहज ढंग से निभाई थी, जिस के लिए वह जानी भी जाती थीं. कोठे पर ही पलीबढ़ी नरगिस अपने दौर की प्रसिद्ध नर्तकी और गायिका है. जब वह कोठे का चक्रव्यूह नहीं भेद पाती तो उस से समझौता कर लेती है. तभी उस की जिंदगी में एक नवाब सलीम अहमद खान आता है. सलीम की भूमिका में 68-70 के दशक के दौर के मशहूर अभिनेता राजकुमार थे.

सलीम और साहिबजान कोठे की बंदिशों को भूल कर एकदूसरे से प्यार करने लगते हैं और शादी करने का फैसला ले लेते हैं. दोनों भाग तो जाते हैं, पर शादी नहीं कर पाते. अपनी शोहरत के कारण साहिबजान हर जगह पहचान ली जाती है. फिल्म का अंत भले ही सामाजिक उपन्यासों जैसा रहा हो, जिस में साहिबजान अपने आशिक की प्रतिष्ठा के लिए अपना प्यार कुर्बान कर देती है. इस पूरी फिल्म में मीना कुमारी छाई रहीं तो उस की मुकम्मल वजहें भी थीं.

एक वजह यह भी थी कि मीना कुमारी वाकई एक ऐसी अभिनेत्री थीं, जो वास्तविक जिंदगी में जीवन भर सच्चे प्यार के लिए भटकती रहीं. वह एक उम्दा गजलकार भी थीं. मीना कुमारी की गजलें आज भी गजल प्रेमी डूब कर सुनते हैं. कमाल अमरोही से शादी करने के बाद भी वह अभिनेता धर्मेंद्र को नहीं भुला पाई थीं और उन्होंने खुद को शराब के नशे में डुबो लिया था.

‘पाकीजा’ 1958 में बनना शुरू हुई थी, पर प्रदर्शित 1972 में हो पाई. एक वक्त में लग रहा था कि यह फिल्म डिब्बे में ही बंद रह जाएगी. पर राजकुमार की कोशिशों के चलते इस का प्रदर्शन संभव हो पाया. अक्खड़ मिजाज के राजकुमार शायद पहली दफा किसी के सामने गिड़गिड़ाए थे. वह मीना कुमारी ही थीं, जो राजकुमार के अनुनयविनय को टाल नहीं पाईं और ‘पाकीजा’ की बाकी शूटिंग बीमारी की हालत में भी करने तैयार हो गईं. ‘पाकीजा’ के प्रदर्शन के चंद दिनों बाद ही उन की मृत्यु हो गई थी.

फिल्म जब प्रदर्शित हुई तो उस ने बौक्स औफिस के सारे रिकौर्ड तोड़ डाले. जिन मीना कुमारी को दर्शक एक घरेलू महिला के तौर पर देखने के आदी हो गए थे, उन्होंने बड़े शिद्दत से उन्हें तवायफ के रोल में पसंद किया.

‘पाकीजा’ ने तवायफ की एक नई और लगभग वास्तविक छवि दर्शकों के सामने रखी, जो आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है. मीना कुमारी ने ‘पाकीजा’ में तवायफ की जो भूमिका निभाई, उस ने दर्शकों के मन में यह बात स्थापित कर दी कि तवायफ सिर्फ मुजरा ही नहीं करती, बल्कि उस के अंदर एक औरत भी होती है, उस की भावनाएं होती हैं. उस का दिल भी किसी के लिए धड़कता है. वह भी मोहब्बत करने का हक रखती है और अपनी मोहब्बत के लिए कोठे के उसूल तोड़ने का दुस्साहस भी कर सकती है.

यह ट्रेजेडी भी दर्शकों को रास आई थी कि एक तवायफ का मुकाम आखिरकार कोठा ही है, जहां से उस की जिंदगी का सफर शुरू होता है और उसी पर आ कर खत्म होता है. समाज तवायफ को बहैसियत पत्नी तो दूर की बात है, बतौर आम औरत भी मान्यता नहीं देता. तवायफ आखिरकार तवायफ ही होती है और तवायफ ही रहती है.

‘पाकीजा’ के बाद लंबे वक्त तक तवायफों पर आधारित कोई फिल्म नहीं बनी, जिस की बड़े पैमाने पर चर्चा हुई हो. व्यावसायिक फिल्मों में जरूर तवायफें और कोठे दिखाए जाते रहे, पर यह दर्शकों को बांधे रखने का टोटका भर था, जिस के एकाध दृश्य में आइटम सौंग की तरह तवायफ और मुजरा डाल दिए जाते थे.

8 साल के सन्नाटे के बाद जब चुप्पी टूटी तो उस का अंदाज भी जुदा था. तवायफों पर लगातार क्रमश: 4 फिल्में 1981 में ‘उमराव जान’, 1982 में ‘बाजार’, 1983 में ‘मंडी’ और 1984 में ‘उत्सव’ प्रदर्शित हुईं.

इन फिल्मों के प्रदर्शन से बुद्धिजीवी वर्ग में एक बार फिर से यह बहस छिड़ गई कि आखिर तवायफ के माने क्या है? क्या वह वेश्या और कालगर्ल्स से भिन्न है? और यदि है तो किस तरह?

एक वर्ग वह था, जो इस जिद पर अड़ा था कि तवायफ जिस्मफरोशी नहीं करती, वह सिर्फ अपना नाचगाने का हुनर दिखा कर पैसा कमाती है. समाज में उस की भी इज्जत और जगह होती है. इस वर्ग का एक चलताऊ तर्क यह था कि तवायफों के पास तो शहजादों और राजकुमारों को भी अदब, तमीज और तहजीब सीखने भेजा जाता था.

इसी दौर में हालांकि यह बात भी साफ होती जा रही थी कि आधुनिक युग में तवायफ और वेश्या में कहने भर का फर्क है. इतिहास और साहित्य तवायफों से भरा पड़ा है. हिंदू पौराणिक ग्रंथों में इस का पर्याय शब्द गणिका है. गणिका और तवायफ में कोई खास फर्क नहीं होता. दोनों को ही राजाश्रय मिला होता है. हिंदी और उर्दू के साहित्यकार इस सच पर तो सहमत थे कि तवायफ भी समाज का एक अभिन्न हिस्सा हैं और उस की अपनी एक अलग अहमियत और उपयोगिता है. लेकिन चूंकि साहित्य भी पुरुष प्रधान था, इसलिए हमेशा ही तवायफ, वेश्या या गणिका के चरित्र को उभार कर उस का अंत पलायन में ही दिखाया गया है.

निस्संदेह यह संकीर्ण पुरुष मानसिकता थी, जो फिल्मों में लगातार देखने को मिली. सार रूप में यह स्वीकार कर लिया गया कि तवायफ ऐच्छिक ही सही जिस्मफरोशी भी करती है. लेकिन एक विशिष्ट वर्ग के पैसे और संरक्षण पर गुजर करने वाली सुंदर प्रतिभाशाली गणिका या तवायफ और आम आदमी की बाई, रंडी या वेश्या में एक सीमा रेखा खींची जाना जरूरी है.

यह वह दौर था, जब कोठे खत्म हो रहे थे. बनारस, कोलकाता और लखनऊ शहर 70 के दशक तक आबाद कोठों और मुजरों के लिए मशहूर थे, जहां देश भर के शौकीन मुजरे के लिए जाया करते थे. आपातकाल के बाद जो न दिखने वाले बदलाव समाज में आए, कोठों का लुप्त हो जाना भी उन में से एक था.

आपातकाल का कोठों और तवायफों से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था. लेकिन उन की जिंदगी और रोजीरोटी से एक कनेक्शन जरूर था. जो ठीक नोटबंदी के बाद जैसा था, जिस की मार बारबालाओं और कालगर्ल्स पर पड़ी थी. सियासी फैसलों के उपेक्षित वर्ग पर फर्कों के कोई मायने नहीं होते, इसलिए ऐसी दिक्कतें किसी को नजर नहीं आतीं.

सागर सरहदी निर्देशित ‘बाजार’ फिल्म नाम के मुताबिक तवायफों की बेबसी को दर्शाती हुई थी तो मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल की फिल्म ‘मंडी’ तमाम थिएटरी कलाकारों से सजी हुई थी. मंडी से कैरियर की शुरुआत करने वाली इला अरुण को तब कोई जानता भी नहीं था, लेकिन बेगम जान में वे मुख्य भूमिका में थीं.

इला अरुण नहीं मानतीं कि ‘बेगम जान’ और ‘मंडी’ की तुलना की जानी चाहिए. पर हकीकत यह है कि दोनों फिल्मों में देशकाल का फर्क भर है, नहीं तो ‘मंडी’ में भी राजनेता भूमाफिया और भ्रष्ट प्रशासन तवायफों के जरिए अपना स्वार्थ सिद्ध करते नजर आए थे. ‘मंडी’ की रूक्मिणी बाई यानी शबाना आजमी मुंह में पान की गिलोरी दबाए सौदेबाजी करती नजर आती हैं तो इस के उलट ‘बेगम जान’ की हुक्का गुड़गुड़ाती विद्या बालन जौहर या खुदकुशी करने को प्राथमिकता देती है. इन दोनों ही फिल्मों ने तवायफ और वेश्या शब्द के फर्क को मिटाने में सटीक भूमिका निभाई.

श्याम बेनेगल के चतुराई भरे निर्देशन ने तवायफ और वेश्या में फर्क खत्म कर दिया था और इस मिथक को भी तोड़ा था कि तवायफ कोई मुसलमान औरत ही होती है. इस से पहले सन 1983 में प्रदर्शित फिल्म ‘उमराव जान’ ने भी हाहाकारी सफलता हासिल की थी. अभिनेत्री रेखा उमराव जान की भूमिका में थीं. ‘उमराव जान’ एक ऐसी किशोरी की कहानी पर आधारित फिल्म थी, जिसे बचपन में ही अगुवा कर कोठे पर बेच दिया जाता है.

मशहूर उपन्यासकार मिर्जा हादी रुस्वा के चर्चित उपन्यास उमराव जान अदा की वास्तविकता को ले कर आज तक संदेह व्याप्त है. इस से परे फिल्मी कोठों का एक कड़ा सच जरूर निर्देशक मुजफ्फर अली ने उजागर किया था कि एक तवायफ की दौड़ कोठे से शुरू हो कर कोठे पर ही खत्म होती है. यह अंत ही तवायफ की नियति है.

‘उमराव जान’ की रेखा ठीक ‘पाकीजा’ की मीना कुमारी की ही तरह सराही गई थीं और हर वर्ग के दर्शक द्वारा पसंद की गई थीं. यह अस्सी के दशक की वह फिल्म थी, जिस  ने तवायफों के बारे में लोगों को एक बार फिर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया था. ‘उमराव जान’ के किरदार में अपने जीवंत अभिनय से जान डाल देने वाली रेखा ने एक तवायफ की जिंदगी और कशमकश को साकार कर अहसास करा दिया था कि वह आखिर रेखा क्यों हैं.

‘उमराव जान’ का गीत संगीत ‘पाकीजा’ से उन्नीस नहीं था. फिल्म की कहानी भी ‘पाकीजा’ से बहुत ज्यादा जुदा नहीं थी. उमराव जान भी जिंदगी भर प्यार को तरसती रही और शेरोशायरी के जरिए मशहूर हुई. समाज में उमराव जान की अपनी जगह थी, उस का अपना एक अलग प्रशंसक वर्ग था, जो तवायफ से ज्यादा शायरी को अहमियत देता था. लेकिन आखिरकार मुजफ्फर अली को फिल्म के अंत में दिखाना पड़ा कि उमराव जान अपनों के ठुकराए जाने से ज्यादा आहत हुई. वह कभी अपनी गलती नहीं समझ पाई और कोठों के पहरेदारों से ले कर एक डाकू और फिर एक नवाब तक में अपना प्यार तलाशती रही.

उमराव जान फिल्म एक हद तक व्यावसायिक थी, पर उस में समानांतर सिनेमा की छाप भी साफ दिखाई दी थी. फिल्म के अंत में प्रतीकात्मक तौर पर आईने से धूल पोंछती रेखा को दिखाया गया है, जिस से दर्शक समझ लें कि तवायफ कभी बीवी बहन या मां नहीं हो सकती. उमराव जान बन गई अमीरन को उस का सगा भाई न पहचान कर किस गुनाह की सजा दे रहा है, यह बात दर्शक तब समझे जब उन्हें यह अहसास हुआ कि क्यों तवायफ को गिरी नजर से देखा जाता है.

अस्सी का दशक रेखा के नाम था, ‘उमराव जान’ हिट हुई तो 3 साल बाद सन 1984 में वह शशि कपूर की महत्त्वाकांक्षी फिल्म ‘उत्सव’ में बसंत सेना की भूमिका में दिखीं, जो एक गणिका थी. उत्तेजक दृश्यों से भरपूर इस कथित कला फिल्म को दर्शकों ने बेरहमी से नकार दिया था. अभिनेता गिरीश कर्नाड के निर्देशन के जरिए शशि कपूर की इच्छा कामोत्तेजक दृश्यों को दिखा कर दौलत और शोहरत बटोरने की थी, जो पूरी नहीं हुई. ‘उत्सव’ असल में वात्स्यायन के कामसूत्र को चित्रण करने की कोशिश करने वाली फिल्म थी, पर इस के ऐतिहासिक पात्र और कहानी दर्शकों को पसंद नहीं आए थे.

‘मुकद्दर का सिकंदर’ और ‘सुहाग’ जैसी व्यावसायिक फिल्मों में भी रेखा तवायफ की भूमिका में थीं. ‘मुकद्दर का सिकंदर’ में तवायफ की जिंदगी का छोटा सा हिस्सा दिखाया गया था, लेकिन वही हिस्सा पूरी फिल्म पर भारी पड़ा.

दर्शकों को यह बात पसंद आई कि कोठे वाली जौहरा बाई (रेखा) सिकंदर (अमिताभ बच्चन) पर मरने लगती है, पर सिकंदर उसे नहीं चाहता. उलट इस के एक मवाली दिलावर (अमजद खान) जौहरा पर इस कदर जान छिड़कता है कि फिल्म के आखिर में सिकंदर को जौहरा से प्यार करने की गलतफहमी में मार डालता है.

निर्देशक प्रकाश मेहरा बहुत कम दृश्यों में कोठों की बंदिशें बताने में कामयाब रहे थे. साहिब जान, बेगम जान और उमराव जान की तरह जौहरा की जिंदगी भी एक बड़े कमरे में कैद बताई गई. यहां निर्देशकों की मजबूरी भी हो गई थी और जरूरत भी कि वे कैमरे की नजर गलियों, फूलों और कोठों की सीढि़यों से हटा कर कुछ इतर नहीं दिखा सके और जो दिखाया वह मुजरा था, घुंघरुओं की खनक के साथ तवायफ पर न्यौछावर होते नोट थे.

1987 में बी.आर. चोपड़ा ने ऋषि कपूर और रति अग्निहोत्री को ले कर ‘तवायफ’ शीर्षक से ही फिल्म बना डाली. केंद्रीय भूमिका में रति अग्निहोत्री थीं, जिन्हें यह समझ आ गया था कि बौलीवुड में कामयाबी के झंडे गाड़ने के लिए किसी चर्चित अभिनेत्री को तवायफ की भूमिका निभाना अनिवार्य होता है. ‘तवायफ’ फिल्म ठीक चली. यह कहानी पारिवारिक थी, इसलिए तवायफ जीवन और कोठे का चित्रण वैसा नहीं हो पाया, जैसा दर्शक पसंद करते रहे थे.

अस्सी के दशक में ही तवायफों पर कई और फिल्में भी बनीं, लेकिन मसाला ज्यादा होने के कारण वे बौक्स औफिस पर औंधे मुंह लुढ़कीं. सलमा आगा और राजबब्बर अभिनीत ‘पति पत्नी और तवायफ’ इन में प्रमुख थी. इस दौर में एक ही विषय पर लगातार फिल्में बनीं और अधिकांश कमजोर कहानी और लचर निर्देशन के चलते फ्लौप हुईं तो अरसे तक फिर किसी ने तवायफ प्रधान फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं की.

सन 1991 में निर्देशक महेश भट्ट ने फिल्म ‘सड़क’ में अपनी बेटी पूजा भट्ट को तवायफ के रोल में पेश किया था. नायिका को एक टैक्सी ड्राइवर चाहने लगता है और बड़े नाटकीय व करिश्माई तरीके से उसे गुंडों और दलालों से छुड़ा कर उस से शादी कर लेता है. महेश भट्ट जैसे तजुर्बेकार निर्देशक ही दर्शकों की कमजोर नब्ज पकड़ पाते हैं. वह जानते हैं कि कैसे कोठे की पृष्ठभूमि पर बनाई फिल्म देखने के लिए दर्शकों को खींचा जा सकता है. ‘सड़क’ में संजय दत्त बतौर हीरो थे.

‘सड़क’ फिल्म की खूबी यह थी कि इस में कोठों का आधुनिकीकरण दिखाया गया था. फिल्म में तवायफ तो थी, पर वह लहंगे में नहीं, बल्कि सलवारसूट में थी और फिल्म में परंपरागत मुजरा नहीं था. एक किन्नर महारानी के रोल में अभिनेता सदाशिव अमरापुरकर भी जमे थे. इस अलग किरदार के जरिए महेश भट्ट ने खूब वाहवाही बटोरी थी, साथ ही सदाशिव अमरापुरकर ने भी. ‘बेगम जान’ के शुरुआती दृश्यों में महेश भट्ट की यह शैली दिखी थी कि कैसे बेगम जान सदमे में आई लड़की को थप्पड़ मारमार कर उसे सदमे से उबारने का मनोवैज्ञानिक काम करती है.

फिर एक दशक तक तवायफों पर कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं बनी. यह सन्नाटा सन 2001 में मधुर भंडारकर की फिल्म ‘चांदनी बार’ से टूटा, जिस में एक तवायफ मुमताज की भूमिका में अभिनेत्री तब्बू थीं. फिल्म चली और तब्बू का अभिनय सराहा भी गया, पर इस से तब्बू के डूबते कैरियर को कोई सहारा नहीं मिला.

सन 2002 में प्रदर्शित फिल्म ‘देवदास’ में तवायफ चंद्रमुखी की भूमिका में माधुरी दीक्षित थीं. ‘देवदास’ बड़े बजट की भव्य फिल्म थी, जिस में नायक शहरुख खान और अभिनेत्री ऐश्वर्या राय भी थीं. आम दर्शकों के लिए देवदास की कहानी हालांकि जिज्ञासा का विषय नहीं थी, लेकिन बड़े सितारों से सजी इस फिल्म के सेट दर्शकों को थिएटर तक खींचने में कामयाब रहे थे.

देवदास पर फिल्म पहले भी बन चुकी थी, पर इस देवदास में कहानी का इतना सरलीकरण कर दिया गया था कि दर्शक उसे आसानी से समझ पाए थे. बंगाली संस्कृति को छूती ‘देवदास’ में एक अलग हट कर बात यह थी कि तवायफें एकदम अछूत नहीं बताई गई थीं.

निर्देशक की यह कोशिश कामयाब रही थी कि तवायफों का भी समाज में सम्मानजनक स्थान होता है और यह एक स्वतंत्र व्यवसाय है. जिस का संबंध आम संपन्न परिवारों से भी होता है. धकधक गर्ल के नाम से मशहूर हो चुकीं माधुरी दीक्षित की अभिनय प्रतिभा भी ‘देवदास’ से उजागर हुई थी.

तवायफों की जिंदगी पर हर 10-12 साल के अंतर से लगातार फिल्में बनीं. ‘चांदनी बार’ और ‘देवदास’ के तुरंत बाद आई निर्देशक सुधीर मिश्रा की ‘चमेली’, जिस में मुख्य भूमिका में कपूर खानदान की बेटी करीना कपूर थीं. करीना कपूर ने भी साबित कर दिया कि एक तवायफ का चुनौतीपूर्ण किरदार वह सफलतापूर्वक निभा सकती हैं. इस फिल्म में करीना के हावभाव और लटकेझटके पेशेवर तवायफों सरीखे ही थे, जिन्हें दर्शकों ने सराहा था.

अब तक यह साबित हो चुका था कि ‘पाकीजा’ और ‘बेगम जान’ जैसी ऐतिहासिक और कला फिल्मों के मुकाबले ‘चांदनी बार’ और ‘चमेली’ जैसी फिल्में एक अलग फ्लेवर की हैं. इस यानी नए दौर की तवायफ कोई शायरा या गायिका नहीं रह गई, लेकिन उस में अहसास और जज्बात आम औरतों सरीखे ही होते हैं.

कोठों की भव्यता भी सन 2000 के बाद की फिल्मों में नहीं दिखी. इन फिल्मों में तवायफ परंपरागत तवायफ कम वेश्या ज्यादा लगीं. जो तय है, बदलते वक्त की मांग और सच दोनों थे. ‘बेगम जान’ में मुद्दत बाद परंपरागत कोठों और तवायफों की झलक दिखी तो दर्शकों ने उसे फिर हाथोंहाथ लिया.

तवायफों पर बनी नई फिल्मों का पुरुष चरित्र भी भिन्न था. वह पहले की तरह नवाब, गुंडा या मालदार जमींदार नहीं था, बल्कि आम आदमी था, जिस का अपना एक अलग मध्यमवर्गीय द्वंद्व होता है.

तवायफों का द्वंद्व ‘पाकीजा’ से ले कर ‘चमेली’ तक में ज्यों का त्यों था, बस इतिहास और वक्त के लिहाज से उस का प्रस्तुतीकरण बदल गया था. परदे की तवायफों ने हर दौर में दर्शकों को सोचने पर मजबूर तो किया कि क्यों उन की जिंदगी का स्याह पहलू उन के व्यक्तिगत आत्मसम्मान और स्वाभिमान पर भारी पड़ता है. समाज का नजरिया न ‘पाकीजा’ के दौर में बदला था, न ‘चमेली’ या ‘चांदनी बार’ के दौर में बदला. तवायफों से प्यार कोई भी करे, लेकिन सामाजिक और पारिवारिक दबावों के चलते उन्हें अपना नहीं पाता.

तवायफों पर बनी तमाम फिल्में स्त्री प्रधान मानी जाती हैं, जिन के अंत में उन की हताशा ही दिखती है. यह कहना मुश्किल है कि हालात और दुश्वारियों से परेशान तवायफों का पलायन और पराजय उन्हें पुरुष प्रधान समाज के सामने हथियार डालने को मजबूर क्यों करता है? स्त्री विमर्श तो उन में कहीं दिखता ही नहीं. एक तयशुदा संघर्ष के बाद तवायफ हार मान लेती है. लेकिन हम ‘मंडी’ को भी नहीं भूल सकते, जिस में दिखाया गया था कि पिंजरे में कैद पंछी आजाद हो जाता है, जो असल में तवायफ और कोठों का प्रतीकात्मक संबंध उजागर करता है.

ऊन का इस तरह भी आप कर सकती हैं इस्तेमाल

अकसर स्वैटर बुनने के बाद ऊन के कई छोटे छोटे गोले बच जाते हैं. इन का बढ़िया इस्तेमाल किया जा सकता है. आप अपनी कल्पना से घर में उपयोग होने वाली कई चीजें बना सकती हैं, जैसे- कुशनकवर, टेबल मैट्स, आसन, पायदान या कोई और सुंदर सा शोपीस. अगर आप क्रोशिया या कढ़ाई भी जानती हैं तो बचे ऊन के 1-1 धागे का प्रयोग कर सकती हैं.

बचे हुए ऊन के सही उपयोग के लिए आप को कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखना होगा.

सर्वप्रथम ऊन का ठीक तरह से रखरखाव बेहद जरूरी है.

ऊन के गोलों को अलगअलग पोलिथीन के छोटेछोटे थैलों में रखें, वरना ऊन के धागे आपस में उलझ कर एकदूसरे में मिल जाएंगे और आप को सुलझाने में काफी कठिनाई हो सकती है.

एक जैसी ऊन या एक जैसी वैराइटी के ऊन एक ही जगह संभाल कर रखें.

एम्ब्रायड्री के लिए यदि आप कुछ बनाना चाहती हैं तो 2 प्लाई निटिंग यार्न सब से बेहतर रहता है. इस से आप ऊन को मोटी सूई में पिरो कर आसानी से इस्तेमाल कर सकती हैं.

मैटी या सम बुनावट वाला कपड़ा ले कर चौकोर या अपनी मनपसंद शेप में काट लें. कपड़ा हलके कलर का हो तो ज्यादा अच्छा रहता है, क्योंकि उस पर सभी रंग सुंदर दिखेंगे. सुंदर फूलपत्ती या कोई आसान डिजाइन कपड़े पर ट्रेस करें. कांथा वर्क से नमूना काढ़ें. ऊन की एम्ब्रायड्री में कांथा, लेजीडेजी या किसी भी सरल टांके का ही इस्तेमाल करें, क्योंकि ऊन में थोड़े रोएं जरूर होते हैं, जो कपड़े में फंस सकते हैं.

फोर प्लाई ऊन का चुनाव क्रोशिया या सलाइयों के प्रयोग के लिए करें. क्रोशिए का काम काफी आकर्षक होता है और जल्दी भी हो जाता है. इसलिए घरों में अकसर गोलाकार मैट्स देखने को मिलते हैं. इन में सब से ज्यादा आसानी यह है कि इन्हें किसी भी कलर को बिना गांठ लगाए बुना जा सकता है. और बनाई गई वस्तु का प्रयोग दोनों तरफ से किया जा सकता है. लंबी पट्टियां बना कर बाद में उन्हें जोड़ कर नन्हेमुन्ने का बिछावन, कंबल या गरम चादर बनाई जा सकती है.

ज्यादा मोटे या फर वाले ऊन का प्रयोग मोटी सलाइयों पर ही करें. ऐसी वैरायटी के ऊन को हलके हाथ से बुनें यानी बुनावट में ज्यादा टाइटनैस नहीं होनी चाहिए वरना धुलने के बाद ऊन जुड़ सकता है, जिस से बनाई गई वस्तु एकदम भद्दी दिखेगी और आप की मेहनत बेकार जाएगी.

अपनी कल्पनाशक्ति के आधार पर बचे ऊन से और भी सुंदरसुंदर चीजें बना सकती हैं. छोटे बच्चे की कैप, दस्ताने, रंगबिरंगा इनरवियर, पिलोकवर आदि.

इस के अलावा ऊन के बहुत छोटे धागों का प्रयोग फ्लावरपाट कवर, मोबाइल कवर, गिफ्ट बौक्स, पैंसिल स्टैंड आदि बहुत सी चीजों में बुन कर या किसी भी ग्लू, फेविकोल आदि की मदद से चिपका कर भी किया जा सकता है.

इस तरह आप का क्रिएटिव माइंड बहुत से सुंदर और अनोखे आविष्कार खुद कर सकता है और आप पा सकती हैं सब की ढेर सारी तारीफ.

लोन लेने से पहले इन 9 बातों को ध्यान में जरूर रखें

हर व्यक्ति को जीवन में कभी न कभी कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ती है. जरूरत के हिसाब से कर्ज छोटा या बड़ा हो सकता है. मसलन, घर या गाड़ी खरीदते समय हमें बैंक से लोन लेने की जरूरत पड़ती है. इसी तरह अचानक किसी बड़े खर्चे के आ जाने पर हम अपने किसी दोस्त, रिश्तेदार या औफिस में साथ काम करने वाले व्यक्ति से पैसे उधार लेते हैं अन्यथा बड़े खर्चे का भुगतान क्रैडिट कार्ड से कर के उस को सुविधानुसार भविष्य में चुकाते हैं. इस तरह कर्ज भले छोटा हो या बड़ा, इस की जरूरत समयसमय पर हर किसी को पड़ती रहती है. कर्ज लेने से पहले जरूरी इन 9 बातों को ध्यान में जरूर रखें. ऐसा करने पर न तो आप कभी कर्ज के जाल में फंसेंगे और न ही आप को अपना बजट गड़बड़ाता महसूस होगा.

रिपेमैंट कैपेसिटी के अनुरूप ही लें उधार

कर्ज किसी भी माध्यम से लें, इतना जरूर ध्यान रखें कि यह रकम आप की कर्ज चुकाने की क्षमता के हिसाब से ही हो. यानी अपनी नियमित आय से पैसा बचा कर आप लोन की रकम एक निश्चित समय में चुका सकने में सक्षम हों. विशेषज्ञ मानते हैं कि आप के कुल कर्ज की मासिक किस्त आप की मासिक आय के 15 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

उदाहरण के तौर पर अगर आप 40,000 रुपए महीना कमाते हैं तो आप के सभी प्रकार के कर्ज की ईएमआई 6,000 रुपए से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. इस से ज्यादा ईएमआई होने पर आप की भविष्य की योजनाएं या मासिक बजट प्रभावित हो सकता है.

ईएमआई निश्चित समय पर दें

इस बात का ध्यान जरूर रखें कि कर्ज चाहे छोटे समय के लिए हो, जैसे कि क्रैडिट कार्ड का बिल या लंबी अवधि का, जैसे होम लोन, भुगतान समय पर करें. अगर आप एक भी किस्त देने से चूक जाते हैं या फिर पेमैंट में देरी करते हैं तो इस का असर सीधा क्रैडिट प्रोफाइल पर पड़ता है. जिस के कारण भविष्य में लोने पाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है.

कर्ज कम से कम समयावधि के लिए लें

कर्ज चुकाने की समयावधि जितनी लंबी होती है उतनी ही ज्यादा राशि आप को लोन के भुगतान में चुकानी होती है. ऐसा माना जाता है कि लोन का कार्यकाल जितना छोटा हो उतना अच्छा है. कर्ज चुकाने की समयावधि बढ़ाने पर ईएमआई की राशि तो कम हो जाती है लेकिन कर्जदाता की ओर से चुकाई जाने वाली कुल रकम बढ़ जाती है.

उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि कार्तिक ने 10 फीसदी की दर से 50 लाख रुपए का लोन 20 वर्षों के लिए लिया है. इस में उस की ईएमआई 48,251 रुपए होगी. अगर वह अपनी ईएमआई 5 फीसदी सालाना की दर से बढ़ा दे, तो यह लोन 12 साल में पूरा हो सकता है. वहीं ईएमआई 10 फीसदी की दर से सालाना बढ़ा देने पर लोन 9 वर्ष 3 महीने में खत्म हो जाएगा.

निवेश करने या फुजूलखर्ची के लिए कर्ज

निवेश करने के लिए पैसे उधार न लें. निश्चित रिटर्न देने वाले निवेश विकल्प, जैसे फिक्सड डिपौजिट, बौंड कभी भी लोन पर लिए जाने वाले ब्याज की बराबरी नहीं कर सकते. इक्विटी में निवेश बेहद अस्थिर होते हैं. अपने खर्चों को पूरा करने के लिए कभी भी लोन न लें.

भविष्य की योजनाओं को प्रभावित न करें

सरल शब्दों में समझें तो कभी भी अपने बच्चों की पढ़ाई या शादी के लिए रिटायरमैंट फंड का इस्तेमाल न करें. पढ़ाई के लिए लोन और स्कौलरशिप जैसे विकल्प मौजूद हैं जिन में पढ़ाई का खर्चा कवर होता है. लेकिन बाजार में ऐसा कोई आकर्षक प्रोडक्ट नहीं जिस के जरिए आप अपनी रिटायरमैंट की जरूरतों को पूरा कर सकें. ध्यान रखें कि रिटायरमैंट योजना भी बच्चे की पढ़ाई जितनी ही जरूरी होती है. एक अच्छी फाइनैंशियल प्लानिंग की खासियत यही है कि एक जरूरत को पूरा करने के लिए दूसरी जरूरी चीज के प्लान को प्रभावित न करें.

सभी कर्ज एक जगह से लेने का प्रयास करें

अगर आप ने एक से ज्यादा लोन ले रखे हैं और ये सब अलगअलग बैंक या वित्तीय कंपनियों से हैं तो कोशिश करें कि इन सभी को एक ही बैंक या वित्तीय कंपनी में ट्रांसफर करवा लें. लोन की रकम एक जगह हो जाने पर बैंक आप को बैलेंस ट्रांसफर जैसी सुविधाओं के अंतर्गत आकर्षक ब्याज दरें औफर कर सकता है. ऐसा करने से आप पर ईएमआई का बोझ कम हो जाएगा. साथ ही, समयसमय पर मिलने वाली अतिरिक्त आय का भी इस्तेमाल कर्ज चुकाने के लिए करें. अगर आप नौकरीपेशा हैं तो कंपनी में बोनस मिलने पर, इंक्रीमैंट या इंसैंटिव हाथ आने पर आप को अपने कर्ज का भुगतान कर देना चाहिए.

बड़ी राशि वाले लोन के साथ इंश्योरैंस जरूर लें

अगर आप होम लोन या कार लोन जैसा कोई बड़ा लोन लेते हैं तो साथ में इंश्योरैंस लेना न भूलें. जैसे कि लोन की राशि के बराबर का टर्म प्लान लें. ऐसा इसलिए क्योंकि अगर आप को कुछ हो जाता है और आप पर आश्रित लोग ईएमआई नहीं चुका पाते तो कर्जदाता आप के एसेट्स ले लेता है. टर्म प्लान लेने से आप की अनुपस्थिति में घर वालों को आर्थिक तंगी से नहीं जूझना पड़ेगा.

कर्ज से जुड़ी शर्तें जरूर पढ़ें

किसी भी आकस्मिक स्थिति से बचने के लिए लोन लेते समय नियम व शर्तें जरूर पढ़ें. अगर आप कानूनी दस्तावेज का संदर्भ नहीं समझ पा रहे हैं तो किसी वित्तीय सलाहकार की मदद लें.

खरीदारी करते समय कीमतों की तुलना कर लें

अगर आप कर्ज ले कर कोई संपत्ति खरीद रहे हैं तो बाजार में कीमतों की तुलना जरूर कर लें. सही डील मिलने पर आप को हो सकता है कि कम राशि का ही लोन लेना पड़े. लोन की राशि जितनी कम होगी, कर्जदाता के लिए उतना ही अच्छा होगा.

कश्मीर के बाद अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो इसी शहर में है

दुनिया भर में सिक्किम अपनी साफ-सफाई के लिए मशहूर है. यहां पर सड़क, ईमारतें दूसरी जगहों के मुकाबले साफ दिखती है. वहीं पर्यटन के लिहाज से यहां सिक्किम की राजधानी गंगटोक घूमने-फिरने के लिहाज से बहुत खूबसूरत कहा जाता है.

अगर आप भी घूमने-फिरने की शौकीन हैं, तो गैंगटोक जरूर जाएं. गैंगटोक की खूबसूरती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे कश्मीर के बाद धरती का दूसरा स्वर्ग कहा जाता है.

100 साल पुरानी धरोहर

यहां पर आप कई 100 साल पुरानी विश्वप्रसिद्ध मोनेस्ट्रीज है. यहां पर बौद्ध धर्म सीखने का सबसे बड़ा सेंटर भी मौजूद है. जिसे देखने और यहां से शिक्षा प्राप्त करने के लिए लोग दूर-दूर से आते है. इसके अलावा यहां पर आप हिमालयन जूलौजिकल पार्क में आप जंगल जैसा महसूस करेंगी. शांति के साथ-साथ यह जगहें पूरी तरह से पोल्यूशन फ्री है.

एडवेंचर स्पोर्ट्स का लें मजा

पहाड़ों के शहर गैंगटोक में आप पहाड़ों का नजारा रोप वे से भी ले सकती हैं. यहां पर ट्रैकिंग, माउनटेनियरिंग, रिवर रौफ्टिंग और दूसरे खेलों का भी मजा लिया जा सकता है. वहीं ताशी न्यू पौइंट से लगभग 7 किलोमीटर दूर भगवान गणेश का मंदिर है. जिसे गणेश टोक कहा जाता है.

सैर-सपाटे के साथ शौपिंग का मजा

अगर आपको सिक्किम के स्थानीय कपड़े और दूसरे सामाना खरीदने हैं, तो आप मोनेस्ट्रीज के पास लगने वाले बाजार में जमकर खरीदारी कर सकती हैं. यहां आपको कलाकृतियों वाली मूर्तियां, तस्वीर और सजावटी सामान आसानी से मिल जाएगा.

वाइल्ड लाइफ का नजारा

गैंगटोक फंब्रोंग वन्यजीव अभयारण्य गंगटोक से 25 किलोमीटर दूर है. यहां रोडोड्रेडोन, ओक किंबू, फर्न, बांस आदि का घना जंगल तो है ही साथ ही यह दर्जनों पशुओं का आवास भी है. इस अभयारण्य में पक्षियों और तितलियों की कई प्रजातियां मौजूद हैं. गंगटोक से 24 किलोमीटर की दूरी पर रूमटेक मठ है.

यहां कैसे पहुंचे

वायु मार्ग

गंगटोक से 125 किलोमीटर की दूरी पर बागडोगरा हवाई अड्डा है. दिल्ली, कोलकाता और गुवाहाटी से यहां आने के लिए कई फ्लाइट उपलब्ध हैं. गैंगटोक बागडोगरा से हेलीकाप्टर की सुविधा भी उपलब्ध है.

रेल मार्ग

गैंगटोक का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी है. साथ ही सिलीगुड़ी, कलिंपोंग और गंगटोक से बस और प्राइवेट टैक्सी की नियमित सुविधा उपलब्ध है.

घूमने के लिए बढ़ियां समय

आप यहां दिसंबर से जनवरी के बीच यहां आकर घूम सकती हैं और यहां के प्राकृतिक नजारो का लुत्फ ले सकती हैं.

क्या है खास

यहां ऐसे खूबसूरत बगीचे हैं, जिन्हें देखकर आपका मन चहक उठेगा. साथ ही एडवेंचर स्पोर्ट्स के लिए गैंगटोक सबसे बेस्ट जगह है.

आधार कार्ड : आम नागरिकों के अधिकारों पर सरकार की चोट

वैसे तो आधार कार्ड भारत सरकार द्वारा जारी किया जाने वाला एक पहचानपत्र है पर सरकार ने जिस तरह से आधार कार्ड का प्रयोग हर जगह करना शुरू किया है उस से यह आम नागरिकों के अधिकारों का हनन करता नजर आ रहा है. आधार को ले कर सरकार की यह जबरदस्ती है कि वह बैंक खाते से ले कर राशनकार्ड तक आधार को जोड़ रही है.

सरकार का काम जनता को सहूलियतें देना है. आधार कार्ड के जरिए सरकार जनता के सामने तमाम तरह की मुश्किलें खड़ी करती जा रही है. जनता को यह बताया जा रहा है कि इस से भ्रष्टाचार रुकेगा, जिस से महंगाई कम होगी. आधार कार्ड का सब से अधिक प्रयोग रसोईगैस में किया गया. रसोईगैस के आधार कार्ड से लिंक होने का जनता को क्या लाभ मिला? आधार कार्ड से रसोईगैस के लिंक होने की योजना के बाद अगर रसोईगैस की कालाबाजारी रुक गई होती तो रसोईगैस के दाम कम होने चाहिए थे. रसोईगैस के दामों में किसी भी तरह की कमी नहीं आई है. आज भी गैस सिलैंडर ब्लैक में मिल रहे हैं.

आधार कार्ड पर 12 नंबर की संख्या छपी होती है. जिसे भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण जारी करता है. यह संख्या भारत में कहीं भी व्यक्ति की पहचान और पते का प्रमाण होती है. भारत का रहने वाला हर नागरिक इस कार्ड को बनवा सकता है. इस में हर व्यक्ति केवल एक बार ही अपना नामांकन करा सकता है. यह कार्ड सरकार द्वारा बिना पैसे लिए बनाया जाता है.

कानूनीरूप से आधार कार्ड एक पहचान मात्र है. यह भारत की नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं है. इस के बाद भी जिस तरह से आधार कार्ड को ले कर सरकार जनता पर दबाव बना रही है वह उस की मनमरजी थोपने जैसा है. यह नागरिक अधिकारों के हनन जैसा है.

आधार कार्ड को नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं माना जा रहा है. देश में पहचानपत्र के नाम पर मतदाता पहचानपत्र ही मान्य है. मतदाता पहचानपत्र की जगह पर आधार कार्ड को मान्यता देने का काम खतरनाक है. जनता के पास कई तरह के पहचानपत्र हैं. इन में राशनकार्ड, ड्राइविंग लाइसैंस, केंद्र सरकार के कर्मचारी का परिचयपत्र प्रमुख हैं. सरकार आधार कार्ड को पहचानपत्र के ऊपर रख रही है. आधार कार्ड को खास बनाने के लिए सरकार ने उस को रसोईगैस, पैन नंबर, मोबाइल नंबर और बैंक खाता नंबर से जोड़ने का काम किया है. बिना आधार कार्ड के आयकर रिटर्न भी दाखिल नहीं हो रहा है. इस के साथ ही, जमीनजायदाद की खरीदफरोख्त में रजिस्ट्री के समय भी आधार कार्ड जरूरी किया जा रहा है.

जायदाद और बैंक से आधार के जुड़ने से जनता की डोर सरकार के हाथों में चली जा रही है. इस से एक जंजीर सी बन रही है. यह जंजीर जनता के लिए ऐसी हथकड़ी बनती जा रही जिसे वह खुद अपने गले में डालने को मजबूर होती जा रही है. आधार को हर तरह से फूलप्रूफ व्यवस्था बताने वाली सरकार मतदाता पहचानपत्र को मजबूत बनाने का काम नहीं कर रही है. असल में वोट देने के सिस्टम में सरकार कोई सुधार नहीं करना चाहती है. सरकार को पता है कि वोटकार्ड में सुधार से फर्जी वोटिंग रुक सकती है, जो नेताओं के हित में नहीं है. सरकार खुद को जवाबदेही से मुक्त रखना चाहती है. आरटीआई से ले कर राजनीतिक दलों को चंदा देने तक को वह जवाबदेही के दायरे में नहीं लाना चाहती है. जनता से हर पारदर्शिता की बात करने वाले नेता खुद पारदर्शी व्यवस्था पर यकीन नहीं करते.

अपराधियों के घेरे में आधार

यह सच है कि आज के समय में आधार कार्ड आसानी से बिना पैसा खर्च किए बन जाता है. हालत यह है कि अब धोखाधड़ी कर के भी आधार कार्ड बनाए जा रहे हैं. उत्तर प्रदेश की स्पैशल टास्क फोर्स यानी एसटीएफ ने कानपुर में ऐसे गिरोह को पकड़ा जो आधार कार्ड बनाने वाली संस्था यूआईडीएआई के सर्वर में सेंधमारी कर के आधार कार्ड बनाता था. गिरोह के लोगों ने ऐसा सौफ्टवेयर बना लिया था जो इस काम में मदद करता था. इस की मदद से फर्जी आधार कार्ड धड़ल्ले से बन रहे थे.

यूआईडीएआई के डिप्टी डायरैक्टर ने इस बात की शिकायत पुलिस में दर्ज कराई थी. पुलिस को जांच में पता चला कि यह काम कानपुर की विश्व बैंक कालोनी में रहने वाले सौरभ सिंह और उस के साथियों द्वारा अंजाम दिया जा रहा है.

विश्व बैंक कालोनी कानपुर शहर के बर्रा थाना क्षेत्र में आती है. पुलिस ने 9 सितंबर को सौरभ को पकड़ा तो उस ने अपने पूरे गिरोह का खुलासा किया. जिस के आधार पर पुलिस ने 10 और लोगों को पकड़ा. इन में शुभम सिंह, सत्येंद्र, तुलसीराम, कुलदीप, चमन गुप्ता और गुड्डू गोंड शामिल थे. ये लोग कानपुर, फतेहपुर, मैनपुरी, प्रतापगढ़, हरदोई और आजमगढ़ के रहने वाले थे. ये लोग यूआईडीएआई के बायोमैट्रिक मानकों को बाइपास कर के फर्जी आधार कार्ड बनाने का काम करते थे.

एसटीएफ के आईजी अमिताभ यश ने बताया कि आधार बनाने वाले गिरोह के सदस्य बायोमैट्रिक डिवाइस से अधिकृत औपरेटर से फिंगर पिं्रट ले लेते थे. उस के बाद बटरपेपर पर लेजर से प्रिंटआउट निकालते थे और कृत्रिम फिंगर प्रिंट निकालते थे.

इस कृत्रिम प्रिंट का उपयोग कर के आधार कार्ड की वैबसाइट पर लौगइन कर के इनरोलमैंट की प्रक्रिया की जाती थी. जब हैकर्स द्वारा क्लोन फिंगर प्रिंट बनाए जाने लगे तो यूआईडीएआई ने फिंगर प्रिंट के साथ ही साथ आईआरआईएस यानी रेटिना स्कैनर को भी प्रोसैस का हिस्सा बना दिया. तब गिरोह ने इस का भी क्लाइंट एप्लीकेशन बना लिया. जिस से वे फिंगर प्रिंट और आईआरआईएस दोनों को बाईपास कर ने में सफल हो गए. यह सौफ्टवेयर 5-5 हजार रुपए में बेचा जाने लगा. इस तरह एक औपरेटर की आईडी पर कई मशीनें काम करने लगीं. इस गिरोह के पास पुलिस को 11 लैपटौप, 12 मोबाइल, 18 फर्जी आधार कार्ड, 46 फर्जी फिंगर प्रिंट, 2 फिंगर प्रिंट स्कैनर, 2 रेटिना स्कैनर और साथ में आधार कार्ड बनाने वाले दूसरे सामान भी मिले.

पुलिस को अभी तक यह पता नहीं है कि इस गिरोह ने कितने फर्जी आधार कार्ड बनाए होंगे. आधार कार्ड बनाने वाले फर्जी औपरेटर का पता लगा कर पुलिस ने यूआईडीएआई को जानकारी दे दी है. यूआईडीएआई से मिली जानकारी के अनुसार, पूरे देश में करीब 81 लाख आधार कार्ड निष्क्रिय किए गए हैं. सरकार जिस आधार कार्ड पर भरोसा कर के देश की हर बीमारी का हल आधार कार्ड में तलाश कर रही है वही आधार कार्ड इतनी बड़ी संख्या में फर्जी निकल रहे हैं. जिस तरह से सरकार ने हर काम में आधार को जोड़ने का काम शुरू किया, उस से बड़ी संख्या में आधार कार्ड का फर्जीवाड़ा होने लगा है. इस की तमाम तरह की खबरें पूरे देश से आ रही हैं. केवल आधार को एकमात्र हल मान कर हर जगह आधार की जरूरत बताई जा रही है, जबकि इस से जनता की गोपनीयता को खतरा पैदा हो रहा है.

गोपनीयता को खतरा

पहले बैंक खाता, पैन कार्ड को आधार से लिंक करने के  बाद अब मोबाइल नंबर को आधार नंबर से लिंक किया जाएगा. सरकार ने फरवरी 2018 तक इस काम को पूरा करने का लक्ष्य रखा है. असल में सरकार जनता को यह बता रही है कि मोबाइल फोन के आधार से लिंक होने से फर्जी मोबाइल नंबर बंद हो जाएंगे, जिस से तमाम तरह के अपराध खत्म हो जाएंगे. आधार कार्ड बैंक खातों और पैन नंबर से लिंक्ड है. साथ में खाताधारकों की व्यक्तिगत जानकारी उस में है. ऐसे में अपराधियों के लिए बैंक के खाते से पैसा निकालने के लिए मोबाइल पर ओटीपी कोड हासिल करना सरल हो जाएगा. जिस से बैंक से पैसा बहुत आराम से निकल जाएगा और खाताधारक को पता ही नहीं चलेगा. यही नहीं, किसी साइबर अपराधी को किसी व्यक्ति का केवल आधार नंबर मिल जाए तो वह उस की पूरी गोपनीय जानकारी हासिल कर सकता है.

जनता को आधार कार्ड के लाभ बताने के लिए सरकार कहती है कि आधार कार्ड जीवनभर की पहचान है, आधार कार्ड को हर सब्सिडी के लिए जरूरी बना दिया गया है. यही नहीं, सरकार द्वारा तमाम तरह के कंपीटिशन के लिए फौर्म भरने से ले कर मार्कशीट तक में इस को जोड़ा जा रहा है. ट्रेन में टिकट में छूट पाने के लिए आधार कार्ड एक सहारा है. अब यह जन्म प्रमाणपत्र से ले कर मृत्यु प्रमाणपत्र तक में जरूरी हो गया है. रिटायर होने वाले कर्मचारियों के लिए पीएफ लेने में यह जरूरी हो गया है.

सरकार ने जिस तरह से आधार कार्ड का महिमामंडन किया है उस से यह उपयोगी कम, सिरदर्द अधिक बन गया है. चूंकि आधार कार्ड भी फर्जी तरह से बनने लगे हैं, इसलिए यह साफ है कि आधार भी उतना सुरक्षित नहीं है जितना सरकार दावा कर रही है. ऐसे में सारी जानकारी एक ही जगह देनी परेशानी का सबब बन सकता है.

चुनावी भंवर : धर्म की चाशनी पर हावी विकास की कुनैन

हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभाओं के चुनाव भाजपा के लिए अग्निपरीक्षा सरीखे हैं. अपने विकास के दावों पर उसे खरा उतरना है. वह बचाव की मुद्रा में है.  कांग्रेस के पास खोने को अधिक नहीं है. हिमाचल प्रदेश में तो दोनों पार्टियां 5-5 साल बारीबारी से लूटपाट करती रही हैं. गुजरात में 22 वर्षों से सत्तारूढ़ भाजपा को पराजय की आशंका सता रही है. इन चुनावों में अगर भाजपा हारती है तो यह उस के लिए बड़ा झटका होगा.

देश की भाजपा सरकार देशविदेश में अपनी कथित उपलब्धियों का ढोल पीटती रही है और विकास करने के बड़ेबड़े दावे करती नहीं अघाती. गुजरात को वह मौडल स्टेट के तौर पर प्रचारित करती आई है. पर, कुछ महीनों से गुजरात से निकलते गुस्से को देख कर वह सहमी हुई है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अक्तूबर में जब दौरे शुरू किए और उन की सभाओं में अप्रत्याशित भीड़ दिखने लगी तो गुजरात को अपनी जागीर समझ रही भाजपा भयभीत दिखाई देने लगी.

सहमी भाजपा

गुजरात में 22 वर्षों से एकछत्र राज करने वाली भाजपा को इस चुनाव में पसीने छूट रहे हैं. मोदी और भाजपा का करिश्मा फीका नजर आ रहा है. मोदी और भाजपा द्वारा गुजरात को विकास का पर्याय बताया गया पर राज्य में इस तथाकथित विकास को ले कर आम जनता आक्रोशित दिखाई दे रही है. और गुजरातवासियों के इस आक्रोश को भुनाने का कांग्रेस कोई मौका नहीं गंवाना चाहती.

भाजपा द्वारा दावा किया जाता रहा है कि प्रदेश में खूब विकास हुआ है जबकि राज्य के हालात ठीक नहीं हैं. पिछले 2 वर्षों से यहां 3 बड़े जातीय आंदोलन चल रहे हैं-पाटीदार आरक्षण आंदोलन, ओबीसी आंदोलन और दलित आंदोलन. इन के अलावा किसान, आदिवासी, विमुक्त जातियां भी सरकार से नाखुश हैं. समयसमय पर ये वर्र्ग भी रैलियों, सभाओं के जरिए अपना आक्रोश व्यक्त कर चुके हैं पर सरकार ने इन लोगों की मांगों को गंभीरता से नहीं लिया और इन वर्गों की आवाज तथाकथित विकास के नगाड़ों के शोर में दब कर रह गई.

गुजरात इस बार जातीय समीकरणों की रस्साकशी में उत्तर प्रदेश, बिहार सा बन गया है. सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस दोनों पाटीदारों, पिछड़ों और दलितों को अपनेअपने पाले में करने में जुटी हैं. कांग्रेस ने राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पहले ही गुजरात में इंचार्ज बना कर भेज दिया था. गहलोत पिछड़े वर्ग से आते हैं और पिछड़े बहुल गुजरात को लुभाने के लिए कांग्रेस ने ऐसे ही और जातीय लुभाऊ नेताओं की फौज भेज दी है. दलितों और मुसलमानों के एकसाथ आने से भाजपा की चिंता बढ़ गई है.

जातियों का खेल

गुजरात में 40 प्रतिशत ओबीसी, 11 प्रतिशत क्षत्रिय, 7 प्रतिशत दलित, 14.75 प्रतिशत आदिवासी, 12 प्रतिशत पटेल, 9 प्रतिशत मुसलमान हैं. ओबीसी में 22 प्रतिशत कोली, 20 प्रतिशत ठाकोर और 58 प्रतिशत अन्य जातियां हैं. इन में मुसलमानों को छोड़ कर दोनों दल इन जातियों को लुभाने में जुटे हैं.

जातियों का खेल पहली बार 1985 में कांग्रेस नेता माधव सिंह सोलंकी ने क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलिमों (खाम) को साध कर खेला था और 149 सीटें जीती थीं. उधर, भाजपा ने भी देशभर से अपने दलित, पिछड़े, आदिवासी मंत्रियों, सांसदों व अन्य नेताओं की खेप गुजरात में पसार दी है. समूचा गुजरात इस बार जातीय रणक्षेत्र में तबदील होता दिखाई दे रहा है. करीब 32 वर्षों बाद प्रदेश एक बार फिर जातीय दलदल के भंवर में फंसा है.

पिछले 2 वर्षों में प्रदेश में हुए 3 बड़े जातीय आंदोलनों ने प्रदेश सरकार की जड़ें हिला दीं. इन आंदोलनों से हुए नुकसान को कम करने के लिए केंद्र और गुजरात सरकारों ने हिमाचल प्रदेश के चुनाव की तारीख घोषित किए जाने के बाद से गुजरात में घोषणाओं की झड़ी लगा दी. इस में पाटीदार आंदोलनकारियों के 400 से अधिक मुकदमे वापस लेने का फैसला, सफाईकर्मचारियों की अनुकंपा नियुक्ति, एसटी कर्मचारियों के लंबित एचआरए भुगतान के फैसले सहित करीब 35 घोषणाएं शामिल हैं.

एक बड़ी घोषणा, किसानों को 3 लाख रुपए तक का ब्याजमुक्त ऋण देने की है. ज्यादातर किसान पाटीदार, पिछड़े और आदिवासी हैं.

इधर, कांग्रेस जातिगत आंदोलनों को पीछे से समर्थन दे कर इन का साथ जुटाने के प्रयास में है. ओबीसी आंदोलन के बड़े नेता अल्पेश ठाकोर तो कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं. पटेल आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल भले ही अभी कांग्रेस के साथ नहीं हैं पर वे अपने भाषणों में भाजपा को हराने की अपील कर रहे हैं. अहमदाबाद में राहुल गांधी के साथ मुलाकात के उन के सीसीटीवी फुटेज भी चर्चा में रहे हैं.

उधर, दलित नेता जिग्नेश मेवाणी भी राहुल गांधी से मिले थे. मेवाणी कहते हैं कि वे न तो कांग्रेस में शामिल होंगे, न अन्य किसी पार्टी में और न ही किसी पार्टी के लिए वोट मांगेंगे. हां, वे अपने समुदाय के लोगों से भाजपा को हराने की अपील जरूर करेंगे. हम ने कांग्रेस के सामने 17 मांगें रखी हैं. इन में से 90 प्रतिशत मांगों पर कांग्रेस सहमत हो गई है.

मेवाणी के इस कथन से साफ है कि वे और दलित समुदाय भाजपा को वोट नहीं देंगे, यानी दलित सीधेसीधे कांग्रेस के पक्ष में रहेंगे.

गुजरात में 182 विधानसभा सीटों के लिए 2 चरणों-9 और 14 दिसंबर को हो रहे चुनाव में प्रदेश के करीब 4.33 करोड़ मतदाता मतदान करेंगे.

जातीय आंदोलनों ने यहां का सामाजिक और राजनीतिक माहौल बदला है. सरकार के खिलाफ दलित, पिछड़े, पाटीदार और मुसलमान तो हैं ही, नोटबंदी और जीएसटी के बाद व्यापारी वर्ग भी सरकार से नाराज है और वह सड़कों पर आंदोलन के लिए उतर चुका है. मोदी और अमित शाह इन तमाम वर्गों का गुस्सा भांप चुके हैं और डैमेज कंट्रोल में जुटे हैं. पर इन सभी वर्गों के तेवरों से लगता है कि वे 22 वर्षों से राज करती आ रही भाजपा को गहरा सबक सिखाने की ठान चुके हैं.

भाजपा ने मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए रखने के लिए गुजरात में 150 सीटों का मिशन रखा है हालांकि मैदान में आधे से ज्यादा नए चेहरे उतारे जा रहे हैं क्योंकि मौजूदा विधायकों में से 50 के हार जाने के अंदेशे से उन के टिकट काटे जाने की बातें की जा रही हैं.

राहुल के दौरे

कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी लगातार गुजरात दौरे कर रहे हैं और वे जनता को भाजपा के खिलाफ हवा दे रहे हैं. उन्होंने पिछले कुछ दिनों से अपनी छवि को काफी बेहतर कर लिया है. उन्होंने नया कुछ नहीं किया है, केवल जनता की दुखती रग पर हाथ धरा है. वे इस में कामयाब होते भी दिख रहे हैं. राहुल गांधी नोटबंदी, जीएसटी को ले कर मोदी और अरुण जेटली को तो निशाने पर ले ही रहे हैं, गुजरात के विकास पर भी तीखे सवाल खड़े कर रहे हैं.

राहुल गांधी बारबार, ‘विकास लापता है, विकास पागल हो गया है,’ जैसे जुमले उठा कर केंद्र और राज्य दोनों सरकारों पर हमलावर हो रहे हैं. राहुल गांधी के सवालों पर भाजपा नेता बौखलाते दिख रहे हैं. राहुल की सभाओं, रैलियों में भीड़ जुट रही है जबकि अमित शाह और दूसरे भाजपा नेताओं की रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए स्थानीय भाजपा नेताओं को पसीने बहाने पड़ रहे हैं.

इस बार कांग्रेस की भाजपा को छकाने की रणनीति से केंद्र और प्रदेश सरकारें बचाव की मुद्रा में दिखाई दे रही हैं. राहुल गांधी के बारबार दौरों से भाजपा की पेशानी पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही हैं. राहुल गांधी यहां मंदिरों में गए तो तुरतफुरत मोदी के दौरे हुए और उन्होंने भी मंदिरों की परिक्रमा की. सोमनाथ, अक्षरधाम मंदिर गए और स्वामीनारायण संप्रदाय प्रमुख का जम कर स्तुतिगान किया. पिछड़े समुदाय को खुश करने के लिए वे उन जगहों पर जा रहे हैं जहां यह वर्ग बड़ी तादाद में संत, साधुओं का अनुयायी है. स्वामीनारायण संप्रदाय से प्रदेश का ज्यादातर पिछड़ा समुदाय जुड़ा हुआ है. बड़ी संख्या में पटेल, पाटीदार भी ऐसे आश्रमों के अनुयायी हैं.

भाजपा की रैलियों में भीड़ नहीं है. खाली कुरसियां देख कर बड़े नेता सभाओं में मंचों पर जा नहीं रहे हैं. पार्टी ने हिंदुत्व के फायरब्रैंड नेता और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को भी गुजरात भेजा और रैली कराई गई पर यह रैली भी फ्लौप सिद्ध हुई. रैली में जनता नहीं जुटी. यही हाल हिमाचल प्रदेश में भाजपा के बड़े नेताओं की रैलियों व सभाओं का रहा. वहां भी राजनाथ सिंह की सभा में कुरसियां खाली रहने की वजह से उन्हें वहां जाने से रोक दिया गया और स्थानीय नेताओं को अपने भाषणों से ही जनता को बहलाना पड़ा.

हिमाचल की उदासीनता

68 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में हिमाचल प्रदेश में कुल 349 उम्मीदवार मैदान में थे.  दोनों पार्टियों के कई नेता भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे हैं. सत्तारूढ़ कांग्रेस के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह तो जमानत पर हैं. उन के परिवार के सदस्य भी आरोपी हैं. 3 बार केंद्रीय मंत्री और 7वीं बार मुख्यमंत्री बनने का दावा करने वाले प्रदेश के इस मुखिया पर आय से अधिक संपत्ति के कई मामले दर्ज हैं. उन के पुत्र और शिमला ग्रामीण विधानसभा सीट से उम्मीदवार विक्रमादित्य सिंह पर अचानक 1 करोड़ से सीधे 84 करोड़ की संपत्ति बना लेने का आरोप है.

सत्तासीन कांग्रेस के 10 मंत्री और 8 कैबिनेट सचिव भी दोबारा मैदान में हैं. कुल 338 प्रत्याशियों में से केवल 19 महिलाओं को ही टिकट दिया गया है.

उधर, 2 बार मुख्यमंत्री रहे प्रेमकुमार धूमल पर भी घोटालों का कलंक है. फिर भी भाजपा ने उन पर दांव लगाया है. पूर्व केंद्रीय मंत्री और भ्रष्ट शिरोमणि कांग्रेसी नेता पंडित सुखराम अपने पुत्र अनिल शर्मा समेत भाजपा में शामिल हो कर पुत्र को पार्टी का टिकट दिलाने में बाजी मार गए.

हिमाचल में इस बार चुनावों को ले कर मतदाताओं में कोई उत्साह नहीं रहा. राजनीतिक दलों में भी पहले जैसी गहमागहमी और भागमभाग नहीं दिखाई दी. प्रदेश की जनता दोनों प्रमुख दलों के प्रति खामोश व उदासीन नजर आई.

बागी उम्मीदवारों की समस्या से कांग्रेस व भाजपा दोनों को ही समानरूप से दोचार होना पड़ा है. भाजपा के 9 तो कांग्रेस के 11 बागी नेताओं ने मैदान में पार्टी के अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ खम ठोका.

भाजपा को हिमाचल में मोदी लहर और एंटी इंकंबैंसी का फायदा मिलने की उम्मीद है तो कांग्रेस को केंद्र की मोदी सरकार की नीतियों और फैसलों के चलते जनता की नाराजगी का लाभ मिलने की आस है. कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि नोटबंदी, जीएसटी और बुलेट ट्रेन चलाने जैसे फैसलों से लोगों में नाराजगी है. दावा है कि भाजपा और उस के सहयोगी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा हिंदुत्व एजेंडे को ले कर समाज में नफरत फैलाने के प्रयासों के कारण कांग्रेस फिर से सत्ता में आ जाएगी.

यहां भी भाजपा को नोटबंदी और जीएसटी जैसे मुद्दों पर बचाव का सामना करना पड़ा. केंद्र की सत्ता की ताकत को अगर देखा जाए तो भाजपा में मौजूदा समय में कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिस का प्रदेश के सभी 68 निर्वाचन क्षेत्रों में प्रभाव हो. पार्टी मोदी के नाम के सहारे चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है.

2012 में हुए विधानसभा चुनावों में मात्र 5 प्रतिशत मतों के अंतर ने ही भाजपा को मिशन रिपीट के लक्ष्य को पराजय में बदल दिया था. उस चुनाव में कांग्रेस ने जहां 42.81 प्रतिशत मत के साथ 36 विधायकों को ले कर सरकार बनाने में सफलता पाई थी, वहीं तब की सत्तारूढ़ भाजपा को 38.47 प्रतिशत मतों के साथ 26 विधायकों को ले कर विपक्ष में  बैठना पड़ा था.

अगर 2014 के लोकसभा चुनाव को देखें तो वह चुनाव एकतरफा दिखाईर् दिया. भाजपा को उस चुनाव में प्रदेश की सभी चारों संसदीय सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

2012 के चुनावों में तब की भाजपा सरकार के विरुद्ध कोई खास मुद्दा नहीं था, उसी तरह इस बार कांग्रेस सरकार के पिछले 5 सालों के कार्यकाल से भी जनता की कोई खास नाराजगी नहीं दिखी. पिछली भाजपा सरकार अपनी आंतरिक कलह और भितरघात के कारण पिछड़ गई थी उसी तरह के हालात अब कांग्रेस के भी हैं. फिर भी भाजपा और कांग्रेस उम्मीदवारों में सीधी टक्कर होने से इतना तो स्पष्ट है कि प्राप्त होने वाले मतों के प्रतिशत में चाहे बहुत अंतर न हो, पर सीटों पर जीत के मामले में नतीजे अप्रत्याशित हो सक हैं.

गुजरात का गुस्सा

राज्य की कुल 182 विधानसभा सीटों के लिए 9 और 14 दिसंबर को 2 चरणों में होने वाले चुनावों की सरगरमी तेज है. गुजरात का भाजपाई गढ़ हिलता दिख रहा है. राज्य के 3 जातीय आंदोलन पार्टी को भारी पड़ रहे हैं. हालांकि ये तीनों आंदोलन परस्पर एकदूसरे के खिलाफ दिखाई देते हैं. ओबीसी के नेता अल्पेश ठाकोर ने पाटीदारों को ओबीसी में शामिल किए जाने की मुहिम के खिलाफ आंदोलन शुरू किया क्योंकि ओबीसी जातियां नहीं चाहतीं कि पाटीदारों को आरक्षण दे कर उन का हिस्सा बांट दिया जाए.

उधर, ऊना घटना के आरोपी ओबीसी समुदाय के होने की वजह से दलित आंदोलन ओबीसी के विरोध में हुआ. दलितों का उत्पीड़न अधिकतर पिछड़े समुदाय द्वारा किया जा रहा है. इन दोनों समुदायों में परस्पर आगे बढ़ने की होड़ दिखाई देती है. दोनों ही वर्गों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण मिला हुआ है.

पाटीदार आंदोलन

2015 में आरक्षण की मांग को ले कर पाटीदारों ने आंदोलन शुरू किया था. इस आंदोलन में हार्दिक पटेल नेता के तौर पर उभर कर सामने आए. हार्दिक पटेल सहित आंदोलन के युवा नेताओं का पाटीदार समाज के युवाओं पर खासा असर है. यह वर्ग प्रदेश की समृद्धि और भाजपा का समर्थक माना जाता रहा है पर अब यह वर्ग खिलाफ खड़ा है और भाजपा को चुनौती दे रहा है.

हार्दिक पटेल पर मुकदमा कायम कर गुजरात से दरबदर के आदेश दिए गए और पड़ोसी राज्य राजस्थान में 6 महीने के लिए नजरबंद कर रखा गया. इस आंदोलन से निबटने में नाकाम रहने पर आनंदीबेन पटेल को मुख्यमंत्री पद से रुखसत होना पड़ा था.

पिछड़ा वर्ग आंदोलन

पाटीदार आंदोलन के विरोध में ओबीसी आंदोलन शुरू हुआ. इस आंदोलन में नेतृत्व के रूप में अल्पेश ठाकोर का चेहरा सामने आया. ओबीसी नेताओं ने सरकार से कहा कि पाटीदारों को ओबीसी में  शामिल न किया जाए. यह वर्ग इस दौरान गरीबों, मजदूरों, किसानों के मुद्दों पर भी सरकार को घेरता रहा है. अल्पेश ठाकोर अब कांग्रेस में शामिल हो गए हैं.

दलित आंदोलन

ऊना कांड जुलाई 2016 में हुआ था. कथित गौरक्षकों ने मृत पशुओं की चमड़ी उतार रहे दलित युवकों को बेरहमी से पीटा था. मामला सामने आने पर देशभर के दलित समुदाय समेत दूसरे लोगों में भी आक्रोश दिखाईर् दिया. दलित संस्थाएं आगे आईं और मिल कर भाजपा के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. आंदोलन के अगुआ के रूप में 35 वर्षीय युवा एडवोकेट जिग्नेश मेवाणी सामने आए.

आंदोलन में प्रदेशभर के लाखों दलित जुटे. करीब 20 हजार दलितों को मैला न उठाने, मृत पशुओं को न उठाने की शपथ दिलाई गई.

अब भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पाटीदार नेता हार्दिक पटेल और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को अपनेअपने पाले में करने में जुटी दिख रही हैं. भाजपा  पाटीदार आंदोलन के नेताओं को तोड़ने के हथकंडे भी आजमा रही है. कुछ नेताओं को मोटा पैसा देने का लालच देने की खबरें आ रही हैं. पटेल आंदोलन के एक नेता नरेंद्र पटेल को पार्टी में लेने के लिए एक करोड़ रुपए की घूस देने का मामला सामने आया. भाजपा हार्दिक पटेल और राहुल गांधी की होटल में मुलाकात की खुफियागीरी करवा चुकी है.

केंद्र सरकार की नीतियों और फैसलों का राज्यों पर बुरा असर पड़ रहा है. वह चाहे नोटबंदी का फैसला हो या जीएसटी लागू करने का. इन फैसलों से आम जनता पर ही नहीं, छोटेबड़े दुकानदारों पर भी बुरा असर पड़ा. सरकार के इन फैसलों से लाखों कारोबारी बरबाद हो गए.

गुजरात में युवाओं के लिए नौकरी का मुद्दा भी अहम है. यहां भाजपा की घबराहट का आलम यह है कि जिस दिन चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश में चुनाव की तारीखों का ऐलान किया, उस के बाद से ही यहां ताड़बतोड़़ घोषणाएं, शिलान्यास और उद्घाटन किए गए. केंद्र सरकार ने 11 हजार करोड़ रुपए के प्रोजैक्ट की घोषणा कर डाली. केंद्र सरकार जीएसटी में यू टर्न लेती दिखी. करीब 100 वस्तुओं में जीएसटी में छूट देने की बात कही गई. प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात में 650 करोड़ रुपए की रोरो फेरी सेवा का उद्घाटन किया. 78 करोड़ रुपए किसानों को देने की घोषणा की गई. फ्लाईओवर, वाटर ट्रीटमैंट प्लांट, कूड़ा प्रोसैसिंग की करोड़ों रुपए की योजनाओं का ऐलान किया गया.

कहां है विकास?

भाजपा के हिंदुत्व की चाशनी विकास की कुनैन पर हावी दिखाईर् दे रही है. जनता पूछ रही है, कहां है विकास? दलित, पिछड़े, किसान, आदिवासी, व्यापारी वर्ग समेत विपक्षी पार्टियां विकास पर प्रश्न खड़े कर रही हैं. ‘विकास’ को ढूंढ़ा जा रहा है.

पार्टी के हिंदुत्व मुद्दे ने देशभर में नफरत, हिंसा का माहौल पैदा किया. गौरक्षा के नाम पर निर्दोष लोगों को मारा गया. राममंदिर मुद्दा लोगों को फुजूल का लगा क्योंकि भाजपा पिछले करीब 30 सालों से इस मुद्दे को भुनाती आ रही है.

भाजपा किस तरह के विकास की बात कर रही है? विकास का पैमाना क्या है? गुजरात में लोग रोजगार के लिए अब कम जा रहे हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार के लोगों का पलायन रोजगार देने वाले राज्यों और शहरों की तरफ देखा गया है पर गुजरात में बिहार के लोग अधिक नहीं हैं. उलटे, महाराष्ट्र की ओर अधिक जा रहे हैं, जो मनसे जैसे दलों की आंख की किरकिरी बने दिखते हैं.

किसी राज्य के विकास का मतलब है उस राज्य की ओर दूसरे पिछड़े राज्यों के लोगों का रुझान, पर गुजरात में ऐसा नहीं दिखता. अब तो खुद गुजरात के छोटेमोटे व्यापारी दूसरे राज्यों में अपना व्यापार तलाश रहे हैं. विकास के नाम पर उजाड़ दिए गए लाखों लोगों को रोजीरोटी मुहैया न करा पाना विकास के दावों की पोल खोलने के लिए काफी है. झुग्गीझोंपड़ी वालों को दूसरी जगह बसा तो दिया गया पर यह नहीं देखा गया कि उन परिवारों को रोजगार मिला कि नहीं, उन के बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं उपलब्ध हो पा रही हैं या नहीं.

किसी भी पार्टी या सरकार के लिए 22 वर्षों का समय कम नहीं होता. इस अवधि में पूरी एक पीढ़ी जवान हो जाती है. प्रदेश में झुग्गी और कच्ची बस्तियों में रहने वालों की तादाद लाखों में हैं. इन में अधिकतर निचली जातियां और मुसलमान हैं. 22 वर्षों में जवान हो चुके, झुग्गी, कच्ची बस्ती में पलेबढे़ बच्चे, आज भी उन्हीं हालात में देखे जा सकते हैं.

साबरमती के ऊपर से गुजरने वाले नेहरू ब्रिज नाका के सामने चांद सईद की दरगाह है. इस के आसपास करीब 150 कच्चे मकानों में रहने वाले लोगों के हालात आज भी बदतर हैं. इस बस्ती के निवासी नईम मुहम्मद कहते हैं, ‘‘यहां पहले करीब 7 हजार झुग्गियां होती थीं. कुछ झुग्गियां अभी भी ऊंची इमारतों के नीचे रह गई हैं. बाकी झुग्गियों को हटा कर लोगों को बटवा रेलवे क्रौसिंग के पास

4-मंजिले भवन में फ्लैट दे दिए गए, पर अभी तक सभी लोगों को नहीं मिले हैं. जो लोग हटा दिए गए उन के रोजगार पर भी असर पड़ा. सरकार ने इन लोगों की रोजीरोटी का खयाल नहीं रखा. बस, साबरमती को चमकाने के लिए यहां रिवरफ्रंट बना दिया गया. इस तरह विकास के नाम पर लोगों को उजाड़ा गया है. इस तरह के कामों से किस का विकास हुआ है?’’

नईम कहते हैं, ‘‘इस तरह की झुग्गियां खानपुर इलाके में भी हैं. शहर के वडाज इलाके में सब से बड़ी झुग्गी बस्ती के बाशिंदों को मल्टीलैवल फ्लैट बना कर देने का काम चल रहा है.’’

यहां के आश्रम रोड से रिलीफ रोड जाने के लिए नेहरू ब्रिज चौराहे के एक कोने पर बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ है. इस पर लिखा है, ‘हूं छू विकास, हूं छू गुजरात’. बोर्ड पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और मुख्यमंत्री विजय रूपाणी की फोटो लगी हुई हैं पर इसी बोर्ड के नीचे चौराहे से लगभग 100 मीटर के फासले पर 5-7 साल की एक अधनंगी बच्ची फुटपाथ पर बैठी कटोरे में कुछ खा रही थी. पास में चूल्हा और पानी के 2 बरतन रखे हुए थे. चूल्हे के पास ही टूटी हुई चारपाई पर एक आदमी सो रहा था. यह कैसा विकास है?

विकास के बोर्ड को को मुंह चिढ़ाता फुटपाथ पर बैठा यह एक परिवार ही नहीं, इसी पुल से नीचे उतरते ही 5-7 ऐसे और भी परिवार फुटपाथ पर जिंदगी बसर करते देखे गए. पूछने पर बताया गया कि ये परिवार यहां कई सालों से रह रहे हैं.

अस्तव्यस्त गुजरात

रतन पोल, मानेक चौक, गांधी रोड पर अस्तव्यस्त यातायात देखा जा सकता है. सड़कों, गलियों में आड़ेतिरछे वाहन खड़े हैं जो आनेजाने वालों के लिए बाधाएं खड़ी करते हैं. इस इलाके की सड़कें टूटी हुई हैं. रतन पोल के बाजार से हो कर गांधी मार्ग को जोड़ने वाली सड़क का बुरा हाल है. आधाआधा फुट के गड्ढे हैं. दुकानों के आगे कूड़ेकचरे के ढेर लगे हैं. यह अहमदाबाद का सब से व्यस्ततम मार्केट माना जाता है. नवाब सुलतान अहमद शाह के बनाए गए 3 दरवाजे के आसपास फुटपाथ पर छोटीछोटी दुकानों का जमावड़ा बिखरा हुआ है. किसी तरह का नियोजित विकास दिखाई नहीं देता.

यह हाल सिर्फ अहमदाबाद का नहीं, गुजरात में राजस्थान की ओर से प्रवेश करते ही पालनपुर, ऊंझा और मेहसाणा जैसे बड़े शहर आते हैं. इन शहरों में भी घुसते ही विकास की पोल खुलनी शुरू हो जाती है. ऊंचेऊंचे फ्लैटों की बगल की झुग्गियां और कच्चे मकान गुजरात की गरीबी का खुलेआम प्रदर्शन करते हुए विकास के दावों की धज्जियां उड़ाते प्रतीत होते हैं.

गुजरात में जो लोग विकास पर सवाल उठा रहे हैं उन पर राष्ट्रद्रोह के मामले थोपे जा रहे हैं. वे चाहे विस्थापितों के पुनर्वास को ले कर आंदोलन करने वाली मेधा पाटेकर हों, गुजरात दंगा पीडि़तों के लिए लड़ने वाली तीस्ता शीतलवाड़ हों, पूर्व ब्यूरोक्रैट हर्ष मंदर हों, पाटीदार आरक्षण आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल हों या ऊना के दलितों पर हुए अमानुष व्यवहार के खिलाफ आंदोलन कर दलितों को एकजुट कर आवाज उठाने वाले दलित नेता जिग्नेश मेवाणी हों. सरकार ने ऐसे लोगों का दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

29 अक्तूबर को जब यह प्रतिनिधि अहमदाबाद में था, यहां के सिविल अस्पताल में 3 दिनों में 24 बच्चों की मौत हो गई. लिहाजा, विकास का ढिंढोरा पीट रहे गुजरात के सत्तारूढ़ नेताओं को नहीं लगता कि यह राज्य भी चिकित्सा सेवाओं की बदहाली के लिए बदनाम उत्तर प्रदेश, झारखंड की श्रेणी में खड़ा है. लोग बताते हैं कि अब भी सरकारी दफ्तरों में घूसखोरी चल रही है, बिना लिएदिए कोई काम नहीं होता.

अहमदाबाद शहर में प्रवेश करते ही बहुमंजिले फ्लैटों के नीचे झुग्गी, कच्ची बस्तियां नजर आती हैं. रिलीफ रोड, गांधी रोड, रतन पोल, तीन दरवाजा एरिया दिल्ली के सब से भीड़भाड़ वाले चांदनी चौक, खारी बावली, नई सड़क, जामा मसजिद जैसे हैं. इन क्षेत्रों में कपड़ा, ड्राईफू्रट्स, नई व पुरानी किताबों व अन्य सामानों का सब से बड़ा मार्केट है पर यहां सड़कें टूटीफूटी हैं, दुकानों के आगे कूड़े के ढेर लगे हैं, बेतरतीब वाहन आजा रहे हैं.

शाम के समय बाजार में भीड़ काफी है पर दुकानदारों का कहना है कि खरीदार कम हैं. नोटबंदी और जीएसटी का बुरा असर पड़ा है. रेडिमेड कपड़ों के व्यापारी रईस अहमद कहते हैं कि बाजार में कुछ लोग घूमने आते हैं, कुछ तफरीह के लिए, कुछ खानेपीने के लिए पर खरीदारी के लिए कम ही ग्राहक हैं. पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी ने दुकानदारों की कमर तोड़ दी है.

साबरमती के किनारे बनाया गया रिवरफ्रंट दिखने में अच्छा है पर शाम के वक्त भी यहां बहती नदी का नजारा देखने वाले दिखाई नहीं देते. इस नदी के किनारे पहले 7-8 हजार झुग्गियां थीं पर अब वे यहां से हटा दी गईं. अब यहां पुराने शहर और नए शहर को जोड़ने वाले नेहरू ब्रिज, गांधी ब्रिज, एलिस ब्रिज के पास रिवरफ्रंट बना दिखाई देता है.

प्रदेश में 1967 में पहली विधानसभा से ले कर 1977 तक कांग्रेस का एकछत्र राज रहा. 1980 में जनता पार्टी के टूटने के बाद भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई. 1985 के बाद से एक बार कांग्रेस और एक बार भाजपा को सत्ता मिलती रही. 1990 में जनता दल के साथ गठबंधन में 58 सीटें जीत कर पहली बार राज्य में भाजपा सरकार बनी थी. तब से वह हिंदुत्व के मुद्दे को भुनाती आ रही है. इस दौरान बाबरी विध्वंस से ले कर गोधरा कांड और गुजरात दंगों का दंश लोगों को झेलना पड़ा. प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव का माहौल बना रहा.

2002 में नरेंद्र मोदी भारी बहुमत के साथ जीत कर आए थे. उसी साल फरवरी में गोधरा कांड हुआ था और इस मुद्दे पर हिंदुओं का ध्रुवीकरण करने में वे कामयाब रहे. बाद में 2007 और 2012 के चुनाव मोदी की अगुआई में लड़े गए. 2012 का चुनाव विकास और सौफ्ट हिंदुत्व के एजेंडे पर लड़ा गया. कांग्रेस यहां बुरी तरह से परास्त हुई थी. उस चुनाव के बाद मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन गए थे.

दरअसल, भाजपा के हिंदुत्व के ध्वजवाहक गुजरात में ही नहीं, समूचे देश में पिछड़े वर्ग के  लोग हैं जो अतीत में शूद्र होने के कारण पूजापाठ से वंचित रहते आए थे. अब पिछले 60-70 सालों से यह वर्ग ब्राह्मण बनने की होड़ में जुटा हुआ है. देशभर में बड़ी संख्या में इस वर्ग ने अपने मंदिर, आश्रम बना लिए. अपने पंडेपुरोहित, अपने गुरु, साधु, संत और अपने देवीदेवता गढ़ लिए. इन 6-7 दशकों में इस वर्ग के पास खूब पैसा आया, यह राजनीति में बढ़चढ़ कर उतरा और सत्ता की मलाई में हिस्सा पाने लगा.

लेकिन जो वास्तविक राज है वह अभी भी ब्राह्मणों के हाथों में ही है. नीतियां वही लोग बनाते हैं. इन्हें तो बस थोड़ा सा टुकड़ा फेंक दिया जाता है. इन्हें हिंदुत्व के लठैत के रूप में आगे रखा गया. अब इस वर्ग को लग रहा है कि जिन लोगों को इन्होंने सत्ता में बिठाया, वे उन के लिए कुछ नहीं कर रहे. उन की शिक्षा, नौकरी, व्यापार में तरक्की के बजाय उलटे रोड़े अटकाए जा रहे हैं. इसलिए अब इन वर्गां का गुस्सा बाहर निकलने लगा है.

जो नीतियां बनाई जा रही हैं वे भेदभाव वाली और केवल कुछ लोगों को आगे बढ़ाने वाली हैं. पाटीदारों को लगा कि उन के पास खेती, जमीन तो है पर सरकारी दफ्तरों में उन की संख्या नहीं है. गुजरात में आज भी दलित सामाजिक बहिष्कार के हालात का सामना कर रहे हैं.

इस का असर निश्चिततौर पर 2019 के आम चुनावों पर पड़ेगा. धर्म की कट्टरता और विकास दोनों साथसाथ नहीं चल सकते. जहां धर्म होगा वहां विकास की कल्पना करना बेकार है. हिंदुत्व की लैबोरेटरी से नफरत, भेदभाव, सामाजिक विभाजन, अशांति ही पैदा हो सकती है.

भाजपा को सबक सिखाएंगे : हार्दिक पटेल

पिछले 2 वर्षों से पाटीदार अनामत आंदोलन समिति के बैनर तले पाटीदार समुदाय को आरक्षण दिलाने की मांग को ले कर आंदोलन चला रहे हार्दिक पटेल भाजपा सरकार से बहुत नाराज हैं. वे कहते हैं, ‘‘वे 1985 में आरक्षण का विरोध कर रहे थे पर अब आरक्षण मांग रहे हैं क्योंकि हाल की परिस्थितियां बदल गई हैं. एक समय उन्होंने इन लोगों को सत्ता में बैठाया था और आज ये लोग धमकी व दादागीरी पर उतर आए हैं. कांग्रेस के साथ हमारी बातचीत हुई है. वह कई मांगें मानने को तैयार है.’’

हार्दिक पटेल किसी भी दल को समर्थन या वोट नहीं देने की बात कहते हैं. वे बताते हैं कि उन्हें भाजपा को हराना है.

विकास  के सवाल पर हार्दिक का कहना है, ‘‘प्रदेश में 50 लाख युवा बेरोजगार हैं. हर वर्ग का युवा गुस्से में हैं. किसान, आदिवासी परेशान हैं. 80 लाख किसानों पर कर्जा है. खेती के लिए जरूरी डीएपी खाद का भाव पूरे देश की तुलना में गुजरात में 90 रुपए महंगा है.’’

दलितों की हर कदम पर उपेक्षा हुई : जिग्नेश मेवाणी 

दलितों की आवाज बन कर उभरे गुजरात के युवा दलित नेता जिग्नेश मेवाणी देशभर में इस समुदाय पर हो रहे हमलों के लिए भाजपा सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे कहते हैं, ‘‘भाजपा का एजेंडा हिंदुत्व है और इस सरकार के रहते दलितों का भला नहीं हो सकता. गुजरात सरकार ने कुछ वर्षों पहले लैंड सीलिंग एक्ट के तहत ली गई जमीन को भूमिहीन दलितों को देने की योजना बनाई थी. अहमदाबाद के धंधुका तहसील में 1984 में 21 सौ एकड़ जमीन का कागजों में आवंटन कर दिया गया पर हकीकत में यह जमीन दलितों को दी ही नहीं गई. इस साल हम ने इस जमीन के आवंटन के लिए मुख्यमंत्री को घेरा, कलैक्टर को प्रार्थनापत्र दिया पर कोई कार्यवाही नहीं हुई.’’ गुजरात हाईकोर्ट में पेशे से वकील जिग्नेश कहते हैं कि उन्होंने भूमिहीन दलितों को जमीन देने के लिए कई याचिकाएं दायर की हैं.

मेवाणी उस समय राष्ट्रीय फलक पर आए जब ऊना में कथित गौरक्षकों ने दलित युवकों के साथ अमानुषिक व्यवहार किया था. इस मामले को ले कर आंदोलन खड़ा करने वाले 35 वर्षीय जिग्नेश की दलितों के हक की आवाज देशभर में पहुंची. राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच के बैनर तले चल रहे इस आंदोलन में गुजरात समेत दूसरे राज्यों के दलित भी आ जुटे. उन्होंने इस हिंसा के विरुद्ध रैली निकाली और 20 हजार दलितों को एकसाथ मरे हुए जानवर न उठाने और मैला न ढोने की शपथ दिलाई. मेवाणी ने कहा था कि दलित अब सरकार से अपने लिए दूसरे काम की बात करेंगे.

जिग्नेश मेवाणी वाईब्रैंट गुजरात का विरोध भी कर चुके हैं. वे कहते हैं, ‘‘सरकार वाईब्रैंट गुजरात के नाम पर औद्योगिक घरानों के साथ हुए करार में उन्हें धड़ाधड़ जमीनें दे रही है पर दलितों को, कानून होने के बावजूद, जमीन का हक नहीं दिया जा रहा है.’’ अब उन्होंने दलितों की उपेक्षा, भेदभाव, अत्याचार को ले कर भाजपा को सबक सिखाने की ठान ली है.

गुजरात की जनता का रुख बदल रहा है : हर्षिल नायक, प्रवक्ता, आम आदमी पार्टी गुजरात चुनाव में आम आदमी पार्टी कहां है? 

हम 2 वर्षों से मेहनत कर रहे हैं. प्रदेश की जनता के हक में 100 से ज्यादा मुद्दों को ले कर धरनेप्रदर्शन किए हैं. रणनीति के तौर पर हम चाहते हैं कि भाजपा हारे. इस के चलते यहां की जनता का रुझान हमारे प्रति है. दिल्ली मौडल लोगों के सामने है, इसलिए हम भाजपा को सीधी टक्कर दे सकते हैं.

क्या भाजपा के प्रति लोगों का गुस्सा है?

 पिछले 22 वर्षों में लोगों ने देखा कि वे जहां थे, अब भी वहीं के वहीं हैं. प्रदेश का पाटीदार व पटेल समुदाय, दलित, पिछड़ा, आदिवासी, किसान, व्यापारी और युवा वर्ग खुद को ठगा हुआ समझ रहा है. युवाओं को रोजगार नहीं मिल रहा. सभी वर्ग परेशान हैं. भाजपा का गुजरात विकास का दावा केवल धोखा है.

जनता के गुस्से को आप की पार्टी कैसे भुनाएगी?

लोगों के सामने दिल्ली सरकार का मौडल है. वहां महल्ला कमेटी समस्याओं के समाधान की अपनी व्यवस्था है. भ्रष्टाचारमुक्त शासन पार्टी का शुरू से ही लक्ष्य रहा है. लोग अब यहां भी बदलाव चाहते हैं और यह निश्चित है.

प्रदेश में नोटबंदी, जीएसटी को ले कर जनता का क्या रुख है?

 इन फैसलों ने अर्थतंत्र की कमर तोड़ दी है. गुजरात व्यापार का हब माना जाता है. फार्मा इंडस्ट्री, कपड़ा जैसे सारे उद्योग ठप हो गए. इन उद्योगों को राहत दिलाने की जरूरत थी. लोग बहुत परेशान हैं. सरकार के ये फैसले भाजपा को ले डूबेंगे.

आप कितने लोगों को टिकट दे रहे हैं?

अभी कई सीटों पर मूल्यांकन चल रहा है. देखा जा रहा है कि हम कितनी सीटें जीत सकते हैं. करीब 50-60 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेंगे.

ब्राइडल मेकअप की बारीकियां समझें और बन जाएं ब्यूटी क्वीन

हर दुलहन चाहती है कि उस का स्टाइल और लुक ऐसा हो, जिस से वह न सिर्फ उस के जीवनसाथी के, बल्कि ससुराल वालों के भी दिल का नूर बन जाए. तो ऐसा क्या किया जाए, जिस से दुलहन की खूबसूरती पति का मन मोह ले?

सैलिब्रिटी मेकअप आर्टिस्ट ओजस राजानी बताती हैं कि सब से पहले दुलहन की पर्सनैलिटी, स्किन टाइप, बालों का टैक्स्चर, कलर, आईब्रोज शेप और फेस कट को परखना होता है. अगर इस में कहीं किसी तरह की कमी है, तो दुलहन को ऐक्सरसाइज और स्किन केयर रूटीन की सलाह दी जाती है, जिस से मेकअप से पहले स्किन और जवां व निखरीनिखरी दिखाई दे.

स्किन केयर रूटीन

स्किन केयर रूटीन के बारे में बात करते हुए ब्राइडल मेकअप आर्टिस्ट आकांक्षा नाइक का कहना है कि दुलहन के लिए अपनी स्किन टाइप के बारे में पता होना बेहद जरूरी है. शादी से पहले उसे रोजाना क्लींजिंग, टोनिंग और मौइश्चराइजिंग का रूटीन अपनाना चाहिए. यदि स्किन ड्राई है तो सोप फ्री कंसीलर का इस्तेमाल करना चाहिए. त्वचा को दिन में 2 बार मौइश्चराइज भी करना चाहिए.

यदि स्किन टाइप औयली है, तो क्लींजिंग के साथसाथ दिन में 2-3 बार चेहरा धोना भी जरूरी है. औयली स्किन टाइप के लिए टोनिंग बेहद जरूरी है. इस से चेहरे के पोर्स बंद होते हैं और त्वचा से तेल का रिसाव रुकता है. इस के साथसाथ त्वचा को मौइश्चराइज्ड करने के लिए वाटर बेस्ड मौइश्चराइजर लगाना चाहिए. औयली स्किन के लिए फेस मास्क लगाना भी बेहद जरूरी है. इस से चेहरे की डैड स्किन से छुटकारा मिलता है और त्वचा सांस ले पाती है.

वाटर बेस्ड व क्रीम बेस्ड मेकअप का चुनाव

मेकअप में सब से जरूरी है फाउंडेशन का सही होना. अगर बेस मेकअप अच्छी तरह से लगाया गया है और फाउंडेशन का रंग स्किन से अच्छी तरह मेल खाता है, तो एक लाइनर लगा कर भी दुलहन खूबसूरत लग सकती है.

इसी तरह क्रीम बेस्ड मेकअप उन के लिए अच्छा है, जिन के चेहरे पर दागधब्बे, पिंपल्स और डार्क स्पौट्स नहीं होते. लेकिन औयली स्किन के लिए क्रीम बेस्ड मेकअप का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करना चाहिए, वहीं दागधब्बे वाली स्किन के लिए वाटर बेस्ड मेकअप जरूरी है. अगर शादी के दौरान धूप में रहना हो, तो वाटर बेस्ड मेकअप की जरूरत पड़ेगी.

कौंप्लैक्शन के अनुसार मेकअप

आकांक्षा ने बताया कि भारतीयों में 3 तरह के कौंप्लैक्शन होते हैं- गोरा, गेहुआं और सांवला. कौंप्लैक्शन के अनुसार मेकअप का चुनाव करें इस तरह:

गोरी त्वचा : अगर आप की रंगत गोरी है तो आप पर रोजी टिंट बेस कलर और कुछ मौकों पर सुनहरे रंग का फाउंडेशन बेस फबेगा. आंखों का मेकअप करते समय ध्यान रखें कि आईब्रोज को ब्राउन कलर से उभारें. जहां गोरे रंग पर पिंक और हलके लाल रंग का ब्लशर बेहद जंचता है, वहीं होंठों पर लाइट कलर की लिपस्टिक अच्छी लगती है.

गेहुआं रंग : अगर आप का कौंप्लैक्शन गेहुआं है, तो आप को स्किन कलर से मैच करता वाटर बेस्ड फाउंडेशन लगाना चाहिए. त्वचा पर लाइट रंग का फाउंडेशन लगाने से बचना चाहिए. आंखों के मेकअप के लिए ब्रौंज या ब्राउन कलर का इस्तेमाल करना चाहिए. गालों पर ब्रौंज कलर के ब्लशर का इस्तेमाल करना चाहिए. इस स्किनटोन के अनुसार आप पर डार्क रंग की लिपस्टिक जंचेगी.

सांवली त्वचा : सांवली त्वचा का मेकअप करने से पहले सब से ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए. सांवली त्वचा के लिए वाटर बेस्ड नैचुरल ब्राउन टोन फाउंडेशन का इस्तेमाल करना चाहिए, इस के लिए फाउंडेशन की ब्लैंडिंग पर भी अच्छी तरह से ध्यान देना चाहिए.

ध्यान रहे कि आप त्वचा के रंग से गहरे शेड का फाउंडेशन इस्तेमाल न करें. आंखों का मेकअप करते समय ध्यान दें कि लाइट रंग के आईब्रोज कलर का इस्तेमाल न करें, लेकिन आउटलाइन के लिए काजल का इस्तेमाल करें. ब्लशर के लिए प्लम और ब्रौंज कलर का इस्तेमाल करें. लिप कलर के लिए पर्पल, रोज और पिंक ग्लौस का इस्तेमाल कर सकती हैं.

ओजस के अनुसार दुलहन इस बात का भी खयाल रखे कि मेकअप ज्यादा नहीं होना चाहिए. इस से उस की उम्र ज्यादा दिखाई देती है, इसलिए हैवी मेकअप से बचें.

ध्यान से चुनें लिप कलर

ओजस के अनुसार आजकल बौलीवुड तारिकाएं भी कम मेकअप और लाइट शेड की लिपस्टिक लगाना पसंद करती हैं. अब हाई डैफिनेशन कैमरे के दिन हैं, जो आप के मेकअप की बारीकियों को और उभार देते हैं. अगर आप डार्क शेड लिपस्टिक लगाएंगी, तो इस से आप शादी की तसवीरों में डरावनी लग सकती हैं.

ट्रैंड के अनुसार आजकल मार्केट में कई तरह की लाइट शेड लिपस्टिक आ रही हैं, जो लाइट होते हुए भी आप को डार्क लिपस्टिक के जैसा लुक देंगी. इस से आप के लिप्स को थोड़ा पाउट लुक भी मिल जाएगा. वहीं अगर आप डार्क लिपस्टिक का चुनाव करती हैं, तो आप को आई मेकअप कम करना चाहिए. अगर आप हैवी आई मेकअप कर रही हैं, तो आप को लिप कलर में लाइट शेड ही चुनना चाहिए.

कलर्ड लैंस का चुनाव

ओजस बताती हैं कि आप का रंग गोरा हो, गेहुआं हो या सांवला, आप को आई लैंस के लिए हलके भूरे रंग का ही चुनाव करना चाहिए. आई लैंस में ग्रीन और ब्राउन को मिला कर एक नया कलर बनाया गया है, जो देखने में बहुत अच्छा लगता है. आप को ग्रे और नीला रंग नहीं चुनना चाहिए.

मेकअप से पहले फ्लैश टैस्ट

दुलहन हो या अदाकारा, आप का मेकअप बेस या फाउंडेशन परफैक्ट होना चाहिए. कैमरे की फ्लैश की वजह से मेकअप पहले ही ग्रे दिखाई देता है. ऐसे में आप को बेस लगाने के बाद अपने फोन के कैमरे की फ्लैश औन कर के एक तसवीर लेनी चाहिए. इस से आप को साफ पता चल जाएगा कि आप ने फाउंडेशन अच्छी तरह से लगाया है या नहीं. इसे मेकअप आर्टिस्ट फ्लैश टैस्ट कहते हैं.

कम बेस के साथ जरूरत भर मेकअप

को हमेशा तवज्जो देनी चाहिए. कम फाउंडेशन, लाइट कलर ब्लश और हलके रंग की लिपस्टिक आप के लुक को उभार देती है. इसी सौफ्ट स्टाइलिंग के साथ दुलहन बेहद खूबसूरत दिखाई देती है. इस के अलावा हमेशा अपनी पर्सनैलिटी को ध्यान में रख कर मेकअप करना चाहिए.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें