Hindi Fictional Story: जब मैं छोटा था- क्या कहना चाहता था केशव

Hindi Fictional Story: केशव ने घूर कर अपने बेटे अंगद को देखा. वह सहम गया और सोचने लगा कि उस ने ऐसा क्या कह दिया जो उस के पिता को खल गया. अगर उसे कुछ चाहिए तो वह अपने पिता से नहीं मांगेगा तो और किस से मांगेगा. रानी बेटे की बात समझती है पर वह केवल उस की सिफारिश ही तो कर सकती है. निर्णय तो इस परिवार में केशव ही लेता है.

रानी ने मुसकरा कर केशव को हलकी झिड़की दी, ‘‘अब घूरना बंद करो और मुंह से कुछ बोलो.’’

केशव ने रानी को मुंह सिकोड़ कर देखा और फिर सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘क्या समय आ गया है.’’

‘‘क्यों, क्या तुम ने अपने पिता से कभी कुछ नहीं मांगा?’’ रानी ने हंस कर कहा, ‘‘बेकार में समय को दोष क्यों देते हो?’’

‘‘मांगा?’’ केशव ने तैश खा कर कहा, ‘‘मांगना तो दूर हमारा तो उन के सामने मुंह भी नहीं खुलता था. इतनी इज्जत करते थे उन की.’’

‘‘इज्जत करते थे या डरते थे?’’ रानी ने व्यंग्य से कहा.

केशव ने लापरवाही का नाटक किया, ‘‘एक ही बात है. अब हमारी औलाद हम से डरती कहां है?’’

अवसर का लाभ उठाते हुए अंगद ने शरारत से पूछा, ‘‘पिताजी, क्या आप के समय में आजकल की तरह जन्मदिन मनाया जाता था?’’

केशव ने व्यंग्य से हंस कर कहा, ‘‘जनाब, ऐसी फुजूलखर्ची के बारे में सोचना ही गुनाह था. ये तो आजकल के चोंचले हैं.’’

‘‘फिर भी पिताजी,’’ अंगद ने कहा, ‘‘कभी न कभी तो आप को जन्मदिन पर कुछ तो विशेष मिला होगा.’’

रानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘मिला था, एक पाजामा. क्यों, ठीक है न?’’

केशव भी हंसा, ‘‘ठीक है, तुम्हें तो मेरा राज मालूम है.’’

‘‘पाजामा?’’ अंगद ने चकित हो कर पूछा, ‘‘क्या यह भी कोई उपहार है?’’

‘‘बहुत बड़ा उपहार था, बेटे,’’ केशव ने यादों में खोते हुए कहा, ‘‘पिताजी से तो बात करने का सवाल ही नहीं था. जब मैं ने मां से हठ की तो उन्होंने अपने हाथों से नया पाजामा सिल कर दिया था. मैं बहुत खुश था. रानी, तुम भी अंगद को एक पाजामा सिल

कर दो, पर…पर तुम्हें तो सिलना आता ही नहीं.’’

‘‘सारे दरजी मर गए क्या?’’ रानी ने चिढ़ कर कहा.

‘‘पाजामावाजामा नहीं,’’ अंगद ने जोर दे कर कहा, ‘‘अगर कुछ देना है तो मोपेड दीजिए. मेरे सारे दोस्तों के पास है. सब मोपेड पर ही स्कूल आते हैं. बस, एक मैं ही हूं, खटारा साइकिल वाला.’’

के शव ने तनिक नाराजगी से कहा, ‘‘साइकिल की इज्जत करना सीखो. उस ने 20 साल मेरी सेवा की है.’’

‘‘दहेज में जो मिली थी,’’ रानी ने टांग खींची.

‘‘क्या करता,’’ केशव चिढ़ कर बोला, ‘‘अगर स्कूटर मांगता तो तुम्हारे पिताजी को घर बेचना पड़ जाता.’’

‘‘अरे, जाओ भी,’’ रानी ने चोट खाए स्वर में कहा, ‘‘लेने वाले की हैसियत भी देखी जाती है.’’

अंगद ने महसूस किया कि बातों का रुख बदल रहा है इसीलिए बीच में पड़ कर बोला, ‘‘आप लोग तो

फिर लड़ने लगे. मेरे लिए मोपेड लेंगे या नहीं?’’

‘‘बरखुरदार,’’ केशव ने फिर से घूरते हुए कहा, ‘‘जब हम तुम्हारे बराबर थे तो पैदल स्कूल जाते थे. स्कूल भी कोई पास नहीं था. पूरे 3 मील दूर था. उन दिनों घर में बिजली भी नहीं थी इसलिए सड़क के किनारे लैंपपोस्ट के नीचे बैठ कर पढ़ते थे. जेबखर्च के पैसे भी नहीं मिलते थे. दिन भर कुछ नहीं खाते थे. घर आ कर 5 बजे तक रात का खाना निबट जाता था. समझे जनाब? आप मोपेड की बात करते हैं.’’

रानी इस भाषण को कई बार सुनसुन कर उकता चुकी थी इसलिए ताना मार कर बोली, ‘‘तो यह है आप की सफलता का रहस्य. देखो बेटे, ऐसा करोगे तो पिताजी की तरह एक दिन किसी कारखाने के महाप्रबंधक बन जाओगे.’’

अंगद मूर्खों की तरह मांबाप को देख रहा था. उस के मन में विद्रोह की आग सुलग रही थी. बड़ी बहन मानिनी जब भी कुछ मांगती थी तो उसे तुरंत मिल जाता था. एक वही है इस घर में दलित वर्ग का शोषित प्राणी.

नाश्ता समाप्त होने पर केशव कार्यालय जाने की तैयारी में लग गया और नौकरानी के आ जाने से रानी घर की सफाई कराने में व्यस्त हो गई. अंगद कब स्कूल चला गया किसी को पता ही नहीं चला.

कार निकालते समय केशव ने रोज के मुकाबले कुछ फर्क महसूस किया, पर समझ नहीं पाया. बहुत दूर निकल जाने पर उसे ध्यान आया कि आज अंगद की साइकिल अपनी जगह पर ही खड़ी थी. वैसे अकसर साइकिल खराब होने पर अंगद साइकिल घर छोड़ कर बस से चला जाता था.

घर का काम निबट जाने के बाद रानी ने देखा कि अंगद का लंच बाक्स मेज पर ही पड़ा था. वैसे आमतौर पर वह लंच बाक्स ले जाना भूलता नहीं है क्योंकि रानी हमेशा बेटे का मनपसंद खाना ही रखती थी. खैर, कोई बात नहीं, अंगद की जेब में इतने रुपए तो होते ही हैं कि वह कुछ ले कर खा ले.

शाम को रानी को च्ंिता हुई क्योंकि अंगद हमेशा 3 बजे तक घर आ जाता था, पर आज 5 बज रहे थे. केशव के फोन से वह जान चुकी थी कि आज अंगद साइकिल भी नहीं ले गया था, पर बस से भी इतनी देर नहीं लगती. उस वक्त 6 बज रहे थे जब अंगद ने घर में प्रवेश किया. उस का चेहरा लाल हो रहा था और जूते धूलधूसरित हो गए थे. थकान के लक्षण भी स्पष्ट थे.

‘‘इतनी देर कहां लगा दी?’’ रानी ने बस्ता संभालते हुए पूछा.

‘‘बस, हो गई देर, मां,’’ अंगद ने टालते हुए कहा, ‘‘जल्दी से खाना दो. बहुत भूख लगी है.’’

‘‘खाना क्यों नहीं ले गया?’’ रानी ने शिकायत की.

‘‘भूल गया था,’’ अंगद का झूठ पता चल रहा था.

‘‘भूल गया या ले नहीं गया?’’ रानी ने तनिक क्रोध से पूछा.

‘‘कहा न, भूल गया,’’ अंगद चिढ़ कर बोला.

रानी ने अधिक जोर नहीं दिया. बोली, ‘‘जा, जल्दी से कपड़े बदल और हाथमुंह धो कर आ. आलू के परांठे और गाजर का हलवा बना है.’’

अंगद के चेहरे पर झलकती प्रसन्नता से रानी को संतोष हुआ. उसे लगा कि वह वाकई बहुत भूखा है. अंगद के आने से पहले ही उस ने खाना मेज पर लगा दिया था.

अंगद ने भरपेट खाया. कुछ देर तक टीवी देखा और फिर पढ़ाई करने अपने कमरे में चला गया.

8 बजे केशव कार्यालय से आया.

आराम से बैठने के बाद केशव ने रानी से पूछा, ‘‘बच्चे कहां हैं? बहुत शांति है घर में.’’

‘‘मन्नू तो शालू के यहां गई है,’’ रानी ने सामने बैठते हुए कहा, ‘‘कोई पार्टी है. देर से आएगी.’’

‘‘अकेली आएगी क्या?’’ केशव ने च्ंिता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ रानी ने उत्तर दिया, ‘‘शालू का भाई छोड़ने आएगा.’’

‘‘उफ, ये बच्चे,’’ केशव ने अप्रसन्नता से कहा, ‘‘इतनी आजादी भी ठीक नहीं. जब मैं छोटा था तो बहन को तो छोड़ो, मुझे भी देर से आने नहीं दिया जाता था. आगे से ध्यान रखना. वैसे मन्नू कब तक आएगी?’’

‘‘अब क्यों च्ंिता करते हो,’’ रानी ने कहा, पर केशव की मुद्रा देख कर बोली, ‘‘ठीक है, फोन कर के पूछ लूंगी.’’

‘‘और साहबजादे कहां हैं?’’ केशव ने पूछा.

‘‘पढ़ रहा है,’’ रानी ने उत्तर दिया.

‘‘पर मुझे तो कोई आवाज नहीं सुनाई दे रही,’’ केशव ने पुकारा, ‘‘अंगद…अंगद?’’

‘‘ओ हो, पढ़ने दो न,’’ रानी ने झिड़का, ‘‘कल परीक्षा है उस की.’’

‘‘तो जवाब नहीं देगा क्या?’’ केशव ने क्रोध से पुकारा, ‘‘अंगद?’’

अंगद का उत्तर नहीं आया. केशव अब अधिक सब्र नहीं कर सका. उठ कर अंगद के कमरे की ओर गया और झटके से अंदर घुसा.

‘‘यहां तो है नहीं,’’ केशव ने क्रोध से कहा.

‘‘नहीं है,’’ रानी को विश्वास नहीं हुआ, ‘‘थोड़ी देर पहले ही तो मैं उस के मांगने पर चाय देने गई थी.’’

केशव ने व्यंग्य से कहा, ‘‘हां, चाय का प्याला तो है, पर जनाब नहीं हैं. गया कहां?’’

‘‘मुझ से तो कुछ कह कर नहीं गया,’’ रानी ने च्ंिता से कहा, ‘‘मन्नू के कमरे में देखो.’’

‘‘मन्नू के कमरे में भी होता तो जवाब देता न,’’ केशव ने क्रोध से कहा, ‘‘बहरा तो नहीं है.’’

रानी ने तसल्ली के लिए मन्नू के कमरे में  देखा और बोली, ‘‘पता नहीं कहां गया. शायद अखिल के यहां चला गया होगा. उस के साथ ही पढ़ता है न.’’

‘‘कह कर तो जाना था,’’ केशव भी अब च्ंितित था, ‘‘अखिल का घर कहां है?’’

‘‘वह राममनोहरजी का लड़का है,’’ रानी ने कहा, ‘‘309 नंबर में रहता है.’’

‘‘ओह,’’ केशव ने कहा, ‘‘उन के यहां तो फोन भी नहीं है.’’

‘‘थोड़ी देर देख लो,’’ रानी ने अपनी च्ंिता छिपाते हुए कहा, ‘‘आ जाएगा.’’

‘‘और मन्नू…’’

केशव का वाक्य समाप्त होेने से पहले ही रानी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मन्नू के पीछे पड़ गए. कभी तो चैन से बैठा करो.’’

झिड़की खा कर केशव कुरसी पर बैठ कर पत्रिका पढ़ने का नाटक करने लगा.

‘‘खाना लगाऊं क्या?’’ रानी ने कुछ देर बाद पूछा.

‘‘नहीं,’’ केशव ने कहा, ‘‘बच्चों को आने दो.’’

‘‘मन्नू तो खा कर आएगी,’’ रानी ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अंगद बाद में खा लेगा. स्कूल से आ कर कुछ ज्यादा ही खा लिया था.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘2 की जगह पूरे 4 परांठे खा लिए,’’ रानी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘उसे आलू के परांठे अच्छे लगते हैं न.’’

कुछ और समय बीतने पर केशव उठ खड़ा हुआ, ‘‘मैं राममनोहरजी के घर हो कर आता हूं.’’

उसी समय घंटी बजी और मानिनी ने प्रवेश किया. वह बहुत प्रसन्न थी.

‘‘शालू की पार्टी में बहुत मजा आया,’’ मानिनी ने हंसते हुए पूछा, ‘‘यह अंगद सड़क के किनारे क्यों बैठा है? क्या आप ने सजा दी है?’’

‘‘सड़क के किनारे?’’ केशव और रानी ने एकसाथ पूछा, ‘‘कहां?’’

‘‘साधना स्टोर के सामने,’’ मानिनी ने उत्तर दिया, ‘‘क्या मैं उसे बुला कर ले आऊं?’’

इस से पहले कि रानी कुछ कहती केशव ने गंभीरता से कहा, ‘‘नहीं, रहने दो. शायद पढ़ रहा होगा.’’

‘‘क्या घर में बिजली नहीं है?’’ मानिनी ने पूछा, पर फिर ध्यान आया कि बिजली तो है.

रानी ने खाना लगा दिया. केशव हाथ धो कर बैठने ही वाला था कि अंगद ने आहिस्ताआहिस्ता घर में प्रवेश किया.

केशव ने घूरते हुए पूछा, ‘‘इतनी दूर पढ़ने क्यों गए थे?’’

‘‘क्योंकि पास में कोई लैंपपोस्ट नहीं था,’’ अंगद ने मासूमियत से कहा.

केशव को हंसी भी आई और क्रोध भी. रानी भी हंस कर रह गई.

‘‘चलो, खाने के लिए बैठो,’’ रानी ने कहा.

‘‘स्कूल से आते ही खा तो लिया था,’’ अंगद ने कहा और अपने कमरे में चला गया.

केशव और रानी को अंगद का व्यवहार अब समझ में आ रहा था. लगता था कि नाटक की शुरुआत है.

मानिनी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उस ने पूछा, ‘‘बात क्या है? आज अंगद के तेवर क्यों बिगड़े हुए हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ रानी हंसी, ‘‘शीत- युद्ध है.’’

‘‘क्यों?’’ मानिनी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मोपेड चाहिए जनाब को,’’ केशव ने कहा, ‘‘हमारे जमाने में…’’

‘‘ओ हो, पिताजी,’’ मानिनी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘अब मैं समझ गई. न आप कभी बदलेंगे, न आप का जमाना. ठीक है, मैं चंदा इकट्ठा करती हूं.’’

एक मानिनी ही थी जो केशव से बेझिझक हो कर बात कर सकती थी.

केशव ने उसे घूर कर देखा और फिर उठ कर चला गया.

सुबह की चाय हो चुकी थी. जब नाश्ता लगा तो अंगद जा चुका था.

उस की साइकिल पर धूल जम गई थी और हवा भी निकल गई थी.

शाम को थकामांदा अंगद 6 बजे आया.

‘‘क्यों, बस नहीं मिली क्या?’’ रानी ने क्रोध से पूछा.

‘‘बसें तो आतीजाती रहती हैं.’’

‘‘तो फिर?’’ रानी ने पूछा.

‘‘तो फिर क्या? मुझे भूख लगी है. खाना तो मिलेगा न?’’

रानी को अब क्रोध नहीं आया. जानती थी कि वह भूखा होगा. उस के लिए खीर, पूडि़यां और गोभी की

सब्जी बनाई थी. अंगद ने प्रसन्न हो

कर भरपेट खाया और कमरे में चला गया.

केशव जब आया तब अंगद घर में नहीं था. आते वक्त केशव ने लैंपपोस्ट के नीचे निगाह डाली थी. अंगद धुंधली रोशनी में आंखें गड़ाए पढ़ रहा था.

3 दिन तक यह नाटक चलता रहा.

आज अंगद का जन्मदिन था. हर साल इस दिन रौनक छा जाती थी. पार्टी में आने वाले मित्रों की सूची बनती थी. लजीज व्यंजन बनाए जाते थे. मानिनी कुछ दिन पहले ही से उसे छेड़ने लगती थी और इस छेड़छाड़ में लड़ाई भी

हो जाती थी. वैसे अंगद को इस

बात का बहुत मलाल रहता था कि मानिनी का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है.

नींद खुलते ही अंगद की नजर पास पड़े लिफाफे पर पड़ी. लिफाफे को उठाते ही उस में से एक चाबी गिरी. चाबी से लटका एक छोटा सा कार्ड था. उस पर लिखा था, ‘जन्मदिन पर छोटा सा उपहार.’

अंगद की आंखों में चमक आ गई. यह तो मोपेड की चाबी थी. आधी रात को वह एक चिट्ठी खाने की मेज पर छोड़ कर आया जिस में लिखा था :

पूज्य पिताजी और मां,

क्या आप मुझे क्षमा करेंगे? मोपेड के लिए हठ करना मेरी भूल थी. मुझे सिवा आप के आशीर्वाद और प्यार के कुछ नहीं चाहिए.

आप का पुत्र

अंगद.

जब अंगद नीचे पहुंचा तो पत्र मां के हाथ में था और वह पढ़ कर सुना रही थीं. केशव और मानिनी हंस रहे थे.

‘‘पिताजी, आप ने भी जल्दी कर दी. बेकार में मोपेड की चपत पड़ी,’’ मानिनी हंस कर कह रही थी.

अंगद सिर झुकाए शर्मिंदा सा खड़ा था.

‘‘तो आप को मोपेड नहीं चाहिए,’’ केशव ने नकली गंभीरता से पूछा.

‘‘नहीं,’’ अंगद ने दृढ़ता से उत्तर दिया.

‘‘क्यों?’’ केशव ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्योंकि,’’ अंगद ने गंभीरता से शरारती अंदाज में कहा, ‘‘अब मुझे स्कूटर चाहिए.’’

‘‘क्या?’’ केशव ने मारने के अंदाज में हाथ उठाते हुए पूछा, ‘‘क्या कहा?’’

मानिनी ने बीच में आते हुए कहा, ‘‘पिताजी, छोडि़ए भी. हमारा अंगद अब छोटा नहीं है.’’

‘‘पर जब मैं छोटा था…’’

होहल्ले में केशव अपना वाक्य पूरा न कर सका.

Hindi Fictional Story

Drama Story: नचनिया- क्यों बेटे की हालत देख हैरान था एक पिता

Drama Story: ‘‘कितना ही कीमती हो… कितना भी खूबसूरत हो… बाजार के सामान से घर सजाया जाता है, घर नहीं बसाया जाता. मौजमस्ती करो… बड़े बाप की औलाद हो… पैसा खर्च करो, मनोरंजन करो और घर आ जाओ.

‘‘मैं ने भी जवानी देखी है, इसलिए नहीं पूछता कि इतनी रात गए घर क्यों आते हो? लेकिन बाजार को घर में लाने की भूल मत करना. धर्म, समाज, जाति, अपने खानदान की इज्जत का ध्यान रखना,’’ ये शब्द एक अरबपति पिता के थे… अपने जवान बेटे के लिए. नसीहत थी. चेतावनी थी.

लेकिन पिछले एक हफ्ते से वह लगातार बाजार की उस नचनिया का नाच देखतेदेखते उस का दीवाना हो चुका था.

वह जानता था कि उस के नाच पर लोग सीटियां बजाते थे, गंदे इशारे करते थे. वह अपनी अदाओं से महफिल की रौनक बढ़ा देती थी. लोग दिल खोल कर पैसे लुटाते थे उस के नाच पर. उस के हावभाव में वह कसक थी, वह लचक थी कि लोग ‘हायहाय’ करते उस के आसपास मंडराते, नाचतेगाते और पैसे फेंकते थे.

वह अच्छी तरह से जानता था कि जवानी से भरपूर उस नचनिया का नाचनागाना पेशा था. लोग मौजमस्ती करते और लौट जाते. लौटा वह भी, लेकिन उस के दिलोदिमाग पर उस नचनिया का जादू चढ़ चुका था. वह लौटा, लेकिन अपने मन में उसे साथ ले कर. उफ, बला की खूबसूरती उस की गजब की अदाएं. लहराती जुल्फें, मस्ती भरी आंखें. गुलाब जैसे होंठ.वह बलखाती कमर, वह बाली उमर. वह दूधिया गोरापन, वह मचलती कमर. हंसती तो लगता चांद निकल आया हो.

वह नशीला, कातिलाना संगमरमर सा तराशा जिस्म. वह चाल, वह ढाल, वह बनावट. खरा सोना भी लगे फीका. मोतियों से दांत, हीरे सी नाक, कमल से कान, वे उभार और गहराइयां. जैसे अंगूठी में नगीने जड़े हों.

अगले दिन उस ने पूछा, ‘‘कीमत क्या है तुम्हारी?’’

नचनिया ने कहा, ‘‘कीमत मेरे नाच की है. जिस्म की है. तुम महंगे खरीदार लगते हो. खरीद सकते हो मेरी रातें, मेरी जवानी. लेकिन प्यार करने लायक तुम्हारे पास दिल नहीं. और मेरे प्यार के लायक तुम नहीं. जिस्म की कीमत है, मेरे मन की नहीं. कहो, कितने समय के लिए? कितनी रातों के लिए? जब तक मन न भर जाए, रुपए फेंकते रहो और खरीदते रहो.’’

उस ने कहा, ‘‘अकेले तन का मैं क्या करूंगा? मन बेच सकती हो? चंद रातों के लिए नहीं, हमेशा के लिए?’’

नचनिया जोर से हंसते हुए बोली, ‘‘दीवाने लगते हो. घर जाओ. नशा उतर जाए, तो कल फिर आ जाना महफिल सजने पर. ज्यादा पागलपन ठीक नहीं. समाज को, धर्म के ठेकेदारों को मत उकसाओ कि हमारी रोजीरोटी बंद हो जाए. यह महफिल उजाड़ दी जाए. जाओ यहां से मजनू, मैं लैला नहीं नचनिया हूं.’’

पिता को बेटे के पागलपन का पता लगा, तो उन्होंने फिर कहा, ‘‘बेटे, मेले में सैकड़ों दुकानें हैं. वहां एक से बढ़ कर एक खूबसूरत परियां हैं. तुम तो एक ही दुकान में उलझ गए. आगे बढ़ो. और भी रंगीनियां हैं. बहारें ही बहारें हैं. बाजार जाओ. जो पसंद आए खरीदो. लेकिन बाजार में लुटना बेवकूफों का काम है.

‘‘अभी तो तुम ने दुनिया देखनी शुरू की है मेरे बेटे. एक दिल होता है हर आदमी के पास. इसे संभाल कर रखो किसी ऊंचे घराने की लड़की के लिए.’’

लेकिन बेटा क्या करे. नाम ही प्रेम था. प्रेम कर बैठा. वह नचनिया की कातिल निगाहों का शिकार हो चुका था. उस की आंखों की गहराई में प्रेम का दिल डूब चुका था. अगर दिल एक है, तो जान भी तो एक ही है और उसकी जान नचनिया के दिल में कैद हो चुकी थी.

पिता ने अपने दीवान से कहा, ‘‘जाओ, उस नचनिया की कुछ रातें खरीद कर उसे मेरे बेटे को सौंप दो. जिस्म की गरमी उतरते ही खिंचाव खत्म हो जाएगा. दीवानगी का काला साया उतर जाएगा.’’

नचनिया सेठ के फार्महाउस पर थी और प्रेम के सामने थी. तन पर एक भी कपड़ा नहीं था. प्रेम ने उसे सिर से पैर तक देखा.

नचनिया उस के सीने से लग कर बोली, ‘‘रईसजादे, बुझा लो अपनी प्यास. जब तक मन न भर जाए इस खिलौने से, खेलते रहो.’’

प्रेम के जिस्म की गरमी उफान न मार सकी. नचनिया को देख कर उस की रगों का खून ठंडा पड़ चुका था.

उस ने कहा, ‘‘हे नाचने वाली, तुम ने तन को बेपरदा कर दिया है, अब रूह का भी परदा हटा दो. यह जिस्म तो रूह ने ओढ़ा हुआ है… इस जिस्म को हटा दो, ताकि उस रूह को देख सकूं.’’

नचनिया बोली, ‘‘यह पागलपन… यह दीवानगी है. तन का सौदा था, लेकिन तुम्हारा प्यार देख कर मन ही मन, मन से मन को सौसौ सलाम.

‘‘पर खता माफ सरकार, दासी अपनी औकात जानती है. आप भी हद में रहें, तो अच्छा है.’’

प्रेम ने कहा, ‘‘एक रात के लिए जिस्म पाने का नहीं है जुनून. तुम सदासदा के लिए हो सको मेरी ऐसा कोई मोल हो तो कहो?’’

नचनिया ने कहा, ‘‘मेरे शहजादे, यह इश्क मौत है. आग का दरिया पार भी कर जाते, जल कर मर जाते या बच भी जाते. पर मेरे मातापिता, जाति के लोग, सब का खाना खराब होगा. तुम्हारी दीवानगी से जीना हराम होगा.’’

प्रेम ने कहा, ‘‘क्या बाधा है प्रेम में, तुम को पाने में? तुम में खो जाने में? मैं सबकुछ छोड़ने को राजी हूं. अपनी जाति, अपना धर्म, अपना खानदान और दौलत. तुम हां तो कहो. दुनिया बहुत बड़ी है. कहीं भी बसर कर लेंगे.’’

नचनिया ने अपने कपड़े पहनते हुए कहा, ‘‘ये दौलत वाले कहीं भी तलाश कर लेंगे. मैं तन से, मन से तुम्हारी हूं, लेकिन कोई रिश्ता, कोई संबंध हम पर भारी है. मैं लैला तुम मजनू, लेकिन शादी ही क्यों? क्या लाचारी है? यह बगावत होगी. इस की शिकायत होगी. और सजा बेरहम हमारी होगी. क्यों चैनसुकून खोते हो अपना. हकीकत नहीं होता हर सपना. यह कैसी तुम्हारी खुमारी है. भूल जाओ तुम्हें कसम हमारी है.’’

अरबपति पिता को पता चला, तो उन्होंने एकांत में नचनिया को बुलवा कर कहा, ‘‘वह नादान है. नासमझ है. पर तुम तो बाजारू हो. उसे धिक्कारो. समझाओ. न माने तो बेवफाईबेहयाई दिखाओ. कीमत बोलो और अपना बाजार किसी अनजान शहर में लगाओ. अभी दाम दे रहा हूं. मान जाओ.

‘‘दौलत और ताकत से उलझने की कोशिश करोगी, तो न तुम्हारा बाजार सजेगा, न तुम्हारा घर बचेगा… क्या तुम्हें अपने मातापिता, भाईबहन और अपने समुदाय के लोगों की जिंदगी प्यारी नहीं? क्या तुम्हें उस की जान प्यारी नहीं? कोई कानून की जंजीरों में जकड़ा होगा. कैद में रहेगा जिंदगीभर. कोई पुलिस की मुठभेड़ में मारा जाएगा. कोई गुंडेबदमाशों के कहर का शिकार होगा. क्यों बरबादी की ओर कदम बढ़ा रही हो? तुम्हारा प्रेम सत्ता और दौलत की ताकत से बड़ा तो नहीं है.

‘‘मेरा एक ही बेटा है. उस की एक खता उस की जिंदगी पर कलंक लगा देगी. अगर तुम्हें सच में उस से प्रेम

है, तो उस की जिंदगी की कसम… तुम ही कोई उपाय करो. उसे अपनेआप से दूर हटाओ. मैं जिंदगीभर तुम्हारा कर्जदार रहूंगा.’’

नचनिया ने उदास लहजे में कहा, ‘‘एकांत में यौवन से भरे जिस्म को जिस के कदमों में डाला, उस ने न पीया शबाब का प्याला. उसे तन नहीं मन चाहिए. उसे बाजार नहीं घर चाहिए.

उसे हसीन जिस्म के अंदर छिपा मन का मंदिर चाहिए. उपाय आप करें. मैं खुद रोगी हूं. मैं आप के साथ हूं प्रेम को संवारने के लिए,’’ यह कह कर नचनिया वहां से चली गई.

दौलतमंद पिता ने अपने दीवान से कहा, ‘‘बताओ कुछ ऐसा उपाय, जिस का कोई तोड़ न हो. उफनती नदी पर बांध बनाना है. एक ही झटके में दिल की डोर टूट जाए. कोई और रास्ता न बचे उस नचनिया तक पहुंचने का. उसे बेवफा, दौलत की दीवानी समझ कर वह भूल जाए प्रेमराग और नफरत के बीज उग आए प्रेम की जमीन पर.’’

दीवान ने कहा, ‘‘नौकर हूं आप का. बाकी सारे उपाय नाकाम हो सकते हैं, प्रेम की धार बहुत कंटीली होती है. सब से बड़ा पाप कर रहा हूं बता कर. नमक का हक अदा कर रहा हूं. आप उसे अपनी दासी बना लें. आप की दौलत से आप की रखैल बन कर ही प्रेम उस से मुंह मोड़ सकता है.

‘‘फिर अमीरों का रखैल रखना तो शौक रहा है. कहां किस को पता चलना है. जो चल भी जाए पता, तो आप की अमीरी में चार चांद ही लगेंगे.’’

नचनिया को बुला कर बताया गया. प्रस्ताव सुन कर उसे दौलत भरे दिमाग की नीचता पर गुस्सा भी आया. लेकिन यदि प्रेम को बचाने की यही एक शर्त है, तो उसे सब के हित के लिए स्वीकारना था. उस ने रोरो कर खुद को बारबार चुप कराया. तो वह बन गई अपने दीवाने की नाजायज मां.

प्रेम तक यह खबर पहुंची कि बाजारू थी बिक गई दौलत के लालच में. जिसे तुम्हारी प्रेमिका से पत्नी बनना था, वह रुपए की हवस में तुम्हारे पिता की रखैल बन गई.

प्रेम ने सुना, तो पहली चोट से रो पड़ा वह. पिंजरे में बंद पंछी की तरह फड़फड़ाया, लड़खड़ाया, लड़खड़ा कर गिरा और ऐसा गिरा कि संभल न सका.

वह किस से क्या कहता? क्या पिता से कहता कि मेरी प्रेमिका तुम्हारी हो गई? क्या जमाने से कहता कि पिता ने मेरे प्रेम को अपना प्रेम बना लिया? क्या समझाता खुद को कि अब वह मेरी प्रेमिका नहीं मेरी नाजायज सौतेली मां है.

वह बोल न सका, तो बोलना बंद कर दिया उस ने. हमेशाहमेशा के लिए खुद को गूंगा बना लिया उस ने.

पिता यह सोच कर हैरान था कि जिंदगीभर पैसा कमाया औलाद की खुशी के लिए. उसी औलाद की जान छीन ली दौलत की धमक से. क्या पता दीवानगी. क्या जाने दिल की दुनिया. प्यार की अहमियत. वह दौलत को ही सबकुछ समझता रहा.

अब दौलत की कैद में वह अरबपति पिता भटक रहा है अपने पापों का प्रायश्चित्त करते हुए हर रोज.

Drama Story

Hindi Long Story: जब जागो तभी सवेरा

Hindi Long Story: संजय के औफिस जाते ही अवंतिका चाय की गरम प्याली हाथों में ले न्यूजपेपर पर अपना राशिफल पढ़ने लगी. उस के बाद उस ने वह पृष्ठ खोल लिया जिस में ज्योतिषशास्त्रियों, रत्नों और उन से जुड़े कई तरह के विज्ञापन होते हैं. यह अवंतिका का रोज का काम था. पति संजय के जाते ही वह न्यूजपेपर और टीवी पर बस ज्योतिषशास्त्रियों और रत्नों से जुड़ी खबरें ही पढ़ती व देखती और फिर उस में सुझई गई विधि या रत्नों को पहनने, घर के बाकी सदस्यों को पहनाने और ज्योतिषों के द्वारा बताए गए नियमों पर अमल करने और सभी से करवाने में जीजान लगा देती.

अवंतिका का इस प्रकार व्यवहार करना स्वाभाविक था क्योंकि उस की परवरिश एक ऐसे परिवार में हुई थी जहां अंधविश्वास और ग्रहनक्षत्रों का जाल कुछ इस तरह से बिछा हुआ था कि घर का हर सदस्य केवल अपने जीवन में घटित हो रहे हर घटना को ग्रहनक्षत्रों एवं ज्योतिष से जोड़ कर ही देखता था. यही वजह थी कि अवंतिका पढ़ीलिखी होने के बावजूद ग्रहनक्षत्रों एवं रत्नों को बेहद महत्त्व देती थी और अपना कोई भी कार्य ज्योतिष से शुभअशुभ पूछे बगैर नहीं करती थी.

संजय और अवंतिका की शादी को करीब 20 साल हो गए थे, लेकिन आज भी अवंतिका को यही लगता था कि उस का पति संजय घर की ओर ध्यान नहीं देता है, उस की बात नहीं सुनता है. बेटी अनुकृति जो 12वीं क्लास में है, मनमानी करती है और बेटा अनुज जो 10वीं क्लास का छात्र है, बेहद उद्दंड होता जा रहा है. अवंतिका के ज्योतिषियों के चक्कर और पूरे परिवार पर कंट्रोल की चाह की वजह से पूरा घर बिखरता जा रहा था परंतु ये सारी बातें उस की समझ से परे थीं और उसे अपने सिवा सभी में दोष दिखाई देता था.

अवंतिका जरूरत से ज्यादा भाग्यवादी तो थी ही, साथ ही साथ वह अंधविश्वासी भी थी. वह ग्रहनक्षत्रों के कुप्रभावों से बचने के लिए ज्योतिषशास्त्रियों व उन के द्वारा सुझए गए तरहतरह के रत्नों पर अत्यधिक विश्वास रखती थी. यह कहना गलत न होगा कि अवंतिका की सोच करेला ऊपर से नीम चढ़ा जैसी थी.

अभी अवंतिका राशिफल पढ़ ही रही थी कि उस की बेटी अनुकृति उस के करीब आ कर बोली, ‘‘मम्मी मुझे फिजिक्स और कैमिस्ट्री विषय बहुत हार्ड लग रहे हैं. मुझे इन के लिए ट्यूशन पढ़नी है.’’

यह सुनते ही अवंतिका बोली, ‘‘अरे तुम्हें कहीं ट्यूशन जाने की जरूरत नहीं. यह देखो आज के पेपर में एड आया है सर्व समस्या निवारण केंद्र का. यहां ज्योतिषाचार्य स्वामी परमानंदजी सभी की समस्याओं का निवारण

करते हैं. देख इस पर लिखा है कि कैसी भी हो समस्या निराकरण करेंगे ज्योतिषाचार्य स्वामी परमानंद नित्या.

‘‘मम्मी लेकिन मुझे फिजिक्स और कैमिस्ट्री में प्रौब्लम है इस में ये ज्योतिषाचार्य क्या करेंगे?’’ अनुकृति चिढ़ती हुई बोली.

तभी अवंतिका न्यूजपेपर में से वह पेज  जिस पर विज्ञापन छपा था अलग करती हुई

बोली, ‘‘ज्योतिषाचार्यजी ही तो हैं जो तुम्हारी

सारी प्रौब्लम्स दूर करेंगे. आचार्यजी तुम्हें बताएंगे कि पढ़ाई में ध्यान कैसे लगाना चाहिए या फिर कोई रत्न बताएंगे जिस से तुम 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास हो जाओगी. चलो जल्दी से तैयार हो जाओ हम आज ही स्वामीजी से चल कर मिलते हैं.’’

यह सुनते ही अनुकृति पैर पटकती हुई बोली, ‘‘मम्मी अभी मुझे स्कूल जाना है. आज मेरी फिजिक्स और कैमिस्ट्री का ऐक्स्ट्रा क्लास है. मैं किसी आचार्य या बाबावाबा के पास नहीं जाऊंगी. आप को जाना है तो आप जाओ,’’ कह कर अनुकृति वहां से चली गई और अवंतिका वहीं खड़ी बड़बड़ाती रही.

थोड़ी देर में अनुकृति और अनुज स्कूल के लिए तैयार हो गए, लेकिन अवंतिका विज्ञापन पर दिए आचार्यजी का फोन नंबर मिलाने में ही लगी रही क्योंकि हर बार वह नंबर व्यस्त ही बता रहा था.

तभी अवंतिका के पास अनुज आ कर बोला, ‘‘मम्मी, टिफिन बौक्स दे दो हम लेट हो रहे हैं.’’

अनुज से टिफिन बौक्स सुन कर अवंतिका को खयाल आया कि उस ने टिफिन तो बनाया ही नहीं है. अत: वह हड़बड़ाती हुई अलमीरा से रुपए निकाल दोनों को देती हुई बोली, ‘‘टिफिन तो बना नहीं है तुम दोनों ये रुपए रख लो, वहीं स्कूल कैंटीन में कुछ खा लेना.’’

अवंतिका का इतना कहना था कि अनुकृति मुंह बनाती हुई बोली, ‘‘यह क्या है मम्मी आप रोजरोज यह राशिफल और ज्योतिषशास्त्रियों के बारे में पढ़ने के चक्कर में हमारा टिफिन ही नहीं बनाती हो और हमें कैंटीन में खाना पड़ता है,’’ कह अवंतिका के हाथों से रुपए ले कर अनुकृति गुस्से से चली गई.

तभी अनुज बोला, ‘‘मम्मी, मुझे और पैसे चाहिए. मेरा इतने पैसों से काम नहीं चलेगा. आज दीदी की ऐक्स्ट्रा क्लास है इसलिए मैं अपनी गाड़ी ले जा रहा हूं. उस में पैट्रोल भी डलवाना होगा.’’

अनुज के ऐसा कहते ही अवंतिका ने बिना कुछ कहे और पैसे उसे दे दिए क्योंकि उस का पूरा ध्यान आचार्यजी को नंबर लगा कर उन से मिलने का समय लेने में था.

दोनों बच्चों के जाते ही अवंतिका फिर से ज्योतिषाचार्य स्वामी परमानंद नित्याजी का नंबर ट्राई करने लगी और इस बार नंबर लग गया. अवंतिका को ज्योतिषाचार्य से आज ही मिलने का समय भी मिल गया. वह जल्दी से तैयार हो कर स्वामी के सर्व समस्या निवारण केंद्र पहुंची तो देखा काफी भीड़ लगी थी. ऐसा लग रहा था मानो आधा शहर यहीं उमड़ आया हो. जब अवंतिका ज्योतिषाचार्य के शिष्य के पास यह जानने के लिए पहुंची कि उस का नंबर कब तक आ जाएगा तो वह बड़ी विनम्रतापूर्वक लबों पर लोलुपता व चाटुकारिता के भावों संग मुसकराते हुए बोला, ‘‘बहनजी, अभी तो 10वां नंबर चल रहा है. आप का 51वां नंबर है. आप का नंबर आतेआते तो शाम हो जाएगी.आप आराम से प्रतीक्षालय में बैठिए, वहां सबकुछ उपलब्ध है- चाय, कौफी, नाश्ता, भोजन सभी की व्यवस्था है. बस आप टोकन काउंटर पर जाइए और आप को जो चाहिए उस का बिल काउंटर पर भर दीजिए आप को मिल जाएगा.’’

यह सुनने के बाद भी अवंतिका वहीं खड़ी रही. उस के माथे पर खिंचते बल को देख कर आचार्यजी के शिष्य को यह अनुमान लगाने में जरा भी वक्त नहीं लगा कि अवंतिका आचार्यजी से शीघ्र मिलना चाहती है. अवसर का लाभ उठाते हुए  शिष्य ने अपने शब्दों में शहद सी मधुरता घोलते हुए कहा, ‘‘बहनजी, आचार्यजी के कक्ष के समक्ष तो सदा ही उन के भक्तों की ऐसी ही अपार भीड़ लगी रहती है क्योंकि आचार्यजी जो रत्न अपने भक्तों को देते हैं एवं जो विधि उन्हें सुझते हैं उस से उन के भक्तों का सदा कल्याण ही होता है. यदि आप ज्योतिषाचार्यजी से जल्दी भेंट करना चाहती हैं तो आप को वीआईपी पास बनाना होगा, जिस का मूल्य सामान्य पास से दोगुना है परंतु इस से आप की आचार्यजी से भेंट 1 घंटे के भीतर हो जाएगी और बाकी लोगों की अपेक्षा आचार्यजी से आप को समय भी थोड़ा ज्यादा मिलेगा. आप कहें तो वीआईपी पास बना दूं?’’

यह सुन अवंतिका कुछ देर मौन खड़ी रही फिर बोली, ‘‘ठीक है भैया बना दीजिए वीआईपी पास.’’ कहते हुए अवंतिका ने अपने पर्स से रुपए निकाल कर उसे दे दिए जो संजय ने उसे दोनों बच्चों की स्कूल फीस के लिए दिए थे.

यहां इस सर्व समस्या निवारण केंद्र के प्रतीक्षालय में, कैंटिन में इतनी भीड़ था कि ऐसा लग रहा था जैसे कोई मेला लगा हो. वीआईपी पास बनाने के बाद अवंतिका प्रतीक्षालय की कैंटीन में कौफी पीने बैठ गई. करीब 1 घंटे के बाद उस का नंबर आया. आचार्यजी से मिल कर अवंतिका ने अपने घर की वे सारी समस्याएं उन के समक्ष रख दीं जो वास्तव में समस्याएं थी ही नहीं. मात्र उस के मन का भ्रम था, लेकिन उस के इस भ्रम के बीज को आचार्यजी ने बड़ा वृक्ष का रूप दे दिया.

आचार्यजी ने अवंतिका को परिवार के हर सदस्य के लिए अलगअलग रत्न दे दिए और कहा कि इन से सभी समस्याओं का निवारण हो जाएगा, साथ ही साथ ज्योतिषाचार्यजी ने अवंतिका से अच्छीखासी रकम भी ऐंठ ली. यह सर्व समस्या निवारण केंद्र पूरी तरह से अंधविश्वास, ग्रहनक्षत्रों का भय व रत्नों का बुना हुआ ऐसा माया जाल था जो व्यापार का व्यापक रूप ले कर फूलफल रहा था, जिस में लोग स्वत: फंसते चले जा रहे थे और यह खेल पूर्णरूप से भय और लोगों की अज्ञानता का प्रतिफल था.

अवंतिका दोनों बच्चों और संजय के  पहुंचने से पहले ही घर लौट आई और अनुकृति के घर आते ही उस के पीछे लग गई कि वह आचार्यजी के द्वारा दिए गए उस रत्न को पहन ले.अनुकृति नहीं पहनना चाहती थी. वह चाहती थी कि उस की मां उस की परेशानियों को समझे और उसे ट्यूशन जाने की अनुमति दे दे, लेकिन अवंतिका कुछ समझने को तैयार ही नहीं थी, वह तो बस बारबार अनुकृति को इस बात पर जोर दे रही थी कि यदि वह ज्योतिषाचार्यजी के द्वारा दिए गए रत्न को पहन लेगी तो बिना ट्यूशन जाए ही 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास हो जाएगी. हार कर आखिरकार अनुकृति ने रत्न पहन ही लिया.

शाम ढलने को थी, लेकिन अनुज अब तक स्कूल से घर नहीं लौटा था, जबकि अनुकृति की ऐक्स्ट्रा क्लास होने के बावजूद वह घर आ चुकी थी. इस बात से बेखबर अवंतिका इस उधेड़बुन में लगी थी कि वह संजय को कैसे बताएगी कि वह घर खर्च के पैसों के साथसाथ बच्चों की स्कूल फीस के रुपए भी सर्व समस्या निवारण केंद्र में दे आई है.

खाना बनाते हुए अवंतिका के मन में यह  विचार भी चल रहा था कि आचार्यजी के द्वारा दिए रत्न जरूर अपना असर दिखाएंगे और उस के घर की सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी.

उसी वक्त संजय भी दफ्तर से आ गया. अनुज को घर पर न पा कर संजय ने अवंतिका से कहा, ‘‘अनुज कहां है दिखाई नहीं दे रहा है?’’

तब जा कर अवंतिका को खयाल आया कि अनुज तो अब तक आया ही नहीं है. वह कुछ कह पाती उस से पहले अनुज आ गया. उसे देख कर लग रहा था कि वह काफी परेशान हैं.

यह देख  संजय ने अनुज से पूछा, ‘‘क्या हुआ अनुज तुम परेशान लग रहे हो?’’

‘‘नहीं पापा ऐसा कुछ नहीं है,’’ अनुज नजरें चुराता हुआ बोला और वहां से चला गया.

तभी अवंतिका बोली, ‘‘अरे आप क्यों चिंता करते हैं आज मैं ज्योतिषाचार्य परमानंद

नित्याजी के केंद्र गई थी. आचार्यजी ने हम सभी के ग्रहों के हिसाब से रत्न दिए हैं. अब आप देखना सब ठीक हो जाएगा.’’

यह सुनते ही संजय और अधिक परेशान हो गया और हड़बड़ाते हुए बोला, ‘‘तो क्या तुम ज्योतिषाचार्य के पास गई थी. सच बताओ तुम कितने रुपए फूंक कर आ रही हो और कौन से रुपए खर्च किए हैं तुम ने?’’

यह सुनते ही अवंतिका बिदक गई और कहने लगी, ‘‘तुम्हें तो बस पैसों की ही पड़ी रहती है. मेरी या घरपरिवार की तो तुम्हें कोई चिंता ही नहीं है. अनुकृति का इस साल ट्वैल्थ है, अनुज का टैंथ है तुम्हारी प्रमोशन भी अटकी पड़ी है, हमारे रिश्ते में भी कुछ सामान्य नहीं है और तुम्हें रुपयों की पड़ी है. मैं जो करती हूं तुम्हारे लिए और इस घर की भलाई के लिए ही करती हूं. ज्योतिष के पास जाती हूं, आचार्यजी के पास जाती हूं यहांवहां भटकती रहती हूं किस के लिए? तुम सब के लिए और तुम हो कि बस हाय पैसा… हाय पैसा करते रहते हो.’’

पैसे और ज्योतिष को ले कर संजय और अवंतिका के बीच बहस छिड़ गई और यह बहस उस वक्त और अधिक बढ़ गई जब संजय को पता चला कि अवंतिका घर खर्च के पैसे और बच्चों की स्कूल फीस के पैसे सब लुटा आई है. यह बात आग में घी का काम कर गई. जिस घर की शांति के लिए अवंतिका रत्न ले कर आई थी उसी घर की शांति पूरी तरह से भंग हो गई थी.

अवंतिका के पति और उस के दोनों बच्चे उस से दूर होते जा रहे थे. रोजरोज की कलह से तंग आ कर संजय ने भी वह रत्न पहन तो लिया जिसे अवंतिका ले कर आई थी और अनुज को भी पहना दिया? लेकिन घर की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया. कलह दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी.

अनुकृति अपनी पढ़ाई को ले कर परेशान थी. अवंतिका उसे ट्यूशन यह कह कर जाने नहीं दे रही थी कि आचार्यजी ने जो रत्न दिया है उस से तुम 12वीं कक्षा अच्छे नंबरों से पास हो जाओगी. संजय कर्ज से लदता जा रहा था क्योंकि अवंतिका ज्योतिष, रत्नों और बेकार के टोटकों में पैसे बरबाद कर रही थी. इधर छोटी सी उम्र में गलत संगत में पड़ कर अनुज जुआरी बन चुका था.

एक रोज अचानक अनुकृति स्कूल से रोती हुई घर पहुंची. अवंतिका किसी ज्योतिषी के पास गई हुई थी और संजय औफिस का कुछ काम कर रहा था. अनुकृति को इस प्रकार रोता देख संजय ने उस से रोने का कारण पूछा.

अनुकृति रोती हुई बोली, ‘‘पापा, पिछले 4 महीनों से मेरी और अनुज स्कूल फीस जमा नहीं हुई है. मैम ने कहा है कि यदि समय से फीस जमा नहीं हुई तो एग्जाम में अपीयर नहीं होने देगी.’’

यह सुन गुस्से से संजय की आंखें लाल हो गईं, लेकिन वह अनुकृति को शांत करते हुए बोला, ‘‘बेटा परेशान होने की कोई जरूरत नहीं मैं 1-2 दिन में फीस की व्यवस्था करता हूं. तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

संजय का इतना कहना था कि अनुकृति और अधिक रोने लगी यह देख संजय घबरा गया कि आखिर क्या बात हो गई.

तभी अनुकृति दोबारा सिसकती हुई बोली, ‘‘पापा 1 महीने के बाद मेरा फाइनल एग्जाम है और मुझे फिजिक्स, कैमिस्ट्री बिलकुल समझ नहीं आ रहे.’’

‘‘अरे तो इस में रोने वाली क्या बात है  तुम इन के लिए ट्यूशन कर लो और फिर तुम ने मुझे या अपनी मम्मी को पहले क्यों नहीं बताया? हम तुम्हारी ट्यूशन क्लास पहले ही शुरू करा देते?’’ संजय सांत्वना देते हुए बोला.

अनुकृति सुबकती हुई बोली, ‘‘पापा मैं ने मम्मी को बताया था, लेकिन मम्मी ने कहा कि ट्यूशन की कोई जरूरत नहीं है, ज्योतिषाचार्यजी के द्वारा दिया रत्न पहनने से ट्वैल्थ में मेरे अच्छे मार्क आएंगे, लेकिन पापा ऐसा कुछ नहीं हो रहा और अब लास्ट टाइम में कोई भी ट्यूशन लेने को तैयार नहीं है.’’

यह सुन संजय ने अपना सिर पकड़ लिया. अवंतिका का दिनप्रतिदिन

अंधविश्वास, ज्योतिष और रत्न के प्रति सनक बढ़ती ही जा रही थी, जो अब बच्चों के

भविष्य के लिए भी खतरे की घंटी थी क्योंकि अवंतिका न तो घर पर ध्यान दे रही थी और न ही बच्चों पर.

संजय स्वयं को संभालता हुआ अनुकृति को समझते हुए बोला, ‘‘बेटा, तुम चिंता मत करो मैं सब ठीक कर दूंगा. मैं तुम्हारे टीचर्स से बात करूंगा कि वे तुम्हें फिजिक्स और कैमिस्ट्री की ट्यूशन पढ़ाएं.’’

संजय के ऐसा कहने पर अनुकृति का रोना बंद हुआ और वह वहां से चली गई, लेकिन संजय दुविधा में पड़ गया कि वह कहां से लाएगा 4 महीने की स्कूल फीस, ट्यूशन फीस और घर खर्च के लिए रुपए, पहले ही वह कर्ज से दबा हुआ था. उस की छोटी सी प्राइवेट नौकरी में 1 महीने में इतना सब कर पाना आसान नहीं था और अवंतिका है कि बिना सोचविचार के ज्योतिष, आचार्य और रत्नों पर पैसे गंवा रही है.

संजय यदि अवंतिका से इस बारे में कुछ भी कहता या उसे रोकने की कोशिश करता तो वह उस से लड़ने पर आमादा हो जाती. संजय को कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे. अवंतिका को इस अंधविश्वास के जाल से कैसे बाहर निकाले.

तभी कुछ देर में अवंतिका घर से नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने के लिए न जाने क्याक्या सामान ले कर आ गई. यह देख संजय ने अवंतिका को बहुत समझने की कोशिश की कि वह ये सब बेकार के खर्चे करना बंद करे, केवल घरपरिवार पर ध्यान दे, लेकिन अवंतिका नहीं मानी वह अपनी मनमानी करती रही.

अवंतिका की मनमानी देख संजय को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह अवंतिका के सिर से यह ज्योतिषाचार्य और रत्नों का भूत कैसे उतारे. संजय ने कर्ज ले कर दोनों बच्चों की फीस भर दी. अनुकृति की टीचर्स से अनुरोध कर  ट्यूशन पढ़ाने के लिए भी उन्हें राजी कर लिया, जिस का नतीजा यह हुआ कि जिस दिन 12वीं कक्षा का रिजल्ट घोषित हुआ अनुकृति फिजिक्स और केमिस्ट्री के साथसाथ सभी विषयों में अच्छे नंबरों के साथ पास हो गई.

अनुकृति को जब इस बात का पता चला कि वह अच्छे नंबरों से पास हो गई है तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. अनुकृति पिता के गले लग कर बोली, ‘‘थैंक्यू पापा…’’

यह देख अवंतिका थोड़ी नाराजगी जताती हुई बोली, ‘‘अरे वाह आचार्यजी के पास मैं गई, घंटों लाइन में मैं खड़ी रही और तुम अपने पापा के गले लग कर थैंक्यू बोल रही हो?’’

यह सुन अनुकृति बोली, ‘‘मम्मी, मेरा ट्वैल्थ पास होना कोई आचार्यजी का प्रताप या रत्नों का कमाल नहीं है. देखो मैं ने तो कोई रत्न पहना ही नहीं है. यह तो मेरी मेहनत और पापा

का मुझे ट्यूशन के लिए टीचर को मनाने का नतीजा है.’’

यह सुन अवंतिका बड़ी नाराज हुई और वह आचार्यजी की पैरवी करने लगी. तभी संजय का मोबाइल बजा. फोन किसी अनजान नंबर से था. संजय के फोन उठाते ही उसे फौरन पुलिस स्टेशन आने को कहा गया. यह सुन संजय भागता हुआ पुलिस स्टेशन पहुंचा तो उसे पता चला कि पुलिस ने अनुज को जुआ खेलने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया है.

इधर संजय पुलिस स्टेशन में अनुज को छुड़वाने के प्रयास में लगा हुआ था और उधर जब अवंतिका को इस बात का पता चला कि पुलिस ने अनुज को जुआ खेलने के जुर्म में जेल में बंद कर दिया है तो वह रोती हुई भाग कर सर्व समस्या निवारण केंद्र ज्योतिषाचार्यजी के पास अपनी समस्या के निवारण के लिए जा पहुंची, लेकिन आचार्यजी ने अवंतिका से बिना चढ़ावा चढ़ाए मिलने से इनकार कर दिया. तब जा कर आज अवंतिका को यह स्पष्ट हो पाया कि आचार्यजी के लिए उस की समस्या या उस से कोई लेनादेना नही है.

वह तो केवल एक पैसा कमाने का जरीया थी. जब तक वह चढ़ावा चढ़ाती रही आचार्यजी उस से मिलते रहे और आज उन्होंने मुंह फेर लिया. अवंतिका आचार्यजी से बिना मिले ही घर लौट आई.

संजय जब बड़ी मुश्किलों से अनुज को पुलिस से छुड़ा कर घर पहुंचा तो उस ने जो देखा उसे देख कर उस की आंखें खुली की खुली रह गईं, उस ने देखा अवंतिका घर में रखा सारे टोटकों का सामान बाहर फेंक रही थी जो उस ने स्वयं ही घर की सुखशांति, बच्चों की पढ़ाई और उस की प्रमोशन के लिए रखा था.

संजय और अनुज को देखते ही अवंतिका दौड़ कर उन के करीब आ गई और

उस ने अनुज को अपने गले से लगा लिया. उस के बाद वह अनुज की उंगलियों और गले से वे सारे रत्न निकाल कर फेंकने लगी जो ज्योतिषाचार्य के द्वारा दिए गए थे.

सारे रत्न और टोटकों के सामान फेंकने के उपरांत अवंतिका हाथ जोड़ कर संजय से बोली, ‘‘मुझे माफ़ कर दीजिए, मैं भटक गई थी. जिस परिवार की सलामती के लिए सुख, शांति और खुशहाली के लिए मैं ज्योतिष, आचार्य और रत्नों को महत्त्व देती रही, उन के पीछे भागती रही वह मेरी मूर्खता थी, अज्ञानता थी. मैं अंधविश्वास में कुछ इस तरह से पागल थी कि मैं एक भ्रमजाल में फंस गई थी, लेकिन अब मैं समझ चुकी हूं कि अंधविश्वास एक ऐसा जहर है जो किसी भी खुशहाल परिवार में घुल जाए तो उस परिवार को पूरी तरह बरबाद कर देता है, तबाह कर देता और ये ज्योतिषाचार्य, साधु, संत, महात्मा, आचार्य अपना उल्लू सीधा करने के लिए, अपनी जेबें भरने के लिए हमारी भावनाओं के साथ, हमारी आस्था और विश्वास के साथ खेलते हैं. मैं आप से वादा करती हूं कि अब मैं कभी किसी ज्योतिषी, आचार्य या रत्नों के चक्कर में नहीं पड़ूंगी. केवल अपने घरपरिवार और बच्चों पर ध्यान दूंगी.’’

अवंतिका से ये सब सुन संजय ने हंसते हुए अवंतिका को गले से लगा लिया और फिर बोला, ‘‘जब जागो तभी सवेरा.’’

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Teachers Day: स्क्रीन पर शिक्षकों का किरदार निभाने वाले अभिनेता

Teachers Day: शिक्षक हमारी जिंदगी को आकार देते हैं, पीढ़ियों को प्रेरित करते हैं और ऐसे सबक छोड़ जाते हैं, जो हमारी स्कूली कक्षा की दीवारों से आगे हमें ले जाते हैं. हालांकि बौलीवुड ने यादगार शिक्षकों को पर्दे पर उतारकर अक्सर इस जज्बे का जश्न मनाया है, जिन में कोई सख़्त तो कोई कोमल थे, लेकिन सभी प्रेरणादायक थे. फिलहाल शिक्षक दिवस के अवसर पर, आइए नजर डालते हैं कुछ बेहतरीन प्रस्तुतियों पर जहां अभिनेताओं ने शिक्षक की शक्ति को जीवंत कर दिया.

 विद्या बालन – शकुंतला देवी

विद्या बालन ने शकुंतला देवी (2020) में न सिर्फ़ गणित की जीनियस के रूप में बल्कि एक ऐसी शिक्षिका के रूप में भी चमक बिखेरी, जो सबसे कठिन कान्सेप्ट्स को भी सरल और रोचक बना देती हैं. उन के किरदार ने सीखने की खुशी और शिक्षकविद्यार्थी के रिश्ते को खूबसूरती से पेश किया.

अमिताभ बच्चन – ब्लैक

संजय लीला भंसाली की ब्लैक में अमिताभ बच्चन ने देबराज सहाय का किरदार निभाया, जो एक बधिर और अंधी लड़की (रानी मुखर्जी) के मेंटर बने. यह प्रदर्शन आइकौनिक माना जाता है. कठोर अनुशासन और गहरी संवेदनशीलता का मिश्रण, जिस ने साबित किया कि मार्गदर्शन हर मुश्किल को पार कर सकता है.

शाहरुख खान – मोहब्बतें

मोहब्बतें में शाहरुख कान का किरदार राज आर्यन मल्होत्रा हिंदी सिनेमा के सबसे प्यारे शिक्षक किरदारों में से एक बन गया. एक संगीत शिक्षक के रूप में, जिसने प्यार और आत्मअभिव्यक्ति के सबक दे कर सख्त सत्ता को चुनौती दी, SRK ने “गुरु” की छवि को भावनात्मक और कूल दोनों बना दिया.

आमिर खान – तारे जमीन पर

तारे जमीन पर में आमिर खान ने राम शंकर निकुंभ का किरदार निभाया, जो हर बच्चे का सपनों का शिक्षक है. संवेदनशील, मजेदार और अपनी पद्धति में क्रांतिकारी. उन्होंने सिर्फ कला ही नहीं सिखाई, बल्कि यह भी बताया कि हर बच्चे के मन को समझना और उसकी विशेषता को पोषित करना कितना जरूरी है.

रानी मुखर्जी – हिचकी

हिचकी में रानी मुखर्जी ने नैना माथुर का किरदार निभाया, जो टौरेट सिंड्रोम से जूझते हुए भी न अपने छात्रों को छोड़ा और न खुद को. उन का अभिनय प्रेरणादायक और भावुक दोनों था, जिस ने दिखाया कि दृढ़ता से हर बाधा को तोड़ा जा सकता है.

सुष्मिता सेन – मैं हूं ना

मैं हूं ना में रसायनशास्त्र की प्रोफेसर चांदनी के रूप में सुष्मिता सेन ने ऐसा जादू चलाया कि हर छात्र (और दर्शक!) क्लास अटेंड करने को बेताब हो गए. उन्होंने साबित किया कि शिक्षक स्टाइलिश और संवेदनशील दोनों हो सकते हैं.

नुसरत भरुचा – छलांग

छलांग (2020) में नुसरत भरुचा ने कम्प्यूटर टीचर नीलिमा का किरदार निभाया था, जो पीटी टीचर राजकुमार राव के जीवन और करियर में प्रेरणा का स्रोत बनती हैं, जिससे वह अपनी जिंदगी और करियर को गम्भीरता से लें. उन का किरदार यह दर्शाता है कि एक शिक्षक केवल सख्त ही नहीं, बल्कि दोस्ताना और प्रेरणादायी भी हो सकता है.

बोमन ईरानी – 3 इडियट्स

3 इडियट्स में बोमन ईरानी ने सख़्त और अजीबोगरीब प्रोफेसर वीरु सहस्त्रबुद्धी (वायरस) का किरदार निभाया. उन का यह अभिनय उस परंपरागत सत्तात्मक शिक्षक का प्रतीक था जिसे हम में से कई ने अपनी जिंदगी में देखा है और इसीलिए वे बौलीवुड के सब से यादगार औनस्क्रीन प्रोफेसर्स में से एक बन गए.

Teachers Day

Teacher’s Day: आईना- क्यों नही होता छात्रों की नजर में टीचर का सम्मान?

Teacher’s Day: आईने के सामने खड़े हो कर गाना गुनगुनाते हुए डा. रत्नाकर ने अपने बालों को संवारा, फिर अपनेआप को पूर्ण संतुष्टि के साथ निहारते हुए बड़े मोहक अंदाज में अपनी पत्नी को आवाज लगाई, ‘‘सोनू, अरे सोना, मैं तो रेडी हो गया, अब तुम जरा गाड़ी में दोनों पैकेट रखवा दो…प्रिंसिपल साहब का स्पैशल वाला और स्टाफरूम के लिए बड़ा वाला मिठाई का डब्बा. मेरे सारे दोस्त मिठाई के इंतजार में होंगे, सभी के बधाई के फोन आ रहे हैं. आखिर मेरी ड्रीम कार आ ही गई.’’

‘‘पैकेट कार में पहले ही रखवा दिए, प्रिंसिपल साहब की मैडम के लिए कांजीवरम सिल्क की साड़ी भी रख दी है. चाहे कुछ कहो, प्रिंसिपल साहब साथ न दें तो हमारे सपने कैसे पूरे हों. अगर मैडम को भी खुश कर दो तो सबकुछ आसान हो जाता है. ठीक है न,’’ सोनू ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘यू आर ग्रेट,’’ परफ्यूम स्प्रे करतेकरते डा. रत्नाकर ने अपनी पत्नी की दूरदर्शिता की दाद देते हुए कहा, ‘‘जानती हो, स्टाफ में एक शख्स ऐसा भी है जिस ने न तो अभी तक मुझे बधाई नहीं दी. उस का नाम शैलेंद्र है. जलता है वह मेरी तरक्की से और कुछ कहो तो आदर्श शिक्षक की विशेषताएं बता कर सारा मजा किरकिरा कर देता है…सोच रहा हूं, आज उसे इग्नोर ही कर दूं वरना मूड खराब हो जाएगा.’’

सोनू ने भी इस बात पर पूर्ण सहमति जताते हुए सिर हिलाया. डा. रत्नाकर और सोनू गेट की ओर बढ़े. ड्राइवर ने दौड़ कर गाड़ी का दरवाजा खोला.

‘‘बाय,’’ हाथ हिलाते हुए डा. रत्नाकर ने सोनू से विदा ली और कार कालेज की ओर चली. आज उन्हें अपनेआप पर बहुत गर्व हो रहा था. हो भी क्यों न? मात्र 3-4 साल में पहले निजी फ्लैट और अब गाड़ी खरीद ली थी. कहां खटारा स्कूटर…किराए का मकान…मकानमालिक की किचकिच… सब से मुक्ति. जब से अपना कोचिंग सैंटर खोला है तब से रुपयों की बरसात ही तो हो रही है. सोनू भी पढ़ीलिखी है. वह कोचिंग का पूरा मैनेजमैंट देख लेती है और डा. रत्नाकर शिफ्ट में व्यावसायिक कोर्स की कोचिंग करते हैं. प्रिंसिपल साहब को भी किसी न किसी बहाने कीमती गिफ्ट पहुंच जाते हैं तो कालेज का समय भी कोचिंग में लगाने की सुविधा हो जाती है. एक बेटा है जो दिल्ली के एक महंगे स्कूल से 12वीं कर रहा है.

‘ट्रिन…ट्रिन,’ मोबाइल की घंटी से डा. रत्नाकर अपने सुखद विचारों से बाहर निकले. शौर्य का फोन था.

‘‘क्या बात है?’’ रत्नाकर ने पूछा.

‘‘पापा, आप अपनी किताबें व रजिस्टर घर पर ही भूल गए,’’ शौर्य ने कहा, ‘‘सोचा, आप को बता दूं. आप परेशान हो रहे होंगे.’’

‘‘अरे,’’ रत्नाकर सोच ही नहीं पाए कि क्या जवाब दें. फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘बेटा, असल में आज एक मीटिंग है, इसलिए कालेज में पढ़ाई नहीं होगी,’’ इतना कहते ही उन्होंने फोन रख दिया.

गाड़ी से उतर कर रत्नाकर तेज चाल से सीधे प्रिंसिपल के कमरे की ओर बढ़े. प्रिंसिपल साहब गाड़ी की आवाज सुन कर पहले ही खिड़की से डा. रत्नाकर की ड्रीम कार की झलक देख चुके थे, जिसे देख कर उन का मूड औफ हो गया था. अत: डा. रत्नाकर के कमरे में घुसने पर वे चाह कर भी मुसकरा न सके.

‘‘सर, आप के आशीर्वाद से नई गाड़ी ले ली है…और इस खुशी में यह छोटी सी भेंट आप के लिए लाया था. सोनू ने भाभीजी के लिए कांजीवरम की साड़ी भी भेजी है,’’ कह कर डा. रत्नाकर ने बोझिल वातावरण को महसूस करते हुए उसे हलका करने के उद्देश्य से प्रिंसिपल साहब के पैर छूने का उपक्रम किया.

‘‘रहने दो. इस सब की जरूरत नहीं. वैसे भी मैं तुम को फोन करने वाला था क्योंकि आजकल कई अभिभावक तुम्हारे विरुद्ध शिकायतें ले कर आ रहे हैं कि लंबे समय से क्लास नहीं हुई. मेरे लिए भी संभालना मुश्किल हो रहा है,’’ प्रिंसिपल साहब ने थोड़ी बेरुखी दिखाते हुए कहा.

‘‘सर, मुझे पूरा विश्वास है कि आप तो संभाल ही लेंगे. वैसे भी भाभीजी की कुछ और खास पसंद हो तो बताइएगा,’’

डा. रत्नाकर ने ढिठाई से मुसकराते हुए कहा.

प्रिंसिपल साहब भी मुसकरा दिए.

अब दोनों खुश थे क्योंकि दोनों का दांव सही जगह लगा था.

 

प्रिंसिपल साहब से आज्ञा ले कर रत्नाकर खुशी से उतावले हो कर स्टाफरूम की ओर बढ़े. ‘अब असली मजा आएगा…गाड़ी खरीदने का. सब के चेहरे देखने में एक अजब ही सुख मिलेगा, जिस की प्रतीक्षा मुझे न जाने कब से थी,’ रत्नाकर मन में सोच कर प्रसन्न हो रहे थे.

‘‘बधाई हो,’’ कई स्वर एकसाथ उभरे. रत्नाकर भी खुशी से फूल गए. चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर देखा तो कोने की टेबल पर डा. शैलेंद्र एक किताब पढ़ने में लीन थे. चाह कर भी रत्नाकर अपनेआप को रोक न सके. अत: शैलेंद्र की प्रतिक्रिया जानने के लिए मिठाई खिलाने के बहाने उन के पास पहुंचे.

‘‘शैलेंद्र, लो, मिठाई खाओ भई. कभीकभी दूसरों की खुशी में भी अपनी खुशी महसूस कर के देखो, अच्छा लगेगा,’’ थोड़े तीखे व ऊंचे स्वर में रत्नाकर ने कहा.

‘‘जरूरी नहीं कि मिठाई बांट कर या शोर मचा कर ही खुशी प्रकट की जाए. मुझे किताब पढ़ने में खुशी मिलती है तो मैं वही कर रहा हूं और खुश हो रहा हूं,’’ शांत भाव से शैलेंद्र ने जवाब दिया.

‘‘वही तो, कई लोगों को हमेशा पुराने ढोल की आवाज ही अच्छी लगती है तो वे बेचारे क्या तरक्की करेंगे. मैं ने अपनी सोच बदली, नए जमाने की दौड़ के साथ दौड़ा तो आज तुम जैसे लोगों को पीछे छोड़ दिया. असल में मुझे बहुत जल्दी ही इस सच का एहसास हो गया कि पहले जैसे विद्यार्थी रहे ही नहीं तो उन के साथ माथापच्ची क्यों करूं? इसलिए जो वास्तव में पढ़ना चाहते हैं उन्हें अलग से पढ़ाऊं…अलग पढ़ाने की फीस लूं…वे भी खुश हम भी खुश,’’ रत्नाकर ने तीखे स्वर में तर्क देते हुए कहा. क्योंकि वे अपनी उपलब्धि सभी पर प्रकट कर अपनेआप को सब से ऊंचा साबित करना चाह रहे थे.

‘‘गलत, एकदम गलत. अगर इसी बात को सही शब्दों में कहें तो हम शिक्षक अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए शिक्षा को व्यवसाय बना रहे हैं तथा ऐसा करने में जो अपराधबोध है उसे विद्यार्थियों के सिर मढ़ रहे हैं,’’ दोटूक उत्तर दे कर शैलेंद्र खड़े हुए और बिना मिठाई खाए स्टाफरूम से बाहर जाते हुए बोले, ‘‘आज भी अच्छे अध्यापक के सभी विद्यार्थी बहुत अच्छे होते हैं और वे ऐसे अध्यापक को वैसे ही सम्मान देते हैं जैसे अपने मातापिता को.’’

स्टाफरूम में सन्नाटा छा गया.

डा. रत्नाकर भी निरुत्तर हो कर बैठ गए.

‘‘दिन कैसा रहा?’’ दरवाजा खोलते हुए खुश हो कर सोनू ने उत्सुकता प्रकट करते हुए रत्नाकर से पूछा.

‘‘बहुत अच्छा, बस शैलेंद्र ने ही थोड़ा बोर कर दिया पर सोनू, सच कहूं तो उस की बात का बिलकुल बुरा नहीं लगा क्योंकि मुझे अपनी उपलब्धि पर भरपूर सुख का एहसास हो रहा था,’’ डा. रत्नाकर बोले.

‘‘अरे पापा, आप कब आए?’’ कहते हुए शौर्य उन के पास आ कर बैठ गया.

‘‘अभीअभी, बड़ी जरूरी मीटिंग थी, इसीलिए थोड़ा थक गया पर कल तुम को वापस जाना है इसलिए आज हम सब लोग डिनर करने बाहर चलेंगे. शौर्य, तुम अपने टीचर्स के लिए मिठाई और गिफ्ट्स ले जाना, वे खुश हो जाएंगे,’’ रत्नाकर ने शौर्य से कहा.

‘‘पापा, कोई टीचर इस लायक है ही नहीं कि उन को कुछ देने का मन करे, सब पैसे के पीछे भागते हैं, ‘डाउट्स क्लीयर’ करने के बहाने घर बुला कर अच्छीखासी फीस लेते हैं…कुछ तो न जाने कब से कालेज ही नहीं आए… केवल एक राजन सर ऐसे हैं जिन के मैं हमेशा पैर छूता हूं और उन के लिए सच्चे मन से कुछ ले जाना चाहता हूं पर वे लेंगे ही नहीं. उन का कहना है कि हमारा अच्छा रिजल्ट ही उन की उपलब्धि है,’’ कहतेकहते शौर्य भावुक हो उठा.

डा. रत्नाकर की निगाहें झुक गईं. उन का बेटा उन्हीं को ऐसा आईना दिखा रहा था जिस में वे अपना अक्स देखने की स्थिति में ही नहीं थे.

Teacher’s Day

Big Boss 19: कुनिका सदानंद को 27 साल लिवइन में रहने के बाद मिला धोखा

Big Boss 19: बिग बॉस एक ऐसा शो है जहां अच्छे-अच्छों की जन्म कुंडली खुल कर सामने आती है. 4 महीने के शो में कंटेस्टेंट के रूप में रहने वाले बॉलीवुड और टीवी स्टार कई बार खुद ही अपनी जन्म कुंडली दुनिया के सामने खोल कर रख देते हैं, क्योंकि बिग बॉस के घर में उनके पास टाइम पास करने के लिए बातें करने के अलावा कोई चारा नहीं होता. कई बार बिग बॉस भी टीआरपी के चक्कर में नएनए हथकंडे अपना कर विवादस्पद प्रतियोगी की पोल खोल कर रख देते हैं. जिसे कंटेस्टेंट कई बार छुपाने की कोशिश करते रहते हैं.

बिग बॉस 19 को शुरू हुए 12 दिन भी नहीं हुए कि एक-एक करके घर में आए प्रतियोगियों की के कई राज बाहर आने लगे हैं. इसी सिलसिले में 61 साल की एक्ट्रैस कुनिका दूसरे प्रतिभागियों के सामने अपनी फ्लॉप लव लाइफ शेयर करती नजर आई.

कुनिका ने बातों बातों में अपने साथ बैठी अन्य प्रतियोगियों को अपनी जिंदगी में मिले प्यार और धोखे के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि उनकी लव लाइफ में काफी सारे उतार चढ़ाव हुए, उनकी दो शादियां हो चुकी है. इस शादी से दो बेटे होने के बावजूद कुनिका का रिश्ता 27 सालों तक एक फेमस सिंगर के साथ रहा. अब यह बात जगजाहिर है.

यह सिंगर पहले से शादीशुदा था और अपनी पत्नी के साथ ही रह रहा था लेकिन फिर भी कुनिका उस आदमी के साथ 27 साल तक लिव इन रिलेशनशिप में रही लेकिन वहां भी उनको धोखा मिला क्योंकि वह सिंगर कुनिका और पत्नी के अलावा एक अन्य लड़की के साथ तीसरी सेटिंग में भी लगा हुआ था. जब कुनिका को इस बात का पता चला तो उन्होंने उस सिंगर के साथ लिव इन रिलेशनशिप वाला रिश्ता भी खत्म कर दिया. इतना सब होने के बाद भी एक्ट्रेस ने हार नहीं मानी है.

बिग बॉस 19 के प्रीमियर के दौरान होस्ट सलमान खान के सामने भी यह बात सामने आई की इस एक्ट्रैस को 20 से 24 साल के लड़के प्रपोज करते हैं और उनके पीछे पड़े होते हैं. मजे की बात तो यह है कि बिग बॉस 19 के प्रीमियर के फर्स्ट एपिसोड में एक जवान लड़के को बुला भी लिया गया था जो अपने आप को कुनिका का आशिक बता रहा था. ऐसे में जब कुछ जवान लड़कों ने कुनिका को मम्मी कहना शुरू किया तो वह बेहद नाराज हो गई और उन्होंने गुस्से में कहा कि मम्मी नहीं कहो.

ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारी उम्रदराज हीरोइनें जवान हीरोइनों से कम है क्या?, ठीक वैसे ही जैसे यह कहावत मशहूर है कि ‘हमारी छोरी छोरों से कम है क्या ? ’. बिग बॉस की इस हॉट लेडी ने यह तो साबित कर ही दिया कि दिल जवान होना चाहिए उम्र सिर्फ एक नंबर है.

Big Boss 19

Shital Babar: लड़की के आत्मनिर्भर बनने पर क्या कहती हैं ज्वैलरी डिजाइनर

Shital Babar: अगर आप ने जिंदगी में कुछ करने को ठान लिया है, तो समस्याएं कितनी भी आएं, आप उन से निकल कर सफलता प्राप्त कर लेते हैं, ऐसा ही कुछ कर दिखाया है सातारा की शीतल बाबर ने, जो एक ज्वैलरी डिजाइनर होने के साथसाथ मेकअप आर्टिस्ट और हेयर ड्रैसर भी हैं.

उन के लिए यहां तक पहुंचना आसान नहीं था, क्योंकि वे अभी तक सिंगल हैं और उन्हें आसपास के सभी रिश्तेदारों से बारबार शादी कर घर बसाने के लिए कहा जाता था, लेकिन शीतल खुद को स्थापित कर एक बिजनैस वूमन बनना चाहती हैं, जिस में शादी उन की प्रायोरिटी नहीं.

उन के इस काम में उन की मां आशा हनुमंत बाबर और भाई अमोल हनुमंत बाबर का बहुत हाथ रहा है, जिन्होंने हमेशा उन्हें कुछ मनमुताबिक काम करने की आजादी दी है.

मिली प्रेरणा

शीतल कहती हैं कि मुझे बचपन से ही अपना कुछ करने की इच्छा थी. मैं ड्राइंग, पेंटिंग और क्राफ्ट का काम शुरू से करती आई हूं. मेकअप के भी वर्कशौप अटेंड किए, जहां मुझे महाराष्ट्रियन नथ बनाने की कला सिखाई गई, जिस में मुझे ज्वैलरी बनाने की बेसिक का पता चला. इस के बाद मैं कई नथ बना कर सोशल मीडिया पर डाल दी. मैं ने केवल 5 महाराष्ट्रियन नथ बनाने की कला सीखी और उसी के आधार पर कई नए डिजाइन बना लिए, जो मेरे फ्रैंड सर्कल में सभी को पसंद आ रहे थे. मेरे कई ग्राहक बन गए. मेरे नथ के ग्राहक विदेशों में भी हैं.

मिला परिवार का सहयोग

शीतल कहती हैं कि मेरे परिवार वालों ने हमेशा मुझे हर काम में सहयोग दिया है. उन्होंने लड़की समझ कर मुझे मेरे काम को करने से मना नहीं किया. यही वजह थी कि मैं ने कंप्यूटर एप्लिकेशन में पढ़ाई सातारा से पूरी की है. इस के बाद मैं मुंबई अपने परिवार के साथ शिफ्ट हुई. इस के बाद मैं ने कुछ दिनों तक मुंबई में शेयर मार्केट में भी काम किया है. फिर बैंकिंग में पोस्ट डिप्लोमा करने के बाद कुछ दिनों बाद मुझे एक बैंक में जौब लग गई. जौब करतेकरते मुझे लगा कि मुझे कुछ अपना काम करना है. ऐसे में मैं ने अपना कुछ करने का प्लान बनाया.

छोटे बजट से व्यवसाय

शीतल कहती हैं कि मैं सातारा में अपने घर में अकेली रहती हूं और शांति से पूरा काम करती हूं, क्योंकि क्रिएटिविटी के लिए शांत वातावरण चाहिए. वहां मेरे आसपास मेरे रिश्तेदार हैं, उन का सहयोग मेरे साथ पूरा रहता है.

व्यवसाय की शुरुआत में मैं ने जौब से जमा किए हुए पूंजी से किया. इस में मैं पहले कम रा मैटीरियल मंगवाती थी, फिर सब के और्डर मिलने पर उन्हे सप्लाई कर जो पैसा मिलता था, उस से फिर से रा मैटीरियल मंगवाती थी. ऐसा करतेकरते मेरे व्यवसाय के ग्राहक बढ़ते गए. पहले जितना कमाया, उतने खर्च कर देती थी. कुछ बचता नहीं था. धीरेधीरे ग्राहक बढ़े और अब लाभ होने लगा. मेरे ब्रैंड का नाम ‘साज नथ शीतल’ है.

मेरे इस व्यवसाय में सातारा की एक फ्रैंड ने बहुत सहयोग दिया है. उन की प्रिंटिंग प्रेस है. उन्होंने विजिटिंग कार्ड, प्रिंटिंग मैटीरियल आदि सब फ्री में बना कर दिया, ताकि मैं व्यवसाय शुरू कर सकूं. अब मैं उन्हें पैसे देती हूं. मैं महीने में ₹25 से 30 हजार तक प्रौफिट कमा लेती हूं, जो मेरे लिए बहुत है.

मार्केटिंग करना नहीं था आसान

वे कहती हैं कि शुरू में मैं मार्केटिंग को ले कर काफी चिंतित थी, लेकिन एक दिन पहले जो 5 नथ मैं ने वर्कशौप के दौरान बनाने सीखे थे, वहां से कुछ रा मैटीरियल खरीद लिए थे, उसी से मैं ने कई नथ खुद बनाया और उस के पिक्चर्स सोशल मीडिया पर डाल दिए. दोस्तों से ले कर कई नए लोगों ने मेरे क्रिएशन की तारीफ की और तुरंत खरीद लिए. मेरे सारे नथ आधे घंटे में बिक गए. इस से मुझे प्रेरणा मिली. इस के बाद मैं ने कई ब्यूटी पार्लर वालों से संपर्क किया और अब नथ के साथसाथ मैं ने गले का हार, कान की बाली, हाथ के कंगन, अंगूठी आदि सब बनाने लगी, क्योंकि इन सब को बनाने की कला मैं ने कई वर्कशौप से सीख लिए थे. ज्वैलरी बना कर मैं ने ब्यूटी पार्लर वालों को भी को बेचना शुरू कर दिया है और अब मेरे ग्राहकों की लिस्ट लंबी हो गई है.

जरूरी है मनी का फ्लो होना

शीतल कहती हैं कि ज्वैलरी डिजाइनर के साथसाथ मैं मेकअप आर्टिस्ट और हेयर ड्रैसर भी हूं, क्योंकि मैं ने उस की ट्रैनिंग भी ली है. वहां भी मैं ब्राइड को मेरे ज्वैलरी से सजाती हूं. मेरे 3 काम एकसाथ चलते हैं, क्योंकि इस से मेरे व्यवसाय में मनी फ्लो होता रहता है. इस में मैं ब्राइड को सजाना, बेबी शावर, मौडल के मेकअप आदि सब करती हूं. मैं कस्टमाइज्ड ज्वैलरी भी बनाती हूं.

पौकेट फ्रैंडली है दाम

शीतल को एक पूरा सेट बनाने में 2 से 3 दिन लगते हैं, जबकि 1 नथ बनाने में आधा घंटा लगता है. इस में तार और मोती की सजावट खास होती है. 1 नथ की कीमत ₹500 से ₹800 तक होती है. नथ मेकिंग का किट मिलता है, जिस में तार, बीड्स, मोती आदि कई चीजें होती हैं, जिसे डिजाइन के अनुसार बनाया जाता है. इस काम में बारीकी और सफाई का होना आवश्यक होता है.

वे कहती हैं कि मैटीरियल पुणे और अन्य जगहों से औनलाइन मंगवाया जाता है, जिसे ग्राहकों की मांग के अनुसार उन्हें बना कर भेजती हूं. इस में मैं इस बात का ध्यान रखती हूं कि मुझे और्डर देने के बाद ग्राहक पूरे पैसे जमा करें, ताकि बाद में किसी प्रकार का झमेला न हो.

अभी तक मैं ने जो भी और्डर बना कर भेजे हैं, ग्राहक हमेशा संतुष्ट रहा है  इस से मेरा कारोबार बढ़ने में आसानी रही है. मैं रोज 5 से 6 घंटे तक काम करती हूं, लेकिन त्योहारों में रातरात भर बैठ कर काम करना पड़ता है, क्योंकि मार्केट में ज्वैलरी की मांग अधिक होती है और कमाई भी उन दिनों अधिक होती है.

वेराइटी के लिए मैं सोशल मीडिया के पेज पर जाती हूं और उस से अपना अलग क्रिएशन बनाती हूं, किसी की कौपी नहीं करती.

शादी करना मेरे लिए जरूरी नहीं

शादी न करने की वजह के बारे में पूछने पर शीतल हंसती हुई कहती हैं कि मैं शादी करना चाहती हूं, लेकिन मेरे व्यवसाय को ले कर टोकाटाकी करने वाला लड़का मुझे नहीं चाहिए. मुझे मेरे काम को सपोर्ट करने वाला पति चाहिए और वह उम्र के किसी भी पड़ाव में मिलेगा, मैं शादी कर लूंगी. अभी तक मुझे एक भी वैसा लड़का मिला नहीं है. मेरा आज के लड़कों के लिए मेरा अनुभव बहुत खराब है. उन की सोच मेरी सोच से अलग है. कुछ लड़कों ने तो मेरे रंगरूप, मेरी जौब, व्यवसाय आदि को देख कर रिजैक्ट किया है.

इसलिए शादी कर मैं अपने व्यवसाय को नष्ट नहीं करना चाहती. एक लड़की का शादी कर घर के काम करने की सलाह आज भी लड़के देते हैं, जो मुझे पसंद नहीं, क्योंकि एक लड़की हर तरह के काम कर सकती है, जबकि लड़के नहीं कर पाते.

मेरे रिश्तेदार मेरी शादी को ले कर पहले चिंतित थे, आज नहीं, क्योंकि कम उम्र में शादी कर मेरे परिवार की लड़की और दोस्त काफी परेशान हैं. कुछ ने तो डिवोर्स तक ले लिया है.

इस के अलावा जब मैं कालेज में थी तब मेरे पिता की मृत्यु हो गई थी, ऐसे में मैं ने अपने छोटे भाई और मां को संभाला है. आज मैं खुश हूं कि वे सभी अब सैटल्ड हैं और मेरा व्यवसाय भी शुरू हो गया है.

आगे की योजनाएं

शीतल अब अपना एक मेकअप और ज्वैलरी की अकादमी सातारा में खोलना चाहती हैं, जिस में छोटे शहरों और गांव की लड़कियां प्रशिक्षण प्राप्त कर आत्मनिर्भर बनें. समय मिलने पर वे खेतों पर काम करती हैं या फिर खुद को अपडेट करती हैं.

इस प्रकार शीतल बाबर की जीवनी, आज की लड़कियों के लिए प्रेरणादायक है, जिस में उन का आत्मविश्वास और दृढ़शक्ति उन्हें आगे ले जा रही है. वे केवल एक व्यवसाय ही नहीं चलातीं, बल्कि आसपास की लड़कियों को वर्कशौप के जरीए आत्मनिर्भर भी बना रही हैं, ताकि वे किसी भी परिस्थिति को बखूबी संभाल सकें.

Shital Babar

Social Story in Hindi: जूता शास्त्र

Social Story in Hindi: पता नहीं लोग कहां से टूटे, फटेपुराने जूते उठा लाते हैं और मंचों पर फेंकने लगते हैं. कुछ को जूते लग भी जाते हैं तो कुछ माइक स्टैंड का सहारा ले कर बच भी जाते हैं. जोश में कुछ लोग अपने नए जूते भी उछाल देते हैं. मैं ने भी बचपन में कई बार इमली और अमिया तोड़ने के लिए पत्थर की जगह चप्पलें उछालीं. पर जब वे चप्पलें पेड़ पर अटक गईं और लाख कोशिशों के बाद भी नीचे नहीं गिरीं, तो चप्पलें उछालना छोड़ दिया, क्योंकि चप्पलों का उछालना कई बार बड़ा महंगा पड़ा.

लोग चप्पलजूतों की जगह सड़े टमाटर और सड़े अंडे उछालते हैं, जो सामने वाले को घायल कम रंगीन अधिक कर देते हैं. महंगाई का जमाना है. पुराने जूते काम आ सकते हैं पर सड़े टमाटर फेंकने के अलावा और किसी काम के नहीं रहते. अब इन्हें कहां फेंका जाए, यह आप की जरूरत पर निर्भर करता है.

सड़कों पर जूते चलना आम बात है. सड़कों पर न चलेंगे तो और कहां चलेंगे? हां, जूते स्वयं नहीं चलते, चलाए जाते हैं. चाहे हाथ से चलाए जाएं या फिर पांव से, पर चलेंगे जरूर. पहले जब जूतों का चलन नहीं था तब जूतों से संबंधित मुहावरे भी नहीं बने थे. एक स्पैशल अस्त्रशस्त्र से भी लोग अछूते थे. लड़ाई के लिए बेशक हाथ में कुछ हो या न हो, पर पैरों में जूते हों तो काम चल जाता है. पैर से निकाला और चालू. चलाने के लिए किसी बटन को दबाने की आवश्यकता नहीं. एक जूता चलता है तो सैकड़ों जूते चलने को बेताब हो जाते हैं.

किसी दिलजले ने औरत को पांव की जूती का खिताब दे दिया, पर वह यह भूल गया कि जब पांव की जूती सिर पर विराजमान होती है तो क्या हश्र होता है.

लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए चांदी का जूता भी चलाते हैं, जिस की मार बड़ी मीठी और सुखदाई होती है. यह तो भुक्तभोगी ही समझ सकता है. वैसे भी आजकल चांदी के दाम आसमान छू रहे हैं.

 

एक बार मैं जूते खरीदने एक दुकान पर गई. छूटते ही दुकानदार ने पूछा, ‘‘बहनजी, कौन से दिखाऊं, पहनने वाले या खाने वाले?’’

पहले मैं जरा चौंकी, फिर उत्सुकता जगी तो बोली, ‘‘और क्याक्या क्वालिटी है? कोई लेटैस्ट ट्रैंड?’’ मुझे भी आनंद आने लगा था.

दुकानदार बोला, ‘‘देखिए मैडम, जूता

खाने की नहीं खिलाने की चीज है. जूता ऐसा शस्त्र है जिस का अपना शास्त्र है,’’ और फिर वह अलगअलग बैंरड के जूते निकाल कर दिखाने लगा.

‘‘देखिए मैडम, यह एक नया बैंरड है, इज्जत उतार जूता. टारगेट को हिट कर के वापस आने की पूरी गारंटी है. आजकल इस की बहुत डिमांड है. यह दूसरा देखिए, जूता नहीं मिसाइल है. बेशर्मों की धज्जियां उड़ा दे, उन्हें धो कर रख दे.’’

मुझे सोच में डूबा देख कर दुकानदार बोला, ‘‘मैडम, जूते किस के लिए लेंगी आप, अपने लिए या साहब के लिए?’’

मैं ने चौंक कर दुकानदार की ओर देखा. उस की आंखों की चमक बता रही थी कि जूतों की खरीदारी में ही समझदारी है. वे चाहे साहब के सिर की सवारी करें या मैडम के पैरों की.

जूतों का ऐसा शास्त्र मेरे सामने पहले नहीं आया था. तभी कुछ सिरफिरे जूता ले कर मंत्रियों पर दौड़ पड़ते हैं. जूता और जूते वाला दोनों रातोंरात प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंच जाते हैं. अंतर्राष्ट्रीय ख्याति वाले बन जाते हैं. संसद में जूतों का चलना मीडिया वाले खूब दिखाते हैं.

जूतों की 3 बहनें जूतियां, चप्पलें और सैंडल हैं, जो अकसर जूतों की मर्दानगी के साथसाथ स्वयं भी 2-4 हाथ आजमा लेती हैं. वैसे ज्यादातर सैंडल, चप्पलें और जूतियां ही शो केस में सजीधजी मुसकराती, ललचाती रहती हैं. किशोरियां उन की मजबूती पर कम, खूबसूरती पर अधिक ध्यान देती हैं, इसीलिए हाथ में कम लेती हैं. जैसे नईनई जूतियां ज्यादा चरमराती हैं, वैसे ही चप्पलें भी जल्दी उखड़ जाती हैं. खैर, यह तो पहननेपहनाने या खरीदने वाले जानें पर मैं तो कहूंगी कि बाप के पैर का जूता अब बेटे के पैर में आ कर गायब होने लगा है. इस का दुनिया में शोर मचा है.

बस, अब जूतों की बात इतनी ही, क्योंकि पतिदेव के हाथों में जूतों का डब्बा मुझे दिखने लगा है. अभीअभी बाजार से लौटे हैं. पता नहीं ऊंट किस करवट बैठे.

Social Story in Hindi

Social Story: अंधेरे उजाले- कैसा था बोल्ड तनवी का फैसला

Social Story: सुदेश अपनी पत्नी तनवी के साथ एक होटल में ठहरा था. होटल के अपने कमरे में टीवी पर समाचार देख वह एकदम परेशान हो उठा. राजस्थान अचानक गुर्जरों की आरक्षण की मांग को ले कर दहक उठा था. वहां की आग गुड़गांव, फरीदाबाद, गाजियाबाद, दनकौर, दादरी, मथुरा, आगरा आदि में फैल गई थी.

वे दोनों बच्चों को घर पर नौकरानी के भरोसे छोड़ कर आए थे. तनवी दिल्ली अपने अर्थशास्त्र के शोध से संबंधित कुछ जरूरी किताबें लेने आई थी. सुदेश उस की मदद को संग आया था. 1-2 दिन में किताबें खरीद कर वे लोग घर वापस लौटने वाले थे लेकिन तभी गुर्जरों का यह आंदोलन छिड़ गया.

अपनी कार से उन्हें वापस लौटना था. रास्ते में नोएडा, ग्रेटर नोएडा और गाजियाबाद का हाईवे पड़ेगा. वाहनों में आगजनी, बसों की तोड़फोड़, रेल की पटरियां उखाड़ना, हिंसा, मारपीट, गोलीबारी, लंबेलंबे जाम…क्या मुसीबत है. बच्चों की चिंता ने दोनों को परेशान कर दिया. उन के लिए अब जल्दी से जल्दी घर पहुंचना जरूरी है.

‘‘क्या होता जा रहा है इस देश को? अपनी मांग मनवाने का यह कौन सा तरीका निकाल लिया लोगों ने?’’ तनवी के स्वर में घबराहट थी.

वोटों की राजनीति, जातिवाद, लोकतंत्र के नाम पर चल रहा ढोंगतंत्र, आरक्षण, गरीबी, बेरोजगारी, बढ़ती आबादी आदि ऐसे मुद्दे थे जिन पर चाहता तो सुदेश घंटों भाषण दे सकता था पर इस वक्त वह अवसर नहीं था. इस वक्त तो उन की पहली जरूरत किसी तरह होटल से सामान समेट कर कार में ठूंस, घर पहुंचना था. उन्हें अपने बच्चों की चिंता लगातार सताए जा रही थी.

फोन पर दोनों बच्चों, वैभव और शुभा से तनवी और सुदेश ने बात कर के हालचाल पूछ लिए थे. नौकरानी से भी बात हो गई थी पर नौकरानी ने यह भी कह दिया था कि साहब, दिल्ली का झगड़ा इधर शहर में भी फैल सकता है… हालांकि अपनी सड़क पर पुलिस वाले गश्त लगा रहे हैं…पर लोगों का क्या भरोसा साहब…

आदमी का आदमी पर से विश्वास ही उठ गया. कैसा विचित्र समय आ गया है. हम सब अपनी विश्वसनीयता खो बैठे हैं. किसी को किसी पर भरोसा नहीं रह गया. कब कौन आदमी हमारे साथ गड़बड़ कर दे, हमें हमेशा यह भय लगा रहता है.

सामान पैक कर गाड़ी में रखा और वे दोनों दिल्ली से एक तरह से भाग लिए ताकि किसी तरह जल्दी से जल्दी घर पहुंचें.

बच्चों की चिंता के कारण सुदेश गाड़ी को तेज रफ्तार से चला रहा था. तनवी खिड़की से बाहर के दृश्य देख रही थी और वह तनवी को देख कर अपने अतीत के बारे में सोचने लगा.

शहर में हो रही एक गोष्ठी में सुदेश मुख्य वक्ता था. गोष्ठी के बाद जलपान के वक्त अनूप उसे पकड़ कर एक युवती के निकट ले गया और बोला, ‘सुदेश, इन से मिलो…मिस तनवी…यहां के प्रसिद्ध महिला महाविद्यालय में अर्थशास्त्र की जानीमानी प्रवक्ता हैं.’

‘मिस’ शब्द से चौंका था सुदेश, एक पढ़ीलिखी, प्रतिष्ठित पद वाली ठीकठाक रंगरूप की युवती का इस उम्र तक ‘मिस’ रहना, इस समाज में मिसफिट होने जैसा लगता है. अब तक मिस ही क्यों? मिसेज क्यों नहीं? यह सवाल सुदेश के दिमाग में कौंध गया था.

‘और मिस तनवी, ये हैं मिस्टर सुदेश कुमार…यहां के महाविद्यालय में समाज- शास्त्र के जानेमाने प्राध्यापक, जातिवाद के घनघोर आलोचक….अखबारों में दलितों, पिछड़ों और गरीबों के जबरदस्त पक्षधर… इस कारण जाति से ब्राह्मण होने के बावजूद लोग इन की पैदाइश को ले कर संदेह जाहिर करते हैं और कहते हैं, जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है वरना इन्हें किसी हरिजन परिवार में ही पैदा होना चाहिए था.’

अनूप की बातों पर सुदेश का ध्यान नहीं था पर ‘कुमार’ शब्द उस ने जिस तरह तनवी के सामने खास जोर दे कर उच्चारित किया था उस से वह सोच में पड़ गया था.

अनूप ने कहा, ‘है तो यह अशिष्टता पर मिस तनवी की उम्र 28-29 साल, मिजाज तेजतर्रार, स्वभाव खरा, नकचढ़ा…टूटना मंजूर, झुकना असंभव. इन की विवाह की शर्तें हैं…कास्ट एंड रिलीजन नो बार. पति की हाइट एंड वेट नो च्वाइस. कांप्लेक्शन मस्ट बी फेयर, हायली क्वालीफाइड…सेलरी 5 अंकों में. नेचर एडजस्टेबल. स्मार्ट बट नाट फ्लर्ट. नजरिया आधुनिक, तर्कसंगत, बीवी को जो पांव की जूती न समझे, बराबर की हैसियत और हक दे. दकियानूस और अंधविश्वासी न हो.

अनूप लगातार जिस लहजे में बोले जा रहा था उस से सुदेश को एकदम हंसी आ गई थी और तनवी सहम सी गई थी, ‘अनूपजी, आप पत्रकार लोगों से मैं झगड़ तो सकती नहीं क्योंकि आज झगडं़ूगी, कल आप अखबार में खिंचाई कर के मेरे नाम में पलीता लगा देंगे, तिल होगा तो ताड़ बता कर शहर भर में बदनाम कर देंगे…पर जिस सुदेशजी से मैं पहली बार मिल रही हूं, उन के सामने मेरी इस तरह बखिया उधेड़ना कहां की भलमनसाहत है?’

‘यह मेरी भलमनसाहत नहीं मैडम, आप से रिश्तेदारी निभाना है…असल में आप दोनों का मामला मैं फिट करवाना चाहता हूं…वह नल और दमयंती का किस्सा तो आप ने सुना ही होगा…बेचारे हंस को दोनों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभानी पड़ी थी…आजकल हंस तो कहीं रह नहीं गए कि नल और दमयंती की जोड़ी बनवा दें. अब तो हम कौए ही रह गए हैं जो यह भूमिका निभा रहे हैं.

‘आप जानती हैं, मेरी शादी हो चुकी है, वरना मैं ही आप से शादी कर लेता…कम से कम एक बंधी हुई रकम कमाने वाली बीवी तो मुझे मिलती. अपने नसीब में तो घरेलू औरत लिखी थी…और अपन ठहरे पत्रकार…कलम घसीट कर जिंदगी घसीटने वाले…हर वक्त हलचल और थ्रिल की दुनिया में रहने वाले पर अपनी निजी जिंदगी एकदम रुटीन, बासी…न कोई रोमांस न रोमांच, न थ्रिल न व्रिल. सिर्फ ड्रिल…लेफ्टराइट, लेफ्ट- राइट करते रहो, कभी यहां कभी वहां, कभी इस की खबर कभी उस की खबर…दूसरों की खबरें छापने वाले हम लोग अपनी खबर से बेखबर रहते हैं.’

बाद में अनूप ने तनवी के बारे में बहुत कुछ टुकड़ोंटुकड़ों में सुदेश को बताया था और उस से ही वह प्रभावित हुआ था. तनवी उसे काफी दबंग, समझदार, बोल्ड युवती लगी थी, एक ऐसी युवती जो एक बार फैसला सोचसमझ कर ले तो फिर उस से वापस न लौटे. सुदेश को ढुलमुल, कमजोर दिमाग की, पढ़ीलिखी होने के बावजूद बेकार के रीतिरिवाजों में फंसी रहने वाली अंधविश्वासी लड़कियां एकदम गंवार और जाहिल लगती थीं, जिन के साथ जिंदगी को सहजता से जीना उसे बहुत कठिन लगता था, इसी कारण उस ने तमाम रिश्ते ठुकराए भी थे. तनवी उसे कई मानों में अपने मन के अनुकूल लगी थी, हालांकि उस के मन में एक दुविधा हमेशा रही थी कि ऐसी दबंग युवती पतिपत्नी के रिश्ते को अहमियत देगी या नहीं? उसे निभाने की सही कोशिश करेगी या नहीं? विवाह एक समझौता होता है, उस में अनेक उतारचढ़ाव आते हैं, जिन्हें बुद्धिमानी से सहन करते हुए बाधाओं को पार करना पड़ता है.

कसबे में तनवी का वह निर्णय खलबली मचा देने वाला साबित हुआ था. देखा जाए तो बात मामूली थी, ऐसी घटनाएं अकसर शादीब्याह में घट जाया करती हैं पर मानमनौवल और समझौतों के बाद बीच का रास्ता निकाल लिया जाता है. तनवी ने बीच के सारे रास्ते अपने फैसले से बंद कर दिए थे.

तनवी की शादी जिस लड़के से तय हुई थी वह भौतिक विज्ञान के एक आणविक संस्थान में काम करने वाला युवक था. बरात दरवाजे पर पहुंची. औपचारिकताओं के लिए दूल्हे को घोड़ी से उतार कर चौकी पर बैठाया गया. लकड़ी की उस चौकी के अचानक एक तरफ के दोनों पाए टूट गए और दूल्हे राजा एक तरफ लुढ़क गए. द्वारचार के उस मौके पर मौजूद बुजुर्गों ने कहा कि यह अपशकुन है. विवाह सफल नहीं होगा. दूल्हे राजा उठे और लकड़ी की उस चौकी में ठोकर मारी, एकदम बौखला कर बोले, ‘ऐसी मनहूस लड़की से मैं हरगिज शादी नहीं करूंगा. इस महत्त्वपूर्ण रस्म में बाधा पड़ी है. अपशकुन हुआ है.’

क्रोध में बड़बड़ाते दूल्हे राजा दरवाजे से लौट गए. ‘मुझे नहीं करनी शादी इस लड़की से,’ उन का ऐलान था. पिता भी बेटे की तरफ. सारे बुजुर्ग भी उस की तरफ. रंग में भंग पड़ गया.

बाद में पता चला कि चौकी बनाने वाले बढ़ई से गलती हो गई थी. जल्दबाजी में एक तरफ के पायों में कीलें ठुकने से रह गई थीं और इस मामूली बात का बतंगड़ बन गया था.

तनवी ने यह सब सुना तो फिर उस ने भी यह कहते हुए शादी से इनकार कर दिया, ‘ऐसे तुनकमिजाज, अंधविश्वासी और गुस्सैल युवक से मैं हरगिज शादी नहीं करूंगी.’

तनवी के इस फैसले ने एक नया बखेड़ा खड़ा कर दिया. लड़के वालों को उम्मीद थी कि लड़की वाले दबाव में आएंगे. अपनी इज्जत का वास्ता देंगे, मिन्नतें करेंगे, लड़की की जिंदगी का सवाल ले कर गिड़गिड़ाएंगे.

तनवी के पिता और मामा लड़के के और उन के परिवार वालों के हाथपांव जोड़ने पहुंचे भी, किसी तरह मामला सुलटने वाला भी था पर तनवी के इनकार ने नई मुसीबत खड़ी कर दी. पिता और मामा ने तनवी को बहुत समझाया पर वह किसी प्रकार उस विवाह के लिए राजी नहीं हुई. उस ने कह दिया, ‘जीवन भर कुंआरी रह लूंगी पर इस लड़के से शादी किसी भी कीमत पर नहीं करूंगी. नौकरी कर रही हूं. कमाखा लूंगी, भूखी नहीं मर जाऊंगी, न किसी पर बोझ बनूंगी. उस का निर्णय अटल है, बदल नहीं सकता.’

कसबे में तमाम चर्चाएं चलने लगीं…लड़की का पहले से किसी लड़के से संबंध है. कसबे के किन्हीं परमानंद बाबू ने इस अफवाह को और हवा दे दी. बताया कि जिस कालिज में तनवी नौकरी करती है, उस के प्रबंधक के लड़के के साथ वह दिल्ली, कोलकाता घूमतीफिरती है. होटलों में अकेली उस के साथ एक ही कमरे में रुकती है. चालचलन कैसा होगा, लोग स्वयं सोच लें. कसबे के भी 2-3 युवकों से उस के संबंध होने की बातें कही जाने लगीं. दूसरे के फटे में अपनी टांग फंसाना कसबाई लोगों को खूब आता है.

पत्रकार अनूप तनवी का रिश्ते में कुछ लगता था. उस विवाह समारोह में वह भी शामिल हुआ था इसलिए उसे सारी घटनाओं और स्थितियों की जानकारी थी.

‘बदनाम हो जाओगी. पूरी जाति- बिरादरी में अफवाह फैल जाएगी. फिर तुम से कौन शादी करेगा?’ मामा ने समझाना चाहा था.

सुदेश ने अनूप से शंका प्रकट की, ‘ऐसी जिद्दी लड़की से शादी कैसे निभेगी, यार?’

‘सुदेशजी, इस बीच गुजरे वक्त ने तनवी को बहुत कुछ समझा दिया होगा. 28-29 साल कुंआरी रह ली. बदनामी झेल ली. नातेरिश्तेदारों से कट कर रह ली. इन सब बातों ने उसे भी समझा दिया होगा कि बेकार की जिद में पड़ कर सहज जीवन नहीं जिया जा सकता. सहज जीवन जीने के लिए हमें अपना स्वभाव नरम रखना पड़ता है. कहीं खुद झुकना पड़ता है, कहीं दूसरे को झुकाने का प्रयत्न करना पड़ता है. इस सिलसिले में तनवी से बहुत बातें हुई हैं मेरी. उसे भी जिंदगी की ऊंचनीच अब समझ में आने लगी है.’

अनूप के इतना कहने पर भी सुदेश के भीतर संदेह का कीड़ा हमेशा रेंगता रहा. एक तरफ तनवी का दृढ़निश्चयी होना सुदेश को प्रभावित करता था. दूसरी तरफ उस का अडि़यल रवैया उसे शंकालु भी बनाता था.

अपनी सारी शंकाओं को उस दिन रिश्ता पक्का करने से पहले सुदेश ने अनूप के सामने तनवी पर जाहिर भी कर दिया था. तनवी सचमुच गंभीर थी, ‘मैं जैसी हूं, आप जान चुके हैं. विवाह का मतलब मैं अच्छी तरह जानती हूं. बिना समझौते व सामंजस्य के जीवन को नहीं जिया जा सकता, यह भी समझ गई हूं. मेरी ओर से आप को कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.’

‘विवाहित जिंदगी में छोटीमोटी नोकझोंक, झगड़े, विवाद होने स्वाभाविक हैं. मैं कोशिश करूंगा, तुम्हारी कसबाई घटनाओं को कभी बीच में न दोहराऊं…उन बातों को तूल न दूं जो बीत चुकी हैं.’

‘मैं भी कोशिश करूंगी, जिंदगी पूरी तरह नए सिरे से, नई उमंग और नए उत्साह के साथ शुरू करूं…इतिहास दोहराने के लिए नहीं होता, दफन करने के लिए होता है.’

मुसकरा दिया था सुदेश और अनूप भी खुश हो गया था.

अचानक तनवी ने कुछ पूछा तो अतीत की यादों में खोया सुदेश उसे देख कर हंस दिया.

उन की शादी को पूरे 8 साल गुजर गए थे. 2 बच्चे थे. शुभा 7 साल की, वैभव 5 साल का. ऐसा नहीं है कि इन 8 सालों में उन के बीच झगड़े नहीं हुए, विवाद नहीं हुए. पर पुराने गड़े मुर्दे जानबूझ कर न सुदेश ने उखाड़े न तनवी ने उन्हें उखड़ने दिया. जीवन के अंधेरे- उजाले संगसंग गुजारे.

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Family Kahani: जन्मपत्री- बूआ के मनसूबों पर कैसे पानी फिर गया

Family Kahani: ‘‘ये  लो और क्या चाहिए…पूरे 32 गुण मिल गए हैं,’’

गंगा बूआ ने बड़े गर्व से डाइनिंग टेबल पर नाश्ता करते हुए त्रिवेदी परिवार के सामने रश्मि की जन्मपत्री रख दी.

‘‘आप हांफ क्यों रही हैं? बैठिए तो सही…’’ चंद्रकांत त्रिवेदी ने खाली कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘चंदर, तू तो बस बात ही मत कर. जाने कौन सा राजकुमार ढूंढ़ कर लाएगा बेटी के लिए. कितने रिश्ते ले कर आई हूं…एक भी पसंद नहीं आता. अरे, नाक पर मक्खी ही नहीं बैठने देते तुम लोग… बेटी को बुड्ढी करोगे क्या घर में बिठा कर…?’’ गोपू के हाथ से पानी का गिलास ले कर बूआ गटगट गटक गईं.

चंद्रकांत, रश्मि और उस का भाई विक्की यानी विकास मजे से कुरकुरे टोस्ट कुतरते रहे. मुसकराहट उन के चेहरों पर पसरी रही पर चंद्रकांत त्रिवेदी की पत्नी स्मिता की आंखें गीली हो आईं. आखिर 27 वर्ष की हो गई है उन की बेटी. पीएच.डी. कर चुकी है. डिगरी कालेज में लेक्चरर हो गई है. अब क्या…घर पर ही बैठी रहेगी?

चंद्रकांत ने तो जाने कितने लड़के बताए अपनी पत्नी को पर स्मिता जिद पर अड़ी ही रहीं कि जब तक लड़के के पूरे गुण नहीं मिलेंगे तब तक रश्मि के रिश्ते का सवाल ही नहीं उठता. जो कोई लड़का मिलता स्मिता को कोई न कोई कमी उस में दिखाई दे जाती. चंद्रकांत परेशान हो गए थे. वे शहर के जानेमाने उद्योगपति थे. स्टील की 4 फैक्टरियों के मालिक थे. उन की बेटी के लिए कितने ही रिश्ते लाइन में खड़े रहते पर पत्नी थीं कि हर रिश्ते में कोई न कोई अड़ंगा लगा देतीं और उन का साथ देतीं गंगा बूआ.

गंगा बूआ 80 साल से ऊपर की हो गई होंगी. चंद्रकांत ने तो अपने बचपन से उन्हें यहीं देखा था. उन के पिता शशिकांत त्रिवेदी की छोटी बहन हैं गंगा बूआ. बचपन में ही बूआ का ब्याह हो गया था. ब्याह हुआ और 15 वर्ष की उम्र में ही वह विधवा हो गई थीं. मातापिता तो पहले ही चल बसे थे, अत: अपने इकलौते भाई के पास ही वे अपना जीवन व्यतीत कर रही थीं.

घर में कोई कमी तो थी नहीं. अंगरेजों के जमाने से 2-3 गाडि़यां, महल सी कोठी, नौकरचाकर सबकुछ उन के पिता के पास था. फिर शशिकांत इतने प्रबुद्ध निकले कि जयपुर शहर के पहले आई.ए.एस. अफसर बने. उन के ही पुत्र चंद्रकांत हैं. चंद्रकांत की पत्नी स्मिता वैसे तो शिक्षित है, एम.ए. पास हैं पर न जाने उन के और गंगा बूआ के बीच क्या खिचड़ी पकती रहती है कि स्मिता की हंसी ही गायब हो गई है. उन्हें हर पल अपनी बेटी की ही चिंता सताती रहती है. चंद्रकांत ने अपनी बूआ के साथ अपनी पत्नी को हमेशा खुसरपुसर करते ही पाया है.

गंगा बूआ के मन में यह विश्वास पत्थर की लकीर सा बन गया है कि उन का वैधव्य उन की जन्मपत्री न मिलाने के कारण ही हुआ है. उन के पिता व भाई आर्यसमाजी विचारों के थे और कुंडली आदि मिलाने में उन का कोई विश्वास नहीं था. शशिकांत के बहुत करीबी दोस्त सेठ रतनलाल शर्मा ने अपने बेटे संयोग के लिए गंगा बूआ को मांग लिया था और फिर बिना किसी सामाजिक दिखावे के उन का विवाह संयोग से कर दिया गया था. शर्माजी का विचार था कि वे अपनी पुत्रवधू को बिटिया से भी अधिक स्नेह व ममता से सींचेंगे और उस को अच्छी से अच्छी शिक्षा देंगे, लेकिन विवाह के 8 दिन भी नहीं हुए थे कि कोठी के बड़े से बगीचे में नवविवाहित संयोग सांप के काटने से मर गया. जुड़वां भाई सुयोग चीखें मारमार कर अपने मरे भाई को झंझोड़ रहा था. पल भर में ही पूरा वातावरण भय और दुख का पर्याय बन गया था.

गंगोत्तरी ठीक से विवाह का मतलब भी कहां समझ पाई थी तबतक कि वैधव्य की कालिमा ने उसे निगल लिया. कुछ दिन तक वह ससुराल में रही. सेठ रतनलाल के परिवार के लोगों ने गंगोत्तरी का ध्यान रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी परंतु वहां वह बहुत भयभीत हो गई थी. मस्तिष्क पर इस दुर्घटना का इतना भयानक प्रभाव पड़ा था कि रात को सोतेसोते भी वह बहकीबहकी बातें करने लगी. थक कर इस शर्त पर उसे उस के मातापिता के पास भेज दिया गया कि वह उन की अमानत के रूप में वहां रहेगी.

गंगोत्तरी की पढ़ाई फिर शुरू करवा दी गई. कुछ सालों बाद शर्माजी ने संयोग के जुड़वां भाई सुयोग से उस का विवाह करने का प्रस्ताव रखा. कुछ समय तक सोचनेसमझने के बाद त्रिवेदी परिवार ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया परंतु गंगोत्तरी ने जो ‘न’ की हठ पकड़ी तो छोड़ने का नाम ही नहीं लिया.

बहुत समझाया गया उसे पर तबतक वह काफी समझदार हो चुकी थी और उसे विवाह व वैधव्य का अर्थ समझ में आने लगा था. उस का कहना था कि एक बार उस के साथ जो हुआ वही उस की नियति है, बस…अब वह पढ़ेगी और शिक्षिका बन कर जीवनयापन करेगी. फिर किसी ने उस से अधिक जिद नहीं की. इस प्रकार मातापिता की मृत्यु के बाद भी गंगोत्तरी इसी घर में रह गई. चंद्रकांत से ले कर उन के बच्चे, घर के नौकरचाकर, यहां तक कि पड़ोसी भी उन्हें प्यार से गंगा बूआ कह कर पुकारने लगे थे.

यद्यपि गंगा बूआ अब काफी बूढ़ी होे गई हैं, फिर भी घर की हर समस्या के साथ वे जुड़ी रहती हैं. उन्होंने स्मिता को अपना उदाहरण दे कर बड़े विस्तार से समझा दिया था कि घर की इकलौती लाड़ली रश्मि का विवाह बिना जन्मपत्री मिलाए न करे. बस, स्मिता के दिलोदिमाग पर गंगा बूआ की बात इतनी गहरी समा गई कि जब भी उन के पति किसी रिश्ते की बात करते वे गंगा बूआ की ओट में हो जातीं. उन्होंने ही गंगा बूआ को हरी झंडी दिखा रखी थी कि वे स्वयं जा कर पीढि़यों से चले आ रहे पंडितों के उस परिवार के श्रेष्ठ पंडित से जन्मपत्रियों का मिलान करवाएं जिसे बूआ शहर का श्रेष्ठ पंडित समझती हैं. वैसे स्मिता का विवाह भी तो बिना जन्मपत्री मिलाए हुआ था और वह बहुत सुखी थीं पर रश्मि के मामले में गंगा बूआ ने न जाने उन्हें क्या घुट्टी पिला दी थी कि बस…

आज गंगा बूआ सुबह ही नहाधो कर ड्राइवर को साथ ले कर निकल गई थीं. बूआ बेशक विधवा थीं, पर सदा ठसक से रहती थीं. ड्राइवर के बिना घर से बाहर न निकलतीं. उन के पहनावे इतने लकदक होते जो उन के व्यक्तित्व में चार चांद लगा देते थे. कहीं भी बिना जन्मपत्री मिलाए विवाह की बात होती तो वे अपना मंतव्य प्रकट किए बिना न रहतीं.

घर के सदस्य बेशक गंगा बूआ की इस बात से थोड़ा नाराज रहते पर कोई भी उन का अपमान नहीं कर सकता था. सब मन ही मन हंसते, बुदबुदाते रहते, ‘आज फिर गंगा बूआ रश्मि की जन्मपत्री किसी से मिलवा कर लाई होंगी…’ सब ने मन ही मन सोचा.

गोपू ने बूआ के सामने नाश्ते की प्लेट रख दी थी और टोस्टर में से टोस्ट निकाल कर मक्खन लगा रहा था, तभी बूआ बोलीं, ‘‘अरे, गोपू, मैं किस के दांतों से खाऊंगी ये कड़क टोस्ट, ला, मुझे बिना सिंकी ब्रेड और बटरबाउल उठा दे और हां, मेरा दलिया कहां है?’’

गोपू ने बूआ के सामने उन का नाश्ता ला कर रख दिया. आज बूआ कुछ अलग ही मूड में थीं.

‘‘क्यों स्मिता, तुम क्यों चुप हो और तुम्हारा चेहरा इतना फीका क्यों पड़ गया है?’’ बूआ ने एक चम्मच दलिया मुंह में रखते हुए स्मिता की ओर रुख किया.

स्मिता कुछ बोली तो नहीं…एक नजर बूआ पर डाल कर मानो उन से आंखों ही आंखों में कुछ कह डाला.

‘‘देखो चंदर, मैं ने इस लड़के के परिवार को शाम की चाय पर बुला लिया है…’’ उन्होंने अपने बैग से लड़के का फोटो निकाल कर चंद्रकांत की ओर बढ़ाया.

‘‘पर बूआ आप पहले रश्मि से तो पूछ लीजिए कि वह शाम को घर पर रहेगी भी या नहीं,’’ चंद्रकांत ने धीरे से बूआजी के सामने यह बात रख दी, ‘‘और हां, यह भी बूआजी कि उसे यह लड़का पसंद भी है या नहीं,’’

‘‘देखो चंदर, आज 3 साल से लड़के की तलाश हो रही है पर इस के लिए कोई अच्छे गुणों वाला लड़का ही नहीं मिलता. और ये बात तो तय है कि बिना कुंडली मिलाए न तो मैं राजी होऊंगी और न ही स्मिता, क्यों स्मिता?’’ एक बार फिर बूआ ने स्मिता की ओर नजर घुमाई.

स्मिता चुप थीं.

नाश्ता कर के सब उठ गए और अपनेअपने कमरों में जाने लगे.

‘‘मैं जरा आराम कर लूं…थक गई हूं,’’ इतना बोल कर बूआ ने भी अपना बैग समेटा, ‘‘स्मिता, बाद में मेरे कमरे में आना.’’ बूआजी का यह आदेश स्मिता को था.

तभी चंद्रकांत ने पत्नी की ओर देख कर कहा, ‘‘स्मिता, तुम जरा कमरे में चलो. तुम से कुछ जरूरी बात करनी है.’’

स्मिता आंखें नीची कर के बूआ की ओर देखती हुई पति के पीछे चल दीं. बूआ को लगा, कुछ तो गड़बड़ है. वातावरण की दबीदबी खामोशी और स्मिता की दबीदबी चुप्पी के पीछे मानो कोई गहरा राज झांक रहा था.

वे सुबह से उठ कर, नित्य कर्म से निवृत्त हो कर बाहर निकलने में ऐसी निढाल हो गई थीं कि कुछ अधिक सोचविचार किए बिना उन्होंने अपने कमरे में जा कर स्वयं को पलंग पर डाल दिया. आज वैसे भी रविवार था. सब घर पर ही रहने वाले थे. थोड़ा आराम कर के लंच पर बात करेंगी. शाम को आने का न्योता तो दे आई हैं पर ‘मीनूवीनू’ तो तय करना होगा न. बूआजी बड़ी चिंतित थीं.

गंगा बूआ पूरे जोशोखरोश में थीं. उत्साह उन के भीतर पंख फड़फड़ा रहा था पर थकान थी कि उम्र की हंसी उड़ाने लगी थी. पलंग पर पहुंचते ही न जाने कब उन की आंख लग गई. जब वे सो कर उठीं तो दोपहर के साढ़े 3 बजे थे.

‘कितना समय हो गया. मुझे किसी ने उठाया भी नहीं,’ बूआ बड़बड़ाती हुई कपड़े संभालती कमरे से बाहर निकलीं.

‘‘अरे, गोपू, कमली…कहां गए सब के सब…और आज खाने पर भी नहीं उठाया मुझे,’’ बूआ नौकरों को पुकारती हुई रसोईघर की ओर चल दीं. उन्हें गोपू दिखाई दिया, ‘‘गोपू, मुझे खाने के लिए भी नहीं उठाया. और सब लोग कहां हैं?’’

‘‘जी बूआ, आज किसी ने भी खाना नहीं खाया और सब बाहर गए हैं,’’ गोपू का उत्तर था.

‘बाहर गए हैं? मुझे बताया भी नहीं,’ बूआ अपने में ही बड़बड़ाने लगी थीं.

‘‘बूआजी, मैं महाराज को बोलता हूं आप का खाना लगाने के लिए. आप बैठें,’’ यह कहते हुए गोपू रसोईघर की ओर चला गया.

कुछ अनमने मन से बूआ वाशबेसिन पर गईं, मुंह व आंखों पर पानी के छींटे मारते हुए उन्होंने बेसिन पर लगे शीशे में अपना चेहरा देखा. थकावट अब भी उन के चेहरे पर विराजमान थी. नैपकिन से हाथ पोंछ कर वे मेज पर आ बैठीं. गोपू गरमागरम खाना ले आया था.

खाना खातेखाते उन्हें याद आया कि वे पंडितजी से कह आई थीं कि घर पर चर्चा कर के वे लड़के वालों को निमंत्रण देने के लिए चंदर से फोन करवा देंगी. आखिर लड़की का बाप है, फर्ज बनता है उस का कि वह फोन कर के लड़के वालों को घर आने का निमंत्रण दे. खाना खातेखाते बूआ सोचने लगीं कि न जाने कहां चले गए सब लोग…अभी तो उन्हें सब के साथ बैठ कर मेहमानों की आवभगत के लिए तैयारी करवानी थी.

‘खाना खा कर चंदर को फोन करूंगी,’ बूआ ने सोचा और जल्दीजल्दी खाना खा कर जैसे ही कुरसी से खड़ी हुईं कि उन की नजर ने ‘ड्राइंगरूम’ के मुख्यद्वार से परिवार के सारे सदस्यों  को घर में प्रवेश करते हुए देखा.

और…यह क्या, रश्मि ने दुलहन का लिबास पहन रखा है? उन्हें आश्चर्य हुआ और वे उन की ओर बढ़ गईं. स्मिता के अलावा परिवार के सभी सदस्यों के चेहरे पर हंसी थी और आंखों में चमक.

‘‘लो, बूआजी भी आ गईं,’’ चंद्रकांत ने एक लंबे, गोरेचिट्टे, सुदर्शन व्यक्तित्व के लड़के को बूआजी के सामने खड़ा कर दिया.

‘‘रश्मिज ग्रैंड मदर,’’ चंद्रकांत ने कहा तो युवक ने आगे बढ़ कर बूआ के चरणस्पर्श कर लिए.

गंगा बूआ हकबका सी गई थीं.

‘‘बूआजी, यह सैमसन जौन है. आज होटल ‘हैवन’ में इस की रश्मि से शादी है. चलिए, सब को वहां पहुंचना है.’’

‘‘पर…ये…वो जन्मपत्री…’’ बूआजी हकबका कर बोलीं, फिर स्मिता पर नजर डाली. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

‘‘अरे, बूआजी, जन्मपत्री तो इन की ऊपर वाले ने मिला कर भेजी है. चिंता मत करिए. चलिए, जल्दी तैयार हो जाइए. सैमसन के मातापिता भी होटल में ठहरे हैं. उन से भी मिलना है. फिर वे लोग अमेरिका वापस लौट जाएंगे.’’

चंद्रकांत बड़े उत्साहित थे. फिर बोले, ‘‘देखिएगा, किस धूमधाम से भारतीय रिवाज के अनुसार शादी होगी.’’

बूआजी किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रह गई थीं. उन की नजर में रश्मि की जन्मपत्री के टुकड़े हवा में तैर रहे थे.

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