क्या आपने भारत में लिया क्रूज के सफर का मजा

अच्छा एक बात बताइये अगर मैं आपसे ये सवाल करूं कि आप लोगों में से कितने लोगों ने क्रूज के सफर का मजा लिया है, तो शायद बहुत कम लोगों के नाम सामने आएंगे. ज्यादातर लोगों कहना होगा कि क्रूज का सफर बहुत महंगा है, बहुत दूर है या फिर कहेंगी की हम इतने पैसे खर्च नहीं कर पाएंगे.

आपका कहना सही है लेकिन अगर मै ये कहूं कि कम बजट में आप अपने ही देश में मौजूद क्रूज के सफर का लुत्फ उठा सकतीं हैं तो इस पर आप क्या कहेंगी. चलिये आज हम आपको अपने देश के क्रूज के सफर पर ले चलते हैं, जो सस्ता और मनोरंजक भी रहेगा.  

द गोल्डेन ट्रायंगल क्रूज

12 रातों की रौयल क्रूज सवारी करना चाहते हैं तो आपके लिए गोल्‍डेन ट्राएंगल क्रूज उपलब्‍ध है. हालांकि इसका खर्चा काफी ज्‍यादा है. इसलिए ट्रिप पर जाने से पहले सभी चार्जेस अच्‍छी तरह से जान लें.

ग्लास बौटम क्रूज

अब बारी अंडमान आईलैंड की आती है. बीच लवर्स और रोमांच के शौकिन लोगो के लिए अंडमान किसी जन्‍नत से कम नहीं है. यहां की ग्‍लौस बौटम क्रूज शिप काफी फेमस है. इस क्रूज की सैर करने पर आपको एक अलग ही एक्‍सपीरियंस मिलेगा. दरअसल इस शिप में निचला हिस्‍सा कांच का बना है. ऐसे में आप शिप के अंदर बैठे बैठे ट्रांसपैरेंट तले से जलीय जीव जंतुओं को आसानी से देख सकते हैं.

चिल्का लेक क्रूज

बंगाल की खाड़ी में बनी चिल्‍का झील भी काफी खूबसूरत है. यहां पर कई प्रजातियों की चिड़ियां मिल जाती हैं. पुरी से 60 किमी दूर इस झील में क्रूज यात्रा कर सकते हैं.

कोचिन क्रूज

भारत का सबसे प्रसिद्ध तटीय इलाका कोच्‍चि में भी आप शिप पर बैठकर आनंद ले सकते हैं. यहां का मौसम भी काफी खुशनुमा रहता है. यहां साल के 12 महीने पर्यटकों का तांता लगा रहता है. यहां आपको आपके बजट और समय के मुताबिक क्रूज मिल सकता है.

गोवा क्रूज

भारत का सबसे मशहूर बीच है गोवा की बीच यहां दूर दूर से पर्यटक आते हैं. ऐसे में क्रूज पार्टी भी काफी चर्चित हैं. शिप पर नाचना गाना और इंटरटेनमेंट की पूरी सुविधा उपलब्‍ध रहती है. ऐसे में आप अपने प्‍यार के साथ चांदनी रोशनी में क्रूज की सैर कर सकते हैं.

मेरा दिल अब तैमूर में धड़कता है : करीना

बौलीवुड की बेबो यानी करीना कपूर मां बनने के बाद ‘वीरे दी वेडिंग’ से फिल्मों में वापसी कर रहीं हैं. फिल्मों में वापसी करने के साथ ही अब वह एयर प्यूरीफायर की ब्रांड एंबेस्डर भी बन गयी हैं. ब्रांड एंबेस्डर बनने के बाद करीना ने अपने बेटे तैमूर को ध्यान में रखकर व उसकी चिन्ता जताते हुए कहा कि किसी प्रोडक्ट्स का प्रचार करना और उसका ब्रांड एंबेस्डर बनना फिल्मों से काफी अलग होता है लेकिन अब मेरा हर फैसला तैमूर को ध्यान में रखकर होगा. वह मेरी आत्मा है, मेरा दिल अब मेरे अंदर नहीं बल्कि तैमूर में धड़कता है. मेरे परिवार, दोस्तों और मेरी टीम को भी यह पता होना चाहिये कि अब मैं जिंदगी में जो भी करूंगी वह अपने बेटे तैमूर को ध्यान में रखकर ही करूंगी.

इस मौके पर करीना ने यह भी कहा कि वह ऐसे उत्पाद के साथ नहीं जुड़ेंगी जिसका इस्तेमाल वह स्वयं नहीं कर सकती. करीना ने कहा ‘पहले से ही मैं किसी उत्पाद के प्रचार को लेकर काफी चूजी रहीं हूं और अब मां बनने के बाद और ज्यादा सतर्क हो गयी हूं. मैं कभी भी ऐसे उत्पाद या सेवा का प्रचार नहीं करूंगी जिसका मैं या मेरा परिवार प्रयोग नहीं कर सकता.’

उन्होंने कहा कि वह एयर प्यूरीफायर के साथ इसलिये जुड़ी ताकि लोगों को जागरूक कर सकें कि घर के अंदर का प्रदूषण कई बार बाहर के प्रदूषण से ज्यादा खतरनाक होता है.

6 फिल्म फेयर पुरस्कार जीतने वाली इस अदाकारा ने ‘वीरे दी वेडिंग’ के बारे में कहा, ‘वीरे दी वेडिंग’ की शूटिंग शुरू ही हुई है. अभी हमने सिर्फ 20-25 प्रतिशत ही शूट किया है फिल्म अगले साल दिसंबर में रिलीज होगी तो हमारे पास काफी समय है. ‘वीरे दी वेडिंग’ में करीना के साथ सोनम कपूर मुख्य भूमिका में है. फिल्म का निर्माण एकता कपूर, रिया कपूर और निखिल आडवाणी कर रहे है.

बौलीवुड में साल 2000 में ‘रिफ्यूजी’ से कदम रखने वाली बेबो यानि करीना कपूर खान ने हाल ही में अपना 38वां जन्मदिन मनाया है. इस मौके पर कई बड़े सितारों ने उन्हें बधाई दी. बता दें की बेटे तैमूर के जन्म के बाद करीना ने अपना पहला जन्मदिन मनाया. तैमूर के साथ होने से मम्मी करीना का ये खास दिन और भी खास बन गया है.

इंडियन पाथफाइंडर बृहस्पति पर

एक दिन अचानक अंतरिक्ष विज्ञान  मामलों के प्रभारी मंत्री ने वैज्ञानिकों की आपातकालीन मीटिंग बुलाई. हमारे मंत्री चाहे कितने भी काहिल हों मगर इतने भी गिरे हुए नहीं हैं कि आपातकाल हो और वे मीटिंग बुलाने का कष्ट न करें. बैठक में वे सभी वैज्ञानिक, जिन्हें अभी तक भारत सरकार किसी तरह विदेश भागने से रोकने में सफल रही थी, उपस्थित हुए. मंत्रीजी ने बगैर भूमिका बांधे भाषण शुरू किया, ‘‘प्यारे वैज्ञानिक भाइयो, जैसा कि आप सभी जानते हैं कि पिछले दिनों अमेरिका ने अपना पाथफाइंडर मंगल ग्रह पर उतार दिया. मैं पूछता हूं कि हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते? आखिर आप लोग कब तक बाहर की चीजों पर ‘मेड इन इंडिया’ लिखलिख कर काम चलाते रहेंगे?’’

एक वैज्ञानिक ने दबी आवाज में कहा, ‘‘सर, अमेरिका विज्ञान में हम से 50 वर्ष आगे है.’’

मंत्रीजी बिगड़े, ‘‘वही तो हम आप से पूछते हैं कि क्यों? हम भी 10+2 हैं और यों ही तो मंत्री नहीं बन गए. हम भी 8वीं से 12वीं क्लास तक हर साल ‘विज्ञान के चमत्कार’ पर निबंध लिखते रहे हैं. हम तो कहते हैं कि बेशक अमेरिका विज्ञान में हम से 50 साल आगे है मगर चमत्कारों में 100 साल पीछे है. विज्ञान तो बाद में आया, चमत्कार तो ऋषिमुनियों के समय से ही होते आए हैं. यह तो हम ने मेहरबानी कर के विज्ञान को अपने यहां घुसने दिया वरना हम क्या विज्ञान के मोहताज हैं?

‘‘त्रेता युग में वानरों ने पत्थरों पर ‘राम’ लिख कर उन्हें समंदर में तैरा दिया, उसी युग में अपना रावण बिना डीजल, पैट्रोल रहित पुष्पक विमान उड़ाता था. कहां थे तब विज्ञान के नियमकानून? क्या समंदर में डूब कर मर गए थे? इस का कोई जवाब अमेरिका के पास है? और आज वह अपना एक रौकेट मंगल पर उतार कर शेखी बघारता है. अरे, वह तो इस कुरसी को हमारी सख्त जरूरत थी वरना हम क्या कम वैज्ञानिक हैं. हम चाहें तो थर्मामीटर की मदद से कुतुबमीनार की ऊंचाई नाप सकते हैं. बोलिए, आप लोग कर सकते हैं ऐसा?’’

सभाकक्ष में सन्नाटा छा गया. बेचारे वैज्ञानिक हकलाने लगे, ‘‘सर, थर्मामीटर से तो तापमान नापते हैं, भला ऊंचाई कैसे…’’

‘‘वैरी सिंपल,’’ मंत्रीजी हंसे, ‘‘एक लंबी रस्सी और थर्मामीटर ले कर कुतुबमीनार पर चढ़ जाओ, रस्सी के एक सिरे पर थर्मामीटर बांध कर, रस्सी को धीरेधीरे नीचे छोड़ते जाओ. जब थर्मामीटर जमीन को छूने लगे, रस्सी को नाप लो. आ गई कुतुबमीनार की ऊंचाई, आखिर हम यों ही तो मंत्री नहीं बन गए हैं,’’ मंत्रीजी का चेहरा दमक रहा था. वैज्ञानिकों ने एक ठंडी आह भरी. मंत्रीजी आगे बढ़े, ‘‘हम सोचते हैं, आप लोग भी एक पाथफाइंडर (स्पेस शटल) बनाएं और उसे बृहस्पति ग्रह पर उतार कर बता दें कि हम भी किसी से कम नहीं हैं.’’

‘‘यह काम इतना आसान नहीं है सर,’’ सभी वैज्ञानिकों ने एक स्वर में कहा.

‘‘अरे, आप लोग घबराते क्यों हैं? आप लोगोें को जो मदद चाहिए हम देंगे. फिर हम आप सब को एक चमत्कारी तांत्रिक अंगूठी मंगा कर देंगे, जो प्रेतबाधा और ग्रहों के बुरे असर को दूर कर कार्य सिद्ध करती है और एकसाथ 10 अंगूठियां मंगवाने पर डाकखर्च भी नहीं लगता. एक बार पाथफाइंडर का रौकेट बनने की देर है फिर तो उस को बृहस्पति पर पहुंचाना भर है. फोटो तो वह अपनेआप खींचेगा, आप लोग बस, कैमरे में फिल्म डालना मत भूलना,’’ मंत्रीजी बोले.

सभी वैज्ञानिकों ने मरता क्या न करता के अंदाज में हामी भर दी. बाहर आ कर उन्होंने मंत्रीजी के पी.ए. को पकड़ा, ‘‘क्या बात है भई? यह अचानक मंत्रीजी को क्या धुन सवार हो गई?’’  पी.ए.ने दाएंबाएं देखा और फिर दबी आवाज में कहा, ‘‘दरअसल, बात यह है कि कल अमेरिका के एक मंत्री ने हमारे मंत्रीजी को बेइज्जत करने के इरादे से फोन किया और पूछा, ‘अंतरिक्ष विज्ञान विभाग देख रहे हो, यह तो बताओ कि रौकेट इतनी तेज क्यों भागता है?’ हमारे मंत्रीजी भी आखिर यों ही तो मंत्री नहीं बन गए हैं, तपाक से बोले, ‘अबे, देखता नहीं क्या कि रौकेट के पिछवाड़े में कैसी आग लगी होती है? तुम्हारे पिछवाड़े में आग लगवा दें तो तुम उस से भी तेज भागोगे.’ अमेरिकी मंत्री की बोलती बंद हो गई, मगर हमारे मंत्रीजी के दिल की आग ठंडी नहीं हुई, इसलिए इतना तामझाम कर रहे हैं.’’

वैज्ञानिक बोले, ‘‘तो यह बात है. मंत्रीजी की व्यक्तिगत इज्जत का मामला है इसलिए वे इतना छटपटा रहे हैं. देश की इज्जत की बात होती तो यह सब बखेड़ा होता ही नहीं.’’  खैर, जापान से तकनीक, अमेरिका से कलपुर्जे और रूस से मदद मांग कर पाथफाइंडर (स्पेस शटल) न सिर्फ तैयार हो गया बल्कि उस के रवाना होने का दिन भी आ पहुंचा. मंत्रीजी खुशीखुशी फीता काटने पहुंच गए. मंत्रियों को तो वैसे भी खुजली होती है जहां फीता देखा, कैंची ले कर दौड़ पड़े.

उलटी गिनती शुरू हुई और खत्म भी हो गई मगर यान अपनी जगह से हिला तक नहीं. वैज्ञानिकों ने घबरा कर ‘यान’ का एकएक सिस्टम पुन: चैक किया और फिर कोशिश की, मगर वह अपनी जगह से टस से मस न हुआ. वैज्ञानिकों को पसीना आने लगा. एकाएक मंत्रीजी ‘‘हम ट्राई करते हैं,’’ कह कर आगे बढ़े और ‘यान’ को पकड़ कर स्कूटर की तरह एक ओर झुकाया, थोड़ी देर  बाद सीधा कर के बोले, ‘‘अब स्टार्ट करो.’’

उपस्थित जनों की आंखें फटी की फटी रह गईं, पाथफाइंडर (स्पेस शटल) चल पड़ा. सभी लोग अवाक् हो मंत्रीजी का चेहरा देखने लगे. मंत्रीजी हंसे, ‘‘अरे भई, हमारी इंडियन कंपनी के स्कूटर ऐसे ही तो हैं, झुका कर चालू होते हैं.’’

वैज्ञानिकों ने लंबी सांस खींची.  पाथफाइंडर की रवानगी की खबर राष्ट्रपति के बधाई संदेश के साथ देश भर के अखबारों में छपी. बहुत जल्द यान के किसी ग्रह पर उतरने के संकेत मिलने लगे.  ‘‘लगता है हमारा यान कुछ ज्यादा ही जल्दी बृहस्पति पर पहुंच गया है, सर,’’ वैज्ञानिकों ने चिंतित हो कर मंत्रीजी को सूचित किया.

‘‘इस में चिंता की क्या बात है भई, आखिर वह रौकेट है कोई पैसेंजर ट्रेन तो नहीं, जो हर स्टेशन पर खड़ा हो जाए. टौप गियर में जाएगा वह तो,’’ मंत्रीजी ने आश्वस्त किया.

कुछ दिन बाद जब शटल से तसवीरें आनी शुरू हुईं तो वैज्ञानिक उन्हें देख कर हैरान रह गए. तसवीरों में पहाड़, नदी, नाले, हरियाली सभी कुछ पृथ्वी की तरह. बृहस्पति पृथ्वी से एकदम मिलताजुलता ग्रह निकला. यह सनसनीखेज खबर जंगल में लगी आग की तरह फैली. पंडितों और ज्योतिषियों ने फौरन पुरानी पोथियों का हवाला देते हुए घोषणा की कि हमारे पूर्वजों ने हजारों साल पहले ही बता दिया था कि बृहस्पति ग्रह, पृथ्वी के दूर के रिश्ते में है. संभवत: वह पृथ्वी के बड़े चाचा के लड़के का भतीजा है. लेकिन जब तसवीरोें में मकान, आदमी, औरतें भी दिखाई देने लगे तो एक युवा वैज्ञानिक उत्तेजित हो कर चिल्लाया, ‘‘मुझे तो ऐसा लग रहा है जैसे मैं अपने गांव

तब एक बुजुर्ग वैज्ञानिक ने ठंडी सांस ली, ‘‘यह बात एकदम ठीक है मेरे बच्चे कि तुम अपने गांव की ही तसवीरें देख रहे हो. असल में हमारा यान वापस पृथ्वी पर उतर गया है और यहीं के फोटो खींच रहा है. मैं पहले ही कहता था हमें इतना धन और समय बरबाद करने की क्या जरूरत है, जबकि सभी ग्रहों के बारे में दूसरे देशों से हमें घर बैठे ही जानकारी मिल जाती है. नकल मारने वाला प्रथम श्रेणी भले ही न ला पाए, पास तो हो ही जाता है.’’

अमेरिकी मंत्री ने भारतीय मंत्रीजी को फोन लगाया और व्यंग्यपूर्वक बोला, ‘‘क्या हुआ जनाब? लौट के बुद्धू घर को आए.’’

मंत्रीजी इत्मीनान से बोले, ‘‘आप ने समझा क्या है हमारे अंतरिक्ष यानों को? वे अमेरिकी यानों की तरह एहसानफरामोश नहीं हैं, जिस मिट्टी में पैदा हुए हैं, पलेबढ़े हैं उस को छोड़ कर ऐसे भाग जाते हैं कि लौट कर ही नहीं आते. स्वार्थी, देशद्रोही. हमारे यान तो देशभक्त हैं, अपनी जमीन को छोड़ कर जाने का मन ही नहीं होता. बेचारे लौटलौट कर आ जाते हैं.’’ अमेरिकी मंत्री की बोलती बंद हो गई. मंत्रीजी ने ठहाका लगाया और उस स्थान पर ताव दिया जहां पर मूंछें होनी चाहिए थीं. गर्व से अपनी छाती ठोकी, ‘‘आखिर हम यों ही तो मंत्री नहीं बन गए हैं.’’

छुआछूत का कलंक नहीं हो रहा अंत

भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को जब उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया तो उन्होंने सरकारी आवास में प्रवेश से पहले वहां का शुद्घीकरण कराया. इस के लिए बाकायदा गोरखपुर के मंदिर से पुजारी बुलाए गए. मुख्यमंत्री आवास के प्रवेशद्वार से ले कर सड़क तक को गंगाजल से शुद्घ किया गया.

मुख्यमंत्री के दौरे के समय भी इस बात का ध्यान रखा जाने लगा कि उन को कहीं परेशानी न हो. गौतमबुद्घ की निर्वाणनगरी कुशीनगर में आदित्यनाथ के कार्यक्रम में अधिकारियों ने वहां के दलित परिवारों को शैंपू, मंजन और साबुन दिया. उन से कहा गया कि सभी लोग नहाधो कर, साफसुथरा हो कर आएं. इन सभी को मुख्यमंत्री के टीकाकरण कार्यक्रम में बुलाया गया था. यह बात सामने आते ही पूरे देश में भाजपा सरकार की मुखालाफत होने लगी. गुजरात के दलित संगठनों ने तो साबुन से तैयार महात्मा बुद्घ की 125 किलो की मूर्ति आदित्यनाथ को, लखनऊ आ कर, सौंपने का कार्यक्रम बनाया लेकिन उन को झांसी स्टेशन पर रोक कर वापस भेज दिया गया. लखनऊ में दलित अत्याचार और निदान विषय पर संगोष्ठी करने का प्रयास किया गया तो उस कार्यक्रम को भी होने नहीं दिया गया.

इन घटनाओं से साफ है कि समाज में दलितों के हालात बहुत खराब हैं. आज भी सामान्य वर्ग उन से मिलना पसंद नहीं करता. यह घटना छुआछूत और जातिप्र्रथा की पोल को खोलने के लिए पर्याप्त है.  दलित चिंतक एस आर दारापुरी कहते हैं, ‘‘कुशीनगर में जिस तरह से सरकारी संरक्षण में छुआछूत की भावना को बढ़ावा मिला, उस से पूरे दलित समाज में क्षोभ है. दलित अत्याचार और निदान विषय पर आयोजित संगोष्ठी में दलितों के वर्तमान हालात पर चर्चा होनी थी पर सरकारी लोगों ने इसे होने नहीं दिया. दलित संगठनों की सोच है कि सरकार दलितों को गंदा मानती है. इसलिए मुख्यमंत्री से मिलने से पहले दलितों से नहा कर आने के लिए कहा गया. यह बाबा भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती चल रही है. इसलिए गौतमबुद्घ की 125 किलो की साबुन की मूर्ति बनाने का काम शुरू हुआ. सरकार को पता था कि विचार गोष्ठी में जो तथ्य सामने आएंगे उन का जवाब देना सरकार के लिए मुश्किल होगा. ऐसे में विचारगोष्ठी को होने से ही रोक दिया गया.’’

सहारनपुर में भले ही दलितसवर्ण साथ खड़े हो गए हों पर जाति और छुआछूत के नाम पर अभी दोनों बिरादरियों में दूरी बनी हुई है. सहारनपुर की घटना पर राजनीति शुरू हुई तो वहां पर भीमसेना सक्रिय नजर आने लगी. भीमसेना को पूरा लाभ न मिल जाए, इसलिए बहुजन समाज पार्टी ने भी अपना दखल बढ़ाया. जब बसपा नेता मायावती को लगा कि कोई लाभ नहीं मिल रहा और दलितों में उन की पैठ घट गई है तो उन्होंने दलितों के मुद्दे को ले कर राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने का नाटक रचा.

बसपा से नाउम्मीदी

दलितों के बिगड़ते हालात के लिए मायावती कम जिम्मेदार नहीं हैं. दलितों के वोट पर मायावती उत्तर प्रदेश में  4 बार मुख्यमंत्री बनीं पर उन्होंने दलितों के हालात को सुधारने का काम नहीं किया. मायावती ने अपने कार्यकाल में मूर्तिपूजा और व्यक्तिपूजा को बढ़ावा दिया. जिस से दलित आंदोलन और उस में सुधार के काम पूरी तरह से बंद हो गए. बसपा के बनने से पहले डीएसफोर और दूसरे संगठन दलितों में सामाजिक चेतना जगाने का काम करते थे. मायावती ने सत्ता में आते ही इस पर रोक लगा दी.

दलित संगठनों के साथ विरोध का बरताव होने लगा. जिस से दलित आंदोलन और सामाजिक चेतना जगाने का काम बंद हो गया. इस का असर यह हुआ कि दलित अपनी लड़ाई भूल कर धर्म के आडंबर में फंसने लगे. वे नव हिंदुत्व का शिकार हो गए. भाजपा ने दलितों की इस मनोदशा को समझते हुए उन को धर्म के सहारे पार्टी से जोड़ने का काम शुरू किया. उस के नेता दलित घरों में जा कर खाना खाने लगे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ले कर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह तक दलितों के घर जा कर खाना खाने लगे. मध्य प्रदेश में दलितों को कुंभ के दौरान उन के पाप धोने का ढोंग नदी में नहला कर किया गया. इस की अगुआई वहां के भाजपाई  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने की.

भाजपा पूरे देश में यह प्रचारित करने में लग गई कि उस ने दलितों को बराबरी का दरजा दे कर समाज से छुआछूत और जाति व्यवस्था को खत्म कर दिया है. असल में, यह एक छलावा मात्र था. दिक्कत यह है कि विरोधी दल इस बात का विरोध करने के लायक नहीं रह गए हैं.

असमंजस में दलित

उत्तर प्रदेश में लगातार दलित समुदाय के खराब होते हालात के बाद भी बसपा नेता मायावती या कोई दूसरा नेता सच बात को कहने के लिए सड़क पर नहीं उतर सका. ऐसे में भाजपा जो बात कहती रही, लोग भरोसा करते रहे. कुशीनगर और सहारनपुर की घटनाओं ने समाज की पोल को खोल दिया.  दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘सब से अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश में दलित 20 फीसदी के करीब हैं. दलित परिवारों में 80 फीसदी लोग गांवों या शहरों में झोंपडि़यों या छोटेछोटे घरों में रहते हैं. ये लोग अभी भी भूख और गरीबी के दौर से गुजर रहे हैं. थोड़ाबहुत पैसा कमाते भी हैं तो वह नशे की आदत में उड़ जाता है. दलितों में आगे बढ़ चुके लोग पूजापाठ और नव हिंदुत्व के सहारे सवर्र्ण बनने की होड़ में लगे हैं. वे खुद भले ही छुआछूत और जातिप्रथा का शिकार हों, पर गरीब दलितों के साथ इन का व्यवहार ऊंची जातियों सरीखा होता जा रहा है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘दलितों को शैंपूसाबुन की जरूरत नहीं हैं. इन लोगों को रोजगार की जरूरत है. जिन लोगों को रोजगार मिल गया है वे किसी अगड़े से कम नहीं हैं. जिन दलितों के पास खाने के लिए पैसे नहीं हैं, जो भूख और गरीबी के दौर से गुजर रहे हैं, उन्हें शैंपूसाबुन से क्या मिलेगा. अगर दलितों की हालत को सुधारने का काम किया गया होता तो इस तरह का दिखावा करने की जरूरत नहीं पड़ती. दलितों की शिक्षा और रोजगार दोनों की दशा को ठीक करने की जरूरत है. गांव की किसी भी दलित बस्ती या शहर किनारे रह रहे दलितों के हालात को देखते हुए हकीकत को समझा जा सकता है.’’

बिहार में दलितों की दशा बुरी है. वहां उन का कोई माईबाप नहीं है. दलितों के बड़े नेता रामविलास पासवान ‘राम’ वालों की पार्टी के सहयोगी बन गए तो पिछड़े मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ‘राम’ वालों की पार्टी से मिल साझा सरकार बना ली है. गरीबी, भुखमरी, बेकारी और पिछड़े सामंतों की वजह से बिहार के दलितों, महादलितों का पलायन दूसरे राज्यों की ओर बढ़ रहा है. वहां भी वे हिंसा, भेदभाव की चपेट में हैं.

कानून व्यवस्था की खराब हालत का असर भी सब से ज्यादा दलित जातियों पर पड़ता है. गांवदेहात तो दूर, राजधानी लखनऊ के हालात खराब हैं. विमला नाम की दलित महिला को न्याय के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. उस की आवाज को बंद करने के लिए विरोधियों ने उस के साथ गैंगरेप  से ले कर चेहरे पर तेजाब डालने तक का दुसाहस किया. पहले की अखिलेश सरकार ने 2, फिर योगी सरकार ने 1 लाख रुपए की सहायता जरूर दी पर उस को न्याय नहीं मिला. सहायता राशि मिलने के बाद भी उस पर एसिड अटैक किया गया. प्रशासन घटना को गलत मान रहा है. विमला अब न्याय के लिए हाईकोर्ट की शरण में है. विमला का सवाल है, ‘‘अगर मैं गलत बोल रही हूं तो मुझे सहायता क्यों दी गई?’’

दलितों को शिक्षित कर के ही उन की हालत में सुधार लाया जा सकता है. इस में सरकारी प्र्राथमिक स्कूलों की जिम्मेदारी सब से अहम हो जाती है. परेशानी की बात यह है कि लगातार सुधार के बाद भी सरकारी स्कूलों की शिक्षाव्यवस्था पूरी तरह से पंगु हो चुकी है.  उत्तर प्रदेश में इस समय करीब 1,200 से अधिक सरकारी स्कूलों की इमारतें खराब हालत में हैं. कुछ स्कूलों की बात छोड़ दें तो बाकी स्कूलों में बच्चों को जुलाई के अंत तक किताबें और यूनिफौर्म नहीं मिलीं. शिक्षामित्रों से ले कर शिक्षकों तक में किसी न किसी तरह का असंतोष है. सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षामित्रों को परमानैंट करना गैरकानूनी ठहरा दिया है. सरकारी स्कूलों के हालात को देखते हुए यहां पर समाज के अमीर घरों के बच्चे पढ़ने नहीं आते. यहां तक कि सरकारी स्कूलों के मास्टर तक अपने बच्चों को यहां नहीं पढ़ाते हैं.

हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी उत्तर प्रदेश की सरकार यह तय नहीं कर पाई कि सरकारी नौकरों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ें. मैगसेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय सब को समान शिक्षा के अधिकार को ले कर सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं. वे कहते हैं, ‘‘अफसर सरकार को गलत जानकारी दे कर अपना मतलब हासिल कर लेते हैं. कोर्ट के आदेश के बाद भी सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया. सरकार प्राथमिक शिक्षा के स्तर को उठाने का दावा करती है पर असल में सरकार की मंशा ही नहीं है कि प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर सही हो. वह केवल दिखावा कर रही है. अगर सरकारी स्कूलों की हालत सुधर जाए तो गरीब परिवारों के बच्चे भी अच्छी शिक्षा हासिल कर सकते हैं.’’

शिक्षा से बनी दूरी

दलितों की हालत को सुधारने का एक जरिया है सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के स्तर को सुधारा जाए. प्राइमरी स्कूलों तक जो दलितों के बच्चे पढ़ने आते हैं, कक्षा 6 के बाद स्कूलों में उन की संख्या और भी कम हो जाती है. इस की वजह संदीप पांडेय बताते हैं, ‘‘दलित परिवारों में इतनी गरीबी है कि बच्चे कमाईर् लायक होते ही स्कूल छोड़ कर पेट भरने के इंतजाम में या तो मेहनतमजदूरी करने शहर की ओर भाग जाते हैं या फिर वहीं गांव में कुछ करने लगते हैं. आंकड़े देखें तो पता चलेगा कि कक्षा 5 के बाद स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में सब से अधिक दलित जाति के बच्चे होते हैं. कुछ बच्चे सच में पढ़ना चाहते हैं पर उन के परिवार की हालत ऐसी नहीं होती कि वे पढ़ा सकें.’’

आंकड़े बताते हैं कि दलित लड़कियां सब से पहले स्कूल छोड़ती हैं. लड़कों को तो वहां घर के काम पर नहीं लगाया जाता पर लड़कियों को घर के काम में लगा दिया जाता है. वे खेतों में काम करने के लिए जाने लगती हैं, जिस के कारण कई बार उन का यौन शोषण भी होता है. शिक्षा की कमी का ही नतीजा है कि आज भी दलित लड़कियों की शादी सब से कम उम्र में हो जाती है. भले ही अब यह उम्र 10-12 से बढ़ कर 16-17 वर्ष हो गई हो पर अभी भी नाबालिग की शादी हो जाती है. दलितों में 2 वर्ग हो गए हैं. एक वर्ग ऐसा है जो थोड़ा आगे बढ़ गया है. दूसरा वर्ग अभी भी वहीं है. सोच के स्तर को देखें तो दोनों ही वर्ग एकजैसे ही हैं. दलितों को अब यह बात बारबार सिखाई और समझाई जा रही है कि वे धर्म का पाठ पढ़ कर ही आगे बढ़ सकते हैं. ऐसे में वे धर्म के अंधविश्वास में फंसते जा रहे हैं.

आडंबर का कसता शिकंजा

धर्म का आडंबर कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ा है. सोशल मीडिया से ले कर गांवगांव में होने वाले कथा, भागवत, प्रवचन में यह बात बारबार दोहराईर् जा रही है कि धर्म की लाठी को पकड़ कर ही जीवन को पार किया जा सकता है, अगले जीवन को सुधारा जा सकता है, ताकि अगले जन्म में फिर दलित न बनना पड़े. असल बात यह है कि कोई भी दलितों को बराबरी का हक नहीं देना चाहता. सभी को लगता है कि अगर दलित आगे निकल गए तो उन की सेवा, घरों में नौकरी कौन करेगा? वोट देने के लिए लंबीलंबी  लाइनें लगाने से ले कर नारे लगाने तक में ऐसे ही लोग रहते हैं. नेता दलितों के लिए जोरशोर से भले बात करते हैं पर हकीकत में वे इन के लिए कुछ नहीं करना चाहते.

जड़ में जाति और धर्म

भाजपा ने दलित नेताओं की आपसी लड़ाई का लाभ उठा कर उन को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है, जिस से दलित हितों की बात उठनी बंद हो गई है. बिहार में रामविलास पासवान, महाराष्ट्र में रामदास अठावले और दिल्ली में उदित राज इस की मिसाल हैं. इन नेताओं के पीछे दलित मजबूत हालत में खड़े थे. उन के ये नेता अब भाजपा में शामिल हो कर उस के हिंदुत्व को स्वीकार कर चुके हैं तो वे भी नव हिंदुत्व की विचारधारा के साथ खड़े हो रहे हैं. जिस जातिप्रथा और छुआछूत को ले कर दलित परेशान हैं उस की जड़ में जाति और धर्म ही है.

यह बात जब तक दलित समझ नहीं पाएगा तब तक उस का भला नहीं होगा. परेशानी की बात यह है कि राजनीतिक दलों से ले कर सामाजिक संगठनों तक सभी सत्ता के जरिए ही व्यवस्था में सुधार को महत्त्व देते हैं. वे भूल जाते हैं कि सत्ता का चेहरा हमेशा एक ही होता है, केवल कुरसी पर बैठा व्यक्ति बदल जाता है. यही वजह है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी दलितों के हालात नहीं बदले. दलितों के नाम पर वोट लेने वाले अपना उल्लू सीधा करते रहे पर दलितों के हालात जस के तस हैं.            

भाजपा को रास आ रहा नव हिंदुत्व

नव हिंदुत्व कट्टरवादी हिंदुत्व से अलग है. नव हिंदुत्व  में दलित और पिछड़े शामिल हैं, जो खुद को अगड़ी जाति में शामिल होने को दिखाने के लिए उन की तरह पूजापाठ करते हैं, सत्यनारायण और भागवत कथा सुनते हैं. वे इस बात को ले कर हिंदुत्व से नाराज नहीं हैं कि धर्मग्रंथों में उन के खिलाफ क्या लिखा है? ये लोग असल में कुछ पढ़ेलिखे हैं. इन में से ज्यादातर अपने गांव को छोड़ कर रोजीरोटी की तलाश में शहर आ गए हैं.

गांव में भी यह वर्ग कुछ पैसे वाला हो गया है. इस वर्ग के लिए दलित और पिछड़ा होना केवल आरक्षण के लाभ तक ही सीमित रह गया है. काफी हद तक यह वर्ग अपनी ही जाति से पूरी तरह कट गया है. नव हिंदुत्व में शामिल दलित और पिछड़ों का यह वर्ग दूसरे दलित और पिछड़ों से दूरी रखता है. यह वर्ग अपनी जाति के नेताओं को भी बहुत पसंद नहीं करता.

नव हिंदुत्व में शामिल यह वर्ग

80-90 के दशक की तरह कट्टर नहीं रह गया है. यह तिलक, तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार’ और ‘ठाकुर बामन बनिया चोर’ जैसे नारे नहीं लगाता. पंडित और पुजारी को इस वर्ग के लोगों के घर जा कर कथा कराने में कोई एतराज नहीं रह गया है. यह वर्ग अब सुविधाभोगी हो गया है. वह अपनी सुविधा के हिसाब से जिंदगी को जीना पसंद करने लगा है. यह वर्ग राजनीतिक रूप से जागरूक है. मजेदार बात यह है कि राष्ट्रवाद की पहचान को ले कर यह वर्ग ज्यादा मुखर हो चला है. यही वजह है कि रोहित बेमुला की आत्महत्या और कन्हैया कुमार के देशद्रोही बयान जैसे मुद्दे भी इन को अपनी ओर खींच  पाने में सफल नहीं होते हैं. नव हिंदुत्व में शामिल नए वर्ग में सब से बड़ी संख्या गैर जाटव दलितों और गैर यादव पिछड़े वर्ग की है.

भाजपा की जीत का सब से बड़ा यही आधार है. अगड़ी जातियों का भाजपा पर सब से अधिक प्रभाव रहा है. जब कांग्रेस ने दलित, पिछड़ों और मुसलिमों को तवज्जुह देनी शुरू की थी तब ये जातियां धीरेधीरे कर  कांग्रेस से टूट कर भाजपा में शामिल होने लगी थीं.  भाजपा में मोदीयुग के उदय के बाद नव हिंदुत्व को बढ़ावा मिला और दलितपिछड़े पार्टी में अगली पंक्ति में खड़े हो गए. ऐसे में पार्टी के बेस वोट अगड़ी जातियों में उपेक्षा का भाव पैदा हो रहा है. मोदी सरकार की नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के बाद यह वर्ग पार्टी से नाराज हो कर भी अलग नहीं हो पाया. इस का कारण यह है कि दूसरी कोई पार्टी इन को अपने करीब नहीं दिख रही. नाराज होने के बाद भी यह वर्ग भाजपा के साथ खड़ा होने को मजबूर है. इस बात को अब सपा, बसपा और कांग्रेस भी समझने लगी हैं.

आने वाले दिनों में सपा, बसपा और कांग्रेस भी नव हिंदुत्व के पक्ष में खड़े हो सकते हैं. सपा की अखिलेश सरकार ने धार्मिक यात्राओं और बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए इस को समझने का प्रयास किया था पर अपनी धर्मविरोधी छवि के कारण वे सफल नहीं हो सकीं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी किसानयात्रा के समय मंदिरों में पूजापाठ करने का काम किया. पर वे भी नव हिंदुत्व की भावना को जमाने में असफल रहे. नव हिंदुत्व भाजपा को विजय दिलाने में सफल रहा है. असल में यही भाजपा के लिए चुनौती भी देगा. दलित और पिछड़ों के प्रभाव को अगड़ी जातियां कब तक सहन करती हैं, यह देखने वाली बात होगी.  अगड़ी जातियों को सब से अधिक मुश्किल आरक्षण को ले कर है. ऊंची जातियों को लगता है कि आरक्षण के चलते अगड़ी जातियों का हक मारा जा रहा है. वे भाजपा पर इस बात का दबाव बना सकती हैं कि आरक्षण के मुद्दे पर नई पहल हो. आरक्षण जातिगत न हो कर, आर्थिक आधार पर हो, जिस से गरीब वर्ग के अगड़ी जातियों को भी आरक्षण का लाभ मिल सके.

भाजपा में एक बड़ा वर्र्ग इस बात का पक्षधर है कि आरक्षण पर नई बहस हो. बिहार चुनाव में यह मुद्दा प्रमुखता से उठा था पर बैकफायर कर गया. इस के बाद भाजपा बारबार यह बात दोहरा रही है कि आरक्षण के वर्तमान स्वरूप में कोईर् बदलाव नहीं किया जाएगा. बिना आरक्षण और बिना राममंदिर भाजपा के लिए अपने अगड़ी जातियों के वोटबैंक को साधे रखना मुश्किल होगा.

डिजिटल मीडिया पर भी लागू एससी/एसटी ऐक्ट

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने एक अहम फैसले में साफ कर दिया है कि सोशल मीडिया पर अनुसूचित जाति और जनजाति यानी क्रमश: दलित और आदिवासी समुदायों के खिलाफ की गई किसी भी पोस्ट या जातिगत टिप्पणी पर सजा हो सकती है. ऐसी कोई भी टिप्पणी औनलाइन अब्यूज में शामिल की जाएगी.

कोर्ट ने यह भी साफ किया है कि इस बात का सजा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि पोस्टकर्ता ने अपनी प्राइवेसी सैटिंग को पब्लिक या प्राइवेट कर रखा है. अगर किसी की गैरमौजूदगी में भी किसी जाति विशेष का अपमान किया गया है तो इस पर भी एससी/एसटी ऐक्ट लागू होगा. किसी भी तरह की जातिगत टिप्पणी एससी/एसटी ऐक्ट 1989 के तहत आती है. हालांकि यह फैसला फेसबुक वाल के संदर्भ में दिया गया है लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यह फैसला उन वैबसाइट्स पर भी लागू होता है जिन पर प्राइवेसी सैटिंग होती है. इतना ही नहीं, यह फैसला लोगों के औनलाइन ग्रुपों पर भी लागू होता है. यानी, व्हाट्सऐप पर भी यह फैसला प्रभावी होगा.

जाहिर है अब सोशल मीडिया पर दलित आदिवासियों का अपमान करना महंगा पड़ेगा. यह भी जाहिर है कि चूंकि सोशल मीडिया इन समुदायों की बेइज्जती का एक बड़ा अड्डा बन गया है, इसलिए न्यायालय को यह फैसला लेना पड़ा. एक वर्गविशेष के स्वाभिमान के मद्देनजर यह फैसला स्वागतयोग्य है, लेकिन विचारणीय बात यह है कि क्या इस से जातिगत मानसिकता या पूर्वाग्रह खत्म हो जाएंगे?

सोशल मीडिया का दुरुपयोग

कल तक जो बातें चाय की गुमठियों और चौराहों पर होती थीं, वे अब सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से होने लगी हैं. दलित आदिवासियों का अपमान उन में से एक है. समाज का ढांचा जरूर थोड़ा बदला है लेकिन उस की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है. व्हाट्सऐप  पर जातियों के ग्रुप बन गए हैं. जितनी जातियां देश में हैं, उन से लाखगुना ज्यादा उन के ग्रुप हैं. इन ग्रुपों में तुक या मुद्दे की बातें कम होती हैं, दूसरी जाति वालों को कोसने की शाश्वत परंपरा का निर्वाह ज्यादा होता है.

तकनीक का जातिगत दुरुपयोग हमारे महान देश में ही होना मुमकिन है जो दरअसल हमारी जातिगत मानसिकता का आईना है. इस का इलाज कोई अदालत नहीं कर सकी, न कर सकती है क्योंकि जातिगत या जातिवादी व्यवस्था धर्म की देन है.

अब भला किस की मजाल कि वह धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म को ही खत्म करने की बात करे या फिर उस के समाज पर पड़ते दुष्प्रभावों की व्याख्या करे. उलटे, सोशल मीडिया या डिजिटल समाज की सुबह ही विभिन्न देवीदेवताओं की तसवीरों व उन के पुण्य स्मरण से होती है. ऐसे जड़ और धर्मांध लोगों से क्यों उम्मीद की जाए कि वे जातिगत टिप्पणियां करने से खुद को रोक पाएंगे.

धार्मिक निर्देशों के अनुयायी मनुवादी और पौराणिकवादी जातिगत व्यवस्था व समाज को तोड़ने के हिमायती कभी नहीं रहे. ऐसे में अब दलित आदिवासी भी इसी को बनाए रखने में अपना भला देखने लगे हैं. उन का बड़ा और स्वाभाविक डर आरक्षण छिन जाने का है, जो एनडीए के सत्तानशीं होने के बाद से लगातार बढ़ ही रहा है.  हालात ज्यों के त्यों यानी 18वीं सदी जैसे हैं. जाहिर है जाति की जड़ किसी के उखाड़े से नहीं उखड़ रही, बल्कि और गहराती जा रही है. अदालतें अगर एससी/एसटी ऐक्ट सोशल मीडिया पर भी लागू कर दें, तो इस जड़ और जड़ता पर कोई फर्क पड़ेगा, ऐसा लग नहीं रहा.

लोगों की मानसिकता और जातिगत पूर्वाग्रह सिर्फ और सिर्फ जागरूकता से दूर हो सकते हैं, जिस के रास्ते में धर्म सब से बड़ा रोड़ा है. शायद, इसीलिए भीमराव अंबेडकर ने धर्मग्रंथों को जला देने की बात कही थी.

बेतुका विवाह विधेयक

लोकसभा में अगर द मैरिज (कंपल्सरी रजिस्ट्रेशन ऐंड प्रिवैंशन औफ वैस्टफुल एक्सपैंडीचर) विधेयक 2016 पारित हो पाया तो नोटबंदी के बाद अब आम लोगों को नई परेशानियां झेलनी होंगी. बड़े जोशोखरोश से इस विधेयक का मसौदा कांग्रेस सांसद रंजीत रंजन यादव ने तैयार किया है.

यह मसौदा दिलचस्प भी है और चिंतनीय भी. इस मसौदे से जाहिर होता है कि सस्ती वाहवाही लूटने के चक्कर में हमारे माननीय एकदूसरे से पिछड़ना नहीं चाहते. वे इस बाबत कानून के ऐसेऐसे खाके खींच रहे हैं जिन्हें देख सिर पीट लेने की इच्छा होने लगती है कि कानून आखिर न्याय के लिए हैं या आम लोगों की रोजमर्राई जिंदगी दुश्वार बनाने के लिए. रंजीत रंजन का उत्साह बेवजह नहीं है. दरअसल, नोटबंदी की मार और परेशानियों को आम लोगों ने सब्र से झेल लिया है तो अब हर नेता अपने दिमाग के घोड़े दौड़ा कर जता रहा है कि समाज और देश के लिए क्या अच्छा होगा.

यह है मसौदा

प्रस्तावित विवाह कानून के मसौदे में घोषित मंशा शादियों में फुजूलखर्ची रोकने की है. बकौल रंजीत, इस विधेयक का मकसद सादगीपूर्ण शादियों को बढ़ावा देने का है. इस से शादियों में किया जाने वाला बेवजह का खर्च रुकेगा. लोग शादियों पर पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं, इस से गरीब लोगों पर ज्यादा खर्च करने का दबाव बढ़ता है.

संसद पहुंच कर एकाएक ही ज्ञानी हो गईं रंजीत के पास आइडियों की भरमार है. चूंकि कह देने मात्र से लोग मानेंगे नहीं, इसलिए इस में उन्होंने जोड़ा है कि अगर कोई परिवार शादी में 5 लाख रुपए से ज्यादा की राशि खर्च करता है तो उस परिवार को इस की घोषणा सरकार के सामने करनी होगी और राशि का 10 फीसदी हिस्सा संबंधित कल्याण कोष में देना होगा. ये वे कल्याण कोष हैं जो सरकार द्वारा गरीबों की मदद के लिए बनाए जाते हैं.

अगर विधेयक पारित हुआ तो हर विवाह का पंजीकरण 2 महीने के भीतर कराना होगा और इतना ही नहीं, शादियों में खाने की बरबादी रोकने के लिए सरकार रिसैप्शन यानी प्रीतिभोज में परोसे जाने वाले पकवानों की भी सीमा तय कर सकती है. अलावा इस के, शादी करने वाले परिवार को सरकार को यह जानकारी भी देनी होगी कि कितने नातेरिश्तेदार और परिचित आमंत्रित किए गए.

होंगी परेशानियां

लोगों की प्राइवेसी में सेंधमारी करते इस विधेयक की चर्चा इसलिए भर है कि वाकई लोग अब शादियों में दिल खोल कर खर्च करते हैं. लेकिन इस से किसी सांसद या नेता के पेट में मरोड़ें उठें, तो उस की मंशा पर शक होना भी स्वाभाविक बात है.

विधेयक कानूनी जामा पहन पाया तो अब हंसीखुशी शादी करने वालों को पूरा हिसाबकिताब सरकार को देना पड़ेगा कि उन्होंने किस काम में, कितना खर्च किया. कितने फूफाजी, मामाओं और मौसाओं को बुलाया यानी अब या तो उन्हें शादी में एक हाजिरी रजिस्टर रखना पड़ेगा या फिर विवाह समारोह की सीडी बनवा कर सरकार को देनी पड़ेगी जिस से सरकार यह तय कर पाए कि शादी धार्मिक रीतिरिवाजों के साथसाथ कानून के मुताबिक ही हुई है.

नसबंदी और नोटबंदी के बाद अब पकवान बंदी चलेगी. लोग चाह कर भी मेहमानों का स्वागत उतने से ज्यादा पकवानों से नहीं कर सकते जितने सरकार तय कर देगी या जिन्हें देख यह लगेगा कि इतने या उतने पकवानों की तादाद 5 लाख रुपए की सीमा में आ ही नहीं सकते. अगर पनीर की 2 सब्जियां बनीं, तो तय है हिसाब देने में फर्जीवाड़ा हुआ है लिहाजा, वर या वधु के अभिभावकों से जुर्माना भरवा लिया जाए जिस से किसी गरीब की लड़की की शादी सरकार करवा सके.

कोई सांसद या सरकार यह कभी नहीं कहती कि महंगाई बढ़ रही है. कहा यह जाता है कि लोग अब ज्यादा खर्च करने लगे हैं. तो जाहिर है वे टैक्सचोर या लुटेरे हैं जिन पर नकेल कसने के लिए ऐसे मूर्खतापूर्ण कानूनों का होना जरूरी है.

बात यहीं खत्म नहीं होगी, लोगों को असल दिक्कत तब पैदा पैदा होगी जब वे झक मार कर खर्चे का ब्योरा ले कर सरकार द्वारा तय किए विभाग में पहुंचेंगे और वहां बाबू नदारद मिलेगा. मिल भी गया तो दोचार चक्कर लगाए बगैर तो वह मानने से रहा. गाज उस वक्त भी गिरेगी जब कुछ दिनों बाद सरकार की तरफ से यह नोटिस आएगा कि आप के द्वारा दिया गया हिसाब गलत है. शादी में 5 लाख नहीं, बल्कि 8 लाख रुपए खर्च होना लग रहा है. इसलिए आप इस नोटिस के इतने दिनों के अंदर 80 हजार रुपए जमा करें वरना…

जाहिर है लोग एक वकील कर अदालतों के चक्कर लगाएंगे और जज के सामने गिड़गिड़ाएंगे कि हुजूर, हम ने तो सही हिसाबकिताब दिया है. सरकार खामखां इस मैरिज टैक्स वसूली के बाबत हमें परेशान कर रही है.

अब यह जज साहबों की जिम्मेदारी होगी कि वे इंसाफ छोड़ मुनीम की तरह दिए गए खर्च का ब्योरा देखें और तय करें कि झूठ कौन बोल रहा है. सरकार हारी तो उस का कुछ नहीं बिगड़ना, दूल्हे या दुलहन के मातापिता हारे तो उन्हें चपत लगानी तय है. सरकार की तरफ से लड़ रहे वकील को जनता के करों से मिले टैक्स का पैसा मिलता है, आम घर वाले को अपनी मेहनत की कमाई देनी पड़ती है.

क्या है मकसद

सस्ती लोकप्रियता के लिए नेता हमेशा ही गरीबों के भले की ढाल लेते हैं, यह विधेयक इस का अपवाद नहीं है. वाहवाही लूटने की गरज से यह प्रावधान रख दिया गया है कि 5 लाख रुपए से ऊपर के खर्च का 10 फीसदी हिस्सा किसी गरीब लड़की की शादी में लगाया जाएगा.

यह, दरअसल, दानदक्षिणा वसूलने जैसा कदम है जिस का नाम टैक्स या जुर्माना होगा. सौ में से 2-4 गरीब लड़की वालों से घूस खा कर सरकार खुद बेहिसाब खर्च करते हुए समारोहपूर्वक उन की शादी करा देगी और बाकी पैसा बाबुओं, अफसरों व नेताओं की जेब में चला जाएगा.

मुमकिन है यह विधेयक पारित हो जाए, इसलिए शादी करने जा रहे लोगों को सचेत हो जाना चाहिए कि खर्चे और बिलों की चिंदियां संभाल कर रखना है, क्योंकि कानून बनने जा रहा है. रही बात खर्च छिपाने की, तो लोग अब मैरिजहौल वालों को अगर 5 लाख रुपया देंगे तो बिल 2 लाख रुपए का मांगेंगे जिस से शादी का 5 लाख रुपए की सीमा में होना सिद्ध किया जा सके.

केंद्र सरकार का काम विकास कम, लोगों की निजी जिंदगी में झांकना ज्यादा हो चला है. बात चिंता की है कि सरकार क्यों लोगों की खुशियों पर ग्रहण लगाने को आमादा है. नोटबंदी के दौरान जिन लोगों के पास अपनी मेहनत से कमाया पैसा था, वे बेचारे खुद को बेवजह ही चोर समझ ग्लानि व अपराधबोध से ग्रस्त थे. मानो पैसा कमाया नहीं हो, कहीं से लूटा हो. अब यही हाल शादियों में होगा, जो कम पैसों में की गईं तो मातम जैसी लगेंगी.

बेलगाम और बेमतलब

नेता लगातार बेलगाम होते जा रहे हैं. वे मनमानी पर उतारू हो आए हैं, विवाह संबंधी यह हास्यास्पद विधेयक इस की बानगी है. यह बहुत अव्यावहारिक बात है कि शादी का खर्च किसी को या सरकार को दिया जाए. कल को कोई नेता या सरकार यह विधेयक भी ला सकती है कि बच्चे के जन्म की खुशी में लोग 10 हजार रुपए से ज्यादा का खर्च करेंगे तो उस का 10 फीसदी हिस्सा उन्हें सरकार के जरिए गरीब बच्चों को देना पड़ेगा. अगर कोई 5 हजार रुपए की ड्रैस पहनेगा तो उसे 5 सौ रुपए गरीबों की पोशाक के लिए देने होंगे.

इतना ही नहीं, मजबूर इस बात के लिए भी किया जा सकता है कि जो 5 सौ रुपए की ब्रैंडेड अंडरवियर पहनेगा, उसे 50 रुपए कल्याण कोष में जमा करने होंगे, जिस से गरीबों को चड्ढियां बांटी जा सकें.

नोटबंदी की तर्ज पर यदि इसी तरह सांसदों और सरकार को शह मिलती रही तो दाहसंस्कार का भी हिसाबकिताब मांगा जा सकता है. इस की भी सीमा तय की जा सकती है कि अपने परिजनों के दाहसंस्कार में जो 5 हजार रुपए से ज्यादा खर्च करेगा उसे उस का 10 फीसदी सरकार को देना पड़ेगा, जिस से गरीबों का दाहसंस्कार ससम्मान किया जा सके.  हमारे चालाक नेता मृत्युभोज पर खामोश रहते हैं क्योंकि यह धार्मिक कृत्य है जबकि मृत्युभोज रोकने की ज्यादा जरूरत है जो वाकई फुजूलखर्ची है और पाखंडों को भी बढ़ावा देता है. इस पर कोई रोक लगाने की बात नहीं करता. आप चाहो तो मृत्युभोज में खूब पैसा उड़ाओ, हजारों लोगों को खिलाओ क्योंकि सवाल 2 जिंदगियों के मिलन या बंधन का नहीं, बल्कि आत्मा की मुक्ति यानी मोक्ष का है.

सोने चांदी के सिक्के खरीदना इसलिए है फायदेमंद

त्योहारों के मौके पर कई औफर हमें लुभाते हैं और गहनों के आकर्षक डिजाइन देखकर लगता है कि बस यही राइट चौइस है. लेकिन थोड़ा रुक कर सोचेंगी और समझदारी दिखाएंगी तो पता लगेगा कि गहनों से ज्यादा सिक्के खरीदना बेहतर रहता है.

चलिये आपको बताते हैं कि आखिर कैसे सोने और चांदी के सिक्के खरीदना है फायदे का सौदा.

मेंकिग चार्ज

जब भी सोने की ज्वैलरी खरीदते हैं तो उस पर मेकिंग चार्ज देना पड़ता है. लेकिन जब आप वही ज्वैलरी बेचने जाते हैं या एक्सचेंज करते हैं तो यह अमाउंट आपको वापस नहीं मिलता. इसलिए मेकिंग चार्ज के बोझ से बचना है तो सोने के सिक्के को ही खरीदें. इस तरह आपको त्योहार पर ज्यादा खरीदारी के लिए और रकम भी मिल जाएगी.

कभी भी सिक्कों से बनवा लें ज्वैलरी

अगर आप सोने की ज्वैलरी को सोने के सिक्के, बिस्कुट या फिर और किसी डिजाइन में बदलवा रहे हैं तो आपको इसके बदले मेंकिग चार्ज के बगैर केवल सोने की कीमत मिलेगी और आपको नए डिजाइन के बदले जो एडिशनल चार्ज देना होगा सो अलग. लेकिन अगर आपके पास सोने का सिक्का है तो आप बिना किसी नुकसान के इससे कभी भी ज्वैलरी बनवा सकती हैं.

निवेश का फायदेमंद सौदा

निवेश का मतलब ही है पैसे को प्रौफिट कमाने के लिए लगाना. जब आप सोने की ज्वैलरी में निवेश करते हैं तो आपको उसे बेचने पर मेंकिग चार्ज का नुकसान होता है. लेकिन अगर आपने सोने का सिक्का खरीदकर निवेश किया है तो भविष्य में सोने की कीमत बढ़ने पर अगर आप उसे बेचती हैं तो आपको बिना किसी नुकसान उसी सिक्के की ज्यादा कीमत मिलती है.

सुरक्षा के लिहाज से भी फायदा

सोने की ज्वैलरी के चोरी होने का खतरा ज्यादा होता है, चाहे आप उसे पहनें या फिर रखे रहें. वहीं सोने के सिक्कों को एक बैग में रखना आसान और सुरक्षित होता है.

‘न्यूटन’ के अलावा ये फिल्में भी हो चुकी हैं औस्कर की दौड़ में शामिल

भारतीय सिनेमा के लिए औस्कर अवार्ड हमेशा ही चर्चा का विषय रहा है. इस साल भारत की तरफ से इस अवार्ड के लिए विदेशी फिल्म कैटेगरी में ‘न्यूटन’ को नामित किया गया है. राजकुमार राव अभिनीत ये फिल्म 22 सितंबर को ही रिलीज हुई है.

न्यूटन मिडल क्लास फैमिली के न्यूटन कुमार उर्फ नूतन कुमार की कहानी है. यह फिल्म शुरू से अंत तक आपको बांधने का दम रखती है. न्यूटन एक ऐसी फिल्म है जो दर्शकों की एक खास क्लास के लिए है, जिन्हें रिएलिटी को स्क्रीन पर देखना पसंद है. वहीं तारीफ करनी होगी यंग डायरेक्टर अमित मसुरकर की जिन्होंने एक कड़वी सच्चाई को बौलीवुड मसालों से दूर हटकर पेश किया है.

राजकुमार ने इस फिल्म में अपनी लाजवाब ऐक्टिंग और किरदार को अपने अंदाज में जीवंत बना दिया है. अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग के कारण राजकुमार इस अवार्ड के दावेदारों की लिस्ट में शामिल हो गए हैं. इसके अलावा फिल्म में पंकज त्रिपाठी, संजय मिश्रा, अंजलि पाटिल, रघुबीर यादव भी अहम भूमिकाओं में हैं.

इस फिल्म को जिस तरह क्रिटिक्स और दर्शकों की एक क्लास की जमकर तारीफें मिल रही हैं उसे देखकर पहले ही कहा जा रहा था कि फिल्म देश-विदेश के कई प्रतिष्ठित फेस्टिवल में अपने नाम कई अवार्ड करने वाली है.

यहां ये जानना भी जरूरी है कि भारत ने अब तक एक बार भी विदेशी भाषा कैटेगरी में कोई औस्कर नहीं जीता है. बीते साल तमिल फिल्म विसारानाई को भी इस कैटेगरी में नामित किया गया था, लेकिन ये भी बहुत जल्द ही इस रेस से बाहर हो गई थी.

इससे पहले अपुर संसार (1959), गाइड (1965), सारांश (1984), नायकन (1987), परिंदा (1989), अंजलि (1990), हे राम (2000), देवदास (2002), हरिचन्द्रा फैक्ट्री (2008), बर्फी (2012) और कोर्ट (2015) को भी भारत की तरफ से औस्कर के लिए नामिनेट किया जा चुका है.

यहां तक कि फाइनल लिस्ट तक पहुंचने वाली फिल्मों में भी भारत की ओर से सिर्फ तीन फिल्म, महबूब खान की मदर इंडिया (1957), मीरा नायर की सलाम बौम्बे (1988) और आशुतोष गोवारिकर की लगान (2001) ही शामिल है.

अब देखना होगा कि न्यूटन का चयन भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को औस्कर की दौड़ में कितना आगे तक लेकर जाता है.

पेट के रास्ते आती हैं ये तमाम बीमारियां

बिना ब्रेक लिए देर रात तक काम करना, अमूमन नाश्ता न करना, फास्ट फूड जमकर खाना, लंच के दौरान साफ्ट ड्रिंक की बड़ी-सी बोतल गटकना और काम का तनाव भगाने के लिए नियमित अंतराल पर सिगरेट फूंकना एक तरह से आज की दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है.

शुरुआत में सब ठीक-ठाक चलता है फिर धीरे-धीरे सीने में जलन, पेट फूलने जैसी समस्या आने लगती है और धीरे-धीरे यही छोटी समस्या बड़ी बीमारी का कारण बन जाती है.

यूनानी चिकित्सक हिपोक्रेट्स ने कहा है कि ‘सारी बीमारियां पेट से ही शुरू होती हैं.’ उन्होंने भले ही यह बात दो हजार साल से भी ज्यादा पहले कही हो, लेकिन हमें अब जाकर यह समझ में आना शुरू हुआ है कि वे कितनी पते की बात कह रहे थे.

क्या आप जानती हैं कि एक स्वस्थ वयस्क इन्सान की सिर्फ आंत में ही करीब 100 खराब बैक्टीरिया पाए जाते हैं. ये अलग-अलग किस्म के होते हैं और उनके हितों के बीच टकराव पैदा होने से हमारे शरीर में बीमारियां जन्म लेती हैं.

पिछले दो दशकों में हुई रिसर्च से पता चला है कि पूरी तरह स्वस्थ रहने के लिए आंतों का स्वस्थ रहना बेहद जरूरी है. आंतों की सेहत पर हमारे दिनचर्या का जबरदस्त असर पड़ता है. ज्यादा कैलोरी वाले जंक फूड और शराब का अधिक सेवन, इसके अलावा हरी सब्जियां न खाने से पाचन तंत्र के रोगों का खतरा बढ़ जाता है और यह गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल सिस्टम पर बुरा असर डालता है. जिसके कारण हमारे शरीर में गैस्ट्रोइसोफेगल रिफ्लक्स रोग, इरिटेबल बावेल सिंड्रोम, फंक्शनल डिस्पेप्सिया, मोटापा, लीवर में फैट जमना और पेप्टिक अल्सर जैसे रोगों का खतरा बढ़ जाता है.

अक्सर तनाव में रहने से भी आपका हाजमा खराब हो सकता है. इसकी वजह से पूरे पाचन तंत्र में जलन होने होने के साथ पाचन नली में सूजन आ जाती है और इन सबका नतीजा यह होता है कि पोषक तत्वों का शरीर के काम आना कम हो जाता है.

लंबे समय तक जारी रहने पर तनाव की वजह से इरिटेबल बावेल सिंड्रोम और पेट में अल्सर जैसी पाचन संबंधी तकलीफें हो सकती हैं. जांच के लिए डाक्टरों के पास जाने वाले रोगियों की पड़ताल में यह बात सामने आई है कि गैस्ट्रोइसोफेगल रीफ्लक्स (जीईआरडी) अब पाचन संबंधी सामान्य रोग बन गया है. इस रोग में सीने में जलन तो होती ही है, उल्टी की शिकायत भी होती है. इसके अलावा फेफड़े, कान, नाक या गले से सम्बन्धित भी कई तकलीफें हो जाती हैं. यह अगर लंबे समय तक रह गया तो एक नई अवस्था आ सकती है, जिसका नाम है बैरेट्स इसोफेगस और इसका अगर समय पर इलाज न किया गया तो इसोफेगस का कैंसर भी हो सकता है.

पेट की हल्की लेकिन बार-बार शिकायतें होने पर जीवनशैली में थोड़े-बहुत बदलाव खास तौर पर फायदेमंद हो सकते हैं. इनमें बिस्तर पर सिर ऊंचा रखकर सोना, तंग कपड़े न पहनना, वजन ज्यादा होने पर उसे घटाना, शराब और सिगरेट का इस्तेमाल कम करना, खुराक में बदलाव करना, भोजन के तुरंत बाद लेटने से बचना और सोते समय खाने से बचना शामिल है.

हाल के कुछ अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि शराब के साथ-साथ धूम्रपान का लीवर और पैंक्रियाज को नुकसान पहुंचाने में बहुत बड़ा हाथ है. पैंक्रियाज हर तरह के भोजन को पचाने वाला महत्वपूर्ण अंग है जबकि लीवर शरीर में भोजन के पचने के बाद उसके अवशोषण के लिए जरूरी है.

पित्ताशय में पथरी, शराब के अलावा चर्बी वाले लीवर के रोग और गैस्ट्रोइसोफेगल रिफ्लक्स जैसे आंतों के कई रोगों में मोटापे का भी हाथ है. पाचन संबंधी रोग शरीर में जगह न बना सकें, इसके लिए जरूरी है कि वजन जरूरत से ज्यादा न होने पाए. वजन न बढ़े, इसके लिए रेशे वाले साबुत अनाज, फल, हरी सब्जियां, कम चर्बी वाला गोश्त और उसी तरह के डेयरी उत्पादों के अधिक सेवन के साथ पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थो का सेवन करें.

एक ही बार में बहुत ज्यादा भोजन कर लेने से पाचन नली पर दबाव बढ़ सकता है. इसलिए ज्यादा बेहतर यह होगा कि दिन भर में नियमित अंतराल पर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में भोजन करें.

हाजमे के मामले में अगर आपको लंबे समय तक या फिर गंभीर रूप से कोई समस्या महसूस हो तो बिना और किसी तरह की देर किए अस्पताल पहुंचना चाहिए और कंप्लीट हेल्थ चेकअप कराना चाहिए.

जब लगाना हो परफेक्ट आई लायनर

आपने अक्सर लोगों को ये कहते हुए सुना होगा, ‘आंखें मन का आईना होती है’, इसी आईने की चमक बरकरार रखने के लिए हम क्या कुछ नहीं करते? कभी इसे काजल से तराशते हैं, तो कभी लायनर से उभारते हैं. एक ही नजर में सब कह देने वाली इन आंखों के मेकअप की जब बारी आती है, तो अच्छे-अच्छे फेल हो जाते हैं.

खास तौर पर परेशानी आती है आई लायनर के इस्तेमाल में, जब एक सीधी रेखा खींचने में सभी के पसीने छूट जाते हैं. ऐसे में आपको जरूरत है कुछ ऐसे शौर्ट कट्स की, जो आपका काम बेहद आसान बना सकते हैं. आज हम आपको आई लायनर लगाने के कुछ ऐसे तरीके बताने जा रहे हैं, जिसे पढ़कर आप खुश हो जाएंगी.

वैसे तो मार्केट में कई तरह के लायनर उपलब्ध हैं, जिसमें से कुछ क्रीम बेस्ड, तो कुछ वाटर बेस्ड होते हैं. अक्सर महिलाओं को वाटर बेस्ड लायनर लगाने में समस्या होती है, क्योंकि न तो इसका शेप सही तरह से बनता है और न ही इसे फैलने से बचाया जा सकता है. ऐसे में लायनर लगाने के ये तरीके चंद मिनटों में आपकी समस्या का समाधान कर सकते हैं. आइये जानते हैं किस तरह आप घर में मौजूद मामूली चीजों की मदद से सही शेप के साथ लायनर लगा सकती हैं.

डेंटल फ्लौस स्टिक

डेंटल फ्लौस स्टिक के धागे वाले सिरे को लायनर में डुबोएं. इसके बाद आंखों के कोने से लगाते हुए ऊपर की तरफ खींचे. ऐसा करने से लायनर का एक विंग बन जाएगा. इसी तरह फिर एक बार लायनर में डुबोकर समान सिरे से दूसरा विंग बनाएं. दोनों विंग्स को जोड़ते हुए सीधी रेखा खींचे और खाली जगह को लायनर से भरें.

कार्ड

घर में मौजूद कार्ड के एक हिस्से को विंग का आकर देकर कैंची से काट लें. इसके बाद आंखों के किनारे रखकर लायनर ब्रश से विंग का शेप बनाएं. इस विंग को आगे बढ़ाते हुए सीधी रेखा खींच लें. इस तरह आप एक ही तरह के नहीं, बल्कि कई अलग-अलग शेप के लायनर लगा पाएंगी.

फोर्क/ कांटा चम्मच

आपने नूडल्स और फल खाने के लिए तो फोर्क का इस्तेमाल किया होगा, लेकिन क्या कभी आय लायनर लगाने के लिए इसका इस्तेमाल किया है? जी बिल्कुल, फोर्क की मदद से आप आसानी से लायनर लगा सकते हैं. बस आपको फोर्क को आंखों के किनारे लगाते हुए विंग बनाना है और इसे सीधी रेखा से जोड़ना है. इस तरीके को अपनाने के बाद आप आसानी से परफेक्ट शेप लायनर लगा सकेंगी.

आय लायनर स्ट्रिप्स

आय लायनर स्ट्रिप्स की मदद से भी आप मनचाहा शेप देकर आय लायनर लगा सकती हैं. बस आपको इसमें बने शेप के अनुसार लायनर ब्रश का इस्तेमाल करना है. ये स्ट्रिप्स आपको ऑनलाइन खरीददारी के जरिये आसानी से मिल जाएगी. क्लचर

क्या आपने कभी सोचा है, बालों को बांधने के लिए इस्तेमाल होने वाला क्लचर लायनर लगाने के लिए काम आ सकता है? जी हां, छोटे और पतले हैंडल वाले क्लचर की मदद से भी लायनर लगाया जा सकता है. बस आपको इसके हैंडल के एक कोने को लायनर में डुबोकर आंखों के किनारे विंग बनाना है और फिर इसे सीधी रेखा के जरिये जोड़ देना है.

हेयर पिन

हेयर पिन का इस्तेमाल सिर्फ बालों को सेट करने के लिए नहीं, बल्कि लायनर लगाने के लिए भी किया जा सकता है. बस आपको पिन में बने विंग शेप को लायनर में डुबोकर आंखों के कोनों से लगाना है और बस, तैयार है आपका परफेक्ट शेप लायनर!

इन आसान तरीकों से लायनर लगाना आपके बाएं हाथ का खेल बन जाएगा. चाहे आप कहीं भी जाएं, लोग आपकी आंखों के जादू से अछूते नहीं रह पाएंगे. तो देर किस बात की, जल्द से जल्द ट्राय करें ये तरीके और पाएं परफेक्ट शेप आय लायनर.

यहां से वहां तक छाई है प्रियंका की लाखों की ड्रेस..!

प्रियंका चोपड़ा ने भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भारत का नाम रौशन किया है. उन्होंने सबसे पहले बौलीवुड से हौलीवुड का सफर तय किया, इसके बाद हौलीवुड में अपनी जगह बनाई और अब वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामजिक कल्याण के लिए कार्य भी कर रही हैं. हाल ही में उन्हें यूनिसेफ द्वारा आयोजित ग्लोबल गोल्स अवार्ड्स में बुलाया गया था, जहां उनकी सादगी ने लोगों का दिल जीत लिया. उन्हें इस अवसर पर बतौर स्पीकर आमंत्रित किया गया था. लेकिन इस अवसर पर प्रियंका ने जो गाउन पहना हुआ था, वह तारीफ के काबिल था. इस गाउन के लिए उन्हें अब दुनिया भर से तारीफें मिल रही हैं. इतना ही नहीं, इस गाउन की कीमत को लेकर भी लोगों के बीच बवाल खड़ा हो गया है. इसकी कीमत है ही इतनी, जिसे जानने के बाद हर कोई हैरान रह गया है.

 

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प्रियंका का ये गाउन डिजाइनर क्रिस्टियन सिरियनो के कलेक्शन से है, जिसकी कीमत 4500 डालर यानी लगभग 2,89,780 रुपये है. अब आप ही सोचिये, जब प्रियंका इतना महंगा गाउन पहनेंगी, तो लोगों को झटका तो लगेगा ही. इस कार्यक्रम के बाद उनकी तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हो गईं. बता दें कि प्रियंका ने इस समारोह की कुछ तस्वीरें अपने इन्स्टाग्राम अकाउंट पर भी शेयर की थीं.

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