मोबाइल क्रांति का दुरुपयोग

देश की मोबाइल क्रांति का असर घरघर पहुंच चुका है और परिवार के सदस्य अब आपस में बैठ कर बातें नहीं करते, अपनेअपने मोबाइल पर अल्फाबेट दबाते रहते हैं या फालतू के वीडियो देखते रहते हैं. अनजानों से बढ़ता प्रेम और अपनों से बढ़ती दूरी का कारण

यह है कि मोबाइलों पर हर सैकंड कुछ न कुछ नया आता रहता है और यदि वह सैकंड छूट जाए तो आई बात हो सकता है या तो गायब हो जाए या फिर स्क्रीन से कहीं दूर चली जाए.

इस दौरान घर की समस्याएं पराई हो रही हैं और फालतू के इमोशनल स्लोगन अपने होते जा रहे हैं. जो लोग अपनी बात 4 जनों में कहते कतराते हैं कि शायद गलत न हो या कोई बुरा न मान जाए, मोबाइल पर बेधड़क हो कह डालते हैं. यह बात दूसरी है कि दूसरी तरफ वाले को अप्रिय बात उतनी ही गलत लगती है और बहुत से संबंध फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम के कारण बिगड़ रहे हैं.

आज मोबाइल क्रांति का भरपूर दुरुपयोग हो रहा है और गूगल, फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम लोगों की बेवकूफी से अरबों डौलर बना रहे हैं जैसे पहले सड़क पर यदाकदा आने वाले मदारी बनाया करते थे. अब यह बेवकूफी रातदिन चलती है और हर जगह चलती रहती है.  मोबाइल पर अपना कच्चा चिट्ठा खोल देना या दूसरे को पछाड़ देना अब आसान हो गया है, पर यह पारिवारिक संबंधों को तारतार कर रहा है. मोबाइल संपर्क साधने का सुगमसरल साधन जरूर है पर इस को संबंध बनानेबिगाड़ने की ताकत दे कर पूरी दुनिया ने अपना व्यक्तित्व ही खो डाला है.

जो आशा थी कि मोबाइल क्रांति के बाद तेजी से आर्थिक उन्नति होगी और भूख, धन, सुरक्षा, भय के इशू का हल आसानी से हो जाएगा, अब वह धूमिल हो गईर् है और इस में हर घर, हर गृहिणी, हर बच्चे का भी हाथ है.  आतंकवादियों से ले कर शासकों तक की धौंसपट्टी के लिए मोबाइल क्रांति इसीलिए जिम्मेदार है, क्योंकि दोनों जानते हैं कि दुनिया भर के लोगों ने खुद को मोबाइलों की जंजीरों में पहले ही बांध लिया है. उन्हें तो अब जंजीर का दूसरा हिस्सा पकड़ाना है.  बंधे लोग कभी सुखी, सहज और हंसते परिवारों का निर्माण नहीं कर सकते. पिछली सदी में पुस्तकों के माध्यमों से जो नए विचार घरघर पहुंचे थे उन्हें मोबाइल क्रांति ने कुचल दिया है और कुचले लोग धर्म, शासकों और कट्टरपंथियों के इशारों पर नाचने को मजबूर हैं.

समाज इतना बेबस क्यों

47 साल का एक अधेड़ व्यक्ति 4 साल की मासूम बच्ची को चौकलेट दिलाने के बहाने साइकिल पर बैठा कर ले जाए और फिर उस का बलात्कार कर के सुबूत मिटाने के लिए पत्थरों से सिर कुचलकुचल कर उसे मार दे, इस से ज्यादा वहशीपन नहीं हो सकता. पर यौनपिपासा इतनी ज्यादा बेकाबू हो जाती है कि यह खुलेआम होता है और जिन्हें हिंसक, क्रूर, अशिक्षित नहीं कहा जा सकता, उन के द्वारा होता है.  पीडि़त बच्ची उस वहशी के मित्र की बेटी थी, जिसे वह चाचाचाचा कहती होगी. उसी ने यौनपिपासा बुझाने के लिए उस का पहले बलात्कार किया और फिर इस डर से कि वह शिकायत न कर दे, पत्थरों से मारमार कर उस की हत्या कर दी.  इस से भी बड़े दुख की बात तो यह है कि इस पर भी वह खुद को शरीफ समझने की भूल करता रहा और अपनी मृत्युदंड की सजा को माफ कराने के लिए जेल के बरताव, जिस में इंदिरा गांधी ओपन विश्वविद्यालय से परीक्षा में बैठना और ड्राइंग कंपिटिशन में हिस्सा लेना शामिल है का हवाला दिया गया. यानी अपराधी इतने घृणित काम के बाद भी सूली पर चढ़ने से बचने की भरसक कोशिश ही कर रहा था.

लगभग 8 साल बाद उस की आखिरी अपील ठुकराई गई पर उसे मृत्युदंड कब मिलेगा यह तय नहीं है और हो सकता है कि उस में भी 4-5 साल लग जाएं.  जो लोग मांग करते हैं कि बलात्कार के अपराधी को तुरंत सजा दी जाए उन्हें सबक सीखना चाहिए कि कानून का पहिया अगर सही चले तो भी दंड मिलने में कई साल लग जाते हैं. आमतौर पर अपराधी जेल जाने पर समझ जाते हैं कि अदालतों में अपराध साबित करने वाले पुलिस वालों व उन के वकीलों की चूक का अकसर उन्हें लाभ मिल जाता है.

अपराधी सैशन कोर्ट के बाद हाई कोर्ट, सिंगल जज हाई कोर्ट के बाद डिविजन बैंच और हाई कोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट व कई बार सुप्रीम कोर्ट के आदेश की रिव्यू पिटिशन दायर करते रहते हैं और अपराध करने के बावजूद खुद को बेगुनाह सिद्ध करने में लगे रहते हैं. इस मामले में महाराष्ट्र के अपराधी वसंत संपत दुपरे के परिवार के पास इतनी अपीलों के लिए पैसा कहां से आया होगा यह तो नहीं मालूम, क्योंकि अपराध करने के दिन वह साइकिल पर ही मासूम बच्ची को ले गया था पर इतना साफ है कि इस तरह का अमानवीय अपराध करने के बाद भी अपराधी का परिवार उसे बचाने में वर्षों लगा रहा.

न्याय में देरी एक वजह है पर इस से भी ज्यादा बड़ी वजह समाज में अपराधी को रहने की जगह मिल जाना है. चाहे निर्भया कांड जैसा बहुचर्चित मामला हो या निठारी का सीरियल किलिंग का, अपराधी आम पीडि़त की तरह कानूनी सुरक्षा पा जाता है. कई बार यदि पीडि़ता जिंदा रह जाए, तो उस का डराधमका कर या पैसा दे कर मुंह बंद कर दिया जाता है, क्योंकि अदालतों में लगने वाले समय का दुरुपयोग गवाहों का मुंह बंद करने और पीडि़ता से ‘फैसला’ करने में करा जाता है.

बलात्कार, खासतौर पर मासूमों से, किसी तरह माफ करने लायक नहीं. यह तो शायद पाश्विक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पशुओं में भी ऐसा नहीं होता पर समाज की बेबसी का हाल यह है कि कागजों के पन्नों पर चाहे जितना चिल्ला लो, अंतत: जीत तरकीब वालों की ही होती है. वसंत संपत दुपरे के मामले में मृत्युदंड तो मिला, जेल मिली पर आखिरी सजा से पहले 8-10 साल तो मिल ही गए. बहुत सी गंभीर बीमारियां भी इतना समय नहीं देतीं.

..तो इस फिल्म के रिलीज से ही देश में हो जाते लाखों तलाक

देशभर में इन दिनों ट्रिपल तलाक का मुद्दा बेहद गर्म है. वहीं तीन तलाक के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुना दिया है. कोर्ट ने तीन तलाक को अवैध घोषित कर दिया है.

बौलीवुड में लगभग हर सामाजिक मुद्दे पर फिल्म बनाई गई है और जाएगी. सच ही कहा गया है फिल्में समाज का आईना है. ऐसे में बौलीवुड ट्रिपल तलाक के मामले से कैसे दूर रह सकता था. आज से 35 साल पहले बौलीवुड में इसी मुद्दे पर फिल्म बनाई गई थी. फिल्म का नाम था ‘निकाह’ जिसमें मुस्लिम महिलाओं से जुड़े हर तथ्य को बखूबी दिखाने का प्रयास किया गया.

निर्माता-निर्देशक बीआर चोपड़ा (बलदेव राज चोपड़ा) की 35 साल पहले रिलीज हुई फिल्म ‘निकाह-ए-हलाला’ के गानें और डायलाग्स आज भी हर शख्स के जहन में जिंदा है.

सामाजिक मुद्दों, कानून के बारीक पहलुओं समेत मुस्लिम समाज से जुड़े विषय को फिल्म ‘निकाह-ए-हलाला’ के जरिये रुपहले पर्दे पर उतारने के लिए बी आर चोपड़ा की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. उनके सिवा इंडस्ट्री में शायद ही कोई इसे दिखाने की हिम्मत जुटा पाता.

आप ये बात जानकर शायद चौंक जाएंगे कि फिल्म का नाम पहले ‘तलाक तलाक तलाक’ रखा गया था, लेकिन मुस्लिम महिलाओं का तलाक न हो जाए, इस डर से बीआर चोपड़ा ने इस फिल्म का नाम बदलकर ‘निकाह-ए-हलाला’ कर दिया.

क्यों बदला गया फिल्म का नाम

जब एक दिन बीआर चोपड़ा के एक दोस्त ने उनसे सवाल पूछा कि अगर कोई मुस्लिम शौहर आपकी फिल्म देखकर घर जाए और उसकी पत्नी उससे सवाल पूछे कि आप कौनसी फिल्म देखकर आए तो वो क्या जवाब देगा. अपने दोस्ता का ये सवाल सुनकर बीआर चोपड़ा चौंक गए. वो समझ नहीं पा रहे थे कि ये कैसा सवाल है.

बी आर चोपड़ा के दोस्त ने आगे कहा, वो शौहर अपनी पत्नी से कहेगा ‘तलाक तलाक तलाक’ और धार्मिक कानूनों के मुताबिक उनका तलाक हो जाएगा. दोस्त की ये बात सुनकर बी आर चोपड़ा घबरा गए. क्योंकि इस वजह से कंट्रोवर्सी हो सकती थी. इसके बाद उन्होंने फिल्म का नाम बदलने का फैसला किया और काफी रिसर्च के बाद फिल्म का नाम ‘निकाह’ फाइनल किया.

बीआर चोपड़ा की​ फिल्म की सबसे बड़ी खासियत फिल्म के झकझोर कर रख देने वाले डायलाग्स, सांग्स और पाकिस्तानी एक्ट्रेस सलमा आगा थीं. इसमें म्यूजिक से लेकर कास्ट्यूम हर चीज पर विशेष ध्यान दिया गया था.

इन झीलों की दीवानी है पूरी दुनिया

कुछ झीलें अपनी खूबसूरती के कारण पूरी दुनिया में मशहूर हैं, प्रकृति ने इन्हें बहुत ही अनोखा बनाया है, जिसके कारण ये अपना सौंदर्य चारों ओर बिखेर रही हैं. इन्हें देखने के लिए दूर-दूर से पर्यटक  हर साल इन जगहो पे आते हैं, आइए आपको बताते हैं इन खास और खूबसूरत झीलों के बारे में.

लेक औफ ओजार्क

अमेरिका की तीन बड़ी झीलों में लेक औफ द ओजार्क को शामिल किया गया है, यह झील देखने में जितनी सुंदर है, ये उतनी ही खतरनाक भी है, यहां उठती लहरों के कारण कोई भी इस झील में बोट चलाने की हिम्मत नहीं करता है.लेकिन फिर भी लोग यहा हर साल छुट्टिया बिताने और मौज मस्ती करने के लिए आते हैं.

फाइव फ्लौवर लेक    

दक्षिणी पश्चिमी चीन के जिउझाएगोऊ घाटी में स्थित फाइव फ्लौवर लेक दुनिया की खूबसूरत झीलों में से एक है. इस झील में गहरे हरे, नीले, हल्के पीले आदि कई रंगों की सतहे हैं, कई रंगों की छटा बिखरेने की वजह से ही इस झील को फाइव फ्लौवर झील का नाम दिया गया है.

ब्लेड झील

स्लोवेनिया में स्थित यह झील हरे जंगलों से घिरी हुई है और इसके बीचों-बीच एक चर्च भी है. यहां वर्ल्ड रोविंग चैंपियनशिप का आयोजन किया जाता है, जिसकी वजह से ये झील पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहती है.

 

आईआईटी : दांव पर साख

यह धारणा अब टूट जानी चाहिए कि नौकरियों के लिहाज से देश के आईआईटी संस्थान पढ़ाई की सर्वश्रेष्ठ जगहें हैं. वजह यह है कि इस वर्ष यहां चले कैंपस हायरिंग के लंबे दौर के बाद इन के जरिए मिलने वाली नौकरियों की संख्या और पैकेज, दोनों में भारी गिरावट दर्ज की गई है. इस दफा 1 करोड़ रुपए से ऊपर के वेतन की नौकरियों के औफर्स पाने वाले छात्रों की संख्या 2014 के मुकाबले 50 फीसदी घट गई है.  बीते वर्षों में महज अमेरिकी कंपनियों के लिए प्रोफैशनल्स तैयार करने वाली फैक्टरियों में तबदील हो चुके आईआईटी संस्थानों के छात्रों के औसत पैकेज में आई कमी से खतरा पैदा हो गया है कि इन की बची प्रतिष्ठा भी धूमिल न हो जाए. सचाई यह है कि इस साल मद्रास, रुड़की, बीएचयू, गुवाहाटी और खड़गपुर आईआईटी में जौब औफर के तहत दी जाने वाली सैलरी में 30-40 फीसदी गिरावट आई. यही नहीं, ऐसे औफर्स पाने वाले छात्रों की संख्या भी घटी है.

इस सत्र में आईआईटी में कैंपस सेलैक्शन शुरू होने से पहले ही गूगल, माइक्रोसौफ्ट, ओरेकल आदि कंपनियों के प्रतिनिधि कह रहे थे कि कैंपस हायरिंग के जरिए बेहतरीन टैलेंट को चुनते हुए वे युवाओं को सवा करोड़ रुपए तक के पैकेज वाली नौकरियां औफर करेंगे. पर एकाध मामलों को छोड़ कर औसत रूप से ऐसा हो न सका. पिछले साल ज्यादातर स्टार्टअप कंपनियों के मंदे हुए बिजनैस और औफर लैटर से मुकरने की घटनाओं के कारण आईआईटी संस्थानों में पहले से ही बेचैनी थी, पर इस साल तो नजारे और भी बुझे हुए रहे.  सवाल है कि अगर नौकरियों के मामले में भी आईआईटी बेनूरी के शिकार हो जाएंगे, तो उन के होने का क्या औचित्य बचेगा? जिन चमकदार नौकरियों के बल पर ये आईआईटी खुद की योग्यता दर्शाने में पिछले कुछ समय से संलग्न थे और जिसे देख कर देश के मध्यवर्ग का एक बड़ा तबका अपने बच्चों को आईआईटी में पहुंचाने के ख्वाब पाले रहता है, अब वह सपना टूटता लग रहा है.

जौब औफर में आई गिरावट के बारे में आईआईटी के प्लेसमैंट विशेषज्ञों का मत है कि इस बार कंपनियों ने ग्लोबल अर्थव्यवस्था में गिरावट को अहम  कारण बताया है. इस कारण अंतर्राष्ट्रीय नौकरियों के प्रस्ताव भी घटे हैं. एक वजह विदेशी कंपनियों द्वारा स्टौक औप्शंस में कमी करना भी बताया गया है और गूगल जैसी कुछ कंपनियां कैंपस हायरिंग के बजाय औफ कैंपस मोड से हायरिंग कर रही हैं. यानी अन्य स्रोतों से नौकरियों के लिए योग्य उम्मीदवार तलाश रही हैं.

उतर गई कलई

गौरतलब है कि हाल के दशक में तकरीबन हर साल आईआईटी में हुए कैंपस सेलैक्शन में चयनित छात्रों को औफर किए जाने वाले सालाना पैकेज के नएनए रिकौर्ड की सूचनाएं आती रही  थीं. गौरतलब यह भी है कि इन कंपनियों  के अलावा खुद आईआईटी संस्थान भी मीडिया में ऐसी खबरों को प्रचारित करवाते हैं कि उन के यहां कैंपस सेलैक्शन में युवाओं का बेहतरीन पैकेज पर चयन  हुआ है. मीडिया भी निजी कंपनियों व आईआईटी द्वारा जारी सूचनाओं के प्रवाह में बह जाता है.  शायद ही ऐसा कभी हुआ हो जब ये सूचनाएं आई हों कि कैंपस सेलैक्शन में कितने दर्जन युवा ऐसे रहे, जिन्हें ज्यादा से ज्यादा एक क्लर्क की नौकरी के लायक समझा गया, या उन्हें इतना वेतन औफर किया गया जो उन की सालाना फीस से भी कम था. इन्हीं कारणों से आम लोग यह सोच कर हैरान होते थे कि लाखोंकरोड़ों के पैकेज वाली ये नौकरियां ऐसे देश में कुछ युवाओं को कैसे मिल रही हैं, जहां बेरोजगारी आसमान छू रही है. लेकिन अब यह कलई उतर गई है.

इधर नोटबंदी के बाद से बंद हुए कारखानों और निर्माण क्षेत्र के चौपट हुए कामकाज के बाद हजारोंलाखों युवा जहां यह सोच कर परेशान हैं कि उन के परिवार की दो वक्त की रोटी का जुगाड़ अब कैसे हो, वहां अब देसीविदेशी कंपनियों ने आईआईटी के छात्रों को ले कर जो रुख दर्शाया है, उस से इन संस्थानों के भविष्य का खतरा भी पैदा हो गया है.

वैसे तो आज के छात्र आंख मूंद  कर सिर्फ आईआईटी के नाम पर किसी संस्थान में नहीं घुस जाना चाहते हैं, पर अभिभावकों में अभी भी यह चाव बचा है कि वे अपने बच्चों को आईआईटी में दाखिला दिलाना चाहते हैं और इस के लिए महंगी कोचिंग दिलाने में परहेज नहीं करते. कई कोचिंग संस्थान उन की इस इच्छा का बुरी तरह आर्थिक दोहन भी करते हैं. पर जहां तक छात्रों का मामला है, वे पहले अपने कैरियर की संभावनाओं को देखते हैं. इसी वजह से कई आईआईटी में उन की दिलचस्पी खत्म होने को है, जैसे माइनिंग के सिकुड़ते फील्ड की वजह से आईआईटी, धनबाद की अब पहले जैसी प्रतिष्ठा नहीं रही. दूसरे, सरकार जनता को संतुष्ट करने के लिए देश की कई जगहों पर आईआईटी खोलती रही है.  सरकार यह मान कर संतुष्ट है कि किसी संस्थान पर आईआईटी का ठप्पा लगाने भर से छात्र उन पर टूट पड़ेंगे. लेकिन उन में न तो ढंग की फैकल्टी है और न ही पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर. हो सकता है कि सरकार उन्हें इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया करा दे, लेकिन आईआईटी से निकले छात्रों को नौकरी कौन देगा? वही अमेरिकी कंपनियां, जो अब आईआईटी में कैंपस हायरिंग करने के बजाय औफ कैंपस मोड (यानी दूसरे तरीकों से) में जा कर अपने लायक युवाओं को चुन रही हैं.

करोड़ों के पैकेज, लाखों की कुंठा

असल में देश के ज्यादातर आईआईटी अब कई विरोधाभासों के प्रतीक बन गए हैं. वे अपने मूल मकसद से कब के भटक चुके हैं, लेकिन इस की किसी को चिंता नहीं है. देश का मध्यवर्ग इसे मालदार नौकरियों की फैक्टरी समझता रहा है और अपने बच्चों को आईआईटी में सिर्फ इसलिए भेजना चाहता है कि वे वहां जा कर कैंपस सेलैक्शन में कुछ करोड़ की नौकरी पा जाएं.  खुद सरकार भी देश के एक बड़े वर्ग को संतुष्ट करने के लिए आईआईटी में आमूलचूल बदलाव लाने से हिचकती है. लेकिन देखना होगा कि विदेशी कंपनियों के लिए सिर्फ सस्ते प्रोफैशनल तैयार करने के चक्कर में हमारे आईआईटी कहीं अपनी वह चमक भी न खो दें, जिन के लिए वे जाने जाते हैं, और जिन से दुनिया में भारत को एक नौलेज पावर के रूप में थोड़ीबहुत प्रतिष्ठा मिली हुई है. यही नहीं, आईआईटी की कैंपस हायरिंग से करोड़ों का पैकेज पाने की खबरें महीने में चंद हजार बमुश्किल कमा पाने वाले युवाओं पर क्या असर डालती होंगी, यह भी देखना होगा. ऐसे समाचार पढ़सुन कर देश के लाखों युवा कुंठित न हो जाएं, इस के प्रबंध भी करने होंगे. उन्हें बताना होगा कि आईआईटी की कैंप स हायरिंग का मतलब वहां पढ़ने वाले हरेक युवा का करोड़पति हो जाना नहीं है, बल्कि इसी कैंपस सेलैक्शन में सैकड़ों ऐसे भी होते हैं जो मामूली वेतन पर चुने जाते हैं और अगर किसी मंदी की चपेट में आ जाएं, तो सब से पहले उन्हीं की नौकरी पर आंच आती है.

जबकि आईआईटी का मकसद सिर्फ यह तो नहीं होना चाहिए कि वहां से निकले युवा अपनी प्रतिभा के बजाय लाखोंकरोड़ों के सालाना वेतन की वजह से जाने जाएं? यह विडंबना ही है कि आईआईटी से निकलने वाले ज्यादातर युवा अमेरिकी सौफ्टवेयर कंपनियों की करोड़ की नौकरी के लिए हर जतन करते रहे हैं. अफसोस यह भी है कि आईआईटी जैसा हाल देश की सब से प्रतिष्ठित सेवा आईएएस का हो गया है. यह सेवा देश को काफी सारे नौकरशाह तो दे रही है पर ये ऐसे नौकरशाह हैं, जिन का देश के तकनीकी विकास में रत्तीभर योगदान नहीं होता.  आईआईटी-आईएएस को ले कर जगे मोह का नतीजा है कि देश में इंजीनियरिंग  के कई क्षेत्रों में पढ़ाई का सिलसिला ठप होने को है. देश को मकान, सड़कें, फलाईओवर्स और बंदरगाहों की जरूरत है, लेकिन आईआईटी में सिविल इंजीनियरिंग की ज्यादातर सीटें खाली रह जाती हैं. भारत जैसे देश में, जहां उस के प्रतिभावान व उच्च शिक्षित नौजवानों के अपने देश के गरीब व वंचित तबकों के लिए काम करने की जरूरत है, वहां आईआईटी जैसे शिक्षण संस्थानों का ऐसा रवैया किसी भी किस्म के आदर्शवाद को खत्म करने के लिए काफी है.  जौब औफर्स में घटती सैलरी को एक सबक मानते हुए आईआईटी संस्थानों को नए सिरे से अपनी उपयोगिता साबित करनी होगी और बताना होगा कि वे हकीकत में छात्रों को काबिल बनाने वाले संस्थान हैं, सस्ते प्रोफैशनल्स सप्लाई करने वाले संस्थान नहीं.     

आईआईटी में लड़कियां कम क्यों?

देश में आईआईटी की घटती चमक का एक कारण इन संस्थानों में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व होना भी रहा है. पिछले कुछ वर्षों का ट्रैंड देखें तो 10 फीसदी से भी कम लड़कियां आईआईटी में ऐडमिशन पा रही हैं.  वर्ष 2016 में मात्र 8 फीसदी लड़कियां कुल सफल विद्यार्थियों में थीं जिन्हें आईआईटी में दाखिला मिला था. इस से पहले 2015 में यह आंकड़ा 9 फीसदी था जबकि वर्ष 2014 में 8.8 फीसदी लड़कियों को सफलता मिली थी.  लड़कियों की आईआईटी में अनुपस्थिति से चिंतित सरकार ने संकेत दिए हैं कि वह लड़कों के मुकाबले लड़कियों का इन संस्थानों में अनुपात दुरुस्त करने के लिए अगले 3 वर्षों में 20 फीसदी सीटें बढ़ाएगी.  इस के लिए जौइंट ऐडमिशन बोर्ड ने एक फैसला लिया है जिस में  3 चरणों में सीटों को 20 फीसदी तक बढ़ाने की बात कही गई है. इस के लिए तैयार रोडमैप के मुताबिक, 2018 में लड़कियों के लिए 14 फीसदी सीटें बढ़ाई जाएंगी, 2019 में 17 फीसदी और 2020 में सीटों की संख्या 20 फीसदी तक बढ़ा दी जाएगी.  अधिकारियों के अनुसार, ये सीटें सिर्फ लड़कियों के लिए ही बढ़ेंगी. 20 फीसदी कोटा तभी लागू होगा जब ऐडमिशन में छात्राओं का अनुपात बहुत कम होगा.  उदाहरण के तौर पर अगर ऐडमिशन टैस्ट के बाद 100 सीटों में सिर्फ  10 लड़कियों को ही ऐडमिशन मिल पाता है तो फिर सिर्फ उन के लिए सीटों में 20 फीसदी की वृद्घि होगी. अगर कोटे सिस्टम से भी कोई नहीं लाभ होता है तो 3 वर्षों के बाद इस सिस्टम की फिर से समीक्षा की जाएगी.

बढ़ रही ड्रौपआउट छात्रों की तादाद

यह तथ्य शायद लोगों को हजम न हो कि जिन संस्थानों में दाखिले को ले कर देश में होड़ मचती है, अब उन्हें बीच में ही छोड़ने का चलन भी बन गया है. पिछले 2 वर्षों में ऐसे तथ्य सामने आए हैं, जिन से पता चलता है  कि देश में आईआईटी और आईआईएम में छात्रों का ड्रौपआउट रेट तेजी से बढ़ रहा है. इन बड़े कालेज, यूनिवर्सिटी में प्रवेश पाने के बाद कई छात्र कोर्स को पूरा नहीं कर पा रहे हैं.  इन संस्थानों से वर्ष 2016 में मिले आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में करीब 2,000 छात्रों  ने संस्थान छोड़ दिए थे. इसी समयावधि में आईआईटी-खड़गपुर में संस्थान छोड़ने वाले छात्रों  की संख्या 544 थी, जबकि आईआईटी बौंबे में 143 छात्रों ने संस्थान छोड़ा था. उस समय आईआईटी बौंबे के डायरैक्टर देवांग खाखर ने मीडिया को संस्थान छोड़ने का कारण भी बताया था. उन के मुताबिक, संस्थान छोड़ने वाले ज्यादातर छात्र पीएचडी करने वाले होते हैं. वे पीएचडी में अपने प्रदर्शन के कारण नहीं, बल्कि इस में लगने वाले लंबे वक्त के कारण अध्ययन बीच में छोड़ देते हैं.  वजह फीस बढ़ोतरी तो नहीं : वर्ष 2016 में आईआईटी की स्थायी समिति ने छात्रों की फीस में 200 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोतरी की सिफारिश की थी. इस सिफारिश को मानने का अर्थ यह था कि फीस 90 हजार रुपए से बढ़ कर 3 लाख रुपए हो जाएगी. आईआईटी प्रबंधन का मानना रहा है कि जहां तक हो सके, आईआईटी को अपना खर्च खुद निकालना चाहिए. फीस  3 लाख रुपए हो जाने पर आईआईटी का लगभग 60 प्रतिशत खर्च फीस से ही निकल आता है. हालांकि इस सिफारिश के साथ ही समिति ने यह भी कहा था कि आईआईटी छात्रों के लिए वजीफे और शिक्षा के लिए कर्ज की इतनी व्यवस्था होगी कि आर्थिक वजह से किसी गरीब छात्र को आईआईटी की पढ़ाई से वंचित नहीं रहना पड़ेगा.

फीस बढ़ोतरी के पीछे तर्क यह दिया गया था कि आईआईटी छात्रों का एक बड़ा प्रतिशत विदेश में जा कर बस जाता है, हालांकि यह संख्या लगातार घट रही है. आज से करीब 3 दशक पहले 70 प्रतिशत तक आईआईटी छात्र विदेश चले जाते थे, लेकिन अब यह  30 प्रतिशत तक आ गया है.  चूंकि आईआईटी छात्रों को बैंकों से पढ़ाई के लिए आसानी से कर्ज मिल जाता है, ऐसे में यह विचार एक माने में सही लगता है कि उच्चशिक्षा का खास कर जिस में अच्छे कैरियर और आमदनी की गारंटी हो, खर्च सरकार क्यों उठाए? सरकार अपने साधन बुनियादी स्तर की शिक्षा के ढांचे को मजबूत बनाने में लगाए लेकिन इस से जुड़ा एक सवाल और है. अगर छात्र शिक्षा के लिए इतना खर्च करेगा या कर्ज लेगा, तो उस की यह मजबूरी होगी कि वह ऊंची कमाई वाले रोजगार को ही चुने. भारत जैसे देश में, जहां उस  के प्रतिभावान व उच्चशिक्षित नौजवानों के अपने देश के गरीब व वंचित तबकों के लिए काम करने की जरूरत है, वहां शिक्षा का ऐसा व्यवसायीकरण किसी भी किस्म के आदर्शवाद को खत्म कर देगा.

मसलन, जिस छात्र ने डाक्टर बनने के लिए 50 लाख या एक करोड़ रुपए खर्च किए, उस से  यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह कम खर्च में गरीबों का इलाज करेगा?  स्थायी समिति की सिफारिशों के आधार पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में बीटेक कोर्स की फीस 90 हजार रुपए प्रतिवर्ष से बढ़ा कर 2 लाख रुपए कर दी. बढ़ी हुई फीस जुलाई से आरंभ होने वाले सत्र से लागू होगी. लेकिन गरीब विद्यार्थियों को शुल्क से छूट दी गई है. देश में करीब डेढ़ दर्जन आईआईटी संस्थान हैं जिन में 10 हजार छात्र बीटेक कोर्स में हर साल ऐडमिशन लेते हैं. फीस में यह बढ़ोतरी  100 फीसदी से भी ज्यादा है. मोटेतौर पर यह फीस छात्रों पर आने वाली लागत को ध्यान में रख कर तैयार की गई है. प्रतिछात्र ढाई लाख रुपए लागत पढ़ाई का खर्च आईआईटी को बैठता है.

व्हाट्सऐप : लत है गलत

जब से व्हाट्सऐप नामक तकनीकी भूचाल ने हमारी जिंदगी में प्रवेश किया है, तब से हमारी जिंदगी का स्वरूप ही बदल गया है. पुरुष हो या महिला, बुजुर्ग हों या बच्चे, सभी के हाथ में स्मार्टफोन हैं. सभी व्यस्त हैं अपनेआप में व्हाट्सऐप के माध्यम से. जहां एक तरफ व्हाट्सऐप ने हमारे लिए जीवन में अत्यंत सुगमता और खुशियां भर दी हैं वहीं उस की ही वजह से जिंदगी में अनेक तरह के तनाव भी उत्पन्न हो रहे हैं.  ये तनाव एक साइलैंट किलर की तरह हमारे स्वास्थ्य को खा रहे हैं जिस का एहसास हमें होता तो है पर अपने इस तनाव की चर्चा हम किसी से कर नहीं सकते. चर्चा करने पर हंसी के पात्र बनने की संभावना होती है, क्योंकि व्हाट्सऐप से उपजा तनाव होता ही है कुछ अलग तरह का.

व्हाट्सऐप से उत्पन्न होने वाले तनाव देखनेसुनने में तो बहुत मामूली लगते हैं पर जिन लोगों ने व्हाट्सऐप को अपनी दिनचर्या का अहम हिस्सा बना रखा है, निश्चितरूप से ये छोटीछोटी बातें उन के दिलोदिमाग पर दिनरात हावी हो कर न केवल उन की दिनचर्या को प्रभावित करती हैं, बल्कि उन के मानसिक स्वास्थ्य और दैनिक व्यवहार को भी प्रभावित करती हैं.

जवाब का इंतजार

जब भी लोग व्हाट्सऐप पर कोई मैसेज भेजते हैं तो भेजने के तुरंत बाद से ही दिमाग यह जानने को उत्सुक हो उठता है कि मैसेज डिलीवर हुआ या नहीं और उस के तुरंत बाद से मैसेज के जवाब या उस पर आने वाले कमैंट्स के इंतजार में दिमाग उलझ जाता है. हर मिनट 2 मिनट पर व्हाट्सऐप औन कर के जवाब चैक किया जाता है.  अगर भेजे गए मैसेज का जवाब आशा के अनुरूप तुरंत आ गया तब तो ठीक है, किंतु यदि जवाब आने में देर हुई या किसी वजह से 1-2 दिनों तक नहीं आया तब तो तनाव का माप अत्यंत बढ़ जाता है. जैसा कि इंसान का स्वभाव होता है उस के दिमाग में गलत और खराब खयाल ही जल्दी आते हैं और वह बजाय यह सोचने के कि हो सकता है मैसेज पढ़ने वाला किसी वजह से अत्यंत व्यस्त या परेशान हो जिस की वजह से मैसेज का जवाब नहीं दे पाया, वह यह सोचने लगता है कि कहीं वह नाराज तो नहीं है, कहीं वह जानबूझ कर उपेक्षा तो नहीं कर रहा है या कहीं ऐसा तो नहीं कि मैसेज का जवाब न दे कर वह नीचा दिखाना चाहता है.

यानी मैसेज डिलीवर हुआ या नहीं, पढ़ा गया या नहीं और उस के बाद मैसेज का जवाब आया या नहीं और जवाब आया तो वह अनुकूल आया या प्रतिकूल, यह जिंदगी में व्हाट्सऐप के माध्यम से उत्पन्न हुआ ऐसा तनाव है जो हर पल, हर क्षण हमारे व्यवहार व हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है.

ग्रुप, चैटिंग व मनमुटाव

व्हाट्सऐप पर ग्रुप बनाना और ग्रुप चैटिंग करना समय व्यतीत करने और एक समय में ही बहुत सारे लोगों के साथ जुड़ने का बहुत ही रोचक व पसंदीदा माध्यम है. पारिवारिक सदस्यों का ग्रुप, मित्रों का ग्रुप, कार्यालय ग्रुप, पड़ोसियों का ग्रुप, बच्चों के स्कूल का ग्रुप, भाईबहनों का ग्रुप, ऐसे कम से कम  5-7 ग्रुप लगभग हर व्हाट्सऐप यूजर्स के होते हैं.  ग्रुप चैटिंग की सब से खास बात यह होती है कि जब यह चैटिंग शुरू हो जाती है तब उस का रुकना और उस में शामिल न होना दोनों ही अपने वश में नहीं रह जाता और एकएक कर के अनेक लोग जब चैटिंग में शामिल होते जाते हैं तो एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है.  ग्रुप चैटिंग का समापन यदि अच्छी और खुशनुमा बातों के साथ हो जाता है तब तो वह दिनभर हमारे मुसकराने और दिन को खुशनुमा बनाने के लिए पर्याप्त होता है किंतु यदि चैटिंग में किसी बात पर बहस या वादविवाद शुरू हो जाए तो वह फिर न केवल दिन खराब करने के लिए काफी हो जाता है, बल्कि बैठेबैठे ही रिश्तों में दरार भी डाल जाता है.

अगर हम आमनेसामने होते हैं तो बात बुरी लगने पर हमें चेहरे के हावभाव से पता भी लग जाता है और हमें बात को संभालने का मौका मिल जाता है पर व्हाट्सऐप पर लिखी हुई बात तीर से निकले कमान की तरह हो जाती है जिसे रोक पाने का कोई माध्यम नहीं होता. बात चूंकि कई लोगों के बीच हुई होती है, इसलिए वह सरलता से शांत भी नहीं होती. और कई बार तो ऐसा होता है कि उस बहस पर व्यक्तिगत चैटिंग द्वारा एक नई बहस शुरू हो जाती है.  कई बार तो ऐसा भी होता है कि ग्रुप में विवाद या बहस होने के बाद उस ग्रुप के 4-6 सदस्यों का अलग एक ग्रुप बन जाता है जहां वे खुल कर अपने विरोधी पक्ष के बारे में अपनी भड़ास निकालने लगते हैं. यानी व्हाट्सऐप एक ऐसा कीड़ा है जो दूरदूर से ही लोगों के मन में द्वेष उत्पन्न कर दरार व मनमुटाव का जहर फैला देता है.

कमतरी का एहसास

यों तो सभी अपनेअपने जीवन में सुखी, संपन्न और खुश है किंतु जिस तरह किसी बड़ी लाइन के बगल में उस से बड़ी लाइन खींच दी जाती है तो वह बड़ी लाइन छोटी लगने लग जाती है, ठीक उसी तरह शांत और सुखी जीवन में असंतोष तब व्याप्त हो जाता है जब आसपास बड़ी कोई लकीर दिख जाती है और इस तरह का असंतोष फैलाने में व्हाट्सऐप अपनी भूमिका बखूबी निभा रहा है.  किसी ने शिमला की वादियों में घूमते हुए अपनी फोटो खींच कर व्हाट्सऐप पर डाल दी तो खुशीखुशी घरगृहस्थी में रमी गृहिणी के मन में असंतोष का बीज पनप उठा, ‘मेरी जिंदगी में तो चूल्हाचौका के अलावा कुछ और लिखा ही नहीं है.’

किसी ने अपने बेटे के 93 प्रतिशत अंक पाने की खुशी सुनाई तो अपने बेटे के 85 प्रतिशत अंक पर पानी फिर जाता है. किसी ने रैस्टोरैंट में खाना खाते हुए अपनी फोटो शेयर कर दी तो घर में  पूरे परिवार के साथ हंसतेखिलखिलाते माहौल में खाना खाते सदस्यों के मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है.  इसी तरह ग्रुप चैटिंग में किस ने हमारे पोस्ट पर कमैंट किया, किस ने नहीं किया, कौन किस के पोस्ट पर ज्यादा कमैंट्स दे रहा है और कौन नहीं, जैसी बचकानी बातें भी कुछ व्हाट्सऐप यूजर्स को तनाव दे रही हैं और रिश्तों में मनमुटाव उत्पन्न कर रही हैं.

समय की बरबादी

सच तो यह है कि जहां एक तरफ व्हाट्सऐप का आवश्यकता से अधिक उपयोग करना हमारे समय और मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकारक है वहीं दूसरी तरफ व्हाट्सऐप ने हमारे जीवन को इतना सरल, रोचक और साधनसंपन्न बना दिया है कि अब उस के बिना जीवन की कल्पना रसहीन लगती है. व्हाट्सऐप के माध्यम से अपनों के बीच एकएक पल की खुशियां, एकएक पल की जानकारी शेयर कर के जो खुशी मिलती है उस का कोई जवाब नहीं है.  पलभर में हजारों किलोमीटर दूर बैठे अपनों की तसवीर देख पाना, समयाभाव वश किसी कार्यक्रम में न पहुंच पाने के बावजूद हर एक पल की जानकारी फोटो समेत तुरंत पा जाना, लिखित दस्तावेज एक सैकंड में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा देना जैसी सुविधाएं व्हाट्सऐप के माध्यम से ही संभव हैं.

समझदारी से सदुपयोग करें

आवश्यकता इस बात की है कि  हम व्हाट्सऐप के इस्तेमाल को अपनी आदत न बनाएं बल्कि उस का सदुपयोग समझदारीपूर्वक करें.

  1. व्हाट्सऐप पर मनोरंजन के नाम पर जितना ही अधिक समय गुजारेंगे वह उतना ही अधिक हानिकारक होगा किंतु सोचसमझ कर और आवश्यकतानुसार उस का उपयोग करना हमारे लिए बेहद फलदायी हो सकता है.
  2. आवश्यकता इस बात की भी है कि यदि व्हाट्सऐप को पूरी तरह अपने जीवन में रचाबसा लिया है और हर 5 मिनट पर उसे चैक किए बिना रहा नहीं जाता तो कुछ बातों को ध्यान में रख कर अपने तनाव पर नियंत्रण करें.
  3. कोशिश इस बात की करनी चाहिए कि यदि आवश्यकता से अधिक व्हाट्सऐप यूज करने की आदत पड़ गई हो तो सब से पहले, धीरेधीरे कर के ही सही, व्हाट्सऐप में अपनी तल्लीनता में कमी लाएं.
  4. मैसेज भेजने के बाद वह पढ़ा गया या नहीं, और उस का जवाब आया कि नहीं, उस पर किसी ने कमैंट किया या नहीं, यह देखने के लिए और जवाब के इंतजार में बारबार व्हाट्सऐप चैक न करें.
  5. यदि अपेक्षित समय में जवाब नहीं आता है तो मन में नकारात्मक विचार न उत्पन्न होने दें, क्योंकि हो सकता है कि जब मैसेज डिलीवर हुआ हो और पढ़ा गया हो, उस समय प्राप्तकर्ता इस परिस्थिति में न हो कि वह तुरंत मैसेज का रिप्लाई कर सके क्योंकि मैसेज पढ़ा तो कभी भी, कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में  जा सकता है किंतु रिप्लाई करने के लिए मनोस्थिति का शांत और परिस्थिति का अनुकूल होना जरूरी है.
  6. अगर कोई अस्पताल में अपने या अपने प्रियजन के इलाज के लिए गया हुआ है या किसी इंटरव्यू के लिए औफिस के बाहर बैठा हुआ है तो ऐसी दशा में अपना समय व्यतीत करने या दिमाग से तनाव को झटकने के लिए व्हाट्सऐप के मैसेजेज पढ़े तो जाते हैं किंतु जवाब एक का भी नहीं लिखा जाता क्योंकि उस समय उस की मनोस्थिति अस्थिर होती है.
  7. ट्रेन, बस, आटो, कार से कहीं भी सफर करतेकरते भी मैसेज पढ़ना तो आम बात है पर जवाब उस समय  भी नहीं लिखा जा सकता. और अकसर ऐसा भी हो जाता है कि मैसेज पढ़ कर के तुरंत अगर उस का जवाब नहीं दे दिया गया हो, तो बाद में वह दिमाग से उतर भी जाता है.
  8. व्हाट्सऐप का प्रयोग अगर अपने व्यवसाय, आवश्यक सूचनाओं के आदानप्रदान, अध्ययन, तथा आवश्यक दस्तावेजों के आदानप्रदान के लिए करें तो यह हमारे जीवन को सुगम व सरल बनाता प्रतीत होता है और अत्यंत सुविधाजनक होता है किंतु जब इस का प्रयोग मनोरंजन और टाइमपास  के लिए किया जाता है तो जरा सी असावधानी से कई बार यह तनाव का कारण बन जाता है.

आवश्यक है कि व्हाट्सऐप का प्रयोग तो करें पर उसे अपने जीवन के लिए जहर न बनाएं. जन्मदिन, शादी की वर्षगांठ, दुखबीमारी आदि अवसरों पर व्हाट्सऐप के बजाय मिल कर या फोन कर के रिश्तों को मजबूत व सुखद बनाने का प्रयत्न करें. बोलने की क्षमता का हृस  व्हाट्सऐप से यूजर्स को एक अहम नुकसान यह भी हो रहा है कि उन का बातचीत करने का कौशल घट रहा है. फोन की सुविधा ने मिलनेजुलने की परंपरा कम कर दी थी. इंसान मिलने के बजाय फोन के माध्यम से ही लेनेदेने का कार्य करने लगा था. उस में गनीमत इतनी थी कि इंसान आवाज के माध्यम से एकदूसरे से जुड़ता था पर अब व्हाट्सऐप द्वारा तो मूकबधिरों की तरह सूचनाओं और हालचाल का आदानप्रदान होने लगा है. ऐसा लगता है कि अभी तो सुबहसुबह पार्क में लोग इकट्ठे होते हैं हंसने के लिए, कुछ सालों बाद बोलने के लिए भी इकट्ठे होने लगेंगे.

मेरी मां मेरी ताकत है और हर्ष कमजोरी : भारती सिंह

कामेडी की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी स्टैंडअप कामेडियन भारती सिंह ने काफी संघर्ष के बाद इस मुकाम को हासिल की है. बचपन में पिता का साया उठ जाने के बाद भारती की मां और उनके मोटापे ने ही उन्हें इस मुकाम तक पहुंचने में मदद की. उनका मानना है कि कामेडियन मंच पर कितना भी सबको हंसाए, पर उसके भी जीवन में समस्याएं आती हैं. मंच पर पहुंचते ही उसे भूलकर सबको हंसाना पड़ता है.

पिस्तौल शूटिंग और तीरंदाजी में माहिर भारती को आर्थिक समस्या के कारण अपनी शौक को बीच में ही छोड़ना पड़ा. ‘द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेन्ज’ में ‘लल्ली’ की भूमिका काफी चर्चित रही. वह इसे अपना टर्निंग प्वाइंट मानती है. स्वभाव से हंसमुख और विनम्र भारती इस समय एंड टीवी पर ‘कामेडी दंगल’ में जज की भूमिका निभा रही हैं. उनसे बात करना रोचक था, पेश है अंश.

किसी शो को चुनते वक्त किस बात का ध्यान रखती हैं? किस बात से डर लगता है?

मैं हमेशा चाहती हूं कि मेरी किसी भी शो में मेरे काम की पुनरावृत्ति न हो. हर शो अलग हो, हर शो में मैं लोगों को हंसाऊं, कभी वे ये न कहें कि ये तो पहले भी मैंने देखा है, यही मेरी चुनौती होती है और इसका ही मुझे डर लगा रहता है.

इतने सारे कामेडी शो में सबसे अलग दिखने के लिए आपकी खुद की कोशिश क्या रहती है?

कामेडी हमेशा अंदर से आती है. मैंने देखा है कि कामेडियन बनने के लिए लोग कोर्स करते हैं, जबकि कामेडी की कोई कोर्स नहीं होती. ये आपके खून में होती है, सही टाइमिंग, भाषा पर सही पकड़, किसी सिचुएशन को अलग तरीके से पेश करना इत्यादि सभी मिलकर कामेडी को बनाते हैं. मुझसे सभी पूछते हैं कि मैंने कामेडी कहां से सीखी, जबकि मेरे अंदर ये बचपन से था. मुझे याद आता है कि छोटी उम्र में मैं सबकी नकल उतारती थी, मजा-मजाक किया करती थी, किसी भी सिचुएशन को लेकर लोगों को हंसाती थी. अभी अधिकतर मेरे संवाद स्क्रिप्टेड नहीं होते और अगर होते भी हैं, तो कई बार किसी को हंसी नहीं आती, ऐसे में दूसरी बातों का इस्तमाल तुरंत करना पड़ता है, जिसे सुनकर लोग हंसने लगते हैं. मैंने कभी नहीं सोचा कि कभी किसी को कामेडी सिखाउंगी. ये सिखाई नहीं जाती.

कामेडी ने आपके जीवन को बदल दिया है, क्या अभी आप पुराने दिनों को याद करती हैं? यहां पहुंचने के बाद अपने आप में कितना बदलाव महसूस करती हैं?

पहले से मैं अब सुंदर हो गयी हूं. वक्त के साथ व्यक्ति को बदलते रहना चाहिए. मेरे बदलने की वजह यह भी है कि मुझे एक प्यारा प्रेमी हर्ष लिम्बाचिया मिल चुका है. सात साल से हमारी दोस्ती चल रही है इस साल हम शादी करने वाले हैं. हर्ष आये दिन मुझे कुछ पहनने और करने की सलाह देता रहता है. वे एक लेखक हैं और बहुत कम बोलते हैं, ऐसे में उनका कुछ भी कहना और बोलना मेरे लिए खास होता है. बदलाव तो बहुत आया है, कब क्या पहनना, कैसे मेकअप करना सब आ गया है.

प्लस साइज ने आपकी जिंदगी बदल दी, जबकि प्लस साइज वाले अपने आप को लेकर बहुत शर्मिंदगी महसूस करते हैं, इस बारें में आपकी राय क्या है?

मैं तो बहुत गर्वित हूं अपनी साइज को लेकर, क्योंकि इसकी वजह से यहां तक पहुंची हूं. हर्ष ने भी मुझे इसी रूप में पसंद किया है. उसने सिर्फ इतना कहा है कि खा-पी, पर ‘ग्रीन टी’ पिया करो, ताकि शरीर ‘डीटोक्स’ होता रहे और वह मैं लेती हूं. अगर शुरू से मोटे हो तो ये पैदाइशी है, लेकिन अगर आपने खा-खाकर अपने वजन को बढाया है, तो वह गलत है.

यहां तक पहुंचने का श्रेय किसे देती हैं?

मैं अपनी मां कमला सिंह को देती हूं. जब से मुंबई आई हूं मेरी मां मेरे साथ है. मैंने बहुत कम उम्र में अपने पिता को खोया है. जब मेरी औडिशन ‘द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेन्ज’ के लिए मुंबई में था और मेरी मां मुझे लेकर आना चाही, तो सभी रिश्तेदारों ने उसे मना किया था और कहा था कि इंडस्ट्री अच्छी नहीं, बाद में मेरी शादी होने में समस्या आएगी, पर मेरी मां मुझे यहां लेकर आई, अभी तक ऐसा कुछ भी मेरे साथ नहीं हुआ. मुंबई में टैलेंट की बहुत कदर है. आज वही रिश्तेदार मेरे साथ फोटो खिचवाकर गर्व महसूस करते हैं.

आजकल रिश्तों के मायने बदल चुके हैं, बहुत कम समय तक रिश्ते टिक पाते हैं, ऐसे में आप अपने रिश्ते को बनाये रखने के लिए किस तरह की कोशिश करेंगी?

किसी भी रिश्तें में समझदारी की बहुत जरुरत होती है. पति-पत्नी के रिश्ते को भूलकर दोस्त बन जाओ. हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त हैं. एक साथ खाते-पीते, घूमते हैं. इससे समझदारी बढ़ती है.

आप दोनों कैसे मिले, किसने पहले प्रपोज किया?

हर्ष और मैं कामेडी शो में मिले थे, दंगल वहीं से शुरू हुयी थी. वह लेखक थे और मेरे लिए लिखते थे 6-7 महीने केवल दोस्ती रही, एकदिन उसने मुझे मेसेज किया, ‘आई लव यू’ मुझे लगा कि शायद कोई शीर्षक बता रहा है. मैंने लिखा ‘ओके’, फिर उसे लगा कि मैं मान गयी. मैं तो पंजाब की हूं और मेरी लाइफ में कोई नहीं था. मैंने करीब एक महीने ऐसे ही गुजार दी. हमने कभी एक दूसरे से नजरें नहीं मिलाई. फिर एक दिन बात हुई और हर्ष ने खुलकर अपनी बात कही और मैं समझी. मुझे उसकी संगत बहुत अच्छी लगती है. दिसम्बर में शादी का प्लान है.

नए जेनरेशन के कामेडियन के लिए क्या मेसेज देना चाहती हैं?

‘वल्गरैटी’ को छोड़कर कामेडी करें, हमारे आस-पास बहुत ऐसी सिचुएशन हैं, जिसे लेकर कामेडी किया जा सकता है. मसलन महंगाई, बारिश, पेड़ पौधे, मछली आदि ऐसे बहुत सारे विषय हैं, जिसपर आप बोल सकते हैं. जीजा साली वाली जोक्स लेने की कोई जरुरत नहीं होती. कामेडी अगर सही नहीं बन पा रही हो तो थोडा ‘नौटी ह्यूमर’ डालने से लोग हंसते हैं.

अधिकतर ‘स्टैंड अप कामेडियन’ हंसाने के लिए गालियां भी प्रयोग करते हैं, ये कितना सही मानती हैं?

कुछ प्लेटफार्म पर ये चल सकता है, पर अधिक दिनों तक नहीं चलता. सही टाइमिंग और स्पोंटेंनियस ही कामेडी में जान डालती है.

आपकी शक्ति और कमजोरी क्या है?

शक्ति मेरी मां है और कमजोरी हर्ष. अगर हर्ष कभी मुझसे दूर हो जाय, तो मैं कामेडी नहीं कर सकती.

हंसना कितना जरुरी है?

आज के तनाव भरे माहौल में हंसना बहुत जरुरी है. पुरुष हो या महिला, गरीब हो या अमीर हर किसी की अपनी समस्या होती है. ऐसे में थोडा हंस लेने से जी हल्का हो जाता है, सुकून की नींद आती है.

क्या जीवन में कुछ मलाल रह गया है?

एक ‘सिंगिंग शो’ करने की इच्छा अभी बाकी है.

बारिश के मौसम में क्या खाएं क्या ना खाएं

बारिश के मौसम में सही से आहार नहीं लेने के कारण पेट संबंधी बीमारी होने की संभावना ज्यादा होती है. विशेषज्ञों का कहना है कि कोई भी अपने दैनिक आहार में परिवर्तन कर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को कम कर सकता है.

बारिश के मौसम में इन आहारों का सेवन कर आप पेट संबंधी संक्रमण से बच सकती हैं.  

– भोजन में लहसुन, काली मिर्च, अदरक, हींग, जीरा पाउडर, हल्दी और धनिया को शामिल करें क्योंकि ये पाचन बढ़ाने में मदद करते हैं और प्रतिरक्षा में सुधार करते हैं.

– बारिश के मौसम में उबला पानी पिएं क्योंकि पानी में रोगाणु मौजूद होते हैं. कम नमक वाला आहार लें और ज्यादा नमक वाले भोजन के सेवन से बचें क्योंकि ये ब्लड प्रेशर (उच्च रक्तचाप) बढ़ा सकते हैं, सूजन बढ़ा सकते हैं.

– मांसाहारी खाने वोल लोग धीमी आंच पर सही से पका हल्के मीट या सूप का सेवन कर सकते हैं, लेकिन मछली और झींगा के सेवन के समय सावधानी बरतें. इस मौसम में हैवी करी के साथ ज्यादा मछली और मीट खाने से बचें.

– आहार में गर्म दाल या सूप शामिल करें. हल्दी, लौंग, काली मिर्च और सौफ जैसे मसालों का खाना बनाने में इस्तेमाल करें.

– मौनसून के दौरान सूप का सेवन सूजन कम करता है और संक्रमण से लड़ने में मदद करता है.

– कच्चे फलों और सब्जियों का सेवन करने से बचें, जैसे-स्प्राउट. इससे अपच और गैस की समस्या हो सकती है.

– हल्दी न सिर्फ एक बढ़िया एंटीबायोटिक होता है, बल्कि सूजन भी कम करता है. यह वास्तव में पाचन तंत्र में सूजन कम करने में मददगार साबित होता है.

– सौंफ को खाना खाने के बाद लिया जा सकता है, यह भोजन पचाने में मदद करता है और गैस संबंधी समस्याओं की संभावना को कम करता है.

टैनिंग से हैं परेशान तो करें संतरे का इस्तेमाल

स्किन टैन होना इन दिनों आम बात है. बहुत ज्‍यादा धूप में घूमना, या सूर्य की हानिकारक अल्ट्रा व्यालेट किरणों से स्किन की टैनिंग होना यानी त्वचा का रंग काला पड़ना आम समस्या है. विशेषज्ञों का मानना है कि संतरे के इस्तेमाल से टैनिंग को कम किया जा सकता है और इससे त्वचा का रंग साफ होता है.

टैनिंग से छुटकारा पाने के लिए एक बड़ा चम्मच संतरे के छिल्के का पाउडर, एक चुटकी हल्दी, कैलेमाइन पाउडर या चंदन पाउडर और शहद की कुछ बूंदें मिलाकर पेस्ट बना लें. इसे चेहरे पर लगाकर हल्के हाथों से एक मिनट मलें और इसे पांच मिनट तक लगा रहने दें, फिर इसे पानी से धो लें.

संतरे के रस में साइट्रिक ऐसिड होता है, जो प्राकृतिक रूप से ब्लीचिंग का काम करता है. अगर आप चाहें तो संतरे के जूस को आइस ट्रे में फ्रीज कर सकती हैं और बाद में फ्रेश लुक के लिए इसे चेहरे पर लगा सकती हैं.

आप संतरे का गुदा भी चेहरे पर मल सकती हैं. टैनिंग के असर को कम करने के लिए ऐसा नियमित रूप से करें.

संतरे के सत्व से युक्त चेहरे पर लगाए जाने वाले अच्छी कंपनी के सौंदर्य उत्पाद का इस्तेमाल करें. संतरे के छिल्के में विटामिन सी और ऐंटिआक्सिडेंट मौजूद होता है. यह प्राकृतिक क्लिंजर का काम करता है, जबकि शहद त्वचा में निखार लाता है.

डेजी शाह और जैकलीन में से किसे मिलेगी फिल्म ‘‘रेस 3’’??

सफलतम रोमांचक फिल्म ‘‘रेस’’ का दूसरा सिक्वअल ‘‘रेस 3’’ का निर्माण जल्द शुरू होने वाला है. रेमो डिसूजा के निर्देशन में बनने वाली इस फिल्म में सलमान खान की मुख्य भूमिका है, जबकि फिल्म की नायिका का नाम तय नही है. वैसे जैकलीन फर्नांडिश खुले आम घोषणा कर चुकी हैं कि वह सलमान खान के साथ रेमो डिसूजा के निर्देशन में फिल्म करने जा रही हैं. मगर जिस तरह की खबरे बौलीवुड में गर्म हैं, उससे सवाल उठता है कि क्या ‘‘रेस 3’’ में जैकलीन फर्नांडिश को नायिका बनने का अवसर मिलेगा?

बौलीवुड में अफवाहें गर्म है कि सलमान खान फिल्म ‘‘रेस 3’’ में नायिका के तौर पर डेजी शाह को शामिल करवा रहे हैं. वास्तव में सलमान खान ने 2014 में अपनी होम प्रोडक्शन फिल्म ‘‘जय हो’’ में डेजी शाह को हीरोईन बनाया था. मगर बाक्स आफिस पर ‘जय हो’ के पिट जाने के बाद डेजी शाह का करियर नहीं बन पाया. तो अब एक बार फिर डेजी शाह को हीरोईन बनाने के लिए सलमान खान प्रयासरत हैं.

मगर जैकलीन फर्नांडिश को लगता है कि उनका पलड़ा भारी हैं. बौलीवुड के एक अन्य सूत्र की माने तो जैकलीन मानकर चल रही हैं कि “रेस 3” के लिए सलमान खान उनका विरोध नहीं करेंगे. क्योंकि सलमान खान के साथ 2014 में ही जैकलीन ने फिल्म ‘‘किक’’ की थी. उसके बाद जैकलीन, सलमान खान को एक चैरिटी कार्यक्रम के लिए श्रीलंका भी ले गयी थी. इतना ही नहीं कुछ दिन पहले ही फिल्म ‘‘जुड़वा 2’’ के लिए भी सलमान खान के साथ जैकलीन ने शूटिंग की है. जैकलीन के अनुसार सलमान खान के साथ उनके रिश्ते बहुत बेहतर हैं.

सूत्रों की माने तो फिल्म ‘‘टाइगर जिंदा है’’ की शूटिंग खत्म करते ही सलमान खान फिल्म ‘‘रेस 3’’ की शूटिंग शुरू कर देंगे. लेकिन “रेस 3” में उनकी हीरोईन बनने की रेस कौन जीतेगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है…

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