Freedom After Marriage: क्या शादी के बाद आजादी खत्म हो जाती है?

Freedom After Marriage: भारतीय कंस्टीटूशन ने औरतों को जो अधिकार दिए हैँ वो मर्दवादी समाज को हजम नहीं हो रहे. मीडिया, राजनीती और अदालतों में ज्यादातर मर्दवादी मानसिकता के लोग बैठे हैँ जो औरतों के अधिकारों के खिलाफ हर तरह के हठकंडे अपनाते हैँ. कई मामलों में इस मर्दवादी लॉबी की मानसिकता उजागर होती रहती है. न्यायालय में बैठे जजों ने तलाक के कई मामलों में ऐसी अनर्गल टिप्पड़िया की हैँ जिससे इन जजों के अंदर औरतों के खिलाफ बैठी कुंठायें साफ झलक जाती हैँ.

अभी हाल ही में एक महिला के तलाक का मामला सुप्रीम पहुंचा. महिला और उसका पति सिंगापुर में जॉब कर रहे थे. दोनों के दो छोटे बच्चे भी हैँ. सिंगापुर में आपसी मनमुटाव के चलते महिला हैदराबाद आ गई और यहीं रहने लगी. दोनों के बीच रिश्ते इतने खराब हो गये की महिला को तलाक के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ गया.

वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिये अदालत में पेश हुई महिला ने कहा कि उसका पति, जो सिंगापुर में रह रहा था और इस समय भारत में है, इस मामले को सुलझाने के लिए तैयार नहीं है. वह सिर्फ मुलाकात का अधिकार तथा बच्चों की कस्टडी चाहता है.

जस्टिस बीवी नागरत्ना और आर महादेवन की पीठ ने महिला से पूछा कि बच्चों के साथ सिंगापुर लौटने में आपको क्या दिक्कत है? महिला ने कुछ कठिनाइयों का हवाला देते हुए कहा कि सिंगापुर में पति के व्यवहार के कारण उसके लिए वापस लौटना बेहद मुश्किल हो गया है.

सिंगल मदर होने के नाते आजीविका के लिए नौकरी की जरूरत पर जोर देते हुए महिला ने कहा कि उसे अलग रह रहे पति से कोई गुजारा भत्ता नहीं मिला है. पति के वकील ने कहा कि दोनों की ही सिंगापुर में काफी अच्छी नौकरी है, लेकिन पत्नी ने बच्चों के साथ सिंगापुर लौटने से इन्कार कर दिया. पत्नी को आजादी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह असंभव है कि विवाह के बाद पति या पत्नी यह कह सकें कि वे अपने जीवनसाथी से स्वतंत्र होना चाहते हैं. जस्टिस बीवी नागरत्ना और आर महादेवन की पीठ ने आगाह किया कि “अगर कोई स्वतंत्र रहना चाहता है, तो उसे विवाह नहीं करना चाहिए. हम बिल्कुल स्पष्ट हैं. कोई भी पति या पत्नी यह नहीं कह सकता कि जब तक हमारा विवाह जारी है, मैं अपने जीवनसाथी से स्वतंत्र रहना चाहता हूं. यह असंभव है. विवाह का मतलब क्या है? दो दिलों और दो व्यक्तियों का एक साथ आना. आप स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं? अगर पति-पत्नी साथ आ जाते हैं, तो हमें खुशी होगी, क्योंकि बच्चे बहुत छोटे हैं. उन्हें घर टूटा हुआ देखने को न मिले”

दोनों पक्षों को मतभेद सुलझाने का निर्देश देते हुए पीठ ने कहा कि हर पति-पत्नी का आपस में कोई न कोई विवाद होता ही है. पीठ ने पक्षकारों से कहा कि आप सभी शिक्षित हैं. आपको इन मुद्दों को सुलझाना होगा.

स्वतंत्रता हर नागरिक का मौलिक अधिकार है. चाहे वो शादी में हो या न हो. कंस्टीटूशन के प्रियंबल में ही व्यक्ति की गरिमा की बात की गई है. शादीशुदा औरत या मर्द को भी अपनी गरिमा के साथ जीने का पूरा अधिकार है. संविधान के अनुच्छेद 21 भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है. कोई महिला अपने पति से बिना तलाक लिए अलग रह सकती है और अपनी स्वतंत्रता का आनंद ले सकती है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार” निहित है, जो प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार देता है इसका मतलब है कि एक महिला अपनी मर्जी से अपने पति से अलग रहने का फैसला कर सकती है, और उसे ऐसा करने के लिए तलाक लेना जरूरी नहीं है.

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के तहत पति या पत्नी को अलग रहने (जुडिशियल सेपरेशन) का प्रावधान है. इस प्रावधान के तहत बिना तलाक लिए पति-पत्नी को अलग रहने की अनुमति है.

यदि कोई महिला अपने पति से अलग रहने का फैसला करती है, तो भी वह निर्वाह भत्ता (मेंटेनेंस) की मांग कर सकती है. हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24, दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125, या घरेलू हिंसा अधिनियम (2005) के तहत वह अलग रहते हुए भी आर्थिक सहायता के लिए आवेदन कर सकती है. यदि महिला का अपने पति से अलग रहने का कारण घरेलू हिंसा है, तो महिला घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत सुरक्षा, आवास, और आर्थिक सहायता मांग सकती है.

भारतीय संविधान के अनुसार एक महिला को अपने पति से बिना तलाक लिए अलग रहने और स्वतंत्र जीवन जीने का पूरा अधिकार है. विवाह से किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता भंग नहीं होती. शादीशुदा व्यक्ति भी आजादी के साथ जीवन जी सकता है. इस तरह कोर्ट की यह टिप्पड़ी की शादीशुदा व्यक्ति आजाद नहीं है बिलकुल अनर्गल और असंवैधानिक साबित होती है.

Freedom After Marriage

Hindi Long Story: चित्तशुद्धि- क्यों सुकून की तलाश कर रही थी आभा

लेखिका- कंवल भारती

Hindi Long Story: इस शहर में मेरा पहली बार आना हुआ है. यह मेरे लिए अनजाना है. 5 साल तक एक ही शहर में रहने के बाद मेरा ट्रांसफर इस शहर में हुआ है. हुआ क्या है, किसी तरह कराया है. जहां से मैं आई हूं वहां एक मंत्री का इतना दबदबा था कि उस के गुंडे औफिस आ कर मेज पर चढ़ कर बैठ जाते थे, और मंत्री के नाम पर गलत काम कराने का दबाव बनाते थे. गालियां उन की जबान पर हर वक्त धरी रहती थीं. औरत तक का कोई लिहाज उन की नजरों में नहीं था.

मैं स्टेशन से बाहर निकलती हूं. बहुत सारे रिकशे खड़े हैं. मैं हाथ के संकेत से एक रिकशे वाले को बुलाती हूं. मैं उस से कुछ कहे बिना ही रिकशे में बैठ जाती हूं. रिकशे वाला पूछ रहा है, ‘‘बहनजी, कहां जाइएगा?’’ मैं उस से विकास भवन चलने को कहती हूं. नए शहर में रिकशे में बैठ कर घूमना मु झे अच्छा लगता है. सड़कें, बाजार और दिशाएं अच्छी तरह दिखाई देती हैं.

रिकशे वाला स्टेशन से बाहर निकल कर सीधे रोड पर चल रहा है. यह स्टेशन रोड है. कुछ दूर चल कर सड़क पर ढेर सी सब्जियों की दुकानें देख रही हूं. मैं अनुमान लगाती हूं, शायद यह यहां की सब्जी मंडी है. मैं रिकशे वाले से कन्फर्म करती हूं. वह बता रहा है, ‘‘बहनजी, यह अनाज मंडी है. सब्जियां भी यहां बिकती हैं.’’

मैं देख रही हूं, सड़क के दोनों ओर सब्जियों के ढेर से सड़क काफी संकरी हो गई है. गाय और सांड़ खुले घूम रहे हैं. इस भीड़ वाले संकरे रास्ते से निकल कर आगे दाहिने हाथ पर राजकीय चिकित्सालय की इमारत दिख रही है. फिर चौक आता है. रिकशे वाला कह रहा है, ‘‘यहां बाईं तरफ घंटाघर है, यह सामने नगरपालिका है.’’

रिकशा चौक से आगे जा कर बाएं मुड़ जाता है. इस रोड की सजीधजी दुकानें बता रही हैं कि यह यहां का मुख्य बाजार है. मैं दोनों ओर गौर से देखती जा रही हूं. किराने, वस्त्रों, साडि़यों, रेडीमेड गारमैंट्स, बरतन, स्टेशनरी आदि की काफी सारी दुकानें नजर आ रही हैं. साडि़यों के एक शोरूम पर नजर पड़ती है. बहुत ही भव्य शोरूम लग रहा है. अब तो इस शहर में रहना ही है. सो, मैं निश्चित कर रही हूं, इस शोरूम पर जरूर आना है.

कुछ दूर चल कर एक संकरा पुल आता है. इस पुल पर काफी जाम है. रिकशे वाला धीरेधीरे रास्ता बनाते हुए चल रहा है. पुल के नीचे नदी है, पर उस में पानी ज्यादा नहीं दिख रहा है. रिकशे वाला पुल और नदी का नाम बता रहा है, पर मेरा ध्यान उस की तरफ नहीं है. इसलिए मैं उसे सुन नहीं पाई. पुल पार करते ही बाईं ओर एक बड़ी सी मिठाई की दुकान नजर आई. रिकशे वाला बता रहा है, ‘‘बहनजी, इस दुकान की इमरती दूरदूर तक मशहूर है.’’

इमरती मुझे बहुत अच्छी लगती है. पर अब डायबिटीज की पेशेंट हूं, इसलिए परहेज करती हूं. इसी वक्त चमेली की खुशबू नथुनों में भर जाती है. देखती हूं कि सड़क के दोनों ओर इत्र की दुकानें हैं. यहां से आगे चल कर फिर एक बाजार आया है. दुकानों के बोर्ड पढ़ती हूं, कोई गंज बाजार है.

रिकशा अब बाएं मुड़ रहा है. आगे एक देशी शराब का ठेका बाईं तरफ दिखाई दे रहा है.

रिकशा वाला कह रहा है, ‘‘यहां शाम को मछली बाजार लगता है.’’ पर मैं उस की बात अनसुनी कर देती हूं. यहां से कोई 20 मिनट बाद कलैक्ट्रेट का गेट दिखाई देने लगा है. रिकशा इसी गेट के अंदर प्रवेश कर रहा है. मैं बाईं ओर जिला कोषागार का औफिस देख रही हूं. उस के थोड़ा ही आगे विकास भवन की बिल्डिंग दिखाई देने लगी है. रिकशा वहीं पर रुक जाता है.

मैं रिकशे से उतरती हूं. मैं उस से किराया पूछती हूं, वह 10 रुपए मांग रहा है. यहां इतना कम किराया. मु झे यह ठीक नहीं लग रहा है. मैं मन में सोच रही हूं, यह तो इस के श्रम के साथ न्याय नहीं है. पर मैं कर भी क्या सकती हूं. मैं ने उसे 10 रुपए दिए. बाद में सौ रुपए का नोट अलग से दिया कि वह मेरी तरफ से तुम्हारे बच्चों के लिए मिठाई है. आज इस शहर में मेरा पहला दिन है. जाओ, उसी दुकान से इमरती ले कर घर जाना.

रिकशे वाले की आंखों में खुशी देख कर मैं अपने बचपन की यादों में खो जाती हूं. पिताजी चीनी मिल में मजदूर थे. एक दिन जब वे रात में ड्यूटी से घर आए, तो उन के हाथों में मिठाई का डब्बा था. उस में इमरतियां थीं. मां ने पूछा था ‘मिठाई कहां से लाए,’ तो पिताजी ने बताया था, ‘एक नए अफसर आए हैं. उन के साथ मिल के विभागों में घूमा था. उन्होंने मु झ से घरगृहस्थी की बातें पूछी थीं. जब चलने को हुआ, तो उन्होंने 50 रुपए दे कर कहा था कि बच्चों के लिए मिठाई ले जाना.’ उस दिन मैं ने पहली बार इमरती खाई थी. ओह, मैं भी कहां खो गई. वर्तमान में लौटती हूं.

मैं सूटकेस ले कर विकास भवन में प्रवेश करती हूं. अपने विभाग में जा कर अपना जौइनिंग लैटर बनवाती हूं. बाबू बताता है, डीएम साहब अवकाश पर हैं, उन का चार्ज सीडीओ के पास है. मैं बाबू के साथ सीडीओ से मिलने जाती हूं. मैं उन्हें जिला समाज कल्याण अधिकारी के पद पर अपना जौइनिंग लैटर सौंपती हूं.

आज का दिन ऐसे ही बीत जाता है. सीडीओ से मिल कर अच्छा लग रहा है. रोबदाब वाली अफसरी उन में नहीं दिखी. वे मु झे मिलनसार और सहयोगी स्वभाव के लगे. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या इस शहर में कोई संबंधी है?’’ मेरे मना करने पर उन्होंने तुरंत ही मेरे आवास की समस्या भी हल कर दी है.

डीआरडीए के परियोजना निदेशक का ट्रांसफर हो गया था, और उन का आवास खाली पड़ा था. वे मु झे उस की चाबी दिलवा देते हैं. मैं उन का आभार व्यक्त करती हूं.

बाबू ने आवास की साफसफाई करवा दी है. कुछ जरूरी सामान भी उस ने उपलब्ध करा दिया है. अकसर नई जगह पर नींद थोड़ी मुश्किल से आती है. पर 12 घंटे की रेलयात्रा की थकान थी, इसलिए लेटते ही नींद ने आगोश में ले लिया था. सुबह 6 बजे आंख खुली. आदत के अनुसार अखबार के लिए बाहर आई. पर अखबार कहां से होता. किसी हौकर से डालने को कहा भी नहीं गया था.

संयोग से साइकिल पर एक हौकर आता दिखाई दिया. मैं उस से एक हिंदी और एक इंग्लिश का अखबार लेती हूं, और यही 2 अखबार उस से रोज डालने को कहती हूं. ब्रश कर के चाय बनाती हूं. मैं दूध का इस्तेमाल नहीं करती हूं. बाकी सारा सामान इलैक्ट्रिक केतली, शुगरफ्री के पाउच और टीबैग्स घर से साथ ले कर आईर् हूं. चाय पीने के साथ अखबार पढ़ती हूं.

एक खबर पढ़ कर चौंक जाती हूं. क्या सरला इसी शहर में है? क्या यह वही सरला है, जो मेरी क्लासपार्टनर थी या यह कोई और है? नाम तो उस का भी सरला था. बहुत छुआछूत करती थी. मगर यह वही सरला है, तब तो यह बिलकुल नहीं बदली. वैसी की वैसी ही कूपमंडूक है अभी तक. सच में कुछ लोग कभी नहीं बदलते. घुट्टी में दिए गए संस्कार उन में ऐसे रचबस जाते हैं कि उन की पूरी दिनचर्या संस्कारों की गुलाम हो जाती है. अच्छाबुरा, और सहीगलत में वे कोई अंतर ही नहीं कर पाते. बस, उन के लिए उन की मान्यताएं, आस्थाएं और संस्कार ही उन का परम धर्म होते हैं. मु झे याद है, एक बार मैं ने कहा था, चल सरला, आज बाहर किसी रैस्तरां में कुछ खापी कर आते हैं.

वह तुरंत बोली थी, ‘तुम जाओ, मु झे अपना धर्म नहीं भ्रष्ट करना.’

मैं ने कहा, ‘क्या रैस्तरां में खाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है?’

‘और क्या?’

‘तु झ से किस ने कहा?’

‘किसी ने नहीं कहा, पर क्या तु झे पक्का पता है कि वहां जातकुजात के लोग नहीं होते हैं? ब्राह्मण ही खाना बनाते और परोसते हैं?’

‘तू जातपांत को मानती है?’

‘हां, मैं तो मानती हूं.’

उस का रिऐक्शन इतना खराब होगा, मु झे नहीं पता था. मैं तो सुन कर अवाक रह गई थी.

अगर यह वही सरला है, तब तो उस की नौकरानी ने उस के खिलाफ केस कर के ठीक ही किया है. बताइए, यह कोई बात हुई कि जो नौकरानी 6 महीने से चायनाश्ता और खाना बना रही थी, उसे इस वजह से मारपीट कर के नौकरी से निकाल दिया कि वह उसे ब्राह्मण सम झ रही थी जबकि वह यादव निकली. इस ब्राह्मणदंभी को यह नहीं पता कि जो आटा वह बाजार से लाती है, वह किस जाति या धर्म के खेत के गेहूं का आटा है- ब्राह्मण के, यादव के, चमार के या मुसलमान के?

पर ऐसे लोग यहां भी तर्क जमा लेते हैं, कहते हैं, अग्नि में तप कर सब शुद्ध हो जाता है. अन्न अग्नि में शुद्ध हो जाता है, लेकिन उसे बनाने वाला शुद्ध नहीं होता है. वह अगर ब्राह्मण है तो ब्राह्मण ही रहता है, और यादव है तो यादव ही रहता है. मैं तो यह खबर पढ़ कर ही परेशान हुई जा रही हूं, यह कितनी अवैज्ञानिक सोच है, कह रही है, नौकरानी ने मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया. इतने दिनों से मैं एक शूद्रा के हाथ का बना खाना खा रही थी.

मैं सरला से मिलने की सोचने लगी हूं. पर पहले तो यह पता करना होगा कि वह रहती कहां है. पर इस से भी पहले उस का फोन नंबर मिलना जरूरी है. यहां भी सीडीओ साहब काम आते हैं. और मु झे उस के आवास का पता व फोन नंबर मिल जाता है. मैं तुरंत नंबर मिलाती हूं. फोन स्विचऔफ जा रहा है. हो सकता है ऐसी परिस्थिति में उसे अनेक लोगों के फोन आ रहे होंगे. उसी से बचने के लिए उस ने फोन स्विचऔफ कर दिया होगा. पर उस से मिलना जरूरी है. इसलिए मैं उस से मिलने उस के आवास की ओर चल देती हूं.

ट्रांजिट होस्टल में सैकंड फ्लोर पर जा कर मैं एक दरवाजे की घंटी बजाती हूं. दरवाजा सरला ही खोलती है. मैं इतने सालों के बाद भी उसे पहचान लेती हूं. पर वह मु झे देख कर अवाक सी है, …..पहचानने का भाव उस की आंखों में मु झे दिख रहा है. फिर पूछती है, ‘‘जी कहिए?’’

मेरे जवाब देने से पहले ही वह फिर बोल पड़ती है, ‘‘बोलिए, किस से मिलना है?’’

‘‘अरे सरला, मु झे पहचाना नहीं? मैं आभा हूं, कानपुर वाली तेरी क्लासफैलो.’’

फिर वह थोड़ा चौंक कर बोली, ‘‘अरे आभा तू? तू यहां कैसे? माफ करना यार, कोई 10 साल के बाद मिल रही हो, इसलिए पहचान नहीं पाई. आओ, अंदर आओ.’’

मैं उस के साथ अंदर प्रवेश करती हूं. ड्राइंगरूम एकदम साफसुथरा लग रहा है, करीने से सजा हुआ. मैं सोफे पर बैठ जाती हूं. वह फ्रिज में से पानी की बोतल निकाल कर गिलास में डालती है और मु झे दे कर मेरे पास ही बैठ जाती है. फिर ढेर सारे सवाल करती है, ‘‘और बता, तू इतनी मोटी जो हो गई, पहचानती कैसे? और तू इस शहर में क्या कर रही है? किसी रिलेटिव के पास आई है क्या? और तु झे मेरा पता कैसे मिला?’’

‘‘अरे रुक यार, कितने सवाल पूछेगी एकसाथ?’’

वह हंसने लगती है. पर मैं देख रही हूं कि उस की हंसी में स्वाभाविकता नहीं है. एकदम फीकी सी हंसी. मैं सम झ रही हूं, वह खुश नहीं है, अंदर से परेशान है.

मैं उसे बताती हूं, ‘‘मैं ने यहां कल ही समाज कल्याण अधिकारी के पद पर जौइन किया है. आज ही सुबह अखबार में तेरी खबर पढ़ी, और बेचैन हो गई. इतनी चिंतित हुई कि किसी तरह तेरा नंबर और पता लिया. पहले फोन किया, वह स्विचऔफ जा रहा था. फिर मिलने चली आई.’’

‘‘किस से मिला मेरा फोन नंबर और पता?’’

‘‘अब यह सब छोड़. वैसे सीडीओ साहब से ही मिला.’’

‘‘क्या बात है, एक ही दिन में काफी मेहरबान हो गए सीडीओ साहब?’’ उस ने व्यंग्यात्मक मजाक किया.

‘‘हां, तो क्या हुआ? भले व्यक्ति हैं. मिलनसार हैं.’’

‘‘और मोहब्बत वाले हैं,’’ यह कह कर वह फिर हंसी.

‘‘हां, हैं मोहब्बत वाले. अब तो खुश. अब तू बता, तू ने यह क्या कांड कर डाला?’’

‘‘कैसा कांड?’’

‘‘अरे, तेरी कुक ने तु झ पर मारपीट का मामला दर्ज कराया है. यह कांड नहीं है.’’

‘‘अरे, वह कुछ नहीं है, उस से मैं निबट लूंगी.’’

‘‘कैसे? यह कहेगी कि वह  झूठ बोल रही है?’’

‘‘हां, तो क्या हुआ?’’

‘‘तेरे लिए गरीब औरत के लिए कोई इज्जत नहीं है?’’

‘‘काहे की गरीब और काहे की इज्जत? क्या मेरी कोई इज्जत नहीं है? मेरा धर्म भ्रष्ट कर के चली गई?’’ उस ने क्रोध से भर कर कहा.

‘‘कैसा धर्म भ्रष्ट? क्या किया उस ने?’’

तब उस ने बताया, ‘‘मु झे एक ब्राह्मण कुक की जरूरत थी. एक व्यक्ति ने एक औरत को मेरे यहां भेजा कि यह बहुत अच्छा खाना बनाती है और ब्राह्मण भी है. उस व्यक्ति के विश्वास पर मैं ने उसे रख लिया. वह काम करने लगी. सुबह में वह नाश्ता बनाती और दोनों समय का खाना बना कर, खिला कर चली जाती थी. अचानक 6 महीने बाद उस की कालोनी की एक औरत उस से मिलने आई. मैं ने उस से पूछा, ‘तुम इसे कैसे जानती हो?’ उस ने बताया, ‘यह हमारी ही कालोनी में रहती है.’

‘‘मैं ने पूछा, ‘कौन है यह,’ तो वह बोली, ‘यादव है.’

‘‘यह सुन कर मेरे तो बदन में आग लग गई. इतना बड़ा  झूठ मेरे साथ, यह घोर अनर्र्थ था. मैं 6 महीने से एक शूद्रा के हाथों का बना खाना खा रही थी. मेरे नवरात्र के व्रत तक भ्रष्ट कर गई. मेरा सारा धर्म भ्रष्ट कर गई.’’

मैं ने कहा, ‘‘इस का मतलब है कि तु झे दूसरी औरत ने बताया कि वह कुक यादव है, तब तु झे पता चला.’’

‘‘हां, वरना मैं ब्राह्मण ही सम झती रहती.’’

‘‘और भ्रष्ट होती रहती?’’

‘‘और क्या? मु झे उस ने बचा लिया.’’

‘‘अच्छा, उस पहले व्यक्ति ने उसे ब्राह्मण बताया था.’’

‘‘हां.’’

‘‘मतलब यह कि एक ने कहा, वह ब्राह्मण है, तो तू ने उसे ब्राह्मण मान लिया, दूसरे ने कहा, वह यादव है, तो तू ने उसे यादव मान लिया. कोई तीसरा उसे चमार बताता, तो उसे मान लेती.’’

‘‘तू कहना क्या चाहती है?’’

‘‘मैं यह कहना चाहती हूं कि औरत की जाति को पहचानने का तेरे पास कोई मापदंड नहीं है. जो भी जाति औरत अपनी बताएगी, या दूसरा व्यक्ति बताएगा, तू उसी पर विश्वास करेगी.’’

अब वह घूम गई, क्योंकि कोई जवाब उस के पास नहीं है. मैं ने कहा, ‘‘सरला, औरत के वर्ग की कोई पहचान नहीं है.’’

‘‘क्यों नहीं है?’’ उस ने बहस में अपने अज्ञान को निरर्थक छिपाने का प्रयास किया.

‘‘बता क्या पहचान है? किस चीज से पहचानेगी – चेहरे से? भाषा से? पहनावे से?’’

वह मौन रही.

‘‘अच्छा, तू बता, तेरी क्या पहचान है? तू कैसे साबित करेगी कि तू ब्राह्मण है?’’ मैं ने तर्क किया, ‘‘पुरुष तो अपना जनेऊ दिखा कर साबित कर देगा, पर औरत क्या दिखा कर साबित करेगी कि वह ब्राह्मण है?’’

वह सोच में पड़ गई थी. गरम लोहा देख कर मैं ने फिर तर्क का प्रहार किया, ‘‘क्या तेरा जनेऊ हुआ है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘मेरा भी नहीं हुआ है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तू धर्म को ज्यादा सम झती है. जिस का जनेऊ नहीं होता, उसे क्या कहते हैं?’’

वह चुप.

मैं ने कहा, ‘‘उसे शूद्र कहते हैं. तब बिना जनेऊ के तू भी शूद्रा हुई कि नहीं? मैं भी शूद्रा हुई कि नहीं?’’

उस का ब्राह्मण अहं आहत हो गया, तुरंत बोली, ‘‘एक ब्राह्मणी शूद्रा कैसे हो सकती है?’’

‘‘नहीं हो सकती न, फिर सम झा तू, किस तरह ब्राह्मण है?’’

‘‘मेरे पिता ब्राह्मण हैं, दादा ब्राह्मण थे, मेरी मां ब्राह्मण हैं,’’ उस ने तर्क दिया.

मैं ने कहा, ‘‘यह कोई तर्कनहीं है. तेरे पिता और दादा ब्राह्मण हो सकते हैं, पर तेरी मां भी ब्राह्मण हैं, इस का दावा तू कैसे कर सकती है? खुद तेरी मां भी ब्राह्मण होने का दावा नहीं कर सकती.’’

‘‘तू कैसी अजीब बातें कर रही है, क्यों नहीं कर सकती मेरी मां ब्राह्मण होने का दावा?’’ उस ने क्रोध में जोर दे कर कहा.

‘‘क्योंकि वे औरत हैं, इसलिए.’’

‘‘मतलब?’’

मतलब यह है कि औरत उस तरल पदार्थ की तरह है, जो जिस बरतन में रखा जाता है, वह उसी का रूप धारण कर लेता है. औरत अपने पिता या पति के वर्ग से जानी जाती है, उस का अपना कोई वर्ण नहीं होता है. वह ब्राह्मण से विवाह करने पर ब्राह्मणी, ठाकुर से विवाह करने पर ठकुरानी, लाला से विवाह करने पर लालानी होगी, और शूद्र वर्ण में जिस जाति से विवाह करेगी, उस की भी वही जाति मानी जाएगी. सरला, मैं फिर कह रही हूं कि औरत का अपना कोई वर्ण नहीं होता है.’’

वह मौन हो कर सुन रही थी. पर मैं सम झ रही थी कि उसे यह अच्छा नहीं लग रहा था. मैं ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘तुम्हारी मां भी तुम्हारे पिता के वर्ण से ब्राह्मण हैं, और दादी भी तुम्हारे दादा के वर्ण से ब्राह्मण थीं. इस से पहले की पीढि़यों के बारे में भी जहां तक तुम्हें याद है, वहीं तक बता सकती हो. उस के बाद वह भी नहीं.’’

मैं ने आगे कहा, ‘‘तू ऋतु को तो जानती होगी. अभी पिछले महीने उस की किन्हीं प्रोफैसर शर्मा से शादी हुई है.’’

‘‘इस में अचरज क्या है?’’ अब उस ने पूछा.

‘‘सरला, अचरज यह है कि ऋतु की मां ब्राह्मण नहीं थीं. रस्तोगी जाति की थीं, जिसे शायद सुनार कहते हैं. फिर वह एक शूद्रा की बेटी हुई कि नहीं? पर चूंकि उस के पिता भट्ट थे, इसलिए वह भी ब्राह्मण है. अब उस के बच्चे भी भट्ट ब्राह्मण कहलाएंगे, क्योंकि दूसरी पीढ़ी में वह ब्राह्मण हो गई. इसलिए सरला, यह ब्राह्मण का भूत दिमाग से निकाल दे.’’

पर हार कर भी सरला हार मानने को तैयार नहीं थी. उस ने गुण का सवाल खड़ा कर दिया, ‘‘तो क्या ब्राह्मण का कोई गुण नहीं होता?’’

अनजाने में यह उस ने एक अच्छा प्रश्न उठा दिया था. मु झे उसे निरुत्तर करने का एक और अवसर मिल गया. मैं ने कहा, ‘‘इस का मतलब है, तू ने यह मान लिया कि ब्राह्मण गुण से होता है?’’

‘‘बिलकुल, इस में क्या शक है?’’

‘‘गुड, अब यह बता, ब्राह्मण के गुण क्या हैं?’’

‘‘ब्राह्मण के गुण?’’

‘‘हां, ब्राह्मण के गुण?’’

‘‘क्या तू नहीं जानती?’’

‘‘हां, मैं नहीं जानती. तू बता?’’ फिर मैं ने कहा, ‘‘अच्छा छोड़, यह बता, ब्राह्मण के कर्म क्या हैं.’’

‘‘वेदों का पठनपाठन और दान लेना.’’

‘‘गुड, और ब्राह्मणी के?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि यह कर्म जो तू ने बताए हैं, वे तो ब्राह्मण के कर्म हैं. ब्राह्मणी के कर्म क्या हैं?’’

‘‘ब्राह्मण और ब्राह्मणी एक ही बात है.’’

‘‘एक ही बात नहीं है, सरला. स्त्री के रूप में ब्राह्मणी वेदों का पठनपाठन नहीं कर सकती. उस का कोई संस्कार भी नहीं होता. वह यज्ञ भी नहीं कर सकती. एक ब्राह्मणी के नाते क्या तू यह सब कर्म करती है?’’

‘‘नहीं, मेरी इस में कोई रुचि नहीं है.’’

‘‘वैरी गुड. अब तू ने सही बात कही. यार, तबीयत खुश कर दी. अब मैं तु झे बताती हूं कि शास्त्रों में ब्राह्मण का गुण भिक्षाटन कर के जीविका कमाना है. तू नौकरी क्यों कर रही है? यह तो ब्राह्मण का गुण नहीं है.’’

‘‘यार, तेरी बातें तो अब मु झे सोचने पर मजबूर कर रही हैं. मैं इतनी पढ़ीलिखी, क्यों भीख मांगूंगी? यह तो व्यक्ति की क्षमताओं का तिरस्कार है.’’

‘‘व्यक्ति की क्षमताओं का ही नहीं, गुणों का भी.

‘‘हर व्यक्ति में ब्राह्मण है, क्षत्रिय है, वैश्य है और शूद्र है. गुण के आधार पर वह स्त्री ब्राह्मण है, जिसे तू ने शूद्रा मान कर मारपीट कर निकाल दिया. उसे अगर पढ़नेलिखने का अवसर मिलता और बौस बन कर तेरे ऊपर बैठी होती, तो क्या तू तब भी उस से नफरत करती? लेकिन मैं जानती हूं, तू तब भी करती. तेरे जैसे अशुद्ध चित्त वाले जातीय अभिमानी लोग ही समाज को रुढि़वादी बनाए हुए हैं.’’

वह गुमसुम बैठी थी. मैं ने कहा, ‘‘यार, तू ने तो चाय भी नहीं पिलाई. चल, आज मैं ही तु झे चाय बना कर पिलाती हूं.’’ यह कह कर मैं उस के किचन में चली जाती हूं.

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Moral Story: लालच- रंजीता के साथ आखिर क्या हुआ

Moral Story: रंजीता बहुत खूबसूरत तो नहीं थी, लेकिन बननेसंवरने में उसे बहुत दिलचस्पी थी. जब वह सजसंवर कर खुद को आईने में देखती, तो मुसकराने लगती. रंजीता अपनी असली उम्र से कम लगती थी. उसे घर के कामों में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी और वह बाजार में खरीदारी करने की शौकीन थी.

रंजीता को शेरोशायरी से लगाव था और वह अपनी शोखियों से महफिल लूट लेने का दम रखती थी. रंजीता का अपने पति रमेश से झगड़ा चल रहा था. इसी बीच उन के महल्ले का साबिर मुंबई से लौट आया था. वह चलता पुरजा था.

एक दिन मुशायरे में उन दोनों का आमनासामना हो गया. साबिर ने आदाब करते हुए कहा, ‘‘आप तो पहुंची हुई शायरा लगती हैं. आप मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में क्यों नहीं कोशिश करती हैं?’’ रंजीता पति रमेश की जलीकटी बातों से उकताई हुई थी. साबिर की बातों से जैसे जले पर रूई के फाहे सी ठंडक मिली. उस ने अपना भाव जाहिर करते हुए कहा, ‘‘साबिर, आप क्या मुझे बेवकूफ समझते हैं?’’

साबिर ने तुरंत अपना जाल बिछाया, ‘‘नहीं मैडम, मैं सच कह रहा हूं कि आप वाकई पहुंची हुई शायरा हैं.’’ रंजीता ने साबिर को अपने घर दिन के खाने पर बुला लिया. रात के खाने पर रमेश से झगड़ा हो सकता था.

खाने पर रंजीता व साबिर ने खूब खयालीपुलाव पकाए और योजना बनाई कि रंजीता अपनी जमापूंजी ले कर हफ्ते के आखिर में जा रही ट्रेन से मुंबई चलेगी. साबिर ने तो उस की जवान होती लड़की को भी साथ चलने के लिए कहा, पर रंजीता ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं. बेटी को घर पर ही रख कर वह अपनी पक्की सहेली से बेटी से मिलते रहने की कह कर 50 हजार रुपए ले कर चल दी.

रंजीता जब गाड़ी में बैठी, तो उस का दिल धकधक कर रहा था. पर वह मन में नए मनसूबे बनाती जा रही थी. इन्हीं सब बातों को याद करती हुई वह मुंबई पहुंच गई. साबिर ने उसे वेटिंग रूम में ही तैयार होने को कहा और फोन पर किसी से मिलने की मुहलत मांगी.

रंजीता का चेहरा बुझ सा गया था. वह नए शहर में गुमसुम हो गई थी. साबिर ने उस से कहा, ‘‘चलो, कहीं होटल में कुछ खा लेते हैं.’’

कुछ देर में वे दोनों एक महंगे रैस्टोरैंट में थे. साबिर ने उस से पूछे बिना ही काफी महंगी डिश का और्डर किया. जब दोनों ने खाना खा लिया, तो साबिर ने यों जाहिर किया कि मानो उस का पर्स मिल नहीं रहा था. झक मार कर रंजीता ने ही वह भारी बिल अदा किया. रंजीता को घर की भी बेहद याद आ रही थी. घर से दूर आ कर वह महसूस कर रही थी कि पति के साए में वह कितनी बेफिक्र रहती थी.

अब साबिर व रंजीता एक टैक्सी से किसी सरजू के दफ्तर जा रहे थे. इस बार रंजीता ने खुद ही टैक्सी का भाड़ा दे दिया. उस ने साबिर को नौटंकी करने का चांस नहीं दिया. सरजू एक ऐक्टिंग इंस्टीट्यूट चलाता था. हालांकि वह खुद एक पिटा हुआ ऐक्टर था, पर मुंबई में ऐक्टिंग सिखाने का उस का धंधा सुपरहिट था.

सरजू के दफ्तर तक रंजीता को पहुंचा कर साबिर को जैसे कुछ याद आया. वह उठ खड़ा हुआ और ‘बस, अभी आता हूं’ कह कर बगैर रंजीता के जवाब का इंतजार किए चला गया. अब रंजीता और सरजू आमनेसामने बैठे थे. वह इधरउधर देखने की कोशिश करने लगी, जबकि सरजू उसे देख रहा था.

कुछ देर की खामोशी के बाद सरजू बोला, ‘‘लगता है कि आप थकी हुई हैं. आप ऐसा कीजिए कि रात तक नींद ले लीजिए.’’ सरजू की एक नौकरानी ने सोने का कमरा दिखा दिया. रंजीता सोई तो नहीं, पर वह उस कमरे में अपनी शायरी की किताब निकाल कर पढ़ने लगी. कब आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला.

सुबह जब संगीता को होश आया, तो उस ने खुद को पुलिस से घिरा पाया. एक खूबसूरत लड़की भी उस के पास खड़ी थी. पुलिस इंस्पैक्टर विनोद ने कहा, ‘‘लगता है कि आप होश में आ गई हैं.’’

रंजीता उठ बैठी. कपड़े टटोले. वह लड़की मुसकरा रही थी. इंस्पैक्टर विनोद ने उस लड़की को देख कर कहा, ‘‘थैंक्स समीरा मैडम, अब आप जा सकती हैं.’’

रंजीता भी उठ खड़ी हुई. इंस्पैक्टर विनोद ने कहा, ‘‘आप भी समीरा मैडम का शुक्रिया अदा कीजिए.’’ रंजीता कुछ नहीं समझी. तब इंस्पैक्टर विनोद ने बताया, ‘‘आप को साबिर ने सरजू को बेच दिया था. यह शख्स ऐटिंक्ग इंस्टीट्यूट की आड़ में जिस्मफरोशी का धंधा चलाता है.

समीरा मैडम को इन्होंने इसी तरह से धोखा दे कर बेचा था, पर वे बार डांसर बन कर आज आप जैसी धोखे की शिकार औरतों को बचाने की मुहिम चलाती हैं.’’ समीरा बोली, ‘‘और विनोदजी जैसे पुलिस इंस्पैक्टर मदद करें, तभी हम बच सकती हैं, वरना…’’

यह कहते हुए समीरा के आंसुओं ने सबकुछ कह दिया. तभी वह नौकरानी आ गई. समीरा ने उसे कुछ रुपए दिए और बताया कि इसी काम वाली ने उसे फोन कर के बताया था. शाम को रंजीता अपने शहर जा रही ट्रेन पर सवार हो गई. उस ने मन ही मन समीरा का शुक्रिया अदा किया और इस मायानगरी को अलविदा कह दिया.

Moral Story

Hindi Drama Story: दीया और सुमि- क्या हुआ था उसके साथ

Hindi Drama Story: “अरे दीया, चलो मुसकरा भी दो अब. इस दुनिया की सारी समस्याएं केवल तुम्हारी तो नहीं हैं,” सुमि ने कहा तो यह लाजवाब बात सुन कर दीया हंस दी और उस ने सुमि के गाल पर एक मीठी सी चपत भी लगा दी.

“अरे सुनो, हां, तो यह चाय कह रही है कि गरमगरम सुड़क लो ठंडी हो जाऊंगी तो चाय नहीं रहूंगी,” सुमि ने कहा.

“अच्छा, मेरी मां,” कह कर दीया ने कप हाथों में थामा और होंठों तक ले आई. सुमि के हाथ की गरम चाय घूंटघूंट पी कर मन सचमुच बागबाग हो गया उस का.

“चलो, अब मैं जरा हमारे दिसु बाबा को बाहर सैर करा लाती हूं. तुम अपना मन हलका करो और यह संगीत सुनो,” कह कर सुमि ने 80 के दशक के गीत लगा दिए और बेबी को ले कर बाहर निकल गई.

दीया ने दिसु के बाहर जाने से पहले उसे खूब प्यार किया…’10 महीने का दिसु कितना प्यारा है. इस को देख कर लगता है कि यह जीवन, यह संसार कितना सुंदर है,’ दीया ने मन ही मन सोचा और खयालों में डूबती चली गई.

यादों के सागर में दीया को याद आया 2 साल पहले वाला वह समय, जब मेकअप रूम में वह सुमि से टकरा गई थी. दीया तैयार हो रही थी और सुमि क्लब के मैनेजर से बहस करतेकरते मेकअप रूम तक आ गई थी. वह मैनेजर दीया को भी कुछ डांस शो देता था, पर दीया तो उस से भयंकर नफरत करती थी. दीया का मन होता कि उस के मुंह पर थूक दे, क्योंकि उस ने दीया को नशीली चीजें पिला कर जाने कितना बरबाद कर डाला था. आज वह मैनेजर सुमि को गालियां दे रहा था.

आखिरकार सुमि को हां करनी पड़ी, “हांहां, इसी बदन दिखाती ड्रैस को पहन कर नाच लूंगी.”

यह सुन कर वह धूर्त मैनेजर संतुष्ट हो कर वहां से तुरंत चला गया और जातेजाते बोलता रहा, “जल्दी तैयार हो जाना.”

“क्या तैयार होना है, यह रूमाल ही तो लपेटना है…” कह कर जब सुमि सुबक रही थी, तब दीया ने उसे खूब दिलासा दिया और कहा, “सुनो, मैं आप का नाम तो नहीं जानती, पर यही सच है कि हम को पेट भरना है और
उस कपटी मैनैजर को पैसा कमाना है. जानती हो न इस पूरी धरती की क्या बिसात, वहां स्वर्ग में भी यह दौलत ही सब से बड़ी चीज है.”

इस तरह माहौल हलका हुआ. सुमि ने अपना नाम बताया, तब उन दोनों ने एकदूसरे के मन को पढ़ा. कुछ बातें भी हुईं और उस रात क्लब में नाचने के बाद अगले दिन सुबह 10 बजे मिलने का वादा किया.

आधी रात तक खूबसूरत जवान लड़कियों से कमर मटका कर और जाम पर जाम छलका कर उन के मालिक, मैनेजर या आयोजक सब दोपहर बाद तक बेसुध ही रहने वाले थे. वे दोनों एक पार्क में मिलीं और बैंच पर बैठ गईं. दोनों कुछ पल खामोश रहीं और सुमि ने बात शुरू की थी, फिर तो एकदूसरे के शहर, कसबे, गांव, घरपरिवार और घुटन भरी जिंदगी की कितनी बातें एक के बाद एक निकल पड़ीं और लंबी सांस ले कर सुमि बोली, “कमाल है न कि यह समय भी कैसा खेल दिखाता है. जिन को हम ने अपना समझ कर अपनी हर समस्या साझा कर ली, वे ही दोस्त से देह के धंधेबाज बन गए, वह भी हमारी देह के.”

“हां सुमि, तुम सही कह रही हो. कल रात तुम को देखा तो लगा कि हम दोनों के सीने में शायद एकजैसा दर्द है,” कहते हुए दीया ने गहरी सांस ली. आज कितने दिनों के बाद वे दोनों दिल की बात कहसुन रही थीं.

सुमि को तब दीया ने बताया कि रामपुर में उस का पंडित परिवार किस तरह बस पूजा और अनुष्ठान के भरोसे ही चल रहा था, पर सारी दुनिया को कायदा सिखा रहे उस घर में तनिक भी मर्यादा नहीं थी. उस की मां को उस के सगे चाचा की गोद में नींद आती और पिता से तीसरेचौथे दिन शराब के बगैर सांस भी न ली जाती.

“तो तुम कुछ कहती नहीं थी?” सुमि ने पूछा.

“नहीं सुमि, मैं बहुत सांवली थी और हमारे परिवार मे सांवली लड़की किसी मुसीबत से कम नहीं होती, तो मैं घर पर कम रहती थी.”

“तुम कहां रहती थी?”

“सुमि, मैं न बहुत डरपोक थी और जब भी जरा फुरसत होती तो सेवा करने चली जाती. कभी कहीं किसी के बच्चों को पढ़ा देती तो किसी के कुत्तेबिल्ली की देखभाल करती बड़ी हो गई तो किसी की रसोई तक संभाल देती पर यह बात भीतर तक चुभ जाती कि कितनी सांवली है, इस को कोई पसंद नहीं करेगा,” दीया तब लगातार बोलती रही थी.

सुमि कितने गौर से सुन रही थी. अब वह एक सहेली पा कर उन यादों के अलबम पलटने लगी.

दीया बोलने लगी, “एक लड़का मेरा दोस्त बन गया. उस ने कभी नहीं कहा कि तुम सांवली हो और जब जरूरत होती वह खास सब्जैक्ट की किताबें और नोट्स आगे रखे हुए मुझे निहारता रहता.

“इस तरह मैं स्कूल से कालेज आई तो अलगअलग तरह की नईनई बातें सीख गई. मेरे कसबे के दोस्तों ने बताया था कि अगर कोई लड़का तुम से बारबार मिलना चाहे तो यही रूप सच्चे मददगार का भी रूप है और मैं ने आसानी से इस बात पर विश्वास कर लिया था.”

एक दिन इसी तरह कोई मुश्किल सब्जैक्ट समझाते हुए उस लड़के के एकाध बाल उलझ कर माथे पर आ गए थे तो दीया का मन महक गया. उस के चेहरे पर हलकीहलकी उमंग उठी थी.

हालांकि दीया की उम्र 20 साल से ज्यादा नहीं थी, पर उस के दिल पर एक स्थायी चाहत थी, जिस का रास्ता बारबार उसी अपने और करीबी से लगने वाले मददगार लड़के के पास जाता दिखाई देता था.

दीया कालेज में पढ़ने वाले उस लड़के का कोई इतिहासभूगोल जानती नहीं थी और जानना भी नहीं चाहती थी. सच्चा प्यार तो हमेशा ईमानदार होता है, वह सोचती थी. एक दिन वह अपने घर से रकम और गहने ले कर चुपचाप
रवाना हो गई. वह बेफिक्र थी, क्योंकि पूरे रास्ते उस का फरिश्ता उस को गोदी मे संभाले उस के साथ ही तो था और बहुत करीब भी था.

दीया उस लड़के के साथ बिलकुल निश्चिंत थी, क्योंकि उस को जब भी अपने मददगार यार के चेहरे पर मुसकराहट दिखाई देती थी, वह यही मान लेती थी कि भविष्य सुरक्षित है, जीवन बिलकुल मजेदार होने वाला है. आने वाले दिन तो और भी रसीले और चमकदार होंगे.

मगर दीया कहां जानती थी कि वे कोरे सपने थे, जो टूटने वाले थे. यह चांदनी 4-5 दिन में ही ढलने लगी. एक दिन वह लड़का अचानक उठ कर कहीं चला गया. दीया ने उस का इंतजार किया, पर वह लौटा नहीं, कभी नहीं.

उस के बाद दीया की जिंदगी बदल गई. वह ऐसे लोगों के चंगुल में फंस जो उसे यहांवहां नाचने के लिए मजबूर किया गया. इतना ही नहीं उस को धमकी मिलती कि तुम्हारी फिल्म बना कर रिलीज कर देंगे, फिर किसी कुएं या पोखर मे कूद जाना.

दीया को कुछ ऐसा खिलाया या पिलाया जाता कि वह सुबह खुद को किसी के बैडरूम में पाती और छटपटा जाती. कई दिनों तक यों ही शहरशहर एक अनाचारी से दूसरे दुराचारी के पलंग मे कुटने और पिसने के बाद वह सुमि से मिल गई.

सुमि ने दीया को पानी की बोतल थमा दी और बताया, “मैं खुद भी अपने मातापिता के मतभेद के बीच यों ही पिसती रही जैसे चक्की के 2 पाटों में गेहूं पिस जाता है. मां को आराम पसंद था पिता को सैरसपाटा और लापरवाही भरा जीवन. घर पर बस नौकर रहते थे. हमारे दादा के बगीचे थे. पूरे साल रुपया ही बरसता रहता था. अमरूद, आम से ले कर अंगूर, अनार के बगीचे.”

“अच्छा तो इतने पैसे मिलते थे…” दीया ने हैरानी से कहा.

“हां दीया, और मेरी मां बस बेफिक्र हो कर अपने ही आलस में रहती थी. पिता के बाहर न जाने कितने अफेयर चल रहे थे. वे बाजारू औरतों पर दौलत लुटा रहे थे, पर मां मस्तमगन रहती. इस कमजोरी के तो नौकर भी खूब मजे लेते. वे मां को सजधज कर तैयार हो कर बाहर सैरसपाटा करने में मदद करते और घर पर पिता को महंगी शराब के पैग पर पैग बना कर देते.

“मां और पिता दोनों से नौकरों को खूब बख्शीश मिलती और उन की मौज ही मौज होती, लेकिन जब भी मातापिता एक दूसरे के सामने पड़ते तो कुछ पल बाद ही उन दोनों में भयंकर बहस शुरू हो जाती, कभी रुपएपैसे के हिसाब को ले कर तो कभी मुझे ले कर कि मैं किस की जिम्मेदारी हूं.

“मेरा अकेला उदास मन मेरे हमउम्र पडो़सी मदन पर आ गया था. वह हर रोज मेरी बातें सुनता, मुझे पिक्चर दिखा लाता और पढ़ाई में मेरी मदद करता. कालेज में तो मेरा एक ही सहारा था और वह था मदन.

“पर एक दिन वह मेरे घर आया और शाम को तैयार रहना कह कर मुझे एक पार्टी में ले गया जहां मुझे होश आया तो सुबह के 5 बज रहे थे. मेरे अगलबगल 2 लड़के थे, मगर मदन का कोई अतापता ही नहीं था.

“मैं समझ गई थी कि मेरे साथ क्या हुआ है. मैं वहां से भागना चाहती थी, पर मुझे किसी ने बाल पकड़ कर रोक दिया और कहा कि कार में बैठो. वे लोग मुझे किसी दूसरे शहर ले गए और शाम को एक महफिल में सजधज कर शामिल होने को कहा.

“वह किसी बड़े आदमी की दावत थी. मैं अपने मातापिता से बात करने को बेचैन थी, मगर मुझे वहां कोई गोली खिला दी गई और मेरा खुद पर कोई कंट्रोल न रहा. फिर मेरी हर शाम नाचने में ही गुजरने लगी.”

“ओह, सुमि,” कह कर दीया ने उस के हाथ पर हाथ रख दिया था. आज 2 अजनबी मिले, पर अनजान होते हुए भी कई बातें समान थीं. उन की सरलता का फायदा उठाया गया था.

“देखो सुमि, हमारे फैसले और प्राथमिकता कैसे भी हों, वे होते तो हमारे ही हैं फिर उन के कारण यह दिनचर्या कितनी भी हताशनिराश करने वाली हो, दुविधा कितना भी हैरान करे, हम सब के पास 1-2 रास्ते तो हर हाल ही में रहते ही हैं और चुनते समय हम उन में से भी सब से बेहतरीन ही चुनते हैं, पर जब नाकाम हो जाते है, तो खुद को भरम में रखते हुए कहते हैं कि और कोई रास्ता ही नही था. इस से नजात पाए बिना दोबारा रास्ता तलाशना बेमानी है,” कह कर दीया चुप हो गई थी.

अब सुमि कहने लगी, “हमारे साथ एक बात तो है कि हम ने भरोसा किया और धोखा खाया, पर आज इस बुरे वक्त में हम दोनों अब अकेले नहीं रहेंगे. हम एकदूसरे की मदद के लिए खड़े हैं.”

“हां, मैं तैयार हूं,” कह कर दीया ने योजना बनानी शुरू की. तय हुआ कि 2 दिन बाद अपना कुछ रुपया ले कर रेल पकड़ कर निकल जाएंगी. उस के बाद जो होगा देखा जाएगा, अभी इस नरक से तो निकल लें.

यह बहुत अच्छा विचार था. 2 दिन बाद इस पर अमल किया. सबकुछ आराम से हो गया. वे दोनों चंडीगढ़ आ गईं. वहां उन्होंने एक बच्चा गोद लिया.

दीया यही सोच रही थी कि कुछ आवाज सी हुई. सुमि और दिसु लौट आए थे.

सुमि ने दीया की गीली आंखें देखीं और बोली, “ओह दीया, यह अतीत में डूबनाउतरना क्या होता है, क्यों होता है, किसलिए होता है, मैं नहीं जानती, क्योंकि मैं गुजरे समय के तिलिस्म में कभी पड़ी ही नहीं. मैं वर्तमान में जीना पसंद करती हूं. बीते समय और भविष्य की चिंता में वे लोग डूबे रहते हैं, जिन के पास डूबने का और कोई साधन नहीं होता…”

“अच्छा, मेरी मां,” कह कर दीया ने सुमि को अपने गले लगा लिया.

Hindi Drama Story

Emotional Story in Hindi: सिसकती दीवारें- क्यों अकेला पड़ गया वह

Emotional Story in Hindi: सामने वाले घर में खूब चहलपहल है. आलोकजी के पोते राघव का पहला बर्थडे है. पूरा परिवार तैयार हो कर इधर से उधर घूम रहा है. घर के बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है. आलोकजी ने घर को ऐसे सजाया है जैसे किसी का विवाह हो. वैसे तो उन के घर में हमेशा ही रौनक रहती है. भरेपूरे घर में आलोकजी, उन की पत्नी, 2 बेटे और 1 बेटी, सब साथ रहते हैं. कितना अच्छा है सामने वाला घर, कितना बसा हुआ, जीवन से भरपूर. और एक मैं, लखनऊ के गोमतीनगर के सब से चहलपहल वाले इलाके में कोने में अकेला, वीरान, उजड़ा हुआ खड़ा हूं. मेरे कोनेकोने में सन्नाटा छाया है. सन्नाटा भी ऐसा कि सालों से खत्म होने का नाम नहीं ले रहा.

अब ऐसे अकेले जीना शायद मेरी नियति है. बस, हर तरफ धूलमिट्टी, जर्जर होती दीवारें, दीवारों से लटकते लंबे जाले, गेट पर लगा ताला जैसे कह रहा हो, खुशी के सब दरवाजे बंद हो चुके हैं. हर आहट पर किसी के आने का इंतजार रहता है मुझे. तरस गया हूं अपनों के चेहरे देखने के लिए, पर यादें हैं कि पीछा ही नहीं छोड़तीं.

मैं हमेशा से ऐसा नहीं था. मैं भी जीवन से भरपूर था. मेरा भी कोनाकोना चमकता था. मेरी सुंदरता भी देखते ही बनती थी. मालिक के कहकहों के साथ मेरी दीवारें भी मुसकराती थीं. सजीसंवरी मालकिन इधर से उधर पायल की आवाज करती घूमती थीं. मालिक के बेटे बसंत और शिषिर इसी आंगन में तो पलेबढ़े हैं. उन से छोटी कूहू और पीहू ने इसी आंगन में तो गुड्डेगुडि़या के खेल रचाए हैं. यह अमरूद का पेड़ मालिक ने ही तो लगाया था. इसी के नीचे तो चारों बच्चों ने अपना बचपन बिताया है.

हाय, एकएक घटना ऐसे याद आती है जैसे कल ही की बात हो. मालिक अंगरेजी के अध्यापक थे. बहुत ज्ञानी, धैर्यवान और बहुत ही हंसमुख. मालिक को पढ़नेलिखने का बहुत शौक था. कालेज से आते, खाना खा कर थोड़ा आराम करते, फिर अपने स्टडीरूम में कालेज के गरीब बच्चों को मुफ्त ट्यूशन पढ़ाते थे. कभीकभी तो उन्हें खाना भी खिला दिया करते थे. आज भी याद है मुझे उन बच्चों की आंखों में मालिक के प्रति सम्मान के भाव. जब भी मालिक को फुरसत होती, साफसफाई में लग जाते. किसी और पर हुक्म चलाते मैं ने कभी नहीं देखा उन्हें.

मालिक 50 के ही तो हुए थे तब, जब ऐसा सोए कि उठे ही नहीं. मेरा तो कोनाकोना उन की असामयिक मृत्यु पर दहाड़ें मारमार कर रोया. मालकिन के आंसू देखे नहीं जा रहे थे. शिषिर ही तो अपने पैरों पर खड़ा हो पाया था, बस. वह तो मालकिन ने हिम्मत की और बच्चों को चुप करवातेकरवाते खुद को भी संभाल लिया. याद है मुझे, मालिक के जो रिश्तेदार शोक प्रकट करने आए थे, सब धीरेधीरे यह कह कर चले गए थे कि कोई जरूरत हो तो बताना. उस के बाद तो सालों मैं ने किसी की शक्ल नहीं देखी. मालकिन भी इतिहास की टीचर थीं. मालिक के सहयोग से ही वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकी थीं. मालिक हमेशा यही तो कहते थे कि हर औरत को पढ़नालिखना चाहिए, तभी तो मालकिन मालिक के जाने के बाद सब संभाल सकीं.

चारों बच्चों के विवाह की जिम्मेदारी मालकिन ने मालिक को याद करते हुए बड़ी कुशलता से निभाई. सब अपनेअपने जीवन में व्यस्त होते जा रहे थे. बस, मैं मूकदर्शक, घर की बदलती हवा में सांस ले रहा था. घर में बदलाव की जो हवा चली थी उस में मुझे अपने भविष्य के प्रति कुछ चिंता सी होने लगी थी.

शिषिर की पोस्ंिटग दिल्ली हो गई. वह अपनी पत्नी रेखा और बेटे विपुल के साथ वहां चला गया. बसंत की पत्नी रेनू और उस की 2 बेटियों, तन्वी और शुभी से घर में बहुत रौनक रहती. कूहू और पीहू की शादी भी बहुत अच्छे घरों में हो गई. सब बच्चों की शादियों में, फिर उन के बच्चों के जन्म के समय मैं कई दिन तक रोशनी से जगमगाता रहा.

लेकिन फिर अचानक पता नहीं क्यों रेनू मालकिन से दुर्व्यवहार करने लगी. एक दिन मालकिन स्कूल से आईं तो रेनू ने उन के आराम के समय जोरजोर से टीवी चला दिया. मालकिन ने धीरे करने के लिए कहा तो रेनू ने कटु स्वर में कहा, ‘मां, आप तो बाहर से आई हैं, मैं घर के कामों से अब फ्री हुई हूं, क्या मैं थोड़ा टाइमपास नहीं कर सकती?’

मालकिन को गुस्सा आया पर वे बोलीं कुछ नहीं. फिर रोज छोटी बहू कोई न कोई बात छेड़ कर हंगामा करने लगी. मालकिन को भी गुस्सा आने लगा, बसंत से दबे शब्दों में कहा तो उस ने तो हद ही कर दी. उन्हें ही कहने लगा, ‘मां, आप को समझना चाहिए, रेनू भी क्या करे, घर के सारे काम, आप का खानापीना, कपड़े सब वह ही तो करती है.’

मालकिन की आंखों की नमी मुझे आज भी याद है, उन्होंने इतना ही कहा था, ‘उस से कह दे, कल से मेरा खाना न बनाए, मैं बना लूंगी.’ आज सोचता हूं तो लगता है मालिक शायद बहुत दूरदर्शी थे, क्या उन्हें अंदाजा था कभी यह दिन आएगा, मुझे उन्होंने इस तरह से ही बनाया था कि मेरे 2-2 कमरों के साथ 1-1 किचन था.

बसंत और रेनू शायद यही चाहते थे. 2 दिन के अंदर रेनू ने अपना किचन अलग कर लिया. मैं रो पड़ा, लेकिन मेरे आंसू तो कोई देख नहीं सकता था. बस, ऐसा लगा मालिक ने मेरी दीवारों को अपने हाथ से सहलाया हो.

हद तो तब हो गई जब बसंत ने शराब पीनी शुरू कर दी. अब वह रोज पी कर मालकिन से झगड़ा करने लगा. मालकिन का गुस्सा भी दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था. उन्हें लगता वे जब आत्मनिर्भर हैं तो क्यों किसी की बात सुनें. उन का स्वभाव भी दिन पर दिन उग्र होता जा रहा था. कूहूपीहू आतीं तो घर के बदले रंगढंग देख कर दुखी होतीं.

मालकिन ने एक दिन शिषिर को बुला कर सब बताया. उस ने बसंत को समझाया तो बसंत ने कहा, ‘मां की इतनी ही फिक्र है तो ले जाओ अपने साथ इन्हें.’

मालकिन फटी आंखों से बेटे के शब्दों के प्रहार झेलती रहीं.

बसंत गुर्राया, ‘इन्हें कहो, अपनी तनख्वाह हमें दे दिया करें, हम फिर रखेंगे इन का ध्यान.’

शिषिर चिल्लाया, ‘इतनी हिम्मत, दिमाग खराब हो गया तुम्हारा?’

दोनों में जम कर बहस हुई, नतीजा कुछ नहीं निकला. शिषिर के जाने के बाद बसंत और उपद्रव करने लगा.

मालकिन को कुछ समझ नहीं आया तो उन्होंने एक राजमिस्त्री को बुलवा कर मेरे बीचोंबीच दीवार खड़ी करवा दी, बसंत ने कहा, ‘हां, यह ठीक है, आप उधर चैन से रहो, हम इधर चैन से रहेंगे.’

और देखते ही देखते 2 दिन में मेरे 2 टुकड़े हो गए. मेरी आंखों से अश्रुधारा बह चली, मालिक को याद कर मैं फूटफूट कर रोया. ऐसा लगा मालिक बीच की दीवार को देख उदास खडे़ हैं. लगा कि काश, मालकिन और बसंत ने थोड़ा शांति से काम लिया होता तो मेरे यों 2 टुकड़े न होते.

बात यहीं थोड़े ही खत्म हुई. कुछ दिन बाद शिषिर, कूहू और पीहू आईं, मालकिन सब को देख कर खुश हुईं, शिषिर ने मालकिन, बसंत, कूहू, पीहू को एकसाथ बिठा कर कहा, ‘यह तो कोई बात नहीं हुई, इस मकान के 2 हिस्से आप लोगों ने अपने मन से कर लिए, मेरा हिस्सा कौन सा है?’

मालकिन चौंकी थीं, ‘क्या मतलब?’

‘मतलब यही, आधा आप ने ले लिया, आधा इस ने, मेरा हिस्सा कौन सा है?’

‘हिस्से थोड़े ही हुए हैं बेटा, मैं ने तो रोजरोज की किचकिच से तंग आ कर दीवार खड़ी करवा दी, मैं अपना कमातीखाती हूं, नहीं जरूरत है मुझे किसी की.’

बसंत गुर्राया, ‘बस, अब वही मेरा हिस्सा है, मेरा घर वहीं सैट हो गया.’

शिषिर ने कहा, ‘नहीं, यह नहीं हो सकता.’

कूहू बोली, ‘मां, हमें भैया ने इसलिए यहां आने के लिए कहा था. साफसाफ बात हो जाए, आजकल लड़कियों का भी हिस्सा है संपत्ति में, बसंत भैया, आधा नहीं मिल सकता आप को, घर में हमारा भी हिस्सा है.’

मालकिन सब के मुंह देख रही थीं. बसंत ने कहा, ‘दिखा दिया सब ने लालच. आ गए न सब अपनी औकात पर.’

खूब बहस हुई, मालकिन ने कहा, ‘ये झगड़े बंद करो, आराम से भी बात हो सकती है.’

बसंत पैर पटकते हुए अपने हिस्से वाली जगह में चला गया, शिषिर बाहर निकल गया, कूहूपीहू ने मां के गले में बांहें डाल दीं. बेटियों का स्नेह पा कर मालकिन की आंखें भर आई थीं. पीहू ने कहा, ‘मां, हमें गलत मत समझना, हम अपने लालची भाइयों को अच्छी तरह समझ गई हैं. हमें कुछ हिस्सा नहीं चाहिए, शिषिर भैया ने कहा था, मकान बेच देते हैं. मां किसी के साथ रहना चाहेंगी तो रह लेंगी या किराए पर रह लेंगी.’

कूहू ने कहा, ‘मां, यह घर हमें बहुत प्यारा है, हम इसे नहीं बेचने देंगी.’

मैं तो हमेशा की तरह चुपचाप सुन रहा था, घर की बेटियों पर बहुत प्यार आया मुझे.

कूहू और पीहू अगले दिन चली गई थीं. उन के जाने के बाद शिषिर इस बात पर अड़ गया कि उसे बताया जाए कि उस का हिस्सा कौन सा है, वह अपने हिस्से को बेच कर दिल्ली में ही मकान खरीदना चाहता था. झगड़ा बढ़ता ही जा रहा था. हाथापाई की नौबत आ गई थी.

अंतत: फैसला यह हुआ कि मुझे बेच कर 3 हिस्से कर दिए जाएंगे, आगे क्या करना है, इस विषय पर बहस कर शिषिर भी चला गया लेकिन फिर भी बसंत ने मालकिन को चैन से नहीं रहने दिया. थक कर मालकिन ने भी एक फैसला ले लिया, अपने हिस्से में ताला लगा कर अपना जरूरी सामान ले कर वे किराए के मकान में रहने चली गईं. मैं उन्हें आवाज देता रह गया. मेरी आहों ने किसी के दिल को नहीं छुआ. वे हवा में ही बिखर कर रह गईं.

तभी से मेरे दुर्दिन शुरू हो गए. जिस आंगन में मालिक अपनी मनमोहक आवाज में कबीर के दोहे गुनगुनाया करते थे वहां अब शराब और ताश की महफिलें जमतीं. छोटी बहू मना करती तो बसंत उस पर हाथ उठा देता. 2 भाइयों को मां के किराए पर रहने का अफसोस नहीं हुआ.

कूहू और पीहू अपने ससुराल से ही कोशिश कर रही थीं कि सब ठीक हो जाए, फिर दोनों भाइयों ने मिल कर यह फैसला किया कि बसंत भी कहीं किराए पर रहेगा जिस से थोड़ी तोड़फोड़ के बाद मेरे 3 हिस्से करने में उसे कोई परेशानी न हो. उन्होंने एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं सिर्फ ईंटपत्थर का एक मकान ही नहीं हूं, मैं वह घर हूं जिसे बनाने में मालिक ने, उन के पिता ने, एक ईमानदार सहृदय अध्यापक ने अपनी सारी मेहनत से एकएक पाई जोड़ कर मजदूरों के साथ खुद भी रातदिन लग कर कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं की थी.

हर बार मालकिन जब भी किसी काम से यहां आईं, मेरे मन का कोनाकोना खिल गया. लेकिन उन के जाते ही मैं ऐसे रोया जैसे मां अपने बच्चे को छोड़ कर चली गई हो. बसंत ने अभी जाने की जल्दी नहीं दिखाई तो शिषिर ने गुस्से में एक नोटिस भेज दिया. बात कानून तक पहुंचते ही बढ़ गई. मैं ने सुना, एक दिन शिषिर आया, कह रहा था, ‘कूहू और पीहू का क्या मतलब है मकान से. उन्हें एक घुड़की दूंगा, चुप हो जाएंगी. बस, अब तुम जल्दी जाओ यहां से. मुझे अपना हिस्सा बेच कर दिल्ली में मकान खरीदना है.’

बसंत की बातों से अंदाजा हुआ कि मालकिन भी अब यहां नहीं आना चाहतीं. मैं बुरी तरह आहत हुआ. बसंत भी चला गया. मैं खालीपन से भर गया. अब मेरे आकार, बनावट की नापतोल होने लगी. कोनाकोना नापा जाता, लोग आते मेरी बनावट, मेरे रूपरंग पर मोहित होते. एक दिन कोई कह रहा था, ‘इस घर की लड़कियां कोर्ट चली गई हैं, वे पेपर्स पर साइन नहीं कर रही हैं. सब बच्चों के साइन किए बिना मकान बिक भी तो नहीं सकता आजकल, उन्होंने केस कर दिया है.’

मैं उन की बात सुन कर हैरान रह गया, फिर एक दिन कुछ लोग आए, गेट पर एक बड़ा ताला लगा कर नोटिस चिपका कर चले गए, मेरा केस अब कानून के हाथ में चला गया है, नहीं जानता हूं कि मेरा क्या होगा.

काश, मालकिन कहीं न जातीं, बसंत भी यहीं रहता फिर मुझे वह सब देखने को नहीं मिलता जिसे देख कर मैं जोरजोर से रो रहा हूं. पिछले हफ्ते ही मेरे पीछे वाली दीवार कूद कर रात को 2 बजे 3 लड़के एक लड़की को जबरदस्ती पकड़ कर ले आए. उन्होंने लड़की के मुंह पर कपड़ा बांध दिया था. पहले लड़कों ने खूब शराब पी, फिर उस लड़की की इज्जत लूट ली. लड़की चीखने की कोशिश ही करती रह गई, दुष्ट लड़कों ने उस के हाथ भी बांध दिए थे. मैं रोकता रह गया लेकिन मेरी सुनता कौन है. मेरे अपनों ने मेरी नहीं सुनी, वे दुष्ट लड़के तो पराए थे. क्या करता. इस अनहोनी को होते देख, बस, आंसू ही बहाता रहा.

डर गया हूं मैं. क्या यह सब फिर तो नहीं देखना पडे़गा. मेरा भविष्य क्या है, मुझे नहीं पता. काश, मैं यों न उजड़ा होता. एक घरआंगन में कोमल भावनाओं, स्मृतियों व अपनत्व की अनुभूति के सिवा होता ही क्या है? मेरी आंखें झरझर बहती रहती हैं.

अरे, हैप्पी बर्थडे की आवाजें आ रही हैं. सामने राघव ने शायद केक काटा है. आह, कितनी रौनक है सामने, और यहां? नहींनहीं, मैं सामने वाले घर से ईर्ष्या नहीं कर रहा हूं, मैं तो अपने समय पर, अपने अकेलेपन पर रो रहा हूं और अपनों से पुनर्मिलन की प्रतीक्षा कर रहा हूं. सिसकती दीवारें कभी मालिक को याद करती हैं, कभी मालकिन को, कभी बच्चों को. पता नहीं कब तक यों रहना होगा, अकेले, उदास, वीरान.

Emotional Story in Hindi

Fictional Story: हस्तरेखा- शिखा ने कैसे निकाला रोहिणी की समस्या का हल

Fictional Story: अचानक ही मैं बहुत विचलित हो गई. मन इतना उद्वेलित था कि कोई भी काम नहीं कर पा रही थी. बिलकुल सांपछछूंदर जैसी स्थिति हो गई. न उगलते बनता न निगलते. मेरा अतीत यहां भी मेरे सामने आ खड़ा हुआ था.

देखा जाए तो बात बहुत छोटी सी थी. शिखा, मेरी 16 वर्षीय बेटी, शाम को जब स्कूल से लौटी तो आते ही उस ने कहा, ‘‘मां, वह शर्मीला है न.’’

मेरी आंखों में प्रश्नचिह्न देख कर उस ने आगे कहा, ‘‘अरे वही, जो उस दिन मेरे जन्मदिन पर साड़ी पहन कर आई थी.’’

हाथ की पत्रिका रख कर रसोई की तरफ जाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘हां, तो क्या हुआ उसे?’’

‘‘उसे कुछ नहीं हुआ. उस की चचेरी दीदी आई हुई हैं, मुरादाबाद से. पता है, वे हस्तरेखाएं पढ़ना जानती हैं,’’ स्कूल बैग को वहीं बैठक में रख कर जूते खोलती हुई शिखा ने कहा.

मैं चौकन्नी हो उठी. रसोई की ओर जाते मेरे कदम वापस बैठक की तरफ लौट पड़े. शिखा इस सब से अनजान अब तक जूते और मोजे उतार चुकी थी. गले में बंधी टाई खोलते हुए वह बोली, ‘‘कल रविवार है, इसलिए हम सभी सहेलियां शर्मीला के यहां जाएंगी और अपनेअपने हाथ दिखा कर उन से अपना भविष्य पूछेंगी.’’

मैं सोच में डूब गई कि आज यह अचानक क्या हो गया? मेरे भीतर एक ठंडा शिलाखंड सा आ गिरा? क्या इतिहास फिर अपनेआप को दोहराने आ पहुंचा है? क्या यह प्रकृति का विधान है या फिर मेरी अपनी लापरवाही? क्या नाम दूं इसे? क्या समझूं और क्या समझाऊं इस शिखा को? क्या यह एक साधारण सी घटना ही है, रोजमर्रा की दूसरी कई बातों की तरह? लेकिन नहीं, मैं इसे इतने हलके रूप में नहीं ले सकती.

शाम को खाना बनाते समय भी मन इसी ऊहापोह में डूबा रहा. सब्जी में मसाला डालना भूल गई और दाल में नमक. खाने की मेज पर भी सिर्फ हम दोनों ही थीं. उस की लगातार चलती बातों का जवाब मैं ‘हूंहां’ से हमेशा की ही तरह देती रही. लेकिन दिमाग पूरे समय कहीं और ही उलझा रहा. क्या इसे सीधे ही वहां जाने से मना कर दूं? लेकिन फिर खयाल आया कि उम्र के इस नाजुक दौर पर यों अपने आदेश को थोपना सही होगा?

आज तक कितना सोचसमझ कर, एकएक पग पर इस के व्यक्तित्व को निखारने का हर संभव प्रयास करती रही हूं. तब ऐसी स्थिति में यों एकदम से उस के खुले व्यवहार पर अपने आदेश का द्वार कठोरता से बंद कर पाऊंगी मैं?

नहीं, मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती. तो क्या सबकुछ विस्तार से बता कर समझाना होगा उसे? अपना ही अतीत खोल कर रख देना पडे़गा इस तरह तो. अगर मैं ऐसा कर दूं तो शिखा की नजरों में मेरा तो अस्तित्व ही बिखर जाएगा. एक खंडित प्रतिमा बन कर क्या मैं उसे वह सहारा दे सकूंगी, जो उस के लिए हवा और पानी जैसा ही आवश्यक है?

मैं आगे सोचने लगी, ‘परंतु कुछ भी हो, यों ही मैं इसे किसी भी अनजान धारा में बहते हुए चुप रह कर नहीं देख सकती. शिखा के जन्म से ले कर आज तक मनचाहा वातावरण दे कर मैं इसे वैसा ही बना पाई हूं, जैसा चाहती थी सभ्य, सुशील, संवेदनशील और आत्मविश्वास से भरपूर. अपने जीवन की इस साधना को खंडित होने से बचाना है मुझे. ‘यही सब सोचतेविचारते मैं ने रात का काम निबटाया. अखिल दफ्तर के काम से बाहर गए हुए थे. अगर वे यहां होते तो मैं इतनी उद्विग्न न होती.

अखिल मेरे मन की व्यथा जानते हैं. मेरी भावनाओं की कद्र है उन के मन में. यही सोचते हुए मैं ने बची दाल, सब्जी फ्रिज में रखी, दूध को संभाला, रसोई का दरवाजा बंद किया और आ कर अपने बिस्तर पर लेट गई. शिखा मेरे हावभाव से कुछ हैरान तो थी, एकाध बार पूछा भी उस ने पर मैं ही मुसकरा कर टाल गई. उस से बात करने से पहले मैं अपनेआप को मथ लेना चाहती थी.

अंधेरे में भी आशा की एक किरण अचानक कौंधी. मैं सोचने लगी, ‘आवश्यक तो नहीं कि शिखा के हाथ की रेखाएं उस के विश्वासों और आकांक्षाओं के प्रतिकूल ही हों पर यह भी तो हो सकता है कि ऐसा न हो. तब क्या होगा? क्या वह भी मेरी तरह…?’ यह सोच कर ही मैं सिहर उठी, जैसे ठंडे पानी का घड़ा किसी ने मेरे बिस्तर पर उड़ेल दिया हो.

मेरा अतीत चलचित्र की तरह मेरी ही आंखों के सामने घूम गया…

मैं डाक्टर बनना चाहती थी. इसलिए प्री मैडिकल टैस्ट यानी  ‘पीएमटी’ की तैयारी में जीजान से जुटी थी. 11वीं तक हमेशा प्रथम आती रही. 80 प्रतिशत से कम अंक तो कभी आए ही नहीं. आत्मविश्वास मुझ में कूटकूट कर भरा था. बड़ी ही संतुलित जिंदगी थी. मातापिता का प्यार, विश्वास, भाइयों का स्नेह, उच्चमध्यवर्ग का आरामदेह जीवन और उज्ज्वल भविष्य.

प्रथम वर्ष का परीक्षाफल आने ही वाला था. इस के 1 दिन पहले की बात है. मैं सुबह 4 बजे से उठ कर अपनी पढ़ाई में जुटी थी. 10 बजतेबजते ऊब उठी. मां पंडितजी के पास किसी काम के लिए जा रही थीं. मैं भी यों ही उन के साथ हो ली, एकाध घंटा तफरीह मारने के अंदाज में.

पंडितजी ने मां के प्रणाम का उत्तर देते ही मुझे देख कर कहा, ‘अरे, यह तो रोहिणी बिटिया है. देखो तो, कितनी जल्दी बड़ी हो गई है. कौन सी कक्षा में आ गई इस वर्ष?’

मैं ने उन्हें बताया तो सुन कर बड़े प्रसन्न हुए और बोले, ‘अच्छाअच्छा, तो पीएमटी की तैयारी चल रही है. प्रथम वर्ष का परिणाम तो नहीं आया न अभी. वह क्या है, अपना सुरेश, मेरा नाती, उस ने भी प्रथम वर्ष की ही परीक्षा दी है.’

‘पंडितजी, आजकल में परिणाम आने ही वाला है,’ मां ने ही जवाब दिया था.

मैं तो अपनी आदत के अनुरूप उन के आसपास रखी पुस्तकों में उलझ गई थी.

मेरी ओर देख कर पंडितजी मुसकराए, ‘भई, यह तो हर वर्ष पूरे जिले में अपने विद्यालय का नाम रोशन करती है. आप तो मिठाई तैयार रखिए, इस बार भी अव्वल ही आएगी.’

मां भी इस प्रशंसा से खुश थीं. वे हंस कर बोलीं, ‘मुंह मीठा तो अवश्य ही होगा आप का. आज यह साथ आ ही गई है तो हाथ बांचिए न इस का.’

मां इन सब बातों में बहुत विश्वास रखती हैं, यह मुझे मालूम था. मुझे स्वयं भी जिज्ञासा हो आई. भविष्य में झांकने की आदिम लालसा मेरे भीतर एकाएक जाग उठी. मैं ने अपना हाथ पंडितजी की ओर फैला दिया.

उन्होंने भी सहज ही मेरा हाथ पकड़ा और लकीरों की उधेड़बुन में खो गए. लेकिन जैसेजैसे समय बीतता गया, उन के माथे की लकीरें गहरी होती गईं. फिर कुछ झिझकते हुए से बोले, ‘बेटी, अपने व्यवसाय को ले कर अधिक ऊंचे सपने न देखो. बहुत अच्छा भविष्य है तुम्हारा. बहुत अच्छा घरवर…’

मैं आश्चर्यचकित उन की ओर देख रही थी और मां परेशान हो चली थीं. शायद सोच रही थीं कि नाहक इस लड़की को साथ लाई, घर पर ही रहती तो अच्छा था.

आखिर मां बोल उठीं,  ‘पंडितजी, छोडि़ए, मैं तो आप के पास किसी और काम से आई थी.’’

लेकिन अचानक मां की दृष्टि मेरे बदरंग होते चेहरे पर पड़ी और वे चुप हो गईं.

कुछ पलों की उस खामोशी में मेरे भीतर क्याक्या नहीं हुआ. पहले तो अपमान की ज्वाला से जैसे मेरे सर्वांग जल उठा. मुझे लगा, मेरे चेहरे से भाप निकल कर आसपास का सबकुछ जला डालेगी. अपने भीतर की इस आग से मैं स्वयं भयभीत थी कि अगले ही पल मेरा शरीर हिमशिला सा ठंडा हो गया. मैं पसीने से भीग गई.

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं कहां हूं और मेरे चारों ओर क्या हो रहा है. सन्नाटे के बीच मां की आवाज बहुत दूर से आती प्रतीत हुई, ‘चल, रोहिणी, तेरी तबीयत ठीक नहीं लगती. घर चलें.’

इस के बाद पंडितजी से उन्होंने क्या बोला, कब मैं खाना खा कर सो गई, मुझे कुछ याद नहीं. सब यंत्रचालित सा  होता रहा.

अगली सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं उस आरंभिक सदमे से बाहर आ चुकी थी. दिमाग की शून्यता फिर विचारों से धीरेधीरे भरने लगी थी. एकएक कर पिछले दिन का वृत्तांत मेरे सामने क्रम से आने लगा और विचार व्यवस्थित होने लगे.

मैं सोचने लगी कि यह मेरी कैसी पराजय है और क्यों? मैं तो पूरी मेहनत कर रही हूं. सामने ही तो सुखद परिणाम भी दिख रहे हैं, फिर यह सबकुछ मरीचिका कैसे बन सकता है? मैं अपने मन को दृढ़ करने के प्रयत्न में लगी थी. दरअसल, मां ने मुझे अकेला छोड़ दिया था.

पर यह सब तो मेरी जीवनसाधना पर कुठाराघात था. अब तक तो यही जाना था कि जीतोड़ कर की गई मेहनत कभी असफल नहीं होती. पर अब इस संदेह के बीज का क्या करूं? दादाजी भी तो कहते हैं कि हस्तरेखाओं में कुछ न कुछ तो लिखा ही रहता है. पर पढ़ना तो कोई विरला ही जानता है. मन को दिलासा दिया कि ंशायद पंडितजी पढ़ना जानते ही नहीं.

पर शक तो अपना फन फैलाए खड़ा था. असहाय हो कर मैं एकाएक रो पड़ी थी. पर फिर अपनेआप को संभाला, उठी और इस शक के फन को कुचलने की तैयारी में जुट गई. खूब मेहनत की मैं ने. मातापिता भी आश्वस्त थे मेरी पढ़ाई और आत्मविश्वास से. पर शक मेरे भीतर ही भीतर कुलबुला रहा था और शायद यही कुलबुलाहट उस दुर्घटना का कारण बनी.

मैं पहला पेपर देने जा रही थी. भाई मुझे परीक्षा भवन के बाहर तक छोड़ कर चला गया. अंदर जाने के लिए सड़क पार करने लगी कि जाने कहां से मेरा भविष्य निर्देशक बन एक ट्रक आया और मुझे एक जबरदस्त टक्कर लगा कर चलता बना. कुछ ही पलों में सब हो गया. समझ तब आया जब मैं हाथ में आई बाजी हार चुकी थी. अस्पताल में मेरी आंखें खुलीं. मेरे हाथों और सिर पर पट्टियां बंधी थीं. शरीर दर्द से अकड़ रहा था और मातापिता व भाई रोंआसे चेहरे लिए पास खड़े थे.

यहीं मुझ से दूसरी गलती हुई. मैं ने हार मान ली. मैं फिर उठ खड़ी होती, अगली बार परीक्षा देती तो मेरे सपने पूरे हो सकते थे. लेकिन मेरे साथसाथ घर में सभी मुझे छू कर लौटी मौत से आतंकित थे. सो, मेरे तथाकथित ‘भाग्य’ से सभी ने समझौता कर लिया. किसी ने मुझे इस दिशा में प्रोत्साहित नहीं किया. मेरा तो मन ही मर चुका था.

बीएससी 2 साल में पूरी की ही थी कि अखिल के घर से मेरे लिए रिश्ता आ गया.

अखिल को मैं बचपन से जानती थी. मैं ने ‘हां’ कर दी. उम्मीद थी, इन के साथ सुखी रहूंगी और सुखी भी रही. 18 साल हो गए विवाह को, कभी हमारे बीच कोई गंभीर मनमुटाव नहीं हुआ. घर में सभी सदस्य एकदूसरे को इज्जत व प्यार देते हैं.

मेरे मन में अपनी असफलता की फांस आरंभ में तो बहुत गहरी धंसी थी. लेकिन अखिल के प्यार ने इसे हलका कर दिया था. अनुकूल वातावरण में हृदय के घाव भर ही जाते हैं. लेकिन अनजाने में मेरी अपनी बेटी ने ही इस घाव को कुरेद कर हरा कर दिया था. मेरे सपनों, मेरी आकांक्षाओं और असफलताओं के बारे में कुछ भी तो नहीं जानती, शिखा.

मैं फिर सोच में डूब गई कि उसे किस तरह से समझाऊं. खुद की की गई गलतियां मैं उसे दोहराते हुए नहीं देख सकती थी. ऐसा नहीं कि मैं अपनी आकांक्षाएं उस के द्वारा पूरी कर लेना चाहती थी, लेकिन उस के अपने सपने मैं किसी भी सूरत में पूरे होते देखना चाहती थी. इस के लिए मुझे दुविधा के इस घेरे से बाहर निकलना ही था.

मैं बिस्तर से उठ खड़ी हुई. सोचा कि अभी देखूं शिखा क्या कर रही है? उस के कमरे का दरवाजा खुला था, बत्ती जल रही थी. मेज पर झुकी हुई शायद वह गणित के सूत्रों में उलझी हुई थी.

नंगे पैर जाने के कारण मेरे कदमों की आहट वह नहीं सुन सकी थी.

‘‘शिखा, सोई नहीं अभी तक?’’ मैं ने पूछा तो वह चौंक उठी.

‘‘ओह मां, आप भी, कैसे चुपके से आईं. डरा ही दिया मुझे. अभी तो सवा 11 ही हुए हैं. आप क्यों नहीं सोईं’’, झुंझलाते हुए वह मुझ से ही प्रश्न कर बैठी.

मैं धीरे से बोली, ‘‘बेटी, कल तुम शर्मीला के घर जाना चाहती हो न? उस की बहन, जो ज्योतिष…’’

‘‘अरे हां, लेकिन इस वक्त, यह कोई बात है करने की. यह तो फालतू की बात है. मैं तो विश्वास भी नहीं करती. बस, ऐसे ही थोड़ा सा परेशान करेंगे दीदी को,’’ शैतानी से हंसते हुए वह बोली.

मेरे चेहरे की तनी हुई रेखाओं को शायद ढीला पड़ते उस ने देख लिया था. तभी एकाएक गंभीर हो उठी और बोली, ‘‘मां, मालूम है, पिताजी क्या कहते हैं?’’

‘‘क्या?’’ मैं समझ नहीं पा रही थी किस संदर्भ में बात करना चाहती है मेरी शिखा.

‘‘पिताजी कहते हैं कि इंसान, उस की इच्छाशक्ति और उस की मेहनत, ये सब हर चीज से ऊपर होते हैं.’’

अपनी मासूम बिटिया के मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर मैं रुई के फाहे सी हलकी हो गई.

अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेटते हुए मैं ने अनुभव किया कि शिखा मुझ पर नहीं गई, यह तो लाजवाब है. लेकिन नहीं, यह लड़की लाजवाब नहीं, यह तो मेरा जवाब है. फिर मुसकराते हुए मैं नींद के आगोश में समा गई.

Fictional Story

Short Story in Hindi: आत्मग्लानि- आखिर क्यों घुटती जा रही थी मोहनी

Short Story in Hindi: मधु ने तीसरी बार बेटी को आवाज दी,  ‘‘मोहनी… आ जा बेटी, नाश्ता ठंडा हो गया. तेरे पापा भी नाश्ता कर चुके हैं.’’

‘‘लगता है अभी सो रही है, सोने दो,’’ कह कर अजय औफिस चले गए.

मधु को मोहनी की बड़ी चिंता हो रही थी. वह जानती थी कि मोहनी सो नहीं रही, सिर्फ कमरा बंद कर के शून्य में ताक रही होगी.

‘क्या हो गया मेरी बेटी को? किस की नजर लग गई हमारे घर को?’ सोचते हुए मधु ने फिर से आवाज लगाई. इस बार दरवाजा खुल गया. वही बिखरे बाल, पथराई आंखें. मधु ने प्यार से उस के बालों में हाथ फेरा और कहा, ‘‘चलो, मुंह धो लो… तुम्हारी पसंद का नाश्ता है.’’

‘‘नहीं, मेरा मन नहीं है,’’ मोहनी ने उदासी से कहा.

‘‘ठीक है. जब मन करे खा लेना. अभी जूस ले लो. कब तक ऐसे गुमसुम रहोगी. हाथमुंह धो कर बाहर आओ लौन में बैठेंगे. तुम्हारे लिए ही पापा ने तबादला करवाया ताकि जगह बदलने से मन बदले.’’

‘‘यह इतना आसान नहीं मम्मी. घाव तो सूख भी जाएंगे पर मन पर लगी चोट का क्या करूं? आप नहीं समझेंगी,’’ फिर मोहनी रोने लगी.

‘‘पता है सबकुछ इतनी जल्दी नहीं बदलेगा, पर कोशिश तो कर ही सकते हैं,’’ मधु ने बाहर जाते हुए कहा.

‘‘कैसे भूल जाऊं सब? लाख कोशिश के बाद भी वह काली रात नहीं भूलती जो अमिट छाप छोड़ गई तन और मन पर भी.’’

मोहनी को उन दरिंदों की शक्ल तक याद नहीं, पता नहीं 2 थे या 3. वह अपनी सहेली के घर से आ रही थी. आगे थोड़े सुनसान रास्ते पर किसी ने जान कर स्कूटी रुकवा दी थी. जब तक वह कुछ समझ पाती 2-3 हाथों ने उसे खींच लिया था. मुंह में कपड़ा ठूंस दिया. कपड़े फटते चले गए… चीख दबती गई, शायद जोरजबरदस्ती से बेहोश हो गई थी. आगे उसे याद भी नहीं. उस की इसी अवस्था में कोई गाड़ी में डाल कर घर के आगे फेंक गया और घंटी बजा कर लापता हो गया था.

मां ने जब दरवाजा खोला तो चीख पड़ीं. जब तक पापा औफिस से आए, मां कपड़े बदल चुकी थीं. पापा तो गुस्से से आगबबूला हो गए. ‘‘कौन थे वे दरिंदे… पहचान पाओगी? अभी पुलिस में जाता हूं.’’

पर मां ने रोक लिया, ‘‘ये हमारी बेटी की इज्जत का सवाल है. लोग क्या कहेंगे. पुलिस आज तक कुछ कर पाई है क्या? बेकार में हमारी बच्ची को परेशान करेंगे. बेतुके सवाल पूछे जाएंगे.’’

‘‘तो क्या बुजदिलों की तरह चुप रहें,’’ ‘‘नहीं मैं यह नहीं कह रही पर 3 महीने बाद इस की शादी है,’’ मां ने कहा.

पापा भी कुछ सोच कर चुप हो गए. बस, जल्दी से तबादला करवा लिया. मधु अब साए की तरह हर समय मोहनी के साथ रहती.

‘‘मोहनी बेटा, जो हुआ भूल जाओ. इस बात का जिक्र किसी से भी मत करना. कोई तुम्हारा दुख कम नहीं करेगा. मोहित से भी नहीं,’’ अब जब भी मोहित फोन करता. मां वहीं रहतीं.

मोहित अकसर पूछता, ‘‘क्या हुआ? आवाज से इतनी सुस्त क्यों लग रही हो?’’ तब मां हाथ से मोबाइल ले लेतीं और कहतीं, ‘‘बेटा, जब से तुम दुबई गए हो, तभी से इस का यह हाल है. अब जल्दी से आओ तो शादी कर दें.’’

‘‘चिंता मत करिए. अगले महीने ही आ रहा हूं. सब सही हो जाएगा.’’

मां को बस एक ही चिंता थी कहीं मैं मोहित को सबकुछ बता न दूं. लेकिन यह तो पूरी जिंदगी का सवाल था. कैसे सहज रह पाएगी वह? उसे तो अपने शरीर से घिन आती है. नफरत सी हो गई है, इस शरीर और शादी के नाम से.

‘‘सुनो, हमारी जो पड़ोसिन है, मिसेज कौशल, वह नाट्य संगीत कला संस्था की अध्यक्ष हैं. उन का एक कार्यक्रम है दिल्ली में. जब उन्हें मालूम हुआ कि तुम भी रंगमंच कलाकार हो तो, तुम्हें भी अपने साथ ले कर जाने की जिद करने लगी. बोल रही थी नया सीखने का मौका मिलेगा.’’

‘‘सच में तुम जाओ. मन हलका होगा. 2 दिन की ही तो बात है,’’ मां तो बस, बोले जा रही थीं. उन के आगे मोहनी की एक नहीं चली.

बाहर निकल कर सुकून तो मिला. काफी लड़कियां थीं साथ में. कुछ बाहर से भी आई थीं. उस के साथ एक विदेशी बाला थी, आशी. वह लंदन से थी. दोनों साथ ठहरे थे, एक ही कमरे में. जल्दी ही मोहनी और वे दोस्त बन गए, पर फिर भी मोहनी अपने दुख के कवच से निकल नहीं पा रही थी. एक रात जब वे होटल के कमरे में आईं तो मोहनी उस से पूछ बैठी, ‘‘आशी, तुम भी तो कभी देर से घर ती होंगी? तुम्हें डर नहीं लगता?’’

‘‘डर? क्यों डरूं मैं? कोई क्या कर लेगा. मार देगा या रेप कर लेगा. कर ले. मैं तो कहती हूं, जस्ट ऐंजौय.’’

‘‘क्या? जस्ट ऐंजौय…’ मोहनी का मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘अरे, कम औन यार. मेरा मतलब है कोई रेप करे तो मैं क्यों जान दूं? मेरी क्या गलती? दूसरे की गलती की सजा मैं क्यों भुगतूं. हम मरने के लिए थोड़ी आए हैं. वैसे भी जो डर गया समझो मर गया.’’

आशी की बात से मोहनी को संबल मिला. उसे लगा आज कितने दिन बाद दुख के बादल छंटे हैं और उसे इस आत्मग्लानि से मुक्ति मिली है. फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़ीं.

Short Story in Hindi

Ridhima Pandit: बोल्ड एक्ट्रेस की ग्लैमरस एंट्री, रोमांस और ड्रामा का नया ट्विस्ट

Ridhima Pandit: छोटे पर्दे की रोबोट बहू के नाम से फेमस एक्ट्रेस रिद्धिमा पंडित सोनी सब के ‘उफ़्फ़… ये लव है मुश्किल’ शो की कहानी में शामिल हो रही हैं. इसमें वो लता का रोल निभा रही है.

खूबसूरत और ग्लैमरस रोल

अपने नए किरदार के बारे में बात करते हुए रिद्धिमा पंडित ने कहा, “लता का किरदार मुझे उसकी जटिलता के कारण बहुत आकर्षक लगा. वह खूबसूरत और ग्लैमरस है, लेकिन उसकी पहचान सिर्फ यही नहीं है. वह समझदार, रणनीतिक और धाराप्रवाह बोलने वाली है, जो परिस्थितियों को अपने हिसाब से मोड़ना जानती है.

एक नजर रिद्धिमा के करियर पर –

रिद्धिमा पंडित ने 2016 में आए शो ‘बहू हमारी रजनी कांत’ से डेब्यू किया था. लेकिन इससे पहले इन्होंने कई बड़े ब्रांड्स के लिए बतौर मॉडल काम किया था. डेब्यू शो के लिए इन्हे गोल्ड अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था. इन्होंने ‘खतरों के खिलाड़ी 9’ किया था और सेकेंड रनर-अप रही थीं. वहीं, ‘बिग बॉस ओटीटी सीजन 1’ भी किया लेकिन जल्द ही शो से आउट हो गई थीं. इसके अलावा रिधिमा ने डांस चैंपियंस भी होस्ट किया है.

सोशल मीडिया पर लाइमलाइट बटोरती-

बोल्ड एक्ट्रेस रिद्धिमा पंडित अक्सर प्रोफेशनल लाइफ से ज्यादा पर्सनल लाइफ को लेकर सुर्खियों में रहती हैं. इसके अलावा वह अपनी हॉट एंड ग्लैमर स्टाइल से इंटरनेट पर तहलका मचाती रहती हैं. अपने बोल्ड और स्टनिंग लुक्स के चलते सोशल मीडिया पर लाइमलाइट बटौरती रहती हैं. उनका हर एक लुक इंटरनेट पर शेयर होते ही तेजी से वायरल होने लगता है.

Ridhima Pandit

Amitabh Bachchan: 82 साल की उम्र में दालचावल और आलू खाकर हैं फिट

Amitabh Bachchan: 82 वर्ष की उम्र में कई बीमारियां होने के बावजूद, बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन इतना फिट और ऊर्जा से भरपूर कैसे हैं? यह बात हर कोई जानना चाहता है कि बिग बी ऐसा क्या खाते हैं? उनकी इस एनर्जी का राज क्या है? राज से पर्दा हटाते हुए अमिताभ बच्चन ने एक इंटरव्यू में बताया कि उनकी सेहत का राज कोई हेल्थ सप्लीमेंट या डाइट फूड नहीं बल्कि वह खाना हैं जो वे बचपन से खाते आए हैं.

अमित जी के अनुसार, “मैं बहुत ज्यादा फूडी नहीं हूं, सादा खाना ही पसंद है. मैं पूरी तरह से शाकाहारी हूं. मेरा फेवरेट फूड दाल चावल और आलू की सब्जी है, जो मैं कभी भी खाने के लिए तैयार रहता हूं. यह खाना मैंने बचपन से खाया है. दाल चावल और आलू की सब्जी खाने के बाद सिर्फ पेट हीं नहीं भरता, बल्कि आत्मा भी तृप्त हो जाती है.

मुझे रोजमर्रा की जिंदगी में भी ऐसा ही खाना पसंद है जो आराम से डाइजेस्ट हो जाए मजेदार भी हो. अब उम्र हो रही है इसलिए खाने में सावधानी बरतना भी जरूरी हो गया है. मैं खाने के साथ-साथ अपने जिम इंस्ट्रक्टर के साथ हल्की-फुल्की एक्सरसाइज और योग जरूर करता हूं.” सच बात तो ये है कि अगर आप हल्का-फुल्का खाना और योगा अगर नियमित रूप से करते हैं, तो आपका शरीर हमेशा स्वस्थ और तंदुरुस्त रह सकता है.

अमिताभ बच्चन का वर्कआउट रूटीन

अमिताभ बच्चन वर्कआउट रूटीन में जरा भी लापरवाही नहीं बरतते हैं. वह वेट ट्रेनिंग और जॉगिंग जैसी एक्सरसाइज करते हैं.  मेंटल हेल्थ सही रखने के लिए 8 घंटे की प्रॉपर नींद लेते हैं. सुबह जल्दी उठकर वर्कआउट करते हैं. इसके अलावा फिजिकल स्ट्रैंथ मसल ट्रेनिंग के अलावा स्ट्रेस मैनेजमेंट के लिए योग और मेडिटेशन का सहारा लेते हैं. खाने में शक्कर का इस्तेमाल वह बिल्कुल नहीं करते.

सुबह में खाली पेट दो गिलास गुनगुना पानी पीते हैं, एक कप आवले का जूस पीते हैं, वह चाय, कॉफी, सॉफ्ट ड्रिंक बिल्कुल नहीं लेते, बल्कि फ्रेश फ्रूट का जूस और हरी सब्जियों का सूप लेना पसंद करते हैं. अमित जी शराब का सेवन भी नहीं करते और 20 मिनट की वॉक जरूर करते हैं.

अमित जी के अनुसार उनके बाबूजी कहां करते थे, “अगर जीवन में स्वस्थ और खुश रहना है तो सादा जीवन उच्च विचार रखने की कोशिश करो, क्योंकि आपकी अच्छी और पॉजिटिव सोच आपकी जिंदगी को आसान बना देती है. चाहे कितनी ही मुसीबत आ जाए आपकी अच्छी सोच आपको कभी हारने नहीं देती, अपने बाबूजी की यह बात मैंने गांठ बांध ली है. उसी को फॉलो करते हुए मैंने अपनी अब तक की जिंदगी बिताई है और आगे भी अपने बाबूजी की दी हुई शिक्षा को हमेशा फॉलो करुंगा.

Amitabh Bachchan

Wife’s Extramarital Affair: पति, पत्नी के प्रेमी को सहज स्वीकार कर लें

Wife’s Extramarital Affair: पति और पत्नी का रिश्ता एक सामाजिक और कानूनी रूप से मान्य बंधन है, जबकि प्रेमी और प्रेमिका का रिश्ता भावनात्मक और व्यक्तिगत होता है. कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है कि पति को पत्नी के प्रेमी को सहज में लेना पड़ता है.

दरअसल, आज पतिपत्नी दोनों कमा रहे हैं. पत्नी सरकारी स्कूल में टीचर है. वहां उस का किसी से अफेयर चल रहा है. पति बेचारा क्या करेगा. बच्चों के लिए साथ रहना भी जरूरी है इसलिए छोड़ भी नहीं पा रहा है. पत्नी कहती है कि तुम मुझे छोड़ना चाहते हो तो छोड़ दो. लेकिन तलाक ले कर तुम करोगे क्या? अब मैं तुम्हारा घर तो संभालती हूं न. तलाक दोगे तो एलिमनी भी देनी पड़ेगी. दूसरा, इस उम्र में अब कोई दोबारा तो तुम से शादी करेगी नहीं. मेरा तो प्रेमी है में उस के साथ घर बसा लूंगी, तुम कहां ढूंढ़ते रहोगे एक पार्टनर. तुम्हारे पास तो घर संभालने वाली औरत भी नहीं बचेगी.

यह स्थिति बिलकुल ऐसी ही है जैसे एक ऐक्सीडेंट में आप का हाथ काट जाए तो आप क्या करते हैं? उसी बौडी के साथ मैनेज करते हैं न. पूरी बौडी को तो नहीं फेक देते. इसी तरह पत्नी की यह बाहर की लाइफ है. आप पत्नी के साथ घर पर एक लाइफ अलग से जिएं. आइए, जानें कैसे जिएं ऐसी जिंदगी :

पत्नी आप की मिल्कियत नहीं

अगर आप को लगता है कि शादी कर के आप ने पत्नी को खरीद लिया है और जिंदगीभर के लिए अब उस पर आप का मालिकाना हक हो गया है तो भूल जाएं। पत्नी की अपनी मरजी है। उसे अगर लगता है कि अब वह आप से प्यार नहीं करती और किसी और के साथ उसे ज्यादा अच्छा लग रहा है, वह ज्यादा सुकून महसूस कर रही है तो आप ऐसे ऐसा न करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते क्योंकि आज की पत्नी आप पर आश्रित नहीं है। वह भी कमा रही है. किसी पर बोझ नहीं है. इसलिए वह जो चाहे कर सकती है.

मुश्किल है पर असंभव नहीं

इस बात को हजम करना वाकई बड़ा मुश्किल है कि अब आप के बच्चों की मां को किसी और से प्यार हो गया है और आप के लिए न उसे छोड़ते बन रहा है और न ही साथ रखते बन रहा है. लेकिन यह फैसला तो लेना ही होगा. पत्नी को देख हर वक्त के गुस्से से कुछ नहीं होने वाला. तलाक लेना ही कौन सा आसान है तो फिर साथ रहने का फैसला कर लिया है तो चीजों को उसी तरह से हैंडल करें. धीरेधीरे आप भी यूज टू हो जाएंगे. वैसे भी गुस्सा पत्नी पर आता है पर अब वह पत्नी कहां रही, अब तो वह केवल आप के बच्चों की मां है. उसे उसी नजर से देखें और बरदाश्त कर लें.

घर टूटने से बच जाएगा

अगर तलाक लिया तो घर टूट जाएगा. पत्नी के हाथ में तो उस का बौयफ्रैंड है. लेकिन आप का हाथ खाली है और तलाक के बाद एक अच्छी पत्नी की तलाश करना बहुत मुश्किल है. पता चला, पूरी जिंदगी अकेले काटनी पङ रही है या फिर कोई इस से भी बेकार पत्नी आ जाए तो जिंदगी बेकार है. बच्चे भी मुश्किल में पङ जाएंगे। इसलिए  ऐसा करने से पहले 100 बार सोचें.

बच्चों के लिए तो गुजारा करना ही पड़ता है

बच्चे अकेले आप के नहीं हैं, पत्नी के भी हैं और अब वह आप से प्यार नहीं करती. ऐसे में अफेयर होने के बाद भी आप के साथ रहने का फैसला करना उस के लिए भी उतना ही मुश्किल है जितना आप के लिए. लेकिन बच्चों के लिए सब करना पड़ता है. इसलिए स्थिति को समझें और साथ बैठ कर इस का कोई हल निकालें।

पत्नी भी समझे अपनी जिम्मेदारियां

पत्नी के प्रेमी को पति स्वीकार कर रहा है और उसे तलाक नहीं दे रहा. यह बहुत बड़ी बात है. जब वह इस रिश्ते को निभा रहा है तो आप को भी तो अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटना चाहिए. घर के काम आप पहले जैसे करती थीं वैसे ही करें. घर को संभालती थीं टाइम से, बच्चों और पति को खाना दे रही थीं, तो अभी भी दें. पति के बीमार होने पर उस की देखभाल भी करें क्योंकि न भूलें कि आप अभी भी उन के घर में रह रही हैं. अपनी किसी जिम्मेदारी से पल्ला न झाड़ें.

अपने रिश्ते के दायरे तय करें

अगर साथ रहने का सोच ही लिया है, तो उसे पहले जैसे ही अपना घर समझ कर रहें. आप को जो करना है घर के बाहर करें. घर में अपने बौयफ्रैंड को बुलाने की इजाजत आप को नहीं है. घर में हर वक्त उस से फोन पर बात करना भी गलत है. घर पर उस का जिक्र करना भी ठीक नहीं है. आप का जो भी रिश्ता है उसे बाहर निभाएं, वह घर तक नहीं आना चाहिए.

इसी तरह अगर पति भी किसी के साथ डेट कर रहा है तो उस का जिक्र भी घर में न करें. इस से बच्चों को इन्सिक्योरिटी होगी कि हमारे मांबाप अपनाअपना सोच रहे हैं, अब हमारा क्या होगा.

लड़ाईझगड़ा किसी समस्या का हल नहीं

जब यह सोच ही लिया है कि साथ रहना है, तलाक नहीं लेना तो हर वक्त एकदूसरे को ताने मारने से कुछ हासिल नहीं होगा. इस के बजाए सोचें कि इस तरह आगे का जीवन आप कैसे चलाने वाले हैं. जिन चीजों को बदल नहीं सकते उन पर अफसोस करना बेकार है. बल्कि बिना झगड़े एकदूसरे को कैसे बरदाश्त किया जाए इस के बारे में सोचें.

बच्चों पर गलत असर न पड़े

आखिर इस तरह इस रिश्ते में रहने का मकसद एक ही है कि बच्चे परेशान न हों. लेकिन अगर रोज आप बच्चों के सामने पत्नी को उस के अफेयर का ताना देंगे या पत्नी आप को बेकार बताएगी तो बच्चे और भी ज्यादा दुखी होंगे और गलत सीखेंगे. इसलिए जो भी बात करनी है घर से बहार जा कर करें या जब बच्चे न हों तब करें. बच्चों के सामने घर के माहौल को बिलकुल सही बनाए रखें, तभी फायदा है.

Wife’s Extramarital Affair

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