शर्म की बात

औफिस में घुसते ही मोहन को लगा कि सबकुछ ठीक नहीं है. उसे देखते ही स्टाफ के 2-3 लोग खड़े हो गए व नमस्कार किया, पर उन के होंठों पर दबी हुई मुसकान छिपी न रह सकी. अपने केबिन की तरफ न बढ़ कर मोहन वहीं ठिठक गया. उस का असिस्टैंड अरविंद आगे बढ़ा. ‘‘क्या बात है?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘राम साहब की पत्नी आई हैं. आप से मिलना चाहती हैं. मैं ने उन्हें आप के केबिन में बिठा दिया है.’’

‘‘अच्छा… पर वे यहां क्यों आई हैं?’’ मोहन ने फिर पूछा.

‘‘पता नहीं, सर.’’

‘‘राम साहब कहां हैं?’’

‘‘वे तो… वे तो भाग गए.’’

‘‘क्या…’’ मोहन ने पूछा, ‘‘कहां भाग गए?’’

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बाकी स्टाफ की मुसकराहट अब खुल गई थी. 1-2 ने तो हंसी छिपाने के लिए मुंह घुमा लिया.

‘‘पता नहीं. राम सर नहा रहे थे जब उन की पत्नी आईं. राम सर जैसे ही बाथरूम से बाहर आए, उन्होंने अपनी पत्नी को देखा तो वे फौरन बाहर भाग गए. कपड़े भी नहीं पहने. अंडरवियर पहने हुए थे.’’

‘‘लेकिन, राम साहब यहां क्यों नहा रहे थे? वे अपने घर से नहा कर क्यों नहीं आए?’’

‘‘अब मैं क्या बताऊं… वे तो अकसर यहीं नहाते हैं. अपनी पत्नी से उन की कुछ बनती नहीं है.’’

माजरा कुछ समझ में न आता देख मोहन ने अपने केबिन की तरफ कदम बढ़ा दिए.

राम औफिस में सीनियर क्लर्क थे. सब उन्हें राम साहब कहते थे. आबनूस की तरह काला रंग व पतली छड़ी की तरह उन का शरीर था. उन का वजन मुश्किल से 40 किलो होगा. बोलते थे तो लगता था कि घिघिया रहे हैं. उन की

6 बेटियां थीं.

इस बारे में भी बड़ा मजेदार किस्सा था. उन के 3 बेटियां हो चुकी थीं, पर उन्हें बेटे की बड़ी लालसा थी. उन के एक दोस्त थे. उन की भी 3 बेटियां थीं. सभी ने कहा कि इस महंगाई के समय में 3 बेटियां काफी हैं इसलिए आपरेशन करा लो. लेकिन दोनों दोस्तों ने तय किया कि वे एकएक चांस और लेंगे. अगर फिर भी बेटा न हुआ तो आपरेशन

करा लेंगे.

दोनों की पत्नियां फिर पेट से हुईं. दोस्त के यहां बेटी पैदा हुई. उस ने वादे के मुताबिक आपरेशन करा लिया. कुछ समय बाद राम के यहां जुड़वां बेटियां हुईं. पर

उन्होंने वादे के मुताबिक आपरेशन नहीं कराया क्योंकि अब उन

का कहना था कि जहां नाश वहां सत्यानाश सही. जहां 5 हुईं वहां और भी हो जाएंगी तो क्या हो जाएगा. फिर छठी बेटी भी हो गई. सुनते हैं कि उस दोस्त से राम की बोलचाल बंद है. वह इन्हें गद्दार कहता है.

मोहन ने अपने केबिन का दरवाजा खोल कर अंदर कदम रखा. सामने की कुरसी पर जो औरत बैठी थीं उन का वजन कम से कम डेढ़ क्विंटल तो जरूर होगा. वे राम साहब की पत्नी थीं. उन का रंग राम साहब से ज्यादा ही आबनूसी था. उन के पीछे अलगअलग साइजों की 5 लड़कियां खड़ी थीं. छठवीं उन की गोद में थी.

मोहन को देखते ही वे एकदम से उठीं और लपक कर मोहन के पैर पकड़ लिए. यह देख वह हक्काबक्का रह गया.

‘‘अरे, क्या करती हैं आप. मेरे पैर छोडि़ए,’’ मोहन ने पीछे हटते हुए कहा.

वे बुक्का फाड़ कर रो पड़ीं. उन को रोते देख पांचों लड़कियां भी रोने लगीं.

मोहन ने डांट कर सभी को चुप कराया. वह अपनी कुरसी पर पहुंचा

व घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया.

6 गिलास पानी मंगवाया. साथ ही, चाय लाने को भी कहा. पानी आते ही वे सभी पानी पर टूट पड़ीं.

थोड़ी देर बाद मोहन ने पूछा. ‘‘कहिए, क्या बात है?’’

‘‘साहब, हमारे परिवार को बचा लीजिए…’’ इतना कह कर राम साहब की पत्नी फिर रो पड़ीं, ‘‘अब हमें आप का ही सहारा है.’’

‘‘क्या हो गया? क्या कोई परेशानी

है तुम्हें?’’

‘‘जी, परेशानी ही परेशानी है. मैं लाचार हो गई हूं. अब आप ही कुछ भला कर सकते हैं.’’

‘‘देखिए, साफसाफ बताइए. यह घर नहीं, औफिस है…’’ मोहन ने समझाया, ‘‘कोई औफिस की बात हो तो बताइए.’’

‘‘सब औफिस का ही मामला है साहब. अब इन 6-6 लड़कियों को ले कर मैं कहां जाऊं. इन का गला घोंट दूं या हाथपैर बांध कर किसी कुएं में फेंक दूं.’’

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‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं. इन का खयाल रखने को राम साहब तो हैं ही.’’

‘‘वे ही अगर खयाल रखते तो रोना ही क्या था साहब.’’

अब मोहन को उलझन होने लगी, ‘‘देखिए, मेरे पास कई जरूरी काम हैं. आप को जोकुछ भी कहना है, जरा साफसाफ कहिए. आप हमारे स्टाफ की पत्नी हैं. हम से जो भी हो सकेगा, हम जरूर करेंगे.’’

‘‘अब कैसे कहें साहब, हमें तो शर्म आती है.’’

‘‘क्या शर्म की कोई बात है?’’

‘‘जी हां, बिलकुल है.’’

‘‘राम साहब के बारे में?’’

‘‘और नहीं तो क्या, वे ही तो सारी बातों की जड़ हैं.’’

मोहन को हैरानी हुई. इस औरत के सामने तो राम साहब चींटी जैसे हैं. वे इस पर क्या जुल्म करते होंगे. यह अगर उन का हाथ कस कर पकड़ ले तो वे तो छुड़ा भी न पाएंगे.

‘‘मैं फिर कहूंगा कि आप अपनी बात साफसाफ बताएं.’’

‘‘उन का किसी से चक्कर चल रहा है साहब…’’ वे फट पड़ीं, ‘‘न उम्र का लिहाज है और न इन 6 लड़कियों का. मैं तो समझा कर, डांट कर और यहां तक कि मारकुटाई कर के भी हार गई, पर वे सुधरने का नाम ही नहीं लेते हैं.’’

मोहन को हंसी रोकने के लिए मुंह नीचे करना पड़ा और फिर पूछा, ‘‘क्या आप को लगता है कि राम साहब कोई चक्कर चला सकते हैं? कहीं आप को कोई गलतफहमी तो नहीं हो रही है?’’

‘‘आप उन की शक्लसूरत या शरीर पर न जाइए साहब. वे पूरे घुटे हुए हैं. ये 6-6 लड़कियां ऐसे ही नहीं हो गई हैं.’’

मोहन को हंसी रोकने के लिए दोबारा मुंह नीचे करना पड़ा. तभी चपरासी चाय ले आया. सभी लड़कियों ने, राम साहब की पत्नी ने भी हाथ बढ़ा कर चाय ले ली व तुरंत पीना शुरू कर दिया.

‘‘राम साहब ने कपड़े मांगे हैं,’’ चपरासी ने उन से कहा.

मोहन ने देखा कि बड़ी बेटी के हाथ में एक पैंट व कमीज थी.

‘‘कपड़े तो हम उन्हें न देंगे. उन से कह दो कि ऐसे ही नंगे फिरें…’’ राम साहब की पत्नी गुस्से से बोलीं, ‘‘उन की अब यही सजा है. वे ऐसे ही सुधरेंगे.’’

‘‘राम साहब नंगे नहीं हैं. कच्छा पहने हुए हैं,’’ चपरासी ने कहा.

‘‘अगर तुम मेरे भाई हो तो जाओ वह भी उतार लाओ,’’ वे बोलीं.

‘‘राम साहब कहां हैं?’’ मोहन ने चपरासी से पूछा.

‘‘सामने चाय की दुकान पर चाय पी रहे हैं. बड़ी भीड़ लगी है वहां साहब.’’

‘‘जाओ, उन्हें यहां बुला लाओ.’’

‘‘वे नहीं आएंगे साहब. कहते हैं कि उन्हें शर्म आती है.’’

‘‘चाय की दुकान पर उन्हें शर्म नहीं आ रही है? जाओ और उन से कहो कि मैं बुला रहा हूं.’’

‘‘अभी बुला लाता हूं साहब,’’ चपरासी ने जोश में भर कर कहा.’’

‘‘अब तो आप ने देख लिया साहब…’’ वे आंखों में आंसू भर कर बोलीं, ‘‘हम लोग यहां तड़प रहे हैं और वे आराम से वहां कच्छा पहने चाय पी रहे हैं.’’

‘‘पर, आप ने भी तो हद कर दी…’’ मोहन को कहना पड़ा, ‘‘उन के कपड़े क्यों छीन लिए?’’

‘‘आदमी औफिस में काम करने आता है कि नहाने. घर में न नहा कर दफ्तर में नहाने की अब यही सजा है. सुबहसुबह तो उस कलमुंही रेखा से मिलने के लिए जल्दी से निकल गए थे. अब दफ्तर में तो नहाएंगे ही. ठीक है, आज दिनभर कच्छा पहने ही काम करें.’’

तभी लोगों ने ठेल कर राम साहब को केबिन के अंदर कर दिया. मोहन उन्हें सिर्फ कच्छा पहने पहली बार देख रहा था. उन का शरीर दुबलापतला था. पसली की एकएक हड्डी गिनी जा सकती थी. सूखेसूखे हाथपैर टहनियों जैसे थे. उन के काले शरीर पर एकदम नई पीले रंग की कट वाली अंडरवियर चमक रही थी.

‘‘इन्हें इन के कपड़े दे दो,’’ मोहन ने बड़ी लड़की से कहा.

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‘‘हम न देंगे…’’ वह लड़की पहली बार बोली, ‘‘अम्मां मारेंगी.’’

‘‘प्लीज, इन के कपड़े इन्हें दिला दीजिए…’’ मोहन ने उन से कहा, ‘‘यह ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘देदे री. देती क्यों नहीं. साहब कह रहे हैं, तब भी नहीं देती. दे जल्दी.’’

लड़की ने हाथ बढ़ा कर कपड़े राम साहब को दे दिए. उन्होंने जल्दीजल्दी कपड़े पहन लिए.

मोहन ने कहा, ‘‘बैठिए, आप की पत्नी जो बता रही हैं, अगर वह सही है तो वाकई बड़ी गलत बात है.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है साहब. यह बिना वजह शक करती है.’’

‘‘शर्म नहीं आती झूठ बोलते हुए,’’ उन की पत्नी तड़पीं, ‘‘कह दो रेखा का कोई चक्कर नहीं है.’’

‘‘नहीं है. वह तो तभी खत्म हो गया था, जब तुम ने अपनी कसम दिलाई थी.’’

‘‘और राधा का?’’

‘‘राधा यहां कहां है. वह तो अपनी ससुराल में है.’’

‘‘और वह रामकली, सुषमा?’’

‘‘क्यों बेकार की बातें करती हो… सब पुरानी बातें हैं. कब की खत्म हो चुकी हैं.’’

मोहन हक्काबक्का सुनता रहा. राम साहब के हुनर से उसे जलन होने लगी थी.

‘‘देखो, तुम साहब के सामने बोल रहे हो.’’

‘‘मैं साहब के सामने झूठ नहीं बोल सकता…’’ राम साहब ने जोश में कहा, ‘‘साहब जो भी कहें, मैं कर सकता हूं.’’

‘‘साहब जो कहेंगे मानोगे?’’

‘‘हां, बिलकुल.’’

‘‘साहब कहेंगे तो तुम रेखा से राखी बंधवाओगे?’’

‘‘साहब कहेंगे तो मैं तुम से भी राखी बंधवाऊंगा.’’

‘‘क्या…?’’ पत्नी का मुंह खुला का खुला रह गया. राम साहब हड़बड़ा कर नीचे देखने लगे.

‘‘आप औफिस में क्यों नहानाधोना करते हैं?’’ पूछते हुए मोहन का मन खुल कर हंसने को हो रहा था.

‘‘अब क्या बताएं साहब…’’ राम साहब रोंआसा हो गए, ‘‘पारिवारिक बात है. कहते हुए शर्म आती है. इस औरत ने घर का माहौल नरक बना दिया है. मेरे बारबार मना करने के बाद भी आपरेशन के लिए तैयार ही नहीं होती. इतना बड़ा परिवार हो गया है. सुबह से कोई न कोई घुसा ही रहता है. किसी को स्कूल जाना है तो किसी का पेटदर्द कर रहा होता है, इसीलिए कभीकभी मुझे जल्दी आ कर औफिस में नहाना पड़ता है.

‘‘पर, असली बात जिस के लिए ये यहां आई हैं, यह नहीं है,’’ वे अपनी पत्नी की तरफ घूमे, ‘‘अब पूछती क्यों नहीं है.’’

‘‘पूछूंगी क्यों नहीं, मैं तुम से डरती हूं क्या.’’

‘‘तो अभी तक क्यों नहीं पूछा?’’

‘‘अब पूछ लूंगी.’’

‘‘क्या पूछना है?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘मैं बताता हूं साहब…’’ अब राम साहब मोहन की तरफ घूमे, ‘‘इसे लगता है कि मैं अपनी पूरी तनख्वाह इसे नहीं देता व कुछ बचा कर इधरउधर खर्च करता हूं. कल से मेरे पीछे पड़ी है. औफिस के ही किसी आदमी ने इसे भड़का दिया है, जबकि मैं अपनी तनख्वाह का पूरा पैसा इस के हाथ में ले जा कर रख देता हूं. यह यही पूछने आई है कि मेरी तनख्वाह कितनी है.’’

‘‘क्या यही बात है?’’ मोहन ने राम साहब की पत्नी से पूछा.

‘‘हां साहब, मुझे सचसच बता दीजिए कि इन को कितनी तनख्वाह मिलती है.’’

‘‘राम साहब अगर इन्हें बता दिया जाए तो आप को कोई एतराज तो नहीं है?’’ मोहन ने राम साहब से पूछा.

‘‘मुझे क्या एतराज होना है. मैं तो पूरी तनख्वाह इस के हाथ में ही रख

देता हूं.’’

‘‘ठीक है. इन्हें बाहर ले जा कर बड़े बाबू के पास सैलरी शीट दिखा दीजिए.’’

वे उठे, पर उन से पहले ही पांचों लड़कियां बाहर निकल गई थीं.

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मोहन ने अरविंद को बुलाया.

‘‘क्या राम साहब वाकई सनकी हैं? वे अपने परिवार का तो क्या खयाल रखते होंगे?’’

‘‘ऐसी बात नहीं है साहब. परिवार पर तो वे जान छिड़कते हैं…’’ अचानक अरविंद फिर मुसकरा पड़ा, ‘‘आप को एक बार का किस्सा सुनाऊं. आप को इन के सोचने के लैवल का भी पता चलेगा.

‘‘जिस मकान में राम साहब रहते हैं, उस में 5-6 और किराएदार भी हैं. मकान मालिक नामी वकील हैं.

‘‘एक बार महल्ले में एक गुंडे ने किसी के साथ मारपीट की. वकील साहब ने उस के खिलाफ मुकदमा लड़ा. गुंडे को 3 महीने की सजा हो गई. वह जब जेल से बाहर आया तो उस ने वकील साहब को जान से मारने की धमकी दी.

‘‘वकील साहब ने एफआईआर दर्ज कर दी व उन के यहां पुलिस प्रोटैक्शन लग गई. एक दारोगा व 4 सिपाहियों की 24 घंटे की ड्यूटी लग गई.

‘‘जब उस गुंडे का वकील साहब पर कोई जोर न चला तो उस ने किराएदारों को धमकाया. उस ने तुरंत मकान खाली कर देने को कहा. उस गुंडे के डर से बाकी सब किराएदारों ने मकान खाली कर दिया, पर राम साहब ने मकान न छोड़ा.

‘‘हम सभी को राम साहब व उन के परिवार की चिंता हुई. गुंडे ने राम साहब को यहां औफिस में भी धमकी भिजवाई थी, पर राम साहब मकान छोड़ने को तैयार न थे.

‘‘एक दिन मैं ने राम साहब से कहा कि चलिए ठीक है, आप मकान मत छोडि़ए, पर कुछ दिनों के लिए आप मेरे यहां आ जाइए. जब मामला ठंडा हो जाएगा तो फिर वहां चले जाइएगा. तो जानते हैं राम साहब ने क्या जवाब दिया?

‘‘उन्होंने कहा, ‘नहीं अरविंद बाबू, अब मेरी जान को कोई खतरा नहीं है. मेरी छिद्दू से बात हो गई है. अभी कल ही जब मैं औफिस से घर पहुंचा तो वह एक जीप के पीछे खड़ा था. मुझे देखा तो इशारे से पास बुलाया.

‘‘‘पहले तो मैं डरा, पर फिर हिम्मत कर के उस के पास चला गया. उस ने मुझे खूब गालियां दीं. मैं चुपचाप सुनता रहा. फिर उस ने कहा कि अबे, तुझे अपनी जान का भी डर नहीं लगता. अगर 2 दिन के अंदर मकान नहीं छोड़ा तो पूरे परिवार का खात्मा कर दूंगा.’

‘‘अब मैं ने मुंह खोला, ‘छिद्दू भाई, तुम तो अक्लमंद आदमी हो, फिर भी गलती कर रहे हो. वकील साहब के यहां 15-20 साल के पुराने किराएदार थे. कोई 20 रुपए महीना देता था तो कोई 50. वकील साहब तो खुद ही उन से मकान खाली कराना चाहते थे, पर किराएदार पुराने थे. वे लाचार थे. तुम ने तो उन की मदद ही की.

‘‘‘मकान खाली हो गया और वह भी बिना किसी परेशानी के. अब मेरी बात ही लो. मैं 100 रुपया महीना देता हूं. अगर छोड़ दूं तो 300 रुपए पर तुरंत

उठ जाएगा.’

‘‘मेरी बात उस की समझ में आ गई. थोड़ी देर तक तो वह सोचता रह गया, फिर हाथ मलते हुए बोला, ‘यह तो तुम ठीक कह रहे हो. मुझ से बड़ी गलती हो गई. ठीक है, तुम मकान बिलकुल मत छोड़ो. लेकिन मैं ने भी तो सभी किराएदारों को खुलेआम धमकी दी है. सब को पता है. अगर तुम ने मकान नहीं छोड़ा तो मेरी बड़ी बेइज्जती होगी. सब यही सोचेंगे कि मेरे कहने का कोई असर नहीं हुआ.

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‘‘‘तो ऐसा करते हैं कि तुम मकान न छोड़ो. किसी दिन मैं तुम को बड़े चौक पर गिरा कर जूतों से मार लूंगा. मेरी बात भी रह जाएगी और काम भी हो जाएगा. तो अरविंद बाबू, अब मेरी जान को कोई खतरा नहीं है.’’’

अरविंद की आखिरी बात सुनतेसुनते मोहन अपनी हंसी न रोक सका. उस ने किसी तरह हंसी रोक कर कहा, ‘‘पर, उस भले मानुस को जूतों से मार खाने की क्या जरूरत थी भाई. चलिए छोडि़ए. राम साहब व उन की पत्नी से कहिएगा कि वे मुझ से मिल कर जाएंगे.’’

‘‘जी, बहुत अच्छा साहब,’’ कह कर अरविंद उठ गया.

तभी राम साहब व उन की पत्नी दरवाजा खोल कर अंदर आए. लड़कियां बाहर ही थीं.

‘‘देखा साहब, मैं पहले ही कहता था न…’’ राम साहब ने खुश हो कर कहा, ‘‘पूछ लीजिए, अब तो कोई शिकायत नहीं है न इन को?’’

मोहन ने राम साहब की पत्नी की तरफ देखा.

‘‘ठीक है साहब. तनख्वाह तो ठीक ही दे देते हैं हम को. पर ओवरटाइम का कोई बता नहीं रहा है.’’

‘‘अब जाने भी दीजिए. इतना जुल्म मत कीजिए इन पर. आइए बैठिए, मुझे आप से एक बात कहनी है. आप दोनों से ही. बैठिए.’’

वे दोनों सामने रखी कुरसियों पर

बैठ गए.

मोहन ने राम साहब की पत्नी से कहा, ‘‘राम साहब ठीक ही कहते हैं. एक लड़के की चाह में परिवार को इतना बढ़ा लेना अक्लमंदी नहीं है कि परिवार का पेट पालना भी ठीक से न हो सके. फिर आज के समय में लड़का और लड़की में फर्क ही क्या है. उम्मीद है, मेरी बात पर आप दोनों ही ध्यान देंगे.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है,’’ उन्होंने शर्म से अपने पेट पर हाथ फेरा, ‘‘इस बार शर्तिया लड़का ही होगा.’’

‘‘क्या…?’’ राम साहब हैरत व खुशी से उछल पड़े, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’’

‘‘धत…’’ वे बुरी तरह से शरमा

कर तिहरीचौहरी हो गईं, ‘‘मुझे शर्म आती है.’’

‘‘अरे पगली, मुझ से क्या शर्म,’’ राम साहब लगाव भरी नजरों से अपनी पत्नी को देखते हुए मुझ से बोले, ‘‘मैं अभी मिठाई ले कर आता हूं. तुम जल्दी से ओवरटाइम रिकौर्ड देख कर घर जाओ. ऐसे में ज्यादा चलनाफिरना ठीक नहीं होता. आज मैं भी जरा जल्दी जाऊंगा साहब. आप तो जानते ही हैं कि काफी इंतजाम करने पड़ेंगे.’’

इतना कह कर राम साहब अपनी पत्नी को मेरे सामने छोड़ कर तेजी से मिठाई लाने दौड़ गए.

मोहन को कुछ न सूझा तो अपना सिर दोनों हाथों से जोर से पकड़ लिया.

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बदला जारी है

सुशांत रोजाना की तरह कोरियर की डिलीवरी देने जा रहा था कि तभी उस का मोबाइल फोन बज उठा. उस ने झल्ला कर मोटरसाइकिल रोकी, लेकिन नंबर देखते ही उस की आंखों में चमक आ गई. उस की मंगेतर सोनी का फोन था. उस ने जल्दी से रिसीव किया, ‘‘कैसी हो मेरी जान?’’

‘तुम्हारे इंतजार में पागल हूं…’ दूसरी ओर से आवाज आई.

उन दोनों के बीच प्यारभरी बातें होने लगीं, पर सुशांत को जल्दी से जल्दी अगले कस्टमर के यहां पहुंचना था, इसलिए उस ने यह बात सोनी को बता कर फोन काट दिया.

दिए गए पते पर जा कर सुशांत ने डोरबैल बजाई. थोड़ी देर में एक औरत ने दरवाजा खोला.

‘‘मानसीजी का घर यही है मैडम?’’ सुशांत ने पूछा.

‘‘हां, मैं ही हूं. अंदर आ जाओ,’’ उस औरत ने कहा.

सुशांत ड्राइंगरूम में बैठ कर अपने कागजात तैयार करने लगा. मानसी भीतर चली गई.

अपने दोस्तों के बीच माइक्रोस्कोप नाम से मशहूर सुशांत ने इतनी ही देर में अंदाजा लगा लिया कि वह औरत उम्र में तकरीबन 40-41 साल की होगी. उस के बदन की बनावट तो खैर मस्त थी ही.

सुशांत ने कागजात तैयार कर लिए. तब तक मानसी भी आ गई. उस के हाथ में कोई डब्बा था.

सुशांत ने कागजपैन उस की ओर बढ़ाया और बोला, ‘‘मैडम, यहां दस्तखत कर दीजिए.’’

‘‘हां कर दूंगी, मगर पहले यह देखो…’’ मानसी ने वह डब्बा सुशांत को दे कर कहा, ‘‘यह मोबाइल फोन मैं ने इसी कंपनी से मंगाया था. अब इस

में बारबार हैंग होने की समस्या आ

रही है.’’

सुशांत चाहता तो मानसी को वह मोबाइल फोन रिटर्न करने की सलाह दे सकता था, उस की नौकरी के लिहाज से उसे करना भी यही चाहिए था, लेकिन अपना असर जमाने के मकसद से उस ने मोबाइल फोन ले कर छानबीन सी शुरू कर दी, ‘‘यह आप ने कब मंगाया था मैडम?’’

‘‘15 दिन हुए होंगे.’’

उन दोनों के बीच इसी तरह की बातें होने लगीं. सुशांत कनखियों से मानसी के बड़े गले के ब्लाउज के खुले हिस्सों को देख रहा था. उसे देर लगती देख कर मानसी चाय बनाने अंदर रसोईघर में चली गई.

सुशांत को यकीन हो गया था कि घर में मानसी के अलावा कोई और नहीं है. लड़कियों से छेड़छाड़ के कई मामलों में थाने में बैठ चुके 25 साला सुशांत की आदत अपना रिश्ता तय होने के बाद भी नहीं बदल सकी थी. उसे एक तरह से लत थी. ऐसी कोई हरकत करना, फिर उस पर बवाल होना, पुलिस थानों के चक्कर लगाना…

सुशांत ने बाहर आसपास देखा और मोबाइल फोन टेबल पर रख कर अंदर की ओर बढ़ गया. खुले नल और बरतनों की आवाज को पकड़ते हुए वह रसोईघर तक आसानी से चला गया.

मानसी उसे देख कर चौंक उठी, ‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो?’’

कोई जवाब देने के बजाय सुशांत ने मानसी का हाथ पकड़ कर उसे खींचा और गले से लगा लिया.

मानसी ने उस की आंखों में देखा और धीरे से बोली, ‘‘देखो, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

मानसी की इस बात ने तो जैसे सुशांत को उस की मनमानी का टिकट दिला दिया. उस के होंठ मानसी की गरदन पर चिपक गए. नाम के लिए मानसी का नानुकर करना किसी रजामंदी से कम नहीं था.

कुछ पल वहां बिताने के बाद सुशांत मानसी को गोद में उठा कर पास के कमरे में ले आया और बिस्तर पर धकेल दिया.

मानसी अपने हटते परदों से बेपरवाह सी बस सुशांत को घूरघूर कर देखे जा रही थी. सुशांत को महसूस हो गया था कि शायद मानसी का कहना सही है कि उस की तबीयत ठीक नहीं है, क्योंकि उस का शरीर थोड़ा गरम था. लेकिन उस ने इस की फिक्र नहीं की.

थोड़ी देर में चादर के बननेबिगड़ने का दौर शुरू हो गया. रसोईघर में चढ़ी चाय उफनतेउफनते सूख गई. खुले नल ने टंकी का सारा पानी बहा दिया. घंटाभर कैसे गुजर गया, शायद दीवार पर लगी घड़ी भी नहीं जान सकी.

कमरे में उठा तूफान जब थमा तो पसीने से लथपथ 2 जिस्म एकदूसरे के बगल में निढाल पड़े हांफ रहे थे. तभी कमरे में रखा वायरलैस फोन बज उठा.

मानसी ने काल रिसीव की, ‘‘हां बेटा, आज भी बुखार हो गया है… डाक्टर शाम को आएंगे… जरा अपनी नानी को फोन देना…’’

मानसी ने कुछ देर तक बातें करने के बाद फोन काट दिया. सुशांत आराम से लेटा सीलिंग फैन को ताक रहा था.

‘‘कपड़े पहनो और निकलो यहां से अब… धंधे वाली का कोठा नहीं है जो काम खत्म कर के आराम से पसर गए,’’ मानसी ने अपनी पैंटी पहनते हुए थोड़ा गुस्से में कहा और पलंग से उतर कर अपने बाकी कपड़े उठाने लगी.

सुशांत ने उसे आंख मारी और बोला, ‘‘एक बार और पास आ जाता तो अच्छा होता.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं. तुम्हारे लिए एक बार ही बहुत है,’’ मानसी ने अजीब से लहजे में कहा.

यह सुन कर सुशांत मुसकरा कर उठा और अपने कपड़े पहनने लगा.

‘‘अगले महीने मेरी भी शादी होने वाली है, लेकिन जिंदगी बस एक के ही साथ रोज जिस्म घिसने में बरबाद हो जाती है, इसलिए बस यह सब कभीकभार…’’ सुशांत ने कहा.

सुशांत की बात सुन कर मानसी का चेहरा नफरत से भर उठा. वह अपने पूरे कपड़े पहन चुकी थी. उस ने आंचल सीने पर डाला और बैठक में से कोरियर के कागजात दस्तखत कर के ले आई.

‘‘ये रहे तुम्हारे कागजात…’’ मानसी सुशांत से बोली, ‘‘जानते हो, कुछ मर्द तुम्हारी ही तरह घटिया होते हैं. मेरे पति भी बिलकुल ऐसे ही थे.’’

अब तक सबकुछ ठीकठाक देख रहे सुशांत का चेहरा अपने लिए घटिया शब्द सुन कर असहज हो गया.

मानसी ताना मारते हुए कह पड़ी, ‘‘क्या हुआ? बुरा लगा तुम्हें? जिस लड़की से शादी रचाने जा रहा है, उस की वफा को ऐसे बेशर्म बन कर मेरे साथ अपने नीचे से बहाने में बुरा नहीं लगा क्या? पर मुझ से घटिया शब्द सुन कर बुरा लग रहा है?’’

‘‘देखिए मैडम, आप ने भी तो…’’ सुशांत ने अपनी बात रखनी चाही.

इस पर मानसी गुर्रा उठी, ‘‘हांहां, मैं सो गई तेरे नीचे. तुझे अपने नीचे भी दबा लिया, लेकिन बस इसलिए क्योंकि मुझ को तुझे भी वही देना था जो मेरा पति मुझे दे गया था… मरने से पहले…’’

सुशांत अब हैरान सा उसे देखे जा रहा था.

मानसी जैसे किसी अजीब से जोश में कहती रही, ‘‘मेरा पति अपने औफिस की औरतों के साथ सोता था. वह मुझे धोखा देता था. उस ने मुझे एड्स दे दिया और आज वही मैं ने तुझे भी… जा, खूब सो नईनई औरतों के साथ… तू भी मरना सड़सड़ कर, जैसे मैं मरूंगी…

‘‘मैं अब किसी भी मर्द को अपनी टांगों के बीच आने से मना नहीं करती… धोखेबाज मर्दों से यह मेरा बदला है जो हमेशा जारी रहेगा,’’ कहतेकहते मानसी फूटफूट कर रोने लगी.

सुशांत के कानों में जैसे धमाके होते चले गए. वह सन्न खड़ा रह गया, लेकिन अब क्या हो सकता था…

बनते-बिगड़ते शब्दार्थ

कभी गौर कीजिए भाषा भी कैसेकैसे नाजुक दौर से गुजरती है. हमारा अनुभव तो यह है कि हमारी बदलतीबिगड़ती सोच भाषा को हमेशा नया रूप देती चलती है. इस विषय को विवाद का बिंदु न बना कर जरा सा चिंतनमंथन करें तो बड़े रोचक अनुभव मिलते हैं. बड़े आनंद का एहसास होता है कि जैसेजैसे हम विकसित हो कर सभ्य बनते जा रहे हैं, भाषा को भी हम उसी रूप में समृद्ध व गतिशील बनाते जा रहे हैं. उस की दिशा चाहे कैसी भी हो, यह महत्त्व की बात नहीं. दैनिक जीवन के अनुभवों पर गौर कीजिए, शायद आप हमारी बात से सहमत हो जाएं.

एक जमाना था जब ‘गुरु’ शब्द आदरसम्मानज्ञान की मिसाल माना जाता था. भाषाई विकास और सूडो इंटलैक्चुअलिज्म के थपेड़ों की मार सहसह कर यह शब्द अब क्या रूपअर्थ अख्तियार कर बैठा है. किसी शख्स की शातिरबाजी, या नकारात्मक पहुंच को जताना हो तो कितने धड़ल्ले से इस शब्द का प्रयोग किया जाता है. ‘बड़े गुरु हैं जनाब,’ ऐसा जुमला सुन कर कैसा महसूस होता है, आप अंदाज लगा सकते हैं. मैं पेशे से शिक्षक हूं. इसलिए ‘गुरु’ संबोधन के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों से रोजाना दोचार होता रहता हूं. परंतु हमारी बात है सोलह आने सच.

‘दादा’ शब्द हमारे पारिवारिक रिश्तों, स्नेह संबंधों में दादा या बड़े भाई के रूप में प्रयोग किया जाता है. आज का ‘दादा’ अपने मूल अर्थ से हट कर ‘बाहुबली’ का पर्याय बन गया है. इसी तरह ‘भाई’ शब्द का भी यही हाल है. युग में स्नेह संबंधों की जगह इस शब्द ने भी प्रोफैशनल क्रिमिनल या अंडरवर्ल्ड सरगना का रूप धारण कर लिया है. मायानगरी मुंबई में तो ‘भाई’ लोगों की जमात का रुतबारसूख अच्छेअच्छों की बोलती बंद कर देता है. जो लोग ‘भाई’ लोगों से पीडि़त हैं, जरा उन के दिल से पूछिए कि यह शब्द कैसा अनुभव देता है उन्हें.

‘चीज’, ‘माल’, ‘आइटम’ जैसे बहुप्रचलित शब्द भी अपने नए अवतरण में समाज में प्रसिद्ध हो चुके हैं. हम कायल हैं लोगों की ऐसी संवेदनशील साहित्यिक सोच से. आदर्शरूप में ‘यत्र नार्यरतु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता:’ का राग आलापने वाले समाज में स्त्री के लिए ऐसे आधुनिक सम्माननीय संबोधन अलौकिक अनुभव देते हैं. सुंदर बाला दिखी नहीं, कि युवा पीढ़ी बड़े गर्व के साथ अपनी मित्रमंडली में उसे ‘चीज’, ‘माल’, ‘आइटम’ जैसे संबोधनों से पुकारने लगती है. सिर पीट लेने का मन करता है जब किसी सुंदर कन्या के लिए ‘फ्लैट’ शब्द भी सुनते हैं. जरा सोचिए, भला क्या संबंध हो सकता है इन दोनों में.

नारी को खुलेआम उपभोग की वस्तु कहने की हिम्मत चाहे न जुटा पाएं लेकिन अपने आचारव्यवहार से अपने अवचेतन मन में दबी भावना का प्रकटीकरण जुमलों से कर कुछ तो सत्य स्वीकार कर लेते हैं- ‘क्या चीज है,’ ‘क्या माल है?’ ‘यूनीक आइटम है, भाई.’ अब तो फिल्मी जगत ने भी इस भाषा को अपना लिया है और भाषा की भावअभिव्यंजना में चारचांद लगा दिए हैं.

‘बम’ और ‘फुलझड़ी’ जैसे शब्द सुनने के लिए अब दीवाली का इंतजार नहीं करना पड़ता. आतिशबाजी की यह सुंदर, नायाब शब्दावली भी आजकल महिला जगत के लिए प्रयोग की जाती है. कम उम्र की हसीन बाला को ‘फुलझड़ी’ और ‘सम थिंग हौट’ का एहसास कराने वाली ‘शक्ति’ के लिए ‘बम’ शब्द को नए रूप में गढ़ लिया गया है. इसे कहते हैं सांस्कृतिक संक्रमण. पहले  के पुरातनपंथी, आदर्शवादी, पारंपरिक लबादे को एक झटके में लात मार कर पूरी तरह पाश्चात्यवादी, उपभोगवादी, सिविलाइज्ड कल्चर को अपना लेना हम सब के लिए शायद बड़े गौरव व सम्मान की बात है. इसी क्रम में ‘धमाका’ शब्द को भी रखा जा सकता है.

‘कलाकार’ शब्द भी शायद अब नए रूप में है. शब्दकोश में इस शब्द का अर्थ चाहे जो कुछ भी मिले लेकिन अब यह ऐसे शख्स को प्रतिध्वनित करता है जो बड़ा पहुंचा हुआ है. जुगाड़ करने और अपना उल्लू सीधा करने में जिसे महारत हासिल है, वो जनाब ससम्मान ‘कलाकार’ कहे जाने लगे हैं. ललित कलाओं की किसी विधा से चाहे उन का कोई प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष संबंध न हो किंतु ‘कलाकार’ की पदवी लूटने में वो भी किसी से पीछे नहीं.

‘नेताजी’ शब्द भी इस बदलते दौर में पीछे नहीं है. मुखिया, सरदार, नेतृत्व करने वाले के सम्मान से इतर अब यह शब्द बहुआयामी रूप धारण कर चुका है और इस की महिमा का बखान करना हमारी लेखनी की शक्ति से बाहर है. इस के अनंत रूपों को बयान करना आसान नहीं. शायद यही कारण है कि आजकल ज्यादातर लोग इसे नापसंद भी करने लगे हैं. ‘छद्मवेशी’ रूप को आम आदमी आज भी पसंद नहीं करता है, इसलिए जनमानस में ये जनाब भी अपना मूलस्वरूप खो बैठे हैं.

‘चमचा’ अब घर की रसोई के बरतनभांडों से निकल कर पूरी सृष्टि में चहलकदमी करने लगा है. सत्तासुख भोगने और मजे

उड़ाने वाले इस शब्दविशेषज्ञ का रूपसौंदर्य बताना हम बेकार समझते हैं. कारण, ‘चमचों’ के बिना आज समाज लकवाग्रस्त है, इसलिए इस कला के माहिर मुरीदों को भी हम ने अज्ञेय की श्रेणी में रख छोड़ा है.

‘चायपानी’ व ‘मीठावीठा’ जैसे शब्द आजकल लोकाचार की शिष्टता के पर्याय हैं. रिश्वतखोरी, घूस जैसी असभ्य शब्दावली के स्थान पर ‘चायपानी’ सांस्कृतिक और साहित्यिक पहलू के प्रति ज्यादा सटीक है. अब चूंकि भ्रष्टाचार को हम ने ‘शिष्टाचार’ के रूप में अपना लिया है, इसलिए ऐसे आदरणीय शब्दों के चलन से ज्यादा गुरेज की संभावना ही नहीं है.

थोड़ी बात अर्थ जगत की हो जाए. ‘रकम’, ‘खोखा’, ‘पेटी’ जैसे शब्दों से अब किसी को आश्चर्य नहीं होता. ‘रकम’ अब नोटोंमुद्रा की संख्यामात्रा के अलावा मानवीय व्यक्तित्व के अबूझ पहलुओं को भी जाहिर करने लगा है. ‘बड़ी ऊंची रकम है वह तो,’ यह जुमला किसी लेनदेन की क्रिया को जाहिर नहीं करता बल्कि किसी पहुंचे हुए शख्स में अंतर्निहित गुणों को पेश करने लगा है. एक लाख की रकम अब ‘पेटी’, तो एक करोड़ रुपयों को ‘खोखा’ कहा जाने लगा है. अब इतना नासमझ शायद ही कोई हो जो इन के मूल अर्थ में भटक कर अपना काम बिगड़वा ले.

‘खतरनाक’ जैसे शब्द भी आजकल पौजिटिव रूप में नजर आते हैं. ‘क्या खतरनाक बैटिंग है विराट कोहली की?’ ‘बेहोश’ शब्द का नया प्रयोग देखिए – ‘एक बार उस का फिगर देख लिया तो बेहोश हो जाओगे.’ ‘खाना इतना लाजवाब बना है कि खाओगे तो बेहोश हो जाओगे.’

अब हम ने आप के लिए एक विषय दे दिया है. शब्दकोश से उलझते रहिए. इस सूची को और लंबा करते रहिए. मानसिक कवायद का यह बेहतरीन तरीका है. हम ने एसएमएस की भाषा को इस लेख का विषय नहीं बनाया है, अगर आप पैनी नजर दौड़ाएं तो बखूबी समझ लेंगे कि भाषा नए दौर से गुजर रही है. शब्दसंक्षेप की नई कला ने हिंदीइंग्लिश को हमेशा नए मोड़ पर ला खड़ा किया है. लेकिन हमारी उम्मीद है कि यदि यही हाल रहा तो शब्दकोश को फिर संशोधित करने की जरूरत शीघ्र ही पड़ने वाली है, जिस में ऐसे शब्दों को उन के मूल और प्रचलित अर्थों में शुद्ध ढंग से पेश किया जा सके.

इस देश का क्या होगा

व्यंग्य- रमेश भाटिया

अपने बाथरूम में शीशे के सामने खड़े हो कर फिल्मी धुन गुनगुनाते हुए रामनाथ दाढ़ी बनाने में लगे थे. वाशबेसिन के नल से ब्रश को पानी लगाया और अपने चेहरे पर झाग बनाने लगे. नीचे नल से पानी बह रहा था और ऊपर रामनाथ का हाथ दाढ़ी बनाने के काम में लगा था. रेजर को साफ करने के लिए जैसे ही उसे नल के नीचे ले गए तो पानी बंद हो चुका था.

वह कभी शीशे में अपने चेहरे को तो कभी नीचे नल को देख रहे थे. उन्हें सरकारी व्यवस्था पर इतना ताव आया कि नगरपालिका को ही कोसने लगे, ‘नहानेधोने और पीने के लिए पानी देना तो दूर की बात है, यहां तो मुंह धोने तक के लिए पानी नहीं दे पाती. कैसेकैसे निक्कमे लोगों को नगरपालिका वालों ने भरती कर रखा है. काम कर के कोई राजी नहीं. क्या होगा इस देश का?’

लगभग चिल्लाते हुए अपनी पत्नी को आवाज लगाई, ‘‘सुनती हो, जरा एक गिलास पानी तो देना ताकि मुंह पर लगे झाग को साफ कर लूं.’’

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पत्नी समझती थी कि इस समय कुछ कहूंगी तो घर में बेवजह कलह होगी इसलिए वह चुप रही.

नाश्ता खत्म कर रामनाथ आफिस के लिए निकले. बसस्टाप पर लंबी कतार लगी थी पर बस का दूरदूर तक कहीं अतापता न था. रामनाथ ने अपने आगे खड़े सज्जन से पूछा तो वह बोले, ‘‘अभी 2 मिनट पहले ही बस गई है, अब तो 20 मिनट बाद ही अगली बस आएगी.’’

रामनाथ उचकउचक कर बस के आने की दिशा में देखते और फिर अपनी घड़ी को देखते.

उन की इस नई कसरत को देख कर आगे वाले सज्जन ने आखिर पूछ ही लिया, ‘‘भाई साहब, आप जल्दी में लगते हैं, बस का समय देख कर आप घर से थोड़ा पहले निकलते तो शायद बस मिल गई होती.’’

रामनाथ बोले, ‘‘देश की आबादी इतनी बढ़ गई है कि जहां देखो वहां लंबीलंबी कतारें लगी हैं. धक्कामुक्की कर के बस में चढ़ जाओ तो ठीक वरना खड़े रहो इन लाइनों में. पता नहीं लोग इतने ज्यादा बच्चे क्यों पैदा करते हैं. मैं तो कहता हूं जब तक सरकार जनसंख्या पर काबू नहीं करेगी, इस देश का कुछ नहीं हो सकता.’’

इस से पहले कि वह कुछ और बोलते, उन के पड़ोसी श्यामलाल वहां से गुजरते हुए उन के पास आ गए और कहने लगे, ‘‘क्या हाल हैं, भाई रामनाथ? पिछले कई दिनों से कुछ जानने के लिए आप को ढूंढ़ रहा हूं. एक बात बताइए, पिछली बार आप भाभीजी को कौन से अस्पताल में डिलीवरी के लिए ले गए थे? भाई, इस मामले में आप खासे अनुभवी हैं. 6 बच्चों के बाप हैं. मेरा तो यह पहला मामला है. कुछ गाइड कीजिए.’’

रामनाथ ने झेंपते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आप शाम को घर पर आना. मैं सब बता दूंगा. इस समय तो बस के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा है. लगता है, आज भी बौस की डांट सुननी पड़ेगी.’’

आफिस की सीढि़यां चढ़ते हुए रामनाथ अपने सहकर्मी दीपचंद से बोले, ‘‘कैसेकैसे लोग हैं यार, पूरी सीढि़यों और दीवारों को पान की पीक से रंग दिया है. सीढि़यां चढ़ते समय गंदगी देख कर मितली आती है. क्या होगा इस देश का,’’ इस के बाद बुरा सा मुंह बना कर उन्होंने दीवार पर थूक दिया.

रामनाथ अभी सीढि़यां चढ़ ही रहे थे कि सामने से उन के बौस राजकुमारजी आते दिखे. वह बोले, ‘‘रामनाथ, कभी तो समय पर दफ्तर आ जाया करो. आप की मेज पर बहुत काम पड़ा है और लोग इंतजार कर रहे हैं. जल्दी जाइए और हां, काम निबटा कर मेरे कमरे में आना.’’

अपनी सीट पर फाइलों का अंबार और इंतजार करते लोगों को देख कर ही उन्हें थकावट होने लगी. चपरासी से बोले, ‘‘एक गिलास पानी तो पिला दो. कुछ चाय का इंतजाम करो. चाय पी कर कुछ तरावट आए तो लोगों के काम निबटाऊं.’’

चपरासी बुरा सा मुंह बनाता हुआ चाय लाने के लिए चला गया. इंतजार करते लोग परेशान थे. एक व्यक्ति ने हिम्मत की और कमरे में घुस कर निवेदन करते हुए बोला, ‘‘साहबजी, मैं काफी देर से आप का इंतजार कर रहा हूं. मेरी फाइल निबटा दें तो अति कृपा होगी.’’

रामनाथ बोले, ‘‘अरे भाई, फाइलें निबटाने के लिए ही तो मैं यहां बैठा

हूं. तनिक सांस तो लेने दो. चायपानी के बाद थोड़ा ताजादम हो कर आप सब का काम निबटाता हूं. तब तक आप बाहर जा कर बैठें.’’

फिर अपने सहकर्मी को सुनाते हुए रामनाथ बोले, ‘‘पता नहीं, कैसे- कैसे लोग आ जाते हैं. सुबह हुई नहीं कि सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने चल पड़ते हैं. लगता है इन को और कोई काम नहीं है. उधर साहब नाराज हैं, इधर इन लोगों ने तनाव कर रखा है. यह देश कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता. क्या होगा इस देश का?’’

सहकर्मी ने उन की ओर एक मंद मुसकान फेंकी और अपने काम में लग गया.

कुछ तकदीर वालों की फाइलें निबटा कर रामनाथ ने उन्हें अपने बौस के कमरे में भेजा, जो बच गईं उन से संबंधित लोगों को अगले दिन आने को कह कर वह बौस के कमरे में जा पहुंचे. रामनाथ का चेहरा देखते ही बौस के तेवर चढ़ गए और बोले, ‘‘लगता है, आप ने रोजाना आफिस लेट आने का नियम बना लिया है. बहानेबाजी नहीं चलेगी. घर से जल्दी चलिए ताकि आफिस समय पर पहुंच सकें. आप के कारण लोगोें को कितनी तकलीफ हो रही है. मुझे भी अपने ऊपर वालों को जवाब देना पड़ता है. और शिकायतें आईं तो आप के खिलाफ सख्त काररवाई हो सकती है. आगे के लिए इस बात का खयाल रखिए. यह मेरी अंतिम चेतावनी है.’’

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शाम को बसों में धक्के खाते हुए रामनाथ जब घर पहुंचे तो बिजली नदारद थी. बीवी मोमबत्ती जला कर खाना बना रही थी. गरमी का मौसम, बिजली नदारद. उन को देश की अव्यवस्था पर बोलने का मौका मिल गया, ‘‘न जाने यह बिजलीघर वाले क्या करते हैं. जब देखो बिजली गायब, फिर भी इतने लंबेचौैड़े बिल भेज देते हैं. क्या हो रहा है? क्या होगा इस देश का?’’

बीवी उन की बातों को सुन कर मंदमंद मुसकरा रही थी. उसे पता था कि उस के पति ने किस तरह बिजलीघर के लाइनमैन को कुछ रुपए दे कर मीटर को खराब कराया था. वह ईद के चांद की तरह कभीकभी चल पड़ता था और बिल न के बराबर आता था.

अगले दिन सुबह उठते ही रामनाथ को बौस की चेतावनी याद आ गई. समय से दफ्तर पहुंचने के लिए घर से जल्दी निकल पड़े. जल्दबाजी में वह सड़क पर चलने के कायदेकानून भी भूल गए. उन्होंने बत्ती की तरफ देखा तक नहीं कि वह लाल है या हरी. अत: सामने से आती कार से टकरा कर वह वहीं ढेर हो गए.

काफी चोटें आईं. कार वाले ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर ने जांच कर के उन की पत्नी को बताया, ‘‘चोट गंभीर नहीं है. बचाव हो गया है, शाम तक आप इन्हें घर ले जा सकती हैं.’’

अब दफ्तर से जो भी मिलने आ रहा था, रामनाथ उसे यही बता रहे थे, ‘‘सड़कों पर लोग न जाने कैसे कार चलाते हैं? कोई नियमों का पालन ही नहीं करता. पैदल चलने वालों को तो वे कीड़ेमकोड़े समझते हैं. उन्हें कुचलते हुए चले जाते हैं. वह तो समय ठीक था कि मेरी जान बच गई.’’

कई दिनों से सफाई कर्मचारी कूड़ा उठाने नहीं आया तो पत्नी बोली, ‘‘सुनते हो, जमादार पिछले 2 दिनों से नहीं आ रहा है. बहुत कचरा जमा हो गया है. आप जरा थैला उठा कर कचराघर में फेंक आइए.’’

रामनाथ बोले, ‘‘कचरे को घर के पिछवाड़े फेंक देता हूं. जमादार जब ड्यूटी पर आएगा तो उठा ले जाएगा.’’

उन की बातें सुन कर पत्नी चुप हो गई.

सड़कों पर, घरों के आसपास फैली गंदगी के बारे में रामनाथ के विचार महत्त्वपूर्ण थे. वह अपने पड़ोसी के साथ बात करते हुए कह रहे थे, ‘‘हमारे शहर की म्युनिसिपलिटी बड़ी निकम्मी है. कोई काम नहीं करता. जिधर देखो गंदगी का राज है. सफाई कर्मचारी कचरा उठाते ही नहीं. उन्हें कोई पूछने वाला नहीं. लोग घर बनाते हैं तो बचाखुचा मलबा वहीं छोड़ देते हैं. पुलिस भी पैसे ले कर उन्हें मनमानी करने की छूट देती है. लोग अपने घर का कचरा जहां मरजी आए फेंक देते हैं. क्या होगा इस देश का?’’

पड़ोसी मुंहफट था. वह बोला, ‘‘भाई साहब, गंदगी के बारे में आप के विचार तो बड़े ऊंचे हैं पर आप को घर के पिछवाड़े मैं ने कचरा फेंकते देखा है. कथनी और करनी में इतना फर्क तो नहीं होना चाहिए. सभी सफाई का खयाल रखें तभी तो आसपास सफाई होगी.’’

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रामनाथ इस अचानक हमले के लिए बिलकुल तैयार न थे. काम का बहाना कर वहां से भाग खड़े हुए.

रामनाथ की एक और विशेषता अमेरिका का गुणगान करने की है. जब से उन का बेटा अमेरिका जा कर बसा वह अमेरिकाभक्त हो गए. वह कहते हैं, ‘‘सफाई देखनी हो तो अमेरिका जाओ. बिलकुल स्वर्ग जैसा है. साफसुथरा, बड़ा खुशहाल देश और सीमित जनसंख्या. यहां तो बस कीडे़मकोड़ों की जिंदगी जी रहे हैं.’’

किसी ने पूछ लिया, ‘‘आप अमेरिका हो आए हैं अथवा सुनीसुनाई बातें कर रहे हैं.’’

उन की बोलती बंद हो गई. सोचा, एक बार अमेरिका हो ही आएं. उन का बेटा कई बार उन्हें बुला चुका था. इस बार उस ने एअर टिकट भेजे तो दोनों पतिपत्नी अमेरिका यात्रा पर निकल पड़े.

अमेरिका पहुंचने पर रामनाथ ने देखा कि जैसा इस देश के बारे में उन्होंने सुना था वैसा ही उसे पाया. वह अपने बेटे से मिल कर बहुत खुश थे पर वह अपने काम में इतना व्यस्त था कि उसे अपने मांबाप के पास बैठने का समय ही नहीं था. वह सुबह 7 बजे निकलता तो देर रात को घर वापस आता. खाना भी वह घर पर अपने मांबाप के साथ कभीकभार ही खाता.

कुछ ही दिनों में रामनाथ और उन की पत्नी को लगने लगा कि वे जैसे अपने बेटे के घर में कैदी का जीवन जी रहे हैं. घर से बाहर निकलते तो बहुत कम लोग आतेजाते नजर आते. उन्हें अपने देश की भीड़भड़क्के वाली जिंदगी जीने की आदत जो थी. जब बहुत बोर होने लगे तो एक दिन उन्होंने बेटे से कहा, ‘‘हम सोच रहे हैं कि अब वापस भारत लौट जाएं. तुम्हारे लिए बहुत लड़कियां देख रखी हैं. तुम पसंद करो तो तुम्हारी शादी कर दें. यहां पर तुम्हारी देखभाल करने वाला कोई होगा तो हम भी निश्ंिचत हो जाएंगे.’’

बेटा समझदार था. अपने मांबाप की बोरियत को समझ गया. उस ने 2 दिन की छुट्टी ली और शनिवारइतवार को मिला कर कुल 4 दिन अपने मातापिता के साथ गुजारने का प्रोग्राम बनाया. कई देखने लायक जगहों की उन्हें सैर कराई और एक दिन पिकनिक के लिए उन्हें ले गया. उस की मां ने खाना पैक किया और वे चल पड़े.

पार्क में उन्हें बहुत लोग पिकनिक मनाते दिखे. कई अपने देश के भी थे. पेपर प्लेटों में खाना खाने के बाद रामनाथ ने जूठी प्लेट को उड़नतश्तरी की तरह हवा में फेंका. बेटा मना करने के लिए आगे बढ़ा पर उस के पिता ने अपना करतब कर दिया था. फेंकी हुई प्लेट उठाने के लिए वह जब तक आगे बढ़ता, एक सरकारी कर्मचारी, जो पार्क में ड्यूटी पर था, आगे आया और उस ने रामनाथ के हाथ में 100 डालर का चालान थमा दिया.

उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वह मन ही मन 100 डालर को रुपए में बदल रहे थे. वह कुछ भी कहने की हालत में न थे. यहां वही हो रहा था जो वह अपने देश में सख्ती से करने की हामी कई बार भर चुके थे.

कर्मचारी बोला, ‘‘आप को यहां के नियमों की जानकारी रखनी चाहिए और उन का पालन करना चाहिए. आप के जैसे लोग यहां आ कर गंदगी फैलाएंगे तो हमारे देश का क्या होगा?’’

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फर्क

भाग-1

कहानी- दिनेश पालीवाल

इरा को स्कूल से लौटते हुए देर हो गई थी. बस स्टाप पर इस वक्त तक भीड़ बहुत बढ़ गई थी. पता नहीं बस में चढ़ भी पाएगी या नहीं… कंधे पर भारी बैग लटकाए, पसीना पोंछती स्कूल के फाटक से निकल वह तेजी से बस स्टाप की ओर चल दी. यह बस छूट गई तो पूरे 1 घंटे की देर हो जाएगी… और 1 घंटे की देर का मतलब, पूरे घर की डांटफटकार सुननी पड़ेगी.

नौकरी के वक्त इरा ने जो प्रमाणपत्र लगाए थे उन में अनेक नाटकों में भाग लेने के प्रमाणपत्र भी थे और देश के नामीगिरामी नाटक निर्देशकों के प्रसिद्ध नाटकों में काम करने का अनुभव भी… प्रधानाचार्या ने उसी समय कह दिया था, ‘हम आप को रखने जा रहे हैं पर आप को यहां अंगरेजी पढ़ाने के अलावा बच्चों को नाटक भी कराने पड़ेंगे और इस के लिए अकसर स्कूल समय के बाद आप को घंटे दो घंटे रुकना पड़ेगा. अगर मंजूर हो तो हम अभी नियुक्तिपत्र दिए देते हैं.’

‘नाटक करना और नाटक कराना मेरी रुचि का काम है, मैडम…मैं तो खुद आप से कह कर यह काम करने की अनुमति लेती,’ बहुत प्रसन्न हुई थी इरा.

इंटरव्यू दिलवाने पति पवन संग आए थे, ‘जवाब ठीक से देना. तुम तो जानती हो, हमारे लिए तुम्हारी यह नौकरी कितनी जरूरी है.’

इरा को वह दिन अनायास याद आ गया था जब पवन अपने मातापिता के साथ उसे देखने आए थे. मां ने साफ कह दिया था, ‘लड़की सुंदर है, यह तो ठीक है पर अंगरेजी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. है, हम इसलिए आप की बेटी को पसंद कर सकते हैं…लड़की को कहीं नौकरी करनी पड़ेगी. इस में तो आप लोगों को एतराज न होगा?’

कहा तो मां ने था पर बात शायद पवन की थी, जो वे लोग घर से ही तय कर के आए होंगे. शादीब्याह अब एक सौदे के ही तहत तो किए जाते हैं. इरा के मांबाप ने हर लड़की के मांबाप की तरह खीसें निपोर दी थीं, ‘शादी से पहले लड़की पर मांबाप का हक होता है, उसे उन की इच्छानुसार चलना पड़ता है. पर शादी के बाद तो सासससुर ही उस के मातापिता होते हैं. उन्हीं की इच्छा सर्वोपरि होती है. आप लोग और पवन बाबू जो चाहेंगे, इरा वह हंसीखुशी करेगी. उसे करना चाहिए. हर बहू का यही धर्म होता है. इरा जरूर अपना धर्म निबाहेगी.’

बहू का धर्म, बहू के कर्तव्य, बहू के काम, बहू की मर्यादाएं, बहू के चारों ओर ख्ंिची हुई लक्ष्मण रेखाएं, बहू की अग्निपरीक्षाएं, बहू का सतीत्व, पवित्रता, चरित्र, घरपरिवार चलाने की जिम्मेदारियां… न जाने कितनी अपेक्षाएं बहुओं से की जाती हैं.

इंटरव्यू के बाद इरा को कुछ समय एक ओर कमरे में बैठने को कह दिया गया था. इस बीच किसी क्लर्क को बुलाया गया था. स्कूल के पैड पर जल्दी एक पत्र टाइप कर के मंगवाया गया था. प्रधानाचार्या ने वहीं हस्ताक्षर कर दिए थे और उसे बुला कर नियुक्तिपत्र थमा दिया था, ‘बधाई, आप चाहें तो कल से ही आ जाएं काम पर…’

धन्यवाद दे कर वह खुशी मन से बाहर आई तो पवन बड़ी बेचैनी से उस की प्रतीक्षा कर रहे थे. पूछा, ‘कैसा रहा इंटरव्यू?’

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जवाब में इरा ने नियुक्तिपत्र पवन को थमा दिया. एक सांस में पढ़ गए उसे पवन और एकदम खिल गए, ‘अरे, यानी 10 हजार की यह नौकरी तुम्हें मिल गई?’

‘इस पत्र से तो यही जाहिर हो रहा है,’ इरा इठला कर बोली थी, ‘पर जानते हो, अंगरेजी विषय की प्रथम श्रेणी उतनी काम नहीं आई जितने काम मेरे नाटक आए… नाटकों का अनुभव ज्यादा महत्त्व का रहा.’

सुन कर चेहरा मुरझा सा गया पवन का.

इरा को याद हो आया…शादी के बाद जब वह ससुराल आई थी और उस ने अपनी शैक्षणिक योग्यता के सारे प्रथम श्रेणी के प्रमाणपत्र पवन को दिखाए तो साथ में नाटकों के लिए मिले श्रेष्ठता के पुरस्कार और प्रमाणपत्र भी दिखाए थे. उन्हें बड़ी अनिच्छा से पवन ने एक ओर सरका दिया था, ‘अब यह नाटकसाटक सब भूल जाओ. ंिंजदगी नाटक नहीं है, इरा, एक ठोस हकीकत है. शादी के बाद जिंदगी की कठोर सचाइयों को जितनी जल्दी तुम समझ लोगी उतना ही अच्छा रहेगा तुम्हारे लिए… पापा रिटायर होने वाले हैं. मेरी अकेली तनख्वाह घर का यह भारी खर्च नहीं चला सकती. बहनों की शादी, भाइयों की पढ़ाईलिखाई… बहुत सी जिम्मेदारियां हैं हमारे सामने… तुम्हें जल्दी से जल्दी अपनी अंगरेजी की एम.ए. की डिगरी के सहारे कोई अच्छी नौकरी पकड़नी होगी…अगर तुम हिंदीसिंदी में एम.ए. होतीं तो मैं हरगिज तुम से शादी नहीं करता, भले ही तुम मुझे पसंद आ गईं होतीं तो भी… असल में मुझे ऐसे ही कैरियर वाली बीवी चाहिए थी जो मुझ पर बोझ न बने, बल्कि मेरे बोझ को बंटाए, कम करे…’

बस स्टाप की भीड़ बढ़ती जा रही थी. नाटक का पूर्वाभ्यास कराने में उस की चार्टर्र्ड बस निकल गई थी. अब तो सामान्य बस में ही घर जाना पड़ेगा.

घर के नाम पर ही उस के पूरे शरीर में एक फुरफुरी सी दौड़ गई. पवन अब तक लौट आए होंगे. चाय के लिए उस की प्रतीक्षा कर रहे होंगे. देवर हाकी के मैदान से लस्तपस्त लौटा होगा, उसे दूध गरम कर के देना भी इरा की ही जिम्मेदारी है. बड़ी ननद ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही है, वहां से लौटी होगी. वह भी इरा का इंतजार कर रही होगी. बेटे का आज गणित का पेपर था. वह भी इंतजार कर रहा होगा.

सहसा इरा को याद आया कि आज तो बेटे सुदेश का जन्मदिन है. उसे हर हाल में जल्दी घर पर पहुंचना चाहिए था पर प्रधानाचार्या ने एक व्यंग्य नाटक के सिलसिले में उसे रोक लिया था. इरा ने बहुत सोचसमझ कर हरिशंकर परसाई की एक व्यंग्य रचना ‘मातादीन इंस्पेक्टर चांद पर’ कहानी का नाट्यरूपांतर किया और बच्चों को तैयार कराना शुरू कर दिया. चांद के लोग सीधेसादे हैं. वहां भ्रष्टाचार नहीं है. पृथ्वी के बारे में चांद के निवासियों को पता चलता है कि वहां पुलिस सब से आवश्यक है. चांद के निवासी पृथ्वी से एक इंस्पेक्टर मातादीन को चांद पर लिवा ले जाते हैं. वे चाहते हैं कि चांद पर भी पृथ्वी की तरह एक पुलिस विभाग बनाया जाए जिस से भविष्य में अगर कोई अपराध हो तो उसे काबू किया जा सके.

इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर भ्रष्टाचार की ऐसी गंगा बहाते हैं कि दर्शक लोटपोट हो जाते हैं. बहुएं दहेज के कारण जलाई जाने लगीं. जेबकतरी, चोरी, हत्या, डकैती, राहजनी, लूटमार, आतंकवाद, अपहरण, वेश्याबाजार आदि इंस्पेक्टर मातादीन की कृपा से चांद पर होने लगे और चारों ओर त्राहित्राहि मच गई.

प्रधानाचार्या को जब यह कहानी इरा ने सुनाई तो वह बहुत खुश हुईं, ‘अच्छी कहानी है, इसे जरूर करो.’

इंस्पेक्टर मातादीन के लिए उन्होंने कक्षा 10 के एक विद्यार्थी मुकुल का नाम सुझा दिया.

‘मुकुल क्यों, मैम…?’ इरा ने यों ही पूछ लिया. इरा के दिमाग में कक्षा 11 का एक लड़का था.

‘उस के पिता यहां के बड़े उद्योगपति हैं और उन से हमें स्कूल के लिए बड़ा अनुदान चाहिए. उन के लड़के के सहारे हम उन्हें खुश कर सकेंगे और अनुदान में खासी रकम पा लेंगे.’

मुकुल में प्रतिभा भी थी. इंस्पेक्टर मातादीन का अभिनय वह बहुत कुशलता से करने लगा था. अपना पार्र्ट उस ने 2 दिन में रट कर तैयार कर लिया था. उसी के पूर्वाभ्यास में इरा को आज देर हो गई थी.

मन ही मन झल्लाती, कुढ़ती, परेशान, थकीऊबी इरा, बस की प्रतीक्षा करती बस स्टाप पर खड़ी थी.

‘‘गुड ईवनिंग, मैम…’’ सहसा उस के निकट एक महंगी कार आ कर रुकी और उस में से इंस्पेक्टर मातादीन का किरदार निभाने वाला लड़का मुकुल बाहर निकला, ‘‘गाड़ी में पापा हैं, मैम… प्लीज, हमारे साथ चलें आप… पीछे, पापा बता रहे हैं कहीं एक्सीडेंट हो गया है, वहां लोगों ने जाम लगा दिया है. गाडि़यां नहीं आ रहीं. आप को बस नहीं मिलेगी. हम पहुंचा देंगे आप को.’’

एक पल को हिचकती हुई सोचती रही इरा, जाए या न जाए? तभी गाड़ी से मुकुल के पिता बाहर निकल आए. उन्हें बाहर देखते ही पहचान गई इरा, ‘‘अरे आप…मुकुल, आप का बेटा है…?’’ एकदम चहक सी उठी इरा. अरसे बाद अपने सामने शरदजी को देख कर उसे जैसे आंखों पर विश्वास ही न हुआ हो.

‘‘बेटे ने जब आप का नाम बताया और कहा कि हरिशंकर परसाई की व्यंग्य कथा ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ को नाटक के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं तो विश्वास हो गया कि हो न हो, यह इरा मैम आप ही होंगी जिन्हें हम ने कभी अपने नाटक में नायिका के रूप में प्रस्तुत किया था… अपने-

आप को रोक नहीं पाया. बेटे को    लेने के बहाने मैं स्वयं आया, शरदजी बहुत खुश थे. आगे बोले, ‘‘प्लीज, इराजी… आप संकोच छोड़ें और हमारे साथ चलें… हम आप को घर छोड़ देंगे…’’

इरा दुविधा में फंसी पिछली सीट पर बैठी रही. बेटे के लिए कहीं से कोई उपहार खरीदे या नहीं? गाड़ी रुकवाना उचित लगेगा या नहीं? कहीं से केक लिया जा सकता है?… उस ने अपने पर्स में रखे नोट गिने… कुछ कम लगे. सकुचा कर बैठी रही.

मुकुल अपने पापा की बगल में आगे की सीट पर बैठा था. सहसा इरा ने उस से कहा, ‘‘मुकुल, जरा पापा से कहो, कहीं गाड़ी रोकें… मेरे बेटे का जन्मदिन है आज… उस के लिए कहीं से कोई चीज ले लूं और मिल जाए तो केक भी…’’

शरदजी ने गाड़ी रोकते हुए कहा, ‘‘अरे, आप भी कैसी मां हैं, इराजी? इतनी देर से आप साथ चल रही हैं और यह जरूरी बात बताई ही नहीं.’’

उन्होंने गाड़ी एक आलीशान शापिंग कांप्लेक्स की पार्किंग में पार्क की और इरा को ले कर चले तो सहम सी गई इरा. बोली, ‘‘यहां तो चीजें बहुत महंगी होंगी.’’

‘‘उस सब की आप फिक्र मत करिए. आप तो सिर्फ यह बताइए कि आप के बेटे को पसंद क्या आएगा?’’ हंसते हुए साथ चल रहे थे शरदजी.

कंप्यूटर गेम का सेट दिलवाने पर उतारू हो गए वे, ‘‘अरे भाई यह सब हमारा क्षेत्र है… हम यही सब डील करते हैं… आप का बेटा आज से कंप्यूटर गेम्स का आनंद लेगा…’’

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इरा की बेचैनी बढ़ गई, उस के पर्स में तो इतने रुपए भी नहीं थे.

सोशल मीडिया की दोस्ती

लेखक- प्रफुल्लचंद्र सिंह 

मीनू जैन अपने पति रिटायर्ड विंग कमांडर वी.के. जैन के साथ दिल्ली में द्वारका के सेक्टर-7 स्थित एयरफोर्स ऐंड नेवल औफिसर्स अपार्टमेंट में रहती

थीं. उन के परिवार में पति के अलावा एक बेटा आलोक और बेटी नेहा है. आलोक नोएडा स्थित एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करता है, जबकि शादीशुदा नेहा गोवा में डाक्टर है. विंग कमांडर वी.के. जैन एयरफोर्स से रिटायर होने के बाद इन दिनों इंडिगो एयरलाइंस में कमर्शियल पायलट हैं.

25 अप्रैल, 2019 को वी.के. जैन अपनी ड्यूटी पर थे. फ्लैट में मीनू जैन अकेली थीं. शाम को मीनू जैन को उन के पिता एच.पी. गर्ग ने फोन किया तो बातचीत के दौरान मीनू ने उन्हें बताया कि आज उस की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, इसलिए वह आराम कर रही है. दरअसल उन के पिता उन से मिलने आना चाहते थे. लेकिन जब मीनू ने उन से आराम करने की बात कही तो उन्होंने वहां से जाने का इरादा स्थगित कर दिया.

अब और मजबूत होंगी जाति की बेड़ियां

अगले दिन सुबह एच.पी. गर्ग ने बेटी की खैरियत जानने के लिए उस के मोबाइल पर फोन किया. काफी देर तक घंटी बजने के बाद भी जब मीनू ने उन का फोन रिसीव नहीं किया तो वे परेशान हो गए. कुछ देर बाद वह अपने बेटे अजीत के साथ बेटी के फ्लैट की ओर रवाना हो गए.

मीनू का फ्लैट तीसरे फ्लोर पर था. उन्होंने वहां पहुंच कर देखा तो दरवाजा अंदर से बंद था. कई बार डोरबेल बजाने के बाद भी जब फ्लैट के अंदर से मीनू ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह परेशान हो गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि मीनू को ऐसा क्या हो गया,जो दरवाजा नहीं खोल रही.

इस के बाद एच.पी. गर्ग ने पड़ोसी योगेश के फ्लैट की घंटी बजाई. योगेश ने दरवाजा खोला तो एच.पी. गर्ग ने उन्हें पूरी बात बताई. स्थिति गंभीर थी, इसलिए उन्होंने अजीत और उस के पिता को अपने फ्लैट में बुला लिया. इस के बाद योगेश की बालकनी में पहुंच कर अजीत अपनी बहन मीनू के फ्लैट की खिड़की के रास्ते अंदर पहुंच गया.

जब वह बैडरूम में पहुंचा तो वहां बैड के नीचे मीनू अचेतावस्था में पड़ी थी. पास में एक तकिया पड़ा था, जिस पर खून लगा हुआ था. यह मंजर देख कर वह घबरा गया. उस ने अंदर से फ्लैट का दरवाजा खोल कर यह जानकारी अपने पिता को दी.

एच.पी. गर्ग और योगेश ने फ्लैट में जा कर मीनू को देखा तो वह भी चौंक गए कि मीनू को यह क्या हो गया. चूंकि वह क्षेत्र थाना द्वारका (दक्षिण) के अंतर्गत आता है, इसलिए पीसीआर की सूचना पर थानाप्रभारी रामनिवास इंसपेक्टर सी.एल. मीणा के साथ मौके पर पहुंच गए.

मौके पर उन्होंने क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम को बुलाने के बाद उच्चाधिकारियों को भी सूचना दे दी. डीसीपी एंटो अलफोंस भी घटनास्थल पर पहुंच गए. चूंकि मामला एयरफोर्स के रिटायर्ड अधिकारी के परिवार का था, इसलिए उन्होंने स्पैशल स्टाफ की टीम को भी बुला लिया.

क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम का काम निपट जाने के बाद थानाप्रभारी रामनिवास और स्पैशल स्टाफ के इंसपेक्टर नवीन कुमार की टीम ने घटनास्थल का बारीकी से मुआयना किया. मीनू की हालत और तकिए पर लगे खून को देख कर लग रहा था कि मीनू की हत्या तकिए से सांस रोक कर की गई है.

मीनू का मोबाइल फोन और उस की कीमती अंगूठी गायब थी. इस के बाद जब फ्लैट की तलाशी ली गई तो रोशनदान का शीशा टूटा हुआ मिला. फ्लैट के बाकी कमरों का सारा सामान अस्तव्यस्त था. कुछ अलमारियां खुली हुई थीं और उन में रखे सामान बिखरे हुए थे. किचन के वाश बेसिन में चाय के कुछ कप रखे थे. एक कप में थोड़ी चाय बची हुई थी.

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यह सब देख कर पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि हत्यारे जो कोई भी हैं, मीनू जैन उन से न केवल अच्छी तरह परिचित थीं, बल्कि हत्यारों के साथ उन के आत्मीय संबंध भी रहे होंगे. क्योंकि किचन में रखे चाय के कप इस ओर इशारा कर रहे थे. थाना पुलिस ने मौके की जरूरी काररवाई करने के बाद लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी. फिर एच.पी. गर्ग की शिकायत पर हत्या तथा लूटपाट का मामला दर्ज कर लिया गया.

द्वारका जिले के डीसीपी एंटो अलफोंस ने इस सनसनीखेज हाईप्रोफाइल मामले की तफ्तीश के लिए एसीपी राजेंद्र सिंह के नेतृत्व में एक पुलिस टीम गठित की. इस टीम में इंसपेक्टर नवीन कुमार, इंसपेक्टर रामनिवास तथा इंसपेक्टर सी.एल. मीणा, एसआई अरविंद कुमार आदि को शामिल किया गया.

अगले दिन मृतका मीनू के पति वी.के. जैन ड्यूटी से वापस लौटे तो पत्नी की हत्या की बात सुन कर आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने फ्लैट में रखी सेफ आदि का मुआयना किया तो उस में रखी ज्वैलरी और कैश गायब था. उन्होंने पुलिस को बताया कि उन के फ्लैट से करीब 35 लाख रुपए के कीमती जेवर और कुछ कैश गायब है. इस के अलावा मीनू के दोनों मोबाइल फोन भी गायब थे.

स्पैशल स्टाफ के इंसपेक्टर नवीन कुमार ने एसीपी राजेंद्र सिंह के निर्देशन में काम करना शुरू कर दिया. उन्होंने मीनू के दोनों मोबाइल नंबरों की काल डिटेल्स निकलवाई. इस के अलावा एयरफोर्स ऐंड नेवल औफिसर्स अपार्टमेंट सोसायटी के गेट पर लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज भी खंगाली.

सीसीटीवी फुटेज में 2 कारें संदिग्ध नजर आईं, जिन में एक स्विफ्ट डिजायर थी. दोनों कारों की जांच की गई तो पता चला स्विफ्ट डिजायर कार का नंबर फरजी है. टीम को इसी कार पर शक हो गया.

जब गेट पर मौजूद गार्ड से स्विफ्ट डिजायर कार के बारे में पूछताछ की गई तो उस ने बताया कि 25 अप्रैल, 2019 की दोपहर को करीब 2 बजे एक अधेड़ आदमी मीनू जैन से मिलने आया था. जब उस से रजिस्टर में एंट्री करने के लिए कहा गया तो उस ने तुरंत मीनू जैन को फोन मिला दिया. मीनू ने बिना एंट्री किए उसे अंदर भेजने को कहा.

इस पर गार्ड ने उस व्यक्ति को मीनू के फ्लैट का पता बता कर उन के पास भेज दिया. शाम को दोनों घूमने के लिए सोसायटी से बाहर भी गए थे. यह सुन कर उन्होंने अनुमान लगाया कि मीनू जैन की हत्या में इसी आदमी का हाथ रहा होगा.

फोन की लोकेशन जयपुर की आ रही थी

मीनू जैन के दोनों मोबाइल फोन की काल डिटेल्स से पता चला कि उन का एक फोन घटना वाली रात की सुबह तक चालू था, उस के बाद उसे स्विच्ड औफ कर दिया गया था. जबकि दूसरा फोन चालू था, जिस की लोकेशन जयपुर की आ रही थी.

पुलिस के लिए यह अच्छी बात थी. पुलिस टीम गूगल मैप की मदद से 29 अप्रैल को जयपुर पहुंच गई. फिर दिल्ली पुलिस ने स्थानीय पुलिस की मदद से जयपुर के मुरलीपुरा इलाके में स्थित स्काइवे अपार्टमेंट में छापा मारा. वहां से दिनेश दीक्षित नाम के एक शख्स को हिरासत में ले लिया. उस के पास से सफेद रंग की वह स्विफ्ट डिजायर कार भी बरामद हो गई जो उस अपार्टमेंट के बाहर खड़ी थी.

जब उस से सख्ती से पूछताछ की गई तो उस ने 25 अप्रैल, 2019 की देर रात दिल्ली में मीनू जैन की हत्या और उस के फ्लैट में लूटपाट करने की बात स्वीकार कर ली.

पुलिस की तहकीकात और आरोपी दिनेश दीक्षित के बयान के अनुसार, मीनू जैन की हत्या के पीछे जो कहानी सामने आई, वह इस प्रकार थी—

52 वर्षीय मीनू जैन के पति वी.के. जैन एयरफोर्स में विंग कमांडर पद से रिटायर होने के बाद इंडिगो एयरलाइंस में बतौर पायलट तैनात थे. वह कामकाज के सिलसिले में ज्यादातर बाहर ही रहते थे. उन के दोनों बच्चे बड़े हो चुके थे.

बेटा नोएडा में एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करता था, जो वीकेंड में अपने मम्मीपापा से मिलने द्वारका आ जाता था. बेटी मोना (काल्पनिक नाम) डाक्टर थी, जो गोवा में रहती थी. ऐसे में मीनू जैन घर पर अकेली रहती थीं. वह अपना समय बिताने के लिए सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव रहती थीं.

सोशल मीडिया में बने प्रोफाइल पसंद आने पर बड़ी आसानी से नए दोस्त बन जाते हैं. बाद में दोस्ती बढ़ जाने के बाद आप उन से अपने विचार शेयर कर सकते हैं. अगर बात बन जाती है तो चैटिंग करने वाले आपस में अपने पर्सनल मोबाइल नंबर का आदानप्रदान भी कर लेते हैं. इस प्रकार दोस्ती का सिलसिला आगे बढ़ जाता है. मीनू जैन और दिनेश दीक्षित के मामले में भी ऐसा ही हुआ.

खिलाड़ी था दिनेश दीक्षित

जयपुर निवासी 56 वर्षीय दिनेश दीक्षित बेहद रंगीनमिजाज व्यक्ति था. उस ने 2 शादियां कर रखी थीं. उस की एक बीवी अपने 2 बेटों के साथ गांव में रहती थी, जबकि दूसरी बीवी के साथ वह जयपुर में किराए के एक फ्लैट में रहता था. बताया जाता है कि सन 2015 में ठगी के एक मामले में वह जेल भी जा चुका है. 2 साल जेल में रहने के बाद वह सन 2017 में जेल से बाहर आया था. इस के बाद वह अच्छी नस्ल के कुत्ते बेचने का बिजनैस करने लगा था.

इसी दौरान उस की मुलाकात दिल्ली के एक सट्टेबाज से हुई, जिस की बातों से प्रभावित हो कर वह क्रिकेट के आईपीएल मैचों में सट्टा लगाने लगा. इस धंधे की शुरुआत में उसे कुछ फायदा तो हुआ लेकिन बाद में उसे काफी नुकसान हुआ. वह कई लोगों का कर्जदार हो गया. इस कर्ज से उबरने के लिए उस ने अमीर औरतों को अपने जाल में फंसा कर उन से रुपए ऐंठने की योजना बनाई.

इस के बाद उस ने एक सोशल साइट के माध्यम से खूबसूरत और मालदार शादीशुदा औरतों से दोस्ती करनी शुरू कर दी. जल्द ही उस की दोस्ती कई ऐसी औरतों से हो गई, जो खाली समय में सोशल साइट पर दोस्तों के साथ अपना टाइमपास किया करती थीं.

करीब 5 महीने पहले सोशल साइट पर दिनेश दीक्षित और मीनू जैन दोस्त बन गए. अब जब भी खाली वक्त मिलता, दोनों सोशल साइट पर चैटिंग करते रहते थे. इस से उन का मन बहल जाता था और बोरियत महसूस नहीं होती थी. शीघ्र ही उन की दोस्ती गहरी हो गई.

मीनू जैन के पति चूंकि इंडिगो एयरलाइंस में पायलट थे, इसलिए वह घर से अकसर बाहर ही रहते थे. इस बात का फायदा उठा कर मीनू जैन ने पति की अनुपस्थिति में दिनेश दीक्षित को अपने फ्लैट में बुलाना शुरू कर दिया.

भोलीभाली मीनू जैन फंस गईं दिनेश दीक्षित के जाल में

दिनेश ने देखा कि मीनू जैन साफ दिल की भोलीभाली औरत हैं तो वह मन ही मन उन्हें लूटने की योजना बनाने लगा. करीब 5 महीने की दोस्ती के दौरान मीनू जैन को दिनेश दीक्षित पर इस कदर विश्वास हो गया कि जब भी उन के पति और बच्चे घर पर नहीं रहते, वह उसे मैसेज कर के अपने पास बुला लेतीं और फिर दोनों अपने दिल की तमाम हसरतें पूरी कर लिया करते थे.

25 अप्रैल, 2019 को भी वी.के. जैन अपने फ्लैट पर नहीं थे. पति की अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए मीनू जैन ने दिनेश दीक्षित को फ्लैट पर आने का मैसेज भेजा तो वह अपनी सफेद रंग की स्विफ्ट डिजायर कार से दोपहर के वक्त सोसायटी के गेट पर पहुंच गया.

जब सोसायटी के गेट पर मौजूद गार्ड ने उस का पता पूछा तो उस ने मीनू जैन को फोन कर गार्ड से उन की बात करा दी. मीनू जैन के कहने पर गार्ड ने उस की कार का नंबर रजिस्टर में नोट करने के बाद उसे अंदर जाने को कह दिया.

दिनेश दीक्षित मीनू जैन के फ्लैट में पहुंचा तो उसे सामने देख कर वह बहुत खुश हुईं. चाय और नमकीन लेने के बाद दोनों ही बातों में मशगूल हो गए. लगभग पौने 9 बजे मीनू और दिनेश दोनों डिनर के लिए कार से सोसायटी के बाहर निकले.

करीब आधे घंटे के बाद लौटते समय दिनेश ने मूड बनाने के लिए वोदका की एक बोतल और कुछ स्नैक्स खरीद लिए. सोसायटी में पहुंच कर दोनों ने ड्रिंक करनी शुरू कर दी. अपनी योजना को अंजाम देने के लिए दिनेश दीक्षित ने मीनू जैन को अधिक मात्रा में वोदका पिलाई और खुद कम पी.

रात करीब 2 बजे मीनू जैन शराब के नशे में धुत हो कर शिथिल पड़ गईं तो दिनेश दीक्षित ने मौका देख कर तकिए से उन का मुंह दबा दिया. जब मीनू ने छटपटा कर दम तोड़ दिया तो उस ने बड़े इत्मीनान से उन की सेफ में रखे करीब 50 लाख रुपए के आभूषण और नकदी निकाल ली.

मीनू जैन की अंगुली में एक बेशकीमती अंगूठी थी. उस ने वह अंगूठी भी उतार कर अपने पास रख ली. इस के अलावा उन के दोनों मोबाइल फोन भी उठा लिए. रात भर वह मीनू की लाश के पास बैठ कर शराब पीता रहा और तड़के 5 बजे फ्लैट से सारा लूट का सामान ले कर रोशनदान से बाहर निकल गया. फिर अपनी स्विफ्ट कार से जयपुर के लिए रवाना हो गया.

गुड़गांव के टोल टैक्स से आगे निकलने के बाद उस ने मीनू जैन के एक मोबाइल फोन को स्विच्ड औफ कर दिया. जबकि दूसरे फोन को वह स्विच्ड औफ करना भूल गया. जयपुर पहुंचने के बाद वह पूरी तरह निश्चिंत था कि पुलिस उस तक नहीं पहुंच सकेगी. लेकिन 29 अप्रैल, 2019 को इंसपेक्टर नवीन कुमार की टीम ने उसे गिरफ्तार कर लिया. उस के पास से मीनू जैन के यहां से लूटा गया सारा सामान बरामद कर लिया गया.

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दिनेश दीक्षित से पूछताछ के बाद पुलिस ने उसे द्वारका (साउथ) थाने के थानाप्रभारी रामनिवास को सौंप दिया. थाना पुलिस ने दिनेश दीक्षित से पूछताछ के बाद उसे द्वारका कोर्ट में पेश कर 2 दिन के रिमांड पर ले लिया.

रिमांड अवधि पूरी होने के बाद उसे फिर से द्वारका कोर्ट में पेश कर 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. कथा लिखने तक दिनेश दीक्षित जेल में बंद था. केस की विवेचना थानाप्रभारी रामनिवास कर रहे थे.

—घटना में शामिल कुछ पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं.

(कहानी सौजन्य- मनोहर कहानियां) 

भटकाव के बाद

कहानी- डौ. शीतांशु भारद्वाज

राज्य में पंचायत समितियों के चुनाव की सुगबुगाहट होते ही राजनीतिबाज सक्रिय होने लगे. सरपंच की नेमप्लेट वाली जीप ले कर कमलेश भी अपने इलाके के दौरे पर घर से निकल पड़ी. जीप चलाती हुई कमलेश मन ही मन पिछले 4 सालों के अपने काम का हिसाब लगाने लगी. उसे लगा जैसे इन 4 सालों में उस ने खोया अधिक है, पाया कुछ भी नहीं. ऐसा जीवन जिस में कुछ हासिल ही न हुआ हो, किस काम का.

जीप चलाती हुई कमलेश दूरदूर तक छितराए खेतों को देखने लगी. किसान अपने खेतों को साफ कर रहे थे. एक स्थान पर सड़क के किनारे उस ने जीप खड़ी की, धूप से बचने के लिए आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर कर खेतों की ओर चल दी.

सामने वाले खेत में झाड़झंखाड़ साफ करती हुई बिरमो ने सड़क के किनारे खड़ी जीप को देखा और बेटे से पूछा, ‘‘अरे, महावीर, देख तो किस की जीप है.’’

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‘‘चुनाव आ रहे हैं न, अम्मां. कोई पार्टी वाला होगा,’’ इतना कह कर वह अपना काम करने लगा.

बिरमो भी उसी प्रकार काम करती रही.

कमलेश उसी खेत की ओर चली आई और वहां काम कर रही बिरमो को नमस्कार कर बोली, ‘‘इस बार की फसल कैसी हुई ताई?’’

‘‘अब की तो पौ बारह हो आई है बाई सा,’’ बिरमो का हाथ ऊपर की ओर उठ गया.

‘‘चलो,’’ कमलेश ने संतोष प्रकट किया, ‘‘बरसों से यह इलाका सूखे की मार झेल रहा था पर इस बार कुदरत मेहरबान है.’’

कमलेश को देख कर बिरमो को 4 साल पहले की याद आने लगी. पंचायती चुनाव में सारे इलाके में चहलपहल थी. अलगअलग पार्टियों के उम्मीदवार हवा में नारे उछालने लगे थे. यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी इसलिए इस चुनावी दंगल में 8 महिलाएं आमनेसामने थीं. दूसरे उम्मीदवारों की ही तरह कमलेश भी एक उम्मीदवार थी और गांवगांव में जा कर वह भी वोटों की भीख मांग रही थी. जल्द ही कमलेश महिलाओं के बीच लोकप्रिय होने लगी और उस चुनाव में वह भारी मतों से जीती थी.

‘‘क्यों बाई सा, आज इधर कैसे आना हुआ?’’ बिरमो ने पूछा.

‘‘अरे, मां, बाई सा वोटों की भीख मांगने आई होंगी,’’ महावीर बोल पड़ा.

महावीर का यह व्यंग्य कमलेश के कलेजे पर तीर की तरह चुभ गया. फिर भी समय की नजाकत को देख कर वह मुसकरा दी और बोली, ‘‘यह ठीक कह रहा है, ताई. हम नेताओं का भीख मांगने का समय फिर आ गया है. पंचायती चुनाव जो आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है बाई सा,’’ बिरमो बोली, ‘‘इस बार तो तगड़ा ही मुकाबला होगा.’’

कमलेश जीप के पास चली आई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह किधर जाए. फिर भी जाना तो था ही, सो जीप स्टार्ट कर चल दी. दिमाग में आज की राजनीति को ले कर उधेड़बुन मची थी कि अतीत में दादाजी के कहे शब्द याद आने लगे. दरअसल, राजनीति से दादाजी को बेहद घृणा थी, ग्राम पंचायत की बैठकों में वह भाग नहीं लेते थे.

एक दिन कमलेश ने उन से पूछा था, ‘दादाजी, आप पंचायती बैठकों में भाग क्यों नहीं लिया करते?’

‘इसलिए कि वहां टुच्ची राजनीति चला करती है,’ वह बोले थे.

‘तो राजनीति में नहीं आना चाहिए?’ उस ने जानना चाहा था.

‘देख बेटी, कभी कहा जाता था कि भीख मांगना सब से निकृष्ट काम है और आज राजनीति उस से भी निकृष्ट हो चली है, क्योंकि नेता वोटों की भीख मांगने के लिए जाने कितनी तरह का झूठ बोलते हैं.’

उस ने भी तो 4 साल पहले अपनी जनता से कितने ही वादे किए थे लेकिन उन सभी को आज तक वह कहां पूरा कर सकी है.

गहरी सांस खींच कर कमलेश ने जीप एक कच्चे रास्ते पर मोड़ दी. धूल के गुबार छोड़ती हुई जीप एक गांव के बीचोंबीच आ कर रुकी. उस ने आंखों पर चश्मा लगाया और जीप से उतर गई.

देखते ही देखते कमलेश को गांव वालों ने घेर लिया. एक बुजुर्ग बच्चों को हटाते हुए बोले, ‘‘हटो पीछे, प्रधानजी को बैठ तो लेने दो.’’

एक आदमी कुरसी ले आया और कमलेश से उस पर बैठने के लिए अनुरोध किया.

कमलेश कुरसी पर बैठ गई. बुजुर्ग ने मुसकरा कर कहा, ‘‘प्रधानजी, चुनाव फिर आने वाला है. हमारे गांव का कुछ भी तो विकास नहीं हो पाया.

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‘‘हम तो सोच रहे थे कि आप की सरपंची में औरतों का शोषण रुक जाएगा, क्योंकि आप एक पढ़ीलिखी महिला हो और हमारी समस्याओं से वाकिफ हो, लेकिन इन पिछले 4 सालों में हमारे इलाके में बलात्कार और दहेज हत्याओं में बढ़ोतरी ही हुई है.’’

किसी दूसरी महिला ने शिकायत की, ‘‘इस गांव में तो बिजलीपानी का रोना ही रोना है.’’

‘‘यही बात शिक्षा की भी है,’’ एक युवक बोला, ‘‘दोपहर के भोजन के नाम पर बच्चों की पढ़ाई चौपट हो आई है. कहीं शिक्षक नदारद हैं तो कहीं बच्चे इधरउधर घूम रहे होते हैं.’’

कमलेश उन तानेउलाहनों से बेहद दुखी हो गई. जहां भी जाती लोग उस से प्रश्नों की झड़ी ही लगा देते थे. एक गांव में कमलेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘अरे, अपनी ही गाए जाओगे या मेरी भी सुनोगे.’’

‘‘बोलो जी,’’ एक महिला बोली.

‘‘सच तो यह है कि इन दिनों अपने देश में भ्रष्टाचार का नंगा नाच चल रहा है. नीचे से ले कर ऊपर तक सभी तो इस में डुबकियां लगा रहे हैं. इसी के चलते इस गांव का ही नहीं पूरे देश का विकास कार्य बाधित हुआ है. ऐसे में कोई जन प्रतिनिधि करे भी तो क्या करे?’’

‘‘सरपंचजी,’’ एक बुजुर्ग बोले, ‘‘पांचों उंगलियां बराबर तो नहीं होती न.’’

‘‘लेकिन ताऊ,’’ कमलेश बोली, ‘‘यह तो आप भी जानते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिसा करता है. साफसुथरी छवि वाले अपनी मौत आप ही मरा करते हैं. उन को कोई भी तो नहीं पूछता.’’

एक दूसरे बुजुर्ग उसे सुझाव देने लगे, ‘‘ऐसा है, अगर आप अपने इलाके के विकास का दमखम नहीं रखती हैं तो इस चुनावी दंगल से अपनेआप को अलग कर लें.’’

‘‘ठीक है, मैं आप के इस सुझाव पर गहराई से विचार करूंगी,’’ यह कहते हुए कमलेश वहां से उठी और जीप स्टार्ट कर सड़क की ओर चल दी. गांव वालों के सवाल, ताने, उलाहने उस के दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर रहे थे. ऐसे में उसे अपना अतीत याद आने लगा.

कमलेश एक पब्लिक स्कूल में अच्छीभली अध्यापकी करती थी. उस के विषय में बोर्ड की परीक्षा में बच्चों का परिणाम शत- प्रतिशत रहता था. प्रबंध समिति उस के कार्य से बेहद खुश थी. तभी एक दिन उस के पास चौधरी दुर्जन स्ंिह आए और उसे राजनीति के लिए उकसाने लगे.

‘नहीं, चौधरी साहब, मैं राजनीति नहीं कर पाऊंगी. मुझ में ऐसा माद्दा नहीं है.’

‘पगली,’ चौधरी मुसकरा दिए थे, ‘तू पढ़ीलिखी है. हमारे इलाके से महिला के लिए सीट आरक्षित है. तू तो बस, अपना नामांकनपत्र भर दे, बाकी मैं तुझे सरपंच बनवा दूंगा.’

कमलेश ने घर आ कर पति से विचारविमर्श किया था. उस के अध्यापक पति ने कहा था, ‘आज की राजनीति आदमी के लिए बैसाखी का काम करती है. बाकी मैं चौधरी साहब से बात कर लूंगा.’

‘लेकिन मैं तो राजनीति के बारे में कखग भी नहीं जानती,’ कमलेश ने चिंता जतलाई थी.

‘अरे वाह,’ पति ने ठहाका लगाया था, ‘सुना नहीं कि करतकरत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. तुम्हें चौधरी साहब समयसमय पर दिशानिर्देश देते रहेंगे.’

कमलेश के पति ने चौधरी दुर्जन सिंह से संपर्क किया था. उन्होंने उस की जीत का पूरा भरोसा दिलाया था. 2 दिन बाद कमलेश ने विद्यालय से त्यागपत्र दे दिया था.

प्रधानाचार्य ने चौंक कर कमलेश से पूछा था, ‘हमारे विद्यालय का क्या होगा?’

‘सर, मेरे राजनीतिक कैरियर का प्रश्न है,’ कमलेश ने विनम्रता से कहा था, ‘मुझे राजनीति में जाने का अवसर मिला है. अब ऐसे में…’

प्रधानाचार्य ने सर्द आह भर कर कहा था, ‘ठीक है, आप का यह त्यागपत्र मैं चेयरमैन साहब के आगे रख दूंगा.’

इस प्रकार कमलेश शिक्षा के क्षेत्र से राजनीति के मैदान में आ कूदी थी. चौधरी दुर्जन सिंह उसे राजनीति की सारी बारीकियां समझाते रहते. उस पंचायत समिति के चुनाव में वह सर्वसम्मति से प्रधान चुनी गई थी.

अब कमलेश मन से समाजसेवा में जुट गई. सुबह से ले कर शाम तक वह क्षेत्र में घूमती रहती. बिजली, पानी, राहत कार्यों की देखरेख के लिए उस ने अपने क्षेत्रवासियों के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी थी. शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग से भी संपर्क कर उस ने जनता को बेहतर सेवाएं उपलब्ध करवाई थीं.

‘ऐसा है, प्रधानजी,’ एक दिन विकास अधिकारी रहस्यमय ढंग से मुसकरा दिए थे, ‘आप का इलाका सूखे की चपेट में है. ऊपर से जो डेढ़ लाख की सहायता राशि आई है, क्यों न उसे हम कागजों पर दिखा दें और उस पैसे को…’

कमलेश ताव खा गई और विकास अधिकारी की बात को बीच में काट कर बोली, ‘बीडीओ साहब, आप अपना बोरियाबिस्तर बांध लें. मुझे आप जैसा भ्रष्ट अधिकारी इस विकास खंड में नहीं चाहिए.’

उसी दिन कमलेश ने कलक्टर से मिल कर उस विकास अधिकारी की वहां से बदली करवा दी थी. तीसरे दिन चौधरी साहब का उस के नाम फोन आया था.

‘कमलेश, सरकारी अधिकारियों के साथ तालमेल बिठा कर रखा कर.’

‘नहीं, चौधरी साहब,’ वह बोली थी, ‘मुझे ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की जरूरत नहीं है.’

आज कमलेश का 6 गांवों का दौरा करने का कार्यक्रम था. वह अपने प्रति लोगों का दिल टटोलना चाहती थी लेकिन 2-3 गांव के दौरे कर लेने के बाद ही उस का खुद का दिल टूट चला था. उधर से वह सीधी घर चली आई और घर में घुसते ही पति से बोली, ‘‘मैं अब राजनीति से तौबा करने जा रही हूं.’’

पति ने पूछा, ‘‘अरे, यह तुम कह रही हो? ऐसी क्या बात हो गई?’’

‘‘आज की राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय बन कर रह गई है. मैं जहांजहां भी गई मुझे लोगों के तानेउलाहने सुनने को मिले. ईमानदारी के साथ काम करती हूं और लोग मुझे ही भ्र्रष्ट समझते हैं. इसलिए मैं इस से संन्यास लेने जा रही हूं.’’

रात में जब पूरा घर गहरी नींद में सो रहा था तब कमलेश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. बिस्तर पर करवटें बदलती हुई वह वैचारिक बवंडर में उड़ती रही.

सुबह उठी तो उस का मन बहुत हलका था. चायनाश्ता लेने के बाद पति ने उस से पूछा, ‘‘आज तुम्हारा क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘आज मैं उसी पब्लिक स्कूल में जा रही हूं जहां पहले पढ़ाती थी,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘कौन जाने वे लोग मुझे फिर से रख लें.’’

‘‘देख लो,’’ पति भी अपने विद्यालय जाने की तैयारी करने लगे.

कमलेश सीधे प्रधानाचार्य की चौखट पर जा खड़ी हुई. उस ने अंदर आने की अनुमति चाही तो प्रधानाचार्य ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया.

कमलेश एक कुरसी पर बैठ गई. प्रधानाचार्य उस की ओर घूम गए और बोले, ‘‘मैडम, इस बार भी चुनावी दंगल में उतर रही हैं क्या?’’

‘‘नहीं सर,’’ कमलेश मुसकरा दी, ‘‘मैं राजनीति से नाता तोड़ रही हूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ प्रधानाचार्य ने पूछा.

‘‘उस गंदगी में मेरा सांस लेना दूभर हो गया है.’’

‘‘अब क्या इरादा है?’’

‘‘सर, यदि संभव हो तो मेरी सेवाएं फिर से ले लें,’’ कमलेश ने निवेदन किया.

‘‘संभव क्यों नहीं है,’’ प्रधानाचार्य ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘आप जैसी प्रतिभाशाली अध्यापिका से हमारे स्कूल का गौरव बढ़ेगा.’’

‘‘तो मैं कल से आ जाऊं, सर?’’ कमलेश ने पूछा.

‘‘कल क्यों? आज से ही क्यों नहीं?’’ प्रधानाचार्य मुसकरा दिए और बोले, ‘‘फिलहाल तो आज आप 12वीं कक्षा के छात्रों का पीरियड ले लें. कल से आप को आप का टाइम टेबल दे दिया जाएगा.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ कमलेश ने उन का दिल से आभार प्रकट किया.

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कक्षा में पहुंच कर कमलेश बच्चों को अपना विषय पढ़ाने लगी. सभी छात्र उसे ध्यान से सुनने लगे. आज वह वर्षों बाद अपने अंतर में अपार शांति महसूस कर रही थी. बहुत भटकाव के बाद ही वह मानसिक शांति का अनुभव कर रही थी.

कथा की अंतर्कथा

व्यंग्य- रमेश चंद्र शर्मा

मानस कथा के आयोजन पर आयोजकों ने उभरते हुए संत भवानंद को आमंत्रित करने की सोची. लेकिन कथा प्रारंभ होने से पहले आयोजकों और भवानंद के बीच धर्म के नाम पर जन कल्याण के लिए चढ़ावे की रकम तय हो गई थी. होती भी क्यों न, धर्म के नाम पर चांदी काटने वालों की कमी थोड़े ही है.

कलयुग केवल नाम अधारा, यानी कलयुग में केवल ईश्वर का नाम भर लेने से व्यक्ति भवसागर पार कर जाता है. कितना शार्टकट. मगर कलयुगी इनसान मोहमाया के चक्कर में इस तरह उलझा है कि उसे ईश्वर का नाम लेने की भी फुर्सत नहीं है. लिहाजा, कुछ भले इनसानों ने तय किया कि भई, नाम ले नहीं सकता, तो सुन ही ले.

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इसी भले काम के लिए इन लोगों ने जनकल्याण सत्संग समिति बनाई है. समिति हर साल मानसकथा का आयोजन करती है. आयोजन यों ही नहीं हो जाता है, समिति के सारे पदाधिकारी, सदस्यगण रातदिन पसीना बहाते हैं. कामधंधा खोटी करते हैं, तब जा कर आयोजन हो पाता है. भले काम के लिए भागदौड़ तो करनी ही पड़ती है. परोपकार के लिए लोगों ने अपने प्राण तक गंवा दिए हैं. धर्मशास्त्र इस का गवाह है.

बहरहाल, इस साल भी मानसकथा का आयोजन करना है और इस के लिए अध्यक्ष ने समिति की मीटिंग बुलाई है. मीटिंग में गंभीर विचारविमर्श चल रहा है.

‘‘इस वर्ष भी मानसजी की कथा करनी है,’’ समिति के अध्यक्ष संजयजी ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘कार्यक्रम पिछले सालों के अनुसार ही रहेंगे, पहले दिन कलश यात्रा और अंतिम दिन शोभा यात्रा. मगर एक बात है…’’

‘‘वह क्या?’’ सचिव मनोहरजी ने पूछा.

‘‘सालभर में महंगाई बहुत बढ़ गई है,’’ अध्यक्ष संजयजी बोले, ‘‘सहयोग करने वाले नए लोग जोड़ने होंगे. वैसे पुराने सभी लोग हैं ही, विधायक माणकजी, तेलमिल वाले अग्रवालजी, दालमिल वाले माहेश्वरीजी, ठेकेदार बत्राजी…अब नया जुड़े तो कौन जुड़े…बोलो?’’

‘‘संजयजी, मेरी मानो तो एक काम करें,’’ वयोवृद्ध सोनीजी बोले, ‘‘मेरी जुआसट्टा किंग मानेजी से अच्छी बातचीत है…आप कहो तो बात करूं…आदमी दरियादिल है…धरम के काम में पीछे नहीं हटता है.’’

‘‘वह तो है…मगर,’’ संजयजी के चेहरे पर उलझन के भाव आए, ‘‘आप जानो…दो नंबर का पैसा…फिर भगवान का काम…’’

‘‘आप भी संजयजी…भली कही,’’ सोनीजी ने मच्छर भगाने की अदा में हाथ हिला कर संजयजी की दुविधा भगाते हुए कहा, ‘‘क्या एक नंबर का…और क्या दो नंबर का. राम के काम में लगाने के लिए आया पैसा राम के दरबार में पाक हो जाता है.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ संजयजी ने स्वीकृति देते हुए कहा, ‘‘इस साल कथा के लिए किसे बुलाएं…मेरा विचार है कि जमेजमाए को बुलाएंगे तो भाव खाएगा. इन दिनों संत भवानंदजी का नाम उभर रहा है. नएनए हैं, ठीकठाक जम जाएगा. इन के एक आदमी से मेरी थोड़ीबहुत बातचीत भी है.’’

‘‘तो फिर ठीक है, इन्हें ही बुला लो,’’ मनोहरजी ने हामी भरी.

समिति की बैठक संपन्न हुई. संदेशवाहक संदेश ले कर चला गया.

संत भवानंदजी का कमरा. तख्त पर बिछे गद्दे पर बैठे भवानंदजी. लगभग 30-32 वर्षीय दिव्य पुरुष. चेहरा आध्यात्मिक तेज से चमकता हुआ. मस्तक पर त्रिपुंड. भरी हुई दाढ़ीमूंछें. कंधे पर लहराते बाल. भगवा परिधान. गले में अनेक मालाएं. हाथों की उंगलियों में अलगअलग रत्नों की अंगूठियां.

‘‘राधेश्यामजी, जनकल्याण समिति वालों का प्रस्ताव आया है मानसकथा के लिए,’’ भवानंदजी ने अपने सामने बैठे एक सज्जन से कहा.

‘‘कथा कब से है?’’ राधेश्यामजी ने पूछा.

‘‘7 अप्रैल से है. 17 को पूर्णाहुति होगी. उसी दिन शोभायात्रा भी होगी,’’ भवानंदजी ने बताया.

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‘‘गुरुजी,’’ कमलेशजी बोले, ‘‘बात पहले साफ करनी होगी. आजकल आयोजकों का ठिकाना नहीं है. कहते क्या हैं, करते क्या हैं. पहले लोग भले हुआ करते थे. अब कथाभागवत में भी धंधेबाज भर गए हैं.’’

‘‘बात तो आप की सही है,’’ भवानंदजी ने सहमति जाहिर करते हुए कहा, ‘‘पहले तो कुछ एडवांस ले लेते हैं. साथ ही दानदक्षिणा, यात्राव्यय, आवास, भोजन, चढ़ावा, साउंड, कलाकारों के पैसे, स्टाल सब नक्कीपक्की कर लेते हैं… अच्छा राधेश्यामजी, ऐसा करो, समिति वालों से परसों मीटिंग तय कर लो.’’

राधेश्यामजी का निवास स्थान. समिति के पदाधिकारियों और भवानंद में चर्चा चल रही है.

‘‘और संजयजी, कैसे हैं आप… कुशलमंगल तो हैं न,’’ भवानंद ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप का प्रस्ताव मुझे मिला. आप तो भई, जनकल्याण में लगे हैं. आजकल धरम के काम करने वाले हैं ही कहां? आप जैसे धार्मिक, समाजसेवी ही तन, मन, धन से लगे हैं.’’

‘‘सब आप का आशीर्वाद है, गुरुजी,’’ संजयजी दोनों हाथ जोड़ कर विनम्रतापूर्वक कहते हैं, ‘‘हम सब तो निमित्त हैं. करवाने वाले तो रामजी हैं. उन की कृपा से चार जने आप जैसे संतों की अमृतवाणी सुन लेते हैं.’’

‘‘चलो, अच्छा है, जैसी प्रभु इच्छा, सबहि नचावत राम गुसाईं,’’ और दोनों हाथ उठाते हुए पूछा, ‘‘कैसे, क्या तय किया है आप ने?’’

‘‘गुरुजी, कथा के पहले कलश यात्रा निकलेगी. कथा के 9 दिनों में पोथी पूजा आरती में मंत्रीजी, विधायकजी और दूसरे कई वी.आई.पी. आरती करेंगे. आखिरी दिन पूर्णाहुति के बाद शोभा यात्रा निकलेगी.’’

‘‘और बाकी व्यवस्थाएं जैसे प्रचारप्रसार आदि?’’ भवानंद बोले.

‘‘गुरुजी, प्रचारप्रसार तो आप की तरफ से ही होगा,’’ मनोहरजी ने कहा.

‘‘प्रचारप्रसार तो आयोजक ही करते हैं,’’ राधेश्यामजी बोले.

‘‘संजयजी,’’ भवानंद ने कहा, ‘‘हमारे साथ 5 कलाकार होंगे. वैसे तो कलाकार 500 रुपए रोज मांगते हैं. मगर मैं उन्हें 350 रुपए में राजी कर लूंगा. साउंड वाला भी 15 हजार मांगता है, मगर 12 हजार में मान जाएगा. 2 से कम में पंडित नहीं मानेगा. आगे दक्षिणा जो आप चाहो… मैं तो कुछ मांगता ही नहीं, जो श्रद्धा में आप दे दें.’’

‘‘गुरुजी,’’ राधेश्यामजी ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘हम तो समाजसेवा करते हैं. हमारे पास क्या है. हम ने तो पिछले साल हर्षाजी को भी कुछ नहीं दिया था.’’

‘‘चलो, एक काम करना. पूर्णाहुति वाले दिन मंच पर दक्षिणा के नाम पर खाली लिफाफा ही दे देना… हमारा सम्मान हो जाएगा.’’

‘‘नहीं…नहीं…गुरुजी, ऐसी बात नहीं,’’ संजयजी ने विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘जो भी बन पड़ेगा, आप के श्रीचरणों में भेंट करेंगे.’’

‘‘अब चढ़ावे की बात कर लें,’’ भवानंद बोले, ‘‘दानपेटी, आरती और पोथी की आवक का कैसा क्या…’’

‘‘वह आवक तो आयोजकों की होती है,’’ संजयजी बोले.

‘‘दानपेटी और पोथी की आवक आप की,’’ संत भवानंद ने कहा, ‘‘मगर आरती के थाल की आवक हमारी होगी, ठीक है?’’

‘‘जी, गुरुजी.’’

‘‘संजयजी,’’ भवानंद ने चर्चा आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पंडाल के बाहर प्रांगण में हमारे कैसेट, सीडी, तसवीरें, किताबों और मालाओं आदि का स्टाल लगेगा, आप को कोई आपत्ति तो नहीं?’’

‘‘नहीं गुरुजी, उस में क्या आपत्ति,’’ संजयजी ने कहा.

‘‘हम 8 लोग आएंगे. यात्रा व्यय, आवास व्यवस्था के अलावा 800 रुपए भोजन खर्चा लगेगा,’’ भवानंद ने कहा.

‘‘गुरुजी,’’ मनोहर ने कहा, ‘‘भोजन सामग्री आप को आवास पर ही मिल जाएगी. एक गाड़ी भी लगा देंगे.’’

‘‘चलो, अच्छा है,’’ भवानंद ने कहा और चर्चा समाप्त हुई.

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रामकथा शुरू होने के पहले आयोजकों की फोन पर होने वाली चर्चाओं के अंश कुछ इस प्रकार होते हैं :

‘‘हां, भाई साहब…संजय बोल रहा हूं…अब क्या बताएं…धर्म का काम है, संकल्प लिया है तो करना ही है. पलभर की भी फुर्सत नहीं है. 1 माह हो गया है… दुकान की तरफ तो झांका भी नहीं है.’’

‘‘जी…भाई साहब…खर्चा तो बहुत है, प्रचार, टेंट, अतिथियों का स्वागत, साउंड, कलश यात्रा, शोभा यात्रा सबकुछ जन सहयोग से…हां भाई साहब, जेब से भरना पड़ेगा…आप कुछ सहयोग करें… धन्यवाद. भाई साहब, पुण्य की जड़ पाताल तक…यह धरती आप जैसे दानवीरों, धर्मात्माओं के दम पर ही टिकी हुई है.’’

उधर भवानंद अपनों से इस तरह बात करते हैं, ‘‘अब क्या करें…आयोजकों का प्रबल आग्रह था…स्वीकृति देनी पड़ी…क्या बताएं मलकानीजी, देहली की कथा छोड़नी पड़ी…अब मिलनामिलाना क्या…5-10 हजार अपनी गांठ से ही लगाना है. खैर, कोई बात नहीं है, रामजी का नाम ही लेंगे…’’

‘‘गुरुजी, विजय का फोन है,’’ राधेश्याम चोगा भवानंद को थमाते हैं.

‘‘हां विजय, कथा 7 से है,’’ भवानंद बोलते हैं, ‘‘क्या कहा, 350 रुपए…कलाकारों के इतने भाव कब से हो गए? एक बात 100 रुपए…अच्छा चल, आखिरी बात 150 रुपए…आना हो तो आ…नहीं तो फिर दूसरे से बात करूं… ठीक है… 7 को आ जाना.’’

‘‘राधेश्यामजी, पंडित को फोन लगाना,’’ भवानंद कहते हैं.

राधेश्याम नंबर डायल कर फोन का चोगा थमा देते हैं.

‘‘शास्त्रीजी को प्रणाम,’’ भवानंद पंडितजी से बतियाते हैं, ‘‘हां, 7 तारीख से है. क्या बोले शास्त्रीजी… 200 रुपए… करना क्या है… 4 मंत्र ही तो बोलने हैं. किसी और से बात कर लेते हैं. चलो, 100 रुपए मंजूर है… ठीक है.’’

कथा शुरू होने के पहले आयोजित पत्रकारवार्त्ता. संबोधन के लिए संजय और भवानंद बैठे हैं. सामने बैठे पत्रकारों के बीच प्रिंटेड प्रेसनोट के साथ 5 रुपए वाले बालपेन और 3 रुपए वाले नोटिंगपेड बांटे जाते हैं. संजय की संक्षिप्त भूमिका के बाद पत्रकारवार्त्ता शुरू :

‘‘संजयजी, इस आयोजन के पीछे समिति का उद्देश्य?’’

‘‘जनकल्याण और भगवान राम का नाम जनजन तक पहुंचाना.’’

‘‘स्वामीजी, आप कथा कब से कर रहे हैं?’’

‘‘6 साल की उम्र से,’’ भवानंद ने उत्तर दिया.

‘‘आध्यात्मिक जगत भी भौतिक चकाचौंध के प्रभाव में है, क्या यह ठीक है?’’ एक पत्रकार ने पूछा.

‘‘अनुचित है. संतों को सादगी से रहना चाहिए,’’ भवानंद ने कहा.

‘‘वैसे तो आप ने ब्रह्मचर्य व्रत को आजीवन धारण किया है,’’ एक दुस्साहसी पत्रकार पूछता है, ‘‘मगर सुना है कि आप का भी कोई प्रेम प्रसंग था?’’

‘‘सुनने को तो आप कुछ भी सुन सकते हैं,’’ भवानंद थोड़ा असहज हो कर कहते हैं, ‘‘आप ने जो कुछ सुना है गलत है.’’

‘‘गुरुजी,’’ अगला सवाल, ‘‘आप राजनीति में जाएंगे?’’

‘‘इस का फैसला तो रामजी करेंगे,’’ भवानंद उत्तर देते हैं.

‘‘जनसामान्य के लिए आप का संदेश?’’

‘‘सादगी से रहें. कामनाएं न पालें. छलप्रपंच न करें. मोहमाया से दूर रहें. कथनीकरनी में भेद न हो,’’ भवानंदजी ने ठेठ आध्यात्मिक शैली में कहा, ‘‘जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए.’’

मानसकथा के 9 दिनों के दौरान, तैरते हुए कुछ वाक्य इस तरह रहे :

भवानंदजी कुछ गुस्साए से कहते हैं, ‘‘राधेश्यामजी, इन कलाकारों को अक्ल कब आएगी. इन से साफसाफ कह दो कि जब मैं मंच पर पहुंचता हूं तो ये मेरे चरण स्पर्श करें. अरे, जब अपने ही लोग मेरा सम्मान नहीं करेंगे तो दूसरे क्यों करेंगे?’’

‘‘जी, गुरुजी.’’

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‘‘और सुनो,’’ भवानंद ने कहा, ‘‘कथा के दौरान झूम कर नाचने वाले स्त्रीपुरुषों का क्या हुआ…उन्हें 20-25 रुपए से ज्यादा नहीं देना.’’

राधेश्याम आयोजकों से संपर्क करते हैं, ‘‘मनोहरजी, भोजन सामग्री समाप्त हो गई है. गुरुजी को खंडेलवालजी के यहां जाना है, गाड़ी पहुंचा दें.’’

उधर से मनोहरजी जवाब देते हैं, ‘‘भोजन सामग्री लाने वाला आज तो कोई नहीं है. गाड़ी इंदौर गई है, कल आएगी.’’

भवानंदजी अपने भाई पर झल्लाते हैं, ‘‘भाई साहब, जरा आरती की थाली पर ध्यान दो. दूसरों को मत थमाओ. खुद ही थाली ले कर पूरे पंडाल में चक्कर लगाओ…आवक कम हो रही है.’’

कथा के अंतिम दिन…भवानंदजी, राधेश्यामजी से कहते हैं, ‘‘राधेश्यामजी, बातें तो बड़ीबड़ी की थीं कि आरती में मंत्रीजी आएंगे, विधायक आएंगे…2 पार्षदों को छोड़ कर कोई नहीं आया. आज आखिरी दिन है…पूछो, आज कौन आएगा और हमारा सम्मान होने वाला था, क्या हुआ?’’

राधेश्यामजी फोन पर संजयजी से बात करते हैं, वह बताते हैं, ‘‘मंत्रीजी तो भोपाल गए हैं. विधायक आरती भी करेंगे और गुरुजी का सम्मान भी.’’

कथा समापन के बाद विदाई की बेला में. भवानंदजी कमरे में दक्षिणा का लिफाफा खोल कर देखने के बाद कहते हैं, ‘‘500 रुपए… इस से तो कचनारिया वालों ने अच्छे दिए थे. 2,100 रुपए. इस समिति का आयोजक संजय तो एक नंबर का काइयां निकला. लगता है मीठामीठा बोल कर सबकुछ दबा कर रख लेना चाहता है. पर मैं ऐसे नहीं चलने दूंगा. राधेश्यामजी, तुम संजय से बात कर लेना कि विदाई में मुझे कम से कम 2,100 रुपए चाहिए ही चाहिए.

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सैलाब से पहले

भाग-1

कमरे में धीमी रोशनी देख इंदु ने सोचा शायद विनय सो चुके हैं. वह दूध का गिलास लिए कमरे में आई तो देखा विनय आरामकुरसी पर आंखें मूंदे बैठे हुए हैं. उन्हें माथे पर लगातार हथेली मलते देख इंदु ने प्यार से पूछा, ‘‘सिर में दर्द है क्या? लो, दूध पी लो और लेट जाओ, मैं बाम मल देती हूं,’’ और इसी के साथ इंदु ने दूध का गिलास आगे बढ़ाया.

‘‘मेज पर रख दो, थोड़ी देर बाद पी लूंगा,’’ आंखें खोलते हुए विनय ने कहा, ‘‘पुरू, क्या कर रही है…सो गई क्या?’’

‘‘नहीं, लेटी है. नींद तो जैसे उस की आंखों से उड़ ही गई है,’’ पुरू के बारे में बात करते ही इंदु का स्वर भर्रा जाता था, ‘‘क्या सोचा था और क्या हो गया. सच ही है, आदमी के चेहरे पर कुछ नहीं लिखा होता. अब दीनानाथजी और सुभद्रा को देख कर क्या कोई अंदाज लगा सकता है कि अंदर से कितने विद्रूप हैं ये लोग…कितने कू्रर…असुर. कुदरत ने दोनों बेटे ही दिए हैं न. एक बेटी होती तो जानते कि बेटी का दर्द क्या होता है. इन्हें हमारी फूल सी बेटी नहीं बस, पैसा नजर आ रहा था और वही चाहिए था,’’ इंदु सिसक पड़ी.

‘‘अब बस करो, इंदु…क्यों बारबार एक ही बात ले कर बैठ जाती हो,’’ विनय ने चुप कराते हुए कहा.

‘‘तुम कहते हो बस करो…मैं तो सहन कर लूंगी  पर जानती हूं कि तुम्हारे जी में जो आग लगी है वह अब कभी ठंडी नहीं पड़ेगी. बचपन से पुरू का पक्ष ले कर बोलते रहे हो…पुरू में तो जैसे तुम्हारे प्राण बसे हैं, क्या मैं यह जानती नहीं हूं? जब से पुरू ससुराल से इस तरह लौटी है, तुम्हारे दिल पर क्या बीत रही है, अच्छी तरह समझ रही हूं मैं. अपने दुखों को अंदर ही अंदर समेट लेने की तुम्हारी पुरानी आदत है.’’

इंदु लगातार बोले जा रही थी पर विनय आरामकुरसी पर अधलेटे, शून्य में टकटकी बांधे सोच में डूबे हुए थे…फिर अचानक बोल पड़े, ‘‘इंदु, सुबह जल्दी उठ जाना और हां, पुरू को भी जल्दी नहाधो कर तैयार होने के लिए कह देना… पुलिस स्टेशन चलना है. कुछ आवश्यक काररवाई बाकी है.’’

‘‘उन लोगों की जमानत तो नहीं हो गई? 4 दिन लाकअप में बंद रह कर होश ठिकाने आ गए होंगे दीनानाथजी और सुभद्रा के…और अरविंद, उसे तो कड़ी सजा मिलनी चाहिए. पराई बेटी पर अत्याचार करते इन लोगों को शर्म नहीं आई. पर विनय, इन लोगों को यों ही नहीं छोड़ना है…कड़ी से कड़ी सजा दिलवाना ताकि फिर किसी लड़की को ये लोग दहेज के लिए सताने की हिम्मत न कर सकें,’’ बोलतेबोलते इंदु की सांसों की गति तेज हो गई और वह लगभग हांफने सी लगी.

सच है, खुद कष्ट उठाना उतना कठिन नहीं होता जितना अपने प्रिय को कष्ट झेलते हुए देखना और बच्चे तो मांबाप के कलेजे के टुकड़े होते हैं…वे कष्ट में हों तो मांबाप चैन की सांस कैसे ले सकते हैं भला.

‘‘हां, इंदु, सजा जरूर मिलेगी…और मिलनी ही चाहिए… दोषी को सजा मिलनी ही चाहिए…’’ विनय ने दृढ़ता से कहा, ‘‘चलो, सो जाओ, सुबह जल्दी उठना है तुम्हें.’’

विनय के स्वर की दृढ़ता से आश्वस्त हो कर इंदु अपने पल्लू के छोर से आंसू पोंछती हुई कमरे से बाहर निकल गई. पिछले हफ्ते जब से पुरुष्णी ससुराल से दहेज के लिए प्रताडि़त हो कर बच कर भाग आई, इंदु ने एक पल को भी उसे अकेला नहीं छोड़ा था. रात में भी वह पुरू के पास ही लेटती थी और रातरात भर जाग कर कभी उस के माथे को तो कभी बालों को सहलाती रहती…मानो पुरू नन्ही बच्ची हो.

विनय की आंखों से नींद कोसों दूर थी. इंदु के जाते ही उन्होंने मेज पर नजर डाली…पीने के लिए दूध से भरा गिलास उठाया…दो घूंट जैसेतैसे गटके फिर मन नहीं हुआ, सो गिलास वापस मेज पर रख दिया. मन की बेचैनी को कम करने के लिए वह दोनों हाथों को कमर के पीछे बांधे कमरे में ही चहलकदमी करने लगे.

कभीकभी लगता है मानो समय रुक सा गया है पर समय कहां रुकता है…वह तो घड़ी की टिकटिक के साथ हमेशा गतिमान रहता है. हम ही आगेपीछे हो जाते हैं. जब पुरुष्णी छोटी थी तो विनय उस के लिए कितने आगे तक की सोच लेते थे और आज न चाहते हुए भी बारबार वह पीछे की ओर…अतीत में ख्ंिचे चले जा रहे थे. जिस गति से घड़ी की सुइयां निरंतर आगे की ओर बढ़ रही थीं उसी तीव्रता से विनय का विचारचक्र विपरीत दिशा में घूमने लगा था.

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विवाह के दिन कितनी प्यारी लग रही थी उन की पुरू. पुरू ही क्यों अरविंद भी. दोनों की जोड़ी देख मेहमान तारीफ किए बिना नहीं रह पा रहे थे. सुयोग्य वर और घर दोनों ही लड़की के सौभाग्य से प्राप्त होते हैं…ऐसा ही कुछ उस दिन विनय ने सोचा था. गर्व से सीना ताने अपने बेटे वरुण के साथ दौड़दौड़ कर व्यवस्था देखने में जुटे हुए थे. अपने दोस्त केदार पर भी उन्हें उस दिन नाज हो रहा था…वाह, क्या दोस्ती निभाई है दोस्त ने.

केदार ने ही तो यह इतना सुंदर रिश्ता सुझाया था. अरविंद कंप्यूटर इंजीनियर था और यहीं दिल्ली में ही कार्यरत था. पिता दीनानाथ महाविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष और मां सुभद्रा सीधीसादी घरेलू धार्मिक महिला थीं. छोटा भाई मिलिंद अभी कालिज में पढ़ रहा था. छोटा सा सुसंस्कृत परिवार. यदि चिराग ले कर ढूंढ़ते तो भी इस जन्म में ऐसा घरवर नहीं ढूंढ़ पाते, यह सोच कर केदार के प्रति विनय कृतज्ञ हो गए थे.

‘रिश्ता तो अच्छा है पर थोड़ी तहकीकात तो करवा लेते,’ इंदु ने कहा तो विनय तुरंत बोल पड़े, ‘अरे, केदार ने रिश्ता सुझाया है… अविश्वास का तो प्रश्न ही नहीं उठता, तहकीकात भला क्या करवानी है. भई, मुझे तो दीनानाथजी से बात कर के ही तसल्ली हो गई. ऐसे घर में पुरू को दे कर तो मैं निश्ंिचत हो जाऊंगा.’

इतना कहने के बाद विनय ने शरारत से मुसकरा कर इंदु की ओर देखा और बोले, ‘और एक बात इंदु, तुम्हारे मुकाबले तो सुभद्राजी 10 प्रतिशत भी नहीं हैं.’

‘किस बात में?’ इंदु ने इठला कर आतुरता से पूछा.

‘अरे भई, तेजतर्रारी में और किस में,’ विनय ने जोरदार ठहाका लगाया तो इंदु ने भी बनावटी गुस्से में आंखें तरेरीं. इतना उन्मुक्त हास्य आज पहली बार ही विनय के चेहरे पर देखा था. बेटी के भविष्य को ले कर आज कितने निश्ंिचत हो गए हैं विनय. यही सोच कर इंदु का मन तृप्ति से भर गया था.

पर यह सुखद स्वप्न चार दिन की चांदनी बन कर ही रह गया. पहली बार जब पुरू मायके आई तो इंदु की अनुभवी आंखों ने उस के चेहरे पर चढ़ी उदासी की परत को तुरंत ही ताड़ लिया था. खूब कुरेदकुरेद कर इंदु ने पूछताछ की फिर भी पुरू की उदासी का कारण जानने में असमर्थ ही रही. हर बार पुरू का एक ही उत्तर होता, ‘कहां मां…कुछ तो नहीं है… आप का वहम है यह…खुश तो हूं मैं.’

पुरू ससुराल लौट गई पर भ्रम के कांटे इंदु की मनोधरा पर जहांतहां बिखेर गई थी. पुरू के व्यवहार में कई अनपेक्षित बातें अवभासित हुई थीं इंदु को, जो समझ से परे थीं. बचपन से हर बात मां को बताने वाली पुरू अचानक इतनी चुपचुप सी क्यों हो गई…कहीं कोई कष्ट तो नहीं है ससुराल में…नाना प्रकार की अटकलों के बीच मन घूमता रहता.

और एक दिन चिंताओंदुश्ंिचताओं के बीच पुरू का वह पत्र, ‘आप नानानानी बनने वाले हैं…वरुण मामा बनेगा…’ ऐसा पुलकित कर गया था कि आनंदातिरेक में खुशी के आंसू बह निकले. अचानक ही सारे भ्रम, शंकाएंकुशंकाएं इस बहाव में जाने कहां तिरोहित हो गईं. मन पुन: स्वच्छ आकाश सा साफ हो गया.

विनय और वरुण तो खुशी के मारे फूले नहीं समा रहे थे. जहांजहां, जोजो ध्यान आया हरेक को फोन, ई-मेल, पत्र लिख कर यह शुभसमाचार दे रहे थे. इंदु तो भविष्य में आने वाले नन्हे मेहमान की क्याक्या तैयारी करनी होगी इसी सोच में रम गई थी.

इंदु ने गणित लगाया कि तीसरा महीना लगभग पूरा होने को है पुरू का. बस, केवल 6 माह की ही तो प्रतीक्षा है. पर ये 6 माह भी इंदु को 6 युग की तरह लंबे लग रहे थे. फिर भी समय निर्बाध गति से सरकता जा रहा था…सुख भरे दिन यों भी समय की लंबाई का एहसास नहीं कराते.

2 माह ही तो हुए थे इन सुखों की सौगात भरे एहसासों को चुनचुन कर समेटते हुए कि अचानक एक दिन सूटकेस ले कर दरवाजे पर पुरू को खड़ी पाया तो सब के सब खुशी से झूम उठे थे, ‘अरे बेटी, अचानक कैसे आना हुआ…फोन भी नहीं किया,’ खुशी से पुरू को गले लगाते हुए इंदु ने पूछा, ‘अरविंद कहां है?’ अरविंद को साथ न देख कर पुरू के पीछे आजूबाजू उत्सुकतावश इंदु झांकने लगी.

‘मैं अकेली आई हूं, मां. हमेशाहमेशा के लिए वह घर छोड़ कर,’ पुरू, इंदु से लिपट कर बिलख पड़ी और क्षण भर में ही वे सारे  सपने, जो विनय, वरुण और इंदु ने बड़े जतन से बुने थे, जल कर भस्म हो गए.

पुरू की बातों ने सब को स्तब्ध कर दिया था. विनय का तो इस बात पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं जम रहा था कि सुभद्रा जैसी सीधीसादी महिला ने उन की पुरू को दहेज के लिए प्रताडि़त किया होगा. और दीनानाथ? दीनानाथजी पर तो उन्हें स्वयं से अधिक विश्वास था. एक बार वह स्वयं पुरू के साथ डांटफटकार कर सकते थे परंतु दीनानाथजी तो वात्सल्य की साक्षात मूर्ति थे.

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‘रहने दीजिए अपने तर्क…ये सब दुनिया को दिखाने के लिए पहने हुए मुखौटे हैं. ये तो अच्छा हुआ कि पुरू उन के चंगुल से बच कर निकल आई वरना कल को न जाने क्या सलूक करते वे लोग,’ इंदु क्रोधावेश से तप्त हो रही थी.

‘पर इंदु, यदि पुरू जो कह रही है वह सच भी हो तो क्या अरविंद ने उन्हें रोका नहीं होगा. अरविंद पर तो तुम्हें भरोसा है न. हमारे बेटे जैसा है वह. मुझे एक बार फोन कर के बात कर लेने दो उन लोगों से, वैसे भी पुरू के अचानक बिना बताए आ जाने से परेशान होंगे वे लोग,’ विनय अब भी वस्तुस्थिति पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे.

‘पापा, आप भी न बस,’ वरुण झल्ला पड़ा, ‘अब भी उन्हीं लोगों की भलाई के बारे में सोच रहे हैं आप. वे परेशान हो रहे होंगे तो होने दीजिए. परेशान वे पुरू दीदी के लिए नहीं अपनी इज्जत के लिए हो रहे होंगे, जो अब हमारे हाथ में है. पुरू दीदी ठीक ही कह रही हैं कि उन सब के खिलाफ हमें पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देनी चाहिए,’ वरुण का नया खून अपनी पुरुष्णी दीदी को कष्ट में रोतेसिसकते देख पूरे उबाल पर आ गया था.

तत्क्षण विनय ने विरोध करते हुए कहा, ‘चलो, मान लेते हैं कि उन लोगों ने पुरू के साथ ज्यादती की है पर उन से मिले बिना…पूरी बात जाने बिना सीधे पुलिस काररवाई करना मुझे तो कुछ ठीक नहीं लगता,’ विनय कुछ सोचते हुए फिर बोले, ‘वरुण, एक काम करो. केदार को फोन मिलाओ, पहले उस से बात कर लूं फिर दीनानाथजी से मैं खुद जा कर मिल लूंगा.’

चिंताग्रस्त होने के बावजूद विनय अपने विवेक और विचारशीलता का धैर्यपूर्वक उपयोग करना अच्छी तरह जानते थे. हालांकि बेटी के कष्ट ने उन्हें अंदर तक हिला कर रख दिया था, फिर भी उन्हें यह एहसास था कि बेटी अब केवल उन की ही नहीं दीनानाथजी के घर की भी इज्जत है और फिर इस वक्त यह गर्भवती भी है. सारी स्थितियां रिश्तों के नाजुक धागों से गुंथी हुई थीं. विनय नहीं चाहते थे कि किसी भी झटके से एक भी धागा खिंच कर टूट जाए.

‘देखो, इंदु, पुरू तो अभी नादान है. भावावेश में यह जो कदम उठा बैठी है उस का नतीजा कभी सोचा है इस ने? जिस स्थिति में यह है…तुम तो अच्छी तरह समझती हो इंदु, फिर भी इस की बातों को शह दे रही हो. अरे, इतने करीबी रिश्ते क्या इतने कमजोर होते हैं, जो जरा सी विषमता से टूट जाएं. पुरू के साथ उस नन्ही जान के भविय के बारे में भी हमें सोचना होगा, जो इस वक्त उस के गर्भ में पल रही है,’ विनय धैर्य से स्थिति संभालने का पुरजोर प्रयास कर रहे थे.

पर बेटी के दुख से विचलित इंदु लगातार विनय पर जोर डाल रही थी कि अब दोबारा उस नरक में पुरू को नहीं भेजना है.

‘पानी सिर से गुजरने तक इंतजार करना तो मूर्खता होगी. उन लोगों ने लगातार पुरू पर दबाव डाला है कि मायके से 4-5 लाख की व्यवस्था कर दे. बहाना यह कि अरविंद को खुद का बिजनेस शुरू करवाना है. वह तो पुरू थी जो अड़ी रही कि मैं अपने मांबाप को क्यों परेशानी में डालूं…और नतीजा देखा? जान से मारने की धमकी दे डाली सुभद्रा ने तो.’

‘यदि यह बात थी तो पुरू ने हमें पहले कभी क्यों नहीं बताया…बोलो, पुरू,’ विनय ने पुरू का कंधा पकड़ कर झकझोरते हुए पूछा.

‘पापा, मैं आप को परेशान नहीं करना चाहती थी,’ पुरू की सिसकियां हिचकियों में बदलने लगीं.

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‘कुछ भी हो, पहले हमें दीनानाथ और सुभद्रा से मिल कर इस मामले को स्पष्ट तो कर लेना चाहिए कि वास्तविकता क्या है?’ विनय ने कहा.

पुरू फिर बिलख पड़ी, ‘मैं झूठ बोलूंगी, ऐसा लगता है क्या पापा आप को?’ इंदु की गोद में सिर छिपा कर पुरू लगातार रोए जा रही थी,

शायद यही सच है

भाग-1

बैंक से निकलते हुए भारती ने घड़ी पर निगाह डाली तो 6 बजे से अधिक का समय हो चुका था. यद्यपि उस के तमाम सहयोगी कर्मचारी 5 बजे से ही घर जाने की तैयारी में जुट जाते हैं, पर भारती को घर जाने की कोई जल्दी नहीं रहती. उस अकेले के लिए तो जैसे बैंक वैसे घर. एक अकेली जीव है तो किस के लिए भाग कर घर जाए. बैंक में तो फिर भी मन काम में लगा रहता है लेकिन तनहा घर में सोने व दीवारों को देखने के अलावा वह और क्या करेगी.

पार्किंग से भारती ने अपनी कार बाहर निकाली और घर की ओर चल दी. वही रास्ते, वही सड़कें, वही पेड़, कहीं कोई बदलाव नहीं, कोई रोमांच नहीं. एक बंधे बंधाए ढर्रे पर जीवन की गाड़ी जैसे रेंग रही है. सुस्त चाल से घर पहुंच कर वह सोफे पर निढाल सी जा पड़ी. अकसर ऐसा ही होता है, खाली घर जैसे उसे खाने को दौड़ता है. एक टीस सी उठती है, काश, कोई तो होता जो घर लौटने पर उस से बतियाता, उस के सुखदुख का भागीदार होता.

यद्यपि भारती अतीत की गलियों में भटकना नहीं चाहती, मन पर कठोरता से अंकुश लगाने की कोशिश करती रहती है लेकिन कभीकभी मन चंचल बच्चे सा मचल उठता है. आज भी भारती ने सोफे पर पड़ेपड़े आंखें बंद कीं तो उस का मन नियंत्रण में नहीं रहा. पलों में ही लंबीलंबी छलांगें लगा कर मन ने उस के अतीत को सामने ला खड़ा किया.

उन दिनों वह बी. काम. अंतिम वर्ष की छात्रा थी. कुदरत ने उसे आकर्षक व्यक्तित्व प्रदान किया था. ऊंची कद- काठी, गोरे रंग पर तीखे नाकनक्श, लंबे घने काले बाल जिन्हें चोटी के रूप में गूंध देती तो वह नागिन का रूप ले लेती.

उसे बनसंवर कर रहने का भी बेहद शौक था. जब भी वह परिधान के साथ मेल खाते टौप्स, चूडि़यां पहन पर्स लटकाए कालिज आती तो उस की सहेलियां उसे छेड़ते हुए कहतीं, ‘वाह, आज तो गजब ढा रही हो. रास्ते में कितनों को घायल कर के आई हो?’

वह भी बड़ी शोख अदा के साथ कहती, ‘तुम ने देखा नहीं, अभीअभी बेहोश लड़कों से भरी एम्बुलेंस यहां से गुजर कर अस्पताल की ओर गई है. वे सभी मुझे देख कर ही तो बेहोश हुए थे.’ फिर जोरदार ठहाके लगते.

पढ़ाई में भी वह अव्वल थी. उस की दिली इच्छा थी कि पढ़लिख कर वह बड़ा अफसर बने. इस के लिए प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी भी उस ने शुरू कर दी, लेकिन मांबाप उस की शादी कर के जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे. जब उस ने आगे पढ़ने की बहुत जिद की तो वे इस शर्त पर तैयार हुए कि जब तक कोई अच्छा मनपसंद लड़का नहीं मिल जाता वह पढ़ाई करेगी, लेकिन जैसे ही उपयुक्त वर मिल गया उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ेगी.

एम. काम. का पहला सत्र शुरू हो गया था. वह पढ़ाई में व्यस्त हो गई थी और मांबाप उस के लिए लड़का ढूंढ़ने में. 2 भाइयों के बीच इकलौती बहन होने के कारण भारती मांबाप की लाड़ली भी थी और भाइयों की दुलारी भी. अपनी सुंदरता का गुमान तो उसे था ही, इसलिए जब पहली बार मांबाप ने उस के लिए लड़का देखा और बात चलाई तो उस का फोटो देखते ही वह बिदक कर बोली, ‘इसे आप लोगों ने पसंद किया है? इस की लटकी सूरत देख कर तो लगता है कहीं से दोचार जूते खा कर आया हो. मुझे नहीं करनी इस से शादी.’

मांबाप ने बहुतेरा समझाया कि लड़का पढ़ालिखा अफसर है, लेकिन भारती ने साफ मना कर दिया.

अगली बार उन्होंने भारती को न तो लड़के की फोटो दिखाई और न परिचय- पत्र. सीधेसीधे लड़के व उस के मातापिता को होटल में मुलाकात का समय दे दिया. इस बार भारती और चिढ़ गई, ‘जिस के बारे में मुझे कुछ जानकारी नहीं है, न उस की फोटो देखी है, उस के सामने अपनी प्रदर्शनी करने चली जाऊं?’

मांबाप ने समझाया, ‘देखो बेटी, हमें इन के बारे में संतोषप्रद जानकारी प्राप्त हुई है. तुम जो भी पूछना चाहो पूछ सकती हो. आखिर शादी तो तुम्हें ही करनी है. तुम्हारी तसल्ली के बाद ही बात आगे बढ़ेगी. तुम बेकार तनाव क्यों ले रही हो, कोई जबरदस्ती तो है नहीं,’ तब जा कर वह कुछ सामान्य हुई.

बातचीत केदौरान भारती ने लड़के के घर वालों से स्पष्ट कह दिया कि वह शादी के बाद घर बैठने वाली लड़कियों में से नहीं है. उस का कैरियर माने रखता है. वह महत्त्वाकांक्षी है और शादी के बाद भी वह नौकरी करेगी.

लड़के की मां ने साफ कह दिया, ‘बेटा, हमें तो घर संभालने वाली पढ़ीलिखी बहू चाहिए. अगर तुम 8-10 घंटे की नौकरी करोगी, सारा दिन घर के बाहर रहोगी तो हमें ऐसी बहू का क्या फायदा?’

बात खत्म हो गई पर घर आ कर मां ने भारती को फटकारा, ‘यह सब अभी से कहने की क्या जरूरत थी? शादी के बाद भी तो ये बातें की जा सकती थीं.’

इस पर तुनक कर भारती बोली थी, ‘अच्छा हुआ, अभी खुली बात हो गई. देखा नहीं आप ने, लड़के की मां को घर संभालने वाली, घर का काम करने वाली बहू नहीं नौकरानी चाहिए. इतना पढ़लिख कर भी रोटीदाल बनाओ, बच्चे पैदा करो, उन के पोतड़े धोओ और घर के कामों में जिंदगी बरबाद कर दो.’

कुछ समय गुजरने के बाद एक दिन मां ने भारती को विश्वास में लेते हुए कहा, ‘बेटा, हम देख रहे हैं कि हमारे पसंद किए लड़के तुम्हारी कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे. अगर तुम ने अपनी तरफ से किसी को पसंद कर के रखा है तो हमें बता दो. तुम्हारी खुशी में ही हम सब की खुशी है.’

‘मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं है,’ भारती बोली थी, ‘अगर होगी तो आप को जरूर बताऊंगी.’

लेकिन असलियत यह थी कि पिछले कुछ समय से अपने सहपाठी हिमेश के साथ भारती का प्रेमप्रसंग चल रहा था. भारती उसे अच्छी तरह से परख कर ही कोई फैसला लेना चाहती थी. वह जानती थी कि प्रेमी और पति में काफी फर्क होता है. उस ने सोच रखा था, हिमेश अगर उस की कसौटी पर खरा उतरेगा तभी वह अंतिम निर्णय लेगी और मां को इस बारे में बताएगी. 2 बहनों के बीच अकेला भाई होने के कारण हिमेश के मांबाप की सभी आशाएं उसी पर टिकी थीं.

छुट्टी का दिन था. भारती तथा हिमेश ने आज घूमने तथा किसी अच्छे से होटल में खाना खाने का प्रोग्राम बनाया. सिद्धार्थ पार्क के एक कोने में प्रेमालाप करते हुए हिमेश व भारती अपने भविष्य के रंगीन सपने बुनते रहे. तभी भारती ने कहा, ‘हिमेश, मैं बैंक की प्रतियोगिता परीक्षा में बैठ रही हूं. तैयारी शुरू कर दी है. तुम्हारी क्या योजना है भविष्य की?’

‘डैडी का अपना कारोबार है, जो दूसरे शहरों तक फैला हुआ है. मुझे तो वही संभालना है. बस, इस वर्ष की अंतिम परीक्षा के बाद मेरा सारा ध्यान अपने व्यवसाय में ही होगा.’

‘यह भी ठीक है. तुम अपने व्यवसाय में व्यस्त रहोगे और मैं अपनी बैंक की नौकरी में व्यस्त रहूंगी. वरना दिन भर घर में अकेली कितना बोर हो जाऊंगी,’ भारती ने कहा तो हिमेश हैरानी से बोला, ‘तुम अकेली कहां होेगी, मेरी बहनें और मां भी तो रहेंगी तुम्हारे साथ.’

‘हिमेश, एक बात अभी से स्पष्ट कर देना चाहती हूं, मैं संयुक्त परिवार में तालमेल नहीं बैठा पाऊंगी. छोटीछोटी बातों पर रोकटोक वहां आम बात होती है, जो मुझ से सहन नहीं होगी. फिर मैं शादी के बाद भी नौकरी पर जाती रहूंगी. तुम्हारी बहनों की पटरी भी मेरे साथ जम पाएगी, इस में मुझे शक है, इसलिए तुम्हें अपने परिवार से अलग रहने की मानसिकता अभी से बना लेनी चाहिए.’

भारती की बातें सुन कर हिमेश स्तब्ध रह गया. फिर भी अपनी ओर से उसे समझाते हुए बोला, ‘भारती, हर मांबाप की चाह होती है कि उन की बहू संस्कारी हो और घर के सदस्यों के साथ हिलमिल कर रहे, बड़ों को मानसम्मान दे. मेरे मातापिता की भी तो यही ख्वाहिश होगी, आखिर मैं उन का इकलौता बेटा हूं. उन की मुझ से कुछ उम्मीदें भी होंगी. मैं उन्हें छोड़ अलग कैसे रह सकता हूं?’

‘तो फिर मेरे और तुम्हारे रास्ते आज से अलगअलग हैं. मैं तो अपनी इच्छा से जीवन जीने वाली लड़की हूं. कल को मेरे उठनेबैठने और नौकरी करने पर तुम्हारे मम्मीडैडी किसी तरह का एतराज करें, यह मैं सहन नहीं कर सकती. इस से अच्छा है हम इस रिश्ते को यहीं समाप्त कर दें.’

‘भारती, तुम्हारी बातों से स्वार्थ की बू आ रही है,’ हिमेश बोला, ‘जिंदगी में केवल अपनी ही सुखसुविधाओं का ध्यान नहीं रखा जाता बल्कि दूसरों के लिए भी सोचना पड़ता है. केवल अपने लिए सोचने वाले स्वार्थी लोग अंदर से कभी खुश नहीं रह पाते…’

हिमेश की बात को बीच में काटते हुए भारती बोली, ‘अपनी दार्शनिकता अपने पास ही रहने दो. मुझे इन में कोई दिलचस्पी नहीं है और अब इस रिश्ते का कोई अर्थ नहीं रह जाता,’ वह उठ कर चल दी. हिमेश उसे पुकारता रहा लेकिन वह नहीं रुकी.

बैंक की प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो कर भारती अधिकारी के पद पर नियुक्त हो गई. अब उस में बड़प्पन व अहम की भावना और बढ़ने लगी. इस बीच मांबाप द्वारा पसंद किए 2-3 और रिश्तों को उस ने ठुकरा दिया. कहीं लड़का स्मार्ट नहीं, कहीं उस की आय कम लगी तो कहीं परिवार बड़ा. उस के भाई की उम्र भी शादी के लायक हो गई थी. बेटी की कहीं बात बनती न देख कर मांबाप ने भारती के भाई की शादी कर दी. 2-3 साल और सरक गए. दोचार रिश्ते भारती के लिए आए तो कहीं लड़का अच्छी नौकरी न करता, कहीं लड़के की उम्र उस से कम होती. एक परिवार ने तो दबे स्वर में कह भी दिया कि लड़की इतनी नकचढ़ी है, खुद को आधुनिक मानती है, कैसे विवाह के बंधन को निभा पाएगी.

अब भारती की छवि नातेरिश्तेदारों में एक बिगडै़ल, क्रोधी, नकचढ़ी, बदमिजाज लड़की के रूप में स्थापित हो गई थी. इस बीच दूसरे बेटे के लिए रिश्ते आने लगे तो मांबाप ने अपनी जिम्मेदारी मान कर उस की भी शादी कर दी. भारती अब 30 वर्ष की उम्र पार कर चुकी थी. अब चेहरे का वह लावण्य कम होने लगा था, जिस पर उसे नाज था.

एक दिन पिता सोए तो सवेरे उठे ही नहीं. उन्हें जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा था. घर भर में कोहराम मच गया. मां तो बारबार बेहोश हो जाती थीं. जब होश आता तो विलाप करतीं, ‘हमें किस के भरोसे छोड़े जा रहे हो…भारती के हाथ तो पीले करवा जाते. अब कौन करेगा.’

पिता की मृत्यु के बाद घर में उदासी पसर गई. दोनों बेटेबहुओं का व्यवहार भी बदलने लगा. छोटीछोटी बातों पर उलझाव, तनाव, कहासुनी होने लगी. इन सब के केंद्र में अधिकतर भारती ही होती. सालभर में ही दोनों बेटे अपनेअपने परिवारों को ले कर अलग हो गए. इस से मां को गहरा सदमा पहुंचा. एक दिन अपने गिरते स्वास्थ्य की दुहाई देते हुए वह बोलीं, ‘भारती बेटा, अगर मेरे जीतेजी तेरी शादी हो जाए तो मैं चैन से मर सकूंगी. मुझे दिनरात तेरी ही चिंता रहती है. मेरे बाद तू एकदम अकेली हो जाएगी. मेरी मान, मेरे दूर के रिश्ते में एक पढ़ालिखा इंजीनियर लड़का है, घर खानदान सब अच्छा है, एक बार तू देख लेगी तो जरूर पसंद आ जाएगा.’

‘मम्मी, तुम मेरी शादी को ले कर इतनी परेशान क्यों होती हो? अगर शादी नहीं हुई तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? क्या जीवन की सार्थकता केवल शादी में है? आज मैं प्रथम श्रेणी की अफसर हूं. अच्छा कमाती हूं, क्या यह उपलब्धियां कम हैं?’

‘बेटा, औरत आखिर औरत होती है. अभी इस उम्र में ऊर्जा, सामर्थ्य होने के कारण तू ऐसी बातें कर रही है लेकिन उम्र ठहरती तो नहीं. एक दिन ऐसी स्थिति भी आती है जब व्यक्ति थक जाता है. तब वह अपनों का प्यार, संबल और आराम चाहता है. उम्र के उस पड़ाव पर जीवनसाथी का संग ही सब से बड़ा संबल बन जाता है. तुम खुद इतनी पढ़ीलिखी हो कर भी इन बातों को क्यों नहीं समझतीं? एक औरत की पूर्णता उस के पत्नी, मां बनने पर ही होती है. बेटी, अभी भी वक्त है, मेरी बातों पर गौर कर के इस रिश्ते को स्वीकार कर लो.’

मां की इन बातों का इतना असर हुआ कि भारती राजी हो गई. मोहित को देखने के बाद उस ने अपनी स्वीकृति दे दी. मोहित उम्र में परिपक्व था. 35 पार कर चुका था. उस ने भी भारती को पसंद कर लिया. मां उन की शादी जल्द से जल्द करना चाहती थीं ताकि कहीं कोई अड़चन न आ जाए. उन्हें आशंका थी, अत: शादी की तारीख भी एक महीने बाद की तय कर दी गई.   -क्रमश:

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