बगावत

महीने भर का राशन चुकने को हुआ तो सोचा, आज ही बाजार हो आऊं. आज और कहीं जाने का कार्यक्रम नहीं था और कोई खास काम भी करने के लिए नहीं था. यही सोच कर पर्स उठाया, पैसे रखे और बाजार चल दी.

दुकानदार को मैं अपने सौदे की सूची लिखवा रही थी कि अचानक पीछे से कंधे पर स्पर्श और आंखों पर हाथ रखने के साथसाथ ‘निंदी’ के उच्चारण ने उलझन में डाल दिया. यह तो मेरा मायके का घर का नाम है. कोई अपने शहर का निकट संबंधी ही होना चाहिए जो मेरे घर के नाम से वाकिफ हो. आंखों पर रखे हाथ को टटोल कर पहचानने में असमर्थ रही. आखिर उसे हटाते हुए बोली, ‘‘कौन?’’

यह भी पढ़ें- पति-पत्नी और वो

‘‘देख ले, नहीं पहचान पाई न.’’

‘‘उषा तू…तू यहां कैसे…’’ अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कालिज में साथ पढ़ी अपनी प्यारी सखी उषा को सामने खड़ी देख कर. मुखमंडल पर खेलती वही चिरपरिचित मुसकान, सलवारकमीज पहने, 2 चोटियों में उषा आज भी कालिज की छात्रा प्रतीत हो रही थी.

‘‘क्यों, बड़ी हैरानी हो रही है न मुझे यहां देख कर? थोड़ा सब्र कर, अभी सब कुछ बता दूंगी,’’ उषा आदतन खिलखिलाई.

‘‘किस के साथ आई?’’ मैं ने कुतूहलवश पूछा.

‘‘उन के साथ और किस के साथ आऊंगी,’’ शरारत भरे अंदाज में उषा बोली.

‘‘तू ने शादी कब कर ली? मुझे तो पता ही नहीं लगा. न निमंत्रणपत्र मिला, न किसी ने चिट्ठी में ही कुछ लिखा,’’ मैं ने शिकायत की.

‘‘सब अचानक हो गया न इसलिए तुझे भी चिट्ठी नहीं डाल पाई.’’

‘‘अच्छा, जीजाजी क्या करते हैं?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी.

ये भी पढ़ें- छिपकली

‘‘वह टेलीफोन विभाग में आपरेटर हैं,’’ उषा ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘क्या? टेलीफोन आपरेटर… तू डाक्टर और वह…’’ शब्द मेरे हलक में ही अटक गए.

‘‘अचंभा लग रहा है न?’’ उषा के मुख पर मधुर मुसकान थिरक रही थी.

‘‘लेकिन यह सब कैसे हो गया? तुझे अपने कैरियर की फिक्र नहीं रही?’’

‘‘बस कर. सबकुछ इसी राशन की दुकान पर ही पूछ लेगी क्या? चल, कहीं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठते हैं. वहीं आराम से सारी कहानी सुनाऊंगी.’’

‘‘रेस्तरां क्यों? घर पर ही चल न. और हां, जीजाजी कहां हैं?’’

‘‘वह विभाग के किसी कार्य के सिलसिले में कार्यालय गए हैं. उन्हीं के कार्य के लिए हम लोग यहां आए हैं. अचानक तेरे घर आ कर तुझे हैरान करना चाहते थे, पर तू यहीं मिल गई. हम लोग नीलम होटल में ठहरे हैं, कल ही आए हैं. 2 दिन रुकेंगे. मैं किसी काम से इस ओर आ रही थी कि अचानक तुझे देखा तो तेरा पीछा करती यहां आ गई,’’ उषा चहक रही थी.

कितनी निश्छल हंसी है इस की. पर एक टेलीफोन आपरेटर के साथ शादी इस ने किस आधार पर की, यह मेरी समझ से बाहर की बात थी.

‘‘हां, तेरे घर तो हम कल इकट्ठे आएंगे. अभी तो चल, किसी रेस्तरां में बैठते हैं,’’ लगभग मुझे पकड़ कर ले जाने सी उतावली वह दिखा रही थी.

यह भी पढ़ें- हिंदी व्याकरण में सियासत

दुकानदार को सारा सामान पैक करने के लिए कह कर मैं ने बता दिया कि घंटे भर बाद आ कर ले जाऊंगी. उषा को ले कर निकट के ही राज रेस्तरां में पहुंची. समोसे और कौफी का आदेश दे कर उषा की ओर मुखातिब होते हुए मैं ने कहा, ‘‘हां, अब बता शादी वाली बात,’’ मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी.

‘‘इस के लिए तो पूरा अतीत दोहराना पड़ेगा क्योंकि इस शादी का उस से बहुत गहरा संबंध है,’’ कुछ गंभीर हो कर उषा बोली.

‘‘अब यह दार्शनिकता छोड़, जल्दी बता न, डाक्टर हो कर टेलीफोन आपरेटर के चक्कर में कैसे पड़ गई?’’

3 भाइयों की अकेली बहन होने के कारण हम तो यही सोचते थे कि उषा मांबाप की लाड़ली व भाइयों की चहेती होगी, लेकिन इस के दूसरे पहलू से हम अनजान थे.

उषा ने अपनी कहानी आरंभ की.

बचपन के चुनिंदा वर्ष तो लाड़प्यार में कट गए थे लेकिन किशोरावस्था के साथसाथ भाइयों की तानाकशी, उपेक्षा, डांटफटकार भी वह पहचानने लगी थी. चूंकि पिताजी उसे बेटों से अधिक लाड़ करते थे अत: भाई उस से मन ही मन चिढ़ने लगे थे. पिता द्वारा फटकारे जाने पर वे अपने कोप का शिकार उषा को बनाते.

‘‘मां और पिताजी ने इसे हद से ज्यादा सिर पर चढ़ा रखा है. जो फरमाइशें करती है, आननफानन में पूरी हो जाती हैं,’’ मंझला भाई गुबार निकालता.

‘‘क्यों न हों, आखिर 3-3 मुस्टंडों की अकेली छोटी बहन जो ठहरी. मांबाप का वही सहारा बनेगी. उन्हें कमा कर खिलाएगी, हम तो ठहरे नालायक, तभी तो हर घड़ी डांटफटकार ही मिलती है,’’ बड़ा भाई अपनी खीज व आक्रोश प्रकट करता.

कुशाग्र बुद्धि की होने के कारण उषा पढ़ाई में हर बार अव्वल आती. चूंकि सभी भाई औसत ही थे, अत: हीनभावना के वशीभूत हो कर उस की सफलता पर ईर्ष्या करते, व्यंग्य के तीर छोड़ते.

‘‘उषा, सच बता, किस की नकल की थी?’’

‘‘जरूर इस की अध्यापिका ने उत्तर बताए होंगे. उस के लिए यह हमेशा फूल, गजरे जो ले कर जाती है.’’

उषा तड़प उठती. मां से शिकायत करती लेकिन मांबेटों को कुछ न कह पाती, अपने नारी सुलभ व्यवहार के इस अंश को वह नकार नहीं सकती थी कि उस का आकर्षण बेटी से अधिक बेटों के प्रति था. भले ही वे बेटी के मुकाबले उन्नीस ही हों.

यह भी पढ़ें- एक दिन का सुलतान

यौवनावस्था आतेआते वह भली प्रकार समझ चुकी थी कि उस के सभी भाई केवल स्नेह का दिखावा करते हैं. सच्चे दिल से कोई स्नेह नहीं करता, बल्कि वे ईर्ष्या भी करते हैं. हां, अवसर पड़ने पर गिरगिट की तरह रंग बदलना भी वे खूब जानते हैं.

‘‘उषा, मेरी बहन, जरा मेरी पैंट तो इस्तिरी कर दे. मुझे बाहर जाना है. मैं दूसरे काम में व्यस्त हूं,’’ खुशामद करता छोटा भाई कहता.

‘‘उषा, तेरी लिखाई बड़ी सुंदर है. कृपया मेरे ये थोड़े से प्रश्नोत्तर लिख दे न. सिर्फ उस कापी में से देख कर इस में लिखने हैं,’’ कापीकलम थमाते हुए बड़ा कहता.

भाइयों की मीठीमीठी बातों से वह कुछ देर के लिए उन के व्यंग्य, उलाहने, डांट भूल जाती और झटपट उन के कार्य कर देती. अगर कभी नानुकर करती तो मां कहतीं, ‘‘बेटी, ये छोटेमोटे झगड़े तो सभी भाईबहनों में होते हैं. तू उन की अकेली बहन है. इसलिए तुझे चिढ़ाने में उन्हें आनंद आता है.’’

भाइयों में से किसी को भी तकनीकी शिक्षा में दाखिला नहीं मिला था. बड़ा बी.काम. कर के दुकान पर जाने लगा और छोटा बी.ए. में प्रवेश ले कर समय काटने के साथसाथ पढ़ाई की खानापूर्ति करने लगा. इस बीच उषा ने हायर सेकंडरी प्रथम श्रेणी में विशेष योग्यता सहित उत्तीर्ण कर ली. कालिज में उस ने विज्ञान विषय ही लिया क्योंकि उस की महत्त्वाकांक्षा डाक्टर बनने की थी.

‘‘मां, इसे डाक्टर बना कर हमें क्या फायदा होगा? यह तो अपने घर चली जाएगी. बेकार इस की पढ़ाई पर इतना खर्च क्यों करें,’’ बड़े भाई ने अपनी राय दी.

तड़प उठी थी उषा, जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो. भाई अपनी असफलता की खीज अपनी छोटी बहन पर उतार रहा था. ‘आखिर उसे क्या अधिकार है उस की जिंदगी के फैसलों में हस्तक्षेप करने का? अभी तो मांबाप सहीसलामत हैं तो ये इतना रोब जमा रहे हैं. उन के न होने पर तो…’ सोच कर के ही वह सिहर उठी.

पिताजी ने अकसर उषा का ही पक्ष लिया था. इस बार भी वही हुआ. अगले वर्ष उसे मेडिकल कालिज में दाखिला मिल गया.

यह भी पढ़ें- खारा पानी

डाक्टरी की पढ़ाई कोई मजाक नहीं. दिनरात किताबों में सिर खपाना पड़ता. एक आशंका भी मन में आ बैठी थी कि अगर कहीं पहले साल में अच्छे अंक नहीं आ सके तो भाइयों को उसे चिढ़ाने, अपनी कुढ़न निकालने और अपनी कुंठित मनोवृत्ति दर्शाने का एक और अवसर मिल जाएगा. वे तो इसी फिराक में रहते थे कि कब उस से थोड़ी सी चूक हो और उन्हें उसे डांटने- फटकारने, रोब जमाने का अवसर प्राप्त हो. अत: अधिकांश वक्त वह अपनी पढ़ाई में ही गुजार देती.

कालिज के प्रांगण के बाहर अमरूद, बेर तथा भुट्टे लिए ठेले वाले खड़े रहते थे. वे जानते थे कि कच्चेपक्के बेर, अमरूद तथा ताजे भुट्टों के लोभ का संवरण करना कालिज के विद्यार्थियों के लिए असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल तो है ही. उन का खयाल बेबुनियाद नहीं था क्योंकि शाम तक लगभग सभी ठेले खाली हो जाते थे.

अपनी सहेलियों के संग भुट्टों का आनंद लेती उषा उस दिन प्रांगण के बाहर गपशप में मशगूल थी. पीरियड खाली था. अत: हंसीमजाक के साथसाथ चहल- कदमी जारी थी. छोटा भाई उसी तरफ से कहीं जा रहा था. पूरा नजारा उस ने देखा. उषा के घर लौटते ही उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम कालिज पढ़ने जाती हो या मटरगश्ती करने?’’

उषा कुछ समझी नहीं. विस्मय से उस की ओर देखते हुए बोली, ‘‘क्यों, क्या हुआ? कैसी मटरगश्ती की मैं ने?’’

तब तक मां भी वहां आ चुकी थीं, ‘‘मां, तुम्हारी लाड़ली तो सहेलियों के साथ कालिज में भी पिकनिक मनाती है. मैं ने आज स्वयं देखा है इन सब को सड़कों पर मटरगश्ती करते हुए.’’

‘‘मां, इन से कहो, चुप हो जाएं वरना…’’ क्रोध से चीख पड़ी उषा, ‘‘हर समय मुझ पर झूठी तोहमत लगाते रहते हैं. शर्म नहीं आती इन को…पता नहीं क्यों मुझ से इतनी खार खाते हैं…’’ कहतेकहते उषा रो पड़ी.

‘‘चुप करो. क्या तमाशा बना रखा है. पता नहीं कब तुम लोगों को समझ आएगी? इतने बड़े हो गए हो पर लड़ते बच्चों की तरह हो. और तू भी तो उषा, छोटीछोटी बातों पर रोने लगती है,’’ मां खीज रही थीं.

तभी पिताजी ने घर में प्रवेश किया. भाई झट से अंदर खिसक गया. उषा की रोनी सूरत और पत्नी की क्रोधित मुखमुद्रा देख उन्हें आभास हो गया कि भाईबहन में खींचातानी हुई है. अकसर ऐसे मौकों पर उषा रो देती थी. फिर दोचार दिन उस भाई से कटीकटी रहती, बोलचाल बंद रहती. फिर धीरेधीरे सब सामान्य दिखने लगता, लेकिन अंदर ही अंदर उसे अपने तीनों भाइयों से स्नेह होने के बावजूद चिढ़ थी. उन्होंने उसे स्नेह के स्थान पर सदा व्यंग्य, रोब, डांटडपट और जलीकटी बातें ही सुनाई थीं. शायद पिताजी उस का पक्ष ले कर बेटों को नालायक की पदवी भी दे चुके थे. इस के प्रतिक्रियास्वरूप वे उषा को ही आड़े हाथों लेते थे.

‘‘क्या हुआ हमारी बेटी को? जरूर किसी नालायक से झगड़ा हुआ है,’’ पिताजी ने लाड़ दिखाना चाहा.

ये भी पढ़ें- जब हमारे साहबजादे क्रिकेट खेलने गए

‘‘कुछ नहीं. आप बीच में मत बोलिए. मैं जो हूं देखने के लिए. बच्चों के झगड़ों में आप क्यों दिलचस्पी लेते हैं?’’ मां बात को बीच में ही खत्म करते हुए बोलीं.

असहाय सी उषा मां का मुंह देखती रह गई. मां भी तो आखिर बेटों का ही पक्ष लेंगी न. जब कभी भी पिताजी ने उस का पक्ष लिया, बेटों को डांटाफटकारा तो मां को अच्छा नहीं लगा. उस समय तो वह कुछ नहीं कहतीं लेकिन मन के भाव तो चेहरे पर आ ही जाते हैं. बाद में मौका मिलने पर टोकतीं, ‘‘क्यों अपने बड़े भाइयों से उलझती रहती है?’’

उषा पूछती, ‘‘मां, मैं तो सदा उन का आदर करती हूं, उन के भले की कामना करती हूं लेकिन वे ही हमेशा मेरे पीछे पड़े रहते हैं. अगर मैं पढ़ाई में अच्छी हूं तो उन्हें ईर्ष्या क्यों होती है?’’

मां कहतीं, ‘‘चुप कर, ज्यादा नहीं बोलते बड़ों के सामने.’’

दोनों बड़े भाइयों का?स्नातक होने के बाद विवाह कर दिया गया. दोनों बहुओं ने भी घर के हालात देखे, समझे और अपना आधिपत्य जमा लिया. उषा तो भाइयों की ओर से पहले ही उपेक्षित थी. भाभियों के आने के बाद उन की ओर से भी वार होने लगे. इस बीच हृदय के जबरदस्त आघात से पिताजी चल बसे. घर का पूरा नियंत्रण बहुओं के हाथ में आ गया. मां तो पहले से ही बेटों की हमदर्द थीं, अब तो उन की गुलामी तक करने को तैयार थीं. पूरी तरह से बहूबेटों के अधीन हो गईं.

उषा का डाक्टरी का अंतिम वर्ष था. घर के उबाऊ व तनावग्रस्त माहौल से जितनी देर वह दूर रहती, उसे राहत का एहसास होता. अत: अधिक से अधिक वक्त वह पुस्तकालय में, सहेली के घर या कैंटीन में गुजार देती. सच्चे प्रेम, विश्वास, उचित मार्गदर्शन पर ही तो जिंदगी की नींव टिकी है, चाहे वह मांबाप, भाईबहन, पतिपत्नी किसी से भी प्राप्त हो. लेकिन उषा को बीते जीवन में किसी से कुछ भी प्राप्त नहीं हो रहा था. प्रेम, स्नेह के लिए वह तरस उठती थी. पिताजी से जो स्नेह, प्यार मिल रहा था वह भी अब छिन चुका था.

मेडिकल कालिज की कैंटीन शहर भर में दहीबड़े के लिए प्रसिद्ध थी. अचानक जरूरत पड़ने पर या मेहमानों के लिए विशेषतौर पर लोग वहां से दहीबड़े खरीदने आते थे. बाहर के लोगों के लिए भी कैंटीन में आना मना नहीं था. स्वयंसेवा की व्यवस्था थी. लोगों को स्वयं अपना नाश्ता, चाय, कौफी वगैरह अंदर के काउंटर से उठा कर लाना होता था. कालिज के साथ ही सरकारी अस्पताल होता था. रोगियों के संबंधी भी अकसर कालिज की कैंटीन से चायनाश्ता खरीद कर ले जाते थे.

ये भी पढ़ें- विदाई

कैंटीन में अकेली बैठी उषा चाय पी रही थी. सामने की सीट खाली थी. अचानक एक नौजवान चाय का कप ले कर वहां आया, ‘‘मैं यहां बैठ सकता हूं?’’ उस की बातों व व्यवहार से शालीनता टपक रही थी.

‘‘हां, हां, क्यों नहीं,’’ कह कर उषा ने अपनी कुरसी थोड़ी पीछे खिसका ली.

‘‘मेरी मां अस्पताल में दाखिल हैं,’’ बातचीत शुरू करने के लहजे में वह नौजवान बोला.

‘‘अच्छा, क्या हुआ उन को? किस वार्ड में हैं?’’ सहज ही पूछ बैठी थी उषा.

‘‘5 नंबर में हैं. गुरदे में पथरी हो गई थी. आपरेशन हुआ है,’’ धीरे से युवक बोला.

शाम को घर लौटने से पहले उषा अपनी सहेली के साथ वार्ड नंबर 5 में गई तो वहां वही युवक अपनी मां के सिरहाने बैठा हुआ था. उषा को देखते ही उठ खड़ा हुआ, ‘‘आइए, डाक्टर साहब.’’

‘‘अभी तो मुझे डाक्टर बनने में 6 महीने बाकी हैं,’’ कहते हुए उषा के चेहरे पर मुसकान तैर गई.

उस युवक की मां ने पूछा, ‘‘शैलेंद्र, कौन है यह?’’

‘‘मेरा नाम उषा है. आज कैंटीन में इन से मुलाकात हुई तो आप की तबीयत पूछने आ गई. कैसी हैं आप?’’ शैलेंद्र को असमंजस में पड़ा देख कर उषा ने ही जवाब दे दिया.

‘‘अच्छी हूं, बेटी. तू तो डाक्टर है, सब जानती होगी. यह देखना जरा,’’ कहते हुए एक्सरे व अन्य रिपोर्टें शैलेंद्र की मां ने उषा के हाथ में दे दीं. शैलेंद्र हैरान सा मां को देखता रह गया. एक नितांत अनजान व्यक्ति पर इतना विश्वास?

बड़े ध्यान से उषा ने सारे कागजात, एक्सरे देखे और बोली, ‘‘अब आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी. आप की सेहत का सुधार संतोषजनक रूप से हो रहा है.’’

मां के चेहरे पर तृप्ति के भाव आ गए. अगले सप्ताह उषा की शैलेंद्र के साथ अस्पताल में कई बार मुलाकात हुई. जब भी मां की तबीयत देखने वह गई, न जाने क्यों उन की बातों, व्यवहार से उसे एक सुकून सा मिलता था. शैलेंद्र के नम्र व्यवहार का भी अपना आकर्षण था.

ये भी पढ़ें- वसंत लौट गया

शैलेंद्र टेलीफोन विभाग में आपरेटर था. मां की अस्पताल से छुट्टी होने के बाद भी वह अकसर कैंटीन आने लगा और उषा से मुलाकातें होती रहीं. दोनों ही एकदूसरे की ओर आकर्षित होते चले गए और आखिर यह आकर्षण प्रेम में बदल गया. अपने घर के सदस्यों द्वारा उपेक्षित, प्रेम, स्नेह को तरस रही, अपनेपन को लालायित उषा शैलेंद्र के प्रेम को किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी. वह सोचती, मां और भाई तो इस रिश्ते के लिए कदापि तैयार नहीं होंगे…अब वह क्या करे?

आखिर बात भाइयों तक पहुंच ही गई.

‘‘डाक्टर हो कर उस टुटपुंजिए टेलीफोन आपरेटर से शादी करेगी? तेरा दिमाग तो नहीं फिर गया?’’ सभी भाइयों के साथसाथ मां ने भी लताड़ा था.

‘‘हां, मुझे उस में इनसानियत नजर आई है. केवल पैसा ही सबकुछ नहीं होता,’’ उषा ने हिम्मत कर के जवाब दिया.

‘‘देख लिया अपनी लाड़ली बहन को? तुम्हें ही इनसानियत सिखा रही है.’’ भाभियों ने भी तीर छोड़ने में कोई कसर नहीं रखी.

‘‘अगर तू ने उस के साथ शादी की तो तेरे साथ हमारा संबंध हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा. अच्छी तरह सोच ले,’’ भाइयों ने चेतावनी दी.

जिंदगी में पहली बार किसी का सच्चा प्रेम, विश्वास, सहानुभूति प्राप्त हुई थी, उषा उसे खोना नहीं चाहती थी. पूरी वस्तुस्थिति उस ने शैलेंद्र के सामने स्पष्ट कर दी.

‘‘उषा, यह ठीक है कि मैं संपन्न परिवार से नहीं हूं. मेरी नौकरी भी मामूली सी है, आय भी अधिक नहीं. तुम मेरे मुकाबले काफी ऊंची हो. पद में भी, संपन्नता में भी. लेकिन इतना विश्वास दिलाता हूं कि मेरा प्रेम, विश्वास बहुत ऊंचा है. इस में तुम्हें कभी कंजूसी, धोखा, फरेब नहीं मिलेगा. जो तुम्हारी मरजी हो, चुन लो. तुम पद, प्रतिष्ठा, धन को अधिक महत्त्व देती हो या इनसानियत, सच्चे प्रेम, स्नेह, विश्वास को. यह निर्णय लेने का तुम्हें अधिकार है,’’ शैलेंद्र बोला.

‘‘और फिर परीक्षाएं होने के बाद हम ने कचहरी में जा कर शादी कर ली. मेरी मां, भाई, भाभी कोई भी शादी में हाजिर नहीं हुए. हां, शैलेंद्र के घर से काफी सदस्य शामिल हुए. तुझ से सच कहूं?’’ मेरी आंखों में झांकते हुए उषा आगे बोली, ‘‘मुझे अपने निर्णय पर गर्व है. सच मानो, मुझे अपने पति से इतना प्रेम, स्नेह, विश्वास प्राप्त हुआ है, जिस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. अपनी मां, भाई, भाभियों से स्नेह, प्यार के लिए तरस रही मुझ बदनसीब को पति व उस के परिवार से इतना प्रेम स्नेह मिला है कि मैं अपना अतीत भूल सी गई हूं.

‘‘अगर मैं किसी बड़े डाक्टर या बड़े व्यवसायी से शादी करती तो धनदौलत व अपार वैभव पाने के साथसाथ मुझे पति का इतना प्रेम, स्नेह मिल पाता, मुझे इस में संदेह है. धनदौलत का तो मांबाप के घर में भी अभाव नहीं था लेकिन प्रेम व स्नेह से मैं वंचित रह गई थी.

‘‘धनदौलत की तुलना में प्रेम का स्थान ऊंचा है. व्यक्ति रूखीसूखी खा कर संतोष से रह सकता है, बशर्ते उसे अपनों का स्नेह, विश्वास, आत्मीयता, प्राप्त हो. लेकिन अत्यधिक संपन्नता और वैभव के बीच अगर प्रेम, सहिष्णुता, आपसी विश्वास न हो तो जिंदगी बोझिल हो जाती है. मैं बहुत खुश हूं, मुझे जीवन की असली मंजिल मिल गई है.

‘‘अब मैं अपना दवाखाना खोल लूंगी. पति के साथ मेरी आय मिल जाने से हमें आर्थिक तंगी नहीं हो पाएगी.’’

‘‘उषा, तू तो बड़ी साहसी निकली. हम तो यही समझते रहे कि 3-3 भाइयों की अकेली बहन कितनी लाड़ली व सुखी होगी, लेकिन तू ने तो अपनी व्यथा का भान ही नहीं होने दिया,’’ सारी कहानी सुन कर मैं ने कहा.

‘‘अपने दुखडे़ किसी के आगे रोने से क्या लाभ? फिर वैसे भी मेरा मेडिकल में दाखिला होने के बाद तुम से मुलाकातें भी तो कम हो गई थीं.’’

मुझे याद आया, उषा मेडिकल कालिज चली गई तो महीने में ही मुलाकात हो पाती थी. विज्ञान में स्नातक होने के पश्चात मेरी शादी हो गई और मैं यहां आ गई. कभीकभार उषा की चिट्ठी आ जाती थी, लेकिन उस ने कभी अपनी व्यथा के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा.

मायके जाने पर जब भी मैं उस से मिली, तब मैं यह अंदाज नहीं लगा सकती थी कि उषा अपने हृदय में तनावों, मानसिक पीड़ा का समंदर समेटे हुए है.

दूसरे दिन आने का वादा कर के वह चली गई. मैं बड़ी बेसब्री से दूसरे दिन का इंतजार कर रही थी ताकि उस व्यक्ति से मिलने का अवसर मिले जिस ने अपने साधारण से पद के बावजूद अपनी शख्सियत, अपने व्यवहार, मृदुस्वभाव व इनसानियत के गुणों के चुंबकीय आकर्षण से एक डाक्टर को जीवन भर के लिए अपनी जिंदगी की गांठ से बांध लिया था.

बहार: भाग 3- क्या पति की शराब की लत छुड़ाने में कामयाब हो पाई संगीता

लेखिका- रिचा बर्नवाल

पार्क में आरती ने संगीता को कुछ ऐक्सरसाइजें सिखाईं. लौटने के समय संगीता बहुत खुश थी.

‘‘मम्मी, शादी के बाद से मेरा वजन लगातार बढ़ता जा रहा है. क्या व्यायाम से मैं पतली हो जाऊंगी,’’ आंखों में आशा की चमक ला कर संगीता ने अपनी सास से पूछा.

‘‘इन के अलावा वजन कम करने का और क्या तरीका होगा? पर एक समस्या है,’’ आरती की आंखों में उलझन  के भाव पैदा हुए.

‘‘कैसी समस्या?’’

‘‘सुबह पार्क में आने की.’’

‘‘मैं जल्दी उठ जाया करूंगी.’’

अचानक आरती ताली बजाती हुई बोलीं, ‘‘मैं तुम्हारे ससुर को जोश दिलाती हूं कि वे

रवि को नाश्ते की चीजें बनाना सिखाएं. उन दोनों को रसोई में उलझ कर हम पार्क चली आया करेंगी.’’

‘‘बिलकुल ऐसा ही करेंगे, मम्मी. आम के आम और गुठलियों के दाम. मेरा वजन भी कम होने लगेगा और नाश्ता भी बनाबनाया मिल जाएगा,’’ संगीता प्रसन्न नजर आने लगी.

उधर रसोई में रमाकांत अपने बेटे को समझ रहे थे, ‘‘रवि, मैं ने कुछ चीजें तेरी मां

से बनानी सीखीं क्योंकि अब उस की तबीयत ज्यादा ठीक नहीं रहती. मैं ने देखा है कि तू भी अधिकतर डबलरोटी मक्खन खा कर औफिस जाता है. मैं तुझे ये 5-7 चीजें बनानी सिखा देता हूं. ढंग का नाश्ता घर में बनने लगेगा, तो तेरा और बहू दोनों का फायदा होगा.’’

‘‘पोहा बनाने में आप की सहायता करना मुझे अच्छा लगा, पापा. आप मुझे बाकी की चीजें भी जरूर सिखाना,’’ रवि खुश नजर आ रहा था.

‘‘अब ब्रश कर के आ. फिर हम दोनों साथ बैठ कर नाश्ता करेंगे.’’

‘‘मम्मी और संगीता के आने का इंतजार नहीं करेंगे क्या?’’

‘‘अरे, तेरी बहू जितनी ज्यादा देर घूमे अच्छा है. अपनी मां के साथ उसे रोज पार्क भेज दिया कर. उस का बढ़ता मोटापा उस की सेहत के लिए ठीक नहीं है.’’

रमाकांत की यह सलाह रवि के मन में बैठ गई. उस दिन ही नहीं बल्कि रोज उस ने सुबह उठ कर अपने पिता के मार्गदर्शन में कई नईर् चीजें नाश्ते में बनानी सीखीं.

आरती और संगीता रसोई में आतीं, तो बापबेटा उन्हें फौरन बाहर कर देते. तब आरती अपनी बहू को पार्क में ले जाती.

वहां से सैर और व्यायाम कर के दोनों लौटतीं, तो उन्हें नाश्ता तैयार मिलता. सब बैठ कर नाश्ते की खूबियों व कमियों पर बड़े उत्साह से चर्चा करते. सुबह की शुरुआत अच्छी होने से बाकी का दिन अच्छा गुजरने की संभावना बढ़ जाती.

संगीता अपने सासससुर के आने से अब सचमुच बड़ी प्रसन्न थी. सास के द्वारा काम में मदद करने से उसे बड़ी राहत मिलती. बहुत कुछ नया सीखने को मिला उसे आरती से.

रवि का मन बहुत होता अपने दोस्तों के साथ शराब पीने का, पर हिम्मत नहीं पड़ती. अपनी खराब लत के कारण वह अपने मातापिता को लड़तेझगड़ते नहीं देखना चाहता था.

धीरेधीरे शराब पीने की तलब उठनी बंद हो

गई उस के मन में. उस में आए इस बदलाव के कारण संगीता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

सप्ताहभर तक नियमित रूप से पार्क जाने का परिणाम यह निकला कि संगीता के पेट का माप पूरा 1 इंच कम हो गया. उस ने यह खबर बड़े खुश अंदाज में सब को सुनाई.

‘‘आज पार्टी होगी मेरी बहू की इस सफलता की खुशी में और सारी चीजें संगीता और मैं घर में बनाएंगे,’’ आरती की इस घोषणा का बाकी तीनों ने तालियां बजा कर स्वागत किया.

उस रविवार के दिन के भोजन में मटरपनीर, दहीभल्ले, बैगन का भरता, सलाद, परांठे और मेवों से भरी खीर सबकुछ संगीता और आरती ने मिल कर तैयार किया.

खाना इतना स्वादिष्ठ बना था कि सभी उंगलियां चाटते रह गए. आरती ने इस का बड़ा श्रेय संगीता को दिया, तो वह फूली न समाई.

‘‘मैं कहता हूं कि किसी होटल में क्व2 हजार रुपए खर्च कर के भी ऐसा शानदार खाना नसीब नहीं हो सकता,’’ रवि ने संतुष्टि भरी डकार लेने के बाद घोषणा करी.

‘‘चाहे वह स्वादिष्ठ खाना हो या दिल को गुदगुदाने वाली खुशियां, इन्हें घर से बाहर ढूंढ़ना मूर्खता है,’’ बोलते

हुए आरती की आंखों में अचानक आंसू छलक आए.

‘‘मम्मी, आप की आंखों में आंसू क्यों आए हैं?’’ रवि

ने अपनी मां का कंधा छू कर भावुक लहजे में पूछा.

‘‘हम से कोई गलती हो गई क्या?’’ संगीता एकदम घबरा उठी.

‘‘नहीं, बहू,’’ आरती ने उस का गाल प्यार से थपथपाया, ‘‘सब को एकसाथ इतना खुश देख कर आंखें भर आईं.’’

‘‘यह तो आप दोनों के आने का आशीर्वाद है मम्मी,’’ संगीता ने उन का हाथ पकड़ कर प्यार से अपने गाल पर रख लिया.

रमाकांत ने गहरी सांस छोड़ कर कहा, ‘‘आज शाम को हम वापस जा रहे हैं. शायद इसीलिए पलकें नम हो उठीं.’’

‘‘यों अचानक जाने का फैसला क्यों कर लिया आप ने?’’ रवि ने उलझन भरे स्वर में पूछा.

‘‘नहीं, आप दोनों को मैं बिलकुल नहीं जाने दूंगी,’’ संगीता ने भरे गले से अपने दिल की इच्छा जाहिर करी.

‘‘हम दोनों तो आज के दिन ही लौटने का कार्यक्रम बना कर आए थे, बहू. तेरे जेठजेठानी व दोनों भतीजे बड़ी बेसब्री से हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ आरती ने मुसकराने की कोशिश करी, पर जब सफल नहीं हुईं तो उन्होंने संगीता को गले लगा लिया.

संगीता एकाएक सुबकने लगी. रवि की आंखों में भी आंसू ?िलमिलाने लगे.

‘‘मम्मीपापा, आप दोनों अभी मत जाइए. मेरे घर में आई खुशियों की बहार कहीं आप

दोनों के जाने से खो न जाए,’’ रवि उदास नजर आने लगा.

रमाकांत ने उस का माथा चूम कर समझया, ‘‘बेटा, अपने घर की

खुशियों, सुखशांति और मन के संतोष के लिए किसी पर भी निर्भर मत रहना. तुम दोनों समझदारी से काम लोगे, तो यह घर हमारे जाने के बाद भी खुशियों से महकता रहेगा.’’

‘‘बस, सदा हमारी एक ही बात याद रखो तुम दोनों,’’ आरती उन दोनों से प्यारभरे स्वर में बोलीं.

‘‘आपसी मनमुटाव से दिलोदिमाग पर बहुत सा कूड़ाकचड़ा जमा हो जाता है. इंसान को प्यार करने व लड़नेझगड़ने दोनों के लिए ऊर्जा खर्चनी पड़ती है. तुम दोनों चाहे लड़ो चाहे प्यार करो, पर सदा ध्यान रखना कि ऊर्जा के बहाव में दिलोदिमाग पर जमा वह कूड़ाकचरा जरूर बह जाए. बीते पलों की यादों को फालतू ढोने से इंसान कभी भी नए और ताजे जीवन का आनंद नहीं ले पाता.’’

रवि और संगीता ने उन की बात बड़े ध्यान से सुनी. जब उन दोनों की नजरें आपस में मिलीं, तो दोनों के दिलों में एकदूसरे के लिए प्र्रेम की ऊंची लहर उठी.

‘‘आप अगली बार आएंगे, तो मुझे पूरी तरह बदला हुआ पाएंगे,’’ संगीता ने फौरन अपने सासससुर से मजबूत स्वर में वादा किया

‘‘हमारी आंखें खोलने के लिए आप दोनों को धन्यवाद,’’ कह रवि ने अपने मातापिता के हाथों को चूमा.

‘‘मिल कर अपने बच्चों का शुभ सोचना हमारी एकमात्र इच्छा है. हमारे लड़नेझगड़ने को तो तुम दोनों नाटक समझना,’’ आरती बोलीं.

आरती के इस बचन को सुना कर रमाकांत रहस्यमयी अंदाज में मुसकराने लगे.

ये भी पढ़ें- पलटवार : जब स्वरा को दिया बहन और पति ने धोखा

पुलिस वैरीफिकेशन का चक्कर

किसी भी अच्छे काम को अंजाम देने में तमाम कठिनाइयां तो आती ही हैं. मानवाधिकारों के लिए बेचारे अमेरिका ने किसकिस से बैर नहीं ले डाला? हमारा मुल्क इसीलिए भेडि़याधसान कहलाता है क्योंकि हम दूसरों के कहे में जल्दी आ जाते हैं, अपना दिमाग खर्च ही नहीं करना चाहते. हमारे यहां गांव से ले कर कसबों तक, शहरों से ले कर संसद तक तमाम बड़ेबड़े कांड हो रहे हैं पर हर विफलता के लिए कोई न कोई बढि़या सा बहाना गढ़ कर मामला रफादफा कर दिया जाता है.

नक्सलवाद की समस्या पर एक माननीय महोदय का कहना था कि उस से प्रभावित क्षेत्रों में लोग तीरकमान चलाने में बहुत अच्छे हैं लिहाजा, वे इस समस्या से निबटने के लिए खुद ही काफी हैं. एक अन्य ने वहां विकास योजनाओं पर जोर देने की बात कही है.

देश के तमाम हिस्सों में होने वाले अन्य अपराधों में सफलता भले ही न मिले पर एक नया नुक्ता उछाल दिया जाता है कि अमुक संस्था ने अपने कर्मचारियों का पुलिस वैरीफिकेशन नहीं कराया था. मकानमालिकों को किराएदारों के लिए उन के स्थायी पते पर जा कर पुलिस वैरीफिकेशन कराए जाने के निर्देश हैं. अगर आप कोई घरेलू नौकर रखना चाहते हैं तो पहले उस का पुलिस वैरीफिकेशन कराइए.

अमेरिका इतना अच्छा देश है कि हर संदर्भ वहां एक आदर्श उदाहरण पेश करता हुआ मिलता है. अब इस वैरीफिकेशन को ही ले लीजिए. हमारा कोई भी नागरिक, भले ही वह कोई बड़े नाम वाला मंत्री या अभिनेता ही क्यों न हो, जैसे ही उन के देश की सीमा में प्रवेश करता है, पुलिस वैरीफिकेशन शुरू हो जाता है और वह इतनी ईमानदारी से होता है कि कभीकभी हमारा मीडिया काफी दिन तक तिलमिलाया रहता है. अगर उसे शक हो जाए तो वे हमारा ऐक्सरे करवाने में भी नहीं हिचकेंगे.

हम न तो अपनों से ईमानदारी बरतते हैं और न ही बाहर वालों से. हम किसी भी विदेशी हस्ती के आने की खबर से ही इतना अभिभूत हो जाते हैं कि उस का वैरीफिकेशन करने के बजाय यह सोचने लगते हैं कि भेंट में उस से क्या मिल सकता है. किस मद में कितना लोन या दान मिल सकता है. ऐसे में ईमानदारी से उस की जांच का प्रश्न ही कहां रह पाता है.

उन की ईमानदारी का दायरा देखिए कि उन का राष्ट्रपति हमारे यहां महात्मा गांधी की समाधि पर अगर फूल भी चढ़ाना चाहे तो उन के कुत्ते पहले कई बार चक्कर लगा कर मुतमईन हो लेते हैं कि कहीं उस समाधि में उन के साथ ही उन की लाठी न दबी रह गई हो. वे कतई नहीं चाहते कि उन के अलावा कोई भी मानव विनाशकारी हथियार रखे. आखिर यह हक तो केवल मानव अधिकार के पोषक के पास ही रहना चाहिए न.

अपने यहां किसी होटल में कोई हत्या या चोरी हो जाए तो मुख्य मुद्दा यह हो जाता है कि यहां ठहरने वालों के पते का वैरीफिकेशन करवाया गया था या नहीं. अब सोचिए कि कोई दिल्ली से लुधियाना जाए और अगली यात्रा के लिए उसे वहां 8-10 घंटे रुकना ही पड़ जाए तो पहले अपने पते का सुबूत पेश करे. अगर आप किसी स्कूटर स्टैंड पर अपना स्कूटर खड़ा करें तो अपने पते का सुबूत दिखाएं क्योंकि वह मामला भी एक तरह से किराएदारी का ही हो जाता है.

मेरे शहर में मात्र 9 दिन में बड़ीबड़ी दुकानों में चोरी की 7 वारदातें हो गईं तो एक बात खुल कर सामने आई कि उन के मालिकों ने अपने नौकरों का पुलिस वैरीफिकेशन नहीं करवाया था जबकि सभी चोरियों में उन के नौकरों का हाथ ही पाया गया था. अब बेचारे दुकानमालिकों का ध्यान बजाय अपने नुकसान के इस कानूनी दांवपेंच में उलझ कर रह गया.

इसी तरह होटलों में होने वाले कांडों पर अंकुश के लिए उन को ताकीद की गई कि वे बिना वैरीफिकेशन के किसी को भी अपने होटल में न ठहरने दें. इन सब के चलते जब एक बहुत बूढ़े जोड़े ने बजाय होटल के रेलवे स्टेशन पर ही रात बिताने की सोची तो वहां जी.आर.पी. वाले उन से वैरीफिकेशन के नाम पर अच्छीखासी रकम की उगाही कर ले गए. जब अपनी पत्नी को बाहर खड़ा कर उस के पति पास के सुलभ शौचालय में शौच के लिए जाने लगे तो वहां तैनात कर्मचारी ने उन को बाहर ले जा कर उन का वैरीफिकेशन करना चाहा. वे बेचारे कहते रहे कि बहुत जोर से लगी है, पर वह कर्मचारी फिर भी नहीं पिघला और सख्त लहजे में बोला, ‘‘बिना पुलिस वैरीफिकेशन आप शौच के लिए नहीं जा सकेंगे.’’

संयोग ही था कि इतने में एक सज्जन जो शौच से निवृत्त हो कर निकले थे, इस तकरार को देख कर ठिठक से गए. उन्होंने उन वृद्ध महोदय को अपने द्वारा खाली किए गए लैट्रिन बौक्स में जबरदस्ती प्रवेश करवा दिया. पर अब वह आफत उस सज्जन के सिर आ गई. वह कर्मचारी उन से भिड़ गया तो वे बोले, ‘‘मैं यहीं बैठा हूं, यह मेरा पता है. जाओ, करा लाओ पुलिस वैरीफिकेशन.’’

इस पर वह कर्मचारी बोला, ‘‘पुलिस वैरीफिकेशन कराने में तो 500 रुपए लगते हैं, वह कौन देगा?’’

‘‘जिस को गरज होगी या जिस को शक होगा,?’’ उन सज्जन ने पलट कर जवाब दिया.

इतनी देर में वृद्ध महोदय बाहर आ चुके थे, उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि इस को 50 रुपए दे दो. उन की पत्नी ने 50 रुपए का नोट उस कर्मचारी के हवाले किया.

50 के नोट पर गांधीजी को हंसता देख कर कर्मचारी की वैरीफिकेशन की जरूरत पूरी हो चुकी थी. वह बस, मुसकरा दिया. इसे कहते हैं वैरीफाइड मुसकान.

एक दिन का सुलतान

मुझे उन्होंने राष्ट्रपति पुरस्कार दे दिया. उन की मरजी, वे जानें कि क्यों दिया? कैसे दिया? मैं तो नहीं कहता कि मैं कोई बहुत बढि़या अध्यापक हूं. हां, यह तो कह सकता हूं कि मुझे पढ़ने और पढ़ाने का शौक है और बच्चे मुझे अच्छे लगते हैं. यदि पुरस्कार देने का यही आधार है, तो कुछ अनुचित नहीं किया उन्होंने, यह भी कह सकता हूं.

जिस दिन मुझे पुरस्कार के बाबत सूचना मिली तरहतरह के मुखौटे सामने आए. कुछ को असली खुशी हुई, कुछ को हुई ही नहीं और कुछ को जलन भी हुई. अब यह तो दुनिया है. सब रंग हैं यहां, हम किसे दोष दें? क्या हक है हम को किसी को दोष देने का? मनुष्य अपना दृष्टिकोण बनाने को स्वतंत्र है. जरमन दार्शनिक शापनहोवर ने भी तो यही कहा था, ‘‘गौड भाग्य विधाता नहीं है, वह तो मनुष्य को अपनी स्वतंत्र बुद्धि का प्रयोग करने की पूरी छूट देता है. उसे जंचे सेब खाए तो खाए, न खाए तो न खाए. अब बहकावट में आदमी ने यदि सेब खा लिया और मुसीबत सारी मानव जाति के लिए पैदा कर दी तो इस में ऊपर वाले का क्या दोष.’’

हां, तो पुरस्कार के दोचार दिन बाद ही मुझे गौर से देखने के बाद एक सज्जन बोले, ‘‘हम ने तो आप की चालढाल में कोई परिवर्तन ही नहीं पाया. आप के बोलनेचालने से, आप के हावभाव से ऐसा लगता ही नहीं कि आप को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है.’’

मैं सुन कर चुप रह गया. क्या कहता? खुशी तो मुझे हुई थी लेकिन मेरी चालढाल में परिवर्तन नहीं आया तो इस का मैं क्या करूं? जबरदस्ती नाटक करना मुझे आता नहीं. मेरी पत्नी को तो यही शिकायत रहती है कि यदि आप पहले जैसा प्यार नहीं कर सकते तो प्यार का नाटक ही कर दिया करो, हमारा गुजारा तो उस से ही हो जाएगा. हम हंस कर कह दिया करते हैं कि पुणे के फिल्म इंस्टिट्यूट जाएंगे ट्रेनिंग लेने और वह खीझ कर रह जाती है.

पुरस्कार मिलने के बारे में कई शंकाएंआशंकाएं व प्रतिक्रियाएं सामने आईं. उन्हीं दिनों मैं स्टेशन पर टिकट लेने लंबी लाइन में खड़ा था. मेरा एक छात्र, जो था तो 21वीं सदी का पर श्रद्धा रखता?था महाभारतकाल के शिष्य जैसी, पूछ बैठा :

‘‘सर, आप तो राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हैं. क्या आप को भी इस प्रकार लाइन में खड़ा होना पड़ता है? आप को तो फ्री पास मिलना चाहिए था, संसद के सदस्यों की तरह.’’

उसे क्या पता, कहां हम और कहां संसद सदस्य. वे हम को तो खुश करने की खातिर राष्ट्रनिर्माता कहते?हैं पर वे तो भाग्यविधाता हैं. उन का हमारा क्या मुकाबला. छात्र गहरी श्रद्धा रखता?था सो उसे यह बात समझ में नहीं आई. उस ने तुरंत ही दूसरा सवाल कर डाला.

‘‘सर, आप को पुरस्कार में कितने हजार रुपए मिले? नौकरी में क्या तरक्की मिली? कितने स्कूटर, कितनी बीघा जमीन वगैरह?’’

यह सब सुन कर मैं चौंक गया और पूछा, ‘‘बेटे, यह तुम ने कैसे सोच लिया कि मास्टरजी को यह सब मिलना चाहिए?’’

उस ने कहा, ‘‘सर, क्रिकेट खिलाडि़यों को तो कितना पैसा, कितनी कारें, मानसम्मान, सबकुछ मिलता है, आप को क्यों नहीं? आप तो राष्ट्रनिर्माता हैं.’’

मुझे उस के इस प्रश्न का जवाब समझ में नहीं आया तो प्लेटफार्म पर आ रही गाड़ी की तरफ मैं लपका.

उन्हीं दिनों एक शादी में मेरा जाना हुआ. वहां मेरे एक कद्रदान रिश्तेदार ने समीप बैठे कुछ लोगों से कहा, ‘‘इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है. तपाक से एक सज्जन बोले, ‘‘मान गए उस्ताद आप को, बड़ी पहुंच है आप की, खूब तिकड़म लगाई. कुछ खर्चावर्चा भी हुआ?’’

मैं उन की बातें सुन कर सकते में आ गया. उन्होंने मेरी उपलब्धि अथवा अन्य कार्यों के संबंध में न पूछ कर सीधे ही टिप्पणी दे डाली. पुरस्कार के पीछे उन की इस अवधारणा ने मुझे झकझोर दिया. और पुरस्कार के प्रति एक वितृष्णा सी हो उठी. क्यों लोगों में इस के प्रति आस्था नहीं है? कई प्रश्न मेरे सामने एकएक कर आते गए जिन का उत्तर मैं खोजता आ रहा हूं.

एक दिन अचानक एक अध्यापक बंधु मिले. उन की ग्रेडफिक्सेशन आदि की कुछ समस्या थी. वे मुझ से बोले, ‘‘भाई साहब, आप तो राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त शिक्षक हैं. आप की बात का तो वजन विभाग में होगा ही, कुछ मेरी भी सहायता कीजिए.’’

मैं ने उन को बताया कि मेरे खुद के मामले ही अनिर्णीत पड़े हैं, कौन जानता है मुझे विभाग में. कौन सुनता है मेरी. मैं ने उन्हें यह भी बताया कि एक बार जिला शिक्षा अधिकारी से मिलने गया था. मैं ने अपनी परची में अपने नाम के आगे ‘राष्ट्रीय पुरस्कारप्राप्त’ भी लिख दिया था. मुझे पदवी लिखने का शौक नहीं है पर किसी ने सुझा दिया था. मैं ने भी सोचा कि देखें कितना प्रभाव है इस लेबल का. सो, आधा घंटे तक तो बुलाया ही नहीं. बाद में डेढ़ बजे बाहर निकलते हुए मेरे पूछने पर कहा, ‘‘आप साढ़े 3 बजे मिलिएगा.’’ और फिर उस दिन वे लंच के बाद आए ही नहीं और हम अपने पुरस्कार को याद करते हुए लौट आए.

मुझे अफसोस है कि मुझे पुरस्कार तो दिया गया पर पूछा क्यों नहीं जाता है, पहचाना क्यों नहीं जाता है, सुना क्यों नहीं जाता है? क्यों यह मात्र एक औपचारिकता ही है कि 5 सितंबर को एक जलसे में कुछ कर दिया जाता है और बस कहानी खत्म.

एक बार मैं ऐसे ही पुरस्कार समारोह के अवसर पर बैठा था. मेरी बगल में बैठे शिक्षक मित्र ने पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक हैं, आप को तो आगे बैठना चाहिए. आप का तो विशेष स्थान सुरक्षित होगा?  आप को तो हर वर्ष बुलाते होंगे?’’

मैं ने कहा, ‘‘भाई मेरे, मुझे ही शौक है लोगों से मिलने का सो चला आता हूं. निमंत्रण तो इन 10 वर्षों में केवल 2 बार ही पहुंच पाया है और वह भी इसलिए कि निमंत्रणपत्र भेजने वाले मेरे परिचित एवं मित्र थे.

समारोह में कुछ व्यवस्थापक सदस्य आए और कुछ लोगों को परचियां दे गए, और कहा, ‘‘आप लोग समारोह के बाद पुरस्कृत शिक्षकों के साथ अल्पाहार लेंगे.’’ मेरे पड़ोसी ने फिर पूछा, ‘‘आप तो पुरस्कृत शिक्षक?हैं, आप को क्यों नहीं दे रहे हैं यह परची?’’ मैं ने एक लंबी सांस ली और कहा, ‘‘अरे, भाई साहब, यह पुरस्कार तो एक औपचारिकता है, पहचान थोड़े ही है. एक महान पुरुष ने चालू कर दिया सो चालू हो गया. अब चलता रहेगा जब तक कोई दूसरा महापुरुष बंद नहीं कर देगा.’’

बगल वाले सज्जन ने पूछा, ‘‘तो क्या ऐसे महापुरुष भी हैं जो बंद कर देंगे.’’

‘‘अरे, साहब, क्या कमी है इस वीरभूमि में ऐसे बहादुरों की. देखिए न, पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों को 3 वर्षों की सेवावृद्धि स्वीकृत थी पर बंद कर दी न किसी महापुरुष ने.’’

‘‘अच्छा, यह तो बताइए कि लोग क्या देते हैं आप को? क्या केवल 1 से 5 हजार रुपए ही?’’

‘‘जी हां, यह क्या कम है? सच पूछो तो वे क्या देते हैं हम को, देते तो हम हैं उन्हें.’’

‘‘ वह क्या?’’

‘‘अजी, हम धन्यवाद देते हैं कि वे भले ही एक दिन ही सही, हमारा अभिनंदन तो करते हैं और हम भिश्ती को एक दिन का सुलतान बनाए जाने की बात याद कर लेते हैं.’’

‘‘लेकिन उस को तो फुल पावर मिली थी और उस ने चला दिया था चमड़े का सिक्का.’’

‘‘इतनी पावर तो हमें मिलने का प्रश्न ही नहीं. पर हां, उस दिन तो डायरेक्टर, कमिश्नर, मिनिस्टर सभी हाथ मिलाते हैं हम से, हमारे साथ चाय पी लेते हैं, हम से बात कर लेते हैं, यह क्या कम है?’’ इसी बीच राज्यपाल महोदय आ गए और सब खड़े हो गए. बाद में सब बैठे भी, लेकिन कम्बख्त सवाल हैं कि तब से खड़े ही हैं.

हिंदी व्याकरण में सियासत

मैं जब भी किसी नेता को यह कहते हुए सुनता हूं कि वे तो राजनीति छोड़ना चाहते हैं, पर राजनीति उन्हें नहीं छोड़ती, मुझे उस गरीब की याद आ जाती है जो घोर सर्दी में कहीं से एक कंबल पा गया था. उस से अगर कोई पूछता था, ‘‘बहुत सर्दी है क्या?’’ तो उस का जवाब होता था, ‘‘कतई नहीं.’’ अगला सवाल, ‘‘तो कंबल में यों ठिठुर क्यों रहे हो?’’ उस का जवाब होता, ‘‘मैं तो यह कंबल छोड़ना चाहता हूं पर यह कंबल मुझे नहीं छोड़ता.’’

उक्त प्रसंग का एक खास कारण है कि मेरी भी दशा उन नेताओं जैसी बरबस होती जा रही है. मैं कतई राजनीति नहीं पसंद करता. मैं आजीवन हिंदी लेखन का एक छात्र बना रहना चाहता हूं पर मुसीबत तो यह है कि यह राजनीति मेरे व्याकरण पर भी सवार हो चुकी है. अब क्योंकि हिंदी लेखन तो मैं छोड़ नहीं पाऊंगा लिहाजा, इस से भी पिंड छूटता नजर नहीं आता.

गौर कीजिए, जब देश के राष्ट्रपति के पद के लिए प्रतिभा देवीसिंह पाटिल के नाम का प्रस्ताव आया था तो राजनीतिक हलकों में एक बहस छिड़ गई थी कि अगर उस खास पद पर एक पुरुष हो तो राष्ट्रपति कहा जाना तर्कसंगत है पर जब उस पर कोई महिला हो तो क्या उसे राष्ट्रपत्नी कहा जाना चाहिए? भाई लोगों ने चटखारे लेले कर इस सियासती व्याकरण की खूब खिल्ली उड़ाई थी. प्रतिभा पाटिल के बहाने चली बहस में महात्मा गांधी को भी लपेट लिया गया था कि अगर वे राष्ट्रपिता थे तो क्या कस्तूरबा गांधी राष्ट्रमाता थीं. ऐसी बचकाना हरकत  इंदिरा गांधी के समय में भी एक बार उछाली गई थी. यह एक व्याकरणात्मक राजनीति थी.

अगर इसे आधार मान लिया जाए तो जवाहर लाल नेहरू क्योंकि चाचा नेहरू के नाम से मशहूर हो गए थे, तो क्या उन की पत्नी कमला नेहरू चाची कहलाई गईं?

हरियाणा के एक नेता देवीलाल ताऊ कहलाए जाने लगे थे तो क्या उन की पत्नी ताई कहलाई गईं?

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के एक नेता राजा भैया के नाम से मशहूर हैं. सवाल है कि क्या उन की पत्नी को राजा बहन कहा जाए या रानी भैया कहा जाए या रानी बहन कहा जाए? ये सभी मामले विशुद्ध व्याकरणात्मक राजनीति के हैं जिन से मेरा कोई लेनादेना नहीं है पर जब ये लिखने वाली भाषा के व्याकरण में आने लगते हैं तो मेरी तकलीफ नाजायज नहीं कही जाएगी.

अब गौर कीजिए साली का पुल्ंिलग, साला हुआ पर गाली का गाला नहीं हुआ. गठरी का गट्ठा तो हुआ लेकिन मठरी का मट्ठा नहीं हो सकता. लंगड़ी का लंगड़ा तो हुआ, पर गृहिणी का गृहणा नहीं हो सकता, पत्नी का पत्ना भी नहीं हो सकता. पुत्री का पुत्र तो होता है पर नेत्री का नेत्र नहीं हो सकता. खाली का खाला नहीं हो सकता और राजनीति का राजनीता भी नहीं हो सकता. इसी तरह कोयल का कोयला भी नहीं हो सकता.

चाचा का स्त्रीलिंग चाची तो होता है, मामा का मामी भी होता है पर बप्पा का बप्पी कतई नहीं होता. सरकारी कार्यालयों में जूता बोलता है, वह चाहे चांदी का हो या चमड़े का या फिर चाचा, दादा का, पर जूती कतई नहीं बोलती. जबकि दूसरी तरफ दबंग की तूती बोलती है, पर किसी का तूता बोलते आप ने कभी नहीं सुना होगा.

यह समस्या केवल पुल्ंिलग और स्त्रीलिंग में ही नहीं है, एकवचन और बहुवचन में भी है. गाड़ी का बहुवचन गाडि़यां होता है, साड़ी का साडि़यां होता है पर कबाड़ी का कबाडि़यां नहीं होता. बात का बातें तो होता है, लात का लातें भी होता है पर तात (पिता) का तातें नहीं हो सकता. पेड़ का बहुवचन भी पेड़ ही है. आप यह नहीं कह सकते कि इस बाग में 10 पेड़ें हैं, सही तो यही होगा कि इस बाग में 10 पेड़ हैं, ‘जंगल में मोर नाचा’ का बहुवचन होगा ‘जंगल में मोर नाचे’ न कि मोरें नाचे.

अब आप ही बताइए, जैसे दबंग सियासतदां कभी भी और कहीं भी अवैध कब्जों के लिए अलिखित अधिकार पाए हुए होते हैं इसी तरह यह सियासत भी कहीं भी अवैध कब्जा करने के लिए आजाद है. वह लेखन के क्षेत्र में ही नहीं, नदी, तालाब या पाताल तक भी जा सकती है. मामला लिंग का जो ठहरा, इस के पास सत्ता होती है. अब सत्ता का शब्द खुद ही पुल्ंिलग जैसा दिखता है, इस का पुल्ंिलग कैसे बनाया जा सकता है. यह एक व्याकरणात्मक समस्या है राजनीतिक नहीं.

कुछ ऐसा ही मामला विलोम शब्दों के साथ भी है. अंकुश का निरंकुश तो होता है पर माता का निर्माता नहीं हो सकता आदि.

बीमारी की बिसात

‘जोर लगा के हैया, पत्नी बीमार है मन लगा कर काम करो सैंया.’

पिछले एक सप्ताह से इस लाइन का मनन बेहद सत्यनिष्ठा के साथ कर रहा हूं, ठीक उसी तरह जैसे भक्त भगवान का करते हैं. इस लाइन को भूलना भी चाहूं तो बेचारे बिस्तर को 24 घंटे कष्ट दे रही हमारी श्रीमतीजी की गुब्बारे सी काया हमें भूलने नहीं देती है. इस लाइन को अभी से भूल गया तो आने वाले 3 सप्ताह का सामना कैसे करूंगा, क्योंकि डाक्टर ने कम से कम 4 सप्ताह तक उन्हें पूर्ण आराम की सलाह दी है और उन की संपूर्ण देखरेख की हिदायत मुझे दी है.

आप यह मत सोचिए कि उन्हें कोई गंभीर, खानपान से परहेज वाली बीमारी है. ऐसा बिलकुल नहीं है. उन्हें तो बस, काम से मुक्त आराम करने वाला प्रसाद के रूप में एक अचूक झुनझुना मिल गया है जिस का नाम है ‘स्लिप डिस्क.’

इस की प्राप्ति भी उन्हें कोई गृह कार्यों के बोझ तले दब कर नहीं हुई बल्कि अपनी ढोल सी काया को कमसिन बनाने के लिए की जा रही जीतोड़ उलटीसीधी एक्सरसाइज के कारण हुई है. वैसे तो इस प्रसाद को उन के साथसाथ मैं भी चख रहा हूं. लेकिन दोनों के स्वाद में जमीनआसमान का अंतर है. जहां श्रीमतीजी के सुखों का कारवां फैल कर दोगुना हो गया है वहीं हमारे घरेलू अधिकारों की अर्थी उठने के साथसाथ कर्तव्यों की फसलें सावन में हरियाली की तरह लहलहा रही हैं.

श्रीमतीजी अपनी रेपुटेशन एवं खुशनुमा दिनचर्या के लिए जिन्हें आधार मानती हैं वे मेरे लिए कर्तव्यों की फसल में खरपतवार के समान हैं. यानी उन का हालचाल पूछने व इधरउधर की सनसनीखेज खबरें बताने के लिए दिन भर थोक में आने वाली और श्रीमतीजी पर हम से कई गुना ज्यादा प्रेम बरसा कर हमदर्दी जताने वाली कोई और नहीं उन की प्रिय सहेलियां हैं.

बेमौसम सहेलियों की बाढ़ से घर की अर्थव्यवस्था निरंतर क्षतिग्रस्त होती जा रही है. मेरी समस्या असार्वजनिक होने के कारण दूरदूर तक मुआवजे की भी कोई उम्मीद नहीं है. कपप्लेट, गिलास और ट्रे के साथ मैं भी फुटबाल की तरह दिन भर इधर से उधर टप्पे खाता फिर रहा हूं.

फुटबाल के खेल में दोनों पक्ष गुत्थमगुत्था मेहनत करते हैं तब कहीं जा कर एक पक्ष को जीत नसीब होती है लेकिन यहां तो अंधेर नगरी चौपट राजा है, कमरतोड़ मेहनत भी हम करें और हारें भी हम ही. उधर हमारी श्रीमतीजी की पौबारह है. पांचों उंगली घी में और सिर कड़ाही में है. काम से परहेज किंतु कांवकांव से कोई परहेज नहीं.

अकेले में हलके से हिलना भी हो तो हमारी हाजरी लिफाफे पर टिकट की तरह बेहद जरूरी है. वहीं 4-6 ने आ कर जैसे ही बाहरी दुनिया का बखान शुरू किया नहीं कि यहांवहां की स्वादिष्ठ बातों का श्रवण कर बातबात पर स्ंिप्रग की भांति उन का उछलना तथा आहें भरभर कर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कभी खिसियाना या कभी खीसें निपोरना देखने लायक होता है.

‘‘कल किटी पार्टी में किस ने किस की आरती उतारी, किस ने अध्यक्षा को अपने कोमल हाथों से चरण पादुकाएं पहनाईं, किस ने किस को मक्खन लगाया, पकवानों में कौनकौन से दुर्गुण थे, चाय के नाम पर गरम पानी पिलाया आदि.’’

यह देख हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहता कि एक से बढ़ कर एक जहर से लिपटे शब्दबाण हमारी श्रीमतीजी को घायल करने के बजाय इतना स्फूर्तिदायक बना देते जैसे वह अमृत का प्याला हों. वाह रे खुदा, तेरी खुदाई देख कर लगता है कि इन महिलाओं के लिए निंदा रस से बढ़ कर और कोई मिठाई नहीं है. इन की महफिल से जो परिचिता गायब है, समझ लो वही इन सब के हृदय में निंदा रस प्रज्वलित करने का माध्यम है और इस निंदा रस में डुबकी लगा कर उन सभी के चेहरे एकदम तरोताजा गुलाब की तरह खिल जाते हैं.

निंदा रस के टौनिक से फलती- फूलती इन महिलाओं को लगता है आज किसी की नजर लग गई क्योंकि कमरे के अंदर से आते हुए सभी का सुर अचानक एकदम बदल गया है. ऐसा लग रहा था मानो हमारे बेडरूम में विधानसभा या संसद सत्र चल रहा हो.

हम ने भीगी बिल्ली की तरह चुपके से अंदर झांका तो सभी की भवें अर्जुन के धनुष सी तनी हुई थीं. माथे पर पसीने की बूंदें रेंगती हुई, जबान कौवे की सी कर्कश, चेहरा तपते सूरज सा गरम और हाथ अपनी स्वामिनी के पक्ष में कला- बाजियां खाते इधरउधर डोल रहे थे.

सभी नारियों के तीनइंची होंठ एकसाथ हिलने के कारण अपने कानों व दिमाग की पूर्ण सक्रियता के बावजूद यह समझ नहीं पाए कि इस विस्फोटक नजारे के पीछे किस माचिस की तीली का हाथ है. वह तो भला हो गरमी की छुट्टियों का जिस की वजह से फिलहाल अड़ोसपड़ोस के मकान खालीपन का दुख झेल रहे हैं.

कोई घंटे भर की चांवचांव के बाद लालपीली, शृंगारिकाएं एकएक कर बाहर का रास्ता नापने लगीं. जब श्रीमतीजी इकलौती बचीं तब हम ने उन से व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा, ‘‘आज क्या सामूहिक रूप से तबीयत गरम होने का दिन था?’’

‘‘यह सब तुम्हारी वजह से हुआ है.’’

‘‘क्या?’’ हमारा मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘और नहीं तो क्या…तुम आ कर इतना भी नहीं बता सकते थे कि मधु मेरी तबीयत देखने के बहाने अंदर आ रही है. हम उसी की बात कर रहे थे और वह कमरे के बाहर कान लगा कर खड़ी हो गई. फिर क्या, ये सब तो होना ही था. अब कोईर् नहीं आएगा मेरा हालचाल पूछने, पड़ी रहूंगी अकेली दिन भर टूटे हुए पत्ते की तरह.’’

इतना कहतेकहते नयनों से झरना फूट पड़ा. ऊपरी मन से हम भी श्रीमतीजी के असह्य दुख में शामिल हो उन्हें सांत्वना देने लगे.

‘‘कोई नहीं आता है तो न आए, मैं तो हूं, सात जन्मों तक तुम्हारी सेवा करने के लिए. मेरे रहते क्यों इतनी दुखी होती हो, प्रिय.’’

लेकिन हमारी इस सांत्वना से बेअसर श्रीमतीजी का बोझिल मन उन के आंसुओं में लगातार इजाफा कर रहा था. हम ने श्रीमतीजी को वहीं, उसी हाल में छोड़ कर पुरानी पेटी से चवन्नी ढूंढ़ घर के देवता को सवा रुपया चढ़ा, उन की चरण वंदना करते हुए कहा, ‘‘हे कुल के देवता, तुझे लाखलाख प्रणाम, जो तुम ने मेरे घर को सहेलियों की बाढ़ से समय पर बचा लिया. अगर इस बाढ़ पर अब शीघ्र अंकुश नहीं लगता तो अनर्थ हो जाता. श्रीमतीजी तो थोड़ी देर में रोधो कर चुप हो जाएंगी लेकिन मैं जितने दिनों दुकान के कर्ज को भरता, रोता ही रहता.’’

वंश बेल : महाराज जी की दूसरी शादी से क्यों हैरान रह गई सुनीता

पूर्व कथा

रामलीला मैदान में आयोजित कार्यक्रम के दौरान एक स्त्री महाराजजी के आगे ‘बेटा’ न होने का दुखड़ा रोती है तो वह उसे गुरुमंत्र और कुछ पुडि़या देते हैं. कार्यक्रम की समाप्ति पर महाराज विदेशी कार में अपने पूरे काफिले के साथ आश्रम चले जाते हैं. थोड़ी देर आराम करने के बाद अपने खास सेवकों के साथ कार्यक्रम की चर्चा करते हैं तभी एक सेवक कहता है कि गुरुजी इस वंशबेल को बढ़ाने के लिए कोई उत्तराधिकारी तो होना ही चाहिए. लोग कहते हैं कि यदि बेटा होने की कोई दवाई या मंत्र होता तो क्या महाराज का कोई बेटा नहीं होता. उन की बातें सुन कर महाराज दुखी हो जाते हैं. अत: सभी शिष्य मिल कर महाराज के दूसरे विवाह की योजना बनाते हैं. कुछ दिनों के बाद उन के शिष्य एक स्त्री के बारे में अफवाह फैला देते हैं कि एक गर्भवती स्त्री को उस के शराबी पति ने घर से निकाल दिया है और अब वह महाराज की शरण में है. एक दिन सभा के दौरान भक्तों की चुनौती पर महाराज उसे अपनाने को तैयार हो जाते हैं लेकिन जब यह बात महाराज की पहली पत्नी सावित्री को पता चलती है तो वह तिलमिला जाती है. महाराज अपनी दूसरी नवविवाहिता पत्नी सुनीता के साथ दूसरे आश्रम में रहने लगते हैं. सावित्री की नाराजगी दूर करने के लिए उस को ‘गुरु मां’ का दरजा दे देते हैं. कुछ महीनों के बाद सुनीता के गर्भवती होने की खबर पा कर महाराजजी उसे डाक्टर के पास ले जाते हैं और उस के गर्भस्थ शिशु का लिंगभेद जानने के लिए अल्ट्रासाउंड करने को कहते हैं तभी सुनीता, डाक्टर और महाराज के बीच हुई सारी बातें सुन लेती है. अब आगे…

अंतिम भाग

गतांक से आगे…

सुनीता से यह सब सहा नहीं गया और वह बेहद विचलित हो उठी.

महाराज का असली रूप देख कर उस का मन घृणा से भर उठा. वह चाहती तो थी कि उसी समय उस कमरे में जा कर उन दोनों को खूब खरीखरी सुना दे लेकिन महाराज का पद, पैसा, प्रतिष्ठा देख कर वह रुक गई. वह जान गई थी कि महाराज और उन के सेवक उसे क्षण भर में ही मसल कर रख देंगे. महाराज कोई न कोई आरोप लगा कर उसे लांछित और प्रताडि़त कर सकते हैं, क्योंकि अपनी छवि और प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं. हार कर वह पुन: बाहर बैठ गई.

तब तक महाराज बाहर आ चुके थे. सुनीता को देखते ही उन्होंने कुटिल मुसकान उस पर डाली.

सुनीता बडे़ सधे कदमों से उन तक पहुंची और बोली, ‘‘क्या कहा डाक्टर ने, सब ठीक तो है न?’’

‘‘हां, सब ठीक है,’’ वह थोड़ा चिंतित हो कर बोले, ‘‘यहां की मशीनें इतनी आधुनिक नहीं हैं… कहीं और चल कर दिखाएंगे.’’

‘‘आज तो मैं बहुत थक चुकी हूं. थोड़ा आराम करना चाहती हूं…आप कहें तो आश्रम चलें?’’ सुनीता ने स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए बेहद विनम्रता से पूछा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ कहतेकहते महाराज बाहर आ गए. तब तक उन की विदेशी कार पोर्च में आ चुकी थी. सेवकों ने द्वार खोला और वह उस में मुसकराते हुए प्रवेश कर गए. सुनीता ज्यों ही उन के पास आ कर बैठी, कार चल पड़ी.

कार आश्रम में आ गई. सुनीता फौरन महाराजजी के लिए ठंडा पानी ले कर आई. वह जानती थी कि इस समय महाराजजी निजी कमरे में विश्राम करते हैं और उस के बाद भक्तों की भीड़ लग जाती है. फिर कुछ सोचते हुए वह महाराज के पास जा कर बैठ गई और उन के घुंघराले बालों में हाथ फेरते हुए बेहद मुलायम स्वर में बोली, ‘‘आज मैं आप को कहीं नहीं जाने दूंगी. आप के भोजन की व्यवस्था भी यहीं कर देती हूं. मेरा भी तो मन करता है कि अपने महाराजजी, अपने पति परमेश्वर को अपने सामने बैठा कर भोजन कराऊं.’’

इतना कह कर सुनीता उन से लिपट गई. इस से पहले कि महाराज कुछ कहते सुनीता ने जानबूझ कर अपनी साड़ी का पल्लू गिरा कर अपने दोनों वक्षों में महाराज के मुंह को छिपा लिया. सुनीता के गुदाज और गोरे बदन की भीनीभीनी खुशबू में महाराज धीरेधीरे डूबने लगे. उन्होंने सुनीता को कस कर अपने बाहुपाश में जकड़ लिया. सुनीता ने उन की कमजोर नस को दबा रखा था और जानबूझ कर अपने शरीर को उन के शरीर के साथ लपेट लिया. इस से पहले कि महाराज उस के तन से कपड़े अलग करते उस ने महाराज की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘अब तो मैं आप के बच्चे की मां बनने जा रही हूं. मैं ने आज तक आप से कभी कुछ नहीं मांगा…’’

‘‘तो तुम्हें क्या चाहिए रानी?’’ महाराज ने उस के कपोलों पर चुंबन अंकित कर के पूछा.

‘‘मैं भला क्या चाहूंगी… सभी सुखसुविधाएं तो आप की दी हुई हैं, पर थोडे़ से पैसे और अपने रहनसहन के लिए हर बार आप के सामने प्रार्थना करनी पड़ती है, जो मुझे अच्छा नहीं लगता. आप तो हमेशा बाहर ही रहते हैं और मैं…’’ सुनीता ने जानबूझ कर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

‘‘तो ठीक है. मेरे कमरे के सेफ में कुछ रुपए रखे रहते हैं. मैं उस की चाबी तुम को दे देता हूं. बस, अब तो खुश हो न,’’ कह कर महाराज उस के आगोश में सिमट कर लेट गए.

शाम को जब महाराजजी आश्रम की गतिविधियों को देखने के लिए वहां से जाने लगे तो सुनीता ने खुद ही बात शुरू कर दी :

‘‘महाराज, अब तो आप पिता बनने वाले हैं. आज मैं इनाम लिए बिना नहीं मानूंगी.’’

‘‘इनाम?’’ महाराज चौंक कर उसे देखने लगे.

‘‘क्यों…क्या आप को बच्चे की खुशी नहीं है.’’

‘‘हां, खुशी तो है पर पता नहीं बेटा होगा या…’’ महाराज कुछ सोचते हुए बोले.

‘‘आप को क्या चाहिए…बेटा या बेटी?’’

‘‘बेटा…पहले तो बेटा ही होना चाहिए,’’ महाराज तपाक से बोले.

‘‘तो फिर बेटा ही होगा,’’ कह कर सुनीता हंसने लगी.

‘‘और अगर बेटी हुई तो?’’

‘‘फिर आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा. मैं आप की पत्नी हूं. मेरा सुख तो आप के साथ ही है. आप नहीं चाहेंगे तो बेटी पैदा नहीं होगी. मैं बस, आप को सुखी और खुश देखना चाहती हूं,’’ कह कर वह उन्हें प्यार से देखने लगी.

इधर महाराज को 6 दिन के लिए एक विशेष शिविर में भाग लेने मध्य प्रदेश जाना पड़ गया. सुनीता को तो ऐसे मौके की ही तलाश थी. इसी बीच सुनीता ने अपने रहने के स्थान पर अभूतपूर्व परिवर्तन कर दिया. इतालवी झूमर व लाइटें, बेहद खूबसूरत नक्काशीदार पलंग, शृंगार की मेज पर विदेशी इत्र एवं पाउडर, गद्देदार सोफे और इंच भर धंसता कालीन…यह सबकुछ इसलिए कि सुनीता चाहती थी कि महाराज जब वापस यहां आएं तो बस, यहीं के हो कर रह जाएं.

उस दिन शाम को जब महाराज शिविर से लौट कर थकेहारे आए तो सुनीता बेहद आकर्षक बनावशृंगार के साथ आभूषणों से लदी खूबसूरत कपड़ों में महाराज का स्वागत करने के लिए आगे बढ़ी. वह उसे देखते ही रह गए. उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि सुनीता इतनी खूबसूरत भी हो सकती है.

‘‘बहुत थक गए होंगे आप,’’ महाराज के एकदम पास आ कर सुनीता बोली, ‘‘पहले फ्रैश हो जाइए, तब तक मैं चाय ले कर आती हूं.’’

सुनीता जब तक चाय ले कर आई तब तक महाराज आसपास की वस्तुओं को बडे़ ध्यान से देखते रहे. उन की आंखों की भाषा को पढ़ते हुए वह बोली, ‘‘अब यह मत कहिएगा कि इतना सामान कहां से लिया और महंगा है. आप कमाते किस लिए हैं…उस भविष्य के लिए जो आप ने देखा ही नहीं या उस वर्तमान के लिए जो आप जी नहीं पा रहे हैं. बस, सुबह से शाम तक आश्रम और साधकों को लुभाने के लिए सफेद कुर्ताधोती या गेरुए वस्त्र. इस से बाहर भी कोई दुनिया है,’’ इतना कह कर सुनीता उन्हें प्यार से सहलाने लगी, ‘‘अच्छा, अब आप स्नान कर लीजिए. मैं अपने हाथ से आप के लिए खाना लगाती हूं. बहुत हो गया सेवकों के हाथ से खाना खाते हुए,’’ सुनीता ने अलमारी से एक सिल्क का कुरता निकाला और महाराज को पकड़ा दिया.

‘‘अरे, यह सब?’’ आश्चर्य और प्रसन्नता से उन्होंने पूछा.

‘‘क्यों, अच्छा नहीं है क्या? यहां पर आप कोई महंत या महात्मा तो हैं नहीं. मैं जैसा चाहूंगी वैसा आप को रखूंगी,’’ कह कर उस ने महाराज के गालों पर चुंबन अंकित कर दिया.

महाराज आज सुबह बहुत ही तरोताजा लग रहे थे. कमरे के साथ लगे लान में वह अखबार पढ़ रहे थे. तभी सुनीता चाय की ट्रे करीने से सजा कर उन के पास ले आई और महाराज की तरफ तिरछी नजर से देखते हुए बोली, ‘‘आज तो आप बहुत ही फ्रेश लग रहे हैं. कैसी लगी आप को मेरी पसंद और घर का बदला हुआ स्वरूप?’’

‘‘घर से ज्यादा तो तुम्हारे बदले हुए रूप ने मुझे प्रभावित किया है,’’ महाराज ने शरारत भरी नजरों से सुनीता को देखते हुए कहा, ‘‘आज मैं सचमुच तुम्हारी पसंद से बहुत खुश हूं. तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिलीं.’’

‘‘महाराजजी, मेरा बस चले तो आश्रम की व्यवस्था और सुंदरता की कायापलट कर दूं. इतनी दूरदूर से लोग आप से मिलने आते हैं. उन्हें भी सुखसुविधाएं मिलनी चाहिए. आते ही ठंडा पानी, बैठने के लिए आरामदायक स्थान और भोजन आदि की व्यवस्था…आप का भी मान बढे़गा और लोग भी खुशीखुशी आएंगे.’’

‘‘पर इस के लिए इतना धन चाहिए कि…’’

‘‘आप को धन की क्या कमी है, महाराज,’’ सुनीता बीच में बात काटते हुए बोली, ‘‘लक्ष्मी तो आप पर विशेष रूप से मेहरबान है.’’

महाराज अपनी प्रशंसा सुन कर मुसकराने लगे…फिर बोले, ‘‘अच्छा, मैं अपनी समिति के सदस्यों और अंतरंग सेवकों से सलाह ले लूं.’’

‘‘अंतरंग सदस्यों से? महाराज, यह आश्रम आप का है. सलाह सब की लें पर निर्णय आप का ही होना चाहिए. यदि हर काम उन से सलाह ले कर करेंगे तो देखना एक दिन सब आप को लूट खाएंगे. आप तो बस, अपना निर्णय सुनाइए.’’

‘‘सुनीता, इस आश्रम के नियमों में तो मैं कोई परिवर्तन नहीं कर सकता हूं, हां, शहर के दूसरी तरफ मुझे एक भक्त ने 2 बीघा जमीन दान मेें दी है. तुम उस पर जैसा चाहो वैसा करो. उस के डिजाइन, रखरखाव में जैसा परिवर्तन चाहोगी वैसा कर सकती हो. तुम चाहोगी तो कुछ सेवक भी वहां नियुक्त कर दूंगा.’’

सुनीता को तो जैसे मनचाही खुशी मिल गई.

महाराज तैयार हो कर आश्रम जाने लगे तो सुनीता सहमे स्वर में बोली, ‘‘कल मैं आप के पीछे आप की आज्ञा के बिना पास के क्लीनिक में गई थी. बाकी तो सब ठीक है पर महाराज, बडे़ खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि गर्भस्थ शिशु लड़की ही है.’’

‘‘लड़की…ओफ,’’ महाराज ने ऐसे कहा जैसे कुछ जानते ही न हों.

‘‘मैं जानती थी कि आप को यह सुन कर दुख होगा क्योंकि आप बेटा चाहते हैं, इसलिए मैं ने डाक्टर को कह दिया कि हमें लड़की नहीं चाहिए. डाक्टर ने कहा है कि इस काम के लिए कुछ दिन और इंतजार करना पडे़गा और 5 हजार रुपए का खर्चा आएगा.’’

सुनीता अच्छी तरह जानती थी कि यदि खुद उस ने ऐसा नहीं कहा तो किसी दिन वह स्वयं उसे किसी न किसी बहाने किसी बडे़ क्लीनिक या अस्पताल में ले जाएंगे. तब वह दीनहीन बन कर अपना सर्वस्व समाप्त कर लेगी.

महाराज ने सोचा भी नहीं था कि इतनी आसानी से सुनीता गर्भपात के लिए तैयार हो जाएगी. उन्होंने एक भेदभरी नजर से उस को देखा फिर अंक में भर कर बोले, ‘‘तुम दुख न मनाओ…हां, अपना ध्यान रखना. मैं तुम जैसी पत्नी को पा कर धन्य हो गया हूं.’’

धीरेधीरे समय बीतता गया. महाराज से अति निकटता प्राप्त करने का सुनीता ने कोई भी अवसर नहीं गंवाया. नए आश्रम की बागडोर भी महाराज ने उसे दे दी, जैसा कि वह चाहती थी. इतना ही नहीं दिनप्रतिदिन उस के चेहरे पर निखार आता गया और वह नएनए गहनों में इठलाती, इतराती घूमती रहती.

एक दिन वही हुआ जो होना था. दोपहर को सुनीता अपने कमरे में बैठी फोन पर बात कर रही थी कि तभी महाराज तेजी से आए और सेफ की चाबियां मांगने लगे.

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया आज. आप 2 मिनट विश्राम तो कीजिए,’’ कह कर वह तेजी से स्थिति को भांप गई और फोन को पास ही में रख कर खड़ी हो गई.

‘‘होना क्या था. मेरा एक 10 लाख का चेक बैंक से वापस आ गया है. समझ में नहीं आता कि ऐसा कैसे हो गया जबकि बैंक में बैलेंस भी था.’’

‘‘इतने बडे़ अमाउंट का चेक आप ने किसे दे दिया? आप ने तो कभी बताया ही नहीं.’’

‘‘यह सब बताने का समय मेरे पास नहीं है. पैसा आज न दिया तो मेरे हाथ से बहुत बड़ी जमीन निकल जाएगी.’’

‘‘पर सेफ में इतने रुपए कहां हैं,’’ सुनीता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ महाराज की भौंहें तन गईं. 20 लाख से अधिक रकम होनी चाहिए वहां तो.

‘‘महाराजजी, आप को याद नहीं कि आप से पूछ कर ही तो यहां की साजसज्जा और अपने लिए रुपए लिए थे…और फिर नए आश्रम का काम भी तो…’’

‘‘सुनीता,’’ महाराज अपने क्रोध को नियंत्रित न कर पाए, ‘‘मैं कल उस आश्रम में भी गया था. वहां सब मिला कर 5 लाख से ऊपर खर्च नहीं हुए होंगे.’’

‘‘तो मैं ने कौन से अपने लिए रख लिए हैं. सबकुछ तो आप के सामने है. तब तो आप की जबान मेरी तारीफ करते नहीं थकती थी और अब…’’ सुनीता तुनक कर बोली.

‘‘अब समझ में आया कि इन सारे खर्चों की आड़ में तुम ने मेरा काफी पैसा ले लिया है,’’ कह कर महाराजजी तेजी से सेफ खोल कर देखने लगे. वहां केवल 50 हजार रुपए कैश रखे थे. वह माथा पकड़ कर वहीं बैठ गए फिर तेज स्वर में बोले, ‘‘सचसच बताओ, सुनीता, तुम ने ये सारे रुपए कहां रखे हैं. एक तो मेरा सारा बैंक का रुपया सावित्री ने न जाने कहांकहां खर्च कर दिया और ऊपर से तुम ने.’’

‘‘सावित्री…ये सावित्री कौन है?’’

‘‘सावित्री, मेरी पत्नी… तुम नहीं जानतीं क्या?’’

‘‘तो मैं कौन हूं? आप ने कभी बताया नहीं कि आप ने दूसरा विवाह भी किया है. मुझे भी धोखे में रखा है.’’

‘‘तो तुम उसी धोखे का बदला ले रही हो मुझ से? जितना मानसम्मान, धन, ऐश्वर्य मैं ने तुम को दिया है तुम्हें सात जन्मों में भी नसीब न होता.’’

‘‘आप की पत्नी होने से तो अच्छा था मेरे पिता कोई अंधा, बहरा, लूलालंगड़ा दूल्हा ढूंढ़ देते तो मैं खुद को ज्यादा तकदीर वाली समझती.’’

‘‘मैं ने इतनी मेहनत से जो पैसा जमा किया है अब समझ में आया, तुम ने क्या किया.’’

‘‘मेहनत से या लोगों को बेवकूफ बना कर. आप महात्मा हैं या ढोंगी. अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कैसा घिनौना खेल खेल रहे हैं,’’ सुनीता का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो गया, ‘‘लोगों को पुत्र होने के मंत्र और भस्म देते हैं. जरा स्वयं पर भी तो उसे आजमाइए तो पता चले. आप की जानकारी के लिए बता दूं कि स्त्री केवल एक उपजाऊ भूमि होती है. और बेटा या बेटी पैदा करने के लिए जिस बीज की जरूरत होती है वह पुरुष के पास होता है, स्त्री के पास नहीं… तुम दोष स्त्री को देते हो. मैं इन सारे तथ्यों को लोगों को बताऊंगी ताकि लोगों के विश्वास को धक्का न पहुंचे, जो अपना एकएक पैसा जोड़ कर बड़ी श्रद्धा से आप के चरणों में भेंट चढ़ाते हैं.

‘‘आप ने सारे तथ्यों को छिपा कर मुझ से विवाह किया. मुझे पहले ही मालूम होता कि आप विवाहित और 3 लड़कियों के पिता हैं तो मैं कभी भी विवाह न करती और आप ने मुझ से केवल इसीलिए विवाह किया कि मैं बेटा पैदा कर सकूं. आप के शिष्यों ने पता नहीं क्याक्या झूठ बोल कर मेरे गरीब मातापिता को भ्रम में रखा और जब तक मुझे सचाई का पता चलता, बहुत देर हो चुकी थी.

‘‘जिस औरत ने मुझे सहारा दिया और मुसीबत के क्षणों में मेरा साथ दिया, जिस के कहने पर यह सारा प्रेम प्रपंच रचा गया वह आप के पीछे खड़ी है. मैं तो एक साधारण औरत ही थी.’’

महाराज ने पीछे मुड़ कर देखा तो उन की पत्नी सावित्री खड़ी थी. महाराज एकदम अचंभित से हो गए.

सावित्री उन्हें तीखी नजरों से देखने लगी, ‘‘महाराज, जिस तरह आप ने लोगों से धन जमा किया है, हम ने भी उसी प्रकार आप से ले लिया है. आप जहां शिकायत करना चाहें करें पर इतना ध्यान जरूर रखें कि आप के कारनामे सुनने के लिए बाहर समाचारपत्र और टीवी चैनल वाले आप का इंतजार कर रहे हैं.’’

महाराज को ऐसा कोई रास्ता नहीं मिल रहा था कि वह बाहर जा सकें. खिड़की का परदा हटा कर देखा तो आश्रम के बाहर हजारों व्यक्तियों की भीड़ उमड़ पड़ी थी जो काफी गुस्से में थी.

सावित्री ने सुनीता के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘अब तुम मेरे संरक्षण में हो. तुम्हें घबराने की कोई जरूरत नहीं है. जिस इनसान को भीड़ से बचने की चिंता है वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता.’

सुखी जीवन के लिए सही आसन

आजकल योग फैशन की तरह लोकप्रिय होता जा रहा है. हर गलीमहल्ले में कोई न कोई योगगुरु शिविर चलाता हुआ मिल जाएगा. भू्रण हत्या से देश में गड़बड़ा गए स्त्रीपुरुष अनुपात की तरह योग सिखाने वाले और सीखने वालों का अनुपात भी ऐसा गड़बड़ा गया है कि अब योग सिखाने वाले ज्यादा और सीखने वाले कम पड़ते जा रहे हैं. इसलिए अब सिखाने वाले योगगुरु विदेशों में खपाए जा रहे हैं.

हम भी आप से योगासनों की बात करेंगे लेकिन घबराइए नहीं. हम आप का ऐसे लेटेस्ट योगासनों से परिचय कराएंगे जिन से आप के मुरझाए वैवाहिक जीवन में वसंतबहार आ जाएगी. विश्वास नहीं है तो खुद ही आजमा कर देख लीजिए. आप के मुख से खुदबखुद निकलेगा कि वाह, योगासन हों तो ऐसे.

बेड टी भार्या नमस्कार : सुबह जल्दी उठ कर गरमागरम चाय बना कर पत्नी के बेड पर ले जाएं. पहले शब्दों को अच्छी तरह चाशनी में डुबोएं फिर पत्नीवंदना करें. सुबहसुबह उठने में सब को कष्ट होता है, आप की पत्नी को भी होगा. वह गुस्सा होंगी लेकिन आप धीरज धरें.

जैसे ही सूर्यमुखी आभा कंबल या रजाई से उदय हो, आप दोनों हाथ जोड़ने वाली मुद्रा में मिलाएं, गरदन को झुकाएं. फिर धीरेधीरे कमर को झुकाते हुए दोनों हाथ जमीन पर टिकाएं. पहले दायां पैर पीछे ले जाएं फिर बायां. हाथों की स्थिति दंड लगाने वाली हो. 3 बार नाक को जमीन पर रगडे़ं फिर धीरेधीरे पहले की स्थिति में आ जाएं.

शुरू में यह आसन 1 या 2 बार करें. अभ्यास होने पर इसे बढ़ाएं. तत्पश्चात गरमागरम चाय का प्याला पत्नी के हाथों में थमाएं. इस से पत्नी की खुशी बढ़ेगी और आप के पेट की चर्बी घटेगी. हाथों को बल मिलेगा. सीना मजबूत बनेगा, जिस पर आप बेलन आदि का वार भी आसानी से झेल सकेंगे.

एक टांगासन : इस आसन में आप खडे़ तो अपनी दोनों टांगों पर ही रहेंगे लेकिन आप की श्रीमतीजी को यह लगना चाहिए कि आप उन के हर आदेश का पालन एक टांग पर खडे़ रह कर करते हैं. इधर उन का मुंह खुला और उधर आप ने आदेश का पालन किया.

यह बहुपयोगी आसन है. इसे आप कहीं भी, कभी भी कर सकते हैं. इस से यह लाभ होगा कि आप की श्रीमतीजी सदा प्रसन्न रहेंगी जिस से घर का माहौल खुशहाल बनेगा. आप का रक्तसंचार ठीक रहेगा. शरीर चुस्तदुरुस्त बनेगा और आप इतने थक जाएंगे कि मीठी नींद के रोज भरपूर मजे लेंगे.

मुक्त कंठ प्रशंसा आसन : इस आसन में आप को अपनी पत्नी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करनी होती है मसलन, उन की साड़ी, लिपस्टिक, सैंडिल आदि की. याद रखें, आप की पत्नी की पसंद चाहे जितनी घटिया हो और चाहे जितने फूहड़ तरीके से वह सजतीसंवरती हों, इस से आप को कोई मतलब नहीं होना चाहिए. आप को तो बस, प्रशंसा करनी है.

कई लोग शिकायत करते हैं कि हमारी पत्नी तो किसी एंगल से भी खूबसूरत नहीं लगती. ऐसे में भला हम कैसे प्रशंसा करें, हमें बहुत तकलीफ होती है. तो ऐसे लोगों को सलाह है कि शुरू में तकलीफ जरूर होती है लेकिन अभ्यास होने पर सब ठीक हो जाता है.

अंगरेजी में कहते हैं ‘प्रेक्टिस मेक्स ए मैन परफेक्ट.’ यह आसन जितना मुश्किल लगता है, जीवन में इस के उतने ही लाभ हैं. इसे भी आप कहीं भी, कभी भी कर सकते हैं. इस के बहुत आश्चर्यजनक परिणाम आते हैं. इस से आप की पत्नी इतनी प्रसन्न होती हैं कि आप के वारेन्यारे हो जाते हैं. साथ ही आप की वाक्शक्ति बढ़ती है और कंठ मधुर होता है.

उठकबैठक कान पकड़ासन : आप आफिस से आते वक्त सब्जी, पप्पू की चड्डीबनियान, मुनिया का फ्राक लाना भूल गए हों. पत्नी के भाईबहन, मातापिता का जन्मदिन या विवाह की वर्षगांठ विस्मृत कर गए हों और आप को लगता है कि घर की फिजा बिगड़ जाएगी और उस का परिवार के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पडे़गा तो ऐसे में तुरंत इस आसन को करें.

याद रखें, यह आसन तभी लाभदायक है जब पत्नी आप के सामने हों. पहले दोनों हाथ उठा कर कानों की मालिश करें. दोनों पैरों को एकदूसरे के समानांतर रखें तथा कमर सीधी हो. चेहरे पर ऐसे भाव लाएं जैसे आप से बहुत बड़ा अपराध हो गया हो और आप आत्महत्या करने ही वाले हों. फिर गहरी सांस खींच कर सौरी, माफी, क्षमा आदि शब्दों को दोहराएं और धीरेधीरे सांस छोड़ते जाएं. इस के बाद कान पकड़ कर आहिस्ता से पैरों पर बैठें और तुरंत खडे़ हो जाएं. शुरू में यह 11 बार ही करें, बाद में संख्या बढ़ा सकते हैं. इस से यह लाभ होगा कि श्रीमतीजी को लगेगा कि आप को अपने बच्चे और उन के भाईबहन व मातापिता की बहुत चिंता है. क्राकरी टूटने से बच जाएगी, अलमारी के बर्तन खड़खड़ाएंगे नहीं और कलह टल जाएगी.

उठकबैठक से आप का पेट नियंत्रित रहेगा जिस से आप स्मार्ट लुक पाएंगे. टांगें बलशाली होंगी जिस से आप गृहस्थी का बोझ उठा कर ठीक से चल सकेंगे. कानों की खिंचाई से आप की श्रवणशक्ति बढे़गी.

मक्खन लगनासन : यह आसन बहुत नजाकत वाला है. इस में बहुत अभ्यास की जरूरत पड़ती है. थोड़ी सी जबान फिसली कि बड़ा नुकसान हो सकता है. इस का प्रदर्शन सार्वजनिक रूप से तब तक नहीं करना चाहिए जब तक कि इस में पारंगत न हो जाएं. अकसर अपना काम निकालने के लिए इस आसन का उपयोग किया जाता है.

श्रीमतीजी की हथनी जैसी काया को हिरणी जैसी बताना. उन की मिचमिची आंखों को ऐश्वर्या सी दिखाना. भले ही उन की एडि़यां फटी हों लेकिन आप को यह कह कर मक्खन लगाना है, ‘आप के पैर देखे, बडे़ सुंदर हैं. इन्हें जमीन पर मत रखना वरना गंदे हो जाएंगे.’  साथ ही सास और ससुर को महान बताना. सालेसालियों की बढ़चढ़ कर प्रशंसा करना आदि बातें इस आसन में सम्मिलित हैं. इस से ससुराल वाले खुश होंगे और भविष्य में खतरे की आशंका भी टल जाएगी.

कर्ण खोल जबान बंदासन : इस आसन का उपयोग तब लाभकारी होता है जब आप की श्रीमतीजी एंग्री यंग वूमेन का रूप धर लें. आप को लगे कि अब गरम हवा चलेगी और स्थिति बरदाश्त से बाहर हो जाएगी तब तुरंत अपने दोनोें कान खोल कर और चंचला जबान में गांठ लगा कर पद्मासन की मुद्रा में बैठ जाएं.

जब तक धर्मपत्नी अपने शब्दकोष के समस्त कठोर शब्दों का अनुसंधान न कर ले तब तक एकाग्रचित्त हो कर उन के प्रवचन सुनते रहें. ऐसा करने पर अंत में वह प्रसन्न हो जाएंगी कि आप ने उन की बातों को बहुत गंभीरता से कर्णसात किया. बादल बरसने के बाद मौसम ठंडा और ताजगीपूर्ण हो जाएगा. इस से पत्नी का मन हलका होगा और आप के कानोें का मैल साफ होगा, आप की आत्मा धुल जाएगी और जबान पर नियंत्रण रखने की शक्ति उभर कर आएगी.

इस तरह ऊपर बताए हमारे अचूक योगासनों को जो भी अपनाएगा वह सुख- समृद्धि के साथ चैन की बंशी बजाएगा. वैसे तो ये योगासन पतियों के लिए हैं लेकिन शासकीय सेवक और नेता भी अपने बौस या हाईकमान को खुश करने के लिए इन में से कुछ योगासनों का सदुपयोग करें तो ये उन के लिए भी लाभदायी साबित होंगे.

योग की पोल

पिछले 3 दिनों से रतन कुमारजी का सुबह की सैर पर हमारे साथ न आना मुझे खल रहा था. हंसमुख रतनजी सैर के उस एक घंटे में हंसाहंसा कर हमारे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार कर देते थे.

क्या बताएं, जनाब, हम दोनों ही मधुमेह से पीडि़त हैं. दोनों एक ही डाक्टर के पास जाते हैं. सही समय से सचेत हो, नियमपूर्वक दवा, संतुलित भोजन और प्रतिदिन सैर पर जाने का ही नतीजा है कि सबकुछ सामान्य चल रहा है यानी हमारा शरीर भी और हम भी.

बहरहाल, जब चौथे दिन भी रतन भाई पार्क में तशरीफ नहीं लाए तो हम उन के घर जा पहुंचे. पूछने पर भाभीजी बोलीं कि छत पर चले जाइए. हमें आशंका हुई कि कहीं रतन भाई ने छत को ही पार्क में परिवर्तित तो नहीं कर दिया. वहां पहुंच कर देखा तो रतनजी  योगाभ्यास कर रहे थे.

बहुत जोरजोर से सांसें ली और छोड़ी जा रही थीं. एक बार तो ऐसा लगा कि रतनजी के प्राण अभी उन की नासिका से निकल कर हमारे बगल में आ दुबक जाएंगे. खैर, साहब, 10 मिनट बाद उन का कार्यक्रम समाप्त हुआ.

रतनजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘आइए, आइए, देखा आप ने स्वस्थ होने का नायाब नुस्खा.’’

मैं ने कहा, ‘‘यार, यह नएनए टोटके कहां से सीख आए.’’

वह मुझे देख कर अपने गुरु की तरह मुखमुद्रा बना कर बोले, ‘‘तुम तो निरे बेवकूफ ही रहे. अरे, हम 2 वर्षों से उस डाक्टर के कहने पर चल, अपनी शुगर केवल सामान्य रख पा रहे हैं. असली ज्ञान तो अपने ग्रंथों में है. योेग में है. देखना एक ही माह में मैं मधुमेह मुक्त हो जाऊंगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘योगवोग अपनी जगह कुछ हद तक जरूर ठीक होगा पर तुम्हें अपनी संतुलित दिनचर्या तो नहीं छोड़नी चाहिए थी. अरे, सीधीसादी सैर से बढ़ कर भी कोई व्यायाम है भला.’’

उन्होंने मुझे घूर कर देखा और बोले, ‘‘नीचे चलो, सब समझाता हूं.’’

नीचे पहुंचे तो एक झोला लिए वह प्रकट हुए. बड़े प्यार से मुझे समझाते हुए बोले, ‘‘मेरी मौसी के गांव में योगीजी पधारे थे. बहुत बड़ा योग शिविर लगा था. मौसी का बुलावा आया सो मैं भी पहुंच गया. वहां सभी बीमारियों को दूर करने वाले योग सिखाए गए. मैं भी सीख आया. देखो, वहीं से तरहतरह की शुद्ध प्राकृतिक दवा भी खरीद कर लाया हूं.’’

मैं सकपकाया सा कभी रतनजी को और कभी उन डब्बाबंद जड़ीबूटियों के ढेर को देख रहा था. मैं ने कहा, ‘‘अरे भाई, कहां इन चक्करों में पडे़ हो. ये सब केवल कमाई के धंधे हैं.’’

रतनजी तुनक कर बोले, ‘‘ऐसा ही होता है. अच्छी बातों का सब तिरस्कार करते हैं.’’

इस के बाद मैं ने उन्हें ज्यादा समझाना ठीक नहीं समझा और जैसी आप की इच्छा कह कर लौट आया.

एक सप्ताह बाद एक दिन हड़बड़ाई सी श्रीमती रतन का फोन आया, ‘‘भाईसाहब, जल्दी आ जाइए. इन्हें बेहोशी छा रही है.’’

मैं तुरंत डाक्टर ले कर वहां पहुंचा. ग्लूकोज चढ़ाया गया. 2 घंटे बाद हालात सामान्य हुए. डाक्टर साहब बोले, ‘‘आप को पता नहीं था कि मधुमेह में शुगर का सामान्य से कम हो जाना प्राणघातक होता है.’’

डाक्टर के जाते ही रतनजी मुंह बना कर बोले, ‘‘देखा, मैं ने योग से शुगर कम कर ली तो वह डाक्टर कैसे तिलमिला गया. दुकान बंद होने का डर है न. हा…हा हा….’’

मैं ने अपना सिर पकड़ लिया. सोचा यह सच ही है कि हम सभी भारतीय दकियानूसी पट्टियां साथ लिए घूमते हैं. बस, इन्हें आंखों पर चढ़ाने वाला चाहिए. उस के बाद जो चाहे जैसे नचा ले.

एक माह तक रतनजी की योग साधना जारी रही. हर महीने के अंत में हम दोनों ब्लड टेस्ट कराते थे. इस बार रतनजी बोले, ‘‘अरे, मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं. कोई परीक्षण नहीं कराऊंगा.’’

अब तो परीक्षा का समय था. मैं बोला, ‘‘दादा, अगर तुम्हारी रिपोर्ट सामान्य आई तो कल से मैं भी योग को पूरी तरह से अपना लूंगा.’’

बात बन गई. शुगर की जांच हुई. नतीजा? नतीजा क्या होना था, रतनजी का ब्लड शुगर सामान्य से दोगुना अधिक चल रहा था.

रतनजी ने तुरंत आश्रम संपर्क साधा. कोई संतोषजनक उत्तर न पा कर  वह कार ले कर चल पड़े और 2 घंटे का सफर तय कर आश्रम ही जा पहुंचे.

मैं उस दिन आफिस में बैठा एक कर्मचारी से किसी दूसरे योग शिविर की महिमा सुन रहा था. रतनजी का फोन आया, ‘‘यार, योगीजी अस्वस्थ हैं. स्वास्थ्य लाभ के लिए अमेरिका गए हैं. 3 माह बाद लौटेंगे.’’

मैं ठहाके मार कर हंसा. बस, इतना ही बोला, ‘‘लौट आओ यार, आराम से सोओ, कल सैर पर चलेंगे.’’

टेलीविजन बच्चों का दुश्मन

मिश्राजी पत्नी के साथ घर लौटे तो देखा कि उन का छोटा बेटा निशांत हाथ में सौस की टूटी बोतल पकड़े अपने बड़े भाई के कमरे के बाहर गुस्से में तन कर खड़ा है. यह देख कर मिश्रा दंपती हैरत में पड़ गए. उन के बारबार आवाज लगाने पर बड़े बेटे प्रशांत ने दरवाजा खोला. पूछताछ करने पर पता चला कि उन की गैरमौजूदगी में दोनों भाइयों में घमासान हुआ था और निशांत मेज पर रखी सौस की बोतल तोड़ कर प्रशांत को मारने के लिए उस के पीछे दौड़ा था.

एक शाम जब अंकित के मातापिता किसी पार्टी में गए थे तो उस ने टेलीविजन पर एक ऐसे हत्यारे पर बना कार्यक्रम देखा जिस ने उस की उम्र के 9 बच्चों का अपहरण कर उन की हत्या कर दी थी. अंकित बुरी तरह डर गया. अब वह अकेले अपने कमरे में सोने के बजाय अपने मातापिता के साथ सोने की जिद करने लगा. उस ने हकलाना शुरू कर दिया और वह लगभग रोज ही बिस्तर गीला करने लगा.

आज निशांत, प्रशांत और अंकित जैसे न जाने कितने बच्चे हैं जो टेलीविजन पर दिखाई जा रही हिंसा, सेक्स और नशे के दृश्यों को देख कर उन से प्रभावित हो रहे हैं. इस प्रकार के कार्यक्रम बच्चों के संवेदनशील दिमाग पर क्या प्रभाव डालेंगे और आगे चल कर किन मानसिक रोगों का वे शिकार होंगे यह सोचना अब बहुत जरूरी हो गया है.

ज्यादातर मातापिता अपने बच्चों की टेलीविजन देखने की लत से परेशान हैं. आमतौर पर हर परिवार में टेलीविजन पर रोक लगाने के लिए जंग छिड़ती रहती है पर क्या हम सब ऐसा कर पाते हैं.

बच्चों को क्या दोष दें. हम खुद भी टीवी पर दिखाए जा रहे बेसिरपैर के धारावाहिकों को देखने के लिए बेचैन रहते हैं और बातें करते हैं सासबहू के उन पैतरों की जिन का कोई अंत ही नहीं है.

मेरी दिली तमन्ना है कि मैं अपने घर से टेलीविजन को हटा दूं या फिर कम से कम ‘केबल’ का तार तो नोच कर फेंक ही दूं. मेरे जैसे सोचने वाले कई समझदार परिवार और भी हैं, लेकिन हम ऐसा कर नहीं पाते हैं, क्योंकि घर में टेलीविजन का न होना हमारी सामाजिक मर्यादा के खिलाफ है. अगर घर में टीवी नहीं होगा तो बच्चे अपने साथियों के बीच बुद्धू नजर आएंगे क्योंकि वे कार्टून चैनल पर दी जा रही अतिउपयोगी जानकारी से वंचित रह जाएंगे.

यह सही है कि कभीकभार टेलीविजन पर दिखाए जा रहे कुछ कार्यक्रम काफी मनोरंजक और शिक्षाप्रद होते हैं लेकिन अधिकतर कार्यक्रम नका- रात्मक ही होते हैं. बच्चे उन्हें न ही देखें तो अच्छा है.

अधिक टेलीविजन देखने वाले बच्चे सृज- नात्मक क्षेत्रों में पिछड़ जाते हैं. उन में सहज स्वाभाविक ढंग से कुछ नए के बारे में जानने और कल्पना करने की शक्ति की कमी होती है तथा वे दिमागी कसरत कराने वाली समस्याओं को सुलझाने में आमतौर पर असमर्थ साबित होते हैं.

टेलीविजन खोलते ही दिमाग का दरवाजा बंद हो जाता है और आप दुनिया से बेखबर स्क्रीन पर आंखें गड़ाए घंटों एक से दूसरे चैनल पर भटकते रहते हैं. ज्यादा टीवी देखने वाले बच्चे, जवान व बूढ़े अपनेआप में सिमट जाते हैं.

पिछले कुछ सालों में बच्चों एवं युवाओं में कई मानसिक विकृतियां बढ़ी हैं. इन में से प्रमुख हैं एकाग्रता की कमी, उत्तेजना, नर्वसनेस, घबराहट और असामाजिक व्यवहार आदि. लगातार टीवी देखने से आंखों पर जोर पड़ता है जिस से सिरदर्द एवं माइग्रेन की शिकायत हो सकती है. नींद पूरी न होने से बच्चों में पढ़ाई के प्रति अरुचि बढ़ती है.

आजकल कई मातापिता यह शिकायत ले कर डाक्टरों के पास आते हैं कि उन के बच्चे ने 2 साल का हो जाने के बावजूद बोलना शुरू नहीं किया. चिकित्सकों का कहना है कि देर से बोलने का कारण मातापिता का उन से कम बोलना है. अगर मातापिता दोनों ही कामकाजी हैं और उन का शाम का सारा समय टीवी के सामने गुजरता है तो बच्चे में ‘स्पीच डिले’ होना कोई अचरज की बात नहीं है.

आप यह बात अच्छी तरह समझ लें कि छोटे बच्चे टेलीविजन देख कर भाषा नहीं सीख सकते. ‘स्पीच डिले’ वाले बच्चों के मातापिता को चाहिए कि वे अपने बच्चे से अधिकाधिक बोलें, उस से ‘बातचीत’ का कोई भी मौका हाथ से न जाने दें. रंगीन चित्रों वाली किताबों से उसे कहानियां सुनाएं, दुनिया के बारे में जानकारी दें.

बच्चों पर टेलीविजन के दुष्प्रभाव के बारे में अनेक शोध प्रकाशित हो चुके हैं. टेलीविजन पर दिखाए जा रहे हिंसात्मक कार्यक्रमों और नई पीढ़ी में बढ़ रही उद्दंडता व आक्रामक व्यवहार में सीधा रिश्ता है. टीवी कार्यक्रमों की नकल कर अपराध करने के कई मामले प्रकाश में आए हैं.

दूसरी तरफ कुछ बच्चों को टीवी पर दिखाए जा रहे ‘स्टंट्स’ के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी. शक्तिमान की नकल हो या सुपरमैन की तरह उड़ने की चाह, अकारण कई मासूमों ने छतों से कूद कर मौत को गले लगा लिया.

टेलीविजन एक अति प्रभावशाली माध्यम है जोकि शिक्षित भी करता है और भ्रमित भी. इस के जरिए बच्चे उन बातों पर भी सहज भरोसा कर लेते हैं जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता. इसलिए टीवी जगत की जिम्मेदारी बनती है कि वह अनावश्यक, उत्तेजक, अतिहिंसक और बच्चों को बरगलाने वाले कार्यक्रमों पर रोक लगाए.

आज हकीकत यह है कि आप को टेलीविजन से समझौता करना ही पड़ेगा क्योंकि यह अब आप के घर से बाहर जाने वाला नहीं है. आप चाहें तो भी इसे अपनी जिंदगी से हटा नहीं सकते परंतु टेलीविजन हम सब की जिंदगी चलाए यह भी जरूरी नहीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें