बीती 5-6 जनवरी, 2014 को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के जनकपुरी इलाके में स्थित माता चानन देवी अस्पताल के डाक्टरों एवं प्रशासन द्वारा एक नवजात के प्रति जो असंवेदनहीनता बरती गई और जिस के चलते उसे अपनी जान गंवानी पड़ी, वह किसी को भी शर्मसार कर देने के लिए काफी है. नवजात के पिता द्वारा भरपूर रकम अदा करने के बावजूद इलाज में कोताही बरतने, जांच के नाम पर उसे इधर से उधर टहलाने और फिर नवजात की मौत के बाद उस के शव को मौर्च्युरी में रखने के बजाय कचरे में फेंक देने की घटना ने डाक्टरी पेशे को कलंकित कर दिया.
यह तो अच्छा हुआ कि नवजात के पिता ने समय रहते उस के शव को खोज निकाला. इस प्री मैच्योर नवजात बच्ची का जन्म जनकपुरी इलाके के सी-2 स्थित खन्ना नर्सिंग होम में हुआ था. हालत खराब होने पर वहां के डाक्टरों ने उसे चानन देवी अस्पताल भेज दिया. वहां के डाक्टरों ने बच्ची के सिर में इंटरनल ब्लीडिंग की बात कहते हुए उस का इलाज शुरू कर दिया, लेकिन वे उसे बचाने में नाकाम रहे. बच्ची ने देर रात दम तोड़ दिया. बच्ची के पिता राजेश वर्मा ने कलेजे पर पत्थर रख कर सब्र कर लिया और अस्पताल प्रशासन से मिन्नत की कि बच्ची के शव को मौर्च्युरी में रख दिया जाए ताकि वे सुबह आ कर उसे ले जाएं और अंतिम संस्कार कर सकें. इस पर उन्हें क्व1,500 रुपए प्रति नाइट का शुल्क जमा करने के लिए कहा गया. राजेश ने मौर्च्युरी का यह शुल्क अदा कर दिया, लेकिन अगली सुबह जब वे अस्पताल की मौर्च्युरी में पहुंचे, तो उन्हें अपनी बच्ची का शव वहां नहीं मिला. इस पर उन्होंने पूछताछ की, तो अस्पताल के कर्मचारी भड़क गए. इसी बीच एक कर्मचारी ने राजेश को पास खड़े एक ट्रक की ओर इशारा किया, जिस में अस्पताल का कचरा भरा हुआ था. राजेश ने बिना समय गंवाए ट्रक का सारा कचरा उलटपुलट डाला. आखिरकार उन्हें अपनी मृत बच्ची का शव क्षतविक्षत हालत में मिल गया. फिर शोरशराबा हुआ, पुलिस आई, रिपोर्ट दर्ज हो गई और काररवाई का आश्वासन पीडि़त के हाथों थमा दिया गया, जैसा कि ऐसे मौकों पर अकसर होता है.
लगा सिर्फ दर्द ही हाथ
लगभग 32 हजार चानन देवी अस्पताल में और उस से पहले नर्सिंग होम में एक मोटी रकम खर्च करने के बाद राजेश एवं उन की पत्नी नीतू के हाथ सिर्फ बच्ची का शव और जीवन भर सालते रहने वाला दर्द ही लगा. हालांकि अस्पताल प्रशासन ने इस बाबत 4 विशेषज्ञों की एक समिति गठित कर दी है, जो मामले की जांच करेगी. लेकिन इस से एक मातापिता को उस की संतान तो वापस नहीं मिल जाएगी. बच्ची की मौत से ज्यादा उस के शव के प्रति अस्पताल द्वारा बरती गई बेकद्री से उपजे दर्द को मरहम तो नहीं मिल जाएगा. बताते हैं कि वर्ष 2008 और 2010 में भी इस अस्पताल के डाक्टरों द्वारा इलाज में बरती गई लापरवाही के चलते 2 लोगों की मौत हो चुकी है, जिस के लिए हंगामा और शव के साथ प्रदर्शन तक हुआ तथा पुलिस को हस्तक्षेप कर के मामला शांत कराना पड़ा.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
2013 के अक्तूबर माह की 24 तारीख को जब सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता स्थित एएमआरआई अस्पताल एवं 3 डाक्टरों को इलाज में लापरवाही बरतने के मामले में दोषी पाते हुए 5 करोड़ 96 लाख का मुआवजा देने का आदेश दिया था, तो जनसामान्य के अंदर एक नई उम्मीद ने जन्म लिया था कि अब कोई अस्पताल अथवा डाक्टर अपनी जिम्मेदारी से भागने के बारे में नहीं सोचेगा.
सुप्रीम कोर्ट क न्यायाधीशों, जस्टिस एस.जे. मुखोपाध्याय एवं जस्टिस वी. गोपाल गौड़ा की खंडपीठ ने अपना उक्त फैसला अमेरिका में बसे भारतीय मूल के डाक्टर कुणाल साहा के पक्ष में दिया था. 1998 में उन की पत्नी अनुराधा की एएमआरआईअस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई थी. नैशनल कंज्यूमर फोरम ने 2011 में डाक्टर साहा को 1 करोड़ 73 लाख अदा करने का आदेश दिया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बढ़ाते हुए कहा कि अस्पताल पीडि़त को 6 फीसदी की दर से ब्याज भी दे. दोषी डाक्टरों बलराम प्रसाद एवं सुकुमार मुखर्जी को 10-10 लाख और बैद्यनाथ हलदर को 5 लाख रुपए उक्त मुआवजा राशि में शामिल करने का आदेश दिया गया.
इस के 4 दिनों बाद ही खबर आई कि छत्तीसगढ़ के एक बड़े सरकारी अस्पताल में एक महिला डाक्टर को बरखास्त कर दिया गया. उक्त महिला डाक्टर पर एक बलात्कार पीडि़त बच्ची के इलाज में लापरवाही बरतने का आरोप था. बताते हैं कि स्त्रीरोग विशेषज्ञा डाक्टर आभा डहरवाल वहां कौंट्रैक्ट पर नियुक्त थीं. उक्त बलात्कार पीडि़त बच्ची रात के 3 बजे गंभीर हालत में अस्पताल लाई गई थी, लेकिन समय पर सूचना मिलने के बावजूद डाक्टर आभा सुबह 9 बजे तक अस्पताल नहीं पहुंचीं. नतीजतन, बच्ची पूरी रात तड़पती रही. मामला सामने आने पर अस्पताल प्रशासन ने जांच की. आरोपी डाक्टर ने जांच कमेटी को यह कह कर गुमराह करने का प्रयास भी किया कि वे 1 घंटे के अंदर अस्पताल पहुंच गई थीं. लेकिन नए सिरे से जांच होने और अस्पताल के प्रवेश द्वार का रिकौर्ड देखने पर पता चला कि उन का बयान झूठा था. जांच रिपोर्ट मिलते ही राज्य प्रशासन ने उन की सेवाएं खत्म कर दीं.
कार्यप्रणाली
इलाज में लापरवाही, औपरेशन के दौरान मरीज के शरीर में कैंची, तौलिया आदि छोड़ देना और मरीज की मौत हो जाने के बाद उस के शव के साथ अमानवीय व्यवहार केवल सरकारी एवं अर्द्धसरकारी अस्पतालों का स्वभाव नहीं है, बल्कि अच्छे इंतजाम का दावा करने और उस के लिए बतौर फीस मोटी रकम वसूलने वाले निजी अस्पतालों में भी अकसर ऐसा देखा जाता है कि समुचित तरीके से इलाज न हो पाने की वजह से मरीज की मौत हो जाने के बाद अस्पताल प्रशासन उस के शव को तब तक घर वालों के सुपुर्द नहीं करता, जब तक इलाज की पाईपाई अदा न हो जाए.
अपवादों को छोड़ दीजिए, तो अधिकतर नर्सिंग होम्स की कार्यप्रणाली में तो यह देखने को मिलता है कि वे अपने इलाके में और आसपास निजी प्रैक्टिस करने वाले डाक्टरों, वे चाहे डिगरीधारी हों या झोलाछाप, के साथ एक नैटवर्क संचालित करते हैं, जो उन्हें मरीजों को तब हैंडओवर करते हैं जब मामला उन के हाथ से निकल जाता है. नर्सिंग होम्स एक बार फिर मरीजों पर ऐक्सपैरिमैंट करते हैं, उन के परिवारजन को नोचतेखसोटते या सीधेसीधे कहा जाए तो लूटते हैं और जब उन के हाथ से भी तोते उड़ जाते हैं, तो वे बड़े निजी, सरकारी व अर्द्धसरकारी अस्पतालों को अपने संपर्कों के माध्यम से अपने मरीज हवाले कर देते हैं. इस से वे अपनी जिम्मेदारी से बच जाते हैं और पैसा मनमाफिक खींच ही चुके होते हैं.
सरकारी अस्पताल
सरकारी अस्पतालों का तो कहना ही क्या. दिल्ली हो या उत्तर प्रदेश अथवा देश का अन्य कोई पिछड़ा राज्य, सब जगह हालत एक सी है. वर्ष 2011 की बात है. देश के सब से बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के कानपुर महानगर के जिला अस्पताल उर्सला में कर्मचारियों की लापरवाही के चलते एक गंभीर रूप से घायल शख्स कुत्तों के मुंह का निवाला बन गया. मामला यह था कि ग्वालटोली थाना अंतर्गत खलासी लाइन निवासी 40 वर्षीय सिकंदर खान शाम को देर से घर जाते समय बिजली के खंभे में उतरे करंट की चपेट में आ गए. इलाकाई लोगों ने उन्हें छुड़ाया और पुलिस को इत्तिला दी. पुलिस ने सिकंदर को तुरंत उर्सला अस्पताल के आपातकालीन विभाग में दाखिल करा दिया. देर रात करीब साढ़े 3 बजे अस्पताल के पास रहने वाले कुछ आवारा एवं आदमखोर कुत्ते वार्ड नंबर 1 में घुस आए, जहां उन्होंने गंभीर रूप से घायल सिकंदर को नोचनाखसोटना शुरू कर दिया. सिकंदर चिल्लाए तो आसपास के मरीजों के तीमारदारों ने कुत्तों को खदेड़ने की कोशिश की और अस्पताल के कर्मचारियों को खबर दी. लेकिन मौके पर कोई नहीं पहुंचा तो कुत्तों ने सिकंदर को नोचनोच कर अधमरा कर दिया. जब तक आला पुलिस अधिकारी और डाक्टर खबर पा कर वहां पहुंचते, सिकंदर ने दम तोड़ दिया. तब प्रशासन की ओर से कराई गई प्राथमिक जांच में प्रथमदृष्टया दोषी करार दिए गए 2 संविदा कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया. अस्पताल प्रशासन ने संविदा कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली. लेकिन रात्रि ड्यूटी के लिए नियत डाक्टर, नर्स अथवा किसी सहायक चिकित्सकीय कर्मचारी के खिलाफ कोई काररवाई नहीं की गई.
ऐसा भी हो रहा
लोग यह खबर सुन कर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करते या अव्यवस्था को ले कर अपना माथा ठोंकते, तभी बौद्धिक महानगरी इलाहाबाद के एक पुराने एवं नामी अस्पताल के डाक्टरों की करतूत खुल कर सामने आ गई. यहां के स्वरूपरानी नेहरू चिकित्सालय के एक जूनियर डाक्टर ने अपने सीनियर्स की प्रतिष्ठा को दांव पर लगाते हुए 3 अधीनस्थ चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के जरीए 2 ऐसे मरीजों को घने जंगल में फिंकवा दिया जिन का कोई नहीं था यानी वे लावारिस थे. हुआ यह कि झूंसी में अंदावा ओवरब्रिज के समीप जब 3 लोगों ने एक ऐंबुलैंस से 2 मरणासन्न मरीजों को निकाल कर घनी झाडि़यों में फेंका तो वहां से गुजर रहे राहगीरों को कुछ शंका हुई. उन्होंने बिना समय गंवाए पुलिस को घटना और ऐंबुलैंस के नंबर से अवगत करा दिया. पुलिस ने तत्परता दिखाई और घटना को अंजाम दे कर लौट रही ऐंबुलैंस को घेर लिया. जब ऐंबुलैंस में सवार लोगों से पूछताछ हुई तो सचाई जान कर पुलिस के भी होश उड़ गए. पकड़े गए लोगों में स्वरूपरानी नेहरू चिकित्सालय का 1 ऐंबुलैंस चालक और 2 वार्ड बौय थे, जो एक जूनियर डाक्टर के कहने और पैसों का लालच देने पर उक्त मरीजों को ठिकाने लगाने जंगल ले गए थे.
समस्या की जड़
यह वह देशव्यापी बीमारी है, जिस ने पूरे सिस्टम को बरबाद कर रखा है. कोई अपने कर्तव्य को सही तरीके और ईमानदारी के साथ अंजाम नहीं देना चाहता. अकसर लोग अपने कार्यक्षेत्र से संबंधित आवश्यक ज्ञान अर्जित नहीं करना चाहते और जिन्हें काम आता है, वे करना नहीं चाहते. लाख नियम, प्रावधानों के बावजूद अनुशासनहीनता चरम पर है. जिस का जो काम है, उसे वह करना नहीं चाहता और जिसे उस काम को नहीं करना चाहिए उस पर वह काम थोप दिया जाता है. अस्पतालों में अकसर देखा गया है कि वार्ड बौय एवं सफाईकर्मियों से इलाज संबंधी ऐसे काम कराए जाते हैं, जिन का उन्हें रंचमात्र भी ज्ञान नहीं होता. अपनी नौकरी बचाए रखने की गरज उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर देती है. नतीजा अकसर मरीजों की मौत अथवा उन की हालत पहले से ज्यादा बदतर हो जाने की शक्ल में सामने आता है.
अव्यवस्था के जिम्मेदार कई
अस्पतालों में अव्यवस्था और लापरवाही के लिए सिर्फ डाक्टरों एवं कर्मचारियों को दोषी ठहराने मात्र से काम नहीं चलने वाला. मरीजों के तीमारदार, रिश्तेदार भी कई बार अव्यवस्था के सूत्रधार साबित होते हैं. बातबात पर डाक्टरों एवं कर्मचारियों से भिड़ने, गालीगलौज और मारपीट करने की घटनाएं भी अकसर प्रकाश में आती रहती हैं. जरूरत से ज्यादा संख्या में तीमारदारों का आवागमन भी अस्पताल के कामकाज में बाधक बनता है. ऐसे में जरूरी यह भी है कि समस्या के निदान के लिए न सिर्फ डाक्टर एवं अन्य चिकित्सा कर्मचारी, बल्कि मरीज एवं उन के परिवार के लोग भी आत्मावलोकन करें.