सुजाता: भाग 1- क्यों अतुल ने पत्नी से मांगा तलाक?

अतुल ने सुजाता से तलाक मांगा, उस ने दे दिया. सुजाता को पति के प्यार की भीख नहीं चाहिए थी. अतुल ने सुजाता को अबला समझा था, लेकिन वह कमजोर नहीं थी…

मुकेश कुमार बनारस के नामी  वकील थे. दयालबाग में उन का बड़ा सा बंगला था. आज उन के घर की रौनक देखने लायक थी. हजारों रंगीन बल्ब जगमगा रहे थे. दर्जनों हैलोजन बल्ब्स सामने की रोड पर भी लगे थे. पूरी रोड को कवर कर बड़ा सा पंडाल सजाया गया था. पंडाल के अंदर भी काफी सजावट थी. और बिस्मिल्लाह खान की शहनाई बज रही थी. बरात के शानदार स्वागत की पूरी तैयारी थी. क्यों न हो, उन की इकलौती बेटी सुजाता की शादी जो थी.

सुजाता ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से बीएससी करने के बाद कंप्यूटर के कुछ कोर्स किए थे. वह राज्य की चैस चैंपियन थी. इस के अतिरिक्त, उस ने संगीत में प्राथमिक शिक्षा भी ली थी. देखने में सुंदर भी थी. उस का भावी पति अतुल लखनऊ का रहने वाला था. उस ने

भी बीएचयू से कंप्यूटर इंजीनियरिंग में बीटैक किया था. बेंगलुरु में एक अमेरिकन कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर था. मुकेश साहब बेटी की शादी अच्छे सजातीय लड़के से कर निश्ंिचत हो गए थे. अरेंज्ड मैरिज थी. बेटी को जरूरत की सब चीजें दिल खोल कर दी थीं. शादी के एक सप्ताह बाद ही सुजाता पति के साथ बेंगलुरु आ गई थी.

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अतुल और सुजाता दोनों बहुत खुश थे. सुजाता तो शाकाहारी थी पर अतुल मांसाहारी था. पर सुजाता को इस में कोई आपत्ति नहीं थी. दोनों ने प्लानिंग की थी कि 5 साल के बाद ही कोई बच्चा हो. इस बीच, दोनों ने खूब मौजमस्ती की. देशविदेश की सैर भी की. शादी के 6 साल बाद सुजाता मां बनने वाली थी. तभी अतुल को लंबे समय के लिए अमेरिका जाना पड़ा था. कंपनी ने उस के लिए एच 1 बी जौब वीजा लिया था. सुजाता को एच 4 वीसा, जो आश्रितों के लिए होता है, मिला था.

दोनों अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत में आ गए थे. कुछ महीने बाद उन को एक प्यारी सी बेटी हुई थी, रेणु. अमेरिका में जन्म होने के कारण उसे अमेरिकी नागरिकता मिल गई थी. साथ में अतुल ने उस के लिए भारतीय कौंसुलेट से ओवरसीज सिटीजन औफ इंडिया कार्ड भी बनवा लिया था.

सुजाता अपने वीजा पर अमेरिका में कोई काम नहीं कर सकती थी. और वैसे भी, उस की डिगरी पर कोई नौकरी नहीं मिल सकती थी. पर वह घर पर ही कुछ भारतीय बच्चों को चैस सिखलाया करती थी.

इस से उस का समय कट जाता था. अमेरिका में बच्चों में पढ़ाई के अतिरिक्त कुछ न कुछ सीखने का शौक होता है. वह इस के बदले में कोई फीस तो नहीं लेती थी क्योंकि औपचारिक तौर पर वह यह काम नहीं कर सकती थी. पर जब कभी रेणु के जन्मदिन पर और अपनी एनिवर्सरी पर उन बच्चों व उन के मातापिता को बुलाती थी तो वे जानबूझ कर कैश ही गिफ्ट करते थे. सुजाता ने अमेरिका में पियानो बजाना भी सीख लिया था.

शुरू के 4-5 साल तो ठीक से बीत गए थे. दोनों पतिपत्नी बहुत खुश थे. रेणु अब अमेरिका में स्कूल जाने लगी थी. कुछ दिनों बाद पति व पत्नी में अकसर नोकझोंक होने लगी थी क्योंकि अतुल अकसर वीकैंड में देररात घर लौटता था. इस के चलते कभीकभी तो लड़ाईझगड़े भी होते थे. अतुल का उसी की कंपनी में कार्यरत एक अमेरिकन लड़की से अफेयर चल रहा था. यह बात अब सुजाता से छिपी नहीं थी. सुजाता इस का कड़े शब्दों में विरोध करती थी. आएदिन घर में तनाव रहता था.

एक दिन अचानक अतुल ने सुजाता से कहा, ‘‘बेहतर है, अब हम अलग हो जाएं.’’

सुजाता बोली, ‘‘तनाव तो तुम ने पैदा किया है हमारे बीच उस अमेरिकन लड़की को ला कर. उसे अपनी जिंदगी से निकाल फेंको, सबकुछ अपनेआप ठीक हो जाएगा.’’

अतुल बोला, ‘‘तुम जैसा सोच रही हो, वह नहीं होगा. हमारे बीच की खाई पाटना अब मुमकिन नहीं है. क्यों न हम तलाक ले लें?’’सुजाता को इस की उम्मीद नहीं थी. उस ने अपने को संभालते हुए

कहा, ‘‘बेहतर है, तलाक की बात तुम ने शुरू की. मैं भी बंटा हुआ पति नहीं चाहती हूं.’’थोड़ी देर रुक कर, फिर सुजाता ने आगे कहा, ‘‘क्यों न हम एक बार इंडिया में अपनेअपने घर बात कर उन्हें यह सब बता दें? इस के बाद जैसा तुम कहोगे, वैसा होगा.’’

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अतुल इस के लिए तैयार नहीं था. उस के मन में चालाकी सूझी थी. उसे अमेरिका आए 5 साल से ज्यादा हो गया था. उस का एच 1 बी वीजा 8 महीने बाद खत्म हो रहा था. यह वीजा 6 साल से ज्यादा नहीं मिलता है. उस का मन अमेरिका छोड़ने का नहीं था. वहां की लाइफस्टाइल उसे बेहद पसंद थी. उस ने मन में अमेरिकन लड़की से शादी करने की ठान ली थी. इस से उसे ग्रीन कार्ड आसानी से मिल जाता. फिर अमेरिका में जितने दिन चाहता, रह सकता था. उस को भय था कि यह बात सुजाता के पिता को अच्छी नहीं लगेगी और वे खुद एक वकील हैं, आसानी से तलाक नहीं होने देंगे और मामला लंबे समय तक लटका रहेगा.

सुजाता ने आगे कहा, ‘‘तब सीरियसली बताओ, मुझे क्या करना चाहिए?’’अतुल बोला, ‘‘मैं यहां डाइवोर्स सूट फाइल करूंगा. और तुम्हें बता दूं कि कैलिफोर्निया में ‘नो फाल्ट’ तलाक का नियम है. यदि पति या पत्नी में से कोई भी यहां की कोर्ट में तलाक की अर्जी देता है किसी वजह से भी तो उसे कोर्ट में वजह साबित करने की जरूरत नहीं होती है. हां, ज्यादा से ज्यादा प्रौपर्टी के बंटवारे और बच्चे की कस्टडी के लिए आपस में समझौता कर लेना होता है या फिर कोर्ट के फैसले का इंतजार करना पड़ता है.’’

सुजाता बोली, ‘‘जब तुम ने फैसला कर ही लिया है, तो मैं तुम से जबरदस्ती बंध कर नहीं रह सकती.

हूं. ठीक है, अब देररात

हो चुकी है, आगे कल

बात होगी.’’

रात में सुजाता ने अपने पापा को सारी बातें विस्तार से बताई थीं. उस के पिता ने कहा भी था कि वे अतुल के पूरे परिवार को इंडिया में कोर्ट केस में बुरी तरह ऐसा फंसा देंगे कि पूरी जिंदगी कोर्ट के चक्कर लगाते रहेंगे.

सुजाता ने कहा, ‘‘नहीं पापा, इस में अतुल के परिवार का कोई दोष नहीं है. उन को बेवजह क्यों तंग करना है, और जब अतुल को मुझ से प्यार ही नहीं रहा, तो मैं क्या उन से प्यार की भीख मांगूं?’’

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अगले दिन सुजाता ने अतुल से कहा, ‘‘तुम अपने पेपर्स तैयार करा लो, मैं साइन कर दूंगी.’’

अतुल बोला, ‘‘इस में एक बाधा है जो तुम्हारे हित में नहीं है.’’

वह बोली, ‘‘अब भी तुम मेरा हित सोच रहे हो?’’

अतुल बोला, ‘‘बात ठीक से समझो. जिस दिन कोर्ट से तलाक मिल जाता है, उसी दिन से तुम्हारा अमेरिका में रहना, गैरकानूनी हो जाएगा क्योंकि तब तुम मुझ पर आश्रित नहीं रहोगी और तुम्हारा वीजा  रद्द हो जाएगा. तुम भारी मुसीबत में फंस जाओगी.’’

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सुजाता: भाग 2- क्यों अतुल ने पत्नी से मांगा तलाक?

सुजाता बोली, ‘‘तब, मुझे क्या करना चाहिए?’’

अतुल बोला, ‘‘मैं सारे पेपर्स तैयार करवा लेता हूं. इस के अतिरिक्त एक एग्रीमैंट भी तैयार कर लेता हूं. मेरा जितना भी बैंक बैलेंस और शेयर्स हैं उस का आधा तुम्हें दे रहा हूं. रेणु की कस्टडी भी तुम्हें दे रहा हूं क्योंकि बेटी मां के पास ज्यादा खुश रहेगी. तुम सारे पेपर्स पर साइन कर दो. जितना जल्दी हो जाए, अच्छा है क्योंकि जितनी बार हम वकील के यहां या कोर्ट जाएंगे, महंगा पड़ेगा. यहां वकील की फीस बहुत ज्यादा होती है. पेपर्स साइन कर तुम इंडिया जा सकती हो क्योंकि तब तक तुम्हारा वीजा वैलिड रहेगा. बाकी, सब मैं यहां देख लूंगा.’’

सुजाता बोली, ‘‘ठीक है, मुझे सबकुछ मंजूर है जिस में तुम्हारी खुशी है. तुम पर प्यार न तो थोपूंगी और न ही इस के लिए तुम से भीख मांगूगी.’’

अतुल बोला, ‘‘तो मैं वकील से मिल कर पेपर्स तैयार करा लेता हूं.’’

सुजाता बोली, ‘‘हां, करा लो. मगर मुझे तुम्हारा एक पैसा भी नहीं चाहिए. इंडिया जाने का अपना और रेणु का टिकट मैं खुद कटाऊंगी. मुझे या रेणु को जो कैश गिफ्ट मिलते थे, उन में से कुछ पैसे बचाए हैं. इस के अतिरिक्त पापा का दिया क्रैडिट कार्ड भी है. उस से मेरा काम हो जाएगा. हां, रेणु मेरी बेटी मेरे ही साथ रहेगी.’’

अतुल बोला, ‘‘मगर रेणु के लिए मैं कुछ देना चाहूंगा.’’

‘‘वे पैसे हमारी तरफ से अपनी नई अमेरिकन बीवी को गिफ्ट कर देना,’’ सुजाता ने कहा.

2 दिनों बाद अतुल ने सुजाता को तलाक से संबंधित पेपर्स दिए थे. सुजाता ने उन पेपर्स पर साइन कर अतुल को लौटा दिए थे. कुछ ही दिनों के बाद सुजाता को कोर्ट से भी एक नोटिस मिला था, जिसे उस ने तलाक पर अपनी सहमति के साथ वापस भेज दिया था.

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2 सप्ताह के अंदर सुजाता अपनी बेटी रेणु के साथ इंडिया आ गईर् थी. 40 वर्ष की उम्र के आसपास अब वह एक बेटी की सिंगल पेरैंट थी. उधर, अतुल अपनी अमेरिकन प्रेमिका के साथ रहने लगा था. चंद महीनों के अंदर अतुल और सुजाता का तलाक भी हो गया था. फिर अतुल ने अमेरिकन से शादी कर ली थी.

इधर, सुजाता अपने पापा के साथ बनारस में थी. उस के पापा ने कहा, ‘‘बेटी, तू डरना नहीं. तेरा बाप जिंदा है. तुझे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देगा.’’

सुजाता ने कहा, ‘‘मुझे आप के रहते किसी बात की चिंता नहीं है. पर मुझे अपना और रेणु का भविष्य सुनिश्चित तो करना ही होगा. हम पूरी जिंदगी किसी के सहारे तो नहीं काट सकते हैं.’’

इंडिया आने के कुछ ही महीने बाद उस ने बीएचयू में एमएससी (फिजिक्स) में ऐडमिशन लिया था. अपने फ्री समय में घर से कंप्यूटर पर स्काइप द्वारा अमेरिका के अपने कुछ पुराने बच्चों को चैस की कोचिंग देने लगी थी. इस में अच्छी आमदनी भी थी. एक बच्चे से एक घंटे कोचिंग के लिए 500 रुपए तो आसानी से मिल जाते थे क्योंकि अमेरिका में यही बच्चे एक घंटे के लिए सौ डौलर तक देते हैं.

इस के अतिरिक्त सुजाता को पियानो बजाना भी आता था. बनारस में उसे कोई पियानो सीखने वाला विद्यार्थी तो नहीं मिला क्योंकि वहां पियानो दूर तक किसी के पास नहीं था. पर कुछ बच्चे कीबोर्ड सीखने वाले मिल गए थे. पिता के रहते उसे पैसे की कोई कमी नहीं थी, फिर भी वह आर्थिकरूप से अब आत्मनिर्भर थी. उस ने रेणु का ऐडमिशन भी एक प्रसिद्ध इंटरनैशनल स्कूल में करा दिया था.

छुट्टियों में वह रेणु के साथ किसी न किसी हिल स्टेशन पर जाती थी. इस से बनारस की गरमी से भी बच जाती थी और मनोरंजन भी हो जाता था. उस ने कम उम्र में ही रेणु को भी चैस की कोचिंग देना शुरू कर दिया था. उस ने एक एनजीओ भी जौइन कर लिया था जो अमेरिका में पीडि़त भारतीय महिलाओं की मदद करता था.

एक बार सुजाता के घर उस की मौसी आई थी. सुजाता कहीं घूमने के लिए बाहर निकल रही थी. वह जींस और टौप पहने थी.

उस की ड्रैस पर मौसी ने कहा, ‘‘यह क्या पहनावा है. बेटियों को ठीक से तो रहना चाहिए. इतनी उम्र हो गई इतना भी नहीं सीखा?’’

सुजाता ने कहा, ‘‘मौसी, आप ने तो ऐसा ब्लाउज पहन रखा है कि आधी छाती और आधी पीठ नजर आ रही है और साड़ी भी नाभि के नीचे बांध रखी है. मेरे पहनावे से तो मेरा कोई अंगप्रदर्शन नहीं हो रहा है. तब मेरी ड्रैस बुरी कैसे हुई?’’

मौसी तिलमिला कर रह गई थीं. सुजाता दिनपरदिन पहले से ज्यादा ही स्मार्ट लगने लगी थी, मेकअप तो नाममात्र का करती थी पर अपने पसंदीदा ब्रैंडेड कपड़े और रंगीन चश्मा पहन कर जब

भी निकलती थी, उसे देख कर कोई भी 30 साल से ज्यादा की नहीं सोचता था.

सुजाता ने फाइनल ईयर में पहुंचतेपहुंचते जीआरई और टोएफेल टैस्ट्स में अच्छे स्कोर्स हासिल कर लिए थे. ये दोनों टेस्ट्स अमेरिका में आगे की पढ़ाई के लिए जरूरी होते हैं. उस ने अमेरिका की कुछ प्रसिद्ध यूनिवर्सिटीज में पीएचडी के लिए अप्लाई भी कर दिया था.

अब सुजाता ने एमएससी पूरी कर ली थी. अपनी पढ़ाई और अन्य सामाजिक कार्यों से उस ने यूनिवर्सिटी और बनारस शहर में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली थी.

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अमेरिका की अच्छी यूनिवर्सिटीज से स्कौलरशिप के साथ पीएचडी का औफर भी मिल गया था, जिन में कैलिफोर्निया की बर्कले और स्टैनफोर्ड भी थीं. उस ने स्टैनफोर्ड जाने का फैसला लिया था. उसे एफ-1 स्टूडैंट वीजा भी मिल गया था. बेटी रेणु तो अमेरिकन नागरिक थी ही, उसे अमेरिका जाने के लिए किसी वीजा की जरूरत नहीं थी.

सुजाता के पिता ने अमेरिका जाने के पहले उस से कहा, ‘‘बेटी, एक बार फिर से सोच लो. तुम अमेरिका में अकेले रह सकोगी? मुझे तुम्हारी और रेणु की सुरक्षा की चिंता है.’’

वह बोली, ‘‘पापा, आप को शायद मालूम नहीं है, महिलाओं के लिए अमेरिका बहुत ही सुरक्षित देश है. और अब तो रेणु भी समझदार हो गई है. अमेरिका में तो हजारों सिंगल मदर्स मिलेंगी. उन्हें कोई हेयदृष्टि से नहीं देखता. आप यहां चैन से रहिए. आप की बेटी अब इस काबिल हो गई है कि अपनी और रेणु की देखभाल भलीभांति कर सकती है.’’

अगस्त के अंतिम सप्ताह में सुजाता और रेणु अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत के सैन फ्रांसिस्को हवाई अड्डे पर उतरी थीं. वहां से टैक्सी ले कर पालो आल्टो पहुंच गई थीं. वहीं पर स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी है. वहां आने के पहले सुजाता ने एक रूम का अपार्टमैंट इंडिया से ही बुक कर लिया था. उस ने प्रसिद्ध एस्ट्रोफिजिसिस्ट के मार्गदर्शन में अपना शोध शुरू किया. उस के गाइड उस की प्रगति पर बहुत खुश थे.

बेटी रेणु भी स्कूल जाने लगी थी. सुबह यूनिवर्सिटी जाते समय उसे स्कूल में छोड़ देती थी और लौटते समय ले लेती थी. कभी लौटने में देर होने की संभावना होती तो उसे स्कूल में ही 2-3 घंटे एंक्सटैंडेड औवर्स में छोड़ देती थी. अमेरिका में ज्यादातर पतिपत्नी दोनों ही नौकरी करते हैं, तो उन के छोटे बच्चों के लिए स्कूल में अकसर यह सुविधा होती है.

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एक घड़ी औरत : भाग 1- क्यों एक घड़ी बनकर रह गई थी प्रिया की जिंदगी

आतंकित और हड़बड़ाई प्रिया ने तकिए के नीचे से टौर्च निकाल कर सामने की दीवार पर रोशनी फेंकी. दीवार की इलैक्ट्रौनिक घड़ी में रेडियम नहीं था, इसलिए आंख खुलने पर पता नहीं चलता था कि कितने बज गए हैं. अलार्म घड़ी खराब हो गई थी, इसलिए उसे दीवार घड़ी का ही सहारा लेना पड़ता था. ‘फुरसत मिलते ही वह सब से पहले अलार्म घड़ी की मरम्मत करवाएगी. उस के बिना उस का काम नहीं चलने का,’ उस ने मन ही मन सोचा. एक क्षण को उसे लगा कि वह औरत नहीं रह गई है, घड़ी बन गई है. हर वक्त घड़ी की सूई की तरह टिकटिक चलने वाली औरत. उस ने कभी यह कल्पना तक नहीं की थी कि जिंदगी ऐसे जीनी पड़ेगी. पर मजबूरी थी. वह जी रही थी. न जिए तो क्या करे? कहां जाए? किस से शिकायत करे? इस जीवन का चुनाव भी तो खुद उसी ने किया था.

उस ने अपने आप से कहा कि 6 बज चुके हैं, अब उठ जाना चाहिए. शरीर में थकान वैसी ही थी, सिर में अभी भी वैसा ही तनाव और हलका दर्द मौजूद था, जैसा सोते समय था. वह टौर्च ज्यादा देर नहीं जलाती थी. पति के जाग जाने का डर रहता था. पलंग से उठती और उतरती भी बहुत सावधानी से थी ताकि नरेश की नींद में खलल न पड़े. बच्चे बगल के कमरे में सोए हुए होते थे.

जब से अलार्म घड़ी बिगड़ी थी, वह रोज रात को आतंकित ही सोती थी. उसे यह डर सहज नहीं होने देता था कि कहीं सुबह आंख देर से न खुले, बच्चों को स्कूल के लिए देर न हो जाए. स्कूल की बस सड़क के मोड़ पर सुबह 7 बजे आ जाती थी. उस से पहले उसे बच्चों को तैयार कर वहां पहुंचाना पड़ता था. फिर आ कर वह जल्दीजल्दी पानी भरती थी.

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अगर पानी 5 मिनट भी ज्यादा देर से आता था तो वह जल्दी से नहा लेती ताकि बरतनों का पानी उसे अपने ऊपर न खर्च करना पड़े. सुबह वह दैनिक क्रियाओं से भी निश्ंिचत हो कर नहीं निबट पाती. बच्चों को जल्दीजल्दी टिफिन तैयार कर के देने पड़ते. कभी वे आलू के भरवां परांठों की मांग करते तो कभी पूरियों के साथ तली हुई आलू की सब्जी की. कभी उसे ब्रैड के मसालाभरे रोल बना कर देने पड़ते तो कभी समय कम होने पर टमाटर व दूसरी चीजें भर कर सैंडविच. हाथ बिलकुल मशीन की तरह काम करते. उसे अपनी सुधबुध तक नहीं रहती थी.

एक दिन में शायद प्रिया रोज दसियों बार झल्ला कर अपनेआप से कहती कि इस शहर में सबकुछ मिल सकता है पर एक ढंग की नौकरानी नहीं मिल सकती. हर दूसरे दिन रानीजी छुट्टी पर चली जाती हैं. कुछ कहो तो काम छोड़ देने की धमकी कि किसी और से करा लीजिए बहूजी अपने काम.

उस की तनख्वाह में से एक पैसा काट नहीं सकते, काटा नहीं कि दूसरे दिन से काम पर न आना तय. सो, कौन कहता है देश में गरीबी है? शोषण है? शोषण तो ये लोग हम मजबूर लोगों का करते हैं. गरीब और विवश तो हम हैं. ये सब तो मस्त लोग हैं.

‘कल भी नहीं आई थी वह. आज भी अभी तक नहीं आई है. पता नहीं अब आएगी भी या मुझे खुद ही झाड़ूपोंछा करना पड़ेगा. इन रानी साहिबाओं पर रुपए लुटाओ, खानेपीने की चीजें देते रहो, जो मांगें वह बिना बहस के उन्हें दे दो. ऊपर से हर दूसरे दिन नागा, क्या मुसीबत है मेरी जान को…’ प्रिया झल्ला कर सोचती जा रही थी और जल्दीजल्दी काम निबटाने में लगी हुई थी.

‘अब महाशय को जगा देना चाहिए,’ सोच कर प्रिया रसोई से कमरे में आई और फिर सोए पति को जगाया, ‘‘उठिए, औफिस को देर करेंगे आप. 9 बजे की बस न मिली तो पूरे 45 मिनट देर हो जाएगी आप को.’’

‘‘अखबार आ गया?’’

‘महाशय उठेंगे बाद में, पहले अखबार चाहिए,’ बड़बड़ाती प्रिया बालकनी की तरफ चल दी जहां रबरबैंड में बंधा अखबार पड़ा होता है क्योंकि अखबार वाले के पास भी इतना समय नहीं होता कि वह सीढि़यां चढ़, दरवाजे के नीचे पेपर खिसकाए.

ट्रे में 2 कप चाय लिए प्रिया पति के पास आ कर बैठ गई. फिर उस ने एक कप उन की ओर बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘अखबार में ऐसा क्या होता है जो आप…’’

‘‘दुनिया…’’ नरेश मुसकराए, ‘‘अखबार से हर रोज एक नई दुनिया हमारे सामने खुल जाती है…’’

चाय समाप्त कर प्रिया जल्दीजल्दी बिस्तर ठीक करने लगी. फिर मैले कपड़े ढूंढ़ कर एकत्र कर उन्हें दरवाजे के पीछे टंगे झोले में यह सोच कर डाला कि समय मिलने पर इन्हें धोएगी, पर समय, वह ही तो नहीं है उस के पास.

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हफ्तेभर कपड़े धोना टलता रहता कि शायद इतवार को वक्त मिले और पानी कुछ ज्यादा देर तक आए तो वह उन्हें धो डालेगी पर इतवार तो रोज से भी ज्यादा व्यस्त दिन…बच्चे टीवी से चिपके रहेंगे, पति महाशय आराम से लेटेलेटे टैलीविजन पर रंगोली देखते रहेंगे.

‘‘इस मरी रंगोली में आप को क्या मजा आता है?’’ प्रिया झल्ला कर कभीकभी पूछ लेती.

‘‘बंदरिया क्या जाने अदरक का स्वाद? जो गीतसंगीत पुरानी फिल्मों के गानों में सुनने को मिलता है, वह भला आजकल के ड्रिल और पीटी करते कमर, गरदन व टांगे तोड़ने वाले गानों में कहां जनाब.’’

प्रिया का मन किया कि कहे, बंदरिया तो अदरक का स्वाद खूब जान ले अगर उस के पास आप की तरह फुरसत हो. सब को आटेदाल का भाव पता चल जाए अगर वह घड़ी की सूई की तरह एक पांव पर नाचती हुई काम न करे. 2 महीने पहले वह बरसात में भीग गई थी. वायरल बुखार आ गया था तो घरभर जैसे मुसीबत में फंस गया था. पति महाशय ही नहीं झल्लाने लगे थे बल्कि बच्चे भी परेशान हो उठे थे कि आप कब ठीक होंगी, मां. हमारा बहुत नुकसान हो रहा है आप के बीमार होने से.

‘‘सुनिए, आज इतवार है और मुझे सिलाई के कारीगरों के पास जाना है. तैयार हो कर जल्दी से स्कूटर निकालिए, जल्दी काम निबट जाएगा, बच्चे घर पर ही रहेंगे.’’

‘‘फिर शाम को कहोगी, हमें आर्ट गैलरी पहुंचाइए, शीलाजी से बात करनी है.’’

सुन कर सचमुच प्रिया चौंकी, ‘‘बाप रे, अच्छी याद दिलाई. मैं तो भूल ही गई थी यह.’’

नरेश से प्रिया की मुलाकात अचानक ही हुई थी. नगर के प्रसिद्ध फैशन डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट से प्रिया को डिगरी मिलते ही एक कंपनी में नौकरी मिल गई. दिल लगा कर काम करने के कारण वह विदेश जाने वाले सिलेसिलाए कपड़ों की मुख्य डिजाइनर बन गई.

नरेश अपनी किसी एक्सपोर्टइंपोर्ट की कंपनी का प्रतिनिधि बन कर उस कंपनी में एक बड़ा और्डर देने आए तो मैनेजर ने उन्हें प्रिया के पास भेज दिया. नरेश से प्रिया की वह पहली मुलाकात थी. देर तक दोनों उपयुक्त नमूनों आदि पर बातचीत करते रहे. अंत में सौदा तय हो गया तो वह नरेश को ले कर मैनेजर के कक्ष में गई.

फिर जब वह नरेश को बाहर तक छोड़ने आईर् तो नरेश बोले, ‘आप बहुत होशियार हैं, एक प्रकार से यह पूरी कंपनी आप ही चला रही हैं.’

‘धन्यवाद जनाब,’ प्रिया ने जवाब दिया. प्रशंसा से भला कौन खुश नहीं होता.

आगे पढ़ें- प्रिया समझ गई थी कि नरेश…

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हमसफर: भाग 1- लालाजी की परेशानी वजह क्या थी ?

लेखक-रमाकांत मिश्र एवं रेखा मिश्र

मैं ध्यान से मामाजी की बातें सुन रहा था. वे जो कुछ बता रहे थे, सचमुच लाजवाब था. कोई आदमी इतना महान हो सकता है, मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. लाला हनुमान प्रसाद सचमुच बेजोड़ थे. मामाजी ने बताया था कि लालाजी कभी खोटी चवन्नी भी भीख में नहीं देते थे, लेकिन समाजसेवा में पैसा जरूर खर्च कर देते थे. कितने लोगों को इज्जत से रोजी कमाने लायक बना दिया था और पढ़ाईलिखाई को बढ़ावा देने के लिए कितना पैसा व समय वे खर्च करते थे. लालाजी इन सब बातों का न तो खुद ढिंढोरा पीटते थे और न ही किसी लाभ उठाने वाले को ये बातें बताने की इजाजत देते थे. हालांकि मामाजी लालाजी से उम्र में लगभग 15 साल छोटे थे, लेकिन लालाजी के साथ मामाजी की गहरी दोस्ती थी. पर जिस बात ने लालाजी को मेरी नजर में महान बना दिया था वह कुछ और ही थी.

लालाजी का एक ही बेटा था. 3 साल पहले उस का विवाह हुआ था. उस की एक नन्ही सी बेटी भी थी. पिछले साल आतंकवादियों द्वारा किए गए एक बम विस्फोट में अनायास ही वह मारा गया था. लालाजी इस घटना से टूट से गए थे. लेकिन वे अपने गम को सीने में कहीं गहरे दफन कर मामाजी से यह कहने आए थे कि कहीं लायक लड़का देखें, जिस से वे अपनी विधवा बहू की शादी कर सकें.

मामाजी बता रहे थे कि लालाजी की बहू किसी भी हाल में शादी को तैयार नहीं थी, लेकिन लालाजी का कहना था कि लायक लड़का मिल जाए तो वे बहू को मना लेंगे.

‘‘मैं तो कहूंगा कि राजेश, तुम्हीं ममता से विवाह कर लो’’, मामाजी ने मेरे सामने प्रस्ताव रखा.

मैं चौंक पड़ा, ‘‘नहीं मामा, आप तो जानते ही हैं…’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम सुरुचि के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकते. तुम्हारी ही तरह ममता भी गोपाल की जगह किसी को अपनी जिंदगी में नहीं लाना चाहती. लेकिन मैं लालाजी की ही बात दोहराऊं तो जैसेजैसे तुम्हारी उम्र बढ़ेगी, तुम अकेले पड़ते जाओगे. फिर विपुल भी एक दिन अपना घर बसा लेगा. राजेश, तुम खुद को धोखा दे रहे हो.’’

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मैं चुप रहा. मैं जानता था कि हमारे प्यार को मामाजी भी महसूस करते थे. मामा यों तो मुझ से 12 साल बड़े थे, लेकिन हमारे बीच दोस्तों जैसा ही संबंध था. सुरुचि के जाने के बाद विपुल को मामाजी ने ही पाला था.

‘‘अगर मुझे ठीक न लगता तो मैं कभी न कहता, क्योंकि मैं ममता को भी जानता हूं और तुम को भी. तुम दोनों एकदूसरे का घाव भर सकोगे. साथ ही विपुल और नेहा को भी मांबाप का प्यार मिल सकेगा.’’

आज से पहले मामाजी ने कभी ऐसा प्रस्ताव नहीं रखा था. मेरे कई रिश्तेदार मेरी दोबारा शादी की असफल कोशिश कर नाराज हो चुके थे. लेकिन मामाजी ने कभी ऐसा जिक्र नहीं किया था. बल्कि मेरे साथ उन्हें भी बदनामी झेलनी पड़ रही थी कि वे मेरा अहित चाहते हैं. लेकिन मामाजी मेरे साथ बने रहे थे. आज मामाजी ने मुझे असमंजस में डाल दिया था. मैं ने इनकार तो किया, लेकिन लालाजी के व्यक्तित्व के प्रभाव से दबादबा सा महसूस कर रहा था.

आखिरकार, मामाजी ने मुझे तैयार कर ही लिया. फिर उन्होंने लालाजी से बात की. लालाजी ने मेरे बारे में पूरी जानकारी लेने के बाद अपनी सहमति दी. इस के बाद मामाजी और लालाजी ने बैठ कर एक योजना बनाई, क्योंकि ममता शादी के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए योजना यह थी कि मैं लालाजी के घर में आनाजाना बढ़ाऊं और धीरेधीरे ममता का दिल जीतूं. हालांकि मुझे यह सब पसंद नहीं था, लेकिन मैं इन दोनों को मना न कर सका.

योजनानुसार अगले रविवार को मैं लखनऊ लालाजी की कोठी पर पहुंच गया. पहले से योजना थी, इसलिए लालाजी नदारद थे. नौकरानी ने मुझे एक बड़े से ड्राइंगरूम में बैठा दिया. मैं नर्वस हो रहा था. मेरे मन में एक अजीब सी कचोट थी. ऐसा लग रहा था जैसे मैं कोई बुरा काम करने जा रहा हूं. शर्म, खीझ, लाचारी और अनिच्छा की अजीब सी उथलपुथल मेरे मन को झकझोर रही थी.

‘‘नमस्कार,’’ मेरे कानों में एक मधुर स्त्रीस्वर पड़ा तो मैं ने सिर उठा कर देखा.

मेरे सामने एक 25-26 साल की सुंदर युवती खड़ी थी. उस के चेहरे पर वीरानी छाई हुई थी, लेकिन फिर भी एक सुंदरता थी. उस ने बहुत साधारण फीके से रंग की साड़ी पहनी हुई थी, लेकिन वह भी उस पर भली लग रही थी. मैं समझ गया कि यही ममता है.

मैं उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ कर नमस्कार किया.

‘‘बैठिए’’, वह बोली, ‘‘मैं लालाजी की बहू हूं. वे तो अभी घर में नहीं हैं.’’

‘‘उन्होंने मुझे मिलने को कहा था. अगर आप को एतराज न हो तो मैं इंतजार कर लूं.’’

एक पल को ममता के चेहरे पर असमंजस का भाव झलका, लेकिन दूसरे ही क्षण वह सामान्य हो गई.

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‘‘आप का परिचय?’’

‘‘क्षमा कीजिएगा, मेरा नाम राजेश

है. मैं कानपुर में सैंडोज का एरिया

मैनेजर हूं.’’

‘‘लालाजी ने कभी आप का जिक्र नहीं किया.’’

‘‘दरअसल, लालाजी मेरे मामा के दोस्त हैं. उन का नाम राजेंद्र लाल है. शायद उन्हें आप जानती हों.’’

‘‘चाचाजी को अच्छी तरह जानती हूं’’, ममता एक क्षण को चुप हुई, फिर बोली, ‘‘आप विपुल के पिता तो नहीं?’’

‘‘जी…जी हां.’’

‘‘चाचाजी आप की बहुत तारीफ करते हैं.’’

‘‘वे मुझे बहुत प्यार करते हैं.’’

तभी एक सांवली सी लड़की एक ट्रे में कुछ मिठाई व पानी का गिलास और जग ले कर आई. ममता  ने मिठाई की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी. मैं ने चुपचाप एक टुकड़ा ले कर मुंह में डाल लिया.’’

‘‘और लीजिए.’’

‘‘बस’’, कह कर मैं ने पानी का गिलास उठा कर पानी पिया और गिलास मेज पर रख दिया.

‘‘कम्मो, चाय बना ले.’’

‘‘जी, बहूजी.’’

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मैं चाह कर भी चाय के लिए मना न कर सका. हमारे बीच चुप्पी बनी रही.

‘‘मैं आप को डिस्टर्ब नहीं करना चाहता. आप अपना काम करें. मैं अकेले ही इंतजार कर लूंगा,’’ मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा.

‘‘मुझे ऐसा कोई खास काम नहीं करना है,’’ ममता सहजता से बोली.

मैं चुप हो गया. मुझे अचानक ममता के साथ धोखा करने का गहरा अफसोस हुआ.

‘‘मैं आप के साथ हुए हादसे से वाकिफ हूं. आप तो जानती हैं कि मैं भी कमोबेश ऐसी ही परिस्थिति का शिकार हूं. यद्यपि यह मेरा बेवजह दखल ही है, इसलिए मैं कहूंगा कि आप का इतना अधिक दुख में डूबे रहना कि दुख आप के चेहरे पर झलकने लगे, आप के और आप की बेटी दोनों के लिए अच्छा नहीं है,’’ मैं ने बातचीत शुरू कर दी.

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रंग जीवन में नया आयो रे: भाग 1- क्यों परिवार की जिम्मेदारियों में उलझी थी टुलकी

लेखिका- विमला भंडारी

घंटी की आवाज से मैं एकदम चौंक उठी. सोचा, बेवक्त कौन आया है नींद में खलल डालने. उठ कर देखा तो डाकिया बंद दरवाजे के नीचे से एक लिफाफा खिसका गया था.

झुंझलाई सी मैं लिफाफा ले कर वहीं सोफे पर बैठ गई. जम्हाई लेते हुए मैं ने सरसरी नजर से देखा, ‘यह तो किसी के विवाह का कार्ड है. अरे, यह तो टुलकी की शादी का निमंत्रणपत्र है.’

सारा आलस, सारी नींद पता नहीं कहां फुर्र हो गई. टुलकी के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ उस का हस्तलिखित पत्र भी था. बड़े आग्रह से उस ने मुझे विवाह में बुलाया था. मेरे खयालों के घेरे में 12 वर्षीया टुलकी की छवि अंकित हो आई.

लगभग 8 वर्ष पूर्व मैं उदयपुर अस्पताल में कार्यरत थी. टुलकी मेरे मकानमालिक की 4 बेटियों में सब से बड़ी थी. छोटी सी टुलकी को घर के सारे काम करने पड़ते थे. भोर में उठ कर वह किसी सुघड़ गृहिणी की भांति घर के कामकाज में जुट जाती. वह पानी भरती, मां के लिए चाय बनाती. फिर आटा गूंधती और उस के अभ्यस्त नन्हेनन्हे हाथ दो परांठे सेंक देते. इस तरह टुलकी तैयार कर देती अपनी मां का भोजन.

टुलकी की मां पंचायत समिति में अध्यापिका थीं. चूंकि स्कूल शहर के पास एक गांव में था, इसलिए उस को साढ़े 6 बजे तक आटो स्टैंड पहुंचना होता था. जल्दबाजी में वह अकसर अपना टिफिन ले जाना भूल जाती. ऐसे में टुलकी सरपट दौड़ पड़ती आटो स्टैंड की ओर और मां को टिफिन थमा आती.

लगभग यही समय होता जब मैं अपनी रात की ड्यूटी पूरी कर घर लौट रही होती. आटो स्टैंड से ही टुलकी वापस मेरे साथ घर की ओर चल पड़ती.

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‘आज तुम्हारी मां फिर टिफिन भूल गईं क्या?’ मेरे पूछते ही टुलकी ‘हां’ में गरदन हिला देती. मैं देखती रह जाती उस के मासूम चेहरे को और सोचती, ‘दोनों में मां कौन है और बेटी कौन?’

घर पहुंचते ही टुलकी पूछती, ‘सिस्टर, आप के लिए चाय बना दूं?’

‘नहीं, रहने दे. अभी थोड़ी देर सोऊंगी. रातभर की थकी हूं,’ कहती हुई मैं अपने बालों को जूड़े के बंधन से मुक्त कर देती. मेरे काले घने, लंबे बालों को टुलकी अपलक देखती रह जाती. पर यह मैं ने तब महसूस किया जब एक दिन वह बर्फ लेने आई. उस के कटे बालों को देख मैं हैरानी से पूछ बैठी, ‘बाल क्यों कटवा लिए, टुलकी?’

उस की पहले से सजल मिचमिची आंखों से आंसू बहने लगे. मेरे पुचकारने पर उस के सब्र का बांध टूट गया. भावावेश में वह मेरे सीने से लिपट गई. मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा. उस के रूखे बालों में हाथ घुमाते हुए मैं ने पुचकारा, ‘रो मत बेटी, रो मत. क्या हुआ, क्या बात हुई, मुझे बता?’

सिसकियों के बीच उभरते शब्दों से मैं ने जाना कि टुलकी के लंबे बालों में जुएं पड़ गई थीं. मां से सारसंभाल न हो पाई. इसलिए उस के बाल जबरदस्ती कटवा दिए गए.

‘सिस्टर, मुझे आप जैसे लंबे बाल…’ उस ने दुखी स्वर में मुझ से कहा, ‘देखो न सिस्टर, मैं सारे घर का काम करती हूं, मां का इतना ध्यान रखती हूं…क्या हुआ जो मेरे बालों में जुएं पड़ गईं. इस का मतलब यह तो नहीं कि मेरे बाल…’ और उस की रुलाई फिर से फूट पड़ी.

मैं उसे दिलासा देते हुए बोली, ‘चुप हो जा मेरी अच्छी गुडि़या. अरे, बालों का क्या है, ये तो फिर बढ़ जाएंगे, जब तू मेरे जितनी बड़ी हो जाएगी तब बढ़ा लेना इतने लंबे बाल.’

हमेशा चुप रहने वाली आज्ञाकारिणी टुलकी मेरी ममता की हलकी सी आंच मिलते ही पिघल गई थी. पहली बार मुझे महसूस हुआ कि इस अबोध बच्ची ने कितना लावा अपने अंदर छिपा रखा है.

टुलकी की मां उस को जोरजोर से आवाजें देती हुई कोसने लगी, ‘पता नहीं कहां मर गई यह लड़की. एक काम भी ठीक से नहीं करती. बर्फ क्या लेने गई, वहीं चिपक गई.’

मां की चिल्लाहट सुन कर बर्फ लिए वह दौड़ पड़ी. उस दिन के बाद वह हमेशा स्नेह की छाया पाने के लिए मेरे पास चली आती.

एक दिन जब टुलकी अपनी मां के सिर की मालिश कर रही थी तो मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई, ‘क्या जिंदगी है, इस लड़की की. खानेखेलने की उम्र में पूरी गृहस्थिन बन गई है. इसे थोड़ा समय खेलने के लिए भी दिया करो, भाभी. तुम इस की सही मां हो, तुम्हें जरा खयाल नहीं आता कि…’

‘क्या करूं, सिस्टर, आज सिर में बहुत दर्द था,’ टुलकी की मां ने अपराधभाव से अपनी नजर नीची करते हुए कहा.

मैं ने टुलकी को उंगली से गुदगुदाते हुए उठने का इशारा किया तो उस ने हर्षमिश्रित आंखों से मुझे देखा और आंखों ही आंखों में कुछ कहा. फिर वह बाहर भाग गई. मुझे लगा, जैसे मैं ने किसी बंद पंछी को मुक्त कर दिया है.

‘आज आटो के इंतजार में सड़क पर 2 घंटे तक खड़ा रहना पड़ा. शायद तेज धूप के कारण सिर में दर्द होने लगा है. सोचा, थोड़ी मालिश करवा लूं, ठीक हो जाएगा,’ टुलकी की मां सफाई देती हुई बोलीं.

शायद कुछ दर्द के कारण या फिर अपनी बेबसी के कारण टुलकी की मां की आंखें नम हो आई थीं. यह देख मैं इस समय ग्लानि से भर गई.

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‘क्या करूं सिस्टर, एक लड़के की चाह में मैं ने पढ़ीलिखी, समझदार हो कर भी लड़कियों की लाइन लगा दी. पता नहीं क्याक्या देखना है जिंदगी में…’ कहती हुई वह अपनी बेबसी पर सिसक उठी.

सारा दोष ‘प्रकृति’ पर मढ़ कर वह अपनेआप को तसल्ली देने लगी. मैं सोचने लगी कि इन्होंने तो सारा दोष प्रकृति को दे कर मन को समझा दिया पर टुलकी बेचारी का क्या दोष जो असमय ही उस का बचपन छिन गया.

‘क्या उस का दोष यही है कि वह घर में सब से बड़ी बेटी है?’ मन में बारबार यही प्रश्न घुमड़ रहा था. टुलकी बारबार मेरे मानसपटल पर उभर कर पूछ रही थी, ‘मेरा कुसूर क्या है, सिस्टर?’

उस दिन भी मैं सो रही थी कि एकाएक मुझे लगा कि कोई है. आंखें खोल कर देखा तो टुलकी सामने खड़ी थी. पता नहीं कब आहिस्ता से दरवाजा खोल कर भीतर आ गई थी. वह एकटक मुझे देख रही थी. मैं ने आंखों ही आंखों में सवाल किया, ‘क्या है?’

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बहकते कदम: रोहन के लिए नैना ने मैसेज में क्या लिखा था

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एक घड़ी औरत : भाग 3- क्यों एक घड़ी बनकर रह गई थी प्रिया की जिंदगी

शीलाजी उस दिन उस के सारे चित्र अपने साथ ले गईं. कुछ दिनों बाद औफिस में उन का फोन आया कि वे उन चित्रों की प्रदर्शनी अमृता शेरगिल और हुसैन जैसे नामी चित्रकारों के चित्रों के साथ लगाने जा रही हैं. सुन कर वह हैरान रह गई. प्रदर्शनी में वह अपनी सहेली और नरेश के साथ गई थी. तमाम दर्शकों, खरीदारों और पत्रकारों को देख कर वह पसोपेश में थी. पत्रकारों से बातचीत करने में उसे खासी कठिनाई हुई थी क्योंकि उन के सवालों के जवाब देने जैसी समझ और ज्ञान उस के पास नहीं था. जवाब शीलाजी ने ही दिए थे.

वापस लौटते वक्त शीलाजी ने नरेश से कहा, ‘आप बहुत सुखी हैं जो ऐसी हुनरमंद बीवी मिली है. देखना, एक दिन इन का देश में ही नहीं, विदेशों में भी नाम होगा. आप इन की अन्य कार्यों में मदद किया करो ताकि ये ज्यादा से ज्यादा समय चित्रकारिता के लिए दे सकें. साथ ही, यदि ये मेरे यहां आतीजाती रहें तो मैं इन्हें आधुनिक चित्रकारिता की बारीकियां बता दूंगी. किसी भी कला को निखारने के लिए उस के इतिहास की जानकारी ही काफी नहीं होती, बल्कि आधुनिक तेवर और रुझान भी जानने की जरूरत पड़ती है.’

नरेश के साथ उस दिन लौटते समय प्रिया कहीं खोई हुई थी. नरेश ही बोले, ‘तुम तो सचमुच छिपी रुस्तम निकलीं, प्रिया. मुझे तुम्हारा यह रूप ज्ञात ही न था. मैं तो तुम्हें सिर्फ एक कुशल डिजाइनर समझता था, पर तुम तो मनुष्य के मन को भी अपनी कल्पना के रंग में रंग कर सज्जित कर देती हो.’

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व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी. आमदनी का छोटा ही सही, पर एक जरिया प्रिया को नजर आने लगा तो वह पूरे उत्साह से रंग, कूचियां और कैनवस व स्टैंड आदि खरीद लाई. पर समस्या यह थी कि वह क्याक्या करे? कंपनी में ड्रैस डिजाइन करने जाए या घर संभाले, बच्चों की देखरेख करे या पति का मन रखे? अपने स्वास्थ्य की तरफ ध्यान दे या रोज की जरूरतों के लिए बेतहाशा दौड़ में दौड़ती रहे?

प्रिया की दौड़, जो उस दिन से शुरू हुई, आज तक चल रही थी. घर और बाहर की व्यस्तता में उसे अपनी सुध नहीं रही थी.

‘‘अब हमें एक कार ले लेनी चाहिए,’’ एक दिन नरेश ने कहा.

प्रिया सुन कर चीख पड़ी, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्यों?’’ नरेश ने हैरानी से पूछा.

‘‘फ्लैट के कर्ज से जैसेतैसे इतने सालों में अब कहीं जा कर हम मुक्त हो पाए हैं,’’ प्रिया बोली, ‘‘कुछ दिन तो चैन की सांस लेने दो. अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं, उन की मांगें भी बढ़ती जा रही हैं. पहले होमवर्क मैं करा दिया करती थी पर अब उन के गणित व विज्ञान…बाप रे बाप… क्याक्या पढ़ाया जाने लगा है. मैं तो बच्चों के लिए ट्यूटर की बात सोच कर ही घबरा रही हूं कि इतने पैसे कहां से आएंगे. पर आप को अब कार लेने की सनक सवार हो गई.’’

‘‘अरे भई, आखिरकार इतनी बड़ी कलाकार का पति हूं. शीलाजी की कलादीर्घा में आताजाता हूं तुम्हें ले कर. लोग देखते हैं कि बड़ा फटीचर पति मिला है बेचारी को, स्कूटर पर घुमाता है. कार तक नहीं ले कर दे सका. नाक तो मेरी कटती है न,’’ नरेश ने हंसते हुए कहा.

‘‘हां मां, पापा ठीक कहते हैं,’’ बच्चों ने भी नरेश के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘अपनी कालोनी में सालभर पहले कुल 30 कारें थीं. आज गिनिए, 200 से ऊपर हैं. अब कार एक जरूरत की चीज बन गई है, जैसे टीवी, फ्रिज, गैस का चूल्हा आदि. आजकल हर किसी के पास ये सब चीजें हैं, मां.’’

‘‘पागल हुए हो तुम लोग क्या,’’ प्रिया बोली, ‘‘कहां है हर किसी के पास ये सब चीजें? क्या हमारे पास वाश्ंिग मशीन और बरतन मांजने की मशीन है? कार ख्वाब की चीज है. टीवी, कुकर, स्टील के बरतन और गैस हैं ही हमारे पास. किसी तरह तुम लोगों के सिर छिपाने के लिए हम यह निजी फ्लैट खरीद सके हैं. घर की नौकरानी रोज छुट्टी कर जाती है, काम का मुझे वक्त नहीं मिलता, पर करती हूं, यह सोच कर कि और कौन है जो करेगा. जरूरी क्या है, तुम्हीं बताओ, कार या अन्य जरूरत की चीजें?’’

‘‘तुम कुछ भी कहो,’’ नरेश हंसे, ‘‘घर की और चीजें आएं या न आएं, बंदा रोजरोज शीलाजी या अन्य किसी के घर इस खटारा स्कूटर पर अपनी इतनी बड़ी कलाकार बीवी को ले कर नहीं जा सकता. आखिर हमारी भी कोईर् इज्जत है या नहीं?’’

उस दिन प्रिया जीवन में पहली बार नरेश पर गुस्सा हुई जब एक शाम वे लौटरी के टिकट खरीद लाए, ‘‘यह क्या तमाशा है, नरेश?’’ उस का स्वर एकदम सख्त हो गया.

‘‘लौटरी के टिकट,’’ नरेश बोले, ‘‘मुझे कार खरीदनी है, और कहीं से पैसे की कोई गुंजाइश निकलती दिखाईर् नहीं देती, इसलिए सोचता हूं…’’

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‘‘अगर मुझे खोना चाहते हो तभी आज के बाद इन टिकटों को फिर खरीद कर लाना. मैं गरीबी में खुश हूं. मैं दिनरात घड़ी की तरह काम कर सकती हूं. मरखप सकती हूं, भागदौड़ करती हुई पूरी तरह खत्म हो सकती हूं, पर यह जुआ नहीं खेलने दूंगी तुम्हें इस घर में. इस से हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा, सिवा बरबादी के.’’

प्रिया का कड़ा रुख देख कर उस दिन के बाद नरेश कभी लौटरी के टिकट नहीं लाए. पर प्रिया की मुसीबतें कम नहीं हुईं. बढ़ती महंगाई, बढ़ते खर्च और जरूरतों में सामंजस्य बैठाने में प्रिया बुरी तरह थकने लगी थी. नरेश में भी अब पहले वाला उत्साह नहीं रह गया था. प्रिया के सिर में भारीपन और दर्र्द रहने लगा था. वह नरेश से अपनी थकान व दर्द की चर्चा अकसर करती पर डाक्टर को ठीक से दिखाने का समय तक दोनों में से कोई नहीं निकाल पाता था.

प्रिया को अब अकसर शीलाजी व अन्य कलापे्रमियों के पास आनाजाना पड़ता, पर वह नरेश के साथ स्कूटर पर या फिर बस से ही जाती. जल्दी होने पर वे आटोरिक्शा ले लेते. और तब वह नरेश की कसमसाहट देखती, उन की नजरें देखती जो अगलबगल से हर गुजरने वाली कार को गौर से देखती रहतीं. वह सब समझती पर चुप रहती. क्या कहे? कैसे कहे? गुंजाइश कहां से निकाले?

‘‘औफिस से डेढ़ लाख रुपए तक का हमें कर्ज मिल सकता है, प्रिया,’’ नरेश ने एक रात उस से कहा, ‘‘शेष रकम हम किसी से फाइनैंस करा लेंगे.’’

‘‘और उसे ब्याज सहित हम कहां से चुकाएंगे?’’ प्रिया ने कटुता से पूछा.

‘‘फाइनैंसर की रकम तुम चुकाना और अपने दफ्तर का कर्ज मैं चुकाऊंगा पर कार ले लेने दो.’’

नरेश जिस अनुनयभरे स्वर में बोले वह प्रिया को अच्छा भी लगा पर वह भीतर ही भीतर कसमसाई भी कि खर्च तो दोनों की तनख्वाह से पूरे नहीं पड़ते, काररूपी यह सफेद हाथी और बांध लिया जाए…पर वह उस वक्त चुप रही, ठीक उस शुतुरमुर्ग की तरह जो आसन्न संकट के बावजूद अपनी सुरक्षा की गलतफहमी में बालू में सिर छिपा लेता है.

पति के जाने के बाद प्रिया जल्दीजल्दी तैयार हो कर अपने दफ्तर चल दी. लेकिन आज वह निकली पूरे 5 मिनट देरी से थी. उस ने अपने कदम तेज किए कि कहीं बस न निकल जाए, बस स्टौप तक आतीआती वह बुरी तरह हांफने लगी थी.

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एक घड़ी औरत : भाग 2- क्यों एक घड़ी बनकर रह गई थी प्रिया की जिंदगी

बाद में किसी न किसी बहाने नरेश औफिस में आते रहे. प्रिया को बहुत जल्दी एहसास हो गया कि महाशय के दिल में कुछ और है. एक दिन वह शाम को औफिस से बाहर निकल रही थी कि नरेश अपने स्कूटर पर आते नजर आए. पहले तो वह मुसकरा दी पर दूसरे ही क्षण वह सावधान हो गई कि अजनबी आदमी से यों सरेराह हंसतेमुसकराते मिलना ठीक नहीं है.

‘अगर बहुत जल्दी न हो आप को, तो मैं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठ कर आप से एक बात करना चाहता हूं,’ नरेश ने पास आ कर कहा.

प्रिया इनकार नहीं कर पाई. उन के साथ रेस्तरां की तरफ चल दी. वेटर को 1-1 डोसा व कौफी का और्डर दे कर नरेश प्रिया से बोले, ‘भूख लगी है, आज सुबह से वक्त नहीं मिला खाने का.’

वह जानती थी कि यह सब असली बात को कहने की भूमिका है. वह चुप रही. नरेश उसे भी बहुत पसंद आए थे… काली घनी मूंछें, लंबा कद और चेहरे पर हर वक्त झलकता आत्मविश्वास…

‘टीवी में एक विज्ञापन आता है, हम कमाते क्यों हैं? खाने के लिए,’ प्रिया हंसी और बोली, ‘कितनी अजीब बात है, वहां विज्ञापन में उस बेचारे का खाना बौस खा जाता है और यहां वक्त नहीं खाने देता.’

‘हां प्रिया, सचमुच वक्त ही तो हमारा सब से बड़ा बौस है,’ नरेश हंसे. फिर जब तक डोसा और कौफी आते तब तक नरेश ने पानी पी कर कहना शुरू किया, ‘अपनी बात कहने से मुझे भी कहीं देर न हो जाए, इसलिए मैं ने आज तय किया कि अपनी बात तुम से कह ही डालूं.’

प्रिया समझ गई थी कि नरेश उस से क्या कहना चाहते हैं, पर सिर झुकाए चुपचाप बैठी रही.

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‘वैसे तो तुम किसी न किसी से शादी करोगी ही, प्रिया, क्या वह व्यक्ति मैं हो सकता हूं? कोई जोरजबरदस्ती नहीं है. अगर तुम ने किसी और के बारे में तय कर रखा हो तो मैं सहर्ष रास्ते से हट जाऊंगा. और अगर तुम्हारे मांबाप तुम्हारी पसंद को स्वीकार कर लें तो मैं तुम्हें अपनी जिंदगी का हमसफर बनाना चाहता हूं.’

प्रिया चुप रही. इसी बीच डोसा व कौफी आ गई. नरेश उस के घरपरिवार के बारे में पूछते रहे, वह बताती रही. उस ने नरेश के बारे में जो पूछा, वह नरेश ने भी बता दिया.

जब नरेश के साथ वह रेस्तरां से बाहर निकली तो एक बार फिर नरेश ने उस की ओर आशाभरी नजरों से ताका, ‘तुम ने मेरे प्रस्ताव के बारे में कोईर् जवाब नहीं दिया, प्रिया?’

‘अपने मांबाप से पूछूंगी. अगर वे राजी होंगे तभी आप की बात मान सकूंगी.’

‘मैं आप की राय जानना चाहता हूं.’ सहसा एक दूरी उन के बीच आ गई.

‘क्यों एक लड़की को सबकुछ कहने के लिए विवश कर रहे हैं?’ वह लजा गई, ‘हर बात कहनी जरूरी तो नहीं होती.’

‘धन्यवाद, प्रिया,’ कह कर नरेश ने स्कूटर स्टार्ट कर दिया, ‘चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

उस के बाद जैसे सबकुछ पलक झपकते हो गया. उस ने अपने घर जा कर मातापिता से बात की तो वे नाराज हुए. रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. जाति बाधा बन गई. वह उदास मन से जब वापस लौटने लगी तो पिता उसे स्टेशन तक छोड़ने आए, ‘तुम्हें वह लड़का हर तरह से ठीक लगता है?’ उन्होंने पूछा.

प्रिया ने सिर्फसिर ‘हां’ में हिलाया. पिता कुछ देर सोचते रहे. जब गाड़ी चलने को हुई तो किसी तरह गले में फंसे अवरोध को साफ करते हुए बोले, ‘बिरादरी में हमारी नाक कट जाएगी और कुछ नहीं प्रिया. वैसे, तुम खुद अब समझदार हो, अपना भलाबुरा स्वयं समझ सकती हो. बाद में कहीं कोई धोखा हुआ तो हमें दोष मत देना.’

मातापिता इस शादी से खुश नहीं थे, इसलिए प्रिया ने उन से आर्थिक सहायता भी नहीं ली. नरेश ने भी अपने मातापिता से कोई आर्थिक सहायता नहीं ली. दोनों ने शादी कर ली. शादी में मांबाप शामिल जरूर हुए पर अतिथि की तरह.

विवाह कर घर बसाने के लिए अपनी सारी जमापूंजी खर्च करने के बाद भी दोनों को अपने मित्रोंसहेलियों से कुछ उधार लेना पड़ा था. उसे चुका कर वे निबटे ही थे कि पहला बच्चा आ गया. उस के आने से न केवल खर्चे बढ़े, कुछ समय के लिए प्रिया को अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी. जब दूसरी कंपनी में आई तो उसे पहले जैसी सुविधाएं नहीं मिलीं.

नरेश की भागदौड़ और अधिक बढ़ गई थी. घर का खर्च चलाने के लिए वे दिनरात काम में जुटे रहने लगे थे.

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‘मैं ने एक फ्लैट देखा है, प्रिया’ एक दिन नरेश ने अचानक कहा, ‘नया बना है, तीसरी मंजिल पर है.’

‘पैसा कहां से आएगा?’ प्रिया नरेश की बात से खुश नहीं हुई. जानती थी कि फ्लैट जैसी महंगी चीज की कल्पना करना सपना है. पर दूसरे बच्चे की मां बनतेबनते प्रिया ने अपनेआप को सचमुच एक नए फ्लैट में पाया, जिस की कुछ कीमत चुकाई जा चुकी थी पर अधिकांश की अधिक ब्याज पर किस्तें बनी थीं, जिन्हें दोनों अब तक लगातार चुकाते आ रहे थे.

उस की नई बनी सहेली ने प्रिया का परिचय एक दिन शीला से कराया, ‘नगर की कलामर्मज्ञा हैं शीलाजी,’ सहेली ने आगे कहा, ‘अपने मकान के बाहर के 2 कमरों में कलादीर्घा स्थापित की है. आजकल चित्रकारी का फैशन है. इन दिनों हर कोईर् आधुनिक बनने की होड़ में नएपुराने, प्रसिद्ध और कम जानेमाने चित्रकारों के चित्र खरीद कर अपने घरों में लगा रहे हैं. 1-1 चित्र की कीमत हजारों रुपए होती है. तू भी तो कभी चित्रकारी करती थी. अपने बनाए चित्र शीलाजी को दिखाना. शायद ये अपनी कलादीर्घा के लिए उन्हें चुन लें. और अगर इन्होंने कहीं उन की प्रदर्शनी लगा दी तो तेरा न केवल नाम होगा, बल्कि इनाम भी मिलेगा.’

प्रिया शरमा गई, ‘मुझे चित्रकारी बहुत नहीं आती. बस, ऐसे ही जो मन में आया, उलटेसीधे चित्र बना देती थी. न तो मैं ने इस के विषय में कहीं से शिक्षा ली है और न ही किसी नामी चित्रकार से इस कला की बारीकियां जानीसमझी हैं.’

लेकिन वह सचमुच उस वक्त चकित रह गई जब शीलाजी ने बिना हिचक प्रिया के घर चल कर चित्रों को देखना स्वीकार कर लिया. थोड़ी ही देर में तीनों प्रिया के घर पहुंचीं.

2 सूटकेसों में पोलिथीन की बड़ीबड़ी थैलियों में ठीक से पैक कर के रखे अपने सारे चित्रों को प्रिया ने उस दिन शीलाजी के सामने पलंग पर पसार दिए. वे देर तक अपनी पैनी नजरों से उन्हें देखती रहीं, फिर बोलीं, ‘अमृता शेरगिल से प्रभावित लगती हो तुम?’

प्रिया के लिए अमृता शेरगिल का नाम ही अनसुना था. वह हैरान सी उन की तरफ ताकती रही.

‘अब चित्रकारी करना बंद कर दिया है क्या?’

‘हां, अब तो बस 3 चीजें याद रह गई हैं, नून, तेल और लकड़ी,’ हंसते वक्त उसे लगा जैसे वह रो पड़ेगी.

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रंग जीवन में नया आयो रे: भाग 2- क्यों परिवार की जिम्मेदारियों में उलझी थी टुलकी

लेखिका- विमला भंडारी

‘आप को उड़ती हुई पतंग देखना अच्छा लगता है, सिस्टर?’

मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और उस को देखती रही कि वह आगे कुछ बोले, पर जब चुप रही तो मैं ने पूछ लिया, ‘क्यों, क्या हुआ?’

वह चुप रही. मन में कुछ तौलती रही कि मुझ से कहे या न कहे. मैं उसे इस स्थिति में देख प्रोत्साहित करते हुए बोली, ‘तुझे पतंग चाहिए?’

उस ने ‘न’ में गरदन हिलाई तो मैं झुंझलाते हुए बोली, ‘तो फिर क्या है?’

वह सहम गई. धीरे से बोली, ‘कुछ नहीं, सिस्टर?’ और जाने को मुड़ी.

‘कुछ कैसे नहीं, कुछ तो है, बता?’ चादर एक तरफ फेंकते हुए मैं उस का हाथ पकड़ कर रोकते हुए बोली.

‘सिस्टर, मैं शाम को छत पर पतंग देख रही थी तो पिताजी ने गुस्से में मेरे बाल खींच लिए. कहने लगे कि नाक कटानी है क्या? लड़की जात है, चल, नीचे उतर. सिस्टर, क्या पतंग देखना बुरी बात है?’

मैं ने बात की तह में जाते हुए पूछ लिया, ‘छत पर तुम्हारे साथ कौन था?’

‘कोई नहीं,’ टुलकी की मासूम आंखें सचाई का प्रमाण दे रही थीं.

‘और पड़ोस की छत पर?’ मैं तहकीकात करते हुए आगे बोली.

‘वहां 2 लड़के थे सिस्टर, पर मैं उन्हें नहीं जानती.’

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बस, बात मेरी समझ में आ गई थी कि टुलकी को डांट क्यों पड़ी. सोचने लगी, ‘छोटी सी अबोध बच्ची पर इतनी पाबंदी. पर मैं कर ही क्या सकती हूं?’

टुलकी के पिता पुलिस में सबइंस्पैक्टर थे, सो रोब तो उन के चेहरे व  आवाज में समाया ही रहता था. अपनी बेटियों से भी वह पुलिसिया अंदाज में पेश आते थे. जरा सी भी गलती हुई नहीं कि टुलकी के गालों पर पिताजी की उंगलियों के निशान उभर आते.

एक दिन अचानक टुलकी के पिता की कर्कश आवाज सुनाई दी, ‘मेरी जान खाने को चारचार बेटियां जन दीं निपूती ने, एक भी बेटा पैदा नहीं किया. सारी उम्र हड्डियां तोड़तोड़ कर दहेज जुटाता रहूंगा और बुढ़ापे में ये सब चल देंगी अपने घर. कोई भी सेवा करने वाला नहीं होगा.’

मारपीट और चीखचिल्लाहट की आवाजें आ रही थीं. मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार खड़ी थी पर वह सब सुन कर मुझ से नहीं रहा गया. बाहर निकल कर देखा कि टुलकी भय से थरथर कांपती हुई दीवार से सट कर खड़ी है.

‘इंस्पैक्टर साहब, आप भी क्या बात करते हैं. बेटियां जनी हैं तो इस में नीरा भाभी का क्या दोष?’ एक नजर कलाई पर बंधी घड़ी की ओर फेंकते हुए मैं

ने कहा.

मुझे देख वे जरा संयमित हुए. चेहरे पर छलक आए पसीने को पोंछते हुए बोले, ‘अब आप ही बताओ सिस्टर, चारचार बेटियों का दहेज कहां से जुटा पाऊंगा?’

‘अब कह रहे हैं यह सब. आप को पहले मालूम नहीं था जो चारचार बेटियों की लाइन लगा दी?’

मेरे कहने पर वे थोड़ा झुंझलाए. फिर कुछ कहने ही वाले थे कि मैं फिर घुड़कते हुए बोली, ‘आप अकेले तो नहीं कमा रहे, नीरा भाभी भी तो कमा रही हैं.’

‘कमा रही है तो रोब मार रही है. घर का कुछ खयाल नहीं करती. उस छोटी सी लड़की पर पूरे घर का बोझ डाल दिया है.’

‘नौकरी और घरगृहस्थी ने तो भाभी को निचोड़ ही लिया है. अब उन में जान ही कितनी बची है जो आप उन से और ज्यादा काम की उम्मीद करते हैं.’

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वे दुखी स्वर में बोले, ‘सिस्टर, आप भी मुझे ही दोष दे रही हैं. देखो, टुलकी का प्रगतिपत्र,’ टुलकी का प्रगतिपत्र आगे करते हुए बोले, ‘सब विषयों में फेल है.’

‘इंस्पैक्टर साहब, आप ही थोड़ा जल्दी उठ कर टुलकी को पढ़ा क्यों नहीं देते?’

‘जा री टुलकी, सिस्टर के लिए चाय बना ला,’ वे ऊंचे स्वर में बोले.

‘देखो सिस्टर, सारा दिन ये खुद ही लड़की से काम करवाते रहते हैं और दोष मुझे देते हैं,’ साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछते हुए नीरा भाभी रसोई की ओर बढ़ते हुए बोलीं तो मुझे एकाएक ध्यान आया कि इस पूरे प्रकरण में मुझे 10 मिनट की देर हो गई है. मैं उसी क्षण अस्पताल की ओर चल पड़ी.

उस दिन के बाद से इंस्पैक्टर साहब रोज सुबह टुलकी को पढ़ाने लगे पर उस का पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था. उस का ध्यान बराबर घर में हो रहे कामकाज व छोटी बहनों पर लगा रहता. उस के पिता उत्तेजित हो जाते और टुलकी सबकुछ भूल जाती और प्रश्नों के उत्तर गलत बता देती.

टुलकी की शिकायतें अकसर स्कूल से भी आती रहती थीं, कभी समय से स्कूल न पहुंचने पर तो कभी गृहकार्य पूरा न करने पर. ऐसे में टुलकी का अध्यापिका द्वारा दंडित होना तो स्वाभाविक था ही, साथ ही अब घर में भी उसे मार पड़ने लगी. मैं सोचती रह जाती, ‘नन्ही सी जान कैसे सह लेती है इतनी मार.’ पर देखती, टुलकी इस से जरा भी विचलित न होती, मानो दंड सहने की आदत पड़ गई हो.

टुलकी की परीक्षाएं नजदीक थीं. सो, नीरा भाभी छुट्टियां ले कर घर रहने लगीं. अब उस की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा.

मातापिता के इस एक माह के प्रयास के कारण टुलकी जैसेतैसे पास हो गई.

एक दिन टुलकी के भाई का जन्म हुआ जो उस के लिए बेहद प्रसन्नता का विषय था. इस से पहले मैं ने कभी टुलकी को इस तरह प्रफुल्लित हो कर चौकडि़यां भरते नहीं देखा था.

मुझे मिठाई का डब्बा देते हुए बोली, ‘जब हम सब चली जाएंगी तब भैया ही मातापिता की सेवा करेगा.’

मैं ने ऐसे ही बेखयाली में पूछ लिया था, ‘कहां चली जाओगी?’

‘ससुराल और कहां,’ मुझे अचरज से देखती टुलकी बोली.

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उस के छोटे से मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर उस समय तो मुझे बहुत हंसी आई थी पर अब उसी टुलकी के विवाह का कार्ड देखा तो मन की राहों से उस का मासूम, बोझिल बचपन गुजरता चला गया.

फिर शीघ्र ही मेरा वहां से तबादला हो गया था. अस्पताल की भागदौड़ में अनेक अविस्मरणीय घटनाएं अकसर घटती ही रहती हैं. मैं तो टुलकी को

लगभग भूल ही चुकी थी. किंतु जब उस ने मुझे याद किया और इतने मनुहार से पत्र लिखा तो हृदय की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. सोचा, ‘मैं जरूर उस की शादी में जाऊंगी.’

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यह क्या हो गया: भाग 3- नीता की जिद ने जब तोड़ दिया परिवार

एक हफ्ते बाद भी उन का दर्द ठीक नहीं हुआ है. तुम बच्चों क मांपिताजी के पास छोड़ कर कुछ दिनों के लिए आ जाओ.’’

लतिका ने चिढ़ कर कहा, ‘‘जो इंसान मेरी बात नहीं मानता, मैं उस की चिंता क्यों करूं, तुम ही बताओ? क्या मैं गलत कहती हूं? क्या हमारा हिस्सा नहीं है पिताजी के मकान में?’’

‘‘लेकिन जीजाजी ऐसी बातें करने वाले इंसान नहीं हैं दीदी, अपने परिवार से प्यार करना बुरी बात तो नहीं.’’

‘‘वन्या, तुम छोटी हो, मुझे उपदेश देने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर लतिका ने फोन रख दिया. 10-15 दिन बाद भी शेखर के दर्द में कमी नहीं आईर्. प्रणव फिर उन्हें डाक्टर के पास ले कर गए. शेखर तो लगातार छुट्टी पर ही थे. कुछ और टैस्ट हुए. अब की बार रिपोर्ट्स आईं तो सब का दिल दहल गया. शेखर को स्पाइन का कैंसर था जो कमर के निचले हिस्से से सिर के पीछे के हिस्से तक फैल चुका था, और रीढ़ की हड्डी को 65 प्रतिशत नुकसान पहुंचा चुका था. सब एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. स्वभाव से शांत और नरम शेखर ने अपनी स्थिति को बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया. औफिस के और लोग भी थे. वे सब से सामान्य रूप से बातचीत करते रहे, जैसे कुछ हुआ ही न हो उन्हें. उन्हें इतना सामान्य देख कर सब के दिलों में उन के लिए इज्जत और भी बढ़ गई. कमर में दर्द तो उन्हें कई बार होता था लेकिन वे इसे अपने काम का टूरिंग जौब और बढ़ती उम्र का प्रैशर समझ लेते थे. अब और दवाएं तुरंत शुरू हो गईं और कीमोथेरैपी शुरू होेने वाली थी. उन्होंने औफिस से लंबी छुट्टी ले ली थी. उन के बौस आनंद कपूर भी उन का बहुत साथ दे रहे थे. उन्होंने कह दिया था, ‘‘बस, तुम आराम करो, अपना इलाज करवाओ और अब अपनी फैमिली को बुला लो तो ठीक रहेगा, तुम्हें आराम मिलेगा.’’

बहुत सोचसमझ कर शेखर ने तन्वी को फोन किया, ‘‘बेटा, अगर हो सके तो 3-4 दिन की छुट्टी ले कर मुंबई आ जाओ.’’

तन्वी घबरा गई, ‘‘पापा, आप ठीक तो हैं न?’’

‘‘हां ठीक हूं, बस तुम लोगों को देखने का मन कर रहा है. तीनों आ जाओ.’’

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तन्वी को पिता के स्वर की उदासी कुछ खटकी. उस ने लतिका से कहा, ‘‘मम्मी, पापा की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हम तीनों मुंबई चलते हैं.’’

‘‘नहीं, मुझे नहीं जाना.’’

तन्वी हैरानी से बोली, ‘‘आप कैसी बात कर रही हैं, आप को पापा की चिंता नहीं हो रही है?’’

‘‘जो भी समझो, तुम दोनों को जाना हो तो चले जाओ, मुझे नहीं जाना.’’ तन्वी गुस्से में फिर कुछ नहीं बोली और छुट्टी ले कर सौरभ के साथ मुंबई पहुंच गई. शेखर की हालत देख कर दोनों बच्चे उन के सीने से लग कर फफक पड़े. संध्या वहीं काम कर रही थी. उसे शेखर की बीमारी के बारे में पता था. उस की भी आंखें भर आईं. शेखर से न लेटा जा रहा था, न बैठा. वे बस सोफे पर तकिया रख कर अधलेटे से बैठे रहते थे. रात को भी उसी स्थिति में सोते थे. पिता की हालत देख कर दोनों बच्चे बहुत दुखी हुए. शेखर ने बच्चों को अपने पास बिठा कर अपनी बीमारी के  बारे में बताते हुए कहा, ‘‘मैं तुम लोगों को दुखी नहीं देख पाऊंगा. इलाज शुरू हो ही चुका है. आजकल तो हर बीमारी का इलाज है,’’ यह कहते हुए शेखर हलके से मुसकरा दिए. बच्चों ने हौसला रखते हुए खुद को संभाला, सौरभ ने कहा, ‘‘हां पापा, आप जरूर ठीक हो जाएंगे. अब हम यहीं रहेंगे, आप के पास.’’

शेखर ने कहा, ‘‘नहीं, तुम दोनों अपने काम का नुकसान नहीं करोगे.’’

तन्वी ने कहा, ‘‘पापा, आप का ध्यान रखने से बढ़ कर हमारे लिए और कोई काम जरूरी नहीं है. आप की देखरेख इस समय हमारा सब से पहला काम है.’’

शेखर ने कहा, ‘‘बस मां, पिताजी और चाचू को कुछ मत बताना.’’

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‘‘ठीक है, पापा, मैं फिर मां को आने के लिए कहती हूं.’’

शेखर ने ‘हां’ में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘कह दो.’’ शेखर के दिल में एक आस थी कि शायद उन की बीमारी की बात सुन कर लतिका अपनी जिद, अहं, लालच छोड़ कर फौरन चली आएगी. लतिका ने सारी बात सुन कर तन्वी से कहा, ‘‘उन्हें मेरी जरूरत नहीं है. अगर होती तो इतने दिनों में भी क्या मेरी बात पर ध्यान नहीं देते. अपने परिवार के लिए हमेशा मेरी बात अनसुनी की है. अब उन सब को ही बुलाएं, मुझे क्यों बुला रहे हैं.’’ लतिका ने क्या कहा होगा, तन्वी  का चेहरा देख कर ही शेखर जान गए. फिर वे बहुत देर तक कुछ नहीं बोले.

तन्वी ने कहा, ‘‘सौरभ, हम दोनों में से  कोई एक यहां पापा के पास रहेगा, अभी मैं ने अपने बौस को फोन पर सब बताया है. उन्होंने मुझे घर से ही काम करने की परमिशन दे दी है. अभी तो मैं यहां रहूंगी. तुम चले जाओ. कालेज की छुट्टी होते ही तुम आ जाना. फिर मैं चली जाऊंगी. हम सब मैनेज कर लेंगे.’’ शेखर को अपने बच्चों पर बहुत प्यार आया. तन्वी ने फोन पर वन्या को सब बताया तो वह आकाश के साथ फौरन आ गई. आ कर शेखर के पास बैठ कर रोने लगी, ‘‘दीदी के व्यवहार पर शर्मिंदा हूं मैं जीजाजी, हैरान हूं उन के स्वभाव पर. इस समय भी इतनी जिद और गुस्सा.’’

शेखर ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने बहुत कोशिश की पर उस की सोच को बदल नहीं पाया. अगर मैं अपने मातापिता, भाई और उस के परिवार को अपने से अलग नहीं देख सकता तो क्या मेरी गलती है यह? मेरा भाई जिस की नईनई नौकरी है, जो अभी आर्थिक रूप से बहुत मजबूत नहीं है उस पर मैं घर के बंटवारे का दबाव कैसे डालूं. मैं यह सब नहीं कर सकता. और लतिका को मैं ने कभी कोई कमी कहां होने दी पर उस का लालच समय के साथ बढ़ता ही चला गया. और अब मुझे नहीं पता मैं कितने दिन जिऊंगा. तो क्या मैं अब अपने मातापिता को दुखी करूंगा, हिस्से की बात छेड़ कर. यह तो मुझ से कभी नहीं हो पाएगा,’’ शेखर का स्वर भरा र् गया. वहां बैठा हर व्यक्ति दुखी हो गया. शेखर की कीमोथैरेपी का पहला दिन था. प्रणव की कार से ही शेखर, वन्या और तन्वी हौस्पिटल पहुंचे. सौरभ को तन्वी ने भेज दिया था. डाक्टर से बात कर के प्रणव ने कीमो का दिन शनिवार का रखवाया था ताकि वह शेखर के साथ रह सके. उन्हें हौस्पिटल आनेजाने में परेशानी न हो. प्राइवेट रूम बुक कर लिया गया था. नर्स ने शेखर के कपड़े बदलवा कर इंजैक्शन देने की तैयारी शुरू कर दी थी. अपने मन की घबराहट पर काबू पाने के लिए तन्वी ने बाहर पड़ी बैंच पर बैठ कर अपना लैपटौप खोल लिया था. शेखर बैड पर लेट चुके थे. नर्स डाक्टर के आने का इंतजार कर रही थी. शेखर बिलकुल चुप थे. प्रणव बाहर रखी एक दूसरी बैंच पर बैठा तो वन्या वहीं बैठती हुई बोली, ‘‘आप लोगों का बड़ा सहारा है जीजाजी को.’’

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