रूह का स्पंदन: भाग 3- क्या था दीक्षा ने के जीवन की हकीकत

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

अचानक सुदेश की नजर दक्षा पर पड़ी तो दोनों की नजरें मिलीं. ऐसा लगा, दोनों एकदूसरे को सालों से जानते हों और अचानक मिले हों. दोनों के चेहरों पर खुशी छलक उठी थी.

खातेपीते दोनों के बीच तमाम बातें हुईं. अब वह घड़ी आ गई, जब दक्षा अपने जीवन से जुड़ी महत्त्वपूर्ण बातें उस से कहने जा रही थी. वहां से उठ कर दोनों एक पार्क में आ गए थे, जहां दोनों कोने में पेड़ों की आड़ में रखी एक बेंच पर बैठ गए. दक्षा ने बात शुरू की, ‘‘मेरे पापा नहीं हैं, सुदेश. ज्यादातर लोगों से मैं यही कहती हूं कि अब वह इस दुनिया में नहीं है, पर यह सच नहीं है. हकीकत कुछ और ही है.’’

इतना कह कर दक्षा रुकी. सुदेश अपलक उसे ही ताक रहा था. उस के मन में हकीकत जानने की उत्सुकता भी थी. लंबी सांस ले कर दक्षा ने आगे कहा, ‘‘जब मैं मम्मी के पेट में थी, तब मेरे पापा किसी और औरत के लिए मेरी मम्मी को छोड़ कर उस के साथ रहने के लिए चले गए थे.

‘‘लेकिन अभी तक मम्मीपापा के बीच डिवोर्स नहीं हुआ है. घर वालों ने मम्मी से यह कह कर उन्हें अबार्शन कराने की सलाह दी थी कि उस आदमी का खून भी उसी जैसा होगा. इस से अच्छा यही होगा कि इस से छुटकारा पा कर दूसरी शादी कर लो.’’

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दक्षा के यह कहते ही सुदेश ने उस की तरफ गौर से देखा तो वह चुप हो गई. पर अभी उस की बात पूरी नहीं हुई थी, इसलिए उस ने नजरें झुका कर आगे कहा, ‘‘पर मम्मी ने सभी का विरोध करते हुए कहा कि जो कुछ भी हुआ, उस में पेट में पल रहे इस बच्चे का क्या दोष है. यानी उन्होंने गर्भपात नहीं कराया. मेरे पैदा होने के बाद शुरू में कुछ ही लोगों ने मम्मी का साथ दिया. मैं जैसेजैसे बड़ी होती गई, वैसेवैसे सब शांत होता गया.

‘‘मेरा पालनपोषण एक बेटे की तरह हुआ. अगलबगल की परिस्थितियां, जिन का अकेले मैं ने सामना किया है, उस का मेरी वाणी और व्यवहार में खासा प्रभाव है. मैं ने सही और गलत का खुद निर्णय लेना सीखा है. ठोकर खा कर गिरी हूं तो खुद खड़ी होना सीखा है.’’

अपनी पलकों को झपकाते हुए दक्षा आगे बोली, ‘‘संक्षेप में अपनी यह इमोशनल कहानी सुना कर मैं आप से किसी तरह की सांत्वना नहीं पाना चाहती, पर कोई भी फैसला लेने से पहले मैं ने यह सब बता देना जरूरी समझा.

‘‘कल कोई दूसरा आप से यह कहे कि लड़की बिना बाप के पलीबढ़ी है, तब कम से कम आप को यह तो नहीं लगेगा कि आप के साथ धोखा हुआ है. मैं ने आप से जो कहा है, इस के बारे में आप आराम से घर में चर्चा कर लें. फिर सोचसमझ कर जवाब दीजिएगा.’’

सुदेश दक्षा की खुद्दारी देखता रह गया. कोई मन का इतना साफ कैसे हो सकता है, उस की समझ में नहीं आ रहा था. अब तक दोनों को भूख लग आई थी. सुदेश दक्षा को साथ ले कर नजदीक की एक कौफी शौप में गया. कौफी का और्डर दे कर दोनों बातें करने लगे तभी अचानक दक्षा ने पूछा था, ‘‘डू यू बिलीव इन वाइब्स?’’

सुदेश क्षण भर के लिए स्थिर हो गया. ऐसी किसी बात की उस ने अपेक्षा नहीं की थी. खासकर इस बारे में, जिस में वह पूरी तरह से भरोसा करता हो. वाइब्स अलौकिक अनुभव होता है, जिस में घड़ी के छठें भाग में आप के मन को अच्छेबुरे का अनुभव होता है. किस से बात की जाए, कहां जाया जाए, बिना किसी वजह के आनंद न आए और इस का उलटा एकदम अंजान व्यक्ति या जगह की ओर मन आकर्षित हो तो यह आप के मन का वाइब्स है.

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यह कभी गलत नहीं होता. आप का अंत:करण आप को हमेशा सच्चा रास्ता सुझाता है. दक्षा के सवाल को सुन कर सुदेश ने जीवन में एक चांस लेने का निश्चय किया. वह जो दांव फेंकने जा रहा था, अगर उलटा पड़ जाता तो दक्षा तुरंत मना कर के जा सकती थी. क्योंकि अब तक की बातचीत से यह जाहिर हो गया था. पर अगर सब ठीक हो गया तो सुदेश का बेड़ा पार हो जाएगा.

सुदेश ने बेहिचक दक्षा से उस का हाथ पकड़ने की अनुमति मांगी. दक्षा के हावभाव बदल गए. सुदेश की आंखों में झांकते हुए वह यह जानने की कोशिश करने लगी कि क्या सोच कर उस ने ऐसा करने का साहस किया है. पर उस की आंखो में भोलेपन के अलावा कुछ दिखाई नहीं दिया. अपने स्वभाव के विरुद्ध उस ने सुदेश को अपना हाथ पकड़ने की अनुमति दे दी.

दोनों के हाथ मिलते ही उन के रोमरोम में इस तरह का भाव पैदा हो गया, जैसे वे एकदूसरे को जन्मजन्मांतर से जानते हों. दोनों अनिमेष नजरों से एकदूसरे को देखते रहे. लगभग 5 मिनट बाद निर्मल हंसी के साथ दोनों ने एकदूसरे का हाथ छोड़ा. दोनों जो बात शब्दों में नहीं कह सके, वह स्पर्श से व्यक्त हो गई.

जाने से पहले सुदेश सिर्फ इतना ही कह सका, ‘‘तुम जो भी हो, जैसी भी हो, किसी भी प्रकार के बदलाव की अपेक्षा किए बगैर मुझे स्वीकार हो. रही बात तुम्हारे पिछले जीवन के बारे में तो वह इस से भी बुरा होता तब भी मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता. बाकी अपने घर वालों को मैं जानता हूं. वे लोग तुम्हें मुझ से भी अधिक प्यार करेंगे. मैं वचन देता हूं कि बचपन से ले कर अब तक अधूरे रह गए सपनों को मैं हकीकत का रंग देने की कोशिश करूंगा.’’

सुदेश और दक्षा के वाइब्स ने एकदूसरे से संबंध जोड़ने की मंजूरी दे दी थी.

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आशा की नई किरण: भाग 1- कौनसा मानसिक कष्ट झेल रहा था पीयूष

स्वाति के मन में खुशी की लहर दौड़ रही थी. महीना चढ़े आज 15 दिन हो गए थे और अब तो उसे उबकाई भी आने लगी थी. खट्टा खाने का मन करने लगा था. वह खुशी से झूम रही थी. पर वह पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहती थी. इतनी जल्दी इस राज को वह किसी पर प्रकट नहीं करना चाहती थी, खासकर पति के ऊपर. 15 दिन और बीत गए. दूसरा महीना भी निकल गया. अब वह पूरी तरह आश्वस्त थी. वह सचमुच गर्भवती थी. शादी के 10 वर्षों बाद वह मां बनने वाली थी, परंतु मां बनने के लिए उस ने क्याक्या खोया, यह केवल वही जानती थी. अभी तक उस के पति को भी मालूम नहीं था. पता चलेगा तो कैसा तूफान उस के जीवन में आएगा इस का अनुमान तो वह लगा सकती थी, लेकिन मां बनने के लिए वह किसी भी तूफान का सामना करने के लिए चट्टान की तरह खड़ी रह सकती थी. इस के लिए वह हर प्रकार का त्याग करने को तैयार थी. 10 वर्ष के विवाहित जीवन में बहुत कष्ट उस ने सहे थे. बांझ न होते हुए भी उस ने बांझ होने का दंश झेला था, सास की जलीकटी सुनी थीं, मातृत्वसुख से वंचित रहने का एहसास खोया था. आज वह उन सभी कष्टों, दुखों, व्यंग्यभरे तानों और उलाहनों को अपने शरीर से चिपके घिनौने कीड़ों की तरह झटक कर दूर कर देना चाहती थी, लोगों के मुंह बंद कर देना चाहती थी. वह सास के चेहरे पर खुशी की झलक देखना चाहती थी और पति…

पति को याद करते हुए उस के मन को झटका लगा, दिल में एक कड़वी सी कसक पैदा हुई, परंतु फिर उस के सुंदर मुखड़े पर एक व्यंग्यात्मक हंसी दौड़ गई. अपने होंठों को अपने दांतों से हलके से काटते हुए उस ने सोचा, पता नहीं उन को कैसा लगेगा? उन के दिल पर क्या गुजरेगी, जब उन को पता चलेगा कि मैं मां बनने वाली हूं. हां, मां, परंतु किस के बच्चे की मां? क्या पीयूष इस सत्य को आसानी से स्वीकार कर लेंगे कि वह मां बनने वाली है. उन के दिमाग में धमाका नहीं होगा, उन का दिल नहीं फट जाएगा? क्या वे यह पूछने का साहस कर पाएंगे कि स्वाति के पेट में किस का बच्चा पल रहा है या वे अपने दिल और दिमाग के दरवाजे बंद कर के अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए एक चुप्पी साध लेंगे? कुछ भी हो सकता है. परंतु स्वाति उस के बारे में चिंतित नहीं थी.

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उस ने बहुत सोचसमझ कर इतना बड़ा कदम उठाया था. मातृत्वसुख प्राप्त कर के अपने माथे से बांझपन का कलंक मिटाने के लिए उस ने परंपराओं का अतिक्रमण किया था और मर्यादा का उल्लंघन किया था. परंतु उस ने जो कुछ किया था, बहुत सोचसमझ कर किया था. शादी के वक्त स्वाति एक टीवी चैनल में न्यूजरीडर और एंकर थी. वह अपनी रुचि के अनुसार काम कर रही थी, परंतु शादी के पहले ही पीयूष की मम्मी ने कह दिया था कि शादी के बाद वह काम नहीं करेगी. मन मार कर उस ने यह शर्त मंजूर कर ली थी. पीयूष ने एमबीए किया था. एमबीए पूरा होते ही वह अपने पिता के साथ उन के व्यापार में हाथ बंटाने लगा था. उन्हीं दिनों उस के पिता की असामयिक मौत हो गई. उस के बाद उस ने अपने पिता का कारोबार संभाल लिया. उन दोनों की शादी के समय पीयूष के पिता जीवित नहीं थे.

दोनों की शादी धूमधाम से संपन्न हुई. स्वाति भी खुश थी कि उस को अपने सपनों का राजकुमार मिल गया. परंतु सुहागरात को ही उस की खुशियों पर तुषारापात हो गया, उस के अरमान बिखर गए और सपनों के पंख टूट गए. सुहागरात में दोनों का मिलन स्वाति के लिए बहुत दुखद रहा. पीयूष ने जैसे ही उड़ान भरी कि धड़ाम से जमीन पर आ गिरा, जैसे उड़ान भरने के पहले ही किसी ने पक्षी के पर काट दिए हों. वह लुढ़क कर लंबीलंबी सांसें लेने लगा. स्वाति का हृदय दहल गया. मन में एक डर बैठ गया, अगर ऐसा है तो दांपत्य जीवन कैसे पार होगा? फिर उस ने अपने मन को तसल्ली देने की कोशिश की. हो सकता है, पहली बार के कारण ऐसा हुआ हो. उस ने कहीं पढ़ा था कि प्रथम मिलन में लड़के अत्यधिक उत्तेजना के कारण जल्दी स्खलित हो जाते हैं. यह असामान्य बात नहीं होती है. धीरेधीरे सब सामान्य हो जाता है. काश, ऐसा ही हो, स्वाति ने सोचा. परंतु स्वाति की शंका निर्मूल नहीं थी. उस की आशाओं के पंख किसी ने नोंच कर फेंक दिए. उस की सोच भी सत्य सिद्ध नहीं हुई. पीयूष के पंख सचमुच कटे हुए थे. वह बहुत लंबी उड़ान भर सकने में असमर्थ था. स्वाति अपने पर रोती, परंतु कुछ कर नहीं सकती थी. दांपत्य जीवन के बंधन इतने कड़े होते हैं कि कोई भी उन को तोड़ने का साहस नहीं कर सकता है. अगर तोड़ता है तो शरीर में कहीं न कहीं घाव हो जाता है. स्वाति के जीवन में खुशियों के फूल मुरझाने लगे थे, परंतु वह पढ़ीलिखी थी. उस ने आशा का दामन नहीं छोड़ा. आधुनिक युग विज्ञान का युग था, हर प्रकार के मर्ज का इलाज संभव था.

स्वाति के मन में पीड़ा थी परंतु ऊपर से वह बहुत खुश रहने का प्रयास करती थी. घर के सारे काम करती थी. सासूमां उस के व्यवहार व कार्यकुशलता से खु थीं, उस का पूरा खयाल रखतीं. स्वाति के साथ घर के कामों में हाथ बंटातीं. स्वाति कहती, ‘‘मांजी, अब आप के आराम करने के दिन हैं, क्यों मेरे साथ लगी रहती हैं. मैं कर लूंगी न सबकुछ.’’

‘‘तू सब कर लेती है, मैं जानती हूं परंतु मैं अपंग नहीं हूं. तेरे साथ काम करती हूं तो शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है. काम न करूंगी तो बीमार हो कर बिस्तर से लग जाऊंगी.’’

‘‘फिर भी कुछ देर आराम कर लिया कीजिए,’’ स्वाति सासूमां को समझाने का प्रयास करती.

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‘‘तेरे आने से मुझे आराम ही आराम है. बस, 1 पोता दे कर तू मुझे बचीखुची खुशियां दे दे तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा,’’ मांजी ने स्वाति की तरफ ममताभरी निगाह से देखा.

स्वाति के हृदय में कुछ टूट गया. मांजी की तरफ देखने का उसे साहस नहीं हुआ. सिर झुका कर अपने काम में व्यस्त हो गई. समय बीतने के साथसाथ सासूमां की स्वाति से पोते पैदा करने की अपेक्षाएं बढ़ने लगीं. दिन बीतते जा रहे थे. उसी अनुपात में सासूमां की पोते के प्रति चाहत भी बढ़ती जा रही थी. एक दिन उन्होंने कहा, ‘‘स्वाति बेटा, अब और कितना इंतजार करवाओगी? तुम लोग कुछ करते क्यों नहीं? क्या कोई सावधानी बरत रहे हो?’’ उन्होंने संदेहपूर्ण निगाहों से स्वाति को देखा. ‘‘कैसी सावधानी, मां?’’ स्वाति ने अनजान बनते हुए पूछा. वह अपनी तरफ से क्या कहती, उसे ऐसे पुरुष के साथ बांध दिया था जिस में पुरुषत्व की कमी थी. इस में न उस के घर वालों का दोष था, न ससुरालपक्ष के लोगों का? दोष था तो केवल पीयूष का, जिस ने सबकुछ जानते हुए भी शादी की. स्वाति अभी तक चुप थी. शर्म और संकोच की दीवार उस के मन में थी, परंतु अब इस दीवार को उसे तोड़ना ही होगा. पीयूष से इस बारे में उसे बात करनी होगी, परंतु इस तरीके से कि उस के अहं को ठेस न पहुंचे और वह बात की गंभीरता को समझ कर अपना इलाज करवाने के लिए तैयार हो जाए.

शादी की पहली वर्षगांठ बीत गई. कोई उत्साह उन के बीच में नहीं था. स्वाति कोई जश्न मनाना नहीं चाहती थी. पीयूष और मां दोनों की इच्छा थी कि घर में छोटामोटा जश्न मनाया जाए. केवल खास लोगों को बुलाया जाए परंतु स्वाति ने साफ मना कर दिया. वह लोगों की निगाहों में जगे हुए प्रश्नों की आग में तपना नहीं चाहती थी. अंत में पीयूष और स्वाति एक रेस्तरां में डिनर कर के लौट आए. उसी रात…स्वाति ने खुल कर बात की पीयूष से, ‘‘एक साल हो गया, अब हमें कुछ करना होगा. मम्मी की हम से कुछ अपेक्षाएं हैं.’’

पीयूष चौंका, परंतु बिना स्वाति की ओर करवट बदले पूछा, ‘‘कैसी अपेक्षाएं?’’

स्वाति मछली की तरह करवट बदल कर पीयूष की आंखों में देखती हुई बोली, ‘‘क्या आप नहीं जानते कि एक मां की बेटेबहू से क्या अपेक्षाएं होती हैं?’’

पीयूष की पलकें झुक गईं, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं?’’ उस ने हताश स्वर में कहा. स्वाति ने अपनी कोमल उंगलियों से उस के सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘आप निराशाजनक बातें क्यों कर रहे हैं. दुनिया में हर चीज संभव है, हर मर्ज का इलाज है और प्रत्येक समस्या का समाधान है.’’

पीयूष ने उस की आंखों में देखते हुए पूछा, ‘‘तुम क्या चाहती हो?’’

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संबंध : भाग 4- भैया-भाभी के लिए क्या रीना की सोच बदल पाई?

‘‘तो इस में घबराने की क्या बात है, मां? भेज दो उस के मायके. बड़े चालाक बनते हैं वे. अपनी बीमार बेटी तुम्हारे मत्थे मढ़ गए.’’

‘‘उन्होंने तो हवाई जहाज की टिकटें भी भेजी हैं पर अंजू खुद नहीं जा रही और सच पूछो तो मेरा भी मोह पड़ गया है उस में, इतनी प्यारी है वह.’’

‘‘तो ठीक है, करती रहो सेवा उस की.’’

और फिर एक बार भी पलट कर उस का हाल नहीं पूछा था मैं ने. वैसे भी इधर व्यवसाय के सिलसिले में अश्विनी काफी परेशान थे. कई जगह माल भेज कर पैसों की वसूली नहीं हो पा रही थी. एक दिन शाम को बहुत झल्लाए थे मेरे ऊपर.

‘‘रीना, क्या तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारी भाभी अस्पताल में हैं.’’

‘‘तो इस में नया क्या है?’’

‘‘क्या औपचारिकतावश उन का हाल नहीं पूछना चाहिए तुम्हें? अब वे घर आ गई हैं. चलो, मिल कर आते हैं. बीमार मनुष्य से यदि दो शब्द भी सहानुभूति के बोलो तो दुख बंट जाता है.’’

बेमन से मैं तैयार हो कर चल पड़ी थी. एक पल के लिए उन का पीला चेहरा देख कर तरस भी आया, पर न जाने दूसरे ही पल वह घृणा में क्यों बदल गया था. मैं मां से बतियाती रही. मां लगातार अंजू का ध्यान रख रही थीं और मैं कुढ़ रही थी. वातावरण को सामान्य बनाने के लिए मां बोली थीं, ‘‘रीना, अंजू का गाना सुनोगी?’’

मैं ने बेमन से ‘हां’ कहा. अंजू के प्रति छिपा तिरस्कार मां बखूबी पहचानती थीं. और तभी अंजू का गाना सुना. इतना मीठा स्वर मैं ने पहली बार सुना था. उन्होंने उस के कपड़े बदलवाए. उस की उंगलियां फिर मुड़ गई थीं. वह हमारे जाने से बहुत खुश होती थी. जितना मेरे पास आने का प्रयत्न करती मैं उसे मूक प्रताड़ना देती.

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अचानक अश्विनी अपने व्यवसाय की परेशानियां ले बैठे. अंजू सबकुछ चुपचाप सुनती रही. फिर भैया के साथ मिल कर उस ने बहुत मशविरे दिए. बाबूजी भी हतप्रभ से उस के सुझावों को सुन रहे थे. उस के सुझावों से अश्विनी को वाकई लाभ हुआ था. वह जब भी ठीक होती, भैया के साथ मेरे घर आती. गाड़ी में बैठ कर भैया के साथ कई बार दफ्तर जाती. बाबूजी तो अब वृद्ध हो गए थे. भैया दौरे पर चले जाते. वह फैक्टरी व दफ्तर अच्छी प्रकार संभाल लेती थी. 4 वर्ष के वैवाहिक जीवन में एक बार भी तो पलट कर मायके को न निहारा था उस ने. मेरी बिटिया को भी इतना प्यार करती कि कहना मुश्किल है. बाबूजी भी बेटी से ज्यादा स्नेह देते उसे. पर मैं उस वातावरण में घुटती थी.

बाबूजी तो अपने साथ घुमा भी लाते थे उसे. मां को कई बार हाथों से दवा और जूस पिलाते देखा था मैं ने. पर न जाने क्यों मेरे हृदय की वितृष्णा स्नेह में नहीं बदल पा रही थी. अश्विनी कई बार समझाते, पर मेरा दिल न पसीजता. बारबार अंजू का जिक्र होता और मैं उसे और तिरस्कृत करती. अब तो मैं ने वहां जाना भी छोड़ दिया था.

उड़तीउड़ती खबर सुनी थी कि आज अंजू मां की सेवा कर रही थी. अब उस ने घर भली प्रकार संभाल लिया है. कभी उस की बीमारी की खबर भी सुनती, पर एक कान से सुनती दूसरे कान से निकाल भी देती. एक दिन बाबूजी का फोन आया था. घबराहट से पूछ रहे थे, ‘‘अश्विनी कहां है?’’

‘‘वे तो अभी आए नहीं. क्यों? क्या बात है? क्या आज आप की बहू फिर बीमार हो गई?’’

मेरे स्वर की कड़वाहट छिपी न थी. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, फोन का चोगा रख दिया था. तभी अश्विनी का क्रुद्ध स्वर सुनाई पड़ा था, ‘‘हद होती है शुष्क व्यवहार की. एक व्यक्ति जीवनमरण के बीच झूल रहा है और तुम्हारे विचार इतने ओछे हैं कि तुम उन का मुख भी नहीं देखना चाहतीं. मनुष्य को मानवता के प्रति तो प्रतिबद्ध होना ही चाहिए. रीना, कम से कम इंसानियत के नाते ही मां का हाल पूछ लेतीं.’’

‘‘क्या हुआ मां को?’’

‘‘पिछले कई दिन से वे डायलिसिस पर हैं. डाक्टर ने गुरदे का औपरेशन बताया है,’’ वे कपड़े बदल कर कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे.

‘‘कहां जा रहे हो?’’

‘‘अस्पताल.’’

‘‘तुम ने मुझे आज तक बताया क्यों नहीं कि मां बीमार हैं?’’

‘‘इसलिए कि तुम्हारे जैसी पाषाण- हृदया नारी कभी पसीज नहीं सकती. जीवनमरण के बीच झूलती तुम्हारी मां को गुरदे की आवश्यकता है? तुम्हारे जैसी मंदबुद्धि स्त्री को इन बातों से क्या सरोकार?’’

मैं भी साथ जाने को तैयार हो गई थी. कितना गिरा हुआ महसूस कर रही थी मैं स्वयं को. यदि मां को कुछ हो गया तो? बूढ़ा जर्जर शरीर एक अनजान की सेवा करता रहा, उसे अपनाता रहा, और मैं? उस की कोखजायी उस की अवहेलना ही तो करती रही. आज अपने शरीर का एक अंग दे कर मां की जान बचा लूं तो धन्य समझूं स्वयं को.

गाड़ी की गति से तेज मेरे विचारों की गति थी.

अस्पताल के बरामदे में भाभी, भैया व बाबूजी बदहवास से खड़े थे. अंजू फूटफूट कर रो रही थी.

‘‘दीदी, मेरा परीक्षण करवाइए. मैं गुरदा दूंगी मां को.’’

मैं ने मन में सोचा, ‘ढोंगी स्त्री, यह मां की जान बचाएगी? वह सुखी संसार इसी के कारण तो नरक बना था.’ डाक्टर से विचारविमर्श करने के बाद मेरा व अंजू का परीक्षण किया गया. हम दोनों ही गुरदा दे सकते थे, पर अंजू जिद पर अड़ी रही. बोली, ‘‘मेरे जीवन का मूल्य ही क्या है? मैं ने इस परिवार को दिया ही क्या है. यदि रीना को कुछ हो गया तो उस की बिटिया को कौन पालेगा?’’ उस के तर्क के सामने हम चुप हो गए थे. भाभी व मां को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया था.

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औपरेशन का समय लंबा ही होता जा रहा था. डाक्टर ने बताया कि औपरेशन कामयाब हो गया है पर अंजू खतरे से बाहर नहीं है.

हम सब सन्नाटे में आ गए थे. पहली बार मैं ने भाभी के गुणों को जाना था. किस प्रकार उस ने स्वयं को इस परिवार से बांधा, मैं यह सब अब समझ सकी थी. मेरी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी. आज तक अंजू की मौत मांगने वाली रीना उस की दीर्घायु की कामना कर रही थी. डर सा लग रहा था कहीं उस का यह अंतिम पड़ाव न हो. भाभी के साथ भैया व मांबाबूजी का बंधन अटूट है. मेरा मन उस के प्रति सहानुभूति से भर गया था. तभी डाक्टर ने बताया, ‘‘अब अंजू खतरे से बाहर है.’’

भाग कर उस के बिस्तर तक पहुंच गई थी मैं. उस के माथे पर चुंबनों की बौछार लगा दी थी. सभी विस्फारित नेत्रों से मुझे देख रहे थे. शायद विश्वास नहीं कर पा रहे थे पर मेरी आंखों की कोरों से निकले आंसू भाभी के आंसुओं से मिल कर यह दर्शा रहे थे मानो यथार्थ और प्रकृति का समागम हो. मां का हाथ मेरे सिर पर था इंतजार था कब दोनों स्वास्थ्यलाभ ले कर अपने घर लौटेंगी.

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मां हो कर मैं ने अपने बेटों को लाड़ दिया और बेटी को तिरस्कार. बेटों को स्वच्छंदता दी और बेटी को पाबंदियों का पिंजरा. उस के हर अरमान व फैसलों पर कुठाराघात किया. हमारी परवरिश के चलते ही शायद आज वीणा की जिंदगी इस झंझावत में उलझ गई थी. सारा दोष मेरा ही था.

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मासूम सा बचपन, मन में अनगिनत सवाल. सब अनबुझे. अमान का अबोध बचपन मातापिता के झगड़े के बीच में पिस कर रह गया. उस के सिसकने, रोने को कोई भी समझ नहीं पा रहा था .

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दकियानूसी खयाल के अपने ससुरजी को जगाने के लिए दामाद सुदेश ने ऐसी कौन सी युक्ति निकाली कि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी…

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2 महीने बीत जाने के बाद भी जब राकेश व सलोनी का कुछ पता नहीं चला तो सभी ने यह समझ लिया कि वे दोनों किसी दूसरे शहर में जा कर पतिपत्नी की तरह रह रहे होंगे.

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9.अपनी ही दुश्मन: कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

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कविता भी एकदम गजब लड़की थी. उसे हर बात की जल्दी रहती थी. बचपन में उसे जितनी जल्दी खेल शुरू करने की रहती थी, उतनी ही जल्दी उस खेल को खत्म कर के दूसरा शुरू करने की रहती थी.

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10. कभी नहीं: क्या गायत्री को समझ आई मां की अहमियत

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किसी तरह भावी सास को विदा तो कर दिया गायत्री ने परंतु मन में भीतर कहीं दूर तक अपराधबोध सालने लगा, कैसी पागल है वह और स्वार्थी भी, जो अपना प्रेमी तलाशती रही उस इंसान में जो अपना विश्वास टूट जाने पर उस के पास आया था.

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