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अपनेसहयोगियों के दबाव में आ कर रंजना ने अपने पति मोहित को फोन किया, ‘‘ये सब लोग कल पार्टी देने की मांग कर रहे हैं. मैं इन्हें क्या जवाब दूं?’’
‘‘मम्मीपापा की इजाजत के बगैर किसी को घर बुलाना ठीक नहीं रहेगा,’’ मोहित की आवाज में परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे.
‘‘फिर इन की पार्टी कब होगी?’’
‘‘इस बारे में रात को बैठ कर फैसला करते हैं.’’
‘‘ओ.के.’’
रंजना ने फोन काट कर मोहित का फैसला बताया तो सब उस के पीछे पड़ गए, ‘‘अरे, हम मुफ्त में पार्टी नहीं खाएंगे. बाकायदा गिफ्ट ले कर आएंगे, यार.’’
‘‘अपनी सास से इतना डर कर तू कभी खुश नहीं रह पाएगी,’’ उन लोगों ने जब इस तरह का मजाक करते हुए रंजना की खिंचाई शुरू की तो उसे अजीब सा जोश आ गया. बोली, ‘‘मेरा सिर खाना बंद करो. मेरी बात ध्यान से सुनो. कल रविवार रात 8 बजे सागर रत्ना में तुम सब डिनर के लिए आमंत्रित हो. कोई भी गिफ्ट घर भूल कर न आए.’’
रंजना की इस घोषणा का सब ने तालियां बजा कर स्वागत किया था.
कुछ देर बाद अकेले में संगीता मैडम ने उस से पूछा, ‘‘दावत देने का वादा कर के तुम ने अपनेआप को मुसीबत में तो नहीं फंसा लिया है?’’
‘‘अब जो होगा देखा जाएगा, दीदी,’’ रंजना ने मुसकराते हुए जवाब दिया.
‘‘अगर घर में टैंशन ज्यादा बढ़ती लगे तो मुझे फोन कर देना. मैं सब को पार्टी कैंसल हो जाने की खबर दे दूंगी. कल के दिन बस तुम रोनाधोना बिलकुल मत करना, प्लीज.’’
‘‘जितने आंसू बहाने थे, मैं ने पिछले साल पहली वर्षगांठ पर बहा लिए थे दीदी. आप को तो सब मालूम ही है.’’
‘‘उसी दिन की यादें तो मुझे परेशान कर रही हैं, माई डियर.’’
‘‘आप मेरी चिंता न करें, क्योंकि मैं साल भर में बहुत बदल गई हूं.’’
‘‘सचमुच तुम बहुत बदल गई हो, रंजना? सास की नाराजगी, ससुर की डांट या ननद की दिल को छलनी करने वाली बातों की कल्पना कर के तुम आज कतई परेशान नजर नहीं आ रही हो.’’
‘‘टैंशन, चिंता और डर जैसे रोग अब मैं नहीं पालती हूं, दीदी. कल रात दावत जरूर होगी. आप जीजाजी और बच्चों के साथ वक्त से पहुंच जाना,’’ कह रंजना उन का कंधा प्यार से दबा कर अपनी सीट पर चली गई.
रंजना ने बिना इजाजत अपने सहयोगियों को पार्टी देने का फैसला किया है, इस खबर को सुन कर उस की सास गुस्से से फट पड़ीं, ‘‘हम से पूछे बिना ऐसा फैसला करने का तुम्हें कोई हक नहीं है, बहू. अगर यहां के कायदेकानून से नहीं चलना है, तो अपना अलग रहने का बंदोबस्त कर लो.’’
‘‘मम्मी, वे सब बुरी तरह पीछे पड़े थे. आप को बहुत बुरा लग रहा है, तो मैं फोन कर के सब को पार्टी कैंसल करने की खबर कर दूंगी,’’ शांत भाव से जवाब दे कर रंजना उन के सामने से हट कर रसोई में काम करने चली गई.
उस की सास ने उसे भलाबुरा कहना जारी रखा तो उन की बेटी महक ने उन्हें डांट दिया, ‘‘मम्मी, जब भाभी अपनी मनमरजी करने पर तुली हुई हैं, तो तुम बेकार में शोर मचा कर अपना और हम सब का दिमाग क्यों खराब कर रही हो? तुम यहां उन्हें डांट रही हो और उधर वे रसोई में गाना गुनगुना रही हैं. अपनी बेइज्जती कराने में तुम्हें क्या मजा आ रहा है?’’
अपनी बेटी की ऐसी गुस्सा बढ़ाने वाली बात सुन कर रंजना की सास का पारा और ज्यादा चढ़ गया और वे देर तक उस के खिलाफ बड़बड़ाती रहीं.
रंजना ने एक भी शब्द मुंह से नहीं निकाला. अपना काम समाप्त कर उस ने खाना मेज पर लगा दिया.
‘‘खाना तैयार है,’’ उस की ऊंची आवाज सुन कर सब डाइनिंगटेबल पर आ तो गए, पर उन के चेहरों पर नाराजगी के भाव साफ नजर आ रहे थे.
रंजना ने उस दिन एक फुलका ज्यादा खाया. उस के ससुरजी ने टैंशन खत्म करने के इरादे से हलकाफुलका वार्त्तालाप शुरू करने की कोशिश की तो उन की पत्नी ने उन्हें घूर कर चुप करा दिया.
रंजना की खामोशी ने झगड़े को बढ़ने नहीं दिया. उस की सास को अगर जरा सा मौका मिल जाता तो वे यकीनन भारी क्लेश जरूर करतीं.
महक की कड़वी बातों का जवाब उस ने हर बार मुसकराते हुए मीठी आवाज में दिया.
शयनकक्ष में मोहित ने भी अपनी नाराजगी जाहिर की, ‘‘किसी और की न सही पर तुम्हें कोई भी फैसला करने से पहले मेरी इजाजत तो लेनी ही चाहिए थी. मैं कल तुम्हारे साथ पार्टी में शामिल नहीं होऊंगा.’’
‘‘तुम्हारी जैसी मरजी,’’ रंजना ने शरारती मुसकान होंठों पर सजा कर जवाब दिया और फिर एक चुंबन उस के गाल पर अंकित कर बाथरूम में घुस गई.
रात ठीक 12 बजे रंजना के मोबाइल के अलार्म से दोनों की नींद टूट गई.
‘‘यह अलार्म क्यों बज रहा है?’’ मोहित ने नाराजगी भरे स्वर में पूछा.
‘‘हैपी मैरिज ऐनिवर्सरी, स्वीट हार्ट,’’ उस के कान के पर होंठों ले जा कर रंजना ने रोमांटिक स्वर में अपने जीवनसाथी को शुभकामनाएं दीं.
रंजना के बदन से उठ रही सुगंध और महकती सांसों की गरमाहट ने चंद मिनटों में जादू सा असर किया और फिर अपनी नाराजगी भुला कर मोहित ने उसे अपनी बांहों के मजबूत बंधन में कैद कर लिया.
रंजना ने उसे ऐसे मस्त अंदाज में जी भर कर प्यार किया कि पूरी तरह से तृप्त नजर आ रहे मोहित को कहना ही पड़ा, ‘‘आज के लिए एक बेहतरीन तोहफा देने के लिए शुक्रिया, जानेमन.’’
‘‘आज चलोगे न मेरे साथ?’’ रंजना ने प्यार भरे स्वर में पूछा.
‘‘पार्टी में? मोहित ने सारा लाड़प्यार भुला कर माथे में बल डाल लिए.’’
‘‘मैं पार्क में जाने की बात कर रही हूं, जी.’’
‘‘वहां तो मैं जरूर चलूंगा.’’
‘‘आप कितने अच्छे हो,’’ रंजना ने उस से चिपक कर बड़े संतोष भरे अंदाज में आंखें मूंद लीं.
रंजना सुबह 6 बजे उठ कर बड़े मन से तैयार हुई. आंखें खुलते ही मोहित ने उसे सजधज कर तैयार देखा तो उस का चेहरा खुशी से खिल उठा.
‘‘यू आर वैरी ब्यूटीफुल,’’ अपने जीवनसाथी के मुंह से ऐसी तारीफ सुन कर रंजना का मन खुशी से नाच उठा.
खुद को मस्ती के मूड में आ रहे मोहित की पकड़ से बचाते हुए रंजना हंसती हुई कमरे से बाहर निकल गई.
उस ने पहले किचन में जा कर सब के लिए चाय बनाई, फिर अपने सासससुर के कमरे में गई और दोनों के पैर छू कर आशीर्वाद लिया.
चाय का कप हाथ में पकड़ते हुए उस की सास ने चिढ़े से लहजे में पूछा, ‘‘क्या सुबहसुबह मायके जा रही हो, बहू?’’
‘‘हम तो पार्क जा रहे हैं मम्मी,’’ रंजना ने बड़ी मीठी आवाज में जवाब दिया.
सास के बोलने से पहले ही उस के ससुरजी बोल पड़े, ‘‘बिलकुल जाओ, बहू. सुबहसुबह घूमना अच्छा रहता है.’’
‘‘हम जाएं, मम्मी?’’
‘‘किसी काम को करने से पहले तुम ने मेरी इजाजत कब से लेनी शुरू कर दी, बहू?’’ सास नाराजगी जाहिर करने का यह मौका भी नहीं चूकीं.
‘‘आप नाराज न हुआ करो मुझ से, मम्मी. हम जल्दी लौट आएंगे,’’ किसी किशोरी की तरह रंजना अपनी सास के गले लगी और फिर प्रसन्न अंदाज में मुसकराती हुई अपने कमरे की तरफ चली गई.
वह मोहित के साथ पार्क गई जहां दोनों के बहुत से साथी सुबह का मजा ले रहे थे. फिर उस की फरमाइश पर मोहित ने उसे गोकुल हलवाई के यहां आलूकचौड़ी का नाश्ता कराया.
दोनों की वापसी करीब 2 घंटे बाद हुई. सब के लिए वे आलूकचौड़ी का नाश्ता पैक करा लाए थे. लेकिन यह बात उस की सास और ननद की नाराजगी खत्म कराने में असफल रही थी.
दोनों रंजना से सीधे मुंह बात नहीं कर रही थीं. ससुरजी की आंखों में भी कोई चिंता के भाव साफ पढ़ सकता था. उन्हें अपनी पत्नी और बेटी का व्यवहार जरा भी पसंद नहीं आ रहा था, पर चुप रहना उन की मजबूरी थी. वे अगर रंजना के पक्ष में 1 शब्द भी बोलते, तो मांबेटी दोनों हाथ धो कर उन के पीछे पड़ जातीं.
सजीधजी रंजना अपनी मस्ती में दोपहर का भोजन तैयार करने के लिए रसोई में चली आई. महक ने उसे कपड़े बदल आने की सलाह दी तो उस ने इतराते हुए जवाब दिया, ‘‘दीदी, आज तुम्हारे भैया ने मेरी सुंदरता की इतनी ज्यादा तारीफ की है कि अब तो मैं ये कपड़े रात को ही बदलूंगी.’’
‘‘कीमती साड़ी पर दागधब्बे लग जाने की चिंता नहीं है क्या तुम्हें?’’
‘‘ऐसी छोटीमोटी बातों की फिक्र करना अब छोड़ दिया है मैं ने, दीदी.’’
‘‘मेरी समझ से कोई बुद्धिहीन इनसान ही अपना नुकसान होने की चिंता नहीं करता है,’’ महक ने चिढ़ कर व्यंग्य किया.
‘‘मैं बुद्धिहीन तो नहीं पर तुम्हारे भैया के प्रेम में पागल जरूर हूं,’’ हंसती हुई रंजना ने अचानक महक को गले से लगा लिया तो वह भी मुसकराने को मजबूर हो गई.
रंजना ने कड़ाही पनीर की सब्जी बाजार से मंगवाई और बाकी सारा खाना घर पर तैयार किया.
‘‘आजकल की लड़कियों को फुजूलखर्ची की बहुत आदत होती है. जो लोग खराब वक्त के लिए पैसा जोड़ कर नहीं रखते हैं, उन्हें एक दिन पछताना पड़ता है, बहू,’’ अपनी सास की ऐसी सलाहों का जवाब रंजना मुसकराते हुए उन की हां में हां मिला कर देती रही.
उस दिन उपहार में रंजना को साड़ी और मोहित को कमीज मिली. बदले में उन्होंने महक को उस का मनपसंद सैंट, सास को साड़ी और ससुरजी को स्वैटर भेंट किया. उपहारों की अदलाबदली से घर का माहौल काफी खुशनुमा हो गया था.
यह सब को पता था कि सागर रत्ना में औफिस वालों की पार्टी का समय रात 8 बजे का है. जब 6 बजे के करीब मोहित ड्राइंगरूम में पहुंचा तो उस ने अपने परिवार वालों का मूड एक बार फिर से खराब पाया.
‘‘तुम्हें पार्टी में जाना है तो हमारी इजाजत के बगैर जाओ,’’ उस की मां ने उस पर नजर पड़ते ही कठोर लहजे में अपना फैसला सुना दिया.
‘‘आज के दिन क्या हम सब का इकट्ठे घूमने जाना अच्छा नहीं रहता, भैया?’’ महक ने चुभते लहजे में पूछा.
‘‘रंजना ने पार्टी में जाने से इनकार कर दिया है,’’ मोहित के इस जवाब को सुन वे तीनों ही चौंक पड़े.
‘‘क्यों नहीं जाना चाहती है बहू पार्टी में?’’ उस के पिता ने चिंतित स्वर में पूछा.
‘‘उस की जिद है कि अगर आप तीनों साथ नहीं चलोगे तो वह भी नहीं जाएगी.’’
‘‘आजकल ड्रामा करना बड़ी अच्छी तरह से आ गया है उसे,’’ मम्मी ने बुरा सा मुंह बना कर टिप्पणी की.
मोहित आंखें मूंद कर चुप बैठ गया. वे तीनों बहस में उलझ गए.
‘‘हमें बहू की बेइज्जती कराने का कोई अधिकार नहीं है. तुम दोनों साथ चलने के लिए फटाफट तैयार हो जाओ वरना मैं इस घर में खाना खाना छोड़ दूंगा,’’ ससुरजी की इस धमकी के बाद ही मांबेटी तैयार होने के लिए उठीं.
सभी लोग सही वक्त पर सागर रत्ना पहुंच गए. रंजना के सहयोगियों का स्वागत सभी ने मिलजुल कर किया. पूरे परिवार को यों साथसाथ हंसतेमुसकराते देख कर मेहमान मन ही मन हैरान हो उठे थे.
‘‘कैसे राजी कर लिया तुम ने इन सभी को पार्टी में शामिल होने के लिए?’’ संगीता मैडम ने एकांत में रंजना से अपनी उत्सुकता शांत करने को आखिर पूछ ही लिया.
रंजना की आंखों में शरारती मुसकान की चमक उभरी और फिर उस ने धीमे स्वर में जवाब दिया, ‘‘दीदी, मैं आज आप को पिछले 1 साल में अपने अंदर आए बदलाव के बारे में बताती हूं. शादी की पहली सालगिरह के दिन मैं अपनी ससुराल वालों के रूखे व कठोर व्यवहार के कारण बहुत रोई थी, यह बात तो आप भी अच्छी तरह जानती हैं.’’
‘‘उस रात को पलंग पर लेटने के बाद एक बड़ी खास बात मेरी पकड़ में आई थी. मुझे आंसू बहाते देख कर उस दिन कोई मुसकरा तो नहीं रहा था, पर मुझे दुखी और परेशान देख कर मेरी सास और ननद की आंखों में अजीब सी संतुष्टि के भाव कोई भी पढ़ सकता था.
‘‘तब मेरी समझ में यह बात पहली बार आई कि किसी को रुला कर व घर में खास खुशी के मौकों पर क्लेश कर के भी कुछ लोग मन ही मन अच्छा महसूस करते हैं. इस समझ ने मुझे जबरदस्त झटका लगाया और मैं ने उसी रात फैसला कर लिया कि मैं ऐसे लोगों के हाथ की कठपुतली बन अपनी खुशियों व मन की शांति को भविष्य में कभी नष्ट नहीं होने दूंगी.
‘‘खुद से जुड़े लोगों को अब मैं ने 2 श्रेणियों में बांट रखा है. कुछ मुझे प्रसन्न और सुखी देख कर खुश होते हैं, तो कुछ नहीं. दूसरी श्रेणी के लोग मेरा कितना भी अहित करने की कोशिश करें, मैं अब उन से बिलकुल नहीं उलझती हूं.
‘‘औफिस में रितु मुझे जलाने की कितनी भी कोशिश करे, मैं बुरा नहीं मानती. ऐसे ही सुरेंद्र सर की डांट खत्म होते ही मुसकराने लगती हूं.’’
‘‘घर में मेरी सास और ननद अब मुझे गुस्सा दिलाने या रुलाने में सफल नहीं हो पातीं. मोहित से रूठ कर कईकई दिनों तक न बोलना अब अतीत की बात हो गई है.
‘‘जहां मैं पहले आंसू बहाती थी, वहीं अब मुसकराते रहने की कला में पारंगत हो गई हूं. अपनी खुशियों और मन की सुखशांति को अब मैं ने किसी के हाथों गिरवी नहीं रखा हुआ है.
‘‘जो मेरा अहित चाहते हैं, वे मुझे देख कर किलसते हैं और मेरे कुछ किए बिना ही हिसाब बराबर हो जाता है. जो मेरे शुभचिंतक हैं, मेरी खुशी उन की खुशियां बढ़ाने में सहायक होती हैं और यह सब के लिए अच्छा ही है.
‘‘अपने दोनों हाथों में लड्डू लिए मैं खुशी और मस्ती के साथ जी रही हूं, दीदी. मैं ने एक बात और भी नोट की है. मैं खुश रहती हूं तो मुझे नापसंद करने
वालों के खुश होने की संभावना भी ज्यादा हो जाती है. मेरी सास और ननद की यहां उपस्थिति इसी कारण है और उन दोनों की मौजूदगी मेरी खुशी को निश्चित रूप से बढ़ा रही है.’’
संगीता मैडम ने प्यार से उस का माथा चूमा और फिर भावुक स्वर में बोलीं, ‘‘तुम सचमुच बहुत समझदार हो गई हो, रंजना. मेरी तो यही कामना है कि तुम जैसी बहू मुझे भी मिले.’’
‘‘आज के दिन इस से बढिया कौंप्लीमैंट मुझे शायद ही मिले, दीदी. थैंक्यू वैरी मच,’’ भावविभोर हो रंजना उन के गले लग गई. उस की आंखों से छलकने वाले आंसू खुशी के थे.
भैया का ड्राइवर कार से स्टेशन तक छोड़ गया था. अटैची, बैग और थैला कुली को दे कर कविता छोटू और बबली के हाथ थाम प्लेटफार्म की तरफ बढ़ गई. बैंच पर बैठने के बाद कविता सोच में डूब गई कि लो भतीजे करण की शादी भी निबट गई. इतने महीनों से तैयारी चल रही थी, कितना उत्साह था इस शादी में आने का. पूरे 8 वर्ष बाद घर में शादी का समारोह होने जा रहा था. भैया ने तो काफी समय पहले ही सब को बुलावे के पत्र डाल दिए थे, फिर आए दिन फोन पर शादी की तैयारी की चर्चा होती रहती कि दुलहन का लहंगा जयपुर में बन रहा है… ज्वैलरी भी खास और्डर पर बनवाई जा रही है… मेहमानों के ठहरने की भी खास व्यवस्था की जा रही है…
इस में संदेह नहीं कि काफी खर्चा किया होगा भैयाभाभी ने. उन के इकलौते बेटे की शादी जो थी. पर पता नहीं क्यों इतने अच्छे इंतजाम के बावजूद कविता वह उत्साह या उमंग अपने भीतर नहीं पा सकी, जिस की उसे अपेक्षा थी. एक तो चलने के ऐन वक्त पर ही पति अनिमेष को जरूरी काम से रुकना पड़ गया था. वह तो डर रही थी कि पता नहीं भैयाभाभी क्या सोचेंगे कि इतने आग्रह से इतने दिन पहले से बुला रहे थे और दामादजी को ऐन वक्त पर कोई काम आ गया. पूरे रास्ते वह इसी भावना से आशंकित रही थी. मगर कानपुर पहुंचने पर जैसा ठंडा स्वागत हुआ उस से उस की यह धारणा बदल गई.
यहां भी तो स्टेशन पर यही ड्राइवर खड़ा था, उस के नाम की तख्ती लिए हुए. ठीक है भैया व्यस्त होंगे पर कोई और भी तो आ सकता था, लेने. घर पहुंचने पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया कि वह अकेली ही बच्चों के साथ आई है.
‘‘चलो कविता आ गई, बच्चे ठीक हैं, ऐसा करो श्यामलाल को साथ ले कर अपने कमरे में सामान रखवा लो, वहीं तुम्हारा चायनाश्ता भी पहुंच जाएगा. फिर नहाधो कर तैयार हो कर नीचे डाइनिंगहौल में लंच के लिए आओगी तो सब से मिल लेना,’’ भाभी बोलीं.
थकान तो थी ही सफर की, पर अब कविता का मन भी बुझ चला था. दोनों बड़ी बहनें पहले ही आ चुकी थीं. वे भी अपनेअपने कमरे में थीं. एक बड़े होटल में भैया ने सब के ठहरने का इंतजाम किया था.
थर्मस में चाय और साथ में नाश्ते की प्लेटें रख कर नौकर चला गया. चाय पी कर कुछ देर लेटने का मन हो रहा था पर बच्चों का उत्साह देख कर उन्हें नहला कर तैयार कर दिया. स्वयं भी तैयार हुई.
तभी कमरे में इंटरकौम की घंटी बजने लगी. शायद खाने के लिए सब लोग नीचे पहुंचने लगे थे. बड़ी दीदी और मझली दीदी से वहीं मिलना हुआ.
‘‘अरे कविता, इधर आ… बहुत दिनों बाद मिली है,’’ मझली दीदी ने दूर से ही आवाज दी.
बड़ी दीदी के घुटनों में तकलीफ थी, इसलिए सब उन्हें घेरे बैठे थे. भैया भी 2 मिनट को उधर आए. कुछ देर की औपचारिकता के बाद उन्हें ध्यान आया, ‘‘अरे, अनिमेष कहां है?’’
‘‘आ नहीं पाए भैया, क्या करें ऐन वक्त पर ही…’’
वह कुछ और कहने की भूमिका बना ही रही थी कि भैया ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘कोई बात नहीं, तुम आ गईं, बच्चे आ गए… चलो अब बहनों के साथ गपशप करो,’’ कहते हुए भैया आगे बढ़ गए.
बड़ी दीदी के पास अपने घरपरिवार की उलझनें थीं तो मझली दीदी यहां अपनी बेटी के लिए रिश्ता खोज रही थीं.
‘‘दीदी, हम लोग एक ही हौल में रहते तो अच्छा रहता, देर रात तक गपशप करते… अब अपनेअपने कमरे में बंद हैं तो किसी की शक्ल तक नहीं दिखती कि कौनकौन मेहमान आए हैं, कहां ठहरे हैं, कैसे हैं. बस, खाने के समय मिल लो,’’ कविता के मुंह से निकल ही गया.
पर बड़ी दीदी तो अपनी ही उधेड़बुन में थीं. बोलीं, ‘‘मुझे तो अभी बाजार निकलना होगा. दर्द तो है घुटनों में पर किसी का साथ मिल जाता तो हो आती, बहू ने साडि़यां मंगवाई थीं… आज ही समय है. भाभी से ही कहती हूं कि गाड़ी का इंतजाम कर दें…’’
उधर मझली दीदी को अपनी ननद के घर जा कर रिश्ते की बात करनी थी. अत: खाना खा कर कविता चुपचाप अपने कमरे में आ गई.
उधर बच्चे भी उकताने लगे थे, ‘‘ममा, हम किस के साथ खेलें? हमारी उम्र का तो कोई है ही नहीं.’’
‘‘नीचे बगीचे में घूम आओ या फिर टीवी देख लेना.’’
बच्चों को भेज कर कविता लेट तो गई, पर नींद आंखों से कोसों दूर थी. 12 वर्ष पहले उस का स्वयं का विवाह हुआ था. फिर 8 साल पहले चचेरी बहन पिंकी का. अभी तक सारे विवाह अपने पुश्तैनी घर में ही होते रहे थे. घर छोटा था तो क्या हुआ, सारे मेहमान उस में आ जाते. आंगन में ही रात को सब की खाटें बिछ जातीं. दिन भर गहमागहमी रहती. शादी का माहौल दिखता. ढोलक की थाप पर नाचगाना होता. पिंकी के विवाह में जब आशा बूआ नाच रही थीं तो बच्चे हंसहंस कर लोटपोट हो रहे थे.
‘‘हाय दइया ततैयों ने खा लयोरे…’’ कहते हुए वे साड़ी घुटनों तक उठा लेतीं.
सब लोग हा…हा… कर के हंसते. तभी बड़ी ताईजी सब को डांटतीं कि बेटी का ब्याह है कोई नौटंकी नहीं हो रही, समझीं? पर फिर भी सब हंसते रहते और वही माहौल बना रहता. आज मांबाबूजी हैं नहीं, ताईजी भी इतनी बूढ़ी हैं कि कहीं आ जा नहीं सकतीं. बस छोटी बूआ आई हैं, दीदी बता रही थीं. पर वे भी शायद अकेली किसी कमरे में होंगी.
हां, दीदी कह तो रही थीं किसी से कि एक थाली कमरे में भिजवा दो. उस समय तो हलवाइयों की रौनक, मिठाई, नमकीन सब की खुशबू हुआ करती थी शादीब्याह के माहौल में, पर यहां तो बस चुपचाप अपने कमरे में बंद हैं. लग ही नहीं रहा है कि अपने घर की शादी में आए हैं.
शाम को बरात को रवाना होना था, बरात क्या होटल में ठहरे मेहमानों को ही चलना था, पास ही के एक दूसरे होटल में लड़की वाले ठहरे थे, वहीं शादी होनी थी.
पर जब तक कविता तैयार हो कर बच्चों को ले कर नीचे आई तो पता चला कि भैयाभाभी और करण तो पहले ही जा चुके हैं. कुछ लोग अब जा रहे थे, दोनों दीदियां भी नीचे खड़ी थीं.
‘‘अरे दीदी, करण का तिलक भी तो होना था,’’ कविता को याद आया.
‘‘अब रहने दे, सब लोग वहां पहुंच चुके हैं… नीचे ड्राइवर इंतजार कर रहा है,’’ कहते हुए मझली दीदी आगे बढ़ गईं.
ऐसा लग रहा था जैसे किसी दूसरे परिचित की शादी हो, खाने की अलगअलग मेजें लगी थीं, जैसा कि होटलों में होता है. सब लोग मेजों पर पहुंचने लगे.
‘‘फेरों के समय तो अपनी कोई जरूरत है नहीं,’’ बड़ी दीदी कह रही थीं.
‘‘और क्या, मेरी तो वैसे भी रात को देर तक जागने की आदत है नहीं. सुबह फिर जल्दी उठना है, 7 बजे की ट्रेन है, तो 6 बजे तक तो निकलना ही होगा,’’ मझली दीदी बोलीं.
तभी भाभी की छोटी बहन ममता हाथ में ढेर से पैकेट लिए आती दिखी.
‘‘दीदी आप लोग तो कल ही जा रहे हो न तो अपनेअपने गिफ्ट संभालो,’’ कहते हुए उस ने सभी को पैकेट और मिठाई के डब्बे थमा दिए.
‘‘पर मेरी तो ट्रेन सुबह 10 बजे की है, अभी इतनी जल्दी क्या है?’’ कविता के मुंह से निकला.
‘‘वह तो ठीक है पर दीदी जीजाजी को कहां सुबह समय मिल पाएगा, रात भर के थके होंगे. हां, आप अपने नाश्ते के समय लंच का डब्बा जरूर सुबह ले लेना.’’
मझली दीदी ने तो तब तक एक पैकेट के कोने से अंदर झांक भी लिया, ‘‘साड़ी तो बढि़या दी है भाभी ने,’’ वे फुसफुसाईं.
पर कविता चुप थी. अंदर कमरे में आ कर भी उसे देर तक नींद नहीं आई थी. रिश्ते क्या इतनी जल्दी बदल जाते हैं? क्या अब लेनादेना ही शेष रह गया है? प्रश्न ही प्रश्न थे उस के मन में जो अनुत्तरित थे.
सुबह चायनाश्ते के बाद वह तैयार हो कर नीचे उतरी तो भैयाभाभी नीचे ही खड़े थे.
‘‘कविता, तुम्हारा गिफ्ट पैक मिल गया है न… और हां, ड्राइवर नीचे ही है. तुम्हें स्टेशन तक छोड़ देगा. श्याम, गाड़ी में सामान रखवा दो,’’ भैया ने नौकर को आवाज दी.
इस तरह कविता की विदाई भी हो गई. दोनों दीदियां सुबह ही जा चुकी थीं. ड्राइवर को किसी और को भी छोड़ना था, इसलिए कविता को 2 घंटे पहले ही स्टेशन उतार गया.
बैंच पर बैठेबैठे कविता अनमनी सी हो गई थी. अभी भी घोषणा हो रही थी कि ट्रेन और 2 घंटे लेट है.
‘‘लो…’’ उस के मुंह से निकल ही गया.
‘‘ममा, हमें तो भूख लगी है…’’ छोटू की आवाज गूंजी तो उस ने एक पैकेट खोल लिया.
‘‘और कुछ खाना हो तो सामने से ले आऊं, अभी ट्रेन के आने में देर है.’’
‘‘हां ममा, जूस पीना है.’’
‘‘मुझे भी…’’
‘‘ठीक है, अभी लाती हूं.’’
‘बच्चे साथ थे तो मन कुछ बहल गया… अकेली होती तो…’ सोचते हुए कविता आगे बढ़ गई.
ट्रेन में बैठ कर बच्चे तो सो गए पर कविता चुपचाप खिड़की के बाहर देख रही थी… ‘पीछे छूटते वृक्ष, इमारतें… शायद ऐसे ही बहुत कुछ छूटता जाता है…’ सोचते हुए उस ने भी आंखें मूंद लीं.
नासिक की रहने वाली सुंदर, मृदुभाषी अभिनेत्री सुखदा खांडकेकर ने नाटकों, हिंदी, मराठी फिल्मों और कई शोज में काम किया है. उन्होंने संजय लीला भंसाली की 2015 की हिट फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ में बाजीराव की बहन अनुबाई की भूमिका निभा कर लोकप्रियता हासिल की. इस के अलावा सुखदा एक प्रशिक्षित कत्थक डांसर है और उन्होंने कई इवैंट्स के लिए कोरियोग्राफी का काम भी किया है.
बचपन से ही कला के माहौल में पैदा हुई सुखदा को ऐक्टिंग का शौक था, जिस में उन्हें पैरंट्स और पति ने साथ दिया है. इन दिनों सुखदा ने सोनी टीवी की शो ‘पुकार’ में 25 साल के बच्चे की मां की भूमिका निभाई है.
आइए, जानते हैं उन की कहानी उन की ही जबानी :
सरस्वती का चरित्र बहुत हो अलग है, मैं ने हमेशा कैरैक्टर ड्रिवन ऐक्टिंग ही करने का निर्णय लिया है. मैं ने मराठी और हिंदी दोनों इंडस्ट्री में काम किया है, जिस में विज्ञापनों, टीवी शोज, थिएटरों, फिल्में आदि सबकुछ हैं. इस की वजह है कि मैं चरित्र को चुनती हूं, भाषा को नहीं. मैं ने उर्दू और अंगरेजी में भी काम किया है, ऐसे में मुझे जब इस शो की कहानी का पता चला, जिस में कहानी एक मां सरस्वती के इर्दगिर्द घूमती हुई है, जिस में कई प्रकार के ऐक्स्प्रेशन, ड्रामा सबकुछ है, तो मुझे कुछ और सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ी. डर इस बात से रहा है कि मैं इस चरित्र से कुछ साल छोटी हूं और टाइपकास्ट नहीं होना चाहती थी, लेकिन क्रिऐटिव डाइरैक्टर तुषार भारद्वाज ने समझाया कि यह जबरदस्ती सफेद बालों वाली मां मैं मां नहीं है, मैं जैसी हूं, वैसी ही मुझे दिखाया जाएगा, जो ऐलिगेंट लुक वाली होगी, जो मुझे करने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हुई.
कम उम्र में मां की भूमिका निभाने को ले कर पूछने पर सुखदा कहती स्क्रिप्ट सही होने पर अभिनय करना मुश्किल नहीं होता, उसे जितनी बार पढ़ी जाती है, किरदार तक पहुंचना आसान होता है. इस के अलावा मैं एक थिऐटर आर्टिस्ट हूं और किसी भी किरदार को करना मेरे लिए चुनौती होती है.
अभिनय में आने की प्रेरणा के बारे में पूछने पर सुखदा कहती हैं कि मैं ने 5 साल की उम्र से कत्थक सीखा है. बचपन में मेरी मां किसी भी क्रिऐटिविटी वाले वर्कशौप के लिए मुझे ऐनरोल कर देती थी. 18 वर्ष तक होतेहोते मेरी पढ़ाई के साथसाथ डांस और ऐक्टिंग सभी एकसाथ चल रही थी. कालेज में भी मैं ने ऐक्टिंग किया है. मैं क्लीनिकल साइकोलौजिस्ट हूं, पुणे जा कर मास्टर्स किया.
मुंबई से जब मैं पुणे पढ़ाई के लिए आई, तो पढ़ाई के साथ डांस चलता रहा और ऐक्टिंग भी म्यूजिक विडियो के साथ चल रहा था. मैं डांस और ऐक्टिंग को अलग नहीं कर पाई, क्योंकि डांस में भी ऐक्टिंग होता है और मेरी डांस की प्रस्तुति के बाद कौम्पलीमैंट्स भी खूब मिलते थे कि मैँ बहुत सुंदर और ऐलिगेंट दिखती हूं. मेरी मनोविज्ञान की पढ़ाई भी अभिनय में सहायता करती है, क्योंकि मैँ चरित्र के मूड को जल्दी समझ जाती हूं.
अपने परिवार के सहयोग के बारें में सुखदा कहती हैं कि परिवार में कोई ऐक्टिंग फील्ड से नहीं है, लेकिन कला के क्षेत्र से अवश्य है. मेरी मां चित्रा देशपांडे एक संगीतज्ञ हैं, उन्होंने 35 साल तक सब को संगीत सिखाया है और अब हम दोनों की संस्था ‘आकार’ है.
मेरे पिता सुधीर पांडे एक पेंटर और स्कल्प्चरिस्ट थे, जो गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड होल्डर थे. कुछ साल पहले हम ने उन्हें खो दिया है. मेरे बड़े भाई पेंटर और आर्किटेक्ट है और विदेश में रहता है. परिवार में कला एकदूसरे से अलग भले है, लेकिन सभी कलाकर हैं. अभी जहां मेरी शादी हुई है, मेरे पति अभिजीत खांडकेकर भी ऐक्टर हैं. इसलिए मेरे सासससुर भी मेरे काम की बहुत सराहना करते हैं. सभी का सहयोग मेरे साथ रहता है.
पति अभिजीत से मिलने के बारें में सुखदा हंसती हुई कहती हैं कि भले ही हम दोनों नाशिक से हैं, लेकिन कभी नासिक में मिले नहीं थे. उन के पहले मराठी शो के दौरान मैं ने उन्हे फेसबुक पर सिर्फ बधाई दी थी, क्योंकि वे नाशिक के हैं और उन की एक बड़ी होर्डिंग मैं ने मुंबई में देखी थी. उन्होंने मेरी बधाई का उत्तर
दिया, ऐसे हमारी दोस्ती हुई और अंत में शादी में बदल गई.
पति अभिजीत की एक खूबी के बारें में पूछने पर सुखदा का कहना है कि मेरे पति हर काम में बहुत अधिक अनुशासन रखते हैं, समय पर काम पर जाना, घर लौटना, सब का खयाल रखना आदि करते हैं. यह अनुसाशन कई बार मुझे इरिटैट भी करती है। मसलन, शौपिंग पर जाने पर अगर समय में थोड़ीबहुत देर हुई, तो उन्हें अच्छा नहीं लगता.
सुखदा अपने काम के लिए किए गए प्रयास को संघर्ष नहीं बल्कि अड़चन कहती हैं, क्योंकि संघर्ष की परिभाषा हर व्यक्ति के लिए अलगअलग है. उन का कहना है कि मेरी पहली प्रोफैशनल ऐक्टिंग एक उर्दू सीरीज थी, जिसे एक ब्रिटिश प्रोड्यूसर पाकिस्तान और बांग्लादेश के एनजीओ के लिए बनाया था. यह कमर्शियल प्रोजैक्ट नहीं था, लेकिन मेरे लिए बड़ा ब्रेक था. मुझे जो भी काम मिला अच्छा लगा है. मैं ने कभी बड़ा बैनर या पैसा नहीं देखा, बल्कि अभिनय के स्ट्रैंथ को देखा है. यही वजह है कि लगातार मुझे काम मिलता गया. फिर चाहे वह नाटकों में काम हो या हिंदी फिल्मों में, हर काम मेरे लिए एक चुनौती रही है, लेकिन मेरा ध्यान हमेशा काम पर केंद्रित रहता है. कई बार मुझे काम नहीं भी मिला है और मैँ कुछ दिनों तक घर पर भी बैठी रही, मायूसी भी हुई, लेकिन इन सभी चीजों को मैं ने सहजता से लिया है.
सुखदा के लिए जीवन जीने का मंत्र खुद को और आसपास को खुश रखना है, क्योंकि इस से उन्हें बहुत अच्छा महसूस होता है.
राधिका ने नया नया घर बनवाया घर बहुत ही सुन्दर है, लेकिन एक खामी रह गई और वो थी वार्डरोब की. वार्डरोब बनवाई तो थी, लेकिन एक नार्मल डिजाइन की जिस कारण उसे घर का सामान रखने में आए दिन परेशानी होती और बहुत ही जल्दी सारा रखा हुआ सामान बिखरा बिखरा सा हो जाता. एक दिन न वह अपनी सहेली के घर गई तो उसकी आंखें खुली की खुली रह गई उसका घर राधिका के घर से बहुत ही छोटा था, लेकिन हर एक सामान बहुत ही स्लिके से रखा था और इसका श्रेय जाता है उसके घर में बनी वार्डरोब का जो उसके घर में आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी तो आप भी वार्डरोब बनवाने से पहले जान लें कुछ खास बातें जिससे आप का घर भी शानदार लगेगा. वार्डरोब का सही चयन आपके घर को ज़्यादा विशाल और व्यवस्थित दिखाता है जबकि एक गलत तरीके से चुनी गई वर्डरोब इसे तंग और अव्यवस्थित महसूस करा सकती है.
अपने घर में वर्डरोब के डिजाइन को चुनते समय जरूरी हैं कि कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखें.
वार्डरोब बनवाना चाहते हैं तो जान लें कि यह लम्बे समय का इन्वेस्टमेंट हैं इसलिए अच्छे प्रौडक्ट का प्रयोग करें.
वर्डरोब का डिजाइन घर के अनुसार होना चाहिए यदि घर छोटा है तो स्लाइडिंग वाले वार्डरोब बनवाएं ये जगह कम घेरती हैं और अगर आपके पास सही जगह हैं तो आप पल्ले वाली वार्डरोब बनवाएं क्योंकि इनमे सामान रखने का स्पेस ज्यादा होता है.इसे एमडीएफ बोर्ड, BWP प्लाईवुड, HDHMR, शटर के लिए मिरर और ग्लास तथा लैकवर्ड ग्लास में बनवा सकते हैं.
कांच के डोर बनवाना चाहती हैं तो जान ले की इनकी देख रेख लकड़ी की वोर्डरोब से ज्यदा है और ध्यान रखें कि अच्छी क्वालिटी का कांच लगवाएं.
स्मार्ट स्टोरज के लिए वोर्डरोब आर्गेनाइजर अवश्य लगवाएं बास्केट पुलआउट, दीवार में लगे हैंगर, बिल्टइन आयरन बोर्ड दराज, टाई और बेल्ट पुल-आउट,पेंट और साड़ी पुल-आउट,पुल आउट शू रैक अवश्य बनवाएं साथ ही आप अटैच्ड ड्रेसिंग भी तैयार करा सकते हैं जिसमे एल ई डी लाइट लगवाने ना भूलें.
बेहतर क्वालिटी का सामान लम्बे समय तक चलता है इसलिए घर चाहे छोटा हो या बड़ा आपकी वर्डरोब स्मार्ट होंगी तो आपके घर कि स्मार्टनेस साफ झलकेगी.
यदि आप आकार, क्षमता, शैली, डिजाइन, सामग्री और इसकी गुणवत्ता को हमेशा ध्यान में रखें. क्योंकि बेहतर क्वालिटी का सामान ज्यादा लम्बे समय तक चलता है.आजकल फर्श से छत तक बनी वर्डरोब का चलन अधिक है. यदि आप कांच के डोर वाली अलमारी बनवाने जा रहे हैं तो अच्छी क्वालिटी का कांच लगवाएं व साथ ही ध्यान रखें कि इनकी देख रेख लकड़ी की अलमारी से अधिक होती है.आजकल हेंडल लेस अलमारी व लाइटिंग का काफ़ी चलन है. साथ ही वर्डरोब के साथ ड्रेसिंग भी बनवा सकती हैं.
अखिल को अक्सर घर काटने को दौड़ता पत्नी बच्चे सब पराएपराए से लगते थे. उसका मन करता,घर से कहीं बाहर निकल जाये और सड़कों पर तब तक घूमता रहे,जब तक थक कर टूट न जाए और फिर घर लौटकर आये तो गहरी नींद सो जाए,ताकि उसकी पत्नी के ऊंचे बोलने की आवाज और बच्चों की चिल्लपे उसे सुनाई ही न दें. उसे लगता उसके अपने परिवार के लोग ही उसके सबसे बड़े दुश्मन हैं. उसके परिवार ने ही उसकी सुख शांति छीन ली है .
उसे अपने मित्र समर से ईर्ष्या होती. सोचता कितनी सुशिक्षित,और सभ्य पत्नी मिली है समर को,जिसकी एक मुस्कान और झलक देखकर ही मन खिल उठता है. फिर सोचता,उसकी पत्नी भी देखने में तो बुरी नहीं है.लेकिन दो बच्चों की मां बनते ही अपनी दुनिया में ऐसे खो गयी है,जैसे और किसी काम से उसका वास्ता ही न हो.थक जाए तो अपनी खीझ बच्चों पर उतारती है.
अखिल ऐसा अनुभव करता , जैसे उसने शादी करके बहुत बड़ी मुसीबत मोल ले ली है. शादी से पहले उसने जो भी सपने देखे थे,वो सब मिट्टी में मिल गये हैं. अब तो मौत ही उसे इस जीवन से छुटकारा दिला सकती है.
समर के समझाने पर अखिल साइकैटरिस्ट से मिला. अखिल ने जब अपने दिल की बात उन से कही तो उन्होंने अखिल को समझाया और फिर जीवन के प्रति अखिल का नजरिया बदल गया. आइए जानते हैं उन्होंने अखिल से क्या कहा.
एक समय था जब शादी को सात जन्मों का बंधन माना जाता था. प्यार के रिश्ते को मरते दम तक निभाने की कसमें खाई जाती थीं. लेकिन आज के समय में प्यार, साथ और अपनेपन के ये रिश्ते बदल गए हैं. अब कपल्स इतने प्रैक्टिकल हो गए हैं कि थोड़ा सा भी मतभेद या मनभेद उनके रिश्ते पर हावी हो जाता है. वे स्थितियों को संभालने की जगह, उनसे पीछा छुड़वाना बेहतर समझते हैं. रिश्ता निभाने की जगह, उससे दूर जाना अच्छा समझते हैं. हालांकि रिश्तों की गणित में अगर आप गुणा और जोड़ करना सीख लें तो जिंदगी बेहतर हो सकती है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या कोई ऐसा फार्मूला है, जो प्यार और रिश्ते दोनों को संभाल सके. तो इसका जवाब है, जी हां. यह शानदार फार्मूला है 3+1 रूल.
मशहूर मोटिवेशनल स्पीकर और लेखक साइमन सिनेक ने रिश्तों का यह अनोखा रूल बनाया है. सिनेक का कहना है कि अगर कोई भी कपल चाहे वो पति-पत्नी हो या गर्लफ्रेंड-बौयफ्रैंड 3+1 रूल को फौलो करता है तो रिश्ता निभाने की संभावना काफी हद तक बढ़ जाती है. इस रूल में तीन बातें मुख्य हैं और एक उनका सार है.
कोई भी रिश्ता भावनाओं के बिना अधूरा है. भावनाएं रिश्ते के हरे भरे पेड़ की जड़ों की तरह हैं. ये जड़ें जितनी गहरी और मजबूत होंगी, रिश्तों की हरियाली उतनी ही ज्यादा होगी. इसलिए रिलेशनशिप में पार्टनर्स को एक दूसरे की फीलिंग समझनी चाहिए और उनका सम्मान भी करना चाहिए. साथ ही जरूरत के समय आपस में इमोशनल सपोर्ट भी देना चाहिए. इससे रिश्ते में मजबूती आती है.
जब पार्टनर एकदूसरे की महत्वाकांक्षाओं, करियर, गोल्स को समझ कर, उन्हें पाने के लिए साथ कोशिश करते हैं तो ऐसा करना आपके रिश्ते को मजबूती देता है. एक दूसरे से कुछ सीखने और कुछ सिखाने की प्रवृति आपके रिश्ते के जोड़ को मजबूती देगी. इससे रिश्ते में हमेशा नयापन बना रहता है. साथ ही सम्मान की भावना भी बढ़ती है.
रिश्ते में कई बार आकर्षण को लोग प्यार समझ लेते हैं. लेकिन ऐसा रिश्ता लंबे समय तक नहीं चल पाता है. इसलिए रिलेशन में सेक्शुअल कंपैटिबिलिटी होना जरूरी है. एक दूसरे की जरूरतों को समझें, उनका सम्मान करें और इस मुद्दे पर खुलकर बात करें. इससे आपका रिश्ता मजबूत होगा.
इन तीनों रूल्स के अलावा एक और रूल है, जो रिश्तों के घरोंदे को खूबसूरती देता है. दरअसल, हर कपल की परिस्थितियां, प्राथमिकताएं, समय और जरूरतें अलग-अलग होती हैं. इसलिए ये जरूरी नहीं है कि सब पर एक ही रूल लागू हो. इसलिए +1 रूल की जरूरत है. इसका मतलब है कि आप रिश्ते को अपने अनुसार संभालें और संवारें. एक-दूसरे का साथ देने के साथ ही एक दूसरे का सम्मान करें, प्यार करें और परिस्थितियों को समझने का प्रयास करें.
मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.
‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :
आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.
आप का, अमर.
मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.
एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.
मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’
‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’
‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’
‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.
‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.
‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.
‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.
अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’
वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.
‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.
‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.
‘अमर विश्वास.’
‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’
‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.
‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.
‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.
उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.
‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.
अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.
‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’
‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’
वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.
कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.
दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.
मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?
मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.
शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.
मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.
‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.
मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.
अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.
इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.
मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.