बाजारीकरण: नीला ने क्यों रखी किराए पर कोख

आजनीला का सिर बहुत तेज भन्ना रहा था, काम में भी मन नहीं लग रहा था, रात भर सो न सकी थी. इसी उधेड़बुन में लगी रही कि क्या करे और क्या न करे? एक तरफ बेटी की पढ़ाई तो दूसरी तरफ फीस की फिक्र. अपनी इकलौती बच्ची का दिल नहीं तोड़ना चाहती थी. पर एक बच्चे को पढ़ाना इतना महंगा हो जाएगा, उस ने सोचा न था. पति की साधारण सी नौकरी उस पर शिक्षा का इतना खर्च. आजकल एक आदमी की कमाई से तो घर खर्च ही चल पाता है. तभी बेचारी छोटी सी नौकरी कर रही थी. इतनी पढ़ीलिखी भी तो नहीं थी कि कोई बड़ा काम कर पाती. बड़ी दुविधा में थी.

‘यदि वह सैरोगेट मदर बने तो क्या उस के पति उस के इस निर्णय से सहमत होंगे? लोग क्या कहेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि सारे रिश्तेनातेदार उसे कलंकिनी कहने लगें?’ नीला सोच रही थी.

तभी अचानक अनिता की आवाज से उस की तंद्रा टूटी, ‘‘माथे पर सिलवटें लिए क्या सोच रही हो नीला?’’

‘‘वही निशा की आगे की पढ़ाई के बारे में. अनिता फीस भरने का समय नजदीक आ रहा है और पैसों का इंतजाम है नहीं. इतना पैसा तो कोई सगा भी नहीं देगा और दे भी दे तो लौटाऊंगी कैसे? घर जाती हूं तो निशा की उदास सूरत देखी नहीं जाती और यहां काम में मन नहीं लग रहा,’’ नीला बोली.

‘‘मैं समझ सकती हूं तुम्हारी परेशानी. इसीलिए मैं ने तुम्हें सैरोगेट मदर के बारे

में बताया था. फिर उस में कोई बुराई भी नहीं है नीला. जिन दंपतियों के किसी कारण बच्चा नहीं होता या फिर महिला में कोई बीमारी हो जिस से वह बच्चा पैदा करने में असक्षम हो तो ऐसे दंपती स्वस्थ महिला की कोख किराए पर लेते हैं. जब बच्चा पैदा हो जाता है, तो उसे उस दंपती को सुपुर्द करना होता है. कोख किराए पर देने वाली महिला की उस बच्चे के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं होती और न ही उस बच्चे पर कोई हक. इस में उस दंपती महिला के अंडाणुओं को पुरुष के शुक्राणुओं से निषेचित कर कोख किराए पर देने वाली महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. यह कानूनन कोई गलत काम नहीं है. इस से तुम्हें पैसे मिल जाएंगे जो तुम्हारी बेटी की पढ़ाई के काम आएंगे.’’

‘‘अनिता तुम तो मेरे भले की बात कह रही हो, किंतु पता नहीं मेरे पति इस के लिए मानेंगे या नहीं?’’ नीला ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘और फिर पड़ोसी? रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

अनिता ने कहा, ‘‘बस तुम्हारे पति मान जाएं. रिश्तेदारों की फिक्र न करो. वैसे भी तुम्हारी बेटी का दाखिला कोटा में आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराने वाले इंस्टिट्यूट में हुआ है. वह तो वहां जाएगी ही और यदि तुम कोख किराए पर दोगी तो तुम्हें भी तो ‘लिटल ऐंजल्स’ सैंटर में रहना पड़ेगा जहां अन्य सैरोगेट मदर्स भी रहती हैं. तब तुम कह सकती हो कि अपनी बेटी के पास जा रही हो.’’

नीला को अनिता की बात जंच गई. रात को खाना खा सोने से पहले जब नीला ने अपने पति को यह सैरोगेट मदर्स वाली बात बताई तो एक बार तो उन्होंने साफ मना कर दिया, लेकिन नीला तो जैसे ठान चुकी थी. सो अपनी बेटी का वास्ता देते हुए बोली, ‘‘देखोजी, आजकल पढ़ाई कितनी महंगी हो गई है. हमारा जमाना अलग था. जब सरकारी स्कूलों में पढ़ कर बच्चे अच्छे अंक ले आते थे और आगे फिर सरकारी कालेज में दाखिला ले कर डाक्टर, इंजीनियर आदि बन जाते थे, पर आजकल बहुत प्रतिद्वंद्विता है. बच्चे अच्छे कोचिंग सैंटरों में दाखिला ले कर डाक्टरी या फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा की तैयारी करते हैं. हमारी तो एक ही बेटी है. वह कुछ बन जाए तो हमारी भी चिंता खत्म हो जाए. उसे कोटा में दाखिला मिल भी गया है. अब बस बात फीस पर ही तो अटकी है. यदि हम उस की फीस न भर पाए तो बेचारी आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी न कर पाएगी. दूसरे बच्चे उस से आगे निकल जाएंगे. आजकल बहुत प्रतियोगिता है. यदि उस ने वह परीक्षा पास कर भी ली, तो हम आगे की फीस न भर पाएंगे. फिर खाली इंस्टिट्यूट की ही नहीं वहां कमरा किराए पर ले कर रहने व खानेपीने का खर्चा भी तो बढ़ जाएगा. हम इतना पैसा कहां से लाएंगे?’’

‘‘अनिता बता रही थी कि कोख किराए पर देने से क्व7-8 लाख तक मिल जाएंगे. फिर सिर्फ 9 माह की ही तो बात है. उस के बाद तो कोई चिंता नहीं. हमें अपनी बेटी के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. पढ़ जाएगी तो कोई अच्छा लड़का भी मिल जाएगा. जमाना बदल रहा है हमें भी अपनी सोच बदलनी चाहिए.’’

नीला के  बारबार कहने पर उस के पति मान गए. अगले दिन नीला ने यह बात खुश हो कर अनिता को बताई. अब नीला बेटी को कोटा भेजने की व स्वयं के लिटल ऐंजल्स जाने की तैयारी में जुट गई. उसे कुछ पैसे कोख किराए पर देने के लिए ऐडवांस में मिल गए. उस ने निशा को फीस के पैसे दे कर कोटा रवाना किया और स्वयं भी लिट्ल ऐंजल्स रवाना हो गई.

वहां जा कर नीला 1-1 दिन गिन रही थी कि कब 9 माह पूरे हों और वह उस दंपती

को बच्चा सौंप अपने घर लौटे. 5वां महीना पूरा हुआ. बच्चा उस के पेट में हलचल करने लगा था. वह मन ही मन सोचने लगी थी कि लड़का होगा या लड़की. क्या थोड़ी शक्ल उस से भी मिलती होगी? आखिर खून तो बच्चे की रगों में नीला का ही दौड़ रहा है. क्या उस की शक्ल उस की बेटी निशा से भी कुछ मिलतीजुलती होगी? वह बारबार अपने बढ़ते पेट पर हाथ फिरा कर बच्चे को महसूस करने की कोशिश करती और सोचती की काश उस के पति भी यहां होते. उस के शरीर में हारमोन भी बदलने लगे थे. नौ माह पूरे होते ही नीला ने एक स्वस्थ लड़की को जन्म दिया. वे दंपती अपने बच्चे को लेने के इंतजार में थे. नीला उसे जी भर कर देखना चाहती थी, उसे चूमना चाहती थी, उसे अपना दूध पिलाना चाहती थी, किंतु अस्पताल वालों ने झट से बच्चा उस दंपती को दे दिया. नीला कहती रह गई कि उसे कुछ समय तो बिताने दो बच्चे के साथ. आखिर उस ने 9 माह उसे पेट में पाला है. लेकिन अस्पताल वाले नहीं चाहते थे कि नीला का उस बच्चे से कोई भावनात्मक लगाव हो. इसलिए उन्होंने उसे कागजी कार्यवाही की शर्तें याद दिला दीं. उन के मुताबिक नीला का उस बच्चे पर कोई हक नहीं होगा.

नीला की ममता चीत्कार कर रही थी कि अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए उस ने अपनी कोख 9 माह किराए पर क्यों दी. ऐसा महसूस कर रही थी जैसे ममता बिक गई हो. वह मन ही मन सोच रही थी कि वाह रे शिक्षा के बाजारीकरण, तूने तो एक मां से उस की ममता भी खरीद ली.

पेशी : क्या थी न्यायाधीश के बदले व्यवहार की वजह?

लेखक- डा. नंदकिशोर चौरसिया

प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, शिवपुर में डा. राजेश इकलौते चिकित्सक हैं. आज वे बहुत जल्दी में हैं क्योंकि उन्हें सरकारी गवाह के तौर पर गवाही देने के लिए 25 किलोमीटर दूर शाहगांव की अदालत में जाना है.

डा. राजेश ने चिकित्सालय में 2-4 मरीज देखे, फिर सिस्टर को बुला कर कहा, ‘‘सिस्टर, मैं शाहगांव कोर्ट जा रहा हूं, आप मरीजों को दवाएं दे दीजिएगा, कोई अधिक बीमार हो तो रेफर कर दीजिएगा.’’

डा. राजेश बाइक से शाहगांव के लिए चल दिए, वे ठीक 11 बजे न्यायालय पहुंच गए. न्यायालय के बाहर सन्नाटा था. कुछ पक्षी, विपक्षी और निष्पक्षी लोग, चायपान की दुकान में चायपान कर रहे थे.

डा. राजेश ने सोचा कि बयान हो जाए तभी खाना खाऊंगा और 1 बजे तक शिवपुर पहुंच जाऊंगा. इसलिए वे सीधे न्यायालय के कक्ष में चले गए. न्यायालय के कक्ष में 1-2 बाबू और 1 पुलिस वाला फाइलें उलटपलट रहे थे. डा. राजेश ने पुलिस वाले को समन दिखा कर उस को पदोन्नत करते हुए कहा, ‘‘चीफ साहब, मेरा बयान शीघ्र करा दें, अपने अस्पताल में मैं अकेला हूं.’’

‘‘साहब अभी चैंबर में हैं, उन के आने पर बात कर लीजिएगा,’’ पुलिस वाले ने

डा. राजेश से कहा.

डा. राजेश कक्ष में पड़ी एक बैंच पर बैठ गए. उन्होंने देखा कि न्यायाधीश की टेबल पर एक लैपटौप रखा है और टेबल के दोनों छोर पर एकएक टाइपिंग मशीन रखी थी. न्यायाधीश महोदय की कुरसी के पीछे की दीवार पर हृष्टपुष्ट और मुसकराते हुए गांधीजी की तसवीर टंगी थी. तसवीर के  गांधीजी अदालत की ओर न देख कर बाहर खिड़की की ओर देख रहे थे. तसवीर पर 4-5 माह पुरानी, सूखी फूलों की एक माला टंगी थी. केवल जज साहब की कुरसी के ऊपर पंखा चल रहा था. तब डा. राजेश ने न्यायालय के सेवक से कहा, ‘‘भाई, गरमी लग रही है, पंखा चला दो.’’

सेवक तपाक से बोला, ‘‘इन्वर्टर का कनैक्शन केवल साहब के लिए है.’’

कमरे के सारे लोग पसीनापसीना हो रहे थे. पक्षीविपक्षी (वादी, प्रतिवादी) अपने वकीलों के साथ आ कर बाबू से बात कर रहे थे, वे शायद अगली पेशी की सुविधाजनक तारीख ले रहे थे.

बाबू लोग फाइलें व कागज ले कर साहब के कक्ष में आजा रहे थे. फिर जज साहब के कक्ष से डिक्टेशन और टाइपिंग की आवाजें आने लगीं. वे शायद कोई फैसला लिखवा रहे थे. अब तक 1 बज गया था. डा. राजेश गरमी और अनावश्यक बैठने के कारण विचलित हो कर सोचने लगे कि जैसे उन्होंने अपराध किया हो. उन के मन में बचाव पक्ष के वकील के प्रश्नों, तर्कों, वितर्कों का भय और चिंतन भी था. तभी सेवक, साहब की टेबल पर 1 गिलास पानी रख गया.

साहब कुरसी पर आए. उन के चेहरे पर शासन और अभिजात्य की आभा प्रदीप्त थी. उन्होंने दो घूंट पानी पिया, कुछ फाइलें देखीं. तभी लोक अभियोजक, कुछ वकील और कुछ वादीप्रतिवादी आ गए. साहब ने जब तक फैसला सुनाया तब तक भोजनावकाश हो गया था.

भोजनावकाश के बाद जज साहब आए तब डा. राजेश ने विनती की, ‘‘सर, मैं डा. राजेश हूं, मेरा बयान हो जाए तो अच्छा है.’’

न्यायाधीश महोदय ने उन का समन देखा, फाइल देखी. उन्होंने प्रतिवादी को आवाज लगवाई परंतु तब तक प्रतिवादी का वकील नहीं आया था. तब जज साहब ने कहा, ‘‘डाक्टर साहब, थोड़ा और रुकें, आप को प्रमाणपत्र तो पूरे दिन का ही दिया जाएगा.’’

प्रतिवादी ने वकील को बुलवाया, वह करीब 4 बजे आया. वकील ने फाइल देख कर कहा कि डाक्टर ने तो वादी को कोई चोट ही नहीं लिखी, इसलिए बयान की कोई आवश्यकता नहीं है. डाक्टर को कोर्ट आने का प्रमाणपत्र दिया गया. डा. राजेश खिन्न मन से, भुनभुनाते हुए वापस शिवपुर लौट गए.

न्यायाधीश महोदय अवकाश के बाद शाहगांव लौट रहे थे. शिवपुर के पास ही दिन के 3 बजे उन की गाड़ी का ऐक्सीडैंट हो गया. उन के साथी को कई जगह चोट आई और सिर से खून बहने लगा. साथी को ले कर जज साहब शिवपुर अस्पताल आए पर अस्पताल में ताला लगा था. डाक्टर के आवास में भी ताला लगा था. अस्पताल का सेवक दौड़ कर सिस्टर को बुला लाया.

जज साहब ने सिस्टर को डांटते हुए कहा, ‘‘अस्पताल क्यों बंद है, डाक्टर कहां है?’’

सिस्टर ने धीरे से बताया, ‘‘सर, अस्पताल तो 1 बजे बंद हो जाता है और डाक्टर साहब तो पेशी पर गए हैं.’’

जज साहब ने सिस्टर से कहा, ‘‘फोन कर के तुरंत डाक्टर को बुलाओ.’’

सिस्टर ने डाक्टर को फोन लगाया और रिंग जाने पर उस ने फोन जज साहब को दे दिया.

उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो.’’

‘‘मैं, सिविल जज, आप के अस्पताल से बोल रहा हूं. मेरे साथी को काफी चोट लगी है.’’

‘‘सर, मैं अभी आप के कोर्ट में ही हूं, जितनी देर में मैं आऊंगा उतनी देर में तो आप शाहगांव आ जाएंगे, फिर यहां पर सुविधा भी अधिक है,’’ डा. राजेश ने विनयपूर्वक  कहा.

जज साहब जब तक साथी को ले कर शाहगांव आए तब तक काफी खून बह चुका था. 2 यूनिट खून देने के बाद साथी को होश आया.

न्यायालय में आ कर जज साहब ने स्टाफ को निर्देशित किया कि अगर कोई चिकित्सक गवाही को आए तो यथाशीघ्र उस का बयान करा कर उसे जाने दिया जाए क्योंकि अस्पताल में बहुत से मरीज उस की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं.

World Blood Donor Day 2024 : महिलाओं को कब नहीं करना चाहिए ब्लड डोनेट ?

World Blood Donor Day 2024 : जब शरीर में खून की कमी हो जाती है, जान बचाने के लिए सिर्फ ब्लड बैंक ही सहारा होता है. इसलिए रक्तदान को महादान कहा जाता है. हर साल 14 जून को World Blood Donor Day मनाया जाता है. इस दिन का काफी महत्व है. कहा जाता है कि 1868 में आज ही के दिन मशहूर इम्यूनोलौजिस्ट कार्ल लैंडस्टीनर का जन्म हुआ था. उन्होंने ही ब्लड ग्रुप सिस्टम की खोज की थी. जिसके बाद ही कोई व्यक्ति रक्‍तदान में संभव हो सका. लेकिन पुरूष और महिला के रक्तदान करने का प्रोसेस अलगअलग है.

 

पुरुष हर तीन महीने में रक्तदान कर सकते हैं, तो वहीं महिलाएं चार महीने में ब्लड डोनेट कर सकती हैं. आइए ये भी जानते हैं किसे ब्लड डोनेट करना चाहिए और किसे नहीं?

कौन कर सकता है ब्लड डोनेट और कौन नहीं

  • अगर आप ब्लड डोनेट करना चाहते हैं, तो आपका वेट 45 किग्रा से कम नहीं होना चाहिए.
  • किसी व्यक्ति को खून से संबंधित कोई बीमारी है, तो ऐसा व्यक्ति भी किसी को ब्लड़ नहीं दे सकता है.
  • अगर कोई शख्स एचआईवी संक्रमित से पीड़ित है, तो वह रक्तदान नहीं कर सकता है.
  • जिन लोगों को कोई हार्ट प्रौब्लम हो या हाल ही में कोई सर्जरी हुई है, तो उन्हें भी ब्लड डोनेट नहीं करना चाहिए.

हालांकि ब्लड डोनेट करने से पहले चेकअप भी किया जाता है कि वह शख्स खून दे सकता है या नहीं.

महिलाएं कब न करें रक्तदान

  • अगर आप पीरियड्स से गुजर रही हैं, तो इस दौरान ब्लड डोनेट न करें.
  • डायबिटीज, सीने में दर्द या हाई बीपी की समस्या है, तो ब्लड डोनेट नहीं करना चाहिए.
  • जिन महिलाओं का वजन कम होता है या अक्सर थकान महसूस होती है, तो इस स्थिति में ब्लड डोनेट नहीं करना चाहिए.
  • जो महिलाएं हाल ही में मां बनी हैं या ब्रेस्ट फीडिंग के लगभग 1 साल बाद ही रक्तदान करना चाहिए. प्रेग्नेंसी में भी ब्लड डोनेट नहीं करना चाहिए.
  • महिलाओं को बौडी पियर्सिंग का काफी शौक होता है. अगर हाली ही में पियर्सिंग करवाई हैं, तो आप करीब 6 महीने तक ब्‍लड डोनेट नहीं कर सकती हैं.

फिट और खुश रहना है तो प्यार करें

शारीरिक रूप से फिट, दिल से कल्पनाशील और दिमाग से तरोताजा रहने के लिए न तो किसी जादू की जरूरत है और न ही किसी बहुत जटिल एक्सरसाइज से पसीना बहाने की. बस किसी से डूबकर प्यार करिये और ये तीनों मकसद हासिल कर लीजिए, बशर्ते आपकी किस्मत अच्छी हो यानी आपका प्यार एकतरफा न हो, उसे उतने ही गर्मजोशी से स्वीकारा जाए, जितनी गर्मजोशी से आपने पहल की होे. जी हां, यह कोई मजाक नहीं है. विज्ञान की कसौटी में बार बार कसा गया वह सच है, जिसे एक-दो नहीं लाखों लोगों ने आजमाकर देखा है और किसी ने धोखा नहीं खाया. दरअसल जब हम किसी से प्यार करते हैं तो दिल में, आसमान में उड़ने के लिए उमंगे मचलती हैं. ये उमंगें बहुत कुछ करती हैं मसलन- पेट में गुदगुदी करती हैं और हमारी ढेर सारी कैलोरी भी जलाती हैं. नतीजे में हम फिट रहते हैं, खुश रहते हैं और दिमागी रूप से चैतन्य रहते हैं.

रिसर्च बताती है कि जब हम जिसे प्यार करते हैं, उसे गर्मजोशी से चूमते हैं तो 90 कैलोरी जलती हैं. पता नहीं पिछली सदी के 70 के दशक में पश्चिमी दुनिया में धूम मचाने वाले म्यूजिक बैंड बीट्लस को यह बात पता थी या नहीं, लेकिन जब बीट्लस ने झूमकर गया ‘आई नीड समबडी टू लव’ और कुछ लोगों ने इस गीत को व्यवहार में आजमाया तो पाया कि हां, आश्चर्यजनक रूप से किसी को प्यार करना, खुश और सेहतमंद होने की गारंटी है. जब हम किसी के साथ एक बेहद नशीले रोमांस से गुजरते हैं तो दिल से लेकर दिमाग तक पोर पोर तरोताजा हो जाते हैं. इससे हमारे शरीर का अतिरिक्त बौडी फैट पिघलकर हमें सांचे में ढाल देता है. हालांकि यह सब कुछ इतना मशीनी भी नहीं है, इस मामले में सबके अनुभव अलग अलग हैं.

मानव संबंधों के विश्वकोश के सह-संपादक रहे पीएचडी हैरी रीस कहते हैं, ‘हमने बहुत से लोगों से इस संबंध में उनके निजी अनुभवों को जाना है कि एक दूसरे को बहुत गहराई से प्यार करने पर प्यार की भावनाएं दोनो पार्टनरों को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के नजरिये से गहरे तक प्रभावित करती हैं. रिसर्च बताती है कि एक दूसरे को बहुत गहरे प्यार करने वाले जोड़े आमतौर पर डॉक्टर के पास बहुत कम जाते हैं. हजारों लोगों के निजी अनुभवों के जरिये यह जाना गया है कि ऐसे जोड़ों को किसी वजह से अगर डॉक्टर के पास जाना भी पड़ता है, तो अव्वल तो इन्हें अस्पताल में ठहरने की जरूरत नहीं पड़ती और रूकना भी पड़ा तो बाकी लोगों के मुकाबले यह अवधि बहुत कम होती है.’

हालांकि रीस कहते हैं विज्ञान इसके पीछे के अंतिम सच को यूनिवर्सल तथ्य के रूप में जान पाने में असमर्थ है. लेकिन जो ठोस अनुमान है, वो यही है कि जब हम किसी से प्यार करते हैं तो अपना और उसका अच्छे से ख्याल रखते हैं. एक दूसरे को अच्छा लगने की कोशिश करते हैं. साफ सुथरा और खुश रहते हैं. अवसाद से मुक्त रहते हैं. ऐसे में इस तरह के हार्मोन्स का स्राव नहीं होता या बहुत कम होता है, जो हमें थकाते और चिड़चिड़ा बनाते हैं. वास्तव में जब हम किसी के साथ दिल की गहराईयों तक प्रेम में डूबे होते हैं तो शराब कम पीते हैं, नकारात्मक बातें कम करते हैं, इस सबसे भी सेहत पर बहुत फर्क पड़ता है. प्यार की खुशी हमारे रक्तचाप को संतुलित रखती है. न यह इसे बहुत ज्यादा बढ़ने देती है और न ही डूबने की हद तक घटने देती है. जब हम किसी के साथ प्यार में डूबे होते हैं तो चिंताएं बहुत कम होती हैं, जरूरतें भी बहुत ज्यादा नहीं होतीं. किसी को डूबकर प्यार करने से हमें तमाम किस्म के प्राकृतिक दर्दों से छुट्टी मिल जाती है. 1 लाख 27 हजार ऐसे वयस्क लोगों के बीच यह सर्वे किया गया, जो किसी के प्यार में थे या उनकी कुछ ही दिन पहले शादी हुई थी.

ऐसे लोगों में महज 5 फीसदी सिरदर्द और कमरदर्द की शिकायतें पायी गईं. दरअसल जब हम किसी के प्यार में होते है तो हम तनाव में नहीं जाते. अगर कभी किसी वजह से तनाव में घिरे भी तो इसका बहुत बेहतर तरीके से प्रबंधन कर लेते हैं. तनाव का सोशल सपोर्ट से बहुत सीधा रिश्ता होता है यानी अगर हम तनाव में हों और कोई हमारे तनाव को बांटने के लिए कोई हो तो भले व्यवहारिक रूप से ये तनाव बंटे न, पर कम जरूर हो जाता है. जब हम किसी से गहरे प्यार में होते हैं तो हमें सर्दी जुकाम जैसी छोटी मोटी शारीरिक समस्याएं नहीं होती. एंजायटी और डिप्रेशन से भी हम बचे रहते हैं और अगर कभी ऐसी समस्याएं हो जाएं तो भी बहुत जल्द ही खत्म हो जाती हैं. इससे पता चलता है कि प्यार करने और फिट रहने का सिर्फ भावनात्मक रिश्ता ही नहीं है, इसका शारीरिक रिश्ता भी है. जब आपको दिल से प्यार करने वाला पार्टनर अंतरंगता के क्षणों में आपके कपड़े उतारता है, तो 80 कैलोरी तक बर्न होती हैं. यही फायदा मालिश से होता है और संभोग में 144 से 207 तक कैलोरी जलती है. जब आप अपने प्रेम करने वाले पार्टनर के साथ डांस करते हैं तो 200 कैलोरी जलती है. इस तरह हम प्यार में सिर्फ खुश नहीं रहते, फिट भी रहते हैं.

फेसबुकिया समाज का सच

दुनिया में तरहतरह की जातियां, जनजातियां और उपजातियां हैं. सभी अपनेअपने में मस्त हैं. कभी दुखी हैं तो कभी सुखी. दुखसुख तो लगा ही रहता है. ऐसे ही है एक फेसबुकिया समाज, जहां हर छोटेबड़े, अमीरगरीब, हर धर्म व जाति के लोगों को बराबर का स्थान प्राप्त है.

फेसबुकिया कई प्रकार के होते हैं. एक बहुत ही हलके टाइप फेसबुकिया होते हैं जो कभीकभार भूलेभटके यहां विचरण करते हैं. इन से बढ़ कर मिडिल क्लास यानी वे फेसबुकिया होते हैं जो थोड़ेथोड़े समय के अंतराल पर इस समाज में घुसपैठ करते रहते हैं. हैलोहाय की, हिंदी, अंगरेजी या किसी भी भाषा में दसपांच लाइनें लिखींपढ़ीं, कुछ लाइकवाइक, कमैंटशमैंट किए और फिर बैक टू पवेलियन हुए.

एक होते हैं अत्यंत कट्टर फेसबुकिया. असल में फेसबुक इन्हीं लोगों की बदौलत चमकती है क्योंकि इन का उठनाबैठना, चलनाफिरना, खानापीना, सोनाजागना, आनाजाना, रोनाहंसना सब फेसबुक से ही होता है यानी फेसबुक के नाम से शुरू, फेसबुक के नाम पर खत्म. फेसबुक इन से और ये फेसबुक से होते हैं. ये फेसबुकिया किसी के मरने की खबर को भी लाइक करते हैं.

ये जो कट्टर फेसबुकिया होते हैं न, वे सुबह उठते ही ब्रश करने से पहले आंखें मींचते हुए फेसबुकियाने बैठ जाते हैं. जिसे कुछ आता है वह अपनी वाल पर कुछ लिखता है, जिसे नहीं आता वह भी कुछ लिखता ही है.

तमाम किताबें उलटतेपलटते जितना कि इग्जाम के समय कोर्स की किताबें भी नहीं उलटीपलटी होंगी या फिर किसी शेरोशायरी की किताब से ही कुछ उड़ा कर अपनी वाल पर लगा लेते हैं या लिख लेते हैं. और अगर कुछ नहीं मिला तो अपने घर की कोई रामकहानी, जैसे ‘कल मेरी बालकनी में एक गोरैया आई थी…’ या ‘मेरी बगिया में कल एक गुलाब की कली निकली…’ अथवा ‘मैं फलां जगह की यात्रा से लौटा हूं… या जाने वाला हूं’ वगैरहवगैरह लिखते हैं. लिखने के बाद उन के दिल की धड़कन तब तक रुकी रहती है जब तक उन के स्टेटस को कोई दूसरा फेसबुकिया लाइक न कर दे या फिर 2-4 कमैंट स्टेटस की झूठीसच्ची प्रशंसा में न ठोंक दे.

अगर जल्दी ही कुछ लोगों ने लाइक कर दिया और कोई कमैंट ठोंक दिया तो समझो कि उन का फेसबुकिया होना सार्थक हो गया. दिन भी बहुत अच्छा गुजरेगा. कहीं लाइक कमैंट करने वाले फेसबुकियों की संख्या उन के अनुमान से ज्यादा हो गई तो सोने पे सुहागा. ये वैसे ही खुश होते हैं जैसे कोई नेता अनुमान से कहीं अधिक वोट पा कर फूला नहीं समाता. और अगर किसी ने लाइक नहीं किया तो बेचारों का दिन खराब. मुंह ऐसे लटकता है जैसे जून की तपती धूप में पीले कनेर का मुरझाया फूल.

बड़े लुटेपिटे, थकेहारे भाव से वे उठ कर दैनिक क्रियाकलापों को निबटाना शुरू करते हैं. कुछ समय बाद फोन कर के कट्टर, हलके या अत्यंत हलके फेसबुकिया समाज के अन्य सदस्यों, जो उन के जरा ज्यादा करीब होते हैं, से अपने स्टेटस को बिना पढ़े लाइक करने और कुछ कमैंट करने का अनुरोध भी करते हैं, बड़ी विनम्रतापूर्वक डरते हुए कि कहीं अगला मना न कर दे या व्यस्तता का बहाना न बना दे.

असली फेसबुक पूजा मतलब किसी तप करने वाले साधुमहात्मा की तरह करने वाला हठयोग तो अब शुरू होता है. फोन करने के बाद लाइक, कमैंट के इंतजार करने में फेसबुक के सामने ही ब्रेकफास्ट करते हैं. और लंच तक वहीं डटे रहते हैं. समय गुजरता ही रहता है, उस का काम ही यही है, लेकिन ये लोग लंच के बाद शाम की चाय और फिर डिनर के बाद तक कर्तव्यनिष्ठ फेसबुकिया की तरह ऐसे जमे रहते हैं जैसे फ्रीजर में बर्फ. अरे भाई, वहां एक ही काम थोड़े ही होता है, बहुत काम रहते हैं.

दूसरों का स्टेटस भी लाइक करना होता है. उस पर कमैंट करना होता है. यानी इस हाथ ले उस हाथ दे… दूसरों के स्टेटस को लाइक, कमैंट या शेयर नहीं करेंगे तो भैया दूसरे भी नहीं करेंगे. क्यों करें, जमाना निस्वार्थ नहीं रहा न. बीचबीच में हरी बत्ती वालों से, मतलब औनलाइन उपस्थित रहने वालों से, बतियाना भी तो रहता है.

ये लोग तब तक नहीं उठते जब तक आंखें थक न जाएं, पलकें मना न कर दें और उंगलियां टाइप करतेकरते दर्द से कराहने न लगें. भारी मन से ये लोग फेसबुक छोड़ते हैं और छोड़ते समय विदाई पर दुलहन के उदास होने से ज्यादा उदास होते हैं. इन लोगों को तो सपने में भी फेसबुक ही दिखती है. किस ने क्या लिखा, कौन सी फोटो लगाई और न जाने क्याक्या…

फेसबुकिया समाज में कुछ विचित्र जीव ऐसे भी होते हैं जो किसी को हरा होता देख, माफ कीजिएगा औनलाइन होता देख हाय, हैलो, हाऊ आर यू, हाऊ योर लाइफ, हाऊ वाज योर डे… जैसे जुमले पीटने शुरू कर देते हैं. एकसाथ ढेर सारे लोगों से जब तक ये बतिया न लें तब तक इन का खाना क्या, पानी की बूंद भी हजम नहीं होती.

और भाई, कुछ थोड़े इतर जीव होते हैं जो जाने कहां से उड़ा कर, चुरा कर गीत, गजलें, शेरोशायरी और न जाने क्याक्या अपने व दूसरों की वाल पर झोंके रहते हैं, भड़भूंजे के भाड़ की तरह.

पहले जब मेरा अकाउंट फेसबुक पर नहीं था तब मैं कहीं जाती थी चाहे कोई सम्मेलन हो, गोष्ठी हो, बाजारहाट या नातेरिश्तेदारियों अथवा जानपहचान वालों के यहां, सब मिलने पर यही पूछते थे, ‘आप का फेसबुक पर अकाउंट है, है तो किस नाम से, प्रोफाइल पिक्स कैसी है?’

‘नहीं, मैं नहीं हूं, वहां.’ मेरे नकारात्मक जवाब पर लोग ऐसे देखते थे जैसे मैं कितनी पिछड़ी, जाहिल, गंवार हूं. जब ऐसा कई बार हुआ तो मैं बड़ी शर्मिंदगी महसूस करने लगी. अपनी काबिलीयत पर शक होने लगा. फिर भैया, मैं ने भी अपना अकाउंट फेसबुक पर बना ही डाला. अब कहीं जाती हूं तो किसी के पूछने पर तुरंत ‘हां’ कहती हूं. यकीन मानिए, बड़े गर्व का अनुभव होता है और मैं बड़े चहकते स्वर में दूसरों से पूछती हूं, ‘क्या आप का फेसबुक पर अकाउंट है?’

मेरी एक जानने वाली हैं, दीदी, चाची, बूआ, भाभी…कौन? यह मैं नहीं बताऊंगी वरना उन के नाराज होने का भयंकर खतरा है. वे बड़ी कट्टर फेसबुकिया हैं. सुबह उन की आंखें फेसबुक पर ही खुलती हैं. ब्रशमंजन, नहानाधोना सब बाद में. बड़े मनोयोग से फेसबुक का निरीक्षण करती हैं. फिर जो कुछ फेसबुक पर घटित हुआ रहता है यानी लिखापढ़ी, लाइक, कमैंट, फोटो, टैगिंग आदिआदि, उस की चर्चापरिचर्चा बड़े विस्तार से अपने अन्य जानने वालों से फोन पर करती हैं. यह नियम सुबह, दोपहर, शाम और रात तक बिना बाधित हुए चलता है.

संयोग से किसी दिन उन की फेसबुक नहीं चलती, तब तो वे मुझ से अपनी वाल की डिटेल फोन पर लेती ही हैं साथ में, अपने अन्य खास लोगों की वाल डिटेल, लाइक, कमैंट के साथ लेती हैं.

एक बार उन के घर कुछ मेहमान आने वाले थे. डिनर पर उन्होंने मुझे भी बुलाया था. 9 बजे का टाइम था. पर सभ्यता का पालन करते हुए मैं 8 बजे ही पहुंच गई. मोहतरमा फेसबुक पर ही मिलीं, कंप्यूटर स्क्रीन में डूबी हुई सी. मैं ने सोचा, लगता है इन्होंने डिनर की पूरी तैयारी कर ली है और अब निश्ंिचतता से बैठी हैं.

‘‘शुचिता, यह देखो, मैं ने कितनी अच्छी फोटो लगाई है. और हां, ओल्ड सौंग लगाया था. तुम ने लाइक नहीं किया, कोई कमैंट लिख देतीं यार,’’ उन्होंने कहा फिर खिलखिलाने लगीं, ‘‘अरे, यह देखो, इतने लोग मेरी कविता को लाइक कर चुके हैं और ये इतने सारे कमैंट. गजब… वाह, मजा आ गया.’’

‘‘हां, सचमुच यह तो बहुत अच्छा है,’’ मैं ने कहा, इस के अलावा मुझे कुछ और सूझा नहीं.

मैं एक पत्रिका उठा कर देखने लगी. मन में सोचते हुए कि ये उठें तो जरा एक नजर मैं भी अपनी फेसबुक देख लूं. करीब आधे घंटे तक खामोशी छाई रही, जिसे तोड़ने के उद्देश्य से मैं ने कहा, ‘‘मेहमानों के आने का टाइम हो गया है, क्यों?’’

‘‘आं, हां, हां, देखो न, ये लिंक बड़े अच्छे गानों के हैं. जरा सुनते हैं,’’ उन्होंने कहा.

‘‘हां, अच्छा है,’’ मैं ने कहा, ‘‘अरे, आप के मेहमान कहां हैं, पता कीजिए?’’ मैं ने फिर गुस्ताखी की.

‘‘हां, कितने बजे हैं अभी?’’ उन्होंने फेसबुक पर नजरें टिकाए हुए ही कहा.

‘‘पौने 9,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्या? पौने 9? इतनी जल्दी कैसे पौने 9 बज गए?’’ उन्होंने नींद से जागते हुए कहा जैसे.

‘‘हां, पौने 9 ही बजे हैं,’’ मैं ने फिर से कहा.

अब उन्होंने फटाक से लौगआउट किया और सटाक से उठते हुए बोलीं, ‘‘यार, अभी तो मैं ने कुछ बनाया ही नहीं. असल में क्या हुआ, रमनजी ने बहुत बढि़या कविता लिखी थी, उसे पढ़ा और फिर सुमनजी से एक बड़े गंभीर विषय पर चैटिंग करने लग गई.’’

मुझे समझ में नहीं आया कि क्या करूं, क्या कहूं. मैं आश्चर्य से कभी कंप्यूटर को देखती तो कभी अपनी मेजबान को. तुरंत वे दौड़ती, हांफती किचन में पहुंचीं और हबड़तबड़ कुछ बनाना शुरू किया.

वह तो भला हो उन के मेहमानों का जो ट्रैफिक के कारण आधा घंटा लेट पहुंचे. आखिरकार चावल पकने तक हमसब को 20 मिनट इंतजार करना पड़ा था.

मेरी एक पड़ोसन हैं रागिनी शर्मा. जब भी सामने दिखेंगी, बस हायहैलो के अलावा कोई बात नहीं करतीं. मगर जब कभी फेसबुक पर औनलाइन मिलेंगी तो जाने कैसे दुनियाजहान की बातें उन्हें याद आती हैं बतियाने के लिए.

एक और पक्की फेसबुकिया हैं. एक बार मेरे यहां दावत पर आई थीं. सब लोग खाना खा रहे थे. सभी मटरपनीर और आलू की प्रशंसा कर रहे थे.

‘‘हां, कोफ्ता और भिंडी सचमुच बहुत टेस्टी बनी हैं,’’ उन्होंने बड़ी लंबी खामोशी के बाद अचानक कहा तो हम सब अचकचा कर उन का मुंह देखने लगे. लाइक, कमैंट की बात उन्होंने तुरंत शुरू कर दी और उन्हें यह भी पता नहीं चला कि क्या हुआ? खैर, मैं उन्हें क्या कहूं, जब से मैं खुद कट्टर फेसबुकिया बनी हूं मेरे घर, परिवार, अगलबगल, समाज, देशदुनिया में क्या हो रहा है, मुझे खुद किसी की फिक्र नहीं रहती, फिक्र रहती है तो बस फेसबुक की. यह एक तरह से अच्छा भी है, सुबह से रात तक इस की चिंता में डूबे रहने के कारण कोई और चिंता भी नहीं सताती.

बिजली, पानी, टैलीफोन का बिल जमा हो या न हो, कोई परवा नहीं करता है. लेकिन इंटरनैट का बिल नियत समय पर चाहे सर्दी हो, गरमी या बरसात, मैं बिना विलंब के जरूर जमा करने जाती हूं.

एक दिन पापा का शेविंग ब्रश कहीं खो गया. सब लोग उसे ढूंढ़ने में बिजी थे और मैं अपने प्रिय फेसबुक पर आनंदित थी. थोड़ी देर बाद पापा मेरे कमरे में आए और पूछने लगे, ‘‘क्या कर रही हो?’’

‘‘वो मैं… मैं आप का तौलिया ढूंढ़ रही हूं जो खो गया है,’’ हड़बड़ी में मेरे मुंह से यही निकला. मुझे सचमुच ध्यान नहीं था कि शेविंग ब्रश खोया है.

‘‘फेसबुक पर ढूंढ़ रही हो?’’ पापा ने कहा.

अब मुझे अपनी बेवकूफी और भूल का एहसास हुआ. उसी समय मेरे स्टेटस को कई लोगों ने लाइक किया था. सो, मैं खुश थी इसलिए कोई अफसोस नहीं हुआ. मैं फिर से वहीं जम गई और पापा चले गए.

मुझे तो फेसबुक की महिमा देख कर लगता है कि वह दिन दूर नहीं है जब एक ही घर के सदस्य अपनेअपने कमरे में बैठ कर फेसबुक पर ही औनलाइन बात करेंगे. अपनेअपने मोबाइल फोन से अपनी और अपने कुत्तेबिल्लियों की फोटो खींच अपडेट करेंगे और लाइक, कमैंट किया करेंगे… वैसे कितना अच्छा लगेगा,  जरा सोचिए… ‘जय हो फेसबुक की.’

ठंडक का एहसास

हमारे चाचाजी अपनी लड़की के लिए वर खोज रहे थे. लड़की कालेज में पढ़ाती थी. अपने विषय में शोध भी कर रही थी. जाहिर है लड़की को पढ़ालिखा कर चाचाजी किसी ढोरडंगर के साथ तो नहीं बांध सकते. वर ऐसा हो जिस का दिमागी स्तर लड़की से मेल तो खाए. हर रोज अखबार पलटते, लाल पैन से निशान लगाते. बातचीत होती, नतीजा फिर भी शून्य.

‘‘वकीलों के रिश्ते आज ज्यादा थे अखबार में…’’ चाचाजी ने कहा.

‘‘वकील भी अच्छे होते हैं, चाचाजी.’’

‘‘नहीं बेटा, हमारे साथ वे फिट नहीं हो सकते.’’

‘‘क्यों, चाचाजी? अच्छाखासा कमाते हैं…’’

‘‘कमाई का तो मैं ने उल्लेख ही नहीं किया. जरूर कमाते होंगे और हम से कहीं ज्यादा समझदार भी होंगे. सवाल यह है कि हमें भी उतना ही चुस्तचालाक होना चाहिए न…हम जैसों को तो एक अदना सा वकील बेच कर खा जाए. ऐसा है कि एक वकील का पेशा साफसुथरा नहीं हो सकता न. उस का अपना कोई जमीर हो सकता है या नहीं, मेरी तो यही समझ में नहीं आता. उस की सारी की सारी निष्ठा इतनी लचर होती है कि जिस का खाता है उस के साथ भी नहीं होती. एक विषधर नाग पर भरोसा किया जा सकता है लेकिन इस काले कोट पर नहीं. नहीं भाई, मुझे अपने घर में एक वकील तो कभी नहीं चाहिए.’’

चाचाजी के शब्द कहीं भी गलत नहीं थे. वे सच कह रहे थे. इस पेशे में सचझूठ का तो कोई अर्थ है ही नहीं. सच है कहां? वह तो बेचारा कहीं दम तोड़ चुका नजर आता है. एक ‘नोबल प्रोफैशन’ माना जाने वाला पेशा भी आज के युग में ‘नोबल’ नहीं रह गया तो इस पेशे से तो उम्मीद भी क्या की जा सकती है.

दोपहर को हम धूप सेंक रहे थे तभी पुराने कपड़ों के बदले नए बरतन देने वाली चली आई. उम्रदराज औरत है. साल में 2-3 बार ही आती है. कह सकती हूं अपनी सी लगती है. बरतन देखतेदेखते मैं ने हालचाल पूछा. पिछली बार मैं ने 2 जरी की साडि़यां उसे दे दी थीं. उस की बेटी की शादी जो थी.

‘‘शादी अच्छे से हो गई न रमिया… लड़की खुश है न अपने घर में?’’

‘‘जी, बीबीजी, खुश है…कृपा है आप लोगों की.’’

‘‘साडि़यां उसे पसंद आई थीं कि नहीं?’’

फीकी सी हंसी हंस गरदन हिला दी उस ने.

‘‘साडि़यां तो थानेदार ने निकाल ली थीं बीबीजी. आदमी को अफीम का इलजाम लगा कर पकड़ लिया था. छुड़ाने गई तो टोकरा खुलवा कर बरतन भी निकाल लिए और सारे कपड़े भी. पुलिस वालों ने आपस में बांट लिए. तब हमारा बड़ा नुकसान हो गया था. चलो, हो गया किसी तरह लड़की का ब्याह, यह सब तो हम गरीबों के साथ होता ही रहता है.’’

उस की बातें सुन कर मैं अवाक् रह गई थी. लोगों की उतरन क्या पुलिस वालों ने आपस में बांट ली. इतने गएगुजरे होते हैं क्या ये पुलिस वाले?

सहसा मेरे मन में कुछ कौंधा. कुछ दिन पहले मेरी एक मित्र के घर कोई उत्सव था और उस के घर हूबहू मेरी वही जरी की साड़ी पहने एक महिला आई थी. मित्र ने मुझे उस से मिलाया भी था. उस ने बताया था कि उस के पति पुलिस में हैं. तो क्या वह मेरी साड़ी थी? कितनी ठसक थी उस औरत में. क्या वह जानती होगी कि उस ने जिस की उतरन पहन रखी है, उसी के सामने ही वह इतरा रही है.

‘‘कौन से थाने में गई थी तू अपने आदमी को छुड़ाने?’’

‘‘बीबीजी, यही जो रेलवे फाटक के पीछे पड़ता है. वहां तो आएदिन किसी न किसी को पकड़ कर ले जाते हैं. जहान के कुत्ते भरे पड़े हैं उस थाने में. कपड़ा, बरतन न निकले तो बोटियां चबाने को रोक लेते हैं. मां पसंद आ जाए तो मां, बेटी पसंद आ जाए तो बेटी…’’

‘‘कोई कुछ कहता नहीं क्या?’’

‘‘कौन कहेगा और किसे कहेगा. उस से ऊपर वाला उस से बड़ा चोर होगा. कहां जाएं हम…बस, उस मालिक का ही भरोसा है. वही न्याय करेगा. इनसान से तो कोई उम्मीद है नहीं.’’

आसमान की तरफ देखा रमिया ने तो मन अजीब सा होने लगा मेरा. क्या कोई इतना भी नीचे गिर सकता है. थाली की रोटी तोड़ने से पहले इनसान यह तो देखता ही है कि थाली साफसुथरी है कि नहीं. लाख भूखा हो कोई पर नाली की गंदगी तो उठा कर नहीं खाई जा सकती.

रमिया से ऐसा कहा तो उस की आंखें भर आईं.

‘‘पेट की भूख और तन की भूख मैलीउजली थाली नहीं देखती बीबीजी. हम लोगों की हाय उन्हें दिनरात लगती है. अब देखना है कि उन्हें अपने किए की सजा कब मिलती है.’’

उस थानेदारनी के प्रति एक जिज्ञासा भाव मेरे मन में जाग उठा. एक दिन मैं अपनी उसी मित्र से मिलने गई. बातोंबातों में किसी बहाने उस का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘उस की साड़ी बड़ी सुंदर थी. मेरी मां के पास भी ऐसी ही जरी की साड़ी थी. पीछे से उसे देख कर लग रहा था कि मेरी मां ही खड़ी हैं. कैसे लोग हैं…इस इलाके में नएनए आए हैं…वे कोई नई किट्टी शुरू कर रही थीं और कह रही थीं कि मैंबर बनना चाहें तो…तुम कैसे जानती हो उन्हें?’’

‘‘उन का बेटा मेरे राजू की क्लास में है. ज्यादा जानपहचान नहीं करना चाहती हूं मैं…इन पुलिस वालों के मुंह कौन लगे. अब राजू ने बुला लिया तो मैं क्या कहती. तुम किट्टी के चक्कर में उसे मत डालना. ऐसा न हो कि उस की किट्टी निकल आए और बाकी की सारी तुम्हें भरनी पड़े. उस की हवा अच्छी नहीं है. शरीफ आदमी नहीं हैं वे लोग. औरत आदमी से भी दो कदम आगे है. मुंह पर तो कोई कुछ नहीं कहता पर इज्जत कोई नहीं करता.’’

अपनी मित्र का बड़बड़ाना मैं देर तक सुनती रही. अपने राजू की उन के बेटे के साथ दोस्ती से वे परेशान थीं.

‘‘कापीकिताब लेने अकसर उस का लड़का आता रहता है. एक दिन राजू ने मना किया तो कहने लगा कि शराफत से दे दो, नहीं तो पापा से कह कर अंदर करवा दूंगा.’’

‘‘क्या सच में ऐसा…?’’

मेरी हैरानी का एक और कारण था.

‘‘इन पुलिस वालों की न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी. मैं तो परेशान हूं उस के लड़के से. अपनी कुरसी का ऐसा नाजायज फायदा…समझ में नहीं आता कि राजू को कैसे समझाऊं. बच्चा है कहीं कह देगा कि मेरी मां ने मना किया है तो…’’

एक बेईमान इनसान अपने आसपास कितने लोगों को प्रभावित करता है, यह मुझे शीशे की तरह साफ नजर आ रहा था. एक चरित्रहीन इनसान अपनी वजह से क्याक्या बटोर रहा है. बदनामी और गंदगी भी. क्या डर नहीं लगता है आने वाले कल से? सब से ज्यादा विकार तो वह अपने ही लिए संजो रहा है. कहांकहां क्याक्या होगा, जब यही सब प्रश्नचिह्न बन कर सामने खड़ा होगा तब उत्तर कहां से लाएगा.

सच है, अपने दंभ में मनुष्य क्याक्या कर जाता है. पता तो तब चलता है जब कोई उत्तर ही नहीं सूझता. वक्त की लाठी में आवाज नहीं होती और जब पड़ती है तब सूद समेत सब वापस भी कर देती है.

कहने को तो हम सभ्य समाज में रहते हैं और सभ्यता का ही कहांकहां रक्त बह रहा है, हमें समझ में ही नहीं आता. अगर दिखाई दे भी जाए तो हम उस से आंखें फेर लेते हैं. बुराई को पचा जाने की कितनी अच्छी तरह सीख मिल चुकी है हमें.

गरीब बरतन वाली की पीड़ा और उस जैसी औरों पर गिरती थानेदार की गाज ने कई दिन सोने नहीं दिया मुझे. क्या हम पढ़ेलिखे लोग उन के लिए कुछ नहीं कर सकते? क्या हमारी मानसिकता इतनी नपुंसक है कि किसी का दुख, किसी की पीड़ा हमें जरा सा भी नहीं रुलाती? अगर ऊंचनीच का भेद मिटा दें तो एक मानवीय भाव तो जागना ही चाहिए हमारे मन में. अपने पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने गरदन हिला दी.

समाज इतना गंदा हो चुका है कि अपनी चादर को ही बचा पाना आज आसान नहीं रहा. दिन निकलता है तो उम्मीद ही नहीं कर सकते कि रात सहीसलामत आएगी कि नहीं. फूंकफूंक कर पैर रखो तो भी कीचड़ की छींटों से बचाव नहीं हो पाता. क्या करें हम? अपना मानसम्मान ही बचाना भारी पड़ता है और किसी को कोई कैसे बचाए.

मेरे पति जिस विभाग में कार्यरत हैं वहां हर पल पैसों का ही लेनदेन होता है. पैसा लेना और पैसा देना ही उन का काम है. एक ऐसा इनसान जिसे दिनरात रुपयों में ही जीना है, वही रुपए कब गले में फांसी का फंदा बन कर सूली पर लटका दें पता ही नहीं चल सकता. कार्यालय में आने वाला चोर है या साधु…समझ ही नहीं पाते. कैसे कोई काम कर पाए और कैसे कोई अपनी चादर दागदार होने से बचाए?

आज ईमानदारी और बेईमानी का अर्थ बदल चुका है. आप लाख चोरी करें, जी भर कर अपना और सामने वाले का चरित्रहनन करें. बस, इतना खयाल रखिए कि कोई सुबूत न छोड़ें. पकड़े न जाएं. यहीं पर आप की महानता और समझदारी प्रमाणित होती है. कच्चे चोर मत बनिए. जो पकड़ा गया वही बेईमान, जो कभी पकड़ा ही न जाए वह तो है ही ईमानदार, उस पर कैसा दोष?

इसी कुलबुलाहट में कितने दिन बीत गए. ‘कबिरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास, करन गे सो भरन गे तू क्यों भेया उदास’ की तर्ज पर अपने मन को समझाने का मैं प्रयास करती रही. बुराई का अंत कब होगा…कौन करेगा…किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था मुझे.

एक शाम मुझे जम्मू से फोन आया :

‘‘आप के शहर में कर्फ्यू लग गया है. क्या हुआ…आप ठीक हैं न?’’ मेरी बहन का फोन था.

‘‘नहीं तो, मुझे तो नहीं पता.’’

‘‘टीवी पर तो खबर आ रही है,’’ बहन बोली, ‘‘आप देखिए न.’’

मैं ने झट से टीवी खोला. शहर का एक कोना वास्तव में जल रहा था. वाहन और सरकारी इमारतें धूधू कर जल रही थीं. रेलवे स्टेशन पर भीड़ थी. रेलों की आवाजाही ठप थी.

एक विशेष वर्ग पर ही सारा आरोप आ रहा था. शहर के बाहर से आया मजदूर तबका ही मारकाट और आगजनी कर रहा था. एसएसपी सहित 12-15 पुलिसकर्मी भी घायल अवस्था में अस्पताल पहुंच चुके थे. मजदूरों के एक संगठन ने पुलिस पर हमला कर दिया था. मैं ने झट से पति को फोन किया. पता चला, उस तरफ भी बहुत तनाव है. अपना कार्यालय बंद कर के वे लोग बैठे हैं. कब हालात शांत होेंगे, कब वे घर आ पाएंगे, पता नहीं. बच्चों  के स्कूल फोन किया, पता चला वे भी डी.सी. के और्डर पर अभी छुट्टी नहीं कर पा रहे क्योंकि सड़कों पर बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. दम घुटने लगा मेरा. क्या सभी दुबके रहेंगे अपनेअपने डेरों में. पुलिस खुद मार खा रही है, वह बचाएगी क्या?

अपनी सहेली को फोन किया. कुछ तो रास्ता निकले. उस का बेटा राजू भी अभी स्कूल में ही है क्या?

‘‘क्या तुम्हें कुछ भी पता नहीं है? कहां रहती हो तुम? मैं ने तो राजू को स्कूल जाने ही नहीं दिया था.’’

‘‘क्यों, तुम्हें कैसे पता था कि आज कर्फ्यू लगने वाला है?’’

‘‘उस थानेदार की खबर नहीं सुनी क्या तुम ने? सुबह उस की पत्नी और बेटे का अधकटा शव पटरी पर से मिला है. थानेदार के भी दोनों हाथ काट दिए गए हैं. भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला कर दिया था.’’

काटो तो खून नहीं रहा मुझ में. यह क्या सुना रही है मेरी मित्र? वह बहुत कुछ और भी कहतीसुनती रही. सब जैसे मेरे कानों से टकराटकरा कर लौट गया. जो सुना उसे तो आज नहीं कल होना ही था. सच कहा है किसी ने, अपनी लड़ाई सदा खुद ही लड़नी पड़ती है.

रमिया की सारी बातें याद आने लगीं मुझे. हम तो उस के लिए कुछ नहीं कर पाए. हम जैसा एक सफेदपोश आदमी जो अपनी ही पगड़ी बड़ी मुश्किल से बचा पाता है किसी की इज्जत कैसे बचा सकता है. यह पुलिस और मजदूर वर्ग की लड़ाई सामान्य लड़ाई कहां है, यह तो मानसम्मान की लड़ाई है. सब को फैलती आग दिखाई दे रही है पर किसी को वह आग क्यों नहीं दिखती जिस ने न जाने कितनों के घर का मानसम्मान जला दिया?

थानेदारनी और उस के बच्चे का अधकटा शव तो अखबार के पन्नों पर भी आ जाएगा, उन का क्या, जिन की पीड़ा अनसुनी रह गई. क्या करते गरीब लोग? तरीका गलत सही, सही तरीका है कहां? कानून हाथ में ले लिया, कानून है कहां? सुलगती आग एक न एक दिन तो ज्वाला बन कर जलाती ही.

‘‘शुभा, तू सुन रही है न, मैं क्या कह रही हूं. घर के दरवाजे बंद रखना, सुना है वे घरों में घुस कर सब को मारने वाले हैं. अपना बचाव खुद ही करना पड़ेगा.’’

फोन रख दिया मैं ने. अपना बचाव खुद करने के लिए सारे दरवाजेखिड़कियां तो बंद कर लीं मैं ने लेकिन मन की गहराई में कहीं विचित्र सी मुक्ति का भाव जागा. सच कहा है उस ने, अपना बचाव खुद ही करना पड़ता है. अपनी लड़ाई हमेशा खुद ही लड़नी पड़ती है. यह आग कब थमेगी, मुझे पता नहीं, मगर वास्तव में मेरी छाती में ठंडक का एहसास हो रहा था.

बढ़ती उम्र के साथ मेरी आंखों के आसपास की स्किन कमजोर हो गई है?

सवाल-

बढ़ती उम्र के साथ मेरी आंखों के आसपास की स्किन कमजोर हो गई है. इस से आंखों के आसपास की स्किन लटकने लगी है. इस से न सिर्फ मेरी खूबसूरती बिगड़ती है, बल्कि व्यक्तित्व भी प्रभावित होता है. इस लटकती स्किन को क्या कुछ घरेलू उपायों या मेकअप से छिपाया जा सकता है?

जवाब-

जी हां, बढ़ती उम्र के साथ फेशियल मसल्स ड्रूपी होने लगती हैं. जब हम मसकारा को आई लैवल से 45 डिग्री लिफ्ट करते हुए लगाएंगे तो हमारी पलकों की मसल्स लिफ्ट होने के कारण उम्र कम नजर आएगी और यंग लुक मिलेगा. इसी के साथ अगर हम डार्क ब्राउन कलर से पलकों के कोनों को कंटूर करते हैं, तो आंखों की खूबसूरती और बढ़ जाती है.बढ़ती उम्र के कारण आंखें पहले से थोड़ी छोटी हो जाती हैं. ऐसे में उन्हें उभारने के लिए आईब्रोज के नीचे एकदम सैंटर में सिल्वरिश या वैनिला शेड लगाएं. ऐसा करने से आंखें उठी हुई नजर आएंगी. इस के अलावा इस उम्र में लिक्विड आईलाइनर के बजाय पैंसिल आईलाइनर या फिर आईलैश जौइनर का इस्तेमाल करना ठीक रहता है. आंखें ड्रूपी न दिखें, इस के लिए लाइनर ऊपर की तरफ उठा हुआ लगाएं.घरेलू उपाय के लिए आंखों के नीचे या आसपास कभी कोई फेस पैक न लगाएं. जब पैक सूखता है तो उस से स्किन में खिंचाव होता है, जिस से झुर्रियां हो जाती हैं. ग्लिसरीन और अंडे के सफेद भाग को अरंडी के तेल के साथ मिक्स कर के आईलैशेज पर लगाएं. अंडे मेें हाई प्रोटीन होता है जो आईलैशेज को बढ़ाने में मदद करेगा.

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फूलों सी नाजुक त्वचा पर पतली धारियां और झुर्रियां नजर आने लगती हैं, तो मन सहम उठता है, क्योंकि झुर्रियां यानी बुढ़ापे की ओर बढ़ते कदम. आमतौर पर झुर्रियां त्वचा की उम्र बढ़ने का पहला साफ संकेत होती हैं. त्वचा में ढीलापन वौल्यूम के लौस होने का संकेत है. ऐसे में कुछ बातों का खयाल रखा जाए तो समय से पहले त्वचा की उम्र बढ़ने से रोक सकती हैं.

त्वचा की एजिंग के कई कारण होते हैं. कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिन का हम कुछ नहीं कर सकते हैं, लेकिन अन्य कारकों को हम प्रभावित कर सकते हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
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माध्यम: सास के दुर्व्यवहार को क्या भुला पाई मीना

बंबई से आए इस पत्र ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है. दोपहर को पत्र आया था, तब प्रदीप दफ्तर में थे. अब रात के 9 बज गए हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए.

फाड़ कर फेंक दूं इसे? डाक विभाग पर दोष लगाना बड़ा सरल है. बाद में कभी प्रदीप या उन की मां ने इस विषय को उठाया तो मैं कह दूंगी कि वह पत्र मुझे कभी मिला ही नहीं.

या फिर प्रदीप से सीधी बात कर ली जाए. जैसेतैसे उन्हें छुट्टी मिली है. छुट्टी यात्रा भत्ता ले कर वह दक्षिण भारत की यात्रा पर जा रहे हैं. सिर्फ हम दोनों. बंगलौर, ऊटी, त्रिवेंद्रम, कोवलम और कन्याकुमारी. पिछले कई दिनों से तैयारियां चल रही हैं और परसों सुबह की गाड़ी से हमें रवाना हो जाना है. प्रदीप को इस पत्र के बारे में बताया तो संभव है कि हमारे पिछले 2 वर्ष के वैवाहिक जीवन में प्रथम बार यह यात्रा कार्यक्रम स्थगित हो जाए.

फिर मन इस मानवीय आधार पर पूरे प्रसंग की विवेचना करने लगा. प्रदीप की मां मेरी सास हैं. सास और मां में क्या अंतर है? कुछ भी तो नहीं. उन की बाईं टांग में प्लास्टर चढ़ा है. स्नानागार में फिसल गईं. टखने और घुटने की हड्डियों में दरार आ गई है. गनीमत हुई कि वे टूटी नहीं. उन्हें 3 सप्ताह तक बिस्तर पर विश्राम करने की सलाह दी गई है.

घर पर कौन है? प्रदीप के पिता, छोटा भाई और सीमा. अरे, सीमा कहां है? उस का तो पिछले वर्ष विवाह हो गया. पत्र में लिखा है कि सीमा को बुलाने के लिए दिल्ली फोन किया था पर उस की सास ने अनुमति नहीं दी. सीमा की ननद अपना पहला जापा करने मायके आई हुई है. सास का गठिया परेशान कर रहा है. उधर सीमा का पति किसी विभागीय परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा है.

प्रदीप के भाई ने पत्र लिखा है. मांजी ने ही लिखवाया है. यह भी लिखा है कि घर के कामकाज में बड़ी दिक्कत हो रही है. नौकरानी भी छुट्टी कर गई है.

घर की इस दुर्दशा का वर्णन पढ़ कर मेरा अंतर द्रवित हो गया. मैं ने सोचा, संकट के समय अपने बच्चे ही तो काम आते हैं. मांजी चाहती हैं कि मैं उन की सेवा के लिए औरंगाबाद से बंबई आ जाऊं. पर शालीनता या संकोचवश उन्होंने लिखवाया नहीं. उन्हें पता है कि हम लोग 2 सप्ताह की छुट्टी ले कर घूमने जा रहे हैं.

एक मन किया, छुट्टी का सदुपयोग दक्षिण भारत की यात्रा नहीं, संकटग्रस्त परिवार की सेवा कर के किया जाए. पर तभी मन कसैला सा हो गया. शादी के पहले वर्ष में मेरे साथ मांजी ने जो व्यवहार किया था उस की कटु स्मृति आज तक मुझे छटपटाती है.

तब प्रदीप बंबई में ही नियुक्त थे. मैं अपने सासससुर के साथ ही रह रही थी. एक दिन नासिक से पिताजी का पत्र आया था. लिखा था कि कौशल्या बीमार है. उसे टायफाइड हुआ और बाद में पीलिया. डाक्टरों ने 4 हफ्ते पूर्ण विश्राम की सलाह दी है. वह बेहद परेशान है. पर मैं और तेरा छोटा भाई उस की देखभाल कर लेते हैं. खाना पकाने में दिक्कत होती है. पर पेट भरने के लिए कुछ कच्चापक्का बना ही लेते हैं. कभी दूध, डबलरोटी ले लेते हैं, कभी बाजार से छोलेभठूरे ले आते हैं.

पत्र पढ़ कर मेरी आंखों में आंसू आ गए. घर की ऐसी दुर्दशा. मेरा दिल किया कि मैं उड़ कर नासिक पहुंच जाऊं. शादी के बाद, पूरे 1 वर्ष में केवल रक्षाबंधन पर मैं 1 दिन के लिए अपने घर गई थी. प्रदीप साथ में थे.

मैं ने मांजी से घर जाने के लिए कहा तो वह संवेदनशून्य स्वर में बोलीं, ‘शादी के बाद लड़की को बातबेबात मायके जाना शोभा नहीं देता. उसे तो सिर्फ एक बार, और वह भी किसी त्योहार पर ही मां के घर जाना चाहिए.’

‘मांजी, मां को पीलिया हो गया है. घर में…’

‘बहू, घर में यह मामूली हारीबीमारी तो चलती रहती है. इस तरह छोटेमोटे बहाने से मायके की तरफ लपकना अच्छा लगता है?’ मांजी ने विद्रूप स्वर में ताना कसा.

‘पर भाई और पिताजी को ठीक से खाना नहीं मिल रहा है…’

‘देखो बहू, उस घर को भूल जाओ. अब तो तुम्हारा घर यह है. तुम्हारा पहला फर्ज बनता है हम लोगों की सेवा.’

‘मांजी, यह तो ठीक है पर जरा सोचिए, जिन मांबाप ने जन्म दिया, जिन्होंने पालपोस कर इतना बड़ा किया, शादीब्याह किया, क्या कोई लड़की उन्हें एकदम भुला सकती है? यह तो खून का अटूट संबंध है. इसे भुलाना संभव नहीं,’ मैं भावावेश में कह गई.

‘बहू, हमारे भी मांबाप थे. हमारे भी खून के संबंध थे. पर एक बार इस घर की चौखट के अंदर कदम रखा नहीं कि एक झटके से मायके को भूल गए. यह तो जग की रीति है. शादी होती है. सात फेरों के साथ लड़की का नया रिश्ता जुड़ता है. पुराना रिश्ता टूट जाता है. ऐसा ही होता आया है.’

‘वह तो ठीक है, मांजी. लड़की का कर्तव्य है कि वह सासससुर, पति, बच्चों की सेवा करे पर इस का यह अर्थ नहीं कि वह अपने जन्मदाताओं के सुखदुख में भी काम न आए. यह कैसी एकांगी विचारधारा है?’

‘जो शादीशुदा लड़कियां हर समय मायके वालों के चक्कर में पड़ी रहती हैं वे ससुराल में किसी को सुखी नहीं रख सकतीं. 2 घरों की एकसाथ देखभाल असंभव है.’

‘मांजी, क्या दोनों के बीच कोई संतुलन…’

‘मीना, तुम बहुत बहस करती हो, मानती हूं, तुम पढ़ीलिखी हो पर इस का यह मतलब नहीं कि…’

‘मैं बहस नहीं कर रही हूं. मैं 1 हफ्ते के लिए नासिक जाने की आज्ञा मांग रही हूं.’

‘मैं कुछ नहीं जानती. तुम जानो और तुम्हारा पति.’

मांजी का उखड़ा स्वर, फूला मुंह और मटकती हुई गरदन क्या मेरी प्रार्थना की अस्वीकृति के साक्षी नहीं थे? मेरा मन बुझ गया. क्या यह क्रूरता और हृदयहीनता नहीं? अपने स्वार्थ के लिए संबंधियों के सुखदुख में भागीदारी न करना क्या उचित है?

उद्विग्न और निराश मैं चुप लगा गई. जी में तो आया कि मांजी के इस अनुचित व्यवहार के विरुद्ध विरोध का झंडा खड़ा कर दूं.

कहूं, ‘कल को आप की बेटी का विवाह होगा. आप को कोई तकलीफ हो और आप उसे बुलाएं और उस के ससुराल वाले न भेजें तो आप को कैसा महसूस होगा, जरा सोचिए.’

मैं ने आगे बहस नहीं की. उस से कुछ नहीं होना था. केवल धैर्य, सहिष्णुता तथा उदारता के आधार पर ही हम पारिवारिक शांति स्थापित कर सकते हैं. वही मैं ने किया.

पर मेरे अंदर की घुटन को अभिव्यक्ति मिली रात में. जब हम दोनों बिस्तर पर अकेले थे तब प्रदीप ने मेरी उदासी का कारण पूछा था. मैं ने पूरा किस्सा उन्हें सुना दिया. सुन कर वह हंसे और बोले, ‘मांजी के इन विचारों का मैं स्वागत करता हूं.’

‘आप क्यों नहीं करेंगे? अरे, घुटना पेट की तरफ मुड़ता है. एक ही थैली के चट्टेबट्टे हैं आप दोनों.’

‘नहीं श्रीमतीजी, मांजी की बात में सार है. विवाह के बाद इतनी जल्दी पतिपत्नी विरह की अग्नि में जलें, कोई मां ऐसा चाहेगी.’

‘आप सोचते हैं, किसी लड़की के मांबाप. भाईबहन भूखे रहें और वह मिलन के गीत तू मेरा चांद, मैं तेरी चांदनी… गाती रहे.’

इस बार प्रदीप गंभीर हो गए. बोले, ‘भई, नाराज क्यों होती हो? अगर जाना चाहती हो तो ठीक है. कल सुबह मांजी को पटाने की कोशिश करेंगे.’

‘मैं जाऊं या न जाऊं, इस से कोई खास अंतर नहीं पड़ता पर मांजी का यह व्यवहार, संवेदनाशून्य, क्रूर और एकांगी नहीं है क्या? आप ही बताइए?’

‘हर व्यक्ति अपने हिसाब से काम करता है. मां ने जो कुछ कहा और किया वह उन का दृष्टिकोण है, जीवनदर्शन है. और यह दर्शन बनता है हमारी अतीत की अनुभूतियों से. मीना, शायद तुम्हें विश्वास न हो पर यह सच है कि मां एक ऐसे परिवार से आईं जहां लड़की का विवाह एक मुक्ति का एहसास माना जाता था और दोबारा मायके आना अभिशाप.’

‘वह क्यों?’ मैं ने उत्सुक हो कर पूछा.

‘इसलिए कि मां के मायके में 11 बहनभाई थे. 8 बहनें और 3 भाई. नानानानी एकएक लड़की की शादी करते और दोबारा उस का नाम नहीं लेते. मां भी इस घर में आईं. भीड़, अभाव और विपन्नता से शांति, समृद्धि और सुख के माहौल में एक बार इस घर में आईं तो फिर मुड़ कर उस घर को नहीं देखा. बस, शादीब्याह के मौके पर गईं या न गईं.’

‘वह तो ठीक है, पर…’

‘सच कहूं,’ प्रदीप ने कहा, ‘हम लोग ननिहाल जाते तो वहां पर मां का कोई खास स्वागत नहीं होता. हम लोग एक तरह से उन पर बोझ बन जाते. ज्यादा काम, मेहमानदारी पर खर्चा और लौटने पर बेटी और बच्चों को उपहार देने का संकट.’

‘ठीक है, प्रदीप, मैं मांजी की मनोदशा समझ गई. पर वह यह क्यों नहीं सोचतीं कि उन की और मेरी स्थिति में आकाशपाताल का अंतर है. उन के मायके में संकट में घर का काम करने के लिए और बहनें थीं. मैं अकेली हूं. उन को पीहर में एक बोझ समझा जाता था पर मेरा मेरे घर में अभूतपूर्व स्वागत होता है, आप स्वयं देख चुके हैं.’

‘ठीक है. मैं कल सुबह मांजी से बात करूंगा,’ कह कर प्रदीप ने मुझे अपने अंक में समेट लिया. शारीरिक उत्तेजना और रासरंग की बाढ़ में मेरे अंतर की समस्त कड़वाहट डूब गई.

अगले दिन सुबह मैं तो रसोईघर में नाश्ता बनाने में व्यस्त थी और मांबेटा बाहर मेरे नासिक जाने के प्रश्न पर ऐसी गंभीरता से विचार कर रहे थे जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ में निरस्त्रीकरण पर बहस.

मैं नाश्ता ले कर बाहर आई तो महसूस किया जैसे प्रदीप विजय के द्वार पर पहुंच गए हैं. मां उन से कह रही थीं, ‘बीवी का गुलाम हो गया है. उसी के स्वर में बोलने लगा है.’

मुझे देख, उन्होंने बनावटी गुस्से से कहा, ‘बहू, तू 2 हफ्ते के लिए नासिक चली जाएगी तो इस घर और प्रदीप की देखभाल कौन करेगा?’

‘आप जो हैं, मांजी,’ मेरे मुंह से अनायास निकल गया.

मैं नासिक गई. पहुंच कर देखा, मां पीली पड़ गई थीं. एकदम अशक्त और असहाय. पिताजी कैसे उलझे और अस्तव्यस्त से लग रहे थे…और भाई क्लांत. मुझे देखते ही तीनों के चेहरे खिल गए. एक मुक्ति, निश्चिंतता का भाव उन के मुख पर उभर आया.

‘तू आ गई, बेटी. अब कोई चिंता नहीं. तेरे बिना तो यह घर खाने को दौड़ता है, मैं बिस्तर पर पड़ गई. घर के रंगढंग ही बिगड़ गए,’ मां ने उदास स्वर में कहा.

काश, मेरी सास होतीं उस समय और देख पातीं उन लोगों के मुख पर उभरती संतुष्टि, कृतज्ञता तथा संकटमुक्ति की अनुभूति को.

‘‘मीना, क्या बात है? आज तो शाम से तुम गौतम बुद्ध हो गई हो. एकदम समाधिस्थ, चिंतन में डूबी.’’

प्रदीप ने मेरे दोनों कंधे पकड़ कर झकझोर दिया. मैं अतीत की गलियों से लौट कर, वर्तमान के राजपथ पर आ गई. हां, मैं सचमुच खो गई थी. 3 विकल्प थे मेरे सामने. 2 में बेईमानी, संवेदनशून्यता और क्रूरता थी.

अनायास मैं ने दोपहर को बंबई से आया पत्र प्रदीप की ओर बढ़ा दिया. उलझे हुए हावभाव का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने मुझ से पत्र लिया और गौर से पढ़ने लगे. मेरी दृष्टि प्रदीप के मुख पर टिकी थी. कुछ पल पूर्व की प्रफुल्लता उन के चेहरे से काफूर हो गई और उस का स्थान ले लिया, चिंता, ऊहापोह, उलझन और उदासी ने.

पत्र पढ़ कर प्रदीप ने मेरी तरफ याचक दृष्टि से ताका और बोले, ‘‘यह तो सब गड़बड़ हो गया. अब क्या करना है?

‘‘सीमा की ससुराल वाले भी कमाल के लोग हैं. मायके में इतनी परेशानी है. पर उन्हें तो अपने बेटे के इम्तिहान और बेटी के जापे की चिंता है, बहू की मां चाहे मरे या जिए, उन की बला से.’’

‘‘प्रदीप, हर सास ऐसे ही सोचती है. याद है, पिछले साल, आप का औरंगाबाद तबादला होने से पहले मेरे घर से चिट्ठी आई थी.’’

‘‘मैं ने तुम्हें भेजा था.’’

‘‘हां, प्रदीप. आप ने समझदारी से काम लिया था. पर मैं ने आप को एक बात नहीं बताई.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मांजी ने मुझ से बड़ी कड़वी बातें कही थीं. उन्होंने कहा था कि जो लड़कियां बातबेबात मायके दौड़ती हैं, उन का अपना घर कभी सुखी नहीं रह सकता. लड़की की मां, बेटी की समस्याओं के लिए ससुराल वालों की आलोचना करती है, लड़की को भड़काती है. ससुराल वालों के प्रति उन के मन में वितृष्णा उत्पन्न करती है. फल यह होता है कि लड़की अपने घर जा कर स्थापित नहीं हो पाती.’’

‘‘मीना, उस को छोड़ो. अब बताओ, क्या करना है?’’ प्रदीप ने पूछा.

‘‘करना क्या है? हमें कल सुबह ही बंबई रवाना होना है.’’

‘‘और छुट्टी का क्या होगा?’’

‘‘प्रदीप, घूमनेफिरने के लिए पूरी जिंदगी पड़ी है. हम मांजी को बीमार और पिताजी तथा भैया को इस संकट में छोड़ कर सैरसपाटे के लिए कैसे जा सकते हैं? मायका हो या पति का घर, बच्चों तथा बहूबेटी का मांबाप, सासससुर की सेवा करना प्रथम कर्तव्य है.’’

‘‘और यह जो सामान बंधा हुआ है, उस का क्या होगा?’’

‘‘उसे भी बंबई लिए चलते हैं.’’

प्रदीप ने मेरी ओर अनुराग भरी दृष्टि डाली. क्या उस में केवल स्नेह था? नहीं, उस में प्रशंसा, गर्व, खुशी और संतोष सब का संगम था.

अगले दिन दोपहर बाद करीब साढ़े 3 बजे हम लोग बंबई पहुंच गए. अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के हमें आया देख कर मां, पिताजी और छोटे भैया के चेहरों पर सूर्योदय के बाद की सी चमक आ गई. वे कितने खुश, मुग्ध और चिंतारहित से लगने लगे थे.

मैं ने मांजी की दशा देखी तो अपने निर्णय की बुद्धिमत्ता का विचार आत्मतुष्टि उत्पन्न कर गया. वास्तव में वह काफी तकलीफ में थीं. साथ ही घर पूरी तरह से अस्तव्यस्त हो चुका था.

‘‘बहू आ गई. अब कोई चिंता नहीं,’’ यह थी पिताजी की प्रतिक्रिया. उन्होंने चैन की सांस ली.

‘‘भाभी, आप अचानक कैसे आ गईं?’’ मेरे देवर ने घोर आश्चर्य से पूछा.

‘‘बहू, तुम लोग तो दक्षिण भारत की यात्रा पर जाने वाले थे?’’ मांजी ने पूछा.

‘‘हां, मांजी. पर मातापिता की सेवा तो हम सब का प्रथम कर्तव्य है. आप की दुर्घटना की सूचना पा कर हम सैरसपाटे के लिए कैसे जा सकते थे?’’

मांजी कुछ नहीं बोलीं. केवल उन की आंखों में नमी उभर आई.

हमारे आगमन से घर में नवजीवन का संचार हो गया. मैं ने आते ही घर के संचालन की बागडोर संभाल ली. सफाई, धुलाई, रसोईघर का काम, खाना बनाना, मांजी की सेवा और समयसमय पर उन को दवा तथा खानपान देना.

3-4 दिन में ही घर का कायाकल्प हो गया.

चौथे दिन मांजी के मुख से निकल ही गया, ‘‘घर को पुरुष नहीं, औरत ही चला सकती है, चाहे वह बहू हो या बेटी.’’

मैं क्या कहती? शब्दों में नहीं, गरदन को हिला कर मैं ने मांजी के कथन से अपनी सहमति प्रकट कर दी.

‘‘सीमा की ससुराल वाले बड़े मतलबी और स्वार्थी हैं. जोत रखा होगा मेरी बेटी को. 4 दिन पहले ननद के बेटी हुई है. जच्चा का कितना काम फैल जाता है. सास की निर्दयता तो देखो, उसे इतना भी खयाल नहीं कि बहू की मां की टांग टूट गई है और घर पर कोई नहीं है देखभाल करने वाला…’’

मांजी की भुनभुनाहट सुन कर मुझे अंदर से खुशी हुई. इनसान पर जब बीतती है तब उसे पता चलता है. पिछले वर्ष मांजी को क्या हुआ? तब वह सास थीं और आज? केवल मां.

7वें दिन एक अप्रत्याशित घटना घटी. शाम के 7 बजे अचानक, बिना किसी पूर्व सूचना के सीमा आ धमकी. साथ में था अशोक, उस का पति.

घर में खुशी की धूम मच गई. मांजी की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. बेटी और दामाद का अनायास आगमन निश्चित रूप से अभूतपूर्व सुख का क्षण था.

हमें देख कर वे दोनों चौंके. उन्होंने हमारे वहां होने की कल्पना तक नहीं की थी.

‘‘चिट्ठी पा कर दौड़े चले आए बेचारे. 1 सप्ताह से बहू ऐसी सेवा कर रही है कि बस पूछो मत,’’ मांजी के स्वर में सच्ची प्रशंसा थी.

‘‘भाभी, कितनी छुट्टियां बची हैं तुम्हारी?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘यही 8-10 दिन,’’ मैं ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ कर कहा.

‘‘ठीक है. कल खिसको यहां से. अब मैं संभालती हूं यह मोरचा,’’ सीमा बोली.

‘‘पर अब आरक्षण वगैरह कैसे मिलेगा?’’ प्रदीप के स्वर में निराशा?थी.

‘‘भैया, मतलब तो छुट्टी और सैरसपाटे से है. दक्षिण नहीं जा सकते तो गोआ चले जाओ. बसें जाती हैं. वहां ठहरने के लिए जगह मिल ही जाएगी. कैलनगूट तट की सुनहरी बालू में अर्धनग्न लेट कर मस्ती मारो,’’ सीमा एक सांस में कह गई.

प्रदीप ने मेरी तरफ देखा और मैं ने उस की तरफ.

‘‘हां, बहू. अब सीमा आ गई है. तुम लोग कल चले जाओ. क्यों छुट्टियां बरबाद करते हो,’’ कह कर मांजी ने सीमा से पूछा, ‘‘क्यों री, तेरी सास ने तुझे कैसे छोड़ दिया?’’

‘‘पिताजी की चिट्ठी पढ़ कर उन्होंने खुद कहा कि मैं तुरंत बंबई जाऊं. उन्होंने तो पहले भी मना नहीं किया था. वह तो मुझे ही कहने का साहस नहीं हुआ. इन के इम्तिहान, मंजू बहनजी का जापा और फिर यह भी आप को देखने के लिए चिंतित हो गए.’’

मांजी के मुख पर रुपहली आभा बिखर गई. वह भावातिरेक से कांपने लगीं फिर कुछ क्षण बाद बोलीं, ‘‘सचमुच, मेरे बच्चे और संबंधी इतने उदार, कृपालु और प्रेमी हैं. कितना खयाल रखते हैं हमारा.’’

‘‘बहू,’’ मांजी ने मुझे संबोधित कर के कहा, ‘‘6 मास पूर्व के अपने आचरण पर मैं लज्जित हूं. पहले जमाने में परिवार के अंदर लड़कियों की सेना होती थी. एक गई तो दूसरी उस का स्थान ले लेती थी. पर आज? हम दो, हमारे दो. एकमात्र लड़की चली जाए तो बहुत खलता है. उस पर वह हारीबीमारी, सुखदुख में काम न आए तो बड़ा भावनात्मक कष्ट होता?है,’’ कह कर मांजी ने थकान के कारण आंखें बंद कर लीं.

‘‘आप आराम कीजिए, मांजी,’’ कह कर हम सब बगल के कमरे में चले गए और गप्पें मारने लगे.

मुझे अपने निर्णय पर संतोष था. साथ ही अगले दिन गोआ जाने का मन में उत्साह था. संभवत: मेरे लिए सब से ज्यादा गौरव की बात थी, मेरे अपने घर में मानवीय संबंधों के आधारभूत मूल्यों की पुन: स्थापना…शायद इस का माध्यम मैं ही थी.

हैल्दी हेयर के लिए जानें कब और कैसे धोएं शैंपू से बाल

ज्यादातर महिलाएं बालों को सुंदर बनाए रखने के लिए रोज शैंपू करती हैं. उन का विश्वास होता है कि प्रतिदिन शैंपू करने से बालों की सुंदरता बनी रहती है. लेकिन महिलाओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कुछ शैंपू बालों को बहुत हानि पहुंचाते हैं क्योंकि उन में कैमिकल्स मिले होते हैं, जो बालों को समय से पहले सफेद कर उन की जड़ों को कमजोर कर देते हैं. परिणामस्वरूप बाल तेजी से झड़ने लगते हैं.

प्रतिदिन बालों में शैंपू करें या नहीं

औयली स्कैल्प होने पर प्रतिदिन शैंपू करने से लाभ होता है, क्योंकि शैंपू में मौजूद तत्त्व बालों के प्राकृतिक प्रोटीन को सुरक्षित रखने के साथसाथ बालों को स्वच्छ रखने में भी सहायता करते हैं. लेकिन शैंपू में मिले कैमिकल्स बालों को हानि पहुंचाते हैं. शैंपू के कारण स्कैल्प से अधिक औयल बाहर नहीं आता क्योंकि शैंपू औयल को रोक देता है. ध्यान रखें कि प्रतिदिन इस्तेमाल किया जाने वाला शैंपू बालों को साफ करने के साथसाथ उन्हें पोषण देने वाला भी हो. यदि महिला का आहार पौष्टिक व संतुलित नहीं होगा तो उस का स्वास्थ्य भी संतुलित नहीं होगा और उस के बाल भी स्वस्थ व सुंदर नहीं होंगे. आहार में प्रोटीन की मात्रा कम होने पर भी बाल विकृत होने लगते हैं. यही नहीं, उन का रंग भी परिवर्तित होने लगता है.

स्कैल्प के अनुसार चुनें शैंपू

चिकित्सा विशेषज्ञ बालों की प्रकृति के अनुसार शैंपू का चुनाव करने की सलाह देते हैं. शैंपू से स्कैल्प स्वच्छ बनी रहती है और बालों की जड़ों को पोषक तत्त्व मिलते हैं, जिन से बालों की चमक बनी रहती है और उन का टूटना भी कम होता है. बालों को लंबा, घना और काला बनाए रखने के लिए स्कैल्प की प्रकृति को जानना आवश्यक होता है. स्कैल्प की प्रकृति के अनुसार शैंपू का इस्तेमाल करें. प्रतिदिन शैंपू करें या नहीं इस का पता भी स्कैल्प की प्रकृति से चलता है. औयली स्कैल्प के कारण बालों में जल्दी औयल आ जाता है. शरीर में हारमोनल परिवर्तन, मानसिक तनाव के कारण भी स्कैल्प औयली हो जाती है. बारबार कंघी करने से भी वह औयली हो सकती है. उस के औयली होने पर बाल पतले हो जाते हैं. औयली स्कैल्प होने पर विशेषज्ञ प्रतिदिन शैंपू करने की सलाह देते हैं. लेकिन कंडीशनर न लगाएं. कंडीशनर लगाने से बालों पर जल्दी औयल आ जाता है. यदि किसी कारण से कंडीशनर लगाना आवश्यक हो तो कंडीशनर वाले शैंपू का इस्तेमाल कर सकती हैं. स्कैल्प की प्रकृति औयली न हो तो प्रतिदिन शैंपू इस्तेमाल करने से बालों को हानि पहुंचती है.

स्कैल्प की प्रकृति का पता लगाने के बाद विशेषज्ञ के परामर्श से उचित शैंपू का चुनाव करें. कैमिकल मिले शैंपू का इस्तेमाल करने से हानि की संभावना बढ़ जाती है, इसलिए प्राकृतिक प्रोडक्ट्स वाले शैंपू का ही इस्तेमाल करें. शैंपू के प्राकृतिक इन्ग्रीडिएंट्स से बालों को प्रोटीन मिलता है. विशेषज्ञों के अनुसार, बालों की प्रकृति के अनुसार अलगअलग किस्म के शैंपू इस्तेमाल करें. शैंपू में आंवला, हरड़, पलाश, चने आदि का समावेश हो. चने का मिश्रण बालों को प्रोटीन देता है. आंवले से बाल जड़ों से मजबूत होते हैं और काले बने रहते हैं. मेहंदी से भी बालों का स्वास्थ्य संतुलित रहता है. हरड़ बालों को इन्फैक्शन से सुरक्षित रखती है.

औयली स्कैल्प का उपचार

औयली स्कैल्प की सुरक्षा के लिए बालों को शैंपू से साफ करना ही पर्याप्त नहीं होता. कुछ दूसरी बातों पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है. यानी ऐसे शैंपू का चुनाव करें जो बालों की वृद्धि में भी सहायता करे. शैंपू करने के बाद बालों को अच्छी तरह सुखाना जरूरी होता है. बालों को पानी से अच्छी तरह धो कर तौलिए से जड़ों के पानी को जरूर सुखाएं. जड़ों में पानी की बूंदें रह जाने के कारण बाल सफेद होने लगते हैं. शैंपू का कुछ अंश बालों की जड़ों में रह जाने पर बाल औयली हो सकते हैं. शैंपू बालों की जड़ों में पोरों से सर्कुलर मोशन में लगाएं और फिर करीब 3 मिनट तक लगा रहने के बाद बालों को धो लें. सर्द मौसम में बालों को कुनकुने पानी से ही धोएं, क्योंकि ज्यादा अधिक गरम पानी से धोने पर बालों के साथसाथ मस्तिष्क को भी हानि पहुंचती है. 

गेमिंग डिसऔर्डर को रोकना है जरूरी

लेखक- शाहनवाज

यह तो साफ है कि गेमिंग का बढ़ता नशा भी बच्चों और युवाओं को बरबाद कर सकता है. लेकिन क्या भारत में सरकार ने इस से बचने के उपाय किए? विश्व स्तर पर बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने इंटरनैशनल स्टैटिस्टिकल क्लासिफिकेशन औफ डिजीज एंड रिलेटेड हैल्थ प्रौब्लम्स के 11वें संशोधन में वर्ल्ड हैल्थ असैंबली मई 2019 में गेमिंग डिसऔर्डर को अपनी लिस्ट में शामिल कर लिया था.

याद हो तो कनाडा के साइकोलौजिस्ट ब्रूस एलेग्जैंडर ने किसी भी एडिक्शन की जड़ को लोगों की खुशी से जोड़ कर देखा था. उन्होंने कहा था, ‘‘लोग यदि खुश हैं तो वे किसी भी तरह के एडिक्शन का शिकार नहीं बन पाएंगे और यदि वे दुखी हैं तो उन्हें खुद को रिलीफ पहुंचाने के लिए किसी भी एडिक्शन का सहारा लेना पड़ेगा.’’ पूरे भारत में जहां एक तरफ केवल समस्याओं का सागर बह रहा हो तो किसी से कोई उम्मीद कैसे लगाई जा सकती है कि वह खुद को उन समस्याओं से कुछ देर मुक्त करने के लिए किसी एडिक्शन का सहारा नहीं लेगा.

लोगों को काम नहीं मिल रहा, बेरोजगारी अपनी चरम पर है, जिन्हें काम मिल भी रहा है तो वे बेहद औनेपौने दामों में काम करने को तैयार हैं. घर की समस्या, रिलेशन की समस्या, दोस्तों की समस्या, पढ़नेलिखने की समस्या, भांतिभांति की समस्याओं का सागर यहांवहां हर समय और हर जगह बहता हुआ नजर आ जाएगा. ऐसे में गेमिंग का एडिक्शन होना युवाओं में बेहद आम बात है. और वैसे भी, भारत में तो मैंटल हैल्थ की समस्याओं को बड़ा माना ही नहीं जाता है. जब तक किसी की जान पर नहीं बन आती, कोई मर नहीं जाता तब तक उसे समस्या माना ही नहीं जाता है. जब तक भारत में मूलभूल सुविधाओं को लोगों के लिए आम नहीं बना दिया जाता, कम से कम तब तक गेमिंग एडिक्शन को समाज से उखाड़ फेंकना मुश्किल है. लेकिन हार मानने की जरूरत नहीं है. अगर आप किसी ऐसे को जानते हैं जो इस का शिकार है तो उसे साइकोलौजिस्ट के पास ले कर जाएं और उन के मैंटल हैल्थ का इलाज करवाएं. क्योंकि, सरकार से इन समस्याओं का निदान तो इस जन्म में नहीं मिलने वाला है और न ही उस से इस की उम्मीद की जा सकती है.

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