शिक्षा या दिखावा

अमीर घरों के स्टूडैंट्स को अट्रैक्ट करने के लिए साउथ कोरिया के कालेजों ने भी भारत में अपने एजेंट अपौइंट करने शुरू कर दिए हैं और जिस तरह की चमकदमक वाला साउथ कोरिया है, भारतीय स्टूडैंट्स न सिर्फ वहां पढ़ना चाहेंगे, वे भारत से पैसा ले जा कर वहां बिजनैस भी करना चाहेंगे.

साउथ कोरिया कुछ स्कौलरशिप भी औफर कर रहा है क्योंकि उसे ऐसे स्टूडैंट्स भी चाहिए जो मेहनती हैं, पढ़ाकू हैं, इंटैलीजैंट हैं और देश के जाति और धर्म के कहर से डरे हुए हैं. दक्षिणी कोरिया की आबादी अब न सिर्फ बढ़नी बंद हो चुकी है, चीन और जापान की तरह घटने भी लगी है और वे बाहर से युवाओं को बुला रहे हैं. भारत में बढ़ती बेरोजगारी, धर्म का कट्टरपन, मिसमैनेजमैंट, पौल्यूशन बहुतों को बाहर जाने के लिए अट्रैक्ट कर रहा है. अपने बच्चों को बाहर भेजना वैसे भी एक स्टेटस सिंबल है और जब कनाडा, अमेरिका, यूके्रन, इंगलैंड के दरवाजे बंद होने लगे तो साउथ कोरिया का दरवाजे खोलने का तो पुरजोर वैलकम होगा ही. साउथ कोरिया में अभी 2000 स्टूडैंट्स हो गए हैं पर यह शुरुआत है.

साउथ कोरिया इंजीनियरिंग, ह्यूमैनिटीज और आर्ट्स सब में दरवाजे खोल रहा है. साउथ कोरियाई फिल्मों का भारत में पौपुलर होने से यहां के लोगों को लगता है कि वहां की जिंदगी कुछ ज्यादा अलग नहीं होगी. साउथ कोरिया 3 लाख इंटरनैशनल स्टूडैंट्स लेने की ख्वाहिशें कर रहा है और पक्का है कि कम से कम चौथाई तो भारतीय स्टूडैंट्स ले ही जाएंगे. हमारे यहां के अमीर मांबापों के पास इतना पैसा है कि वे अपने बच्चों को एक डैवलैप्ड देश में भेज सकें.

वे तो कतर, सऊदी अरब, आस्टे्रलिया, अमेरिका के अलावा सूडान, उजबेकिस्तान, बेनेजुएला (साउथ अमेरिका), नेपाल, किर्गिस्तान, बोत्सवाना, आर्मेनिया भी भेज रहे हैं. यह बात दूसरी है कि ज्यादातर इन में से वे ही हैं जो भारत को विश्वगुरु मानते हैं और जिन में से एक लड़की को दिखा कर भाजपा ने एक फिल्म बनवाई है कि पापा मोदीजी ने तो हमें निकलवाने के लिए लड़ाई रुकवा दी. वे इस झूठ को सच मानने वालों में से हैं और जाते समय 4-5 मंदिरों के दर्शन कर के ही जाते हैं.

वे यह नहीं पूछते कि आखिर उन्हें विदेशों में पढ़ाने के लिए फौरन करेंसी आती कहां से है. यह आती है उन गरीब मजदूरों की वजह से जो सस्ता काम भारत में करते हैं या विदेशों में जा कर मजदूरी कर रहे हैं. विदेश जाने या जाने की तमन्ना रखने वाले स्टूडैंट्स यह नहीं पूछते कि 10 सालों में हर साल उन जैसों की गिनती बढ़ क्यों रही है.

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कभी न दें बेवजह सलाह

अपनी पहचान खुद बनाएं

कुछेक प्रयास से अपनी विशिष्टता और प्रभाव बरकरार रखने में सफल हो सकते हैं:

–  मातापिता या बुजुर्गों के अलावा किसी के भी सामने बच्चे अथवा बेचारे बनने से बचें.

–  हर किसी के सामने अपनी छवि अनभिज्ञ व असहाय न होने दें. यदि आप स्वनिर्भर व सक्षम हैं तो अन्य व्यक्ति के सलाह देने पर ‘न’ कहना सीखें और न ही दूसरे को बातबात पर सलाह देते रहें.

–  यदि कुछ सम झ नहीं आए तभी दूसरे की सलाह लें और अमल करें, बातबात पर सदैव ऐसा न होने दें. स्वच्छ छवि ऐसी हो कि आप की उम्र व बड़प्पन  झलके ताकि हरकोई आतेजाते आप को नासम झ मानने की भूल न करे.

–  स्वयं पर भरोसा व आत्मविश्वास रखते हुए जिंदगी के साथ कदम दर कदम बनाते हुए आगे बढ़ें, खुदबखुद रास्ते निकलेंगे मंजिल मिलेगी. जिंदगी आप की अपनी मरजी से जीएं, छोटेबड़े फैसले खुद करें. दूसरे का हस्तक्षेप न होने दें. यदि आवश्यकता महसूस हो तब कभीकभार दूसरों की राय ली जा सकती है, किंतु सुनें सब की करें मन की.

–  बेवजह औरों की राय ले कर स्वयं के आत्मसम्मान व आत्मविश्वास को कम न होने दें. इसी में आप का हित है, अच्छाई है.

सु चि अपने लिए लोकल मार्केट से ड्रैस ले ही रही थी कि अचानक उसे पीछे से किसी ने आवाज दी. सुचि ने पलट कर देखा तो रीमा थी. रीमा को अचानक वहां

देख कर सुचि का मूड औफ हो गया, क्योंकि उसे पता था कि अब वह जबरदस्ती उसे सही ड्रैस चुनने के टिप्स देने लगेगी जैसे खुद बड़ी फैशन की ज्ञानी हो. यह कैसा ले लिया, यह तो अब ट्रैंड में भी नहीं इत्यादि बताबता कर सिर खा जाएगी. खैर दोस्त थी तो मुंह पर मना भी नहीं कर सकती थी.

ध्यान से आना, ट्रेन में खानेपीने का सामान अच्छी तरह रख लेना, 1-2 बोतलें पानी की रखना, कहीं भी स्टेशन पर मत उतरना, दिल्ली तो हम मिल ही जाएंगे. कोई चिंता मत करना.

ये हिदायतें किसी बच्चे के लिए न हो कर 45 साल की विनीता के लिए थीं, जो अपने मायके अकेली जा रही थीं. बड़े भैया अपनी तरफ से तो उन के भले के लिए ही कह रहे थे पर विनीता को सुनसुन कर कभी हंसी आती कि कैसे बच्चों की तरह हमेशा सम झाते रहते हैं तो कभी खीज भी आने लगती, जब बच्चे तक उस की तरफ देखदेख मुसकराने लगते या फिर पति उसे बेचारी सम झ खुद भी सम झाने लगते.

यह सिर्फ एक दिन की बात न हो कर रोज की है- जब भी भैया या भाभी का फोन आता इधरउधर की बातें न कर विनीता को सम झाते कि ऐसा किया कर वैसा किया कर. यह करना वह मत करना, यहां जाना वहां मत जाना, यह सामान लेना वह न खरीदना बगैराबगैरा.

इसी तरह दीपा की जेठानी रीना जो उस से 1-2 साल ही बड़ी है वह भी आज उसे बच्चों की परवरिश के बारे में बता रही थी. सिर्फ आज ही नहीं, बल्कि जब भी उस का फोन आता किसी न किसी बात पर सम झाना शुरू कर देती कि सुबह जल्दी उठा कर, नाश्ते या खाने में यह बनाया कर, घर को ऐसे सजाया कर, यह काम ऐसे किया जाता है, वह काम वैसे किया जाता है, सब के साथ ऐसा व्यवहार रख वैसा न रख वगैरावगैरा.

यह उचित नहीं

शुरूशुरू में तो विनीता सुनती रहती पर अब उसे भी लगता कि हमउम्र ही तो है. यदि और भी इधरउधर की पढ़ाई या मनोरंजन की बातें हों तो ज्यादा अच्छा किंतु ऐसा होता कहां है? वह सुनाती रहती विनीता सुनती रहती, कभी न बता पाती या उस की बातों से आभास नहीं होता कि वह भी एक सुघड़ गृहिणी या महिला है, जो अपने फर्ज जिम्मेदारी निभाना बखूबी जानती है शायद उस से भी ज्यादा.

ऐसा सिर्फ विनीता ही नहीं वरन हम में से अधिकतर के साथ होता है, कई दफा बचपन से पचपन तक सभी से अपने लिए कुछ न कुछ सुननेसम झने की आदत हमारे स्वभाव में विकसित होती जाती है और धीरेधीरे हम सुनने के लिए न नहीं कर पाते. जो जैसा कहता जाता है स्वयं अच्छा न महसूस करते हुए भी सुनसुन कर सिर हिलाने लगते हैं जैसे सम झने की कोशिश की जा रही है. इसीलिए हरकोई नासम झ और बेचारा मान अपनी सलाह बारबार देने ही लगता है और फिर जब भी बातचीत होती है ऐसा ही होता रहता है.

किंतु यह उचित नहीं है. न तो हर वक्त किसी को सलाह देते रहना न ही हर समय औरों की सलाह को मानना. जीवन है तो जीने के लिए हरेक व्यक्ति जरूरतानुसार व्यक्तिगत कार्य करता ही है. अधिकतर लोग उम्र के साथसाथ इतने सम झदार व परिपक्व हो ही जाते हैं कि अपने कार्यों को भलीभांति कर सकें, किसी पर बेवजह निर्भर न रहना पड़े. अहम बात है कि किसी कार्य के बारे में जानना या कोई जानकारी लेनी हो तभी अन्य व्यक्ति से पूछना चाहिए अथवा सलाह लेनी चाहिए. इसी तरह अपनी तरफ से भी दूसरे व्यक्ति को बेवजह न बताते हुए तभी राय देनी चाहिए जब वह खुद लेना चाहे या आवश्यकतानुसार सलाह देने की जरूरत महसूस की जा रही हो.

सही सलाह

सलाह देने वाले से ज्यादा गलती उस व्यक्ति की है जो दूसरे की हिदायतें सुनता रहता है व इस तरह का व्यवहार करता है जैसे नासम झ है, अनजान है. यह भी नहीं कहा जा रहा कि अन्य व्यक्ति की सलाह सुननी या माननी नहीं चाहिए, बल्कि कहने का तात्पर्य यह है कि वही सलाह मानें जो वास्तव में मानने लायक हो, जिस से आप की रोजमर्रा की जिंदगी या फिर जीवन में नई दिशा मिले अथवा जिस के सुनने या अमल करने पर मानसिक शांतिसंतुष्टि मिलने की संभावना हो अन्यथा ‘न’ सुनने तथा ‘न’ कहने की आदत खुद में विकसित करना बेहद आवश्यक है.

हर सख्स का व्यवहार व आदतें अलगअलग होती हैं. कुछ अच्छी तो कुछ हमारे व्यक्तित्व के विकास में बाधक भी होने लगती हैं. उदाहरण के लिए- यदि हम आपसी सम झ न रख औरों का जरूरत से ज्यादा अपनी निजी जिंदगी में हस्तक्षेप कराने लगते हैं तो प्रभावहीन व श्रेष्ठहीन व्यक्तित्व के हो कर रह जाते हैं, स्वयं की पहचान खोने लगते हैं.

जीवन में बहुत कुछ हम जानतेसम झते बड़े होते रहते हैं. अनुभव व समय सब को दुनियादारी सिखा ही देते हैं. फिर भी मातापिता या अपने से बड़ों की सलाह तथा उन की कही बातें भलीभांति ध्यान से सुन उन पर अमल करना चाहिए, हमउम्र या सिर्फ 2-4 साल ही बड़ों की जबतब सुनना उचित नहीं माना जाता. इस से आप का व्यक्तित्व कमजोर व प्रभावहीन होता जाता है. अत: बेवजह की सलाह या टोकाटाकी से बचें और अपनी छवि आकर्षक व प्रभावशाली बनाए रखें.

मुक्ति: कैसे बनाया जाए जीवन को सार्थक

फोन की घंटी रुक-रुक कर कई बार बजी तो जया झुंझला उठी. यह भी कोई फोन करने का समय है. जब चाहा मुंह उठाया और फोन घुमा दिया. झुंझलातीबड़बड़ाती जया ने हाथ बढ़ा कर टेबिल लैंप जलाया. इतनी रात गए किस का फोन हो सकता है? उस ने दीवार घड़ी की ओर उड़ती नजर डाली तो रात के 2 बजे थे. जया ने जम्हाई लेते हुए फोन उठाया और बोली, ‘‘हैलो.’’

‘‘मैं अभिनव बरुआ बोल रहा हूं,’’ अभिनव की आवाज बुरी तरह कांप रही थी.

‘‘क्या बात है? तुम इतने घबराए हुए क्यों हो?’’ जया उद्विग्न हो उठी.

‘‘सुनीता नहीं रही. अचानक उसे हार्टअटैक पड़ा और जब तक डाक्टर आया सबकुछ खत्म हो गया,’’ इतना कह कर अभिनव खामोश हो गया.

जया स्वयं बहुत घबरा गई लेकिन अपनी आवाज पर काबू रख कर बोली, ‘‘बहुत बुरा हुआ है. धीरज रखो. अपने खांडेकरजी और मुधोलकरजी को तुरंत बुला लो.’’

‘‘इतनी रात को?’’

‘‘बुरा वक्त घड़ी देख कर तो नहीं आता. ये अपने सहयोगी हैं. इन्हें निसंकोच तुरंत फोन कीजिए. इस के बाद अपने घर और रिश्तेदारों को सूचना देना शुरू करो. यह वक्त न तो घबराने का है और न आपा खोने का.’’

‘‘मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा है.’’

‘‘तुम खुद घबराओगे तो बच्चों को कौन संभालेगा? क्रियाकर्म तो करना ही है.’’

टेबिल लैंप बिना बंद किए जया पलंग पर धम्म से बैठ गई. अभिनव की अभी उम्र ही क्या होगी? यही कोई 50 वर्ष. 4-5 साल में बच्चे अपनीअपनी घरगृहस्थी में रम जाएंगे तब वह बेचारा कितना अकेला हो जाएगा. आज भी तो वह कितना अकेला और असहाय है?  उस के दोनों बच्चे बाहर इंजीनियरिंग में पढ़ रहे हैं. घर में ऐसी घटना से अकेले जूझना कितना त्रासद होगा?

जया के दिमाग में एक बार सोच का सिलसिला चला तो चलता ही रहा. आजकल मानवीय संवेदनाएं भी तो कितनी छीज गई हैं. किसी को भी दूसरे के सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं है. उसे इस मुसीबत की घड़ी में कोई अपना नहीं दिखाई दिया. कहने को तो उस के अपनों का परिवार कितना बड़ा है…भाईबहन, मांबाप, रिश्तेदार, पड़ोसी, सहकर्मी और न जाने कौनकौन. मुसीबत में तो वही याद आएगा जिस से सहायता और सहानुभूति की उम्मीद हो. उस ने सब से पहले फोन उसी को किया तो क्या उसे किसी अन्य से सहायता की उम्मीद नहीं है? वह क्या सहायता कर सकती है? एक तो महिला फिर रात के 2 बजे का वक्त. जो भी हो इस वक्त अभिनव के पास सहायता तो पहुंचानी ही होगी. मगर कैसे? वह तो स्वयं इस शहर में अकेली है.

अब तो अपना कहने को भी कुछ नहीं बचा है. भाईबहन अपनीअपनी जिंदगी में ऐसे रम गए हैं कि सालों फोन तक पर बात नहीं होती. उन दोनों की जिंदगी तो संवर ही चुकी है. अब बड़ी बहन जिए या मरे…उन्हें क्या लेनादेना है?

एक जन्मस्थान वाला शहर है, वहां भी अब अपना कहने को क्या रह गया है? जब पिता का देहांत हुआ था तब वह बी.ए. में पढ़ रही थी. घर में वह सब से बड़ी संतान थी. घर में छोटे भाईबहन भी थे. मां अधिक पढ़ीलिखी नहीं थीं. मां को मिलने वाली पारिवारिक पेंशन परिवार चलाने के लिए अपर्याप्त थी. यों तो भाई भी उस से बहुत छोटा न था. सिर्फ 2 साल का फर्क होगा. उस समय वह इंटर में पढ़ रहा था और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था. मां सोचती थीं कि वंश का नाम तो लड़का ही रौशन करेगा अत: भाई की पढ़ाई में कोई रुकावट न आए. परंपरागत रूप से हल का जुआ बैल की गरदन पर ही रखा जाता है लेकिन यहां पारिवारिक जिम्मेदारी का जुआ उस के ऊपर डाल दिया गया और भाई को भारमुक्त कर दिया गया.

पिता के फंड व बीमा के मिले रुपए भी मां ने भाई की पढ़ाई के लिए सुरक्षित बैंक में जमा कर दिए. वह मेधावी छात्रा तो थी ही. उस ने समझ लिया कि संघर्ष का रास्ता कठोर परिश्रम के दरवाजे से ही निकल सकता है. वह ट्यूशन कर के घरखर्च में सहयोग भी करती और मेहनत से पढ़ाई भी करती. एकएक पैसे के लिए संघर्ष करतेकरते अभाव का दौर भी गुजर ही गया, लेकिन यह अभावग्रस्त जीवन मन में काफी कड़वाहट घोल गया.

पिता के किसी भी मित्र या रिश्तेदार ने मदद करना तो दूर, सहानुभूति के दो शब्द भी कभी नहीं बोले. समय अपनी चाल चलता रहा. उस ने एम.ए. में विश्वविद्यालय टौप किया. शीघ्र ही उसे अपने विभागाध्यक्ष के सहयोग से एक महाविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति भी मिल गई. यद्यपि उस की नियुक्ति अपने शहर से लगभग 200 किलोमीटर दूर हुई थी फिर भी उस की खुशी का पारावार न था. चलो, इस लंबे आर्थिक और पारिवारिक संघर्ष से तो मुक्ति मिली.

आर्थिक संघर्ष ने उसे सिर्फ तोड़ा ही नहीं था, कई बार आहत और लज्जित भी किया था. उस का अभिनव से परिचय भी महाविद्यालय में ही हुआ था. वह भी इतिहास विभाग में ही प्रवक्ता था. नई उम्र, नया जोश और अनुभव का अभाव जया की कमजोरी भी थे और ताकत भी. महाविद्यालय की गोष्ठी, सेमिनार, वार्षिकोत्सव जैसे अवसरों पर उस की अभिनव से अकसर भिड़ंत हो जाती थी. उसे लगता कि उस के जूनियर होने के कारण अभिनव उस पर हावी होना चाहता है.

महाविद्यालय के वार्षिकोत्सव के स्टेज शो की प्रभारी कमेटी में ये दोनों भी शामिल थे. जया विद्यार्थी जीवन से ही स्टेज शो में हिस्सा लेती रही थी अत: उसे स्टेज शो की अच्छी जानकारी थी. अभिनव अपनी वरिष्ठता और पुरुष अहं के कारण जया की सलाह को अकसर जानबूझ कर नजरअंदाज करने की कोशिश करता. जया कहां बरदाश्त करने वाली थी. वह रणचंडी बन जाती और तीखी नोकझोंक के बाद अभिनव को हथियार डालने के लिए मजबूर कर देती. अभिनव खिसिया कर रह जाता.

सोचतेसोचते जया की आंख लग गई. फोन की घनघनाहट ने नींद में पुन: बाधा डाली. खिड़की के खुले परदों से कमरे में सुबह की धूप बिखर रही थी. घड़ी 8 बजा रही थी. इतनी देर तक तो वह कभी नहीं सोती. अनुमान सही निकला. यह अभिनव की ही काल थी.

‘‘सभी नजदीकी रिश्तेदारों को फोन कर दिया है. मैं ने न जाने किस मुहूर्त में सिलीगुड़ी से आ कर पूना में नौकरी की थी. सारे रिश्तेदार तो वहीं हैं. कोई भी कल शाम से पहले नहीं आ पाएगा.’

‘‘तो फिर?’’

‘‘क्रियाकर्म तो इंतजार नहीं कर सकता. सारी व्यवस्था अभी करनी है.’’

‘‘सब हो जाएगा. आखिर महा- विद्यालय परिवार किस दिन काम आएगा?’’

‘‘प्रिंसिपल साहब आ चुके हैं, 20-25 स्टाफ के लोग भी आ चुके हैं.’’

‘‘तब क्या मुश्किल है?’’

‘‘क्रियाकर्म के पहले सुनीता का स्नान और सिंगार भी होना है. तुम आ जातीं तो फोन कर के स्टाफ की दोचार महिलाएं ही बुला लेतीं.’’

‘‘ठीक है, मैं 15-20 मिनट में पहुंचती हूं,’’ जया के पास हां कहने के अलावा कोई विकल्प भी तो न था. विषम परिस्थितियों में अपने लोगों पर स्वत: विशेषाधिकार प्राप्त हो जाता है. तब संकोच का स्थान भी कहां बचता है? क्या आज अभिनव का यह विशेषाधिकार पूरे महाविद्यालय परिवार पर नहीं है? प्राचार्य तो अनुभवी हैं और सामाजिक परंपराओं से अच्छी तरह परिचित भी हैं. तो उन्होंने स्वयं इस समस्या का समाधान क्यों नहीं निकाला?

वहां बैठे हुए अन्य सहकर्मी भी बेवकूफ तो नहीं हैं. वे संवेदनशून्य क्यों बैठे हैं? आखिर अर्थी उठने के पहले की रस्में तो महिलाएं ही पूरा करेंगी. अब ये महिलाएं आएंगी कहां से? इस के लिए या तो महिला सहकर्मी आगे आएं या पुरुष सहकर्मियों के परिवारों से महिलाएं आएं. शुभअशुभ जैसी दकियानूसी बातों से तो काम चलेगा नहीं. अभिनव तो बाहरी व्यक्ति है और किराए के मकान में रह रहा है अत: महल्ले में सहयोग की अपेक्षा कैसे कर सकता है?

आज के दौर में नौकरी के लिए दूरदूर जाना सामान्य बात है. मौके बेमौके घरपरिवार वाले मदद करना भी चाहें तो भी आनेजाने की लंबी यात्रा और समय के कारण ये तुरंत संभव नहीं है. फिर दूर की नौकरी में परिवार से मेलमिलाप भी तो कम हो जाता है. ऐसे में संबंधों में वह ताप आएगा कहां से कि एकदूसरे की सहायता के लिए तुरंत दौड़ पड़ें. ऐसे में अड़ोस- पड़ोस और सहकर्मियों से ही पारिवारिक रिश्ते बनाने पड़ते हैं. क्या अभिनव ऐसे कोई रिश्ते नहीं बना पाया जो दुख की इस घड़ी में काम आते?

रिश्ते तो बनाने पड़ते हैं और उन्हें जतन से संजोना पड़ता है. और अधिकार बोध? ये तो मन के रिश्तों से उपजता है.

जया को याद आया. 10-12 वर्ष पुरानी घटना होगी. उस समय भी वह गर्ल्स होस्टल की वार्डेन थी. रात के 1 बजे होस्टल की एक छात्रा को भयंकर किडनी पेन शुरू हो गया. वह दर्द से छटपटाने लगी. होस्टल की सारी छात्राएं आ कर वार्डेन के आवास पर जमा हो गईं. वह रात को 1 बजे करे भी तो क्या? अगर कोई अनहोनी हो गई तो कालिज में बवंडर तय है. उस से भी बड़ी बात तो मानवीय सहायता और गुरुपद की गरिमा की थी. उस ने आव देखा न ताव, सीधा अभिनव को फोन घुमा दिया. 15 मिनट के अंदर अभिनव टैक्सी ले कर होस्टल के गेट पर खड़ा हो गया. उस दिन सारी रात अभिनव भी नर्सिंगहोम में जमा रहा.

जया ने अभिनव को धन्यवाद कहा तो अभिनव दार्शनिकों की भांति गंभीर हो गया.

‘धन्यवाद को इतना छोटा मत बनाइए. जिंदगी के न जाने किस मोड़ पर किस को किस से क्या सहायता की जरूरत पड़ जाए?’ टैक्सी और नर्सिंगहोम का भुगतान भी अभिनव ने ही किया था.

रिकशा अभिनव के दरवाजे पर जा कर रुका. जया का ध्यान टूटा. दरवाजे पर 40-50 आदमी जमा हो चुके थे, लेकिन कोई महिला सहकर्मी वहां नहीं थी. उसे थोड़ा संकोच हुआ. सामान्यत: ऐसे मौकों पर पुरुषों का ही आनाजाना होता है. सिर्फ परिवार, रिश्तेदार और पारिवारिक संबंधी महिलाएं ही ऐसे मौके पर आतीजाती हैं अत: अभिनव के घर महिलाओं का न पहुंचना स्वाभाविक ही था.

वह सीधी प्राचार्य के पास पहुंची और बोली, ‘‘सर, अब क्या देर है?’’

‘‘दोचार महिलाएं होतीं तो लाश का स्नान और सिंगार हो जाता.’’

जया को महाविद्यालय परिवार याद आया तो उस ने पूछ लिया, ‘‘महा- विद्यालय परिवार कहां गया?’’

प्राचार्य गंभीर हो कर बोले, ‘‘आमतौर पर महिला सहकर्मी ऐसे अशुभ मौकों पर नहीं आती हैं.’’

जया को मन ही मन क्रोध आया लेकिन मौके की नजाकत देख कर उस ने वाणी में अतिरिक्त मिठास घोली, ‘‘सर, यह सामान्य मौका नहीं है. अभिनव अपने घर से कोसों दूर नौकरी कर रहा है. इतनी जल्दी परिवार वाले तो आ नहीं सकते. क्रियाकर्म तो होना ही है.’’

प्राचार्य ने चुप्पी साध ली. अगल- बगल बैठे सहकर्मी भी बगलें झांकने लगे. जया की समझ में अच्छी तरह से आ गया कि महाविद्यालय परिवार की अवधारणा स्टाफ से काम लेने के लिए है, स्टाफ के काम आने की नहीं.

जया प्राचार्यजी के पास से उठ कर सीधी अंदर चल दी. मानवीय संवेदना के आगे परंपराएं और सामाजिक अवरोध स्वत: बौने हो गए. फिर यह चुनौती मानवीय संवेदना से कहीं आगे की थी. अगर एक नारी ही दूसरी नारी की गरिमा और अस्मिता की रक्षा नहीं कर सकती है तो इस रूढि़वादी सड़ीगली मानसिकता वाली भीड़ से क्या अपेक्षा की जा सकती है?

जातेजाते जया ने एक उड़ती हुई नजर वहां मौजूद जनसमूह पर भी डाली. भीड़ में ज्यादातर सहकर्मी ही थे जो छोटेछोटे समूहों में बंट कर इधरउधर गप्पें मार रहे थे.

अभिनव भी जया के पीछेपीछे अंदर जाने लगा. अभिनव की आंखों में बादल घुमड़ रहे थे, जो किसी भी क्षण फटने को तैयार थे. जया ने आंखों के इशारे से ही अभिनव को रोक दिया. इस रोकने में समय की न जाने कितनी मर्यादाएं छिपी हुई थीं.

अभिनव दरवाजे के बाहर से ही लौट गए. जया ने गीले कपड़े से पोंछ कर सुनीता को प्रतीक स्नान कराया. सुनीता के चेहरे पर योगिनी जैसी चिर शांति छाई हुई थी. जया सुनीता का रूप सौंदर्य देख कर विस्मित हो गई, तो अभिनव ने इतनी रूपसी पत्नी पाई थी? अभिनव ने पहले कभी पत्नी से मुलाकात भी तो नहीं कराई और आज मुलाकात भी हुई तो इस मोड़ पर. जया गमगीन हो गई.

कभी अभिनव ने उस के सामने भी तो विवाह का प्रस्ताव रखा था. उस समय वह रोंआसी हो कर बोली थी, ‘अभिनव, ये मेरा सौभाग्य होता. तुम बहुत अच्छे इनसान हो लेकिन परिवार की जिम्मेदारियां रहते मैं अपना घर नहीं बसा सकती. हो सके तो मुझे माफ कर देना.’

फिर भी अभिनव ने कई वर्ष तक जया का इंतजार किया. वैसे उन दोनों के बीच प्रेमप्रसंग जैसी कोई बात भी नहीं थी.

पारिवारिक जिम्मेदारियां समाप्त होतेहोते बहुत देर हो गई. उस के बाद अगर वह चाहती तो आासनी से अपना घर बसा लेती लेकिन उस के मन ने किसी और से प्रणय स्वीकार ही नहीं किया.

अभी पिछले हफ्ते ही तो अभिनव उसे समझा रहा था, ‘जया, जिद छोड़ो, अपनी पसंद की शादी कर लो. युवावस्था का अकेलापन सहन हो जाता है, प्रौढ़ावस्था का अकेलापन कठिनाई से सहन हो पाता है. मगर वृद्धावस्था में अकेलेपन की टीस बहुत सालती है.’

जया ने हंस कर बात टाल दी थी, ‘अब इस उम्र में मुझ से शादी करने के लिए कौन बैठा होगा? फिर अगर आज शादी कर भी ली जाए तो 10-5 साल बाद मियांबीवी बैठ कर घुटनों में आयोडेक्स ही तो मलेंगे. अब यह भी क्या कोई मौजमस्ती की उम्र है? इस उम्र में तो आदमी अपने बच्चों की शादी की बात सोचता है.’

अभिनव ने प्रतिवाद किया था, ‘10 साल बाद की बात छोड़ो, वर्तमान में जीना सीखो. हम सुबह घूमने जाते हैं, उगता हुआ सूरज का गोला देखते हैं, फूल देखते हैं, सृष्टि के अन्य नजारे देखते हैं. मन में कैसा उजास भर जाता है. कुछ पलों के लिए हम जिंदगी के सभी अभावों को भूल कर प्रफुल्लित हो जाते हैं. क्या यह जीवन की उपलब्धि नहीं है?’

जया का ध्यान टूटा…सामने अभिनव की पत्नी की मृत देह पड़ी थी. वह धीमेधीमे सुनीता का सिंगार करने लगी. उसे लगा जैसे मन पूछ रहा है कि आज वह इस घर में किस अधिकार से अंदर चली आई? नहीं, वह इस घर में अनधिकार नहीं आई है. आज अभिनव को उस की बेहद जरूरत थी.

‘और अगर अभिनव को कल भी उस की जरूरत हुई तो?’ अचानक उस के मन में प्रश्न कौंधा.

जया ने हड़बड़ा कर सुनीता की मृत देह की ओर देखा : अब वह उस मृत देह का शृंगार कर के, अंतिम बार निहार कर बाहर आ गई. अन्य लोग उस की अंतिम क्रिया की तैयारी करने लगे.

अपने किचन को कैसे रखें पौल्यूशन फ्री

अगर आप यह सोच रही हैं कि आप घर में रहती हैं, इसलिए आप प्रदूषण से दूर हैं तो यह आप की भूल है, क्योंकि लंदन के रोफील्ड यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों के अनुसार, किचन में धुएं की सही निकासी न होने पर आप के घर में बाहर से तीन गुना ज्यादा प्रदूषण होता है और यह ज्यादातर इलैक्ट्रिक बर्नर से ही होता है. इस प्रदूषण से आप को गले में खराश, सिरदर्द, चक्कर आना, सांस लेने में दिक्कत जैसी समस्याएं हो सकती हैं.

भारतीय मसाले न सिर्फ स्वाद बढ़ाते हैं, बल्कि सेहत के लिए भी फायदेमंद होते हैं. लेकिन जहां इन से खाने का जायका बढ़ जाता है, वहीं किचन में तेलमसालों वाला खाना बनाते समय काफी धुआं भी होता है, जो सेहत के लिए नुकसानदायक साबित होता है.

महिलाओं का काफी समय किचन में ही बीतता है. ऐसे में उन के स्वास्थ्य के लिए कोई ऐसा उपकरण जो किचन में मौजूद धुएं को पलभर में बाहर कर किचन को प्रदूषणमुक्त कर दे तो वह है चिमनी.

पहले भारतीय घर बड़े होते थे और रसोईघर आमतौर पर खुले में बनाया जाता था ताकि रसोई का धुआं घर में न फैले, मगर जैसेजैसे आबादी बढ़ रही है परिवार फ्लैटों में सिमटने लगे हैं, जिन में हवा और रोशनी की कमी होती और लोग स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों के शिकार होते हैं. इन से बचने के लिए बेहतर वैंटिलेशन के साथ ही सही ढंग से इलैक्ट्रिक उपकरणों को साफ करने की भी जरूरत है ताकि घर के भीतर प्रदूषण न हो.

1. किचन में प्रदूषण के कारण

अब किचन सिर्फ गैस तक ही सीमित नहीं रही है. अब पुरानी किचन मौड्युलर किचन में बदलती जा रही है, जिस में टोस्टर, माइक्रोवेव ओवन व अन्य ढेरों चीजें रखी जाती है. लेकिन जहां ये इलैक्ट्रौनिक उपकरण समय की बचत करते हैं वहीं इन से प्रदूषण भी फैलता है, जो बाहर के प्रदूषण से कहीं ज्यादा खतरनाक होता है. आइए, जानते हैं इस बारे में:

2. टोस्टर

सभी इलैक्ट्रिक बर्नर भाप से पैदा होने वाली डस्ट से सूक्ष्मकण उत्पन्न करते हैं, जो प्रदूषण के लिए जिम्मेदार होते हैं. जब हम लंबे समय तक टोस्टर का इस्तेमाल नहीं करते हैं और फिर जब करते हैं तब उस में जमी गंदगी भाप के रूप में सूक्ष्मकणों में बदल कर प्रदूषण का कारण बनती है, जिस से स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

3. माइक्रोवेव

इंगलैंड की ‘यूनिवर्सिटी औफ मैनचेस्टर’ के शोधकर्ताओं के अनुसार, माइक्रोवेव ओवन कार्बन डाई औक्साइड की अत्यधिक मात्रा का उत्सर्जन करता है जो कार से भी ज्यादा खतरनाक प्रदूषण फैलाने का काम करता है.

रोटी मेकर: रोटी मेकर भले ही झट से गरमगरम रोटियां तैयार कर दे, लेकिन क्या आप जानती हैं कि यह भी आप के घर को प्रदूषित कर रहा है? अगर आप के घर में इस से निकलने वाले धुएं को बाहर निकालने की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, तो इस का इस्तेमाल संभल कर करें.

4. कैसे करें बचाव

– धुएं और गंदगी को किचन से बाहर निकालने के लिए घर में सही वैंटिलेशन होने के साथसाथ चिमनी की भी व्यवस्था करें ताकि घर में प्रदूषण न फैले.

– चिमनी पर जमी गंदगी को हटाने के लिए फिल्टर्स व उस के फे्रम्स को थोड़ेथोड़े दिनों बाद साफ करती रहें.

– जब भी टोस्टर, माइक्रोवेव के बाद कौफी या टी मेकर का इस्तेमाल करें तो उस की साफसफाई का खास खयाल रखें, क्योंकि इन उपकरणों पर गंदगी जमा होने पर प्रदूषण का खतरा ज्यादा रहता है.

– एक बार में एक ही इलैक्ट्रिक उपकरण का उपयोग करने की कोशिश करें.

 

 

बेटियां: क्या नवजात शिशु को बचा पाए डाक्टर कुमार

‘‘ओफ्फो, आज तो हद हो गई…चाय तक पीने का समय नहीं मिला,’’ यह कहतेकहते डाक्टर कुमार ने अपने चेहरे से मास्क और गले से स्टेथोस्कोप उतार कर मेज पर रख दिया.

सुबह से लगी मरीजों की भीड़ को खत्म कर वह बहुत थक गए थे. कुरसी पर बैठेबैठे ही अपनी आंखें मूंद कर वह थकान मिटाने की कोशिश करने लगे.

अभी कुछ मिनट ही बीते होंगे कि टेलीफोन की घंटी बज उठी. घंटी की आवाज सुन कर डाक्टर कुमार को लगा यह फोन उन्हें अधिक देर तक आराम करने नहीं देगा.

‘‘नंदू, देखो तो जरा, किस का फोन है?’’

वार्डब्वाय नंदू ने जा कर फोन सुना और फौरन वापस आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लिए लेबर रूम से काल है.’’

आराम का खयाल छोड़ कर डाक्टर कुमार कुरसी से उठे और फोन पर बात करने लगे.

‘‘आक्सीजन लगाओ… मैं अभी पहुंचता हूं्…’’ और इसी के साथ फोन रखते हुए कुमार लंबेलंबे कदम भरते लेबर रूम की तरफ  चल पड़े.

लेबर रूम पहुंच कर डाक्टर कुमार ने देखा कि नवजात शिशु की हालत बेहद नाजुक है. उस ने नर्स से पूछा कि बच्चे को मां का दूध दिया गया था या नहीं.

‘‘सर,’’ नर्स ने बताया, ‘‘इस के मांबाप तो इसे इसी हालत में छोड़ कर चले गए हैं.’’

‘‘व्हाट’’ आश्चर्य से डाक्टर कुमार के मुंह से निकला, ‘‘एक नवजात बच्चे को छोड़ कर वह कैसे चले गए?’’

‘‘लड़की है न सर, पता चला है कि उन्हें लड़का ही चाहिए था.’’

‘‘अपने ही बच्चे के साथ यह कैसी घृणा,’’ कुमार ने समझ लिया कि गुस्सा करने और डांटडपट का अब कोई फायदा नहीं, इसलिए वह बच्ची की जान बचाने की कोशिश में जुट गए.

कृत्रिम श्वांस पर छोड़ कर और कुछ इंजेक्शन दे कर डाक्टर कुमार ने नर्स को कुछ जरूरी हिदायतें दीं और अपने कमरे में वापस लौट आए.

डाक्टर को देखते ही नंदू ने एक मरीज का कार्ड उन के हाथ में थमाया और बोला, ‘‘एक एक्सीडेंट का केस है सर.’’

डाक्टर कुमार ने देखा कि बूढ़ी औरत को काफी चोट आई थी. उन की जांच करने के बाद डाक्टर कुमार ने नर्स को मरहमपट्टी करने को कहा तथा कुछ दवाइयां लिख दीं.

होश आने पर वृद्ध महिला ने बताया कि कोई कार वाला उन्हें टक्कर मार गया था.

‘‘माताजी, आप के घर वाले?’’ डाक्टर कुमार ने पूछा.

‘‘सिर्फ एक बेटी है डाक्टर साहब, वही लाई है यहां तक मुझे,’’ बुढि़या ने बताया.

डाक्टर कुमार ने देखा कि एक दुबलीपतली, शर्मीली सी लड़की है, मगर उस की आंखों से गजब का आत्म- विश्वास झलक रहा है. उस ने बूढ़ी औरत के सिर पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी और कहा, ‘‘मां, फिक्र मत करो…मैं हूं न…और अब तो आप ठीक हैं.’’

वृद्ध महिला ने कुछ हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘श्वेता, मुझे जरा बिठा दो, उलटी सी आ रही है.’’

इस से डाक्टर कुमार को पता चला कि उस दुबलीपतली लड़की का नाम श्वेता है. उन्होंने श्वेता के साथ मिल कर उस की मां को बिठाया. अभी वह पूरी तरह बैठ भी नहीं पाई थी कि एक जोर की उबकाई के साथ उन्होंने उलटी कर दी और श्वेता की गुलाबी पोशाक उस से सन गई.

मां शर्मसार सी होती हुई बोलीं, ‘‘माफ करना बेटी…मैं ने तो तुम्हें भी….’’

उन की बात बीच में काटती हुई श्वेता बोली, ‘‘यह तो मेरा सौभाग्य है मां कि आप की सेवा का मुझे मौका मिल रहा है.’’

श्वेता के कहे शब्द डाक्टर कुमार को सोच के किसी गहरे समुद्र में डुबोए चले जा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, कोई गहरी चोट तो नहीं है न,’’ श्वेता ने रूमाल से अपने कपड़े साफ करते हुए पूछा.

‘‘वैसे तो कोई सीरियस बात नहीं है फिर भी इन्हें 5-6 दिन देखरेख के लिए अस्पताल में रखना पड़ेगा. खून काफी बह गया है. खर्चा तकरीबन….’’

‘‘डाक्टर साहब, आप उस की चिंता न करें…’’ श्वेता ने उन की बात बीच में काटी.

‘‘कहां से करेंगी आप इंतजाम?’’ दिलचस्प अंदाज में डाक्टर ने पूछा.

‘‘नौकरी करती हूं…कुछ जमा कर रखा है, कुछ जुटा लूंगी. आखिर, मेरे सिवा मां का इस दुनिया में है ही कौन?’’ यह सुन कर डाक्टर कुमार निश्ंिचत हो गए. श्वेता की मां को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

इधर डाक्टर ने लेबररूम में फोन किया तो पता चला कि नवजात बच्ची की हालत में कोई सुधार नहीं है. वह फिर बेचैन से हो उठे. वह इस सच को भी जानते थे कि बनावटी फीड में वह कमाल कहां जो मां के दूध में होता है.

डाक्टर कुमार दोपहर को खाने के लिए आए तो अपने दोनों मरीजों के बारे में ही सोचते रहे. बेचैनी में वह अपनी थकान भी भूल गए थे.

शाम को डाक्टर कुमार वार्ड का राउंड लेने पहुंचे तो देखा कि श्वेता अपनी मां को व्हील चेयर में बिठा कर सैर करा रही थी.

‘‘दोपहर को समय पर खाना खाया था मांजी ने?’’ डाक्टर कुमार ने श्वेता से मां के बारे में पूछा.

‘‘यस सर, जी भर कर खाया था. महीना दो महीना मां को यहां रहना पड़ जाए तो खूब मोटी हो कर जाएंगी,’’ श्वेता पहली बार कुछ खुल कर बोली. डाक्टर कुमार भी आज दिन में पहली बार हंसे थे.

वार्ड का राउंड ले कर डाक्टर कुमार अपने कमरे में आ गए. नंदू गायब था. डाक्टर कुमार का अंदाजा सही निकला. नंदू फोन सुन रहा था.

‘‘जल्दी आइए सर,’’ सुन कर डाक्टर ने झट से जा कर रिसीवर पकड़ा, तो लेबर रूम से नर्स की आवाज को वह साफ पहचान गए.

‘‘ओ… नो’’, धप्प से फोन रख दिया डाक्टर कुमार ने.

नवजात बच्ची बच न पाई थी. डाक्टर कुमार को लगा कि यदि उस बच्ची के मांबाप मिल जाते तो वह उन्हें घसीटता हुआ श्वेता के पास ले जाता और ‘बेटी’ की परिभाषा समझाता. वह छटपटा से उठे. कमरे में आए तो बैठा न गया. खिड़की से परदा उठा कर वह बाहर देखने लगे.

सहसा डाक्टर कुमार ने देखा कि लेबर रूम से 2 वार्डब्वाय उस बच्ची को कपड़े में लपेट कर बाहर ले जा रहे थे… मूर्ति बने कुमार उस करुणामय दृश्य को देखते रह गए. यों तो कितने ही मरीजों को उन्होंने अपनी आंखों के सामने दुनिया छोड़ते हुए देखा था लेकिन आज उस बच्ची को यों जाता देख उन की आंखों से पीड़ा और बेबसी के आंसू छलक आए.

डाक्टर कुमार को लग रहा था कि जैसे किसी मासूम और बेकुसूर श्वेता को गला घोंट कर मार डाला गया हो.

Summer Special: कैसे बनाएं स्वादिष्ट आम की खीर

गर्मियों में दो चीजें सबसे ज्यादा पसंद की जाती हैं, वो है आम और पुदीना यानी मिंट. ये दोनों ही चीजें अगर गर्मी के मौसम में मिल जाए तो हर चीज आसान सी लगने लगती है. मूड भी रिफ्रेश लगने लगता है. वहीं खाने में इसका अनोखा तालमेल मिल जाए तो खाना भी लाजवाब हो जाता है. आप आम और पुदीने के साथ अगर आप खीर बनाएंगी तो कहने ही क्या? आज तक अपने खीर तो कयी तरह की खायी होंगी. लेकिन क्या अपने कभी आम और पुदीने की खीर खाई है? अगर नहीं तो इन गर्मियों में आप इसे जरुर ट्राई करें, ये ना सर्फ बच्चों की बल्कि बड़ों की भी फेवरेट बन जाएगी. इसे कैसे बनाना है और क्या हैं आम और पुदीने के फायदे चलिए जानते हैं.

1. कैसे बनाएं आम और पुदीने वाली खीर-

कोरोना महामारी के इस दौर पर हमें घर में रहने का फायदा मिला है. जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है. ऐसे में आपको अपनी प्रतिभा को दिखाने का भी मौका मिला है. आप एक बार आम और पुदीने वाली खीर को जरुर बनाएं. इसके लिए आपको पुदीने के ताजे पत्ते, चावल, दूध, ड्राई फ्रूट्स, आम और नट्स की जरूरत है. इसकी महक और टेस्ट बढ़ाने के लिए लौंग और इलायची आपकी अच्छी मदद करेगी.

● कैसे करें तैयार-

आम और पुदीने की खीर बनाने के लिए आप चावल के साथ सभी सामग्रियों को मिलाकर अच्छे से पका लें. उसमें टेस्ट बढ़ाने के लिए मिंट यानि की पुदीने की पत्तियों के साथ उसे गार्निश करें. आपको ये खीर नार्मल खीर की तरह ही बनानी होगी. मैंगो का फ्लेवर जोड़ने के लिए अच्छे आम का चयन करना ना भूलें.

2. क्यों खास है ये रेसिपी-

इस खीर में पुदीना शामिल करना ना सिर्फ स्वाद को बढ़ाता है बल्कि, हेल्थ के लिए भी काफी ज्यादा फायदेमंद होता है. आपकी पाचन से सम्बंधित परेशानियां भी जड़ से खत्म होने में मदद मिलती है. साथ समान्य जुकाम और फ्लू से लड़ने में पुदीना सबसे अच्छा हेल्थ का केयर टेकर है. जिसे आप किसी भी भारतीय व्यंजन में मिला सकते हैं. वहीं बात अगर आम की करें तो गर्मियों में आम किसी हीरो से कम नहीं है. इसमें विटामिन ए और सी की अच्छी मात्रा होती है. साथ कैल्शियम से जुड़ी सारी कमी भी दूर होती है. गर्मियों के मौसम में ये खीर एक बेहतरीन स्वाद और ठंडक का एहसास कराएगी.

3. पुदीना और आम के अनगिनत फायदे-

गर्मियों की बात हो रही हो और उसी से सम्बंधित दो ऐसी चीजों की बात ना हो जो गर्मियों में सबसे ज्यादा फायदेमंद है तो बात कुछ अधूरी सी होगी. तो चलिए अब आम और पुदीने के फायदे भी जान लेते हैं.

● पुदीना झड़ते हुए बालों को बचाता है.
● पेट का हाजमा सही रखने में पुदीना मदद करता है.
● सांस की नली में होने वाली सूजन को कम करने के लिए पुदीना मददगार है.
● आम से कैंसर से बचाव होता है.
● आम स्किन के लिए भी फायदेमंद है.
● आम से सेक्स की क्षमता भी बढ़ती है.

तो आप कुछ इस तरह से आम और पुदीने वाली खीर बनाकर तैयार कर सकती हैं. ये खीर कई तरह के गुणों से भरपूर है. जिसमें अनगिनत फायदे भी हैं. तो आप भी आज ही ये खीर बनाइए और दूसरों से इसकी रेसिपी साझा कीजिये. आपके सब फैन हो जाएंगे.

 

गर्मियों में कैसे करें अपने पैरों की देखभाल फौलो करें ये टिप्स

पैरों को साफ और स्वस्थ रखना भी उतना ही जरूरी है, जितना शरीर के किसी दूसरे अंग को. पैरों की साफसफाई एक निश्चित अंतराल पर होती रहनी चाहिए. इस के लिए आप नियमित साफसफाई के अलावा पैडिक्योर का सहारा भी ले सकती हैं.

ऐसे करें पैडिक्योर

पैडिक्योर करने से पहले नाखूनों पर लगी नेल पौलिश को हटा दें. फिर टब या बालटी में कुनकुने पानी में अपना पसंदीदा साल्ट या क्रीम सोप डालें. अगर आप के पैरों की त्वचा ज्यादा रूखी है, तो उस में औलिव आयल भी डाल लें. साल्ट आप के पैरों की त्वचा को नरम बनाएगा, तो औलिव आयल उस के लिए माश्चराइजर का काम करेगा. पैरों का कम से कम 15 मिनट तक इस पानी में रखने के बाद बाहर निकाल कर बौडी स्क्रबर से स्क्रब करें. स्क्रब करने के बाद ठंडे पानी से पैरों को अच्छी तरह साफ कर लें. ध्यान रहे कि पैरों की उंगलियों के बीच में  कहीं सोप बचा न रहे. अब पैरों पर कोल्ड क्रीम से हलकी मालिश करें. रूई की सहायता से उंगलियों के बीच फंसी क्रीम को साफ करें. अब पैरों के नाखूनों पर नेल पौलिश का सिंगल कोट लगाएं और इसे सूखने दें. जब यह सूख जाए तो नेल पौलिश से फाइनल टच दें.

पैराफिन वैक्स के साथ पैडिक्योर

इस तरीके से पैडिक्योर करने के लिए सब से ज्यादा जरूरी चीज है वक्त. जब भी आप पैराफिन वैक्स से पैडिक्योर करें, इसे कम से कम सवा घंटे का समय दें. पैराफिन वैक्स से पैडिक्योर करते समय सब से पहले अपने पैरों को पैराफिन वैक्स से साफ कर लें. इस के लिए पैराफिन वैक्स को पिघला कर एक मिट्टी की बड़ी कटोरी या बरतन में डाल लें. अब अपने पैरों को इस बरतन में डाल दें. यह काम करते वक्त इस बात का खयाल रखें कि वैक्स आप के पैरों के ऊपर बहे. इस के बाद पेडिक्योर की पहली प्रक्रिया की तरह पैरों को कुनकुने साफ पानी से धो कर क्रीम से इन की मसाज करें और नेल पौलिश लगा लें.

कुछ काम की बातें…
  1. अगर आप पैरों के नाखून बड़े रखना चाहती हैं, तो जुराबें पहनते समय इस बात का ध्यान रखें कि नाखूनों पर नेल पौलिश लगी हो. इस से उन के नरम हो कर टूटने का डर नहीं रहता, नेल पौलिश उन्हें सहारा दे कर मजबूत बनाए रखती है.

2. धोने या पैडिक्योर ट्रीटमेंट लेने के  बाद पैरों को बिना सुखाए जुराबें न पहनें. इस से इन्फेक्शन होने का खतरा बढ़ता है.

3. कभी भी पैरों को गरमी देने के लिए हीटिंग पैड का इस्तेमाल न करें, क्योंकि यह आप के पैरों के लिए जरूरत से ज्यादा गरम साबित होने के साथ उन्हें नुकसान भी पहुंचा सकते हैं.

4. बाजार से पैरों के लिए जूते या चप्पल खरीदते समय खयाल रखें कि पंजों पर ज्यादा दबाव न पड़े. पंजों का रक्तप्रवाह किसी भी तरह से दुष्प्रभावित नहीं होना चाहिए.

5. पैरों को धोते समय कुनकुने पानी का इस्तेमाल करें. ज्यादा गरम पानी नुकसानदेह हो सकता है.

6. एड़ियो को फटने से बचाने के लिए मौश्चराइजर का इस्तेमाल करना अच्छा रहता है. मगर इसे उंगलियों के बीच में नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि इस स वहां फंगस लगने का डर रहता है.

7. अगर आप के पैरों में पसीना बहुत ज्यादा आता है, तो जूते पहनते समय एंटी फगस पाउडर का इस्तेमाल करना न भूलें.

 

7 टिप्स: ऐसे रखें अपने नाजुक पैरों का ख्याल

अपराधबोध: परिवार को क्या नहीं बताना चाहते थे मधुकर

बड़ी मुश्किल से जज्ब किया था उन्होंने अपने मन के भावों को. अस्पताल में उन की पत्नी वर्षा जिंदगी और मौत से जूझ रही थी और घर में वह पश्चात्ताप की अग्नि में झुलस रहे थे.

और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बेटे को फोन मिलाया, ‘‘रवि, मैं अभी अस्पताल आ रहा हूं. मुझे एक बात बतानी है बेटे, सुन, मैं ने ही…’’

‘‘पापा, आप को मेरी कसम. आप अस्पताल नहीं आएंगे. घर में आराम करेंगे. मैं यहां सब संभाल लूंगा. आप को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं पापा… ’’

फोन कट गया. सुबह से तीसरी बार बेटे ने कसम दे कर उन्हें अस्पताल आने से रोक दिया था. मानसिक तनाव था या फिर बुखार की हरारत, सहसा खड़ेखड़े चक्कर आ गया. वह आह भर कर बिस्तर पर लुढ़क पड़े. पुराने लमहे, दर्द की छाया बन कर, आंखों के आगे छाने लगे.

वर्षा, उन की पत्नी…22 सालों का साथ…जाने कैसे उसी के प्राणों के दुश्मन बन बैठे  जिसे जिंदगी से बढ़ कर चाहा था. लंबी, गोरी, आकर्षक , आत्मनिर्भर वर्षा से कालिज में हुई पहली मुलाकात उम्र भर का साथ बन गई थी. दीवानगी की हद तक चाहा उसे. शादी की, जिंदगी के एक नए और खूबसूरत पहलू को शिद्दत से जीया. उस के दामन में खुशियां लुटाईं. वर्ष दर वर्ष आगे खिसकते रहे. समय के साथ दोनों अपनेअपने कामों में मशगूल हो गए.

वर्षा जहां नौकरी करती थी उसी कंपनी में नायक मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव था. इधर कुछ समय से नायक, वर्षा में खासी दिलचस्पी लेने लगा था. दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई और यही बात मधुकर को खटकने लगी. वह जितना भी चाहते कि उन के रिश्ते के प्रति उदार बनें, इस दोस्ती को स्वीकार कर लें पर हर बार उन की इस चाहत के बीच अहम और शक की दीवार खड़ी हो जाती.

कभीकभी मधुकरजी सोचते थे, काश, वर्षा इतनी खूबसूरत न होती. 42 साल की होने के बावजूद वह एक कमसिन, नाजुक काया की स्वामिनी थी. एक्टिव इतनी कि कालिज की कमसिन लड़कियां भी उस के सामने पानी भरें जबकि वह अब प्रौढ़ नजर आने लगे थे.

जाने कब और कैसे मन में उठे गतिरोध और ईर्ष्या के इन्हीं भावों ने उन के दिल में असुरक्षा और शक का बीज बो दिया. नतीजा सामने था. अपनी बीवी को खत्म करने की साजिश रची उन्होंने. एक बार फिर अपराधबोध ने उन्हें अपने शिकंजे में जकड़ लिया.

डा. कर्ण की आवाज उन के कानों में गूंज रही थी, ‘आप को शुगर की शिकायत तो नहीं, मधुकर?’

‘नहीं, मुझे ऐसी कोई तकलीफ नहीं. मगर डाक्टर साहब, आप ने ऐसा क्यों पूछा? कोई खास वजह?’ मधुकर ने जिज्ञासावश प्रश्न किया था.

‘दरअसल, इस दवा को देने से पहले मुझे मरीज से यह सवाल करना ही पड़ता है. शुगर के रोगी के लिए ये गोलियां जहर का काम करेंगी. इस की एक खुराक भी उस की मौत का सबब बन सकती है. हमें इस मामले में खास चौकसी बरतनी पड़ती है. वैसे आप निश्ंिचत हो कर इसे खाइए. आप को तुरंत राहत मिलेगी.’

2 दिन पहले बुखार व दूसरी तकलीफों के दौरान दी गई डा. कर्ण की इसी दवा को उन्होंने वर्षा की हत्या का शगल बनाया. वह जानते हैं कि वर्षा को बहुत अधिक शुगर रहता है और वह इस के लिए नियमित रूप से दवा भी लेती है. बस, इसी आधार पर उन के दिमाग ने एक खौफनाक योजना बना डाली.

कल रात भी नायक के मसले को ले कर उन के बीच तीखी बहस हुई थी. देर तक दोनों झगड़ते रहे, अंत हमेशा की तरह, वर्षा के आंसुओं और मधुकर के मौन धारण से हुआ. वर्षा दूसरे कमरे में सोने चली गई. जाते समय उस ने रामू को आवाज दी और चाय बनाने को कहा. फिर खुद नहाने के लिए बाथरूम में घुस गई. रामू चाय रख कर गया तो मधुकरजी चुपके से उस के कमरे में घुसे और चाय में दवा की 3-4 गोलियां मिला दीं.

अब नहीं बचेगी. आजाद हो जाऊंगा मैं. यह सोचते हुए वह अपने कमरे में आ गए और बिस्तर पर लेट गए. इनसान जिसे हद से ज्यादा चाहता है, कभीकभी उसी से बेपनाह नफरत भी करने लगता है. यही हुआ था शायद मधुकरजी के साथ भी. वह सोच रहे थे…

…कितना कड़वा स्वभाव हो गया है, वर्षा का. जब देखो, झगड़ने को तैयार.

मैं कुछ नहीं, अब नायक ही सबकुछ हो गया है, उस के लिए. कहती है कि किस मनहूस घड़ी में मुझ से शादी कर ली. मेरा मुंह नहीं देखना चाहती. मुझे शक्की और झक्की कह कर पुकारती है. अब देखूंगा, कितनी जीभ चलती है इस की.

वह करवट बदल कर लेट गए थे. लेटेलेटे ही सोचा कि अब तक वह चाय पी चुकी होगी. खत्म हो जाएगी सारी चिकचिक. जीना हराम कर रखा था इस ने, जब भी नायक के साथ देखता हूं, मेरे सारे बदन में आग लग जाती है. यह बात वह अच्छी तरह समझती है, मगर अपनी हठ नहीं छोड़ेगी. काफी देर तक मन ही मन वर्षा को कोसते रहे वह, फिर मन के पंछी ने करवट ली. दिल में हूक सी उठी.

एकाएक कुछ खो जाने के एहसास से मन भीग गया.

क्या मैं ने ठीक किया? उसे इतनी बड़ी सजा दे डाली. क्या वह इस की हकदार थी? क्या अब मैं बिलकुल तनहा नहीं रह जाऊंगा? अब मेरा क्या होगा?

दिल में हलचल मच गई. अब पछतावे का तम उन के दिमाग को कुंद करने लगा. उस पर तेज बुखार की वजह से भी बेहोशी सी छा गई.

अचानक आधी रात के समय शोरशराबा सुन कर वह जग पड़े. बाहर निकले तो देखा, बेटा रवि, वर्षा को लाद कर कार में बिठा रहा है.

रामू ने बताया, ‘‘साहब, मालकिन की तबीयत बहुत बिगड़ गई है.’’

उन का दिल धक् से रह गया. वह चौकस हो उठे, ‘‘मैं भी चलूंगा.’’

उन्होंने बेटे को रोकना चाहा पर बेटे ने यह कहते हुए कार स्टार्ट कर दी, ‘‘नहीं, पापा. आप का शरीर तप रहा है. आप आराम करें. मैं हूं ना.’’

मधुकर पत्थर के बेजान बुत से खड़े रह गए. जैसे किसी ने उन के शरीर से प्राण निकाल लिए हों. क्या अब यही अकेलापन, यही तनहाई जीवन भर टीस बन कर उन के दिल को बेधती रहेगी?

‘‘बाबूजी, चाय ले आऊं क्या?’’ रामू ने आवाज दी तो मधुकर जैसे तंद्रा से जागे.

‘‘नहीं रे, दिल नहीं है. एक काम कर रामू, बिस्तर पर सहारा ले कर बैठते हुए वह बोले, जरा मेरे लिए एक आटोरिकशा ले आ. मुझे अस्पताल जाना ही होगा.’’

‘‘यह पाप मैं नहीं करूंगा मालिक. छोटे मालिक भी बोल कर गए हैं. 4 दिन से आप की तबीयत कितनी खराब चल रही है. वह सब संभाल लेंगे. आप नाहक ही परेशान हो रहे हैं.’’

मधुकरजी को गुस्सा आया रामू पर. सोचा, खुद ही चला जाऊं. मगर डगमगाते कदमों से ज्यादा आगे नहीं जा सके. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. फिर क्या हुआ, उन्हें याद नहीं. होश आया तो खुद को बिस्तर पर पाया. सामने डाक्टर खड़ा था और रामू उन से कह रहा था :

‘‘मालिक पिछले 2 घंटे से बेहोशी में जाने क्याक्या बड़बड़ा रहे थे. कभी कहते थे, मैं हत्यारा हूं, तो कभी मालकिन का नाम ले कर कहते थे, वापस लौट आ, तुझे मेरी कसम…’’

मधुकरजी को महसूस हुआ जैसे उन का सिर दर्द से फटा जा रहा है. उन्होंने चुपचाप आंखें बंद कर लीं. बंद आंखों के आगे वर्षा का चेहरा घूम गया. जैसे वह कह रही हो कि क्या सोचते हो, मुझे मार कर तुम चैन से जी सकोगे? नहीं मधुकर, यह तुम्हारा भ्रम है. मैं भटकूंगी तो तुम्हें भी चैन नहीं लेने दूंगी. पलपल तड़पाऊंगी…यह कहतेकहते वर्षा का चेहरा विकराल हो गया. वह चीख उठे, ‘‘नहीं…’’

सामने रामू खड़ा था, बोला, ‘‘क्या हुआ, मालिक?’’

‘‘कुछ नहीं, वर्षा नहीं बचेगी, रामू. मैं ने उसे मार दिया…’’ वह होंठों से बुदबुदाए.

‘‘मालिक, मैं अभी ठंडे पानी की पट्टी लाता हूं. आप की तबीयत ठीक नहीं.’’

रामू दौड़ कर ठंडा पानी ले आया और माथे पर ठंडी पट्टी रखने लगा.

मधुकरजी सोचने लगे कि ये मैं ने क्या किया? वर्षा ही तो मेरी दोस्त, बीवी, हमसफर, सलाहकार…सबकुछ थी. मेरा दर्द समझती थी. पिछले साल मैं बीमार पड़ा था तो कैसे रातदिन जाग कर सेवा की थी. परसों भी, जरा सी तबीयत बिगड़ी तो एकदम से घबरा गई थी वह, जबरदस्ती मुझे डाक्टर के पास ले गई.

मैं ने बेवजह उस पर शक किया. दफ्तर में चार लोग मिल कर काम करेंगे तो उन में दोस्ती तो होगी ही. इस में गलत क्या है? इस के लिए रोजरोज मैं उसे टीज करता था. तभी तो वह झल्ला उठती थी. हमारे बीच झगड़े की वजह मेरा गलत नजरिया ही था. काश, गया वक्त वापस लौट आता तो मैं उसे खुद से जुदा न करता. अब शायद कभी जीवन में सुकून न पा सकूं. यह सब सोच कर मधुकरजी और भी परेशान हो उठे.

‘‘रामू, फोन दे इधर…’’ और रामू के हाथ से झट फोन ले कर उन्होंने सीधे अस्पताल का नंबर मिलाया. वह इंगेज था. फिर डाक्टर के मोबाइल पर बात करनी चाही मगर नेटवर्क काम नहीं कर रहा था.

क्या करूं? मैं जब तक किसी को हकीकत न बता दूं, मुझे शांति नहीं मिलेगी. डाक्टर को जानकारी मिल जाए कि उसे वह दवा दी गई है तो शायद वह बेहतर इलाज कर सकेंगे. यह सोच कर उन्होंने फिर से बेटे को फोन लगाया.

‘‘पापा, ममा को ले कर टेंशन न करें. यहां मैं हूं. आप अपनी तबीयत का खयाल रखें…’’

‘‘होश आया उसे?’’

‘‘हां, बस आधेएक घंटे में…हैलो डाक्टर, एक मिनट प्लीज…’’

‘‘हैलो….हैलो बेटे, मैं एक बात बताना चाहता हूं…जरा डाक्टर साहब को फोन दो…’’

रवि उन से बात करतेकरते अचानक डाक्टर से बातें करने में मशगूल हो गया और फोन कट गया.

वह सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘दवा खा लीजिए, मालिक,’’ रामू दवा ले कर आया.

‘‘जहन्नुम में जाए ये दवा…’’ गोली फेंकते हुए मधुकरजी उठे और वर्षा के कमरे की तरफ बढ़ गए.

अंदर खड़े हो कर देखने लगे. वर्षा का बिस्तर…मेज पर रखी तसवीर… अलमारी…कपड़े…सबकुछ छू कर वह वर्षा को महसूस करना चाहते थे. अचानक ईयररिंग हाथ से छूट कर नीचे जा गिरा. वह उठाने के लिए झुके तो चक्कर सा आ गया. वह वहीं आंख बंद कर बैठ गए.

थोड़ी देर बाद मुश्किल से आंखें खोलीं. यह क्या? चाय का वही नया वाला ग्लास नीचे रखा था जिस में वह चुपके से आ कर गोली डाल गए थे. ग्लास में चाय अब भी ज्यों की त्यों भरी पड़ी थी.

तब तक रामू आ गया, ‘‘…ये चाय…’’ वह असमंजस से रामू की तरफ देख रहे थे.

‘‘ये चाय, हां…वह दूध में मक्खी पड़ गई थी. इसीलिए मालकिन ने पी नहीं. जब तक मैं दूसरा ग्लास चाय बना कर लाया, वह सो चुकी थीं.’’

मधुकरजी चुपचाप रामू को देखते रहे. अचानक ही दिमाग में चल रही सारी उथलपुथल को विराम लग गया. एक मक्खी ने उन के सीने का सारा बोझ उतार दिया था…यानी, मैं दोषी नहीं. यह सोच कर वह खुश हो उठे.

तभी मोबाइल बज उठा, ‘‘पापा, मैं ममा को ले कर आधे घंटे में घर पहुंच रहा हूं.’’

‘‘वर्षा ठीक हो गई?’’

‘‘हां, पापा, अब बेहतर हैं. हार्ट अटैक का झटका था, पर हलका सा. डाक्टर ने काबू कर लिया है. बस, दवा नियम से खानी होगी.’’

ओह, मेरी वर्षा…कितना खुश हूं मैं…तुम्हारा लौट कर आना, आज कितना भला लग रहा है.

मधुकर मुसकराते हुए शांति से सोफे पर बैठ कर पत्नी और बेटे का इंतजार करने लगे. अब उन्हें किसी को कुछ बताने की चिंता नहीं थी.

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