Long Story in Hindi: दोनों का पारा 7वें आसमान को छू रहा था. व्यंग्य, आरोप, शिकायतों से भरे कूड़े के ढेर एकदूसरे पर फेंके जा रहे थे. भूत, वर्तमान के साथ भविष्य भी इस बहस में शामिल हो चुका था. इस तीखी नोक झोंक में एकदूसरे को अपने त्याग, अपनीअपनी महानता की मिसाल गिनाते हुए दोनों ही इस बात पर तुले थे कि वे एकदूसरे को उस की गलती आज मनवा कर ही मानेंगे. पहली बार कोई सुनता तो उसे यही लगता इन दोनों के बीच का झगड़ा, मनभेद जिस मुकाम तक पहुंच चुका है, अब इस की अंतिम परिणति बस तलाक ही है.
‘‘आप को कभी भी यह महसूस हुआ कि कितना काम करती है यह औरत? कभी सोचते हैं कि दिनभर मैं घर में अकेले एक नौकरानी की तरह लगी रहती हूं?’’ श्वेता ने तिलमिला कर कहा.
‘‘क्या तुम दुनिया की अकेली औरत हो जो घर का काम करती है? फिर घर में ऐसा बड़ा काम है ही क्या? बस 2-4 लोगों का नाश्ताखाना बनाना, वाशिंग मशीन में कपड़े डालना, वह भी औटोमैटिक मशीन में. बाकी काम के लिए महरी तो आती ही है,’’ अभिषेक ने तुरंत जवाब दिया.
‘‘एक दिन घर में काम कर के देखिए तो पता चल जाए दिनभर क्या काम करती हैं हम औरतें,’’ श्वेता ने चुनौती दी.
‘‘तुम भी एक दिन औफिस जा कर देखों तो आटादाल का भाव मालूम हो जाए. तुम को तो यही लगता है नकि औफिस में हम लोग मौज करते हैं, ऐयाशी करते हैं, जबकि औफिस में घंटों खटने के बाद भी बौस की फटकार सुनने को मिलती है, सुबह और शाम औफिस के रास्ते में 2 घंटे की ड्राइव, कई दफा लंबेलंबे जाम में फंसे रहना पड़ता है. इन सब के बाद घर लौटने के बाद भी चैन नहीं, 10 तरह की मांग, तुम्हारे उलाहने. बस यही है हम जैसों की जिंदगी,’’ अभिषेक ने कहा. उस की आवाज धीरे न पड़ जाए इसलिए सोफे पर बैठेबैठे उस ने रिमोट से टीवी की आवाज धीमी कर दी.
‘‘आप लोग घर के काम को आसान सम झते हैं? कपड़े मशीन में डालने से धुल कर तैयार नहीं हो जाते हैं, मशीन से निकाल कर उन्हें फैलाना, फिर उतारना, प्रैस करना भी होता है. सब का खाना बनाना, घर की सफाई, बच्चों को तैयार करना, उन का, आप का अलग से टिफिन तैयार करना…’’ श्वेता ने घर के काम गिनाने शुरू किए.
तभी अभिषेक बीच में बोल उठा, ‘‘कपड़े धोने, खाना बनाने जैसे काम के लिए ही
क्या मर्द शादी करता है? ये काम तो 3-4 हजार दे कर नौकरानी से भी कराए जा सकते हैं. शादी कर के फिर इतना ताम झाम क्यों पालना? दिनभर घरवालों के लिए मेहनत करने के बाद आदमी जब घर आता है तो उसे सुकून चाहिए. पर यहां सुकून की जगह उलाहने, ताने सुनने को मिलते हैं.’’
श्वेता नौकरानी की अपने से की गई इस तरह की तुलना पर हमेशा तिलमिला जाती थी. आज भी यही हुआ. बोली, ‘‘तो करा लीजिए न नौकरानी से सारा काम. मैं भी देखूं. हमेशा इस का रोब क्या देते हैं? वैसे भी मु झे घर की नौकरानी ही बना कर रख छोड़ा है आप ने?’’ श्वेता का गला भर्रा गया. पर उस ने अपने आंसू रोक लिए. आंसू बहा कर वह अपने को कमजोर नहीं दिखाना चाहती थी.
‘‘उन औरतों के बारे में कभी सोचा है जो दफ्तर जाती हैं, वे सुबह से वहां काम करती हैं,फिर शाम को दफ्तर से वापस आ कर घर सभांलती हैं. दोहरी ड्यूटी करती हैं वे, घर की और दफ्तर की.’’
अभिषेक ने बहस का रुख दूसरी तरफ मोड़ा. बहस के तरकश में रखे ब्रह्मास्त्रों में नौकरानी वाला अस्त्र वह चला चुका था. यह दूसरा था. निशाना सही लगा, असर भी पूरा पड़ा. कामकाजी महिलाओं से तुलना कर उस ने आग में घी डालने का काम किया.
श्वेता की आवाज और तेज हो गई, ‘‘उन के पति आप जैसे नहीं होते. वे घर के कामकाज में अपनी पत्नियों का हाथ बंटाते हैं, सोफे पर बैठे आप की तरह केवल हुक्म नहीं चलाते,’’ इस के साथ ही उस ने 2-3 कामकाजी महिलाओं के पतियों का उदाहरण दे डाला, ‘‘और ऐसा ही था तो खुद क्यों नहीं कर ली नौकरी वाली से शादी? आप तो चाहते ही नहीं थे कि आप की बीवी नौकरी करे, डीटीसी बसों और दफ्तर में धक्के खाए. 10 तरह की फिलौसफी झाड़ी थी शादी के बाद, अब नौकरी वाली अच्छी लगने लगी…’’
यह सच है कि अभिषेक नहीं चाहता था श्वेता नौकरी करे, उसे इस फैसले को ले कर कभी अफसोस भी नहीं हुआ. उलाहना देना अलग बात है. उस ने शादी के बाद श्वेता से पूछा भी था कि नौकरी करोगी, लेकिन उस के जवाब के पहले ही खुद की सोच उस पर लाद दी, ‘‘मैं नहीं चाहता कि औफिस से घर आऊं तो मेरी बीवी भी उसी हालत में थकीमांदी घर में मिले, मेरे बच्चे स्कूल से आएं तो उन्हें घर पर मां की जगह मेड मिले.’’
श्वेता ने भी शादी के पहले और शादी के बाद एक घरेलू पत्नी की भूमिका ही पसंद
की. अपने व्यक्तिगत कैरियर की उसे कभी महत्त्वाकांक्षा नहीं रही. एक मध्यवर्ग की आम लड़कियों की तरह उस ने भी एक सामान्य गृहस्थ जीवन का सपना जरा सा बड़ा होते ही पाल लिया था. अपना घर हो जिसे वह अपने मुताबिक सजाएसंवारे. प्यार करने वाला पति हो जो मेहनत कर के शाम को घर आए तो उस से बातें करे, बाहर घुमाए, उस की पसंदनापसंद का खयाल रखे. बस 2 बच्चे हों, जिन के भविष्य के लिए दोनों मेहनत करें.
शादी के बाद 2-3 साल तक सबकुछ उसी तरह चला भी. 2 बच्चे भी जल्दीजल्दी हो गए, बड़ी बेटी, फिर उस के बाद बेटा. लेकिन उस के बाद न जाने क्या हुआ बेवजह उस के और अभिषेक के संबंधों की वह अमरबेल सूखने लगी जो उन्होंने साथ लगाई और उसे बढ़ाया था. उस की जगह कैक्टस के ढेर सारे चाहेअनचाहे पौधों ने पांव पसारने शुरू कर दिए.
श्वेता को लगने लगा यह वह अभिषेक नहीं है जिस से उस की शादी हुई थी. वह बदल गया है. अभिषेक को भी कुछ ऐसा ही महसूस होने लगा. कभीकभी उसे विश्वास नहीं होता यह वही श्वेता है जिस की आंखों में, देह में उसे हमेशा प्यार का दरिया उमड़ता नजर आता था, जिस से वह खुद बहुत प्यार करता था, खुद को दुनिया का सब से खुश पति मानता था. न जाने श्वेता एक कर्कशा, वाचाल पत्नी में कब और कैसे बदल गई, उसे पता ही नहीं चला. शायद बच्चों के परिवार में आने के बाद गृहस्थी के बढ़ते दायित्व, बो झ और शारीरिक श्रम के वे झेल नहीं पाए या फिर प्यार की दुनिया और कशिश का गृहस्थ जीवन के यथार्थ धरातल का जब सामना हुआ तो वे उसे सम झ नहीं पाए और सबकुछ बिखर गया.
‘‘तुम केवल एमए पास थी, तुम्हें टीचिंग के अलावा नौकरी ही क्या मिलती. टीचिंग में भी बीएड चाहिए.’’
बहस में कामकाजी पत्नी बनाम घरेलू पत्नियों का मुद्दा आ चुका था. अभिषेक के लिए यह बड़ा मुद्दा था. वह इसे छोड़ना नहीं चाहता था.
‘‘फिर ऐसी महिलाओं के पति घर में सहयोग क्यों नहीं करेंगे? उन की पत्नियां घर में पैसा लाती हैं, घर के खर्चों में उन का सहयोग होता है. हमारी तरह उन के पति एक गधा नहीं होते जो पूरे घर के खर्च का बो झ अकेले अपनी पीठ पर लादे रहता है. दोहरा बो झ उठाती हैं वे बेचारी. पतियों की तरह दफ्तर में काम करती हैं, उन की तरह कमाती हैं, घर का भी ज्यादा से ज्यादा बो झ उन्हीं पर रहता है. वे भी बच्चों, पति के साथ अपने लिए भी टिफिन तैयार करती हैं. शाम को औफिस से आई नहीं कि खाना बनाने की तैयारी.’’
‘‘दूर के ढोल सुहावने. जरा उन के पतियों को देखिए वे पत्नियों के साथ कैसे रहते हैं,
जा कर हालत देखिए. पत्नी का वे पूरा ध्यान रखते हैं. सुबह वह टिफिन तैयार करती है तो उन के पति बच्चों को स्कूल जाने के लिए तैयार करते हैं. खाना बनाने में मदद करते हैं. ज्यादातर ने खाना बनाने के लिए मेड रखी हैं,’’ श्वेता का बोलना जारी रहा. वह जानती थी कि ऐसे मामले में अभिषेक दूसरों की पत्नियों की तुलना हमेशा जानबू झ कर करता है, बावजूद यह मामला आते ही वह तिलमिला जाती.
‘‘आप तो बच्चों के स्कूल जाने के बाद भी बिस्तर पर अपनी नींद पूरी कर के उठते हैं. फिर उन औरतों के पतियों को जो भी खाने को मिला खा लेते हैं. आप की तरह उन्हें फरमाइशी खाना नहीं चाहिए. आज गुस्साए क्यों आप? खाने को ले कर ही न?’’
‘‘दिनभर खट कर कमाता हूं, सब का ध्यान रखता हूं, सब की जरूरतें पूरी करता हूं, इस के बाद खाना भी अपने घर में ठीक से न मिले?’’ अभिषेक ने किसी तरह यह तर्क ढूंढ़ा.
वैसे श्वेता सही कह रही थी. झगड़े की वजह मामूली थी, खाने को ले कर ही आज यह बवाल शुरू हुआ था.
‘‘किस की जरूरतें पूरी करते हैं? आप की कमाई से मु झे क्या फायदा हुआ? कौन से मेरे शौक पूरे हुए? मेरे हाथ में एक भी पैसा देते हैं? मेरा कुछ मन हुआ तो अपने मन से कुछ खरीद नहीं सकती. हर बात के लिए आप के सामने हाथ तो पसारूंगी नहीं. शादी के 15 साल हो गए, क्या दिया आप ने? मैं दिनभर खटती हूं. बदले में 2 टाइम का खाना ही तो खाती हूं,’’ श्वेता ने जवाब दिया.
‘‘घर से कभी बाहर निकल कर ध्यान से देखो देश की 60% औरतें कैसे रहती हैं. उन के पास क्या है, यह देखने के बाद तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हें क्या मिला है, तुम को मैं ने क्या दिया है. यह जो मकान है, गाड़ी है, और भी जो सुविधाएं मैंने आप लोगों के लिए बनाई वे कुछ नहीं है? यह सब मैंने अपने लिए तो किया नहीं. यह सब अपनी मेहनत से किया है. दहेज में तो मिला नहीं?’’
‘‘सब करते हैं. आप ने कौन सा बड़ा तीर मार दिया? शादी कर के आई थी तो आप के पास था ही क्या? मेरे आने के बाद ही तो यह सब आया. शादी के पहले ही पंडित ने कहा था कि तुम्हारे आने से तुम्हारे पति की संपत्ति बढ़ेगी.’’
यह भी एक जहर बु झा बाण होता है जिसे अभिषेक झेल नहीं पाता. उसे यह चुभ जाता है कि मेरी वर्षों की रातदिन की सारी मेहनत को यह औरत अपनी भाग्य कुडंली सामने ला कर 1 मिनट में खत्म कर देती है.
मां ने एक बार इस के सामने कह क्या दिया कि मर्द की तरक्की पत्नी और बच्चों के भाग्य से ही होती है, श्वेता ने उसे ब्रह्म सूत्र की तरह पकड़ लिया. हर झगड़े में या किसी के सामने होने वाली बातचीत में मां की इस बात का वह गुगली की तरह इस्तमाल करती है,’’ जब मैं यहां आई तो इन के पास था ही क्या?’’
श्वेता किचन में काम करते हुए अभिषेक की बातों का जवाब दे रही थी. एक बार उस का मन हुआ कि अभिषेक बोलता रहे, वह अब उस का जवाब नहीं देगी. पर सही में यह व्यक्ति तो मुंह में हाथ डाल कर बुलवाता है. वह यह जानती थी कि अगर वह चुप हो भी गई तो अभिषेक सोफे से उठ कर किचन में आ जाएगा, उसे उकसाना शुरू कर देगा, ‘‘चुप क्यों हो गई? अब जवाब क्यों नहीं देती. सारे तर्क खत्म हो गए?’’
जिस मुद्दे को ले कर झगड़ा शुरू हुआ, वह निहायत मामूली था. दोपहर में श्वेता ने औफिस फोन कर अभिषेक से यह पूछ लिया कि रात में खाने में वह क्या बनाए. अकसर वह यह पहले भी पूछती रही. अभिषेक इस के जवाब में ज्यादातर यही कहता जो मन हो बना लेना. कभीकभी काम के बीच में आए इस तरह के सवाल पर झल्ला भी जाता था. लेकिन आज उस ने बेसन की सब्जी बनाने को कह दिया था. यह उस की पसंदीदा सब्जियों में से एक थी.
रात में खाने टेबुल पर बैठा तो पहले से बेसन की सब्जी का मूड बना हुआ था. लेकिन
बेसन की सब्जी की जगह उसे कटहल की सब्जी मिली. उस ने बेसन की सब्जी के बारे में पूछा. अभिषेक को गिनचुन कर जो 2-3 सब्जियां पसंद नहीं थीं उन में कटहल भी थी. वह झल्ला गया. श्वेता ने बेसन की सब्जी न बनने की जो वजह बताई, वह उस के गले नहीं उतरी. इसे भी वह सह लेता होता, लेकिन विकल्प के रूप में उसे जो सब्जी दी गई थी उस से बदन में आग लग गई. उसे लगा यह बात श्वेता को भी पता है कि कटहल उसे नापसंद है, फिर भी यह विकल्प उसे दिया गया.
श्वेता ने वजह बताई चूंकि घर में बेसन कम था, सब के लिए सब्जी पूरी नहीं पड़ती, इसलिए कटहल बना दिया. बस यह सुनते ही बच्चों की तरह अभिषेक उखड़ गया. यह मामला केवल सब्जी का नहीं रह गया. यह मामला घर में अभिषेक के महत्त्व, उस के प्रति श्वेता की सोच, एक पत्नी द्वारा पति की परवाह जैसे गंभीर विषय से जुड़ गया.
अभिषेक बगैर खाना खाए गुस्से में डाइनिंगटेबल छोड़ कर सोफे
पर बैठ गया था. वहीं से वाकयुद्ध में अपना मोरचा संभाले था. श्वेता जवाबी हमले के साथ घर के बचे काम भी समेट रही थी. अभिषेक ने खाया नहीं था, उसे बाकी बचे खाने के साथ बरतन में डाला, फिर फ्रिज में रखा. बाकी बरतनों को हटा कर सिंक में डाला. इस के बाद वह किचन की सफाई में लग गई थी. चूल्हे को पोंछ रही थी ताकि सुबह किचन देख कर महरी का मूड खराब न हो. पर इस सारे काम के बावजूद बोलने और अभिषेक पर हमले की रफ्तार में किसी तरह की कमी नहीं होने दी. कुछ साल पहले ही उस ने ठान लिया था कि अभिषेक जो चाहे वह बोल कर अब नहीं निकल सकता, अपनी गैरवाजिब बातें मु झ पर नहीं थोप सकता है. इसलिए जवाब देने के लिए तर्क खत्म होने लगते तो वह अभिषेक के तर्कों का ही इस्तमोल उस के खिलाफ करने लगती.
जिस तरह श्वेता ने बचा खाना समेट कर फ्रिज में रखा, उस से अभिषेक सम झ गया कि अब वह भी खाना नहीं खाएगी. तमाम झगड़े के बावजूद जब वह ऐसे में श्वेता को बिना खाए बिस्तर पर जाते देखता, उसे तकलीफ होती. गुस्सा उड़ जाता. लेकिन कष्ट महसूस करने पर भी वह श्वेता से कुछ कह नहीं सकता. वह यह जानता था कि वह तो क्या, श्वेता के पिता भी अब आ जाएं तो वे भी उसे नहीं खिला सकते. ऐसी परिस्थितियों में कई बार उसे लगता फैसले लेने, उन पर टिके रहने पर जिस तरह श्वेता दृढ़प्रतिज्ञ रहती है, अगर सकारात्मक दिशा में वह ऐसे ही फैसला लेती तो अपनी और उस की जिंदगी बन सकती है.
मगर संबंधों में इस तरह से सोचना और कल्पना करना फुजूल की बातें हैं. श्वेता, वह खुद, सभी पतिपत्नी इतने ही सकारात्मक होते, सही तरीके से सोचते तो ज्यादातर घर, परिवार, यह समाज ही नहीं, सारी दुनिया स्वर्ग हो जाए. सदियों से कहा जाता रहा है, दुनिया की खुशी घर से ही शुरू होती है. कई रिश्तों में, कई स्तर पर होने वाले झगड़ों की वजह ढूंढ़ें तो वह मामूली होती है, फिर भी इन झगड़ों को ले कर थानेकचहरी में अपार भीड़ लगी होती है.
बच्चे पहले ही खा कर अपने कमरे में चले गए थे. वे इस झगड़े के बीच अपने कमरे से नहीं निकले. उन्हें मालूम था कि मम्मीपापा की यह लड़ाई कम से कम आधा घंटा चलेगी. ऐसे मौकों पर उन को गुडनाइट कहने की पंरपरा वे दरकिनार कर देते हैं. उन की बहस शुरू होते ही दीप्ति तुरंत अपने लैपटौप में उल झ गई थी, अनुज अपने मोबाइल पर वीडियो गेम खेलने में व्यस्त हो गया.
अभिषेक और श्वेता के सारे तर्क खत्म हो चुके थे. बगैर तर्क या आरोप के इस अहिंसक लड़ाई को जबरन आगे खींचना दोनों के लिए मुश्किल था. अभिषेक बैडरूम में आ गया. कपड़े बदले और बिस्तर पर करवट बदल लेट गया. सब काम निबटाने के बाद श्वेता भी आई और बैड के दूसरे किनारे पर दूसरी तरफ करवट ले कर सो गई. बिस्तर पर आने के पहले श्वेता ने लाइट औफ कर दी. कमरे में अंधेरा हो गया. उन दोनों के दिल में भी कुछ नहीं बचा रह गया. कोई शिकवाशिकायत नहीं. जो थी उस की भड़ास बहस के जरीए निकल चुकी थी. उन की लड़ाई पहले चरण से निकल कर दूसरे चरण में पहुंच चुकी थी. इसे शीत युद्ध कह सकते है.
दूसरा चरण कम से कम 1 हफ्ते का होता है. खत्म करने का कोई बहाना नहीं मिला
तो ज्यादा भी खिंच जाता है. शीत युद्ध के दौरान दोनों के बीच बोलचाल बंद रहती है. दोनों का व्यवहार, कुछ जरूरी बात कहनी भी हुई तो लहजा बदल जाता है. अभिषेक को श्वेता से कुछ कहना रहता है तो ‘तुम’ की जगह अब ‘आप’ कह कर संबोधित करता है. यह बातचीत निहायत खास जरूरतों पर ही होती है. जैसे ‘आंधी आ रही है, बाहर कपड़े हैं उतार लीजिएगा,’ ‘रात में आप मेरा खाना मत बनाइएगा, बाहर डिनर है,’ ‘लाइट औफ कर दीजिए, सोना है.’
श्वेता का भी बात करने का सलीका बदल जाता. इस दौरान वह अभिषेक से यह नहीं पूछती कि आप का खाना निकालूं’ खाना परोस कर टेबल पर रख देती और अभिषेक को सूचना दे देती, ‘खाना टेबल पर लगा दिया हैं.’ इस अवधि में बगैर अभिषेक की तरफ देखे एक संदेश की तरह घर की जरूरतें बता देती.
‘महरी का वेतन देना है,’ ‘दीप्ति अपने स्कूल की पिकनिक पर जाना चाहती है,’ ‘कल के लिए घर में कोई सब्जी नहीं बची है.’
अपने झगड़ों में, संदेशों के इस आदानप्रदान में वे बच्चों को भरसक इस से दूर रखने की कोशिश करते थे. ‘अपने पापा से कह दो’ या ‘अपनी मम्मी को बता दो’ जैसी परिपाटी से दोनों ने परहेज किया, बच्चों को कभी बीच में नहीं आने दिया.
आपसी कटुता तो जोरदार बहसवाजी कर के घंटे भर बाद ही खत्म हो जाती है लेकिन यह अहम, ईगो, स्वाभिमान, अभिमान जैसी जो चीजें होती हैं, इन की गिरफ्त से निकलना आसान नहीं होता. बहस में कटु से कटु बात से घायल करने की कोशिश की जाती है, कुछ समय के लिए ये कटु वचन दोनों को पकड़ भी लेते हैं लेकिन इन का असर जल्द ही चला जाता है. स्वाभिमान या ईगो का मामला जहां जुड़ता है, वह अपनी जल्दी पकड़ नहीं छोड़ता.
शीत युद्ध के लंबा खिंचने की एकमात्र वजह यही होती है. इसलिए इस शीत युद्ध की अवधि में आपस में बातचीत भले ही बंद हो, दोनों एकदूसरे का पूरा ध्यान रखते हैं. झगड़े के 2 दिन बाद ही रविवार था. अभिषेक की छुट्टी थी. दोपहर का खाना खाने बैठा तो उस ने देखा बेसन की उस की मनपसंद सूखी सब्जी प्लेट में रखी है. रात में वह लैपटौप पर काम कर रहा था. बगैर उस के मांगे श्वेता ने कौफी का कप उस की मेज पर धीरे से रख कर बगैर उस की प्रतिक्रिया देखे वहां से चली गई.
श्वेता चौंक कर उठी. तब तक साइड टेबल पर चाय रख कर अभिषेक जा चुका था. उस ने भी चाय पीने के बाद अभिषेक को आवाज लगा कर ‘धन्यवाद’ कह कर आभार जताने की औपचारिकता से परहेज किया.
कई सालों से ठीक इसी तरह से होता आया है मानो इस झगड़े की पटकथा पहले कभी
लिख दी गई थी. शादी के बाद उस पटकथा के आधार पर उन्हीं घिसेपिटे संवादों के साथ समयसमय पर दोनों रिहर्सल करते रहे हों.
मध्यवर्गीय परिवारों में पतिपत्नी के झगड़े सामान्यतया इसी तरह के होते हैं. सभी को इन के कारण और नतीजे मालूम होते हैं, सभी एक नाटक के पात्र की तरह अपनी भूमिका उन्हीं संवादों को सालों दोहराते रहते हैं, पर कोई उस की पटकथा बदलने की कोशिश नहीं करता. दोनों में से एक की तरफ से कोशिश भी हुई तो दूसरा अपनी पुरानी भूमिका या चरित्र बदलने को तैयार नहीं.
इस वर्ग के दांपत्य जीवन में झगड़ों के कई मुद्दे विवाह के बंधन में बंधने के कुछ समय बाद अपना सिर उठाना शुरू कर देते हैं. इन में आर्थिक अभावग्रस्तता भी एक मुद्दा होती है. अभाव रोजीरोटी को ले कर नहीं होता. मध्यवर्ग की जरूरतें, आकांक्षाएं, अपने से संपन्न लोगों से प्रतिस्पर्धा की भावनाएं, उन की खुद की आमदनी के मुकाबले सदैव बढ़ती रहती हैं. जितनी आय वह बढ़ाता है उतनी ही उस की इस अंधी दौड़ की सीमा बढ़ती जाती है. उस का छोर नहीं रहता और जब यह पूरी नहीं होती तो तनाव उत्पन्न करती है. कमी हमेशा बनी रहती. उन्हें लगता जिस चीज के वे हकदार हैं वह मिल नहीं पाई. किताबों और फिल्मों के किरदार की तरह अपनी जिंदगी में खुशी के जो पल ढूंढ़ते रहते हैं, वे भी नहीं मिलते. इस का असर पतिपत्नी के संबंधों पर भी पड़ता है.
इस के अलावा बच्चों का लालनपालन, उन की शिक्षा, रिश्तेनातेदारी, ससुरालमायके के संबंध, घरगृहस्थी से जुड़े कर्तव्य, दोनों इन सब में फंस जाते हैं. इन में एकदूसरे को संतुष्ट करना इन पतिपत्नियों के लिए आसान नहीं होता और फिर एकदूसरे पर दोषारोपण का दौर शुरू हो जाता है.
प्यार सभी को चाहिए लेकिन मिलेगा कैसे, इसे सम झने की कोशिश नहीं होती. एकतरफा
चाहत में उल झ कर रह जाते हैं. कभीकभी वे इस मरीचिका में भी फंस जाते हैं कि उस की पत्नी या पति के सिवा दुनिया में सभी स्त्रियां, सभी पुरुष से उन्हें प्यार मिल सकता है. ऐसी स्थिति में कभीकभार दोनों के बीच तीसरे का प्रवेश हो जाता है.
उच्चवर्ग की तरह मध्यवर्ग में दोनों ही मियांबीवी का अपना अलग स्वतंत्र दायरा, जिसे आजकल ‘स्पेस’ कहा जा रहा है, कतई नहीं होता. इस का अर्थ जब तक इन्हें नहीं मालूम था, तब तक कुछ गनीमत थी. जब से मध्यवर्गीय परिवारों की पत्नियां आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने लगी हैं, नौकरियां कर रही हैं, उच्चवर्ग की महिलाओं की नकल में इन्हें भी स्पेस की दरकार हो गई है, जबकि व्यावहारिक तौर पर इस वर्ग में इस स्पेस या स्वतंत्र दायरे का बनना संभव नहीं है क्योंकि शादी के कई सालों के बाद भी उच्चवर्ग की तरह इस वर्ग के पतिपत्नी एकदूसरे से भावनात्मक रूप से अपने को एकदम अलग नहीं कर पाते.
चाहत, प्यार, समर्पण की भावना उन के बीच तनाव और झगड़ों के बीच भले ही दब जाए पर इन सब चीजों की उम्मीद उन में हमेशा बनी रहती है. उन के झगड़ों के बावजूद यह ग्रंथि भी कहीं न कहीं काम कर रही होती है. उन का लालनपालन ऐसे माहौल में होता है, ऐसे परिवार से निकल कर वे आते हैं जहां इन सब की जरूरत उन्होंने देख रखी होती है, शादी के जरीए सामान्यत: एकदूसरे से वे इन उम्मीदों के साथ ही बंधते हैं. इसे ‘मध्यवर्गीय स्वप्न’ भी कह सकते हैं. विवाह के बाद गृहस्थी के तनाव में जब यह कहीं गुम होता रहता है तो इसे पाने की बेचैनी बढ़ती जाती है, अनचाहा क्रोध दिलोदिमाग पर हावी होने लगता और इस में परिस्थितियों के सच को सम झने की जगह दोनों एकदूसरे की गलतियों को ढूंढ़ने लगते हैं.
इस के विपरीत उच्चवर्गीय परिवारों में पतिपत्नी के बीच विवाह के बाद कुछ समय बिताने, हनीमून अवधि का उन्माद खत्म होने के उपरांत एक सीमा रेखा खिंच जाती है, एक दायरा बन जाता है. क्लब, किट्टी पार्टी, अपना सर्किल, दोनों ही अपने दायरे में मस्त, सुखी रहते हैं. इसे ही स्पेस कहा जाने लगा है. इन में से किसी ने एकदूसरे की सीमा में अनाधिकृत तौर पर प्रवेश करने की कोशिश की तो ऐसी परिस्थिति में हंगामा होना तय है.
निजी जीवन में एकदूसरे से एकदम अलग परिधि में जी रहे ये पतिपत्नी पार्टियों में जरूर एकदूसरे का हाथ पकड़ कर जाते हैं, एकदूसरे को चूमते हैं, साथ डांस करते हैं, सब के सामने खुद को सर्वोच्च जोड़ी साबित करने की पूरी कोशिश करते हैं.
वैसे भी उच्चवर्ग के पतिपत्नी के बीच घरेलू कामकाज, एकदूसरे के मिजाज को देखने, बच्चों को संभालने जैसी बेवकूफियों की वजह से आपसी रिश्तों में किसी तरह का मलाल कतई नहीं उत्पन्न होता. इन सब बेवकूफियों के लिए नौकरचाकर और कई तरह की व्यवस्थाएं बनी होती हैं. दोनों में से कोई एक मध्यवर्गीय परिवार और संस्कार के साथ अगर आया है, किसी एक में मध्यवर्गीय दंपतियों की तरह किसी पार्टनर में प्रेम, चाहत, एकदूसरे के प्रति समर्पण जैसी उम्मीदों ने अंगड़ाई लेनी शुरू की तो निश्चित तौर पर इस की अंतिम परिणति तलाक तक पहुंच जाती है.
श्वेता और अभिषेक के बीच चल रहे शीत युद्ध का 7वां दिन था. अकसर इस शीत युद्ध के बाद अभिषेक की पहल पर ही संवाद शुरू होता था. श्वेता ने शायद ही इस मामले में कभी पहल की हो. दरअसल, उसे विश्वास होता था कि ज्यादा दिन अभिषेक बगैर उस से बात किए नहीं रह पाएगा. इसलिए वह अपनी तरफ से शिकायत खत्म हो जाने के बाद भी पहल नहीं करती.
अभिषेक को भी यह मालूम था कि श्वेता इस मामले में उसे कमजोर सम झती है. पर वह यहां मजबूती दिखा कर कोई प्रतियोगिता जीतना नहीं चाहता था. इस मामले में उस का ईगो ज्यादा दिन नहीं काम करता. वह घर में श्वेता के साथ प्रेम से रहना चाहता है. वह सम झता है कि बच्चों पर इस का असर पड़ता है. लेकिन वह अपने गुस्से से मजबूर था. उस पर उस का काबू नहीं था. कभी भी नहीं रहा. जब श्वेता उस की बातों को हलके तरीके से लेती या उस के कहे की उपेक्षा करती तो वह सहन नहीं कर पाता है. 4 लोगों के सामने भी वह श्वेता पर भड़क जाता है,यह सोचे बिना कि इस का उस पर क्या असर पड़ेगा, जिन लोगों के सामने बिगड़ा है वे क्या सोचेंगे.
श्वेता को खुद लगता था कि वह काफी बदल चुकी है. 15 साल पहले
अभिषेक के साथ जब दिल्ली आई थी तो वह दूसरी श्वेता थी. उस श्वेता की भावनाएं दूसरी थीं. कुछ अरमान थे सीने में. ऐसे रहेंगे, घर सजाएंगे, गृहस्थी बसाएंगे, मस्ती करेंगे, लेकिन धीरेधीरे सब अरमान 1-1 कर कहीं दफ्न हो गए. कुछ तो घरगृहस्थी के दबाव में और कुछ अभिषेक के स्वभाव की वजह से. वह यह सम झती थी कि अभिषेक ने सबकुछ हमारे लिए किया, पूरा खयाल रखा, मु झे मानता भी है, पर उस ने यह कभी नहीं जानना चाहा कि मैं क्या चाहती हूं. हर जगह, हर मामले में अपनी मरजी को ऊपर रखा. मु झे क्या पहनना है, कैसे रहना है, घर कैसे रखा जाएगा, परदे कैसे रहेंगे, बैड किधर रहेगा, हर चीज पर इन्होंने अपनी मरजी थोपी. शादी के तुरंत ही बाद जिस तरह का उस का गुस्सा देखा, छोटी बातों पर बिगड़ते देखा, अपनी बात सामने रखने की जो इच्छा थी वह अपनेआप खत्म हो गई.
श्वेता को यह लगता था अभिषेक केवल अपना फैसला थोपना चाहता है. कहीं जाना है तो कौन सी साड़ी पहननी है, किस तरह का मेकअप चाहिए, बाल किस तरह बंधे होने चाहिए, सबकुछ अभिषेक ही तो देखता था. कहां जाना है, कहां नहीं सब में अभिषेक का ही फैसला चलता रहा. उसे याद आया शादी के 1 हफ्ते बाद ही अभिषेक के एक मित्र ने दोनों को डिनर पर बुलाया था. अभिषेक औफिस से आया तो वह साड़ी पहन कर तैयार बैठी थी ताकि देर न हो. अभिषेक उसे तैयार देख खुश हुआ. उस ने भी कपड़े बदले. थोड़ी देर बाद दोनों बसस्टौप पर आ गए. सड़क की स्ट्रीट लाइट की रोशनी में अभिषेक बारबार उसे देखे जा रहा था. अचानक उसने उस से धीरे से कहा कि घर चलो, साड़ी ठीक नहीं लग रही है. बदल लो. उस ने हलका सा ऐतराज भी किया क्योंकि साड़ी ही नहीं, ब्लाउजपेटीकोट सब बदलना पड़ता. उसे साड़ी अभी ठीक से पहनने आती भी नहीं थी. दूसरी साड़ी बदलने में काफी मेहनत करनी पड़ती. पर अभिषेक नहीं माना. घर ला कर श्वेता से उस ने साड़ी बदलवाई. इस के बाद वे डिनर पर पहुंचे. हालांकि इस सब में 1 घंटा की देर हुई.
मगर वह यह नहीं सम झ पाई कि अभिषेक ने अपने वर्चस्व बनाने के लिए ऐसा नहीं
किया. श्वेता सुंदर थी, अभिषेक चाहता था वह और सुंदर दिखे. उसे लगता था कि श्वेता छोटे शहर से आई है, दिल्ली के फैशन और रस्मोंरिवाज से अनजान है, बस वह अपने अनुसार उसे हर तरह से ढालने में लग गया. श्वेता ने उसे गलत सम झा. उस की इस भावना को नहीं सम झा. उसे लगा उस के पहननेसवंरने में भी अभिषेक अपनी मरजी थोपता है, बगैर श्वेता के स्वभाव, उस के मनोविज्ञान को जाने. उस ने श्वेता की भावनाओं को, उस के जिज्ञासाओं को, उस की अभिलाषाओं को कभी सम झने की कोशिश ही नीं की. अपने नजरिए से उसे गलतसही बताता रहा. जबकि श्वेता शादी के बाद एक तितली की तरह अपने पति के साथ कुछ समय तक आसमान में स्वच्छंद उड़ना चाहती थी, एक प्रेमिका की तरह अपने पति से अपनी जिद को मनवाना चाहती थी, अपनी इच्छाओं को पूरा करना चाहती थी, घर के फैसलों में भागीदारी चाहती थी, रिश्ते में रोमांस चाहती थी लेकिन उस की इन गरम उमंगों पर अभिषेक के स्वभाव ने बर्फ की सिल्ली रखने का काम किया.
अभिषेक ने काफी समय बाद जब यह सब महसूस किया, निश्चित नतीजे पर पहुंचा तब तक देर हो चुकी थी. श्वेता का स्वभाव नामालूम एक उस मोड़ तक पहुंच गया था, जहां उस की भावनाएं एक चट्टान में बदल गई थीं. उस चट्टान को पिघलाना अब आसान नहीं था.
रात 8 बजे जब अभिषेक घर आया तो दरवाजे पर ही उसे घर के भीतर से कई लोगों की
आवाजें और हंसी की आवाज सुनाई दी. उस ने कालबैल बजाई. अंदर से श्वेता की आवाज आई, ‘‘लगता है वे आ गए?’’
भीतर पहुंचा तो उस ने देखा उस की देहरादून वाली बूआजी, फूफाजी, उन का बेटा, नई बहू, बेटी सभी बैठे हैं. टेबल पर नमकीन, मिठाई और पकौड़ों की प्लेट है, सभी चाय पी रहे थे. श्वेता ने उस की गैरमौजूदगी में शीत युद्ध के बावजूद उस के रिश्तेदारों की खातिरदारी में कोई कमी नहीं छोड़ी थी.
‘‘आओ बेटा, समय पर आ गए, डेढ़ घंटे से हम तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे,’’ अभिषेक को देखते ही बूआ बोलीं.
बूआफूफाजी का पैर छू कर अभिषेक उन के साथ बैठा ही था कि बूआजी ने श्वेता की तारीफ के पुल बांधने शुरू कर दिए, ‘‘बहुत अच्छी बहू मिली है तुम्हें अभिषेक. इतनी देर तक तुम्हारी कमी महसूस ही नहीं होने दी. तुम्हारी शादी में भीड़भाड़ में ही इस से मिली थी, लेकिन इस ने तुरंत पहचान लिया…’’ बूआ आगे भी बोलती गईं.
मन्नो बूआ अभिषेक की सगी बूआ नहीं थीं पर शादी के पहले अकसर बनारस उस के घर आती रहती थीं. रक्षाबंधन में पिताजी को राखी भेजना कभी नहीं भूलीं. बाद में उन से उतनी नजदीकियां नहीं रह गईं. बूआजी का बेटा गुरुग्राम में रहता था, अभिषेक देखते ही सम झ गया कि नई बहू उसी की पत्नी है.
‘‘माफ कीजिएगा बूआ शादी में नहीं आ पाए. बहुत अच्छा हुआ कि आप सभी लोग आज यहां आ गए,’’ अभिषेक ने औपचारिकता निभाई, ‘‘अब खाना खा कर ही जाइए. सादा खाना, जल्दी से बन जाएगा.’’
‘‘नहींनहीं बेटा, खाना वहां मेड को बोल कर आए हैं. दूर है, इसलिए मालूम था देर तक नहीं रुक पाएंगे. श्वेता तो कई बार खाने के लिए पूछ चुकी है,’’ इस बार फूफाजी बोले.
उन लोगों के जाने से पहले श्वेता ने इशारे से अभिषेक को बुलाया. अभिषेक सम झ गया उसे क्यों बुलाया जा रहा है. पहले भी ऐसा होता रहा है. भीतर दूसरे कमरे में पहुंचते ही श्वेता ने याद दिलाया, ‘‘नई बहू है. पहली बार यहां आई है. शगुन देना पड़ेगा.’’ अभिषेक ने
5 सौ का नोट निकाल कर श्वेता से पूछा, ‘‘इतना ठीक है?’’
श्वेता ने 5 सौ रुपए और मांगे, साथ में आई बूआजी की बेटी को देने के लिए.
थाली में चावल, सिंदूर, गुड़, हलदी, 5 सौ के नोट के साथ श्वेता ने 1 रुपए का सिक्का रखा, बहू का मुंह पूरब की तरफ कर पहले टीका किया, सिंदूर लगाया और फिर उस के आंचल में चावल डाले. बूआजी का चेहरा इन सब के बीच खुशी से चमक रहा था. अभिषेक ने नोटिस किया कि वे श्वेता की पूरी तरह से प्रशंसक बन चुकी हैं.
मेहमानों को छोड़ने दोनों ही नीचे उन की गाड़ी तक गए. चेहरे पर ढेर सारी हंसी के साथ उन्हें विदा किया लेकिन जैसे ही उन लोगों की कार आगे बढ़ी, दोनों के चेहरों पर फिर वही गंभीरता आ गई. शीत युद्ध जो मेहमानों की वजह से कुछ देर के लिए स्थगित था, उन के जाने के बाद फिर से प्रभावी हो गया.
दोनों ही बगैर एकदूसरे से बात किए, चुपचाप लिफ्ट में फिर घर में आ गए. अगर
परिस्थितियां सामान्य होतीं तो दोनों इस समय जाने वाले मेहमानों के अचानक आने, उन के व्यवहार को लेकर विवेचना कर रहे होते. नई बहू के बारे में बातें हो रही होतीं, अभिषेक की तरफ से यह ऐतराज भी जताया गया होता कि श्वेता को बूआजी की बेटी को विदाई के पैसे देने की कोई जरूरत नहीं थी. हो सकता इस बयान में एक वाक्य वह यह भी जोड़ देता कि पता नहीं कब तुम्हें पैसे की कीमत और उस का सही उपयोग करने का पता चलेगा. यह भी हो सकता था श्वेता की तरफ से यह जवाब मिल जाता कि आप के रिश्तेदारों पर ही तो खर्च किया है, अपनों पर तो नहीं और नए सिरे से बहस शुरू हो जाती.
श्वेता ने जल्दीजल्दी खाना बनाया. डिनर करने और किचन का काम समेटने के बाद जब श्वेता बिस्तर पर पहुंची तो 11 बज चुके थे. उस ने लाइट बु झा दी. उसे लगा अभिषेक सो गया होगा. लेकिन थोड़ी देर बाद ही अंधेरे में उसे अभिषेक की आवाज सुनाई दी, ‘‘श्वेता.’’
श्वेता चुप रही. कुछ नहीं बोली, ‘‘इतने दिन हो गए हैं. इस तरह घर में चुपचाप रहना, एकदूसरे से बात न करना आप को अच्छा लगता है क्या?’’ अभिषेक ने धीरे से कहा.
श्वेता कुछ जवाब देना चाहती थी पर चुप रही. वह सोच रही थी कि न बोलो तो इन को शांति अच्छी नहीं लगती, बोलो तो लड़ाई होती है. हमारे साथ रहना भी ये नहीं चाहते, 50 शिकायतें हैं, हमारे बिना इन का मन भी नहीं लगता. उसे लगा लोग स्त्रियों के बारे में गलत कहते हैं. सच तो यह है कि पुरुषों के मन की थाह पाना आसान नहीं है.
‘‘हम लोग एकदूसरे को चाहते थे, चाहते हैं, फिर हम इतना लड़ते क्यों हैं?’’ अजीब सवाल था यह. श्वेता इस बार भी कुछ नहीं बोली.
‘‘साथ रहना है एक छत के नीचे. हमेशा एकदूसरे से बात बंद तो हो नहीं सकती. फिर हम लोग छोटीछोटी बातों पर बहस क्यों करते हैं? एकदूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश क्यों
करते हैं?’’
‘‘ताली दोनों हाथों से बजती है. आप की गलती नहीं रहती क्या?’’ इस बार श्वेता से चुप नहीं रहा गया.
‘‘मैं नहीं कहता कि मेरी गलती नहीं रहती पर मु झे काफी समय से लग रहा है कि तुम मेरी उपेक्षा करती हो, तुम्हारी उपेक्षा मु झे बरदाश्त नहीं होती. मैं तुम्हें अभी भी उतना ही चाहता हूं,’’ अभिषेक ने साइड में रखा टेबललैंप जला लिया. अंधेरे में बगैर श्वेता का चेहरा देखे उस से बात करने में उसे दिक्कत महसूस हो रही थी.
‘‘शादी से पहले मेरा और तुम्हारा एक अलग अस्तित्व था. शादी के बाद मेरा ‘मैं’ तुम्हारा ‘तुम’ मिल कर ‘हम’ बने. इस ‘हम’ का अस्तित्व कब और कैसे खत्म हो गया, मैं और तुम में फिर से कैसे बंट गया, कभी सोचते हो?’’
‘‘क्योंकि आप ‘हम’ में अपने मैं को कभी नहीं भुला सके. अपना मैं आप ने हमेशा कायम रखा. बस यही चाहा मैं अपना अस्तित्व आप के ‘मैं’ में समाहित कर लूं, अपना अस्तिव भूल जाऊं. शुरू में आप प्यार भले ही करते थे पर उस समय भी आप ने मेरा कभी खयाल नहीं रखा. यह कभी नहीं देखा कि मैं क्या चाहती हूं,’’ श्वेता ने गंभीरता से जवाब दिया.
‘‘कुछ हद तक सहीं होगा यह. पर यह पूरा सच नहीं है,’’ अचानक अभिषेक को लगा कि कहीं श्वेता ने इधरउधर का जवाब दे दिया तो फिर से बहस शुरू हो जाएगी. अत: उस ने बात को मोड़ने के लिए कहा, ‘‘दशहरी आम आप ने खाए? मैं कल ले कर जो आया था.’’
‘‘नहीं. आज के लिए सोचा था. पर बूआजी आ गईं.’’
‘‘मैं हर सीजन की शुरुआत में आम लाता हूं इसलिए कि तुम्हें पसंद हैं.’’
‘‘मैं जानती हूं. इतना मैं भी सम झती हूं. फिर आप गलती ही क्यों करते हैं, लड़ते क्यों हैं?’’ श्वेता ने बच्चों की तरह सवाल किया.
‘‘क्या यह नहीं हो सकता हम दोनों इस बात की पूरी कोशिश करें कि अपनी पुरानी गलतियों को न दोहराएं? गलती किसी की भी हो, दूसरा उसे तुरंत टोक दे इस बारे में. गलती करने वाला मान जाए. क्या हम दोनों एक बार फिर से पहले की तरह नहीं रह सकते?’’ अभिषेक ने आदर्श दांपत्य जीवन की शर्तों को सामने रख दिया.
‘‘क्या ऐसा हो सकता है?’’ श्वेता ने पूछ लिया, ‘‘आप अपनी गलती कभी मानेंगे?’’
‘‘मैं नहीं कह सकता. लेकिन कोशिश करूंगा अगर तुम भी उसी ईमानदारी से साथ दो. मेरे लिए मुश्किल रहा है दूसरों की बात सुनना या मानना, इस के पीछे मेरा मैं नहीं होता, ईगो नहीं होता. तुम इसे मानोगी नहीं मैं जानता हूं पर तुम्हारे लिए, परिवार के लिए, घर की शांति के लिए मु झे कोशिश तो करनी ही पड़ेगी.’’
श्वेता चुप हो गई. उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि अभिषेक जो कह रहा है उसे वह कर पाएगा. पर उसे यह महसूस हुआ कि इस समय जो वह कह रहा है वह पूरी ईमानदारी से कह रहा है. दिल से कह रहा है. वह चाहता है कि सबकुछ ठीक हो. उस के लिए वह अपने स्वभाव से सम झौता करने को तैयार है. सफल होता है या नहीं अलग बात है. सोच ने सकारात्मक रास्ता पकड़ लिया था, अभिषेक के स्वभाव में उस ने बनावटीपन कभी नहीं देखा, भले मैं झगड़े में उस की बात न मानूं. वह केवल उसी के साथ नहीं बल्कि सब के साथ ऐसा ही रहा, अपने इस स्वभाव पर कभी अफसोस भी नहीं किया. पर मेरे लिए वह खुद को बदलने, कोशिश करने की बात इस समय ईमानदारी से कह रहा है, यह बड़ी बात है. दूसरों से अलग वह मु झे महत्त्व दे रहा है. मु झे दूसरों से अधिक मानता तो है ही.
मगर श्वेता कुछ बोली नहीं. अभिषेक को लगा, उस के पास अपनी भावनाओं को जताने
के लिए इस से ज्यादा शब्द अब नहीं बचे हैं. श्वेता का जवाब न पा कर उसे निराशा हुई. वह टेबललैंप का स्विच औफ कर सोने की कोशिश करने लगा.
2 मिनट के बाद ही श्वेता करवट बदल कर अभिषेक से चुपचाप सट गई. शादी के बाद ऐसा बहुत कम हुआ है जब श्वेता खुद अपना किनारा छोड़ अभिषेक के पास आई हो. शीत युद्ध के दौरान तो ऐसा होने का सवाल ही नहीं है.
अभिषेक के दिल की धड़कनें रुक सी गईं. उसे श्वेता के इस व्यवहार पर आश्चर्य हुआ. उस ने कोई हरकत नहीं की. श्वेता की गरम सांसों का मीठा स्पर्श वह अपनी पीठ पर महसूस कर रहा था. बिना करवट बदले उस ने पीछे हाथ बढ़ा कर श्वेता के बाएं हाथ को पकड़, अपनी कमर पर लपेट लिया. श्वेता उस से और सट गई, अपना गाल अभिषेक की पीठ से सटा लिया.
लेखक- प्रदीप श्रीवास्तव
Long Story in Hindi