Home Fragrance Ideas: खुशबू से भरें अपना आशियाना

Home Fragrance Ideas: दिनभर की भागदौड़, ट्रैफिक का शोर, औफिस का तनाव और थकान भरी शाम के बाद जब हम अपने घर लौटते हैं तो बस एक ही चीज चाहिए होती है सुकून और ताजगी और यह सुकून सिर्फ साफसुथरे कमरे से ही नहीं बल्कि अच्छी महक से भी आता है. घर की हवा जब भीनीभीनी खुशबू से महकती है तो मन अपनेआप हलका महसूस करता है.

आजकल लोग घर की सजावट के साथसाथ होम फ्रैगरैंस यानी घर को महकाने वाले प्रोडक्ट्स पर भी ध्यान देने लगे हैं. आइए, जानते हैं कि कैसे आप अपने घर को सिर्फ देखने में ही नहीं, महसूस करने में भी शानदार बना सकते हैं कुछ पुराने, कुछ नए और कुछ एकदम हट कर रूम  फ्रैशनर आइडियाज के साथ:

मार्केट में कई तरह के होम फ्रैशनर मिलते हैं जो घर की सीलन, गीले कपड़ों की बदबू या किचन की गंध को मिनटों में दूर कर देते हैं. इन में से कुछ तो कमरे की मूड सैटिंग भी कर देते हैं. इन का चयन आप अपनी पसंद और मूड के हिसाब से कर सकती हैं.

होम फ्रैगरैंस के औप्शंस

आजकल मार्केट में कई तरह के होम फ्रैगरैंस उपलब्ध हैं, जिन्हें आप अपनी पसंद और जरूरत के हिसाब से चुन सकती हैं. इन में परफ्यूम डिस्पैंसर, अरोमा लैंप्स, रूम स्प्रे, एअर फ्रैशनर्स, पौटपौरी, सेंटेड औयल्स और सैंटेड कैंडल्स शामिल हैं. फ्रैगरैंस की कैटेगरीज भी अलगअलग होती हैं जैसे फ्रूटी (वैनिला, स्ट्राबैरी, चौकलेट) और फ्लोरल (जैस्मीन, गुलाब, लैवेंडर, इंडियन स्पाइस). ये खुशबुएं न सिर्फ घर को महकाती हैं बल्कि तनाव को कम कर के मूड को भी बेहतर बनाती हैं.

ट्रैडिशनल नैचुरल फ्रैगरैंस

अगरबत्तियां: अगरबत्ती खुशबूदार लकडि़यों, जड़ीबूटियों, तेलों, मसालों, जैस्मीन, चंदन, गुलाब और देवदार जैसी प्राकृतिक चीजों से बनती हैं. अगरबत्तियां 2 तरह की होती हैं:

डाइरैक्ट बर्न: ये स्टिक में होती हैं, जिन्हें जलाने पर धीरेधीरे घर के हर कोने में खुशबू फैलती है.

पौटपौरी: पौटपौरी में सूखे फूल, पत्तियां, मिट्टी लकड़ी या सिरैमिक के खूबसूरत बाउल में रखी जाती हैं. आप चाहें तो मिट्टी के बरतन में पानी भर कर ताजा गुलाब की पंखुडि़यां डाल सकती हैं और उसे दरवाजे या खिड़की पर टांग सकती हैं. हवा के साथ इस की खुशबू पूरे घर में फैलती रहेगी.

एअर फ्रैशनर्स: ये छोटेछोटे कैन में आते हैं, जिन्हें दीवार पर लगा कर एक बटन दबाने से घर में ताजगी भरी खुशबू फैल जाती है. ये इस्तेमाल में आसान और असरदार होते हैं.

रीड डिफ्यूजर: रीड डिफ्यूजर में नैचुरल और सिंथैटिक औयल का इस्तेमाल होता है. ये हवा में खुशबू को घोल कर लंबे समय तक घर को महकाते हैं. इन्हें बारबार जलाने की जरूरत नहीं पड़ती और ये अलगअलग साइज और खुशबुओं में मिलते हैं.

फ्रैगरैंस कैंडल्स: मार्केट में कई रंगों, डिजाइनों और खुशबुओं में फ्रैगरैंस कैंडल्स उपलब्ध हैं. डिजाइनर अरोमा लैंप में पानी की कुछ बूंदों के साथ अरोमा औयल डाल कर घर को लंबे समय तक महकाया जा सकता है.

कुछ नए और हट कर रूम फ्रैशनर आइडियाज

अरोमा डिफ्यूजर मशीन: यह छोटी इलैक्ट्रौनिक मशीन होती है, जिस में पानी और अरोमा औयल डाला जाता है. इसे औन करते ही मिस्ट के साथ खुशबू पूरे कमरे में फैल जाती है खासकर बैडरूम या लिविंगरूम में इस का जबरदस्त असर होता है.

ऐरोमैटिक सैशे: इन छोटेछोटे पाउचों में सूखे फूल और अरोमा तेल होते हैं. इन्हें आप अलमारी, शू रैक या बैग में रख सकती हैं. कपड़े भी महकते हैं और अलमारी भी.

फैब्रिक स्प्रे: सोफा, परदे, कुशन, बैडशीट आदि पर यह स्प्रे किया जाता है. इस से हर कोना ताजा और साफसुथरा लगता है

स्मार्ट सैंसिंग फ्रैशनर: ये औटोमैटिक सैंसर्स वाले होते हैं जो जब कोई कमरे में आता है तब खुशबू छोड़ते हैं. कुछ में मोबाइल ऐप से कंट्रोल का औप्शन भी होता है.

Home Fragrance Ideas

Romantic Story: एक अधूरा लमहा

Romantic Story: जिंदगी ट्रेन के सफर की तरह है, जिस में न जाने कितने मुसाफिर मिलते हैं और फिर अपना स्टेशन आते ही उतर जाते हैं. बस हमारी यादों में उन का आना और जाना रहता है, उन का चेहरा नहीं. लेकिन कोई सहयात्री ऐसा भी होता है, जो अपने गंतव्य पर उतर तो जाता है, पर हम उस का चेहरा, उस की हर याद अपने मन में संजो लेते हैं और अपने गंतव्य की तरफ बढ़ते रहते हैं. वह साथ न हो कर भी साथ रहता है.

ऐसा ही एक हमराही मुझे भी मिला. उस का नाम है- संपदा. कल रात की फ्लाइट से न्यूयौर्क जा रही है. पता नहीं अब कब मिलेगी, मिलेगी भी या नहीं. मैं नहीं चाहता कि वह जाए. मुझे पूरा यकीन है कि वह भी जाना नहीं चाहती. लेकिन अपनी बेटी की वजह से जाना ही है उसे. संपदा ने कहा था कि पृथक, अकेले अभिभावक की यही समस्या होती है. फिर टिनी तो मेरी इकलौती संतान है. हम एकदूसरे के बिना नहीं रह सकते. हां, एक वक्त के बाद वह अकेले रहना सीख जाएगी. इधर वह कुछ ज्यादा ही असुरक्षित महसूस करने लगी है. पिछले 2-3 सालों में उस में बहुत बदलाव आया है. यह बदलाव उम्र का भी है. फिर भी मैं यह नहीं चाहती कि वह कुछ ऐसा सोचे या समझे, जो हम तीनों के लिए तकलीफदेह हो.

मैं उसे देखता रहा. पिछले 2 सालों से उस में बदलाव आया है यानी जब से मैं संपदा से मिला हूं. हो सकता है कि उस की बात का मतलब यह न हो, पर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा, दुख हुआ.

संपदा ने मेरा चेहरा पढ़ लिया, ‘‘पृथक, तुम्हें छोड़ कर जाने से मैं बिलकुल अकेली हो जाऊंगी, इस का दुख मुझे भी है पर अब मेरे लिए टिनी का भविष्य ज्यादा जरूरी है.’’

‘‘टिनी होस्टल में भी रह सकती है… तुम्हारा जाना जरूरी है?’’ मैं ने संपदा का हाथ पकड़ते हुए कहा था. उस की भी आंखें देख कर मुझे खुद पर गुस्सा आ गया था. मनुष्य का मन चुंबक के समान है और वह अपनी इच्छित वस्तु को अपनी ओर आकर्षित कर उसे प्राप्त कर लेना चाहता है. परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों.

मैं कितना स्वार्थी हो गया हूं. वैसे भी मैं उसे किस हक से रोक सकता हूं? सब कुछ होते हुए भी वह मेरी क्या है? आज समझ में आ रहा है. हमदोनों की एकदूसरे की जिंदगी में क्या जगह है? दोनों के रिश्ते का दुनिया की नजर में कोई नाम भी नहीं है. समाज को भी रिश्तों में खून का रंग ज्यादा भाता है. अनाम रिश्तों में प्रेम के छींटे समाज नहीं देख पाता. अगर मेरी बेटी को जाना होता पढ़ने, तो मैं क्या करता? मैं उसे आसपास के शहर में भी नहीं भेज पाता.

मुझे चुप देख कर संपदा ने नर्म स्वर में कहा, ‘‘हमें अच्छे और प्यारे दोस्तों की तरह अलग होना चाहिए. इन 2 सालों में तुम ने बहुत कुछ किया है मेरे लिए… तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता है. तुम समझ सकते हो मुझे कैसा लग रहा होगा… तुम भी ऐसे उदास हो जाओगे…’’ उस के चेहरे पर उदासी छा गई.

कितनी जल्दी रंग बदलती है उस के चेहरे की धूप… रंग ही बदलती है, साथ नहीं छोड़ती. अंधेरे को नहीं आने देती अपनी जगह.

मैं उसे उदास नहीं देख पाता. अत: मुसकराते हुए कहा, ‘‘दरअसल, बहुत प्यार करता हूं न तुम्हें… इसीलिए पजैसिव हो गया हूं और कुछ नहीं. तुम ने बिलकुल ठीक फैसला किया है. मैं तुम्हें जाने से रोक नहीं रहा. पर इस फैसले से खुश भी कैसे हो सकता हूं,’’ यह कह कर मैं एकदम से उठ कर अपने चैंबर में आ गया. अपने इस बरताव पर मुझे खुद पर बहुत गुस्सा आया कि मुझे उसे दुखी नहीं करना चाहिए.

यह वही संपदा है, जिस ने अपनी प्रमोशन पिछली बार सिर्फ इसलिए छोड़ दी थी कि उसे मुझे से दूर दूसरे शहर में जाना पड़ रहा था और वह मुझे छोड़ कर नहीं जाना चाहती. तब मैं उसे जाने के लिए कहता रहा था. तब उस ने कहा था कि तुम्हें कहां पाऊंगी वहां?

जब मैं अपनी कंपनी की इस ब्रांच में आया था अच्छाभला था. अपने काम और परिवार में मस्त. घर में सारी सुखसुविधाएं, बीवी और 2 बच्चों का परिवार, जो अमूमन सुखी कहलाता है… सुखी ही था. मेरी कसबाई तौरतरीकों वाली बीवी, जो शादी के बाद से ही खुद को बदलने में लगी है, पता नहीं यह प्रक्रिया कब खत्म होगी? शायद कभी नहीं. बच्चे हर लिहाज से एक उच्च अधिकारी के बच्चे दिखते हैं. मानसिकता तो मेरी भी पूर्वाग्रहों से मुक्त न थी.

एक दिन आपस में लंच टाइम में बैठे न जाने क्यों एक लैक्चर सा दे दिया. स्त्रीपुरुष के विकास की चर्चा सुन कर मुझ से संपदा ने जो कहा उस ने मुझे काफी हद तक बदल दिया था.

उस ने कहा था, ‘‘विकास के नियम स्त्रीपुरुष दोनों के लिए अलग नहीं हैं. किंतु पुरुष अविकसित पत्नी के होते हुए भी अपना विकास कर लेता है. लेकिन अविकसित पति के संग रह कर स्त्री अपना विकास असंभव पाती है, क्योंकि वह उस की प्रतिभा को पहचान नहीं पाता और व्यर्थ की रोकटोक लगाता है, जिस से स्त्री का विकास बाधित होता है. कम विकसित व्यक्तित्व वाली स्त्री जब अधिक विकसित परिवार में जाती है, तो वह अनुकूल विवाह है यह व्यावहारिक है, क्योंकि वहां उस के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध नहीं होता. लेकिन ऐसा परिवार जो उस के व्यक्तित्व की अपेक्षा कम विकसित है, उस परिवेश में उस का व्यक्तिगत विकास अधिक संभव नहीं होता तो यह अनुकूल विवाह नहीं है. वहां स्त्री का दम घुट जाएगा. विकास से मेरा तात्पर्य बौद्धिक, मानसिक, आत्मिक विकास से है. यह आर्थिक विकास नहीं है. ज्यादातर आर्थिक समृद्धि के साथ आत्मिक पतन आता है. स्त्री शक्ति है. वह सृष्टि है, यदि उसे संचालित करने वाला व्यक्ति योग्य है. वह विनाश है, यदि उसे संचालित करने वाला व्यक्ति अयोग्य है. इसीलिए जो मनुष्य स्त्री से भय खाता है वह अयोग्य है या कायर और दोनों ही व्यक्ति पूर्ण नहीं हैं…’’

मैं उस का मुंह देखता रह गया. मैं ने तो बड़े जोर से उसे इंप्रैस करने के लिए बोलना शुरू किया था पर उस के अकाट्य तर्कसंगत सत्य ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था. वह बिलकुल ठीक थी. कितनी अलग लगी थी संपदा ऐसी बातें करते हुए? पहले मैं क्याक्या सोचता था उस के बारे में.

इस औफिस में पहले दिन संपदा को देखा तो आंखों में चमक आ गई थी. चलो रौनक तो है. तनमन दोनों की सेहत ठीक रहेगी. पहले दिन तो उस ने देखा तक नहीं. बुझ सा गया मैं. फिर ऐसी भी क्या जल्दी है सोच कर तसल्ली दी खुद को. उस के अगले दिन फौर्मल इंट्रोडक्शन के बीच हाथ मिलाते हुए बड़ी प्यारी मुसकान आई थी उस के होंठों पर. देखता रह गया मैं. कुल मिला कर इस नतीजे पर पहुंचा कि मस्ती करने के लिए बढि़या चीज है. औफिस में खासकर मर्दों में भी उस के लिए कोई बहुत अच्छी राय नहीं थी. वह उन्हें झटक जो देती थी अपने माथे पर आए हुए बालों की तरह. खैर, कभीकभी की हायहैलो गुड मौर्निंग में बदली.

एक दिन उस ने ही चाय के लिए कहा. उसी के चैंबर में बैठे थे हम. मुझे बात बनती सी नजर आई. कई बातें हुईं पर मेरे मतलब की कोई नहीं हुई.

आगे चल कर चायकौफी का दौर जब बढ़ गया तो वैभव ने कहा कि तुम्हारी बात सिर्फ चाय तक ही है या आगे भी बढ़ी? मैं ने एक टेढ़ी सी स्माइल दी और खुद को यकीन दिलाया कि मैं उसे कुछ ज्यादा ही पसंद हूं. कभी कोई कहता कि सिगरेटशराब पीती है, तो कोई कहता ढेरों मर्द हैं इस की मुट्ठी में, तो कोई कहता कि देखो साड़ी कहां बांधती है? सैंसर बोर्ड इसे नहीं देखता क्या? जवाब आता कि इसे जीएम देखता है न.

ऐसी बातें मुझे उत्तेजित कर जातीं. कब वह आएगी मेरे हाथ? और तो और अब तो मुझे अपनी बीवी के सारे दोष जिन्हें मैं भूल चुका था या अपना चुका था, शूल की भांति चुभने लगे. उसे देखता तो लगता कैक्टस पर पांव आ पड़ा है. क्यों कभीकभी लगता है जिसे हम सुकून समझे जा रहे थे वह तो हम खुद को भुलावा दे रहे थे. कभी अचानक सुकून खुद कीमत बन जाता है सुख की… हर चीज की एक कीमत जरूर होती है.

ये बीवियां ऐसी क्यों होती हैं? कितना फर्क है दोनों में? वह कितनी सख्त दिल और संपदा कितनी नर्म दिल. वह किसी शिकारी परिंदे सी चौकस और चौकन्नी… और संपदा नर्मनाजुक प्यारी मैना सी. कोई खबर रखने की कोशिश नहीं करती कि कहां क्या हो रहा है, कोई उस के बारे में क्या कह रहा है.

संपदा की फिगर कमाल की है. और पत्नी को लाख कहता हूं ऐक्सरसाइज करने को, पर नहीं. कैसी लगेगी वह नीची साड़ी में? उस की कमर तोबा? शरीर में कोई कर्व ही नहीं है, परंतु इस के बाद भी घर में मेरा व्यवहार ठीक रहा. कुछ भी जाहिर नहीं होने दिया.

एक दिन संपदा ने पूछ ही लिया परिवार के बारे में. मैं ने बताया बीवी के अलावा 1 बेटा और 1 बेटी है. तब उस ने भी बताया कि उस की भी 1 बिटिया है, टिनी नाम है. पति के बारे में उस ने न तो कुछ बताया और न ही मैं ने कुछ पूछा. पूछ कर मूड नहीं खराब करना चाहता था. हो सकता है कह देती कि मैं आज जो कुछ हूं उन्हीं की वजह से हूं या बहुत प्यार करते हैं मुझे. उन के अलावा मैं कुछ सोच भी नहीं सकती. अमूमन बीवियां या पति भी यही कहते हैं. हां, अगर वह ऐसा कह देती तो यह जो थोड़ीबहुत नजदीकी बढ़ रही है वह भी खत्म हो जाती.

लेकिन उस से बात करने के बाद, उसे जानने के बाद एक बात हुई थी. वह मुझे कहीं से भी वैसी नहीं लग रही थी जैसा सब कहते थे. पहली बार लगा संपदा मेरे लिए जिस्म के अलावा कुछ और भी है. क्या मेरी राय बदल रही थी?

औफिस की ओर से न्यू ईयर पार्टी रखी गई थी. संपदा गजब की सुंदर लग रही थी. लो कट ब्लाउज के साथ गुलाबी शिफौन की साड़ी पहनी थी. उस ने जिन भी पी थी शायद. मेरी सोच फिर डगमगा सी गई. अजीब सी खुशी भी हो रही थी. एक उत्तेजना भी थी. यह तो बहुत बाद में जाना कि डांस करने, हंसने, पुरुषों से हाथ मिलाने से औरत बदचलन नहीं हो जाती, अगली सुबह संपदा फिर वैसी की वैसी. पहले जैसी थोड़ी सोबर, थोड़ी चंचल.

चाय पीते हुए मैं ने उस से कहा, ‘‘कल तुम बहुत खूबसूरत लग रही थीं. मैं ने पहली बार किसी औरत को इतना खुल कर हंसते व डांस करते देखा था. कुछ खास है तुम में.’’

उस ने आंखें फैलाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हें डांस करते हुए ग्रेसफुल लगी? वैरी स्ट्रेज, बट दिस इज ए नाइस कौंप्लिमैंट. मैं तो उम्मीद कर रही थी कि आज सुनने को मिलेगा जानेमन कल बहुत मस्त लग रही थी या क्या चीज है यार यह औरत भी?’’

उस की हंसी नहीं रुक रही थी. अब मैं कैसे कहूं कि मैं भी उन्हीं मर्दों में से एक था. चीज तो मैं भी कहता था उसे.

अगले हफ्ते उस ने टिनी के जन्मदिन पर बुलाया था.

‘‘सुनो, मैं ने सिर्फ तुम्हें ही बुलाया है. मेरा मतलब औफिस में से.’’

मेरी उत्सुकता चौकन्नी हो गई थी. उस की चमकती आंखों में क्या था, मेरे प्रति भरोसा या कुछ और? क्यों सिर्फ मुझे ही बुलाया है? उसे ले कर वैभव से झगड़ा भी कर लिया था.

‘‘क्यों, पटा लिया तितली को?’’ कितने गंदे तरीके से कहा था उस ने.

‘‘किस की और क्या बात कर रहे हो?’’

‘‘उस की, जिस से आजकल बड़ी छन रही है. वही जिस ने सिर्फ तुम्हें दावत दी है. गजब की चीज है न.’’

बस बात बढ़ी और अच्छेखासे झगड़े में बदल गई. मैं यह सब नहीं चाहता था न ही कभी मेरे साथ यह सब हुआ था. खुद पर ही शर्म आ रही थी मुझे. मैं सोचता रहा, हैरान होता रहा कि ये सब क्या हो गया? क्यों बुरा लगा मुझे? खैर, इन सारी बातों के बावजूद मैं गया था. उस ने बताया कि इस साल टिनी 15 साल की हो जाएगी. मेरी आंखों के सामने मेरी बेटी का चेहरा आ गया. वह भी तो इसी उम्र की है. मैं ने देखा टिनी की दोस्तों के अलावा मैं ही आमंत्रित था. अच्छा भी लगा और अजीब भी. थोड़ी देर बाद पूछा था मैं ने, ‘‘टिनी के पापा कहां हैं?’’

‘‘हम अलग हो चुके हैं. उन्होंने दूसरी शादी कर ली है. मैं अपनी बिटिया के साथ रहती हूं.’’

कायदे से, अपनी मानसिकता के हिसाब से तो मुझे यह सोचना चाहिए था कि तलाकशुदा औरत और ऐसे रंगढंग? कहीं कोई दुखतकलीफ नजर नहीं आती. ऐसे रहा जाता है भला? जैसे कि तलाकशुदा या विधवा होना कोई कुसूर हो जाता है और ऐसी औरतों को रोतेबिसूरते ही रहना चाहिए. लेकिन यह जान कर पहली बात मेरे मन में आई थी कि तभी इतना आत्मविश्वास है. आज के वक्त में अकेले रह कर अपनी बच्ची की इतनी सही परवरिश करना वाकई सराहनीय बात है. वह मुझे और ज्यादा अच्छी लगने लगी, बल्कि इज्जत करने लगा मैं उस की. एक और बात आई मन में कि ऐसी खूबसूरत और अक्लमंद बीवी को छोड़ने की क्या वजह हो सकती है?

अब मैं उस के अंदर की संपदा तलाशने में लग गया. उस के जिस्म का आकर्षण खत्म तो नहीं हुआ था, पर मैं उस के मन से भी जुड़ने लगा था. मेरी आंखों की भूख, मेरे जिस्म की उत्तेजना पहले जैसी नहीं रही. हम काफी करीब आते गए थे. मैं कभीकभी उस के घर भी जाने लगा था. उस ने भी आना चाहा था पर मैं टालता रहा. अब उसे ले कर मैं पहले की तरह नहीं सोचता था. मैं उसे समझना चाहता था.

एक शाम टिनी का फोन मोबाइल पर आया,  ‘‘अंकल, मां को बुखार है, आप आ सकते हैं क्या?’’

कई दिन लग गए थे उसे ठीक होने में. मैं ने उस की खूब देखभाल की थी और वह मना भी नहीं करती थी. हम दोनों को ही अच्छा लग रहा था. इस दौरान मैं ने कितनी बार उसे छुआ. दवा पिलाई, सहारा दे कर उठायाबैठाया पर मन बिलकुल शांत रहा.

एक दिन चाय पी कर एकदम मेरे पास बैठ गई. उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कंधे से सिर टिका कर बैठ गई. मैं ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. कभी उस का हाथ तो कभी बाल सहलाता रहा. यह बड़ी स्निग्ध सी भावना थी. तभी मैं उठने लगा तो वह लिपट गई मुझ से. पिंजरे से छूटे परिंदे की तरह. एक अजीब सी बेचैनी दोनों महसूस कर रहे थे. मैं ने मुसकरा कर उस का चेहरा अपने हाथों में लिया और कुछ पल उसे यों ही देखता रहा और फिर धीरे से उसे चूम लिया और घर आ गया.

मैं बदल गया था क्या? सारी रात सुबह के इंतजार में काट दी. सुबह संपदा औफिस आई. बदलीबदली सी लगी वह. कुछ शरमाती सी, कुछ ज्यादा ही खुश. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि उस के मन की कोमल जमीन को छू लिया है मैं ने. मुझे समझ में आ रही थी यह बात, यह बदलाव. उस से मिल कर मैं ने यह भी जाना था कि कोई भी रिश्ता मन की जमीन पर ही जन्म लेता और पनपता है. सिर्फ देह से देह का रिश्ता रोज जन्म लेता है और रोज दफन भी हो जाता है. रोज दफनाने के बाद रोज कब्र में से कोई कब तक निकालेगा उसे. इसलिए जल्द ही खत्म हो जाता है यह…

कितनी ठीक थी यह बात, मैं खुद ही मुग्ध था अपनी इस खोज से. फिर मन से जुड़ा रिश्ता देह तक भी पहुंचा था. कब तक काबू रखता मैं खुद पर. अब तो वह भी चाहती थी शायद… स्त्री को अगर कोई बात सब से ज्यादा पिघलाती है, तो वह है मर्द की शराफत. हां, अपनी जज्बाती प्रकृति के कारण कभीकभी वह शराफत का मुखौटा नहीं पहचान पाती.

उस का बदन तो जैसे बिजलियों से भर गया था. अधखुली आंखें, तेज सांसें, कभी मुझ से लिपट जाती तो कभी मुझे लिपटा लेती. यहांवहां से कस कर पकड़ती. संपदा जैसे आंधी हो कोई या कि बादलों से बिजली लपकी हो और बादलों ने झरोखा बंद कर लिया हो अपना, आजाद कर दिया बिजली को. कैसे आजाद हुई थी देह उस की. कोई सीपी खुल गई हो जैसे और उस का चमकता मोती पहली बार सूरज की रोशनी देख रहा हो. सूरज उस की आंखों में उतर आया और उस ने आंखें बंद कर लीं. जैसे एक मोती को प्रेम करना चाहिए वैसे ही किया था मैं ने. धीरेधीरे झील सी शांत हो गई थी वह. पर मैं जानता था कि वह अब इतराती रहेगी, कैद नहीं रह सकती…

इस वक्त तो मुझे खुश होना चाहिए था कि संपदा की देह मेरी मुट्ठी में है. उस के जिस्म की सीढि़यां चढ़ कर जीत हासिल की थी. ये मेरे ही शब्द थे शुरूशुरू में. पर नहीं, कुछ नहीं था ऐसा. संपदा बिलकुल भी वैसी नहीं थी. जैसा उस के बारे में कहा जाता था. यह रिश्ता तो मन से जुड़ गया था. मैं सोच रहा था कि क्यों पुरुष सुंदर औरत को कामुक दृष्टि से ही देखता है और जब स्त्री उन नजरों से बचने के लिए खुद को आवरण के नीचे छिपा लेती है तब वही पुरुष समाज उसे पा न सकने की कुंठा में कैसेकैसे बदनाम करता है. संपदा के साथ भी यही हुआ था. पर जब मैं ने उस के भीतर छिपी सरल, भोली और पवित्र औरत को जाना तब मैं मुग्ध था और अभिभूत भी…

संपदा ने धीरे से कहा, ‘‘अब तक तो खुले आसमान के नीचे रह कर भी उम्रकैद भुगत रही थी मैं. सारी खुशियां, सारी इच्छाएं इतने सालों से पता नहीं देह के किस कोने में कैद थीं? तुम्हारा ही इंतजार था शायद…’’

और यही संपदा जिस ने मुझे सिखाया कि दोस्ती के बीजों की परवरिश कैसे की जाती है वह जा रही थी.

उसी ने कहा था कि इस परवरिश से मजबूत पेड़ भी बनते हैं और महकती नर्मनाजुक बेल भी.

‘‘तो तुम्हारी इस परवरिश ने पेड़ पैदा किया या फूलों की बेल?’’ पूछा था मैं ने.

यही संपदा जो मेरे वक्त के हर लमहे में है. अब नहीं होगी मेरे पास. उस के पास आ कर मैं ने मन को तृप्त होते देखा है… मर्द के मन को देह कैसे आजाद होती है जाना… पता चला कि मर्द कितना और कहांकहां गलत होता है.

मुझे चुपचुप देख कर उस की दोस्त मीता ने एक दिन कहा, ‘‘उस से क्यों कट रहे हो पृथक? उसे क्यों दुख पहुंचा रहे हो? इतने सालों बाद उसे खुश देखा तुम्हारी वजह से. उसे फिर दुखी न करो.’’

दोस्ती का बरगद बन कर मैं बाहर आ गया अपने खोल से. मैं ने ही उस का पासपोर्ट, वीजा बनवाया. मकान व सामान बेचने में उस की मदद की. ढेरों और काम थे, जो उसे समझ नहीं आ रहे थे कि कैसे होंगे. मुझे खुद को भी अच्छा लगने लगा. वह भी खुश थी शायद…

उस दिन हम बाहर धूप में बैठे थे. टिनी इधरउधर दौड़ती हुई पैकिंग वगैरह में व्यस्त थी. संपदा चाय बनाने अंदर चली गई. बाहर आई तो वह एक पल मेरी आंखों में बस गया. दोनों हाथों में चाय की ट्रे पकड़े हुए, खुले बाल, पीली साड़ी में बिलकुल उदास मासूम बच्ची लग रही थी, पर साथ ही खूबसूरत और सौम्य शीतल चांदनी के समान.

‘‘बहुत याद आओगे तुम,’’ चाय थमाते हुए वह बोली थी.

मैं मुसकरा दिया. वह भी मुसकरा रही थी पर आंखें भरी हुई थीं दर्द से, प्यार से… कई दिन से उस की खिलखिलाहट नहीं सुनी थी. अच्छा नहीं लग रहा था. क्या करूं कि वह हंस दे?

चाय पीतेपीते मैं बोला, ‘‘चलो संपदा छोटी सी ड्राइव पर चलते हैं.’’

‘‘चलो,’’ वह एकदम खिल उठी. अच्छा लगा मुझे.

‘‘टिनी, चलो घूमने चलें,’’ मैं ने उसे बुलाया.

‘‘नहीं, अंकल, आप दोनों जाएं. मुझे बहुत काम है… रात को हम इकट्ठे डिनर पर जा रहे हैं, याद है न आप को?’’

‘‘अच्छी तरह याद है,’’ मैं ने कहा. फिर देखा था कि वह हम दोनों को कैसे देख रही थी. एक बेबसी सी थी उस के चेहरे पर. थोड़ा आगे जाने पर मैं ने संपदा का हाथ अपने हाथ में लिया, तो वह लिपट कर रो ही पड़ी.

मैं ने गाड़ी रोक दी, ‘‘क्या हो गया संपदा?’’

उस के आंसू रुक ही नहीं रहे थे. फिर बोली, ‘‘मुझे लगा कि तुम अब अच्छी तरह नहीं मिलोगे, ऐसे ही चले जाओगे. नाराज जो हो गए हो, ऐसा लगा मुझे.’’

‘‘तुम से नाराज हो सका हूं मैं कभी? नहीं रानी, कभी नहीं,’’ मैं जब उसे बहुत प्यार करता था तो यही कह कर संबोधित करता था, ‘‘प्रेम में नाराजगी तो होती ही नहीं. हां, रुठनामनाना होता है. मैं क्या तुम से तो कोई भी नाराज नहीं हो सकता. हां, उदास जरूर होंगे सभी. जरा जा कर तो देखो दफ्तर में, बेचारे मारेमारे फिर रहे हैं.’’

वह मुसकरा दी.

‘‘अब अच्छा लग रहा है रोने के बाद?’’ मैं ने मजाक में पूछा तो वह हंस दी.

‘‘संपदा तुम ऐसे ही हंसती रह… बिलकुल सब कुछ भुला कर समझीं?’’

उस ने बच्ची की तरह हां में सिर हिलाया. फिर बोली, ‘‘और तुम? तुम क्या करोगे?’’

‘‘मैं तुम्हें अपने पास तलाश करता रहूंगा. रोज बातें करूंगा तुम से. वैसे तुम कहीं भी चली जाओ, रहोगी मेरे पास ही… मेरे दिल का हिस्सा हो तुम… मेरा आधा भाग… तुम से मिल कर मुझ में मैं कहां रहा? तुम मिली तो लगा अज्ञात का निमंत्रण सा मिला मुझे…’’

‘‘और क्या करोगे?’’

‘‘और परवरिश करता रहूंगा उन रिश्तों की, जिन की जड़ें हम दोनों के दिलों में हैं.’’

‘‘एक गूढ़ अवमानना हो, कुछ जाना है कुछ जानना है. आदर्श हो, आदरणीय हो, चाहत हो स्मरणीय हो.’’

वह चुप रही.

मैं ने संपदा से कहा, ‘‘जानती हो, मैं तुम्हारे जाने के खयाल से ही डर गया था. प्यार में जितना विश्वास होता है उतनी ही असुरक्षा भी होती है कभीकभी… रोकना चाहता था तुम्हें… इतने दिनों तक घुटता रहा पर अब… अब सब ठीक लग रहा है…’’

संपदा शांत थी. फिर जैसे कहीं खोई सी बोली, ‘‘विवाहित प्रेमियों की कोई अमर कहानी नहीं है, क्योंकि विवाह के बाद काव्य खो जाता है, गणित शेष रहता है. गृहस्थी की आग में रोमांस पिघल जाता है. यदि सचमुच किसी से प्रेम करते हो, तो उस के साथ मत रहो. उस से जितना दूर हो सके भाग जाओ. तब जिंदगी भर आप प्रेम में रहोगे. यदि प्रेमी के साथ रहना ही है, तो एकदूसरे से अपेक्षा न करो. एकदूसरे के मालिक मत बनो, बल्कि अजनबी बने रहो. जितने अजनबी बने रहोगे उतना ही प्रेम ताजा रहेगा. यह जान लो कि रोमांस स्थाई नहीं होता. वह शीतल बयार की तरह है, जो आती है तो शीतलता का अनुभव होता है और फिर वह चली जाती है. प्रेम की इस क्षणिकता के साथ रहना आ जाए तो तुम हमेशा प्रेम में रहोगे.’’

मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर चूम लिया. वह मुसकरा दी.

संपदा ने कार रोकने के लिए कहा. फिर बोली, ‘‘हर रिश्ते की अपनी जगह होती है… अपनी कीमत… जो तुम्हें पहले लगा वह भी ठीक था, जो अब लग रहा है वह भी ठीक है. पर एक बात याद रखना यह प्यार की बेचैनी कभी खत्म नहीं होनी चाहिए. मुझे पाने की चाह बनी रहनी चाहिए दिल में… क्या पता संपदा कब आ टपके तुम्हारे चैंबर में… कभी भी आ सकती हूं अपना हिसाबकिताब करने,’’ और वह खिलखिला कर हंस दी, ‘‘पृथक, शुद्ध प्रेम में वासना नहीं होती, बल्कि समर्पण होता है. प्रेम का अर्थ होता है त्याग. एकदूसरे के वजूद को एक कर देना ही प्रेम है… प्रेम को समय नहीं चाहिए. उसे तो बस एक लमहा चाहिए… उस अधूरे लमहे में युगों की यात्रा करता है और वह लमहा कभीकभी पूरी जिंदगी बन जाता है.’’

मैं उसे एकटक देखता रह गया…

Romantic Story

Social Story: हौसले की उड़ान- बदनामी की धार सिर्फ स्त्री के लिए ही क्यों है?

Writer-  रेखा भारती मिश्रा

Social Story: सुमन दोपहर का खाना बना रही थी. उस की सास बिट्टो को ले कर हौल में बैठी थी. हौल में बिट्टो के खिलौने बिखरे पड़े थे. बिट्टो सुमन की डेढ़ वर्षीय बेटी थी. सुमन की शादी को अभी 3 साल हीं हुए थे.

सुमन उसे याद है अमन ने उस को एक बार देखा और पसंद कर लिया था. परिवार वाले भी सुमन को बहू बनाने को तैयार थे. लेकिन जब लेनदेन की बात आई तो सुमन के पिता ने हाथ जोड़ लिए और बोले, ‘‘रिटायर आदमी हूं, क्लर्क की नौकरी करता था. ऐसे में भला कहां से मोटी रकम जुटा पाऊंगा. बरात के स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ूंगा. जो भी जमा किया पैसा है उसी में खर्च हो जाएगा. मैं दहेज नहीं दे पाऊंगा समधीजी.’’

अमन के परिवार वाले शादी के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन अमन की जिद्द के आगे किसी की नहीं चली, ‘‘हमारे पास किसी चीज की कमी नहीं तो फिर दहेज की मोटी रकम के नाम पर सुमन जैसी लड़की को छोड़ना कितना उचित है? मु?ो सुमन बहुत पसंद है, मेरी शादी यहीं होगी,’’ और फिर उन की शादी हो गई.

अमन के पिता का कपड़ों का व्यवसाय था. सुपर मार्केट में उन की कपड़ों की एक बड़ी दुकान थी जहां अमन, उस का भाई और पिता तीनों बैठते थे. अमन भाई के साथ दोपहर का खाना खाने घर आता था और खाने के बाद

दुकान चला जाता. तब उस के बाद पिताजी आते और खा कर 2 घंटे आराम और फिर शाम में दुकान जाते थे.

रोज की भांति आज भी अमन अपने भाई को ले कर बाइक से घर लौट रहा था. तभी रास्ते में एक टैंपो वाले ने तेजी से बढ़ते हुए जोर का धक्का मारा जिस से अमन का बैलेंस लड़खड़ाया और वह टप्पा खाते हुए एक दूसरी कार पर जा गिरा. अमन का भाई भी दूसरी तरफ जा गिरा और सड़क पर भीड़ लग गई. घर वालों को जैसे ही सूचना मिली वे बदहवास भागे. अमन को गहरी चोटें आई थीं. उस के भाई को भी फै्रक्चर हो गया था मगर उस की जान बचा ली गई. इधर अमन को डाक्टर नहीं बचा पाए.

घर में मातम ने डेरा डाल दिया था. सुमन की तो दुनिया ही उजड़ गई. लेकिन उस के दुखों का सिलसिला शायद अब शुरू हुआ था. अमन को गुजरे अभी महीना भी नहीं हुआ था कि घर वालों ने सुमन को अपने साथ रखने से इनकार कर दिया.

वह मानसिक यातना ?ोलने लगी. वह कोशिश कर रही थी कि दृढ़ हो कर रहे मगर अमन के विछोह से कमजोर पड़ी सुमन घर वालों के प्रतिकूल व्यवहार से टूट रही थी.

वृद्ध पिता से सुमन का दुख देखा नहीं जा रहा था. उन्होंने सुमन को मायके बुला लिया. हालांकि सुमन  जाना नहीं चाहती थी. उसे एहसास था कि यहां से जाते हीं ससुराल वालों के मन की  बात हो जाएगी. फिर भी बिट्टो को देखते हुए वह भी मायके जाने को तैयार हो गई.

पिता ने भी सम?ाया, ‘‘अभी जख्म ताजा हैं, उन्हें भरने में समय लगेगा. तुम अपनी हालत को देखो. यदि तुम लड़खड़ा जाओगी तो बिट्टो को कौन संभालेगा? एक दिन सब ठीक हो जाएगा. इसलिए कुछ दिन यहीं हमारे साथ रहो.’’

सुमन बिट्टो को ले कर मायके आ गई. मायके में मां भले ही नहीं थीं मगर पिता ने सुमन को भरपूर सहारा दिया. अपने शब्दों से उसे मजबूत करते रहते. धीरेधीरे सुमन गम से निकलने की कोशिश करने लगी. उस का अधिकांश समय बिट्टो और वृद्ध पिता के साथ बीतता. घर के कामों में भी भाभी को भरपूर सहयोग देती

मगर भाभी को सुमन से कोई खास लगाव नहीं था. सुमन को मायके में रहते हुए कुछ महीने हो गए लेकिन ससुराल वाले उस की खोजखबर नहीं लेते. वह यदाकदा फोन करती भी तो ससुराल के लोग नंबर देख कर ही कौल काट देते. यहां तक कि सुमन के मायके से किसी का भी फोन जाता तो वे लोग बात नहीं करते. अब सुमन का ससुराल वालों से कोई रिश्ता नहीं रह गया था.

सुमन का भाई एक प्राइवेट कंपनी में अच्छी पोस्ट पर काम करता था. तनख्वाह भी अच्छीखासी थी. मगर फिर भी उस की भाभी पैसों की तंगी का रोना रोती रहती. पिताजी की पैंशन भी उन्हीं लोगों के हाथ रहती.  पिताजी की सारी जरूरतें उन की पैंशन से पूरी कर दी जातीं. फिर बची रकम घर खर्च में लगा देते हैं. सुमन और बिट्टो वहां बस अपने दिन गुजार रहे थे.

बिट्टो की भी जरूरतें बढ़ रही थीं. आखिर कब तक सुमन इधरउधर हाथ पसारती. पिता की अवस्था देख कर सुमन भैयाभाभी के व्यवहार के बारे में कुछ नहीं कहती. वह अपने पिता को किसी भी प्रकार से दुखी नहीं करना चाहती थी इसलिए वह एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी करने लगी. उस ने स्कूल जाना शुरू कर दिया मगर बिट्टो को उस की भाभी संभालने को तैयार नहीं हुई. पिता के पास चाह कर भी नहीं छोड़ सकती थी. अब इस उम्र में वे कहां इस बच्ची के पीछे भागते. सुमन बिट्टो को अपने साथ ले कर जाने लगी. वहां स्कूल स्टाफ, सहायिका आदि हाथोंहाथ बच्चे को संभाल लेते. बिट्टो नन्हेनन्हे पैरों से इधरउधर भागती, खेलती.

सुमन अपने काम और बिट्टो में उल?ा कर कुछ सुकून के पल तलाशने में कामयाब होने लगी लेकिन कालचक्र से सुमन का यह सुकून देखा नहीं गया. समय ने करवट बदली. सुमन के पिता को टाइफाइड हो गया जिस में वे गंभीर इन्फैक्शन के शिकार हो गए. इलाज हो रहा था लेकिन बीमारी बढ़ती जा रही थी. उन का वृद्ध शरीर बीमारी के कारण और भी जर्जर हो गया. एक दिन वे इस दुनिया से विदा हो गए. पीछे छूट गया सुमन और बिट्टो का उल?ा जीवन.

मायके में पिता ही मजबूत सहारा थे जिस से सुमन मुश्किल भरे दिनों में भी टिकी हुई थी. अब तो भैयाभाभी पर वह पूरी बो?ा ही लग रही थी, ‘‘अब हम अपनी गृहस्थी देखे या सुमन का जीवन. हमारे बच्चों की तो इस महंगाई में बहुत मुश्किल से कुछ जरूरतें पूरी हो पाती हैं. फिर इस बिट्टो का भार कौन उठाएगा. पढ़ाईलिखाई, शादीब्याह,’’ भाभी ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘हम आप पर बो?ा कहां हैं. मैं स्कूल में पढ़ाती हूं और अपना खर्च निकाल लेती हूं,’’ बोलते हुए सुमन की आवाज में दर्द था.

‘‘अपना रोज का खर्च ही तो निकालती हो. उस के अलावा भी तो कई खर्चे हैं जो हमें चलाने पड़ते हैं. रहने का, खाने का, त्योहारों में कपड़े, उपहार देने का.’’

भाभी की बातों ने सुमन को बहुत ही आहत किया. भैया की चुप्पी में सुमन को भाभी के लिए उन का मौन समर्थन नजर आया. सुमन ने मंथन किया. उसे महसूस हुआ कि छोटेमोटे खर्चे के लिए चंद रुपए कमाने से कुछ नहीं होगा. अब उसे अपनी और बिट्टो की जिंदगी को सुरक्षित करना होगा. वह एक वकील से मिली और फिर ससुराल में अपनी हिस्सेदारी के लिए कोर्ट में एक अपील दायर करवाई. सुमन ने अर्जी तो लगा दी मगर उस पर फैसला आना इतना आसान नहीं था. एक तो वैसे ही कोर्ट में न जाने कितने मामले लंबित पड़े थे. ऊपर से सुमन के ससुराल वाले पैसे का लेनदेन कर के मैनेज कर लेते और अपने वकील से तारीख बढ़वा देते. इस तरह सुमन को ससुराल से इतनी आसानी से कुछ मिलने वाला नहीं था.

इधर भाभी का व्यवहार सुमन को टीसता रहता. एक दिन भाभी ने सुमन को शादी करने की सलाह दी.

‘‘भाभी,’’ मैं दूसरी बार दुलहन बनने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हूं. मैं फिलहाल सिर्फ और सिर्फ बिट्टो की मां बन कर जीना चाहती हूं.’’

‘‘दूसरी शादी करने में भला बुराई ही क्या है? भरी जवानी में यों घूमना और अकेले रहना… तुम्हारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा मगर यह समाज हम पर ताने कसेगा कि जवान ननद के जीवन के बारे में कुछ नहीं सोचा. ऊपर से कल को हम ने अपने बच्चों का भी तो रिश्ता करना है. तुम्हारी शादी नहीं होगी तो उन का भविष्य प्रभावित होगा,’’ भाभी ने फिर शब्दों के तीर छोड़े.

‘‘लेकिन मेरी शादी से उन के भविष्य का क्या संबंध और वैसे भी समाज क्या कहेगा, मैं कुंआरी नहीं विधवा हूं और जीने के लिए एक सहारा ही काफी है बिट्टो.’’

‘‘एक जवान महिला आखिर कब तक अकेले रहेगी. समाज ऐसी महिलाओं के चरित्र को गलत नजर से देखता है,’’ भाभी ने कटाक्ष भरे लहजे में कहा.

यह बात सुमन को भीतर तक चुभ गई मगर खुद को संयमित रखते हुए बोली, ‘‘मैं ऐसे समाज या लोगों की परवाह नहीं करती और वैसे भी जब किसी के पास औरत से जीतने के तरीके नहीं होते तो वे स्त्री के चरित्र पर हीं छींटाकशी करने का हथकंडा अपनाते हैं,’’ यह कहते हुए सुमन वहां से चली गई.

मगर बात यहीं पर खत्म नहीं हुई. सुमन की भाभी किसी भी तरह से उस की शादी करवाने में लगी रहती. इस के लिए वह अपने पति की भी रजामंदी ले लेती. अब सुमन के भैया भी उस पर शादी कर लेने का दबाव डालते हैं. वे बिट्टो की अच्छी परवरिश का हवाला देते.

दबावों से घिरी सुमन दूसरी शादी के लिए तैयार हो गई. सुमन की भाभी अपने मायके में एक दूर के रिश्तेदार के यहां उस की शादी करवाना चाहती थी. वह व्यक्ति विधुर था. उस के 2 बच्चे थे 1 लड़का और 1 लड़की. बहुत मुश्किल से सुमन हामी भर पाई. सोचा चलो बिट्टो को खेलने के लिए 2 दोस्त मिल जाएंगे और वह भी शायद 3 बच्चों के बीच अपने दुख को ढक कर मुसकराहट के पलों को संवार पाएगी. मगर शादी के बाद वे लोग बिट्टो को अपनाने को तैयार नहीं थे. उन लोगों ने सिर्फ सुमन को ही अपनाने की बात बताई.

यह सुन कर सुमन काफी नाराज हो गई और शादी करने से इनकार कर दिया.

‘‘बिट्टो को नहीं अपना रहे हैं तो क्या तुम्हें तो बहू बना कर पूरा मान देने को तैयार हैं न. बड़े घर में जा रही हो. किसी चीज की कमी नहीं है वहां,’’ भाभी ?ाल्ला कर बोली.

‘‘सब से बड़ी कमी तो मेरी बिट्टो की होगी भाभी. मैं बिट्टो को नहीं छोड़ूंगी.’’

‘‘अरे छोड़ना क्या है, बिट्टो को किसी अनाथाश्रम में रखवा देते हैं. वहां जा कर कभीकभी अपनी बेटी से मिल लिया करना.’’

‘‘भाभी,’’ सुमन गुस्से से बोली, ‘‘आप सोच भी कैसे सकती है कि मेरी बिट्टो अनाथाश्रम में रहेगी. माना कि उस के सिर पर पिता का हाथ नहीं है मगर उस की मां जीवित है. मेरी बिट्टो अनाथ नहीं है.’’

‘‘ठीक है, जो मन में आए वह करो लेकिन हम से किसी प्रकार की मदद की उम्मीद नहीं करना. अपनी व्यवस्था खुद देख लो,’’ भाभी ने दोटूक जवाब दिया.

सुमन की अपनी भाभी से जोरदार बहस हुई. वह एक बार फिर से दुख की गहराई में उतर रही थी. उसे अपने जीवन में चारों तरफ अंधकार ही अंधकार नजर आ रहा था. मगर उसे बिट्टो के लिए उजाला लाना था. खुशियों के लमहे समेटने थे.

अत: उस ने स्वयं को कठोर बनाना बेहतर सम?ा. उसे आभास हो रहा था कि यदि इस पल वह कमजोर हो गई तो वह रौंद दी जाएगी. उस का अस्तित्व हाशिए पर चला जाएगा और बिट्टो बिट्टो का क्या होगा.

इसी द्वंद्व के बीच रात गुजर गई. सुबह हुई तो भैया ने सुमन को भाभी से माफी मांगने के लिए कहा लेकिन सुमन ने माफी मांगने से इनकार कर दिया और स्पष्ट जवाब दिया, ‘‘मेरा फैसला है कि मैं वहां शादी नहीं करूंगी और हां जब तक मेरी कोई ठोस व्यवस्था न हो जाए या लाइफ सिक्योर न हो जाए तब तक मैं यहां से जाने वाली भी नहीं. मत भूलो, मायके में मेरा भी अधिकार है,’’ कह कर सुमन तैयार हो बिट्टो को ले कर स्कूल चली गई.

इधर सुमन की बातें सुन कर भैयाभाभी दंग थे.

सुमन स्कूल तो आ गई लेकिन आज उस का मन किसी काम में नहीं लग रहा था. वह खुद को सहज दिखाने की भरपूर कोशिश कर रही थी मगर उस के चेहरे के भाव और माथे पर खिंचती लकीरें उस की असहजता का एहसास करा रही थीं जिन्हें पुलकित आसानी से देख रहा था. पुलकित उस स्कूल में संगीत शिक्षक था और सुमन के साथ उस की अच्छी निभती थी.

‘‘क्या बात है सुमन, आज कुछ ज्यादा ही परेशान लग रही हो?’’

‘‘नहीं तो,’’ सुमन ने खुद को सामान्य दिखाने की कोशिश की.

‘‘लेकिन मु?ो एहसास है तुम्हारी परेशानी का. मु?ो सिर्फ कलीग नहीं अपना हमदर्द भी सम?ा,’’ कहते हुए पुलकित ने सुमन के हाथ पर अपना हाथ रख दिया.

पुलकित के हाथ के स्पर्श ने सुमन को अपनेपन का एहसास कराया. वह चाहती तो अपने हाथों को खींच सकती थी मगर ऐसा कर न सकी. एक लंबी सांस खींचते हुए उस ने अपनी बातें पुलकित को बता दीं.

‘‘तुम्हारी परिस्थितियां विकट होती जा रही हैं. तुम्हें ससुराल वालों के साथसाथ अपने मायके वालों से भी संघर्ष करना पड़ रहा है. मु?ो डर है कि कहीं विचलित हो कर तुम कोई गलत कदम न उठा लो.’’

‘‘नहीं पुलकित, मु?ो बिट्टो की फिक्र है और मैं इस मासूम के जीवन को सुंदर बनाना चाहती हूं इसलिए खुद को सुदृढ़ रखना जरूरी है.’’

सुमन के शब्द और आंखें एकदूसरे से मेल नहीं खा रहे थे. शब्द दृढ़ता की बात कर रहे थे मगर आंखों की नमी उस की तकलीफ का स्तर बता रही थी.

पुलकित आगे कुछ बोलना नहीं चाह रहा था. सुमन के मन को बदलने के खयाल से उस

ने सुमन को अपने घर चाय पर आने को कहा. सुमन मना नहीं कर सकी और स्कूल की छुट्टी होने पर बिट्टो को ले कर पुलकित के साथ उस

के घर चली गई. पुलकित सुमन के लिए कुछ खाने की व्यवस्था करना चाह रहा था मगर उस

ने मना कर दिया. बिट्टो को बिस्कुट, टौफी दे

कर पुलकित 2 कौफी बना कर ले आया. कौफी पीते हुए दोनों के बीच सामान्य बातें होती रहीं. इस सहज माहौल में सुमन को सुकून की मिठास घुली नजर आ रही थी. अचानक वक्त का ध्यान आया तो सुमन वापस घर के लिए वहां से निकल गई.

पुलकित के घर से निकलते समय सुमन को एक व्यक्ति ने देखा जो उस की ससुराल से परिचित था. उस व्यक्ति ने सुमन के ससुराल वालों को यह बात गलत तरीके से बताई जिस के कारण लोग सुमन के चरित्र पर शक करने लगे.

सुमन का संघर्ष मायके और ससुराल दोनों तरफ के लोगों से बढ़ रहा था. इधर पुलकित का स्नेहिल साथ सुमन को तपती धूप में शीतल छांव की भांति राहत भी देने लगा था. वह जब भी बहुत परेशान या तनावग्रस्त होती तो पुलकित के साथ बैठ कर कुछ मन हलका कर लेती. ससुराल वालों ने सुमन के चरित्र पर आक्षेप लगाना भी शुरू कर दिया. उन की कोशिश थी कि सुमन को बदनामी के गर्त में इतना धकेल दिया जाए कि वह फिर सामने आ कर यहां अपना अधिकार न मांग सके.

बात उड़तेउड़ते सुमन के मायके तक भी पहुंच चुकी थी. आसपास के लोगों में सुमन को ले कर कानाफूसी होने लगी.

इधर भाभी की कर्कशता भी बढ़ गई, ‘‘अब सम?ा में आया कि शादी से इनकार क्यों कर रही थी, इसे तो कुंआरा छैलछबीला रास आया. फांस लिया उसे अपने रूपजाल में.’’

‘‘यह क्या बोल रही हो भाभी? एक स्त्री हो कर दूसरी स्त्री पर गलत आक्षेप लगाना कहां तक जायज है?’’

‘‘आक्षेप,’’ उस संगीत मास्टर के साथ जो प्रेम राग अलाप रही हो न उस से समाज में हमारी नाक कट गई है. अरे तेरी छोड़, अब तो हमें चिंता है कि कल हमारे बच्चों के रिश्ते कैसे तय होंगे?’’

‘‘समाज, समाज तो अकसर स्त्रियों के लिए पंच बन कर तैयार बैठा रहता है. बस उसे थोड़ा सा भी मौका मिले की स्त्री को कुलटा और चरित्रहीन दिखाने में लग जाता है लेकिन यह भी सच है कि इसी समाज में कुछ अच्छे लोग भी होते हैं जो महिलाओं को चरित्र प्रमाणपत्र बांटने के बदले उन के सहयोगी और संबल बनने का प्रयास करते हैं. पुलकित भी उन्हीं में से एक है,’’ सुमन भी भाभी को करारा जवाब दिया.

बात पुलकित तक भी पहुंच गई. स्कूल में सुमन से वह संकोच भरी नजरों से मिलता है. मगर उस की आंखों में सुमन के लिए स्नेह कम भी नहीं हुआ. स्टाफरूम में थोड़ी चुप्पी के बाद उस ने बोलने की हिम्मत जुटाई, ‘‘सौरी सुमन, मु?ो नहीं मालूम था कि तुम्हें खुशी और सुकून देने की कोशिश में हमारी यों बदनामी हो जाएगी.’’

‘‘सौरी मत बोलो पुलकित, तुम ने कुछ भी गलत नहीं किया. गलत तो लोगों की नजरें हैं जो तुम्हारे पवित्र स्नेह को दैहिक प्रेम समझ रही हैं.’’

‘‘सुमन, मैं तुम्हारे मन की नहीं जानता लेकिन यदि तुम्हारी सहमति हो तो हम आजीवन एकदूसरे का संबल बन सकते हैं.’’

पुलकित द्वारा अचानक बोली गई यह

बात सुमन को आश्चर्य में डाल गई, ‘‘मतलब तुम्हारे मन में… ओह मैं तो सोच भी नहीं पाई थी. तुम अफवाह को हकीकत बनाने की कोशिश कर रहे हो.’’

‘‘तुम गलत न सम?ा सुमन. मैं तुम्हारे हर फैसले का सम्मान करूंगा. तुम्हारे ऊपर मैं भावनात्मक दबाव नहीं डाल रहा. बस अपने मन की साझा कर रहा हूं. तुम्हें पीड़ा से उबारना चाहता हूं.’’

‘‘पीड़ा, पीड़ा तो हम जैसी महिलाओं की शक्ति होती है. हम वेदना से टूटते नहीं जू?ाते हैं. आलोचना का श्रंगार कर खुद को स्थापित करते हैं.’’

थोड़ा रुक कर एक लंबी सांस खींच सुमन ने आगे कहा, ‘‘अभी कुछ नहीं कह सकती मु?ो थोड़ा वक्त दो.’’

सुमन घर लौट आई. बीच में शनिवाररविवार की छुट्टी थी. वह न तो पुलकित से मिली और न ही बात की मगर उस के शब्द सुमन के साथ थे. इधर घर में लोगों के ताने उधर ससुराल पक्ष से कई तरह के ?ाठे आरोप, किसकिस को जवाब दे, वह सोचने लगी कि इज्जत का गहना, बदनामी की धार आखिर सिर्फ स्त्री के लिए ही क्यों है? हमेशा स्त्री ही क्यों कठघरे में खड़ी की जाती है? नहीं, मु?ो इन चीजों से बाहर आना होगा. जिसे जो कहना है कहे लेकिन मु?ो अपने और बिट्टो के जीवन को देखते हुए फैसले लेने होंगे.

काफी सोचने के बाद सुमन ने पुलकित को फोन किया, ‘‘हैलो, पुलकित, मैं तुम्हें पिछले दिनों में जितना सम?ा पाई हूं उस के आधार पर यह तय किया है कि मैं तुम से शादी करने के लिए तैयार हूं मगर तुम्हें सिर्फ पति नहीं अच्छा पिता भी बनना होगा. बिट्टो के प्रति पिता के रूप में प्रेम और जिम्मेदारियां बखूबी निभानी होंगी.’’

‘‘तुम निश्चिंत रहो सुमन. एक पिता के फर्ज और दायित्व से मैं पीछे नहीं हटाने वाला.’’

पुलकित के शब्दों में खुशी की ध्वनि सुमन को स्पष्ट सुनाई दे रही थी. उस ने फोन रख दिया और फिर स्नेहभरी नजरों से देखते हुए बिट्टो के सिर पर हाथ फेरा क्योंकि उस के जीवन में खुशियों को लाने के लिए उसने साहस का पिटारा खोल दिया था. अब वह मुश्किलों को बांध कर हौसले की उड़ान भरने के लिए तैयार थी.

Social Story

Best Hindi Story: डायन का कलंक- क्या दीपक बसंती की मदद कर पाया?

लेखक- सचिंद्र शुक्ल

Best Hindi Story: आज पूरे 3 साल बाद दीपक अपने गांव पहुंचा था, लेकिन कुछ भी तो नहीं बदला था उस के गांव में. पहले अकसर गरमियों की छुट्टियों में वह अपने मातापिता और अपनी छोटी बहन प्रतिभा के साथ गांव आता था, लेकिन 3 साल पहले उसे पत्रकारिता पढ़ने के लिए देश के एक नामी संस्थान में दाखिला मिल गया था और कोर्स पूरा होने के बाद एक बड़े मीडिया समूह में नौकरी भी.

दीपक की बहन प्रतिभा को मैडिकल कालेज में एमबीबीएस के लिए दाखिला मिल गया था. इस वजह से उन का गांव में आना नहीं हो पाया था. पिताजी और माताजी भी काफी खुश थे, क्योंकि पूरे 3 साल बाद उन्हें गांव आने का मौका मिला था.

दीपक का गांव शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर की दूरी पर बड़ी सड़क के किनारे बसा हुआ था, लेकिन सड़क से गांव में जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था. गरमी के दिनों में तो लोग पंडितजी के बगीचे से हो कर आतेजाते थे, मगर बरसात हो जाने पर किसी तरह खेतों से गुजर कर सड़क पर आते थे.

जब वे गांव पहुंचे, तो ताऊ और ताई ने उन का खूब स्वागत किया. ताऊ तो घूमघूम कर कहते फिरे, ‘‘मेरा भतीजा तो बड़ा पत्रकार हो गया है. अब पुलिस भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी.’’ दीपक के ताऊ की एक ही बेटी थी, जिस का नाम कुमुद था.

ताऊजी नजदीक के एक गांव में प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापक थे. आराम की नौकरी. जब मन किया पढ़ाने गए, जब मन किया नहीं गए. वे इस इलाके में ‘बड़का पांडे’ के नाम से मशहूर थे. वे जिस गांव में पढ़ाते थे, वहां ज्यादातर दलित जाति के लोग रहते थे, जो किसी तरह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट पालते थे.

उन बेचारों की क्या मजाल, जो इलाके के ‘बड़का पांडे’ के खिलाफ कहीं शिकायत करते. शायद इसी का नतीजा था कि उन की बेटी कुमुद 10वीं जमात में 5 बार फेल हुई थी, पर ताऊ ने नकल कराने वाले एक स्कूल में पैसे दे कर उसे 10वीं जमात पास कराई थी.

दीपक का सारा दिन लोगों से मिलनेजुलने में बीत गया. अगले दिन शाम को वह अपने एक चचेरे भाई रमेश के साथ गांव में घूमने निकला. उस ने कहा कि चलो, अपने बगीचे की तरफ चलते हैं, तो रमेश ने कहा कि नहीं, शाम के समय वहां कोई नहीं जाता, क्योंकि वहां बसंती डायन रहती है.

दीपक को यह सुन कर थोड़ा गुस्सा आया कि आज विज्ञान कहां से कहां पहुच गया है, लेकिन ये लोग अभी भी भूतप्रेतों और डायन जैसे अंधविश्वासों में उलझे हुए हैं.

दीपक ने रमेश से पूछा ‘‘यह बसंती कौन है?’’

उस ने बताया, ‘‘अपने घर पर जो चीखुर नाम का आदमी काम करता था, यह उसी की पत्नी है.’’

चीखुर का नाम सुन कर दीपक को झटका सा लगा. दरअसल, चीखुर दीपक के खेतों में काम करता था और ट्रैक्टर भी चलाता था. उस की पत्नी बसंती बहुत सुंदर थी. हंसमुख स्वभाव और बड़ी मिलनसार. लोगों की मदद करने वाली. गांव के पंडितों के लड़के हमेशा उस के आगेपीछे घूमते थे.

दीपक ने रमेश से पूछा, ‘‘बसंती डायन कैसे बनी?’’ उस ने बताया, ‘‘उस के कोई औलाद तो थी नहीं, इसलिए वह दूसरे के बच्चों पर जादूटोना कर देती थी. वह हमारे गांव के कई बच्चों की अपने जादूटोने से जान ले चुकी है.’’

बसंती के बारे सुन कर दीपक थोड़ा दुखी हो गया, लेकिन उस ने मन ही मन ठान लिया कि उसे डायन के बारे में पता लगाना होगा.

जब थोड़ी रात हुई, तो दीपक शौच के बहाने लोटा ले कर घर से निकला और अपने बगीचे की तरफ चल पड़ा. बगीचे के पास एक कच्ची दीवार और उस के ऊपर गन्ने के पत्तों का छप्पर पड़ा था, जिस में एक टूटाफूटा दरवाजा भी था.

दीपक ने बाहर से आवाज लगाई, ‘‘कोई है?’’

अंदर से किसी औरत की आवाज आई, ‘‘भाग जाओ यहां से. मैं डायन हूं. तुम्हें भी जादू से मार डालूंगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘दरवाजा खोलो. मैं दीपक हूं.’’

वह औरत बोली, ‘‘कौन दीपक?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मैं रामकृपाल का बेटा दीपक हूं.’’

वह औरत रोते हुए बोली, ‘‘दीपक बाबू, आप यहां से चले जाइए. मैं डायन हूं. आप को भी मेरी मनहूस छाया पड़ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम बाहर आओ, वरना मैं दरवाजा तोड़ कर अंदर आ जाऊंगा.’’

तब वह औरत बाहर आई. वह एकदम कंकाल लग रही थी. फटी हुई मैलीकुचैली साड़ी, आंखें धंसी हुईं. उस के भरेभरे गाल कहीं गायब हो गए थे. उन की जगह अब गड्ढे हो गए थे.

उस औरत ने बाहर निकलते ही दीपक से कहा, ‘‘बाबू, आप यहां क्यों आए हैं? अगर आप की बिरादरी के लोगों ने आप को मेरे साथ देख लिया, तो मेरे ऊपर शामत आ जाएगी.’’

दीपक ने कहा, ‘‘तुम्हें कुछ नहीं होगा. लेकिन तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?’’

वह औरत रोने लगी और बोली, ‘‘क्या करोगे बाबू यह जान कर?’’

दीपक ने उसे बहुत समझाया, तो उस औरत ने बताया, ‘‘तकरीबन 2 साल पहले मेरे पति की तबीयत खराब हुई थी. जब मैं ने अपने पति को डाक्टर को दिखाया, तो उन्होंने कहा कि इस के दोनों गुरदे खराब हो गए हैं. इस का आपरेशन कर के गुरदे बदलने पड़ेंगे, लेकिन पैसे न होने के चलते मैं उस का आपरेशन नहीं करा पाई और उस की मौत हो गई.

‘‘पति की दवादारू में मेरे गहने बिक गए थे और हमारी एक बीघा जमीन जगनारायण पंडित के यहां गिरवी हो गई. अपने पति का क्रियाकर्म करने में जो पैसा लगाया था, वह सारा जगनारायण पंडित से लिया था. उन पैसों के बदले उस ने हमारी जमीन अपने नाम लिखवा ली, पर मुझे तो यह करना ही था, वरना गांव के लोग मुझे जीने नहीं देते. पति तो परलोक चला गया था. सोचा कि मैं किसी तह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट भर लूंगी.

‘‘फिर मैं आप के खेतों में काम करने लगी, लेकिन जगनारायण पंडित मुझे अकसर आतेजाते घूर कर देखता रहता था. पर मैं उस की तरफ कोई ध्यान नहीं देती थी.

‘‘एक दिन मैं खेतों से लौट रही थी. थोड़ा अंधेरा हो चुका था. तभी खेतों के किनारे मुझे जगनारायण पंडित आता दिखाई दिया. वह मेरी तरफ ही आ रहा था.

‘‘मैं उस से बच कर निकल जाना चाहती थी, लेकिन पास आ कर उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘कहां इतना सुंदर शरीर ले कर तू दूसरों के खेतों में मजदूरी करती है. मेरी बात मान, मैं तुझे रानी बना दूंगा. आखिर तू भी तो जवान है. तू मेरी जरूरत पूरी कर दे, मैं तेरी जरूरत पूरी करूंगा.’

‘‘मैं ने उस से अपना हाथ छुड़ाया और उसे एक तमाचा जड़ दिया. मैं अपने घर की तरफ दौड़ पड़ी. पीछे से उस की आवाज आई, ‘तू ने मेरी बात नहीं मानी है न, इस थप्पड़ का मैं तुझ से जरूर बदला लूंगा.’

‘‘कुछ महीनों के बाद रामजतन का बेटा और मंगरू की बेटी बीमार पड़ गई. शहर के डाक्टर ने बताया कि उन्हें दिमागी बुखार हो गया है, लेकिन जगनारायण पंडित और उस के चमचे कल्लू ने गांव में यह बात फैला दी कि यह सब किसी डायन का कियाधरा है.

‘‘उन बच्चों को अस्पताल से निकाल कर घर लाया गया और एक तांत्रिक को बुला कर झाड़फूंक होने लगी. लेकिन अगले दिन ही दोनों बच्चों की मौत हो गई, तो जगनारायण पंडित ने उस तांत्रिक से कहा कि बाबा उस डायन का नाम बताओ, जो हमारे बच्चों को खा रही है.

‘‘उस तांत्रिक ने मेरा नाम बताया, तो भीड़ मेरे घर पर टूट पड़ी. मेरा घर जला दिया गया. मुझे मारापीटा गया. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए और सिर मुंड़वा कर पूरे गांव में घुमाया गया.

‘‘इतने से भी उन का मन नहीं भरा और उन लोगों ने मुझे गांव से बाहर निकाल दिया. तब से मैं यहीं झोंपड़ी बना कर और आसपास के गांवों से कुछ मांग कर किसी तरह जी रही हूं’’.

उस औरत की बातें सुन कर दीपक की आंखें भर आईं. उस ने कहा, ‘‘मैं जैसा कहता हूं, वैसा करना. मैं तुम्हारे माथे से डायन का यह कलंक हमेशा के लिए मिटा दूंगा.’’

दीपक ने उसे धीमी आवाज में समझाया, तो वह राजी हो गई. दीपक ने गांव में यह बात फैला दी कि बसंती को कहीं से सोने के 10 सिक्के मिल गए हैं. पूरा गांव तो डायन से डरता था, लेकिन एक दिन जगनारायण पंडित उस के घर पहुंचा और बोला, ‘‘क्यों री बसंती, सुना है कि तुझे सोने के सिक्के मिले हैं. ला, सोने के सिक्के मुझे दे दे, नहीं तो तू जानती है कि मैं क्या कर सकता हूं.

‘‘जब पिछली बार तू ने मेरी बात नहीं मानी थी, तो मैं ने तेरा क्या हाल किया था, भूली तो नहीं होगी?

‘‘मेरी वजह से ही तू आज डायन बनी फिर रही है. अगर इस बार तू ने मेरी बात नहीं मानी, तो मैं तेरा पिछली बार से भी बुरा हाल करूंगा.’’

वह बसंती को मारने ही वाला था कि दीपक गांव के कुछ लोगों के साथ वहां पहुंच गया. इतने लोगों को वहां देख कर जगनारायण पंडित की घिग्घी बंध गई. वह बड़बड़ाने लगा. इतने में बसंती ने अपने छप्पर में छिपा कैमरा निकाल कर दीपक को दे दिया.

जगनारायण पंडित ने कहा, ‘‘यह सब क्या?है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘मेरा यह प्लान था कि डायन के डर से गांव का कोई आदमी यहां नहीं आएगा, लेकिन तुझे सारी हकीकत मालूम है और तू सोने के सिक्कों की बात सुन कर यहां जरूर आएगा, इसलिए मैं ने बसंती को कैमरा दे कर सिखा दिया था कि इसे कैसे चलाना है.

‘‘जब तू दरवाजे पर आ कर चिल्लाया, तभी बसंती ने कैमरा चला कर छिपा दिया था और जब तू इधर आ रहा था, मैं ने तुझे देख लिया था. अब तू सीधा जेल जाएगा.’’

यह बात जब गांव वालों को पता चली, तो वे बसंती से माफी मांगने लगे. जगनारायण पंडित को उस के किए की सजा मिली. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. भीड़ से घिरी बसंती दीपक को देख रही थी, मानो उस की आंखें कह रही हों, ‘मेरे सिर से डायन का कलंक उतर गया दीपक बाबू.’

दीपक ने अपने नाम की तरह अंधविश्वास के अंधेरे में खो चुकी बसंती की जिंदगी में उजाला कर दिया था.

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Fictional Story: अंतहीन- किस अफवाह ने बदली गुंजन और पिता की जिंदगी?

Fictional Story: रामदयाल क्लब के लिए निकल ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी. उन के फोन पर ‘हेलो’ कहते ही दूसरी ओर से एक महिला स्वर ने पूछा, ‘‘आप गुंजन के पापा बोल रहे हैं न, फौरन मैत्री अस्पताल के आपात- कालीन विभाग में पहुंचिए. गुंजन गंभीर रूप से घायल हो गया है और वहां भरती है.’’

इस से पहले कि रामदयाल कुछ बोल पाते फोन कट गया. वे जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंचना चाह रहे थे पर उन्हें यह शंका भी थी कि कोई बेवकूफ न बना रहा हो क्योंकि गुंजन तो इस समय आफिस में जरूरी मीटिंग में व्यस्त रहता है और मीटिंग में बैठा व्यक्ति भला कैसे घायल हो सकता है?

गुंजन के पास मोबाइल था, उस ने नंबर भी दिया था मगर मालूम नहीं उन्होंने कहां लिखा था. उन्हें इन नई चीजों में दिलचस्पी भी नहीं थी… तभी फिर फोन की घंटी बजी. इस बार गुंजन के दोस्त राघव का फोन था.

‘‘अंकल, आप अभी तक घर पर ही हैं…जल्दी अस्पताल पहुंचिए…पूछताछ का समय नहीं है अंकल…बस, आ जाइए,’’ इतना कह कर उस ने भी फोन रख दिया.

ड्राइवर गाड़ी के पास खड़ा रामदयाल का इंतजार कर रहा था. उन्होंने उसे मैत्री अस्पताल चलने को कहा. अस्पताल के गेट के बाहर ही राघव खड़ा था, उस ने हाथ दे कर गाड़ी रुकवाई और ड्राइवर की साथ वाली सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘सामने जा रही एंबुलैंस के पीछे चलो.’’

‘‘एम्बुलैंस कहां जा रही है?’’ रामदयाल ने पूछा.

‘‘ग्लोबल केयर अस्पताल,’’ राघव ने बताया, ‘‘मैत्री वालों ने गुंजन की सांसें चालू तो कर दी हैं पर उन्हें बरकरार रखने के साधन और उपकरण केवल ग्लोबल वालों के पास ही हैं.’’

‘‘गुंजन घायल कैसे हुआ राघव?’’ रामदयाल ने भर्राए स्वर में पूछा.

‘‘नेहरू प्लैनेटोरियम में किसी ने बम होने की अफवाह उड़ा दी और लोग हड़बड़ा कर एकदूसरे को रौंदते हुए बाहर भागे. इसी हड़कंप में गुंजन कुचला गया.’’

‘‘गुंजन नेहरू प्लैनेटोरियम में क्या कर रहा था?’’ रामदयाल ने हैरानी से पूछा.

‘‘गुंजन तो रोज की तरह प्लैनेटोरियम वाली पहाड़ी पर टहल रहा था…’’

‘‘क्या कह रहे हो राघव? गुंजन रोज नेहरू प्लैनेटोरियम की पहाड़ी पर टहलने जाता था?’’

अब चौंकने की बारी राघव की थी इस से पहले कि वह कुछ बोलता, उस का मोबाइल बजने लगा.

‘‘हां तनु… मैं गुंजन के पापा की गाड़ी में तुम्हारे पीछेपीछे आ रहा हूं…तुम गुंजन के साथ मेडिकल विंग में जाओ, काउंटर पर पैसे जमा करवा कर मैं भी वहीं आता हूं,’’ राघव रामदयाल की ओर मुड़ा, ‘‘अंकल, आप के पास क्रेडिट कार्ड तो है न?’’

‘‘है, चंद हजार नकद भी हैं…’’

‘‘चंद हजार नकद से कुछ नहीं होगा अंकल,’’ राघव ने बात काटी, ‘‘काउंटर पर कम से कम 25 हजार तो अभी जमा करवाने पड़ेंगे, फिर और न जाने कितना मांगें.’’

‘‘परवा नहीं, मेरा बेटा ठीक कर दें, बस. मेरे पास एटीएम कार्ड भी है, जरूरत पड़ी तो घर से चेकबुक भी ले आऊंगा,’’ रामदयाल राघव को आश्वस्त करते हुए बोले.

ग्लोबल केयर अस्पताल आ गया था, एंबुलैंस को तो सीधे अंदर जाने दिया गया लेकिन उन की गाड़ी को दूसरी ओर पार्किंग में जाने को कहा.

‘‘हमें यहीं उतार दो, ड्राइवर,’’ राघव बोला.

दोनों भागते हुए एंबुलैंस के पीछे गए लेकिन रामदयाल को केवल स्ट्रेचर पर पड़े गुंजन के बाल और मुंह पर लगा आक्सीजन मास्क ही दिखाई दिया. राघव उन्हें काउंटर पर पैसा जमा कराने के लिए ले गया और अन्य औपचारिकताएं पूरी करने के बाद दोनों इमरजेंसी वार्ड की ओर चले गए.

इमरजेंसी के बाहर एक युवती डाक्टर से बात कर रही थी. राघव और रामदयाल को देख कर उस ने डाक्टर से कहा, ‘‘गुंजन के पापा आ गए हैं, बे्रन सर्जरी के बारे में यही निर्णय लेंगे.’’

डाक्टर ने बताया कि गुंजन का बे्रन स्कैनिंग हो रहा है मगर उस की हालत से लगता है उस के सिर में अंदरूनी चोट आने की वजह से खून जम गया है और आपरेशन कर के ही गांठें निकालनी पड़ेंगी. मुश्किल आपरेशन है, जानलेवा भी हो सकता है और मरीज उम्र भर के लिए सोचनेसमझने और बोलने की शक्ति भी खो सकता है. जब तक स्कैनिंग की रिपोर्ट आती है तब तक आप लोग निर्णय ले लीजिए.

यह कह कर और आश्वासन में युवती का कंधा दबा कर वह अधेड़ डाक्टर चला गया. रामदयाल ने युवती की ओर देखा, सुंदर स्मार्ट लड़की थी. उस के महंगे सूट पर कई जगह खून और कीचड़ के धब्बे थे, चेहरा और दोनों हाथ छिले हुए थे, आंखें लाल और आंसुओं से भरी हुई थीं. तभी कुछ युवक और युवतियां बौखलाए हुए से आए. युवकों को रामदयाल पहचानते थे, गुंजन के सहकर्मी थे. उन में से एक प्रभव तो कल रात ही घर पर आया था और उन्होंने उसे आग्रह कर के खाने के लिए रोका था. लेकिन प्रभव उन्हें अनदेखा कर के युवती की ओर बढ़ गया.

‘‘यह सब कैसे हुआ, तनु?’’

‘‘मैं और गुंजन सूर्यास्त देख कर पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे कि अचानक चीखतेचिल्लाते लोग ‘भागो, बम फटने वाला है’ हमें धक्का देते हुए नीचे भागे. मैं किनारे की ओर थी सो रेलिंग पर जा कर गिरी लेकिन गुंजन को भीड़ की ठोकरों ने नीचे ढकेल दिया. उसे लुढ़कता देख कर मैं रेलिंग के सहारे नीचे भागी. एक सज्जन ने, जो हमारे साथ सूर्यास्त देख कर हम से आगे नीचे उतर रहे थे, गुंजन को देख लिया और लपक कर किसी तरह उस को भीड़ से बाहर खींचा. तब तक गुंजन बेहोश हो चुका था. उन्हीं सज्जन ने हम लोगों को अपनी गाड़ी में मैत्री अस्पताल पहुंचाया.’’

‘‘गुंजन की गाड़ी तो आफिस में खड़ी है, तेरी गाड़ी कहां है?’’ एक युवती ने पूछा.

‘‘प्लैनेटोरियम की पार्किंग में…’’

‘‘उसे वहां से तुरंत ले आ तनु, लावारिस गाड़ी समझ कर पुलिस जब्त कर सकती है,’’ एक युवक बोला.

‘‘अफवाह थी सो गाड़ी तो खैर जब्त नहीं होगी, फिर भी प्लैनेटोरियम बंद होने से पहले तो वहां से लानी ही पड़ेगी,’’ राघव ने कहा.

‘‘मैत्री से गुंजन का कोट भी लेना है, उस में उस का पर्स, मोबाइल आदि सब हैं मगर मैं कैसे जाऊं?’’ तनु ने असहाय भाव से कहा, ‘‘तुम्हीं लोग ले आओ न, प्लीज.’’

‘‘लेकिन हमें तो कोई गुंजन का सामान नहीं देगा और हो सकता है गाड़ी के बारे में भी कुछ पूछताछ हो,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘तुम्हें भी साथ चलना पड़ेगा, तनु.’’

‘‘गुंजन को इस हाल में छोड़ कर?’’ तनु ने आहत स्वर में पूछा.

‘‘गुंजन को तुम ने सही हाथों में सौंप दिया है तनु और फिलहाल सिवा डाक्टरों के उस के लिए कोई और कुछ नहीं कर सकता. तुम्हारी परेशानी और न बढ़े इसलिए तुम गुंजन का सामान और अपनी गाड़ी लेने में देर मत करो,’’ राघव ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं दोनों काम कर के 15-20 मिनट में आ जाऊंगी.’’

‘‘यहां आ कर क्या करोगी तनु? न तो तुम अभी गुंजन से मिल सकती हो और न उस के इलाज के बारे में कोई निर्णय ले सकती हो. अपनी चोटों पर भी दवा लगवा कर तुम घर जा कर आराम करो,’’ राघव ने कहा, ‘‘यहां मैं और प्रभव हैं ही. रजत, तू इन लड़कियों के साथ चला जा और सीमा, मिन्नी तुम में से कोई आज रात तनु के साथ रह लो न.’’

‘‘उस की फिक्र मत करो राघव, मगर तनु को गुंजन के हाल से बराबर सूचित करते रहना,’’ कह कर दोनों युवतियां और रजत तनु को ले कर बगैर रामदयाल की ओर देखे चले गए.

गुंजन की चिंता में त्रस्त रामदयाल सोचे बिना न रह सके कि गुंजन के बाप का तो खयाल नहीं, मगर उस लड़की की चिंता में सब हलकान हुए जा रहे हैं. उन के दिल में तो आया कि वह राघव और प्रभव से भी जाने को कहें मगर इन हालात में न तो अकेले रहने की हिम्मत थी और फिलहाल न ही किसी रिश्तेदार या दोस्त को बुलाने की, क्योंकि सब का पहला सवाल यही होगा कि गुंजन नेहरू प्लैनेटोरियम की पहाड़ी पर शाम के समय क्या कर रहा था जबकि गुंजन ने सब को कह रखा था कि 6 बजे के बाद वह बौस के साथ व्यस्त होता है इसलिए कोई भी उसे फोन न किया करे.

रामदयाल तो समझ गए थे कि कहां किस बौस के साथ, वह व्यस्त होता था मगर लोगों को तो कोई माकूल वजह ही बतानी होगी जो सोचने की मनोस्थिति में वह अभी नहीं थे.

तभी उन्हें वरिष्ठ डाक्टर ने मिलने को बुलाया. रौंदे जाने और लुढ़कने के कारण गुंजन को गंभीर अंदरूनी चोटें आई थीं और उस की बे्रन सर्जरी फौरन होनी चाहिए थी. रामदयाल ने कहा कि डाक्टर, आप आपरेशन की तैयारी करें, वह अभी एटीएम से पैसे निकलवा कर काउंटर पर जमा करवा देते हैं.

प्रभव उन्हें अस्पताल के परिसर में बने एटीएम में ले गया. जब वह पैसे निकलवा कर बाहर आए तो प्रभव किसी से फोन पर बात कर रहा था… ‘‘आफिस के आसपास के रेस्तरां में कब तक जाते यार? उन दोनों को तो एक ऐसी सार्वजनिक मगर एकांत जगह चाहिए जहां वे कुछ देर शांति से बैठ कर एकदूसरे का हाल सुनसुना सकें. नेहरू प्लैनेटोरियम आफिस के नजदीक भी है और उस के बाहर रूमानी माहौल भी. शादी अभी तो मुमकिन नहीं है…गुंजन की मजबूरियों के कारण…विधुर पिता के प्रति इकलौते बेटे की जिम्मेदारियां और लगाव कुछ ज्यादा ही होता है…हां, सीमा या मिन्नी से बात कर ले.’’

उन्हें देख कर प्रभव ने मोबाइल बंद कर दिया.

पैसे जमा करवाने के बाद राघव और प्रभव ने उन्हें हाल में पड़ी कुरसियों की ओर ले जा कर कहा, ‘‘अंकल, आप बैठिए. हम गुंजन के बारे में पता कर के आते हैं.’’

रामदयाल के कानों में प्रभव की बात गूंज रही थी, ‘शादी अभी तो मुमकिन नहीं है, गुंजन की मजबूरियों के कारण. विधुर पिता के प्रति इकलौते बेटे की जिम्मेदारियां और लगाव कुछ ज्यादा ही होता है.’ लगाव वाली बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता था लेकिन प्रेमा की मृत्यु के बाद जब प्राय: सभी ने उस से कहा था कि पिता और घर की देखभाल अब उस की जिम्मेदारी है, इसलिए उसे शादी कर लेनी चाहिए तो गुंजन ने बड़ी दृढ़ता से कहा था कि घर संभालने के लिए तो मां से काम सीखे पुराने नौकर हैं ही और फिलहाल शादी करना पापा के साथ ज्यादती होगी क्योंकि फुरसत के चंद घंटे जो अभी सिर्फ पापा के लिए हैं फिर पत्नी के साथ बांटने पड़ेंगे और पापा बिलकुल अकेले पड़ जाएंगे. गुंजन का तर्क सब को समझ में आया था और सब ने उस से शादी करने के लिए कहना छोड़ दिया था.

तभी प्रभव और राघव आ गए.

‘‘अंकल, गुंजन को आपरेशन के लिए ले गए हैं,’’ राघव ने बताया. ‘‘आपरेशन में काफी समय लगेगा और मरीज को होश आने में कई घंटे. हम सब को आदेश है कि अस्पताल में भीड़ न लगाएं और घर जाएं, आपरेशन की सफलता की सूचना आप को फोन पर दे दी जाएगी.’’

‘‘तो फिर अंकल घर ही चलिए, आप को भी आराम की जरूरत है,’’ प्रभव बोला.

‘‘हां, चलो,’’ रामदयाल विवश भाव से उठ खड़े हुए, ‘‘तुम्हें कहां छोड़ना होगा, राघव?’’

‘‘अभी तो आप के साथ ही चल रहे हैं हम दोनों.’’

‘‘नहीं बेटे, अभी तो आस की किरण चमक रही है, उस के सहारे रात कट जाएगी. तुम दोनों भी अपनेअपने घर जा कर आराम करो,’’ रामदयाल ने राघव का कंधा थपथपाया.

हालांकि गुंजन हमेशा उन के लौटने के बाद ही घर आता था लेकिन न जाने क्यों आज घर में एक अजीब मनहूस सा सन्नाटा फैला हुआ था. वह गुंजन के कमरे में आए. वहां उन्हें कुछ अजीब सी राहत और सुकून महसूस हुआ. वह वहीं पलंग पर लेट गए.

तकिये के नीचे कुछ सख्त सा था, उन्होंने तकिया हटा कर देखा तो एक सुंदर सी डायरी थी. उत्सुकतावश रामदयाल ने पहला पन्ना पलट कर देखा तो लिखा था, ‘वह सब जो चाह कर भी कहा नहीं जाता.’ गुंजन की लिखावट वह पहचानते थे. उन्हें जानने की जिज्ञासा हुई कि ऐसा क्या है जो गुंजन जैसा वाचाल भी नहीं कह सकता?

किसी अन्य की डायरी पढ़ना उन की मान्यताआें में नहीं था लेकिन हो सकता है गुंजन ने इस में वह सब लिखा हो यानी उस मजबूरी के बारे में जिस का जिक्र प्रभव कर रहा था. उन्होंने डायरी के पन्ने पलटे. शुरू में तो तनूजा से मुलाकात और फिर उस की ओर अपने झुकाव का जिक्र था. उन्होंने वह सब पढ़ना मुनासिब नहीं समझा और सरसरी निगाह डालते हुए पन्ने पलटते रहे. एक जगह ‘मां’ शब्द देख कर वह चौंके. रामदयाल को गुंजन की मां यानी अपनी पत्नी प्रेमा के बारे में पढ़ना उचित लगा.

‘वैसे तो मुझे कभी मां के जीवन में कोई अभाव या तनाव नहीं लगा, हमेशा खुश व संतुष्ट रहती थीं. मालूम नहीं मां के जीवनकाल में पापा उन की कितनी इच्छाआें को सर्वाधिक महत्त्व देते थे लेकिन उन की मृत्यु के बाद तो वही करते हैं जो मां को पसंद था. जैसे बगीचे में सिर्फ सफेद फूलों के पौधे लगाना, कालीन को हर सप्ताह धूप दिखाना, सूर्यास्त होते ही कुछ देर को पूरे घर में बिजली जलाना आदि.

‘मुझे यकीन है कि मां की इच्छा की दुहाई दे कर पापा सर्वगुण संपन्न और मेरे रोमरोम में बसी तनु को नकार देंगे. उन से इस बारे में बात करना बेकार ही नहीं खतरनाक भी है. मेरा शादी का इरादा सुनते ही वह उत्तर प्रदेश की किसी अनजान लड़की को मेरे गले बांध देंगे. तनु मेरी परेशानी समझती है मगर मेरे साथ अधिक से अधिक समय गुजारना चाहती है. उस के लिए समय निकालना कोई समस्या नहीं है लेकिन लोग हमें एकसाथ देख कर उस पर छींटाकशी करें यह मुझे गवारा नहीं है.’

रामदयाल को याद आया कि जब उन्होंने लखनऊ की जायदाद बेच कर यह कोठी बनवानी चाही थी तो प्रेमा ने कहा था कि यह शहर उसे भी बहुत पसंद है मगर वह उत्तर प्रदेश से नाता तोड़ना नहीं चाहती. इसलिए वह गुंजन की शादी उत्तर प्रदेश की किसी लड़की से ही करेगी. उन्होंने प्रेमा को आश्वासन दिया था कि ऐसा करना भी चाहिए क्योंकि उन के परिवार की संस्कृति और मान्यताएं तो उन की अपनी तरफ की लड़की ही समझ सकती है.

गुंजन का सोचना भी सही था, तनु से शादी की इजाजत वह आसानी से देने वाले तो नहीं थे. लेकिन अब सब जानने के बाद वह गुंजन के होश में आते ही उस से कहेंगे कि वह जल्दीजल्दी ठीक हो ताकि उस की शादी तनु से हो सके.

अगली सुबह अखबार में घायलों में गुंजन का नाम पढ़ कर सभी रिश्तेदार और दोस्त आने शुरू हो गए थे. अस्पताल से आपरेशन सफल होने की सूचना भी आ गई थी फिर वह अस्पताल जा कर वरिष्ठ डाक्टर से मिले थे.

‘‘मस्तिष्क में जितनी भी गांठें थीं वह सफलता के साथ निकाल दी गई हैं और खून का संचार सुचारुरूप से हो रहा है लेकिन गुंजन की पसलियां भी टूटी हुई हैं और उन्हें जोड़ना बेहद जरूरी है लेकिन दूसरा आपरेशन मरीज के होश में आने के बाद करेंगे. गुंजन को आज रात तक होश आ जाएगा,’’ डाक्टर ने कहा, ‘‘आप फिक्र मत कीजिए, जब हम ने दिमाग का जटिल आपरेशन सफलतापूर्वक कर लिया है तो पसलियों को भी जोड़ देंगे.’’

शाम को अपने अन्य सहकर्मियों के साथ तनुजा भी आई थी. बेहद विचलित और त्रस्त लग रही थी. रामदयाल ने चाहा कि वह अपने पास बुला कर उसे दिलासा और आश्वासन दें कि सब ठीक हो जाएगा लेकिन रिश्तेदारों की मौजूदगी में यह मुनासिब नहीं था.

पसलियों के टूटने के कारण गुंजन के फेफड़ों से खून रिसना शुरू हो गया था जिस के कारण उस की संभली हुई हालत फिर बिगड़ गई और होश में आ कर आंखें खोलने से पहले ही उस ने सदा के लिए आंखें मूंद लीं.

अंत्येष्टि के दिन रामदयाल को आएगए को देखने की सुध नहीं थी लेकिन उठावनी के रोज तनु को देख कर वह सिहर उठे. वह तो उन से भी ज्यादा व्यथित और टूटी हुई लग रही थी. गुंजन के अन्य सहकर्मी और दोस्त भी विह्वल थे, उन्होंने सब को दिलासा दिया. जनममरण की अनिवार्यता पर सुनीसुनाई बातें दोहरा दीं.

सीमा के साथ खड़ी लगातार आंसू पोंछती तनु को उन्होंने चाहा था पास बुला कर गले से लगाएं और फूटफूट कर रोएं. उन की तरह उस का भी तो सबकुछ लुट गया था. वह उस की ओर बढ़े भी लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर दूसरी ओर मुड़ गए.

कुछ दिनों के बाद एक इतवार की सुबह राघव गुंजन का कोट ले कर आया.

‘‘इस की जेब में गुंजन की घड़ी और पर्स वगैरा हैं. अंकल, संभाल लीजिए,’’ कहते हुए राघव का स्वर रुंध गया.

कुछ देर के बाद संयत होने पर उन्होंने पूछा, ‘‘यह तुम्हें कहां मिला, राघव?’’

‘‘तनु ने दिया है.’’

‘‘तनु कैसी है?’’

‘‘कल ही उस की बहन उसे अपने साथ पुणे ले गई है, जगह और माहौल बदलने के लिए. यहां तो बम होने की अफवाहों को सुन कर वह बारबार उन्हीं यादों में चली जाती थी और यह सिलसिला यहां रुकने वाला नहीं है. तनु के बहनोई उस के लिए पुणे में ही नौकरी तलाश कर रहे हैं.’’

‘‘नौकरी ही नहीं कोई अच्छा सा लड़का भी उस के लिए तलाश करें. अभी उम्र नहीं है उस की गुुंजन के नाम पर रोने की?’’

राघव चौंक पड़ा.

‘‘आप को तनु और गुंजन के बारे में मालूम है, अंकल?’’

‘‘हां राघव, मैं उस के दुख को शिद्दत से महसूस कर रहा था, उसे गले लगा कर रोना भी चाहता था लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, अंकल? क्यों नहीं किया आप ने ऐसा? इस से तनु को अपने और गुंजन के रिश्ते की स्वीकृति का एहसास तो हो जाता.’’

‘‘मगर मेरे ऐसा करने से वह जरूर मुझ से कहीं न कहीं जुड़ जाती और मैं नहीं चाहता था कि मेरे जरिए गुंजन की यादों से जुड़ कर वह जीवन भर एक अंतहीन दुख में जीए.’’

अंकल शायद ठीक कहते हैं.

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Family Story: सांप सीढ़ी- प्रशांत का कौनसा था कायरतापूर्ण फैसला

family story: जब से फोन आया था, दिमाग ने जैसे काम करना बंद कर दिया था. सब से पहले तो खबर सुन कर विश्वास ही नहीं हुआ, लेकिन ऐसी बात भी कोई मजाक में कहता है भला.

फिर कांपते हाथों से किसी तरह दिवाकर को फोन लगाया. सुन कर दिवाकर भी सन्न रह गए.

‘‘मैं अभी मौसी के यहां जाऊंगी,’’ मैं ने अवरुद्ध कंठ से कहा.

‘‘नहीं, तुम अकेली नहीं जाओगी. और फिर हर्ष का भी तो सवाल है. मैं अभी छुट्टी ले कर आता हूं, फिर हर्ष को दीदी के घर छोड़ते हुए चलेंगे.’’

दिवाकर की बात ठीक ही थी. हर्ष को ऐसी जगह ले जाना उचित नहीं था. मेरा मस्तिष्क भी असंतुलित हो रहा था. हाथपैर कांप रहे थे, मन में भयंकर उथलपुथल मची हुई थी. मैं स्वयं भी अकेले जाने की स्थिति में कतई नहीं थी.

पर इस बीतते जा रहे समय का क्या करूं. हर गुजरता पल मुझ पर पहाड़ बन कर टूट रहा था. दिवाकर को बैंक से यहां तक आने में आधा घंटा लग सकता था. फिर दीदी का घर दूसरे छोर पर, वहां से मौसी का घर 5-6 किलोमीटर की दूरी पर. उन के घर के पास ही अस्पताल है, जहां प्रशांत अपने जीवन की शायद आखिरी सांसें गिन रहा है. कम से कम फोन पर खबर देने वाले व्यक्ति ने तो यही कहा था कि प्रशांत ने जहर इतनी अधिक मात्रा में खा लिया है कि उस के बचने की कोई उम्मीद नहीं है.

जिस प्रशांत को मैं ने गोद में खिलाया था, जिस ने मुझे पहलेपहल छुटकी के संबोधन से पदोन्नत कर के दीदी का सम्मानजनक पद प्रदान किया था, उस प्रशांत के बारे में इस से अधिक दुखद मुझे क्या सुनने को मिलता.

उस समय मैं बहुत छोटी थी. शायद 6-7 साल की जब मौसी और मौसाजी हमारे पड़ोस में रहने आए. उन का ममतामय व्यक्तित्व देख कर या ठीकठीक याद नहीं कि क्या कारण था कि मुझे उन्हें देख कर मौसी संबोधन ही सूझा.

यह उम्र तो नामसझी की थी, पर मांपिताजी के संवादों से इतना पता तो चल ही गया था कि मौसी की शादी हुए 2-3 साल हो चुके थे, और निस्संतान होने का उन्हें गहरा दुख था. उस समय उन की समूची ममता की अधिकारिणी बनी मैं.

मां से डांट खा कर मैं उन्हीं के आंचल में जा छिपती. मां के नियम बहुत कठोर थे. शाम को समय से खेल कर घर लौट आना, फिर पहाड़े और कविताएं रटना, तत्पश्चात ही खाना नसीब होता था. उतनी सी उम्र में भी मुझे अपना स्कूलबैग जमाना, पानी की बोतल, अपने जूते पौलिश करना आदि सब काम स्वयं ही करने पड़ते थे. 2 भाइयों की एकलौती छोटी बहन होने से भी कोई रियायत नहीं मिलती थी.

उस समय मां की कठोरता से दुखी मेरा मन मौसी की ममता की छांव तले शांति पाता था.

मौसी जबतब उदास स्वर में मेरी मां से कहा करती थीं, ‘बस, यही आस है कि मेरी गोद भरे, बच्चा चाहे काला हो या कुरूप, पर उसे आंखों का तारा बना कर रखूंगी.’

मौसी की मुराद पूरी हुई. लेकिन बच्चा न तो काला था न कुरूप. मौसी की तरह उजला और मौसाजी की तरह तीखे नाकनक्श वाला. मांबाप के साथसाथ महल्ले वालों की भी आंख का तारा बन गया. मैं तो हर समय उसे गोद में लिए घूमती फिरती.

प्रशांत कुशाग्रबुद्धि निकला. मैं ने उसे अपनी कितनी ही कविताएं कंठस्थ करवा दी थीं. तोतली बोली में गिनती, पहाड़े, कविताएं बोलते प्रशांत को देख कर मौसी निहाल हो जातीं. मां भी ममता का प्रतिरूप, तो बेटा भी उन के स्नेह का प्रतिदान अपने गुणों से देता जा रहा था. हर साल प्रथम श्रेणी में ही पास होता. चित्रकला में भी अच्छा था. आवाज भी ऐसी कि कोई भी महफिल उस के गाने के बिना पूरी नहीं होती थी. मैं उस से अकसर कहती, ‘ऐसी सुरीली आवाज ले कर किसी प्रतियोगिता के मैदान में क्यों नहीं उतरते भैया?’ मैं उसे लाड़ से कभीकभी भैया कहा करती थी. मेरी बात पर वह एक क्षण के लिए मौन हो जाता, फिर कहता, ‘क्या पता, उस में मैं प्रथम न आऊं.’

‘तो क्या हुआ, प्रथम आना जरूरी थोड़े ही है,’ मैं जिरह करती, लेकिन वह चुप्पी साध लेता.

बोलने में विनम्रता, चाल में आत्मविश्वास, व्यवहार में बड़ों का आदरमान, चरित्र में सोना. सचमुच हजारों में एक को ही नसीब होता है ऐसा बेटा. मौसी वाकई समय की बलवान थीं.

मां के अनुशासन की डोरी पर स्वयं को साधती मैं विवाह की उम्र तक पहुंच चुकी थी. एमए पास थी, गृहकार्य में दक्ष थी, इस के बावजूद मेरा विवाह होने में खासी परेशानी हुई. कारण था, मेरा दबा रंग. प्रत्येक इनकार मन में टीस सी जगाता रहा. पर फिर भी प्रयास चलते रहे.

और आखिरकार दिवाकर के यहां बात पक्की हो गई. इस बात पर देर तक विश्वास ही नहीं हुआ. बैंक में नौकरी, देखने में सुदर्शन, इन सब से बढ़ कर मुझे आकर्षित किया इस बात ने कि वे हमारे ही शहर में रहते थे. मां से, मौसी से और खासकर प्रशांत से मिलनाजुलना आसान रहेगा.

पर मेरी शादी के बाद मेरी मां और पिताजी बड़े भैया के पास भोपाल रहने चले गए, इसलिए उन से मिलना तो होता, पर कम.

मौसी अलबत्ता वहीं थीं. उन्होंने शादी के बाद सगी मां की तरह मेरा खयाल रखा. मुझे और दिवाकर को हर त्योहार पर घर खाने पर बुलातीं, नेग देतीं.

प्रशांत का पीईटी में चयन हो चुका था. वह धीरगंभीर युवक बन गया था. मेरे दोनों सगे भाई तो कोसों दूर थे. राखी व भाईदूज का त्योहार इसी मुंहबोले छोटे भाई के साथ मनाती.

स्कूटर की जानीपहचानी आवाज आई, तो मेरी विचारशृंखला टूटी. दिवाकर आ चुके थे. मैं हर्ष की उंगली पकड़े बाहर आई. कुछ कहनेसुनने का अवसर ही नहीं था. हर्ष को उस की बूआ के घर छोड़ कर हम मौसी के घर जा पहुंचे.

घर के सामने लगी भीड़ देख कर और मौसी का रोना सुन कर कुछ भी जानना बाकी न रहा. भीतर प्रशांत की मृतदेह पर गिरती, पछाड़ें खाती मौसी और पास ही खड़े आंसू बहाते मौसाजी को सांत्वना देना सचमुच असंभव था.

शब्द कभीकभी कितने बेमानी, कितने निरर्थक और कितने अक्षम हो जाते हैं, पहली बार इस बात का एहसास हुआ. भरी दोपहर में किस प्रकार उजाले पर कालिख पुत जाती है, हाथभर की दूरी पर खड़े लोग किस कदर नजर आते हैं, गुजरे व्यक्ति के साथ खुद भी मर जाने की इच्छा किस प्रकार बलवती हो उठती है, मुंहबोली बहन हो कर मैं इन अनुभूतियों के दौर से गुजर रही थी. सगे मांबाप के दुख का तो कोई ओरछोर ही नहीं था.

रहरह कर एक ही प्रश्न हृदय को मथ रहा था कि प्रशांत ने ऐसा क्यों किया? मांबाप का दुलारा, 2 वर्ष पहले ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी. अभी उसे इसी शहर में एक साधारण सी नौकरी मिली हुई थी, पर उस से वह संतुष्ट नहीं था. बड़ी कंपनियों में नौकरी के लिए आवेदन कर रहा था. अपने दोस्त की बहन उसे जीवनसंगिनी के रूप में पसंद थी. मौसी और मौसाजी को एतराज होने का सवाल ही नहीं था. लड़की उन की बचपन से देखीपरखी और परिवार जानापहचाना था. तब आखिर कौन सा दुख था जिस ने उसे आत्महत्या का कायरतापूर्ण निर्णय लेने के लिए मजबूर कर दिया.

सच है, पासपास रहते हुए भी कभीकभी हमारे बीच लंबे फासले उग आते हैं. किसी को जाननेसमझने का दावा करते हुए भी हम उस से कितने अपरिचित रहते हैं. सन्निकट खड़े व्यक्ति के अंतर्मन को छूने में भी असमर्थ रहते हैं.

अभी 2 दिन पहले तो प्रशांत मेरे घर आया था. थोड़ा सा चुपचुप जरूर लग रहा था, पर इस बात का एहसास तक न हुआ था कि वह इतने बड़े तूफानी दौर से गुजर रहा है. कह रहा था, ‘दीदी, इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ है. चयन की पूरी उम्मीद है.’

सुन कर बहुत अच्छा लगा था. उस की महत्त्वाकांक्षा पूरी हो, इस से अधिक भला और क्या चाहिए.

और आज? क्यों किया प्रशांत ने ऐसा? मौसी और मौसाजी से तो कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई. मन में प्रश्न लिए मैं और दिवाकर घर लौट आए.

धीरेधीरे प्रशांत की मृत्यु को 5-6 माह बीत चुके थे. इस बीच मैं जितनी बार मौसी से मिलने गई, लगा, जैसे इस दुनिया से उन का नाता ही टूट गया है. खोईखोई दृष्टि, थकीथकी देह अपने ही मौन में सहमी, सिमटी सी. बहुत कुरेदने पर बस, इतना ही कहतीं, ‘इस से तो अच्छा था कि मैं निस्संतान ही रहती.’

उन की बात सुन कर मन पर पहाड़ सा बोझ लद जाता. मौसाजी तो फिर भी औफिस की व्यस्तताओं में अपना दुख भूलने की कोशिश करते, पर मौसी, लगता था इसी तरह निरंतर घुलती रहीं तो एक दिन पागल हो जाएंगी.

समय गुजरता गया. सच है, समय से बढ़ कर कोई मरहम नहीं. मौसी, जो अपने एकांतकोष में बंद हो गई थीं, स्वयं ही बाहर निकलने लगीं. कई बार बुलाने के बावजूद वे इस हादसे के बाद मेरे घर नहीं आई थीं. एक रोज उन्होंने अपनेआप फोन कर के कहा कि वे दोपहर को आना चाहती हैं.

जब इंसान स्वयं ही दुख से उबरने के लिए पहल करता है, तभी उबर पाता है. दूसरे उसे कितना भी हौसला दें, हिम्मत तो उसे स्वयं ही जुटानी पड़ती है.

मेरे लिए यही तसल्ली की बात थी कि वे अपनेआप को सप्रयास संभाल रही हैं, समेट रही हैं. कभी दूर न होने वाले अपने खालीपन का इलाज स्वयं ढूंढ़ रही हैं.

8-10 महीनों में ही मौसी बरसों की बीमार लग रही थीं. गोरा रंग कुम्हला गया था. शरीर कमजोर हो गया था. चेहरे पर अनगिनत उदासी की लकीरें दिखाई दे रही थीं. जैसे यह भीषण दुख उन के वर्तमान के साथ भविष्य को भी लील गया है.

मौसी की पसंद के ढोकले मैं ने पहले से ही बना रखे थे. लेकिन मौसी ने जैसे मेरा मन रखने के लिए जरा सा चख कर प्लेट परे सरका दी. ‘‘अब तो कुछ खाने की इच्छा नहीं रही,’’ मौसी ने एक दीर्घनिश्वास छोड़ा.

मैं ने प्लेट जबरन उन के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘खा कर देखिए तो सही कि आप की छुटकी को कुछ बनाना आया कि नहीं.’’

उस दिन हर्ष की स्कूल की छुट्टी थी. यह भी एक तरह से अच्छा ही था क्योंकि वह अपनी नटखट बातों से वातावरण को बोझिल नहीं होने दे रहा था.

प्रशांत का विषय दरकिनार रख हम दोनों भरसक सहज वार्त्तालाप की कोशिश में लगी हुई थीं.

तभी हर्ष सांपसीढ़ी का खेल ले कर आ गया, ‘‘नानी, हमारे साथ खेलेंगी.’’ वह मौसी का हाथ पकड़ कर मचलने लगा. मौसी के होंठों पर एक क्षीण मुसकान उभरी शायद विगत का कुछ याद कर के, फिर वे खेलने के लिए तैयार हो गईं.

बोर्ड बिछ गया.

‘‘नानी, मेरी लाल गोटी, आप की पीली,’’ हर्ष ने अपनी पसंदीदा रंग की गोटी चुन ली.

‘‘ठीक है,’’ मौसी ने कहा.

‘‘पहले पासा मैं फेंकूंगा,’’ हर्ष बहुत ही उत्साहित लग रहा था.

दोनों खेलने लगे. हर्ष जीत की ओर अग्रसर हो रहा था कि सहसा उस के फेंके पासे में 4 अंक आए और 99 के अंक पर मुंह फाड़े पड़ा सांप उस की गोटी को निगलने की तैयारी में था. हर्ष चीखा, ‘‘नानी, हम नहीं मानेंगे, हम फिर से पासा फेंकेंगे.’’

‘‘बिलकुल नहीं. अब तुम वापस 6 पर जाओ,’’ मौसी भी जिद्दी स्वर में बोलीं.

दोनों में वादप्रतिवाद जोरशोर से चलने लगा. मैं हैरान, मौसी को हो क्या गया है. जरा से बच्चे से मामूली बात के लिए लड़ रही हैं. मुझ से रहा नहीं गया. आखिर बीच में बोल पड़ी, ‘‘मौसी, फेंकने दो न उसे फिर से पासा, जीतने दो उसे, खेल ही तो है.’’

‘‘यह तो खेल है, पर जिंदगी तो खेल नहीं है न,’’ मौसी थकेहारे स्वर में बोलीं.

मैं चुप. मौसी की बात बिलकुल समझ में नहीं आ रही थी.

‘‘सुनो शोभा, बच्चों को हार सहने की भी आदत होनी चाहिए. आजकल परिवार बड़े नहीं होते. एक या दो बच्चे, बस. उन की हर आवश्यकता हम पूरी कर सकते हैं. जब तक, जहां तक हमारा वश चलता है, हम उन्हें हारने नहीं देते, निराशा का सामना नहीं करने देते. लेकिन ऐसा हम कब तक कर सकते हैं? जैसे ही घर की दहलीज से निकल कर बच्चे बाहर की प्रतियोगिता में उतरते हैं, हर बार तो जीतना संभव नहीं है न,’’ मौसी ने कहा.

मैं उन की बात का अर्थ आहिस्ताआहिस्ता समझती जा रही थी.

‘‘तुम ने गौतम बुद्ध की कहानी तो सुनी होगी न, उन के मातापिता ने उन के कोमल, भावुक और संवेदनशील मन को इस तरह सहेजा कि युवावस्था तक उन्हें कठोर वास्तविकताओं से सदा दूर ही रखा और अचानक जब वे जीवन के 3 सत्य- बीमारी, वृद्धावस्था और मृत्यु से परिचित हुए तो घबरा उठे. उन्होंने संसार का त्याग कर दिया, क्योंकि संसार उन्हें दुखों का सागर लगने लगा. पत्नी का प्यार, बच्चे की ममता और अथाह राजपाट भी उन्हें रोक न सका.’’

मौसी की आंखों से अविरल अश्रुधार बहती जा रही थी, ‘‘पंछी भी अपने नन्हे बच्चों को उड़ने के लिए पंख देते हैं. तत्पश्चात उन्हें अपने साथ घोंसलों से बाहर उड़ा कर सक्षम बनाते हैं. खतरों से अवगत कराते हैं और हम इंसान हो कर अपने बच्चों को अपनी ममता की छांव में समेटे रहते हैं. उन्हें बाहर की कड़ी धूप का एहसास तक नहीं होने देते. एक दिन ऐसा आता है जब हमारा आंचल छोटा पड़ जाता है और उन की महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी. तब क्या कमजोर पंख ले कर उड़ा जा सकता है भला?’’

मौसी अपनी रौ में बोलती जा रही थीं. उन के कंधे पर मैं ने अपना हाथ रख कर आर्द्र स्वर में कहा, ‘‘रहने दो मौसी, इतना अधिक न सोचो कि दिमाग की नसें ही फट जाएं.’’

‘‘नहीं, आज मुझे स्वीकार करने दो,’’ मौसी मुझे रोकते हुए बोलीं, ‘‘प्रशांत को पालनेपोसने में भी हम से बड़ी गलती हुई. बचपन से खेलखेल में भी हम खुद हार कर उसे जीतने का मौका देते रहे. एकलौता था, जिस चीज की फरमाइश करता, फौरन हाजिर हो जाती. उस ने सदा जीत का ही स्वाद चखा. ऐसे क्षेत्र में वह जरा भी कदम न रखता जहां हारने की थोड़ी भी संभावना हो.’’ मौसी एक पल के लिए रुकीं, फिर जैसे कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘जानती हो, उस ने आत्महत्या क्यों की? उसे जिस बड़ी कंपनी में नौकरी चाहिए थी, वहां उसे नौकरी नहीं मिली. भयंकर बेरोजगारी के इस जमाने में मनचाही नौकरी मिलना आसान है क्या? अब तक सदा सकारात्मक उत्तर सुनने के आदी प्रशांत को इस मामूली असफलता ने तोड़ दिया और उस ने…’’

मौसी दोनों हाथों में मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ीं. मैं ने उन का सिर अपनी गोद में रख लिया.

मौसी का आत्मविश्लेषण बिलकुल सही था और मेरे लिए सबक. मां के अनुशासन तले दबीसिमटी मैं हर्ष के लिए कुछ ज्यादा ही उन्मुक्तता की पक्षधर हो गई थी. उस की उचित, अनुचित, हर तरह की फरमाइशें पूरी करने में मैं धन्यता अनुभव करती. परंतु क्या यह ठीक था?

मां और पिताजी ने हमें अनुशासन में रखा. हमारी गलतियों की आलोचना की. बचपन से ही गिनती के खिलौनों से खेलने की, उन्हें संभाल कर रखने की आदत डाली. प्यार दिया पर गलतियों पर सजा भी दी. शौक पूरे किए पर बजट से बाहर जाने की कभी इजाजत नहीं दी. सबकुछ संयमित, संतुलित और सहज. शायद इस तरह से पलनेबढ़ने से ही मुझ में एक आत्मबल जगा. अब तक तो इस बात का एहसास भी नहीं हुआ था पर शायद इसी से एक संतुलित व्यक्तित्व की नींव पड़ी. शादी के समय भी कई बार नकारे जाने से मन ही मन दुख तो होता था पर इस कदर नहीं कि जीवन से आस्था ही उठ जाए.

मैं गंभीर हो कर मौसी के बाल, उन की पीठ सहलाती जा रही थी.

हर्ष विस्मय से हम दोनों की इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया को देख रहा था. उसे शायद लगा कि उस के ईमानदारी से न खेलने के कारण ही मौसी को इतना दुख पहुंचा है और उस ने चुपचाप अपनी गोटी 99 से हटा कर 6 पर रख दी और मौसी से खेलने के लिए फिर उसी उत्साह से अनुरोध करने लगा.

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Akshay Kumar की बेटी को कहा न्यूड भेजो, साइबर अपराध से बच्चों को बचाएं

Akshay Kumar: बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार ने हाल ही में एक गंभीर साइबर अपराध का खुलासा किया, जिसमें उनकी 13 वर्षीय बेटी नितारा कुमार एक ऑनलाइन गेम खेलते समय शिकार हुई. अक्षय कुमार ने Cyber Awareness Month कार्यक्रम के दौरान बताया कि उनकी बेटी नितारा कुमार एक दिन एक ऑनलाइन गेम खेल रही थी, तभी एक अजनबी ने उससे दोस्ती जताते हुए उसे मैसेज भेजा, आप मेल हो या फीमेल? जब नितारा ने इसका जवाब दिया, तो अगले ही पल उस व्यक्ति ने उससे न्यूड फोटो भेजने को कहा.

नितारा ने दिखाई समझदारी

नितारा ने तुरंत गेम बंद किया और अपनी मां ट्विंकल खन्ना को इसके बारे में सारी बातें बताई. अक्षय ने इसे साइबर अपराध का गंभीर रूप बताया और साथ ही कहा कि डिजिटल युग में बच्चों की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देना जरूरी है.

बढ़ रहे हैं साइबर अपराध के मामले

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज हर घर में बच्चे और बड़े सभी ऑनलाइन गेम्स खेलने में बिजी है लेकिन ज्यादातर मामलों में बड़े जहां साइबर अपराधियों से बच जाते हैं वहीं छोटे बच्चे इनके बहकावे में आ जाते हैं.

कुछ दिन पहले ही लखनऊ में ऑनलाइन गेमिंग के माध्यम से साइबर क्राइम का शिकार हुए एक 14 साल के बच्चे ने सुसाइड कर लिया गया. यश कुमार नाम के इस लड़के को पहले औनलाइन ठगी करने वाले ने अपने विश्वास में लिया. उसके बाद उसका ईमेल और पासवर्ड यह कह कर लिया कि वह उसके गेमिंग आईडी को अपग्रेड कर देगा. लेकिन अपराधी ने 13 लाख रुपए की ठगी कर ली. मानसिक दबाव में आकर यश ने आत्महत्या कर ली.

कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखा जाए तो बच्चों को साइबर अपराधियों के चंगुल में आने से बचाया जा सकता है –

– पेरेंट्स को बच्चों पर विश्वास करना चाहिए लेकिन निगरानी जरूरी है. यह आप उनकी सुरक्षा के लिए कर रहे हैं.
– बच्चों को या नाबालिगों के साथ किसी भी ऑनलाइन वॉलेट पासवर्ड को शेयर नहीं करें. उन्हें इसका कारण भी बताएं.
– कुछ बच्चे पढ़ने के लिए वेबसाइट का इस्तेमाल करते हैं. कभीकभार उनके इन वेबसाइट्स को चेक करें.

– बच्चों को साइबर क्राइम के बारे में बताएं, ऐसी सच्ची घटनाओं को शेयर करें खासकर उनकी उम्र के बच्चों के साथ घट रही घटनाओं को. इससे वह सतर्क रहेंगे.

– बच्चों को बताएं कि वह किसी के साथ भी नाम, फोन नंबर, ओटीपी को ऑनलाइन शेयर नहीं करें.
– बच्चे के ऑनलाइन गेम्स का रिव्यू करें. उनके साथ एक बार आप भी बैठ कर उस गेम को खेलें, इससे पता चलेगा कि उस पर किस तरह के पॉप ऑप्स आते हैं. क्या उसमें किसी लिंक को क्लिक करने को कहा जाता है या कोई खास जानकारी मांगी जाती है.
– बच्चों के स्क्रीन टाइम को कम करें, यह उनको ऑनलाइन गेम्स से बचाने का बेस्ट तरीका है.
– साइबर बुलिंग पर घर के बच्चों से बात करें.
– घर के बड़े बच्चों को छोटे भाईबहनों को ऑनलाइन गेम के खतरों के बारे में बताने की जिम्मेदारी दें. यह दोनों को फायदा पहुंचाएगा.

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शाहरुख को इंडस्ट्री में लाने वाले मेकर विवेक वासवानी को एक्टर व्योम से है बहुत उम्मीदें

Vyom Yadav: फिल्ममेकर विवेक वासवानी को नवोदित हीरो व्योम में दिखती है शाहरुख जैसी खूबियां विवेक वासवानी के अनुसार जब मैं पहली बार शाहरुख से मिला था, तो उनकी आँखों में मैंने एक चमक देखी थी, हालांकि शाहरुख के अभिनय करियर की शुरुआत टीवी से हुई थी, लेकिन मुझे शाहरुख में बॉलीवुड स्टार बनने की क्वालिटी उसी दौरान नजर आ गई थी वहीं सारी खूबियां मुझे व्योम में भी नजर आई है. व्योम में मुझे वही स्पार्क दिखा है. विवेक वासवानी ने डियर फ्रेंड शाहरुख से मन्नू क्या करेगा?’ के हीरो व्योम की तुलना करते हुए व्योम को सिर्फ अच्छा एक्टर ही नहीं बल्कि बेहद मेहनती स्टार भी बताया.

क्यूरियस आइज़ सिनेमा की आने वाली फिल्म मन्नू क्या करेगा, जो 12 सितंबर 2025 को बड़े पर्दे पर रिलीज़ होने जा रही है, पहले ही दर्शकों के बीच चर्चा का विषय बन चुकी है. फिल्म में डेब्यू कर रहे व्योम और साची बिंद्रा मुख्य भूमिकाओं में हैं और उनके ट्रेलर लॉन्च के बाद से ही फिल्म को लेकर उत्साह बढ़ता जा रहा है. क्योंकि इस फिल्म में भी फिल्म सैयारा की तरह नई जोड़ी है और म्यूजिकल फिल्म है इस लिए इस फिल्म को भी लेकर दर्शकों में उत्साह देखने को मिल रहा है.

इंडस्ट्री के दिग्गज विवेक वासवानी जिन्होंने शाहरुख़ खान को उनके करियर के शुरुआती दिनों में मार्गदर्शन दिया था ने व्योम और शाहरुख के बीच गहरी समानता दिखाई. उन्होंने व्योम की तारीफ करते हुए कहा, “जब मैं पहली बार शाहरुख से मिला था, तो उनकी आँखों में भूख, अनुशासन और जुनून देखा था और यही चीज़ उन्हें खास बनाती थी.इत्तेफाक से जब मैं व्योम से मिला, तो मैंने उनमें भी वही सब चीजें देखीं.

हालांकि शाहरुख की तरह व्योम भी बाहरी हैं और उनमें भी सबसे अधिक मेहनत करने की ताकत के साथ सीखते रहने की विनम्रता भी है. हालांकि मैं दो लोगों की तुलना करना पसंद नहीं करता, लेकिन मैं यह ज़रूर कह सकता हूं कि व्योम के रूप में आज एक नए सितारे ने जन्म ले लिया है.

फिल्म का निर्माण शरद मेहरा द्वारा क्यूरियस आइज़ सिनेमा के बैनर तले किया गया है और निर्देशन संजय त्रिपाठी ने किया है. फिल्म में नए कलाकारों के साथ-साथ विनय पाठक, कुमुद मिश्रा, राजेश कुमार, और चारु शंकर जैसे अनुभवी कलाकारों की भी दमदार उपस्थिति है.

इसके साथ ही, फिल्म का संगीत तैयार किया है ललित पंडित ने, जो पहले ही चार्ट्स में धमाल मचा चुका है. ट्रेलर को मिली व्यापक सराहना के साथ, ‘मन्नू क्या करेगा ?’ व्योम और साची के बॉलीवुड में कदम रखने का शानदार अवसर बनकर उभर रही है.

Vyom Yadav

Big Boss 19: शहबाज बदेशा और तान्या मित्तल ने बदला बिग बॉस का इतिहास

Big Boss 19: बिग बॉस का यह 19 सीजन है और अब तक इस शो के दौरान वही प्रतियोगी लाइमलाइट बटोरता है, जो मतलब बेमतलब के झगड़ा करता है , छोटे से मुद्दे को बड़ा बना कर पूरा दिन टी वी पर दिखाई देता है, और कई बार वही प्रतियोगी आखिर में बिग बॉस का विजेता भी घोषित हो जाता है . लेकिन इस बार बिग बॉस हाउस का माहौल काफी अलग है ज्यादातर प्रतियोगी बिना किसी की मां बहन किए , बिना गालियों के लड़ते झगड़ते नजर आ रहे हैं, अगर कोई प्रतियोगी भूल से गाली दे भी देता है तो वह बाद में माफी मांगता नजर आता है.

लेकिन इन सभी प्रतियोगियों में दो प्रतियोगी ऐसे हैं, जिन्होंने बिग बॉस का इतिहास ही बदल दिया है , जिसमें से एक है तान्या मित्तल जिन्होंने पहली बार बिग बॉस में साड़ी पहनकर भोली भाली सूरत के साथ सती सावित्री टाइप बन कर दर्शकों का ध्यान खींचा है , तान्या मित्तल में एक बहुत बड़ी खूबी यह है कि वह लंबी लंबी फेंकने में अर्थात झूठ बोल कर अपनी शेखी बघारने में उन्होंने सबको पीछे छोड़ दिया है , तान्या के अनुसार वह दुनिया की सबसे अमीर औरत है जिनके घर में डेढ़ सौ से ज्यादा बॉडीगार्ड नौकर , और अंबानी से बड़ा घर आदि सब कुछ है.

घर में बर्तन साफ करती दिखती तान्या मित्तल इतना ज्यादा अपनी अमीरी को लेकर झूठ बोल रही है कि उनके नकली दिखावे वाले झूठ से बिग बॉस के घर वाले और बिग बॉस देखने वाले सब परेशान होने के साथ हैरान भी है , बिग बॉस हाउस में और बाहर सबको पता है कि वह झूठ बोल रही हैं , लेकिन फिर भी सब मजे ले रहे हैं , इतना लंबी लंबी छोड़ने के बावजूद हर कोई उनकी बातों का मजा ले रहा है और कोई भी उनके विरोध में नहीं है , तान्या मित्तल कुछ हफ्तों में ही हर जगह दिखाई दे रही हैं फिर चाहे वह उनके ऊपर बने सोशल मीडिया पर मीम हो या वीकेंड का वार में आए सेलिब्रिटीज और सलमान खान की क्यों ना हो , सभी तान्या मित्तल के बोले गए झूठ को ना सिर्फ एंजॉय करें, बल्कि रिएक्शन भी दे रहे हैं.

वही तान्या मित्तल के अलावा एक और प्रतियोगी जिनका नाम शाहबाज बदेशा है, शहबाज की बहन शहनाज गिल जो कि पंजाब की हीरोइन ओर मॉडल है उन्होंने बिग बॉस 13 में अपनी अलग पहचान बनाई थी और आज शहनाज प्रसिद्ध मॉडल और एक्ट्रेस है, शहनाज के भाई शाहबाज एक यू ट्यूबर है लेकिन शहबाज की खासियत यह है कि वह एक छोटे से यू ट्यूबर है , और कॉमेडियन ना होते हुए भी वह बिग बॉस हाउस में नेचुरल कॉमेडी कर करके खास तौर पर तान्या मित्तल द्वारा बोले गए झूठ पर तान्या की खींचाई करके बिग बॉस के झगड़े वाले और सीरियस माहौल में सबको इतना हंसा रहे है , कि पूरा घर शाहबाज द्वारा किए गए मजाक से हंस हंस कर पागल हो रहा है.

अपनी बहन शहनाज के इनफ्लुएंस पर आए शाहबाज जो इस बात को मानने से भी नहीं कतराते एक हफ्ते के अंदर इतने पॉपुलर हो गए हैं कि वह बाकी प्रतियोगियों से ज्यादा दिखाई देते हैं और घर के लोगों द्वारा भी पसंद किये जा रहे हैं. ऐसे मै कहना गलत ना होगा, कि इन दोनों प्रतियोगियों ने बिग बॉस का फॉर्मेट ही बदल के रख दिया है.

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Fictional Story: रोशनी- आखिर बच्चा गोद लेने से क्यों इंकार करता था नवल

Fictional Story: स्नान कर के दीप्ति शृंगारमेज की ओर जा ही रही थी कि अपने नकल को पलंग पर औंधे लेटे देख कर चकित सी रह गई क्योंकि इतनी जल्दी वे क्लीनिक से कभी नहीं आते थे. फिर आज तो औपरेशन का दिन था. ऐसे दिन तो वे दोपहर ढलने के बाद ही आ पाते थे. इसीलिए पलंग के पास जा कर दीप्ति ने साश्चर्य पूछा, ‘‘क्या बात है, आज इतनी जल्दी निबट गए?’’

डाक्टर नवल ने कोई उत्तर नहीं दिया. वे पूर्ववत औंधे लेटे रहे. दीप्ति ने देखा कि उन्होंने जूते भी नहीं उतार हैं, कपड़े भी नहीं बदले हैं, क्लीनिक से आते ही शायद लेट गए हैं. इसीलिए यह सोच कर उस का माथा ठनका, कोई औपरेशन बिगड़ क्या? इन का स्वास्थ्य तो नहीं बिगड़ गया?

चिंतित स्वर में दीप्ति ने फिर पूछा, ‘‘क्या बात है तबीयत खराब हो गई क्या?’’

डाक्टर नवल ने औंधे लेटेलेटे ही जैसे बड़ी कठिनाई से उत्तर दिया, ‘‘नहीं.’’

‘‘औपरेशन बिगड़ गया क्या?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर क्या बात है?’’

डाक्टर नवल ने कोई उत्तर नहीं दिया. दीप्ति तौलिए से बालों को सुखाती हुई पति के पास बैठ गई. उन्हें हौले से छूते हुए उस ने फिर पूछा, ‘‘बोलो न, क्या बात है? इस तरह मुंह लटकाए क्यों पड़े हो?’’

डाक्टर नवल ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढकते हुए कहा, ‘‘दीप्ति, मु?ो कुछ देर अभी अकेला छोड़ दो. मेहरबानी कर के जाओ यहां से.’’

दीप्ति का आश्चर्य और बढ़ गया. पिछले

3 सालों के वैवाहिक जीवन में ऐसा अवसर कभी नहीं आया था. डाक्टर नवल उस की भावनाओं का हमेशा खयाल रखते थे. उस से कभी ऊंचे स्वर में नहीं बोलते थे. वह कभी गलती पर होती थी, तब भी वे उस बात की उपेक्षा सी कर जाते थे.

कभीकभी तो उदारतापूर्वक वे उसे अपनी गलती मान लेते थे. हमेशा पत्नी को प्रसन्न रखने की चेष्टा करते रहते थे. आज वे ही उसे कमरे से बाहर जाने को कह रहे थे.

 

और सब से बड़ी बात तो यह थी कि नवल दीप्ति को दीप्ति कह कर संबोधित

किया था. ऐसा आमतौर पर कभी नहीं होता था. उन्होंने उस का नाम पंडितजी रख छोड़ा था. संस्कृत की प्राध्यापिका होने के कारण वे प्रथम परिचय के बाद से ही उसे पंडितजी कह कर संबोधित करने लगे थे. यह संबोधन विवाह के बाद भी कायम रहा था. उठतेबैठते वे पंडितजी… पंडितजी की धूम मचाया करते थे. क्लीनिक से या और कहीं से भी घर आते ही पुकार उठते थे, ‘‘पंडितजी.’’

किंतु आज तो नवल चोरों की तरह घर में आ कर सो गए थे. पंडितजी को एक बार भी नहीं पुकारा था और अब अपराधियों की तरह  दोनों हाथों से मुंह ढक कर अकेला छोड़ देने को कह रह थे. उस समय भी उन के मुंह से ‘पंडितजी’ संबोधन नहीं निकला था. दीप्ति कहा था उन्होंने.

दीप्ति को लगा, जरूर कोई न कोई गंभीर बात है. इसीलिए दीप्ति बजाय बाहर जाने के पति से सट कर बैठती हुई बोली, ‘‘पहले यह बताओ बात क्या है? मैं तभी जाऊंगी.’’

डाक्टर नवल ने दीवार की ओर मुंह करते हुए कहा, ‘‘वही बताने की स्थिति में मैं अभी नहीं हूं. मु?ो जरा संभल जाने दो. फिर सब बताऊंगा. बताना ही होगा. बताए बिना काम भी कैसे चलेगा? इसीलिए दीप्ति मेहरबानी कर के चली जाओ.’’

दीप्ति भीतर तक कांप उठी. उसे विश्वास हो गया कि जरूर कोई न कोई गंभीर बात है.डाक्टर नवल का स्वर, लहजा सभी कुछ इस क्षण असामान्य था.

असमंजस की मुद्रा में कुछ देर बैठी रहने के बाद दीप्ति जाने को उठ खड़ी हुई. किंतु वह द्वार के बाहर ही पहुंची थी कि डाक्टर नवल का भर्राया सा स्वर उसे सुनाई पड़ा, ‘‘दीप्ति.’’

दीप्ति ने ठिठकते हुए कहा, ‘‘जी.’’

‘‘चली आओ. यों नियति से अब आंख चुराने से क्या फायदा. जो हो चुका है, वह तो अब बदला नहीं जा सकता.’’

दीप्ति को जैसे काठ मार गया. उस की ऊपर की सांस जैसे ऊपर और नीचे की नीचे ही रह गई. उसे ऐसा लगा जैसे कोई भयानक विपत्ति गाज की तरह उस के सिर पर मंडरा रही है.

डाक्टर नवल ने उसे फिर पुकारा, ‘‘बुरा मान गईं क्या? इस अशोभनीय व्यवहार के लिए मु?ो माफ करो, पंडितजी.’’

दीप्ति दौड़ी सी भीतर आई और कंपित स्वर में बोली, ‘‘नहीं… नहीं, ऐसी कोई बात नहीं हुई. तुम्हारी परेशानी क्या है, तुम बस यही बताओ?’’

डाक्टर नवल आलथीपालथी मार कर बिस्तर पर बैठ गए थे. तौलिए से बाल सुखाती दीप्ति को एकटक देखने लगे. उन की इस दृष्टि से दीप्ति के तन में फुरहरी सी दौड़ गई. उस के गालों पर लाली की ?ांई सी उभर आई. उस ने नजरें चुराते हुए कहा, ‘‘ऐसे क्यों देख रहे हो?’’

डाक्टर नवल ने आह भरते हुए कहा, ‘‘नजर भर के इस रूप को देख लेने दो. यह  तौलिया परे फेंक दो, पंडितजी. अपने गजगज लंबे बालों को फैला दो. सावन की छटा छा जाने दो.’’

दीप्ति ने तौलिया हैंगर पर टांग दिया और गरदन को ?ाटका दे कर बालों को फैला दिया. डाक्टर नवल आंखें फाड़फाड़ कर उसे अभी भी घूरे जा रहे थे.

डाक्टर नवल की यह मुग्ध दृष्टि दीप्ति को अच्छी लग रही थी, किंतु इस विशेष परिस्थिति के कारण उसे यह दृष्टि स्वाभाविक प्रतीत नहीं हो रही थी. इसीलिए उस ने पति के पास बैठते हुए कहा, ‘‘आज मु?ो इस तरह क्यों घूर रहे हो?’’

डाक्टर नवल ने दीप्ति को बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘तुम्हें कैसे सम?ाऊं, पंडितजी?’’

‘‘इस में क्या कठिनाई है?’’

‘‘बड़ी भारी कठिनाई है.’’

‘‘आज तुम अजीबअजीब सी बातें कर रहे हो. पहेलियां बु?ा रहे हो. साफसाफ कहो न बात क्या है?’’

‘‘बड़ी भारी बात है, पंडितजी.’’

‘‘बड़ी भारी बात है?’’

‘‘हां.’’

‘‘आखिर पता तो लगे बात क्या है?’’

डाक्टर नवल फिर चुप हो गए. बारबार पूछे जाने पर वे भर्राए स्वर में बोले, ‘‘कैसे कहूं?’’

दीप्ति को आश्चर्य हुआ. डाक्टर नवल इतने भावुक कभी नहीं होते थे. इसीलिए उस ने किंचित ?ां?ाला कर कहा, ‘‘किसी भी तरह कहो तो सही. मैं तो आशंका में ही मरी जा रही हूं.’’

अपने विशाल सीने पर दीप्ति को सटाते हुए डाक्टर नवल बोले, ‘‘मालूम नहीं, सुनने पर तुम्हारा क्या हाल होगा.’’

‘‘जो होगा, वह देखा जाएगा, तुम कह डालो.’’

 

दीप्ति की आंखों में आंखें डालते हुए डाक्टर नवल ने बड़े भावुक स्वर में कहा,

‘‘पंडितजी, तुम्हारे इस रूपसौंदर्य का क्या होगा?’’

दीप्ति चौंकी. उस ने और अधिक ?ां?ालाते हुए पूछा, ‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि तुम… तुम…’’

‘‘रुक क्यों गए? कहो न?’’

‘‘तुम अब किसी और से शादी कर लो.’’

पति की बांहों की कैद से एक ?ाटके में ही अलग हो कर तीखी नजर डालते हुए दीप्ति ने कंपित स्वर में कहा, ‘‘कैसी बातें कर रहे हो आज? नशे में हो क्या?’’

डाक्टर नवल ने अविचलित स्वर में कहा, ‘‘नहीं, पूरे होशोहवास में हूं.’’

‘‘तो फिर ऐसी बहकीबहकी बातें क्यों कर रहे हो?’’

‘‘ये बहकीबहकी बातें नहीं हैं.’’

‘‘तो फिर ऐसी बेहूदा बात तुम्हारे मुंह से कैसे निकली?’’

‘‘बड़ी मजबूरी में निकली है. इसी बात को कहने के लिए ही मैं कब से अपनेआप को जैसे धकेल रहा था.’’

किसी जलते कोयले पर जैसे पैर रखा गया हो, इस तरह दीप्ति चौंक उठी. उस ने पति के दोनों कंधे पकड़ कर पूछा, ‘‘एकाएक ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई?’’

आंखें चुराते हुए डाक्टर नवल ने कहा, ‘‘एकाएक ही आई है, मेरी पंडितजी, आसमान से जैसे बिजली सी गिरी है.’’

दीप्ति ने लगभग चीखते से स्वर में कहा, ‘‘फिर पहेलियां बु?ाने लगे. साफसाप कहो न, कौन सी बिजली गिरी है?’’

 

डाक्टर नवल ने 1-1 शब्द को कैसे चबाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी गोद हरी

करने लायक मैं अब नहीं रहा. कान खोल कर सुन लो, मैं अब किसी संतान को जन्म देने लायक नहीं रहा.’’

‘‘क्यों नहीं रहे?’’

‘‘ऐसी दुर्घटना हो गई है.’’

‘‘दुर्घटना. कैसी दुर्घटना?’’

‘‘तुम्हें कैसे सम?ाऊं, मेरी पंडित. यह बात तुम्हारी सम?ा से बाहर की है. हमारे डाक्टरी उसूलों की लीला है यह.’’

‘‘फिर भी मु?ो सम?ाओ न?’’

‘‘सम?ाने को और रहा ही क्या है. कुदरत ने मेरी लापरवाही की मु?ो कठोर सजा दी है. तुम बस इतना ही सम?ा लो.’’

‘‘नहीं, मु?ो सारी बात विस्तार से सम?ाओ.’’

‘‘मैं आज भी रोज की तरह औपरेशन में रेडियो धर्मी रेडियम का उपयोग कर रहा था…’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘जाने कैसे एक पिन मेरे ऐप्रन में रह गई और मेरे शरीर से स्पर्श हो गई. उसी का यह गंभीर परिणाम हुआ. मैं सैक्स की दृष्टि से बेकार हो गया हूं. बाप बनने की मु?ा में अब क्षमता ही नहीं रही है. इसीलिए मैं ने तुम्हारे सामने यह प्रस्ताव…’’

डाक्टर नवल के मुंह पर हाथ रखते हुए दीप्ति बोली, ‘‘यह अशुभ बात दोबारा मत कहो.’’

बुजुर्गाना अंदाज में मुसकराते हुए डाक्टर नवल ने कहा, ‘‘पंडितजी, यह समय थोथे आदर्शवाद का नहीं है. जीवन के क्रूर यथार्थ ने हमें जहां ला कर पटका है उस से आंखें मिलाओ. भावुकता से काम नहीं चलेगा. तुम्हारे सामने पहाड़ सी जिंदगी पड़ी है. उसे थोथी भावुकता में बरबाद मत करो. इस रूपसौंदर्य का…’’

दीप्ति ने पति का मुंह बंद करते हुए रोआंसे स्वर में कहा, ‘‘तुम इस हादसे के बाद भी जीवित तो रहोगे न? तुम्हारी जिंदगी को तो कोई खतरा नहीं है न?’’

‘‘नहीं, फिलहाल ऐसा कोईर् खतरा इस हादसे से नहीं हुआ है. इस हादसे ने तो बस मेरे पौरुष को ही ?ालसा दिया है.’’

‘‘बस तो फिर कोई चिंता की बात नहीं है. मैं तुम्हारे ?ालसे हुए पौरुष के साथ ही जीवन व्यतीत कर लूंगी.’’

‘‘नहीं, यह नहीं होगा. मैं तुम्हें थोथे आदर्शवाद की बलिवेदी पर बलिदान नहीं होने दूंगा, भावुकता में बहने नहीं दूंगा. मैं तुम्हें तलाक दे दूंगा.’’

‘‘क्यों दे दोगे?’’

‘‘क्योकि मातृत्व के बिना नारीत्व अपूर्ण होता है.’’

‘‘जिन्हें कोई संतान नहीं होती वे भी तो इस अपूर्णता के बावजूद…’’

‘‘वह उन की विवशता होती है.’’

‘‘यह भी एक विवशता ही है.’’

‘‘नहीं, खुली आंख से मक्खी निगलना विवशता नहीं है. यह तो अपने हाथों से अपने

पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है. अपने हाथों से

अपने अरमानों का गला घोटना है. यह सरासर बेवकूफी है.’’

‘‘जरा मेरी भी तो सुनो.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगा. जब कुदरत ने हमें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां से आगे साथसाथ चलना मुमकिन नहीं है…’’

‘‘क्यों मुमकिन नहीं है? मुमकिन है. जरा ठंडे दिमाग से सोचो.’’

‘‘मैं ने खूब सोच लिया है. अब तो बस कुदरत का फैसला मंजूर कर लेना चाहिए. हमें हंसते हुए एकदूसरे को अलविदा कह देना चाहिए.’’

दीप्ति ने कानों में उगली देते हुए कहा, ‘‘नहीं, यह नहीं होगा. हमारा प्यार भी कोई चीज है या नहीं?’’

‘‘है तभी तो यह फैसला करने में जैसे मेरी जान पर आ रही है पर मैं अपने स्वार्थ के लिए तुम्हारे जीवन का बलिदान नहीं होने दूंगा. वैसे प्यार के लिए ही मैं यह अंतिम निर्णय ले रहा हूं. मैं नहीं तो कम से कम तुम तो सुखी रहो.’’

‘‘तुम से अलग रह कर मैं सुखी नहीं रह सकती हूं?’’

‘‘ये सब फालतू की बातें हैं. लाश के साथ रहने में क्या सुख है?’’

‘‘सैक्सुअली न्यूट्रल होने से तुम लाश कैसे हो गए? बाप बनने के अयोग्य होना और नामर्द होना अलगअलग बात है. पिता बनने की तुम में क्षमता नहीं रही. मगर यौन क्षमता तो है. मैं इसी पर संतोष कर लूंगी.’’

‘‘पर मैं संतोष नहीं कर पाऊंगा. संतान को मैं वैवाहिक जीवन की अनिवार्यता मानता हूं.’’

‘‘संतान… संतान बस एक ही बात रटे जा रहे हो. संतान की तुम्हें ऐसी ही भूख है तो हम किसी को गोद ले लेंगे. सरोगेसी से कुछ करा लेंगे.’’

‘‘पराए आखिर पराए ही होते हैं. अपने खून की बात ही दूसरी होती है.’’

‘‘तुम डाक्टर हो कर कैसी दकियानूसी बातें कर रहे हो? मैं पचासों ऐसे उदाहरण अपने आसपास से तुम्हें बतला सकती हूं जब अपने खून ने बेगानों से भी बदतर सुलूक अपने मांबाप से किया और जिन्हें तुम पराए कह रह हो, ऐसे गोद आए बच्चों ने अपने खून से भी अच्छा सुलूक किया है, कहो तो गिनवाऊं?’’

डाक्टर नवल टुकुरटुकुर देखते रहे. वे कुछ नहीं बोल पाए. उन के ठीक पड़ोस में ही गोद आए बच्चों ने खुद की संतान से अधिक सुख अपने इन गोद लेने वाले मांबाप को दिया था. नाक के सामने के इस सत्य ने उन्हें अवाक कर दिया. दीप्ति के संकेत को वे सम?ा गए थे.

 

तभी दीप्ति ने फैसला सा सुनाते हुए कहा, ‘‘कान खोल कर सुन लो मैं इस घर से

नहीं जाऊंगी. तुम मु?ो धक्के दे कर निकालोगे तब भी नहीं. मैं तुम्हारे साथ ही जीवन बिताऊंगी. ऐसी मूर्खतापूर्ण बात मेरे सामने अब कभी मत कहना. उठो, हाथमुंह धो लो. मैं चाय ला रही हूं.’’

छोटे बच्चे की तरह बिना कोई नानुकर

किए डाक्टर नवल उठ खड़े हुए. हाथमुंह धो कर आईने के सामने खड़े हो कर वे बाल संवारने लगे.

चाय की ट्रे ले कर दीप्ति आई तो वे उस का चेहरा देखने लगे.

दीप्ति ने लजाते हुए पूछा, ‘‘क्या देख रहे हो?’’

डाक्टर नवल ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘फरिश्ते के चेहरे की कल्पना कर रहा हूं.’’

चाय की ट्रे को मेज पर रखते हुए दीप्ति ने इठलाते हुए कहा, ‘‘ओह, तुम्हारी कल्पना भी इतनी उड़ान भरने लगी?’’

‘‘पंडितजी की संगत का असर है.’’

‘‘अच्छाजी, पर अब ये जूतेकपड़े तो उतारो.’’

‘‘नहीं, मैं चाय पी कर फिर से औपरेशन थिएटर जाऊंगा. रहे हुए औपरेशन करूंगा. मेरे आसपास का अंधेरा छंट गया. अब तो चारों तरफ मु?ो रोशनी ही रोशनी नजर आ रही है.’’

दीप्ति पुलकित हो उठी. चाय समाप्त कर के डाक्टर नवल जब जाने लगे तो उस ने इसी पुलक में कहा, ‘‘जल्दी लौटना. मैं तुम्हें संस्कृत में कामशास्त्र पढ़ाऊंगी.’’

Fictional Story

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