मेरे कानों में दर्द रहता है, मुझे बताएं इस समस्या से कैसे छुटकारा पाऊं?

सवाल

मैं 25 साल का कामकाजी युवक हूं. मेरे कानों में अकसर दर्द बना रहता है. कई बार कानों में खड़खड़ की आवाजें भी आती हैं. बताएं इस समस्या से कैसे छुटकारा पाऊं?

जवाब

जिन लोगों की त्वचा बहुत तेलीय होती है, उन के कानों मे वैक्स ज्यादा जमा होता है. सफाई के बाद यह फिर से जमने लगता है. ज्यादा समय तक वैक्स की सफाई नहीं करने पर वह धीरेधीरे संख्त होने लगता है, जिस से दर्द की समस्य होती है. आप की समस्या से यह साफ है कि आप के कानों में वैक्स जमा हो गया है. सख्त वैक्स के कारण ही कानों में सनसनाहट (बंद होने का अनुभव) होती है और खड़खड़ की आवाजें आती हैं. इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए डाक्टर से संपर्क करें. इसे खुद निकालने की कोशिश बिलकुल न करें.

मौन : एक नए रिश्ते की अनकही जबान

सर्द मौसम था, हड्डियों को कंपकंपा देने वाली ठंड. शुक्र था औफिस का काम कल ही निबट गया था. दिल्ली से उस का मसूरी आना सार्थक हो गया था. बौस निश्चित ही उस से खुश हो जाएंगे.

श्रीनिवास खुद को काफी हलका महसूस कर रहा था. मातापिता की वह इकलौती संतान थी. उस के अलावा 2 छोटी बहनें थीं. पिता नौकरी से रिटायर्ड थे. बेटा होने के नाते घर की जिम्मेदारी उसे ही निभानी थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी रहा है. मल्टीनैशनल कंपनी में उसे जौब पढ़ाई खत्म करते ही मिल गई थी. आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तो वह था ही, बोलने में भी उस का जवाब नहीं था. लोग जल्दी ही उस से प्रभावित हो जाते थे. कई लड़कियों ने उस से दोस्ती करने की कोशिश की लेकिन अभी वह इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता था.

श्रीनिवास ने सोचा था मसूरी में उसे 2 दिन लग जाएंगे, लेकिन यहां तो एक दिन में ही काम निबट गया. क्यों न कल मसूरी घूमा जाए. श्रीनिवास मजे से गरम कंबल में सो गया.

अगले दिन वह मसूरी के माल रोड पर खड़ा था. लेकिन पता चला आज वहां टैक्सी व बसों की हड़ताल है.

‘ओफ, इस हड़ताल को भी आज ही होना था,’ श्रीनिवास अभी सोच में पड़ा ही था कि एक टैक्सी वाला उस के पास आ कानों में फुसफुसाया, ‘साहब, कहां जाना है.’

‘अरे भाई, मसूरी घूमना था लेकिन इस हड़ताल को भी आज होना था.’

‘कोई दिक्कत नहीं साहब, अपनी टैक्सी है न. इस हड़ताल के चक्कर में अपनी वाट लग जाती है. सरजी, हम आप को घुमाने ले चलते हैं लेकिन आप को एक मैडम के साथ टैक्सी शेयर करनी होगी. वे भी मसूरी घूमना चाहती हैं. आप को कोई दिक्कत तो नहीं,’ ड्राइवर बोला.

‘कोई चारा भी तो नहीं. चलो, कहां है टैक्सी.’

ड्राइवर ने दूर खड़ी टैक्सी के पास खड़ी लड़की की ओर इशारा किया.

श्रीनिवास ड्राइवर के साथ चल पड़ा.

‘हैलो, मैं श्रीनिवास, दिल्ली से.’

‘हैलो, मैं मनामी, लखनऊ से.’

‘मैडम, आज मसूरी में हम 2 अनजानों को टैक्सी शेयर करना है. आप कंफर्टेबल तो रहेंगी न.’

‘अ…ह थोड़ा अनकंफर्टेबल लग तो रहा है पर इट्स ओके.’

इतने छोटे से परिचय के साथ गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने बताया, ‘सर, मसूरी से लगभग 30 किलोमीटर दूर टिहरी जाने वाली रोड पर शांत और खूबसूरत जगह धनौल्टी है. आज सुबह से ही वहां बर्फबारी हो रही है. क्या आप लोग वहां जा कर बर्फ का मजा लेना चाहेंगे?’

मैं ने एक प्रश्नवाचक निगाह मनामी पर डाली तो उस की भी निगाह मेरी तरफ ही थी. दोनों की मौन स्वीकृति से ही मैं ने ड्राइवर को धनौल्टी चलने को हां कह दिया.

गूगल से ही थोड़ाबहुत मसूरी और धनौल्टी के बारे में जाना था. आज प्रत्यक्षरूप से देखने का पहली बार मौका मिला है. मन बहुत ही कुतूहल से भरा था. खूबसूरत कटावदार पहाड़ी रास्ते पर हमारी टैक्सी दौड़ रही थी. एकएक पहाड़ की चढ़ाई वाला रास्ता बहुत ही रोमांचकारी लग रहा था.

बगल में बैठी मनामी को ले कर मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे. मन हो रहा था कि पूछूं कि यहां किस सिलसिले में आई हो, अकेली क्यों हो. लेकिन किसी अनजान लड़की से एकदम से यह सब पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था.

मनामी की गहरी, बड़ीबड़ी आंखें उसे और भी खूबसूरत बना रही थीं. न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार उस की तरफ उठ जातीं.

मैं और मनामी बीचबीच में थोड़ा बातें करते हुए मसूरी के अनुपम सौंदर्य को निहार रहे थे. हमारी गाड़ी कब एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच गई, पता ही नहीं चल रहा था. कभीकभी जब गाड़ी को हलका सा ब्रेक लगता और हम लोगों की नजरें खिड़की से नीचे जातीं तो गहरी खाई देख कर दोनों की सांसें थम जातीं. लगता कि जरा सी चूक हुई तो बस काम तमाम हो जाएगा.

जिंदगी में आदमी भले कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न हो पर नीचे देख कर गिरने का जो डर होता है, उस का पहली बार एहसास हो रहा था.

‘अरे भई, ड्राइवर साहब, धीरे… जरा संभल कर,’ मनामी मौन तोड़ते हुए बोली.

‘मैडम, आप परेशान मत होइए. गाड़ी पर पूरा कंट्रोल है मेरा. अच्छा सरजी, यहां थोड़ी देर के लिए गाड़ी रोकता हूं. यहां से चारों तरफ का काफी सुंदर दृश्य दिखता है.’

बचपन में पढ़ते थे कि मसूरी पहाड़ों की रानी कहलाती है. आज वास्तविकता देखने का मौका मिला.

गाड़ी से बाहर निकलते ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड का एहसास हुआ. चारों तरफ से धुएं जैसे उड़ते हुए कोहरे को देखने से लग रहा था मानो हम बादलों के बीच खड़े हो कर आंखमिचौली खेल रहे हों. दूरबीन से चारों तरफ नजर दौड़ाई तो सोचने लगे कहां थे हम और कहां पहुंच गए.

अभी तक शांत सी रहने वाली मनामी धीरे से बोल उठी, ‘इस ठंड में यदि एक कप चाय मिल जाती तो अच्छा रहता.’

‘चलिए, पास में ही एक चाय का स्टौल दिख रहा है, वहीं चाय पी जाए,’ मैं मनामी से बोला.

हाथ में गरम दस्ताने पहनने के बावजूद चाय के प्याले की थोड़ी सी गरमाहट भी काफी सुकून दे रही थी.मसूरी के अप्रतिम सौंदर्य को अपनेअपने कैमरों में कैद करते हुए जैसे ही हमारी गाड़ी धनौल्टी के नजदीक पहुंचने लगी वैसे ही हमारी बर्फबारी देखने की आकुलता बढ़ने लगी. चारों तरफ देवदार के ऊंचेऊंचे पेड़ दिखने लगे थे जो बर्फ से आच्छादित थे. पहाड़ों पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सफेद चादर ओढ़ा दी हो. पहाड़ एकदम सफेद लग रहे थे.

पहाड़ों की ढलान पर काफी फिसलन होने लगी थी. बर्फ गिरने की वजह से कुछ भी साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था. कुछ ही देर में ऐसा लगने लगा मानो सारे पहाड़ों को प्रकृति ने सफेद रंग से रंग दिया हो. देवदार के वृक्षों के ऊपर बर्फ जमी पड़ी थी, जो मोतियों की तरह अप्रतिम आभा बिखेर रही थी.

गाड़ी से नीचे उतर कर मैं और मनामी भी गिरती हुई बर्फ का भरपूर आनंद ले रहे थे. आसपास अन्य पर्यटकों को भी बर्फ में खेलतेकूदते देख बड़ा मजा आ रहा था.

‘सर, आज यहां से वापस लौटना मुमकिन नहीं होगा. आप लोगों को यहीं किसी गैस्टहाउस में रुकना पड़ेगा,’ टैक्सी ड्राइवर ने हमें सलाह दी.

‘चलो, यह भी अच्छा है. यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और अच्छी तरह से एंजौय करेंगे,’ ऐसा सोच कर मैं और मनामी गैस्टहाउस बुक करने चल दिए.

‘सर, गैस्टहाउस में इस वक्त एक ही कमरा खाली है. अचानक बर्फबारी हो जाने से यात्रियों की संख्या बढ़ गई है. आप दोनों को एक ही रूम शेयर करना पड़ेगा,’ ड्राइवर ने कहा.

‘क्या? रूम शेयर?’ दोनों की निगाहें प्रश्नभरी हो कर एकदूसरे पर टिक गईं. कोई और रास्ता न होने से फिर मौन स्वीकृति के साथ अपना सामान गैस्टहाउस के उस रूम में रखने के लिए कह दिया.

गैस्टहाउस का वह कमरा खासा बड़ा था. डबलबैड लगा हुआ था. इसे मेरे संस्कार कह लो या अंदर का डर. मैं ने मनामी से कहा, ‘ऐसा करते हैं, बैड अलगअलग कर बीच में टेबल लगा लेते हैं.’

मनामी ने भी अपनी मौन सहमति दे दी.

हम दोनों अपनेअपने बैड पर बैठे थे. नींद न मेरी आंखों में थी न मनामी की. मनामी के अभी तक के साथ से मेरी उस से बात करने की हिम्मत बढ़ गई थी. अब रहा नहीं जा रहा था,  बोल पड़ा, ‘तुम यहां मसूरी क्या करने आई हो.’

मनामी भी शायद अब तक मुझ से सहज हो गई थी. बोली, ‘मैं दिल्ली में रहती हूं.’

‘अच्छा, दिल्ली में कहां?’

‘सरोजनी नगर.’

‘अरे, वाट ए कोइनस्टिडैंट. मैं आईएनए में रहता हूं.’

‘मैं ने हाल ही में पढ़ाई कंप्लीट की है. 2 और छोटी बहनें हैं. पापा रहे नहीं. मम्मी के कंधों पर ही हम बहनों का भार है. सोचती थी जैसे ही पढ़ाई पूरी हो जाएगी, मम्मी का भार कम करने की कोशिश करूंगी, लेकिन लगता है अभी वह वक्त नहीं आया.

‘दिल्ली में जौब के लिए इंटरव्यू दिया था. उन्होंने सैकंड इंटरव्यू के लिए मुझे मसूरी भेजा है. वैसे तो मेरा सिलैक्शन हो गया है, लेकिन कंपनी के टर्म्स ऐंड कंडीशंस मुझे ठीक नहीं लग रहीं. समझ नहीं आ रहा क्या करूं?’

‘इस में इतना घबराने या सोचने की क्या बात है. जौब पसंद नहीं आ रही तो मत करो. तुम्हारे अंदर काबिलीयत है तो जौब दूसरी जगह मिल ही जाएगी. वैसे, मेरी कंपनी में अभी न्यू वैकैंसी निकली हैं. तुम कहो तो तुम्हारे लिए कोशिश करूं.’

‘सच, मैं अपना सीवी तुम्हें मेल कर दूंगी.’

‘शायद, वक्त ने हमें मिलाया इसलिए हो कि मैं तुम्हारे काम आ सकूं,’ श्रीनिवास के मुंह से अचानक निकल गया. मनामी ने एक नजर श्रीकांत की तरफ फेरी, फिर मुसकरा कर निगाहें झुका लीं.

श्रीनिवास का मन हुआ कि ठंड से कंपकंपाते हुए मनामी के हाथों को अपने हाथों में ले ले लेकिन मनामी कुछ गलत न समझ ले, यह सोच रुक गया. फिर कुछ सोचता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

सर्दभरी रात. बाहर गैस्टहाउस की छत पर गिरते बर्फ से टपकते पानी की आवाज अभी भी आ रही है. मनामी ठंड से सिहर रही थी कि तभी कौफी का मग बढ़ाते हुए श्रीनिवास ने कहा, ‘यह लीजिए, थोड़ी गरम व कड़क कौफी.’

तभी दोनों के हाथों का पहला हलका सा स्पर्श हुआ तो पूरा शरीर सिहर उठा. एक बार फिर दोनों की नजरें टकरा गईं. पूरे सफर के बाद अभी पहली बार पूरी तरह से मनामी की तरफ देखा तो देखता ही रह गया. कब मैं ने मनामी के होंठों पर चुंबन रख दिया, पता ही नहीं चला. फिर मौन स्वीकृति से थोड़ी देर में ही दोनों एकदूसरे की आगोश में समा गए.

सांसों की गरमाहट से बाहर की ठंड से राहत महसूस होने लगी. इस बीच मैं और मनामी एकदूसरे को पूरी तरह कब समर्पित हो गए, पता ही नहीं चला. शरीर की कंपकपाहट अब कम हो चुकी थी. दोनों के शरीर थक चुके थे पर गरमाहट बरकरार थी.

रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला. सुबहसुबह जब बाहर पेड़ों, पत्तों पर जमी बर्फ छनछन कर गिरने लगी तो ऐसा लगा मानो पूरे जंगल में किसी ने तराना छेड़ दिया हो. इसी तराने की हलकी आवाज से दोनों जागे तो मन में एक अतिरिक्त आनंद और शरीर में नई ऊर्जा आ चुकी थी. मन में न कोई अपराधबोध, न कुछ जानने की चाह. बस, एक मौन के साथ फिर मैं और मनामी साथसाथ चल दिए.

विंटर सीजन में है आपकी शादी, तो बेहद खूबसूरत दिखने के लिए फॉलो करें ये टिप्स

विंटर वेडिंग में चाहे आप ब्राइडल हो या नही, लेकिन स्किन का ख्याल रखना जरूरी है. विंटर में कईं ऐसी प्रौब्लम आती है, जिनके कारण आप वेडिंग सीजन में आपकी खूबसूरत कम हो जाती है. इसीलिए आज हम आपको विंटर वेडिंग से जुड़ी जरूरी बाते बताएंगे, जिनसे आप अपनी स्किन को विंटर वेडिंग में खूबसूरत दिखा सकती हैं.

1. स्किन को रखें मौश्चराइज्ड

मेकअप बिल्कुल फ्लालैस दिखे इसलिए जितना हो सके अपनी स्किन को मौश्चराइज़्ड करें .ड्राई या फ्लेकी  स्किन पर मेकअप कभी अच्छा नहीं लगता .समय-समय पर खुद को पैंपर करें और चेहरे को एक्सफोलिएट व मौइश्चराइज करें.

2. सही मेकअप बेस चुनना है जरूरी

स्किन के मुताबिक अच्छा मेकअप बेस चुनना बेहद जरूरी होता है .आपकी स्किन सुपर सॉफ्ट तभी बनती है जब चेहरे पर सही बेस सही तरीके से लगाया गया हो. मौसम को ध्यान में रखते हुए सही बेस का चुनाव करें. कोशिश करें कि आपका मेकअप बेस सिलिकॉन बेस्ड हो. इससे आपका मेकअप बिल्कुल परफेक्ट नजर आएगा.

3. लिप्स का रखें ख्याल

शादी के दिन होंठ सूखे ना लगे इसलिए ऐसी लिपस्टिक का चुनाव करें जिसमें बीज वैक्स मौजूद हो. इससे आपके होंठ हाइड्रेटेड एवं मौश्चराइज़्ड  बन जाएंगे .बात आए कलर की तो ब्राइट शेड्स जैसे कोरल या डीप रेड का चुनाव करें इससे आप ट्रेंडी दिखाई देंगी.

4. वौटर प्रूफ प्रौडक्ट का करें इस्तेमाल

आंखों का मेकअप करते समय इस बात का पूरा ख्याल रखें कि प्रोडक्ट वाटर प्रूफ हो. विदाई के समय वाटरप्रूफ मेकअप की अहमियत अच्छे से समझ आ जाती है.

5. सोच समझकर चुनें ब्लश

ब्लशर सोच समझकर ही चुने. ब्लश का मतलब यह नहीं है कि आपके गाल गुलाबी या लाल ही नजर आए. मौसम को देखते हुए कुछ नेचुरल सेट सी पिक करें इससे आप किसी नेचुरल ब्यूटी से कम नजर नहीं आएंगी क्रीम बेस्ट फार्मूला स्माल करने से अच्छा है कि हम उसका प्रयोग करें यह आपकी स्किन को ड्राई किए बिना नेचुरल अपील देगा.

Valentine’s Day 2024: अनोखी- भाग 2- प्रख्यात से मिलकर कैसा था निष्ठा का हाल

‘‘अबे चल कोई फिल्म है क्या? मैं आंटी से बात करता हूं अगर तू वाकई सीरियस है तो,’’ प्रख्यात हंसा था.

‘‘अच्छा इतना ही सयाना है तो मेरी आंटी से लड़की से मिलने देने को क्यों नहीं कहता… ये पुरातनपंथी मानने वाले नहीं…’’

‘‘अरे कुछ ही दिनों की बात है. रहने देते हैं न उन्हें सुख से अपने संस्कारों में, अपनी मान्यताओं में. 15 को तो मिल ही लूंगा…’’

‘‘पसंद न आई तो?’’ सिकंदर अभी भी नहीं पचा पा रहा था कि प्रख्यात बिना देखे शादी के लिए कैसे मान रहा है.

‘‘अरे घर वाले ही हैं अच्छा ही सोचा होगा,’’ कह प्रख्यात मुसकराया.

‘‘फिर भी… कमाल है तू… हद ही है… अच्छा सुन अगले सोमवार कर लेते हैं शादी… वह कह रही थी कि हम सीधा कोर्ट आ जाएंगे… तू वहां का सब संभाल लेना. तेरे दोस्त वहां हैं न. फिर घर जा कर सब का आशीर्वाद ले लेंगे. उन्हें देना ही पड़ेगा घर वाले जो हैं,’’ वह प्रख्यात की बात दोहराते हुए हंसा था.

‘‘कमाल है, तू उलटापलटा काम करेगा और मेरी नकल उतारेगा… मैं इन बातों में साथ नहीं देने वाला… आंटीअंकल से मु झे डांट नहीं खानी… मेरा रैपो क्यों खराब करना चाहता है?’’

‘‘अबे यार उस की दोस्त सखी तो उस की मदद को साथ आ रही है,’’ सिकंदर बोला.

‘‘दोस्तसखी एक ही बात है. नाम नहीं कह सकता?’’

‘‘यही नाम मालूम है मु झे. वह हमारी शादी तक में सब संभाल लेगी. उस के बाद काम तेरा, तू कैसा दोस्त है यार… अच्छा चल किसी दोस्त को ही बोल दे वहां सब तैयारी रखे.’’

‘‘अरे यार आंटी से बात करने दे. ऐसे बिलकुल ठीक नहीं लगता,’’ प्रख्यात फिर हिचकिचाया.

‘‘अरे तब तो वे बिलकुल नहीं होने देंगी. दादी की सारी मान्यताएं उन्हें सिर ओढ़नी हैं… मान ले मेरा कहा यार… लड़के की तरफ से विटनैस तो तू ही होगा वरना मैं तेरी सगाई में नहीं आऊंगा सम झ ले,’’ वह छोटे बच्चे की तरह रूठ कर बोला तो प्रख्यात हंस दिया.

‘‘चल डन. तू मिला न मिला अपनी से मु झे बट मैं तु झे आज ही मिला दूंगा. शाम को 7 बजे क्वालिटी में. अभी उस से बात करता हूं… हम रोज ही मिलते हैं. तेरा बता देता हूं कि आज तू भी साथ होगा.’’

शाम को प्रख्यात मिला तो सुदीपा के व्यवहार से काफी इंप्रैस हुआ. फिर सोचने लगा कि हां फिट बैठेगी इस के घर में पर इस फंटूश को कैसे पसंद कर लिया इस ने. पर फिर थोड़ी देर में ही उसे पता चल गया कि आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है.

‘‘भाई प्लीज, आप हमारी शादी में हमारे साथ रहना, गवाह बनना कोर्ट में… बहुत डर लग रहा है. मांपापा की मरजी के बिना कभी कोई काम नहीं किया. मेरी दोस्त भी आएगी… उसी ने तो मु झे हिम्मत दिलाई है. बड़ी दिलेर है. किसी भी बात का उसे डर नहीं. एकदम बिंदास है. आप मिलना उस से, हम ग्रैजुएशन से दोस्त हैं… आप अपने दोस्त को वहां बोल देना सारी तैयारी, औपचारिकताएं पूरी रखे. मांपापा पहले तो नहीं मान रहे पर यकीन है बाद में मान जाएंगे,’’ सुदीपा बोली.

सुदीपा की मासूमियत भरी अनुनय देख कर प्रख्यात पिघल गया, ‘‘ओके फिर… आना ही पड़ेगा विवाह में, लड़के वाला जो बन रहा हूं…’’

वे सब रैस्टोरैंट से बाहर निकल आए.

सुदीपा की दोस्त सखी की बात सुन कर प्रख्यात को लाली फिर याद हो आई. वह भीतो ऐसी ही दबंग थी. कभी डेस्क में ब्लेड खोंस कर, चलती क्लास में बाजा बजाती. टीचर चिल्लाती कि कौन बजा रहा है, पर उस के डर से कोई नहीं बताता. शांति छा जाती. कभी पूरी क्लास की छुट्टी कराने का मन हो तो उस के निर्देश पर सभी किताब न लाने का बहाना बताते. पूरी क्लास को बैंचों पर खड़े रहने की सजा दे कर मैडम चली जातीं. बस पढ़ाई बंद और सीढ़ीनुमा क्लास की बैंचों पर चुपकेचुपके पकड़मपकड़म के मजे शुरू… कई दिनों से न जाने क्यों बारबार उस अनोखी शैतान की याद आ रही है. जिस के पल्ले पड़ी होगी उस का भला हो.

कोर्ट पहुंच कर प्रख्यात अचरज में था. सुदीपा को जींसटौप के

ऊपर ही चुन्नी ओढ़ा कर उस की दोस्त माथा ढकी साथ बैठी थी. सिकंदर भी सिंपल जींसटीशर्ट में था.

‘‘अरे यार तेरी शेरवानी कहां गई जो तूने उस दिन ली थी? मेरे साथ आज पहनी

क्यों नहीं?’’

‘‘लास्ट मोमैंट पर सखी ने तय किया.

मना किया कि बहुत खूबसूरत है ड्रैस पर कौन देख रहा है यहां, उस पर यह गरमी में क्या

तुक है भई… पक्की बात है दोनों के पेरैंट्स दोबारा धूमधाम से शादी करेंगे ही तब पहनना बेकार अभी वेस्ट क्यों करना. इसे ब्यूटीपार्लर

भी न जाने दिया. न दुलहन सी ड्रैसिंग करने दी कि यहां से सीधा कोर्ट जाना है. हमें भी लगा सही है.’’

‘‘तो मैं ही उल्लू बन गया, जो सूट कर आया हूं,’’ प्रख्यात पूरे सूट में था. न जाने क्यों उस ने कोर्ट में भी बाहर जूते उतारे और पास ही कुरसी पर बैठ गया. सब में तेज खिलखिलहट

जो उभरी थी वह सखी की ही थी, ‘‘नमस्ते’’.

मगर प्रख्यात खिसयाया सा नजरें नहीं

मिला पाया. न ही चेहरा ठीक से देख पाया

उस का. फिर एक ओर देखते हुए उस ने जवाब दिया, ‘‘नमस्ते.’’

फिर चोरी से देखना भी चाहा पर दिखी नहीं. न जाने कहां गायब हो गई.

थोड़ी देर बाद ही कैमरा चेहरे पर चढ़ाए फोटोशूट करती हुई नजर आई. प्रख्यात को उस का चेहरा अब और भी नहीं दिख रहा था.

‘‘जल्दी शुरू करो.’’

ज्यादा समय नहीं लगा, 1 घंटे में विवाह के सारे दस्तावेज, प्रमाणपत्र ले लिए गए. बधाई दे कर गले मिलने के बाद जब सब चलने को हुए तो कोर्ट के कमरे के बाहर से प्रख्यात के चमकते जूते गायब थे. सखी हैलमेट पहन अपनी स्कूटी स्टार्ट कर चुकी थी. अगेन कौंग्रैट्स सुदी सिक… मतलब सिकंदर भाई, मैं चली ड्यूटी बाय. थोड़ा ढूंढ़ो तुम. मिल जाएंगे… कोर्ट में सभी रिकौर्ड लेने में अभी बहुत टाइम है. थोड़ी मेहनत करो,’’ हंसते हुए वह फुर्र से निकल गई. रिम िझम बारिश होने लगी थी.

‘‘हैलो,’’ सुदीपा ने उस का फोन उठाया. सखी का ही था.

‘‘सुदीपा जरा दोनों से क्वहजारहजार जूता चुराई के मेरे वसूल लो फिर बताती हूं कहां छिपाए हैं… नो चीटिंग… पैसे दो जूते लो.’’

‘‘ओह तो यह कारगुजारी करने के लिए गायब हुई थी मैडम. अभी साली बन गई कोर्ट में ही,’’ सुदीपा हंसी.

‘‘तो अब दोनों नेग देने को भी तैयार हो जाओ. पैसे दे दो जूते ले लो. निकालिए आप हजारहजार रुपए.’’

‘‘वकील साहब हलकी फुहार में भी हैरानपरेशान पसीने से तर हो रहे थे. उन्हें अगले किसी मामले की तैयारी पर पहुंचने की जल्दी जो थी. वे उतावले थे जाने को. बारबार कहे जा रहे थे, ‘‘भैया पहले मु झे छोड़ दो 33 सैक्टर… देर हो रही है. वहां समय से क्लाइंट से मकान की राजस्ट्री के कागज तैयार कराने न पहुंचा तो मेरा नुकसान हो जाएगा.’’

आगे पढ़ें- अरे रुकिए तो वकील साहब. मेरे जूते…

दूसरी औरत : अब्बू की जिंदगी में कौन थी वो औरत

मैं मोटरसाइकिल ले कर बाहर खड़ा था. अम्मी अंदर पीर साहब के पास थीं. वहां लोगों की भीड़ लगी थी.

भीतर जाने से पहले अम्मी ने मुझ से भी कहा था, ‘आदिल बेटा, अंदर चलो.’ ‘मुझे ऐसी फालतू बातों पर भरोसा नहीं है,’ मैं ने तल्खी के साथ कहा था.

‘ऐसा नहीं कहते बेटा,’ कह कर अम्मी पर्स साथ ले कर अंदर चली गई थीं. न जाने बाबाबैरागियों के पीछे ये नासमझ लोग क्यों भागते हैं? मैं देख रहा था कि कोई नारियल तो कोई मिठाई ले कर वहां आया हुआ था. पिछले जुमे पर भी जब अम्मी यहां आई थीं, तो 5 सौ रुपए दे कर अपना नंबर लगा गई थीं. फोन से ही आज का समय मिला था, तो वे मुझे साथ ले कर आ गई थीं. मैं घर का सब से छोटा हूं, इसलिए सब के लिए आसानी से मुहैया रहता हूं. मैं ने अम्मी को कई बार समझाया भी था, लेकिन वे मानने को तैयार नहीं थीं. यह बात आईने की तरह साफ थी कि पिछले 2-3 सालों में हमारे घर की हालत बहुत खराब हो गई थी. इस के पहले सब ठीकठाक था.

मेरे अब्बा सरकारी ड्राइवर थे और न जाने कहां का शौक लगा तो एक आटोरिकशा खरीद लिया और उसे किराए पर दे दिया. कुछ आमदनी होने लगी, तो बैंक से कर्ज ले कर 2-3 आटोरिकशा और ले लिए और उसी हिसाब से आमदनी बढ़ गई थी. अब्बा घर में मिठाई, फल लाने लगे थे. 1-2 दिन छोड़ कर चिकन बिरयानी या नौनवेज बनने लगा था. फ्रिज में तो हमेशा फल भरे ही रहते थे. अम्मी के लिए चांदी के जेवर बन गए थे और फिर हाथ के कंगन. गले में सोने की माला आ गई थी. मेरी पढ़ाई के लिए अलग से कोचिंग क्लास लगा दी गई थी. मेरी बड़ी बहन यानी अप्पी भी हमारे शहर में ही ब्याही गई थीं. उन की ससुराल में अम्मी कभी भी खाली हाथ नहीं जाती थीं. बड़ी अप्पी के बच्चे तो नानानानी का मानो इंतजार ही करते रहते थे.

फिर अब्बा परेशान रहने लगे. वे किसी से कुछ बात नहीं कहते थे. मुझे कभी कपड़ों की या कोचिंग के लिए फीस की जरूरत होती, तो वे झिड़क देते थे, ‘कब तक मांगोगे? इतने बड़े हो गए हो. खुद कमओ…’

अब्बा के मुंह से कड़वी बातें निकलने लगी थीं. नए कपड़े दिलाना बंद हो गया था. अम्मी अब बड़ी अप्पी के यहां खाली हाथ ही जाने लगी थीं. अम्मी घरखर्च के लिए 3-4 बार कहतीं, तब अब्बा रुपए निकाल कर देते थे. आखिर ऐसा क्यों हो रहा था? अम्मी कहतीं कि घर पर किसी की नजर लग गई या किसी शैतान का बुरा साया घर में आ गया है. हद तो तब हो गई, जब अब्बा ने अम्मी से सोने के कड़े उतरवा कर बेच दिए और जो रुपए आए उस का क्या किया, पता नहीं? अम्मी को भरोसा हो गया था कि कुछ न कुछ गलत हो रहा है. वे मौलाना से पानी फुंकवा कर ले आईं, कुछ तावीज भी बनवा लिए. अब्बा के तकिए के नीचे दबा दिए, लेकिन परेशानियां दूर नहीं हुईं. एक दिन शाम को अम्मी ने एक पीर साहब को बुलवाया. वे पूरा घर घूम कर कहने लगे, ‘कोई बुरी शै है.’

इसे दूर करने के लिए पीर साहब ने 2 हजार रुपए मांगे. अम्मी ने जो रुपए जोड़ कर रखे थे, वे निकाल कर दे दिए और तावीज ले लिया. घर में पानी का छिड़काव कर दिया. दरवाजों के बीच में सूइयां ठुंकवा लीं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. अब्बा ने अम्मी से चांदी के जेवर भी उतरवा लिए. अम्मी ने मना किया, तो बहुत झगड़ा हुआ. अब तो मुझे भी यकीन होने लगा था कि मामला गंभीर है, क्योंकि ऐसी खराब हालत हमारे परिवार की कभी नहीं हुई थी. अम्मी ने यह बात अपनी बहनों से भी की और कोई बहुत पहुंचे हुए पीर बाबा के बारे में मालूम किया. अम्मी ने पिछले जुमे को पैसा दे कर अपना नंबर लगवा लिया था.

मैं अपनी यादों से लौट आया. मैं ने घड़ी में देखा. रात के 9 बज रहे थे. तभी देखा कि अम्मी बाहर बदहवास से आ रही थीं. मैं घबरा गया और पूछा, ‘‘क्या बात है अम्मी?’’ ‘‘कुछ नहीं बेटा, घर चल,’’ घबराई सी आवाज में अम्मी ने कहा और कहतेकहते उन का गला भर आया.

‘‘आखिर माजरा क्या है? पीर साहब ने कुछ कहा क्या?’’ मैं ने जोर दे कर पूछा.

‘‘तू घर चल, बस… अम्मी ने गुस्से में कहा.

बड़ी अप्पी घर पर आई हुई थीं. अम्मी तो अंदर आते ही अप्पी के गले लग कर रोने लगीं. आखिर दिल भर रो लेने के बाद अम्मी ने आंसुओं को पोंछा और कहा, ‘‘मैं जो सोच रही थी, वह सच था.’’

‘‘क्या सोच रही थीं? कुछ साफसाफ तो बताओ,’’ बड़ी अप्पी ने पूछा.

‘‘क्या बताऊं? हम तो बरबाद हो गए. पीर साहब ने साफसाफ बताया है कि इन की जिंदगी में दूसरी औरत है, जिस की वजह से यह बरबादी हो रही है…’’ अम्मी जोर से रो रही थीं. मैं ने सुना, तो मैं भी हैरान रह गया. अब्बा ऐसे लगते तो नहीं हैं. लेकिन फिर हम बरबाद क्यों हो गए? इतने रुपए आखिर जा कहां रहे हैं?

अम्मी को अप्पी ने रोने से मना किया और कहा, ‘‘अब्बा आज आएंगे, तो बात कर लेंगे.’’ हम सब ने आज सोच लिया था कि अब्बा को घर की बरबादी की पूरी दास्तां बताएंगे और पूछेंगे कि आखिर वे चाहते क्या हैं? रात के तकरीबन साढ़े 10 बजे अब्बा परेशान से घर में आए. वे अपने कमरे में गए, तो अम्मी वहीं पर पहुंच गईं. अब्बा ने उन्हें देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है बेगम, बहुत खामोश हो?’’

अम्मी चुप रहीं, तो अब्बा ने दोबारा कहा, ‘‘कोई खास बात है क्या?’’

‘‘जी हां, खास बात है. आप से कुछ बात करनी है,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘कहो, क्या बात है?’’

‘‘हमारे घर के हालात पिछले 2 सालों से बद से बदतर होते जा रहे हैं, इस पर आप ने कभी गौर किया है?’’ ‘‘मैं जानता हूं, लेकिन कुछ मजबूरी है. 1-2 महीने में सब ठीक हो जाएगा,’’ अब्बा ने ठंडी सांस खींच कर कहा. ‘‘बिलकुल ठीक नहीं होगा, आप यह जान लें, बल्कि आप हमें भिखारी बना कर ही छोड़ेंगे,’’ अम्मी की आवाज बेकाबू हो रही थी. हम दरवाजे की ओट में आ कर खड़े हो गए थे, ताकि कोई ऊंचनीच हो, तो हम अम्मी की ओर से खड़े हो सकें.

‘‘ऐसा नहीं कहते बेगम.’’

‘‘क्यों? क्या कोई कसर छोड़ रहे हैं आप? आप को एक बार भी अपने बीवीबच्चों का खयाल नहीं आया कि हम पर क्या गुजरेगी,’’ कह कर अम्मी रोने लगी थीं.

‘‘मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि हम इन बुरे दिनों से पार निकल जाएं.’’ ‘‘लेकिन निकल नहीं पा रहे, यही न? उस औरत ने आप को जकड़ लिया है,’’ अम्मी ने अपनी नाराजगी जाहिर कर तकरीबन चीखते हुए कहा.

‘‘खामोश रहो. तुम्हारे मुंह से ऐसी बेहूदा बातें अच्छी नहीं लगतीं.’’

‘‘क्यों… मैं सब सच कह रही हूं, इसलिए?’’

‘‘कह तो तुम सच रही हो, लेकिन बेगम मैं क्या करूं? पानी को कितना भी तलवार से काटो, वह कटता नहीं है,’’ अब्बा ने अपना नजरिया रखा.

‘‘आज आप फैसला कर लें.’’

‘‘कैसा फैसला?’’ अब्बा ने हैरत से सवाल किया.

‘‘आखिर आप चाहते क्या हैं? उस औरत के साथ रहना चाहते हैं या हमारे साथ जिंदगी बसर करना चाहते हैं?’’ अम्मी ने गुस्से में कहा.

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? साफसाफ कहो?’’ अब्बा भी नाराज होने लगे थे.

‘‘मैं आज बड़े पीर साहब के पास गई थी. उन्होंने मुझे सब बता दिया है,’’ अम्मी ने राज खोलते हुए कहा.

‘‘क्या सब बता दिया है?’’ अब्बा ने हैरत से सवाल किया.

‘‘आप किसी दूसरी औरत के चक्कर में सबकुछ बरबाद कर रहे हैं. लानत है…’’ अम्मी ने गुस्से में कहा.

‘‘चुप रहो. जानती हो कि वह दूसरी दूसरी औरत कौन है?’’ अब्बा ने गुस्से में कांपते हुए कहा.

‘‘कौन है?’’ अम्मी ने भी उतनी ही तेजी से ऊंची आवाज में पूछा.

‘‘तुम्हारी ननद है, मेरी बड़ी बहन. उस की मेहनत की वजह से ही मैं पढ़ाई कर पाया और अपने पैरों पर खड़ा हो सका और उस की एक छोटी सी गलती की वजह से हमारे पूरे परिवार ने उसे अपने से अलग कर दिया था, क्योंकि उस ने अपनी मरजी से शादी की थी. ‘‘मुझे पिछले एक साल पहले ही मालूम पड़ा कि उस के पति को कैंसर है, जिस की कीमोथैरैपी और इलाज के लिए उसे रुपयों की जरूरत थी. उस के बच्चे भी ऊंचे दर्जे में पढ़ रहे थे. उन्होंने तो तय किया था इलाज नहीं कराएंगी, लेकिन जैसे ही मुझे खबर लगी, तो मैं ने इलाज और पढ़ाई की जिम्मेदारी ले ली, ताकि वह परिवार बरबाद होने से बच सके. ‘‘मेरी बहन के हमारे सिर पर बहुत एहसान हैं. अगर मुझे जान दे कर भी वे एहसान चुकाने पड़ें, तो मैं ऐसा खुशीखुशी कर सकता हूं,’’ कहतेकहते अब्बा जोर से रो पड़े. अम्मी हैरान सी सब देखतीसुनती रहीं.

‘‘मुझ से कैसा बड़ा गुनाह हो गया,’’ अम्मी बड़बड़ाईं. हम भी दरवाजे की ओट से बाहर निकले और अब्बा के गले से लिपट गए. ‘‘अब्बा, हमें माफ कर दो. अगर हमें  और भी मुसीबतें झेलना पड़ीं, तो हम झेल लेंगे, लेकिन आप उन्हें बचा लें,’’ मैं ने कहा. अब्बा ने आंसू पोंछे और कहा, ‘आदिल बेटा, उन का पूरा इलाज हो गया है. वे ठीक हो गए हैं और भांजे को नौकरी भी लग गई है. ‘‘यह सब तुम लोगों की मदद की वजह से ही सब हो पाया. तुम लोग खामोश रहे और मैं उस परिवार की मदद कर के उन्हें जिंदा रख पाया,’’ अब्बा की आवाज में हम सब के प्रति शुक्रिया का भाव नजर आ रहा था. अम्मी ने शर्म के मारे नजरें नीची कर ली थीं. अब्बा ने कहा, ‘‘कल सुबह मेरी बहन यहां आने वाली हैं. अच्छा हुआ, जो सब बातें रात में ही साफ हो गईं.’’

‘‘हम सब कल उन का बढि़या से इस्तकबाल करेंगे, ताकि बरसों से वे हम से जो दूर रहीं, सारे गम भूल जाएं,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘क्यों नहीं,’’ अब्बा ने कहा, तो हम सब हंस दिए. रात में हमारी हंसी से लग रहा था, मानो रात घर में बिछ गई हो और खुशियों के सितारे उस में टंग गए हों.

एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 3- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

‘कहीं तुम्हारी पढ़ाई की फीस पर रोक लगाई तो?’ ममा चिंतित थी.

‘इतना भी न डरो. नानाजी का दिया 10 लाख रुपए तुम्हारे और मेरे नाम से जौइंट अकाउंट में है न ममा.’

‘हां, बस. अब डर की नहीं, हिम्मत की बात करूंगी,’ ममा की आंखों में विश्वास की ज्योति दिख रही थी मुझे.

जब उपयोगी शिक्षा हो, चाह हो, चेष्टा हो, प्रकृति की शक्ति साथ हो लेती है.

ममा को उस के दोस्त पल्लव ने अपने ही कालेज में इकोनौमिक्स के लैक्चरर के लिए बुला लिया.

रातोंरात ममा ने पैकिंग की, हमें खूब प्यार किया और भोपाल के लिए ट्रेन पकड़ने खंडवा स्टेशन जाने से पहले शायद आखरी बार के लिए पापा के पास गई.

घर में होते, तो पापा को इंटरनैट का एक ही प्रयोग आता था- चैटिंग और पोर्न फिल्मों का आदानप्रदान.

ममा के सामने खड़े होने के बावजूद उन्होंने फोन में अतिव्यस्तता दिखाते हुए लापरवाही से कहा, ‘कहो?’

सोचा ही नहीं था ममा कहेगी. लेकिन उस ने कहा, ‘मैं ने नौकरी ढूंढ ली है. इकोनौमिक्स में लैक्चरर का पद है. बाहर जाना है. अगर आप चाहें तो छुट्टी मिलने पर आ जाया करूंगी.’

पापा फोन छोड़ उठ बैठे थे, ‘मेरी नाक के नीचे यह क्या हो रहा है?’

‘यह नाक के ऊपर की बात है. आप नहीं समझेंगे. आप ने जितना समझा, या नहीं भी समझा, काफी है. आप ने जो इज्जत और प्यार दिया उस के तो क्या ही कहने. अब नौकरी करना ही आखरी विकल्प है.’

‘ऐसा? तुम कभी लौट कर आ नहीं पाओगी, समझ रही हो न? बच्चों से मिलना तो आसमानी ख्वाब ही समझ लो.’ शायद पापा को गुलामी करवाना पसंद था, इसलिए एक गुलाम को किसी भी कीमत पर रोकना चाहते थे, पूरी ठसक के साथ.

‘सब जानती हूं. आप को समझना बाकी नहीं रहा.’

‘कहां चली? जगह कौन सी है?’

खोजखबर रखने की मंशा साफ झलक रही थी. हम दोनों मांबेटी पापा की रगरग पहचानते थे.

‘क्यों, क्या करेंगे जान कर जब कोई मतलब रखना ही नहीं है,’

‘घटिया स्वार्थी औरत, तुम्हें अपने बच्चों की भी फिक्र नहीं.’

‘क्यों? बच्चे अपने पापा के पास हैं, अपने दादा के घर में, जिन पर उन का भी पूरा हक है. आप कहना क्या चाहते हैं कि मेरे जाते ही आप उन पर अत्याचार करेंगे? उन्हें खाना नहीं देंगे? उन की पढ़ाई की फीस नहीं भरेंगे? पलपल पर नजर रखूंगी मैं. उन्हें जरा भी तकलीफ़ हुई, तो आप की भली प्रकार खबर लूंगी.’

पापा क्रोध से लाल हो गए थे. अब तक उन की जूती में दबी पत्नी उन की तौहीन कर रही थी और वे चाह कर भी अपना राक्षसी रूप नहीं दिखा पा रहे थे. खूंखार आदमी तब डराता है जब सामने वाला डरने के लिए तैयार हो या मजबूरी में बंधा हो.

हम भाईबहनों को आज पहली बार अपनी इज्जत वापस मिली महसूस हो रही थी.

ममा निकल गई.

भोपाल जा कर ममा अच्छी तरह व्यवस्थित हो गई थी. पल्लव जी ने ममा को कालेज होस्टल में ही रहने का इंतजाम कर दिया था.

ममा रोज रात को हमारी खबर लेती, वीडियो कौल करती. उस ने अपने कालेज और होस्टल का पता दे दिया था और हम हमारी परीक्षाएं समाप्त होने तक दोगुनी गति से पढ़ाई कर रहे थे.

पापा अपनी ही रौ में थे. वही, ममा को ले कर हमें खिझाना, व्यंग्य कसना, घर में कई तरह की औरतों को ला कर मौजमस्ती करना, देररात घर आना. यह अध्याय हमारे लिए बहुत दुखदाई था. बेसब्री से अपनी परीक्षाएं ख़त्म होने का हम इंतजार कर रहे थे.

आखिर इंतजार ख़त्म हुआ. अगर इस बारे में हम पापा से बात करते तो वे हम से ऐसी सख्ती करते कि शायद दोनों भाईबहन ही अलग कर दिए जाते. बिना मुरव्वत के हमारे साथ कुछ भी हो सकता था अगर उन्हें हमारी मंशा पता चलती.

तो, पापा के औफिस जाते ही हम भोपाल की उपलब्ध ट्रेन में बैठ गए. इस के लिए हमें बड़ी जुगत लगानी पड़ी. हम ने अपने साथ वे सामान रख लिए थे जिन से इस घर में जल्द वापस आए बिना हमारा काम चल जाए. ममा को हम ने इत्तला कर दिया था.

शाम 5 बजे हम ममा के होस्टल के दरवाजे पर थे. पर यहां, यह क्या, दरवाजे पर बड़ा सा ताला? नसों में हमारा खून जम सा गया. भाई घबरा गया था. उस की रोनी सूरत देख मेरा भी दिल बैठ गया. हम तो पापा को बिना बताए आ गए थे. कहीं ममा नहीं मिली तो? इतने बड़े शहर में हम दोनों रात कैसे बिताएंगे? फिर पापा के पास वापस जाना… मैं ने ममा को फोन लगाया. दो बार, तीन बार… लगातार बजती रही घंटी. शाम का डूबता सा सूरज हमें डराने लगा. भाई और हम एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे. दिमाग को डर के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था.

अचानक सामने से एक लड़की को आते देखा. होगी कोई 16-17 साल की.

रेगिस्तान में जैसे जल का सोता. काश, इसे ही कुछ मालूम हो. पर ऐसा क्यों होगा भला. दुखी और निराश मन से हम उस लड़की को देख रहे थे और वह हमारे पास आ कर खड़ी हो गई.

‘मुझे आप की मां ने भेजा है. उधर औटो खड़ा है, आप लोग मेरे साथ चलिए.’

हमारे हाथों में चांदतारे आ गए थे.

मैं ने फिर भी उस से कुछ पूछना चाहा, तब तक लड़की ने कहा- ‘मैडम से यह लीजिए बात कर लीजिए,’ उस ने फोन लगा कर मुझे दिया.

‘ममा,’ मेरी टूटी हुई आवाज के बावजूद ममा ने जल्दीबाजी में कहा- ‘तुम लोग आओ पहले, फिर सब बताती हूं. तुम्हें जो ला रही है वह शुभा है, बहुत अच्छी है, बेटी जैसी. मिलते हैं.’

यह दोमंजिला बंगलानुमा बड़ा सा मकान था. अगलबगल 2 दरवाजे थे. बड़ा दरवाजा गैरेज के सामने खुलता था. मध्यम आकार का यह दरवाजा, जिस से हम अपने 2 सूटकेस के साथ अंदर आए थे, मकान के बरामदे के सामने था. गेट की सीध में पत्थर की बंधी सड़क थी, दोनों ओर फूलों के पेड़पौधे थे. हम इन्हें बाजू में छोड़ते हुए मकान के बरामदे पर स्थित दरवाजे की ओर बढ़ रहे थे.

ममा से मिलने की अथाह उछाह में डूबते सूरज की सुरमई शाम ने अनिश्चित का जराजरा सा कंपन भर दिया था. मगर विश्वास का संबल भी साथ ही था.

आगे पढें- अब तक ममा बाहर आ गई थी. पूरे…

जानें पैदल चलने का सही तरीका क्या है

लेखिका- दीप्ति गुप्ता

वॉक करना यानि पैदल चलना एक शानदार एरोबिक एक्सरसाइज है और आपके मेटाबॉलिज्म को शुरू करने के लिए एक अच्छा तरीका है. बावजूद इसके कई लोग आजकल पैदल चलने से बचते हैं. थोड़ी दूरी तक भी जाना हो, तो समय बचाने के लिए टू या फोर व्हीलर का इस्तेमाल कर लेते हैं. जो गलत है. जर्नल मेडिसिन इन साइंस एंड स्पोट्र्स एंड एक्सरसाइज के अनुसार, पैदल चलने से पुरानी से पुरानी बीमारी को दूर करने में मदद मिलती है. अगर आप भी अक्सर एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए लिफ्ट या फिर व्हीकल का इस्तेमाल करते हैं, तो जरा पैदल चलने के फायदों के बारे में जान लीजिए. इसके तमाम फायदों के बारे में जानने के बाद आप पैदल चलने की कोशिश जरूर करेंगे.

पैदल चलने का सही तरीका क्या है-

पैदल तो हर कोई चल सकता है, लेकिन इसका भी एक विशेष तरीका होता है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. अगर आप बहुत ज्यादा फिजिकली एक्टिव नहीं रहते , तो आपको पैदल चलने की शुरूआत 10 मिनट से करनी चाहिए. हर दिन अपनी वॉकिंग एक-एक मिनट बढ़ाते जाएं. इस तरह का अभ्यास आपको तब तक करना है, जब तक आपके पैदल चलने का समय 120 मिनट न हो जाए. जब 110 दिन बाद आपकी वॉकिंग कैपेसिटी 120 मिनट की हो चुकी हो, उस वक्त आप एक घंटा मॉर्निंग वॉक कर रहे होंगे और एक घंटा ईवनिंग वॉक कर रहे होंगे. यहां 120 मिनट का मतलब है, कि एक व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए कम से कम इतने मिनट तो पैदल चलना ही चाहिए. इंटरनेशनल स्टैंडर्ड के अनुसार, एक व्यक्ति को 10 हजार कदम रोजाना पैदल चलना चाहिए.

पैदल चलने के फायदे –

वजन घटाए- पैदल चलना कैलोरी जलाने और वजन कम करने का एक प्रभावी तरीका है. रोजाना 30 मिनट तक पैदल चलने से वजन घटाने में बहुत मदद मिलती है, साथ ही आपका स्वास्थ्य भी ठीक बना रहता है.

दिल को रखे दुरूस्त- 

पैदल चलने से दिल के स्वास्थ्य में सुधार होता है. कई अध्ययनों से यह भी पता चला है कि पैदल चलने से हदय संबंधी घटनाओं का जोखिम 31 प्रतिशत तक कम हो सकता है. अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के अनुसार हर वयस्क को सप्ताह में पांच दिन कम से कम 30 मिनट तक तेज चलना चाहिए.

ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करे- 

बेशक आपको पैदल चलने में आलस आता हो, लेकिन अपने बीपी को रेगुलेट करने के लिए आपको हर दिन वॉक करनी ही चाहिए. यह वॉक आप मार्केट जाते समय कर सकते हैं या ऑफिस में भी कर सकते हैं. हर दिन 10 हजार कदम चलने से रक्तचाप में गिरावट आती है और स्टेमिना भी बढ़ता है.

जोड़ों को मजबूत बनाए-

नियमित रूप से पैदल चलने या वॉक करने से जोड़ों के बीच चिकनाई में सुधार होता है साथ ही यह मांसपेशियों को मजबूत करने का काम करती  है. जिन लोगों को अक्सर घुटनों में दर्द रहता है, उनके लिए पैदल चलना बहुत फायदेमंद है. इससे पुरानी से पुरानी ऑस्टियोआर्थराइटिस की समस्या बहुत जल्दी खत्म हो जाती है.

फेफड़ों की क्षमता बढ़ाए-

रोजाना किसी न किसी रूप में पैदल चलने से आपके फेफड़ों की क्षमता बढ़ सकती है. दरअसल, जब आप चलते हैं, तो आप अधिक मात्रा में ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं. अधिक मात्रा में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का यह आदान प्रदान आपके फेफड़ों के लिए बेहद फायदेमंद साबित होता है.

स्ट्रेस दूर करे- 

आप मानें या ना मानें, लेकिन हर दिन वॉक करने से आपका खराब मूड भी अच्छा हो जाता है. कई अध्ययनों में यह साबित हुआ है कि फिजिकल एक्टिविटी अवसाद को रोकने में मदद कर सकती है. इतना ही नहीं पैदल चलने से परिसंचरण में सुधार होता है, जिससे तनाव को कम करने में मदद मिलती है.

पैदल चलने के लिए टिप्स-

– यदि आप अभी-अभी पैदल चलना शुरू कर रहे हैं, तो शुरूआत में आप बहुत ज्यादा लंबी दूरी तक न चलें.

– हर दिन 10 मिनट तक चलने की कोशिश करें. धीरे-धीरे इस अवधि को बढ़ाकर 30 मिनट प्रतिदिन करें. फिर आप सुबह 30 मिनट और शाम को भी 30 मिनट पैदल चल सकते हैं.

पैदल चलना एक अच्छा शारीरिक व्यायाम है, तो बेहतरीन स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है. लेकिन, पैदल चलने से पहले और बाद में वॉर्म अप और कूल डाउन एक्सरसाइज जरूर करें.

ऑडिट: कौनसे इल्जामों में फंस गई थी महिमा

औफिस का छोटा लेकिन सुव्यवस्थित चैंबर. ग्लासडोर से अंदर का नजारा साफ दिखता था. टेबल पर रखे लैपटौप पर काम करती महिमा आज नीली साड़ी में काफी आकर्षक लग रही थी. महिमा हमेशा की तरह समय पर औफिस पहुंच गई थी.

विभाग के विभिन्न कार्यालयों में होने वाले औडिट से संबंधित शैड्यूल का मेल देखते ही राजस्व अधिकारी महिमा ने अपने पूरे स्टाफ को चैंबर में बुला लिया.

‘‘इस महीने की 20 तारीख को हमारे औफिस में औडिट पार्टी आएगी जो 22 तक रहेगी. आप लोग अपनेअपने सैक्शन से जुड़े हुए सभी डौक्यूमैंट्स कंपलीट कर लें. ध्यान रखिए कि किसी भी फाइल या रजिस्टर में औडिट पैरा बनने की नौबत न आए. हर एंट्री सही होनी चाहिए,’’ महिमा ने सब को निर्देश दिए.

‘‘विमलजी, संस्थापन शाखा के इंचार्ज होने के नाते आप की जिम्मेदारी सब से अधिक है और काम भी. सब से ज्यादा औब्जैक्शन इन्हीं फाइलों में लगते हैं. इसलिए आप विशेष ध्यान रखिएगा,’’ महिमा ने विमलजी को अलग से हिदायत दी.

‘‘मैडम, औडिट पार्टी को खुश करने का जिम्मा राकेशजी को दे दीजिए. उन्हें औफिस में औडिट करवाने का बरसों का अनुभव है. पहले भी वही ये सब काम करवाते आए हैं. कभी कोई औडिट पैरा नहीं बना,’’ विमल ने महिमा को सलाह दी.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं. इस में राकेशजी क्या करेंगे? वे तो किसी सैक्शन के इंचार्ज भी नहीं हैं,’’ महिमा के माथे पर सिलवटें उभर आईं.

‘‘आप अभी नई हैं न, नहीं समझेंगी कि औडिट कैसे करवाया जाता है. मैं राकेशजी को भेजता हूं, वे आप को सबकुछ समझा देंगे.’’ विमल तो यह कह कर चैंबर से निकल गया लेकिन महिमा के लिए कई सारे प्रश्न छोड़ गया.

महिमा 2 साल पहले ही दिल्ली के इस औफिस में ट्रांसफर हो कर आई है. भोपाल शहर में पलीबढ़ी थी वह. स्कूल के बाद कालेज में हर ऐक्टिविटी में आगे रहती. अपनी बात कहने में वह कभी पीछे नहीं रही थी. उस का यही आत्मविश्वास उसे और भी आकर्षक बनाता था. यहां इसे राजस्व अधिकारी का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है. इस से पहले वह उच्च अधिकारी की अधीनस्थ थी, इसलिए यह औडिट वाला काम कभी उस के जिम्मे नहीं आया था. अलबत्ता अनुभव की उस के पास कमी नहीं थी. 35 वर्ष की हो चुकी थी वह. इस बार पहली दफा उसे स्वतंत्ररूप से अपने औफिस का औडिट करवाना था.

‘‘जी मैडम, आदेश करें,’’ राकेश ने बहुत ही विनम्रता से हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘राकेशजी, औफिस में औडिट होने वाला है. मैं ने सुना है कि आप को औडिट करवाने का बहुत अनुभव है. आप के निर्देशन में औडिट हो तो कभी कोई औडिट पैरा नहीं बनता.’’ महिमा ने राकेश को पढ़ने की कोशिश की.

‘‘अरे मैडम, यह तो इन सब का प्रेम है वरना मैं तो बस अपनी ड्यूटी निभाता हूं. आखिर यह औफिस मेरा भी तो है,’’ राकेश विनम्रता से कुछ और झुक आया.

‘‘तो ठीक है, करवाइए औडिट. मैं भी आप की कुशलता देखना चाहती हूं,’’ महिमा उसे निर्देश दे कर टेबल पर रखी फाइलें देखने लगी. राकेश कुछ देर तो खड़ा रहा, फिर चैंबर से बाहर चला गया.

लगभग 40 के आसपास होगा राकेश. आंखों पर काले फ्रेम का चश्मा. माथे की त्योरियां उसे गंभीर बनाती थीं. बातें नापतौल कर करता था. अच्छी तरह से प्रैस की हुई सफेद कमीज उस पर फब रही थी.

‘‘मैडम, औडिट पार्टी के ठहरने, खानेपीने और घूमनेफिरने पर कुल मिला कर लगभग 10-12 हजार रुपए का खर्चा आएगा,’’ दूसरे दिन राकेश ने एक कागज पर लिखा हिसाब महिमा के सामने टेबल पर रख दिया. इतने रुपयों के खर्चे को सुन कर महिमा चौंक गई.

‘‘क्या बात कर रहे हैं, उन के ठहरने और खानेपीने का खर्चा भला हम क्यों करेंगे? क्या इस हैड में औफिस बजट का कोई अलग से प्रावधान है? मुझे तो याद नहीं आ रहा.’’ महिमा कुछ समझी नहीं थी.

‘‘अरे मैडम, ये सब तो नौर्मल बातें हैं. जिस औफिस का औडिट होता है, सारा खर्चा उसी को करना पड़ता है. क्या आप को सचमुच कुछ भी नहीं पता?’’ अब हैरान होने की बारी राकेश की थी.

‘‘नहीं, मैं सचमुच इस बारे में नहीं जानती. वैसे भी, इतने पैसों की व्यवस्था कहां से होगी?’’ महिमा ने अपनी शंका रखी.

‘‘अरे मैडमजी, मलाई वाली सीट पर बैठने वाले अधिकारी ही अगर इस तरह की बातें करेंगे तो फिर सूखी सीट वालों का क्या होगा,’’ राकेश ने उसे इशारों में समझाया.

महिमा ने वह कागज अपने पास रख कर राकेश को जाने के लिए कहा. महिमा ने देखा कि कागज में शहर के एक बड़े होटल में 2 कमरे, सुबह के नाश्ते से ले कर रात के खाने का खर्चा, एक दिन आसपास के दर्शनीय स्थान पर भ्रमण हेतु लक्जरी गाड़ी के साथसाथ होटल से औफिस लानेलेजाने के लिए गाड़ी आदि का ब्योरा लिखा था. यह सारी व्यवस्था 4 व्यक्तियों के लिए थी. देख कर महिमा का माथा घूम गया.

उस ने 2-3 दिन औडिट के सारे पहलुओं पर विचार किया. किसी भी फाइल में औब्जैक्शन लगने के बाद भविष्य में होने वाले पत्राचार और उस के बाद की मानसिक परेशानियों के बारे में भी विस्तार से सोचा. 1-2 अनुभवी अधिकारियों से भी परामर्श किया. हालांकि सब का इशारा इसी तरफ था कि राकेश की डील मान ली जाए लेकिन उस का मन उस का साथ नहीं दे रहा था.

‘‘जब मेरे रिकौर्ड में कोई कमी ही नहीं होगी तो फिर औडिट पैरा बनेगा कैसे?’’ उस का आत्मविश्वास अपने चरम पर था. अपना काम पूरी ईमानदारी से करती थी.

‘‘अरे मैडम, यह औडिट है. यहां पूरा हाथी निकलने के बाद भी उस की पूंछ कांटे में फंस सकती है,’’ अनुभवी लोगों का कहना था.

‘‘छोडि़ए न मैडमजी, आप तो यह गरमागरम चाय पी कर तरोताजा हो जाइए. याद रखेंगी शीतल के हाथ की बनी चाय को,’’ औफिस की लेडी प्यून ने एक कप चाय उस की टेबल पर रख दी तो महिमा मुसकरा उठी.

बेचारी शीतल, अभी कोई उम्र है उस की नौकरी करने की. अभी 20 की ही तो हुई है. लेकिन क्या करे. घर की सारी जिम्मेदारी भी तो उसी के कंधों पर आ गई. सच में, सिर पर पिता का हाथ होना बहुत जरूरी है. महिमा की सोच की सूई अब औडिट से हट कर शीतल की तरफ घूम गई. सलवारसूट पहने हुए शीतल को देख उसे तरस आ गया.

शीतल के पिताजी इसी औफिस में बाबू थे. सालभर पहले एक सड़क दुर्घटना में उन की मृत्यु होने के बाद इसे अनुकंपा के आधार पर यहां चपरासी की नौकरी मिल गई. हालांकि शीतल ने आगे की पढ़ाई जारी रखी हुई है ताकि उसे क्लर्क की पोस्ट मिल जाए लेकिन इन सब कामों में वक्त लगता है.

खूबसूरत, चुलबुली शीतल पूरे औफिस की लाड़ली है. सब उसे अपनी बेटी की तरह प्यार करते हैं. महिमा के भी खूब मुंह लगी है. महिमा चाय पीने लगी. चाय वाकई अच्छी बनी थी. अदरक का अलग स्वाद आ रहा था. उस का दिमाग एक बार फिर से राकेश के हिसाब में उलझ गया.

क्या होगा अगर औडिट में कोई औब्जैक्शन लगा भी तो. जवाब दे दिया जाएगा. यदि वह अपना काम ईमानदारी से कर रही है तो फिर उसे डरने की क्या जरूरत है. आखिर उस ने तय किया कि वह राकेश की इस डील को स्वीकार नहीं करेगी.

उस ने सभी सैक्शन अधिकारियों को निर्देश दिए कि हर एंट्री में पूरी सावधानी बरती जाए. पिछले वर्षों में हुए औडिट के औब्जैक्शन पढ़ कर उन्हें पहले ही दुरुस्त करने की हिदायत भी दी. वह खुद इन सब पर बराबर नजर रखे हुए थी. एक सप्ताह की मेहनत के बाद अब वह पूरी तरह से संतुष्ट थी. कहीं किसी कमी की गुंजाइश उसे नहीं लग रही थी.

‘‘मैडम, मैं औडिट पार्टी से उत्तम बोल रहा हूं. हमारी पार्टी कल सुबह 8 बजे  पहुंच जाएगी. आप स्टेशन पर गाड़ी भिजवा दीजिएगा,’’ महिमा के पास फोन आया.

‘‘आप टैक्सी या औटो ले लीजिए. हमारी गाड़ी तो कल सुबह जल्दी ही साइट पर निकलेगी,’’ महिमा ने दोटूक जवाब दिया. दूसरी तरफ कुछ देर के लिए शांति सी रही.

‘‘चलिए, कोई बात नहीं. आप होटल का ऐड्रेस मेरे नंबर पर व्हाट्सऐप कर दीजिए,’’ उत्तम ने आगे कहा.

‘‘होटल तो नहीं है. आप चाहें तो आप के रुकने की व्यवस्था औफिशियल गैस्टहाउस में करवा सकती हूं. बहुत ही नौर्मल रेट पर अच्छी सुविधा आप को मिल जाएगी,’’ महिमा ने कहा, तो दूसरी तरफ फिर से शांति छा गई.

‘‘धन्यवाद मैडम, आप कष्ट न करें. हम अपनी व्यवस्था देख लेंगे. आप अपनी देख लीजिएगा,’’ उत्तम ने धमकीभरे स्वर में कहा और फोन कट गया. महिमा मानसिक रूप से अपनेआप को औडिट के लिए तैयार करने लगी. उस ने राकेश, विमल सहित सभी कर्मचारियों को समय से औफिस पहुंचने के निर्देश दिए और स्वयं साइट पर जाने की तैयारी करने लगी. शीतल से भी आवश्यक रूप से पूरा समय औफिस में रुकने को कहा गया. उसे हिदायत थी कि वह मेहमानों को 2 समय चायपानी करवा दे.

सुबह ठीक साढ़े 9 बजे उत्तम अपनी टीम के साथ औफिस में मौजूद था. आते ही उस ने कर्मचारियों का हाजिरी रजिस्टर मांगा. महिमा को टूर पर देख कर उस का पारा चढ़ गया. शेष सभी कर्मचारी औफिस में उपस्थित थे. राकेश विनम्रता से झुका हुआ उस के सामने खड़ा था.

‘‘क्या बात है राकेशजी, मैडम नई हैं या उन के लिए यह काम नया है? बहुत अकड़ में रहती हैं,’’ उत्तम ने अपनी कड़वाहट राकेश पर उतारी.

‘‘यह सब नई फसल है साहब, धीरेधीरे सीख जाएंगी. आप तो अपना काम शुरू कीजिए. हम हैं न आप की सेवा में. आप मुझे आदेश कीजिए,’’ राकेश ने उत्तम को खुश करने की कोशिश की. फिर उस ने शीतल को आवाज लगाई, ‘‘अरे शीतल, चायपानी का इंतजाम करो, भई.’’ थोड़ी ही देर में शीतल मुसकराती हुई चाय के साथ समोसे भी ले आई. समोसे देख कर उत्तम का मूड कुछ ठीक हुआ.

‘‘हूं, मैडम को साइट पर जाने का बहुत शौक है न, चलो, औडिट की शुरुआत मैडम की गाड़ी की लौगबुक से ही करते हैं. राकेशजी, पिछले 2 वर्षों की लौगबुक मंगवा दीजिए,’’ उत्तम ने समोसे खा कर एक लंबी सी डकार मारी. शीतल लौगबुक ले आई. उत्तम उस की एकएक एंट्री को बड़े गौर के साथ चैक करने लगा. वह साथसाथ एक सादे कागज पर नोट्स भी बनाता जा रहा था.

लौगबुक के बाद उस ने स्टौक रजिस्टर, बजट का इस्तेमाल, हाजिरी रजिस्टर, फर्नीचर आदि का हिसाब, टैलीफोन का बिल रजिस्टर आदि की जांच की. 2 दिन लगातार इस काम में जूझते उत्तम की मुलाकात महिमा से नहीं हुई. जानबूझ कर या काम की अधिकता, इन 2 दिनों में महिमा लगातार टूर पर ही बनी हुई थी. आज औफिस में औडिट का आखिरी दिन था. राकेश ने महिमा से औफिस में रह कर उत्तम से डिस्कस करने का अनुरोध किया.

ठीक साढ़े 9 बजे महिमा अपनी सीट पर थी. कुछ ही देर में राकेश उत्तम के साथ आता हुआ दिखाई दिया. महिमा ने देखा कि उत्तम नाटे कद का सांवला सा व्यक्ति है जिस की तोंद कुछ बाहर को निकली हुई है. पेट बड़ा होने के कारण पैंट बारबार कमर से लुढ़क कर नीचे आ रही थी जिसे वह बैल्ट से पकड़ कर ऊपर खींच रहा था. उस की यह हरकत देख कर महिमा के होंठों पर बरबस मुसकान आ गई. उसी समय शीतल कुछ फाइलें ले कर वहां आई. उसे उत्तम की हरकत पर मुसकराता देख कर शीतल भी खिलखिला दी.

‘‘नमस्कार मैडमजी, आज आखिर आप के दर्शन हो ही गए. मुझे तो लगा था आप से बिना मिले ही जाना होगा,’’ उत्तम के शब्दों में छिपे व्यंग्य को महिमा आसानी से समझ रही थी. उस ने उस को कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ बैठने का इशारा किया.

‘‘आप के औफिस में तो घपला ही घपला है, मैडमजी. जहां हाथ रखिए, वहीं दर्द है,’’ उत्तम ने एक पुरानी फिल्म के गाने की पंक्ति के साथ बत्तीसी खोल कर अपने पान से रंगे दांत दिखा दिए. उस के साथ ही उस के मुंह से आती गुटखे की गंध पूरे चैंबर में फैल गई. महिमा ने कुछ पल को अपनी सांस रोक कर उस गंध को हवा में लुप्त होने दिया, फिर हाथ को नाक के सामने लहराते हुए सांस ली. उत्तम उस की नाखुशी को समझ गया था. वह बाहर जा कर पीक थूक आया.

‘‘जी, दिखाइए, क्या घपला है,’’ महिमा ने उस से कागज मांगे.

‘‘सब से पहला तो यही है कि आप ने गाड़ी पूरे महीने के लिए किराए पर रखी है. लेकिन आप की लौगबुक कहती है कि आप इस का इस्तेमाल 15 दिनों से अधिक नहीं करतीं. यानी, आप ड्राइवर को मुफ्त का पैसा दे कर विभाग को चूना लगा रही हैं. क्यों न विभाग को होने वाले इस नुकसान की भरपाई आप के वेतन में से की जाए,’’ उत्तम ने फिर से दांत दिखाए.

‘‘बेशक ड्राइवर को पैसा पूरे महीने का मिल रहा है लेकिन गाड़ी कम चला कर हम सरकार का ईंधन भी तो बचा रहे हैं. आप इसे इस नजरिए से देखिए न. वैसे भी हमारी तो इमरजैंसी ड्यूटी है. कभी भी बाहर जाना पड़ सकता है, इसलिए गाड़ी तो पूरे महीने और चौबीसों घंटे के लिए ही रखनी पड़ेगी न,’’ महिमा ने अपना पक्ष रखा.

‘‘हम किसे किस नजरिए से देखें, यह आप हम पर छोडि़ए. दूसरी बात यह है कि कर्मचारियों ने आकस्मिक अवकाश पहले मना लिया और उन के प्रार्थनापत्र बाद की तारीख में दर्ज हुए हैं,’’ उत्तम ने अपनी आंखें महिमा के चेहरे पर टिका दीं.

‘‘तो क्या हुआ? आकस्मिक अवकाश का अर्थ ही है कि उसे आकस्मिक कार्य के लिए लिया जाता है. अब आकस्मिकता भी भला कभी बता कर आती है. कर्मचारी ने अवकाश स्वीकृत तो करवाया ही है, चाहे देर से ही सही,’’ महिमा ने फिर से अपना पक्ष रखा.

‘‘ये सब बातें आप औडिट पैरा के जवाब में लिखलिख कर देती रहिएगा. और भी कई खामियां हैं जो मैं लिख कर ऊपर सरकार को भेज दूंगा. फिर आगे जो भी विभाग की मरजी,’’ उत्तम ने कहा और अपने कागजपत्र समेटने लगा. महिमा को समझ में नहीं आया कि क्या कहे.

‘‘उत्तम साहब, चलिए नाश्ता ठंडा हो रहा है,’’ कहता हुआ राकेश उसे दूसरे कमरे में ले गया. उसे वहां छोड़ कर वह तुरंत ही महिमा के पास आया.

‘‘मैडम, औडिट के पैरा बहुत बुरे होते हैं. सालों निकल जाते हैं जवाब देतेदेते. इसीलिए सब लोग कुछ लेदे कर औफिस में ही सैट करने की कोशिश करते हैं. अपने औफिस के पैरा तो ऐसे हैं जिन्हें आप चाहें तो यहीं टेबल पर ही ड्रौप कर सकती हैं और न चाहें तो लंबे खींच सकती हैं. और फिर गाड़ी वाला पैरा तो आप पर व्यक्तिगत प्रहार है. जरा ठंडे दिमाग से सोचिए,’’ राकेश ने महिमा को समझाने की कोशिश की. बात शायद कुछकुछ महिमा को समझ में भी आ गई थी. राकेश की बातों में दम तो था.

‘‘ठीक है, आप देखिए क्या हो सकता है. विचार करते हैं.’’ महिमा राकेश से सहमत होने लगी.

‘‘जी मैडम, आप ने बिलकुल सही फैसला लिया है. मैं उत्तम से बात कर के देखता हूं. पार्टी को लंच पर ले कर जा रहा हूं, वहीं सब सैट करने की कोशिश करता हूं. उम्मीद है सब ठीक हो जाएगा,’’ यह कह कर राकेश चैंबर से बाहर निकल गया.

दोपहर बाद लगभग 4 बजे राकेश आया. महिमा ने देखा कि उस का मुंह उतरा हुआ था. उत्तम और उस की टीम उस के साथ नहीं थी. राकेश चुपचाप आ कर महिमा के सामने बैठ गया.

‘‘क्या तय हुआ राकेशजी, आप का उतरा हुआ चेहरा बता रहा है कि मामला सैट नहीं हुआ. क्या अपने बजट से बाहर जा रहा है?’’ महिमा की निगाह राकेश के चेहरे पर टिकी थी.

‘‘सिर्फ बजट से ही नहीं, इस बार तो मामला हद से भी बाहर जा रहा है,’’ राकेश ने कहा.

‘‘क्या बात है? मैं समझी नहीं. जरा खुल कर बताइए. अरे शीतल, जरा 2 गिलास पानी तो लाना,’’ महिमा ने आवाज लगाई तो शीतल तुरंत 2 गिलास ठंडा पानी ले कर हाजिर हो गई. ट्रे को टेबल पर रख कर वह भी वहीं खड़ी हो गई.

‘‘शीतल, तुम जाओ,’’ राकेश ने उसे भेज दिया और धीरेधीरे पानी के घूंट भरने लगा. ऐसा लग रहा था मानो वह पानी के साथ और भी बहुतकुछ निगलने की कोशिश कर रहा है. चैंबर में छाई चुप्पी महिमा को अखरने लगी.

‘‘कुछ बोलिए भी, उत्तम क्या चाह रहा है,’’ आखिर महिमा ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘उत्तम को शीतल चाहिए,’’ राकेश किसी तरह से बोल पाया.

‘‘क्या? मैं कुछ समझी नहीं.’’ महिमा के माथे पर लकीरें गहरा गईं. राकेश आगे कुछ भी नहीं बोल सका. चुपचाप पानी के घूंट भरता रहा लेकिन महिमा सबकुछ समझ गई थी.

‘‘उस की हिम्मत कैसे हुई इस तरह का घटिया प्रस्ताव रखने की. विश्वास नहीं हो रहा कि कोई व्यक्ति इतना नीचे भी गिर सकता है. अरे, शीतल उस की बेटी की उम्र से भी छोटी होगी. निर्लज्ज कहीं का. कह दो उसे, जो रिपोर्ट बनानी है, बना दे. जो औब्जैक्शन लगाने हैं, लगा दे. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, मामला ड्रौप होने में बरसों लग जाएंगे. लग जाने दो. अरे, गलतियां तो हरेक से होती हैं. निकालने लगो तो कमियां हर जगह मिल जाती हैं. तो क्या हुआ, आखिर कमियां दूर भी तो होती ही हैं. जो होगा, देखा जाएगा. अगर कुछ पैसा जेब से भी भरना पड़ा तो भर दूंगी, लेकिन उस मासूम को औडिट के नाम पर बलि नहीं चढ़ाऊंगी.’’ महिमा गुस्से से उबलने लगी थी. शीतल का मासूम चेहरा महिमा की आंखों के आगे आ गया.

राकेश ने जेब से निकाल कर उत्तम द्वारा बनाए गए औडिट पैरा का बड़ा सा लैटर महिमा की टेबल पर रख दिया.

‘‘मैं जानता था आप का यही फैसला होगा, इसलिए उत्तम को लंच के बाद वहीं से स्टेशन विदा कर आया. अब सब मिल कर बनाते हैं उस के पैरा के जवाब,’’ राकेश मुसकरा दिया. राकेश को आज महसूस हो रहा था कि ईमानदारी व्यक्ति को कई बार कितना निडर बना देती है. मन ही मन वह महिमा के निर्णय से प्रभावित था.

‘‘पैसा तो सारी दुनिया कमाती है, राकेशजी, मैं ने अपने स्टाफ का विश्वास कमाया है. यह मेरे लिए बहुत बड़ी पूंजी है,’’ महिमा ने कहा और औडिट की लगाई हुई आपत्तियां पढ़ने लगी.

चैंबर के दरवाजे पर खड़ी शीतल अपने आंसू पोंछ रही थी. महिमा के प्रति उस के मन में सम्मान कई दरजे बढ़ गया था.

अंतिम मुसकान: प्राची ने दिव्य से शादी करने से मना क्यों कर दी

‘‘एकबार, बस एक बार हां कर दो प्राची. कुछ ही घंटों की तो बात है. फिर सब वैसे का वैसा हो जाएगा. मैं वादा करती हूं कि यह सब करने से तुम्हें कोई मानसिक या शारीरिक क्षति नहीं पहुंचेगी.’’

शुभ की बातें प्राची के कानों तक तो पहुंच रही थीं परंतु शायद दिल तक नहीं पहुंच पा रही थीं या वह उन्हें अपने दिल से लगाना ही नहीं चाह रही थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि उस में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपनी जिंदगी के नाटक का इतना अहम किरदार निभा सके.

‘‘नहीं शुभ, यह सब मुझ से नहीं होगा. सौरी, मैं तुम्हें निराश नहीं करना चाहती थी परंतु मैं मजबूर हूं.’’

‘‘एक बार, बस एक बार, जरा दिव्य की हालत के बारे में तो सोचो. तुम्हारा यह कदम उस के थोड़े बचे जीवन में कुछ खुशियां ले आएगा.’’

प्राची ने शुभ की बात को सुनीअनसुनी करने का दिखावा तो किया पर उस का मन दिव्य के बारे में ही सोच रहा था. उस ने सोचा, रातदिन दिव्य की हालत के बारे में ही तो सोचती रहती हूं. भला उस को मैं कैसे भूल सकती हूं? पर यह सब मुझ से नहीं होगा.

मैं अपनी भावनाओं से अब और खिलवाड़ नहीं कर सकती. प्राची को चुप देख कर शुभ निराश मन से वहां से चली गई और प्राची फिर से यादों की गहरी धुंध में खो गई.

वह दिव्य से पहली बार एक मौल में मिली थी जब वे दोनों एक लिफ्ट में अकेले थे और लिफ्ट अटक गई थी. प्राची को छोटी व बंद जगह में फसने से घबराहट होने की प्रौब्लम थी और वह लिफ्ट के रुकते ही जोरजोर से चीखने लगी थी. तब दिव्य उस की यह हालत देख कर घबरा गया था और उसे संभालने में लग गया था.

खैर लिफ्ट ने तो कुछ देर बाद काम करना शुरू कर दिया था परंतु इस घटना ने दिव्य और प्राची को प्यार के बंधन में बांध दिया था. इस मुलाकात के बाद बातचीत और मिलनेजुलने का सिलसिला चल निकला और कुछ ही दिनों बाद दोनों साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे थे. प्राची अकसर दिव्य के घर भी आतीजाती रहती थी और दिव्य के मातापिता और उस की बहन शुभ से भी उस की अच्छी पटती थी.

इसी बीच मौका पा कर एक दिन दिव्य ने अपने मन की बात सब को कह दी, ‘‘मैं प्राची के साथ शादी करना चाहता हूं,’’ किसी ने भी दिव्य की इस बात का विरोध नहीं किया था.

सब कुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन अचानक उन की खुशियों को ग्रहण लग गया.

‘‘मां, आज भी मेरे पेट में भयंकर दर्द हो रहा है. लगता है अब डाक्टर के पास जाना ही पड़ेगा.’’ दिव्य ने कहा और वह डाक्टर के पास जाने के लिए निकल पड़ा.

काफी इलाज के बाद भी जब पेट दर्द का यह सिलसिला एकदो महीने तक लगातार चलता रहा तो कुछ लक्षणों और फिर जांचपड़ताल के आधार पर एक दिन डाक्टर ने कह ही दिया, ‘‘आई एम सौरी. इन्हें आमाशय का कैंसर है और वह भी अंतिम स्टेज का. अब इन के पास बहुत कम वक्त बचा है. ज्यादा से ज्यादा 6 महीने,’’ डाक्टर के इस ऐलान के साथ ही प्राची और दिव्य के प्रेम का अंकुर फलनेफूलने से पहले ही बिखरता दिखाई देने लगा.

आंसुओं की अविरल धारा और खामोशी, जब भी दोनों मिलते तो यही मंजर होता.

‘‘सब खत्म हो गया प्राची, अब तुम्हें मु?ा से मिलने नहीं आना चाहिए.’’ एक दिन दिव्य ने प्राची को कह दिया.

‘‘नहीं दिव्य, यदि वह आना चाहती है, तो उसे आने दो,’’ शुभ ने उसे टोकते हुए कहा. ‘‘जितना जीवन बचा है, उसे तो जी लो वरना जीते जी मर जाओगे तुम. मैं चाहती हूं इन 6 महीनों में तुम वह सब करो जो तुम करना चाहते थे. जानते हो ऐसा करने से तुम्हें हर पल मौत का डर नहीं सताएगा.’’

‘‘हो सके तो इस दुख की घड़ी में भी तुम स्वयं को इतना खुशमिजाज और व्यस्त कर लो कि मौत भी तुम तक आने से पहले एक बार धोखा खा जाए कि मैं कहीं गलत जगह तो नहीं आ गई. जब तक जिंदगी है भरपूर जी लो. हम सब तुम्हारे साथ हैं. हम वादा करते हैं कि हम सब भी तुम्हें तुम्हारी बीमारी की गंभीरता का एहसास तक नहीं होने देंगे.’’    बहन के इस ऐलान के बाद उन के घर का वातावरण आश्चर्यजनक रूप से बदल गया. मातम का स्थान खुशी ने ले लिया था. वे सब मिल कर छोटी से छोटी खुशी को भी शानदार तरीके से मनाते थे, वह चाहे किसी का जन्मदिन हो, शादी की सालगिरह हो या फिर कोई त्योहार. घर में सदा धूमधाम रहती थी.

एक दिन शुभ ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आप की इच्छा थी कि आप दिव्य की शादी धूमधाम से करो. दिव्य आप का इकलौता बेटा है. मुझे लगता है कि आप को अपनी यह इच्छा पूरी कर लेनी चाहिए.’’

मां उसे बीच में ही रोकते हुए बोलीं, ‘‘देख शुभ बाकी सब जो तू कर रही है, वह तो ठीक है पर शादी? नहीं, ऐसी अवस्था में दिव्य की शादी करना असंभव तो है ही, अनुचित भी है. फिर ऐसी अवस्था में कौन करेगा उस से शादी? दिव्य भी ऐसा नहीं करना चाहेगा. फिर धूमधाम से शादी करने के लिए पैसों की भी जरूरत होगी. कहां से आएंगे इतने पैसे? सारा पैसा तो दिव्य के इलाज में ही खर्च हो गया.’’

‘‘मां, मैं ने कईर् बार दिव्य और प्राची को शादी के सपने संजोते देखा है. मैं नहीं चाहती भाई यह तमन्ना लिए ही दुनिया से चला जाए. मैं उसे शादी के लिए मना लूंगी. फिर यह शादी कौन सी असली शादी होगी, यह तो सिर्फ खुशियां मनाने का बहाना मात्र है. बस आप इस के लिए तैयार हो जाइए.

‘‘मैं कल ही प्राची के घर जाती हूं. मुझे लगता है वह भी मान जाएगी. हमारे पास ज्यादा समय नहीं है. अंतिम क्षण कभी भी आ सकता है. रही पैसों की बात, उन का इंतजाम भी हो जाएगा. मैं सभी रिश्तेदारों और मित्रों की मदद से पैसा जुटा लूंगी,’’ कह कर शुभ ने प्राची को फोन किया कि वह उस से मिलना चाहती है.

और आज जब प्राची ने शुभ के सामने यह प्रस्ताव रखा तो प्राची के जवाब ने शुभ को निराश ही किया था परंतु शुभ ने निराश होना नहीं सीखा था.

‘‘मैं दिव्य की शादी धूमधाम से करवाऊंगी और वह सारी खुशियां मनाऊंगी जो एक बहन अपने भाई की शादी में मनाती है. इस के लिए मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े.’’ शुभ अपने इरादे पर अडिग थी.

घर आते ही दिव्य ने शुभ से पूछा, ‘‘क्या हुआ, प्राची मान गई क्या?’’

‘‘हां मान गई. क्यों नहीं मानेगी? वह तुम से प्रेम करती है,’’ शुभ की बात सुन कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी चमक आ गई जो शुभ के इरादे को और मजबूत कर गई.

शुभ ने दिव्य की शादी के आयोजन की इच्छा और इस के लिए आर्थिक मदद की जरूरत की सूचना सभी सोशल साइट्स पर पोस्ट कर दी और इस पोस्ट का यह असर हुआ कि जल्द ही उस के पास शादी की तैयारियों के लिए पैसा जमा हो गया.

घर में शादी की तैयारियां धूमधाम से शुरू हो गईं. दुलहन के लिए कपड़ों और गहनों का चुनाव, मेहमानों की खानेपीने की व्यवस्था, घर की साजसजावट सब ठीक उसी प्रकार होने लगा जैसा शादी वाले घर में होना चाहिए.

शादी का दिन नजदीक आ रहा था. घर में सभी खुश थे, बस एक शुभ ही चिंता में डूबी हुई थी कि दुलहन कहां से आएगी? उस ने सब से झूठ ही कह दिया था कि प्राची और उस के घर वाले इस नाटकीय विवाह के लिए राजी हैं पर अब क्या होगा यह सोचसोच कर शुभ बहुत परेशान थी.

‘‘मैं एक बार फिर प्राची से रिक्वैस्ट करती हूं. शायद वह मान जाए.’’ सोच कर शुभ फिर प्राची के घर पहुंची.

‘‘बेटी हम तुम्हारे मनोभावों को बहुत अच्छी तरह सम?ाते हैं और हम तुम्हें पूरा सहयोग देने के लिए तैयार हैं पर प्राची को मनाना हमारे बस की बात नहीं. हमें लगता है कि दिव्य के अंतिम क्षणों में, उसे मौत के मुंह में जाते हुए पर मुसकराते हुए वह नहीं देख पाएगी, शायद इसीलिए वह तैयार नहीं है. वह बहुत संवेदनशील है,’’ प्राची की मां ने शुभ को सम?ाते हुए कहा.

‘‘पर दिव्य? उस का क्या दोष है, जो प्रकृति ने उसे इतनी बड़ी सजा दी है? यदि वह इतना सहन कर सकता है तो क्या प्राची थोड़ा भी नहीं?’’ शुभ बिफर पड़ी.

‘‘नहीं, तुम गलत सोच रही हो. प्राची का दर्द भी दिव्य से कम नहीं है. वह भी बहुत सहन कर रही है. दिव्य तो यह संसार छोड़ कर चला जाएगा और उस के साथसाथ उस के दुख भी. परंतु प्राची को तो इस दुख के साथ सारी उम्र जीना है. उस की हालत तो दिव्य से भी ज्यादा दयनीय है. ऐसी स्थिति में हम उस पर ज्यादा दबाव नहीं डाल सकते.

‘‘फिर हमें समाज का भी खयाल रखना है. शादी और उस के तुरंत बाद ही दिव्य की मृत्यु. वैधव्य की छाप भी तो लग जाएगी प्राची पर. किसकिस को समझएंगे कि यह एक नाटक था. यह इतना आसान नहीं है जितना तुम समझ रही हो?’’ प्राची की मां ने शुभ को समझने की कोशिश की.

उस दिन पहली बार शुभ को दिव्य से भी ज्यादा प्राची पर तरस आया लेकिन यह उस की समस्या का समाधान नहीं था. तभी उस के तेज दिमाग ने एक हल निकाल ही लिया.

वह बोली, ‘‘आंटी जी, बीमारी की वजह से इन दिनों दिव्य को कम दिखाई देने लगा है. ऐसे में हम प्राची की जगह उस से मिलतीजुलती किसी अन्य लड़की को भी दुलहन बना सकते हैं. दिव्य को यह एहसास भी नहीं होगा कि दुलहन प्राची नहीं, बल्कि कोई और है. यदि आप की नजर में ऐसी कोई लड़की हो तो बताइए.’’

‘‘हां है, प्राची की एक सहेली ईशा बिलकुल प्राची जैसी दिखती है. वह अकसर नाटकों में भी भाग लेती रहती है. पैसों की खातिर वह इस काम के लिए तैयार भी हो जाएगी. पर ध्यान रहे शादी की रस्में पूरी नहीं अदा की जानी चाहिए वरना उसे भी आपत्ति हो सकती है.’’

‘‘आप बेफिक्र रहिए आंटी जी, सब वैसा ही होगा जैसा फिल्मों में होता है, केवल दिखावा. क्योंकि हम भी नहीं चाहते हैं कि ऐसा हो और दिव्य भी ऐसी हालत में नहीं है कि वह सभी रस्में निभाने के लिए अधिक समय तक पंडाल में बैठ भी सके.’’

शादी का दिन आ पहुंचा. विवाह की सभी रस्में घर के पास ही एक गार्डन में होनी थीं. दिव्य दूल्हा बन कर तैयार था और अपनी दुलहन का इंतजार कर रहा था कि अचानक एक गाड़ी वहां आ कर रुकी. गाड़ी में से प्राची का परिवार और दुलहन का वेश धारण किए गए लड़की उतरी.

हंसीखुशी शादी की सारी रस्में निभाई जाने लगीं. दिव्य बहुत खुश नजर आ रहा था. उसे देख कर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह कुछ ही दिनों का मेहमान है. यही तो शुभ चाहती थी.

‘‘अब दूल्हादुलहन फेरे लेंगे और फिर दूल्हा दुलहन की मांग भरेगा.’’ जब पंडित ने कहा तो शुभ और प्राची के मातापिता चौकन्ने हो गए. वे सम?ा गए कि अब वह समय आ गया है जब लड़की को यहां से ले जाना चाहिए वरना अनर्थ हो सकता है और वे बोले, ‘‘पंडित जी, दुलहन का जी घबरा रहा है. पहले वह थोड़ी देर आराम कर ले फिर रस्में निभा ली जाएं तो ज्यादा अच्छा रहेगा.’’ कह कर उन्होंने दुलहन जोकि छोटा सा घूंघट ओढ़े हुए थी, को अंदर चलने का इशारा किया.

‘‘नहीं पंडित जी, मेरी तबीयत इतनी भी खराब नहीं कि रस्में न निभाई जा सकें.’’ दुलहन ने घूंघट उठाते हुए कहा तो शुभ के साथसाथ प्राची के मातापिता भी चौक उठे क्योंकि दुलहन कोई और नहीं प्राची ही थी.

शायद जब ईशा को प्राची की जगह दुलहन बनाने का फैसला पता चला होगा तभी प्राची ने उस की जगह स्वयं दुलहन बनने का निर्णय लिया होगा, क्योंकि चाहे नाटक में ही, दिव्य की दुलहन बनने का अधिकार वह किसी और को दे, उस के दिल को मंजूर नहीं होगा.

आज उस की आंखों में आंसू नहीं, बल्कि उस के होंठों पर मुसकान थी. अपना सारा दर्द समेट कर वह दिव्य की क्षणिक खुशियों की भागीदारिणी बन गई थी. उसे देख कर शुभ की आंखों से खुशी और दुख के मिश्रित आंसू बह निकले. उस ने आगे बढ़ कर प्राची को गले से लगा लिया.

यह देख कर दिव्य के चेहरे पर एक अनोखी मुसकान आ गई. ऐसी मुसकान पहले किसी ने उस के चेहरे पर नहीं देखी थी. परंतु शायद वह उस की आखिरी मुसकान थी, क्योंकि उस का कमजोर शरीर इतना श्रम और खुशी नहीं झेल पाया और वह वहीं मंडप में ही बेहोश हो गया.

दिव्य को तुरंत हौस्पिटल ले जाना पड़ा जहां उसे तुरंत आईसीयू में भेज दिया गया. कुछ ही दिनों बाद दिव्य नहीं रहा परंतु जाते समय उस के होंठों पर मुसकान थी.

प्राची का यह अप्रत्याशित निर्णय दिव्य और उस के परिवार वालों के लिए वरदान से कम नहीं  था. वे शायद जिंदगी भर उस के इस एहसान को चुका न पाएं. प्राची के भावी जीवन को संवारना अब उन की भी जिम्मेदारी थी.

कसौटी: क्यों झुक गए रीता और नमिता के सिर

मां के फोन वैसे तो संक्षिप्त ही होते थे पर इतना महत्त्वपूर्ण समाचार भी वह सिर्फ 2 मिनट में बता देंगी, मेरी कल्पना से परे ही था. ‘‘शुचिता की शादी तय हो गई है. 15 दिन बाद का मुहूर्त निकला है, तुम सब लोगों को आना है,’’ बस, इतना कह कर वह फोन रखने लगी थीं.

‘‘अरे, मां, कब रिश्ता तय किया है, कौन लोग हैं, कहां के हैं, लड़का क्या करता है?’’ मैं ने एकसाथ कई प्रश्न पूछ डाले थे. ‘‘सब ठीकठाक ही है, अब आ कर देख लेना.’’

मां और बातें करने के मूड में नहीं थीं और मैं कुछ और कहती तब तक उन्होंने फोन रख दिया था. लो, यह भी कोई बात हुई. अरे, शुचिता मेरी सगी छोटी बहन है, इतना सब जानने का हक तो मेरा बनता ही है कि कहां शादी तय हो रही है, कैसे लोग हैं. अरे, शुचि की जिंदगी का एक अहम फैसला होने जा रहा है और मुझे खबर तक नहीं. ठीक है, मां का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं रहता है, फिर शुचिता की शादी को ले कर पिछले कई सालों से परेशान हो रही हैं. पिताजी के असमय निधन से और अकेली पड़ गई हैं. भाई कोई है नहीं, हम 3 बहनें ही हैं. मैं, नमिता और शुचिता. मेरी और नमिता की शादी हुए काफी अरसा हो गया है पर पता नहीं क्यों शुचिता का हर बार रिश्ता तय होतेहोते रह जाता था. शायद इसीलिए मां इतनी शीघ्रता से यह काम निबटाना चाह रही हों.

जो भी हो, बात तो मां को पूरी बतानी थी. शाम को मैं ने फिर शुचिता से ही बात करनी चाही थी पर वह तो शुरू से वैसे भी मितभाषी ही रही है. अभी भी हां-हूं ही करती रही. ‘‘दीदी, मां ने बता तो दिया होगा सबकुछ…’’ स्वर भी उस का तटस्थ ही था.

‘‘अरे, पर तू तो पूरी बात बता न, तेरे स्वर में भी कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा है,’’ मैं तो अब झल्ला ही पड़ी थी. ‘‘उत्साह क्या, सब ठीक ही है. मां इतने दिन से परेशान थीं, मैं स्वयं भी अब उन पर बोझ बन कर उन की परेशानी और नहीं बढ़ाना चाहती. अब यह रिश्ता तो जैसे एक तरह से अपनेआप ही तय हो गया है, तो अच्छा ही होगा,’’ शुचिता ने भी जैसेतैसे बात समाप्त ही कर दी थी.

राजीव तो अपने काम में इतने व्यस्त थे कि उन को छुट्टी मिलनी मुश्किल थी. मेरा और बच्चों का रिजर्वेशन करवा दिया. मैं चाह रही थी कि 4-5 दिन पहले पहुंचूं पर मैं और नमिता दोनों ही रिजर्वेशन के कारण ठीक शादी वाले दिन ही पहुंच पाए थे. मेरी तरह नमिता भी उतनी ही उत्सुक थी यह जानने के लिए कि शुचि का रिश्ता कहां तय हुआ और इतनी जल्दी कैसे सब तय हो गया पर जो कुछ जानकारी मिली उस ने तो जैसे हमारे उत्साह पर पानी ही फेर दिया था.

जौनपुर का कोई संयुक्त परिवार था. छोटामोटा बिजनेस था. लड़का भी वही पुश्तैनी काम संभाल रहा था. उन लोगों की कोई मांग नहीं थी. लड़के की बूआ खुद आ कर शुचिता को पसंद कर गई थीं और शगुन की अंगूठी व साड़ी भी दे गई थीं.

‘‘मां,’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘जब इतने समय से रिश्ते देख रहे हैं तो और देख लेते. आप को जल्दी क्या थी. ऐसी क्या शुचि बोझ बन गई थी? अब जौनपुर जैसा छोटा सा पुराना शहर, पुराने रीतिरिवाज के लोग, संयुक्त परिवार, शुचि कैसे निभेगी उस घर में.’’ ‘‘सब निभ जाएगी,’’ मां बोलीं, ‘‘अब मेरे इस बूढ़े शरीर में इतनी ताकत नहीं बची है कि घरघर रिश्ता ढूंढ़ती रहूं. इतने बरस तो हो गए, कहीं जन्मपत्री नहीं मिलती, कहीं दहेज का चक्कर… और तुम दोनों जो इतनी मीनमेख निकाल रही हो, खुद क्यों नहीं ढूंढ़ दिया कोई अच्छा घरबार अपनी बहन के लिए.’’

मां ने तो एक तरह से मुझे और नमिता दोनों को ही डपट दिया था. यह सच भी था, हम दोनों बहनें अपनेअपने परिवार में इतनी व्यस्त हो गई थीं कि जितने प्रयास करने चाहिए थे, चाह कर भी नहीं कर पाए.

खैर, सीधेसादे समारोह के साथ शुचिता ब्याह दी गई. मैं और नमिता दोनों कुछ दिन मां के पास रुक गए थे पर हम रोज ही यह सोचते कि पता नहीं कैसे हमारी यह भोलीभाली बहन उस संयुक्त परिवार में निभेगी. हम लोग ऐसे परिवारों में कभी रहे नहीं. न ही हमें घरेलू काम करने की अधिक आदत थी. पिताजी थे तब काफी नौकरचाकर थे और अभी भी मां ने 2 काम वाली बाई लगा रखी थीं और खाना भी उन्हीं से बनवा लेती थीं.

फिर शुचि का तो स्वभाव भी सरल सा है. तेजतर्रार सास, ननदें, जेठानी सब मिल कर दबा लेंगी उसे. जब चचेरा भाई रवि विदा कराने गया तब हम लोग यही सोच कर आशंकित थे कि पता नहीं शुचि आ कर क्या हालचाल सुनाए. पर उस समय तो उस की सास ने विदा भी नहीं किया. रवि से यह कह कर कि महीने भर बाद भेजेंगी, अभी किसी बच्चे का जन्मदिन है, उसे भेज दिया था.

उधर रवि कहता जा रहा था, ‘‘दीदी, शुचि दीदी को आप ने कैसे घर में भेज दिया, वह घर क्या उन के लायक है. छोटा सा पुराने जमाने का मकान, उस में इतने सारे लोग…अब आजकल कौन बहुओं से घूंघट निकलवाता है, पर शुचि दीदी से इतना परदा करवाया कि मेरे सामने ही मुश्किल से आ पाईं. ‘‘ऊपर से सास, ननदें सब तेजतर्रार. सास ने तो एक तरह से मुझे ही झिड़क दिया कि बहू से घर का कामकाज तो होता नहीं है, इतना नाजुक बना कर रख दिया है लड़की को कि वह चार जनों का खाना तक नहीं बना सकती, पर गलती तो इस की मां की है जो कुछ सिखाया नहीं. अब हम लोग सिखाएंगे.

‘‘सच दीदी, इतनी रोबीली सास तो मैं ने पहली बार देखी.’’ रवि कहता जा रहा है और मेरा कलेजा बैठता जा रहा था कि इतने सीधेसादे ढंग से शादी की है, कहीं लालची लोग हुए तो दहेज के कारण मेरी बहन को प्रताडि़त न करें. वैसे भी दहेज को ले कर इतने किस्से तो आएदिन होते रहते हैं.

शुचि से मिलना भी नहीं हो पाया. मां से भी इस बारे में अधिक बात नहीं कर पाई. वैसे भी हृदय रोग की मरीज हैं वे.

शुचि से फोन पर कभीकभार बात होती तो जैसा उस का स्वभाव था हांहूं में ही उत्तर देती. बीच में दशहरे की छुट्टियों में फिर मां के पास जाना हुआ था. सोचा कि शायद शुचि भी आए तो उस से भी मिलना हो जाएगा पर मां ने बताया कि शुचि की सास बीमार हैं…वह आ नहीं पाएगी.

‘‘मां, इतने लोग तो हैं उस घर में फिर शुचि तो नईनवेली बहू है, क्या अब वही बची है सास की सेवा को, जो चार दिन को भी नहीं आ सकती,’’ मैं कहे बिना नहीं रह पाई थी. मुझे पता था कि उस की ननदें, जेठानी सब इतनी तेज हैं तो शुचि दब कर रह गई होगी. उधर मां कहे जा रही थीं, ‘‘सास का इलाज होना था तो पैसे की जरूरत पड़ी. शुचि ने अपने कंगन उतार कर सास के हाथ पर धर दिए…सास तो गद्गद हो गईं.’’

मैं ने माथे पर हाथ मारा. हद हो गई बेवकूफी की भी. अरे, छोटीमोटी बीमारी का तो इलाज यों ही हो जाता है फिर पुश्तैनी व्यापार है, इतने लोग हैं घर में… और सास की चतुराई देखो, जो थोड़ा- बहुत जेवर शुचि मायके से ले कर गई है उस पर भी नजरें गड़ी हैं. उधर मां कहती जा रही थीं, ‘‘अच्छा है उस घर में रचबस गई है शुचि…’’

मां भी आजकल पता नहीं किस लोक में विचरण करने लगी हैं. सारी व्यावहारिकता भूल गई हैं. शुचि के पास कुछ गहनों के अलावा और है ही क्या. मेरा तो मन ही उचट गया था. घर आ कर भी मूड उखड़ाउखड़ा ही रहा. राजीव से यह सब कहा तो उन का तो वही चिरपरिचित उत्तर था.

‘‘तुम क्यों परेशान हो रही हो. सब का अपनाअपना भाग्य है. अब शुचि के भाग्य में जौनपुर के ये लोग ही थे तो इस में तुम क्या कर सकती हो और मां से क्या उम्मीद करती हो? उन्होंने तो जैसे भी हो अपना दायित्व पूरा कर दिया.’’ फोन पर पता चला कि शुचि बीमार है, पेट में पथरी है और आपरेशन होगा. दूसरी कोई शिकायत हो सकती है तो पहले सारे टेस्ट होंगे, बनारस के एक अस्पताल में भरती है.

‘‘तुम लोग देख आना, मेरा तो जाना हो नहीं पाएगा,’’ मां ने खबर दी थी. नमिता भी छुट्टी ले कर आ गई थी. वहीं अस्पताल के पास उस ने एक होटल में कमरा बुक करा लिया था.

‘‘रीता, मैं तो 2 दिन से ज्यादा रुक नहीं पाऊंगी, बड़ी मुश्किल से आफिस से छुट्टी मिली है,’’ उस ने मिलते ही कहा था. ‘‘मैं भी कहां रुक पाऊंगी, छोटू के इम्तहान चल रहे हैं, नौकर भी आजकल बाहर गया हुआ है. बस, दिन में ही शुचि के पास बैठ लेंगे, रात को तो जगना भी मुश्किल है मेरे लिए,’’ मैं ने भी अपनी परेशानी गिना दी थी.

सवाल यह था कि यहां रुक कर शुचि की देखभाल कौन करेगा? कम से कम 10 दिन तो उसे अस्पताल में ही रहना होगा. अभी तो सारे टेस्ट होने हैं. हम दोनों शुचि को देखने जब अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि उस की दोनों ननदें आई हुई हैं. बूढ़ी सास भी उसे संभालने आ गई हैं और उन लोगों ने काटेज वार्ड के पास ही कमरा ले लिया था.

दबंग सास बड़े प्यार से शुचि के सिर पर हाथ फेर रही थीं. ‘‘फिक्र मत कर बेटी, तू जल्दी ठीक हो जाएगी, मैं हूं न तेरे पास. तेरी दोनों ननदें भी अपनी ससुराल से आ गई हैं. सब बारीबारी से तेरे पास सो जाया करेंगे. तू अकेली थोड़े ही है.’’

उधर शुचि के पति चम्मच से उसे सूप पिला रहे थे, एक ननद मुंह पोंछने का नैपकिन लिए खड़ी थी. ‘‘दीदी, कैसी हो?’’ शुचि ने हमें देख कर पूछा था. मुझे लगा कि इतनी बीमारी के बाद भी शुचि के चेहरे पर एक चमक है. शायद घरपरिवार का इतना अपनत्व पा कर वह अपनी बीमारी भूल गई है.

पर पता नहीं क्यों मेरे और नमिता के सिर कुछ झुक गए थे. कई बार इनसानों को समझने में कितनी भूल कर देते हैं हम. मैं ऐसा ही कुछ सोच रही थी.

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