एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 2- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

मैं ममा की जिंदगी करीब से भोग रही थी. कहें तो भाई भी. शायद इसलिए उस में पिता की तरह न होने का संकल्प मजबूत हो रहा था.

लेकिन ममा? क्या मैं जानती नहीं रातें उस की कितनी भयावह होती होंगी जब वह अकेली अपनी यातनाओं को पलकों पर उठाए रात का लंबा सफ़र अकेली तय करती होगी.

इकोनौमिक्स में एमए कर के उस की शादी हुई थी. पति के रोबदाब और स्वेच्छाचारी स्वभाव के बावजूद जैसेतैसे उस ने डाक्ट्रेट की, नेट परीक्षा भी पास की जिस से कालेज में लैक्चरर हो सके. और तब. पलपल सब्र बोया है.

दुख मुझे इस बात का है कि इतना भी क्या सब्र बोना कि फसल जिल्लत की काटनी पड़े.

पापा चूंकि बेहद स्वार्थी किस्म के व्यक्ति हैं, ममा पर हमारी जिम्मेदारी पूरी की पूरी थी.

याद आती है सालों पुरानी बात. नानी बीमार थीं, ममा को हमें 2 दिनों के लिए पापा के पास छोड़ कर उन्हें मायके जाना पड़ा. तब भाई 6ठी और मैं 10वीं में थी. हमारी परीक्षाएं थीं, इसलिए हम ममा के साथ जा न पाए.

2 दिन हम भाईबहनों ने ठीक से खाना नहीं खाया. जैसेतैसे ब्रैडबिस्कुट से काम चलाते रहे. ममा को याद कर के हम एकएक मिनट गिना करते और पहाड़ सा समय गुजारते.

पापा होटल से अपनी पसंद का तीखी मसालेदार सब्जियां मंगाते जबकि हम दोनों मासूम बच्चों के होंठ और जीभ भरपेट खाना खाने की आस में जल कर भस्मीभूत हो जाते. आश्चर्य कि मेरे पापा हमारा बचा खाना भी खा लेते, लेकिन कभी पूछते भी नहीं कि हम ने फिर खाया क्या?

ममा हमारे लिए छिपा कर अलग खाना बनाती थी, ताकि पापा के लिए बना तीखा मसालेदार खाना हमें रोते हुए न खाना पड़े. शायद ममा जानती थी, बच्चों को अभी संतुष्ट हो कर भरपेट खाना खाना ज्यादा जरूरी है. और ऐसे भी ममा हमें खाना बनाना भी सिखाती चलती ताकि बाहर जा कर हमें दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े.

मैं बड़ी हो रही थी, मुझ में सहीगलत की परख थी. ताज्जुब होता था पापा के विचारों पर. वे मौकेबेमौके खुल कर कहते थे कि अगर उन के घर में रहना है तो किसी और की पसंद का कुछ भी नहीं चलेगा, सिवा उन की पसंद के.

इंसान एक टुकड़ा जमीन के लिए आधा इंच आसमान को कब तक भुलाए रहे?

उसे जीने को जमीन चाहिए तो सांस लेने को आसमान भी चाहिए.

भले ही हम छोटे थे, ममा के होंठ कई सारी मजबूरियों की वजह से सिले थे. लेकिन हम अपनी पीठ पर लगातार आत्महनन का बोझ महसूस करते. क्या मालूम क्यों पापा को ममा के साथ प्रतियोगिता महसूस होती. ममा की शिक्षा, उन के विचार और भाव से पापा खुद को कमतर आंकते, फिर शुरू होती पापा की चिढ़ और ताने. जब भी वह नौकरी के लिए छटपटाती, पापा उसे दबाते. जब चुप बैठी रहती, उसे अपनी अफसरी दिखा कर कमतर साबित करते. यह जैसे कभी न ख़त्म होने वाला नासूर बन गया था.

भाई अब 10वीं देने वाला था और मैं स्नातक द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने वाली थी. बहुत हुआ, और कितना सब्र करे. आखिर कहीं ममा की भी धार चूक न जाए.

आज जो कुछ हुआ वह एक लंबी उड़ान से पहले होना ही था. ममा को अब खुद की जमीन तलाश करनी ही होगी. तभी हमें भी अपना आसमान मिलेगा. मुझे अब ममा का इस तरह पैरोंतले रौंदा जाना कतई पसंद नहीं आ रहा था.

दूसरे दिन औफिस से आते वक्त पापा के साथ औफिस की एक कलीग थीं.

हम तो यथा संभव उस के साथ औपचारिक भद्रता निभाते रहे, लेकिन वे दोनों अपनी अतिअभद्रता के साथ ममा का मजाक बनाते रहे.

मेरे 48 वर्षीय पिता अचानक ही अब अपने सौंदर्य के प्रति अतियत्नवान हो गए थे. सफेद होती जा रही अपनी मूंछों को कभी रंगते, कभी सिर के बालों को. कुल मिला कर वयस्क होते जा रहे शरीर के साथ युद्ध लड़ रहे थे, ताकि ममा की जिंदगी में तूफान भर सकें.

मुझे और ममा को ले कर उन्हें एक असहनीय कुतूहल होता और हम अयाचित विपत्तियों के डर से बचने के लिए अपनी आंखें ही बंद कर लेते.

हम बच्चे ऐसे भी पापा से कतराने लगे थे, और पढ़ाई हो न हो, अपने कमरे में बंद ही रहते. रह जाती ममा, जिस की आंखों के सामने अब नित्य रासलीला चलती.

भाई मेरा चिंतित था. और मैं भी. यह घर नहीं, एक टूटती दीवार थी. हर कोई इस से दूर भागता है. और हम थे कि इसी टूटती दीवार को पकड़ कर गिरने से बचने का भ्रम पाले थे. करते भी क्या, यही तो अपना था न.

कहना ही पड़ता है, जिस पति के सान्निध्य में प्रेम और भरोसे की जगह गुलामी का एहसास हो, बिस्तर पर सुकून की नींद की जगह रात बीत जाने की छटपटाहट हो, उस स्त्री के जीवन में कितनी उदासी भर चुकी थी, यह कहने भर की बात नहीं थी.

मेरे पापा एक सरकारी मुलाजिम थे. ठीकठाक देखने में, अच्छी तनख्वाह, एक ढंग का पैतृक घर. उच्चशिक्षित सीधी सरल सुंदर पत्नी, 2 आज्ञाकारी बच्चे. इस के बावजूद पापा में क्या कमी थी कि हमेशा ममा को कमतर साबित कर के ही खुद को ऊंचा दिखाने का प्रयास करते रहते. हम सब के अंदर धुंएं की भठ्ठी भर चुकी थी.

पापा घर पर नहीं थे. ममा हमारे कमरे में आई, बोली, ‘मेरा एक दोस्त है भोपाल के कालेज में प्रिंसिपल. मैं उसे अपनी नौकरी के सिलसिले में मेल करना चाहती हूं. अगर तुम दोनों भाईबहन हिम्मत करो, तो मैं नौकरी के लिए कोशिश करूं. हां, हिम्मत तुम्हें ही करनी होगी. मैं इस घर में रह कर नौकरी कर नहीं पाऊंगी, तुम जानते हो. और बाहर गई, तो घर नहीं आ पाऊंगी.

‘क्या तुम दोनों अपनीअपनी परीक्षाएं होने तक यहां किसी तरह रह लोगे? जैसे ही तुम्हारी परीक्षाएं हो जाएंगी, मैं तुम दोनों को अपने पास बुला लूंगी. और कितना सहुं, कहो? यह तुम्हारे व्यक्तित्व पर भी बुरा प्रभाव डाल रहा है. मैं एक अच्छी गृहस्थी चाहती थी, प्यार और समानता से परिपूर्ण. मगर तुम्हारे पापा का मानसिक विकार यह घर तोड़ कर ही रहेगा. तुम दोनों अब बड़े हो चुके हो, विपरीत परिस्थिति की वजह से परिपक्व भी. इसलिए तुम जो कहोगे…?’

ममा ने सारी बातें एकसाथ हमारे सामने रखीं. फिर स्थिर आंखों से हमें देखने लगीं. कोई आग्रह या दबाव नहीं था. ममा की यही बातें उन्हें पापा से अलग ऊंचाई देती थीं.

भाई ने कहा- ‘मुझे तो लगता है हम अपनी जिंदगी में बदलाव खुद ही ला सकते हैं. अगर बैठे रहे तो कुछ भी नहीं बदलेगा. हम हमेशा यों ही दुखी ही रह जाएंगे.’

‘मुझे भी यही लगता है, भाई सही कह रहा है. तुम पापा के अनुसार ही तो चल रही हो, वे तब भी नाखुश हैं. और तो और, अपनी मनमरजी से ऐसी हरकत कर रहे हैं जिस से हम सभी परेशान हैं. भला यही होगा तुम नौकरी ढूंढ कर बाहर चली जाओ.’

 

Winter Special: सर्दियों में बालों में तेल लगाने के अनगिनत फायदे

सालों से बालों में तेल लगाने की परंपरा रही है. तेल लगाने से बालों की जड़े मजबूत होती है. मस्तिष्क शांत रहता है. ब्लड सकुलेशन बढ़ता है. जिस से बालों का झडऩा और सफेद होना दोनों में कमी आती है. यह सोचना कि आप काम करने वाली लड़कियों को अमीर घरों की लड़कियों की तरह तेल न लगा कर खासतौर पर यह बाते और हिरोइनों के लागते हुए प्रोडक्ट जो विज्ञापन में ही दिखते है लगाने चाहिए गलत है. बढ़ता अमीरीगरीबी या जाति नहीं देखों.

आज के भागमभाग की जीवन शैली में बालों का झडऩा और जल्दी सफेद होना आम है. ऐसे में नियमित तेज लगाने से आप मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ हो सकते है. लाभ निम्न है –

– मानसिक तनाव का कम होना.

– ताजगी महसूस करना.

– नींद का पूरा होना आदि.

औयङ्क्षलग कब और कैसे करें, इस बारे में जानकारी आवश्यक है मसाज अगर हमारे सिर, कान के पीछे और सभी प्रेशर प्वाइंट को ध्यान मेंं रख कर किए जाये तो इस का लाभ तुरंत मिलता है. मसाज से केवल बाल ही नहीं चेहरे पर भी ग्लो आता है. क्योंकि सिर की त्वचा चेहरे की एक्टेन्डेड त्वचा होती है.

बालों की रोज औयङ्क्षलग अच्छी मानी जाती है पर सप्ताह में दो दिन आवश्यक है. इस से बाल मुलायम और चमकदार रहते है. डैमेज बालों की लगातार रिपेयङ्क्षरग होती रहती है. साथ ही प्रदूषण से भी बाल डैमेज नहीं होते. क्योंकि तेल बालों के प्रौटीन को बनाये रखती है जिस से बाल हैल्दी और स्ट्रौंग रहते है. हर मौसम में औयङ्क्षलग अच्छा होता है.

वैसे तो बालों में तेल हर कोई अपने सुविधानुसार लगाता है. पर कुछ तरीके निम्र है जो प्रभावशाली होने के साथसाथ हेयर फौण को रोकता है.

– औयल को लगाने से पहले थोड़ा गरम करें.

– हेयर को विभागों में बांट ले और हर भाग में अच्छी तरह औयल लगाए.

– एक साथ में अधिक तेल न लगाए, हर भाग में थोड़ा औयल ले कर उंगली के पोरों से मसाज करे, तेल से अधिक मसाज आवश्यक होता है.

– इस के लिए औयल में उंगली के पोरों को डुबाए और धीरेधीरे स्कास्प में मसाज करे.

– मसाज 10 से 15 मिनट तक करें ताकि बालों की जड़ों में तेल पहुंचे और आप ताजगी महसूस करे.

– मसाज के तुरंत बाद बालों को न धोए. कम से कम एक घंटे के बाद आप बाल धो सकती है पर पूरी रात तेल के रहने से फायदा अधिक होता है.

हमेशा अपने पिलो के कवर को साफ रखें ताकि तेल में रहने वाला कैक्टिरिया नुकसान न पहुंचाए. घर में अपने लिए अलगअलग पिलो न रखें तो साफ धुला पिलो कवर जरूर रखें. पिलो कवर को हर रोज धोएं अगर उसी पिलो को किसी और ने भी इस्तेमाल किया है.

इसी तरह सिर पर ले जाने वाली चुन्नी या बैंड भी धोएं क्योंकि तेल लगाने की वजह से बैक्टीरिया जल्दी मल्टीप्लाई करता है.

हमेशा अच्छे शैंपू और कंडीशनर का प्रयोग करें. बालों को प्राकृतिक वातावरण में सूखने दें. ब्लोअर या ड्रायर का इस्तेमाल कम करें. इस से बाल रुखें और बेजार हो सकते है.

 

Valentine’s Day 2024: अनोखी- भाग 1- प्रख्यात से मिलकर कैसा था निष्ठा का हाल

पत्तियोंके  झुरमुट में फिर सरसराहट हुई. प्रख्यात ने सिर घुमा कर फिर देखने की कोशिश की. लग रहा था कोई उसे छिप कर देख रहा है. तभी पीछे शर्ट में कुछ चुभा. उस का हाथ  झट पीछे चला गया. जंगली घास की वह गेहूं जैसी बाली कैसे उस

की टीशर्ट में ऊपर पहुंच गई. उस ने निकाल कर एक ओर फेंक तो दी पर फिर सोचने लगा कि यह आई कहां से? इस तरह का कोई पौधा भी यहां नहीं दिख रहा. फिर उस ने सरसरी निगाह चारों ओर डाली.

‘‘क्या ढूंढ़ रहा है यार?’’ तभी बचपन से ग्रैजुएशन तक का साथी सिकंदर वहां आ पहुंचा.

‘‘तू अब आ रहा है? आधे घंटे से बोर हो कर वीडियो देखे जा रहा था… वह याद है तु झे वह जंगली घास की बाली हम बचपन में खेलखेल में एकदूसरे की ड्रैस में चुपके से घुसा देते थे. वही मेरी शर्ट में अभी न जाने कहां से आ गईर् थी… वही देख रहा था,’’ कह वह हंसा.

सिकंदर भी हंसा. फिर बोला, ‘‘कितना रोया करता था तू. लाली अकसर तेरी स्कूल ड्रैस में डाल दिया करती थी… तू रोता तो हम सब खूब मजे लेते, हंसते. कितनी पुरानी बात याद आ गई… कहीं वही तो नहीं आ गई… कितने मस्तीभरे दिन थे… किसी बात की चिंता नहीं होती थी.’’

‘‘सच में यार सब से शरारती, अनोखी लाली ही तो थी. हर दिन डरता भी था फिर भी शरारतों का इंतजार भी करता. कब क्या कर दे… न जाने कहां होगी अब… जी ब्लौक से ही तो चढ़ती थी स्कूल बस में. उस की मम्मी हिदायतें देते हुए उसे बस में चढ़ातीं, ‘‘लाली, स्कूल से अब कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए…किसी बच्चे को तंग नहीं करना लाली… अपना ही टिफिन खाना लाली… तेरी पसंद का ही सब रखा है लाली… तू सुन रही है न लाली… भैया जरा इस पर ध्यान रखना,’’ प्रख्यात उस की मम्मी की नकल करते हुए बोल रहा था.

‘‘तो हम भी उसे लालीलाली ही चिढ़ा कर पुकारने लगे थे. उस का असली नाम… याद नहीं आ रहा…हां वह तु झे चिढ़ कर प्रख्यात की जगह खुरपी खाद कहती थी यह याद है… और मु झे सिकंदर बंदर. हा… हा…’’

‘‘तू भूल गया मैं नहीं भूला उस का निष्ठा नाम… मेरी बगल में ही तो बैठती थी. होमवर्क के लिए अपनी कौपी टीचर से छिपा मेरी ओर सरका देती. खुंदक बहुत आती थी मु झे उस पर उस की अचरज भरी शैतानियों पर.’’

‘‘लंच के समय तु झे ही अकसर अपना डब्बा खाली मिलता, तू बहुत रोता तो अपनी मम्मी का दिया पौटिष्क लंच थमा जाती कि मम्मी ने अच्छे वाले छोटे कटहल भी छील कर इस में रखे हैं.

‘‘तू चिढ़ जाता कि ततहल मैं नहीं खाता तो ततहल कहकह कर हंसती. मैं बौक्स में देख कर तु झे सम झाता कि पागल, यह लीची को छोटा कटहल कह रही है.

‘‘सुंदर तो है तू रोतड़ू पर पौष्टिक खाना क्यों नहीं खाता? ये बर्गर, नूडल्स क्यों खाता है रोज? लंबातगड़ा होगा तभी तो शादी करूंगी तु झ से. मेरा लंच खा कर यह टौफी खा लेना. वह बड़े प्यार से तेरी शर्ट की पौकेट में डाल देती और तू भोंदू जब खाता तो फिर रोता कि चीटिंग की. फिर

इस ने रैपर में पता नहीं क्या भर दिया. थूथू… फिर वह खूब हंसती. रैपर में कभी इमली तो कभी मिट्टी निकलती. ऐसे ही छेड़ा करती. कभी रूमाल में जुगनू, तितलियां पकड़ लाती… पूरी क्लास को कुतूहल से भर देती… जहां भी होगी अपनी शैतानियों से बाज नहीं आई होगी यह तो तय है…’’

‘‘हां, हाई स्कूल के बाद हम बौयज सीनियर स्कूल में शिफ्ट हुए, तब जा कर उस से पीछा छूटा… अब तो मेरा कमर्शियल लौ का रिसर्च वर्क भी पूरा होने को है, फिर भी उसे कभी देखा नहीं और तू तो कालेज का फुटबौल चैंपियन था ही. आज 7-8 सालों में स्टेट कोच बन बैठा. यहां बहुत कम रहा, दूसरे शहर ही चला गया, उसे तू देखता कहां से.’’

‘‘और तू किताबों में घुसा रहा कहीं और देखने की तु झे फुरसत कहां थी… हो गई होगी शादीवादी किसी दूसरे शहर में और हो लिए होंगे उसे उस के जैसे ही शैतान बच्चे… हा… हा… भिंडी की ढेंपियां चेहरे पर चिपका कर दूसरों को डराते होंगे.’’

‘‘क्या बात करता है 7-8 सालों में उस के बच्चे?’’

‘‘और क्या, गै्रजुएशन के बाद अकसर पेरैंट्स विदा कर देते हैं… लड़की के पीछे ही पड़ जाते हैं.’’

‘‘अरे, लड़की क्या लड़के के पेरैंट्स भी पीछे पड़ जाते हैं जैसे मेरे… तय भी कर रखी

है. जौब लगते ही छोड़ेंगे नहीं, शादी करा के ही दम लेंगे.’’

‘‘फिर तो बधाई हो. कौन है कहां की है बता तो सही? तेरे पेरैंट्स ने तो सही ही किया है… तू भी तो पढ़ता ही जा रहा है… तेरे सारे एलएलबी के साथी ग्रैजुएशन के बाद ही काम

पर लग गए… चल बता उस के बारे में,’’ सिकंदर ने पूछा.

‘‘अरे कुछ भी नहीं मालूम,’’ प्रख्यात बोला.

‘‘यह क्या बात हुई भला?’’

‘‘हमारे यहां सब थोड़े पुराने खयालों के हैं. सब अच्छी तरह देख कर खुद ही तय करते हैं.’’

‘‘अरे, ऐसे कैसे?’’

‘‘हूं यार, अगले महीने की 15 को सगाई करने वाले हैं. तभी देखूंगा तेरे साथ ही. तू तो होगा ही न?’’ प्रख्यात मुसकराया.

‘‘यह भी कोई कहने की बात है… अब मेरी सुन, मेरा तो संयोगिता हरण की योजना बन रही है. इश्क हो गया है मु झे,’’ सिकंदर कुछ रुक कर बोला.

‘‘क्या बात करता है फिर… बाज नहीं आएगा. इश्कबाज… पर सीधे से क्यों नहीं करता?’’ प्रख्यात मुसकराया.

‘‘सुदीपा नाम है. ब्राह्मण है और मैं सिकंदर ठाकुर… दोनों परिवार

राजी नहीं. इसलिए तेरी मदद चाहिए. तु झे करनी ही पड़ेगी. इस बार सच्चा इश्क हुआ है… सच कह रहा हूं.’’

‘‘अब यह कहां मिल गई तु झे?’’ प्रख्यात मुसकराया.

‘‘इतनी सिंपल, इतनी भोलीभाली कि  पहली नजर में बस गई. रिसैप्शनिस्ट है. पूरी टीम के लिए रूम्स बुक थे वहां, पर उस ने मु झे पहचाना नहीं. डेढ़ घंटे तक सारे प्रूफ लिए, तब कहीं अंदर जाने दिया मु झे. फिर बाद में मालूम होने पर कि मैं कौन हूं बड़ी माफी मांगी मु झ से. बस उस की मासूमियत पर दिल आ गया मेरा. यही मेरा प्यार है. तीसरे दिन उस से पूछ ही लिया कि मु झ से शादी करोगी तो वह शरमा गई. मतलब हां था. मगर दूसरे दिन ही उस ने अपनी परेशानी सकुचाते हुए बता दी कि हम ब्राह्मण परिवार से हैं और परिवार दूसरी कास्ट में मैरिज के सख्त खिलाफ है. खिलाफ तो हमारा परिवार भी है. ठाकुर ठाकुरों में ही ब्याह करते हैं… पर हमें ही कुछ करना पड़ेगा इस प्रथा को तोड़ने के लिए. हम भाग कर कोर्ट में रजिस्टर मैरिज करेंगे तब तो घर वालों को राजी होना पड़ेगा.’’

आगे पढ़ें- ‘‘अबे चल कोई फिल्म है क्या? मैं आंटी से बात करता हूं…

रिश्तों का बंधन: भाग 2- विजय ने दीपा की फोटो क्यों जलाई

दीपा अब अपने आने वाले जीवन के बारे में सोच रही थी. वह अपने पापा से दूर नहीं रहना चाहती थी. सोचा कि वह इस बारे में विजय से बात करेगी.

अगर वह उस के साथ रहने को तैयार हो जाता है, तो उसे अपने पापा की कोई चिंता नहीं रहेगी और उस की किश्ती को किनारा मिल जाएगा.

विजय की फैमिली का बिजनैस है और उस के घर वाले चाहते हैं कि वह अपने घर के बिजनैस में हाथ बंटाए और जल्दी से शादी कर अपना घर बसाए. उस के पिता चाहते हैं कि वे विजय की शादी अपने दोस्त राजीव की बेटी शिवानी से कर अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल दें, लेकिन विजय ने शादी करने से यह कह कर इनकार कर दिया है कि जब तक वह खुद अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, वह शादी नहीं करेगा. वह दीपा से अपने प्यार के बारे में किसी को कुछ नहीं बता सका. लेकिन मांबाप की जिद और बूढ़ी दादी के आगे उसे झुकना पड़ा और आखिर वह राजीव परिवार के यहां पुणे में लड़की देखने जाने को तैयार हो गया.

दोनों ही परिवारों को यकीन था कि शिवानी जैसी सुंदर और होशियार लड़की को देख कर विजय न नहीं कर सकता.
विजय सच में शिवानी को देखता ही रह गया. शिवानी भी पहली नजर में ही उसे अपना दिल दे बैठी और मन ही मन उसे अपना पति मान लिया लेकिन उस वक्त उस का दिल टूट गया जब विजय ने शादी करने से इनकार कर दिया. किसी की समझ में नहीं आया कि उस ने ऐसा क्यों किया.
अपनी छोटी बहन रोली के बहुत पूछने पर विजन ने अपने और दीपा के प्यार के बारे में बताया और कहा कि वह उसी से शादी करेगा.

उधर शिवानी अब खोईखोई सी रहने लगी थी. राजीव उसे बहुत समझते और विजय को भूल जाने को कहते हैं रहे, लेकिन शिवानी ने तो चुप्पी साध रखी थी. राजीव अब विजय के बारे में पता लगाने की कोशिश की और उन्हें पता चलता है कि विजय मुंबई में किसी लड़की के साथ घूमताफिरता है और उस का दीवाना सा लगता है तो उन्होंने यह बात शिवानी को बताई.
‘‘बेटी, मैं ने पता लगाया है विजय मुंबई में किसी लड़की के साथ घूमताफिरता है. तुम अपने दिल से उस का खयाल निकाल दो. मुझे तो लगता है कि विजय का करैक्टर…’’
‘‘नहीं पापा, विजय ऐसा नहीं है, मैं अच्छी तरह जानती हूं और आप से वादा करती हूं कि मैं जल्द ही उसे उस लड़की के चंगुल से छुड़ा कर आजाद करा लूंगी.’’
‘‘लेकिन तुम ऐसा कैसे करोगी? तुम यहां पुणे में और वह मुंबई में.’’
‘‘आप चिंता मत करिए पापा, वहां मेरी एक बहुत पुरानी बचपन की सहेली रहती है. वह मेरी मदद करेगी.’’
‘‘क्या नाम है उस का?’’
‘‘दीपा.’’
दीपा शिवानी का खत पा कर हत्प्रभ रह गई. बचपन की सहेली शिवानी. हमेशा वह उसे दीदीदीदी कहती रहती थी.
और उसे बचपन की शरारतों से ले कर कालेज हौस्टल तक की सारी बातें याद आ गईं…
शिवानी ने लिखा था कि वह एक विजय से शादी करना चाहती है और वह उसे किसी तरह से उस लड़की से मुक्ति दिला दे जो उस के पीछे पड़ी है. विजय का पूरा हुलिया, फोटो, फोन नंबर घर का पता साथ भेजा था.
दीपा की आंखों में आंसू आ गए, ‘‘क्या
मेरी जिंदगी में वीरनी ही लिखी है? शिवानी
को कैसे बताऊं कि कैसे विजय को पा कर मेरी सूनी जिंदगी में कुछ हलचल हो रही है, कैसे बताऊं कि मैं भी विजय के बिना नहीं रह सकती. कैसे बताऊं कि वह लड़की कोई और नहीं मैं
ही हूं.’’
दीपा को लगा जैसे वह एक ऐसे भंवर में फंस गई है, जहां से निकल नहीं पाएगी. शिवानी, जिसे उस ने हमेशा अपनी छोटी बहन ही समझ. बचपन से ले कर कालेज हौस्टल तक कैसे वे दोनों रातरात भर जाग कर हंसीमजाक करती रहती थीं.

मोटी नाक पर पतले फ्रेम का चश्मा लगाने वाली टीचर को देखदेख कर हंसा करती थीं. आज हालात ने उसे ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है, जहां से उसे कुछ सुझाई नहीं पड़ रहा है. क्या वह शिवानी को अपने और विजय के प्रेम के बारे में सबकुछ लिख दे कि वह भी विजय के बिना नहीं रह सकती और फिर उस ने फैसला कर मैसेज भेजने के लिए लैपटौप खोला और जैसे ही उस ने वर्ड फाइल पर क्लिक किया उस की पुरानी यादें ताजा हो गईं…

एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 1- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

19 साल की लड़की 43 साल की स्त्री को भला क्या समझेगी, ऐसा सोच कर मेरी समझ पर आप की कोई शंका पनप रही है तो पहले ही साफ कर दूं कि जिस स्त्री की चर्चा करने जा रही हूं, उस की यात्रा का एक अंश हूं मैं. उसी पूर्णता, उसी उम्मीद की किरण तक बढ़ती हुई, चलती हुई हेमांगी की बेटी हूं मैं.

43 साल की हेमांगी व्यक्तित्व में शांत, समझ की श्रेष्ठता में उज्ज्वल और कोमल है. वह विद्या और सांसारिक कर्तव्य दोनों में पारंगत है. तो, हो न. तब फिर क्यों भला मैं उस की महानता का बखान ले कर बैठी? यही न, इसलिए, कि 19 साल की उस की बेटी अपने जीवनराग में गहरी व अतृप्त आकांक्षाएं देख रही है, एक छटपटाहट देख रही है अपने जाबांज पंख में, जो कसे हैं प्रेम और कर्तव्य की बेजान शिला से. यह बेटी साक्षी है दरवाजे के पीछे खड़े हो कर उस के हजारों सपनों के राख हो कर झरते रहने की.

तो फिर, नहीं खोलूं मैं सांकल? नहीं दूं इस अग्निपंख को उड़ान का रास्ता?

आइए, समय के द्वार से हमारे जीवनदृश्य में प्रवेश करें, और साक्षी बनें मेरे विद्रोह की अग्निवीणा से गूंजते प्रेरणा के सप्तस्वरों के, साक्षी बनें मेरे छोटे भाई कुंदन के पितारूपी पुरुष से अपनी अलग सत्तानिर्माण के अंतर्द्वंद्व के, मां के चुनाव और पिता के असली चेहरे के.

हम मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के रामनगर कालोनी के पैतृक घर में रहते हैं. इस एकमंजिले मकान में 2 कमरे, एक सामान्य आकार का डाइनिंग हौल और एक ड्राइंगरूम है. बाहर छोटा सा बरामदा और 4र सीढ़ी नीचे उतर कर छोटेछोटे कुछ पौंधों के साथ बाहरी दरवाजे पर यह घर पूरा होता है.

48 साल के मेरे पापा अजितेश चौधरी सरकारी नौकरी में हैं. उन का बेटा कुंदन यानी मेरा भाई अभी 10वीं में है. मैं, कंकना, उन की बेटी, स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्रा. हम दोनों भाईबहनों का शारीरिक गठन, नैननक्श मां की तरह है. सधे हुए बदन पर स्वर्णवर्णी गेहुंएपन के साथ तीखे नैननक्श से छलकता सौम्य सारल्य. यह है हमारी मां हेमांगी. 43 की उम्र में जिस ने नियमित व्यायाम से 32 सा युवा शरीर बरकरार रखा है. हमेशा मृदु मुसकान से परिपूर्ण उस का चेहरा जैसे वे अपनी विद्वत्ता को विनम्रता से छिपाए रहती हो.

मेरी ममा हम दोनों भाईबहनों के लिए हमेशा खास रही. ममा को हम मात्र स्त्री के रूप में ही नहीं समझते बल्कि एक पूर्ण बौद्धिक व्यक्तित्व के रूप में.

सुबह 9 बजे का समय था. कालेज के लिए निकल रही थी मैं. घर में रोज की तरह कोलाहल का माहौल था.

पापा सरकारी कार्यालय में सहायक विकास अधिकारी थे. वे अपने बौस के अन्य 10 मातहतों के साथ उन के अधीन काम करते थे. लेकिन घर पर मेरी ममा पर उन का रोब किसी कलैक्टर से कम न था.

‘हेमा, टिफिन में देर है क्या? यार, घर पर और तो कुछ करती नहीं हो, एक यह भी नहीं हो रहा है, तो बता दो,’ पापा बैडरूम से ही चीख रहे थे.

‘दे दिया है टेबल पर,’ ममा ने बिना प्रतिक्रिया के सूचना दी.

‘दे दिया है, तो जबान पर ताले क्यों पड़े थे?’

‘चाय ला रही थी.’

‘लंचबौक्स भरा बैग में?’

‘रख रही हूं.’

‘सरकारी नौकरी है, समझ नहीं आता तुम्हें? यह कोई चूल्हाचौका नहीं है. मिनटमिनट का हिसाब देना पड़ता है.’

ममा टिफिन और पानी की बोतल औफिस के बैग में रख नियमानुसार पापा की कार भी पोंछ कर आ गई थी. और पापा टिफिन के लिए बैठे रहे थे.

यह रोज की कहानी थी, यह जतलाना कि मां की तुलना में पापा इस परिवार के ज्यादा महत्त्वपूर्ण सदस्य हैं. उन का काम ममा की तुलना में ज्यादा महत्त्व का है. यह दृश्य हमारे ऊपर विपरीत ही असर डालता था. इस बीच भाई और हम अपना टिफिन ले कर चोरों की तरह घर से निकल जाते.

रात को पापा की गालीगलौज से मेरी नींद उचट गई. रात 12 बजे की बात होगी. मैं शोर सुन ममा की चिंता में अपने कमरे के दरवाजे के बाहर आ कर खड़ी हो गई. ममा पापा के साथ बैडरूम में थी. ममा शांत लेकिन कुछ ऊंचे स्वर में कह रही थी- ‘आप के हाथपैर अब से मैं नहीं दबा पाऊंगी.

‘आप की करतूतों ने बरदाश्त की सारी हदें तोड़ दी हैं. आप की जिन किन्हीं लड़कियों और महिलाओं से संपर्क हैं, वे आप की कमजोरियों का फायदा उठा रही हैं. आप अपने औफिस की महिला कलीग को अश्लील वीडियो साझा करते थे, मैं ने सहा. किस स्त्री को क्या गिफ्ट दिया, बदले में आप को क्याक्या मिला, मैं ने अनदेखा किया और चुप रही. लेकिन अब आप सीमा से आगे निकल कर उन्हें घर तक लाने लगे हैं. क्या संदेश दे रहे हैं हमें? घर पर ला कर उन महिलाओं के साथ आप का व्यवहार कितना भौंडा होता है, क्या बच्चों से छिपा है यह?’

आज पहली बार ममा ने हिम्मत कर अपना विरोध दर्ज कराया था. पहली बार उस ने पापा के हुक्म को अमान्य कर के अपनी बात रखी थी. लेकिन यह इतना आसान नहीं था.परिणाम भयंकर होना ही था. मेरे पापा ऐसे व्यक्ति थे जो उन की गलती बताने वाले का बड़ा बुरा हश्र करते थे, और तब जब उन के कमरे में ममा का सोना उन की सेवा के लिए ही था.

झन से जिंदगी कांच की तरह टूट कर बिखर गई. आशा, भरोसा, उम्मीद का दर्पण चकनाचूर हो गया.

पापा ने ममा को जोरदार तमाचे मारे, ममा दर्द से बिलख कर उन्हें देख ही रही थी कि पापा ने ममा के पेट पर जोर का एक पैर जमाया. ममा ‘उफ़’ कह कर जमीन पर बैठ गई.

मैं जानती हूं यह दर्द उस के शरीर से ज्यादा मन पर था. आत्मसम्मान और आत्महनन की चोट वह नहीं सह पाती थी.

‘अब एक भी आवाज निकाली तो जबान खींच लूंगा. मैं कमाता हूं, तुम लोग मेरे पैसे पर ऐश करते हो, औकात है नौकरी कर के पैसे घर लाने की? जिस पर आश्रित हो, उसी को आंख दिखाती हो? जो मरजी होगी वह करूंगा मैं. अफसर हूं मैं. तुम क्या हो, एक नौकरी कर के दिखाओ तो समझूं.’

‘मेरी नौकरी पर पाबंदी तो आप ने ही लगा रखी है?’

‘अच्छा? नौकरी करना क्यों चाहती हो मालूम नहीं है जैसे मुझे. सब बहाने हैं गुलछर्रे उड़ाने के. तुम्हें लगता है नौकरी के बहाने मैं मौज करता हूं, तो तुम भी वही करोगी?’ पापा के पास जबरदस्त तर्क थे, जिसे सौफिस्ट लौजिक कहा जा सकता है. ग्रीक दर्शन में सौफिस्ट तार्किक वाले वे हुआ करते थे, जो निरर्थक और गलत बौद्धिक तर्कजाल से सामने वाले को बुरी तरह बेजबान कर देते थे.

 

बायबाय: क्या तन्मय को नौकरी मिली?

कालेज की पढ़ाई खत्म हो गई. संजना बीए पास तो कर गई लेकिन सिर्फ 45त्न ही अंक आए. मध्यवर्गीय परिवार की संजना घर ही बैठी थी. आजकल सभी लड़कियां नौकरी करती हैं. अत: उस ने भी नौकरी के लिए अप्लाई करना शुरू कर दिया.

रिजल्ट आए 1 महीना बीत चुका था. 1-2 जगह इंटरव्यू भी दिए लेकिन नौकरी नहीं मिली. न कोई अनुभव और न कोई सिफारिश. ऐसे में थर्ड डिविजन पास सिंपल ग्रैजुएट को अच्छी नौकरी मिलती नहीं.
कालेज में संजना की दोस्ती तन्मय से थी. मौजमस्ती के साथ दोस्ती नजदीकी में बदल गई. दोनों एकदूसरे से प्रेम के बंधन में बंध चुके थे. दोनों आपस में विवाह करेंगे. संजना खूबसूरत थी, तन्मय उस का साथ पा कर खयालों में गुम था, एक दिन दोनों का विवाह होगा.

जो हाल संजना का था, वही तन्मय का भी था. थर्ड डिविजन में पास होने वाले दोनों की आगे पढ़ाई में कोई रुचि नहीं थी. दिल्ली यूनिवर्सिटी में तो एडमिशन कहीं मिलना नहीं था. नौकरी ही एकमात्र लक्ष्य हो गया. रविवार के दिन दोनों साकेत में स्थित सिटी मौल में मिले. थोड़ी देर घूमे. विंडो शौपिंग करते रहे और फिर बाहर एक खाली जगह बैठ गए. ‘‘फिल्म देखेगी?’’

तन्मय के इस प्रश्न पर संजना ने उसे घूर कर देखा, ‘‘महीने का आखिर है. पौकेट मनी खत्म हो गई है. बड़ी मुश्किल से क्व500 मां से मांग कर यहां आई हूं. तेरे पास रुपए हैं तो दिखा दे. मेरी आज मूवी के क्व400 के टिकट लेने की हैसियत नहीं है. मां ने मुंह फाड़ कर सुना दिया कि रुपयों का करना क्या है. घर बैठ कर कहां उड़ाती है?’’

‘‘जो हाल तेरा है वही मेरा है. क्या किया जाए?’’

‘‘फिर फिल्म पर रुपए क्यों खर्च करता है. भूख लगी है, कुछ खा लेते हैं.’’

‘‘क्या खाएगी?’’

‘‘अब जेब देख कर सोचना पड़ेगा, कहां खाएं और क्या खाएं. मौल के फूड कोर्ट में खाएं या फिर बाहर निकल कर किसी रेहड़ीखोमचे पर खाया जाए.’’

‘‘चल फूड कोर्ट चलते हैं. इतने रुपए तो जेब में हैं, छोलेभठूरे तो खा ही सकते हैं.’’

‘‘उस के बाद फ्रूट भी खिला दूंगी. घर से 4 केले भी लाई हूं. आजकल केले भी क्व50 दर्जन बिक रहे हैं. मदरडेयरी में क्व50 में 4 केले आए हैं.’’

‘‘अच्छे साइज के केले हैं.’’

तन्मय के जवाब पर संजना ने घूर कर देखा, ‘‘कोई अपने लिए अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ ले वरना हमारा मिलना बंद हो जाएगा. फोकट में कोई कहीं घूम भी नहीं सकता है.’’

आज के युवा की ख्वाहिश भी कुछ अधिक होती है. प्राइवेट नौकरी में शुरू में नौसिखिए अनुभवहीन युवाओं को नाममात्र के क्व10 से क्व15 हजार मुश्किल से देते थे. युवाओं के नखरे भी होते हैं. क्व10 हजार की नौकरी संजना और तन्मय को मंजूर नहीं थी. फलस्वरूप 3 महीने और बीत गए, कोई नौकरी नहीं मिली.

फोन पर बात होती रहती. बाहर मिलना कम हो गया. बाहर निकलते ही खर्चे के लिए रुपए चाहिए, वे उन के पास होते नहीं थे.

तन्मय के ऊपर उस के मातापिता का दबाव अधिक था. वह लड़का है, जब पढ़ नहीं रहा तो किसी कामधंधे में लगे. कब तक फालतू में डोलता फिरेगा.

संजना के ऊपर नौकरी करने का कोई दबाव नहीं था. नौकरी मिल जाए तो भी ठीक नहीं मिलती तो भी कोई बात नहीं. संजना खूबसूरत है, उस के रिश्ते आने आरंभ हो गए थे. उस के मातापिता संभावित दामाद की खोज में जुट गए. दोनों इंटरव्यू देते रहे.

तन्मय को कुछ कंपनियों ने नौकरी देने की पेशकश की. सैलरी कम थी. तन्मय ने स्वीकार नहीं की, उस के स्टेटस के हिसाब से कम है. सारा दिन नौकरी करे और महीने के अंत में मिले मात्र क्व15 हजार, उस ने स्वीकार नहीं की. संजना ने एक नौकरी क्व15 हजार की स्वीकार कर ली.

रविवार के दिन मौल में दोनों घूम रहे थे. तन्मय विंडो शौपिंग ही कर रहा था. संजना को ताजी सैलरी मिली थी. वह एक स्टोर में घुस गई और अपने लिए ड्रैस खरीद ली. ‘‘चल आज मजे में फूड कोर्ट में बैठ कर ऐंजौय करते हैं.’’

संजना ने खाने की पेमैंट कर दी. तन्मय बोला तो कुछ नहीं लेकिन एक कसक उस के दिल में थी कि काश संजना उस को भी एक सस्ती सी टीशर्ट ही दिला देती. जब उस के साथ विवाह को इच्छुक है तब क्व500 ही खर्च कर दे.

संजना कम वेतन वाली नौकरी कर के भी खुश थी. घर में नहीं बैठना पड़ता. मातापिता की नजरें उसे देखती नहीं. अपने खर्च के लिए सैलरी बहुत है. उस के पिता ने एक व्यावहारिक सलाह दी. कर ले नौकरी, 6 महीनों या 1 साल बाद कुछ अनुभव प्राप्त कर के दूसरी कर लेना.

संजना ने तन्मय को भी यह सलाह दी. उस के मातापिता भी यही कहते. लेकिन उसे सलाह पसंद नहीं आई. वह मोटी सैलरी वाली नौकरी चाहता था जो उसे मिली नहीं. थर्ड डिविजन वालों को कौन पूछता है?
एक दिन संजना औफिस से निकल रही थी, तो तन्मय बाहर मिल गया.

‘‘और सुना, कोई काम मिला?’’ संजना ने पूछा.

‘‘अभी तो नहीं. चल कौफी पीते हैं.’’

‘‘आज तो बिलकुल नहीं. मु?ो घर पहुंचना है. रात के डिनर पर मु?ो देखने एक लड़का परिवार सहित आ रहा है. रैडी हो कर अपनी फैमिली के साथ एक रेस्तरां भी जाना है.’’

‘‘तू शादी कर लेगी?’’ तन्मय हैरान था.

‘‘तू ने शायद प्रण कर रखा है कि कोई कामधंधा नहीं करना. मु?ो देख, मैं ने 1 साल में क्व15 हजार की सैलरी में भी क्व80 हजार का बैंक बैलेंस बना लिया है. बाकी अपने ऊपर खर्च किया. तु?ो हर संडे खाना खिलाती हूं. एक पैसा भी खर्च किया है तूने? अब रिश्ते आ रहे हैं. सुना है लड़के की क्व50 हजार सैलरी है. मजे में लाइफ गुजरेगी. अच्छा बायबाय. मैं चलती हूं.’’ संजना चली गई. तन्मय के कानों में बायबाय गूंज रहा था.

बस एक बार आ जाओ

प्यार का एहसास अपनेआप में अनूठा होता है. मन में किसी को पाने की, किसी को बांहों में बांधने की चाहत उमड़ने लगती है, कोई बहुत अच्छा और अपना सा लगने लगता है और दिल उसे पूरी शिद्दत से पाना चाहता है, फिर कोई भी बंधन, कोई भी दीवार माने नहीं रखती, पर कुछ मजबूरियां इंसान से उस का प्यार छीन लेती हैं, लेकिन वह प्यार दिल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है. हां सुमि, तुम्हारे प्यार ने भी मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ी है. हमें बिछड़े 10 वर्ष बीत गए हैं, पर आज भी बीता हुआ समय सामने आ कर मुंह चिढ़ाने लगता है.

सुमि, तुम कहां हो. मैं आज भी तुम्हारी राहों में पलकें बिछाए बैठा हूं, यह जानते हुए भी कि तुम पराई हो चुकी हो, अपने पति तथा बच्चों के साथ सुखद जीवन व्यतीत कर रही हो और फिर मैं ने ही तो तुम से कहा था, सुमि, कि य-पि यह रात हम कभी नहीं भूलेंगे फिर भी अब कभी मिलेंगे नहीं. और तुम ने मेरी बात का सम्मान किया. जानती हो बचपन से ही मैं तुम्हारे प्रति एक लगाव महसूस करता था बिना यह सम झे कि ऐसा क्यों है. शायद उम्र में परिपक्वता नहीं आई थी, लेकिन तुम्हारा मेरे घर आना, मु झे देखते ही एक अजीब पीड़ा से भर उठना, मु झे बहुत अच्छा लगता था.

तुम्हारी लजीली पलकें  झुकी होती थीं, ‘अनु है?’ तुम्हारे लरजते होंठों से निकलता, मु झे ऐसा लगता था जैसे वीणा के हजारों तार एकसाथ  झंकृत हो रहे हों और अनु को पा कर तुम उस के साथ दूसरे कमरे में चली जाती थीं.’

‘भैया, सुमि आप को बहुत पसंद करती है,’ अनु ने मु झे छेड़ा.

‘अच्छा, पागल लड़की फिल्में बहुत देखती है न, उसी से प्रभावित होगी,’ और मैं ने अनु की बात को हंसी में उड़ा दिया, पर अनजाने में ही सोचने पर मजबूर हो गया कि यह प्यारव्यार क्या होता है सम झ नहीं पाता था, शायद लड़कियों को यह एहसास जल्दी हो जाता है. शायद युवकों के मुकाबले वे जल्दी युवा हो जाती हैं और प्यार की परिभाषा को बखूबी सम झने लगती हैं. ‘संभल ऐ दिल तड़पने और तड़पाने से क्या होगा. जहां बसना नहीं मुमकिन, वहां जाने से क्या होगा…’

यह गजल तुम अनु को सुना रही थी, मु झे भी बहुत अच्छा लगा था और उसी दिन अनु की बात की सत्यता सम झ में आई और जब मतलब सम झ में आने लगा तब ऐसा महसूस हुआ कि तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है. कैशौर अपना दामन छुड़ा चुका था और मैं ने युवावस्था में कदम रखा और जब तुम्हें देखते ही अजीब मीठीमीठी सी अनुभूति होने लगी थी. दरवाजे के खटकते ही तुम्हारे आने का एहसास होता और मेरा दिल बल्लियों उछलने लगता था. कभी मु झे महसूस होता था कि तुम अपलक मु झे देख रही हो और जब मैं अपनी नजरें तुम्हारी ओर घुमाता तो तुम दूसरी तरफ देखने लगती थी, तुम्हारा जानबू झ कर मु झे अनदेखा करना मेरे प्यार को और बढ़ावा देता था. सोचता था कि तुम से कह दूं, पर तुम्हें सामने पा कर मेरी जीभ तालु से चिपक जाती थी और मैं कुछ भी नहीं कह पाता था कि तभी एक दिन अनु ने बताया कि तुम्हारा विवाह होने वाला है. लड़का डाक्टर है और दिल्ली में ही है. शादी दिल्ली से ही होगी. मैं आसमान से जमीन पर आ गिरा.

यह क्या हुआ, प्यार शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया, ऐसा कैसे हो सकता है, क्या आरंभ और अंत भी कभी एकसाथ हो सकते हैं. हां शायद, क्योंकि मेरे साथ तो ऐसा ही हो रहा था. मेरा मैडिकल का थर्ड ईयर था, डाक्टर बनने में 2 वर्ष शेष थे. कैसे तुम्हें अपने घर में बसाने की तुम्हारी तमन्ना पूरी करूंगा. अप्रत्यक्ष रूप से ही तुम ने मेरे घर में बसने की इच्छा जाहिर कर दी थी, मैं विवश हो गया था.  दिसंबर के महीने में कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. इसी माह तुम्हारा ब्याह होने वाला था. मेरी रातों की नींद और दिन का चैन दोनों ही जुदा हो चले थे. तुम चली जाओगी यह सोचते ही हृदय चीत्कार करने लगता था, ऐसी ही एक कड़कड़ाती ठंड की रात को कुहरा घना हो रहा था. मैं अपने कमरे से तुम्हारे घर की ओर टकटकी लगाए देख रहा था. आंसू थे कि पलकों तक आआ कर लौट रहे थे. मैं ने अपना मन बहुत कड़ा किया हुआ था कि तभी एक आहट सुनाई दी, पलट कर देखा तो सामने तुम थी. खुद को शौल में सिर से लपेटे हुए. मैं तड़प कर उठा और तुम्हें अपनी बांहों में भर लिया. तुम्हारी आवाज कंपकंपा रही थी.

‘मैं ने आप को बहुत प्यार किया, बचपन से ही आप के सपने देखे, लेकिन अब मैं दूर जा रही हूं. आप से बहुत दूर हमेशाहमेशा के लिए. आखिरी बार आप से मिलने आई हूं,’ कह कर तुम मेरे सीने से लगी हुई थी.

सुमि, कुछ मत कहो. मु झे इस प्यार को महसूस करने दो,’ मैं ने कांपते स्वर में कहा.

‘नहीं, आज मैं अपनेआप को समर्पित करने आई हूं, मैं खुद को आप के चरणों में अर्पित करने आई हूं क्योंकि मेरे आराध्य तो आप ही हैं, अपने प्यार के इस प्रथम पुष्प को मैं आप को ही अर्पित करना चाहती हूं, मेरे दोस्त, इसे स्वीकार करो,’ तुम्हारी आवाज भीगीभीगी सी थी, मैं ने अपनी बांहों का बंधन और मजबूत कर लिया. बहुत देर तक हम एकदूसरे से लिपटे यों ही खड़े रहे. चांदनी बरस रही थी और हम शबनमी बारिश में न जाने कब तक भीगते रहे कि तभी मैं एक  झटके से अलग हो गया. तुम कामना भरी दृष्टि से मु झे देख रही थी, मानो कोई अभिसारिका, अभिसार की आशा से आई हो. नहींनहीं सुमि, यह गलत है. मेरा तुम पर कोई हक नहीं है, तुम्हारे तनमन पर अब केवल तुम्हारे पति का अधिकार है, तुम्हारी पवित्रता में कोई दाग लगे यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता हूं. हम आत्मिक रूप से एकदूसरे को समर्पित हैं, जो शारीरिक समर्पण से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, तुम मु झे, मैं तुम्हें समर्पित हूं.

हम जीवन में कहीं भी रहें इस रात को कभी नहीं भूलेंगे. चलो, तुम्हें घर तक छोड़ दूं, किसी ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी. तुम कातर दृष्टि से मु झे देख रही थी. तुम्हारे वस्त्र अस्तव्यस्त हो रहे थे, शौल जमीन पर गिरा हुआ था, तुम मेरे कंधों से लगी बिलखबिलख कर रो रही थी. चलो सुमि, रात गहरा रही है और मैं ने तुम्हारे होंठों को चूम लिया. तुम्हें शौल में लपेट कर नीचे लाया. तुम अमरलता बनी मु झ से लिपटी हुई चल रही थी. तुम्हारा पूरा बदन कांप रहा था और जब मैं ने तुम्हें तुम्हारे घर पर छोड़ा तब तुम ने कांपते स्वर में कहा, ‘विकास, पुरुष का प्रथम स्पर्श मैं आप से चाहती थी. मैं वह सब आप से अनुभव करना चाहती थी जो मु झे विवाह के बाद मेरे पति, सार्थक से मिलेगा, लेकिन आप ने मु झे गिरने से बचा लिया. मैं आप को कभी नहीं भूल पाऊंगी और यही कामना करती हूं कि जीवन के किसी भी मोड़ पर हम कभी न मिलें, और तुम चली गईं.

10 वर्ष का अरसा बीत चला है, आज भी तुम्हारी याद में मन तड़प उठता है. जाड़े की रातों में जब कुहरा घना हो रहा होता है, चांदनी धूमिल होती है और शबनमी बारिश हो रही होती है तब तुम एक अदृश्य साया सी बन कर मेरे पास आ जाती हो. हृदय से एक पुकार उठती है. ‘सुमि, तुम कहां हो, क्या कभी नहीं मिलोगी?’

नहीं, तुम तड़पो, ताउम्र तड़पो,’ ऐसा लगता है जैसे तुम आसपास ही खड़ी मु झे अंगूठा दिखा रही हो. सुमि, मैं अनजाने में तुम्हें पुकार उठता हूं और मेरी आवाज दीवारों से टकरा कर वापस लौट आती है, क्या मैं अपना पहला प्यार कभी भूल सकूंगा?

उड़ान: क्या प्रतिभा परंपरा रूढ़िवादी परंपरा को बदल पाई?

प्रतिभा नाम मु?ो कैसे मिला, मालूम नहीं. इसे सार्थक करने का जिम्मा कब लिया, यह भी नहीं मालूम पर इतना जरूर मालूम है कि मैं रूपवती नहीं हूं. मेहनत से प्राप्त सफलता और सफलता से प्राप्त आत्मविश्वास की सीढि़यां चढ़ कर मैं ने अपने साधारण से व्यक्तित्व में चार नहीं तो तीन चांद अवश्य लगा दिए हैं. यद्यपि मैं 7 और 11 वर्षीया 2 प्यारी बेटियों की मां भी बन चुकी हूं, लेकिन हमेशा दुबलीपतली रही, इसलिए उम्र में कभी 22 से बड़ी नहीं लगी.

मेरे पति एक कंपनी में काम करते हैं और मैं विश्वविद्यालय में प्राध्यापिका हूं. मेरे पति
को इसीलिए मेरा नौकरी करना खूब पसंद है.

12 बरस बीत गए हैं उन से मेरी शादी को. तभी से शिकागो में हूं. मु?ो यहां के जर्रेजर्रे से प्यार हो चुका है, लेकिन मेरे पति अपनी नौकरी से खुश नहीं हैं, इसलिए बदलना चाहते हैं. अत: कब, कहां जाना होगा, फिलहाल कुछ पता नहीं है.

यों तो अपने देश की याद आना कोई नई बात नहीं है, मगर इन की नौकरी की उधेड़बुन में देश की इतनी याद आई कि जाड़ों की छोटी सी 2 हफ्ते की छुट्टियों में भी मैं सपरिवार भारत चली आई. आज वापस जा रही हूं. सबकुछ कितना बदलता जा रहा है, इस बात का एहसास मु?ो तब हुआ जब मु?ो अपनी कार में हवाईअड्डे छोड़ने जा रहे पिताजी ने अचानक कहा, ‘‘प्रतिभा, वह बंगला देख रही हो, उस कालोनी के कोने पर. वहां धनश्याम रहता है, अपनी बीवी और 2 बच्चों के साथ. अपनी मां से अलग हो गया है वह.’’

इतना बड़ा घर, कितनी शानशौकत के साथ रहते होंगे वहां. शायद 4-5 नौकर उन लोगों के आगेपीछे घूमते होंगे, लेकिन अपनी बुढि़या मां से अलग हो गए हैं. पलभर को सोचने लगी, क्या ये वही घनश्याम हैं, जिन्हें अपनी विधवा मां से विशेष प्रेम था. कई भाईबहनों में सब से छोटे थे घनश्याम. धीरेधीरे सब मां को छोड़ कर अपनेअपने घरसंसार में जब गए. घनश्याम ही बचे थे, जो अपनी मां को हमेशा साथ रख कर उन की सेवा करना चाहते थे.
कार में बैठेबैठे उन दिनों के दृश्य आंखों के सामने घूमने लगे, जब मेरा छोटा भाई सुमेश हवाईजहाज बनाता था- कागज और लकड़ी के बने मौडल हवाईजहाज. उन की उड़ान देख कर मेरा दिल भी दूर आकाश में उड़ने लगता था. मैं मन ही मन जैसे गाने लगती थी, ‘‘मोनो मोर में घेरो शोंगी, उड़े चाले दीग दीगां तेरो पाड़े…’’

छोटा सा हवाईजहाज होता था सुमेश का. कुछ ही देर में नीचे आने लगता था और उस के साथ ही जमीन पर आ जाता था मेरा मन. 16 बरस की ही तो थी तब मैं. उड़ान का मतलब भी सही ढंग से नहीं जानती थी तब.

उन्हीं दिनों सुमेश को उस के एक कनाडियन दोस्त ने एक हवाईजहाज बनाने की किट भेंट की थी. उस से एक बड़ा सा हवाईजहाज बन सकता था. मैं उसे बनता देखने को बहुत उत्सुक थी. कई दिन इंतजार करना पड़ा था उस के लिए मु?ो. जब पूरा हुआ तो दिल की दिल में ही रह गई. वह उड़ा ही नहीं. उसे ठीक करना हमारे घर में तो किसी को आता नहीं था. घर के पास स्थित विश्वविद्यालय के हाबी वर्कशौप में ऐसे ही छोटे बाग में उड़ाने लायक हवाईजहाज कुछ छात्र बनाते थे. प्रोफैसर पिताजी ने अपने एक विद्यार्थी से सुमेश का हवाईजहाज आ कर देखने को कहा.

शाम को दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोलने को मैं ही उठी. उन साहब ने नाम बताया, ‘घनश्यामदास,’ नाम गले में ही अटक कर रह गया, लेकिन होंठों पर मुसकराहट तैर गई. वही तो आए थे सुमेश का हवाईजहाज ठीक करने. संतुलन में कुछ गड़गड़ी थी. करीब आधा घंटा लगा उसे घिसघिसा कर ठीक करने में. अगली शाम उन्होंने ही डोर संभाल रखी थी, उड़ते हवाईजहाज की. हवाईजहाज के साथसाथ मैं भी मन ही मन उड़ती रही आकाश में.

उस के बाद तो घनश्याम जब तक वहां पढ़ते रहे, हफ्ते में 2-4 बार जरूर आते थे हमारे घर. मैं जब तक दिखाई नहीं पड़ती थी, उन की आंखें मु?ो खोजती फिरती थीं. जब मैं मिल जाती तो उन की एक मुसकराहट मु?ो उन के पास खींच ले जाती थी. आते तो थे वे पिताजी और सुमेश से बतियाने, लेकिन बात मू?ा से कर जाते थे. मैं चुप ही रहती. चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती थी. शायद एक अदना सी लड़की की इच्छाओं को जानना भी कौन चाहता था. जो उड़ भी सकती है, इस की किस को परवाह थी. सब अपनी मरजी के मालिक जो ठहरे.

अचानक मेरी बड़ी बिटिया को याद आया, ‘‘मां, मेरा टैनिस रैकेट तो रख लिया है
न आप ने?’’

घनश्याम टैनिस अच्छा खेलते थे. उस शाम भी उन का भी सिटी टूरनामैंट का टैनिस का फाइनल मैच था. खूब भीड़ इकट्ठी थी चारों ओर. मैं सब से आगे की पंक्ति में पिताजी के पास ही बैठी थी. मैच का समय हुआ और वे कोर्ट पर आए. तालियों के साथ आई कुछ आवाजें भी, ‘‘मक्खन लगाओ तो ऐसा जो नंबर भी मिलें और ससुराल भी.’’

उन्होंने मेरी ओर देखा जैसे सहमति मांग रहे हों. उस मैच में वे कड़े संघर्ष में हार गए. मुंह लटका कर जा रहे थे.

मैं ने साहस बंधाया, ‘‘आप टैनिस तो बहुत अच्छा खेलते हैं.’’ मैच के बाद अपने भाई, भाभी और 8 वर्षीय भतीजे को ले कर वे हमारे घर आए. मैं ने सब को आइसक्रीम परोसी. वे दूसरे नंबर पर बैठे थे. उन से पूछा, ‘‘और लेंगे?’’

बोले, ‘‘जितनी श्रद्धा हो दे दीजिए.’’

याद नहीं कि उन्हें और दे पाई या नहीं, लेकिन जब उन के भतीजे तक पहुंची और पूछा कि और दूं क्या तो वह बोला, ‘‘जितनी श्रद्धा थी वह चचाजान को दे आईं, मु?ो क्या देंगी.’’

सब लोग हंस पड़े और मैं लजा कर बाहर दौड़ गई. मन उड़ान भर उठा 7वें आसमान की ओर. जबजब उन के रिश्तेदार शहर में आते थे, वे उन्हें हमारे घर अवश्य लाते.

पिताजी ने कार रोक कर सामान की जांच की. छोटी सी कार पर इतना सारा सामान ज्यादा हो गया था. कभी कुछ खिसकने लगता तो कभी कुछ.

सुमेश बोला, ‘‘पिताजी, सामान तो नहीं, लगता है हमारे जीजाजी कार को भारी पड़ रहे हैं. ये न होते तो एक बक्सा और कार में रख लेते.’’

सब लोग हंस पड़े. गजब की विनोदप्रियता थी उन में. बात किसी और से कहते, किस्सा किसी और का होता, पर लाद देते थे मु?ा पर. मैं सब के सामने खिसियानी सी हो उठती.

एक बार सुनाया, ‘‘कुछ दिन हुए मैं अपने बरामदे में खड़ा था. नीचे सड़क पर एक साहिबा जा रही थीं. उन की साड़ी अपने ब्लाउज से अलग रंग की थी, मगर साथ चलते साहब के सूट से अवश्य मेल खाती थी.’’
मु?ो याद आया कि 2 दिन पहले पीला लहंगा, हरा ब्लाउज और मैरून रंग की चुन्नी में मैं ही तो गुजरी थी उन के छात्रावास के सामने से. एक नजर देखा भी था बरामदे में खड़े साहब को मैरून सूट में.

उस दिन में पिछवाड़े से घर में घुसी ही थी कि वे सामने के लौन में बैठे नजर आए. मैं पहुंची तो बड़े अंदाज से मेरी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘भई, आज तो बिहारी की नायिका को भी मात कर दिया, चश्मा लगा कर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलीं. कहां खो गई थीं.’’

मैं सम?ा गई कि यहां बैठने से पहले जनाब मु?ो सारे घर में ढूंढ़ आए हैं. एक दीपावली पर मेरा बनाया बधाई का कार्ड उन्हें पूरे परिवार की तरफ से भेजा था. शाम को घर आए. सुमेश और मैं ही थे घर पर. बोले, ‘‘एक बात है हमें सुंदरसुंदर बधाई के कार्ड तो मिल जाया करेंगे दोस्तों को भेजने के लिए.’’
ऐसे होते थे उन के व्यंग्य. एक बार कहने लगे कि मु?ो लेडी अरविन से होमसाइंस का कोर्स करना चाहिए. दिल्ली में उन के घर के पास था न यह कालेज. शायद इसीलिए कहा था. वे अपनी पढ़ाई पूरी कर के वापस जो लौटने वाले थे. जी में तो आया पूछूं, ‘‘कोई कमी है क्या वहां लड़कियों की?’’

पिताजी ने पूछा, ‘‘कोई कौफी पीएगा? यहां इंडियन कौफीहाउस में कौफी अच्छी मिलती है.’’ ‘‘पिताजी, कौफी पीना मु?ो अच्छा नहीं लगता. अलबत्ता कुछ खा सकती थी, लेकिन देर हो रही है. अब सीधे पालम ही चलिए,’’ मैं ने कहा और कार आगे बढ़ने लगी.

एक शाम वे अपने कमरे में नैस्कैफे का डब्बा लाए. बड़े उत्साह से फेंट कर कौफी बनाई. आंखों ही आंखों में एक आग्रह था. उन्होंने एक प्याला मेरी ओर बढ़ाया. मैं ने कभी कौफी नहीं पी थी. उन के आग्रह के बावजूद सब घर वालों के सामने उन के हाथ से कप लेने की हिम्मत नहीं संजो पाई.

सालभर पलक ?ापकते ही निकल गया. मैं 16 से 17 साल की हो गई थी. विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग विभाग में प्रवेश ले लिया था. उन्होंने एक और किस्सा सुना दिया, ‘‘एक बार एक श्रीमतीजी ने रेडियो से प्रोत्साहित हो कर घर का बिगड़ा बजट सुधारने की ठानी. इधर पतिदेव दफ्तर में गए और वह घर के पुराने अखबार इकट्ठे कर के लिफाफे बनाने में लग गई. दिनभर न खाने की सुध रही न पीने की. शाम तक किसी तरह 100 लिफाफे बना डाले. 5 रुपए के बिके. जब शाम को पतिदेव लौटे तो खाना नदारद. तब तय किया कि बाहर रेस्तरां में चल कर खा लिया जाए. 16 रुपए का बिल आया. इस से तो वह घर रह कर बढि़या खाना बनाती, जिस से पतिदेव खुश हो कर अगले दिन दोगुने उत्साह से दफ्तर जाते, दोगुना काम करते और समय से पहले ही अगली तरक्की पा जाते, मैं ने सोचा.

साफ था कि उन्हें मेरी पढ़ाईलिखाई रास नहीं आ रही थी. चाहते थे कि थोड़ाबहुत पढ़ कर ही किसी के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाऊं. बिना अपने को वचनबद्ध किए ही मु?ा से इतना बड़ा वचन मांग रहे थे.
इच्छा तो हुई कि कह दूं कि तो आज ही ब्याह रचा लो, फिर तुम्हारी ही सुनूंगी वरना जिस दिन तैयार हो जाओ उस दिन बात करना. लेकिन साहस नहीं कर पाई इतना सब कहने का. वे भी शायद जवाब की आशा नहीं करते थे. वे तो बस उड़ना और उड़ाना जानते थे. शायद किसी से उधार मांग रखी थी वह मुसकराहट, जो बाद में मिलने पर कभी चेहरे पर नजर नहीं आई.

मालूम नहीं कैसे मैं बड़ी हो गई. ‘टर्निंग पौइंट’ की शर्ले मैक्लीन को भी मात दे कर आगे बढ़ गई और अपने बालू के ढेर पर बनाए सब सपनों को ताक पर रख कर इंजीनियर बन गई. इन 4 बरसों में शायद 4 बार भी उन से मुलाकात नहीं हुई. 2 मुलाकातें तो मैं ने ही कोशिश कर के दिल्ली में की थीं. सारा वातावरण ऐसा था कि लगता था जैसे अनचाहे और अनजाने ही बांध दी जाऊंगी उन से किसी भी दिन. मन में जानती थी कि एक मुसकराहट पर मरा जा सकता है, लेकिन जिंदगी नहीं बिताई जा सकती. यही मकसद था मेरा उन से मिलने का. लेकिन उन्होंने कुछ कहा ही नहीं. मैं भी शब्दों में कंजूसी कर गई. मन की बात मन ही रख कर चली आई. कितना अच्छा होता यदि वे कुछ शुरुआत करते और मैं कह पाती, ‘‘आप ने महसूस किया है कि कितने अलग हैं हम दोनों एकदूसरे से?’’

शायद इतना कहना ही काफी होता, अपनी हार को जीत में बदलने के लिए ‘मना’ करना जितना अहं को संतुष्ट करता है. ‘न’ सुनना उतना ही ठेस पहुंचा सकता है. नहीं सम?ाती थी मैं उस दिन तक.
सम?ा तब, जब मैं ने एक दिन पिताजी की मेज पर रखा देखा उन की शादी का निमंत्रण पत्र. उसी के पास रखा था, एक पत्र जो उन्होंने कुछ अरसा पहले लिखा होगा. प्रत्यक्ष था कि पापा ने मेरा प्रस्ताव रखा होगा उन के सामने.

उन का जवाब था, ‘‘शी इज टू ऐजुकेटेड फौर मी,’’ (वह मेरे हिसाब से बहुत ज्यादा पढ़ीलिखी है) मु?ो लगा जैसे मेरा अधिकार उन्होंने छीन लिया हो. वही तो लगाते थे हमारे घर के चक्कर और घंटों बैठे रहते थे. वही तो कहानी सुनाते थे दुनियाभर की. फिर वही मुकर गए.

कोई दलील नहीं चली उस दिन मन के आगे. बहुत बुरा लगा. हार जो गई थी. क्या बीतती होगी उन बेचारियों पर जो 25 बार संवारीसजाई जाती हैं ताकि उन्हें देखने आने वाला ‘हां’ कर दे. तभी एक ?ाटके के साथ कार रुकी. हम पालम पहुंच गए थे. मन की उड़ान एक ?ाटके में छिन्नभिन्न हो गई.

सामान ले कर हम ने सब से विदा ली. पिताजी ने कहा, ‘‘बड़ी कमजोर लग रही हो. अपनी सेहत का खयाल रखा करो.’’ पिताजी को मैं कमजोर लग रही थी. एक बार भी उन्होंने यह नहीं कहा, ‘‘प्रतिभा, बड़ी खुशी हुई यह सुन कर हमारी बिटिया को सर्वश्रेष्ठ नए नागरिक का खिताब मिला,’’ इतने अखबारों में मेरी खबर छपी बढि़या फाटो के साथ और पिताजी को बस एक बात ही नजर आई कि कमजोर लग रही हूं.

मेरी चुप्पी सुमेश ने तोड़ी, ‘‘पिताजी, प्रतिभा ने अपनी जिंदगी इतनी क्रियाशील बना रखी है कि मांस चढ़े कहां से. यदि प्रतिभा न रही तो जीजाजी को 3-3 बीवियां रखनी होंगी उस की कमी को पूरा करने के लिए. एक बीवी नौकरी करेगी, दूसरी परिवार और घर की देखभाल और तीसरी उन के सामाजिक और राजनीतिक जीवन की सहचरी होगी.’’

मैं ने चलते हुए सास के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया. हम लोग पालम के इंदिरा गांधी इंटरनैशनल एअरपोर्ट की भीड़ को चीरते हुए सिक्युरिटी से गुजर कर हवाईजहाज में जा बैठे. कितनी इज्जत है मेरी ससुराल में. शायद इसलिए न कि हर छोटी से छोटी रूढि़ को निभाने से मेरी इज्जत पर आंच नहीं आती.
हवाईजहाज ने दौड़ लगाई और पीछे छूटने लगे वह बंगला जो मन पर हावी होने लगे था.

मैं आधुनिक जगत में इतना गहरे पैठ चुकी हूं कि सिर ढकने और पैर छूने से मु?ो रूढि़वादी कहलाए जाने का डर नहीं लगता. आज मेरी इज्जत बनी है इंजीनियरी की ठोस बुनियाद पर. पर सोचती हूं कि क्या मैं आज विजय के साथ जुड़ कर जीत गई? क्या मेरी जीत का आधार वह चुनौती नहीं थी जो घनश्याम के इनकार से 12 वर्ष पूर्व मेरी जिंदगी में प्रणय व प्यार की जगह अनजाने सामने आ खड़ी हुई थी?

रिश्तों का बंधन: भाग 1- विजय ने दीपा की फोटो क्यों जलाई

‘‘डैडी,मैं ने रेस्तरां बेच दिया है.’’
रिटायर्ड कर्नल विमल उस वक्त बालकनी में बैठे अखबार पढ़ रहे थे जब उन की लड़की दीपा ने उन से यह बात कही. उन्होंने एक सरसरी सी नजर अपनी बेटी पर डाली जो उन के लिए केतली से कप में चाय डाल रही थी.
‘‘हम अगले हफ्ते शिमला वापस जा रहे हैं.’’

दीपा की इस बात का भी विमल ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘डैडी चाय,’’ दीपा ने चाय का प्याला उन की ओर बढ़ा दिया.
‘‘डैडी, क्या मैं ने कुछ गलत किया?’’

‘‘नहीं, बिलकुल गलत नहीं,’’ विमल ने एक घूंट चाय सिप करते हुए कहा.

‘‘लेकिन आप ने पूछा नहीं कि मैं ने यह फैसला क्यों लिया और वह भी बिना आप से पूछे?’’
विमल ने चाय का प्याला टेबल पर रख दिया और प्यार से अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘क्योंकि मैं जानता हूं कि मेरी बेटी जो भी कदम उठाती है, सोचसमझ कर ही उठाती है.’’

‘‘डैडी,’’ दीपा के मुंह से हलकी कराह जैसी आवाज निकली और वाह अपने डैडी के गले से लिपट गई, ‘‘आई लव यू डैडी,’’ उस के मुंह से निकला.

कर्नल विमल रिटायर्ड आर्मी औफिसर थे. दुश्मन से मोरचा लेते हुए वे अपना एक हाथ और एक पैर गंवा चुके थे. उन की पत्नी अपने पति का यह हाल नहीं देख सकीं और सदमे में चल बसी थीं. दीपा उन की इकलौती बेटी थी, जो अपनी पढ़ाई पूरी कर के विदेश जाना चाहती थी, लेकिन अब उस ने अपना फैसला बदल दिया था और एक रेस्तरां चलाती थी.

विमल ने कई बार उस से शादी कर अपना घर बसाने की बात कही, पर उस ने हमेशा मना कर दिया. वह अपने अपाहिज पिता को अकेले इस तरह छोड़ कर जाने को तैयार नहीं थी. विमल को दीपा पर पूरा भरोसा था, इसलिए उन्हें उस के इस फैसले पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. शिमला में उन का पुराना मकान था. दीपा ने उन से वहीं वापस जाने की बात कही थी.

विमल ने दीपा का चेहरा उठाया और उस की भीगी पलकों को देखते हुए बोले, ‘‘यह क्या बेटी तेरी आंखों में आंसू? तुझे याद नहीं, मैं ने तेरी मां को उस के आखिरी समय पर क्या वचन दिया था कि मैं तेरी आंखों में कभी आंसू नहीं आने दूंगा.

दीपा ने विमल की ओर देखा, फिर अपने रूमाल से उन की भीग आई आंखों को पोंछते हुए अपने कमरे में चली गई और पलंग पर लेट कर एक मैगजीन उठा कर उस के पन्ने पलटने लगी, लेकिन उस का ध्यान मैगजीन में नहीं लग रहा था. धीरेधीरे उसे अपनी जिंदगी के कुछ पिछले पन्ने पलटते दिखाई पड़े…
उस दिन बारिश बहुत हुई थी और दीपा का रेस्तरां पूरी तरह खाली था. कोईर् वर्कर भी नहीं आया था. दीपा अकेली बैठी रेडियो सुन रही थी. तभी उस की नजर अपने रेस्तरां के बाहर खड़े एक युवक पर पड़ी, जो बुरी तरह पानी में भीगा हुआ था और ठंड से जकड़ा जा रहा था. दीपा ने उसे अपने काउंटर से ही आवाज दी, ‘‘हैलो, अंदर आ जाओ.’’

युवक ने शायद सुना नहीं.
दीपा ने दोबारा उसे आवाज दी, ‘‘हैलो, मैं आप ही से कह रही हूं, अंदर आ जाओ वरना बीमार हो जाओगे.’’

अब की युवक ने मुड़ कर देखा तो दीपा को अपनी ओर इशारा करते हुए पाया. वह अंदर चला गया.
‘‘बैठ जाओ, बहुत भीग गए हो,’’ दीपा उठ कर उस के पास आई और एक कुरसी उस के करीब खिसका दी.
‘‘थैंक यू,’’ युवक बोला. लेकिन तब तक दीपा अंदर जा चुकी थी और जल्द ही 2 कप चाय ले कर आ गई और उस के पास ही कुरसी पर बैठ गई और उस के पास चाय का प्याला
रख दिया.
युवक ने पहले चाय की ओर, फिर दीपा की ओर देखा और सकुचाते हुए बोला, ‘‘इस की क्या जरूरत थी, आप ने बेकार ही तकलीफ की.’’
‘‘फार्मैलिटी दिखाने की जरूरत नहीं है. मैं देख रही हूं कि तुम सर्दी में ऐंठे जा रहे हो. अगर गरमागरम चाय नहीं पी तो निश्चय ही निमोनिया हो जाएगा तुम्हें.’’
युवक ने जल्दी से कप उठा लिया और चाय पीने लगा. उसे लगा जैसे इस सर्दी में उसे चाय नहीं अमृत मिल गया है.
‘‘और हां, मैं ने तुम पर कोईर् एहसान नहीं किया है चाय पिला कर. दरअसल, मुझे भी चाय की तलब हो रही थी, लेकिन आलस के मारे उठा नहीं गया. तुम देख रहे हो न कि आज यहां कोई वर्कर नहीं आया है, सो चाय खुद ही बनानी पड़ी. तुम्हारे साथसाथ मुझे भी चाय मिल गई. वैसे इस भरी बरसात में जनाब आप हैं कौन और कौन सा शिकार करने निकले थे?’’

युवक दीपा की इतनी बेबाकी पर हंस पड़ा और बोला, ‘‘मेरा नाम विजय है और मैं एक काम की तलाश में निकला था.’’

‘‘इतनी बरसात में काम की तलाश करना, वाह कमाल है. क्या रोटीवोटी के लाले पड़ रहे हैं?’’
नहीं… नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. दरअसल, मेरे डैडी चाहते हैं कि मैं उन के बिजनैस में उन का हाथ बंटाऊ, लेकिन मैं अपनेआप अपने पैरों पर खड़े होना चाहता हूं, इसलिए काम के लिए मुझे बारिश या तूफान की कोई परवाह नहीं होती.’’

‘‘हूं,’’ दीपा उस की ओर देखती हुई बोली, ‘‘खयाल अच्छा है और विचार भी तुम्हारे ऊंचे हैं. तुम्हारा यह कहना भी सही है कि हर किसी को खुद अपने बल पर अपन भविष्य बनाना चाहिए.’’
‘‘आप को देख कर तो ऐसा ही लगता है कि इतने छोटा लेकिन प्यारा सा रेस्तरां आप ने खुद ही खड़ा किया है…’’
‘‘दीपा, मेरा नाम दीपा है और मैं ही अकेली इस रेस्तरां को पिछले कई सालों से चला रही हूं. मैं ने इस के लिए किसी की मदद नहीं ली, बस मेरे डैडी का आशीर्वाद है जो मैं रोज सुबहशाम उन से लेती हूं.’’
दीपा और विजय की यह छोटी सी मुलाकात धीरेधीरे बढ़ती गई और पता नहीं

कब इन मुलाकातों का दौर प्यार में बदल गया. दीपा को लगा जैसे उसे जीने के लिए एक और सहारा मिल गया हो. उस ने अपनी और विजय की मुलाकात और प्यार के बारे में विमल को सबकुछ बता दिया. विमल को यह जान कर बहुत खुशी हुई. उन्हें लगा जैसे दीपा और विजय की शादी कर वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएगा.

‘‘डैडी, आज मैं बहुत खुश हूं,’’ दीपा उस दिन अपने डैडी से लिपट कर बोली थी. विमल ने उस दिन अपनी बेटी की आंखों में एक नई और अनोखी चमक देखी थी.
दीपा उन्हें विजय से अपनी पहली मुलाकात से ले कर अब तक की सारी कहानी सुना चुकी थी.

विमल बहुत खुश थे. बोली, ‘‘तुझे विजय पसंद है न?’’

दीपा मुंह से कुछ नहीं बोली, बस सिर हिला दिया.
‘‘फिर ठीक है, बात पक्की.’’
दीपा चौंक उठी.
‘‘मैं अब विजय के घर वालों से बात कर चट मंगनी कर पट ब्याह रचा कर अपनी इस प्यारी सी गुडि़या को विदा कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊंगा.’’
‘‘क्या मैं आप को बो?ा लगने लगी हूं डैडी, जो इतनी जल्दी आप मुझे अपने से दूर करना चाहते हैं?’’
‘‘अरे पगली, अभी तूने ही तो कहा है न कि विजय तुझे बहुत पसंद है.’’
‘‘हां डैडी, लेकिन इस का यह मतलब तो नहीं कि आप मुझे घर से ही निकाल दें. जाइए, मैं आप से नहीं बोलती.’’

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