कौफी पीते हुए सुबोध कह रहा था, ‘‘एम.बी.बी.एस. करने के बाद दिल्ली में ही एक अस्पताल में मैं ने प्रैक्टिस चालू कर दी थी. नंदिनी के मौसाजी हमारे डिपार्टमैंट के हैड थे. उन्हीं की पहल पर हमारी शादी हो गई. मेरे ख्वाबों में तो कोई और ही बसी थी. मैं राजी नहीं था, लेकिन मां की जिद के आगे मेरी एक न चली.
‘‘नंदिनी बहुत प्यारी लड़की थी, लेकिन मेरे स्वभाव के बिलकुल विपरीत. हम लोगों के दिल ज्यादा जुड़ नहीं पाए. उसे हर वक्त मुझ से शिकायत रहती थी कि मैं उसे समय नहीं देता हूं, उस के साथ शौपिंग पर और पार्टियों में नहीं जाता हूं. उस के शौक कुछ अलग ही थे मुझ से. न वह मुझे समझ पाई और न मैं उसे संतुष्ट कर पाया. सोचा था, बच्चे के आने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन डिलीवरी में ही कौंप्लिकेशन पैदा हो गया. लाख कोशिशों के बावजूद हम नंदिनी को बचा नहीं पाए. तब से मैं ही मां और बाप दोनों की भूमिका निभा रहा हूं कनु के लिए,’’ कहतेकहते सुबोध का गला रुंध गया.
किन शब्दों में सांत्वना देती सुमेधा. बड़ी देर तक बुत बनी बैठी रही.
‘‘मैं तो सोच भी नहीं सकती कि नंदिनी अब इस दुनिया में नहीं है. और इस मासूम कनु का क्या कुसूर है जो इसे बिन मां के रहना पड़ रहा है,’’ कहते हुए सुमेधा की आवाज कांप रही थी.
वह जैसे ही उठने को हुई, सुबोध की आवाज ने चौंका दिया, ‘‘तुम चाहो तो कनु को मां मिल सकती है.’’
‘‘मैं समझी नहीं?’’ उस ने चौंक कर पूछा.
‘‘कई दिनों से पूछना चाह रहा था सुमेधा मैं… मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’’
‘‘सुबोध, क्या कह रहे हो तुम? कुछ होश है तुम्हें?’’
‘‘मैं तो होश में हूं, लेकिन निर्णय तुम्हें लेना है,’’ सुबोध मुसकराते हुए अधिकार भाव से बोला.
सुबोध का अधिकार भाव से भरा स्वर सुमेधा को अपने अहं पर प्रहार सा ही लगा. उस का अप्रत्याशित सवाल सुमेधा के दिल में हलचल मचा गया. वह फिर सोफे पर बैठ गई.
‘‘मुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए. अभी मैं कुछ नहीं कह सकती,’’ न चाहते हुए भी सुमेधा के स्वर में हलकी सी कड़वाहट घुल गई.
‘‘ठीक है, आखिर फैसला तो तुम्हें ही करना है,’’ सुबोध कोमलता से बोला.
घर वापस आई तो देखा मां अपने काम में व्यस्त थीं. सुमेधा मन ही मन बोली, ‘अच्छा हुआ, नहीं तो तरहतरह के सवालों से हैरान कर देतीं मुझे. पता नहीं कैसे मेरे मन की थाह मिल जाती है मां को.’
कुरसी पर बैठी सुमेधा के सामने टेबल पर दूसरे दिन के लैक्चर से संबंधित किताब थी, लेकिन दिल जरा भी नहीं लग रहा था. उसे एकएक पंक्ति पढ़ना भारी लग रहा था.
‘मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’ आखिर सुबोध के यह पूछने का मतलब क्या है? क्या मेरा अपना कोई अस्तित्व नहीं? क्या सहचर की आवश्यकता सुबोध को नहीं है या सिर्फ अपनी बेटी के लिए मां की प्राप्ति से उस की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाएगी? मैं कनु की मां बन सकती हूं, तो तुम्हारे जीवन में मेरा क्या स्थान होगा? लगता है, सुबोध अभी भी नंदिनी को भुला नहीं पाया है. साथ ही, उस के मन में बिन मां की कनु को देख कर अपराधभाव भी है. तभी तो उस ने प्रस्ताव अपने विवाह का नहीं, बल्कि कनु की मां बनने का रखा है. पर मेरी मां का क्या होगा? उस का तो इस दुनिया में कोई भी नहीं. कल अगर मैं विवाह के लिए हामी भर देती हूं, इस शर्त पर कि मां शादी के बाद मेरे साथ ही रहेगी, तो क्या सुबोध स्वीकारेगा इसे?
तरहत रह के सवालों ने सुमेधा के दिमाग को मथ दिया. दूसरे दिन अनमने भाव से वह कालेज पहुंची. क्लास में रोज की तरह उमंग और उत्साह नहीं था. थोड़ी ही देर में सिरदर्द का बहाना बना कर उस ने लड़कियों को फ्री कर दिया. कुछ ही पलों में सारी लड़कियां चहकती हुई चली गईं.
‘‘भई, आज हमारी संयोगिता कहां खोई है?’’ अनीता की जोशीली आवाज ने स्टाफरूम में बैठी सुमेधा का ध्यान भंग कर दिया. यों तो उम्र में वह सुमेधा से 3-4 साल बड़ी और सीनियर भी थी, फिर भी सुमेधा को अपने दोस्ताना व्यवहार की वजह से हमउम्र भी लगती थी.
‘‘रिलैक्स यार, किसी बात का इतना टैंशन ले लेती हो तुम कि पूछो मत. और तुम्हें टैंशन में देखती हूं न, तो मेरी भी तबीयत बिगड़ने लगती है,’’ अनीता, सुमेधा के कंधे पर हाथ रखते हुए बड़ी अदा से बोली.
अनीता की बात सुन कर सुमेधा की हंसी छूट गई.
‘‘आ गईं वापस मैडम आप?’’
‘‘हां बच्चू. तुम्हें तनहा छोड़ कर मैं कहां जाऊंगी?’’
‘‘मजाक छोड़ो यार. मैं अभी मजाक के मूड में बिलकुल नहीं हूं,’’ सुमेधा गंभीरता से बोली.
‘‘अभी क्या, तुम तो कभी भी मजाक के मूड में नहीं होतीं. क्यों संयोगिता, मैं ने कुछ गलत तो नहीं कहा?’’
‘‘यह क्या संयोगितासंयोगिता लगा कर रखा है?’’ सुमेधा परेशान हो कर बोली.
‘‘भई, जब हमारे पृथ्वीराज तुम पर जान छिड़कते हैं, तो तुम संयोगिता ही हुईं न,’’ अनीता मसखरी करती हुई बोली.
अनीता सुबोध की मुंहबोली बहन थी और उस से भी बढ़ कर दोस्त और सलाहकार. और जब से उसे सुबोध और सुमेधा के पूर्व परिचय के बारे में पता चला था वह दोनों का मेल कराने में बड़ी उत्सुक थी. कनु की प्यारी बातों और सुमेधा के प्रति उस के स्नेह ने, उस की इस चाहत को और बढ़ा दिया था. एक बार तो वह सुमेधा की मां के सामने ही यह किस्सा छेड़ बैठी. उन्होंने अनीता की बात सुनी तो उन्हें जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. लेकिन सुमेधा ने अपने स्वाभिमान का वास्ता दे कर मां को कभी भी यह बात करने से रोक दिया.
लेकिन सुमेधा मां के मन और उस के प्यार भरे दिल की हसरतों को कैसे रोकती?
एक दिन फिर वे यह बात करने लगीं तो वह बोली, ‘‘मां, बातचीत करना एक बात है और घरपरिवार बसाना दूसरी. पहले भी तुम 2-3 लड़कों को देख चुकी हो न, जो मेरी नौकरी के आकर्षण से शादी के लिए राजी हुए थे. लेकिन शादी के बाद तुम्हारे भी साथ रहने की बात सुन कर ऐसे गायब हुए कि दोबारा शक्ल न दिखाई.’’
‘‘मेरा क्या देखती है तू? मैं तो अकेली भी रह लूंगी,’’ मां सहमते हुए बोलीं.
‘‘तुम्हें अकेला छोड़ कर शादी करना इतना जरूरी नहीं है, मेरे लिए. और हां, यह
बात आज के बाद इस घर में नहीं होगी,’’ सुमेधा ने कड़े स्वर में मां की जबान पर ताला लगा दिया.
अनीता से विदा ले कर सुमेधा घर की तरफ रवाना हुई तो विचारों के चक्र में उलझी हुई थी. उसे जब होश आया, तब तक उस का स्कूटर विपरीत दिशा से तेज गति से आती कार की चपेट में आ चुका था. टक्कर होते ही सुमेधा उछल कर रोड पर जा गिरी.
राहगीरों ने सहारा दे कर उसे उठाया. फिर जब सामान्य हुई तो उसे आटोरिकशा में बैठा कर रवाना कर दिया. स्कूटर को पास ही के गैराज में खड़ा कर दिया.
मां सुमेधा को देखते ही सुधबुध खो बैठीं. बमुश्किल अपनेआप को संभाल कर उन्होंने सब से पहले सुबोध को ही फोन लगाया.
‘‘बेटा, सुमेधा का ऐक्सिडैंट हो गया है. आप जल्दी आ जाओ.’’
सुबोध आते ही बोला, ‘‘क्या हो गया? किस से भिड़ गईं?’’ फिर मां की तरफ पलट कर बोला, ‘‘चलिए मांजी, मेरे दोस्त डा. आकाश का क्लीनिक पास ही है. मैडम की ड्रैसिंग करवा लाते हैं.’’
सुमेधा मंत्रमुग्ध सी दोनों के साथ चलती रही. कब चलते हुए उस ने सुबोध का सहारा लिया और ड्रैसिंग कराते वक्त दर्द बढ़ने पर कब उस का हाथ थाम लिया, ध्यान न रहा. लेकिन इन लमहों ने अपनों के महत्त्व से
सुमेधा को परिचित करवा दिया. आज मां अकेली होतीं तो क्या करतीं? कोई न कोई मदद तो कर ही देता, लेकिन ऐसा अपनत्व भरा सहयोग, मदद का हाथ मिलना क्या संभव था?
शाम को सुबोध कनु को ले आया. सुमेधा को देख कर कनु उस से लिपट गई. सुमेधा असहनीय दर्द से कराह उठी. सुबोध ने आहिस्ता से कनु को अलग कर के बैठाया.
‘‘बेटा, आंटी को चोट लगी है न, उन को परेशान नहीं करना,’’ सुबोध ने समझाते हुए कहा.
‘‘ठीक है, पापा. पापा, आंटी को दवा दो न.’’
‘‘हां बेटा, दवा देंगे.’’
‘‘अगर आंटी ने नहीं ली तो?’’ कनु ने मासूमियत से पूछा.
‘‘तो हम उन से कुट्टी कर लेंगे,’’ सुबोध मुसकरा कर बोला.
सुबोध की बात सुन कर कनु और मां खिलखिला कर हंस पड़ीं. माहौल में ताजगी भरी खुशबू फैल गई.
रात खाना खा कर सो गई सुमेधा. सुबह उठ कर देखा तो मां और सुबोध बतिया रहे थे. दोनों की आंखों के लाल डोरे बता रहे थे कि उन्होंने रात जाग कर काटी है. इस का मतलब सुबोध घर वापस नहीं गया. यानी कल से क्लीनिक भी बंद ही है. कोई किसी अपने के लिए ही ये सब कर सकता है. मैं बेकार की शंका में फंसी रही.
सुमेधा को जागा हुआ देख कर मां लपक कर आ गईं और सहारा दे कर बैठाया. हाथ और पैर की चोटों में दर्द बराबर बना हुआ था. मां सुमेधा को सहारा दे कर मुंह धुला लाईं. तब तक सुबोध चाय और बिस्कुट ले आया. कनु होमवर्क करने में व्यस्त थी. बगल के कमरे से उस के पढ़ने की आवाज आ रही थी. थोड़ी देर बाद कनु उन के पास पहुंच गई.
सुबोध बोला, ‘‘मांजी, अब मैं इजाजत चाहूंगा. कनु को तैयार कर स्कूल भेजना है और मेरे मरीज राह देखते होंगे. हां, मैं शाम को आऊंगा. अच्छा सुमेधा, मैं चलूं?’’
‘‘ठीक है, बाय कनु बेटा,’’ मां और सुमेधा ने दोनों को विदा दी.
शाम को 4 बजे अनीता कालेज से सीधे सुमेधा से मिलने चली आई.
‘‘मैं बोलती थी न, बेकार की चिंता मत पालो. कहां ध्यान रहता है और कैसे गाड़ी चलाती हो तुम?’’ अनीता आते ही बनावटी रोष में बरस पड़ी.
‘‘देखो, मेरा तो वैसे ही बुरा हाल है. तुम मुझे और तंग मत करो,’’ सुमेधा धीमी आवाज में बोली.
6 बजे तक सुबोध भी कनु को ले कर आ गया. बूआ को देख कर कनु चहक उठी.
अनीता बोली, ‘‘हम अपनी कनु बिटिया को अपने घर ले जाएंगे.’’
‘‘नहीं, जब तक आंटी ठीक नहीं हो जातीं हम कहीं नहीं जाएंगे,’’ कनु इतराते हुए बोली और सुमेधा के गले लग गई.
कनु का प्यार देख कर मां, सुबोध और अनीता की आंखें गीली हो गईं. सुमेधा भी इस से अछूती नहीं रह पाई.
‘‘चलिए मांजी, नाश्ते की तैयारी करें. चलो कनु, तुम भी हमारी हैल्प करो,’’ अनीता मांजी और कनु को किचन में ले गई.
सुबोध पास की कुरसी खींच कर बैठते हुए बोला, ‘‘सुमेधा, पता नहीं उस दिन की मेरी बात का क्या मतलब निकाला तुम ने. आज तुम्हारे लिए एक खास चीज लाया हूं. और हां, अनीता ने मुझे सब बता दिया है. मांजी की जितनी चिंता तुम्हें है, उतनी ही मुझे भी. यदि तुम ने इस नए रिश्ते को स्वीकार किया तो मांजी को अपने साथ पा कर मुझे बेहद खुशी होगी. तुम्हारे बाबूजी की असमय बीमारी और उन के गुजरने के बाद इतने सालों की तपस्या से तुम ने जिस स्वाभिमान की शिला को रचा है, मैं उसे भी ठेस नहीं पहुंचाना चाहता. हां, उस शिला में कोई दरवाजा निकल सके तो मैं और कनु जरूर उस से गुजर कर तुम्हारे करीब पहुंचना चाहेंगे.’’
सब सुन कर सुमेधा सिमट सी गई.
सुबोध ने एक पुरानी डायरी उस की ओर बढ़ा दी.
पहले ही पन्ने पर लिखी थी छोटी सी कविता-
‘‘सरस्वती कहूं तुम्हें कि तुम्हें मैं परी कहूं
कह दो तुम्हीं क्या मैं तुम्हें सुंदरी कहूं.
तुम को कुंतला पुकारूं या कहूं शकुंतला
या फिर तुम को मैं कादंबरी कहूं.
चित्रा कहूं या सुमित्रा चंदा या सितारा
अथवा सावित्री सत्य से तुम्हें भरी कहूं.’’
नीचे लिखा था- सुमेधा के लिए, जो इन पंक्तियों को कभी नहीं पढ़ेगी. उस में तारीख थी उस साल की जब वे 12वीं कक्षा में थे.
डायरी बंद कर सुमेधा ने सुबोध की ओर देखा. फिर हौले से बोली, ‘‘सुबोध, सुमेधा ने अपने लिए लिखी पंक्तियों को पढ़ लिया है,’’ और अपनी स्वीकृति देते हुए सुबोध के हाथों को अपनी हथेलियों में छिपा लिया.
उस पल दर्द के बावजूद सुमेधा के चेहरे पर मुसकान थी, नए रिश्ते को अपना कर मिली मुसकान. सुबोध की आंखों में खुशहाल परिवार के सपने झिलमिलाने लगे.