ऊषा ने जैसे ही बस में चढ़ कर अपनी सीट पर बैग रखा, मुश्किल से एकदो मिनट लगे और बस रवाना हो गई. चालक के ठीक पीछे वाली सीट पर ऊषा बैठी थी. यह मजेदार खिड़की वाली सीट, अकेली ऊषा और पीहर जाने वाली बस. यों तो इतना ही बहुत था कि उस का मन आनंदित होता रहता पर अचानक उस की गोद में एक फूल आ कर गिरा. खिड़की से फूल यहां कैसे आया, थोड़ा सोचते हुए उस ने गौर से फूल देखा तो बुदबुदाई, ‘ओह, चंपा का फूल’.
उस के पीहर का आंगन और उस में चंपा के पौधे. यह मौसम चंपा का ही है, उसे खयाल आया. तभी, यों ही पीछे मुड़ी तो देखती है कि चंपा की डाली कंधे पर ले कर एक सवारी खड़ी है. ‘ओह, यह फूल यहीं से आ कर गिरा होगा.’ ऊषा ने उस फूल को अपनी हथेली पर ऐसे हिलाया मानो वह चंपा का फूल कोई शिशु है और उस की हथेली के पालने में नवजात झला झल रहा हो.
ऊषा से एक साल बड़ा भाई और पड़ोस के बच्चे मिल कर चंपा के फूल जमा करते और मटकी में भर देते. तब मटकी का पानी ऐसा खुशबूदार हो जाता कि अगले दिन उस पानी को आपस मे बांट कर वे सब खुशबूदार पानी से नहा लेते थे. मां उस की शरारत देख कर उसे न कभी मारती, न कभी फटकारती. जबकि ऊषा की क्लास में कितनी ही लड़कियां बातबेबात पर अपनीअपनी मां की मार खाती थीं. एक ममता थी, वह हमेशा यही कहती कि उस की मां तो उसे लानतें भेजती रहती है. कभी कहती है, ‘ममता, तू इतनी सांवली है कि तेरी तो किसी हलवाई से भी शादी न होगी.’ कभी कहती, ‘ममता, तुझे पढ़ाने में पैसा बरबाद होता है.’ ममता की बातें सुन कर ऊषा को अपनी मां और भी प्यारी लगती थीं.
‘ओह, मेरी मां कैसी होगी?’ उस का मन फूल से हो कर अब सीधा मां के पास चला गया था. ऊषा को पीहर जाने के नाम पर मां का चेहरा ही देखना था. उस के पिता को गुजरे 3 बरस हो गए थे और तब से वह अब मां से मिलने जा रही थी. दरअसल ऊषा को दोनों बच्चों के 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं के कारण पीहर आने का समय न मिला था. बस, 2 घंटे का ही सफर था.
पीहर पहुंच कर ‘ओ मां’ कह कर उस ने मां को गले लगा लिया था. ‘‘कल आप का 72वां जन्मदिन है.’’
‘‘पता है मुझे,’’ कह कर मां ने लंबी सांस ली.
‘‘तो, इसीलिए तो आई आप के पास. यह लो आप के लिए साड़ी और अंगूठी है.’’
‘‘ओह, अच्छा,’’ कह कर मां ने रख लिया. लेकिन ऊषा ने गौर किया कि वह खुश बिलकुल भी नहीं हुईं. अगले ही पल वह बोलीं, ‘‘ऊषा, अगर पैसे देती तो मेरे काम आते, बेटी.’’
‘‘ओह मां, यह क्या कह रही हो?’’
‘‘सही कह रही हूं, बेटी.’’ मां ने ऊषा के सामने दिल खोल दिया, ‘‘बेटी, जब तक तेरे पिता जीवित थे, वे रोज ही सा?ोदारी वाले दवाखाने में जाते थे और रोज ही सौदोसौ रुपए ला कर मुझे देते थे. बेटी, 3 साल से मेरी दशा खराब हो रही है, पता है. अब मैं पाईपाई को तरस गई हूं.’’
‘‘ओह,’’ कह कर ऊषा ने उन का हाथ थाम लिया, ‘‘तो आप कभी फोन पर तो मुझे बता देतीं?’’
‘‘बेटी, दीवार के भी कान होते हैं और तुम कोई खाली बैठी हो जो हर पल अपना ही दुखड़ा बताती रहूं. अगर तुम आज मेरे पास न आतीं तो आज भी न बताती, चुपचाप सह लेती, बेटी. हर रोज सुबह पार्क जाती हूं, ऊषा. मेरा मन होता है कि रास्ते पर मिलने वाले कुत्तों को बिस्कुट खरीद कर खिलाऊं पर मेरा बटुआ खाली,’’ मां ने फिर गहरी सांस भरी.
‘‘तो भैयाभाभी कुछ नहीं देते?’’ ऊषा का मन भारी हो रहा था.
वह बोलीं, ‘‘हां, देते हैं, बेटी पर उतना ही जितने में मेरा काम चल जाए, बस.’’
‘‘अच्छा,’’ ऊषा हैरान थी.
‘‘बेटी, मुझ से मिलने पड़ोस की बेटियां आती हैं. सारे घर के लिए मिठाई लाती हैं. मेरा मन होता है, कुछ नकद उन के हाथ में रखूं पर मेरा तो हाथ…’’
‘‘ओह मां,’’ ऊषा ने अफसोस जाहिर किया.
‘‘मैं अपनी कोई साड़ी या स्वेटर दे देती हूं, खुशीखुशी वे ले जाती हैं. अब मेरी एक सहेली बीमार थी. मैं उसे देखने अस्पताल गई. मगर इतने पैसे नहीं थे कि कोई फल ले जाती. बस, दुआ दे कर आ गई,’’ कह कर मां खामोश हो गईं.
‘‘अच्छा, पर भैयाभाभी इतने कठोर हो गए कि उन्हें आप की हालत दिखती नहीं क्या.’’
‘‘हां बेटी, वे कहते हैं कि आप ने तो एक मकान तक नहीं बनाया. आप ने कुछ किया ही नहीं तो आप का क्या एहसान है, भला.’’
‘‘बेटी, तुम जानती हो, वह किराए का घर, वह आंगन, वे पड़ोसी. मैं तो कभी किसी की चोट तो किसी की बीमारी या किसी की बेटी की शादी… बस ऐसी सहायता में ही रह गई. मैं तो आज की जैसी अपनी खराब दशा की कभी सोच तक नहीं सकती थी,’’ मां बोलतेबोलते रुक गईं.
‘‘ओह, ये लो मां, ये 10 हजार रुपए रख लो.’’
‘‘नहीं ऊषा.’’
‘‘अरे मां, ये मेरे फालतू के हैं. मतलब यह कि 2 दिनों पहले ही मेहंदी लगाने का नेग मिला है. मां, रख लो न आप ये, रखो.’’ ऊषा ने जिद की.
‘‘अरे, अच्छा,’’ कह कर मां ने अपने बक्स से सोने के गहने निकाल कर ऊषा को दिए. ‘‘ऊषा, ये ले लो.’’
‘‘हैं, ये, ये गहने, नहीं मां,’’ ऊषा डर गई कि कहीं भाईभाभी इस कमरे में आ गए तो…
‘‘कोई है ही नहीं घर पर. कोई नहीं आने वाला.’’
‘‘अरे, कहां गए?’’ ऊषा ने पूछ लिया.
मां बोलीं, ‘‘दोनों मेरे जन्मदिन की खरीदारी करने गए हैं. कल 20 परिवारों को खाने पर बुलाया है. समाज का दिखावा तो खूब करना आता है.’’
‘‘अच्छा, चलो कोई नहीं. आप भी खुश हो लेना, मां. पर ये गहने रहने दो न,’’ वह मना करने लगी.
मां बोलीं, ‘‘सुनो ऊषा बेटी, डरो मत. इन का किसी को पता नहीं और ये बस मेरे हैं. अभी जो खजाना तुम ने दिया, तुम जानती नहीं ऊषा. उन के बदले ये कुछ नहीं हैं, बेटी.’’
‘‘ओह, मां ऐसा न कहो,’’ ऊषा के नयन नम हो गए थे पर मां ने तो जिद कर के सोने के कंगन और झुमके ऊषा के बैग में रख ही दिए.
अगले दिन मां के जन्मदिन का जश्न देख कर, भाईभाभी का दिखावा, आडंबर आदि देख कर ऊषा हैरान थी.
‘‘अच्छा मां,’’ विदा ले कर अगले दिन ऊषा वापस लौटी तो घर आ कर अमन को सब सच बता दिया.
‘‘अरे, ये कंगन और ?ामके तो 2 लाख रुपए से अधिक की कीमत के हैं, ऊषा. तुम यह कीमत हौलेहौले अदा कर दो.’’ ऐसा कह कर अमन ने एक अच्छा सुझाव दिया और यह सुन कर ऊषा को अमन पर बहुत गर्व हुआ.
3 महीने बाद ऊषा फिर पीहर आई. भैयाभाभी हैरत में पर उस ने आते ही कहा, ‘‘आप दोनों के लिए ये उपहार और आप को शुभ विवाह वर्षगांठ.’’
यह सुन कर भैयाभाभी खुश और उस के बाद वह मां से जा कर खुल कर मिली. खूब बातें हुईं. इस बार मां खुश थीं, बताती रहीं कि पड़ोस में इसे बीमारी में यह दे आई, उस को मकान के गृहप्रवेश में यह भेंट किया वगैरहवगैरह.
मां का चहकना ऊषा को आनंद से भर गया. सारी बात सुनी. जब मां चुप हुईं तो ऊषा ने उन को फिर से सौंप दिए 10 हजार रुपए.
‘‘ये क्या, ये, बस, दानपुण्य के लिए आप को दिए हैं, मां,’’ कह कर ऊषा ने उन का बटुआ भर दिया.
अगले महीने ऊषा फिर आई. भाभी को जन्मदिन की बधाई देने के बहाने मां का बटुआ भर गई. भाईभाभी बहुत खुश, वे तो ऐसा ही दिखावा पसंद करते थे. और उधर, मां को भी हैरत, ये ऊषा को हो क्या रहा है. ऊषा कहती, ‘अमन ने कहा है’ और मां को चुप कर देती.
अब यह सिलसिला चल पड़ा था. ऊषा हर तीसरे महीने जरूर आती और मां का बटुआ भर जाती. इसी तरह समय बीता और एक साल बाद मां का जन्मदिन फिर से आया.
ऊषा ने इस बार भैयाभाभी को भ्रम में रखने के लिए एक साड़ी भेंट की मगर रुपयों से मां का बटुआ फिर से भर दिया था. मगर, अब मां उसे आशीष ही देती. अब कुछ साड़ी, रूमाल और शौल के सिवा मां के बक्से में कुछ भी न बचा था.
मगर ऊषा तो मां को नहीं, उन के दानपुण्य के स्वभाव के लिए यह रुपया देती थी. ऊषा जानती थी, इसी से मां निरोगी हैं, खुश है, ताकत से भरी हैं.
अब ऊषा हर तीसरे महीने जब पीहर की बस में बैठा करती तबतब यही सोचा करती कि, यही मां, एक समय में कितनी मजबूत हुआ करती थीं. जब कालेज के समय खुद ऊषा का एक गहरा प्रेम प्रसंग चल रहा था और नादानी कर के ऊषा के गर्भ तक ठहर गया था, तब रोती हुई ऊषा को मां ने चुप कराया, उसे सहज होने को कहा और चिकित्सक ने जांच कर के बताया कि केवल 4 सप्ताह का गर्भ है, इसलिए आराम से सब साफ हो जाएगा. रोती हुई ऊषा को, तब भी, मां ही चुपचाप ले गई थीं अस्पताल और उस को इस अनचाहे भार से आजाद किया था.
मां ने एक बार फिर से उसे जीवनदान दिया था. ऊषा का मन दुख से ऐसा भरा था कि उस समय तो वह मर ही जाना चाहती थी. मगर मां ने उसे न मारा, न फटकारा.
मां ने, बस, इतना पूछा कि आगे, तुम दोनों विवाह करोगे, साथ रहोगे. ऊषा ने फूटफूट कर रोते हुए बताया कि गर्भ ठहरने की बात पता लगने के समय से ही उस ने कन्नी काट ली है, वह क्या विवाह करेगा.
‘ओह,’ बस इतना ही कहा था मां ने. उस समय वह मां का लौह महिला का रूप देखती रह गई थी. उस घटना के 2 वर्षों बाद जब ऊषा सामान्य हो गई तब मौका पा कर फिर मां ने ही ऊषा को अमन के बारे में बताया था और अमन की दूसरी पत्नी बनने का सु?ाव दिया.
अमन के 2 बच्चे थे. ऊषा को उस समय मां से बहुत खीझ हुई पर जब मां ने कहा, ‘जोरजबरदस्ती नहीं है, एक बार मिल कर गपशप कर लो. फिर जो चाहो.’
तब वह शांत हुई और उसी शाम अमन घर पर आए थे. ऊषा ने पहली मुलाकात में ही अमन की दूसरी पत्नी बनना सहर्ष स्वीकार कर लिया. अमन की पहली पत्नी फेफड़े की बीमारी से चल बसी थी. अमन एक सुल?ो हुए इंसान थे और औरत को बहुत सम्मान देते थे.
विवाह के दिन से ले कर आज तक ऊषा अमन के साथ बहुत खुश है. अमन के दोनों बच्चे उसे मां ही मानते हैं. इस समय भी, बस में, ऊषा को मजबूत मां बहुत याद आ रही थी और भी बहुत यादे थीं. मां ने विवाह के पहले साल उस को बहुत मानसिक संबल दिया था.
ऊषा को तो काम करने की जिम्मेदारी उठाने की कोई आदत नहीं थी. यों तो, अमन के घर पर एक सहायिका थी मगर 2 बच्चों की मां और अमन की पत्नी बन कर सहज होने में ऊषा को समय लगा. तब मां ने ही उसे ताकत दी थी. यों अमन के प्रेम में कभी कमी नहीं आई और आज तक नहीं.
फिर, 3 साल बाद भैया का विवाह हुआ. मां ने भाभी को भी आजाद और
मस्त रहने दिया. मां को तो सब को हंसता देखना पसंद था. भैयाभाभी का वैवाहिक जीवन बहुत खुशहाल था. ऊषा यही सोचती रहती कि अब मां के राज करने के
दिन आ गए हैं. मगर, फिर, एक दिन अचानक ही पिता चल बसे. एकदम से सब बदलता गया.
और आज की तारीख में सब सही दिखाई दे रहा था लेकिन मां केवल बटुआ खाली होने से भीतर ही भीतर कितनी कमजोर पड़ गई थीं.
यही सबकुछ सोचती हुई ऊषा पीहर पहुंची. मां दिखाई दे गई, वह अपनी छड़ी के सहारे कहीं से लौट रही थीं. ऊषा ने मौका देख कर उन के बटुए में रुपए रखे. तभी भाभी 2 कप चाय ले कर आ गई. ऊषा और मां गपशप तथा चाय में व्यस्त हो गईं.
भाभी जैसे ही उन के पास से गई, मां ने हंसते हुए ऊषा को नकदी लौटा दी.
‘‘अरेअरे, यह क्या मां, ये आप के हैं,’’ वह चौंक गई.
मां बोली, ‘‘अरेअरे, यह देख.’’ मां ने बटुआ खोला और नोट दिखाए.
‘‘ओह, आप ने ये पहले वाले खर्च नहीं किए तो अब दानपुण्य का काम बंद,’’ ऊषा मां को गौर से देख रही थी.
‘‘ऐसा तो हो ही नहीं सकता, यह मेरी एक महीने की कमाई,’’ वह चहक कर बोली.
ऊषा के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘हैं, कमाई, नौकरी, यह कब हुआ. 3 महीने पहले तो तुम नौकरी नहीं करती थीं.’’
‘‘अरे रे, सुन तो सही. हुआ क्या, अपना सुमित है न, मेरी दिवंगत सहेली का छोटा बेटा.’’
‘‘हांहां, मां. मुझे याद है,’’ ऊषा ने किसी चेहरे की कल्पना करते हुए जवाब दिया.
‘‘तो, उस के जुड़वां बेटे हुए. कुछ परेशानी के कारण अस्पताल में 16 दिन रहना था. पुरुष को इजाजत नहीं थी और सुमित को रात को रुकने वाला कोई न मिला. मैं ने कहा, ‘मैं रुक जाती हूं.’ बस, रात को सोना ही तो था. मैं करीब 16 रातें सोने चली गई. अब वह कल आया. मिठाई, फल लाया और 8 हजार रुपए दे गया. मैं ने मना किया तो बोला कि आप ने वैसे ही 20 हजार रुपए की बचत करा दी है. अगर ये न रखे तो आप की बहू मुझ से बात न करेगी.’’ पूरी बात बता कर मां ने सांस ली.
ऊषा बोली, ‘‘ओह, अच्छा, पर ये तो जल्द खत्म हो जाएंगे. तुम अगले महीने के लिए रख लो.’’ ऊषा ने जिद की तो वापस लौटाते हुए मां बोली, ‘‘अरे, आगे तो सुन, पड़ोस में एक टिफिन सैंटर है. रोज के 200 टिफिन जाते हैं नर्सिंग होम में तो मुझे वहां नौकरी मिल गई है.’’
‘‘तो मां, इस उम्र में खाना पकाओगी?’’ अब ऊषा को कुछ गुस्सा आ गया था.
‘‘अरे, पकाना नहीं है. बस, रोज सुबह और शाम जा कर चखना है, कमी बतानी है और इस के 10 हजार रुपए हर महीने मिल रहे हैं,’’ कह कर मां हंसने लगीं.
‘‘अच्छा, मेरी मजबूत मां.’’ इस बार जब ऊषा लौटी तो उसे अपनी मजबूत मां का पुनर्जन्म देख कर बहुत खुशी हो रही थी. मन पुलकित था.