Interesting Hindi Stories : एयरपोर्ट के अंदर जाने से पहले बकुल ने मां मानसी के पैर छुए तो वे भावुक हो उठीं.
उन्होंने देखा ही नहीं था कि अपनी बाइक से पीछेपीछे नीरज भी बकुल को सी औफ करने के लिए आए हैं. वे उन्हें देख कर चौंक पड़ीं.
बकुल ने नीरज के भी पैर छुए और बोला, ‘‘सर मौम का खयाल रखिएगा.’’
‘‘नीरज तुम?’’ वे आश्चर्य से बोलीं.
‘‘बकुल जा रहा था, तो मुझे उसे छोड़ने तो आना ही था.’’
‘‘आ जाओ मेरे साथ गाड़ी में चलना.’’
‘‘नहीं, मैं अपनी बाइक से आया हूं.’’
उन की निगाहें काफी देर तक बकुल का पीछा करती रहीं, फिर जब वह अंदर चला गया तो अपने युवा बेटे की सफलता की खुशी के साथसाथ उस के बिछोह का सोच कर आंखें छलछला उठीं. वे गाड़ी के अंदर गुमसुम हो कर बैठ गईं. सूनी आंखों से खिड़की के बाहर देखने लगीं.
घर पहुंचीं तो रूपा से कौफी बनाने को कह कर बालकनी में खड़ी हो गई थीं. वह अपने में ही खोई हुई सी थीं.
तभी रूपा बोली, ‘‘मैडम कौफी.’’
वे भूल गई थीं कि उन्होंने रूपा से कौफी के लिए कहा था. वे कप उठा ही रही थीं कि डोरबैल बज उठी. वे समझ गई थीं कि नीरज के सिवा इस समय भला कौन हो सकता है.
‘‘रूपा एक कौफी और बना दो,’’ मानसी बोली.
नीरज जिस ने उन के अकेलेपन में, उन के कठिन समय में, कहा जाए तो हर कदम पर उन का साथ दिया था.
‘‘अकेलेअकेले कौफी पी जा रही है… एयरपोर्ट पर आप का उदास चेहरा देख कर अपने को नहीं रोक पाया और बाइक अपनेआप इधर मुड़ गई.’’
‘‘आज स्कूल नहीं गए?’’
‘‘कहां खोई हुई हैं आप? आज तो संडे है,’’ कह कर आदत के अनुसार हंस पड़ा.
‘‘आज बकुल गया है तो मन भर आया.’
चलो, तुम्हारी इतने दिनों की तपस्या सफल हो गई. तुम्हारा बेटा पढ़ लिख कर लायक बन गया, अब कुछ दिनों में अपनी किसी गर्लफ्रैंड के साथ शादी करने को बोलेगा, फिर अपनी दुनिया में रम जाएगा. यही तो दुनिया की रीति है.’’
‘‘हां वह तो तुम ठीक कह रहे हो, लेकिन जो मेरे जीवन का ध्येय था कि बेटे को कामयाब बनाऊं, वह तो तुम्हारी मदद से पूरा कर ही लिया.’’
‘‘मानसी कभी अपनी खुशी के बारे में भी तो सोचा करो.’’
‘‘तुम मेरे दोस्त हो तो, जो हर समय मेरी खुशी के बारे में ही सोचते रहते हो. अभी देखो बकुल गया इसलिए मन उदास हो रहा था, तो मुझे सहारा देने के लिए आ गए.’’
‘‘हां दोस्ती की है तो जिंदगीभर निभाऊंगा,’’ कह कर वे जोर से हंस पड़े.
नीरज की हंसी उन्हें बहुत मोहक लगती थी. वे भी हंस पड़ी थीं.
‘‘फिर पकड़ो मेरा हाथ,’’ कहते हुए उन्होंने अपना हाथ उन की तरफ बढ़ा दिया.
मानसी ने झिझकते हुए उन के हाथ पर अपना हाथ रख दिया. पुरुष के स्पर्श से उन का सर्वांग कंपकंपा उठा और वे उठ खड़ी हो गईं.
‘‘मानसी, चलो आज हम दोनों लंच के लिए कहीं बाहर चलते हैं… अभी 10 बजे हैं मैं 1 बजे तक आऊंगा.’’
‘‘बैठो. क्यों जा रहे हो?’’
‘‘अरे यार समझ करो अभी नहाया भी नहीं हूं, फिर आप के साथ लंच पर जाना है तो जरा ढंग से कपड़े वगैरह पहन कर आऊंगा. अभी तो बस बाइक उठाई और आ गया था.’’
नीरज चले गए थे. रूपा गाने की शौकीन थी. उस के मोबाइल पर गाना बज रहा था…
‘‘महलों का राजा मिला कि रानी बेटी
राज करे…’’
इस गीत के शब्दों नें उन्हें उन के अतीत में पहुंचा दिया और उन के अतीत का 1-1 पन्ना खुलता चला गया.
कितने सुनहरे सपनों को अपने मन में संजो कर वे अपने घर की देहरी से बाहर निकली थीं. 19 वर्ष की मानसी करोड़पति पिता की लाड़ली थीं. उन्होंने बीए में एडमिशन लिया ही था कि पिता मनोहर लाल ने उन की शादी तय कर दी. पैसे को मुट्ठी में पकड़ने वाले पापा ने बेटी की खुशियों के लिए अपनी तिजोरी का मुंह खोल दिया था. वे भी राजकुमार से स्वप्निल के सपनों में खो गई थीं. जब हाथी पर सवार हो कर स्वप्निल दूल्हे के वेष में आए तो बांके से सलोने युवक की तिरछी सी मुसकान पर वे मर मिटी थीं.
‘‘वाह मानसी, जीजू तो बिलकुल फिल्मी हीरो हैं,’’ जब उन की सहेलियों ने कहा तो वे शरमा उठी थीं.
तभी शीला मौसी आ गई और कहने लगी, ‘कुंवरजी को नजर मत लगा देना छोरियों.’
‘‘जीजाजी ने दामाद तो हीरा जैसा ढूंढ़ा है, राज करेगी मेरी मानसी.’’
सिर से पैर तक जेवरों से लदी हुईं, भारी लहंगे में सजीधजी मानसी ने ससुराल में कदम रखा था, तो वहां पर उन का भव्य स्वागत हुआ. सास मालतीजी और ननदों ने मिल कर उन के सपने साकार कर दिए थे. उन लोगों का लाड़प्यार पा कर वे अभिभूत हो उठी थीं.
स्वप्निल की बांहों में उन्हें जीवन की सारी खुशियां मिल गई थीं. कश्मीर में गुलमर्ग और पहलगाम की वादियों में बर्फ के गोलों से खेलती हुई वहां के सौंदर्य में खो गई थीं. स्वप्निल को घूमने का शौक था, कभी मुंबई के जुहू चौपाटी तो कभी महाबलीपुरम का बीच. कितने खुशनुमा दिन और रातें थीं.
फिर जब उन की जिंदगी में जुड़वां गोलूमोलू आ गए तो उन की जिम्मेदारियां बढ़ गईं और स्वप्निल भी पापा के साथ बिजनैस में बिजी हो गए.
गोलूमोलू 3 साल के थे तब एक दिन स्वप्निल घबराए हुए आए और बोले, ‘‘मानसी अपना बैग पैक कर लेना, सुबह हम लोगों को आगरा पहुंचना है. वन्या दी हौस्पिटल में एडमिट हैं, उन की हालत खराब है.’’
‘‘स्वप्निल, प्लीज सुबह चलिएगा, रात में यदि ड्राइवर को नींद का झंका आ गया.’’
‘‘फालतू बात मत करो. रात में 11-12 बजे निकलेंगे सुबह पहुंच जाएंगे. रात में रोड खाली मिलता है.’’
वे सहम कर चुप हो गई थीं. उन्होंने जल्दीजल्दी कुछ कपड़े बच्चों के और अपने व स्वप्निल के रखे और निकल पड़ी थीं. स्वप्निल की आंखें थकान के मारे नींद से बो?िल हो रही थीं. वे बारबार आंखों पर पानी डाल रहे थे. नियति को दोष दे कर हम सब अपने को दोषमुक्त कर लेते हैं परंतु दुर्घटना के लिए दोषी तो हम भी होते ही हैं.
जीवन में सुख और दुख उसी तरह से सुनिश्चित और संभाव्य हैं जैसे दिन
और रात. खुशियों के झले में झलने वाली मानसी नहीं जानती थीं कि भविष्य उन्हें जीवन के दुखद क्षणों की ओर खींच कर ले जा रहा है. गाड़ी में बैठते ही दोनों बच्चे और वे गहरी नींद में सो गए थे. शायद थके हुए स्वप्निल को भी नींद आ गई. कुछ ही देर में जोर का धमाका हुआ और उन्हें लगा कि कोई पिघला शीशा उन के ऊपर डाल रहा है. फिर कुछ पलों में ही वे मूर्छित हो गई थीं. अफरातफरी का माहौल, रात के गहरे अंधेरे में एक ट्रक ने जोर की टक्कर मार दी थी. सारे सपने तहसनहस हो गए. स्वप्निल उन्हें अकेला छोड़ गए. मोलू भी उन के साथ विदा हो गया.
गोलू को खरोंच भी नहीं आई थी, लेकिन उन का एक हाथ और एक पैर बुरी तरह कुचल गया था इसलिए वे 2 महीने तक नर्सिंगहोम में एडमिट रहीं. पापा आया करते और जरूरी कागजों पर साइन करवाते. न ही वे कहते कि कागज पढ़ लो और न ही वे कोई रुचि दिखातीं. अब तो यही लोग उन के जीवनदाता थे. कभी ईशा दी, कभी मम्मीजी गोलू को ले कर आया करतीं, लेकिन उन्हें बैड पर लेटे देख कर मम्मीजी की गोद में छिप जाता. उन की आंखों से अविरल आंसू बहते रहते. उन के दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया था.
गोलू का नाम स्वप्निल ने बकुल रखा था, इसलिए अब सब लोग उसे बकुल ही पुकारा करते थे. उन के मम्मीपापा उन्हें अपने साथ आगरा ले जाना चाहते थे, लेकिन यहां पापाजी का कहना था कि जब तक औफिशियल काम न पूरे हों, तब तक यहीं रहो. बारबार कौन जाएगा साइन करवाने.
उन की अपनी मां दिनरात उन के साथ बनी रहतीं और पापा डाक्टरों से संपर्क में रहते. उन की कई बार प्लास्टिक सर्जरी भी होती रही. जब तक ये सब चलता रहा मम्मीजी खूब प्यार से बोलतीं और उन का ध्यान रखा करतीं.
6 महीने के बाद उन्हें पापा अपने साथ आगरा ले आए. यहां पर सब उन के बुरे दिनों को कोसते. मां के घर में तो बिलकुल भी चैन नहीं था. दादी, ताई, चाची, बूआ आदि का जमावड़ा और बस एक ही बात कि हायहाय 25 साल की छोरी. कैसे काटेगी पूरी जिंदगी और फिर जबरदस्ती रोने का नाटक करते हुए बातों में मशगूल हो जाना. पिछले जन्म के कर्म हैं, वे तो भुगतने ही पड़ेंगे.
ताई बोलीं, ‘‘मानसी तुम एकादशी का व्रत किया करो, मेरे साथ कल से मंदिर दर्शन करने चला करो. वहां गुरुजी बहुत बढि़या सत्संग करवाते हैं,’’
मम्मीपापा को यह विश्वास था कि पूजापाठ से कष्ट दूर हो जाएंगे.
‘‘यह क्या तुम ने लाल चूडि़यां पहन लीं?’’ बूआ ने घर में हंगामा मचा दिया. मम्मी उन के सामने जबान नहीं हिला सकती थीं.
‘‘मानसी अभी तक सो रही हो. उठो आज अमावस्या है. स्वप्निल की आत्मा की शांति के लिए ब्राह्मण भोजन और हवन है,’’ ताई ने उन्हें जगाते हुए जोर से कहा.
वे उठीं और भुनभना कर बोलीं, ‘‘स्वप्निल ने तो मुझे जिंदा ही मरणतुल्य कर दिया है. ऐसी जिंदगी से तो उसी दिन मर जाती तो ये सब न देखना पड़ता,’’ उन का चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था.
उन की बड़बड़ाहट को बूआ ने सुन लिया, ‘‘वाह रे छोकरी, मरे आदमी को कोस रही है. जाने कौन से पाप किए थे जो भरी जवानी में विधवा हो गई. अब तो चेत जाओ कम से कम अगला जन्म तो सुधार लो.’’
वे अपने को अनाथ सा महसूस कर रही थीं, तभी पापा आ गए और जोर से बोले, ‘‘मेरी लाडो को मत परेशान किया करो,’’ और वे पापा से लिपट कर सिसक पड़ीं.’’
अगले दिन सुबह विमला नहीं आई थी. बकुल भूखा था. वे किचन में बगैर नहाए चली गईं. मम्मी आ गईं और उन्हें किचन में देखते ही चिल्ला कर बोलीं, ‘‘मानसी तुम्हें जरा सा सबर नहीं था… मैं नहा कर आ तो रही थी?’’
‘‘बकुल जोर से रो रहा था.’’
‘‘आज पूर्णिमा है तुम ने बगैर नहाए सब छू लिया… अब फिर से किचन धोनी पड़ेगी.’’
‘‘उफ, मां कब तक इन कर्मकांड भरे ढकोसलों में पड़ी रहोगी. आप ने तो मेरा जीना हराम कर दिया है,’’ वे पैर पटकते हुए अपने कमरे में जा कर सिसक पड़ीं, ‘‘यहां से अच्छा तो मेरे ससुराल वाले मुझे रखते हैं. आगरा रहते हुए 6 महीने हो चुके थे. मालती मम्मीजी का फोन लगभग रोज आ जाता और वे बकुल को याद करती रहतीं.
उन्होंने नाराज हो कर लखनऊ जाने का निश्चय कर लिया था. शायद मम्मी भी उन से परेशान हो चुकी थीं. उन्होंने बकुल से फोन पर कहला दिया, ‘‘दादी मुझे आना है.’’
अगली सुबह मम्मीजी ने गाड़ी भेज दी और वे लखनऊ पहुंच गईं. इस बीच पापा ने ईशा दी को अपने घर में बुला लिया. वे लोग सब अब यहीं रहने वाले हैं, यह बात तो उन्हें बहुत बाद में पता चली थी. उन का जीवन तो बोझ बन चुका था क्योंकि मम्मीजी का झकाव बेटियों की तरफ ज्यादा हो गया था. वे अब एक फालतू चीज बन कर रह गई थीं, जिस की कहीं कोई उपयोगिता नहीं थी. उन के पापा और ससुरजी के बीच जेवर, इंश्योरैंस के पैसे, बैंक लौकर के जेवर और एफडी आदि के लिए मनमुटाव शुरू हो गया था. पापा का कहना था कि उन की बेटी के नाम सब होना चाहिए. अकसर मीटिंग होती. दोनों तरफ के कुछ लोग बैठते. बहसा होती. लेकिन कुछ तय नहीं हो पाता क्योंकि पापाजी कुछ भी देना ही नहीं चाहते थे. लौकर के गहने, और इंश्योरैंस के रुपए, उन का स्त्री धन और कुछ प्रौपर्टी कुछ भी उन के नाम करने को तैयार नहीं हो रहे थे. 2 साल तक वे कभी ससुराल तो कभी मायके अपने दिन गुजारती रहीं.
वन्या दी, ईशा दी और मम्मीजी का एक ग्रुप बन गया था. वे उन्हें अपनी बातों में कम शामिल करतीं. खूब शौपिंग पर जातीं. लेकिन अपना सामान बहुत कम ही उन्हें दिखाया करतीं. वे अपने कमरे में टीवी और मोबाइल में सिर फोड़ती रहतीं.
ईशा दी की बेटी लवी और बकुल में दिनभर लड़ाईझगड़ा तो रोज की बात थी. लवी बड़ी थी, वह चुपचाप उस के चुटकी काट लिया करती. कभी बकुल रोते हुए उन के पास आता कि लवी ने मेरा खिलौना छीन लिया. दिनभर यही सब चलता रहता. वे लवी को कुछ नहीं कह सकती थीं. बकुल ही दिनभर डांट खाता. कभी वे नन्हे से बकुल को थप्पड़ लगा कर रो पड़ती थीं. मम्मीजी उस को अपनी गोद में बैठा कर प्यार तो करतीं, लेकिन लवी को कुछ न कहतीं.
एक दिन दोनों बच्चे लड़ रहे थे तो बकुल ने लवी को धक्का दे दिया. वह गिर गई
और होंठ में दांत चुभ गया. दी ने आव देखा न ताव बकुल के गाल पर जोर का थप्पड़ लगा दिया और जोरजोर चीखने लगी तो वे सह नहीं सकीं. गुस्से में बोलीं, ‘‘दी आपने नन्हे से बकुल को इतनी जोर से मारा कि देखिए उस के गाल पर आप की सारी उंगलियां छप गई हैं.’’
‘‘यह नहीं दिखता कि बकुल ने लवी को कितनी जोर से धक्का दिया है. कभी अपने बेटे को भी समझया करो. अब तुम बहुत बोलने लगी हो. भैया तो हैं नहीं जो तुम्हें कंट्रोल करें. अब तो बिना लगाम की घोड़ी बन गई हो,’’ वे बहुत देर तक बकबक करती रही थीं. मम्मीजी मूकदर्शक बनी सब सुनती रही थीं.’’
वे घंटों तक अपने कमरे में सिसकती रही थीं. मासूम बकुल उन के आंसू पोछता रहा.
वन्या दी भी आती रहतीं. ईशा दी तो रहती ही थीं. घर कभी खाली न रहता. वे बहू का फर्ज निभातेनिभाते दुखी हो जाती थीं. इस के बावजूद रोज की चिखचिख. खाना कैसा बना है. सलाद नहीं कटा, सब्जी बेकार है. दाल पतली है.
‘‘मानसी, तुम क्या करती रहती हो? रसोइए से ढंग से खाना भी नहीं बनवा सकतीं? जब खाने बैठो, तो इतना बेकार खाना,’’ कहते हुए पापाजी डाइनिंग टेबल से उठ गए थे. फिर तो हंगामा होना स्वाभाविक ही था.
ईशा दी के पति विनय उन के कमरे में आ कर उन्हें ज्ञान देने लगे, ‘‘भाभी, आप अकेली हो. भैया तो हैं नहीं. छोटा सा बच्चा भी साथ में है. इसलिए आप चुप रहा करिए और घर के कामों पर अपना ध्यान दिया करिए.’’
अब तो जबतब जीजू मौका देख कर उन से बात करते और उन के नजदीक भी आने की कोशिश करने लगे थे. अब वे उन के सामने जाने से कतराया करती थीं. वे उन की ललचाई निगाहों से झलस कर रह जाया करती थीं.
एक दिन तो हद हो गई जब अकेला पाते ही उन्होंने उन्हें अपने आगोश में जकड़ लिया. उन्होंने गुस्से में आव देखा न ताव एक थप्पड़ उन के गाल पर जड़ दिया.
वे उलटे चीखचीख कर कहने लगे कि यह तो उन्हें कब से परेशान कर रही थी. आज मौका लगते ही गले ही पड़ गई. मैं इसे धक्का न देता तो यह न जाने क्या करती.
सब लोग सबकुछ जानसमझ रहे थे, लेकिन वहां पर उन की तरफ से बोलने वाला तो कोई था ही नहीं क्योंकि उन का पति तो उन्हें मझधार में छोड़ कर जा चुका था. उन का जीवन तो बिना नाविक की नाव की तरह हो गया था जो भंवर में डूबउतरा रही थी. काश, पापा ने उन्हें पढ़लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा किया होता तो वे इस तरह से मायके और ससुराल की ठोकरें न खातीं.
अपनी बेबसी पर वे रो पड़ी थीं. अब उन्होंने निश्चय कर लिया था कि वे
अब यहां एक दिन भी नहीं रहेंगी. उन्होंने पापा को फोन कर दिया था. वे सुबह आ गए, फिर तो जोर का झगड़ा शुरू हो गया. बकुल के लिए खींचातानी. बकुल स्वप्निल की निशानी है, इसलिए वह यहां पर उन लोगों के साथ ही रहेगा.
5 साल का अबोध बकुल भला क्या निर्णय लेता पापा 7-8 लोगों को ले कर आए. लंबी बैठक होती रही. जिन के भविष्य का फैसला होना था, उन की इच्छाअनिच्छा से किसी को कोई मतलब नहीं था. वे सब आपस में बुरी तरह उलझे हुए थे. जोरजोर से कहासुनी हो रही थी. पापा का कहना था कि उन्होंने मानसी को एक किलोग्राम सोने के जवर दिए थे. वह उस का स्त्रीधन है. आप को देना पड़ेगा. शादी में क्व4 करोड़ खर्च हुए थे, उस की भरपाई कैसे होगी?
अखिल पापाजी कह रहे थे, ‘‘यहां पर हम लोग उसे बेटी को तरह रख रहे हैं और इसे कोई बिजनैस करवा देंगे आखिर में वह मेरे वारिस की मां है, इसलिए इन लोगों को यहीं रहना होगा. जैसे पहले रहती थी वैसे रहे… जैसे मेरी ईशा वैसे यह मेरी तीसरी बेटी है.’’
नौबत यहां तक आ गई कि गालीगलौज और हाथापाई की स्थिति बन गई थी और मेरे पापा घमंड में बोले, ‘‘अखिल, कमीने, तेरा पाला जैसे रईस से पड़ा है, तेरे मुंह पर मैं मारता हूं सारा पैसा, सोना. तू पहले भी भिखमंगा था. शादी के नाम पर कहता रहा मुझे गाड़ी दो, सोना दो, कैश दो… नीच कहीं का.’’
पापा को अपने पैसे का गुरूर था और उन का अपना बचपना… बकुल को पापा ने अपनी गोद में उठाया और उन की उंगली पकड़ कर मैं बाहर गाड़ी में बैठ कर आगरा आ गई.
आगरा रहते भी 2 साल बीत गए थे. पापा ने एक साधारण परिवार के लड़के को पैसे का लालच दे कर उन के साथ शादी करने को राजी कर लिया. उस का नाम पीयूष था. वह भरतपुर में रहता था और वह इंश्योरैंस का काम करता था. इसी सिलसिले में वह पापा के पास आया करता और अपने को बैंक में कैशियर हूं, बताया करता. बकुल के लिए कभी चौकलेट तो कभी गेम वगैरह दे कर जाता. फिर धीरेधीरे उन के साथ भी मिलनाजुलना होने लगा. वह उन्हें भी लंच पर ले जाता. भविष्य को ले कर बातें करता. प्यार भरी बातें फोन पर भी होतीं. उस की आकर्षक पर्सनैलिटी की वे दीवानी होती जा रही थीं. उस के प्यार में वे अंधी हो रही थीं.
पीयूष ने कहा कि उन की मां बैड पर हैं, इसलिए वे चाहती हैं कि जल्दी से शादी कर ले, तो वे बहू को देख लें और उन्हें तो साथ में पोता भी मिल रहा है. पीयूष और बकुल के बीच जो ट्यूनिंग थी उस से वे आश्वस्त हो गई थी कि बकुल को पापा मिल जाएगा और उन के जीवन में फिर से खुशियां दस्तक दे देगी… उन के जीवन का अधूरापन भी समाप्त हो जाएगा. वे सादे ढंग से मंदिर शादी करना चाहती थीं, परंतु पीयूष की मां अपने बेटे को दूल्हे के वेष में देखने का सपना पूरा करना चाहती थीं.
फिर से वही धूमधाम हुई और वे पीयूष की दुलहनिया बन कर उस के घर पहुंच गईं. कुछ महीनों तक तो सबकुछ ठीकठाक रहा, लेकिन वे समझ गई थीं कि वह ठगी जा चुकी हैं. उन्हें बाद में मालूम हुआ कि पापा ने क्व20 लाख का लालच दिया था, इसलिए उस ने शादी की थी.
कुछ दिनों के बाद ही पीयूष दारू के नशे में रात में देर से आने लगा. नशे में बोलता कि तू तो जूठन है. तुझे छूने में घिन आती है. रोज रात को गालीगलौज करता. सुबह उठ कर झड़ू बरतन, नाश्ता, खाना बनाना, उन के लिए बहुत मुश्किल था. सबकुछ करने के बाद भी पीयूष की मां चिल्लातीं, ‘‘अपशकुनी एक को तो खा गई अब क्या मेरे लाल को भी खाएगी क्या.’’
पीयूष अपने साथ उन्हें मां के घर ले कर जाता और थोड़ी देर में लौटा लाता. पापा से कह कर उन्होंने एक नौकरानी बुलवाई, तो पीयूष के आत्मसम्मान को चोट पहुंची और वह नाराज हो उठा क्योंकि उस के मन में चोर था कि यहां की सब बातें नौकरानी के द्वारा मानसी के मातापिता तक पहुंच जाएंगी. इसीलिए पीयूष ने उसे तुरंत भगा दिया.
पीयूष की मां पैरालाइज्ड थीं. उन्हें नहलाना, गंदगी साफ करना जैसे काम उन के लिए बहुत कष्टदाई थे, परंतु 1 साल तक उस नर्क में गुजर करने की कोशिश करती रही थीं.
पीयूष ने झठ बोला था. वह बैंक में नौकरी नहीं करता था. उस ने पापा से दौलत ऐंठने के लिए शादी का ड्रामा रचा था. नन्हा बकुल पीयूष को देखते ही सहम जाता था, एक दिन वे बकुल को पढ़ा रही थीं कि नशे में झमता हुआ वह आ गया और बकुल को गाली दे कर उस की किताब उठा कर हवा में उछाल दी. फिर उसे जोर से धक्का देते हुए गालियों की बौछार कर दी. वे तेजी से उठीं और पीयूष के समने खड़ी हो कर बोली, ‘‘खबरदार यदि मेरे बेटे के साथ बदतमीजी की या उस पर हाथ उठाया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’
वह न जाने किस नशे में डूबा हुआ था सो उस ने उन्हें भी जोर का धक्का दे दिया, ‘‘मुझ से मुंहजोरी करेगी… तेरी ऐसी दशा करूंगा कि सारा घमंड चूर हो जाएगा.’’
उन्होंने दीवार का सहारा ले कर अपने को गिरने से बचा लिया, परंतु उस दिन पीयूष की बदतमीजी और गालियां उन के लिए सहना मुश्किल हो गया.
बकुल उन की बांहों के घेरे में देर घंटों तक सिसकता रहा. वे भी कमरा बंद कर के आंसू बहाती रहीं.
सुबह हमेशा की तरह पीयूष उन के पैर पकड़ कर माफी मांगता रहा. लेकिन अब उन्होंने फैसला कर लिया था इस नर्कभरी जिंदगी से मुक्त होने का. अगले दिन मुंह अंधेरे बकुल का सामान एक बैग में रख कर वे भरतपुर से आगरा आने वाली बस में बैठ गई.
उस दिन एक नई मानसी ने जन्म लिया था. उन्होंने तय कर लिया था कि अब वे
अपने जीवन के निर्णय स्वयं किया करेंगी.
वे क्रोध में धधकती हुई अपने घर पहुंचीं और अपने पापा पर बरस पड़ी, ‘‘पापा, आप ने अपने पैसे के घमंड में मेरी जिंदगी को तमाशा बना कर रख दिया है. एक लालची को आप ने क्व20 लाख दे कर मेरे जीवन का सौदा कर दिया. अब किसी दूसरे ने आप से ज्यादा मोटी नोटों की गड्डी उस के मुंह पर मार दी और बस वह उन के सामने कुत्ते की तरह दुम हिलाने लगा. पापा आप ने न ही पीयूष के बारे में कुछ ठीक से पता लगाया और न ही ढंग से उस का घर देखा. उस की चिकनीचुपड़ी बातों में आप फंस गए. उस ने दूसरे के घर को अपना घर बताया. बस आप ने झटपट अपनी बेटी उसे सौंप दी. आप ने अपने पैसे के बलबूते बेटी को उस के हवाले कर के उस की जिंदगी को तमाशा बना कर रख दिया.’’
‘‘बस बहुत हुआ. अब आगे कोई तमाशा नहीं होगा. मैं पीयूष के बच्चे को जेल की हवा खिलाऊंगा देखती जाओ… कमीना कहीं का.’’
‘‘पापा भैया की शादी होने वाली है , इसलिए मैं कमला नगर वाले फ्लैट में अकेली
रहा करूंगी.’’
उन की बात सुन कर मम्मीपापा कसमसाए थे लेकिन अब उन की हिम्मत नहीं थी कि वह बोलें. उन की सहायता के लिए सेविका लक्ष्मी भी आ गई थी.
बकुल 5वीं कक्षा में आ गया था. उसे पढ़ालिखा कर अच्छा इंसान बनाना ही उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था, परंतु अभी तो नियति को उन के हिस्से के बहुत सारे पन्ने लिखने बाकी थे.
उन्होंने एक बुटीक खोल लिया और उस में मन लगाने लगी थीं. बुटीक चल नहीं पा रहा था. अत: उन का बुटीक से भी मन उचटता जा रहा था.
मालती मम्मीजी का मायका आगरा में ही था. वे अकसर अपनी मां से मिलने आती रहती थीं और उन के जीवन के हर उतारचढ़ाव की जानकारी रखती थीं क्योंकि वे अपने मायके में पहले भी महीनों रहा करती थीं. वे पहले कई बार उन्हें फोन किया करतीं, लेकिन वे कभी फोन उठाया करतीं और न ही कभी मिलने गईं, जबकि वे बारबार उन से मिलने के लिए आग्रह करती रहती थीं.
एक दिन वे बकुल के लिए ढेरों सामान ले कर उन के घर आ गईं. बकुल उन से चिपट गया और दादी मैं आप के साथ चलूं कहने लगा. दादीपोते का मिलन देख उन की आंखें भी भर आईं. वे महसूस कर रही थीं कि उन की वजह से बच्चे का मासूम बचपन छिन गया है. उस के मन में अपनी दादीबाबा और बूआ लोगों के प्रति प्यार था, कहीं कोने में एक सौफ्ट सा कार्नर था.
जितनी देर दादी रहतीं बकुल बहुत खुश रहता. वे अपने साथ उसे ले जातीं कभी आइस्क्रीम पार्लर तो कभी डिनर या लंच पर धीरेधीरे उन्होंने उन के साथ भी नजदीकियां बढ़ा लीं. वे बोलीं कि यहां अकेले रहती हो. वहां इस के बाबा तो तुम लोगों को देखने के लिए तरस रहे हैं… आदि वहां अपना बुटीक चला ही रहा है, उसी में काम बढ़ा लेना.
अनिश्चित सी धारा में जीवन बहे जा रहा था. बकुल भी बड़ा हो रहा था. वह उद्दंड और जिद्दी होता जा रहा था. उन के लिए उसे अकेले संभालना मुश्किल होता जा रहा था. वह उन्हें ही दोषी मानता था कि दादी का घर आप ने क्यों छोड़ा. वह कहता कि किसी दिन बाबा के पास अकेले ही चला जाएगा.
वह स्कूल नहीं जाना चाहता था, ट्यूशन
नहीं पढ़ना चाहता. बस मोबाइल या लैपटौप पर गेम खेलने में मशगूल रहता. वे तरहतरह से समझया करतीं.
मम्मी कभी किसी गुरु से ताबीज ला कर पहनातीं तो कभी उन की भभूत या जल उद्दंड बकुल उन्हीं के सामने उठा कर फेंक देता. उन्हें भी इन चीजों पर कोई विश्वास नहीं था.
पापा का पैसे का दिखावा बंद ही नहीं होता था. आज ये गुरुजी आ रहे हैं तो कल अखंड रामायण हो रही है. बेटी तुम इस मंत्र का जाप करते हुए 11 माला किया करो. बिटिया तुम्हारा मंगल भारी है इसीलिए वैवाहिक जीवन में संकट आ जाता है. मंगल का व्रत किया करो. बाबूजी मैं ऐसी पूजा करूंगा कि बिटिया के जीवन में खुशियां लौट आएंगी.
वे क्रोध में धधक पड़ी थीं, ‘‘पापा आप मेरी चिंता बिलकुल छोड़ दें. यदि ये गुरुजी मेरे जीवन में खुशियों की गारंटी लेते हैं तो ये अपना जीवन क्यों नहीं सुधार लेते? पाखंडी ठग कहीं के. बस लोगों को मूर्ख बना कर पैसा ऐंठना ही इन का धंधा है.’’
पापा भी उस दिन उन से नाराज हो गए कि यह जनम तो बिगड़ ही रखा है अगला भी बिगाड़ रही है. जो मन आए वह करो. कह कर चले गए.
मांपापा से उन्हें चिढ़ हो गई थी. पापा की जल्दबाजी में ही उन का जीवन बरबाद हुआ था. यदि पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होतीं तो भला उन के साथ यह सब होता.
स्वप्निल को दुनिया से विदा हुए 10 वर्ष पूरे हो चुके थे. पापाजी ने उन
की याद में एक मंदिर बनवाया था, जिस का उद्घाटन वे बकुल और उन के हाथों से करवाना चाहते थे, इसलिए पापाजी खुद उन्हें बुलाने के लिए आए थे. बकुल तो उन को देखते ही उन से लिपट गया और उन के साथ ही लखनऊ जाने के लिए मचल उठा. वहां चलने की जिद्द करता हुआ खानापीना छोड़ कर बैठ गया.
वे बकुल की बढ़ती उद्दंडता, उस का मोटापा, उस की बद्तमीजी के कारण परेशान हो चुकी थीं. मम्मीपापा उन को लखनऊ भेजने के लिए बिलकुल भी राजी नहीं थे, परंतु जब वन्या दी गाड़ी ले कर खुद आईं तो वे उन को देख कर भावुक हो गईं और उन के साथ लखनऊ पहुंच गई थी. वहां सब का लाड़प्यार पा कर उन्हें खुशी महसूस हुई थी.
एक बार उन्होंने स्त्रीधन और बकुल की परवरिश व खर्च की बात उठाई तो पापाजी ने उन के सामने सारे कागजात चाहे ऐक्सीडैंट का क्लेम, एफडी, प्रौपर्टी, लौकर से उन के गहने ला कर रख दिए. जब उन्होंने महीने के खर्च की बात करी तो फिर से माहौल गरम हो गया, लेकिन इस बार मम्मीजी ने बीचबचाव कर के यह कह दिया कि यदि यहां नहीं रहना चाहती तो गोमती नगर वाले फ्लैट में रह सकती हो. तुम मेरी बेटी हो, मेरी आंखों के सामने रहोगी और बकुल भी यहां रहेगा तो हम लोगों को खुशी होगी.
पापाजी भावुक हो कर बोले, ‘‘स्वप्निल तो हम लोगों को छोड़ गया. अब उस की निशानी हम लोगों से मत दूर करो. जितना कुछ है सब बकुल के बालिग होने पर उसे मिलने वाला है. तब तक वे बकुल की कस्टोडियन बनी रहेंगी.’’
मम्मीजी का बुटीक था वे उसे उन्हें सौंपने को तैयार थीं.
एक तरह से सब उन के मनमाफिक हो रहा था. सब से खास बात तो यह थी कि बकुल उन लोगों के बीच बहुत खुश था और वहीं रहने की जिद कर रहा था.
उन्होंने अपनेआप फैसला किया कि बकुल की खुशी के लिए वे यहां रुकने को तैयार हैं. सब के चेहरे पर खुशी छा गई. बकुल दादीबाबा के पास आ कर बहुत ही खुश था.
बकुल का एडमिशन सिटी मौंटेसरी स्कूल में पापा ने करवा दिया. घर के कामों के लिए मम्मीजी ने सुरेखा को भेज दिया. सबकुछ उन के अनुकूल ही हो रहा था. बकुल की ट्यूशन के लिए पापाजी ने नीरज को भेज दिया.
लगभग 35-40 का नीरज गेहुएं रंग का सुदर्शन सा युवक था. वह सहमासहमा सा रहता, लेकिन पहली नजर में ही उन्हें वह अपनाअपना सा लगा. वह बकुल को पढ़ाने के साथसाथ इतना लाड़दुलार करता कि वह उन की बातों को बहुत ध्यान से सुनता और उन का कहना मानता. उस के स्वभाव में जल्द ही परिवर्तन दिखने लगा. वह अपने सर का इंतजार करता और उन का दिया होमवर्क पूरा कर के रखता.
धीरेधीरे नीरज उन से भी खुलने लगे थे. उन की पत्नी भी अपने बेटे को
ले कर उन्हें छोड़ कर अपने आशिक के साथ चली गई थी, इसलिए बकुल में उन्हें अपना बेटा सा नजर आता था.
वे स्वयं भी अपनी परित्यक्ता मां के इकलौते चिराग थे. अपनी मां के संघर्षों को, उन के अकेलेपन को, उन की मुसीबतों को बहुत नजदीक से देखा और महसूस किया था और अब किसी तरह से पोस्ट ग्रैजुएट हो कर एक कालेज में लैक्चरर बन गए थे, जहां क्व12 हजार दे कर क्व40 हजार पर साइन करवाते थे. अखिल अंकल उन के पापा के पुराने दोस्त थे और उन पर उन के बहुत एहसान भी थे. उन्हें पैसे की जरूरत भी थी. बस वे इस ट्यूशन के लिए तैयार हो गए थे.
बकुल को देख उन्हें अपने बचपन की दुश्वारियां और अकेलापन याद आने लगता था, इसलिए उन्हें अपना खाली समय उस के साथ बिताना अच्छा लगता था. वे छुट्टी वाले दिन बकुल को ले कर कभी अंबेडकर पार्क, कभी जू तो कभी इमामबाड़ा ले कर जाते और दोनों साथ में मस्ती कर के खुश होते. शायद बकुल को नीरज के अंदर अपने पापा की प्रतिमूर्ति दिखने लगी थी. बकुल के सुधरने की वजह से वे उन की बहुत एहसानमंद थी.
कभी नीरज अपनी दुख की कहानी सुनाते तो कभी वे अपने जीवन की व्यथा सुनातीं. बस दोनों को एकदूसरे से बातें करना अच्छा लगता. वे मन ही मन उन्हें प्यार करने लगी थीं. नीरज के लिए नाश्ता बनातीं, उन के आने से पहले तैयार हो जातीं और उन का इंतजार करतीं. जब नीरज के चेहरे पर मुसकराहट आती तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था. जब वहे उन की बनाई चाय या खाने की तारीफ करते तो वे खुश हो जातीं.
चाहे उन की इच्छा हो या बकुल को पूरा करने के लिए वे हर समय तैयार रहते.
उन का बुटीक भी अच्छा चल रहा था. बकुल को हाई स्कूल में 98% मार्क्स मिले उन के तो पैर ही जमीं पर नहीं पड़ रहे थे.
मम्मीजीपापाजी उन की और नीरज की नजदीकियों से नाराज हो गए थे, लेकिन अब उन्हें किसी की परवाह नहीं थी. बकुल अपने दोस्तों और कोचिंग में बिजी हो गया था, परंतु नीरज के साथ वह अपनी सारी बातें शेयर करता.
नीरज के बिना अब उन्हें अपनी जिंदगी अधूरी लगने लगी थी. बकुल बड़ा हो
चुका था. वहीं लखनऊ से ही इंजीनियरिंग कर रहा था. उन्हें अपनी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं थी और न ही अब कोई परवाह थी कि कौन क्या कह रहा है. जिसे मन हो रिश्ता जोड़ें न मन हो तो तोड़ दे. वे अपनी दुनिया में खुश थीं, नीरज को पहली नजर में देखते ही उन्हें एहसास हुआ था कि हां यही प्यार है. प्यार में कोई ऐक्सपैक्टेशन नहीं होती. बस बिना किसी चाहत के किसी को दिलोजान से चाहो. शायद इसे ही प्यार में डूब जाना कहते हैं.
नीरज ने हर कदम पर उन का साथ दिया था यद्यपि दोनों ने ही इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया था, लेकिन इस अनाम रिश्ते ने उन के जीवन में पूर्णता ला दी थी.
घंटी की आवाज से उन की तंद्रा टूटी.
नीरज तैयार हो कर आए तो वे अपने पर कंट्रोल नहीं कर सकीं और बच्चे की तरह उन की बांहों में झल गईं.