सोने की सास: भाग 1- क्यों बदल गई सास की प्रशंसा करने वाली चंद्रा

मेरी नवविवाहिता पुत्री चंद्रा जब पहली बार अपनी ससुराल में कुछ दिन बिता कर लौटी, तो अपनी सास की प्रशंसा करते नहीं थकती थी. उस की जिन 2 सहेलियों को अपनीअपनी सासों से शिकायत थी, उन के बारे में वह कहा करती थी, ‘‘नीता और गुड्डो की सासुओं को तो मेरी सास से मिला देना चाहिए, तब उन्हें पता चलेगा कि सास क्या होती है.’’

लेकिन दूसरी बार जब चंद्रा कुछ अधिक दिन बिता कर ससुराल से लौटी, तो प्रशंसा का स्थान निंदा ने ले लिया था. मैं आहत सी हो गई. सोचने लगी, इस की सास अपर्णाजी ऊपर से तो बड़ी भली लगती हैं, पर इस की बातों से तो लगता है कि अंदर से वे महाखोटी हैं.

मैं कुछ पूछूं या न पूछूं, बिटिया दिन भर उन की शिकायत करती रहती. कभीकभी मुझे लगता, चंद्रा कुछ ज्यादा ही बोल रही है. एक दिन वह बोली, ‘‘मैं तो वहां भरपेट खाना भी नहीं खाती.’’

‘‘क्यों? क्या वहां कोई तुम्हें खाने से रोकता है? तुम ने तो पहले बतलाया था कि वहां खाने की मेज पर तुम लोग सब अपने हाथ से अपने मन का ले कर खाते हो.’’

‘‘मन का कुछ बने, तब न कोई मन का खाए. मेरी पसंद का कुछ रहता ही नहीं.’’

‘‘बातबात में तुम बता दिया करो कि तुम्हें क्या पसंद है और क्या नापसंद. वैसे घरपरिवार में सब की पसंद का तो रोज एक साथ बन नहीं सकता. कुछ औरों की पसंद की चीजें भी खाना सीखो.’’

वह बिगड़ उठी, ‘‘तुम भी उन्हीं की तरह बोलने लगीं. जो चीज नहीं भाए, उसे कैसे खाए आदमी?’’

केवल खाने की ही बात नहीं, बिटिया रानी किसी न किसी बात को ले कर दिन भर सास की बुराई करती ही रहती.

एक दिन मैं ने पूछा, ‘‘पहलेपहल क्या हुआ था? तुम्हें उन की बात पहली बार कब चुभी थी?’’

वह ठंडी सांस भर कर बोली, ‘‘क्या बताऊं पहलेपहल की बात. उन का तो रोज ही यही हाल रहता है. बातबात में मेरी तुलना ननद से करती रहती हैं. सांभवी तो यह काम ऐसे करती है, सांभवी तो यह काम वैसे करती है या फिर अपना उदाहरण देती रहती हैं कि यह काम मैं ऐसे करती हूं, वह काम मैं वैसे करती हूं. ऐसा लगता है, जैसे वे मांबेटी ही सब कुछ जानती हैं. मैं तो जैसे कुछ जानती ही नहीं.’’

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘क्या बताऊं, यदि मुझ से दाल में पानी कम या ज्यादा हो जाता है, तो बड़ी मिठास से कहती हैं कि चंद्रा बिटिया, दाल में पानी नाप कर दिया करो, तब कमबेसी नहीं होगा. मैं और सांभवी तो हमेशा नाप कर पानी देते हैं.

‘‘अच्छा मां बतलाओ, इस से क्या फर्क पड़ता है? अगर कभी पानी ज्यादा हो जाता है, तो दाल बनने के बाद मैं ऊपरऊपर का कुछ पानी निकाल कर फेंक देती हूं और यदि दाल गाढ़ी लगती है, तो थोड़ा पानी और डाल देती हूं.’’

मैं धीरे से बोली, ‘‘लेकिन ऊपर से पानी डाली हुई दाल में वह स्वाद नहीं आता बेटी, हां यदि कभी गलती से दाल अधिक देर चढ़ी हुई रह गई और गाढ़ी हो गई, तो ऊपर से पानी डालना ही पड़ता है. यह भी है कि किसी घर में दाल गाढ़ी खाई जाती है, तो किसी घर के लोग पतली दाल पसंद करते हैं. तुम्हारी सास ठीक ही तो कहती हैं. आखिर दाल के अनुसार नाप कर पानी देने में हरज ही क्या है?’’

सुनते ही चंद्रा बिगड़ उठी. गुस्से में भर कर बोली, ‘‘तुम्हें तो उन्हीं की बात ठीक लगती है. तुम तो उन्हीं का पक्ष लिए जा रही हो,’’ कह कर चंद्रा ने रोना शुरू कर दिया.

मुझे लगा, यह बात का बतंगड़ बना रही है. पर ससुराल से आई बिटिया को रुलाना भी तो अच्छा नहीं लगता. उसे खुश रखने के लिए मैं उस की हां में हां मिलाने लगी. लेकिन जब भी ऐसी कोई बात सुनती, तो मुझे लगता कि यह तिल का ताड़ बना रही है, फिर भी चुपचाप सुनते रहने की कोशिश करती.

एक दिन उस ने कहा, ‘‘जानती हो मां, मेरी सास दूध की सारी मलाई निकाल कर जमा करती रहती हैं.’’

‘‘हां तो, मलाई खाना तो ठीक नहीं होता. उस से वजन ही बढ़ता है. इसलिए तो हम यहां बिना मलाई वाला दूध खरीदते हैं.’’

‘‘पर सुनो तो मां, कुछ मलाई इकट्ठी हो जाने पर वे उसे आंच पर चढ़ा कर उस का घी बना लेती हैं और फिर उस घी को दाल छौंकने के काम में लाती हैं.’’

‘‘ठीक तो है, उतना घी खाना भी चाहिए.’’

चंद्रा के चेहरे पर एक बार फिर पराजय मिश्रित क्रोध का भाव आया. फिर अपने को कुछ संयत कर के बोली, ‘‘मां तुम उन्हें नहीं जानतीं, वे खाना बनातेबनाते उसे जूठा भी कर देती हैं.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘वहां मेरी ससुराल में शाम के नाश्ते में अकसर गरम पकौडि़यां बनती हैं.’’

‘‘क्या तुम बनाती हो?’’

‘‘नहींनहीं, मेरी सास ही बनाती हैं. पर बनातेबनाते सब को देतेदेते बीच में कुछ पकौडि़यां तोड़ कर ठंडी कर लेती हैं और जब कड़ाही में दूसरी पकौडि़यां, सिंकती रहती हैं, तब वे तोड़ कर ठंडी की हुई उन पकौडि़यों को मुंह में उछालउछाल कर डालती हैं और चबातीखाती रहती हैं.’’

‘‘बेटा, मुंह से हाथ सटा कर खाने से हाथ जूठा होता है और उस जूठे हाथ से छूने से कोई चीज जूठी होती है. उछालउछाल कर खाने से न तो हाथ ही जूठा हुआ और न ही सारी पकौडि़यां.’’

‘‘लेकिन मां, मिठाई वगैरह वे एक ही प्लेट में सब के लिए टेबल पर रख देती हैं. उसी में से सब 1-1 उठा लेते हैं और फिर उसी में से 1 नौकरानी को भी दे देती हैं. यह क्या जूठा खिलाना नहीं हुआ?’’

‘‘नहीं रे, ऐसे भी क्या कभी कुछ जूठा होता है.’’

जब तक वह रही तब तक शिकायतों का सिलसिला चलता रहा और मैं उसे समझाने की कोशिश में लगी रही.

दामाद श्रीकांतजी एम.बी.ए. हैं, लेकिन नौकरी नहीं मिलने के कारण वे पिता के व्यवसाय में ही सहयोग कर रहे थे. अभी हाल में उन्हें कोलकाता में एक अच्छी नौकरी मिल गई. उन्होंने वहां एक किराए का घर खोज लिया, तो चंद्रा को भी वहीं ले गए.

जल्दी ही चंद्रा के देवर की शादी तय हो गई. शादी में अपर्णाजी ने हम दोनों से भी आने का आग्रह किया. उधर चंद्रा और दामादजी का भी अनुरोध था. हम चले गए.

शादी के घर में चंद्रा ने अपनी कर्मठता का खूब परिचय दिया. अपर्णाजी भी मौका मिलने पर चंद्रा की तारीफ करतीं. बचपन से ही उस में यह गुण था कि जो भी काम सीखती, चाहे वह खाना बनाना हो या बुनाईकढ़ाई, पूरी लगन से सीखती और फिर उसे सही ढंग से करने का प्रयास करती. अपर्णाजी कहतीं, ‘‘कपड़ोंगहनों में भी चंद्रा की पसंद कितनी अच्छी है. छोटी बहू को देने के लिए सारे कपड़ेगहने इसी की पसंद से आए हैं.’’

अपनी प्रशंसा सुन कर बिटिया रानी एक बार तो खुश हो जाती, पर फिर सास की कोई न कोई शिकायत मेरे कान में आ कर कह जाती. खैर, विवाह अच्छी तरह संपन्न हो गया. सारे मेहमान चले गए, पर अपर्णाजी ने हमें 2 दिन और रोक लिया.

एक दिन मैं ने देखा चंद्रा नई बहू के पास बैठी सासूमां के विरुद्ध उस के कान भर रही है. बिटिया के डर से उस के सामने तो मैं कुछ नहीं बोल पाई, पर वह उठ कर चली गई तो मैं उस की देवरानी सुष्मिता से बोली, ‘‘देखो बिटिया, तुम्हारी सास एक अच्छी महिला हैं. तुम किसी और की बातों में मत आओ. जब उन के साथ रहोगी, तो खुद ही उन्हें समझ जाओगी.’’

6 TIPS: ऐसे करें नए बेबी का स्वागत

विवाह प्रत्येक इंसान के जीवन का एक अहम पड़ाव होता है….विवाह के बाद जब दाम्पत्य जीवन में एक नए मेहमान के आगमन की सुगबुगाहट होती है तो पति पत्नी दोनों ही खुशियों से सराबोर हो उठते हैं. पहले जहां परिवारों में 4-5 बच्चे होते थे वहीं आज 1 या 2 ही बच्चे होते हैं. ऐसे में अपने आने वाले बच्चे को लेकर माता पिता का पजेसिव होना स्वाभाविक है. आजकल प्रति माह बच्चे का जन्म दिन मनाया जाना तो आम बात है पर इसके अतिरिक्त आप कुछ अन्य उपायों से भी अपने बच्चे के आगमन को यादगार बना सकते हैं.

1. यादों की डायरी बनाएं

प्रग्नेंट होने के दिन से ही आप एक डायरी बनाएं जिसमें इस अवस्था के अनुभवों को शेयर कीजिये. प्रतिदिन के अपने अनुभवों के साथ साथ आप इसमें अपने शरीर में होने वाले बदलावों, खान पान की आदतों में परिवर्तन, और गर्भ में होने वाले अनुभवों के बारे में विस्तार से लिखें. इसी डायरी में बेबी के जन्म के बाद के घटनाक्रम को अंकित करें मसलन उसके करवट लेने, चलने, खड़े होने, पलटने, बैठने, खड़े होने,चलने और दांत निकलने जैसी तमाम यादों को फोटो और उनकी तिथि लिखने के साथ साथ फोटोज भी लगाएं.

2. बेबी नर्सरी प्लान करें

आने वाले बच्चे के लिए घर में अपने पार्टनर के साथ मिलकर क्यूट सी एक नर्सरी बनाएं. इसमें आप रंग बिरंगे खिलौने फ्लोरल मोटिफ के साथ साथ छोटे छोटे टेडीबियर और आवाज वाले खिलौनों को स्थान दें. बच्चे के लिए नर्सरी प्रिंट की चादर, तकिया बैग और गद्दियां भी लाएं.

3. खुशी को शेयर करें

परिवार में नए सदस्य का आगमन सोचकर ही मन खुशी से भर उठता है यदि आप इस खुशनुमा अवसर पर अकेले हैं तो अपनी खुशी को दोस्तों और नाते रिश्तेदारों के साथ जमकर शेयर कीजिये. केवल फोन पर शेयर करने के स्थान पर आप  इस खुशी को शेयर करने के लिए आप स्वयम अपना ऑनलाइन ई कार्ड डिजाइन करके व्हाट्सअप पर शेयर करें. आप चाहें तो इस अवसर पर अपने घनिष्ठ मित्रों के साथ एक छोटी सी पार्टी भी प्लान कर सकतीं हैं.

4. बेबी बंप से करें बातें

अपने आने वाले बेबी से बातें करने के लिए बेबी बंप को सहलाएं, बेबी के मूवमेंट को महसूस करें, और हर स्टेज की फोटो लेकर इस अवस्था को अविस्मरणीय बनाएं. पहले के जमाने मे जहां बेबी बंप को लेकर महिलाओं में झिझक होती थी वही आज बेबी बंप महिलाओं के लिए गर्व की बात है जिसे लेकर पति पत्नी दोनों ही बहुत उत्साहित होते हैं. आजकल तो प्री बेबी शावर शूट का चलन है जिससे इस अवधि को यादगार बनाया जा सकता है.

5. ये तैयारी भी करें

बेबी के फुटप्रिंट लेने के लिए एक सफेद सूती कपड़ा और कोई हल्का सा रंग लाकर रखें ताकि आप अपने नन्हे पैरों का प्रिंट ले सकें. आजकल फुटप्रिंट लेने के लिए ऑनलाइन किट मिलती है जिससे आप बड़ी आसानी से बेबी के फुटप्रिंट ले सकतीं हैं. इसके अतिरिक्त आप आटे या प्लास्टर ऑफ पेरिस से भी फुटप्रिंट ले सकतीं हैं. इन्हें यादगार बनाने के लिए आप इसे आगे चलकर फ्रेम करवा लें.

6. नाम सोचकर रखें

बच्चे के आगमन से पूर्व उसका नाम अवश्य सोच लें क्योंकि नाम के अभाव में बच्चे को देखने आने वाले आगन्तुक किसी भी नाम से उसे पुकारना प्रारम्भ कर देते हैं जिससे कई बार उसका नामकरण ही वह उल्टा सीधा नाम ही हो जाता है. यदि आप पहले ही कोई नाम सोचकर रखते हैं तो सभी उसे उसी नाम से पुकारते हैं.

तुम बिन जिया जाए कैसे- भाग 1

जब से अपर्णा अमन से लड़झगड़ कर अपने मायके चली गई थी तब से अमन खुद को दुनिया का सब से खुशहाल इनसान समझने लगा था. अब घर में न तो उसे कोई कुछ कहने वाला था और न ही हुक्म चलाने वाला. औफिस से आते ही आराम से सोफे पर पसर जाता. फिर कुछ देर बाद कपड़े उतार कर दरवाजे या डाइनिंग टेबल की कुरसी पर ही टांग देता. जूतों को भी उन के स्टैंड पर न रख कर डाइनिंग टेबल के नीचे सरका देता. खाना बनाने की तो कोई फिक्र ही नहीं थी. सुबह दूधब्रैड खा कर औफिस चला जाता और दोपहर का खाना औफिस की कैंटीन में खा लेता. रात के खाने की भी कोई चिंता नहीं थी. कभी बाहर से मंगवा लेता तो कभी एकाध दोस्त को भी अपने घर बुला लेता अथवा कभी किसी दोस्त के घर जा कर खा लेता था.

हमेशा की तरह आज अमन ने अपने दोस्त प्रेम को फोन कर के अपने घर बुलाया ताकि आराम से गप्पे मार सके. अपर्णा के जाने के बाद अमन की दिनचर्या कुछ ऐसी ही हो चुकी थी. बड़ा मजा आ रहा था उसे अपने मनमुताबिक जीने में. अपर्णा के रहते तो रोज किसी न किसी बात को ले कर घर में कलह होती रहती थी. मजाल जो अमन टीवी का रिमोट छू ले, क्योंकि अमन के औफिस से घर आने के समय अपर्णा का मनपसंद धारावाहिक चल रहा होता था. चिढ़ उठता था वह. उसे लगता जैसे यह घर सिर्फ अपर्णा का ही है और अपर्णा इस बात से चिढ़ उठती कि आते ही अमन अपने जूतेकपड़े खोल कर यहांवहां फैला देता.

‘‘यह क्या है अमन… देखो, तुम ने अपने कपड़े कहां लटका रखे हैं… तुम से

कितनी बार कहा है कि इस तरह कपड़े, जूते यहांवहां न रखा करो. पर तुम्हें समझाने का कोई फायदा नहीं,’’ कह अपर्णा ने अमन के जूते उठा कर जूता स्टैंड पर दे मारे.

‘‘अच्छा ठीक है कल से याद रखूंगा,’’ अमन अजीब सा मुंह बनाते हुए बोला.

‘‘तुम कभी याद नहीं रखोगे, क्योंकि तुम्हारी आदत बन चुकी है यह. अरे, कपड़े हैंगर में लगा कर रख दोगे तो क्या बिगड़ जाएगा… मोजे भी कभी दोनों नहीं मिलते… तंग आ गई हूं मैं तुम से… बीवी नहीं एक नौकरानी बना कर रख छोड़ा है तुम ने मुझे,’’ बड़बड़ाते हुए अपर्णा किचन में चली गई.

‘‘तो मैं क्या तुम्हारा नौकर हूं जो दिनरात तुम्हारी सुखसुविधा के लिए खटता हूं? अरे, मैं भी तो थक जाता हूं औफिस में… आ कर इसीलिए थोड़ा सुस्ताने लगता हूं. तुम्हारी तरह घर में आराम नहीं फरमाता हूं, समझी?’’ अमन भी गुस्से से बोला.

अपर्णा चाय के कप को लगभग टेबल पर पटकते हुए बोली, ‘‘क्या कहा तुम ने मैं घर में आराम फरमाती हूं? घर का काम क्या कोई और कर जाता है? तुम मर्दों को तो हमेशा यही लगता है कि औरतें घर में या तो टीवी देखती रहती हैं या फिर आराम. कभी एक रूमाल भी धोया है खुद? बस और्डर किया और सब हाजिर मिल जाता है… कितना भी खटो पर कोई कद्र नहीं है हमारी,’’ अपर्णा बोली.

अमन भी चुप रहने वाला नहीं था. बोला, ‘‘तो क्या घरबाहर सब मैं ही करूं? पता नहीं अपनेआप को क्या समझती है… जब देखो हुक्म चलाती रहती है. औफिस में बौस की सुनो और घर में बीवी की. सोचता हूं घर में चैन मिलेगा, पर वह भी मेरे हिस्से में नहीं है… इस से तो अच्छा है घर ही न आया करूं.’’

यह इन का रोज का झगड़ा था. प्रेम विवाह किया था दोनों ने. जीवन भर साथ जीनेमरने का वादा किया था. पर प्रेम तो कहीं दिख ही नहीं रहा था. बस विवाह किसी तरह निभ रहा था. इन का झगड़ा पासपड़ोस में चर्चा का विषय बन चुका था. हां, अमन था भी बेफिक्र इनसान. अपनी मस्ती में जीने वाला और उस की इसी बेफिक्री पर तो मरमिटी थी अपर्णा. तो आजक्यों उसे अमन की इस आदत से नफरत होने लगी? वैसे भी इनसान में सारी अच्छाइयां नहीं हो सकतीं न? अपर्णा को भी तो समझना चाहिए कि आखिर किस के लिए वह इतनी मेहनत करता… अपने परिवार के लिए ही न? क्याकभी किसी बात की कमी होने दी उस ने अपर्णा को? बस जबान से निकली नहीं और खरीद लाता… कभीकभी तो वह इस बात केलिए भी अमन से झगड़ पड़ती थी कि क्या जरूरत थी इतने पैसे खर्च करने की? तब अमन कहता कि कमाता किस के लिए हूं, तुम्हीं सब के लिए ही न?

मगर अपर्णा को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था. जराजरा सी बात पर चिड़चिड़ा उठती थी. बेचारा अमन औफिस से थकाहारा यह सोच कर घर आता कि थोड़ा रिलैक्स करेगा पर सब बेकार. अपर्णा के तानाशाह व्यवहार के कारण उसे लगने लगा था कि या तो अपर्णा कहीं चली जाए या फिर वह खुद अपर्णा से दूर हो जाए. वह हमेशा उस वक्त को कोसता रहता था जब उस ने अपर्णा से शादी करने का फैसला किया था. तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. उसे लगा जैसे किसी अंधेरी गली से बाहर निकल आया हो.

‘‘आओआओ प्रेम, बड़ी देर लगा दी?’’ अमन ने कहा.

घर के अंदर कदम रखते ही प्रेम ने एक नजर अमन के पूरे घर पर दौड़ाई और फिरबोला, ‘‘सच में अमन तुम्हारा घर, घर नहीं कबाड़खाना लग रहा… क्या यार कैसे रह लेते हो इस घर में? छोड़ो गुस्सावुस्सा और जाओ जा कर भाभी और संजू को ले आओ… भाभी के लिए न सही पर संजू के लिए ही अपना गुस्सा थूक दो.’’

‘अकेले हैं तो क्या गम है…’ गाना गाते हुए अमन हंस पड़ा. फिर कहने लगा, ‘‘हां, सही कह रहा है तू… संजू के बिना मन कभीकभी बेचैन हो उठता है, पर अपर्णा… पागल हो गया है क्या? भले ही घर कबाड़खाना लगे पर मेरे मन को कितना सुकून मिल रहा है यह तू क्या जाने… बहुत घमंड था उसे कि उस के बिना मैं 1 दिन भी नहीं रह पाऊंगा… अरे जरा उसे भी तो पता चले कि उस के बिना भी मैं अच्छी तरह जी सकता हूं. चल, छोड़ ये सब… बता तेरा कैसा चल रहा है?’’

पराया लहू- भाग 4: मायके आकर क्यों खुश नहीं थी वर्षा

अब दोनों के बीच में अदृश्य दीवार खड़ी हो गई. वर्षा मन ही मन कुढ़ती रहती. उस का मन अब सुधीर से बोलने को भी नहीं होता था. वह उस के प्रश्नों का उत्तर हां या न में दे कर सामने से हट जाती व अपनी तरफ से कोई बात नहीं करती.

भरत भी उस की आंखों में चुभने लगा था. उस का मन विद्रोह कर बैठता, ‘जब सुधीर उस के लव को नहीं स्वीकारता तो वही क्यों भरत को छाती से लगाती रहे? पराए जाए अपने तो नहीं बन सकते, भरत से कौन सा उस का लहू का रिश्ता है? बड़ा हो कर भरत भी उसे आंखें दिखाने लगेगा. फिर वह उसे अपना क्यों समझे?’

दोनों के मध्य पनपता अवरोध मांजी की पैनी निगाहों से नहीं छिप सका. वह बारबार पूछने लगीं, ‘‘बहू, जब से तुम मायके से लौटी हो तुम ने हंसना बंद कर दिया है. यह उदासी तुम्हारे होने वाले बच्चे के लिए अच्छी नहीं.’’

वर्षा खुद को सामान्य दिखाने का प्रयास करती रहती पर मांजी संतुष्ट नहीं हो पाती थीं.

कभी वह कुरेदतीं, ‘‘सुधीर ने कुछ कहा है क्या? वह भी आजकल खामोश रहता है. तुम दोनों में कोई अनबन तो नहीं हो गई?’’

वर्षा ने उन्हें इस डर से सबकुछ नहीं बताया कि मांजी ही कौन सी उस की सगी हैं. जब सुधीर ही उस का दर्द नहीं समझा तो मांजी कैसे समझेंगी.

वह मांजी से भी दूर रह कर अंतर्मुखी बनने लगी. एक सुबह उठ कर मांजी ने घर में ऐलान किया कि वे हरिद्वार गंगा स्नान को जाएंगी. प्रौढ़ावस्था में उन्हें मोहमाया के बंधन तोड़ कर आत्मिक शांति पाने के प्रयास शुरू करने हैं. मांजी का यह कथन सभी को अटपटा लगा क्योंकि वे अब तक धर्म, कर्म तथा पंडेपुजारियों को पाखंड की संज्ञा देती आई थीं पर हरिद्वार जाने पर आपत्ति किसी ने नहीं दिखाई. सुधीर ने भी कह दिया, ‘‘इसी बहाने प्राकृतिक दृश्यों को देख कर तुम्हारा स्वास्थ्य उत्तम हो जाएगा.’’

मांजी कार में बैठ कर अकेली ही हरिद्वार रवाना हो गईं. इस के बाद तो हरिद्वार जाना उन का नियम सा बन गया. वह महीने में 2-4 चक्कर हरिद्वार के लगाने लगीं.

वर्षा यह सोच कर अब और अधिक क्षुब्ध रहने लगी कि कैसे मांबेटे हैं जिन्हें सिर्फ अपने शौैकसिंगार व स्वास्थ्य का ही खयाल है, किसी और की जरा सी भी चिंता नहीं है. कम से कम मांजी को तो लव के बारे में कुछ पूछना चाहिए था, पर मांजी भी स्वार्थी ठहरीं. एक दिन उस ने फिर से मेरठ जाने का निश्चय किया. सुधीर से छिपा कर कुछ रुपए भी पर्स में रख लिए, सोचा कि लव की दवाइयां खरीदने में काम आ जाएंगे.

थोड़ी नानुकुर के बाद सुधीर ने उसे मेरठ जाने की इजाजत दे दी पर ड्राइवर को खूब समझा दिया कि उसे आज ही वर्षा को साथ ले कर लौटना है.

भरत को इस बार सुधीर ने नहीं जाने दिया. बहला दिया कि मां रात तक तो वापस लौट ही आएगी. सुधीर के कठोर व्यवहार से आहत वर्षा, रास्ते भर आंसू पोंछती रही.

मां और भाभी उसे देखते ही स्वागत के लिए लपकीं, लेकिन वर्षा तो अपने लव को हृदय से लगाने को व्याकुल थी, इसलिए घर में घुसते ही उतावलेपन से सीढि़यों की तरफ दौड़ पड़ी. परंतु छत पर पहुंचते ही जैसे उसे काठ मार गया, क्योंकि लव का कमरा खाली था. उस का बिस्तर व कोई सामान भी दिखाई नहीं दे रहा था. वह चकित सी खड़ी सोचती रही, कहां गया लव?

उस के मन में सैकड़ों आशंकाएं तैर उठीं, कहीं लव को कुछ हो तो नहीं गया?

मां व भाभी दोनों, उस के पीछेपीछे सीढि़यां चढ़ कर ऊपर आ पहुंचीं. वर्षा उन की तरफ मुड़ी व बदहवासी में चिल्लाने लगी, ‘‘मां, बताओ मेरे लव को क्या हुआ? वह कहां चला गया? तुम ने मुझे उस के बारे में कभी पत्र में भी कुछ नहीं लिखा. क्या हुआ मेरे बेटे को…’’ वह रो पड़ी.

‘‘दीदी, हमारी भी तो सुनो,’’ भाभी उस के आंसू पोंछने लगीं.

‘‘क्या तुम्हारी सास ने कभी कुछ नहीं बताया?’’

‘‘नहीं, वह क्यों बताएंगी? उन्हें लव से क्या लेनादेना? कहां है लव…’’

‘‘तुम्हारी सास ने उसे उचित देखभाल के लिए अस्पताल में भर्ती करा दिया है. वह कई बार यहां आ चुकी हैं व लव के इलाज पर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं.’’

वर्षा घोर आश्चर्य से जकड़ गई कि क्या ऐसा होना संभव है? पर मांजी को लव की बीमारी के बारे में कैसे पता लगा? कहीं उन्होंने छिप कर तो नहीं सुन लिया था?

वह उसी वक्त अस्पताल जाने के लिए उतावली हो उठी, पर मां ने जबरदस्ती उसे एक प्याला चाय पिला दी. फिर उस के साथ सभी लोग अस्पताल पहुंच गए.

लव साफसुथरे वस्त्र पहने स्वच्छ सफेद शैया पर लेटा हुआ था, मां को देखते ही उठने का प्रयास करने लगा. वर्षा ने उसे सहारा दे कर बिठाया व स्नेह से उस का मुंह चूमने लगी, ‘‘मेरा राजा बेटा, ठीक तो है न?’’

वह लव को पहले की अपेक्षा स्वस्थ देख कर संतुष्टि का आभास कर रही थी.

‘‘दादीमां नहीं आईं?’’ लव इधरउधर देख कर पूछ बैठा.

‘‘वह आएंगी, बेटे,’’ वर्षा उसे प्रसन्न देख कर खुशी से गद्गद हुई जा रही थी.

‘‘देखो, दादी मां ने मुझे कितने पैसे दिए हैं, खिलौने व मिठाइयां भी दिलवाई हैं,’’ लव सारा सामान दिखाने लगा.

कुछ वक्त लव के साथ बिता कर वर्षा अस्पताल से मायके लौट आई. फिर दिल्ली लौटी तो आते ही सास के पैर पकड़ कर कृतज्ञता के बोझ से दब कर रो पड़ी, ‘‘मांजी, आप महान हैं, हरिद्वार जाने के बहाने मेरे लव पर प्यार लुटाती रहीं…पराए लहू पर…’’

‘‘लव पराया कहां है, मेरा पोता है. जब तुम हमारी हो गईं तो लव भी तो अपना हुआ,’’ मांजी ने उसे उठा कर छाती से लगा लिया.

‘‘लेकिन सुधीर उस से नफरत करते हैं,’’ कह कर वर्षा चिंतित हो उठी, ‘‘वह सुनेंगे तो नाराज हो उठेंगे.’’

‘‘सुधीर ने लव को घर में रखने से ही तो इनकार किया है, उस का खर्च उठाने से तो नहीं? मैं लव को छात्रावास में रख कर पढ़ाऊंगी, उसे अच्छा इनसान बनाने में कोई कमी नहीं छोडूंगी.’’

वर्षा जानती थी कि सुधीर में मांजी का कोई भी आदेश टालने की हिम्मत नहीं है. उस का मन सुखसंतोष से भर उठा था कि अब उस का लव अनाथ नहीं रहा. उस के सिर पर मांजी की सबल छत्रछाया मौजूद है.

शाम के नाश्ते में बनाएं चिली सोयाबीन

बच्चे हों या बड़े शाम होते होते सभी को थोड़ी थोड़ी भूख लगने ही लगती है. ऐसे में जरूरत होती है कुछ हल्के फुल्के स्नैक्स की जिसे हम आराम से खा तो लें पर पूरी तरह पेट भी न भरे डिनर भी आराम से किया जा सके. सोयाबीन प्रोटीन का प्रचुर स्रोत होता है यह हम सभी जानते हैं परन्तु अक्सर इसे अपने भोजन में कैसे शामिल किया जाए यह बहुत बड़ी समस्या होती है. बाजार में साबुत अनाज के रूप में उपलब्ध होने के साथ साथ सोयाबीन बड़ी और ग्रेन्यूल्स के रूप में भी उपलब्ध है. आज हम आपको सोया बड़ी से एक रेसिपी को बनाना बता रहे हैं जिसे आप आसानी से घर पर बना सकतीं हैं तो आइए देखते हैं कि इसे कैसे बनाया जाता है-

कितने लोगों के लिए –  6

बनने में लगने वाला समय –  30 मिनट

मील टाइप –  वेज

सामग्री

 1. सोयाबीन की बड़ियां 2 कप

  2. प्याज बारीक कटा  2       

  3. हरी मिर्च  4

  4. शिमला मिर्च  1/2 कप

  5. हरी प्याज  1/2 कप

  6. गाजर  कटी  1

  7. तेल 1 टेबलस्पून

   8. जीरा  1/4 टीस्पून

  9. लहसुन अदरक पेस्ट  1 टीस्पून

  10. काली मिर्च पाउडर 1/4 टीस्पून

  11. नमक  स्वादानुसार

   12. सोया सॉस  2 टीस्पून

    13. ग्रीन चिली सॉस  1 टीस्पून

     14. रेड चिली सॉस  1 टीस्पून

    15. टोमेटो सॉस   2 टीस्पून

   16. वेनेगर  1 टीस्पून

    17. बारीक कटी हरी धनिया  1 टीस्पून

   18. चिली फ्लैक्स  1/4 टीस्पून

   19. कॉर्न फ्लोर  1 टेबलस्पून

विधि

एक भगौने में नमक और 4 कप पानी डालें जब पानी उबलने लगे तो सोयाबीन की बड़ियां डाल कर 10 मिनट के लिए ढक दें. 10 मिनट बाद बड़ियों को छलनी में डालकर ठंडा पानी डाल दें. अब इन्हें हाथों से निचोड़कर पानी निकाल दें. अब इन्हें एक बाउल में डाल दें. इसमें 1 टीस्पून सोया सॉस, 1 टीस्पून टोमेटो सॉस, 1/4 टीस्पून काली मिर्च पाउडर, अदरक लहसुन पेस्ट, नमक, आधा आधा टीस्पून चिली सॉस और कॉर्नफ्लोर डालकर अच्छी तरह मिलाएं. अब इन बड़ियों को गर्म तेल में सुनहरा होने तक डीप फ्राई करके निकाल लें.

एक पैन में तेल गरम करके उसमें जीरा, प्याज और गाजर को धीमी आंच पर भून लें. जब गाजर हल्की सी गल जाए तो शिमला मिर्च और हरा प्याज डालकर धीमी आंच पर भूनकर तैयार सोया बड़ियों को डालकर चलाएं. अंत में सोया सॉस, टोमेटो सॉस, बची चिली सॉस और वेनेगर डालकर अच्छी तरह चलाएं. धनिया और बारीक कटे हरे प्याज से गार्निश करके सर्व करें.

इंतकाम: भाग 3- सुजय ने संजय को रास्ते से कैसे हटाया

तभी दरवाजे की घंटी बजी. हैरानपरेशान और अपने हालात से चिड़ा हुआ सा सुजय दरवाजे पर था. उस ने नेहा के चेहरे की तरफ देखा. ऐसा लग रहा था मानो नेहा कई घंटों से रो रही हो. उस की आंखें भी सूजी हुई थीं.

सुजय ने नेहा के मन की थाह लेने के मकसद से पूछा, ‘‘क्या हुआ सब ठीक तो है?’’

‘‘जी बस सिर में दर्द हो रहा था,’’ कह कर वह पानी ले आई और फिर जा कर बाथरूम में अपना चेहरा धोने लगी.

सुजय को लगा जैसे नेहा सच बात बताना नहीं चाहती. वैसे भी उस ने आज तक कोई सचाई बताई कहां है, यह सोचते हुए उस ने अपने पौकेट में पड़े एक बेकार कागज को फेंकने के लिए जूते से डस्टबिन का ढक्कन खोला तो उसे ऊपर ही किसी तसवीर के टुकड़े दिखाई दिए. उस ने कुछ बड़े टुकड़ों को मिला कर देखा तो उसे सम झ आ गया कि यह तो संजय की तसवीर थी.

अचानक उस की आंखों में यह सोच कर चमक आ गई कि लगता है संजय के साथ नेहा का तगड़ा वाला ब्रेकअप हो गया है. वह खुश हो गया मगर अपनी खुशी होंठों के बीच दबाते हुआ उस ने नेहा से चाय की फरमाइश की और खुद कपड़े बदल कर अपने कमरे में घुस गया.

नेहा चाय ले आई. आज चाय रख कर वह तुरंत मोबाइल में आंखें घुसाए अपने कमरे की तरफ नहीं गई बल्कि सुजय के कमरे को व्यवस्थित करने लगी. टेबल पर रखे कागज और पत्रिकाएं करीने से लगाने के बाद उस की अलमारी के कपड़ ठीक से लगाने लगी. ऐसा लग रहा था जैसे वह सुजय को समय देना चाहती है. उस के काम कर के अपनी गिल्ट कम करने की कोशिश कर रही हो.

सुजय को बहुत समय बाद नेहा पर पहले की तरह प्यार आ रहा था. वह नेहा के करीब गया और बिना कुछ कहे उसे सीने से लगा लिया. नेहा भी खुशी से उस के गले लगी रही. दोनों के बीच की तमाम शिकायतें जैसे खामोशियों के बीच बहने लगीं. उस रात नेहा ने अपनी तरफ से पहल की और दोनों ने एक खूबसूरत साथ का अनुभव किया.

अगले कुछ दिनों तक सुजय ने वाच किया कि नेहा क्या सच में संजय से अलग हो चुकी है. नेहा के व्यवहार में आए परिवर्तन ने उस के इस विश्वास को पुख्ता किया कि अब नेहा के दिल में संजय नहीं है. नेहा का समय अब उस के लिए होता था. भले ही वह अभी भी काफी खोईखोई सी रहती थी, मगर अब मोबाइल में लगे रहना और हर दूसरे दिन किसी न किसी बहाने से बाहर जाना बंद हो चुका था.

इस तरह 2-3 महीने बीत गए. सुजय ने अपनी तरफ से पता कराया तो उसे खबर मिली कि संजय शादी करने वाला है. उसे तब इस ब्रेकअप की वजह सम झ आ गई लेकिन फिर भी वह इस मामले को ले कर मन से पूरी तरह निश्चित नहीं हो सका था. उसे लगता था कि कहीं नेहा संजय के पास वापस न चली जाए या कहीं नेहा के मन में अभी भी संजय है तो नहीं. ये बातें उसे बेचैन करती थीं. पिछले कुछ दिनों में नेहा को पा लेने के बाद अब वह उसे वापस कतई खोना नहीं चाहता था. उसे नेहा से बहुत प्यार था और एक दिन उस ने एक बड़ा फैसला ले लिया.

यह फैसला था संजय से बदला लेने का, नेहा के जीवन से संजय को हमेशा निकालने का और नेहा के दिल में  झांक कर यह तसल्ली कर लेने का कि नेहा वाकई पूरी तरह उस की बन चुकी है. वह एक अच्छे मौके की तलाश में था. वह अकसर गाड़ी ले कर संजय के घर के आसपास चक्कर लगाता ताकि उसे कोई मौका मिले और वह अपने प्लान को अंजाम दे सके.

उस दिन संडे था. रात में सुजय गाड़ी ले कर बाहर निकला. बहुत देर तक संजय के घर से कुछ दूर गाड़ी पार्क कर के संजय के निकलने का इंतजार करने लगा.

सुजय ने अपनी गाड़ी की प्लेट बदल ली थी. उस ने देखा कि संजय किसी से फोन पर बात करते हुए बाइक ले कर बाहर निकला. सुजय उस का पीछा करने लगा. संजय पुल के पास से गुजर रहा था. सुजय ने अपनी कार से उसे टक्कर मारी. संजय जमीन पर गिर पड़ा. सुजय ने कार रिवर्स की और उसे कुचलता हुआ निकल गया.

काफी दूर आने के बाद एक सुनसान जगह पर सुजय ने फिर से गाड़ी की प्लेट बदली और अपने घर लौट आया.

सुबहसुबह उस ने टीवी पर न्यूज चैनल लगाया. एक चैनल पर संजय की मौत की खबर आ रही थी. उसी समय उस ने चाय के लिए आवाज लगाई, ‘‘नेहा 2 कप चाय ले आना. मतलब मेरे साथ अपने लिए भी.’’

नेहा चाय ले कर आई और वहीं बैठ गई. उस की आंखों के आगे संजय की मौत का समाचार था मगर वह नौर्मल रही. उस ने आराम से चाय खत्म की और सुजय से पूछ कर नाश्ते की तैयारी करने लगी. नाश्ते के साथ उस ने खीर भी बनाई और सुजय को परोस दी. उस के चेहरे पर तड़प या तकलीफ नहीं थी.

नेहा को इस तरह देख कर सुजय का दिल खिल उठा. आज उस ने न केवल संजय से इंतकाम ले लिया था बल्कि नेहा को पूरी तरह हासिल भी कर लिया था. अब उसे कोई डर नहीं था नेहा के कहीं जाने का.

जैसी बौडी चाहिए वैसी पाइए, करने होंगे बस ये काम

हर महिला की चाहत होती है कमनीय काया. एक समय था जब यह चाहत कल्पना ही रह जाती थी और अकसर थुलथुल, गदराए बदन वाली स्त्रियां बस एक आह भर कर ही रह जाती थीं. पर अब वक्त बदल चुका है, वक्त की मांग भी बदल चुकी है. अब तो आप जैसी चाहिए वैसी काया पाइए. एक अच्छे कौस्मैटिक सर्जन से एक मुलाकात निश्चित तौर पर आप के सपनों में रंग भर देगी. शारीरिक संरचना में कहीं न कहीं कोई कमी तो रहती ही है. कहीं कमर मोटी, कहीं लटके स्तन तो कहीं अत्यंत छोटे स्तन. पर समस्या कोई भी हो क्यों झेला जाए उसे जब सब का निदान हो सकता है. यह कैसे हो सकता है इस के बारे में बताया कौस्मैटिक सर्जन डा. अजय कश्यप और डा. जे.बी. रती ने.

उन से कौस्मैटिक सर्जरी के बारे में जो बात हुई पेश हैं यहां उस के खास अंश:

कलात्मक अभिरुचियों के कारण डा. अजय कश्यप का रुझान कौस्मैटिक सर्जरी की ओर गया और फिर शुरू हुआ शारीरिक कमियों को ठीक करने का दौर. डा. अजय कश्यप बताते हैं कि जब भी कोई शारीरिक सौंदर्य को बढ़ाने के लिए केस आता है, तो उसे सौंदर्य में ढालने के लिए ही हम सर्जरी करते हैं.

आमतौर पर स्तनों से संबंधित कौन से केस आते हैं, जिन्हें आप औपरेट करते हैं? 

स्तनों से संबंधित हर प्रकार के केस आते हैं. जैसे छोटे स्तनों को बड़ा करना, लटके व बड़े स्तनों को छोटा करना, निप्पल को उठाना या उस का ब्राउनिश हिस्सा जो फैला होता है उसे कम करना. निप्पल बड़े हों तो छोटे हो सकते हैं. निप्पल के ब्राउन भाग को कम करने यानी एरियोला रिडक्शन के केस भी आते रहते हैं. दरअसल, हर महिला की चाहत होती है कि उस के अंग सुंदर लगें. हम अंगों को सुंदर बनाते हैं.

आमतौर पर किस आयु की स्त्रियां ज्यादा आती हैं?

यों तो 20 से 40 के बीच की महिलाएं ज्यादा आती हैं. पर कुछ 50 के आसपास भी आती हैं. इन के बच्चे बड़े हो जाते हैं और इस आयु में वे अपने विषय में सोचती हैं.

अगर कौस्मैटिक सर्जरी की निगाह से देखें तो शारीरिक सौंदर्य कैसे बदलते रहे हैं?

1980 के दौर में ऐथलैटिक शरीर का ज्यादा चलन था. पर अब समय बदल चुका है, लड़कियां जीरो फिगर के चक्कर में रहने लगी हैं. शादी से पहले भी वे जीरो फिगर के लिए औपरेशन कराती हैं. और वे फिगर तो थिन चाहती हैं पर स्तन थोड़े भारी ही चाहती हैं.

जब बदन जीरो फिगर की हो तो स्तनों का क्या अनुपात रहता है? बहुत पतली कमर पर भारी स्तन कैसे लगेंगे?

ब्रैस्ट के भी रेशियो होते हैं. कमर के हिसाब से ब्रैस्ट का साइज होता है. जैसे कमर 24 इंच हो तो ब्रैस्ट 36 इंच होनी चाहिए. ब्रैस्ट कप सी साइज का होना चाहिए.

छोटे स्तनों को आप बड़ा तो सिलिकौन इंप्लांट से करते हैं पर कई बार औपरेशन के बाद ब्रैस्ट सख्त सी हो जाती है. क्या कहेंगे आप?

जी हां, कई बार इंप्लांट से हार्डनैस हो जाती है. इसलिए हम कभीकभी कस्टमर के फैट से ही ब्रैस्ट बना देते हैं, जिसे औटोलोगस फैट ब्रैस्ट औगमैंटेशन कहते हैं. शरीर में जिस जगह भी फैट हो जैसे, जांघ, पेट, कूल्हे या कमर में, वहीं से निकाल कर उस से स्तन बना देते हैं. इस प्रकार अपने ही फैट से ब्रैस्ट बिना इंप्लांट के बनती है.

क्या आप के पास अविवाहिताएं भी आती हैं?

जी हां, अविवाहिताएं भी आती हैं. बेशक कम आती हैं पर आती हैं.

बड़े स्तनों को छोटा कराना कैसा रहता है?

बड़े और लटके स्तनों की तो कई समस्याएं हैं. इस में स्तनों के नीचे खुजली व फंगल इन्फैक्शन हो जाता है, कंधों में दर्द रहता है और देखने में फिगर अजीब लगता है. कई बार एक ब्रैस्ट बड़ी व एक छोटी होती है. वह तब भी बुरी लगती है. समस्या कोई भी हो, औपरेशन से सब ठीक हो जाता है.

आप के अनुसार सर्वोत्तम फिगर कौन सी होती है? आजकल किस प्रकार के स्तनों का चलन है और कौन सा वर्ग आप के पास ज्यादा आता है?

हमारे पास ग्लैमर वर्ल्ड के ही लोग ज्यादा आते हैं. देखिए, अच्छी फिगर तो वही होती है जिस में पतली कमर हो. यानी साइज 36-24-36 हो. यही महिलाएं चाहती भी हैं और हम औपरेशन कर के ऐसा शारीरिक सौंदर्य देते भी हैं. रहा सवाल ब्रैस्ट के लेटैस्ट फैशन का, तो हर महिला यह चाहती है कि पतली कमर हो और ब्रैस्ट सुदढ़ और उठी हुई हो. उन के इन्हीं सपनों में तो हम रंग भरते हैं.

इन औपरेशंस में खर्च कितना आता है?

यह औपरेशन पर निर्भर करता है. आमतौर पर 1 लाख से 2 लाख के बीच खर्च आता है.

डा. जे.बी. रती ने बताया कि हमारा काम बहुत चुनौती भरा होता है. यहां बीमार लोग नहीं आते. यहां तो सुंदर लगने के लिए औपरेशन करवाने लोग आते हैं और उन के पैमाने पर हमें खरा उतरना पड़ता है. फिर सौंदर्य के सब के अपने मापदंड होते हैं. कई महिलाएं चाहती हैं कि कमर बेहद पतली हो और ब्रैस्ट बेहद भारी हों, तो कुछ महिलाएं कुछ और चाहती हैं.

किस वर्ग के लोग आप के पास ज्यादा आते हैं?

आमतौर पर मौडल्स, फिल्म और टीवी के लोग ज्यादा आते हैं, क्योंकि वे अच्छी बौडी शेप चाहते हैं. वैसे आम लोग भी आते हैं.

शरीर के किसकिस भाग का औपरेशन करते हैं?

लगभग हर भाग का पर सब से ज्यादा स्तनों से संबंधित औपरेशन होते हैं. उन के अलावा पेट को कम करना, कमर पतली करना, नाक को सुंदर बनाना, होंठ ज्यादा पतले हों तो उन्हें मोटा करना (आजकल थोड़े मोटे होंठ फैशन में हैं) वगैरह के औपरेशन करते हैं.

स्तनों के औपरेशंस के विषय में बताइए?

बड़े व लटके स्तनों को तो हम छोटा कर ही देते हैं, छोटे स्तनों को इंप्लांट द्वारा बड़ा कर देते हैं. इस के अलावा निप्पलों को भी औपरेट कर देते हैं. पर निप्पल छोटे किए जाते हैं. हम छोटों को बड़ा नहीं कर सकते. यह औपरेशन महिलाओं का तो हम करते ही हैं पर स्तनों की समस्या कई पुरुषों में भी पाई जाती है. कई पुरुषों का एक या दोनों ही स्तन महिलाओं जैसे हो जाते हैं. उन्हें हम औपरेट कर के नौर्मल बनाते हैं. ऐसा हारमोनल असंतुलन के कारण होता है.

आजकल किस प्रकार के स्तन चलन में हैं जिन्हें महिलाएं पसंद करती हैं?

पतली कमर हो और ब्रैस्ट भारी और एकदम उठी हुई होनी चाहिए. इसीलिए लटकी ब्रैस्ट को महिलाएं औपरेशन से ठीक कराती हैं. कहने का मतलब यह है कि वे अच्छी फिगर की लगना चाहती हैं. हम औपरेशन से यही सब कर देते हैं. लटकी ब्रैस्ट को उठा देते हैं, सर्जरी से उसे टाइट कर देते हैं. आमतौर पर मौडल्स न तो छोटी ब्रैस्ट चाहती हैं, न ही बहुत बड़ी, बीच का साइज उन्हें ठीक लगता है, पर नोटिसेबल साइज हो. कई महिलाओं की बहुत छोटी ब्रैस्ट होती हैं तब हम सिलिकौन ब्रैस्ट इंप्लांट से उन्हें बड़ा बना देते हैं.

इस का खर्चा कितना आता है?

देखिए, इंप्लांट बाहर से आते हैं जो 35,000 से 45,000 तक के होते हैं. लेकिन सारा खर्च क्व1 लाख से ऊपर ही आता है.

इस में समय कितना लगता है?

ब्रैस्ट इंप्लांट में 2 से 3 घंटे लगते हैं पर ब्रैस्ट कम करने या ब्रैस्ट उठाने में 5 घंटे से कुछ ज्यादा ही समय लग जाता है.

बिखरते बिखरते : माया क्या सोच कर भावुक हो रही थी

महेश ने कहा, ‘‘माया, आज शाम को गाड़ी से मुझे मुंबई जाना है. मेरा सूटकेस तैयार कर देना.’’ ‘‘शाम को जाना है और अब बता रहे हैं, कल रात भी तो बता सकते थे,’’ माया को पति की लापरवाही पर क्रोध आ रहा था.

‘‘ऐसी कौन सी नई बात है. हमेशा ही तो मुझे बाहर आनाजाना पड़ता है,’’ महेश ने कुरसी से उठते हुए कहा.

‘‘कब तक लौटोगे?’’ आने वाले दिनों के अकेलेपन की कल्पना से माया भावुक हो गई.

‘‘यही कोई 10 दिन लग जाएंगे. तुम चाहो तो अपनी मौसी के यहां चली जाना. नहीं तो आया से रात को यहीं सो जाने को कहना,’’ कह कर महेश अपना ब्रीफकेस ले कर निकल पड़ा.

दरवाजा बंद कर माया सोफे पर आ बैठी तो उस का दिल भर आया. माया कुछ क्षण घुटनों में सिर छिपाए बैठी रही. अपनी कारोबारी दुनिया में खोए रहने वाले महेश के पास माया के लिए दोचार पल भी नहीं रह गए हैं. कम से कम सुषमा साथ होती तो यह दुख वह भूल जाती. इतने बड़े मकान में घंटों अकेले पड़े रहना कितना खलता है. माया के 12 वर्षों के दांपत्य जीवन में न कोई महकता क्षण है, न कोई मधुर स्मृति.

महेश शाम को औफिस से लौट कर झटपट तैयार हो कर निकल पड़ा. रसोई की बत्ती बुझा कर माया कमरे में चली आई. माया लेट चुकी थी. नींद तो आने से रही. अलमारी से यों ही एक किताब ले कर पलंग पर बैठ गई. पहला पन्ना उलटते ही माया की नजर वहीं ठहर गई : ‘प्यार सहित– सौरभ.’ माया के 20वें जन्मदिवस के अवसर पर सौरभ ने यह किताब उसे भेंट की थी. माया का मन अतीत की स्मृतियों में खो गया…

‘माया, मेरे सौरभ भैया अपनी पढ़ाई खत्म कर के कोलकाता से आ गए हैं. भैया भी तुम्हारी तरह बहुत अच्छा वायलिन बजाते हैं. शाम को आना,’ रिंकू कालेज जाते समय उसे न्योता दे गई. माया का संगीतप्रेम उसे शाम को रिंकू के घर खींच ले गया. सौरभ ने वायलिन बजाना शुरू किया और माया वायलिन की धुनों में खो गई. सौरभ की नौकरी, उस के पिता की फैक्टरी में ही लग गई. माया नईनई धुनें सीखने के लिए सौरभ के पास जाने लगी थी. सौरभ उस की खूबसूरती व मासूमियत पर फिदा हो गया था. एक दिन सौरभ ने अचानक ही पूछ डाला, ‘माया, अपने पापा से बात क्यों नहीं करती?’

‘किस बारे में?’

‘हम दोनों के विवाह के बारे में.’

माया वायलिन एक ओर रख कर खिड़की के पास जा खड़ी हुई. लौन में लाल गुलाब खिले हुए थे. वह उन फूलों को कुछ पल निहारती रही. आज तक वह पापा के सामने खड़ी हो बेझिझक कोई बात नहीं कह पाई है. फिर इतनी बड़ी बात भला कैसे कह पाएगी? किंतु आखिर कब तक टाला जा सकता है? देखतेदेखते 3 वर्ष बीत गए थे. उस ने एमएससी कर लिया था. अब तक तो पढ़ाई का बहाना कर के वह सौरभ को रुकने के लिए कहती आई थी.

अचानक उसे एक बात सूझ गई. वह बोली, ‘सौरभ, तुम स्वयं ही आ कर पापा से कह दो न, मुझे बड़ी झिझक हो रही है.’

‘माया, झिझक नहीं. डर कहो. समस्या से दूर भागने की यह सोच ही तुम्हारी कमजोरी है. खैर, ठीक है. मैं कल शाम को आऊंगा,’ सौरभ ने हंसते हुए माया से विदा ली. पापा ने दफ्तर से आ कर चाय पी और अखबार ले कर आरामकुरसी पर बैठ गए. माया का दिल यह सोच कर धकधक कर रहा था कि बस, अब सौरभ आता ही होगा.

थोड़ी देर बाद सौरभ आया. हाथ जोड़ कर उस ने कहा, ‘नमस्ते, अंकल.’ कुछ देर तक इधरउधर की आम बातें हुईं. फिर सौरभ ने अपने स्वभाव के मुताबिक सीधे प्रस्ताव रख दिया, ‘अंकल, मैं और माया एकदूसरे को पसंद करते हैं. मैं आप से माया का हाथ मांगने आया हूं.’ ‘क्या?’ उन के हाथ से अखबार गिर गया. उन्हें अपनी सरलसंकोची बेटी के इस फैसले पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. कुछ पलों बाद उन्होंने स्वयं को संयत करते हुए कठोर आवाज में कहा, ‘देखो सौरभ, मुझे यह बचकाना तरीका बरदाश्त नहीं है. तुम लोग खुद विवाह का निर्णय करो, यह गलत है. अच्छा, तुम अपने पापा को भेजना.’

अच्छी बात है. मैं अपने पापा को भेज दूंगा,’ सौरभ उठ कर नमस्ते कर के चल पड़ा.

रविवार को वृद्घ ज्योतिषी आ पहुंचे. कमरे में मौन छाया था. माया और सौरभ की कुंडली सामने बिछा कर लंबे समय तक गणना करने के बाद ज्योतिषी ने सिर उठाया, ‘रमाकांत, दोनों कुंडलियां तनिक मेल नहीं खातीं. कन्या पर गंभीर मंगलदोष है. लड़के की कुंडली तो गंगाजल की तरह दोषहीन है. मंगलदोष वाली कन्या का विवाह उसी दोष वाले वर के साथ होना ही श्रेष्ठ होता है. तुम्हारी कन्या का विवाह इस वर के साथ होने पर 4-5 बरसों में ही वर की मृत्यु हो जाएगी.’ पंडितजी के शब्द सब को दहला गए.

सौरभ के पापा सिर झुकाए चले गए. परदे की ओट में बैठी माया जड़ हो गई. पंडितजी के शब्द मानो कोई माने नहीं रखते. नहीं, वह कुछ नहीं सुन रही थी. यह तो कोई बुरा सपना है. माया खयालों में खो गई.

‘दीदी, बैठेबैठे सो रही हो क्या? पापा कब से बुला रहे हैं तुम्हें.’ छोटी बहन ने माया को झकझोर कर उठाया.

माया बोझिल कदमों से पापा के सामने जा खड़ी हुई थी. कमरे में उन की आवाज गूंज उठी, ‘माया, ज्योतिषी ने साफ कह दिया है. दोनों जन्मकुंडलियां तनिक भी मेल नहीं खातीं. यह विवाह हो ही नहीं सकता. अनिष्ट के लक्षण स्पष्ट हैं. भूल जाओ सबकुछ.’

मां का दबा गुस्सा फूट पड़ा था, ‘लड़की मांबाप का लिहाज न कर स्वयं वर ढूंढ़ने निकलेगी तो अनर्थ नहीं तो और क्या होगा? कान खोल कर सुन लो, उस से मेलजोल बिलकुल बंद कर दो. कोई गलत कदम उठा कर उस भले लड़के की जान मत ले लेना.’ कहनेसुनने को अब रह ही क्या गया था. माया चुपचाप अपने कमरे की ओर लौट आई थी. माया लौन में बैठी पत्रिका पढ़ रही थी. मन पढ़ने में लग ही नहीं रहा था. माया अपने अंदर ही घुटती जा रही थी. देखतेदेखते 3 माह गुजर गए. न सौरभ का कोई फोन आया, न मिलने की कोशिश ही की. क्या करे वह. सौरभ कोलकाता में नई नौकरी के लिए जा चुका था. वह कशमकश में थी. वह नहीं विश्वास करती थी ज्योतिषी की भविष्यवाणी पर. ज्योतिषी की बात पत्थर की लकीर है क्या? वह सौरभ से विवाह जरूर करेगी. लेकिन अगर पंडितजी की वाणी सही निकल गई तो?

अशोक भैया ने पंडितजी का विरोध कर विवाह किया था. आज विधुर हुए बैठे हैं नन्हीं पुत्री को लिए. ज्योतिषी का लोहा पूरा परिवार मानता है. क्या उस के प्यार में स्वार्थ की ही प्रधानता है? सौरभ के जीवन से बढ़ कर क्या उस का निजी सुख है? नहीं, नहीं, सौरभ के अहित की बात तो वह सपने में भी नहीं सोच सकती. सौरभ से हमेशा के लिए बिछुड़ने की बात सोच कर उस का दिल बैठा जा रहा है.

खटाक…कोई गेट खोल कर आ रहा था. अरे, 3 महीने बाद आज रिंकू  आ रही है. रिंकू  उस के पास आ कर कुछ पल मौन खड़ी रही.

चुप्पी तोड़ते हुए रिंकू  ने कहा, ‘माया, कल मेरा जन्मदिन है. छोटी सी पार्टी रखी है. घर आओगी न?’

माया ने डबडबाती आंखों से रिंकू  को देखा, ‘पता नहीं मां तुम्हारे घर जाने की अनुमति देंगी कि नहीं?’ रिंकू वापस चली गई तो माया ने किसी तरह मां को मना कर रिंकू के घर जाने की अनुमति ले ली. माया की उदासी ने शायद मां का दिल पिघला दिया था. अगले दिन रिंकू के घर जा कर वह बेमन से ही पार्टी में भाग ले रही थी. तभी उसे लगा कोई उस के निकट आ बैठा है, पलट कर देखा तो हैरान रह गई थी.

‘सौरभ ़ ़ ़’ माया खुशी के मारे लगभग चीख पड़ी थी. फिर सोचने लगी कि कब आया सौरभ कोलकाता से? रिंकू ने कल कुछ भी नहीं बताया था. सौरभ और माया लौन में एक ओर जा कर बैठ गए. माया का जी बुरी तरह घबरा रहा था. सौरभ से इस तरह अचानक मुलाकात के लिए वह बिलकुल तैयार न थी. ‘माया, आखिर क्या निर्णय किया तुम ने? मैं ज्योतिषियों की बात में विश्वास नहीं करता. भविष्य के किसी अनिश्चित अनिष्ट की कल्पना मात्र से वर्तमान को नष्ट करना भला कहां की अक्लमंदी है? छोड़ो अपना डर. हम विवाह जरूर करेंगे,’ सौरभ का स्वर दृढ़ था. ‘ओह सौरभ, बात मेरे अनिष्ट की होती तो मैं जरा भी नहीं सोचती. लेकिन तुम्हारे अनिष्ट की बात सोच कर मेरा दिल कांप उठता है,’ बोलते हुए माया की सिसकियां नहीं रुक रही थीं.

‘माया, तुम सारा भार मुझ पर डाल कर हां कर दो. विवाह के लिए मन का मेल ग्रहों व कुंडलियों के बेतुके मेल से अधिक महत्त्वपूर्ण है,’ सौरभ के स्वर में उस का आत्मविश्वास झलक रहा था.

‘नहीं सौरभ, नहीं. मैं किसी भी तरह मन को समझा नहीं पा रही हूं. यह अपराधभाव लिए मैं तुम्हारे साथ जी ही नहीं सकती,’ माया ने आंसू पोंछ लिए.

‘तो मैं समझूं कि हमारे बीच जो कुछ था वह समाप्त हो गया. ठीक है, माया, सिर्फ यादों के सहारे हम जीवन की लंबी राह काट नहीं सकेंगे. जल्दी ही दूसरी जगह विवाह कर प्रसन्नता से रहना.’ सौरभ चला गया था. अकेली बैठी माया बुत बनी उसे देखती रही थी. माया अपने ही कालेज में पढ़ाने लगी थी. सौरभ वापस कोलकाता चला गया, अपनी नौकरी में रम गया था. रिंकू लखनऊ चली गई थी. सप्ताह, माह में बदल कर अतीत की कभी न खुलने वाली गुहा में फिसल कर बंद हुए जा रहे थे. माया दिनभर कालेज में व्यस्त रहती थी, शाम को घर लौटते ही उदासी के घेरे में घिर जाती थी. देखतेदेखते सौरभ से बिछुड़े पूरा 1 वर्ष बीत गया था.

एक दिन शाम को कालेज से लौट कर सामने रिंकू को बैठी देख माया को बड़ा आश्चर्य हुआ. रिंकू  अचानक लखनऊ से कैसे आ गई? चाय पीते हुए दोनों इधरउधर की बातें करती रहीं. फिर रिंकू ने अपना पर्स खोल कर एक सुंदर सा शादी का कार्ड माया की ओर बढ़ाया.

‘माया, अगले रविवार को सौरभ भैया की शादी है. भैया का अव्यवस्थित जीवन और अंदर ही अंदर घुलते जाना मुझ से देखा नहीं गया. मैं ने बड़ी मुश्किल से उन को शादी के लिए तैयार किया है. तुम तो अपनी जिद पर अड़ी हुई हो, दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है,’ रिंकू का चेहरा गंभीर हो गया था. मूर्तिवत बैठी माया को करुण नेत्रों से देखती हुई रिंकू चली गई थी.

माया कार्ड को भावहीन नेत्रों से देखती रही. दिल में कई बातें उठने लगीं, क्या उस का सौरभ पराया हो गया, मात्र 1 वर्ष में? सुमिता जैसी सुशील सुकन्या को पा कर सौरभ का जीवन खिल उठेगा. एक वह है जो सौरभ की याद में घुलती जा रही है. लेकिन उसे क्रोध क्यों आ रहा है? क्या सौरभ जीवनभर कुंआरा रह कर उस के गम में बैठा रहता? ठीक ही तो किया उस ने. पर उसे इतनी जल्दी क्या थी? जब तक मेरी शादी कहीं तय नहीं होती तब तक तो इंतजार कर ही सकता था? अभिमानी सौरभ, यह मत समझना कि सुमिता के साथ तुम ही मधुर जीवन जी सकोगे. मैं भी आऊंगी तुम्हारे घर अपने विवाह का न्योता देने. तुम से अधिक सुंदर, स्मार्ट लड़के की खोज कर के. माया ने हाथ में लिए हुए कार्ड के टुकड़ेटुकड़े कर डाले.

माया के लिए उस के पापा ने वर ढूंढ़ने शुरू कर दिए लेकिन माया की नजरों में वे खरे नहीं उतरते थे. उस की जोड़ का एक भी तो नहीं था. मां और पापा कितना ही समझाने की कोशिश करते, लेकिन माया नहीं झुकी. अंत में पापा ने माया के लिए वर ढूंढ़ना छोड़ दिया था.

समय अपनी गति से घूमता रहा.

10 वर्ष जाने कैसे सपने से बीत गए. छोटी बहन और भाई की शादी हो चुकी थी. माया उम्र के एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी थी जहां आदर्श टूट जाते हैं, कल्पनाएं धुएं की तरह उड़ जाती हैं और जीवन अपने कटु यथार्थ के धरातल पर आ जाता है. प्यार, गुस्सा, बदला, सौरभ सबकुछ मन के किसी अवचेतन कोने में जा कर दुबक गए थे. माया ने अनुभव किया कि अब उसे पुरुष की बलिष्ठ, संरक्षक बांहों की आवश्यकता है.

छोटी बहन की ससुराल से महेश आए थे. महेश ने माया से ब्याह करने का प्रस्ताव रखा था. महेश का व्यक्तित्व अति सामान्य और अनाकर्षक था. उन की अपनी एक छोटी फैक्टरी थी. क्या इस अनाकर्षक 42 वर्षीय प्रौढ़ के लिए ही उस ने इतनी लंबी प्रतीक्षा की थी? लेकिन अपने मन की ख्वाहिशों को दबा कर माया ने महेश का हाथ थाम लिया.

विवाह के अगले वर्ष सुषमा का जन्म हुआ था. माया अपनी पिछली कड़वाहट भूल कर बेटी में खो गई थी. पर माया के शांत जीवन में अचानक आंधी आ गई. महेश सुषमा को होस्टल में भेजना चाहते थे. माया ने लाख मिन्नतें कीं पर महेश ने अपना निर्णय नहीं बदला. सुषमा के होस्टल में चले जाने के बाद माया गुमसुम सी हो गई थी. न ही वह महेश के साथ उस की पार्टियों में जा कर घंटों बैठ पाती थी, न महेश की नीरस बातें सहन कर पाती थी. उसे सब से अधिक खलती थी, महेश की संगीत के प्रति अरुचि. न महेश को उस का वायलिन बजाना भाता था, न ही वह संगीत कार्यक्रमों में जाता था. माया का नौकरी करना भी उसे पसंद नहीं था. न कोई रोमांस, न रोमांच. माया दुख और अलगाव में जीतेजीते पत्थर सी हो गई थी.

‘‘बीबीजी, चाय बना लाऊं? दूध आ गया है,’’ नौकरानी की आवाज से माया की तंद्रा टूटी और वह वर्तमान में लौट आई.

सिर भारी हो आया है. ओह, अकेले 10 दिन वह नहीं रहेगी घर में. मौसी के यहां चली जाएगी. नौकरानी से चाय बनाने के लिए कह कर माया हाथमुंह धोने चली गई.

माया ने अपनी गाड़ी एक ओर खड़ी की और मौसी के लिए फल खरीदने स्टोर में घुस गई.

‘‘कार्ड पेमैंट है?’’ पेमैंट के लिए लाइन में खड़ी माया यह आवाज सुन कर चौंक उठी. लाइन में आगे खड़ी रिंकू को देखा.

‘‘रिंकू,’’ माया खुश हो जोर से बोली.

रिंकू ने माया को बांहों में भर लिया. पेमैंट कर रिंकू माया की गाड़ी में आ बैठी.

रिंकू अपना किस्सा सुनाने लगी. उस ने रिसर्च पूरा कर लिया था. उसी दौरान उस की शादी हो गई थी. उस की भी इकलौती बेटी है जिस की पिछले अक्तूबर में शादी हो गई है. वह यहां पति के साथ आई थी, कुछ काम था उन का.

रिंकू ने माया को नहीं छोड़ा. खोदखोद कर उस की निजी जिंदगी के संबंध में पूछने लगी. कईर् वर्षों बाद किसी अपने ने उस की दुखती रग पर हाथ रखा था. सो, माया का मन मर्यादा त्याग कर उमड़ पड़ा, ‘‘रिंकू, मैं पूरा जीवन भटकती ही रह गई. मुझे कुछ भी न मिला. आखिरकार मेरा अपना बन कर कोई भी तो न रहा. मेरे चारों ओर है केवल उदासी, उलझन, तनाव. मैं जाने कब टूट कर बिखर जाऊं,’’ माया सिसक रही थी.

रिंकू सिसकती माया को चुपचाप देखती रही. रोने दो जीभर. बरसों की घुटन आंखों की राह बह जाए तो माया का तनाव कुछ कम हो जाएगा. कक्षा में सब से आगे रहने वाली माया की कुशाग्र बुद्धि उसे जीवनसंग्राम में विजयी बनने की राह नहीं दिखा सकी.

‘‘माया,’’ रिंकू ने माया के कंधे पर हाथ रखा. माया सिर उठा कर भरे नेत्रों से रिंकू की ओर देख रही थी.

‘‘माया, क्या इस सारे बिखराव का कारण तुम स्वयं नहीं हो? तुम में निर्णय करने और जोखिम मोल लेने की हिम्मत ही नहीं थी. किसी ज्योतिषी की ग्रहगणना में तो तुम्हें विश्वास था, लेकिन सौरभ के आश्वासनों पर, उस के दृढ़ संकल्पों पर तुम विश्वास नहीं कर सकीं. हम ने न सौरभ के ब्याह में जन्मपत्रियां मिलवाईं, न मेरे ब्याह में ही. मैं ने अपनी बेटी के ब्याह में भी पत्रियां नहीं मिलवाईं. फिर भी हम सब सुखी दांपत्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं.

‘‘माया, सचाई यह है कि तुम्हारे अंतर्मन में सौरभ निराकार रूप में आज भी व्याप्त है. मन की यही गांठ महेश के साथ सुखद और आनंदमय जीवन जीने से तुम्हें निरंतर रोक रही है.’’

रिंकू कुछ देर मौन बैठी रही, फिर माया के माथे पर आए पसीने की बूंदों को पोंछते हुए बोली, ‘‘माया, जरा सोचो तो, आखिर महेश में ऐसी क्या कमी है? वे व्यस्त व्यवसायी हैं. उन के व्यवहार में उन का अपना संस्कार छाया हुआ है. संस्कारों को आसानी से बदला भी तो नहीं जा सकता. सुषमा को उन्होंने होस्टल तुम से छीनने के लिए तो नहीं भेजा है, बल्कि उस के अच्छे भविष्य के लिए ही भेजा है. माया, जरा सोचो? क्या तुम ने अपने पति के साथ न्याय किया है. न कभी उन के व्यवसाय में दिलचस्पी ली, न उन के दोस्तों में. तुम्हारा सान्निध्य तो महेश को कभी मिला ही नहीं. माया, न तो तुम में सौरभ से ब्याह करने की हिम्मत थी, न ही उस की स्मृति में अकेले दृढ़ जीवन बिताने का साहस. तुम स्वयं को भी समझ नहीं पाईं,’’ रिंकू एक सांस में ही इतना कुछ कह कर हांफने लगी थी.

कुछ पल तक दोनों मौन बैठी सजल नयनों से सड़क की ओर देखती रहीं. रिंकू ने घड़ी की ओर देखा. फिर झट गाड़ी से उतर पड़ी और उस के कंधे पर हाथ रख कर बोली, ‘‘माया, देर हो रही है, मैं चलूं. कम से कम जीवन के बचे चंद दिनों को अब महेश के साथ प्रसन्नता से जी लो.’’ माया ने रूमाल निकाल कर अच्छी तरह चेहरा पोंछ लिया. आकाश से छंटे बादलों की तरह उसे अपना मन साफ लगा. महेश, सुषमा, महेश का व्यवसाय सबकुछ तो उस का अपना है. अब वह नहीं बिखरेगी, नहीं भटकेगी. उसे तो अभी बहुतकुछ करना है पति के लिए, बेटी के लिए.

इन 4 नैचुरल नुस्खों के भी हैं साइड इफेक्ट्स

भारतीय लोग अमूमन घरेलू और पारंपरिक उपचार पर यकीन करते हैं, जिनमें कि हर्ब्स, सब्जियां आदि नैचुरल तत्व शामिल होते हैं. ज्यादातर लोगों का यकीन होता है कि नैचुरल चीज का इस्तेमाल अन्य चीजों के मुकाबले ज्यादा सेफ है और इसके साइड इफेक्ट भी नहीं होते. लेकिन लोगों की यह धारणा दरअसल गलत है. आइए आपको बताते हैं कि नैचुरल चीजों से कैसे हो सकता है आपको नुकसान.

1. हर्बल चाय

अगर आपको कफ की शिकायत है तो काली मिर्च, शहद से बनने वाली हर्बल चाय का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए. एक्सपर्ट के मुताबिक, काली मिर्च बहुत गर्म और सूखी होती है. अगर आपको सूखा कफ आ रहा है तो इसके इस्तेमाल से घरघराहट बढ़ सकती है.

2. शहद भी है घातक

चेहरे पर शहद का इस्तेमाल करना सौ फीसदी चमक की गारंटी बताया जाता है. शहद और दूध जैसे नैचुरल प्रॉडक्ट्स चेहरे पर सफेद या काले धब्बे डाल सकते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि ये तैलीय होते हैं.

आपकी उम्र चाहे कितनी ही क्यों न हो, सूखी त्वचा के मुकाबले शहद या दूध का इस्तेमाल करना ज्यादा एलर्जिक होता है. सूखी त्वचा ऐक्टिव नहीं होती है और ऐसे में उसमें मुंहासे निकलने की आशंका कम रहती है. शहद या दूध का इस्तेमाल ऑयल ग्लैंड्स को ब्लॉक कर देता है और इसके चलते मुंहासे निकल आते हैं.

3. चंपी

नारियल, सरसों आदि के तेल का इस्तेमाल करने से आपको इंफेक्शन भी हो सकता है. अगर आपकी त्वचा सेंसटिव है तो आपके सिर में छोटे—छोटे दाने निकल सकते हैं.

4. तो कानों में होगा दर्द

कान में दर्द होने पर कई बार हम अदरक का जूस इस्तेमला कर लेते हैं. इसके पीछे लॉजिक देते हैं कि यह कान के इंफेक्शन से लड़ने में कारगर है. जबकि विशेषज्ञों की मानें तो इसके इस्तेमाल से कान ब्लॉक भी हो सकता है. इसमें इयर ड्रम के जरिए कान में इंफेक्शन की आशंका भी बढ़ जाती है. जूस सीधा कान की कैविटी में जाकर आपकी सुनने की क्षमता को भी खत्म कर सकता है.

मुझे न पुकारना

बस में बहुत भीड़ थी, दम घुटा जा रहा था. मैं ने खिड़की से बाहर मुंह निकाल कर 2-3 गहरीगहरी सांसें लीं. चंद लमहे धूप की तपिश बरदाश्त की, फिर सिर को अंदर कर लिया. छोटे बच्चे ने फिर ‘पानीपानी’ की रट लगा दी. थर्मस में पानी कब का खत्म हो चुका था और इस भीड़ से गुजर कर बाहर जा कर पानी लाना बहुत मुश्किल काम था. मैं ने उस को बहुत बहलाया, डराया, धमकाया, तंग आ कर उस के फूल से गाल पर चुटकी भी ली, मगर वह न माना.

मैं ने बेबसी से इधरउधर देखा. मेरी निगाह सामने की सीट पर बैठी हुई एक अधेड़ उम्र की औरत पर पड़ी और जैसे जम कर ही रह गई, ‘इसे कहीं देखा है, कहां देखा है, कब देखा है?’

मैं अपने दिमाग पर जोर दे रही थी. उसी वक्त उस औरत ने भी मेरी तरफ देखा और उस की आंखों में जो चमक उभरी, वह साफ बता गई कि उस ने मुझे पहचान लिया है. लेकिन दूसरे ही पल वह चमक बुझ गई. औरत ने अजीब बेरुखी से अपना चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लिया और हाथ उठा कर अपना आंचल ठीक करने लगी. ऐसा करते हुए उस के हाथ में पड़ी हुई सोने की मोटीमोटी चूडि़यां आपस में टकराईं और उन से जो झंकार निकली, उस ने गोया मेरे दिमाग के पट खोल दिए.

उन खुले पटों से चांदी की चूडि़यां टकरा रही थीं…सलीमन बूआ…सलीमन बूआ…हां, वे सलीमन बूआ ही थीं. बरसों बाद उन्हें देखा था, लेकिन फिर भी पहचान लिया था. वे बहुत बदल चुकी थीं. अगर मैं ने उन को बहुत करीब से न देखा होता तो कभी न पहचान पाती.

दुबलीपतली, काली सलीमन बूआ चिकने स्याह गोश्त का ढेर बन गई थीं. मिस्कीन चेहरे पर ऐसा रोबदार इतमीनान और घमंड झलक रहा था जो बेहद पैसे वालों के चेहरों पर हुआ करता है. अपने ऊपर वह हजारों का सोना लादे हुए थीं. कान, हाथ, नाक कुछ भी तो खाली नहीं था. साड़ी भी बड़ी कीमती थी और वह पर्स भी, जो उन की गोद में रखा हुआ था. मेरा बच्चा रो रहा था और मैं उस को थपकते हुए कहीं दूर, बहुत दूर, बरसों पीछे भागी चली जा रही थी. मैं जब बच्ची थी तो यही सलीमन बूआ सिर्फ मेरी देखभाल के लिए रखी गई थीं. उन दिनों वे बहुत दुखी थीं. उन के तीसरे मियां ने उन को तलाक दे दिया था और लड़के को भी उन से छीन लिया था. सलीमन बूआ ने अपनी सारी ममता मुझ पर निछावर कर दी. मैं अपनी मां की ममता इसलिए कम पा रही थी क्योंकि मुझ से छोटे 2 और बच्चे भी थे.

अम्मा बेचारी क्या करतीं, मुझे संभालतीं या मेरे नन्हे भाइयों को देखतीं. सलीमन बूआ की मैं ऐसी आशिक हुई कि रात को भी उन के पास रहती. अब्बाजान सोते में मुझे अपने बिस्तर पर उठा ले जाते, लेकिन रात को जब भी मेरी आंख खुलती, फिर भाग कर सलीमन बूआ के पास पहुंच जाती. वे जाग कर, हंस कर मुझे चिपटा लेतीं, ‘आ गई मेरी बिटिया रानी…’ और फिर अपनी बारीक आवाज में वे लोरी गाने लगतीं, जिस को सुन कर मैं फौरन सो जाती. मुझे नहलाना, मेरे कपड़े बदलना, कंघी करना, काजल लगाना, खिलानापिलाना, सुलाना, कहानियां सुनाना, बाहर टहलाने ले जाना, यह सब बूआ के जिम्मे था. अम्मा मेरी तरफ से बेफिक्र हो कर दूसरे बच्चों में लग गई थीं.

बड़े भाई और आपा मुझे चिढ़ाते, ‘देखो, परवीन की बूआ क्या काली डरावनी सी है. अंधेरे में देखो तो डर जाओ. अरे, भैंस है पूरी, शैतान की खाला.’ मैं रोरो मरती, दोनों को काटने दौड़ती, चप्पल खींचखींच मारती. सलीमन बूआ यह सब सुन कर बस मुसकरा दिया करतीं और मुझ से दोगुना लाड़ करने लगतीं. मैं काफी बड़ी हो गई थी, लेकिन फिर भी उन की गोद में लदी रहती. मुहर्रम में मातम या 7 तारीख का कुदरती आलम देखने के लिए मैं इतनी दूर से खुरदपुरा और सय्यदवाड़ा महल्लों में उन की गोद में ही लद कर जाया करती. वह हांफ जातीं, थक कर चूर हो जातीं, मगर न मैं उन की गोद से उतरती न वे उतारतीं.

कोई औरत टोकती, ‘ऐ सलीमन बूआ, इस मोटी को लादे घूम रही हो, फेफड़ा फट जाएगा.’

तब वे बहुत बुरा मानतीं, ‘फटने दो मेरा फेफड़ा, तुम काहे को फिक्र करती हो, बड़ी आई मेरी बिटिया को नजर लगाने वाली.’ घर आ कर वे मेरी नजर उतारतीं तो मैं बड़े घमंड से गरदन अकड़ाअकड़ा कर बड़े भाई और आपा को देखती. तब वे दोनों जलभुन कर रह जाते. सचमुच मुझे अपनी काली डरावनी सी सलीमन बूआ से कितना प्यार था. बचपन छूटा, जवानी ने गले लगाया, फिर भी सलीमन बूआ मेरे उतने ही करीब रहीं. मैं अकसर उन के साथ ही सोती. तब मुझे कभी रात में नींद न आती तो वे मुझे लोरी सुनाने लगतीं, ‘चंदन का है पालना, रेशम की है डोर…जीवे मेरी रानी बिटिया…’

मैं हंस देती, ‘बूआ, अब तो लोरी न सुनाया करो, मैं बड़ी हो गई हूं.’

‘लाख बड़ी हो जाओ, मेरे लिए तो वही छटांक भर की हो.’

सलीमन बूआ ने 3 शादियां की थीं, 2 से कोई बच्चा नहीं हुआ तो तलाक हो गया कि वे बांझ हैं.

मगर तीसरी शादी हुई तो 9वें महीने ही बूआ की गोद भर गई. यह शादी 5 साल चली. लेकिन यहां भी दुखों ने बूआ का पीछा न छोड़ा. उन के मियां का दूसरी औरत से दिल लग गया. बूआ यह बरदाश्त न कर सकीं. झगड़ा बढ़ा तो मर्द ने तलाक दे दिया और घर से निकाल दिया. साथ ही उस ने बच्चा भी छीन लिया. हारी, दुत्कारी सलीमन बूआ घरघर का कामकाज कर के पेट की आग बुझा रही थीं कि चाचा ने उन को अम्मा के पास पहुंचा दिया और उन्होंने उन को मेरे लिए रख लिया. खाना, कपड़ा, तनख्वाह, पान, दवा, बिछौना, बस और क्या चाहिए था उन्हें. बूआ हमारे घर में जम कर पूरे 16 बरस रहीं. बच्चे बड़े हो गए. बड़े अधेड़ हो गए, बूआ हमारे घर का एक जरूरी पुरजा बन गई थीं.

मगर एक दिन 21 बरस का ऊंचा, तगड़ा, गहरा सांवला नौजवान हमारे दरवाजे पर आ कर खड़ा हुआ. उस ने पुकारा, ‘अम्मा.’

बूआ, जो मेरे लिए उबटन पीस रही थीं, आवाज को सुनते ही दरवाजे की तरफ देखने लगीं. उन का हाथ रुका तो चांदी की चूडि़यों का खनकना बंद हो गया.

‘कौन है?’ बड़े भाई ने डपट कर पूछा, क्योंकि वह नौजवान सीधा अंदर घुसा आ रहा था. नीली पैंट, सफेद कमीज, हाथ में शानदार बैग, चमकते जूते और कलाई में सोने की घड़ी देख सब ठिठक कर रह गए.

‘मैं हूं…कलीम…अम्मा को लेने आया हूं,’ उस ने कहा.

बूआ ने 21 बरस के उस नौजवान में अपने 5 साल के कल्लू को बिलबिलाता देख लिया था. वे चीख मार कर दौड़ीं, ‘कलुवा.’

‘अम्मा,’ और दोनों एकदूसरे से लिपट गए.

उफ, बेमुरव्वत, बेवफा सलीमन बूआ एकदम सब कुछ भूल गईं. अपनी जिंदगी के 16 बरस उन्होंने एक पल में झटक कर दूर फेंक दिए. उन्होंने तो उस बिखरे उबटन को भी न उठाया, जो चक्की के इर्दगिर्द पड़ा था और जिस को पीसते हुए वे लहकलहक कर गा रही थीं, ‘गंगाजमनी तेरी ससुराल से आया सेहरा… अब्बा मियां ने खड़े हो के बंधाया सेहरा…’

मैं सन्न बैठी रह गई, अचानक पत्थर की मूरत बन गई. बस, टुकुरटुकुर बूआ को देखती रह गई. यह बड़ी खुशी की बात थी कि उन का बेटा उन को लेने आया था. रोता, बिलखता कलुवा अब हंसतामुसकराता कलीम अहमद बन गया था. उस का बाप मर गया था और अपने पीछे ढेर सी दौलत छोड़ गया था, जिस का कलीम अकेला वारिस था क्योंकि उस की सौतेली मां बहुत बरस पहले ही उस के बाप को छोड़ कर भाग गई थी. बाप की बेड़ी कटी तो वह अपनी मां का पता लगातेलगाते हमारे यहां आ पहुंचा और 2 घंटे के बाद ही बूआ को ले कर चलता बना. 2 घंटों में बूआ सिर्फ एक बार मेरे पास आई थीं, वह भी जाते वक्त, ‘जा रही हूं बीबी…हमेशा सुखी रहो…’ मैं ने सोचा था कि बूआ बिलख उठेंगी, मुझे किसी नन्ही बच्ची की तरह गोद में भर लेंगी, कलीम से लड़ेंगी, कहेंगी, ‘वाह, मैं क्यों जाऊं अपनी बेटी को छोड़ कर…’

मगर नहीं, बूआ की तो बाछें खिल उठी थीं. कालाकलूटा चेहरा, जो मुझ को सलोना नजर आता था, खुशी के मारे और खून की तमतमाहट से और स्याह हो गया था. ‘जा रही हो बूआ?’ मेरी आवाज थरथरा गई.

‘हां, बेटी…मेरा कलुवा अब बहुत बड़ा आदमी बन गया है. कह रहा है, मेरी बड़ी बेइज्जती होती है, तुम क्यों दूसरों के दर पर पड़ी हो? ठीक भी है…ऐसे कब तक जिंदगी गुजारती. अच्छा, चलता हूं…’

यह कह कर उन्होंने मेरा सिर थपका और बगल में दबी हुई अपने कपड़ों की पोटली ठीक करने लगीं. फिर यह जा, वह जा. फिर उड़तीपड़ती खबरें मैं सुनती रही कि बूआ कलकत्ता में हैं, बड़े मजे कर रही हैं. कलीम की एक नहीं, कई दुकानें खुल गई हैं. कार भी खरीद ली है और मकान भी बन गया है. आज बरसों बाद मैं सलीमन बूआ को फिर देख रही थी. नजर थी कि उन पर से हटने का नाम नहीं ले रही थी. बच्चा मेरी गोद में रोतेरोते निढाल हो चुका था और अब सिसकियां भर रहा था. मैं सोचने लगी कि बूआ कितनी बेवफा और संगदिल निकलीं. कभी किस चाव से कहा करती थीं, ‘इतनी उम्र यहां गुजरी, अब जो रह गई है, वह भी रानी बिटिया के साथ इस के ससुराल में गुजर जाएगी. बिटिया को पाला है, इस के बच्चे भी पालूंगी, आंखों के तारे बना कर रखूंगी…’

लेकिन इस वक्त मैं भी सामने थी और मेरे दोनों बच्चे भी मेरे साथ थे. मेरा छोटा बच्चा प्यास के मारे रो रहा था. और सलीमन बूआ ने चंद मिनट पहले ही किस मजे से अपने खूबसूरत थर्मस से पानी पिया था. फिर बड़ी नफासत से रूमाल से मुंह पोंछा, थर्मस बंद कर के बराबर में रखी हुई टोकरी के अंदर रखते हुए भी उन्होंने मेरी या मेरे बच्चों की तरफ नहीं देखा.

मेरा जी चाह रहा था कि पुकारूं, ‘सलीमन बूआ’, मगर उन की ठंडीठंडी बेरुखी ने मेरे होंठ सीं दिए.

‘‘लो बहन, बच्चे को पानी पिला दो,’’ एक औरत भीड़ को चीर कर बड़ी मुश्किल से मेरे पास पहुंची तो मेरी जान में जान आ गई.

‘‘बहन, बहुतबहुत शुक्रिया,’’ मैं इतना ही कह पाई.

‘‘शुक्रिया कैसा बहनजी, बच्चा जान दिए दे रहा था…मैं ने नरेश के पिता से पानी मंगवाया, कोई साथ में नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं, मेरे पति मुझे स्टेशन पर मिल जाएंगे. मैं अपने मायके से आ रही हूं.’’

यह बात मैं ने सिर्फ सलीमन बूआ को सुनाने के लिए जरा ऊंची आवाज में कही. मगर वे उसी तरह ठस बनी बैठी खिड़की से बाहर देखती रहीं. बच्चे ने जी भर पानी पिया और मेरी ओर देख कर हंसने लगा.

इतने में ड्राइवर आ गया और उस ने हौर्न बजाया. खुश हो कर बच्चे ने पूछा, ‘‘अम्मा, अब बस चलेगी?’’

‘‘हां, बेटा…अब चलने ही वाली है.’’

‘‘आहा…बस चल रही है,’’ उस ने अपने नन्हेमुन्ने हाथों से ताली बजाई. 2-3 आदमी उस की मासूम खुशी देख कर हंसने लगे. मैं ने बड़ी उम्मीद से सलीमन बूआ की तरफ देखा कि शायद वे भी देखें, शायद उन के चेहरे पर भी मुसकराहट उभरे और शायद वे अपनी बेमुरव्वती अब न निभा सकें. मगर बूआ का चेहरा सपाट था, चिकना स्याह पत्थर, जिस पर हलकीहलकी झुर्रियों का जाल सा बंधा हुआ था. मैं ने सोचा, शायद बराबर में बैठा हुआ 8-9 बरस का लड़का उन का पोता होगा. वे उस से बातें कर रही थीं. वही आवाज, वही अंदाज, वही होंठों का खास खिंचाव…

मेरा नन्हा बाबी ऊंघने लगा था. मैं ने उस को गोद में लिटा लिया और उस के नर्म बालों में उंगलियां फेरते हुए बिना इरादा ही गुनगुनाने लगी, ‘‘चंदन का है पालना, रेशम की डोर, जीवे मेरा राजा बेटा…’’

एकाएक एक अजीब, बहुत अजीब सी बात हुई. सलीमन बूआ के चेहरे पर एक चमक सी आई, उन की नजरें मेरे चेहरे से होती हुई बाबी पर जम गईं. मेरा दिल जोरजोर से धड़क उठा, लव कांप रहे थे. मैं ने सोचा, अब सलीमन बूआ उठीं और अब उन्होंने मेरी गोद से बाबी को ले कर कलेजे से लगाया और अपनी उसी मीठी, सुरीली आवाज में गुनगुनाने लगीं, ‘चंदन का है पालना…’

वह उठीं और बीच की सीट पर मेरी तरफ पीठ किए बैठे आदमी से कहने लगीं, ‘‘ओ बच्चे, तू इधर मेरी सीट पर बैठ जा, मैं उधर बैठ जाऊंगी.’’ वह जरा कसमसाया, मगर सोने की चूडि़यों की चमक और खनक के रोब में आ गया. वह उठ कर बूआ की जगह जा बैठा और बूआ अपना भारी जिस्म समेट कर उस की जगह पर धंस गईं. अब मेरी तरफ उन की पीठ थी.

सबकुछ बदल गया था, मगर उन का जूड़ा नहीं बदला था. वही पहाड़ी आलू जैसा उजड़ा, सूखा जूड़ा और उस के गिर्द लाल फीता. मेरे दिल में गुदगुदी सी उठी, मैं सब कुछ भूल गई. मैं तो बस वही शोख और खिलंदरी परवीन बन गई थी जो दिन में कम से कम 15 बार बूआ का जूड़ा हिला कर ढीला कर दिया करती थी. तब बूआ मुहब्बत भरी झिड़कियां दे कर अपनी नन्ही सी चोटी खोल कर लाल फीता दांतों में दबाए नए सिरे से जूड़ा बनाने लगती थीं. मैं ने हाथ बढ़ा कर उन का नन्हा सा जूड़ा छू लिया तो उन के बदन में बिजली सी दौड़ गई. वे मुड़ीं और घूर कर मेरी तरफ देखा. मैं मुसकराई, फिर हंस पड़ी, ‘‘बूआ…’’ मैं ने आगे कुछ कहना चाहा, लेकिन बड़ी सर्द आवाज में और बड़ी नागवारी से उन्होंने तेज सरगोशी की, ‘‘मुझे बूआ न पुकारना… इस तरह तो मेरी बेइज्जती होगी, कहना हो तो आंटीजी कहो.’’ सहसा मेरे होंठों पर आई हंसी एक खिंचाव की सूरत में जम कर रह गई.

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