अंतिम स्तंभ- भाग 2 : बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

मुझे सच में उन के घर जाना सुखद न लगता. मेरे जाते ही पोतेपोती अपना वीडियो गेम छोड़ कर आ कर जम जाते दादी के कमरे में. कान लगाए सुनते रहते हमारी बातें. बच्चों की आंखों में कहीं बालसुलभ मासूमभाव नहीं. अजीब उपेक्षा और हिकारतभरा भाव होता. दादी के कंधे पर चढ़ रहे हैं… ‘दादी, चलो, हम को होमवर्क कराओ.’ दादी की हिम्मत नहीं कि झिड़क सकें, ‘जाओ, बाहर खेलो,’ उन के शातिरपने का किस्सा भी सुन चुकी हूं मैं.

कुछ दिनों पहले सहेली की छोटी बेटी की लड़की हुई थी. मैं घर आई तो बोली, ‘‘बच्ची की छठी में जाना है. छोटी सी सोने की चेन देने का मन है. किसी अच्छे ज्वैलर की दुकान से दिलवा दे.’’ मैं उसे अपने परिचित ज्वैलर की दुकान में ले गई. उस ने एक चेन पसंद की. मगर जैसा लौकेट वह चाहती थी, वैसा दुकान में था नहीं. दुकानदार ने कहा, ‘‘4 दिनों में वह वैसा लौकेट बनवा देगा.’’

4 दिनों बाद वह दुकान में गई, अकेले ही. लौकेट लिया. घर लौटी. बेटाबहू, बच्चे सामने अहाते में ही कुरसियां डाले बैठे थे. बेटा बोला, ‘कहां गई थी मां?’

उस ने मेरा नाम बता दिया.

10 वर्षीय पोता आंखें तरेर कर बोला, ‘‘इतना झूठ क्यों बोलती हो, दादी. तुम तो ज्वैलर की दुकान से लौकेट ले कर आ रही हो.’’

सहेली का चेहरा फक पड़ गया, ‘‘कैसे कह रहा है तू यह?’’

‘‘मैं गया था न तुम्हारे पीछेपीछे. जब तुम लौकेट पसंद कर रही थीं, मैं तुम्हारे ही तो पीछे बैठा था सोफे पर.’’

सारा किस्सा सुन कर मैं अवाक रह गई, ‘‘उस लड़के को यह कैसे पता चला कि तू ज्वैलर की दुकान जा रही है?’’

‘‘मैं मोबाइल पर ज्वैलर से पूछ रही थी, क्या लौकेट बन कर आ गया? लड़के ने सुन लिया होगा. उस ने मां को बताया होगा. और मां ने बेटे को मेरे पीछे लगा दिया होगा.’’

यह मोबाइल का किस्सा भी अजीब है. वह अपने जमाने की अच्छी पढ़ीलिखी अध्यापिका, मगर अब जैसे एकदम पिछड़ी हुई, मूर्खगंवार. मोबाइल में फोन करना तक नहीं आता था उसे. जब मैं उस से कहूं, ‘तू इतनी दूर से मेरे घर आती है पैदल, तो मुझे फोन कर दिया कर, ताकि मैं घर पर ही रहूं.’ तो बोली, ‘मुझे तो फोन करना ही नहीं आता. बड़ी बेटी अपना पुराना मोबाइल छोड़ गईर् है. जिस से मैं किसी का फोन आए तो बात कर लेती हूं, बस.’

फोन करना उसे किसी ने नहीं सिखाया, न बेटे ने, न बेटी ने. न उन नातीपोतों ने जिन की मोबाइल पर महारत देखदेख कर वह चमत्कृत होती रहती है.

मैं ने उसे फोन करना, रिचार्ज करना सब सिखा दिया. वह गदगद होने लगी, ‘‘तू ने मुझ पर बड़ी कृपा की. अब मैं खुद भी अपनी बेटियों से बात कर सकती हूं.’’

अब वह जब भी फोन करे, पोतापोती कहीं भी हों, आ कर डट जाते.

उस के पोतापोती के सामने तो बात करना भी मुश्किल. सो, मैं ऐसे समय उस के घर जाती, जब बच्चेबहू सब स्कूल में हों. शहर से दूर उस एकांत शाही बंगले में वह अकेली और उन का भयानक कुत्ता. फाटक पर मुझे देखते ही उन का भयानक कुत्ता भूंकना शुरू कर देता. वह पगली सी फाटक पर आती और मुझे अंक में भर कर भीतर ले जाती.

मैं कहती, शांति से बैठ कर गपशप कर, मगर वह पगलाई सी जल्दीजल्दी नाश्ता बनाने लगती, हलवा, पकौड़े, चीले, जो सूझता वही. फिर बारबार कहने लगती…खा न रे, गरमगरम. देख, मैं नाश्ता भूली तो नहीं हूं.

चायनाश्ता खत्म होते ही फौरन सारे बरतन मांजधो कर चिकन में पूर्ववत सजा कर अपार संतुष्टि से बैठ जाती. मेरा मन और खराब होने लगता. याद आ जाता. ठीक ऐसा ही वह तब भी करती थी जब अपनी सासुमां के साथ रहती थी. हम उस से मिलने गए और अगर सासुमां घर में न हों तो उस की चपलता देखते ही बनती थी. फटाफट नाश्ता तैयार कर लेती. जल्दीजल्दी खाने के लिए चिरौरी करने लगती. खाना खत्म होते ही बरतन मांजधो कर सजा कर रख देती.

तब सासुमां का आतंक था. अब बहू का. तब ननददेवर की जासूसी अब पोतेपोती की. आतंक से भीतर ही भीतर आक्रांत. मगर उन्हीं लोगों की सेवा में तत्पर, मगन.

अजब समानता दिखती मुझे 35 साल पहले देखी उस सास में और अब शानदार पोशाक में सजी, काला चश्मा लगाए खुले केश उड़ाती धड़ल्ले से बाइक दौड़ाती इस आधुनिक बहू में. सास का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता, यह हमेशा मिमियाती ही दिखती. अब बहू का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता है. यह मिमियाती ही दिखती है.

सबकुछ जानतेसमझते हुए भी इधर शायद मुझ से ही कुछ बेवकूफी हो गई. हुआ यह कि मेरे घर अचानक हमारी कुछ पुरानी सहेलियां आ गईं. मैं ने उसे फोन किया कि तू मिलने आ सकती है क्या. वह एकदम तड़प गई, ‘घर में कोई है नहीं. बहू और बच्चे स्कूल में, बेटा दौरे पर. घर सूना छोड़ कर कैसे आऊं?’

मैं सहेलियों को ले कर उस के घर ही पहुंच गई. हमें देखते ही वह मारे खुशी के बेहाल. खूब गले मिलना, रोनाधोना हुआ. सब को अपने कमरे में बैठा वह दौड़ी किचन की ओर. सहेलियां चिल्लाईं, ‘बैठ न रे. बोलबतिया. नाश्ता बनाने में समय बरबाद मत कर. कितनी मुश्किल से तो हम लोग आ पाए हैं. वह बैठ गई. ढाई बजतेबजते बच्चे आ गए. वह बच्चों को खाना देने के लिए किचन को दौड़ी. हम आपस में बतियाने लगे.

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काफी देर हो गई. हार कर मैं किचन में गई. देखा, उस ने बच्चों के लिए ताजा भात बनाया था और अब रोटियां सेंक रही थी. नवाब बच्चे डब्बे में रखी सुबह की रोटी नहीं खा सकते थे. सहेलियों को देख कर और चिढ़ गए, ‘‘दादी, ये कैसी रोटियां दे रही हो. फूलीफूली दो.’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘ताजी रोटियां हैं, चुपचाप खाओ.’’ उस ने फौरन मेरे मुंह पर हाथ रख दिया ओर बच्चों को पुचकारने लगी, ‘‘लो, आज दादी को माफ कर दो. कर दोगे न?’’

बच्चों को खिला कर जैसे ही उस ने चाय का पानी चूल्हे पर चढ़ाया, मैं ने मना कर दिया, ‘‘सहेलियां जल्दी मचा रही हैं, अब चाय बनाने में समय बरबाद मत कर.’’ मन मार कर वह सहेलियों के बीच आ कर बैठ गई. बातचीत में अब वह रस नहीं आ रहा था. मन ही मन सब को कुछ कचोट रहा था. सहेलियों को उस की स्थिति और उसे सहेलियों का ठीक से स्वागत न कर पाने की विवशता. तिस पर दोनों शातिर जासूस हमारे ही बीच आ कर खड़े हो गए, ‘‘दादी, मेरा रैकेट कहां है? मेरा कलरबौक्स कहां है?’’

तभी बहू भी आ गई. तीखी नजरों से सास के कमरे को देखती बाथरूम की ओर चली गई. वहां से लौटी तो उस के ट्यूशन वाले लड़के आ गए. ट्यूशन पढ़ाना यानी पैसे बनाना. सो, लड़कों को देखते ही वह सामने बैठक में ही पढ़ाने बैठ गई.

सहेली की स्थिति अतिथियों के बीच अत्यंत दयनीय. आती हूं, कह कर गई और शायद बहू से चिरौरी की कि मेरी कुछ सहेलियां आ गई हैं, कुछ चायनाश्ता बना दो. बहू तमतमाई हुई किचन की ओर जाती दिखी. काफी देर हो गई. मगर न चाय आई, न नाश्ता. वह इतनी देर से सहेलियों को चायनाश्ते के लिए रोके हुए थी.

हार कर वह किचन की ओर गई. उस के पीछे मैं भी. बहू ने एक भारीभरकम भगोने में कनस्तर का सारा बेसन उड़ेल कर घोल बना लिया था और तेवर में तनी धड़ाधड़ पकौड़े छाने जा रही थी. बड़ी सी परात में पकौड़ों का पहाड़ लगा हुआ था.

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भयंकर भूल: मोबाइल लेने की सनक का क्या हुआ अंजाम

लेखक- आशा वर्मा

पंडित रामसनेही जवानी की दहलीज लांघ कर अधेड़ावस्था के आंगन में खड़े थे. अपने गोरे रंग और ताड़ जैसे शरीर पर वह धर्मेंद्र कट केश रखना पसंद करते थे. ज्यादातर वह अपने पसंदीदा हीरो की पसंद के ही कपड़े पहनते थे लेकिन कर्मकांड कराते समय उन का हुलिया बदल जाता था और ताड़ जैसे उन के शरीर पर धोतीकुरते के साथ एक कंधे पर रामनामी रंगीन गमछा दिखाई देता तो दूसरे कंधे पर मदारी की तरह का थैला लटका होता जिस में पत्रा, जंत्री और चालीसा रखते थे. माथे पर लाल रंग का बड़ा सा तिलक लगाए रामसनेही जब घर से निकलते तो गलीमहल्ले के सारे लड़के दूर से ही ‘पाय लागे पंडितजी’ कहते थे. सफेद लिबास के रामसनेही और पैंटशर्ट के रामसनेही में बहुत फर्क था.

रामसनेही को पुरोहिताई का काम अपने पुरखों से विरासत में मिला था क्योंकि बचपन से ही उन के पिता उन को अपने साथ रखते थे. विरासत की परंपरा में रह कर उन्होंने विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश और मरने के बाद के तमाम कर्मकांड कराने की दीक्षा बखूबी हासिल कर ली थी. हर कार्यक्रम पर बोले जाने वाले श्लोक उन को कंठस्थ हो गए थे.

छोटे भाई से यजमानी के बंटवारे के समय पंचायत में तिकड़म भिड़ा कर ऊंचे तथा रईस घरों की यजमानी उन्होंने हथिया ली थी. छोटे भाई को जो यजमानी मिली थी वह कम आय वालों की थी, जहां पैसे कमाने की गुंजाइश बहुत कम थी. परिवार के नाम पर रामसनेही की एक अदद बीवी और बच्ची थी.

आज की पुरोहिताई के सभी गुण रामसनेही में कूटकूट कर भरे थे. और होते भी क्यों न, आखिर 15 सालों से शंख फूंकफूंक कर पारंगत जो हो चुके थे. लड़केलड़कियों की जन्मकुंडली न मिल रही हो तो वह कोई जुगत निकाल देते थे. विवाह का मुहूर्त या तिथि इधरउधर करना उन के बाएं हाथ का खेल था. कुंडली देख कर भविष्यवाणी भी करते थे. शनी से ले कर राहूकेतू की दशा का निराकरण भी करवाते थे. झाड़फूंक, जादुई अंगूठियों से वशीकरण जैसे कार्यों में उन्हें महारत हासिल थी.

व्यावसायिक तो रामसनेही इतना थे कि कंजूस की पोटली से भी अशरफी निकाल लें. जैसा यजमान वैसा काम के सिद्धांत पर चल कर उन्होंने अपने गुणों को और भी पैना कर लिया था. वह सब तरह का नशा करते थे पर जब गांजा का नशा करते तो मन ही मन औरतों के शृंगार का आनंद भी लेते थे. कुल मिला कर उन के बारे में हम यही कह सकते हैं कि 21वीं सदी की पंडिताई के साथसाथ वह बेहतरीन हरफनमौला इनसान थे.

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इधर बीच उन्हें भी एक मोबाइल लेने की सनक सवार हुई ताकि अपने काम को वह अच्छी तरह से अंजाम दे सकें. यही नहीं व्यस्त दिनों में वह पूरे दिन का एक रिकशा किराए पर लेने की बात भी सोच रहे थे ताकि मुनाफे को अधिक से अधिक बढ़ाया जा सके.

रामसनेही को जो मोबाइल पसंद आया उस की कीमत 5 हजार रुपए थी. जोड़बटोर कर उन के पास कुल 3 हजार रुपए हो रहे थे. बाकी 2 हजार रुपए किसी से मांगना वह अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे. इसलिए मोबाइल के विचार को फिलहाल टाल कर किसी बड़े रईस के यहां कर्मकांड होने का इंतजार करने लगे. इस के लिए उन्हें अधिक दिन तक इंतजार नहीं करना पड़ा. जैसे ही सेठ चुन्नीलाल की गद्दी से नई कोठी में गृहप्रवेश कराने का बुलावा आया उन की बांछें खिल गईं.

चुन्नीलाल शहर के रईस आदमी थे. कोई भी कार्यक्रम रहा हो पंडितजी उन के यहां से काफी पैसे पाते रहे थे. उन के लिए यह घर मोटी यजमानी का था. चूंकि उस दिन पंडितजी का कार्यक्रम कहीं और नहीं था इसलिए समय से काफी पहले ही वह चुन्नीलाल के नए घर पहुंच गए.

गली में घुसते ही विभिन्न पकवानों की खुशबू का एहसास पंडितजी को होने लगा. दरवाजे पर पहुंचे तो चुन्नीलाल के बड़े लड़के नंदू ने पंडितजी के पैर छुए. आंगन में पहुंचे तो आकारप्रकार देख कर वह चौंधिया गए. विशालकाय आंगन में कम से कम 200 आदमी एकसाथ बैठ सकते थे. राजामहाराजाओं के महल जैसा उन का घर चमक रहा था.

घर मेहमानों से खचाखच भरा था. आंगन के एक ओर की दालान में महिलाएं बैठी थीं, तो दूसरी ओर की बड़ी दालान में पुरुष बैठे थे. सभी लोग कार्यक्रम शुरू होने का इंतजार कर रहे थे. कार्यक्रम के अनुसार यह तय हुआ कि पूजा शुरू होते ही पूडि़यां बनने का काम शुरू कर दिया जाए और पूजा खत्म होते ही मेहमानों की पंगतें बैठा दी जाएं.

इस दौरान ही पंडितजी को सेठ चुन्नीलाल नजर आ गए. वह सफेद धोतीकुरता, गले में कम से कम 10 तोले की सोने की जंजीर और हाथ की उंगलियों में हीरे की अंगूठियां पहने थे. अपने भारीभरकम शरीर के साथ चुन्नीलाल पंडितजी के पैर छूने की रस्म अदायगी के लिए झुके तो उन के हाथ पंडितजी के घुटनों तक मुश्किल से पहुंच पाए. यद्यपि चुन्नीलाल पंडित से उम्र में काफी बड़े थे पर रिवाज तो पूरा करना ही था. शायद अपने बड़प्पन की रक्षा के लिए ही उन्होंने रईसी अंदाज में पंडितजी को अपनेपन की एक मधुर धौल जमाते हुए कहा, ‘‘पंडितजी, इतनी देर कहां लगा दी.’’

पंडित रामसनेही तो समय से पहले ही पहुंचे थे इसलिए चुन्नीलाल के धौल पर थोड़ा खिसिया गए. कान के पास बजते मोबाइल के एहसास ने अपमान के इस घूंट को शरबत समझ कर पीते हुए होंठों पर मुसकान ला कर पंडितजी बोले, ‘‘सेठजी, आप चिंता क्यों कर रहे हैं. आप बैठें तो सही, देखिए कैसे जल्दी मैं काम को पूरा करता हूं.’’

आदेश के स्वर में सेठ चुन्नीलाल ने फिर मुंह खोला, ‘‘अरे, शार्टकट मत कर देना. पूरे विधिविधान से पूजा करानी है?’’

विधिविधान से पूजा कराने की बात चुन्नीलाल ने सिर्फ अपनी पत्नी को खुश करने के लिए कही थी अन्यथा मन से तो वह पूजापाठ के पक्ष में ही नहीं थे. वह तो शहर भर से आने वाले समाज के प्रतिष्ठित लोगों का स्वागत करना चाह रहे थे लेकिन घर में बड़े होने के नाते इस कार्यक्रमरूपी मटके को पत्नी के साथ बैठ कर उन्हें अपने सिर पर फोड़ना पड़ रहा था.

‘‘लालाजी, मैं आप के घर का सारा धार्मिक कार्यक्रम विधिविधान से पूरा करता हूं,’’ पंडितजी गर्व से बोले.

‘‘वह तो ठीक है पंडितजी,’’ चुन्नीलाल जल्दी में बोले, ‘‘यह तो बताइए कि कितना खर्च आएगा जिस में भेंट, पूजा का चढ़ावा, न्योछावर एवं दक्षिणा सभी कुछ शामिल हो.’’

इस सवाल पर पंडितजी थोड़ा रुके और माथे पर बनावटी सलवटें डाल कर मन ही मन कुछ गणना करते हुए बोले, ‘‘2 हजार रुपए से थोड़ा ऊपर.’’

‘‘2 हजार रुपए ज्यादा नहीं हैं. खैर, जल्दी शुरू करो. लंच का समय हो रहा है. आने वालों को समय से खाना भी खिलाना है.’’

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पंडितजी ने मंत्रोच्चारण के साथ अपना कार्यक्रम शुरू कर दिया. हवन करने के लिए एक तरफ चुन्नीलाल अपनी पत्नी कमला के साथ बैठे थे, उन से थोड़ा हट कर मुन्नीलाल पैसों की गठरी संभाले बैठा था. दूसरी ओर पंडित रामसनेही खुद विराजमान थे. उन की नजर बारबार मुन्नीलाल के हाथ की गठरी पर जा कर रुक जाती. मन में यही हूक उठती कि आज यह गठरी खाली करा लेनी है.

गृहप्रवेश के श्लोक वह निर्धारित शैली के अनुसार बोलते चले गए और यजमान को बीचबीच में आचमन करने का तो कभी चावल छिड़कने का, सिंदूर लगाने का, पान के पत्ते से पानी छिड़कने का निर्देश देते रहे. इस दौरान चढ़ावा चढ़ाने की बात भी वह नहीं भूलते.

गृहप्रवेश का धार्मिक कार्यक्रम बेरोकटोक चल रहा था लेकिन पंडितजी और चुन्नीलाल दोनों ही दिमागी उलझनों में उलझे हुए थे. चुन्नीलाल सोच रहे थे कि डेढ़ घंटे के काम के लिए पंडित ने उन से 2 हजार रुपए मांगे हैं जो इस काम को देखते हुए बहुत अधिक हैं लेकिन वह करते भी क्या, मौका ऐसा था कि जबरन उन्हें अपने मुंह पर ताला लगाना पड़ रहा था. नातेरिश्तेदार, महल्ले वालों के साथ शहर के इज्जतदार लोग भी उन की खुशी में शरीक होने आए थे. ऐसे समय पैसे के लिए पंडित से विवाद करना ठीक नहीं था. लेकिन मन ही मन फैसला ले लिया था कि आगे इस लालची पंडित को नहीं बुलाएंगे.

उधर पंडित रामसनेही मन ही मन मुसकरा रहे थे कि सेठ को तो उन्होंने यह सोच कर अधिक पैसा बताया था कि कुछ मोलतोल होगा पर यजमान ने तो कोई मोलभाव ही नहीं किया. फिर उन के दिमाग में आया कि इतने बड़े सेठ से मुझे 4 हजार रुपए बोलना चाहिए था तो बात 3 तक आ कर पट जाती. इसी विचार मंथन के क्रम में शुरू की खुशी अब पछतावे में बदल गई थी.

अचानक पंडितजी के दिमाग में बिदाई की दक्षिणा वाली बात आ गई और उन के चेहरे पर फिर से खुशी की लहर दौड़ गई. सोचने लगे, यजमान से कितनी दक्षिणा मांगी जाए. मन की बात मन में 2 हजार रुपए से शुरू हुई, लेकिन इस कार्यक्रम में हजारों रुपए पानी की तरह बहता देख कर अंतिम दक्षिणा की रकम मन ही मन 2 हजार रुपए से बढ़ कर 5 हजार रुपए हो गई.

पूजा समाप्त होने से 5 मिनट पहले ही चुन्नीलाल ने खाना शुरू करने का इशारा अपने छोटे भाई को कर दिया. मुन्नीलाल खाने की व्यवस्था करने जैसे ही ऊपरी मंजिल की ओर चले उन के साथ परिवार के दूसरे लोग भी चल दिए. चूंकि पेटपूजा का कार्यक्रम ऊपर वाली मंजिल में शुरू होने जा रहा था इसलिए आंगन से काफी लोग छंट चुके थे. पूजा खत्म होते ही पंडितजी ने अधिकार के साथ कहा, ‘‘यजमान अंतिम दक्षिणा.’’

चुन्नीलाल दरियादिली से बोले, ‘‘हां, पंडितजी, कितनी दक्षिणा चाहिए.’’

शिकारी बिल्ली की तरह चुन्नीलाल रूपी चूहे पर झपट्टा मारने को तैयार पंडितजी कुछ धीमे स्वर में बोले, ‘‘यजमान 5 हजार रुपए.’’

चुन्नीलाल समझे कि भूल से पंडितजी 500 की जगह 5 हजार रुपए कह गए होंगे इसलिए फिर से पूछा, ‘‘कितने रुपए दे दूं.’’

पंडितजी इस बार आवाज तेज कर उस में चाटुकारिता का पुट घोलते हुए बोले, ‘‘मालिक, महज 5 हजार रुपए.’’

चुन्नीलाल इतनी रकम सुन कर सन्न रह गए. भौचक हो कर बोले, ‘‘पंडित, तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है. जानते हो कि तुम कितनी बड़ी रकम मांग रहे हो.’’

‘‘हुजूर, आप बड़े लोग हैं,’’ चाटुकारिता की चाशनी में अपने शब्दों को लपेट कर पंडितजी बोले, ‘‘आप के लिए 5 हजार रुपए चुटकी है. पूरे शहर में आप का नाम है. किस जमाने से हमारे बापदादों ने आप के यहां पुरोहिती शुरू की थी.’’

2 हजार रुपए के चक्कर में चुन्नीलाल तो पहले से ही पंडितजी पर खार खाए बैठे थे, इस 5 हजार रुपए की नई मांग ने आग में घी का काम किया. तमतमाए चेहरे से चुन्नीलाल दहाड़े, ‘‘पंडितजी, आप अपने आपे में रहिए. इतना तो मैं कदापि नहीं दूंगा. 5 हजार रुपए हंसीठट्ठा समझ रखा है क्या?’’

इतने में कमला पति चुन्नीलाल को इशारे से चुप कराती हुई बोलीं, ‘‘पंडितजी, यह तो संयुक्त परिवार है इसलिए आप को हम लोग धनी दिख रहे हैं. हम लोग भी घर में दालरोटी ही खाते हैं. आप तो बहुत ज्यादा मांग रहे हैं. 5 हजार रुपए आप को मैं अपने बेटे नंदू की शादी में इन्हीं से दिलवाऊंगी, अभी तो 500 रुपए आप रख लें.

पंडितजी ने कमला की कोमलता को टटोल लिया. आंतरिक शक्ति बटोर कर उन्होंने कमला की तरफ मुंह कर के कहा, ‘‘अरे, मालकिन, यह गरीब ब्राह्मण आप लोगों से नहीं मांगेगा तो इस शहर में किस के पास मांगने जाएगा. यह तो धर्मकर्म का काम है. पुरोहित को देना तो सब से बड़ा पुण्य का काम होता है. यही दिया तो आगे काम आता है.’’

इसी बीच चुन्नीलाल ने 500 रुपए पंडितजी के हाथ में पकड़ाने का प्रयास किया पर वह उन रुपयों को छूने को तैयार न थे.

लिहाजा, 500 रुपए का वह नोट जमीन पर गिर पड़ा. लक्ष्मी का इस तरह अपमान होता देख कर मुन्नीलाल भड़क उठे, ‘‘500 रुपए लेना हो तो लो नहीं तो अपने घर का रास्ता नापो.’’

मोलतोल एवं तय तोड़ की सारी गुंजाइशें खत्म हो चुकी थीं. पंडितजी हाथ आई चिडि़या को किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं चाह रहे थे. उधर दोनों भाई चुन्नीलाल और मुन्नीलाल वीर योद्धा की तरह अपनी बात पर डटे रहे. कमला भी अपनी दाल गलती न देख थोड़ी दूर जा कर खड़ी हो गईं. दोनों ओर आवेश बढ़ने लगा. वाक्युद्ध अपने पूरे उफान पर था. यद्यपि पंडितजी अकेले थे पर वाक्पटुता में निपुण थे, तभी तो अपनी चाटुकारिता से बात को बीच में संभाल लेते थे.

पंडित रामसनेही जब हर तरफ से यजमान को झुकाने की कोशिश में हार गए तो अपने पूर्वजों के अंतिम ब्रह्मास्त्र ‘शाप’ का सहारा लिया और फिल्मी अंदाज में भड़क कर बोले, ‘‘यजमान, यह ब्राह्मण की दक्षिणा है, मुझे नहीं दोगे तो तुम्हें कहीं और देना पड़ेगा. अगर मैं ने मन से शाप दे दिया तो सारा घर भस्म हो जाएगा.’’

यह सुन कर वहां खड़े घर के लोग अवाक् रह गए. मगर बाहर से आंगन की तरफ आता चुन्नीलाल का छोटा बेटा पल्लू का धैर्य जाता रहा. पंडितजी का आखिरी कहा शब्द उस के हृदय में भाले की तरह चुभा था इसलिए वह भी युद्ध के मैदान में कूद पड़ा.

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पंडितजी की तरफ पल्लू झपट्टा मार कर गरजते हुए बोला, ‘‘सौ जूते मारो इस ढोंगी पंडित को. इस ने अपने आप को समझ क्या रखा है?’’

इसी के साथ हाथ में चप्पल ले कर पल्लू पंडितजी पर टूट पड़ा.

बात एकदम उलटी हो गई. पंडितजी का ब्रह्मास्त्र उन्हीं पर बज्र बन कर गिर पड़ा था. सेर को सवा सेर मिल गया था. पंडितजी इस युद्ध में चारों खाने चित हो चुके थे. तभी पल्लू और पंडितजी के बीच मुन्नीलाल और चुन्नीलाल आ गए. एक ने पल्लू की कमर पकड़ी तो दूसरे ने हाथ पकड़े और मौका देख कर पंडित रामसनेही बिना झोला उठाए और चप्पलें पहने अपनी जान हथेली पर रख कर त्वरित गति से एक प्रशिक्षित धावक की तरह संकटमोचन का नाम मन में ले कर भागे तो जा कर घर की चौखट पर ही रुके. उन के कानों में मोबाइल की घंटी तो नहीं अपने ही दिल की धड़कन सुनाई दे रही थी, जो किसी धौंकनी की रफ्तार से धड़क रही थी.

पंडित रामसनेही का झोला, पुस्तकें, 500 रुपए और उन की चप्पलें शहर में लगे कर्फ्यू की तरह आंगन में अनाथ पड़ीं अपनी कहानी बयां कर रही थीं.

Short Story: महिला सशक्तीकरण के 3 तल्ले

पूरे देश में महिलाओं का सशक्तीकरण आंदोलन जोरशोर से चल रहा था. कहीं छोटीछोटी गोष्ठियों तो कहीं बड़ीबड़ी सभाओं के द्वारा महिलाओं को सशक्तीकरण के लिए जाग्रत किया जा रहा था. एक दिन हम भी महिला सशक्तीकरण आंदोलन की अध्यक्षा नीलम का भाषण सुनने उन की सभा में पहुंच गए. यह तो अनादिकाल से ही चला आ रहा है कि जहां महिलाएं हों, उन के पीछेपीछे पुरुष पहुंच ही जाते हैं. लेकिन हम इस परंपरा के तहत महिलाओं की सभा में नहीं पहुंचे थे. हमें तो अपने लेख के लिए कुछ सामग्री चाहिए थी, जो जीवंत सत्य और यथार्थपरक हो.

नीलम मंच से कह रही थीं, ‘‘बहनो, इस पुरुष जाति ने युगोंयुगों से हम पर अत्याचार किए हैं. कभी अहिल्या को शाप दे कर शिला बना दिया, तो कभी सीता को घर से निकाल दिया. हद तो तब हो गई बहनो, जब भरी सभा में कौरवों ने द्रौपदी का चीरहरण कर लिया. बहनो, इस पुरुषप्रधान समाज में आज भी यही हो रहा है. हम इसे बरदाश्त करने वाली नहीं. क्या बहनो, हमें यह सब बरदाश्त करना चाहिए?’’ ‘‘नहींनहीं बिलकुल नहीं,’’ भीड़ से जोरदार आवाज आई. फिर जोरदार तालियां बजीं. कुछ महिलाओं ने खड़े हो कर ‘नीलम जिंदाबाद’, के नारे भी लगाए.

‘‘बहनो, दुख तो इस बात का है कि इन मर्दों ने आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे का बना रखा है. कोई 4 बीवियां रखने का अधिकार रखता है, तो कोई चुटकी बजाते ही तलाक दे देता है. बहनो, तुम्हीं बताओ हमें 4 पति रखने का अधिकार क्यों नहीं? महंगाई के इस जमाने में एक पति की आमदनी से ढंग से घर का खर्च चलता है क्या? 4 पति होंगे तो हमें 4 गुना खर्च करने को मिलेगा कि नहीं? हमें सरकार के सामने यह मांग रखनी चाहिए कि औरत को भी एक से अधिक पति रखने का कानूनी अधिकार मिलना चाहिए.’’

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नीलम की यह बात सुन कर हमें लगा कि ये बहक गई हैं. अब इन का विरोध होगा. लेकिन हमारी सोच के विपरीत भीड़ से उन को जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ. एक दबंग महिला ने उठ कर कह ही दिया, ‘‘बिलकुल ऐसा होना चाहिए. जिन के पति कम कमाते हैं उन्हें तो तुरंत एक पति और कर लेना चाहिए.’’

उस दबंग महिला की बात सुन कर वहां खड़े अनेक मर्द वहां से इसलिए खिसक लिए कि कहीं उन की पत्नी दूसरे पति की तलाश में तो नहीं निकल पड़ी. नीलम के क्रांतिकारी विचारों को सुन कर अपना दिल उन का साक्षात्कार लेने को मचल उठा. हम शाम को ही उन के घर पहुंच गए. उन्होंने अपने पति का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘इन से मिलिए, ये मेरे दूसरे पति हैं. ये पहले मेरे स्टैनो हुआ करते थे. पहले पति को तलाक देने के बाद मैं ने इन से प्रेम विवाह कर लिया. मेरा बड़ा बेटा बस इन से 4 साल छोटा है.’’

महिला सशक्तीकरण की बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘देखिए भाई साहब, समाज में महिलाओं के साथ कितना अन्याय हो रहा है. बालिका भू्रण हत्या, अबोध बालिकाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं, शिक्षा में भेदभाव, नौकरियों में भेदभाव, धर्म के नाम पर बुरके से ढांकना, यह सब अन्याय और अत्याचार नहीं तो और क्या है? यह सब बंद होना चाहिए.’’

हम नीलम के विचारों से बड़े प्रसन्न हुए. फिर हम ने पत्रकार के अंदाज में पूछा, ‘‘लेकिन नीलमजी, यह सब कैसे होगा?’’

‘‘यह सब होगा. महिलाओं को जागरूक कर के होगा. उन्हें शिक्षा प्रदान कर के होगा. हर बालिका को स्कूल भेज कर होगा.’’

उसी समय एक 12-13 साल की लड़की वहां कपप्लेट उठाने के लिए आई. जब हम ने नीलमजी से उस के बारे में पूछा तो वे बोलीं, ‘‘नौकरानी की बेटी है. जिस दिन वह बीमार पड़ती है, तो अपनी बेटी को काम पर भेज देती है. अब इन नौकरों की क्या कहें, बड़े नालायक होते जा रहे हैं. कुछ काम तो करना नहीं चाहते, पढ़नालिखना तो बहुत दूर की बात है. इन जाहिलों को कोई नहीं सुधार सकता.’’ नीलमजी का असली चेहरा हमारे सामने आ गया था. अब हम ने वहां से उठना ही बेहतर समझा. लेकिन हम ने यह सोच लिया था कि महिलाओं के सशक्तीकरण आंदोलन की तह में पहुंच कर ही रहना है. आखिर देशविदेश में इतने आंदोलन होने के बावजूद महिलाएं सशक्त क्यों नहीं बन सकीं? हमारे कविगणों को यह कहने के लिए मजबूर क्यों होना पड़ा कि अबला तेरी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी?

शहरों से अधिक हमारी आबादी गांवों में बसती है, इसलिए हम चल पड़े गांव की ओर. भरी दोपहरी में एक आम के पेड़ की छांव मेंएक चौधराइन चौधरी को दोपहर का खाना खिला रही थीं. चौधरी हाथ पर रोटी रखे बड़े मजे से आम की चटनी के साथ खा रहे थे. हमें देख कर कुछ सकपका गए, ‘अतिथि देवो भव:’ का खयाल कर के उन्होंने हमें छांव में बैठने की जगह दी.

फिर पूछा, ‘‘तो क्या सेवा करूं थारी?’’

‘‘चौधरी साहब, महिला सशक्तीकरण पर मैं चौधराइनजी से कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं.’’

चौधरी ने चौधराइन से कहा, ‘‘चौधराइन, ये शहरी बाबू शक्तिवक्ति पर कुछ पुच्छड़ चाहें, बता दिए कुछ इन्हें.’’

‘‘बताओ तो क्या बताऊं?’’ चौधराइन हम से बोलीं, तो हम ने 10-15 मिनट चौधराइन को विषय समझाया.

तब चौधराइन बोलीं, ‘‘देखो शहरी बाबू, बड़ीबड़ी बातें तो हमारी समझ में न आवें. हम तो इतना जाणे कि हमारा मरद चाहे हमें कितना भी मारेछेत्ते, है तो वह अपना ही. घर में 4 बरतन हों तो खड़केंगे ही. शहरवालियों को मैं कुछ न कैती, वे तो फैशन करे घूमे सै. कोईकोई तो कईकई खसम रखे सै. हम तो अपने मरद के खूंटे से बंधीं सै. अरे हां, हमारे मरद के खिलाफ कुछ न कहयो, नहीं तो हम से बुरी कोई न होवे.’’

‘‘अरी तू बावली होरी सी? वे तेरे सै बात करणे की खातिर आए और तू झगड़ा कर रई. ले उठा अपने बरतनभांडे और जा घर कू. और शहरी बाबू तुम बुरा मत मानियो इस की बातों का. हम गांव वाले क्या जानें इन सब बलाओं को, जो सरकार कर दे वही ठीक है.’’

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चौधराइन हमें खरीखरी सुना कर चली गई थीं. ऐसा लगता था कि वे गांव में बसने वाली 70% महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थीं. चौधराइनजी की बातें सुन कर हमें नीलमजी की बातें फीकी लगने लगी थीं. अब हम ने कालेज गोइंग छात्रा के विचार लेना भी जरूरी समझा. आखिर वे हमारे देश की भावी पीढ़ी का नेतृत्व करने वाली में से हैं, जो एक बहुत बड़ा तबका है. इन्हीं के हाथों में भावी महिला समाज है. अकस्मात हमारी मुलाकात एक विश्वविद्यालय की छात्रा से हो गई. महिला सशक्तीकरण शब्द का प्रयोग करने पर उस ने हमें अनपढ़ समझा. महिला सशक्तीकरण का सही उच्चारण न कर पाने के कारण उस ने अंगरेजी की बैसाखी का सहारा लिया और कहा, ‘‘सर, यू नो, वूमन इंपावरमैंट तो तभी होगा न जब हम को बिलकुल फ्री कर दिया जाएगा. यू नो, वी आर ऐवरीवेयर इन बाउंडेशन. उस की चेन को तोड़ना होगा. लड़की किस से मैरिज करना चाहती है, यह मौम और डैड का मैटर नहीं होना चाहिए. यू नो, लाइफ पार्टनर के साथ तो हमें रहना है, मौम और डैड को तो नहीं.’’

मुझे छात्रा की बातों में दम नजर आ रहा था. वह आगे बोली, ‘‘सैकंड थिंग इज दिस, हर वूमन को अपने पैरों पर जरूर स्टैंड करना चाहिए. यदि हसबैंड धोखा देना चाहे तो उस के धोखा देने से पहले हमें उसे किक आउट कर देना चाहिए. यह तभी होगा जब हम सैल्फ डिपैंड होंगी. जहां तक संबंधों की बात है यह हमारा निजी मामला है यानी पर्सनल मैटर. हम किस से संबंध बनाएं यह हमारी मरजी. मैं खुद लिव इन रिलेशनशिप में रह रही हूं. किसी को इस बात से क्या परेशानी जब मेरी मौम और डैड को कोई प्रौब्लम नहीं? मेरी मौम और डैड को मेरे बारे में सब पता है. हम एकदूसरे से कुछ भी छिपा कर नहीं रखते. सब बातों पर खुल कर चर्चा करते हैं. यही तो है वूमन इंपावरमैंट.’’

हम उस छात्रा के खुलेपन और जिंदादिली के कायल हो गए. उस से मुलाकात कर हम महिला सशक्तीकरण आंदोलन के तीसरे तल्ले तक पहुंच चुके थे, जिस का वर्णन हम ने आप के सामने कर दिया. मेरी दृष्टि में तीनों तल्लों की महिलाओं ने अपने स्तर से सशक्त प्रदर्शन किया. आप को किस के विचार अच्छे लगे? इस प्रश्न को आप पर छोड़ता हूं एक सार्थक बहस के लिए. प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.

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Short Story: बहारो वायरस बरसाओ…

आजकल हमें उतना डर स्वाइन फ्लू, आई फ्लू और बर्ड फ्लू से नहीं लग रहा जितना हम वाइफ फ्लू से परेशान हैं. बाकी फ्लू तो देरसबेर दवा लेने से ठीक हो जाते हैं, लेकिन वाइफ फ्लू की आज तक कोई दवा ही नहीं बन पाई है.

और तो और कुंआरेपन में हमें मूंछें रखने का बहुत शौक था, लेकिन सुहागरात को ही वाइफ ने पहला वार मूंछों पर ही किया और साफसाफ शब्दों में कह दिया कि देखोजी, आज के बाद तुम्हारे चेहरे पर मूंछें नहीं दिखनी चाहिए.

हम ने इसे कोरी धमकी समझा, लेकिन अगली सुबह सो कर उठने के बाद जब ब्रश करने गए तब आईने में मूंछविहीन चेहरा देख कर हम सहम गए और समझ गए कि यह वाइफ जो कहती है, उसे कर के भी दिखा देती है, इसलिए अपनी भलाई इसी में है कि अब बाकी की जिंदगी वाइफदास बन कर गुजारी जाए.

अगली सुबह हम अभी आधा घंटा और सोने के मूड में थे, तभी गरजती हुई आवाज आई, ‘‘देखोजी, यह सोनावोना बहुत हो गया, मैं उन पत्नियों में से नहीं हूं, जो सुबह से शाम तक अकेले ही घर में खटती रहती हैं, चलो उठो…पानी आ गया है, पानी भरो, इस के बाद सब्जी लेने जाओ और हां, दूध भी लेते आना.’’

इस के बाद थोड़े प्यार से बोली, ‘‘तुम चाय बना कर लाना अपन साथसाथ पिएंगे.’’

अभी तक तो हम कुछ समझ नहीं पाए थे, लेकिन फिर ऐसा लगा कि हमें वाइफ फ्लू ने जकड़ लिया है, जो कभी गरमी के साथ चढ़ता है तो कभी ठंड के साथ उतरता है…वाइफ को देखते ही हमारे बदन में झुरझुरी सी फैल जाती है.

अब हमारे लिए यह शोध का विषय हो गया कि आखिर यह वाइफ फ्लू होता क्या है? यह क्यों आता है? इस के लक्षण क्या हैं और इस के वायरस कहां से फैलते हैं?

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सीधी सी बात है, वाइफ फ्लू शादी के बाद होता है. अब यह हसबैंड की शक्ति पर निर्भर करता है कि वह वाइफ फ्लू को कितना झेल पाता है. वाइफ फ्लू से एक बार पीडि़त होने के बाद ताजिंदगी इस की गिरफ्त में रहना पड़ता है.

लगातार वाइफ फ्लू की चपेट में आने के बाद हसबैंड हमेशा डराडरा सा रहने लगता है, उस की आंखें नीची रहती हैं, बोलने की शक्ति क्षीण होती जाती है, परंतु श्रवणशक्ति बढ़ जाती है. इसी के साथ उस का ब्लडप्रैशर एकदम बढ़ जाता है.

ऐसे मरीज ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर गुजारने लगते हैं तथा बद से बदतर स्थितियों में भी जीने का जज्बा रखते हैं. वाइफ  फ्लू से पीडि़त मरीजों में काम करने की आदत सी पड़ जाती है और उन्हें थकान कम महसूस होती है.

कोल्हू के बैल की तरह काम करते हुए वे वाइफ से प्रशंसा पाने के भूखे रहते हैं. ऐसे हसबैंडों को गुस्सा कम आता है, लेकिन ये मन ही मन कुढ़ते रहते हैं.

इस फ्लू के वायरस शादीब्याह के समय बरात आदि की जगहों पर बहुतायत से पाए जाते हैं और कुंआरे लड़कों पर एकदम अटैक करते हैं.

ये वायरस पहले मीठे सपने दिखाते हैं, फिर सपने साकार करने की ललक जगाते हैं और उस के बाद जिंदगी भर रोने का कारण बन जाते हैं.

हमारी शादी के समय भी जब हमें हमारी भाभी ने, इशारे से उस कमसिन, नाजुक सी लड़की को दिखाते हुए हमारे अरमान जगाए थे तब हम हवा में ऐसे उछले थे कि सीधे उसी के पास जा कर गिरे थे.

लेकिन हम ने अपने दोस्तों को वाइफ फ्लू से जूझते देखा था, इसलिए दूरी बनाने की कोशिश करने लगे. तब उस ने बड़ी नजाकत के साथ कहा था, ‘‘तुम तो जी मुझ से ऐसे डर रहे हो जैसे मैं कोई वायरस हूं. अरे, भौंरा भी मुहब्बत में अपनेआप को कुरबान कर देता है, तो फिर तुम तो इंसान हो. हमारी मुहब्बत की कीमत समझा करो.’’

उस ने जिस अंदाज में ये सब बातें कही थीं, उस से हम भौंरे की तरह उस के आगेपीछे घूमने लगे थे.

‘‘बहारो वायरस बरसाओ, मेरा हसबैंड आ रहा है…’’ हमारी होने वाली वाइफ जोरजोर से यह गाना गाने लगी.

खैर, जनाब शादी तो होनी थी, सो हो गई और हम लगातार वाइफ फ्लू से जकड़ते गए. जब हम वाइफ फ्लू से बचने के उपायों पर विचार करने लगे तब हम ने पाया कि वाइफ फ्लू से पीडि़त हसबैंड को हमेशा अपनी वाइफ की तारीफ करने की ऐंटीबायोटिक्स डोज लेते रहना चाहिए. इस में कमी होने पर ये वायरस तेजी से हमला करते हैं.

जब वाइफ बनठन कर बाजार जाए तब एक कंधे पर सामान वाला झोला और दूसरे पर बच्चों को लादने में देर नहीं करनी चाहिए. जब वाइफ किसी सामान को पसंद कर रही हो एवं मोलभाव कर रही हो तब बीच में टांग नहीं अड़ानी चाहिए. हसबैंड को तो बस जेब में भरपूर पैसा रखना चाहिए और उसे खर्च करने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए.

वाइफ फ्लू से पीडि़त हसबैंड को अपने बचाव के लिए सुबह से शाम तक ‘वाइफाय नम:’ का जाप करते रहना चाहिए और अपने दिन की शुरुआत राशिफल देख कर करनी चाहिए.

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यदि दिन अच्छा नहीं हो तो उस दिन वाइफ के बेलन से डरते रहना चाहिए और यदि दिन अच्छा हो तो समझिए कि खाली डांटडपट से जान छूट जाएगी.

वाइफ फ्लू पर हमारा शोध जब चरमसीमा पर था, तभी एक गरजती आवाज से हम सहम गए.

‘‘चलो जल्दी उठो, बहुत आलसी हो गए हो. आज इतवार है और सुबह से शाम तक के सारे काम तुम्हारे ही जिम्मे हैं…’’

तभी हमें छींक आ गई, तो उस ने कहा, ‘‘सुनोजी, ऐसा लगता है, तुम्हें स्वाइन फ्लू के वायरसों ने जकड़ लिया है, जल्दी से डाक्टर के पास जाओ.’’

हम ने कहा, ‘‘अरे, जो सालों से वाइफ फ्लू से लड़ रहा हो, उस के लिए यह स्वाइन फ्लूव्लू कुछ नहीं है.’’

तभी हमारी कामवाली रमिया ने आगे आ कर बड़े प्यार से कहा, ‘‘ओ साब, तुम जल्दी से स्वाइन फ्लू का इलाज करवा लो, यह बहुत खतरनाक है. इस से तुम को डर नहीं लगे पर अपुन को लगता है. मैं यह काम छोड़ कर चली जाऊंगी. फिर मेरे वाले काम भी तुम को ही करने होंगे. सही माने में साब, अपुन तुम्हारे ऊपर ही तो तरस खाती है…’’

वाइफ फ्लू वाले हमारे जख्मों पर रमिया ही मरहम लगाती रहती है यानी वाइफ फ्लू के वायरस को कम करने का एकमात्र सहारा रमिया ही है, क्योंकि जब हम उस के साथ बरतन मंजवाते, कपड़े धुलवाते तब वाइफ हमें हटा कर खुद काम करने लगती, इसलिए हम उस की बात नहीं टाल सके और डाक्टर के पास गए. डाक्टर ने हमारा चैकअप करने के बाद लंबेचौड़े परचे पर स्वाइन फ्लू की जगह वाइफ फ्लू से पीडि़त लिख कर परचा हमें थमा दिया और बताया कि इस वायरस का प्रभाव पति या पत्नी में से किसी एक के चले जाने पर स्वयं ही समाप्त हो जाता है, इसलिए सहने और झेलने की आदत ही इस का उपचार है.

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Short Story: नैगेटिव से पौजिटिव

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

रीती जब कोरोना टेस्ट के लिए कुरसी पर बैठी, तब उस के हाथपैर कांप रहे थे और आंखों के सामने अंधेरा सा छा रहा था.

एक बार कुरसी पर बैठने के बाद रीती का मन किया कि वह भाग जाए… इतनी दूर… इतनी दूर कि उसे कोई भी न पकड़ सके… ना ही कोई बीमारी और ना ही कोई दुख… मन में दुख का खयाल आया तो रीती ने अपनेआप को मजबूत कर लिया.

“ये सैंपल देना… मेरे दुखों को झेलने से ज्यादा कठिन तो नहीं,” रीती कुरसी पर आराम से बैठ गई और अपनेआप को डाक्टर के हवाले कर दिया… ना कोई संकोच और ना ही कोई झिझक.

सैंपल देने के बाद रीती आराम से अकेले ही घर भी वापस आ गई थी. हाथपैर धोने के बाद भी कई बार अपने ऊपर सेनेटाइज किया और अपना मोबाइल हाथ में ले लिया और सोफे में धंस गई.

सामने दीवार पर रीती के पापा की तसवीर लगी हुई थी, जिस पर चढ़ी हुई माला के फूल सूख गए थे. अभी उन्हें गए हुए 10 दिन ही तो हुए हैं, कोरोना ने उन जैसे जिंदादिल इनसान को भी अपना निवाला बना लिया था.

रीती यादों के धुंधलकों में खोने लगी थी.

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पापा की बीमारी का रीती को पता चला था, तब उन से मिलने जाने के लिए वह कितना मचल उठी थी, पर अमन इस संक्रमण काल में रीती के उस के मायके जाने के सख्त खिलाफ थे, पर रीती समझ चुकी थी कि हो सकता है कि वह फिर कभी पापा को न देख सके, इसलिए उस ने अमन की चेतावनी की कोई परवाह नहीं की… और वैसे भी अमन कौन सा उस की चिंता और परवाह करते हैं जो रीती करती. इसलिए वह लखनऊ से बरेली अपने मायके पापा के पास पहुंच गई थी, पर पापा की हालत बहुत खराब थी. एक तो उन की उम्र, दूसरा अकेलापन.

पापा ने अपना पूरा जीवन अकेले ही तो काटा था, क्योंकि रीती की मां तो तब ही मर गई थी, जब वह केवल 10 साल की थी. और फिर पापा ने अकेले ही रीती की देखभाल की थी और उन के उसी निर्णय के कारण आज वे अकेले थे.

रीती गले से लग गई थी पापा के. पापा ने उसे अपने से अलग करना चाहा तो भी वह उन्हें जकड़े रही थी. बापबेटी अभी एकदूसरे से कुछ कहसुन भी न पाए थे कि अस्पताल से पापा के पास फोन आया कि उन की रिपोर्ट पौजिटिव आई है, इसलिए वे अपनेआप को घर में ही आइसोलेट कर लें, क्योंकि शहर के किसी अस्पताल में बेड और जगह नहीं है.

पापा रीती के पास से उठ खड़े हुए मानो उस से दूर जाना चाहते हों और दूसरे कमरे में चले गए.

पूरे एक हफ्ते तक रीती पापा के साथ रही. घरेलू नुसखों से इलाज करना चाहा, पर सब बेकार रहा. पापा को कोरोना निगल ही गया.

रीती लखनऊ वापस तो आई, पर अमन ने घर में घुसने नहीं दिया. अंदर से ही गोमती नगर वाले फ्लैट की चाभी फेंकते हुए कहा, “अपनी जांच करा लो और नैगेटिव हो तभी आना.”

अपने प्रति ऐसा तिरस्कार देख कर एक वितृष्णा से भर गई थी रीती. हालांकि अमन को कभी भी उस की जरूरत नहीं रही, ना ही उस के शरीर की और ना ही उस के मानसिक सहारे की. इस से पहले भी अमन और उस का रिश्ता सामान्य नहीं रहा. शादी के बाद पूरे एक हफ्ते तक अमन रीती के कमरे में ही नहीं गए, फिर एक दिन बड़े गुस्से में अंदर आए, उन की आंखों में प्यार की जगह नफरत थी.

वे शादी के समय हुई तमाम कमियों के शिकवेशिकायत ले कर आए और पूरी रात ऐसी बातों में ही गुजार दी.

कुछ दिन बाद अमन ने रीती को बताया कि वह उस से किसी तरह की उम्मीद न रखे, क्योंकि वह अपनी एक सहकर्मी से प्रेम करता है और रीती से उस की शादी महज एक समझौता है, जो अमन ने अपने मांबाप को खुश रखने के लिए किया है.

“हुंह… पुरुष अगर दुश्चरित्रता करे तो भी माफ है और अगर औरत अपने परिवार के खिलाफ जाए तो वह कुलटा और चरित्रहीन कहलाती है.”

मन ही मन में सोच रही थी रीती.

हालांकि अमन के अफेयर की बात कितनी सच थी, ये वह नहीं जान पाई थी, मगर कुछ दिन बाद अमन की हरकतों से इतना तो रीती जान गई थी कि अमन एक पुरुष के जिस्म में तो था, पर उस के अंदर पौरुष की शक्ति का अभाव था… शायद इसीलिए अमन ने रीती को खुद से ज्यादा उम्मीदें न लगाने के लिए अफेयर वाली बात बताई थी.

समझौता तो रीती ने भी किया था अमन से शादी करने का. वह शादी नहीं करना चाहती थी, पर पापा थे जो आएदिन उस की शादी के लिए परेशान रहते. रीती लड़कों का नाम सुन कर परेशान हो जाती. कोई भी लड़के उसे आकर्षित क्यों नहीं करते थे, हां, विश्वविद्यालय में पढ़ते समय कैंपस में कुछ लड़कियों की तरफ सहज ही खिंच जाती थी रीती, खासतौर से खेलकूद में रहने वाली मजबूत काठी की लड़कियां उसे बहुत जल्दी अपनी ओर आकर्षित करती थीं. इसी तरह की एक लड़की थी सुहाना, लंबे कद और तीखे नैननक्श वाली. रीती को सुहाना से प्यार होने लगा था, वह अपना बाकी का जीवन सुहाना के ही साथ बिताना चाहती थी.

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ये बात बीए प्रथम वर्ष की थी, जब सुहाना को देखा था रीती ने और बस पता नहीं क्यों उस से बात करने का मन करने लगा, जानपहचान बढ़ाई. पता चला कि सुहाना भी लड़कियों के होस्टल में रहती है. सुहाना सुंदर थी या नहीं, ये बात तो रीती के लिए मायने ही नहीं रखती थी. उसे तो बस उस के साथ होना भाता था, कभीकभी पार्क में बैठेबैठे सुहाना के हाथ को अपने हाथ में पकड़ कर बातें करना रीती को अच्छा
लगता.

जाड़े की एक दोपहर में जब दोनों कुनकुनी धूप में बैठे हुए थे, तब सुहाना के सीने पर अपनी कोहनी का दबाव बढ़ा दिया था रीती ने, चिहुंक पड़ी थी सुहाना, “क…क्या कर रही है रीती?”

“अरे कुछ नहीं यार. बस थोड़ी सी एनर्जी ले रही हूं,” हंसते हुए रीती ने कहा, तो बात आईगई हो गई.

हालांकि अपनी इस मानसिक और शारीरिक हालत से रीती खुश थी, ऐसा नहीं था. वह भी एक सामान्य जीवन जीना चाहती थी, पर एक सामान्य लड़की की तरह उस के मन की भावनाएं नहीं थीं.

अपनी इस हालत के बारे में जानने के लिए रीती ने इंटरनेट का भी सहारा लिया. रीती ने कई लेख पढ़े और औनलाइन डाक्टरों से भी कंसल्ट किया.

रीती को डाक्टरों ने यही बताया कि उस का एक लड़की की तरफ आकर्षित होना एक सामान्य सी अवस्था है और इस दुनिया में वह अकेली नहीं है, बल्कि बहुत सी लड़कियां हैं, जो लैस्बियन हैं और रीती को इस के लिए अपराधबोध में पड़ने की आवश्यकता नहीं है.

सुहाना के प्रति रीती का प्रेम सामान्य है, ये जान कर रीती को और बल मिला. रीती अपना बाकी का जीवन सुहाना के नाम कर देना चाहती थी, पर उन्हीं दिनों सुहाना के साथ एक लड़का अकसर नजर आने लगा.

एक लड़के का इस तरह से सुहाना के करीब आना रीती को अच्छा नहीं लग रहा था, पर सुहाना… सुहाना भी तो उस लड़के की तरफ खिंचाव सा महसूस कर रही थी, एक प्रेम त्रिकोण सा बनने लगा था उन तीनों के बीच, जिस के दो सिरों पर तो एकदूसरे के प्रेम और खिंचाव का अहसास था, पर तीसरा बिंदु तो अकेला था और वह बिंदु अपना प्रेम प्रदर्शित करे भी तो कैसे? पर, रीती ने सोच लिया था कि वो आज सुहाना से अपने प्रेम का इजहार कर देगी और अपना बाकी का जीवन भी उस के साथ बिताने के लिए अपनेआप को समर्पित कर देगी.

“व्हाट…? हैव… यू गौन मैड… तुम जा कर अपना इलाज करवाओ और आज के बाद मेरे करीब मत आना,” सुहाना चीख रही थी और उस का बौयफ्रैंड अजीब नजरों से रीती को घूर रहा था और रीती किसी अपराधी की तरह सिर झुकाए खड़ी रही, और जब उसे कुछ समझ नहीं आया, तो वहीं पर धम्म से बैठ गई थी. सुहाना और उस का बौयफ्रैंड उसे छोड़ कर वहां से चले गए.

अगले दिन पूरे विश्वविद्यालय में रीती के लैस्बियन होने की बात फैल गई थी. कैंपस में लड़के उस पर फिकरे कसने लगे थे, “अरे तो हम में क्या बुराई है? कुछ नहीं तो एक किस ही दे दे.”

“अरे ओए सनी लियोन… हमें भी तो वो सब सिखा दे…”

रीती को ये सब बुरा लगने लगा था. अगर सुहाना को उस का साथ नहीं चाहिए था, तो साफ मना कर देती… पूरे कैंपस में सीन क्रिएट करने की क्या जरूरत थी… आज सब लोग उस पर हंस रहे हैं… इतनी बदनामी के बाद रीती को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? लड़कों और लड़कियों के ताने उसे जीने नहीं दे रहे थे… उस के पास अब विश्वविद्यालय और होस्टल छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था.

आज की क्लास उस की आखिरी क्लास होगी और फिर आज के बाद विश्वविद्यालय में कोई रीती को नहीं देखेगा… उस के बाद आगे रीती क्या करेगी? पापा से पढ़ाई छोड़ देने के बारे में क्या कहेगी? खुद उसे भी पता नहीं था.

अपने होस्टल के कमरे में रीती तेजी से अपना सामान पैक कर रही थी. उस के मन में सुहाना के प्रति भरा हुआ प्यार अब भी जोर मार रहा था.

रीती के दरवाजे पर दस्तक हुई. रीती ने आंसू पोंछ कर दरवाजा खोला तो देखा कि एमए की एक छात्रा उस के सामने खड़ी थी. वह रीती को धक्का दे कर अंदर आ गई और बोली, “क्या कुछ गलत किया है तुम ने? जो इस तरह अपनेआप से ही शर्मिंदा हो रही हो… और ये विश्वविद्यालय छोड़ कर जा रही हो…”

रीती अर्शिया नाम की उस लड़की को प्रश्नसूचक नजरों से देखने लगी. अर्शिया ने आगे रीती को ये बताया कि लैस्बियन होना कोई गुनाह नहीं है, बल्कि एक सामान्य सी बात है. प्रेम में सहजता बहुत आवश्यक है और फिर आजकल तो लोग लाखों रुपये खर्च कर के अपना जेंडर बदल रहे हैं. लोग बिना शादी किए सेरोगेसी के द्वारा बच्चों को गोद ले रहे हैं और फिर हम तो प्यार ही फैला रहे हैं, फिर हम कैसे गलत हो सकते हैं?

अर्शिया की बातें घाव पर मरहम के समान लग रही थीं रीती को.

“हम… तो क्या मतलब, तुम भी लैस्बियन हो,” रीती ने पूछा.

“हां… मैं एक लैस्बियन हूं, पर मुझे तुम्हारी तरह समलैंगिक कहलाने में कोई शर्म नहीं आती है, बल्कि मैं अपनी इस पहचान को लोगों के सामने रखने में नहीं हिचकती… आखिर हम किसी का रेप नहीं करते, किसी का मर्डर नहीं करते…फिर हमें शर्म कैसी?” अर्शिया ने अपनी बात कह कर रीती को बांहों में भर लिया और रीती ने भी पूरी ताकत से अपनी बांहें अर्शिया के इर्दगिर्द डाल दीं.

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उस दिन के बाद से पढ़ाई पूरी होने तक अर्शिया और रीती एक ही साथ रहीं.
कुछ महीनों के बाद अर्शिया की नौकरी मुंबई में एक मल्टीनेशनल कंपनी में लग गई थी. वह जाना तो नहीं चाहती थी, पर जीविका और कैरियर के नाम पर उसे जाना पड़ा. पर अर्शिया जल्दी वापस आने का वादा कर के गई थी और लगभग हर दूसरे दिन फोन करती रही.

रीती के पापा ने उस की शादी तय कर दी थी. मैं किसी लड़के से शादी कर के कैसे खुश रहूंगी? मैं एक समलैंगिक हूं, ये बात मुझे पापा से बतानी होगी, पर पापा से एक लड़की अपने लैस्बियन होने की बात कैसे बता सकती है? और रीती भी कोई अपवाद नहीं थी. सो, उस ने मोबाइल को अपनी बात कहने का माध्यम बनाया और पापा के व्हाट्सएप नंबर पर एक मैसेज टाइप किया, जिस में रीती ने अपने लैस्बियन होने की बात कबूली और ये भी कहा कि वे उस की शादी किसी लड़के से न तय करें, क्योंकि ऐसा कर के वे उस की निजता और उस के जीवन के साथ खिलवाड़ करेंगे.

कई दिनों तक पापा घर नहीं आए और ना ही उन का कोई रिप्लाई आया. एक बाप भला अपनी बेटी के लैस्बियन होने पर उस को क्या जवाब देता…?

फिर एक दिन पापा का रिप्लाई आ गया, जिस में समाज की दुहाई देते हुए उन्होंने कहा था कि एक बाप होने के नाते लड़की की शादी करना उन की मजबूरी है, क्योंकि उन्हें भी समाज में और लोगों को मुंह दिखाना है. अपनी लड़की के समलैंगिक होने की बात अन्य लोगों को बता कर वे अपनी नाक नहीं कटवाना चाहते, इसलिए उसे चुपचाप शादी करनी होगी.

पापा की मरजी के आगे रीती कुछ न कह सकी और उस की शादी अमन से हो गई थी.

रीती की शादी और अर्शिया की नौकरी भी उन दोनों के बीच का प्रेम नहीं कम कर पाई थी. अर्शिया फोन और सोशल मीडिया के द्वारा रीती से जुड़ी हुई थी.

रीती अभी और पता नहीं कितनी देर तक पुरानी यादों में डूबी रहती कि उस का मोबाइल फोन बज उठा. अमन का फोन था. बोला, “सुनो… तुम्हारी कोरोना की रिपोर्ट पौजिटिव आ गई है. मुझ से दूरी बनाए रखना… और तुम गोमती नगर वाले फ्लैट में ही रहती रहना… और मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता. मैं अस्पताल में जांच कराने जा रहा हूं. क्या पता तुम ने मुझे भी संक्रमित तो नहीं कर दिया?”

आंसुओं में टूट गई थी रीती… वह कोरोना पौजिटिव आई थी इसलिए नहीं, बल्कि इसलिए कि उस के पति ने एक कायर की भांति व्यवहार
किया था. महामारी के समय जब उसे अपने पति से देखभाल और प्यार की सब से ज्यादा जरूरत थी, तब उस के पति ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया था…

दुख के इस समय में उसे अर्शिया की याद सताने लगी थी. भारी मन से उस ने अर्शिया का नंबर मिला दिया. अर्शिया का नंबर ‘नोट रीचेबल’ आ रहा था.

“अपना फोन अर्शिया कभी बंद नहीं करती, फिर आज उस का मोबाइल…” किसी अनिष्ट की आशंका में डूब गई थी रीती.

तकरीबन 2 घंटे के बाद अर्शिया के फोन से रीती के मोबाइल पर फोन आया.

“लौकडाउन के कारण मेरी कंपनी बंद हो गई है, इसलिए मैं तुझ से मिलने लखनऊ आ गई हूं. कैब कर ली है… अपने घर की लोकेशन व्हाट्सएप पर भेज दे. जल्दी से पहुंचती हूं, फिर ढेर सारी बातें होंगी,” खुशी की लहर रीती के मन को बारबार भिगोने लगी थी.

आज इतने दिनों के बाद वह अपने प्यार से मिलेगी, अपने सच्चे प्यार से, जो न केवल उस के जिस्म की जरूरत को समझती है, बल्कि उस के मानसिक अहसास को भी अच्छी तरह जानती है.

लोकेशन भेजते ही रीती को खुद के पौजिटिव होने की बात याद आई. उस ने तुरंत कांपते हाथों से संदेश टाइप किया, “मैं तो कोरोना पौजिटिव हूं…मुझ से दूर ही रहना… अभी मत आओ.”

“ओके,” अर्शिया का उत्तर आया.

एक बार फिर से अकेले होने के अहसास से दम घुटने सा लगा था रीती का. तकरीबन आधे के घंटे बाद कालबेल बजी.

“भला यहां कौन आ गया?” भारी मन से रीती ने दरवाजा खोला. सामने कोई था, जो पीपीई किट पहने और चेहरे पर मास्क और फेस शील्ड लगा कर खड़ा था.

उस की आवाज से रीती ने उसे पहचाना. वो अर्शिया ही तो थी. रीती ने चाहा कि वह उस के गले लग जाए, पर ठिठक सी गई.

“भला किसी अपने को कोई बीमारी हो जाती है तो उसे छोड़ तो नहीं दिया जाता…अब मैं आ गई हूं… अब मैं घर पर ही तेरा इलाज करूंगी,” अर्शिया ने घर के अंदर आते हुए कहा.

अर्शिया ने रीती की रिपोर्ट के बाबत औनलाइन डाक्टरों से भी कंसल्ट किया और घरेलू नुसखों का भी सहारा लिया और पूरी सतर्कता के साथ रीती की सेवा की.

जब हृदय में प्रेम फूटता है, तो किसी भी बीमारी को सही होने में ज्यादा समय नहीं लगता. रीती के साथ भी यही हुआ. सही समय पर उचित दवा और प्यारभरी देखभाल के चलते जल्दी ही रीती ठीक होने लगी और कुछ दिनों बाद उस की अगली कोरोना रिपोर्ट नैगेटिव आ गई
थी.

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आज उन दोनों के बीच कोई पीपीई किट नहीं थी. न जाने कितनी देर तक दोनों एकदूसरे से प्यार करते रहे थे.

“मैं अमन को तलाक देने जा रही हूं… पर, तुम्हें अपने से दूर नहीं जाने दूंगी,” रीती ने अर्शिया की गोद में लेटते हुए कहा.

“तो दूर जाना भी कौन चाहता है? पर, क्या समलैंगिक रिश्ते में रहने पर तुम्हें समाज से डर नहीं लगेगा ?” अर्शिया ने पूछा.

“तो समाज ने मेरा कौन सा ध्यान रखा है, जो मैं समाज का खयाल करूं… अब से मैं अपने लिए जिऊंगी… अभी तक तो मैं कितना नैगेटिव सोच रही थी… तुम्हारी संगत में आ कर पौजिटिव हुई हूं… और अब मैं इसे हमेशा अपने जीवन का हिस्सा बना कर रखूंगी,” दोनों ने एकदूसरे के हाथों को थाम लिया था. चारों ओर पौजिटिविटी का उजाला फैलने लगा था और रीती की सोच भी तो नैगेटिव से पौजिटिव हो गई थी.

Mother’s Day Special: मां-एक मां के रूप में क्या था मालिनी का फैसला?

‘‘तुम्हारी टैस्ट रिपोर्ट ठीक नहीं है, मालिनी. लगता है, अबोर्शन करवाना ही पड़ेगा.’’

‘‘क्या कह रही हो, डा. अणिमा. मां हो कर क्या मैं हत्यारिन बनूं?’’

‘‘इस में हत्या जैसी कोई बात नहीं है. तुम्हारे रोग का इलाज जरूरी है. अच्छी तरह सोच लो.’’

‘‘सोच लिया है, मैं ऐसी कोई दवा नहीं लूंगी जिस से गर्भ में पल रहे शिशु के विकास में बाधा आए.’’

‘‘तुम समझती क्यों नहीं, मालिनी,’’ बहुत देर से मौन बैठे हर्ष भी अब उत्तेजित हो गए थे.

‘‘सब समझती हूं मैं. मुझे कैंसर है. इस रोग के लिए दी जाने वाली दवाएं व रेडियोथेरैपी गर्भस्थ शिशु के लिए सुरक्षित नहीं हैं. लेकिन आप लोग अपना निर्णय मुझ पर मत थोपिए.’’

घर आ कर मालिनी ने कहा, ‘‘कल मम्मीपापा आ रहे हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं ऊपर के दोनों कमरों की सफाई करवा देता हूं,’’ हर्ष बोले.

अगले दिन ठीक समय पर मालिनी के मातापिता आ गए. बेटी को स्वस्थ, प्रसन्न देख कर उन्हें अच्छा लगा. मालिनी और हर्ष ने कुछ नहीं बताया था किंतु 2 दिन बाद डा. अणिमा से उन की मुलाकात हो गई. मालिनी के कैंसर की जानकारी उन्हें डाक्टर से मिली तो उन की आंखों के आगे तो मानो अंधेरा ही छा गया.

‘‘कैसी हो, मां?’’

‘‘ठीक हूं. थोड़ी देर मेरे पास बैठो, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘कहिए मां.’’

‘‘देखो बेटी, मैं ने हमेशा तुम्हारा सुख चाहा है. हर्ष से तुम ने प्रेम विवाह किया, हम बाधक नहीं बने. अब समय है कि तुम हमारा मान रखो. सबकुछ जान कर हम तटस्थ तो नहीं रह सकते. डाक्टर कहेंगी तो हम इलाज के लिए तुम्हें अमेरिका ले चलेंगे.’’

‘‘आप की चिंता, आप की भावना मैं समझती हूं मां. दुनिया की कोई भी मां अपनी संतान के हित के लिए किसी भी हद तक जा सकती है,’’ अपने शब्दों पर जोर देते हुए मालिनी ने कहा, ‘‘पर मेरे मन की बात कोई समझना ही नहीं चाहता. मैं खुद भी मरना नहीं, जीना चाहती हूं मां,’’ इतना कहने के साथ ही मालिनी की आंखें बरसने लगी थीं. गर्भ में पल रहे शिशु का एहसास पा कर मैं निहाल हूं. मेरे बच्चे को संसार में आने दीजिए. वैसे भी एक दिन मरना तो है ही, फिर इतना बवाल क्यों?’’

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‘‘डा. अणिमा तुम्हारी दोस्त हैं, उन की सलाह तो तुम मानोगी ही.’’

‘‘नहीं मां, इस मामले में मैं अपनी आत्मा की आवाज सुनूंगी और उसे ही मानूंगी.’’

खुले माहौल में पलीबढ़ी मालिनी के पास स्वयं के अनेक तर्क थे. माता पिता उस का मन नहीं बदल पाए. वे हताशनिराश लौट गए. उन के जाने के बाद मालिनी की स्थिति देख कर डा. अणिमा ने एक नर्स का प्रबंध कर दिया था, परंतु हर्ष इतने से संतुष्ट नहीं थे. उन्होंने लखनऊ से अपनी मां को बुला लिया. सास ने मालिनी के रूप में अपनी बहू को सदैव हंसतेखिलखिलाते ही देखा था, इस बार वह बहुत उदास और कमजोर दिखी.

‘‘डाक्टर ने मालिनी के पेट में कैंसर बताया है,’’ हर्ष ने मां को बताया.

‘‘यह क्या कह रहे हो?’’

‘‘जो है, वही बता रहा हूं और

डा. अणिमा इलाज भी कर रही हैं. पर मालिनी इलाज करवाना नहीं चाहती. इलाहाबाद से उस के मातापिता आए थे. उन्होंने समझाया पर थकहार कर लौट गए.’’

‘‘समझ गई, बहू के शरीर में रोग का कहर है लेकिन मन में मां बनने की चाहत की. बेटा, तू चिंता मत कर, मैं समझाऊंगी उसे. मेरी बात वह नहीं टालेगी.’’

सास ने भी मालिनी को सब तरह से समझाया. मातापिता का हवाला दे कर उस का मन बदलना चाहा, पर वह नहीं मानी. छोटे से परिवार में शीतयुद्ध का सा वातावरण बन गया था. बहू के बिना घर की कल्पना भी उन्हें भयावह लगती, पर डा. अणिमा ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी.

डा. अणिमा बारबार उसे समझातीं, ‘‘मालिनी, जिंदगी केवल भावनाओं से नहीं चलती. जीवन तो कठोर धरातल पर चलने का नाम है. मुझे देखो, कैसेकैसे फैसले लेने पड़ते हैं. संतान तो इलाज के बाद भी हो सकती है. केवल तुम्हारी हां चाहिए, बाकी सब मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम चिंता मत करो, अणिमा. वैसे तुम्हारे इलाज से मैं ठीक हो ही जाऊंगी, इस की भी क्या गारंटी है?’’

‘‘गारंटी तो नहीं, लेकिन उम्मीद ठीक होने की ही है, क्योंकि रोग अभी शुरुआती दौर में है. क्लिनिक से लौट कर तुम से बात करूंगी, इस बीच तुम विचार कर लेना.’’

‘‘क्या कह रही थी डाक्टर?’’ परेशान हो कर हर्ष ने पूछा.

‘‘गर्भ में पल रहा शिशु बेटा होगा,’’ मजाक करते हुए मालिनी ने कहा, ‘‘हर्ष, चिंता की कोई बात नहीं है. तुम निश्ंिचत हो कर औफिस जाओ.’’

हर्ष औफिस चले गए. कमरे के एकांत में पलंग पर लेटी मालिनी चिंतन में खो गई. शादी के 10 वर्ष बाद संतान सुख की उम्मीद जागी तो उसी के साथ कैंसर का उपहार भी मिला. 40 वसंत देख चुकी हूं पर यह नन्हा तो अभी संसार में आया भी नहीं, दुनिया देखे बिना ही इसे कैसे लौटा दूं? स्वयं ही प्रश्नोत्तर करने लगी थी. शिशु की हत्या? यह नहीं हो सकेगा मुझ से. और इसी के साथ भावी सुख के सपने देखने लगी थी मालिनी.

डा. अणिमा की पहल पर कैंसर विशेषज्ञ डा. शुभा स्वामी से भी परामर्श लिया गया. परंतु मालिनी को इलाज के लिए तैयार नहीं किया जा सका. ठीक समय पर उस ने स्वस्थ सुंदर बालक को जन्म दिया.

गुलाबी रंगत में रंगे बालक को देख मानसिक खुशी में खोई मालिनी शारीरिक वेदना भूल गई. यह खुशी उस की कठोर तपस्या का परिणाम थी. कितना संघर्ष किया था उस ने इसे पाने के लिए.

शिशु का हंसना, रोना उस की छोटी सी किलकारी मालिनी की सांसों की डोरी दूर तक खींच ले जाती. समय ने उसे जो दिया था उस के लिए एहसानमंद थी वह.

धीरेधीरे सुहास हाथपैर हिलाना सीख रहा था. संसार में आंख खोलते ही शिशु मां की पहचान कर लेता है. पुत्र के जन्म के बाद मालिनी के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था. हर्ष भी अब उतने चिंतित नहीं थे. इलाज की तैयारी तो थी ही.

‘‘मालिनी, अगले माह औफिस से 1 साल का अवकाश ले रहा हूं. तुम्हारे इलाज में जरा भी ढील नहीं होनी चाहिए. सुहास को करुणा दीदी अपने साथ ले जाएंगी.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता,’’ मालिनी बोली, ‘‘मेरे जिगर का टुकड़ा है मेरा बच्चा, मैं इसे किसी को नहीं सौंप सकती. जब तक शरीर में जान है, यह मेरे पास ही रहेगा.’’

मालिनी का इलाज शुरू हो गया था, परंतु मालिनी के पेट का कैंसर अब तेजी से फैलने लगा था. दिनप्रतिदिन क्षीण होती मालिनी की काया, उस पर बालक की चिंता, रोग की पीड़ा से 2 हिस्सों में बंट गया था उस का अशक्त जीवन.

ऐसे अवसरों पर पास बैठे हर्ष व्यथित हो प्रश्न कर उठते, ‘‘इस घातक शत्रु को तुम ने बढ़ने क्यों दिया मालिनी?’’

बिना उत्तर दिए सुहास की ओर देख कर वह मुसकरा भर देती. मां बनने की गरिमा से उस का चेहरा चमक उठता. फिर एक दिन वही हुआ जिस की आशंका पिछले वर्ष से चली आ रही थी. रात के घने अंधेरे में सहसा सुहास के रुदन से घबराए हुए हर्ष उठे. हाथपैर पटक कर वह मां को जगाने का प्रयत्न कर रहा था, पर मां तो सब ओर से बेखबर चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी. उस की बेजान देह और स्थिर पुतलियों से हर्ष स्थिति समझ गए. डाक्टर को आने के लिए फोन कर वे सुहास को संभालने में व्यस्त हो गए. जीवनभर का साथ निभाने का वादा करने वाली मालिनी सदा के लिए उन का साथ छोड़ कर जा चुकी थी.

समय अपनी गति से बढ़ता गया. मालिनी की कल्पनाएं साकार रूप लेने लगी थीं. सुहास डाक्टर बन गया. पिता के मुख से अपने जन्म की कहानी और मां के अभूतपूर्व बलिदान की गाथा सुन कर वह अभिभूत था. मां जैसा संसार में कोई नहीं, इस तथ्य को सुहास ने बचपन में ही दिल में उतार लिया था. दीवार पर लगे चित्र में मां की ममतामयी आंखों से झरती करुणा उसे मानव सेवा की प्रेरणा देती थी.

सुहास का विवाह हुआ. उस की पत्नी देविका भी डाक्टर थी. मां के नाम से क्लिनिक खोलने का स्वप्न साकार होने का समय अब आ गया था. पत्नी के सहयोग से सुहास ने ‘मालिनी स्वास्थ्य केंद्र’ की स्थापना की जहां कैंसर की जानलेवा बीमारी से जूझते रोगियों का इलाज किया जाता.

कैंसर क्लिनिक के छोटे से चौक में मालिनी की विशाल प्रतिमा पर नजर पड़ते ही हर्ष यादों में खो जाते. इस प्रतिमा को उन्होंने कितनी ही बार देखा है. फिर आज यह सब क्यों? बेचैन मन 25 वर्ष पुराने पन्ने पलटने लगा था. कितनी जिजीविषा थी मालिनी में. उस का व्यक्तित्व घरपरिवार, औफिस सभी पर छाया था. विवाह के 10 वर्ष 10 पलों की तरह बीत गए थे.

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डा. देविका को चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य करते हुए दुखद और सुखद अनेक अनुभव हो रहे थे. कैंसर की आशंका से बिलखती युवती को जब उस ने पेट में गांठ न हो कर शिशु होने की सूचना दी तो प्रसन्नता से कैसे खिल उठा था उस का मुरझाया चेहरा.

पिछले 2 दिन से डा. अणिमा लखनऊ से आई युवती की टैस्ट रिपोर्ट्स देख रही थीं, ‘‘देविका, इधर देखो शोभा की हाल की सोनोग्राफी रिपोर्ट, यह केस तो हूबहू मालिनी जैसा ही है. संतान और कैंसर साथसाथ पल रहे हैं इस के गर्भ में.’’

‘‘कैसी हो, बहन?’’

‘‘अच्छी हूं डाक्टर.’’

‘‘तुम्हारा इलाज लंबा चलेगा. 1 सप्ताह रुकना होगा तुम्हें.’’

‘‘नहीं डाक्टर, हम लोग कल ही लखनऊ लौट जाएंगे.’’

‘‘तुम्हारे पति से बात हो गई है, उन्हें सब समझा दिया है. बिना इलाज के मैं नहीं जाने दूंगी तुम्हें.’’

‘‘मेरा इलाज नहीं हो सकता, डाक्टर. इस इलाज में कई खतरे हैं. संतान की रक्षा का सवाल मेरे लिए अहम है. अपने प्राणों की रक्षा के लिए इस की सांसें कैसे समाप्त कर सकती हूं, डाक्टर?’’

समय कैसे स्वयं को दुहरा रहा है. कुछ ऐसा ही हठ तो मालिनी का भी था.

डा. अणिमा को लगा 25 वर्ष पुरानी मालिनी खड़ी है उस के सामने. ममता, संवेदना के तानेबाने से बने मां के अस्तित्व को हरा सके ऐसी शक्ति कहां से लाए वह. इस युवती का भी मन वह नहीं बदल पाएगी, उसे ऐसा लगने लगा. कहीं पढ़ा था मां पिता से भी हजार गुना महान होती है. अपने प्रोफेशन में पगपग पर यही अनुभव हो रहा था उसे.

शोभा पति के साथ लौट गई. मालिनी की विशाल प्रतिमा की ओर देखते हुए

डा. अणिमा सोच रही थीं कि नारी के अंतर की संवेदना कितनी गहन है. मानवता की वास्तविक पूंजी यह ममता ही तो है. मां तो बस मां है. मालिनी की प्रतिमा को नमन कर वह मुसकरा दी.

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Mother’s Day Special: बस कुछ घंटे- क्यों मानने के लिए तैयार नही थी मां

– मंजुला श्रीवास्तव

अस्पताल का वह आईसीयू का कमरा. बैड नंबर 7 अब भी मेरे जेहन में किसी भूचाल से कम हलचल पैदा नहीं करता. हम सब उस के सामने खड़े थे. मौन, सन्नाटे को समेटे हुए अपनेआप में भयभीत. सांसें जोरजोर से चल रही थीं हरपल जैसे एक युग के बराबर गुजर रहा हो. आतेजाते डाक्टरों पर हमारी नजरें टिकी हुई, उन के चेहरे को पढ़ती रहीं.

वह रोने को आतुर थी, पर हम सब उसे दबाए हुए थे. वह हम भाईबहनों में सब से छोटी थी. शादी जैसे बंधन से मुक्त. उस की हर सांस मां की सांसों से जुड़ी थी. जुड़े तो हम भी थे पर फिर भी हमारी गृहस्थी बस चुकी थी.

‘‘कल क्या हुआ था?’’ मैं ने अपने भाई की हथेली को अपनी हथेली में समेटते हुए पूछा. उस ने मुझे भरी हुई नजरों से देखा. फिर मेरा स्पर्श पा बिलख पड़ा बच्चों की तरह. दुधमुंहे बच्चे की तरह अपनी मां की खातिर. कहते हैं न, मां के लिए बच्चा हमेशा बच्चा ही रहता है. उस की आंखों में लाल डोरे खिंच आए थे. मेरी बातें सुन कर उस ने अपनेआप को संयमित किया. फिर बताने लगा, ‘‘कुछ दिनों से मां ठीक नहीं लग रही थीं. ऐसा मैं, छोटी और पिताजी महसूस कर रहे थे. पर हम जब भी पूछते तो वे कहतीं कि मैं ठीक हूं, परेशान न करो. इधर 2 दिनों से वे खाना भी नहीं खा रही थीं. ज्यादा कहने पर बिगड़ जातीं कि खाना मुझे खाना है परेशानी तुम लोगों को है.

‘‘‘मां, लेकिन खाने के बगैर…’ मैं ने कहा था.

‘‘‘जब मुझे भूख लगेगी मैं मांग कर खा लूंगी,’ वे कहतीं. और फिर कल रात वे अचानक बाथरूम जाते वक्त गिर पड़ीं. अचेत अवस्था में थीं जब हम उन्हें यहां ले आए. दीदी, मां ठीक तो हो जाएंगी न,’’ भाई ने मुझ से ऐसे पूछा जैसे मेरे कहने मात्र से मां ठीक हो जाएंगी.

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‘‘हां, वे जरूर ठीक हो जाएंगी. हमसब की दुआ उन के साथ है,’’ मैं ने कहा.

कुछ पल हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही. एकदूसरे की धड़कन गिनने वाली चुप्पी.

कुछ देर बाद भाई ने मुझे थपथपाते हुए कहा, ‘‘दीदी, मां की स्थिति ठीक नहीं है. सांसें बड़ी मुश्किल से ऊपर चढ़ पाई हैं. डाक्टरों ने बताया है कि उन के हृदय की धमनियां लगभग ब्लौक हो चुकी हैं. इस स्थिति में उन का बचना शायद…’’

‘‘भैया, ऐसा मत बोलो,’’ इस बार मैं टूटती हुई नजर आ रही थी. पुरुष के सीमेंट रूपी धैर्य के आगे मेरा नारी धैर्य बालू की दीवार था जो एक झटके से ढह रहा था और शायद इसी कारण उन्होंने यह मुझे थपथपाते हुए कहा था.

मैं सुबक पड़ी थी. आंसू की बूंदें गोलगोल बनती हुई मेरे गालों पर ढुलक आई थीं.

मां के न रहने की कल्पना हमसब के लिए असहनीय थी. सच पूछो तो मैं ने अपने जीवन के 40 मौसम में मां रूपी मजबूत पेड़ नहीं देखा था जो जिंदगी के आंधीतूफान, यहां तक कि बवंडर को भी सहजता से सह लेता हो. हम छोटे थे तब पिताजी की आय सीमित थी. संयुक्त परिवार में पिताजी को ही सबकुछ देखना पड़ता था.

हम 5 भाईबहनों को पढ़ानालिखाना, दादादादी की रोज नई बीमारियों का सामना करना. दोनों बूआओं की शादी. इतने खर्च में मां अपने लिए कुछ नहीं बचा पातीं. चूड़ीबिंदी जैसी वस्तुएं भी बड़ी मुश्किल से जुट पातीं. फिर भी वे खुश रहतीं. विषम परिस्थितियों में भी हमसब ने मुसकराते हुए देखा था उन्हें.

फिर जैसेतैसे कर के वह भंवर भी टल गया था. पिताजी की आमदनी बढ़ गई थी और खर्चे कम होने लगे. पर मां को अचानक सांस की बीमारी ने जकड़ लिया था. वह समय बिलकुल वैसा ही था जैसे बुझती हुई चिता पर एक मन लकड़ी और रख दी गई हो.

डाक्टरों के कितने चक्कर हमेशा लगते रहते पर बीमारी कम होने का नाम नहीं लेती. डाक्टरों ने कहा, ‘सांस की बीमारी तो सांस के साथ ही जाती है.’

हमसब ने जब यह सुना तो लगा जैसे एकाएक हमसब पर बिजली गिर गई हो.

पर मां पर कोई असर नहीं हुआ था. वे फिर भी खुश रहतीं. अब वे खानेपीने में परहेज करने लगी थीं. दवा समय से लेतीं और व्यायाम करने लगी थीं. वे अपना सब काम खुद करतीं. फिर धीरेधीरे हम तीनों बहनों की शादी हो गई.

समय की गाड़ी चल रही थी. लाख कोशिशों के बावजूद मां की बीमारी बढ़ती ही गई. समयसमय पर डाक्टरों के चक्कर लगने लगे थे. हम जब मां के लिए चिंतित होते तो मां कहतीं, ‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं, चिंता की कोई बात नहीं,’’ वे हमसब को समझातीं, ‘‘इस शरीर को एक दिन खत्म होना ही है. फिर वह चाहे बीमारी से हो या यों ही हो.’’

आईसीयू का दरवाजा खुला, हम सब सतर्क हो गए. बिलकुल वैसे ही जैसे कोई भूचाल आने वाला हो. डाक्टर त्रिवेदी बाहर निकले. मेरा भाई उन की ओर लपका, ‘‘सर…’’

उन्होंने उड़ती नजरों से भाई को देखा और उसे अपने केबिन में आने का इशारा किया. भाई उन के साथ उन के केबिन में गया. हमसब परिवारजन एकदूसरे को देख कर मौन भाषा में पूछ रहे थे कि डाक्टर क्या कहेगा…

कुछ मिनटों बाद भाई दौड़ता हुआ केबिन से लौटा और हमसब के बीच बैंच पर बैठ गया. पूछने के पहले ही वह रो पड़ा. बोला कि मां की स्थिति ठीक नहीं है. डाक्टर ने कहा है कि जिस मशीन की उन्हें आवश्यकता है वह उन के पास नहीं है. या फिर उन्हें वैंटिलेटर पर ले जाना पड़ेगा तब शायद कुछ दिन और…

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यह कह कर वह पिताजी की गरदन से झूल सा गया और जोर से चिल्लाने लगा, ‘‘पिताजी, वैंटिलेटर पर से लौटना भी मां के लिए मुमकिन नहीं है.’’

‘‘मां के बिना जी पाना हमारे लिए मुश्किल है, पिताजी,’’ हमसब भी उस के क्रंदन में शामिल हो गए थे.

समय की रफ्तार में पुरानी डोर, जिस में हमसब पिरोए हुए थे, टूटती नजर आ रही थी.

हम एकएक कर दौड़ पड़े थे आईसीयू के बाहर दरवाजे पर लगे शीशे से देखने के लिए. मां को बैठाया गया था. 4 डाक्टर उन के बैड के आसपास खड़े थे.  आगेपीछे कुछ मशीनें लगी थीं.

सभी लोग मां को शीशे से देख रहे थे लेकिन मैं बाहर खड़ीखड़ी एक डाक्टर से हठ करने लगी, ‘‘मैं अंदर जा कर उन से मिलना चाहती हूं.’’

डाक्टर ने बड़ी मुश्किल से मुझे अंदर जाने की इजाजत दी. मैं तेज कदमों से अंदर गई मां के पास. मां के मुंह में औक्सीजन लगी थी. आंखें उन की बंद थीं. मैं ने उन के हाथों पर अपनी हथेली रखी और पूछा, ‘‘मां, आप ठीक तो हैं न?’’

उन्होंने ‘हां’ में अपना सिर हिलाया और फिर आंखें बंद कर लीं. डाक्टर ने इशारे से मुझे बाहर जाने को कहा और मैं बाहर आ गई. मन यह मानने को तैयार नहीं था कि मां, बस कुछ घंटों की मेहमान हैं.

मैं ने डाक्टर से कहा कि वे तो कह रही हैं वे बिलकुल ठीक हैं.

वह मुसकराया और बोला, ‘‘सभी मरीज ऐसा ही कहते हैं,’’ वह कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘लगता है आप सब से बड़ी बेटी हैं इन की.’’

‘‘जी.’’

‘‘तो फिर मैं आप से एक बात कहता हूं कि आप अपने मन को समझा लीजिए, बस कुछ घंटे और.’’

मैं लगभग चिल्ला पड़ी, ‘‘डाक्टर, ऐसा नहीं हो सकता.’’

‘‘तो फिर वैंटिलेटर पर रखिए, शायद…’’

मैं डाक्टर की बातें सुन कर दौड़ती हुई अपनों के बीच आ गई थी. कुरसी पर बैठते ही फूटफूट कर रो पड़ी. फिर अपनेआप को संयमित कर बोली, ‘‘पापा, मां को वैंटिलेटर पर रख देते हैं.’’

पापा हमसब को निहार रहे थे. अपने बाग के माली को जाते हुए देख कर उन का मन रो रहा था. उन के लिए फैसला लेना मुश्किल हो रहा था कि क्या

किया जाए?

तब भाई ने एकाएक फैसला लिया, ‘‘मां वैंटिलेटर पर नहीं जाएंगी,’’ लगा जैसे कोई शक्ति उस का पथप्रदर्शक बन कर खड़ी हो. वह बोला, ‘‘क्योंकि मैं जानता हूं कि वैंटिलेटर से लौटना मां के लिए मुमकिन नहीं.’’

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उस ने अपना फैसला डाक्टर को सुनाया, ‘‘हम इन्हें वैंटिलेटर पर नहीं रख सकते. आप अगर कुछ कर सकते हैं तो करें वरना हम इन्हें कहीं और ले जाएंगे.’’

इस समय वह चट्टान की तरह दृढ़ बन गया था.

कुछ देर डाक्टरों के बीच बातचीत होती रही. फिर उन्होंने कहा, ‘‘वाइपेप मशीन बाहर से आ गई है.’’

डाक्टरों की बातें सुन कर हम एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘कब आई यह वाइपेप मशीन…? कुछ देर पहले तक तो वह यहां नहीं थी और न ही हम ने उस मशीन को लाते देखा, फिर अचानक कहां से…’’

पर यह बहस करने का समय नहीं था. आलीशान नर्सिंगहोम की चारदीवारी के अंदर क्या कुछ होता है यह शायद हमसब को मालूम पड़ गया था.

कुछ देर बाद डाक्टर ने आ कर कहा कि मशीन ठीक से लग गई है और वह ठीक से काम कर रही है.

उस की बातें सुन कर हमारे चेहरे की मायूसी कुछ हटी थी. बवंडर के टलने के संकेत से हमसब शांत थे.

2-3 दिनों बाद हमसब यह सोचने पर विवश हुए कि आखिर कब तक इन्हें ऐसे रखना होगा क्योंकि डाक्टर के कहे अनुसार, मशीन के हटते ही उन का बचना मुश्किल था. सुबह जब नर्सिंगहोम की चार्जशीट आती तो वह हर दिन 4-5 हजार रुपए की होती. महंगीमहंगी दवाएं ही 2-3 हजार की होती थीं उस में. तब मन सोचने पर विवश हो जाता कि क्या इतनी दवाएं प्रतिदिन उन्हें दी जा रही हैं? समझ में नहीं आता.

3 दिन बाद मां हमें बुला कर बोलीं, ‘‘मैं ठीक हूं. तुम लोग मुझे यहां से ले चलो.’’

‘‘मां, लेकिन…’’

‘‘नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूं और घर जाना चाहती हूं. यहां रहूंगी तो शायद मैं सचमुच मर जाऊंगी.’’

तब हमसब मां के सामने विवश हो गए. हम जानते थे कि मां का दृढ़निश्चय, भरपूर आत्मविश्वास अपनेआप को जीवित रखने के लिए काफी था क्योंकि ‘वे’ वह स्तंभ थीं जिसे तोड़ पाना आसान नहीं था.

आज 4 साल बाद जब मैं उन के पास गई तो वे मुसकराते हुए हमारा स्वागत कर रही थीं. और मैं उन्हें गौर से निहार रही थी.

आज याद आ रहे थे डाक्टर के कहे वे शब्द, ‘बस, कुछ घंटे ही हैं इन के पास.’

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आओ, नरेगा नरेगा खेलें: मजदूरों ने जब खेला नेताओं और ठेकदारों संग खेल

आज देश में अगर हर जगह किसी चीज की चर्चा है तो वह नरेगा यानी नेशनल रूरल एंप्लायमेंट गारंटी ऐक्ट ही है. स्वाइन फ्लू व बर्ड फ्लू आदि तो बरसाती मेढक की तरह हैं जो कुछ समय के लिए टर्रटर्र करने के बाद इतिहास में उसी तरह विलीन हो जाते हैं जैसे भारत का किसी भी ओलिंपिक खेलों में प्रदर्शन विलीन हो जाता है. इतिहास को बदलने की शुरुआत जरूर निशानेबाज अभिनव बिंद्रा व मुक्केबाज बिजेंद्र कुमार ने की, नहीं तो हमारा ओलिंपिक में पदक के मामले में निल का स्वर्णिम इतिहास रहा है.

हां, ओलिंपिक खेलों में हमारा दल जरूर सदलबल रहा है. यानी अगर 50 खिलाड़ी गए तो अधिकारी 49 कभी नहीं रहे, 50 को तो पार कर ही जाते थे. आखिर हर खिलाड़ी के पीछे एक अधिकारी तो होना चाहिए न. उसे असफल होने पर धक्का लगाने के प्रयोजन से. एक कहावत है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला होती है. हमारे यहां हर असफल खिलाड़ी के आगे एक अधिकारी होता है.

वैसे हम अपने राष्ट्रीय खेल हाकी में फिसड्डी हो गए हैं तो अब सभी के प्रिय खेल ‘नरेगानरेगा’ को राष्ट्रीय खेल घोषित कर दिया जाए. वैसे अघोषित रूप से यह राष्ट्रीय क्या अंतर्राष्ट्रीय खेल हो गया है क्योंकि कई अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ नरेगा की समस्याओं, उलझनों की आग में अपनी रोटी सेंक रहे हैं.

कहां नरेगा, कहां खेल. आप को यह अटपटा लग रहा होगा. पर सच है, बहुत से लोगों के लिए नरेगा ने एक नए खेल के रूप में जन्म लिया है. नरेगा में सरकार ने कानूनी रूप से मजदूर को, जो अपने ही क्षेत्र में काम करना चाहता है, 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी है. नहीं तो सरकार को बेरोजगारी भत्ता देना पड़ता है. नरेगा के वास्तविक हकदार वे मजदूर हैं जिन की रोजीरोटी की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है और वे शारीरिक श्रम करने को मजबूर व सहमत हैं.

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लगता है, मजदूर शब्द की उत्पत्ति मजा+दूर से हुई है. केवल कमरतोड़ मेहनत का काम करने के लिए जहां मजा नाम की कोई चीज नहीं है अर्थात मजा बहुत दूर है इसलिए नाम है मजदूर.

नरेगा में सरकार ने मजा का बंदोबस्त किया है. मसलन, कार्यस्थल पर दवाइयों की किट, बच्चों के लिए झूलाघर, पानी की व्यवस्था, पूरी न्यूनतम मजदूरी लेकिन मजदूर शब्द का कैरेक्टर ही ऐसा है कि मजा उस से दूर हो जाता है व उसे सजा के रूप में कम मजदूरी, विलंब से मजदूरी मिलती है.

नरेगा का मजा परदे के पीछे रह कर मजदूरों का भला चाहने वालों को मिलता है. ये कौन लोग हैं? ये हैं मजदूर का जाबकार्ड बनाने, बैंक में खाते खुलवाने के मददगार. नरेगा की रेलमपेल में अपनी मशीनरूपी रेल झोंक देने वाले तसले, फावड़े, कुदाल बेचने वाले व्यापारी, मुद्रण के अलगअलग कार्य करने वाले, कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो गए कंसल्टेंट, एन.जी.ओ. आदि, नरेगा का मजा ले रहे हैं और बेचारे मजदूर सजा पा रहे हैं.

नरेगा का नाम मरेगा कर देना चाहिए क्योंकि इस में बाकी सबकुछ दिन दूना रात चौगुना बढ़ेगा पर मजदूर तो मरेगा ही. मशीनबाज ठेकेदार मशीन से करवा कर मजदूर को आधी मजदूरी काम घर बैठे दे कर जाबकार्ड पर उस का अंगूठा लगवा लेता है. जाबकार्ड भी ठेकेदार या ठेकेदाररूपी सरपंच के पास ही रहता है. यहां एक बात समझ में नहीं आई कि जो जिले शतप्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य कई साल पहले प्राप्त कर चुके हैं वहां भी नरेगा में मजदूर अंगूठा ही लगा रहा है यानी उस समय साक्षरता अभियान चलाने वालों ने सरकार को ठेंगा ही (अंगूठा) दिखाया है.

जितना काम नहीं हो रहा उस से ज्यादा उस का हिसाब रखने के लिए मस्टररोल, रजिस्टर छप रहे हैं. नरेगा मजदूरों के अलावा सब के लिए है. विपक्षी दल के विधायक के लिए भी है. उसे विधानसभा में उठाने के लिए कोई विषय नहीं मिलता तो नरेगा से संबंधित कुछ भी पूछ लेता है. मसलन, फलां जिले के रेलवे स्टेशन में मजदूर गठरी लिए क्यों बड़ी संख्या में खड़े रहते हैं जब नरेगा उन के जिले में चल रही है.

अब उन्हें कौन समझाए कि पेट को दो वक्त की रोटी के हिसाब से देखें तो साल में 730 बार खाना चाहिए. नरेगा अधिक से अधिक केवल 200 बार रोटी देता है. वे तो गले तक भर पेट ले कर प्रश्न पूछते हैं. इसलिए मजदूर का 265 दिन का पिचका पेट उन्हें नहीं दिखता है. ये ऐसे ही प्रश्न हैं जैसे फ्रांस की राजकुमारी ने फ्रांसीसी क्रांति के समय अपनी जनता के बारे में कहा कि रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते.

सरकाररूपी सिस्टम मजबूरी में नरेगा में सुधार के समयसमय पर फैसले लेता है पर जैसे पुलिस व चोरों के बीच चूहेबिल्ली का खेल चलता है, वैसे ही नरेगा के परदे के पीछे के हितलाभी ‘तू डालडाल मैं पातपात’ की तर्ज पर सरकारी नियंत्रण की तोड़ निकाल लेते हैं. लगे हाथ एकदो उदाहरण भी देख लें.

सरकार ने सोचा कि जाबकार्ड सभी को दे दो, चाहे मजदूर आए या न आए क्योंकि जाबकार्ड बनाने में मजदूर को पासपोर्ट बनवाने से ज्यादा चक्कर सचिव, सरपंच और पटवारी आदि के लगाने पड़ेंगे तो सयानों ने ठेकेदारों को अपने जाबकार्ड किराए पर दे दिए. मजदूर भी बड़े सरकारी ठेकेदार की तरह अपने विशेषाधिकार को पेटी कांट्रैक्टर को हस्तांतरित करने की तर्ज पर काम कर रहा है. चलो, नरेगा ने एक हथियार तो मजबूर, अरे नहीं मजदूर को दिया कि वह बिना हाड़मांस का शरीर हिलाए कुछ रुपए पा जाए.

सरकार ने मजदूर के खाते खोलना अनिवार्य कर दिया और भुगतान खाते से होगा. यह भी जरूरी कर दिया तो कई मजदूर ठेकेदारों के चंगुल में आ गए. बिना काम किए निश्चित प्रतिशत ठेकेदार से ले कर बैंक से निकाली राशि उसे सौंप दी.

सरकारी या प्राइवेट क्षेत्र में जैसे कोई बहुत बड़ी पूंजी वाला कारखाना खुल जाता है वैसे ही नरेगा रूपी विशाल उद्योग खुलने से कई उद्यमियों को घरबैठे उद्योग स्थापित करने का अवसर मिला है. ये कौनकौन हैं नीचे क्रमबद्ध सुशोभित हैं:

पत्रकारिता के व्यापारियों ने ‘नरेगा टाइम्स’ या ‘नरेगा पन्ना’ नाम से नियमित अखबार शुरू कर दिया है.

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मुद्रणालयों ने अनापशनाप रजिस्टरों, फार्मों के स्कोप को देखते हुए, अपनी पिं्रटिंग इकाइयों का विस्तार कर लिया. कई बीमार प्रिंटिंग इकाइयां जो बी.आई.एफ.आर. के पास थीं, वापस क्रियाशील घोषित हो गईं. बी.आई.एफ.आर. वह संस्थान है जो बीमार औद्योगिक इकाइयों को पुनर्जीवित करने का कार्य करता है.

अचानक कई शहरों में जे.सी.बी. यानी कि नईनई एजेंसियां खुल गईं. उन्हें देख कर ऐसा लगा मानो छोटे शहर भी औद्योगिक क्रांति की ओर दौड़ पड़े हैं, क्योंकि अब बैंक भी जे.सी.बी. को उसी तरह फाइनेंस करने लगे हैं जैसे ट्रैक्टर आदि को करते थे. जे.सी.बी. कंपनी के हेडआफिस में भी आपातकालीन बैठक बुला कर नरेगा के कारण बिक्री लक्ष्य 500 नग कर दिया गया है. इस बैठक में यह बात भी निकल कर आई कि धारा 40 के मामलों की बाढ़ आ गई है. यदि पंचायत में काम करने वाले मजदूर नहीं हैं तो भी प्रशासन सरपंच को दोषी मान कर नोटिस दे देता है. अत: वकीलों को भी भरपूर रोजगार मिल रहा है. जय हो नरेगा. जो सब का ध्यान रखता है. अल्टीमेटली काम मशीनों से होंगे क्योंकि उतने मजदूर हैं नहीं जितने सरकार सोचती है और जो हैं भी, उन में से ज्यादातर में ‘जितना काम उतना दाम’ के सिद्धांत व कमतर होती शारीरिक क्षमता के कारण काम करने की इच्छा नहीं है.

नरेगा जिलों में पोस्ंिटग का वैसा ही क्रेज है, जैसा गुजरात, जहां दारू निषेध है, के अवैध शराब की ज्यादा बिक्री वाले क्षेत्र के थानों में पोस्ंिटग के लिए होता है. स्थानांतरण कार्य का स्कोप बढ़ गया है. नरेगा जिले के मुख्य अधिकारी को आंखें दिखाओ तो वह वशीकरण मंत्र के प्रभाव की तरह जो बोला जाए वही करने लगता है. आखिर वह भी सिविल सेवा में, देश सेवा के लिए ही तो आया है, नहींनहीं, सात पुश्तों की सेवा के लिए आया है.

दोपहिया, चार पहिया वाहन वालों, रिएल एस्टेट वालों की पौबारह है. सरपंच, अधिकारी, शिकायतकर्ता, एन.जी.ओ. और पत्रकार सभी नरेगा के कारण वाहन, जमीनजायदाद खरीद रहे हैं. नरेगा के कारण आटो मोबाइल में एक्साइज ड्यूटी कम होने के बावजूद डीलरों ने रेट बढ़ा दिए हैं. फिर भी बिक्री का ग्राफ बढ़ गया है.

कलक्टर, जिला पंचायत कार्यालय में स्थापना का कार्य देख रहे बाबू का कार्य बढ़ गया है क्योंकि नरेगा के कारण रोज किसी न किसी अधिकारी की जांच चल रही है. अधिकारी व कर्मचारी प्रभावशील व्यक्ति की मशीन को काम नहीं देते हैं तो वे शिकायत करवा देते हैं, मजिस्ट्रेट के न्यायालय में काम बढ़ गया है.

नरेगा क्रिटिक का एक नया क्षेत्र रोजगार के लिए खुल गया है. एक कंसल्टेंसी फर्म ने तो बाकायदा विज्ञापन दे कर ऐसे व्यक्तियों की सेवाएं लेनी चाही हैं. नरेगा ने सरपंच की औकात बढ़ा दी है. एक छोटे से क्षेत्र का जनप्रतिनिधि होने के कारण तथा नरेगा में लाखोंकरोड़ों का आबंटन मिलने से बहुत बड़े क्षेत्र के जनप्रतिनिधि, विधायक व सांसद को उस ने आंखें दिखाना शुरू कर दिया है. अब वह विधायक व सांसद से अपने यहां की पंचायत में कार्य करवाने की मिन्नत नहीं करता बल्कि कभीकभी वह यह इच्छा पाल लेता है कि विधायक व सांसद उस से निवेदन की भाषा में कोई कार्य स्वीकृत करने की बोलें तो वह कार्य स्वीकृत उसी अंदाज में कर देगा जिस में पहले वे लोग किया करते थे, क्योंकि हर सांसद व विधायक के निर्वाचन क्षेत्र में सैकड़ों पंचायतें हैं. इस तरह से देखें तो प्रति ग्राम पंचायत उन के फंड का पैसा मामूली सा रह जाता है.

न्यायपालिका की सक्रियता से नरेगा भी नहीं बचा है. न्यायालयों में ट्रायल चलतेचलते ही कई लोग वास्तविक सजा से ज्यादा समय जेल में गुजार लेते हैं फिर भी मामले का फैसला नहीं होता है. उस पर न्यायपालिका की दिलेरी देखिए कि नरेगा के हर मामले में सक्रिय है.

नरेगा होने से सिविल सोसायटी बहुत सिविल हो गई है. क्योंकि हर स्तर पर कमी निकालने का हथियार नरेगा ने इन को दे दिया है. दुनिया में और भी मुद्दे हैं जिन्हें ये पकड़ना नहीं चाहते, सब नरेगा के पीछे चल पड़े हैं क्योंकि मजदूरों के साथ इन की भी रोजीरोटी इसी से चल रही है. यह योजना कैसे प्रभावी ढंग से चले इस के उलट कैसे उस में पोल बनी रहे? लोग परेशान हों? इस बात में ये ज्यादा रुचि रखते हैं, ठीक वैसे ही जैसे सरकारी अस्पताल का डाक्टर इस कोशिश में रहता है कि अस्पताल के कुप्रबंधन में उस का योगदान कम न रहे जिस से उस के क्लीनिक में सरकारी अस्पताल के मरीज आते रहें व उस के घर का प्रबंधन सुचारु रहे.

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एन.जी.ओ. में से कई ऐसी संस्था थीं जो लाखों का घपला कर माल डकार गईं और दफ्तर बंद कर गायब हो गईं. अब फिर नए नाम से नया संगठन बना कर नरेगा के घपलों में अपने घपले को फिर अंजाम देने की जुगत में हाथपैर चला रहे हैं. स्विस बैंक के अधिकारियों को अब ज्यादा घमंड नहीं करना चाहिए. उन के यहां जितना काला धन जमा है उस से ज्यादा नरेगा का बजट हो जाएगा.

अरे, मेरे देश के पत्रकारो, एन.जी.ओ., ठेकेदारो, अधिकारियो, छात्रो, एक्टिविस्टो, शिक्षाविदो और बहुत से दूसरे भी, तुम नरेगा को प्रभावी बनाने में अपना सकारात्मक योगदान दो तो वह दिन दूर नहीं कि देश का मजदूर भी नैनो से नरेगा में काम करने आएगा तो सोने की चिडि़या का संबोधन पुन: देश को मिलना शुरू हो जाएगा.

कचरे वाले: कौन हैं आखिर कचरा फैलाने वाले लोग

मंगलवार की सुबह औफिस के लिए निकलते वक्त पत्नी ने आवाज दी, ‘‘आज जाते समय यह कचरा लेते जाइएगा, 2 दिनों से पड़ेपड़े दुर्गंध दे रहा है.’’ मैं ने नाश्ता करते हुए घड़ी पर नजर डाली, 8 बजने में 10 मिनट बाकी थे. ‘‘ठीक है, मैं देखता हूं,’’ कह कर मैं नाश्ता करने लगा. साढ़े 8 बज चुके थे. मैं तैयार हो कर बालकनी में खड़ा मल्लपा की राह देख रहा था. कल बुधवार है यानी सूखे कचरे का दिन. अगर आज यह नहीं आया तो गुरुवार तक कचरे को घर में ही रखना पड़ेगा.

बेंगलुरु नगरनिगम का नियम है कि रविवार और बुधवार को केवल सूखा कचरा ही फेंका जाए और बाकी दिन गीला. इस से कचरे को सही तरह से निष्क्रिय करने में मदद मिलती है. यदि हम ऐसा नहीं करते तो मल्लपा जैसे लोगों को हमारे बदले यह सब करना पड़ता है. मल्लपा हमारी कालोनी के कचरे ढोने वाले लड़के का नाम था. वैसे तो बेंगलुरु के इस इलाके, केंपापुरा, में वह हमेशा सुबहसुबह ही पहुंच जाता था लेकिन पिछले 2 दिनों से उस का अतापता न था. मैं ने घड़ी पर फिर नजर दौड़ाई,

5 मिनट बीत चुके थे. मैं ने हैलमैट सिर पर लगाया और कूड़ेदान से कचरा निकाल कर प्लास्टिक की थैली में भरने लगा. कचरे की थैली हाथ में लिए 5 मिनट और बीत गए, लेकिन मल्लपा का अतापता न था.

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मैं ने तय किया कि सोसाइटी के कोने पर कचरा रख कर औफिस निकल लूंगा. दबेपांव मैं अपने घर के बरामदे से बाहर निकला और सोसाइटी के गेट के पास कचरा रखने लगा. ‘‘खबरदार, जो यहां कचरा रखा तो,’’ पीछे से आवाज आई. मैं सकपका गया. देखा तो पीछे नीलम्मा अज्जी खड़ी थीं. ‘‘अभी उठाओ इसे, मैं कहती हूं, अभी उठाओ.’’

‘‘पर अज्जी, मैं क्या करूं, मल्लपा आज भी नहीं आया,’’ मैं ने सफाई देने की कोशिश की. ‘‘जानती हूं, लेकिन सोसाइटी की सफाई तो मुझे ही देखनी होती है न. तुम तो यहां कचरा छोड़ कर औफिस चल दोगे, आवारा कुत्ते आ कर सारा कचरा इधरउधर बिखेर देंगे, फिर साफ तो मुझे ही करना होगा न,’’ उन का स्वर तेज था. मैं ने कचरा वापस कमरे में रखने में ही भलाई समझी.

‘‘तुम तो गाड़ी से औफिस जाते हो, इस कूड़े को रास्ते में किसी कूडे़दान में क्यों नहीं फेंक देते,’’ उन्होंने सलाह दी. ‘‘बात तो ठीक कहती हो अज्जी, घर में रखा तो यह ऐसे ही दुर्गंध देता रहेगा,’’ यह कह कर कचरे का थैला गाड़ी की डिग्गी में डाल लिया, सोचा कि रास्ते में किसी कूड़े के ढेर में फेंक दूंगा. सफाई के मामले में वैसे तो बेंगलुरु भारत का नंबर एक शहर है, लेकिन कूड़े का ढेर ढूंढ़ने में ज्यादा दिक्कत यहां भी नहीं होती. मैं अभी कुछ ही दूर गया था कि सड़क के किनारे कूड़े का एक बड़ा सा ढेर दिख गया. मैं ने कचरे से छुटकारा पाने की सोच, गाड़ी रोक दी. अभी डिग्गी खोली भी नहीं थी कि एक बच्ची मेरे सामने आ कर खड़ी

हो गई. ‘‘अंकल, क्या आप मेरी हैल्प कर दोगे, प्लीज.’’

‘‘हां बेटा, बोलो, आप को क्या हैल्प चाहिए,’’ मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा. उस ने झट से अपने साथ के 2 बच्चों को बुलाया जो वहां सड़क के किनारे अपनी स्कूलबस का इंतजार कर रहे थे. उन में से एक से बोली, ‘‘गौरव, वह बोर्ड ले आओ, अंकल हमारी हैल्प कर देंगे.’’

गौरव भाग कर गया और अपने साथ एक छोटा सा गत्ते का बोर्ड ले आया. उस के साथ 3-4 बच्चे और मेरी गाड़ी के पास आ कर खड़े हो गए. छोटी सी एक बच्ची ने वह गत्ते का बोर्ड मुझे थमाते हुए कहा, ‘‘अंकल, आप यह बोर्ड यहां ऊपर टांग दीजिए, प्लीज.’’

‘‘बस, इतनी सी बात,’’ कह कर मैं ने वह बोर्ड वहां टांग दिया. बोर्ड पर लिखा था, ‘कृपया यहां कचरा न फेंकें, यह हम बच्चों का स्कूलबस स्टौप है.’

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बोर्ड टंगा देख सभी बच्चे तालियां बजाने लगे. मैं ने एक नजर अपनी बंद पड़ी डिग्गी पर दौड़ाई और वहां से निकल पड़ा. कोई बात नहीं, घर से औफिस का सफर 20 किलोमीटर का है, कहीं न कहीं तो कचरे वालों का एरिया होगा, यह सोच मैं ने मन को धीरज बंधाया और गाड़ी चलाने लगा.

आउटर रिंग रोड पर गाड़ी चलते समय कहीं भी कचरे का ढेर नहीं दिखा तो हेन्नुर क्रौसिंग से आगे बढ़ने पर मैं ने लिंग्रज्पुरम रोड पकड़ ली. मैं ने सोचा कि रैजिडैंशियल एरिया में तो जरूर कहीं न कहीं कचरे का ढेर मिलेगा या हो सकता है कि कहीं कचरे वालों की कोई गाड़ी ही मिल जाए. अभी थोड़ी दूर ही चला था कि रास्ते में गौशाला दिख गई. साफसुथरे कपड़े पहने लोगों के बीच कुछ छोटीमोटी दुकानें थीं और पास ही कचरे का ढेर भी लगा था, लेकिन यह क्या, वहां तो गौशाला के कुछ कर्मचारी सफाई करने में लगे थे.

मैं ने गाड़ी की रफ्तार और तेज कर दी और सोचने लगा कि इस कचरे को आज डिग्गी में ही ढोना पड़ेगा. लिंग्रज्पुरम फ्लाईओवर पार करने के बाद मैं लेजर रोड पर गाड़ी चला रहा था. एमजी रोड जाने के लिए यहां से 2 रास्ते जाते थे. एक कमर्शियल स्ट्रीट से और दूसरा उल्सूर लेक से होते हुए. उल्सूर लेक के पास गंदगी ज्यादा होगी, यह सोच कर मैं ने गाड़ी उसी तरफ मोड़ दी.

अनुमान के मुताबिक मैं बिलकुल सही था. रोड के किनारे लगी बाड़ के उस पार कचरे का काफी बड़ा ढेर था. थोड़ा और आगे बढ़ा तो 2-3 महिलाएं कचरे के एक छोटे से ढेर से सूखा व गीला कचरा अलग कर रही थीं. उन्हें नंगेहाथों से ऐसे करते देख मुझे बड़ी घिन्न आई. थोड़ी ग्लानि भी हुई. हम अपने घरों में छोटीछोटी गलतियां करते हैं सूखे और गीले कचरे को अलग न कर के. यहां इन बेचारों को यह कचरा अपने हाथों से बिनना पड़ता है.

मुझे डिग्गी में रखे कचरे का खयाल आया, जो ऐसे ही सूखे और गीले कचरे का मिश्रण था. मन ग्लानि से भर उठा. धीमी चल रही गाड़ी फिर तेज हो गई और मैं एमजी रोड की तरफ बढ़ गया.

एमजी रोड बेंगलुरु के सब से साफसुथरे इलाकों में से एक है. चौड़ीचौड़ी सड़कें और कचरे का कहीं नामोनिशान नहीं. सफाई में लगे कर्मचारी वहां भी धूल उड़ाते दिख रहे थे. लेकिन मुझे जेपी नगर जाना था. इसीलिए मैं ने बिग्रेड रोड वाली लेन पकड़ ली. सोचा शायद यहां कहीं कूड़ेदान मिल जाए, लेकिन लगता है, इस सूखेगीले कचरे के मिश्रण की लोगों की आदत सुधारने के लिए नगरनिगम ने कूड़ेदान ही हटा दिए थे.

शांतिनगर, डेरी सर्किल, जयदेवा हौस्पिटल होते हुए अब मैं अपने औफिस के नजदीक वाले सिग्नल पर खड़ा था. सामने औफिस की बड़ी बिल्ंिडग साफ नजर आ रही थी. वहां कचरा ले जाने की बात सोच कर मन में उथलपुथल मच गई. आसपास नजर दौड़ाई तो सामने कचरे की एक छोटी सी हाथगाड़ी खड़ी थी और गाड़ी चलाने वाली महिला कर्मचारी पास में ही कचरा बिन रही थी. यह सूखे कचरे की गाड़ी थी.

मैं ने मन ही मन सोचा, ‘यही मौका है, जब तक वह वहां कचरा बिनती है, मैं अपने कचरे की थैली को उस की गाड़ी में डाल के निकल लेता हूं,’ था तो यह गलत, क्योंकि उस बेचारी ने सूखा कचरा जमा किया था और मैं उस में मिश्रित कचरा डाल रहा था, लेकिन मेरे पास और कोई उपाय नहीं था. मैं ने साहस कर के गाड़ी की डिग्गी खोली, लेकिन इस से पहले कि मैं कचरा निकाल पाता, सिग्नल ग्रीन हो गया.

पीछे से गाडि़यों का हौर्न सुन कर मैं ने अपनी गाड़ी वहां से निकालने में ही भलाई समझी. अब मैं औफिस के अंदर पार्किंग में था. कचरा रखने से कपड़े की बनी डिग्गी भरीभरी दिख रही थी.

मैं ने गाड़ी लौक की और लिफ्ट की तरफ जाने लगा, तभी सिक्योरिटी गार्ड ने मुझे टोक दिया, ‘‘सर, कहीं आप डिग्गी में कुछ भूल तो नहीं रहे,’’ उस ने उभरी हुई डिग्गी की तरफ इशारा किया. ‘‘नहींनहीं, उस में कुछ इंपौर्टेड सामान नहीं है,’’ मैं ने झेंपते हुए कहा और लिफ्ट की तरफ लपक लिया.

औफिस में दिनभर काम करते हुए एक ही बात मन में घूम रही थी कि कहीं, कोई जान न ले कि मैं घर का कचरा भी औफिस ले कर आता हूं. न जाने इस से कितनी फजीहत हो. बहरहाल, शाम हुई. मैं औफिस से जानबूझ कर थोड़ी देर से निकला ताकि अंधेरे में कचरा फेंकने में कोई दिक्कत न हो.

गाड़ी स्टार्ट की और घर की तरफ निकल लिया, फिर से वही रास्ता. फिर से वही कचरे के ढेर. इस बार कोई बंदिश न थी और न ही कोई रोकने वाला, लेकिन फिर भी मैं कचरा नहीं फेंक पाया. कचरे के ढेर आते रहे और मैं दृढ़मन से गाड़ी आगे बढ़ाता रहा. न जाने क्या हो गया था मुझे.

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अब कुछ ही देर में घर आने वाला था. सुबह निकलते वक्त पत्नी की बात याद आई, ‘अंदर से आवाज आई, छोड़ो यह सब सोचना. एक तुम्हारे से थोड़े न, यह शहर इतना साफ हो जाएगा.’ मैं ने सोसाइटी के पीछे वाली सड़क पकड़ ली. लगभग 1 किलोमीटर दूर जाने के बाद एक कचरे का ढेर और दिखा. मैं ने गाड़ी रोकी, डिग्गी खोली और कचरा ढेर के हवाले कर दिया.

सुबह से जो तनाव था वह अचानक से फुर्र हो गया. मन को थोड़ी राहत मिली. रास्तेभर से जो जंग मन में चल रही थी, वह अब जीती सी लग रही थी.

तभी सामने एक औटोरिकशा आ कर रुका, देखा तो मल्लपा अपनी बच्ची को गोद में लिए उतर रहा था. ‘‘नमस्ते सर, आप यहां.’’

‘‘नहीं, मैं बस यों ही, और तुम यहां? कहां हो इतने दिनों से, आए नहीं?’’ ‘‘मेरा तो घर यहीं पीछे है. क्या बताऊं सर, मेरी बच्ची की तबीयत बहुत खराब है. बस, इसी की तिमारदारी में लगा हूं 2 दिनों से.’’

‘‘क्या हुआ इसे?’’ ‘‘संक्रमण है, डाक्टर कहता है कि गंदगी की वजह से हुआ है.’’

‘‘ठीक तो कहा डाक्टर ने, थोड़ी साफसफाई रखो,’’ मैं ने सलाह दी. ‘‘अब साफ जगह कहां से लाएं. हम तो कचरे वाले हैं न, सर,’’ यह कह कर मुसकराता हुआ वह अपने घर की ओर चल दिया.

सामने उस का घर था, बगल में कचरे का ढेर. वहां खड़ा मैं, अब, हारा हुआ सा महसूस कर रहा था.

Women’s Day Special: जरूरी हैं दूरियां, पास आने के लिए

लेखिका- डा. मंजरी चतुर्वेदी

फ्लाइट बैंगलुरु पहुंचने ही वाली थी, विहान पूरे रास्ते किसी कठिन फैसले को लेने में उलझा हुआ था, इसी बीच मोबाइल पर आते उस नंबर को भी वह लगातार इग्नोर करता रहा.

अब नहीं सींच सकता था वो प्यार के उस पौधे को, उस का मुरझा जाना ही बेहतर है. इसलिए जितना मुमकिन हो सका, उस ने मिशिका को अपनी फोन मैमोरी से रिमूव कर दिया. मुमकिन नहीं था यादों को मिटाना, नहीं तो आज वो उसे दिल की मैमोरी से भी डिलीट कर देता सदा के लिए.

‘‘सदा के लिए… नहींनहीं… हमेशा के लिए नहीं, मैं मिशी को एक मौका और दूंगा,‘‘ विहान मिशी के दूर होने के खयाल से ही डर गया.

‘‘शायद, ये दूरियां ही हमें पास ले आएं,‘‘ बस यही सोच कर उस ने मिशी की लास्ट फोटो भी डिलीट कर दी.

इधर मिशिका परेशान हो गई थी, 5 दिन से विहान से कोई कौंटेक्ट नहीं हुआ था.

‘‘हैलो दी, विहान से बात हुई क्या? उस का ना मोबाइल फोन लग रहा है और ना ही कोई मैसेज पहुंच रहा है. औफिस में एक दिक्कत आ गई है. जरूरी बात करनी है,‘‘ मिशी बिना रुके बोलती गई.

‘‘नहीं, मेरी कोई बात नहीं हुई, और दिक्कत को खुद ही सुलटाना सीखो,‘‘ पूजा ने इतना कह कर फोन काट दिया.

मिशी को दी का ये रवैया अच्छा नहीं लगा, पर वह बेपरवाह सी तो हमेशा से ही थीं तो उस ने दी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.

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मिशिका (मिशी) मुंबई में एक कंपनी में जौब करती है. उस की बड़ी बहन है पूजा, जो अपने मौमडैड के साथ रहते हुए कालेज में पढ़ाती है. विहान ने अभी बैंगलुरु में नई मल्टीनेशनल कंपनी ज्वाइन की है, उस की बहन संजना अभी स्टडी कर रही है. मिशी और विहान के परिवारों में बड़ा प्रेम है. वे पड़ोसी थे. विहान का घर मिशी के घर से कुछ ही दूरी पर था. दो परिवार होते हुए भी वे एक परिवार जैसे ही थे. चारों बच्चे साथसाथ बड़े हुए.

गुजरते दिनों के साथ मिशी की बेपरवाही कम होने लगी थी. विहान से बात न हुए आज पूरे 3 महीने बीत गए थे. मिशी को खालीपन लगने लगा था. बचपन से अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. जब पास थे तो वे दिन में कितनी ही बार मिलते थे, और जब जौब के कारण दूर हुए तो फोन और चैट का हिसाब लगाना भी आसान काम न था.

2-3 महीने गुजरने के बाद मिशी को विहान की बहुत याद सताने लगी थी. वह जब भी घर पर फोन करती, तो मम्मीपापा, दीदी सभी से विहान के बारे में पूछती, आंटीअंकल से बात होती, तब भी… जवाब एक ही मिलता…वह तो ठीक है, पर तुम दोनों की बात नहीं हुई, ये कैसे मुमकिन है. अकसर जब मिशी कहती कि महीनों से बात नहीं हुई, तो सब झूठ ही समझते थे.

दशहरा आ रहा था, मिशी जितनी खुश घर जाने को थी, उस से कहीं ज्यादा खुश यह सोच कर थी कि अब विहान से मुलाकात होगी. इन छुट्टियों में वह भी तो आएगा.

‘‘बहुत झगड़ा करूंगी, पूछूंगी उस से, ये क्या बचपना है, अच्छी खबर लूंगी, क्या समझता है अपनेआप को… ऐसे कोई करता है क्या?‘‘ ऐसे ही अनगिनत बातों को दिल में समेटे वह घर पहुंची. त्योहार की रौनक मिशी की उदासी कम ना कर सकी. छुट्टियां खत्म हो गईं. वापसी का समय आ गया, पर नहीं आया तो वह, जिस का मिशी बेसब्री से इंतजार कर रही थी. दोनों घरों की दूरियां नापते मिशी को दिल की दूरियों का अहसास होने लगा था. अब इंतजार के अलावा उस के पास कोई रास्ता नहीं था.

मिशी दीवाली की शाम ही घर पहुंच पाई थी. लक्ष्मी पूजन के बाद डिनर की तैयारियां चल रही थीं. त्योहारों पर दोनों फैमिली साथ ही समय बिताती गपशप, मस्ती, खाना, सब खूब ऐंजौय करते थे.

आज विहान की फैमिली आने वाली थी. मिशी खुशी से झूम उठी थी. आज तो विहान से बात हो ही जाएगी. पर उस रात जो हुआ उस का मिशी को अंदाजा भी नहीं था. दोनों परिवारों ने सहमति से पूजा और विहान का रिश्ता तय कर दिया. मिशी को छोड़ सभी बहुत खुश थे.

‘‘पर, मैं खुश क्यों नहीं हूं, क्या मैं विहान से प्यार… नहींनहीं, हम तो बस बचपन के साथी हैं. इस से ज््यादा तो कुछ नहीं है, फिर मैं आजकल विहान को ले कर इतना क्यों परेशान रहती हूं. उस से बात न होने से मुझे ये क्या हो रहा है? क्या मैं अपनी ही फीलिंग्स समझ नहीं पा रही हूं…?‘‘

इसी उधेड़बुन में रात आंखों में ही बीत गई थी. किसी से कुछ शेयर किए बिना ही वह वापस मुंबई लौट गई.

दिन यों ही बीत रहे थे, पूजा की शादी के बारे में न घर वालों ने आगे कुछ बताया और न ही मिशी ने पूछा.
एक दिन दोपहर को मिशी को काल आया, ‘‘घर की लोकेशन भेजो, डिनर साथ ही करेंगे.‘‘

मिशी ‘करती हूं’ के अलावा कुछ ना बोल सकी. उस के चेहरे पर मुसकान बिखर गई थी, उस रोज वह औफिस से जल्दी घर पहुंची, खाना बना कर, घर संवारा और खुद को संवारने में जुट गई, ‘‘मैं विहान के लिए ऐसे क्यों संवर रही हूं, इस से पहले तो कभी मैं ने इस तरह नहीं सोचा… ‘‘ उस को खुद पर हंसी आ गई, अपने ही सिर पर धीरे से चपत लगा कर वह विहान के इंतजार में भीतरबाहर होने लगी. उसे लग रहा था, जैसे वक्त थम गया हो, वक्त काटना मुश्किल हो रहा था.

शाम के लगभग 8 बजे बेल बजी. मिशी की सांसें ऊपरनीचे हो गईं. शरीर ठंडा सा लगने लगा. होंठों पर मुसकराहट तैर गई. दरवाजा खोला, पूरे 10 महीने बाद विहान उस के सामने था. एक पल को वह उसे देखती ही रही, दिल की बेचैनी आंखों से निकलने को उतावली हो उठी.

विहान भी लंबे समय बाद अपनी मिशी से मिल उसे देखता ही रह गया.फिर मिशी ने ही किसी तरह संभलते हुए विहान को अंदर आने के लिए कहा. मिशी की आवाज सुन विहान अपनी सुध में वापस आया. दोनों देर तक चुप बैठे, छुपछुप कर एकदूसरे को देख लेते, नजरें मिल जाने पर यहांवहां देखने लगते. दोनों ही कोशिश में थे कि उन की चोरी पकड़ी न जाए.

डिनर करने के बाद जल्दी ही फिर मिलने की कह कर विहान वापस चला गया.

उस रात वह विहान से कोई सवाल नहीं कर सकी थी, जितना विहान पूछता रहा, वह उतना ही जवाब देती गई. वह खोई रही, विहान को इतने दिनों बाद अपने करीब पा कर, जैसे जी उठी थी वह उस रात…

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विहान एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था… 15 दिन बीत चुके थे, इन 15 दिनों में विहान और मिशी दो ही बार मिले.

विहान का काम पूरा हो चुका था, 1 दिन बाद उस को निकलना था. मिशी विहान को ले कर बहुत परेशान थी. आखिर उस ने निर्णय लिया कि विहान के जाने के पहले वह उस से बात करेंगी… पूछेगी उस की बेरुखी की वजह… मिशी अभी उधेड़बुन में थी, तभी मोबाइल बज उठा… विहान का था…
‘‘हेलो, मिशी औफिस के बाद तैयार रहना… बाहर चलना है, तुम्हें किसी से मिलवाना है.‘‘

‘‘किस से मिलवाना है, विहान.‘‘

‘‘शाम होने तो दो, पता चल जाएगा.‘‘

‘‘बताओ तो…‘‘

‘‘समझ लो, मेरी गर्लफ्रैंड है.‘‘

इतना सुनते ही मिशी चुप हो गई. 6 बजे विहान ने उसे पिक किया. मिशी बहुत उदास थी. दिल में हजारों सवाल उमड़घुमड़ रहे थे. वह कहना चाहती थी, विहान तुम्हारी शादी पूजा दी से होने वाली है, ये क्या तमाशा है. पर नहीं कह सकी, चुपचाप बैठी रही.

‘‘पूछोगी नहीं, कौन है?’’ विहान ने कहा.

‘‘पूछ कर क्या करना है? मिल ही लूंगी कुछ देर में,‘‘ मिशी ने धीरे से कहा.
थोड़ी देर बाद वे समुद्र किनारे पहंुचे. विहान ने मिशी को एक जगह इंतजार करने को कहा, ‘‘ तुम यहां रुको, मैं उस को ले कर आता हूं.‘‘

आसमान झिलमिलाते तारों की सुंदर बूटियों से सजा था. समुद्र की लहरें प्रकृति का मनभावन संगीत फिजाओं में घोल रही थीं. हवा मंथर गति से बह रही थी, फिर भी मिशिका का मन उदासी के भंवर में फंसा जा रहा था.

‘‘विहान मुझ से दूर हो जाएगा, मेरा विहान,‘‘ सोचतेसोचते उस की उंगलियां खुद बा खुद रेत पर विहान का नाम उकेरने लगीं.

‘‘विहान… मेरा नाम इस से पहले इतना अच्छा कभी नहीं लगा,‘‘ विहान पीछे से खड़ेखड़े ही बोला.

मिशी ने हड़बड़ाहट में नाम पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कहां…. है, कब आए तुम… कहां है वह?‘‘

मिशी की आंखें उस लड़की को ढूंढ़ रही थीं, जिसे मिलवाने के लिए विहान उसे यहां ले कर आया था.

‘‘नाराज हो कर चली गई वह,‘‘ मिशी के पास बैठते हुए विहान ने कहा.

‘‘नाराज हो गई, पर क्यों?‘‘ मिशी ने पूछा.

‘‘अरे वाह, मैं जिसे प्रपोज करने वाला हूं, वह लड़की अगर देखे कि मेरे बचपन की दोस्त रेत पर इस कदर प्यार से उस के बौयफ्रैंड का नाम लिख रही है, तो गुस्सा नहीं आएगा उसे,‘‘ विहान ने पूरे नाटकीय अंदाज में कहा.

‘‘मैं ने… मैं ने कब लिखा तुम्हारा नाम,‘‘ मिशी सकपका कर बोली.

‘‘जो अभी अपनेआप रेत पर उभर आया था, उस नाम की बात कर रहा हूं.‘‘

यह सुन कर उस ने अपनी नजरें झुका लीं, उस की चोरी जो पकड़ी गई थी, फिर भी मिशी बोली, ‘‘मैं ने… मैं ने तो कोई नाम नहीं लिखा.‘‘

‘‘अच्छा बाबा… नहीं लिखा,‘‘ विहान ने मुसकरा कर कहा.

मिशी समझ ही नहीं पा रही थी कि ये हो क्या रहा है…

‘‘और… और वह लड़की, जिस से मिलवाने के लिए तुम मुझे यहां ले कर आए थे. सच बताओ ना विहान…‘‘

‘‘कोई लड़कीवड़की नहीं है, मैं अभी जिस के करीब बैठा हूं, बस वही है,’’ उस ने मिशी की आंखों में देखते हुए कहा. नजरें मिलते ही मिशी भी नजरें चुराने लगी.

‘‘मिशी, मत छुपाओ, आज कह दो जो भी दिल में हो.’’

मिशी की जबान खामोश थी, पर आंखों में विहान के लिए प्यार साफ नजर आ रहा था, जिसे विहान ने पहले ही महसूस कर लिया था, पर वह ये सब मिशी से जानना चाहता था.

मिशी कुछ देर चुप रही. दूर समंदर में उठती लहरों के ज्वार को देखती रही, ऐसा ही भावनाओं का ज्वार अभी उस के दिल में मचल रहा था. फिर उस ने हिम्मत बटोर कर बोलने की कोशिश की, पर उस की आंखों में जज्बातों का समंदर तैर गया. कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘कहां चले गए थे विहान, मैं… मैं… तुम को कितना मिस कर रही थी.’’
इतना कह कर वह फिर शून्य में देखने लगी…
‘‘मिशी… आज भी चुप रहोगी… बह जाने दो अपने जज्बातों को… जो भी दिल में है कहो… तुम नहीं जानती कि मैं ने इस दिन का कितना इंतजार किया है…

‘‘मिशी बताओ… प्यार करती हो मुझ से…’’

मिशी विहान की तरफ मुड़ी. उस के इमोशंस उस की आंखों में साफ नजर आ रहे थे… होंठ कंपकंपा रहे थे…
‘‘विहान, तुम जब नहीं थे, तब जाना कि मेरे जीवन में तुम क्या हो, तुम्हारे बिना जीना, सिर्फ सांस लेना भर है. तुम्हें अंदाजा भी नहीं है कि मैं किस दौर से गुजरी हूं. मेरी उदासी का थोड़ा भी खयाल नहीं आया तुम को,‘‘ कहतेकहते मिशी रो पड़ी.

विहान ने उस के आंसू पोंछे और मुसकराने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘मिशी, तुम ने तो सिर्फ 10 महीने इंतजार किया… मैं ने वर्षों किया है… जिस तड़प से तुम कुछ दिन गुजरी हो… वह मैं ने आज तक सही है…

‘‘मिशी, तुम मेरे लिए तब से खास हो, जब मैं प्यार का मतलब भी नहीं समझता था. बचपन में खेलने के बाद जब तुम्हारे घर जाने का समय आता था, तब अकसर तुम्हारी चप्पल कहीं खो जाती थी, तुम देर तक ढूंढ़ने के बाद मुझ से ही शिकायत करतीं और हम दोनों मिल कर अपने साथियों पर ही बरस पड़ते.
‘‘पर मिशी, वह मैं ही होता था… हर बार जो तुम्हें रोकने के लिए ये सब करता था… तुम कभी जान ही नहीं पाई,‘‘ कहतेकहते विहान यादों में खो गया.

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‘‘जानती हो… जब हम साथ पढ़ाई करते थे, तब भी मैं टौपिक समझ ना आने के बहाने से देर तक बैठा रहता, तुम मुझे बारबार समझाती, पर मैं नादान बना बैठा रहता सिर्फ तुम्हारा साथ पाने की चाह में…

‘‘जब छुट्टियों में बच्चे बाहर अलगअलग ऐक्टिविटी करते, तब भी मैं तुम्हारी पसंद के हिसाब से काम करता था, ताकि तुम्हारा साथ रहे.’’

‘‘विहान… तुम,’’ मिशी ने अचरज से कहा.

‘‘अभी तुम बस सुनो… मुझे और मेरे दिल की आवाज को… याद है मिशी, जब हम 12जी में थे, तुम मुझे कहती.. क्यों विहान गर्लफ्रैंड नहीं बनाई.. मेरी तो सब सहेलियों के बौयफ्रैंड हैं.. मंर पूछता तो तुम्हारा भी है… तुम हंस देती… हट पागल, मुझे तो पढ़ाई करनी है… फिर मस्त जौब… पर, विहान तुम्हारी गर्लफ्रैंड होनी चाहिए…’’ इतना कह कर तुम मुझे अपनी कुछ सहेलियों की खूबियां गिनवाने लगतीं. मेरा मन करता कि तुम्हें झकझोर कर कहूं कि तुम हो तो… पर नहीं कह सका.

‘‘और तुम्हें जो अपने हर बर्थडे पर जिस सरप्राइज का सब से ज्यादा इंतजार होता है … वो देने वाला मैं ही था… बचपन में जब तुम्हारी फेवरेट टौफी तुम्हारे पंेसिल बौक्स में मिलती, तो तुम बेहद खुश हुई थीं…

‘‘अगली बार भी जब मैं ने तुम को सरप्राइज किया, तब तुम ने कहा था, ‘‘विहान, पता नहीं कौन है… मौमडैड, दी या मेरी कोई फ्रैंड, पर मेरी इच्छा है कि मुझे हमेशा ये सरप्राइज गिफ्ट मिले. तुम ने सब के नाम लिए, पर मेरा नहीं,‘‘ कहतेकहते विहान की आवाज लड़खड़ा सी गई, फिर भर आए गले को साफ कर वह आगे बोला, ‘‘तब से हर बार मैं ये करता गया… पहले पेंसिल बौक्स था, फिर बैग… फिर तुम्हारा पर्स… और अब कुरियर.‘‘

सच जान कर मिशी जैसे सुन्न हो गई… वह हर बात विहान से शेयर करती थी. पर, कभी ये नहीं सोचा था कि विहान भी तो वह शख्स हो सकता है. उसे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था.

रात गहरा चुकी थी, चांद… स्याह रात के माथे पर बिंदी बन कर चमक रहा था. तेज हवा और लहरों के शोर में मिशी के जोर से धड़कते दिल की आवाज भी मिल रही थी. विहान आज वर्षों से छुपे प्रेम की परतें खोल रहा था.

वह आगे बोला, ‘‘मिशी, उस दिन तो जैसे मैं हार गया था, जब मैं ने तुम से कहा कि मुझे एक लड़की पसंद है… मैं ने बहुत हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार करने के लिए यह प्लान बनाया था… मैं ने धड़कते दिल से कहा… दिखाऊं फोटो… तो तुम ने झट से मेरा मोबाइल छीना… और जैसे ही फोटो देखा, तुम्हार रिएक्शन देख कर मैं ठगा सा रह गया… लगा, यहां मेरा कुछ नहीं होने वाला… पगली से प्यार कर बैठा.’’

इतना कह कर उस ने मिशी से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें याद है, उस दिन तुम ने क्या किया था?‘‘

‘‘हां… हां, तुम्हारे मोबाइल में मुझे अपना फोटो दिखा, तो मैं ने कहा… कब लिया ये फोटो… बहुत प्यारा है…‘‘ और मैं उस पिक में खो गई, सोशल मीडिया पर शेयर करने लगी. तुम्हारी गर्लफ्रैंड वाली बात तो मेरे दिमाग से गायब ही हो गई थी.
‘‘जी मैडम… जी… मैं तुम्हारी लाइफ में इस हद तक जुड़ा रहा कि तुम मुझे कभी अलग से फील कर ही नहीं पाई.’’
‘‘ऐसा कितनी बार हुआ, पर तुम अपनेआप में थी, अपने सपनों में, किसी और बात के लिए शायद तुम्हारे पास टाइम ही नहीं था, यहां तक कि अपने जज्बातों को समझने के लिए भी नही…‘‘ विहान कहता जा रहा था.
मिशी जोर से अपनी मुट्ठियाँ भींचती हुई अपनी बेवकूफियों का हिसाब लगा रही थी.

इस तरह विहान ना जाने कितनी छोटीबड़ी बातें बताता रहा और मिशी सिर झुकाए सुनती रही..

मिशी का गला रुंध गया… विहान इतना प्यार कोई किसी से कैसे कर सकता है…. और तब तो बिलकुल नहीं… जब उसे कोई समझने वाला ही ना हो… कितना कुछ दबा रखा है तुम ने…. मेरे साथ की छोटी से छोटी बातें कितनी सिद्दत से सहेज कर रखी हैं तुम ने ‘‘

‘‘अरे… पागल.. रोते नहीं… और ये किस ने कहा कि तुम मुझे समझती नहीं थी… मैं तो हमेशा तुम्हारा सब से करीबी रहा… इसलिए प्यार का अहसास कहीं गुम हो गया था.‘‘

‘‘और इस हकीकत को सामने लाने के लिए…. मैं ने खुद को तुम से दूर करने का फैसला किया… कई बार दूरियां नजदीकियों के लिए बहुत जरूरी हो जाती हैं. मुझे लगा कि मेरा प्यार सच्चा होगा, तो तुम तक मेरी ‘सदा‘ जरूर पहुंचेगी, नहीं तो मुझे आगे बढ़ना होगा… तुम को छोड़ कर.‘‘
‘‘मैं कितनी मतलबी थी…’’
‘‘ना बाबा… ना, तुम बहुत प्यारी हो, तब भी थीं और अब भी हो.’’

मिशी के रोते चेहरे पर हलकी सी मुसकान आ गई… वह धीरे से विहान के कंधे पर अपना सिर टिकाने को बढ़ ही रही थी कि अचानक उसे कुछ याद आया… वह एकदम उठ खड़ी हुई…

‘‘क्या हुआ… मिशी?’’

‘‘ये सब गलत है…’’

‘‘क्यों गलत है?’’

‘‘तुम और पूजा दी…?’’

‘‘मैं और पूजा…’’ कह कर विहान हंस पड़ा.

‘‘तुम हंस क्यों रहे हो?’’

‘‘मिशी, मेरी प्यारी मिशी….. मुझे जैसे ही पूजा और मेरी शादी की बात पता चली, तो मैं पूजा से मिला और तुम्हारे बारे में बताया…’’ सुन कर पूजा भी खुश हुई. उस का कहना था कि विहान हो या कोई और उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता…. मम्मीपापा जहां चाहेंगे, वह खुशीखुशी वहां शादी कर लेगी… फिर हम दोनों ने सारी बात घर पर बता दी… किसी को कोई दिक्कत नहीं है… अब इंतजार है तो तुम्हारे जवाब का…

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इतना सुनते ही मिशी को तो जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ. उस के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई… अब ना कोई शिकायत बची थी… ना सवाल…

‘‘बोलो मिशी… मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहा हूं,‘‘ विहान ने बेचैनी से कहा.

‘‘मेरे चेहरे पर बिखरी खुशी देखने के बाद भी तुम को जवाब चाहिए,‘‘ मिशी ने नजरें झुका कर बड़े ही भोलेपन से कहा.

‘‘नहीं मिशी, जवाब तो मुझे उसी दिन मिल गया था.. जब मैं तुम्हारे घर आया था. पहले वाली मिशी होती तो बोलबोल कर, सवाल पूछपूछ कर… झगड़ा कर के मुझे भूखा ही भगा देती…’’ कह कर विहान जोर से हंस पड़ा.

‘‘अच्छा… मैं इतनी बकबक करती हूं,‘‘मिशी ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘हां… पर, न तुम झगड़ीं और न ही कुछ बोलीं… बस, देखती रही मुझे… ख्वाब बुनती रहीं… मेरे वजूद को महसूस करती रही… उसी दिन मैं समझ गया था कि जिस मिशी को पाने के लिए मैं ने उसे खोने का गम सहा, ये वही है… मेरी मिशी… सिर्फ मेरी मिशी,‘‘ विहान ने मिशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

मिशी ने भी विहान का हाथ जोर से थाम लिया, हमेशा के लिए. वे हाथों में हाथ लिए चल दिए… जिंदगी के नए सफर पर साथसाथ… कभी जुदा ना होने के लिए… आसमां, चांदतारे और चांदनी के प्रेम में सराबोर लहलहाता समुद्र उन के प्रेम के साक्षी बन गए थे…

कहीं दूर से हवा में संगीत की धुन उन के प्रेम की दास्तां बयां कर रही थी,
‘‘हमसफर… मेरे हमसफर,
हमें साथ चलना है उम्रभर…’’

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