Romantic Story: अनमोल क्षण:- क्या नीरजा को मिला प्यार

Romantic Story: शाम के 4 बजे थे, लेकिन आसमान में घिर आए गहरे काले बादलों ने कुछ अंधेरा सा कर दिया था. तेज बारिश के साथ जोरों की हवाएं और आंधी भी चल रही थी. सामने के पार्क में पेड़ घूमतेलहराते अपनी प्रसन्नता का इजहार कर रहे थे.

सुशांत का मन हुआ कि कमरे के सामने की बालकनी में कुरसी लगा कर मौसम का लुत्फ उठाया जाए, लेकिन फिर उन्हें लगा कि नीरजा का कमजोर दुर्बल शरीर तेज हवा सहन नहीं कर पाएगा.

उन्होंने नीरजा की ओर देखा. वह पलंग पर आंखें मूंद कर लेटी हुई थी.

सुशांत ने नीरजा से पूछा, ‘‘अदरक वाली चाय बनाऊं, पियोगी?’’

अदरक वाली चाय नीरजा को बहुत पसंद थी. उस ने धीरे से आंखें खोलीं और मुसकराई, ‘‘मोहन से कहिए ना वह बना देगा,’’ उखड़ती सांसों से वह इतना ही कह पाई.

‘‘अरे मोहन से क्यों कहूं, यह क्या मुझ से ज्यादा अच्छी चाय बनाएगा, तुम्हारे लिए तो चाय मैं ही बनाऊंगा,’’ कह कर सुशांत किचन में चले गए. जब वह वापिस आए तो ट्रे में 2 कप चाय के साथ कुछ बिसकुट भी रख लाए, उन्होंने सहारा दे कर नीरजा को उठाया और हाथ में चाय का कप पकड़ा कर बिसकुट आगे कर दिए.

‘‘नहीं जी… कुछ नहीं खाना,’’ कह कर नीरजा ने बिसकुट की प्लेट सरका दी.

‘‘बिसकुट चाय में डुबो कर…’’ उन की बात पूरी होने से पहल ही नीरजा ने सिर हिला कर मना कर दिया.

नीरजा की हालत देख कर सुशांत का दिल भर आया. उस का खानापीना लगभग न के बराबर हो गया था. आंखों के नीचे गहरे काले गड्ढे हो गए थे, वजन एकदम घट गया था. वह इतनी कमजोर हो गई थी कि उस की हालत देखी नहीं जाती थी. स्वयं को अत्यंत विवश महसूस कर रहे थे, अपनी किस्मत के आगे हारते चले जा रहे थे सुशांत.

कैसी विडंबना थी कि डाक्टर हो कर उन्होंने ना जाने कितने मरीजों को स्वस्थ किया था, किंतु खुद अपनी पत्नी के लिए कुछ नहींं कर पा रहे थे. बस धीरेधीरे अपने प्राणों से भी प्रिय पत्नी नीरजा को मौत की ओर जाते हुए भीगी आंखों से देख रहे थे.

सुशांत के जेहन में वह दिन उतर आया, जिस दिन वह नीरजा को ब्याह कर अपने घर ले आए थे.

अम्मां अपनी सारी जिम्मेदारियां बहू नीरजा को सौंप कर निश्चित हो गई थीं. कोमल सी दिखने वाली नीरजा ने भी खुले दिल से अपनी हर जिम्मेदारी को पूरे मन से स्वीकारा और किसी को भी शिकायत का मौका नहीं दिया.

उस के सौम्य व सरल स्वभाव ने परिवार के हर सदस्य को उस का कायल बना दिया था. सारे सदस्य नीरजा की तारीफ करते नहीं थकते थे.

सुशांत उन दिनों मैडिकल कालेज में लेक्चरार के पद पर थे, साथ ही घर के अहाते में एक छोटा सा क्लिनिक भी खोल रखा था. स्वयं को एक योग्य व नामी डाक्टर के रूप में देखने की व शोहरत पाने की उन की बड़ी दिली तमन्ना था.

घर का मोरचा अकेली नीरजा पर डाल कर वह सुबह से रात तक अपने कामों में व्यस्त रहते. नईनवेली पत्नी के साथ प्यार के मीठे पल गुजारने की फुरसत उन्हें ना थी… या फिर शायद सुशांत ने जरूरत ही नहीं समझी.

या यों कहिए कि ये अनमोल क्षण उन दोनों की ही किस्मत में नहीं थे, उन्हें लगता था कि नीरजा को तमाम सुखसुविधा व ऐशोआराम में रख कर वह पति होने का फर्ज बखूबी निभा रहे हैं, जबकि सच तो यह था कि नीरजा की भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति से उन्हें कोई सरोकार नहीं था.

नीरजा का मन तो यही चाहता था कि सुशांत उस के साथ सुकून व प्यार के दो पल गुजारे. वह तो यह भी सोचती थी कि सुशांत मेरे साथ जितना भी समय बिताएंगे, उतने ही पल उस के जीवन के अनमोल पल कहलाएंगे, लेकिन अपने मन की यह बात सुशांत से कभी नहीं कह पाई, जब कहा तब सुशांत समझ नहीं पाए और जब समझे तब बहुत देर हो चुकी थी.

वक्त के साथसाथ सुशांत की महत्त्वाकांक्षा भी बढऩे लगी. अपनी पुश्तैनी जायदाद बेच कर और सारी जमापूंजी लगा कर उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त नर्सिंगहोम खोल लिया.

नीरजा ने तब अपने सारे गहने उन के आगे रख दिए थे. हर कदम पर वह सुशांत का मौन संबल बनी रही. उन के जीवन में एक घने वृक्ष सी शीतल छांव देती रही. सुशांत की मेहनत रंग लाई, कुछ समय बाद सफलता सुशांत के कदम चूमने लगी थी. कुछ ही समय में उन के नर्सिंगहोम का काफी नाम हो गया, वहां उन की व्यस्तता इतनी बढ़ गई कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी और सिर्फ अपने नर्सिंगहोम पर ही ध्यान देने लगे.

इस बीच नीरजा ने भी रवि और सुनयना को जन्म दिया और वह उन की परवरिश में ही अपनी खुशी तलाशने लगी. जिंदगी एक बंधेबंधाए ढर्रे पर चल रही थी.

सुशांत के लिए उस का अपना काम था और नीरजा के लिए उस के बच्चे व सामाजिकता का निर्वाह. अम्मांबाबूजी के देहांत और ननद की शादी के बाद नीरजा और भी अकेलापन महसूस करने लगी. बच्चे भी बड़े हो कर अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए थे. सुशांत के लिए पत्नी का अस्तित्व सिर्फ इतना भर था कि सुशांत समयसमय पर उसे ज्वेलरी, कपड़े गिफ्ट कर देते थे. नीरजा का मन किस बात के लिए लालायित था, यह जानने की सुशांत ने कभी कोशिश नहीं की.
जिंदगी ने सुशांत को एक मौका दिया था, कभी कोई फरमाइश न करने वाली उन की पत्नी नीरजा ने एक बार उन्हें अपने दिल की गहराइयों से वाकिफ भी कराया था, लेकिन वे ही उस के दिल का दर्द और आंखों के सूनेपन को अनदेखा कर गए थे.

उस दिन नीरजा का जन्मदिन था. उन्होंने प्यार जताते हुए उस से पूछा था, ‘बताओ, मैं तुम्हारे लिए क्या तोहफा लाया हूं?’ तब नीरजा के चेहरे पर फीकी सी मुसकान आ गई थी. उस ने धीमी आवाज में बस इतना ही कहा, ‘‘तोहफे तो आप मुझे बहुत दे चुके हो, अब तो बस आप का सान्निध्य मिल जाए… ‘‘

सुशांत बोले, “वह भी मिल जाएगा, सिर्फ कुछ साल मेहनत कर लूं और अपनी और बच्चों की लाइफ सेटल कर लूं, फिर तो तुम्हारे साथ समय ही समय गुजारना है,’’ कहते हुए सुशांत ने नीरजा को एक कीमती साड़ी का पैकेट थमा कर काम पे चला गया.

नीरजा ने फिर भी कभी सुशांत से कुछ नहीं कहा था. रवि भी सुशांत के नक्शेकदम पर चल कर डाक्टर ही बना. उस ने अपनी कलीग गीता से विवाह की इच्छा जाहिर की, जिस की उसे सहर्ष अनुमति भी मिल गई.

अब सुशांत को बेटेबहू का सहयोग भी मिलने लगा, फिर सुनयना का विवाह भी हो गया. सुशांत व नीरजा अपनी जिम्मेदारी से निवृत्त हो गए, लेकिन परिस्थिति आज भी पहले की ही तरह थी.

नीरजा अब भी सुशांत के सान्निध्य को तरस रही थी, लेकिन सुशांत कुछ वर्ष और काम करना चाहते थे, अभी और सेटल होना चाहते थे.
शायद सबकुछ इसी तरह चलता रहता, अगर नीरजा बीमार न पड़ती.

एक दिन जब सब लोग नर्सिंगहोम में थे, तब नीरजा चक्कर खा कर गिर पड़ी. घर के नौकर मोहन ने जब फोन पर बताया, तो सब घबड़ा कर घर आए, फिर शुरू हुआ टेस्ट कराने का सिलसिला, जब रिपोर्ट आई तो पता चला कि नीरजा को ओवेरियन कैंसर है.

सुशांत यह सुन कर घबरा गए, मानो उन के पैरों तले जमीन खिसकने लगी. उन्होंने अपने मित्र कैंसर स्पेशलिस्ट डा. भागवत को नीरजा की रिपोर्ट दिखाई. उन्होंने देखते ही साफ कह दिया, ‘‘सुशांत, तुम्हारी पत्नी को ओवेरियन कैंसर ही हुआ है. इस में कुछ तो बीमारी के लक्षणों का पता ही देरी से चलता है और कुछ इन्होंने अपनी तकलीफें छिपाई होंगी, अब तो इन का कैंसर चौथे स्टेज पर है, यह शरीर के दूसरे अंगों तक भी फैल चुका है, चाहो तो सर्जरी और कीमियोथेरेपी कर सकते हैं, लेकिन कुछ खास फायदा नहीं होने वाला. अब तो जो शेष समय है इन के पास, उस में ही इन को खुश रखो.’’

यह सुन कर सुशांत को लगा कि उस के हाथपैरों से दम ही निकल गया है. उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि नीरजा इतनी जल्दी इस तरह उन्हें दुनिया में अकेली छोड़ कर चली जाएगी. वह तो हर वक्त एक खामोश साए की तरह उन के साथ रहती थी. सुशांत की हर छोटी जरूरतों को उन के कहने के पहले ही पूरा कर देती थी. फिर यों अचानक उस के बिना…

अब जा कर सुशांत को लगा कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कितनी बड़ी गलती कर दी थी. नीरजा के अस्तित्व की कभी कोई कद्र नहीं की, उसे कभी महत्त्व ही नहीं दिया सुशांत ने, उन के लिए तो वह बस एक मूक सहचरी ही थी, जो उन की जरूरत के लिए हर वक्त उन की नजरों के सामने मौजूद रहती थी, इस से ज्यादा कोई अहमियत नहीं दी सुशांत ने नीरजा को.

आज प्रकृति ने न्याय किया था. सुशांत को अपनी की हुई गलतियों की कड़ी सजा मिल रही थी. जिस महत्त्वाकांक्षा के पीछे भागतेभागते उन की जिंदगी गुजरी थी, जिस का उन्हें बेहद गुमान भी था, आज उन का सारा गुमान व शान तुच्छ लग रहा था.

अब जब उन्हें पता चला कि नीरजा के जीवन का बस थोड़ा ही समय बाकी रह गया था, तब उन्हें एहसास हुआ कि वह उन के जीवन का कितना बड़ा अहम हिस्सा थीं. नीरजा के बिना जीने की कल्पनामात्र से ही वे सिहर उठे.

महत्त्वाकांक्षाओं के पीछे भागने में वे हमेशा नीरजा को उपेक्षित करते रहे, लेकिन अब अपनी सारी सफलताएं उन्हें बेमानी लगने लगी थीं.

‘‘पापा, आप चिंता मत कीजिए. मैं अब नर्सिंगहोम नहीं आऊंगी. घर पर ही रह कर मम्मी का ध्यान रखूंगी,’’ उन की बहू गीता कह रही थी.

सुशांत ने एक गहरी सांस ली और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘नहीं बेटा नर्सिंगहोम अब तुम्हीं लोग संभालो, तुम्हारी मम्मी को इस वक्त सब से ज्यादा मेरी ही जरूरत है, उस ने मेरे लिए बहुतकुछ त्याग किया है. उस का ऋण तो मैं किसी भी हालत में नहीं चुका पाऊंगा, लेकिन कम से कम अंतिम समय में उस का साथ तो निभाऊं.’’

उस के बाद से सुशांत ने नर्सिंगहोम जाना छोड़ दिया. वे घर पर ही रह कर नीरजा की देखभाल करते, उस से दुनियाजहान की बातें करते, कभी कोई बुक पढ़ कर सुनाते, तो कभी साथ बैठ कर टीवी देखते. वे किसी भी तरह नीरजा के जाने के पहले बीते वक्त की भरपाई करना चाहते थे. मगर वक्त उन के साथ नहीं था.

धीरेधीरे नीरजा की तबीयत और भी बिगड़ने लगी थी. सुशांत उस के सामने तो संयत रहते, मगर अकेले में उन के दिल की पीड़ा आंसुओं की धारा बन कर बहती थी.

नीरजा की कमजोर काया और सूनी आंखें सुशांत के हृदय में शूल की तरह चुभती रहती. वे स्वयं को नीरजा की इस हालत का दोषी मानने लगे थे व उन के मन में नीरजा को खो देने का डर भी रहता. वे जानते थे कि दुर्भाग्य तो उन की नियति में लिखा जा चुका था, लेकिन उस मर्मांतक क्षण की कल्पना करते हुए हमेशा भयभीत रहते.

‘‘अंधेरा होगा जी,’’ नीरजा की आवाज से सुशांत की तंद्रा टूटी. उन्होंने उठ कर लाइट जला दी. देखा कि नीरजा का चाय का कप आधा भरा हुआ रखा था और वह फिर से आंखें मूंदे टेक लगा कर बैठी थी. चाय ठंडी हो चुकी थी.

सुशांत ने चुपचाप चाय का कप उठाया, किचन में जा कर सिंक में चाय फेंक दी. उन्होंने खिड़की से बाहर देखा, बाहर अभी भी तेज बारिश हो रही थी. हवा का ठंडा झोंका आ कर उन्हें छू गया, लेकिन अब उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. उन्होंने अपनी आंखों के कोरों को पोंछा और मोहन को आवाज लगा कर खिचड़ी बनाने को कहा. खिचड़ी भी मुश्किल से दो चम्मच ही खा पाई थी नीरजा ने. आखिर में सुशांत उस की प्लेट उठा कर किचन में रख आए. तब तक रवि और गीता भी नर्सिंगहोम से लौट आए थे.’’

‘‘कैसी हो मम्मा?’’ रवि प्यार से नीरजा की गोद में लेटते हुए बोला.

‘‘ठीक ही हूं मेरे बच्चे,’’ मुसकराते हुए नीरजा उस के सिर पर हाथ फेरते हुए धीमी आवाज में बोली.

सुशांत ने देखा कि नीरजा के चेहरे पे असीम संतोष था. अपने पूरे परिवार के साथ होने की खुशी थी उसे. वह अपनी बीमारी से अनजान नहीं थी, परंतु फिर भी वह प्रसन्न ही रहती थी. जिस अनमोल सान्निध्य की आस ले कर वह वर्षों से जी रही थी, वह अब उसे बिना मांगे ही मिल रही थी. अब वह तृप्त थी, इसलिए आने वाली मौत के लिए कोई डर या अफसोस नीरजा के चेहरे पे दिखाई नहीं दे रहा था.

बच्चे काफी देर तक मां का हालचात पूछते रहे. उसे अपने दिनभर के काम के बारे में बताते रहे, फिर नीरजा का रुख देख कर सुशांत ने उन से कहा, ‘‘अब खाना खा कर आराम करो. दिनभर काम कर के थक गए होंगे.’’

‘‘पापा, आप भी खाना खा लीजिए,’’ गीता ने कहा.

‘‘मुझे अभी भूख नहीं है बेटा. मैं बाद में खा लूंगा.’’

बच्चों के जाने के बाद नीरजा फिर आंखें मूंद कर लेट गई. सुशांत ने धीमी आवाज में टीवी औन कर दिया, लेकिन थोड़ी देर में ही उन का मन ऊब गया. अब उन्हें थोड़ी भूख लग गई थी, लेकिन खाना खाने का मन नहीं किया. उन्होंने सोचा, नीरजा और अपने लिए दूध ही ले आएं. किचन में जा कर सुशांत ने 2 गिलास दूध गरम किया, तब तक रवि और गीता खाना खा कर अपने कमरे में जा कर सो चुके थे.

‘‘नीरजा, दूध लाया हूं,’’ कमरे में आ कर सुशांत ने धीरे से आवाज लगाई, लेकिन नीरजा ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्हें लगा कि वह सो रही है. उन्होंने उस के गिलास को ढक कर रख दिया और खुद पलंग के दूसरी ओर बैठ कर दूध पीने लगे.

सुशांत ने नीरजा की तरफ देखा. उस के सोते हुए चेहरे पर कितनी शांति झलक रही थी. सुशांत का हाथ बरबस ही उस का माथा सहलाने के लिए आगे बढ़ा, फिर वह चौंक पड़े, दोबारा माथेगालों को स्पर्श किया, तब उन्हें एहसास हुआ कि नीरजा का शरीर ठंडा था. वह सो नहीं रही थी, बल्कि हमेशा के लिए चिरनिद्रा में विलीन हो चुकी थी.

सुशांत को जो डर इतने महीनों से डरा रहा था, आज वे उस के वास्तविक रूप का सामना कर रहे थे. कुछ समय के लिए वे एकदम सुन्न से हो गए. उन्हें समझ ही नहीं आया कि वे क्या करें, फिर धीरेधीरे सुशांत की चेतना जागी, पहले सोचा कि जा कर बच्चों को खबर कर दें, लेकिन कुछ सोच कर रुक गए. सारी उम्र नीरजा सुशांत के सान्निध्य के लिए तड़पी थी, लेकिन आज सुशांत एकदम तनहा हो गए थे. अब वे नीरजा के सामीप्य के लिए तरस रह थे. अश्रुधारा उन की आंखों से अविरल बहे जा रही थी. वे नीरजा की मौजूदगी को अपने दिल में महसूस करना चाह रहे थे, इस एहसास को अपने अंदर समेट लेना चाहते थे, क्योंकि बाकी की तनहा जिंदगी उन्हें अपने इसी दुखभरे एहसास के साथ व पश्चाताप के दर्द के साथ ही तो गुजारनी थी. सुशांत के पास केवल एक रात ही थी. अपने और अपनी प्राणों से भी प्रिय पत्नी के सान्निध्य के इन आखिरी पलों में वे किसी और की दखलअंदाजी नहीं चाहते थे. उन्होंने लाइट बुझा दी और निर्जीव नीरजा को अपने हृदय से लगा कर फूटफूट कर रोने लगे.

बारिश अब थम चुकी थी, लेकिन सुशांत की आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही थी…
काश, सुशांत अपने जीवन के व्यस्त क्षणों में से कुछ पल अपनी प्रेयसी नीरजा के साथ गुजार लेते तो शायद आज नीरजा सुशांत को छोड़ कर दूर बहुत दूर नील गगन के पार नहीं जाती.

सुशांत के सान्निध्य की तड़प अपने साथ ले कर नीरजा हमेशा के लिए चली गई और सुशांत को दे गई पश्चाताप का असहनीय दर्द.

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Fictional Story: हमारी सौंदर्य: क्यों माताश्री की पसंद की बहू उसे नही पसंद थी

Fictional Story: शादी से पहले ही हमें पता था कि हमारी होने वाली पत्नी ने ब्यूटीशियन का कोर्स कर रखा है. फिर जब हम उन के घर उन्हें देखने गए थे तो सिर्फ हम ही नहीं बल्कि हमारा पूरा परिवार उन के सौंदर्य से प्रभावित था. हमें आज भी याद है कि वहां से लौट कर हमारी मां ने पूरे महल्ले में अपनी होने वाली बहू के सौंदर्य का जी खोल कर गुणगान किया था. उन दिनों घर आनेजाने वाले हरेक से वे अपनी होने वाली बहू की सुंदरता के विषय में बताना नहीं भूलती थीं. उन के श्रीमुख से अपनी होने वाली बहू की प्रशंसा सुन कर हमारी कई पड़ोसिनें तो उन्हें सचेत भी करती थीं कि देखिएगा बहनजी, कहीं आप के घर में बहू की सुंदरता की ऐसी आंधी न चले कि वह अपने साथसाथ सतीश को भी उड़ा कर ले जाए.

कई महिलाएं तो मां को बाकायदा सचेत भी करती थीं कि हम तो अभी से बता रहे हैं. बाद में मत कहना कि पहले नहीं चेताया था. परिचितों तथा महल्ले के कई घरों के उदाहरण दे कर वे अपने कथन को और दमदार बनाने की कोशिश करती थीं. लेकिन हमारी मां उसे महिलाओं की जलन समझ कर अपनी किस्मत पर इतराती थीं. वे उन की बातें सुनते समय अपने दोनों कानों का भरपूर उपयोग करती थीं. जहां एक कान से वे अपने उन हितैषियों की बातें सुनती थीं, वहीं दूसरे कान से अगले ही पल उन की बातें निकालने में कोई समय नहीं लगाती थीं. उन के जाने के बाद वे उन्हें जलनखोर, ईर्ष्यालु, दूसरों का अच्छा होता न देखने वाली उपाधियों से विभूषित करती थीं. हम भी मां की बातें सुन कर अपनी किस्मत पर फूले नहीं समाते थे. खैर, मां की अपनी पड़ोसिनों के साथ अपनी होने वाली बहू की प्रशंसा को ले कर खींचतान समाप्त हुई और अंत में वह दिन भी आ गया, जब मां की ब्यूटीशियन बहू का हमारी पत्नी बन कर हमारे घर में आगमन हुआ. पत्नी की सुंदरता देख कर हमें तो ऐसा लगा जैसे हमें दुनिया भर की खुशियां एकसाथ ही मिल गई हैं. पत्नी की सुंदरता से हमारी आंखें चौंधिया गई थीं.

‘‘सुनिए जी,’’ एक दिन हम दफ्तर के लिए निकल ही रहे थे कि पीछे से हमारी सौंदर्य विशेषज्ञा पत्नी की मधुर आवाज ने हमारे कानों को झंकृत किया. अपनी मोटरसाइकिल पर किक मारना छोड़ कर हम ने श्रीमतीजी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा.

‘‘कोई विशेष बात नहीं है. ठीक है, आप से शाम को आप के दफ्तर से आने के बाद कहूंगी,’’ कह कर श्रीमतीजी ने अपनी ओर से बात समाप्त कर दी.

अब श्रीमतीजी को तो लगा कि उन्होंने अपनी ओर से बात समाप्त कर दी है, लेकिन हमारे लिए तो यह जैसे उन की ओर से किसी चर्चा की शुरुआत मात्र थी. उस दिन दफ्तर के किसी भी काम में हमारा मन नहीं लगा. हमारा पूरा दिन यही सोचने में निकल गया कि न जाने क्या बात थी? श्रीमतीजी न जाने हम से क्या कहना चाहती थीं? दिन में 2-3 बार श्रीमतीजी ने हमारे मोबाइल पर हमें फोन भी किया, लेकिन हर बार बात कुछ और ही निकली. हमारे द्वारा पूछने पर भी श्रीमतीजी ने हमारे लौट कर आने पर बताने की बात कही.

शाम होने तक हमारी उत्सुकता अपनी चरम पर थी. हम जानना चाहते थे कि

आखिर वह क्या बात है जिसे हमारी नवविवाहिता सुबह से कहना चाहती थीं. हमारे कान उस बात को सुनने के लिए बेताब थे.

शाम की चाय पर भी जब श्रीमतीजी ने अपनी ओर से उस बात को बताने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, कोई पहल नहीं की, तो अंत में थकहार कर हम ने श्रीमतीजी से पूछा, ‘‘सुबह दफ्तर जाते समय कुछ कहना चाहती थीं, क्या बात थी?’’

‘‘कोई विशेष नहीं… मैं तो बस इतना सोच रही हूं कि यदि आप अपने चेहरे पर से इन मूंछों को हटा दें, तो आप कहीं अधिक स्मार्ट, कहीं अधिक युवा नजर आएंगे. मेरा अनुभव बताता है कि उस के बाद आप अपनी उम्र से 10 वर्ष कम के युवा नजर आएंगे,’’ श्रीमतीजी ने जब बड़े आराम से अपनी बात रखी, तो हमें लगा जैसे किसी ने हमें एक ऊंचे पहाड़ की चोटी से धक्का दे दिया है.

‘‘मूंछों में भी तो व्यक्ति स्मार्ट लगता है. कई चेहरे ऐसे होते हैं, जिन पर मूंछें अच्छी लगती हैं. उन का संपूर्ण व्यक्तित्व मूंछों के रहने से खिल उठता है. बिना मूंछों के उन के चेहरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती. मूंछें उन के व्यक्तित्व की शान होती हैं,’’ हम ने मूंछों और मूंछ वालों के पक्ष में अपने तर्क रखे.

‘‘हो सकता है कुछ लोगों के साथ ये बातें भी हों, लेकिन मैं ने अंदाजा लगा लिया है कि बिना मूंछों के आप का चेहरा कहीं अधिक आकर्षक, कहीं अधिक युवा नजर आएगा,’’ श्रीमतीजी ने निर्णायक स्वर में कहा.

लोग अपनी नवविवाहिता को खुश करने के लिए क्याक्या नहीं करते. फिर यहां तो श्रीमतीजी ने एक छोटी सी मांग रखी है, यह सोच कर हम ने अपनी प्यारी मूंछों को, जिन का हम से वर्षों का नाता था, एक ही झटके में स्वयं से अलग कर लिया.

लेकिन यह तो जैसे एक शुरुआत मात्र थी. एक शाम जब हम घर पहुंचे तो श्रीमतीजी को सजाधजा देख कर हमारा माथा ठनका, ‘‘क्यों कहीं चलना है क्या?’’ हम ने पूछा.

‘‘जी हां, आप के लिए कुछ शौपिंग करनी है,’’ श्रीमतीजी ने हमें सकारात्मक जवाब दिया.

कुछ ही देर में हम शहर के एक व्यस्त शौपिंग मौल में थे. वहां से श्रीमतीजी ने हमारे लिए कुछ टीशर्ट्स तथा जींस यह कहते हुए खरीदीं, ‘‘एक ही तरह के कपड़े पहनने के बदले आप को कुछ नया ट्राई करना चाहिए. इन्हें पहन कर आप अधिक चुस्तदुरुस्त, अधिक युवा नजर आएंगे.’’

फिर तो हमें समझ में ही नहीं आ रहा था कि हमारी सौंदर्य विशेषज्ञा पत्नी हम में और कितने परिवर्तन लाएंगी. कभी फेशियल तो कभी बालों को रंगना तो कभी कुछ और. हम ने तो इस स्थिति से समझौता कर स्वयं को श्रीमतीजी के हवाले कर ही दिया था. हम समझ गए थे कि अब हम चाहे जो कर लें, हमारी सौंदर्य विशेषज्ञा पत्नी हमारा कायाकल्प कर के ही मानेंगी. लेकिन बात यदि हम तक ही सीमित होती तो भी ठीक था. श्रीमतीजी ने तो जैसे ठान लिया था कि पूरे घर को बदल डालूंगी. उन्होंने घर के सभी सदस्यों के व्यक्तित्व में आमूलचूल परिवर्तन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था.

एक दिन जब दफ्तर से हम घर लौटे तो ड्राइंगरूम में जींसटौप पहने बैठी एक

महिला, जिन्होंने चेहरे पर फेसपैक लगा रखा था तथा दोनों आंखों पर खीरे के 2 टुकड़े, हमें कुछ जानीपहचानी सी लगीं. अभी हम पहचानने की कोशिश कर ही रहे थे कि पीछे से एक आवाज आई, ‘‘क्या अपनी जन्म देने वाली मां को भी पहचान नहीं पा रहे? क्या उन्हें पहचानने के लिए भी दिमाग पर जोर डालना पड़ रहा है? देखिए मम्मीजी, मैं कहती थी न यदि आप अपने शरीर की उचित देखभाल करें, अपने सौंदर्य के प्रति सचेत रहें तथा थोड़े ढंग के फैशन के अनुसार कपड़े पहनें, तो आप के व्यक्तित्व में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ जाएगा. आप अपनी उम्र से बहुत कम की लगेंगी तथा पड़ोस की सारी आंटी आप को देख कर ईर्ष्या करेंगी, आप से जलेंगी,’’ यह हमारी श्रीमतीजी की आवाज थी.

‘‘अच्छा तो हमारे बाद अब मम्मीजी की बारी है?’’ हमारे पास इस के अलावा श्रीमतीजी से कहने के लिए और शब्द ही नहीं थे.

फिर जैसा हमें अंदेशा था वही हुआ, मम्मीजी के बाद श्रीमतीजी के अगले शिकार हमारे परमपूज्य पिताजी थे. आप सोचेंगे कि अपने पूज्य ससुरजी के साथ हमारी श्रीमतीजी भला क्या प्रयोग कर सकती हैं, वे उन में भला क्या बदलाव ला सकती हैं? लेकिन नहीं, ‘जहां चाह वहां राह’ वाली उक्ति को चरितार्थ करते हुए श्रीमतीजी ने यहां भी अपनी विशेषज्ञता का प्रमाण दिया. हमेशा ढीलेढाले वस्त्र पहनने वाले हमारे पिताश्री अब जींस और टीशर्ट के अलावा अन्य किसी दूसरे वस्त्र की ओर देखते तक नहीं. उन की पैरों में चप्पलों का स्थान अब स्पोर्ट्स शूज ने ले लिया है. सिर के सारे बाल एकदम काले हो गए हैं. इस के अलावा भी हमारे मातापिता सौरी मम्मीपापा में बहुत से चमत्कारिक परिवर्तन हो गए हैं. दोनों ही स्वयं के सौंदर्य प्रति बहुत सचेत बेहद सजग हो गए हैं.

श्रीमतीजी के सौंदर्य विशेषज्ञा होने की प्रसिद्धि धीरेधीरे पूरे महल्ले में फैल चुकी है. अब तो ऐसा लगने लगा है कि हमारे पूरे महल्ले में सौंदर्य के प्रति सजगता अचानक बहुत तेजी से बढ़ गई है. क्या पुरुष क्या महिलाएं क्या जवान क्या बूढ़े, सभी समय के कालचक्र को रोक देना चाहते हैं. वे समय के पहिए को उलटी दिशा में घुमाना चाहते हैं तथा अपनी इस इच्छापूर्ति का उन्हें सिर्फ और सिर्फ एक ही साधन, एक ही अंतिम उपाय नजर आता है. वे हैं हमारी श्रीमतीजी.

हमारे महल्ले में प्राय: सभी का मानना है कि श्रीमीतजी के द्वारा ही उन का जीर्णोद्धार हो सकता है. उन्हें नया रूपरंग मिल सकता है. प्रकृति प्रदत्त उन के शरीर को सिर्फ हमारी श्रीमतीजी ही एक नया व आकर्षक रूप दे सकती हैं. अत: वे श्रीमतीजी के ज्ञान का लाभ लेने एवं स्वयं को आकर्षक एवं सुंदर बनाने के लिए बिना किसी ?झिाक के हमारे घर आते हैं. प्राय: उन के आते ही शुरू हो जाता है फेशियल, कटिंग, थ्रेडिंग, ब्लीचिंग, बौडी मसाज जैसे शब्दों के साथ शरीर को सुंदर बनाने का सिलसिला.

अब तो शाम को दफ्तर से लौटने पर भी हमें श्रीमतीजी के कस्टमर्स से 2-4 होना पड़ता है. कोई दिन ऐसा नहीं होता जब हम दफ्तर से थकेहारे घर लौटे हों और श्रीमतीजी के 2-3 कस्टमर्स हमारे घर पर उपस्थित न हों. हमें अपने घर में ही पराएपन का एहसास होने लगा है. सिर्फ इतना ही नहीं, ‘भाभीजी भाभीजी’ करते हुए महल्ले के नवयुवक श्रीमतीजी से सुंदरता के सुझव लेने के बहाने उन्हें घेरे रहते हैं तथा श्रीमतीजी अपने चुलबुले देवरों को उपयोगी सुझव दे कर उन्हें उपकृत करती रहती हैं. हम चुपचाप एक ओर बैठे अपनी स्थिति पर ही अफसोस करते रहते हैं.

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Social Story: नगर में ढिंढोरा- डंपी को किस बात का डर था

Social Story: रंजीत ने एक फाइल खोली और पत्रों पर सरसरी नजर डाली तो उसे हर पत्र की लिखावट में अपने 9 वर्षीय बेटे डंपी की भोली सूरत नजर आ रही थी. आंसुओं को रोकने का प्रयत्न करते हुए वह कुरसी से उठ खड़ा हुआ और सोचने लगा कि जब तक डंपी मिल नहीं जाता वह दफ्तर का कोई काम ठीक से नहीं कर सकेगा.

पिछले 7 दिनों से उस के घर में चूल्हा नहीं जला. अड़ोसपड़ोस के लोग और सगेसंबंधी जो भी खाने का सामान लाते उसे ही थोड़ाबहुत खिलापिला जाते थे.

रंजीत घर जाने की छुट्टी लेने के लिए अपने अफसर के कमरे में अभी पहुंचा ही था कि फोन की घंटी बज उठी थी.

‘‘रंजीत, तुम्हारा फोन है,’’ बौस ने उस से कहा था.

रंजीत ने लपक कर फोन उठाया तो दूसरी तरफ  पुलिस अधीक्षक सुमंत राय बोल रहे थे.

‘‘रंजीत, कहां हो तुम? डंपी मिल गया है. तुरंत पुलिस स्टेशन चले आओ.’’

थाने पहुंचते ही रंजीत बेटे को देख कर बोला, ‘‘डंपी, मेरे बच्चे, कहां चले गए थे तुम? सुमंत, किस ने अगवा किया था मेरे बच्चे को?’’

रंजीत डंपी को गले लगाने के लिए आगे बढ़ा तो वह छिटक कर दूर जा खड़ा हुआ.

‘‘मैं कहीं नहीं गया था, पापा. मैं तो शुभम के घर में छिपा हुआ था. मुझे किसी ने अगवा नहीं किया था.’’

‘‘पर तुम पड़ोस के घर में क्यों छिपे थे?’’ रंजीत का स्वर आश्चर्य में डूबा था.

‘‘इसलिए कि मैं जीना चाहता हूं. आप और मम्मी तो उस रात ही मुझे चाकू से मार डालना चाहते थे. वह तो मैं ने अपने स्थान पर तकिया लगा कर अपनी जान बचाई थी.’’

डंपी रोते हुए बोला तो रंजीत ने एक पल को पत्नी की तरफ देखा फिर अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.

‘‘ऐसा नहीं कहते, बेटा, भला कोई मम्मीपापा अपने बच्चे को मार सकते हैं?’’ शैलजा डंपी को अपनी बांहों में लेने के लिए आगे बढ़ी.

‘‘पता नहीं मम्मी, पर उस दिन तो आप दोनों ने चाकू से मुझे मारने की योजना बनाई थी,’’ डंपी अब सिसक कर रोने लगा.

‘‘बहुत हो गया यह तमाशा. अब एक शब्द भी आगे बोला तो इतनी पिटाई करूंगा कि बोलती बंद हो जाएगी,’’ रंजीत बच्चे द्वारा किए गए अपमान को सह नहीं पा रहा था.

‘‘मुझे पता है, इसीलिए तो मैं आप के साथ रहना नहीं चाहता हूं,’’ डंपी सिसक रहा था.

‘‘आखिर, उस दिन ऐसा क्या हुआ था कि बच्चा इतना डरा हुआ है?’’ दादी मां के इस सवाल पर रंजीत, शैलजा और डंपी के सामने उस रात की तमाम घटनाएं सजीव हो उठीं.

अचानक जोर की चीख सुन कर नन्हा डंपी जाग गया था. जब अंधेरे की वजह से उस की कुछ समझ में नहीं आया तो वह घबरा कर उठ बैठा था. धीरेधीरे अंधेरे में जब उस की आंखें देखने की अभ्यस्त हुईं तो देखा कि पलंग के एक कोने पर बैठी मम्मी सिसक रही थीं.

‘मैं तो इस दिनरात की किचकिच से इतना दुखी हो गया हूं कि मन होता है आत्महत्या कर लूं,’ रंजीत ने तौलिए से हाथमुंह पोंछते हुए कहा था.

‘चलो अच्छा है, कम से कम एक विषय में तो हम दोनों के विचार मिलते हैं. मैं भी दिन में 10 बार यही सोचती हूं. मैं ने तो बहुत पहले ही आत्महत्या कर ली होती. बस, डंपी का मुंह देख कर चुप रह जाती हूं कि मेरे बाद उस का क्या होगा,’ शैलजा भरे गले से बोली थी.

‘यह कौन सी बड़ी समस्या है. पहले डंपी का काम तमाम कर देते हैं फिर दोनों मिल कर आत्महत्या करेंगे. कम से कम इस नरक से तो छुटकारा मिलेगा,’ रंजीत तीखे स्वर में बोला था.

‘ठीक है. अच्छे काम में देर कैसी? मैं अभी चाकू लाती हूं,’ और क्रोध से कांपती शैलजा रसोईघर की ओर लपकी थी. रंजीत उस के पीछेपीछे चला गया था.

इधर दिसंबर की ठंड में भी डंपी पसीने से नहा गया था. कुछ ही दिन पहले टेलीविजन पर देखा भयंकर दृश्य उस की आंखों में एकाएक तैर गया जिस में एक दंपती ने अपने 3 बच्चों की हत्या करने के बाद आत्महत्या का प्रयास किया था.

डंपी को लगा कि उस ने यदि शीघ्र ही कुछ नहीं किया तो कल तक वह भी टेलीविजन के परदे पर दिखाया जाने वाला एक समाचार बन कर रह जाएगा. उधर रसोईघर से शैलजा और रंजीत के झगड़े के स्वर तीखे होते जा रहे थे.

डंपी फौरन उठा और अपने स्थान पर तकिया लगा कर उसे रजाई उढ़ा दी. सामने पड़ा एक पुराना कंबल ले कर वह पलंग के नीचे लेट गया. भय और ठंड के मिलेजुले प्रभाव से डंपी अपने घुटनों को ठोड़ी से सटाए वहीं पड़ा रहा.

आधी रात तक लड़नेझगड़ने के बाद रंजीत और शैलजा थकहार कर सो गए थे पर डंपी की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. ये तो बड़े खतरनाक लोग हैं. मातापिता हैं तो क्या हुआ, उसे तो मार ही डालेंगे. इन लोगों के साथ रहना खतरे से खाली नहीं है.

कुछ ही देर में कमरे में खर्राटों के स्वर गूंजने लगे थे. डंपी को अपने ही माता- पिता से वितृष्णा होने लगी. वैसे तो बड़ा प्यार जताते हैं पर अब दोनों में से किसी को भी होश नहीं है कि मैं कहां पड़ा हूं.

सुबह उठ कर रंजीत जब ड्राइंगरूम में आया तो डंपी को तैयार बैठा देख कर चौंक गया, ‘बड़ी जल्दी तैयार हो गए तुम?’

‘जल्दी कहां, पापा, 7 बजे हैं.’

‘रोज तो कितना भी जगाओ, उठने का नाम नहीं लेते और आज अभी से सजधज कर तैयार हो गए,’ रंजीत अखबार पर नजर गड़ाए हुए बोला था.

‘शायद आप को याद नहीं है, पापा, मेरी परीक्षा चल रही है,’ डंपी ने याद दिलाया था.

‘ठीक है, जाओ पर खाने का क्या  इंतजाम करोगे? तुम्हारी मम्मी को तो सोने से ही फुरसत नहीं मिलती.’

‘कोई बात नहीं, पापा मैं ने नाश्ता कर लिया है. मैं चलता हूं नहीं तो बस छूट जाएगी,’ कहते हुए डंपी घर से बाहर निकल गया था.

‘डंपी…ओ डंपी?’ लगभग 2 घंटे बाद शैलजा की नींद खुली तो उस ने बदहवासी से बेटे को पुकारा था.

‘डंपी बाबा तो मेरे आने से पहले ही स्कूल चले गए,’ काम वाली ने शैलजा को बताया.

‘और साहब?’

‘वह भी अपने दफ्तर चले गए. मैं ने नाश्ते के लिए पूछा तो कहने लगे कि रहने दो. कैंटीन से मंगा कर खा लूंगा.’

‘उन्हें घर का खाना कब भाता है’ वह तो कैंटीन में खा लेंगे पर डंपी, वह बेचारा तो पूरे दिन भूखा ही रह जाएगा. कम्मो, तू जल्दी से कुछ बना कर टिफिन में रख दे. तब तक मैं तैयार हो लेती हूं.’

शैलजा टिफिन ले कर स्कूल पहुंची तो आया ने गेट पर ही रोक कर टिफिन ले लिया था.

‘मैं एक बार अपने बेटे डंपी से मिलना चाहती हूं,’ शैलजा ने अनुरोध भरे स्वर में कहा था.

‘उस के लिए तो आप को दोपहर की छुट्टी तक इंतजार करना पड़ेगा क्योंकि पढ़ाई के समय में अभिभावकों को अंदर जाने की इजाजत नहीं है,’ आया ने बताया था.

शैलजा आया को टिफिन पकड़ा कर लौट आई थी.

घर पहुंचते ही कम्मो ने बताया था कि डंपी बाबा के स्कूल से फोन आया था.

‘अभी वहीं से तो मैं आ रही हूं. घर पहुंचने से पहले ही फोन आ गया. ऐसा क्या काम आ पड़ा?’

उसी समय फोन की घंटी बज उठी. शैलजा ने लपक कर फोन उठाया तो उधर से आवाज आई थी, ‘आप डंपी की मम्मी बोल रही हैं न?’

‘जी हां, आप कौन?’

‘मैं स्कूल की प्रधानाचार्या बोल रही हूं. आप ही कुछ देर पहले डंपी के लिए टिफिन दे गई थीं. लेकिन आप का बेटा डंपी आज स्कूल आया ही नहीं है.’

‘क्या कह रही हैं आप? डंपी तो आज सुबह 7 बजे ही घर से स्कूल के लिए चला गया था. वहां न पहुंचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.’

‘देखिए, मेरा काम था आप को सूचित करना, सो कर दिया. आगे जैसा आप ठीक समझें,’ और फोन रख दिया गया था.

शैलजा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. डंपी गया तो कहां गया.

वह दोनों हाथों में सिर थामे जहां खड़ी थी वहीं खड़ी रह गई. उसे लगा कि टांगों में जान नहीं रही है, उस का गला भी सूख रहा था और आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था.

शैलजा की यह दशा देख कर कम्मो दौड़ी आई और उसे सहारा दे कर सोफे पर बैठाया. एक गिलास पानी देने के बाद कम्मो ने शैलजा के सामने फोन रख दिया.

रात के झगड़े के बाद शैलजा की रंजीत से बोलचाल बंद थी पर उस की चिंता न करते हुए उस ने सिसकियों के बीच सबकुछ रंजीत को बता दिया था.

‘सुबह तो डंपी मेरे सामने ही बस्ता ले कर गया था. तो स्कूल की जगह वह और कहां जा सकता है. मैं स्कूल जा कर देखता हूं. वहीं कहीं बच्चों के साथ होगा,’ कहने को तो रंजीत कह गया था पर घबराहट के मारे उस का भी बुरा हाल था.

चौथी कक्षा में पढ़ने वाले 9 वर्षीय डंपी के गायब होने का समाचार जंगल में लगी आग की तरह फैल गया था. जितने मुंह उतनी बातें.

हर स्थान पर खोजखबर लेने के बाद रंजीत और शैलजा ने पुलिस में बेटे के गायब होने की रिपोर्ट लिखा दी थी. शुभम के मातापिता छुट्टियां मनाने दूसरे शहर गए हुए थे अत: घर वापस लौटते ही वे लपक कर डंपी के घर पहुंचे थे.

‘मुझे तो लगता है मैं ने डंपी को अपने घर के सामने खड़े देखा था,’ शुभम की मम्मी रीमा बोली थीं.

‘भ्रम हुआ होगा तुम्हें. इतने दिनों से ये लोग ढूंढ़ रहे हैं उसे. हमारे घर के सामने कहां से आ गया वह?’ शुभम के पापा रीतेश बोले थे.

रीमा को कुछ दिनों से शुभम की गतिविधियां विचित्र लगने लगी थीं. फ्रिज में रखे खाने के सामान तेजी से खत्म होने लगे. सदा चहकता रहने वाला शुभम खुद में ही डूबा रहने लगा था.

एक दिन रीमा ने शुभम को तब रंगे हाथ पकड़ लिया जब वह डंपी को खाने का सामान दे रहा था. शुभम के घर के पिछवाड़े कुछ खाली ड्रम रखे हुए थे, डंपी वहीं छिपा हुआ था.

पूरी जानकारी कर लेने के बाद पुलिस अधीक्षक सुमंत राय डंपी के मातापिता को सवालिया नजरों से देखने लगे.

काफी देर हिचकियां ले कर रोने  के बाद डंपी अपनी दादी की गोद में सो गया.

‘‘बहनजी, बच्चे के मन में डर बैठ गया है,’’ डंपी की नानी बोली थीं, ‘‘अब तो मुझे भी डर लग रहा है कि ये लोग क्रोध में बच्चे को चाकू घोंप कर मार डालते तो कोई क्या कर लेता?’’

‘‘ठीक कह रही हैं आप,’’ पुलिस अधीक्षक सुमंत राय बोले थे, ‘‘इस तरह की घटनाएं खुद पर नियंत्रण खो बैठने से ही होती हैं. इस बार तो मैं डंपी को रंजीत और शैलजा को सौंपे दे रहा हूं पर इन्हें लिखित भरोसा देना होगा कि बच्चे को ऐसी यंत्रणा से दोबारा न गुजरना पड़े.’’

‘‘भविष्य में ऐसा नहीं होगा. हम आप को वचन देते हैं,’’ रंजीत और शैलजा किसी से नजरें नहीं मिला पा रहे थे.

‘‘फिर भी मैं बच्चे की दादीदादा और नानीनाना से कहूंगा कि वे बारीबारी से यहां आ कर रहें जिस से कि बच्चे का मातापिता से खोया विश्वास लौट सके.’’

सुमंत राय बोले तो सब ने सहमति में सिर हिलाया. उधर गहरी नींद में करवट बदलते हुए डंपी फिर सिसकने लगा था.

Social Story

Best Hindi Story: दस्तक- मीनाक्षी के साथ क्या हुआ था

Best Hindi Story: ‘‘जरा बाहर वाला दरवाजा बंद करते जाइएगा,’’ सरोजिनी ने रसोई से चिल्ला कर कहा, ‘‘मैं मसाला भून रही हूं.’’

‘‘ठीक है, डेढ़दो घंटे में वापस आ जाऊंगा,’’ कहते हुए श्रीनाथ दरवाजा बंद करते हुए गाड़ी की तरफ बढ़े. उन्होंने 3 बार हौर्न बजाते हुए गाड़ी को बगीचे के फाटक से बाहर निकाला और पास वाले बंगले के फाटक के सामने रोक दिया.

‘पड़ोस वाली बंदरिया भी साथ जा रही है,’ दांत पीस कर सरोजिनी फुसफुसाई, ‘बुढि़या इस उम्र में भी नखरों से बाज नहीं आती.’ गैस बंद कर के वह सीढि़यां चढ़ गई थी.

सरोजिनी ऊपर वाले शयनकक्ष की खिड़की के परदे के पीछे खड़ी थी. वहीं से सब देख रही थी. वैसे भी पति का गानेबजाने का शौक उसे अच्छा नहीं लगता था और श्रीनाथ थे कि कोई रसिया मिलते ही तनमन भूल कर या तो सितार छेड़ने लगते या उस रसिया कलाकार की दाद देने लगते पर जब से सरोजिनी के साथ इस विषय में झड़प होनी शुरू हो गई थी तब से मंडली घर में जमाने के बजाय बाहर जा कर अपनी गानेबजाने की प्यास बुझाने लगे थे. सरोजिनी कुढ़ती पर श्रीनाथ शांत रहते थे. पड़ोस के बगीचे का फाटक खोल कर मीनाक्षी बाहर आई. कलफ लगी सफेद साड़ी, जूड़े पर जूही के फूलों का छोटा सा गुच्छा और आंखों पर मोटा चश्मा, बरामदे में खड़े अपने पति राजशेखर को हाथ से विदा का इशारा करती वह गाड़ी का दरवाजा खोल कर श्रीनाथ के साथ थोड़ा फासला कर बैठ गई. फिर शीघ्र ही गाड़ी नजरों से ओझल हो गई.

पैर पटकती हुई सरोजिनी नीचे उतरी. कोफ्ते बनाने का उस का उत्साह ठंडा पड़ गया था. पिछले बरामदे में झूलती कुरसी पर बैठ कर उस ने अपना सिर कुरसी की पीठ पर टिका दिया और आंखें मूंद लीं. आंखों से 2-4 आंसू अनायास ही टपक पड़े. कालेज में सरोजिनी मेधाविनी समझी जाती थी. मांबाप को गर्व था उस के रूप और गुणों पर, कालेज की वादविवाद स्पर्धा में उस ने कई इनाम जीते थे लेकिन बड़ों के सामने कभी शालीनता की मर्यादा को लांघ कर वह एक शब्द भी नहीं बोलती थी. श्रीनाथ के साथ रिश्ते की बात चली तब सरोजिनी ने चाहा कि एक बार उन से मिल ले और पूछ ले कि विवाह के बाद अपनी प्रतिभा पर क्या पूर्णविराम लगाना होगा? आखिर गानाबजाना या चित्रकारी, रंगोली अथवा सिलाई जैसी कलाओं का महिलाएं वर्षों तक सदुपयोग कर सकती हैं, वाहवाही भी लूट सकती हैं. पर बोलने की कला? आवाज के उतारचढ़ाव का जादू? एक सरोजिनी नायडू की तरह सभी की जिंदगी में तो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने का संतोष नहीं लिखा होता.मां-बाप के सामने तो वह कुछ कह नहीं पाई, पर मीनाक्षी तो उस की अंतरंग सहेली थी. सोचा, उस से क्या छिपाना.

मीनाक्षी हंस पड़ी थी उस की चिंता देख कर, ‘पगली, बोलने के लिए समय कहां रहेगा तेरे पास? पहले कुछ वर्ष मधुमास चलेगा, फिर घर में कौए और कोयलें वादविवाद करने लगेंगी.’

‘क्या मतलब?’

‘बच्चों की कांवकांव, तेरी लोरियां, पति की चिल्लाहट, तेरी मिन्नतें…’ मीनाक्षी हंसने लगी थी, ‘और जब 15-20 वर्षों के बाद तुझे अपना वादविवाद याद आएगा, तब तू एक संतुष्ट, थुलथुली, अपने परिवार में मगन प्रौढ़ा बन चुकी होगी. फिर कहां का भाषण और कैसा वादविवाद?’

‘तुझे पता है, संस्कृत में कहावत है कि वक्ता 10 हजार में एक ही होता है. सिलाईबुनाई, रसोई और रंगोली तो सभी जानती हैं, पर बोलने की कला? क्यों मैं अपने अमूल्य वरदान को भुला दूं?‘ठीक है, मत भुलाना. खैर, श्रीनाथ के साथ मैं तुम्हारी मुलाकात करवा दूंगी,’ कह कर वह चली गई थी.

शाम को डरा, सहमा सा उस का छोटा भाई आया था, ‘सरू दीदी, चलोगी मेरे साथ? दीदी को बुखार है. वह बारबार आप को याद कर रही हैं. शायद किसी प्रोफैसर का बताया हुआ कुछ काम कर तो रखा है…आप के हाथ से भेजना चाहती होंगी?’‘जा सरू, देख कर आ मीनाक्षी को,’ मां ने कहा था, ‘रहने दे, वह गुझिया भरने का काम…बाद में कर लेना.’मीनाक्षी के घर में श्रीनाथ से मुलाकात हुई थी. दोनों चुप थे. आखिर चाय के साथ मीनाक्षी आई तब कहीं शर्म की बर्फ पिघली.

‘पूछ लो अपने सवाल,’ मीनाक्षी ने हंस कर कहा था, ‘पूछने के लिए तो मुंह खुलता नहीं, भाषण कला को प्रोत्साहन मिलेगा कि नहीं, पूछने चली है.’

हंसतेबतियाते घंटाभर गुजर गया था. पता चला था कि श्रीनाथ खुद मितभाषी हैं पर जरूर सुनेंगे अपनी पत्नी का भाषण. अगर वह किसी महिलामंडली या सभा में भी बोलना चाहेगी तो उन को कोई आपत्ति नहीं होगी. शर्त यह होगी कि राजनीति के सुर न छेड़े जाएं और उन्हें उन के शौक के लिए समय दिया जाए. लेकिन वह कहां कुछ कर पाई. विवाह के 5-6 महीनों के बाद ही उस की तबीयत सुस्त रहने लगी. फिर हुआ सोनाली का जन्म. जिंदगी के 30 साल यों ही गुजर गए. 2 बेटियों और 1 बेटे की परवरिश, उन के लाड़प्यार, शिक्षादीक्षा और शादीब्याह तक वह अपनेआप को उलझाती गई परिवार की गुत्थियों में. कभी उस के उलझने की जरूरत थी तो कभी वह चाह कर खुद उलझी. पीछे से पछताई भी, जैसे रूपाली के विवाह के बारे में.

रूपाली स्वतंत्र विचारों की लड़की थी. शुरू से ही उस ने अपने निर्णय खुद लेने का रवैया अपनाया था. सोनाली गृहविज्ञान में स्नातकोत्तर परीक्षा दे कर अच्छे घर में विवाह कर के सुख से रह रही थी. उस का घर सचमुच देखने लायक था. सरोजिनी बहुत प्रसन्न होती थी बेटी की सुघड़ता देख कर, उस की प्रशंसा सुन कर. पर रूपाली? उस ने खेलकूद के पीछे पड़ कर, ज्योंत्यों दूसरे वर्ग में 12वीं की देहरी पार की. फिर स्नातक उपाधि के लिए विषय चुना, संगीत. उसे कितना समझाया था कि दौड़ में स्कूल चैंपियन बनने से या संगीत में 2-4 इनाम पाने से किसी की जिंदगी नहीं संवर सकती. अपने खानदान की योग्यता के अनुरूप घरवर नहीं मिल सकता.

‘सरू, यह कोई जरूरी नहीं कि सब बच्चे एकजैसे हों, या एक ही तरीके का जीवन अपनाएं. समझाना तुम्हारा काम था, सो तुम कर चुकीं. अब रूपा को अपनी मरजी से नई राह चुनने दो. खेलकूद कोई बुरी चीज तो नहीं. कबड्डी संघ में बोलबाला है रूपा का. गाती भी अच्छा है, दमखम वाली आवाज है…’ श्रीनाथ ने कई बार सरोजिनी को अकेले में समझाया था.

लेकिन शालीनता की प्रतिमा सी सरोजिनी बच्चों के मामले में बहुत ज्यादा हठी व शक्की थी. बच्चों के लिए उस ने चौखटें बना रखी थीं, उन्हें उन्हीं में फिट होना था. पर रूपाली को कहां रास आती ऐसी रोकटोक. संगीत में स्नातक होने से पहले ही उस ने अपनी संगीत कक्षा खोल ली थी. धीरेधीरे कमाने लगी थी. फिर स्नातक होते ही गुरुमूर्ति से ब्याह कर के मां के चरण स्पर्श करने आई थी.

गुरुमूर्ति माध्यमिक विद्यालय में एक शिक्षक था. क्या तबला या वायलिन बजाने से कोई अभिजात्य वर्ग का सदस्य बन सकता है? तिस पर वह ठहरा दक्षिण भारतीय. सरोजिनी का मुंह कड़वा हो गया था. श्रीनाथ घर पर न होते तो शायद वह उसे अपमानित कर के भगा भी देती. पर वह ठहरे संगीत रसिक. दामाद से प्यार से मिले और खिलायापिलाया. नया जीवन शुरू करने के लिए कुछ धन भी दिया और बेटी की शादी की खुशी में पार्टी भी दी.

‘सरू, जो हो गया सो हो गया,’ उन्होंने पार्टी के बाद कहा, ‘बच्चे जहां रहें, सुखी रहें. जरूरत पड़ने पर, जब तक हो सकेगा उन की सहायता करेंगे. तुम रोती क्यों हो? गुरुमूर्ति अच्छा लड़का है, सुखी रहेगी हमारी बेटी. तुम अब तक जो नहीं कर पाईं, अब करो. तुम्हारी भाषण कला का क्या होगा. इस तरह तो तुम कुम्हला जाओगी.’ बड़ा गुस्सा आया था सरोजिनी को. सोचा, उपदेश देना बहुत आसान है. शादी के बाद उस के पांवों में कई बेडि़यां पड़ी हैं…परिवार की जिम्मेदारियां, बच्चों का लालनपालन, सामाजिक संबंधों का रखरखाव और घर के अनगिनत काम. श्रीनाथ को क्या, तनख्वाह ला कर थमा दी और मस्तमौला बन कर घूमते रहे, सितार उठा कर. कभी यहां तो कभी वहां. उन की संगीत में प्रगति होती रही, पर सरोजिनी की ‘10 हजार में एक’ वाली कला दफन हो गई उस के विवाह रूपी पत्थर के नीचे.

यह तो अच्छा था कि बेटा आज्ञाकारी निकला. पढ़लिख कर अच्छीखासी नौकरी भी कर रहा था, वह भी इसी शहर में. उसी के सहारे तो अब जीना था. एक निश्वास के साथ वह कुरसी से उठी. कई काम पड़े थे. दीवाली पास आ रही थी. सोनाली पति के साथ घूमने गई थी, दिल्ली, नेपाल. परंतु दीवाली पर तो सब को आना था. तैयारियां करनी थीं. दीवाली के 2 दिन बाद बेटे के लिए कानपुर से रिश्ता ले कर लोग आ रहे थे.

‘पर श्रीनाथ को क्या,’ कौफी बनातेबनाते सरोजिनी बड़बड़ाने लगी, ‘वह तो सठिया गए हैं. अब सेवानिवृत्त होने के बाद उन के और पर निकल आए हैं. मीनाक्षी के साथ चले जाते हैं, किसी कार्यक्रम के अभ्यास के लिए.’

कौफी का प्याला ले कर वह फिर बरामदे में चली गई. पिछला बरामदा, उस का साथी, उस के जीवन की तरह हमेशा ओट में रहने वाला. यहां उसे अच्छा लगता है. बंदरिया का घर भी यहां से दिखाई नहीं पड़ता. बंदरिया? अंतरंग सहेली का ‘बंदरिया’ में रूपांतर बहुत वर्षों पहले ही हो गया था, जब सोनाली के लिए वह अपने किसी भानजेवानजे का रिश्ता लाई थी. कहती थी कि सोनाली भी उसे पसंद करती है. साधारण मध्यवर्गीय परिवार, लड़का भी कोई खास नहीं था. यह तो अच्छा हुआ कि सोनाली का दिमाग जल्दी ही ठिकाने आ गया, और उस ने मां की बात मान ली.

मीनाक्षी सभी को अपने तराजू में तौलती थी. ‘अब खुद भी राजशेखर से विवाह कर के यहां मेरी छाती पर मूंग दलने आ बैठी है,’ सरोजिनी बड़बड़ाई, ‘क्या धरा था इस राजशेखर में? मेरी ननद की मृत्यु के बाद उस से शादी कर के मेरे पड़ोस में आ बैठी. भाई के साथ वाले बंगले में रहने का सपना था सुधा का, पर सालभर भी न रह पाई.’

उस दिन काम करतेकरते सरोजिनी की पुरानी यादों का सिलसिला साथसाथ ही चलता रहा. सरोजिनी की शादी के समय सुधा 2 छोटे बच्चों की मां बन चुकी थी. श्रीनाथ अपनी छोटी बहन को बहुत चाहते थे. हमेशा नजरों के सामने रखना चाहते थे. उस की शादी उन के मित्र से हुई थी. अच्छी जमी थी उन की मंडली. उन दिनों उस मंडली में सरोजिनी के छोटेछोटे भाषणों की भी धूम थी.

3-4 दिन के सिरदर्द ने सुधा को उठा लिया. अच्छे से अच्छे न्यूरोसर्जन भी कुछ न कर पाए. सालभर के बाद मीनाक्षी सुधा का घर संभालने आ पहुंची. ‘देखो बेटी, मीनाक्षी को सहेली और छोटी ननद, दोनों ही समझना,’ मीनाक्षी की मां ने सरोजिनी से कहा था, ‘हमें राजशेखर से अच्छा दामाद कहां मिलेगा? फिर श्रीनाथ यह रिश्ता लाए हैं. वे मीनाक्षी के बड़े भाई की जगह हैं…’

‘भाई की जगह…भाड़ में जाए,’ सरोजिनी ने गुस्से से कड़ाही पटक दी, ‘अच्छा है, भाईबहन के रिश्ते का बुरका… आएदिन साथसाथ घूमना और राजशेखर भी तो अंधा है. मीनाक्षी ने त्याग के नाम पर खरीद लिया है उस को…’ गाड़ी की आवाज आई तो उस ने चुपचाप दरवाजा खोला. सितार उठा कर गुनगुनाते हुए श्रीनाथ अंदर घुसे. ‘‘वाह, कुछ जायकेदार चीज बनी है,’’ उन्होंने सूंघते हुए कहा. फिर बोले, ‘‘क्यों खटती रहती हो चौके में? मेरे साथ हमारी रविवारीय सभा में चलो तो तुम्हें भी कुछ खुली हवा मिले. जानती हो, कमला नगर में एक ‘औरेटर्स और्चर्ड’ नाम की संस्था है, जहां भाषण देने वाले बकबक करने जाते हैं. इतवार के दिन वे भी मिलते हैं…’’‘‘भाड़ में गया तुम्हारा और्चर्ड,’’ थालियां परोसती हुई वह बड़बड़ाई.उस के बाद के सरोजिनी के कुछ दिन बड़ी धूमधाम में कटे. वह घर को सजाती रही, संवारती रही, पकवान बनाने की तैयारियां करती रही.

धनतेरस की शाम को दीए जलाने का समय हुआ तब भी श्रीनाथ का पता न था. धनतेरस को ही सरोजिनी का जन्मदिन था. उस दिन से ही श्रीनाथ दीवाली मनाने लगते थे. अकसर कहा करते थे, ‘भई, हमारी रोशनी का जन्म जिस दिन हुआ उसी दिन से दीवाली मनाई जाएगी.’ मिठाइयां लाते, फूल लाते, पर आज अभी तक उन का पता न था. मुनीअम्मा ने आंगन में सुंदर रंगोली बनाई थी. अगरबत्ती से घर महक रहा था. तभी अचानक 3-4 गाडि़यों के रुकने की आवाज आई. डर कर सरोजिनी ने किवाड़ खोला. सामने श्रीनाथ बड़ा गुलदस्ता लिए खड़े थे और पीछे, हंसतेमुसकराते लोगों की एक टोली थी.

‘‘हम अंदर आ सकते हैं, सरकार?’’ पीछे से मीनाक्षी ने पूछा. वही पुरानी मस्तीभरी आवाज थी.

सरोजिनी ने चाहा, दौड़ कर बंदरिया के गले लग जाए, पर फिर याद आईं ढेर सारी बातें और एक रूखा ‘आओ’ कहती हुई वह कमरे के अंदर हो गई. श्रीनाथ ने बड़े उत्साह से अपनी कलाकार मंडली का परिचय करवाया. मीनाक्षी रसोई में घुस कर चाय बनाने लगी और संगीत के सुरों से वातावरण भर गया. अंत में मीनाक्षी ने एक स्वरचित गाना गाया. उस की आवाज मधुर तो नहीं थी, पर शब्दों में भाव था, गीत सुरीला था इसलिए समां बंध गया.

गीत के बोल थे, ‘सहेली, सहेली… ओ मेरी सहेली, न बन तू पहेली, आ सुना दे, मुझे जो व्यथा तू ने झेली…’

सरेजिनी को पता भी नहीं था कि उस की आंखें बरस रही हैं. सामने बड़ा सा केक रखा था जिस पर उस का नाम लिखा हुआ था.

‘‘आज मैं अपनी पत्नी को सब से प्यारा तोहफा देना चाहता हूं,’’ श्रीनाथ अचानक खड़े हो कर बोलने लगे, ‘‘इस तोहफे के पीछे की कई दौड़धूप का श्रेय मीनाक्षी और राजशेखर को है. अपने ‘औरेटर्स आर्चर्ड’ के लोगों की ओर से आसपास के स्कूलों और कालेजों में भाषणकला को प्रोत्साहन देने के लिए जो गोष्ठीसभा होने वाली है, उस का शिक्षामंत्री उद्घाटन करेंगे. उस समारोह में भाषण देने का काम करेंगी सरोजिनी.’’

तालियों की ध्वनि से कमरा भर गया.

‘‘पता नहीं, मैं कर भी पाऊंगी या नहीं,’’ सरोजिनी के मन का मैल धुलने लगा था. भर्राई आवाज में आत्मविश्वास का अभाव तो नहीं था पर कार्यक्षमता पर कुछ संदेह अवश्य था.

‘‘अभी से अभ्यास शुरू कर दो,’’ मीनाक्षी ने कहा, ‘‘लो, अब उद्घाटन करो. केक काटो, चाय पीओ और शुरू हो जाओ.’’

उस दिन सरोजिनी को पता चला कि प्रतिभा कभी मरती नहीं. राख में दबी चिनगारी की तरह वह छिपी रहती है और समय आने पर निखरती है. आज तक उस ने खुद ईर्ष्या की, नासमझी की, अकारण ही संदेह की राख की परतों के नीचे अपनी कला को दबा कर रखा था. आज उसी के बनाए बंधनों को तोड़ कर उस के प्रियजनों ने उस खोए हुए झरने को पुनर्जीवन का मार्ग दिखाया था. छोटा सा, पर बहुत अच्छा भाषण दे कर सरोजिनी मीनाक्षी की बांहों में लिपट गई. अपना सिर ‘बंदरिया’ के कंधे पर रख कर उस ने अनुभव किया कि सारी गांठें अपनेआप खुल गई हैं. वह फूल सी हलकी हो गई है.

‘‘सभाओं में भाषण देती है पगली,’’ मीनाक्षी धीरेधीरे बोलती रही, ‘‘पर अपने खयालों को हमेशा अपनों से छिपाती रही. अब मुझ से खुल कर बात किया कर. आज जो किवाड़ खुल गया है उसे फिर बंद न होने देना. पता है, कितने वर्षों से दस्तक दे रहे थे हम लोग.’’

सरोजिनी ने आंखें पोंछीं और बचे हुए केक के टुकड़ों में से एक मीनाक्षी के मुंह में ठूंस कर मुसकरा दी. बारिश के बाद की निर्मल धूप जैसी उस हंसी का प्रतिबिंब सभी के मुखों पर थिरक गया.

Best Hindi Story

Fictional Story: मानसिकता का एक दृष्टिकोण

Fictional Story: ‘‘क्या मैं आप को आगे कहीं छोड़ सकता हूं?’’ उस ने कार ठीक उस के करीब रोक कर आवाज में भरपूर मिठास घोलते हुए अपनी बात कही.‘‘नेकी और पूछपूछ,’’ एक पल के लिए उसे देख वह हिचकिचाई, लेकिन अगले ही पल मुसकराते हुए वह कार के खुले दरवाजे से आगे की सीट पर जा बैठी.

हाईवे नंबर एक पर ठीक फ्लाईओवर से नीचे उतरते हुए एक ओर वह अकसर खड़े अंगूठे के इशारे से लिफ्ट मांगती नजर आती थी. हालांकि उस का वास्तविक नाम कोई नहीं जानता था लेकिन उस की हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती सुंदरता और उस के नितनए आधुनिक पहनावों पर कमर तक लहराते लंबे बाल सहज ही उस में एक परी की कल्पना को साकार करते थे. शायद इसीलिए उस का नाम औफिस में परी पड़ गया था.

औफिस के ही कई साथियों के अनुसार, फ्लाईओवर पर खड़े हो कर अपने लिए नितनए साथी ढूंढ़ने का उस का यह सटीक तरीका था. हालांकि यह कहना कठिन था कि औफिस के कितने लोगों ने उस की सचाई परखी थी लेकिन आज सागर ने औफिस से निकल कर जब कार फ्लाईओवर के रास्ते पर डाली थी तभी से वह उस के बारे में सोचने लगा था.

पति-पत्नी दोनों के कामकाजी होने के कारण अकसर औफिस से घर लौटते समय पत्नी के साथ होने की वजह से सागर चाहते हुए भी कभी उसे लिफ्ट देने की नहीं सोच पाया था. लेकिन आज इत्तफाक से पत्नी की औफिस से छुट्टी होने से वह अकेला था और वह इस अवसर को खोना नहीं चाहता था.

‘‘कहां तक जाएंगी आप?’’ उस की ओर देख मुसकराते हुए उस ने कार खाली रास्ते पर आगे बढ़ा दी. शामका सूरज ढलती रात का आभास देने लगा था.

‘‘अब जहां तक आप साथ दे देंगे,’’ अब तक अपनी हिचकिचाहट पर वह भी काबू पा चुकी थी और सहज ही मुसकरा रही थी.

‘‘तो क्या आप कुछ घंटों के लिए मेरा साथ पसंद करेंगी?’’ कहते हुए सागर को उस की मुसकराहट कुछ रहस्यमय लगी लेकिन उस के बारे में लोगों की व्यक्त राय उसे एकदम सही लगने लगी थी.

‘‘ओह, तो आप मेरे साथ समय गुजारना चाहते हैं?’’ अनायास ही वह हलकी हंसी हंसने लगी.‘‘अगर आप को एतराज न हो, तो?’’‘‘मुझे क्या एतराज हो सकता है, भला,’’ उस की रहस्यमयी मुसकान पहले से अधिक गहरी हो गई थी.

कार टोल पार कर अब खुले हाईवे पर आ चुकी थी. वह चाहता तो कार की स्पीड बढ़ा सकता था, लेकिन उस ने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया और कार को धीमा ही चलाता रहा. बीचबीच में उस के हसीन चेहरे को देखना सागर को बहुत अच्छा लग रहा था. वह उस के साथ अधिक से अधिक समय बिताना चाहता था. आपस में नजर मिलते ही उस का मुसकरा देना सागर के लिए जैसे गरमी के मौसम में भी ठंडी हवा का झोंका बन कर आ रहा था.

ऐसा नहीं था कि उस का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था या उस की पत्नी सुंदरता व आधुनिकता के मामले में किसी से कम थी लेकिन न जाने क्यों जब से उस ने परी की कहानियां सुनी थीं और उसे एक नजर देखा था, तब से ही वह एक बार उस का साथ पा लेने के लिए बेचैन सा हो उठा था. और आज उस के पहलू में बैठी परी मानो उस की इच्छाओं को पूरा करने के रास्ते पर उस के साथ जा रही थी.

इधर, दूसरी ओर ‘परी’ यानी कामना जो अपनी आधुनिक जीवनशैली व खुलेअंदाज के कारण मौडल, हीरोइन, लैला और परी जैसे कितने नामों से कथित पुरुष समाज में जानी जाने लगी थी, आज सामने आई इस परिस्थिति में सहज मुसकराते हुए खुद को नौर्मल रखने का हर संभव प्रयत्न कर रही थी, लेकिन उस का मन उसे पीछे कहीं पुरानी यादों में जबरन खींच कर ले जा रहा था. उस रोज पति के साथ हुई बातें उस के जेहन में फिर से ताजा होने लगी थीं.

‘हां, मुझे एतराज है तुम्हारे इस आधुनिक पहनावे और गैरों से खुलेव्यवहार पर,’ अजय की आवाज अपेक्षाकृत ऊंची थी.

‘लेकिन, कभी मेरी यही खूबियां तुम्हें अच्छी भी लगती थीं अजय. अब ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें ये सब बुरा लगने लगा,’ वह भी पलट कर जवाब देने से नहीं चूकी थी, ‘कहीं ऐसा तो नहीं, जिन नजरों से तुम मेरी सहेलियों को देखते हो, वही मानसिकता तुम्हें हर पुरुष की लगने लगी है?’

‘कामना,’ अजय एकाएक गुस्से से चिल्ला पड़ा था, ‘तुम्हें कोई हक नहीं मुझ पर इस तरह आरोप लगाने का.’‘मैं आरोप नहीं लगा रही, बल्कि तुम्हें सच का आईना दिखा रही हूं, जो मेरी सहेली भावना ने मुझे तुम्हारी आवाज की रिकौर्डिंग के साथ व्हाट्सऐप किया है. चाहो तो तुम स्वयं इसे सुन सकते हो,’ कहते हुए उस ने अजय के सामने अपना मोबाइल फेंक दिया था.

‘ओह शिट, योर ईडियट फ्रैंड,’ अजय बदतमीजी से बोला, दो बातें तारीफ करते हुए कह भी दीं तो क्या गुनाह कर दिया, आखिर ये औरतें मौडर्न बनने का इतना ढोंग क्यों करती हैं जब मानसिकता उन्नीसवीं सदी की ही रखती हैं.’‘क्योंकि तुम मर्दों की मानसिकता में अपने घर की औरत और बाहर की

औरत के  लिए हमेशा विरोधाभास रहता है.’‘कामना, शटअप, ऐंड कीप क्वाइट नाऊ.’‘हां, हो जाऊंगी मैं चुप,’ कामना उस को जवाब दिए बिना चुप नहीं होना चाहती थी, ‘लेकिन अच्छा होगा कि सुधर जाओ, वरना…’

‘‘हैलो, हैलो, कहां खो गईं आप? अरे, मैं कुछ कह रहा हूं, कहां खो गईं आप?’’ सागर के बारबार उस को पुकारने पर वह अनायास ही वर्तमान में लौट आई.

‘‘जी, नहीं, कहीं नहीं. बस, यों ही कुछ सोचने लगी थी, कुछ कह रहे आप?‘‘मैं कह रहा था कि यहीं पास में एक अच्छा रैस्टोरैंट है, अगर आप को एतराज न हो तो…’’ अपनी बात अधूरी ही छोड़ कर सागर मुसकराने लगा था.’’

‘‘नहीं, मुझे भला क्या एतराज हो सकता है,’’ जवाब देते हुए वह भी मुसकराने लगी.सागर ने कार रैस्टोरैंट की ओर मोड़ दी, स्टेरिंग के साथसाथ उस का दिमाग भी आगे के बारे में गोलगोल सोचने लगा था. इधर कामना फिर अतीत की गहराइयों में जा पहुंची जहां अब समयसमय पर अजय की बातों से समाज में कुछ न कुछ सुनाई पड़ ही जाता था. ऐसा नहीं था कि अजय उस के प्रति कभी लापरवाह रहा हो या उन के आपसी प्रेम में कोई कमी दिखाई देती हो, लेकिन इस तरह की घटनाएं अकसर उसे विचलित कर देती हैं और फिर उस दिन घर की कामवाली सोनाबाई के अजय पर सीधा अटैम्पट टू रेप का आरोप लगाने के बाद तो सबकुछ खत्म हो गया था. पीछे शेष रह गई थी सिर्फ आरोपप्रत्यारोप और उस के दामन तक पहुंचने वाले छींटे. पति ही नहीं, पत्नी भी दोषी है क्योंकि यदि पत्नी समर्पित होती तो मतलब ही नहीं कि पति बाहर मुंह लगाने की सोचे…’

‘‘ट्रिन…न…न…’’ की तेज आवाज से वह एक बार फिर अतीत छोड़ वर्तमान में आ गई. कार रैस्टोरैंट के पास खड़ी थी और सागर उसे नीचे उतरने के लिए कहना चाह रहा था.एक क्षण के लिए वह जड़ हो गई,

लेकिन जल्दी ही उस ने खुद को संभाल लिया. ‘‘हां, हमें उतरना चाहिए. पर क्या मैं इस से पहले आप के मोबाइल से एक कौल कर सकती हूं.’’

‘‘हां, जरूर, क्यों नहीं.’’ कहते हुए सागर ने आंखों में असमंजस का भाव लिए अपना आईफोन उसे थमा दिया.‘‘टिं्रग…टिं्रग…टिं्रग…’’

‘‘मेरी प्रिय सखी, इस नंबर को देख कर तुम यह तो समझ ही गई होगी कि मैं इस समय किस के साथ हूं, मिलाए गए नंबर पर जवाब मिलते ही वह बात शुरू कर चुकी थी.’’

‘‘ज्यादा हैरान मत होना, सखी. बस, कुछ देर बात करना चाहती हूं तुम से.’’अनायास ही सागर को आभास होने लगा था कि आज वह एक बड़ी गलती कर बैठा है, परी उसे बखूबी जानती है और दूसरी ओर फोन पर अवश्य ही उस की कोई जानकार है जिस से वह इस समय बात कर रही है.

‘‘तुम्हें याद है न, सखी,’’ वह अपना वार्त्तालाप जारी रखे हुए थी और अनायास ही उस ने फोन को स्पीकर मोड पर कर दिया था, ‘‘तुम ने मुझ से कहा था कि यदि पत्नी समर्पित और सच्चरित्र हो तो कोई कारण नहीं कि पति के कदम भटक जाएं. और मैं तुम्हारी इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाई थी क्योंकि मैं खुद भी नहीं समझ पाई थी कि मेरा पति क्या वास्तव में भटका हुआ था या सिर्फ मेरी कामवाली का उस पर लगाया गया आरोप महज एक हादसा था.’’

‘‘पहले मुझे यह बताओ कि सागर कहां है?’’ स्पीकर पर पत्नी की आवाज सुन एक क्षण के लिए वह सिहर गया. इस बदलते घटनाक्रम को देख कर वह कार को रास्ते के एक ओर रोक कर पूरा माजरा समझने का प्रयास करने लगा. फोन पर पत्नी की मनोस्थिति महसूस कर वह अब खुद को निष्क्रिय सा महसूस करने लगा था.

‘‘चिंता मत करो, भावना. तुम्हारा पति मेरे साथ है और हां, मैं ऐसा कुछ नहीं करने जा रही जैसा कि लोग मेरे बारे में सोचते हैं.’’ उस के शब्द जैसे सागर का उपहास उड़ा रहे थे जो अपने कई कथित साथियों की तरह उस के बारे में एक गलत राय बना बैठा था. ‘‘और हां, न ही मैं तुम्हारी निष्ठा और समर्पण पर कोई सवाल उठा रही हूं. बस, मैं तो…’’ अपनी बात कहते हुए उस ने एक जलती नजर पास बैठे सागर पर गड़ा दी थी, ‘‘मैं तो उस सवाल के बारे में सोच रही हूं जिस का उत्तर मुझे उस दिन भी नहीं मिला था और आज भी नहीं मिला है. यदि पत्नी हर तरह से समर्पित है और उस के बाद भी पति के कदम भटकते हैं तो यह महज उन की कामनाओं की दुर्बलता है या सदियों से नारी को भोग्या मान लेने की नरमानसिकता.’’

कामना अपनी सखी भावना से बात खत्म कर, कार का दरवाजा खोल, जा चुकी थी और सागर पत्थर बना मोबाइल की ओर देख रहा था जिस पर अभी भी पत्नी की हैलोहैलो गूंज रही थी. दूर कहीं शाम का ढलता सूरज रात में बदल चुका था.

Fictional Story

Drama Story: पहचान- क्या रूपाली को पसंद आया भाभी का उपहार

Drama Story: बड़ी जेठानी ने माथे का पसीना पोंछा और धम्म से आंगन में बिछी दरी पर बैठ गईं. तभी 2 नौकरों ने फोम के 2 गद्दे ला कर तख्त पर एक के ऊपर एक कर के रख दिए. दालान में चावल पछोरती ननद काम छोड़ कर गद्दों को देखने लगी. छोटी चाची और अम्माजी भी आंगन की तरफ लपकीं. बड़ी जेठानी ने गर्वीले स्वर में बताया, ‘‘पूरे ढाई हजार रुपए के गद्दे हैं. चादर और तकिए मिला कर पूरे 3 हजार रुपए खर्च किए हैं.’’

आसपास जुटी महिलाओं ने सहमति में सिर हिलाया. गद्दे वास्तव में सुंदर थे. बड़ी बूआ ने ताल मिलाया, ‘‘अब ननद की शादी में भाभियां नहीं करेंगी तो कौन करेगा?’’ ऐसे सुअवसर को खोने की मूर्खता भला मझली जेठानी कैसे करती. उस ने तड़ से कहा, ‘‘मैं तो पहले ही डाइनिंग टेबल का और्डर दे चुकी हूं. आजकल में बन कर आती ही होगी. पूरे 4 हजार रुपए की है.’’

घर में सब से छोटी बेटी का ब्याह था. दूरपास के सभी रिश्तेदार सप्ताहभर पहले ही आ गए थे. आजकल शादीब्याह में ही सब एकदूसरे से मिल पाते हैं. सभी रिश्तेदारों ने पहले ही अपनेअपने उपहारों की सूची बता दी थी, ताकि दोहरे सामान खरीदने से बचा जा सके शादी के घर में.

अकसर रोज ही उपहारों की किस्म और उन के मूल्य पर चर्चा होती. ऐसे में वसुंधरा का मुख उतर जाता और वह मन ही मन व्यथित होती.

वसुंधरा के तीनों जेठों का व्यापार था. उन की बरेली शहर में साडि़यों की प्रतिष्ठित दुकानें थीं. सभी अच्छा खाकमा रहे थे. उस घर में, बस, सुकांत ही नौकरी में था. वसुंधरा के मायके में भी सब नौकरी वाले थे, इसीलिए उसे सीमित वेतन में रहने का तरीका पता था. सो, जब वह पति के साथ इलाहाबाद रहने गई तो उसे कोई कष्ट न हुआ.

छोटी ननद रूपाली का विवाह तय हुआ तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि रूपाली की ससुराल उसी शहर में थी जहां उस के बड़े भाई नियुक्त थे. वसुंधरा पुलकित थी कि भाई के घर जाने पर वह ननद से भी मिल लिया करेगी. वैसे भी रूपाली से उसे बड़ा स्नेह था. जब वह ब्याह कर आई थी तो रूपाली ने उसे सगी बहन सा अपनत्व दिया था. परिवार के तौरतरीकों से परिचित कराया और कदमकदम पर साथ दिया.

शादी तय होने की खबर पाते ही वह हर महीने 5 सौ रुपए घरखर्च से अलग निकाल कर रखने लगी. छोटी ननद के विवाह में कम से कम 5 हजार रुपए तो देने ही चाहिए और अधिक हो सका तो वह भी करेगी. वेतनभोगी परिवार किसी एक माह में ही 5 हजार रुपए अलग से व्यय कर नहीं सकता. सो, बड़ी सूझबूझ के साथ वसुंधरा हर महीने 5 सौ रुपए एक डब्बे में निकाल कर रखने लगी.

1-2 महीने तो सुकांत को कुछ पता न चला. फिर जानने पर उस ने लापरवाही से कहा, ‘‘वसुंधरा,  तुम व्यर्थ ही परेशान हो रही हो. मेरे सभी भाई जानते हैं कि मेरा सीमित वेतन है. अम्मा और बाबूजी के पास भी काफी पैसा है. विवाह अच्छी तरह निबट जाएगा.’’

वसुंधरा ने तुनक कर कहा, ‘‘मैं कब कह रही हूं कि हमारे 5-10 हजार रुपए देने से ही रूपाली की डोली उठेगी. परंतु मैं उस की भाभी हूं. मुझे भी तो कुछ न कुछ उपहार देना चाहिए.’’

‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कह कर सुकांत तटस्थ हो गए.

वसुंधरा को पति पर क्रोध भी आया कि कैसे लापरवाह हैं. बहन की शादी है और इन्हें कोई फिक्र ही नहीं. इन का क्या? देखना तो सबकुछ मुझे ही है. ये जो उपहार देंगे उस से मेरा भी तो मान बढ़ेगा और अगर उपहार नहीं दिया तो मैं भी अपमानित होऊंगी, वसुंधरा ने मन ही मन विचार किया और अपनी जमापूंजी को गिनगिन कर खुश रहने लगी.

जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ. रूपाली के विवाह के एक माह पहले ही उस के पास 5 हजार रुपए जमा हो गए. उस का मन संतोष से भर उठा. उस ने सहर्ष सुकांत को अपनी बचत राशि दिखाई. दोनों बड़ी देर तक विवाह की योजना की कल्पना में खोए रहे.

विवाह में जाने से पहले बच्चे के कपड़ों का भी प्रबंध करना था. वसुंधरा पति के औफिस जाते ही नन्हे मुकुल के झालरदार झबले सिलने बैठ जाती. इधर कई दिनों से मुकुल दूध पीते ही उलटी कर देता. पहले तो वसुंधरा ने सोचा कि मौसम बदलने से बच्चा परेशान है. परंतु जब 3-4 दिन तक बुखार नहीं उतरा तो वह घबरा कर बच्चे को डाक्टर के पास ले गई. 2 दिन दवा देने पर भी जब बुखार नहीं उतरा तो डाक्टर ने खूनपेशाब की जांच कराने को कहा. जांच की रिपोर्ट आते ही सब के होश उड़ गए. बच्चा पीलिया से बुरी तरह पीडि़त था. बच्चे को तुरंत नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा.

15 दिन में बच्चा तो ठीक हो कर घर आ गया परंतु तब तक सालभर में यत्न से बचाए गए 5 हजार रुपए खत्म हो चुके थे. बच्चे के ठीक होने का संतोष एक तरफ था तो दूसरी ओर अगले महीने छोटी ननद के विवाह का आयोजन सामने खड़ा था. वसुंधरा चिंता से पीली पड़ गई. एक दिन तो वह सुकांत के सामने फूटफूट कर रोने लगी. सुकांत ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘अपने परिवार को मैं जानता हूं. अब बच्चा बीमार हो गया तो उस का इलाज तो करवाना ही था. पैसे इलाज में खर्च हो गए तो क्या हुआ? आज हमारे पास पैसा नहीं है तो शादी में नहीं देंगे. कल पैसा आने पर दे देंगे.’’

वसुंधरा ने माथा ठोक लिया, ‘‘लेकिन शादी तो फिर नहीं होगी. शादी में तो एक बार ही देना है. किसकिस को बताओगे कि तुम्हारे पास पैसा नहीं है. 10 साल से शहर में नौकरी कर रहे हो. बहन की शादी के समय पर हाथ झाड़ लोगे तो लोग क्या कहेंगे?’’

बहस का कोई अंत न था. वसुंधरा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह खाली हाथ ननद के विवाह में कैसे शामिल हो. सुकांत अपनी बात पर अड़ा था. आखिर विवाह के 10 दिन पहले सुकांत छुट्टी ले कर परिवार सहित अपने घर आ पहुंचा. पूरे घर में चहलपहल थी. सब ने वसुंधरा का स्वागत किया. 2 दिन बीतते ही जेठानियों ने टटोलना शुरू किया, ‘‘वसुंधरा, तुम रूपाली को क्या दे रही हो?’’

वसुंधरा सहम गई मानो कोई जघन्य अपराध किया हो. बड़ी देर तक कोई बात नहीं सूझी, फिर धीरे से बोली, ‘‘अभी कुछ तय नहीं किया है.’’

‘पता नहीं सुकांत ने अपने भाइयों को क्या बताया और अम्माजी से क्या कहा,’ वसुंधरा मन ही मन इसी उलझन में फंसी रही. वह दिनभर रसोई में घुसी रहती. सब को दिनभर चायनाश्ता कराते, भोजन परोसते उसे पलभर का भी कोई अवकाश न था. परंतु अधिक व्यस्त रहने पर भी उसे कोई न कोई सुना जाता कि वह कितने रुपए का कौन सा उपहार दे रही है. वसुंधरा लज्जा से गड़ जाती. काश, उस के पास भी पैसे होते तो वह भी सब को अभिमानपूर्वक बताती कि वह क्या उपहार दे रही है.

वसुंधरा को सब से अधिक गुस्सा सुकांत पर आता जो इस घर में कदम रखते ही मानो पराया हो गया. पिछले एक सप्ताह से उस ने वसुंधरा से कोई बात नहीं की थी. वसुंधरा ने बारबार कोशिश भी की कि पति से कुछ समय के लिए एकांत में मिले तो उन्हें फिर समझाए कि कहीं से कुछ रुपए उधार ले कर ही कम से कम एक उपहार तो अवश्य ही दे दें. विवाह में आए 40-50 रिश्तेदारों के भरेपूरे परिवार में वसुंधरा खुद को अत्यंत अकेली और असहाय महसूस करती. क्या सभी रिश्ते पैसों के तराजू पर ही तोले जाते हैं. भाईभाभी का स्नेह, सौहार्द का कोई मूल्य नहीं. जब से वसुंधरा ने इस घर में कदम रखा है, कामकाज में कोल्हू के बैल की तरह जुटी रहती है. बीमारी से उठे बच्चे पर भी ध्यान नहीं देती. बच्चे को गोद में बैठा कर दुलारनेखिलाने पर भी उसे अपराधबोध होता. वह अपनी सेवा में पैसों की भरपाई कर लेना चाहती थी.

वसुंधरा मन ही मन सोचती, ‘अम्माजी मेरा पक्ष लेंगी. जेठानियों के रोबदाब के समक्ष मेरी ढाल बन जाएंगी. रिश्तेदारों का क्या है. विवाह में आए हैं, विदा होते ही चले जाएंगे. उन की बात का क्या बुरा मानना. शादीविवाह में हंसीमजाक, एकदूसरे की खिंचाई तो होती ही है. घरवालों के बीच अच्छी अंडरस्टैंडिंग रहे, यही जरूरी है.’

परंतु अम्माजी के हावभाव से किसी पक्षधरता का आभास न होता. एक नितांत तटस्थ भाव सभी के चेहरे पर दिखाई देता. इतना ही नहीं, किसी ने व्यग्र हो कर बच्चे की बीमारी के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. वसुंधरा ने ही 1-2 बार बताने का प्रयास किया कि किस प्रकार बच्चे को अस्पताल में भरती कराया, कितना व्यय हुआ? पर हर बार उस की बात बीच में ही कट गई और साड़ी, फौल, ब्लाउज की डिजाइन में सब उलझ गए. वसुंधरा क्षुब्ध हो गई. उसे लगने लगा जैसे वह किसी और के घर विवाह में आई है, जहां किसी को उस के निजी सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं है. उस की विवशता से किसी को सरोकार नहीं है.

वसुंधरा को कुछ न दे पाने का मलाल दिनरात खाए जाता. जेठानियों के लाए उपहार और उन की कीमतों का वर्णन हृदय में फांस की तरह चुभता, पर वह किस से कहती अपने मन की व्यथा. दिनरात काम में जुटी रहने पर भी खुशी का एक भी बोल नहीं सुनाई पड़ता जो उस के घायल मन पर मरहम लगा पाता.

शारीरिक श्रम, भावनात्मक सौहार्द दोनों मिल कर भी धन की कमी की भरपाई में सहायक न हुए. भावशून्य सी वह काम में लगी रहती, पर दिल वेदना से तारतार होता रहता. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ.

सभी ने बढ़चढ़ कर इस अंतिम आयोजन में हिस्सा लिया. विदा के समय वसुंधरा ने सब की नजर बचा कर गले में पड़ा हार उतारा और गले लिपट कर बिलखबिलख कर रोती रूपाली के गले में पहना दिया.

रूपाली ससुराल में जा कर सब को बताएगी कि छोटी भाभी ने यह हार दिया है, हार 10 हजार रुपए से भला क्या कम होगा. पिताजी ने वसुंधरा की पसंद से ही यह हार खरीदा था. हार जाने से वसुंधरा को दुख तो अवश्य हुआ, पर अब उस के मन में अपराधबोध नहीं था. यद्यपि हार देने का बखान उस ने सास या जेठानी से नहीं किया, पर अब उस के मन पर कोई बोझ नहीं था. रूपाली मायके आने पर सब को स्वयं ही बताएगी. तब सभी उस का गुणगान करेंगे. वसुंधरा के मुख पर छाए चिंता के बादल छंट गए और संतोष का उजाला दमकने लगा.

रूपाली की विदाई के बाद से ही सब रिश्तेदार अपनेअपने घर लौटने लगे थे. 2 दिन रुक कर सुकांत भी वसुंधरा को ले कर इलाहाबाद लौट आए. कई बार वसुंधरा ने सुकांत को हार देने की बात बतानी चाही, पर हर बार वह यह सोच कर खामोश हो जाती कि उपहार दे कर ढिंढोरा पीटने से क्या लाभ? जब अपनी मरजी से दिया है, अपनी चीज दी है तो उस का बखान कर के पति को क्यों लज्जित करना. परंतु स्त्रीसुलभ स्वभाव के अनुसार वसुंधरा चाहती थी कि कम से कम पति तो उस की उदारता जाने. एक त्योहार पर वसुंधरा ने गहने पहने, पर उस का गला सूना रहा. सुकांत ने उस की सजधज की प्रशंसा तो की, पर सूने गले की ओर उस की नजर न गई.

वसुंधरा मन ही मन छटपटाती. एक बार भी पति पूछे कि हार क्यों नहीं पहना तो वह झट बता दे कि उस ने पति का मान किस प्रकार रखा. लेकिन सुकांत ने कभी हार का जिक्र नहीं छेड़ा.

एक शाम सुकांत अपने मित्र  विनोद के साथ बैठे चाय पी रहे  थे. विनोद उन के औफिस में ही लेखा विभाग में थे. विनोद ने कहा, ‘‘अगले महीने तुम्हारे जीपीएफ के लोन की अंतिम किस्त कट जाएगी.’’

सुकांत ने लंबी सांस ली, ‘‘हां, भाई, 5 साल हो गए. पूरे 15 हजार रुपए लिए थे.’’ संयोग से बगल के कमरे में सफाई करती वसुंधरा ने पूरी बात सुन ली. वह असमंजस में थी. सोचा कि सुकांत ने जीपीएफ से तो कभी लोन नहीं लिया. लोन लिया होता तो मुझ को अवश्य पता होता. फिर 15 हजार रुपए कम नहीं होते. सुकांत में तो कोई गलत आदतें भी नहीं हैं, न वह जुआ खेलता है न शराब पीता है. फिर 15 हजार रुपए का क्या किया. अचानक वसुंधरा को याद आया कि 5 साल पहले ही तो रूपाली की शादी हुई थी.

वसुंधरा अपनी विवशता पर फूटफूट कर रोने लगी. काश, सुकांत ने उसे बताया होता. उस पर थोड़ा विश्वास किया होता. तब वह ननद की शादी में चोरों की तरह मुंह छिपाए न फिरती. हार जाने का गम उसे नहीं था. हार का क्या है, अपने लौकर में पड़ा रहे या ननद के पास, आखिर उस से रहा नहीं गया. उस ने सुकांत से पूछा तो उस ने बड़े निरीह स्वर में कहा, ‘‘मैं ने सोचा, मैं बताऊंगा तो तुम झगड़ा करोगी,’’ फिर जब वसुंधरा ने हार देने की बात बताई तो सुकांत सकते में आ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मुझे क्या पता था तुम अपना भी गहना दे डालोगी. मैं तो समझता था तुम बहन के विवाह में 15 हजार रुपए देने पर नाराज हो जाओगी,’’ वसुंधरा के मौन पर लज्जित सुकांत ने फिर कहा, ‘‘वसुंधरा, मैं तुम्हें जानता तो वर्षों से हूं किंतु पहचान आज सका हूं.’’

वसुंधरा को अपने ऊपर फक्र हो रहा था, पति की नजरों में वह ऊपर जो उठ गई थी.

Drama Story

Love Story: ऐ दिले नादां- क्या पूरी हुई अनवर की प्रेम कहानी

Love Story: मेसी मुझे जयपुर से पुष्कर जाने वाली टूरिस्ट बस में मिला था. मैं अकेला ही सीट पर बैठा था. उस वक्त वे तीनों बस में प्रविष्ट हुए. एक सुंदर विदेशी लड़की और 2 नवयुवक अंगरेज. लड़की और उस का एक साथी तो दूसरी सीट पर जा कर बैठे, वह आ कर मेरे बाजू वाली सीट पर बैठ गया. मैं ने उस की तरफ मुसकरा कर देखा तो उस ने भी जबरदस्ती मुसकराने की कोशिश करते हुए देखा.

‘‘यू आर फ्रौम?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘स्पेन,’’ उस ने उत्तर दिया, ‘‘मेरा नाम क्रिस्टियानो मेसी है. वह लड़की मेरे साथ स्पेन से आई है. उस का नाम ग्रेटा अजीबला है और उस के साथ जो लड़का बैठा है वह अमेरिकी है, रोजर फीडर.’’

लड़की उस के साथ स्पेन से आई थी और अब अमेरिकी के साथ बैठी थी. इस बात ने मुझे चौंका दिया. मैं ने गौर से उस का चेहरा देखा. उस का चेहरा सपाट था और वह सामने देख रहा था. मैं ने लड़की की तरफ नजर डाली तो रोजर ने उसे बांहों में ले रखा था और वह उस के कंधे पर सिर रखे अपनी जीभ उस के कान पर फेर रही थी. विदेशी लोगों के लिए इस तरह की हरकतें सामान्य होती हैं. अब हम भारतीयों को भी इस तरह की हरकतों में कोई आकर्षण अनुभव नहीं होता है बल्कि हमारे नवयुवक तो आजकल उन से भी चार कदम आगे हैं.

रोजर और गे्रटा आपस में हंसीमजाक कर रहे थे. मजाक करतेकरते वे एकदूसरे को चूम लेते थे. उन की ये हरकतें बस के दूसरे मुसाफिरों के ध्यान का केंद्र बन रही थीं. लेकिन मेसी को उन की इन हरकतों की कोई परवा नहीं थी. वह निरंतर उन की तरफ से बेखबर सामने शून्य में घूरे जा रहा था. या तो वह जानबूझ कर उन की तरफ नहीं देख रहा था या फिर वह उन्हें, उन की हरकतों को देखना नहीं चाहता था. मेसी का चेहरा सपाट था मगर चेहरे पर एक अजीब तरह की उदासी थी.

‘‘तुम ने कहा, गे्रटा तुम्हारे साथ स्पेन से आई है?’’

‘‘हां, हम दोनों एकसाथ एक औफिस में काम करते हैं. हम ने छुट्टियों में इंडिया की सैर करने की योजना बनाई थी और हम 4 साल से हर महीने इस के लिए पैसा बचाया करते थे. जब हमें महसूस हुआ, काफी पैसे जमा हो गए हैं तो हम ने दफ्तर से 1 महीने की छुट्टी ली और इंडिया आ गए.’’

उस की इस बात ने मुझे और उलझन में डाल दिया था. दोनों स्पेन से साथ आए थे और इंडिया की सैर के लिए बरसों से एकसाथ पैसा जमा कर रहे थे. इस से स्पष्ट प्रकट होता है कि उस के और ग्रेटा के क्या संबंध हैं. ग्रेटा उस वक्त रोजर के साथ थी जबकि उसे मेसी के साथ होना चाहिए था. मगर वह जिस तरह की हरकतें रोजर के साथ कर रही थी इस से तो ऐसा प्रकट हो रहा था जैसे वे बरसों से एकदूसरे को जानते हैं, एकदूसरे को बेइंतिहा प्यार करते हैं या फिर एकदूसरे से गहरा प्यार करने वाले पतिपत्नी हैं.

‘‘क्या ग्रेटा और रोजर एकदूसरे को पहले से जानते हैं?’’ मैं ने उस से पूछा.

‘‘नहीं,’’ मेसी ने उत्तर दिया, ‘‘ग्रेटा को रोजर 8 दिन पूर्व मिला. वह उसी होटल में ठहरा था जिस में हम ठहरे थे. दोनों की पहचान हो गई और हम लोग साथसाथ घूमने लगे…और एकदूसरे के इतना समीप आ गए…’’ उस ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

मैं एकटक उसे देखता रहा.

‘‘ये पुष्कर क्या कोई धार्मिक पवित्र स्थान है?’’ मेसी ने विषय बदल कर मुझ से पूछा.

‘‘पता नहीं, मुझे ज्यादा जानकारी नहीं. मैं मुंबई से हूं. अमृतसर से आते हुए 2 दिन के लिए यहां रुक गया था. एक दिन जयपुर की सैर की. आज पुष्कर जा रहा हूं. साथ ही ये बस अजमेर भी जाएगी,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘हम लोग दिल्ली, आगरा में 8 दिन रहे. जयपुर में 8 दिन रहेंगे. वहां से मुंबई जाएंगे. वहां 3-4 दिन रहने के बाद गोआ जाएंगे और फिर गोआ से स्पेन वापस,’’ मेसी ने अपनी सारी भविष्य की यात्रा की योजना सुना दी और आगे कहा, ‘‘सुना है पुष्कर एक पवित्र स्थान है, जहां मंदिर में विदेशी पर्यटक हिंदू रीतिरिवाज से शादी करते हैं. हम लोग इसीलिए पुष्कर जा रहे हैं. वहां ग्रेटा और रोजर हिंदू रीतिरिवाज से शादी करेंगे?’’ मेसी ने बताया.

‘‘लेकिन शादी तो गे्रटा को तुम से करनी चाहिए थी. तुम ने बताया कि तुम ने यहां आने के लिए एकसाथ 4 सालों तक पैसे जमा किए हैं और तुम दोनों एकसाथ काम करते हो.’’

‘‘ये सच है कि इस साल हम शादी करने वाले थे,’’ मेसी ने ठंडी सांस भर कर बताया, ‘‘इसलिए साथसाथ भारत की सैर की योजना बनाई थी. हम बरसों से पतिपत्नी की तरह रह रहे हैं मगर…’’

‘‘मगर क्या?’’ मैं ने प्रश्नभरी नजरों से मेसी की ओर देखा.

‘‘अब ग्रेटा को रोजर पसंद आ गया है,’’ उस ने एक ठंडी सांस ली, ‘‘तो कोई बात नहीं, ग्रेटा की इच्छा, मेरे लिए दुनिया में उस की खुशी से बढ़ कर कोई चीज नहीं है.’’

मेसी की इस बात पर मैं उस की आंखों में झांकने लगा. उस की आंखों से एक पीड़ा झलक रही थी. मैं ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा. वह 28-30 साल का एक मजबूत कदकाठी वाला युवक था. लेकिन जिस तरह बातें कर रहा था और उस के चेहरे के जो भाव थे, आंखों में जो पीड़ा थी मुझे तो वह कोई असफल भारतीय प्रेमी महसूस हो रहा था. उस की प्रेमिका एक पराए पुरुष के साथ मस्ती कर रही है लेकिन वह फिर भी चुपचाप तमाशा देख रहा है, पे्रमिका की खुशी के लिए…इस बारे में सोचते हुए मेरे होंठों पर एक मुसकराहट रेंग गई. यह प्रेम की भावना है. जो भावना भारतीय प्रेमियों के दिल में होती है वही भावना मौडर्न कहलाने वाले यूरोपवासी के दिल में भी होती है. दिल के रिश्ते हर जगह एक से होते हैं. सच्चा और गहरा प्यार हर इंसान की धरोहर है, उसे न तो सीमा में कैद किया जा सकता है और न देशों में बांटा जा सकता है.

जब मेसी ये सारी बातें बता रहा था तो वह एक असफल प्रेमी तो लग ही रहा था, अपनी प्रेमिका से कितना प्यार करता है, उस की बातों से स्पष्ट झलक रहा था साथ ही उस की भावनाओं से एक सच्चे प्रेमी, आशिक का त्याग भी टपक रहा था. बस चल पड़ी. इस के बाद हमारे बीच कोई बात नहीं हो सकी. मगर वह कभीकभी अपनी स्पेनी भाषा में कुछ बड़बड़ाता था जो मेरी समझ में नहीं आता था लेकिन जब मैं ने एक बार उस की आंखों में आंसू देखे तो मैं चौंक पड़ा और मुझे इन आंसुओं का और उस की बड़बड़ाहट का मतलब भी अच्छी तरह समझ में आ गया. आंसू प्रेमिका की बेवफाई के गम में उस की आंखों में आ रहे थे और जो वह बड़बड़ा रहा था, मुझे विश्वास था उस की अपनी बेवफा प्रेमिका से शिकायत के शब्द होंगे. ग्रेटा और रोजर की मस्तियां कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थीं. मैं तो पूरे ध्यान से उन की मस्तियां देख रहा था. वह भी कभीकभी मुड़ कर दोनों को देख लेता था लेकिन जैसे ही वह ग्रेटा और रोजर को किसी आपत्तिजनक स्थिति में पाता था, झटके से अपनी गरदन दूसरी ओर कर लेता था. जबकि मैं उन की आपत्तिजनक स्थिति से न सिर्फ पूरी तरह आनंदित हो रहा था बल्कि पहलू बदलबदल कर उन की हरकतों को भी देख रहा था.

पुष्कर आने से पूर्व हम ने एकदूसरे से थोड़ी बातचीत की. एकदूसरे के मोबाइल नंबर और ईमेल लिए, इस के बाद वे तीनों पुष्कर में मुझ से जुदा हो गए क्योंकि पुष्कर में बस 2-3 घंटे रुकने वाली थी. पुष्कर में एक बड़ा सा स्टेडियम है जहां पर हर साल प्रसिद्ध पुष्कर मेला लगता है. इस में ऊंटों की दौड़ भी होती है. वहां मैं ने कई विदेशी जोड़ों को देखा, जिन के माथे पर टीका लगा हुआ था और गले में फूलों का हार था. पुष्कर घूमने के लिए आने वाले विदेशी पर्यटक बड़े शौक से हिंदू परंपरा के अनुसार विवाह करते हैं. उन का वहां हिंदू परंपरा अनुसार विवाह कराया जाता है फिर चाहे वह विवाहित हों या कुंवारे हों.

वापसी में भी वे हमारे साथ थे. मेसी मेरे बाजू में आ बैठा और ग्रेटा और रोजर अपनी सीट पर. तीनों के माथे पर बड़ा सा टीका लगा हुआ था और गले में गेंदे के फूलों का हार था जो इस बात की गवाही दे रहा था कि रोजर और ग्रेटा ने वहां पर हिंदू परंपरा के अनुसार शादी कर ली है. वापसी में बस अजमेर रुकी. मेसी भी मेरे साथ आया. जब वह उस स्थान के बारे में पूछने लगा तो मैं ने संक्षिप्त में ख्वाजा गरीब नवाज के बारे में बताया.

लौट कर बोला, ‘‘यहां बहुत लोग कह रहे थे कि कुछ इच्छा है तो मांग लो, शायद पूरी हो जाए.’’

‘‘तुम ने कुछ मांगा?’’ मैं ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘हां,’’ उस का चेहरा गंभीर था.

‘‘क्या?’’

‘‘हम ने अपना प्यार मांगा?’’

‘‘प्यार? कौन?’’

‘‘ग्रेटा.’’

एक शब्द में उस ने सारी कहानी कह दी थी. और उस की इस बात से यह साफ प्रकट हो रहा था कि वह गे्रटा को कितना प्यार करता है. वही गे्रटा जो कुछ दिन पूर्व तक तो उस से प्यार करती थी, इस से शादी भी करना चाहती थी…लेकिन यहां उसे रोजर मिल गया. रोजर उसे पसंद आ गया तो अब वह रोजर के साथ है. यह भी भूल गई है कि मेसी उसे कितना प्यार करता है. वे एकदूसरे को सालों से जानते हैं. सालों से एकदूसरे से प्यार करते हैं और शादी भी करने वाले थे. लेकिन पता नहीं उसे रोजर में ऐसा क्या दिखाई दिया या रोजर ने उस पर क्या जादू किया, अब वह रोजर के साथ है. रोजर से प्यार करती है. मेसी के प्यार को भूल गई है. यह भूल गई है कि वह मेसी के साथ भारत की सैर करने के लिए आई है. वह मेसी, जिसे वह चाहती है और जो उसे दीवानगी की हद तक चाहता है. सुना है कि विदेशों में प्यार नाम की कोई चीज ही नहीं होती है. प्यार के नाम पर सिर्फ जरूरत पूरी की जाती है. जरूरत पूरी हो जाने के बाद सारे रिश्ते खत्म हो जाते हैं.

शायद गे्रटा भी मेसी से अभी तक अपनी जरूरत पूरी कर रही थी. जब उस का दिल मेसी से भर गया तो वह अपनी जरूरत रोजर से पूरी कर रही है. लेकिन मेसी तो इस के प्यार में दीवाना है. बस वाले हमारा ही इंतजार कर रहे थे. हम बस में आए और बस चल पड़ी. रोजर और ग्रेटा एकदूसरे की बांहों में समाते हुए एकदूसरे का चुंबन ले रहे थे. वह पश्चिम का एक सुशिक्षित युवक दिल के हाथों कितना विवश हो गया है और अपने दिल के हाथों मजबूर हो कर स्वयं को धोखा देने वाली की बातें करने लगा है. गंडेतावीज भी पहनने लगा है जो अजमेर की दरगाह पर थोक के भाव में मिलते हैं.

जयपुर में वे अपने होटल के पास उतर गए, मैं अपने होटल पर. उस ने मेरा फोन नंबर व ईमेल आईडी ले लिया और कहा कि वह मुझे फोन करता रहेगा. मैं रात में ही मुंबई के लिए रवाना हो गया और उस को लगभग भूल ही गया. 8 दिन बाद अचानक उस का फोन आया.

‘‘हम लोग मुंबई में हैं और कल गोआ जा रहे हैं.’’

‘‘अरे तो पहले मुझ से क्यों नहीं कहा. मैं तुम से मिलता. आज या कल तुम से मिलूं?’’

‘‘आज हम एलीफैंटा गुफा देखने जाएंगे और कल गोआ के लिए रवाना होना है. इस से कल भी मुलाकात संभव नहीं.’’

‘‘गे्रटा कैसी है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘रोजर के साथ बहुत खुश है,’’ उस का स्वर उदास था.

इस के बाद उस का गोआ से एक बार फोन आया, ‘‘हम गोआ में हैं. बहुत अच्छी जगह है. इतना अच्छा समुद्री तट मैं ने आज तक नहीं देखा. मुझे ऐसा महसूस हो रहा है मानो मैं अपने देश या यूरोप के किसी देश में हूं. 4 दिन के बाद मैं स्पेन चला जाऊंगा. गे्रटा भी मेरे साथ स्पेन जाएगी. लेकिन वह दूसरे दिन न्यूयार्क के लिए रवाना हो जाएगी. वहां रोजर उस का इंतजार कर रहा होगा. वह हमेशा के लिए स्पेन छोड़ देगी. अब वे दोनों वहां के रीतिरिवाज के अनुसार शादी करने वाले हैं.’’ उस की बात सुन कर मैं ने ठंडी सांस ली, ‘‘कोई बात नहीं मेसी, गे्रटा को भूल जाओ, कोई और गे्रटा तुम्हें मिल जाएगी. तुम गे्रटा को प्यार करते हो न. तुम्हारे लिए तो गे्रटा की खुशी से बढ़ कर कोई चीज नहीं है. गे्रटा की खुशी ही तुम्हारी खुशी है,’’ मैं ने समझाया.

‘‘हां,अनवर यह बात तो है,’’ उस ने मरे स्वर में उत्तर दिया. इस के बाद उस से कोई संपर्क नहीं हो सका. एक महीने के बाद जब एक दिन मैं ईमेल चैक कर रहा था तो अचानक उस का ईमेल मिला : ‘गे्रटा अमेरिका नहीं जा सकी. रोजर ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया. वह कई दिनों तक बहुत डिस्टर्ब  रही. अब वह नौर्मल हो रही है. ‘हम लोग अगले माह शादी करने वाले हैं. अगर आ सकते हो तो हमारी शादी में शामिल होने जरूर आओ. मैं सारे प्रबंध करा दूंगा.’ उस का ईमेल पढ़ कर मेरे होंठों पर एक मुसकराहट रेंग गई. और मैं उत्तर में उसे मुबारकबाद और शादी में शामिल न हो सकने का ईमेल टाइप करने लगा.

Love Story

Best Hindi Story: अपने हुए पराए- श्वेता को क्यों मिली फैमिली की उपेक्षा

Best Hindi Story: ‘‘अजय, हम साधारण इनसान हैं. हमारा शरीर हाड़मांस का बना है. कोई नुकीली चीज चुभ जाए तो खून निकलना लाजिम है. सर्दीगरमी का हमारे शरीर पर असर जरूर होता है. हम लोहे के नहीं बने कि कोई पत्थर मारता रहे और हम खड़े मुसकराते रहें.

‘‘अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल करेंगे तो शायद सामने वाले का सम्मान ही न कर पाएं. हम प्रकृति के विरुद्ध न ही जाएं तो बेहतर होगा. इनसानी कमजोरी से ओतप्रोत हम मात्र मानव हैं, महामानव न ही बनें तो शायद हमारे लिए उचित है.’’

बड़ी सादगी से श्वेता ने समझाने का प्रयास किया. मैं उस का चेहरा पढ़ता रहा. कुछ चेहरे होते हैं न किताब जैसे जिन पर ऐसा लगता है मानो सब लिखा रहता है. किताबी चेहरा है श्वेता का. रंग सांवला है, इतना सांवला कि काले की संज्ञा दी जा सकती है…और बड़ीबड़ी आंखें हैं जिन में जराजरा पानी हर पल भरा रहता है.

अकसर ऐसा होता है न जीवन में जब कोई ऐसा मिलता है जो इस तरह का चरित्र और हावभाव लिए होता है कि उस का एक ही आचरण, मात्र एक ही व्यवहार उस के भीतरबाहर को दिखा जाता है. लगता है कुछ भी छिपा सा नहीं है, सब सामने है. नजर आ तो रहा है सब, समझाने को है ही क्या, समझापरखा सब नजर आ तो रहा है. बस, देखने वाले के पास देखने वाली नजर होनी चाहिए.

‘‘तुम इतनी गहराई से सब कैसे समझा पाती हो, श्वेता. हैरान हूं मैं,’’ स्टाफरूम में बस हम दोनों ही थे सो खुल कर बात कर पा रहे थे.

‘‘तारीफ कर रहे हो या टांग खींच रहे हो?’’

श्वेता के चेहरे पर एक सपाट सा प्रश्न उभरा और होंठों पर भी. चेहरे पर तीखा सा भाव. मानो मेरा तारीफ करना उसे अच्छा नहीं लगा हो.

‘‘नहीं तो श्वेता, टांग क्यों खींचूंगा मैं.’’

‘‘मेरी वह उम्र नहीं रही अब जब तारीफ के दो बोल कानों में शहद की तरह घुलते हैं और ऐसा कुछ खास भी नहीं समझा दिया मैं ने जो तुम्हें स्वयं पता न हो. मेरी उम्र के ही हो तुम अजय, ऐसा भी नहीं कि तुम्हारा तजरबा मुझ से कम हो.’’

अचानक श्वेता का मूड ऐसा हो जाएगा, मैं ने नहीं सोचा था…और ऐसी बात जिस पर उसे लगा मैं उस की चापलूसी कर रहा हूं. अगर उस की उम्र अब वह नहीं जिस में प्रशंसा के दो बोल शहद जैसे लगें तो क्या मेरी उम्र अब वह है जिस में मैं चापलूसी करता अच्छा लगूं? और फिर मुझे उस से क्या स्वार्थ सिद्ध करना है जो मैं उस की चापलूसी करूंगा. अपमान सा लगा मुझे उस के शब्दों में, पता नहीं उस ने कहां का गुस्सा कहां निकाल दिया होगा.

‘‘अच्छा, बताओ, चाय लोगे या कौफी…सर्दी से पीठ अकड़ रही है. कुछ गरम पीने को दिल कर रहा है. क्या बनाऊं? आज सर्दी बहुत ज्यादा है न.’’

‘‘मेरा मन कुछ भी पीने को नहीं है.’’

‘‘नाराज हो गए हो क्या? तुम्हारा मन पीने को क्यों नहीं, मैं समझ सकती हूं. लेकिन…’’

‘‘लेकिन का क्या अर्थ है श्वेता, मेरी जरा सी बात का तुम ने अफसाना ही बना दिया.’’

‘‘अफसाना कहां बना दिया. अफसाना तो तब बनता जब तुम्हारी तारीफ पर मैं इतराने लगती और बात कहीं से कहीं ले जाते तुम. मुझे बिना वजह की तारीफ अच्छी नहीं लगती…’’

‘‘बिना वजह तारीफ नहीं की थी मैं ने, श्वेता. तुम वास्तव में किसी भी बात को बहुत अच्छी तरह समझा लेती हो और बिना किसी हेरफेर के भी.’’

‘‘वह शायद इसलिए भी हो सकता है क्योंकि तुम्हारा दृष्टिकोण भी वही होगा जो मेरा है. तुम इसीलिए मेरी बात समझ पाए क्योंकि मैं ने जो कहा तुम उस से सहमत थे. सहमत न होते तो अपनी बात कह कर मेरी बात झुठला सकते थे. मैं अपनेआप गलत प्रमाणित हो जाती.’’

‘‘तो क्या यह मेरा कुसूर हो गया, जो तुम्हारे विचारों से मेरे विचार मेल खा गए.’’

‘‘फैशन है न आजकल सामने वाले की तारीफ करना. आजकल की तहजीब है यह. कोई मिले तो उस की जम कर तारीफ करो. उस के बालों से…रंग से…शुरू हो जाओ, पैर के अंगूठे तक चलते जाओ. कितने पड़ाव आते हैं रास्ते में. आंखें हैं, मुसकान है, सुराहीदार गरदन है, हाथों की उंगलियां भी आकर्षक हो सकती हैं. अरे, भई क्या नहीं है. और नहीं तो जूते, चप्पल या पर्स तो है ही. आज की यही भाषा है. अपनी बात मनवानी हो या न भी मनवानी हो…बस, सामने वाले के सामने ऐसा दिखावा करो कि उसे लगे वही संसार का सब से समझदार इनसान है. जैसे ही पीठ पलटो अपनी ही पीठ थपथपाओ कि हम ने कितना अच्छा नाटक कर लिया…हम बहुत बड़े अभिनेता होते जा रहे हैं…क्या तुम्हें नहीं लगता, अजय?’’

‘‘हो सकता है श्वेता, संसार में हर तरह के लोग रहते हैं…जितने लोग उतने ही प्रकार का उन का व्यवहार भी होगा.’’

‘‘अच्छा, जरा मेरी बात का उत्तर देना. मैं कितनी सुंदर हूं तुम देख सकते हो न. मेरा रंग गोरा नहीं है और मैं अच्छेखासे काले लोगों की श्रेणी में आती हूं. अब अगर कोई मुझ से मिल कर यह कहना शुरू कर दे कि मैं संसार की सब से सुंदर औरत हूं तो क्या मैं जानबूझ कर बेवकूफ बन जाऊंगी? क्या मैं इतनी सुंदर हूं कि सामने वाले को प्रभावित कर सकूं?’’

‘‘तुम बहुत सुंदर हो, श्वेता. तुम से किस ने कह दिया कि तुम सुंदर नहीं हो.’’

सहसा मेरे होंठों से भी निकल गया और मैं कहीं भी कोई दिखावा या झूठ नहीं बोल रहा था. अवाक् सी मेरा मुंह ताकने लगी श्वेता. इतनी स्तब्ध रह गई मानो मैं ने जो कहा वह कोरा झूठ हो और मैं एक मंझा हुआ अभिनेता हूं जिसे अभिनय के लिए पद्मश्री सम्मान मिल चुका हो.

‘‘श्वेता, तुम्हारा व्यक्तित्व दूर से प्रभावित करता है. सुंदरता का अर्थ क्या है तुम्हारी नजर में, क्या समझा पाओगी मुझे?’’

मैं ने स्थिति को सहज रूप में संभाल लिया. उस पर जरा सा संतोष भी हुआ मुझे. फीकी सी मुसकान उभर आई थी श्वेता के चेहरे पर.

‘‘हम 40 पार कर चुके हैं. तुम सही कह रही थीं कि अब हमारी उम्र वह नहीं रही जब तारीफ के झूठे बोल हमारी समझ में न आएं. कम से कम सच्ची और ईमानदार तारीफ तो हमारी समझ में आनी चाहिए न. मैं तुम्हारी झूठी तारीफ क्यों करूंगा…जरा समझाओ मुझे. मेरा कोई रिश्तेदार तुम्हारा विद्यार्थी नहीं है जिसे पास कराना मेरी जरूरत हो और न ही मेरे बालबच्चे ही उस उम्र के हैं जिन के नंबरों के लिए मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ूं. 2 बच्चियों का पिता हूं मैं और  चाहूंगा कि मेरी बेटियां बड़ी हो कर तुम जैसी बनें.

‘‘हमारे विभाग में तुम्हारा कितना नाम है. क्या तुम्हें नहीं पता. तुम्हारी लिखी किताबें कितनी सीधी सरल हैं, तुम जानती हो न. हर बच्चा उन्हीं को खरीदना चाहता है क्योंकि वे जितनी व्यापक हैं उतनी ही सरल भी हैं. अपने विषय की तुम जीनियस हो.’’

इतना सब कह कर मैं ने मुसकराने का प्रयास किया लेकिन चेहरे की मांसपेशियां मुझे इतनी सख्त लगीं जैसे वे मेरे शरीर का हिस्सा ही न हों.

श्वेता एकटक निहारती रही मुझे. सहयोगी हैं हम. अकसर हमारा सामना होता रहता है. श्वेता का रंग सांवला है, लेकिन गोरे रंग को अंगूठा दिखाता उस का गरिमापूर्ण व्यक्तित्व इतना अच्छा है कि मैं अकसर सोचता हूं कि सुंदरता हो तो श्वेता जैसी. फीकेफीके रंगों की उस की साडि़यां बहुत सुंदर होती हैं. अकसर मैं अपनी पत्नी से श्वेता की बातें करता हूं. जैसी सौम्यता, जैसी सहजता मैं श्वेता में देखता हूं वैसी अकसर दिखाई नहीं देती. गरिमा से भरा व्यक्तित्व समझदारी अपने साथ ले कर आता है, यह भी साक्षात श्वेता में देखता हूं मैं.

‘‘अजय, कम से कम तुम तो ऐसी बात न करो,’’ सहसा अपने होंठ खोले श्वेता ने, ‘‘अच्छा नहीं लगता मुझे.’’

‘‘क्यों अच्छा नहीं लगता, श्वेता? अपने को कम क्यों समझती हो तुम?’’

‘‘न कम समझती हूं मैं और न ही ज्यादा… जितनी हूं कम से कम उतने में ही रहने दो मुझे.’’

‘‘तुम एक बहुत अच्छी इनसान हो.’’

अपने शब्दों पर जोर दिया मैं ने क्योंकि मैं चाहता हूं मेरे शब्दों की सचाई पर श्वेता ध्यान दे. सुंदरता किसे कहा जाता है, यह तो कहने वाले की सोच और उस की नजरों में होती है न, जो सुंदरता को देखता है और जिस के मन में वह जैसी छाप छोड़ती है. खूबसूरती तो सदा देखने वाले की नजर में होती है न कि उस में जिसे देखा जाए.

‘‘तुम चाय पिओगे कि नहीं, हां या ना…जल्दी से कहो. मेरे पास बेकार बातों के लिए समय नहीं है.’’

‘‘श्वेता, अकसर बेकार बातें ही बड़े काम की होती हैं, जिन बातों को हम जीवन भर बेकार की समझते रहते हैं वही बातें वास्तव में जीवन को जीवन बनाने वाली होती हैं. बड़ीबड़ी घटनाएं जीवन में बहुत कम होती हैं और हम पागल हैं, जो अपना जीवन उन की दिशा के साथ मोड़तेजोड़ते रहते हैं. हम आधी उम्र यही सोचते रहते हैं कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते होंगे, तीनचौथाई उम्र यही सोचने में गुजार देते हैं कि वह कहीं हमारे बारे में बुरा तो नहीं सोचते होंगे.’’

धीरे से मुसकराने लगी श्वेता और फिर हंस कर बोली, ‘‘और उम्र के आखिरी हिस्से में आ कर हमें पता चलता है कि लोगों ने तो हमारे बारे में अच्छा या बुरा कभी सोचा ही नहीं था. लोग तो मात्र अपनी सुविधा और अपने सुख के बारे में सोचते हैं, हम से तो उन्हें कभी कुछ लेनादेना था ही नहीं.’

जीवन का इतना बड़ा सत्य इतनी सरलता से कहने लगी श्वेता. मैं भी अपनी बात पूरी होते देख हंस पड़ा.

‘‘वह सब तो मैं पहले से ही समझती हूं. हालात और दुनिया ने सब समझाया है मुझे. बचपन से अपनी सूरत के बारे में इतना सुन चुकी हूं कि…’’

‘‘कि अपने अस्तित्व की सौम्यता भूल ही गई हो तुम. भीड़ में खड़ी अलग ही नजर आती हो और वह इसलिए नहीं कि तुम्हारा रंग काला है, वह इसलिए कि तुम गोरी मेकअप से लिपीपुती महिलाओं में खड़ी अलग ही नजर आती हो और समझा जाती हो कि सुंदरता किसी मेकअप की मोहताज नहीं है.

‘‘मैं पुरुष हूं और पुरुषों की नजर सुंदरता भांपने में कभी धोखा नहीं खाती. जिस तरह औरत पुरुष की नजर पहचानने में भूल नहीं करती… झट से पहचान जाती है कि नजरें साफ हैं या नहीं.’’

‘‘नजरें तो तुम्हारी साफ हैं, अजय, इस में कोई दो राय नहीं है,’’ उठ कर चाय बनाने लगी श्वेता.

‘‘धन्यवाद,’’ तनिक रुक गया मैं. नजरें उठा कर मुझे देखा श्वेता ने. कुछ पल को विषय थम सा गया. सांवले चेहरे पर सुनहरा चश्मा और कंधे पर गुलाबी रंग की कश्मीरी शाल, पारदर्शी, सम्मोहित सा करता श्वेता का व्यवहार.

‘‘अजय ऐसा नहीं है कि मैं खुश रहना नहीं चाहती. भाईबहन, रिश्तेदार, अपनों का प्यार किसे अच्छा नहीं लगता और फिर अकेली औरत को तो भाईबहन का ही सहारा होता है न. यह अलग बात है, वह सब की बूआ, सब की मौसी तो होती है लेकिन उस का कोई नहीं होता. ऐसा कोई नहीं होता जिस पर वह अधिकार से हाथ रख कर यह कह सके कि वह उस का है.’’

चाय बना लाई श्वेता और पास में बैठ कर बताने लगी :

‘‘मेरी छोटी बहन के पति मेरी जम कर तारीफ करते हैं और इस में बहन भी उन का साथ देती है. लेकिन वह जब भी जाते हैं, मेरा बैंक अकाउंट कुछ कम कर के जाते हैं. बच्चों की महंगी फीस का रोना कभी बहन रोती है और कभी भाभी. घर पर पड़ी नापसंद की गई साडि़यां मुझे उपहार में दे कर वे समझते हैं, मुझ पर एहसान कर रहे हैं. उन्हें क्या लगता है, मैं समझती नहीं हूं. अजय, मेरी बहन का पति वही इनसान है जो रिश्ते के लिए मुझे देखने आया था, मैं काली लगी सो छोटी को पसंद कर गया. तब मैं काली थी और आज मैं उस के लिए संसार की सब से सुंदर औरत हूं.’’

अवाक् रह गया था मैं.

‘‘मेरी तारीफ का अर्थ है मुझे लूटना.’’

‘‘तुम समझती हो तो लुटती क्यों हो?’’

‘‘जिस दिन लुटने से मना कर दिया उसी दिन शीशा दिख जाएगा मुझे…जिस दिन मैं ने अपने स्वाभिमान की रक्षा की, उसी दिन उन का अपमान हो जाएगा. मैं अकेली जान…भला मेरी क्या जरूरतें, जो मैं ने उन की मदद करने से मना कर दिया. मुझे कुछ हो गया तो मेरा घर, मेरा रुपयापैसा भला किस काम आएगा.’’

‘‘तुम्हें कुछ हो गया…इस का क्या मतलब? तुम्हें क्या होने वाला है, मैं समझा नहीं…’’

‘‘मेरी 40 साल की उम्र है. अब मेरी शादी करने की उम्र तो रही नहीं. किस के लिए है, जो सब मैं कमाती हूं. मैं जब मरूंगी तो सब उन का ही होगा न.’’

‘‘जब मरोगी तब मरोगी न. कौन कब जाने वाला है, इस का समय निश्चित है क्या? कौन पहले जाने वाला है कौन बाद में, इस का भी क्या पता… बुरा मत मानना श्वेता, अगर मैं तुम्हारी मौत की कामना कर तुम्हारी धनसंपदा पर नजर रखूं तो क्या मुझे अपनी मृत्यु का पता है कि वह कब आने वाली है. अपना भी खा सकूंगा इस की भी क्या गारंटी, जो तुम्हारा भी छीन लेने की आस पालूं. तुम्हारे भाई व बहन 100 साल जिएं लेकिन उन्हें तुम्हें लूटने का कोई अधिकार नहीं है.’’

पलकें भीग गईं श्वेता की. कमरे में देर तक सन्नाटा छाया रहा. चश्मा उतार कर आंखें पोंछीं श्वेता ने.

‘‘अजय, वक्त सब सिखा देता है. यह संसार और दुनियादारी बहुत बड़ा स्कूल है, जहां हर पल कुछ नया सीखने को मिलता है. बहुत अच्छा बनने की कोशिश भी इनसान को कहीं का नहीं छोड़ती. मानव से महामानव बनना आसान है लेकिन महामानव से मानव बनना आसान नहीं. किसी को सदा देने वाले हाथ मांगते हुए अच्छे नहीं लगते. मैं सदा देती हूं, जिस दिन इनकार करूंगी…’’

‘‘तुम्हें महामानव होने का प्रमाणपत्र किस ने दिया है? …तुम्हारे भाईबहन ने ही न. वे लोग कितने स्वार्थी हैं क्या तुम्हें दिखता नहीं. इस उम्र में क्या तुम्हारा घर नहीं बस सकता, मरने की बातें करती हो…अभी तुम ने जीवन जिया कहां है… तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं. इस काम में तुम चाहो तो मैं और मेरी पत्नी तुम्हारा साथ देने को तैयार हैं.’’

अवाक् रह गई थी श्वेता. इस तरह हैरान मानो जो सुना वह कभी हो ही नहीं सकता.

‘‘शायद तुम यह नहीं जानतीं कि हमारे घर में तुम्हारी चर्चा इसलिए भी है क्योंकि मेरी पत्नी और दोनों बेटियां भी सांवले रंग की हैं. पलपल स्वयं को दूसरों से कम समझना उन का भी स्वभाव बनता जा रहा है. तुम्हारी चर्चा कर के उन्हें यह समझाना चाहता हूं कि देखो, हमारी श्वेताजी कितनी सुंदर हैं और मैं सदा चाहूंगा कि मेरी दोनों बेटियां तुम जैसी बनें.’’

स्वर भर्रा गया था मेरा. श्वेता के अति व्यक्तिगत पहलू को इस तरह छू लूंगा मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

चुप थी श्वेता. आंखें टपकने लगी थीं. पास जा कर कंधा थपथपा दिया मैं ने.

‘‘हम आफिस के सहयोगी हैं… अगर भाई बन कर तुम्हारा घर बसा पाऊं तो मुझे बहुत खुशी होगी. क्या हमारे साथ रिश्ता बांधना चाहोगी? देखो, हमारा खून का रिश्ता तो नहीं होगा लेकिन जैसा भी होगा निस्वार्थ होगा.’’

रोतेरोते हंसने लगी थी श्वेता. देर तक हंसती रही. चुपचाप निहारता रहा मैं. जब सब थमा तब ऐसा लगा मानो नई श्वेता से मिल रहा हूं. मेरा हाथ पकड़ देर तक सहलाती रही श्वेता. सर पर हाथ रखा मैं ने. शायद उसी से कुछ कहने की हिम्मत मिली उसे.

‘‘अजय, क्या पिता बन कर मेरा कन्यादान करोगे? मैं शादी करना चाहती हूं पर यह समझ नहीं पा रही कि सही कर रही हूं या गलत. कोई ऐसा अपना नहीं मिल रहा था जिस से बात कर पाती. ऐसा लग रहा था, कोई पाप कर रही हूं क्योंकि मेरे अपनों ने तो मुझे वहां ला कर खड़ा कर दिया है जहां अपने लिए सोचना भी बचकाना सा लगता है.’’

मैं सहसा चौंक सा गया. मैं तो बस सहज बात कर रहा था और वह बात एक निर्णय पर चली आएगी, शायद श्वेता ने भी नहीं सोचा होगा.

‘‘सच कह रही हो क्या?’’

‘‘हां. मेरे साथ ही पढ़ते थे वह. एम.ए. तक हम साथ थे. 15 साल पहले उन की शादी हो गई थी. मेरे पिताजी के गुजर जाने के बाद मुझ पर परिवार की जिम्मेदारी थी इसलिए मेरी मां ने भी मेरा घर बसा देना जरूरी नहीं समझा. भाईबहनों को ही पालतेब्याहते मैं बड़ी होती गई…ऊपर से मेरा रंग भी काला. सोने पर सुहागा.

‘‘पिछली बार जब मैं दिल्ली में होने वाले सेमिनार में गई थी तब सहायजी से वहां मुलाकात हुई थी.’’

‘‘सहायजी, वही जो दिल्ली विश्वविद्यालय में ही रसायन विभाग में हैं. हां, मैं उन्हें जानता हूं. 2 साल पहले कार एक्सीडेंट में उन की पत्नी और बेटे का देहांत हो गया था. उन की बेटी यहीं लुधियाना में है.’’

‘‘और मैं उस बच्ची की स्थानीय अभिभावक हूं,’’ धीरे से कहा श्वेता ने. एक हलकी सी चमक आ गई उस की नजरों में. मैं समझ सकता हूं उस बच्ची की वजह से श्वेता के मन में ममता का अंकुर फूटा होगा. सहाय भी बहुत अच्छे इनसान हैं. बहुत सम्मान है उन का दिल्ली में.

‘‘क्या सहाय ने खुद तुम्हारा हाथ मांगा है?’’

‘‘वह और उन की बेटी दोनों ही चाहते हैं. मैं कोई निर्णय नहीं ले पा रही हूं. मैं क्या करूं, अजय. कहीं इस में उन का भी कोई स्वार्थ तो नहीं है.’’

‘‘जरा सा स्वार्थी तो हर किसी को होना ही चाहिए न. उन्हें पत्नी चाहिए, तुम्हें पति और बच्ची को मां. श्वेता, 3 अधूरे लोग मिल कर एक सुखी घर की स्थापना कर सकते हैं. जरूरतें इनसानों को जोड़ती हैं और जुड़ने के बाद प्यार भी पनपता है. मुझे 2 दिन का समय दो. मैं अपने तरीके से सहाय के बारे में छानबीन कर के तुम्हें बताता हूं.’’

शायद श्वेता के शब्दों का ही प्रभाव होगा, एक पिता जैसी भावना मन को भिगोने लगी. माथा सहला दिया मैं ने श्वेता का.

‘‘मैं और तुम्हारी भाभी सदा तुम्हारे साथ हैं, श्वेता. तुम अपना घर बसाओ और खुश रहो.’’

श्वेता की आंखों में रुका पानी झिलमिलाने लगा था. पसंद तो मैं उस को सदा से करता था, उस से एक रिश्ता भी बंध जाएगा पता न था. उस का मेरा हाथ अपने माथे से लगा कर सम्मान सहित चूम लेना मैं आज भी भूला नहीं हूं. रिश्ता तो वह होता है न जो मन का हो, रक्त के रिश्ते और उन का सत्य अब सत्य कहां रह गया है. किसी चिंतक ने सही कहा है, जो रक्त पिए वही रक्त का रिश्तेदार.

सहाय, श्वेता और वह बच्ची मृदुला, तीनों आज मेरे परिवार का हिस्सा हैं. श्वेता के भाईबहन उस से मिलतेजुलते नहीं हैं. नाराज हैं, क्या फर्क पड़ता है, आज रूठे हैं, कल मान भी जाएंगे. आज का सत्य यही है कि श्वेता के माथे की सिंदूरी आभा बहुत सुंदर लगती है. अपनी गृहस्थी में वह बहुत खुश है. मेरा घर उस का मायका है. एक प्यारी सी बेटी की तरह वह चली आती है मेरी पत्नी के पास. दोनों का प्यार देख कभीकभी सोचता हूं लोग क्यों खून के रिश्तों के लिए रोते हैं. दाहसंस्कार करने के अलावा भला यह काम कहां आता है.

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Family Story: रिश्ता दोस्ती का- क्या सास की चालों को समझ पाई सुदीपा?

Family Story: 12 साल की स्वरा शाम में खेलकूद कर वापस आई. दरवाजे की घंटी बजाई तो
सामने किसी अजनबी युवक को देख कर चकित रह गई.

तब तक अंदर से उस की मां सुदीपा बाहर निकली और मुस्कुराते हुए बेटी से
कहा,” बेटे यह तुम्हारी मम्मा के फ्रेंड, अविनाश अंकल हैं . नमस्ते करो
अंकल को.”

“नमस्ते मम्मा के फ्रेंड अंकल ,” कह कर हौले से मुस्कुरा कर वह अपने कमरे
में चली आई और बैठ कर कुछ सोचने लगी. कुछ ही देर में उस का भाई विराज भी
घर लौट आया. विराज स्वरा से दोतीन साल ही बड़ा था.

विराज को देखते ही स्वरा ने सवाल किया,” भैया आप मम्मा के फ्रेंड से मिले?”

“हां मिला, काफी यंग और चार्मिंग हैं. वैसे 2 दिन पहले भी आए थे. उस दिन
तू कहीं गई हुई थी.”

“वह सब छोड़ो भैया. आप तो मुझे यह बताओ कि वह मम्मा के बॉयफ्रेंड हुए न ?”

” यह क्या कह रही है पगली, वह तो बस फ्रेंड है. यह बात अलग है कि आज तक
मम्मा की सहेलियां ही घर आती थीं. पहली बार किसी लड़के से दोस्ती की है
मम्मा ने.”

” वही तो मैं कह रही हूं कि वह बॉय भी है और मम्मा का फ्रेंड भी. यानी वह
बॉयफ्रेंड ही तो हुए न,” मुस्कुराते हुए स्वरा ने कहा.

” ज्यादा दिमाग मत दौड़ा. अपनी पढ़ाई कर ले,” विराज ने उसे धौल जमाते हुए कहा.

थोड़ी देर में अविनाश चला गया तो सुदीपा की सास अपने कमरे से बाहर आती हुए
थोड़ी नाराजगी भरे स्वर में बोलीं,” बहू क्या बात है, तेरा यह फ्रेंड अब
अक्सर ही घर आने लगा है.”

“अरे नहीं मम्मी जी वह दूसरी बार ही तो आया था और वह भी ऑफिस के किसी काम
के सिलसिले में ही आया था.”

” मगर बहू तू तो कहती थी कि तेरे ऑफिस में ज्यादातर महिलाएं हैं. अगर
पुरुष हैं भी तो वे अधिक उम्र के हैं. जब कि यह लड़का तो तुझ से भी छोटा
लग रहा था.”

” मम्मी जी हम समान उम्र के ही हैं. अविनाश मुझ से केवल 4 महीने छोटा है.
एक्चुअली हमारे ऑफिस में अविनाश का ट्रांसफर हाल में ही हुआ है. पहले उस
की पोस्टिंग हेड ऑफिस मुंबई में थी. सो इसे प्रैक्टिकल नॉलेज काफी ज्यादा
है. कभी भी कुछ मदद की जरूरत होती है तो यह तुरंत आगे आ जाता है. तभी यह
ऑफिस में बहुत जल्द सब का दोस्त बन गया है. अच्छा मम्मी जी आप बताइए आज
खाने में क्या बनाऊं?”

” जो दिल करे बना ले बहू, पर देख लड़कों को जरूरत से ज्यादा मेलजोल बढ़ाना
सही नहीं होता. तेरे भले के लिए ही कह रही हूं बहू.”

” अरे मम्मी जी आप निश्चिंत रहिए. अविनाश बहुत अच्छा लड़का है,” कह कर
हंसती हुई सुदीपा अंदर चली गई मगर सास का चेहरा बना रहा.

रात में जब सुदीपा का पति अनुराग घर लौटा तो खाने के बाद सास ने अनुराग
को कमरे में बुलाया और धीमी आवाज में उसे अविनाश के बारे में सब कुछ
बताने लगी.

अनुराग ने मां को समझाने की कोशिश की,” मां आज के समय में महिलाओं और
पुरुषों की दोस्ती आम बात है. वैसे भी आप जानती ही हो सुदीपा कितनी
समझदार है. आप टेंशन क्यों लेते हो मां ?”

” बेटा मेरी बूढ़ी हड्डियों ने इतनी दुनिया देखी है जितनी तू सोच भी नहीं
सकता. स्त्रीपुरुष की दोस्ती यानी घी और आग की दोस्ती. आग पकड़ते समय
नहीं लगता बेटे. मेरा फर्ज था तुझे समझाना सो समझा दिया.”

” डोंट वरी मां ऐसा कुछ नहीं होगा. अच्छा मैं चलता हूं सोने,” अविनाश मां
के पास से तो उठ कर चला आया मगर कहीं न कहीं उन की बातें देर तक उस के
जेहन में घूमती रहीं. वह सुदीपा से बहुत प्यार करता था और उस पर पूरा
यकीन भी था. मगर आज जिस तरह मां शक जाहिर कर रही थीं उस बात को वह पूरी
तरह इग्नोर भी नहीं कर पा रहा था.

रात में जब घर के सारे काम निपटा कर सुदीपा कमरे में आई तो अविनाश ने उसे
छेड़ने के अंदाज में कहा ,” मां कह रही थीं आजकल आप की किसी लड़के से
दोस्ती हो गई है और वह आप के घर भी आता है.”

पति के भाव समझते हुए सुदीपा ने भी उसी लहजे में जवाब दिया,” जी हां आप
ने सही सुना है. वैसे मां तो यह भी कह रही होंगी कि कहीं मुझे उस से
प्यार न हो जाए और मैं आप को चीट न करने लगूं. ”

” हां मां की सोच तो कुछ ऐसी ही है मगर मेरी नहीं. ऑफिस में मुझे भी
महिला सहकर्मियों से बातें करनी होती हैं पर इस का मतलब यह तो नहीं कि
मैं कुछ और सोचने लगूं. मैं तो मजाक कर रहा था.”

” आई नो एंड आई लव यू, ” प्यार से सुदीपा ने कहा.

” ओहो चलो इसी बहाने यह लफ्ज़ इतने दिनों बाद सुनने को तो मिल गए,”
अविनाश ने उसे बाहों में भरते हुए कहा.

सुदीपा खिलखिला कर हंस पड़ी. दोनों देर तक प्यार भरी बातें करते रहे.

वक्त इसी तरह गुजरने लगा. अविनाश अक्सर सुदीपा के घर आ जाता. कभीकभी
दोनों बाहर भी निकल जाते. अनुराग को कोई एतराज नहीं था इसलिए सुदीपा भी
इस दोस्ती को एंजॉय कर रही थी. साथ ही ऑफिस के काम भी आसानी से निबट
जाते. सुदीपा ऑफिस के साथ घर भी बहुत अच्छे से संभालती थी. अनुराग को इस
मामले में भी पत्नी से कोई शिकायत नहीं थी.

पर मां अक्सर बेटे को टोकतीं ,”यह सही नहीं है अनुराग. तुझे फिर कह रही
हूं, पत्नी को किसी और के साथ इतना घुलनमलने देना उचित नहीं.”

” मां एक्चुअली सुदीपा ऑफिस के कामों में ही अविनाश की हेल्प लेती है.
दोनों एक ही फील्ड में काम कर रहे हैं और एकदूसरे को अच्छे से समझते हैं.
इसलिए स्वाभाविक है कि काम के साथसाथ थोड़ा समय संग बिता लेते हैं. इस
में कुछ कहना मुझे ठीक नहीं लगता मां और फिर तुम्हारी बहू इतना कमा भी तो
रही है. याद करो मां जब सुदीपा घर पर रहती थी तो कई दफा घर चलाने के लिए
हमारे हाथ तंग हो जाते थे. आखिर बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जा सके इस के
लिए सुदीपा का काम करना भी तो जरूरी है न. फिर जब वह घर संभालने के बाद
काम करने बाहर जा रही है तो हर बात पर टोकाटाकी भी तो अच्छी नहीं लगती
न. ”

” बेटे मैं तेरी बात समझ रही हूं पर तू मेरी बात नहीं समझता. देख थोड़ा
नियंत्रण भी जरूरी है बेटे वरना कहीं तुझे बाद में पछताना न पड़े,” मुंह
बनाते हुए मां ने कहा.

” ठीक है मां मैं बात करूंगा ,” कह कर अनुराग चुप हो जाता.

एक ही बात बारबार कही जाए तो वह कहीं न कहीं दिमाग पर असर डालती है. ऐसा
ही कुछ अनुराग के साथ भी होने लगा था. जब काम के बहाने सुदीपा और अविनाश
शहर से बाहर जाते तो अनुराग का दिल बेचैन हो उठता. उसे कई दफा लगता कि
सुदीपा को अविनाश के साथ बाहर जाने से रोक ले या डांट लगा दे. मगर वह ऐसा
कर नहीं पाता. आखिर उस की गृहस्थी की गाड़ी यदि सरपट दौड़ रही थी तो उस
के पीछे कहीं न कहीं सुदीपा की मेहनत ही तो थी.

इधर बेटे पर अपनी बातों का असर पड़ता न देख अनुराग के मांबाप ने अपने
पोते और पोती यानी बच्चों को उकसाना शुरू किया. एक दिन दोनों बच्चों को
बैठा कर वह समझाने लगे,” देखो बेटे आप की मम्मा की अविनाश अंकल से दोस्ती
ज्यादा ही बढ़ रही है. क्या आप दोनों को नहीं लगता कि मम्मा आप को या
पापा को अपना पूरा समय देने के बजाय अविनाश अंकल के साथ घूमने चली जाती
है? ”

” दादी जी मम्मा घूमने नहीं बल्कि ऑफिस के काम से ही अविनाश अंकल के साथ
जाती हैं, ” विराज ने विरोध किया.

” भैया को छोड़ो दादी जी पर मुझे भी ऐसा लगता है जैसे मम्मा हमें सच में
इग्नोर करने लगी हैं. जब देखो ये अंकल हमारे घर आ जाते हैं या मम्मा को
ले जाते हैं. यह सही नहीं.”

“हां बेटे मैं इसलिए कह रही हूं कि थोड़ा ध्यान दो. मम्मा को कहो कि अपने
दोस्त के साथ नहीं बल्कि तुम लोगों के साथ समय बिताया करें.”

उस दिन संडे था. बच्चों के कहने पर सुदीपा और अनुराग उन्हें ले कर वाटर
पार्क जाने वाले थे. दोपहर की नींद ले कर जैसे ही दोनों बच्चे तैयार होने
लगे तो मां को न देख कर दादी के पास पहुंचे, “दादी जी मम्मा कहां है दिख
नहीं रही?”

“तुम्हारी मम्मा गई अपने फ्रेंड के साथ.”

“मतलब अविनाश अंकल के साथ?”

“हां ”

” लेकिन उन्हें तो हमारे साथ जाना था. क्या हम से ज्यादा बॉयफ्रेंड
इंपॉर्टेंट हो गया ?” कह कर स्वरा ने मुंह फुला लिया. विराज भी उदास हो
गया.

लोहा गरम देख दादी मां ने हथौड़ा मारने की गरज से कहा, ” यही तो मैं कहती
आ रही हूं इतने समय से कि सुदीपा के लिए अपने बच्चों से ज्यादा
महत्वपूर्ण वह पराया आदमी हो गया है. तुम्हारे बाप को तो कुछ समझ ही नहीं
आता.”

” मां प्लीज ऐसा कुछ नहीं है. कोई जरुरी काम आ गया होगा,” अनुराग ने
सुदीपा के बचाव में कहा.

” पर पापा हमारा दिल रखने से जरूरी और कौन सा काम हो गया भला? ” कह कर
विराज गुस्से में उठा और अपने कमरे में चला गया. उस ने अंदर से दरवाजा
बंद कर लिया.

स्वरा भी चिढ़ कर बोली,” लगता है मम्मा को हम से ज्यादा प्यार उस अविनाश
अंकल से हो गया है.”

वह भी पैर पटकती अपने कमरे में चली गई. शाम को जब सुदीपा लौटी तो घर में
सब का मूड ऑफ था.

सुदीपा ने बच्चों को समझाने की कोशिश करते हुए कहा,” तुम्हारे अविनाश
अंकल के पैर में गहरी चोट लगी लग गई थी. तभी मैं उन्हें ले कर अस्पताल
गई.”

” मम्मा आज हम कोई बहाना नहीं सुनने वाले. आप ने अपना वादा तोड़ा है और
वह भी अविनाश अंकल की खातिर. हमें कोई बात नहीं करनी ,” कह कर दोनों वहां
से उठ कर चले गए.

स्वरा और विराज मां की अविनाश से इन नज़दीकियों को पसंद नहीं कर रहे थे.
वे अपनी ही मां से कटेकटे से रहने लगे. गर्मी की छुट्टियों के बाद बच्चों
के स्कूल खुल गए और विराज अपने हॉस्टल चला गया.

इधर सुदीपा के सासससुर ने इस दोस्ती का जिक्र उस के मांबाप से भी कर
दिया. सुदीपा के मांबाप भी इस दोस्ती के खिलाफ थे. मां ने सुदीपा को
समझाया तो पिता ने भी अनुराग को सलाह दी कि उसे इस मामले में सुदीपा पर
थोड़ी सख्ती करनी चाहिए और अविनाश के साथ बाहर जाने की इजाजत कतई नहीं
देनी चाहिए.

इस बीच स्वरा की दोस्ती सोसाइटी के एक लड़के सुजय से हो गई. वह स्वरा से
दोचार साल बड़ा था यानी विराज की उम्र का था. वह जूडोकराटे में चैंपियन
और फिटनेस फ्रीक लड़का था. स्वरा उस की बाइक रेसिंग से भी बहुत प्रभावित
थी. वे दोनों एक ही स्कूल में थे. दोनों साथ स्कूल आनेजाने लगे. सुजय
दूसरे लड़कों की तरह नहीं था. वह स्वरा को अच्छी बातें बताता. उसे सेल्फ
डिफेंस की ट्रेनिंग देता और स्कूटी चलाना भी सिखाता. सुजय का साथ स्वरा
को बहुत पसंद आता.

एक दिन स्वरा सुजय को अपने साथ घर ले आई. सुदीपा ने उस की अच्छे से आवभगत
की. सब को सुजय अच्छा लड़का लगा इसलिए किसी ने स्वरा से कोई पूछताछ नहीं
की. अब तो सुजय अक्सर ही घर आने लगा. वह स्वरा की मैथ्स की प्रॉब्लम भी
सॉल्व कर देता और जूडोकराटे भी सिखाता रहता.

एक दिन स्वरा ने सुदीपा से कहा,” मम्मा आप को पता है सुजय डांस भी जानता
है. वह कह रहा था कि मुझे डांस सिखा देगा.”

” यह तो बहुत अच्छा है. तुम दोनों बाहर लॉन में या फिर अपनी कमरे में
डांस की प्रैक्टिस कर सकते हो.”

” मम्मा आप को या घर में किसी को एतराज तो नहीं होगा ?” स्वरा ने पूछा.

” अरे नहीं बेटा. सुजय अच्छा लड़का है. वह तुम्हें अच्छी बातें सिखाता
है. तुम दोनों क्वालिटी टाइम स्पेंड करते हो. फिर हमें ऐतराज क्यों होगा?
बस बेटा यह ध्यान रखना सुजय और तुम फालतू बातों में समय मत लगाना. काम
की बातें सीखो, खेलोकूदो, उस में क्या बुराई है ?”

“ओके थैंक यू मम्मा,” कह कर स्वरा खुशीखुशी चली गई.

अब सुजय हर संडे स्वरा के घर आ जाता और दोनों डांस प्रैक्टिस करते. समय
इसी तरह बीतता रहा. एक दिन सुदीपा और अनुराग किसी काम से बाहर गए हुए थे.
घर में स्वरा दादीदादी के साथ अकेली थी. किसी काम से सुजय घर आया तो
स्वरा उस से मैथ्स की प्रॉब्लम सॉल्व कराने लगी. इसी बीच अचानक स्वरा को
दादी के कराहने और बाथरूम में गिरने की आवाज सुनाई दी.

स्वरा और सुजय दौड़ कर बाथरूम पहुंचे तो देखा दादी फर्श पर बेहोश पड़ी है.
स्वरा के दादा ऊंचा सुनते थे. उन के पैरों में भी तकलीफ रहती थी. वह अपने
कमरे में सोए पड़े थे. स्वरा घबरा कर रोने लगी तब सुजय ने उसे चुप कराया
और जल्दी से एंबुलेंस वाले को फोन किया. स्वरा ने अपने मम्मी डैडी को भी
हर बात बता दी. इस बीच सुजय जल्दी से दादी को ले कर पास के अस्पताल भागा.
उस ने पहले ही अपने घर से रुपए मंगा लिए थे. अस्पताल पहुँच कर उस ने बहुत
समझदारी के साथ दादी को एडमिट करा दिया और प्राथमिक इलाज शुरू कराया. उन
को हार्ट अटैक आया था. अब तक स्वरा के मांबाप भी हॉस्पिटल पहुंच गए थे.

डॉक्टर ने सुदीपा और अनुराग से सुजय की तारीफ करते हुए कहा,” इस लड़के ने
जिस फुर्ती और समझदारी से आप की मां को हॉस्पिटल पहुंचाया वह काबिलेतारीफ
है. अगर ज्यादा देर हो जाती तो समस्या बढ़ सकती थी और जान को भी खतरा हो
सकता था. ”

सुदीपा ने बढ़ कर सुजय को गले से लगा लिया. अनुराग और उस के पिता ने भी
नम आंखों से सुजय का धन्यवाद कहा. सब समझ रहे थे कि बाहर का एक लड़का आज
उन के परिवार के लिए कितना बड़ा काम कर गया. हालात सुधरने पर स्वरा की
दादी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई.

घर लौटने पर दादी ने सुजय का हाथ पकड़ कर गदगद स्वर में कहा,” आज मुझे
पता चला कि दोस्ती का रिश्ता इतना खूबसूरत होता है. तुम ने मेरी जान बचा
कर इस बात का एहसास दिला दिया बेटे की दोस्ती का मतलब क्या है.”

“यह तो मेरा फर्ज था दादी जी, ” सुजय ने हंस कर कहा.

तब दादी ने सुदीपा की तरफ देख कर ग्लानि भरे स्वर में कहा,” मुझे माफ कर
दे बहू. दोस्ती तो दोस्ती होती है, बच्चों की हो या बड़ों की. तेरी और
अविनाश की दोस्ती पर शक कर के हम ने बहुत बड़ी भूल कर दी. आज मैं समझ
सकती हूं कि तुम दोनों की दोस्ती कितनी प्यारी होगी. आज तक मैं समझ ही
नहीं पाई थी. ”

सुदीपा बढ़ कर सास के गले लगती हुई बोली,” मम्मी जी आप बड़ी हैं. आप को मुझ
से माफी मांगने की कोई जरूरत नहीं. आप अविनाश को जानती नहीं थीं इसलिए आप
के मन में सवाल उठ रहे थे. यह बहुत स्वाभाविक था. पर मैं उसे पहचानती हूं
इसलिए बिना कुछ छुपाए उस रिश्ते को आप के सामने ले कर आई थी. ”

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सुदीपा ने दरवाजा खोला तो सामने हाथों में फल
और गुलदस्ता लिए अविनाश खड़ा था. घबराए हुए स्वर में उस ने पूछा,” मैं ने
सुना है कि अम्मां जी की तबीयत खराब हो गई है. अब कैसी हैं वह? ”

” बस तुम्हें ही याद कर रही थीं,” हंसते हुए सुदीपा ने कहा और हाथ पकड़
कर उसे अंदर ले आई.

Romantic Story: निराधार शक: कैसे एक शक बना दोनों का दुश्मन?

Romantic Story: मैं अंकित से नाराज थी. परसों हमारे बीच जबरदस्त झगड़ा हुआ था और इस कारण पिछली 2 रात से मैं ढंग से सो भी नहीं पाई हूं.

परसों शाम हम दोनों डिस्ट्रिक्ट पार्क में घूम रहे थे कि अचानक मेरे कालेज के पुराने 5-6 दोस्तों से हमारी मुलाकात हो गई, जैसा कि ऐसे मौकों पर अकसर होता है, पुराने दिनों को याद करते हुए हम सब खूब खुल कर आपस में हंसनेबोलने लगे थे.

सच यही है कि उन सब के साथ गपशप करते हुए आधे घंटे के लिए मैं अंकित को भूल सी गई थी. उन को विदा करने के बाद मुझे अहसास हुआ कि उस का मूड कुछ उखड़ाउखड़ा सा था.

मैं ने अंकित से इस का कारण पूछा तो वह फौरन शिकायती अंदाज में बोला, ‘‘मुझे तुम्हारे इन दोस्तों का घटिया व्यवहार जरा भी अच्छा नहीं लगा, मानसी.’’

‘‘क्या घटिया व्यवहार किया उन्होंने?’’ मैं ने चौंक कर पूछा.

‘‘मुझे बिलकुल पसंद नहीं कि कोई तुम से बात करते हुए तुम्हें छुए.’’

‘‘अंकित, ये सब मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं और मुझे ले कर किसी की नीयत में कोई खोट नहीं है. उन के दोस्ताना व्यवहार को घटिया मत कहो.’’

‘‘मेरे सामने तुम्हारी कोल्डड्रिंक की बोतल से मुंह लगा कर कोक पीने की रोहित की हिम्मत कैसे हुई? उस के बाद तुम ने क्यों उस बोतल को मुंह से लगाया?’’ उस की आवाज गुस्से से कांप रही थी.

‘‘कालेज के दिनों में भी हमारे बीच मिलजुल कर खानापीना चलता था, अंकित. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि तुम इस छोटी सी बात पर क्यों इतना ज्यादा नाराज…’’

‘‘मेरे लिए यह छोटी सी बात नहीं है, मानसी. अब इस तरह की घटिया और चीप हरकतें तुम्हें बंद करनी होंगी.’’

‘‘क्या तुम मुझे ‘चीप’ कह रहे हो?’’ मुझे भी एकदम गुस्सा आ गया.

‘‘तुम चुपचाप मेरी बात मान क्यों नहीं लेती? बेकार की बहस शुरू करने के बजाय तुम मेरी खुशी की खातिर अपनी गलत आदतों को फौरन छोड़ देने की बात क्यों नहीं कह रही हो?’’

‘‘तुम मुझे आज खुल कर बता ही दो कि तुम्हारी खुशी की खातिर मैं अपनी और कौनकौन सी घटिया और चीप आदतें छोड़ूं?’’

‘‘सब से पहले किसी भी लड़के से इतना ज्यादा खुल कर मत हंसोबोलो कि वह तुम्हें चालू लड़की समझने लगे.’’

‘‘अंकित, क्या तुम मुझ पर अब चालू लड़की होने का आरोप भी लगा रहे हो?’’ तेज गुस्से के कारण मेरी आंखों में आंसू छलक आए थे.

‘‘मैं आरोप नहीं लगा रहा हूं. बस, सिर्फ तुम्हें समझा रहा हूं. मेरे मन की सुखशांति के लिए तुम्हें अपने व्यवहार को संतुलित बनाने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए.’’

‘‘तुम समझाने की आड़ में मुझे अपमानित कर रहे हो, अंकित. अरे, तुम अभी से मेरे चरित्र पर शक कर मुझे पुराने दोस्तों के साथ खुल कर हंसनेबोलने को मना कर रहे हो तो शादी के बाद तो अवश्य ही मेरे मुंह पर ताला लगा कर रखोगे. तुम्हारी 18वीं सदी की सोच देख कर तो मुझे तुम पर हैरानी हो रही है.’’

‘‘बेकार की बहस में पड़ने के बजाय हम दोनों एकदूसरे के विचारों को समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या अपनी शादीशुदा जिंदगी को हंसीखुशी से भरपूर रखने की जिम्मेदारी हम दोनों की नहीं है?’’ वह अपना आपा खो कर जोर से चिल्लाते हुए बोला.

‘‘जो आदमी मुझे चालू और चीप समझ रहा है, मुझे उस से शादी करनी ही नहीं है,’’ मैं झटके से मुड़ी और पार्क के गेट की तरफ चल पड़ी.उस ने मुझे आवाज दे कर रोकना चाहा, पर मैं रुकी नहीं. घर पहुंच कर मैं देर तक रोती रही. मेरे हंसनेबोलने को नियंत्रित करने का उस का प्रयास मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा.

अपने मन में बसी नाराजगी के चलते पूरे 2 दिन अंकित को इंतजार कराने के बाद मैं ने रविवार की सुबह उस की कौल रिसीव की.

‘‘कुछ देर के लिए मिलने आ सकती हो, मानसी?’’ अंकित की आवाज में अभी भी खिंचाव के भाव मैं साफ महसूस कर सकती थी.

मैं ने भावहीन लहजे में जवाब दिया, ‘‘मेरा आना नहीं हो सकता क्योंकि मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘किसी भी जरूरी काम का बहाना बना कर थोड़ी देर के लिए आ जाओ.’’

‘‘मुझे मम्मीपापा से झूठ बोलना सिखा रहे हो?’’

‘‘प्यार में कभीकभी झूठ बोलना चलता है, यार.’’

‘‘तुम मुझ से प्यार करते हो?’’

‘‘अपनी जान से ज्यादा,’’ वह एकदम भावुक हो उठा था.

‘‘ज्यादा झूठ बोलने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं और यह बात मैं तुम्हें आमनेसामने समझाना चाहूंगा.’’

‘‘ठीक है, आधे घंटे बाद मुझे मेन सड़क पर मिलना.’’

‘‘थैंक यू, यू आर ए डार्लिंग.’’ उस का स्वर किसी छोटे बच्चे की तरह खुशी से भर गया तो मैं भी खुद को मुसकराने से रोक नहीं पाई थी.

हमारी पहली मुलाकात मेरी अच्छी सहेली रितु की शादी के दौरान करीब 2 महीने पहले हुई थी. अंकित उस के बड़े भाई का दोस्त था. हमारे मिलने का सिलसिला चल निकला. खूब बातें होतीं, मौजमस्ती करते. इन कुछ मुलाकातों के दौरान मेरे व्यक्तित्व से प्रभावित हो वह मुझे अपना दिल दे बैठा था.

मेरी नजरों में वह एक उपयुक्त जीवनसाथी था, पर परसों के अपने संकुचित व्यवहार से उस ने मेरा दिल बहुत दुखाया था. मेरे जिस हंसमुख व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उस ने मुझे अपना दिल दिया था अब मेरा वही खास गुण उसे चुभने लगा था. अपनी मोटरसाइकिल के पास खड़ा अंकित मेन सड़क पर मेरा इंतजार कर रहा था. मुझे देखते ही उस का चेहरा फूल सा खिल उठा.

मैं पास पहुंची तो वह खुशी भरे लहजे में बोला, ‘‘यू आर लुकिंग वैरी ब्यूटीफुल, मानसी.’’

‘‘थैंक यू,’’ उस के मुंह से अपनी प्रशंसा सुन कर मैं न चाहते हुए भी मुसकरा उठी थी.

‘‘मुझे परसों के अपने व्यवहार के लिए तुम से क्षमा…’’

मैं ने उस के मुंह पर हाथ रख कर उसे चुप किया और बोली, ‘‘अब उस बात की चर्चा शुरू कर के मूड खराब करने के बजाय पहले कुछ खा लिया जाए, मुझे बहुत जोर से भूख लग रही है.’’

‘‘जरूर,’’ उस ने किक मार कर मोटरसाइकिल स्टार्ट कर दी.

मेरे मनपसंद रेस्तरां में हम ने पहले पेट भर कर चायनीज खाना खाया. फिर आमिर खान की ‘थ्री इडियट’ फिल्म दोबारा देखी. वहां से निकल कर आइसक्रीम खाई और उसी डिस्ट्रिक्ट पार्क में घूमने पहुंच गए जहां 2 दिन पहले हमारा झगड़ा हुआ था.

वहां हम हाथ पकड़ कर मस्त अंदाज में घूमने लगे. अब तक बीते पूरे समय के दौरान नाराजगी का कोई नामोनिशान मेरे व्यवहार में मौजूद नहीं था. उस ने तो कई बार झगड़े की चर्चा छेड़नी भी चाही, पर हर बार मैं ने वार्तालाप की दिशा बदल दी थी. मन में डर भी था कि बेवजह फिर कहीं बात का बतंगड़ न बन जाए.

टहलते हुए हम पार्क के ऐसे एकांत कोने में पहुंचे जहां आसपास कोई नजर नहीं आ रहा था. मैं ने रुक कर उस का हाथ चूमा तो उस ने मुझे अपनी मजबूत बांहों में एकाएक भर कर मेरे होठों से अपने होंठ जोड़ दिए थे.

मैं ने आंखें मूंद कर इस पहले चुंबन का भरपूर आनंद लिया था.

अंकित से अलग होने के बाद मैं प्यार भरे अंदाज में फुसफुसा उठी थी, ‘‘अब तुम से दूर रहने का मन नहीं करता है, अंकित.’’

‘‘मेरा भी,’’ वह अपनी सांसों को नियंत्रित नहीं कर पा रहा था.

‘‘हम जल्दी शादी कर लेंगे?’’

‘‘हां.’’

‘‘मैं जैसी हूं, तुम्हें पसंद तो हूं न?’’

‘‘तुम मुझे बहुत ज्यादा पसंद हो.’’

‘‘तब मुझ पर अपने स्वभाव को बदलने के लिए परसों जोर क्यों डाल रहे थे?’’

‘‘तुम भूली नहीं हो उस बात को?’’ वह बेचैन नजर आने लगा.

‘‘नहीं,’’ मैं ने उसे सचाई बता दी.

उस ने अटकते हुए अपने दिल की बात कह दी, ‘‘मानसी, इस मामले में मैं तुम से झूठ नहीं बोलूंगा. तुम्हें किसी भी अन्य युवक के साथ ज्यादा खुला व्यवहार करते देख मेरा मन गलत तरह की कल्पनाएं करने लगता है. तुम्हारा जो व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगता, उसे छोड़ देने की बात कह कर मैं ने क्या कुछ गलत किया है?’’

‘‘इस मामले में तुम अब मेरे मन की बात ध्यान से सुनो, अंकित,’’ मैं भावुक लहजे में बोलने लगी, ‘‘तुम बहुत अच्छे हो… मेरे सपनों के राजकुमार जैसे सुंदर हो… मैं सचमुच तुम्हारी जीवनसंगिनी बनना चाहती हूं, पर…’’

‘‘पर क्या?’’ उस की आंखों में तनाव के भाव उभर आए.

‘‘किसी दोस्त या सहयोगी के साथ तुम्हारे खुल कर हंसनेबोलने को ले कर मैं तुम्हारे साथ कभी झगड़ा नहीं करना चाहूंगी. शादी के बाद तुम मुझे कितना भी प्यार करो, मेरा जी नहीं भरेगा. बैडरूम में मेरा खुला व्यवहार देख कर मेरे चरित्र के बारे में अगर तुम ने गलत अंदाजे लगाए तो हमारी कैसे निभेगी? हमें एकदूसरे के ऊपर पूरा विश्वास…’’

‘‘मैं इतना कमअक्ल इंसान…’’

मैं ने भी उसे बीच में ही टोक कर अपने मन की बात कहना जारी रखा, ‘‘प्लीज, पहले मेरी पूरी बात सुन लो. आज अपने मम्मीपापा से झूठ बोल कर तुम से मिलने आई थी. तुम्हें अपना हाथ पकड़ने दिया… अपनी कमर में बांहें डाल कर चलने दिया. होंठों पर आज पहली बार किस करने की छूट दी. मैं ने वह खास प्रेमी होने का दर्जा आज तुम्हें दिया जो कल को मेरी मांग में सिंदूर भी भरेगा.’’

‘‘तुम कहना क्या चाह रही हो?’’ अंकित की आंखों में बेचैनी और उलझन के भाव साफ नजर आ रहे थे.

‘‘मैं यह कहना चाह रही हूं कि जब तक तुम अपनी आंखों से किसी युवक के साथ ऐसा कुछ होता न देखो… जब तक तुम मेरा कोई झूठ न पकड़ो, तब तक मेरे चरित्र पर शक करने की भूल मत करना.

‘‘मैं ने आज तक किसी गलत नीयत वाले युवक को दोस्त का दर्जा नहीं दिया है और न ही कभी दूंगी. फ्लर्ट करने के शौकीन इंसानों को मैं अपने से दूर रखना अच्छी तरह जानती हूं. माई लव, मैं स्वभाव से हंसमुख हूं, चरित्रहीन नहीं.’’

उस ने पहले मेरे आंसुओं को पोंछा और फिर संजीदा लहजे में बोला, ‘‘मानसी, मुझे अपनी गलती का एहसास हो रहा है. मेरी समझ में आ गया है कि तुम्हारे खुले व हंसमुख व्यवहार के कारण मेरे मन में हीनभावना पैदा हो गई थी जिस से मुझे मुक्ति पाना जरूरी है. मैं अब भविष्य में तुम्हारे ऊपर निराधार शक कर तुम्हारा दिल नहीं दुखाऊंगा.’’

‘‘सच कह रहे हो?’’

‘‘बिलकुल सच कह रहा हूं.’’

‘‘अब कभी मेरे ऊपर निराधार शक नहीं करोगे?’’

‘‘कभी नहीं.’’

‘‘आई लव यू वैरी मच.’’ मैं भावविभोर हो उस से लिपट गई.

‘‘आई लव यू टू.’’ उस ने मेरे होंठों से अपने होंठ जोड़े और मेरे तनमन को मदहोश करने वाले दूसरे चुंबन की शुरुआत कर दी थी.

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