अनुपमा की जिंदगी में आया नया मोड़, गुरू मां को देखकर उड़ेंगे अनुज के होश

रुपाली गांगुली और गौरव खन्ना स्टारर ‘अनुपमा’ धारावाहिक दर्शको के बीच धूम मचा रहा है. अनुपमा शो में आए दिन नए-नए ट्विस्ट और टर्न्स देखने को मिलते है. शो के मेकर्स अनुपमा में तड़का लगाने के लिए रोज नया मसाला लेकर आते है जिसकी वजह से शो नंबर वन पर बना हुआ है. शो में आने वाले इन मोड़ ने दर्शकों को भी बखूबी से बांधा हुआ है. ‘अनुपमा’ के नए एपिसोड में जहां समर और डिंपल की शादी हो रही है तो वहीं अनुज और अनुपमा की जिंदगी में आने वाले बवाल भी कम नहीं हो रहे हैं.

समर और डिंपल की शादी

अनुपमा में देखने को मिलेगा कि समर और डिंपल की शादी धूमधाम से हो रही है. शादी में जहां गठबंधन डॉली करेगी तो वहीं कन्यादान डिंपल की मां करेगी. वहीं अनुपमा भी समर और डिंपल को आशीर्वाद देगी कि अब तुम लोग मैं से हम हो चुके हो तो हमेशा एक साथ रहना और एक-दूजे का साथ देते रहना.

 

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सगी मां से होगा अनुज का सामना

शो में ट्विस्ट और टर्न्स आते ही रहते है ऐसे में एंटरटेंमेंट का डोज यहीं खत्म नहीम होता. अनुपमा के अपकमिंग एपिसोड में देखने को मिलेगा कि समर और डिंपल के फेरे के बाद शो मे गुरु मां की एंट्री होगी. जिसे देखकर अनुपमा खुशी से चिल्ला पड़ेगी. किंतु जब अनुज उन्हें पीछे से मुड़कर देखेगा तो हैरान हो जाएगा. गुरु मां घर में कदम रखेगी तो उनका पैर कील पर पड़ने वाला होता है लेकिन अनुज ये देखकर अपना हाथ रख देगा. गुरु मां लड़खड़ा जाएंगी और सहारे के लिए अनुज पर हाथ रख देंगी. लेकिन दोनों एक-दूजे को हैरानी से देखेंगे.

अनुपमा की जिंदगी में आई मुसीबत

इतना ही नहीं शो में देखने को मिलेगा कि गुरु मां अनुपमा को अमेरिका की अकेडमी की जिम्मेदारी अनुपमा के हाथ में देगी. इस बात से अनुपमा तो खुश हो जाएगी, लेकिन नकुल नाराज होगा. वह रोते हुए अनुपमा से बदला लेने का भी फैसला करेगा.

मुझे बोन डैंसिटी टैस्ट के बारे में जानना चाहती हूं, आखिर ये क्या होता है?

सवाल

मेरे परिवार में औस्टियोपोरोसिस का पारिवारिक इतिहास है. मैं बोन डैंसिटी टैस्ट के बारे में जानना चाहती हूं. यह क्या होता है और इसे कब कराना चाहिए?

जवाब

बोन डैंसिटी टैस्ट में एक विशेष प्रकार के ऐक्सरे जिसे डीएक्सीए (ड्युअल ऐनर्जी ऐक्सरे) कहते हैं के द्वारा स्पाइन, कूल्हों और कलाइयों की स्क्रीनिंग की जाती है. इन भागों की हड्डियों की डैंसिटी माप कर इन की शक्ति का पता लगाया जाता है ताकि हड्डियों के टूटने से पहले ही उन का उपचार किया जा सके. आप 45 साल की उम्र में बोन डैंसिटी टैस्ट करा सकती हैं और इसे हर 5 साल बाद कराएं.

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सवाल

मैं 28 वर्षीय कामकाजी महिला हूं. मैं ने सुना है कि आज के समय में युवावस्था में ही लोगों की हड्डियां कमजोर हो रही हैं. ऐसा क्यों हो रहा है और इस से कैसे बचा जा सकता है?

जवाब

युवाओं में हड्डियों के कमजोर होने का सब से प्रमुख कारण औस्टियोपोरोसिस है. औफिस और घर में घंटों बैठे रहने के कारण शारीरिक सक्रियता में काफी कमी आई है जिस से बोन मास में युवावस्था में ही कमी आने लगती है. गैजेट्स और इलैक्ट्रौनिक उपकरणों के बढ़ते प्रचलन ने युवाओं को चारदीवारी में कैद कर दिया है जिस से प्राकृतिक प्रकाश नहीं मिल पाता और उन में विटामिन डी की कमी हो जाती है. उस से औस्टियोपोरोसिस का खतरा और बढ़ जाता है. जंक फूड्स और फास्ट फूड्स का बढ़ता चलन, अनियमित जीवनशैली, बढ़ता तनाव और नींद की कमी भी हड्डियों को कमजोर बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. पोषक और संतुलित भोजन का सेवन करें. घर और औफिस की चारदीवारी से निकलें और प्राकृतिक प्रकाश में समय बिताएं. नियमित रूप से वर्कआउट करें. पूरी नींद लें.

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सवाल

मेरे मातापिता दोनों को औस्टियोपोरोसिस है. मैं जानना चाहती हैं कि क्या आनुवंशिक कारक भी औस्टियोपोरोसिस का रिस्क फैक्टर माना जाता है?

अगर मातापिता में से किसी को औस्टियोपोरोसिस है तो उन की संतान में इस के होने की संभावना 70त्न तक बढ़ जाती है. आप के मातापिता दोनों को औस्टियोपोरोसिस है इसलिए आप को सतर्क रहना चाहिए. वैसे भी महिलाओं के औस्टियोपोरोसिस की चपेट में आने की आशंका पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा होती है. विशेष कर छोटे कद की और दुबलीपतली महिलाओं के. औस्टियोपोरोसिस से बचने के लिए अपने खानपान का ध्यान रखें और नियमित रूप से ऐक्सरसाइज करें.

-डा. रमणीक महाजन

सीनियर डाइरैक्टर ऐंड हेडजौइंट रिकंस्ट्रक्शन यूनिट (नी ऐंड हिप),

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तलाक मिलना इतना पेचीदा क्यों

शादी का रिश्ता सात जन्मों का माना जाता है और इसे तोड़ना एक आफत होती है. एक अदालत के अधिकारियों और वकीलों के मुताबिक यह शायद भारत में अपनी किस्म का पहला ही मामला है जहां दोनों पक्षों में से कोई भी सुनवाई के कौन्फैंसिंग लिए मौजूद नहीं था. काननून कम से कम एक पक्ष को आमतौर पर अदालत में मौजूद रहना पड़ता है, किंतु वीडियो  के माध्यम से अमेरिका में रहने वाले पति और आस्टे्रलिया में रहने वाली पत्नी से सहमति मिलते ही दोनों को ईमेल पर तलाक की कौपी भिजवा दी गई.

पेशे से सौफ्टवेयर इंजीनियर दोनों पति और पत्नी 30 साल के भी नहीं हुए थे, लेकिन उन के बीच विवाद इस कदर था कि तलाक से पहले 6 महीने की अनिवार्यता को देख कर पति ने अमेरिका में नौकरी तलाश ली तो बीवी ने आस्ट्रेलिया में जौब ढूंढ़ी. अब तलाक का मामला कोर्ट में गया तो सुनवाई वाले दिन दोनों पक्षों ने कोर्ट को सूचित किया कि वे नहीं आ सकते. लिहाजा कोर्ट ने वीडियो कौन्फैंसिंग का सहारा लिया.

इस में वक्त के साथ खर्च भी बचा और यह तलाक, तलाक के उन अन्य मामलों में अनोखा था जहां कम से कम 2 लाख रुपए का खर्च आता है. दोनों पक्षों की यात्रा में लगने वाले समय की बचत हुई वह अलग.

आसान नहीं थी डगर तलाक की

आमतौर पर तलाक या अलगाव का फैसला एक दिन या कुछ पलों में लिया जाने वाला फैसला नहीं है. इस की कवायद महीनों से ले कर सालों तक चलती है. इस के चलते अलग होने वाले पतिपत्नी मानसिक, शारीरिक क्लेश तो  झेलते ही हैं आर्थिक दंड भी भुगतते हैं.

शायद इस बात को समझते हुए विदेशों में 2005 में स्पेन की नई सरकार ने एक नया तलाक का कानून बनाया, जिस के चलते तलाक लेना आसान हुआ. हां इस से तलाक के मामलों में वृद्धि तो देखी गई पर पतिपत्नी को जल्दी छुटकारा मिल जाता. इस के पहले की चर्च की मान्यता मानने वाली कंजरवेटिव पार्टी की सरकार में तलाक लेना मुश्किल था क्योंकि कानूनी प्रक्रिया इस की इजाजत नहीं देती थी.

यद्यपि लोगों ने फिर भी रास्ता निकाल लिया था, जिस में जोड़े कानून अलग नहीं होते थे, मगर वे अलग ही रहते थे. इसे स्पेनिश तलाक का तरीका कहा जाता था. इस कानून से पहले स्पेन में तलाक की दर यूरोपीय देशों में सब से कम थी.

हमारे देश में भी तलाक का मुद्दा सामाजिक रूप से चर्चा और विवाद का मुद्दा बना हुआ है. करीब 50 साल पहले यह कोई मुद्दा नहीं था. ऐसा समाज की अच्छाई के कारण था या विकल्पहीनता की स्थिति के कारण यह विश्लेषण करने वाले व्यक्ति के नजरिए के साथ जुड़ा हुआ है.

लेकिन यह सभी के लिए विचारणीय है कि कानून की सख्ती द्वारा या समुदाय के दबाव में लोगों को एकसाथ रहने के लिए मजबूर करना क्यों न्यायोचित्त माना जाए. कोई 2 लोग साथ रहना चाहते हैं या अलग, यह निर्णय उन्हीं दोनों को करना चाहिए क्योंकि वे ही समझ सकते हैं कि उन के लिए क्या ठीक है.

देश में तलाक की स्थिति

तलाक के मुद्दे को इस दृष्टि से भी समझने की जरूरत है कि यह स्वयं एक अधिकार है जिसे आप चाहें तो इस्तेमाल करें या न करें. एक जमाना था जब भारत में तलाक लेना संभव ही न था या यों समझ लें कि संबंध विच्छेद करना पतियों के हाथ में था, जहां पत्नियों का उन के हाल पर छोड़ दिया जाता था. यहां तक कि परित्यक्ता की गलती थी भी या नहीं यह सोचने की जहमत कोई नहीं उठाता था.

बहुत से लोगों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि आजादी के बाद 1956 में हिंदू बिल पास होने से पहले हिंदू औरत को यह अधिकार भी नहीं था कि वह अपने अत्याचारी, शराबी, दुष्चरित्र, परस्त्रीगामी पति से तलाक की मांग कर सम्मानपूर्वक अलग हो सके.

इसे संसद में पहली बार जवाहर लाल नेहरू और कानून मंत्री डा. अंबेडकर ने पेश किया था. तब सनातनी हिंदुओं के दबाव में आ कर यह कानून पास नहीं हो सका और फिर बाद में उस का संशोधित और कमजोर रूप जो टुकड़ों में आया कानून बना था अर्थात जो काम पुरुष बिना कानून के करते थे, उसे नागरिक समाज की मर्यादा के अनुरूप स्त्री और पुरुष दोनों को करने का अधिकार मिला.

राजेंद्र प्रसाद जैसे कट्टरपंथी आदमियों को तो पूरे अधिकार देने के पक्षधर थे पर औरतों को तलाककी जगह आत्महत्या करने की व्यवस्था करते थे.

पेचीदगियों का सामना

इस के बाद अन्याय से लड़ने और अपने अधिकारों को पाने की संघर्ष प्रक्रिया में भी बदलाव आया. विवाह टूटने पर कई बार कोई भी प्रमाण न होने पर स्त्रियों को कई बार कानूनी पेचीदगियों का सामना करना पड़ता था. इन्हीं विवादों से चिंतित हो कर उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों केंद्र सरकार, राज्य सरकार और केंद्रशासित प्रदेशों को आदेश दिया कि वे सभी जातियों में विवाह का पंजीकरण अनिवार्य करने संबंधी कानून बनाएं.

हालांकि हमारे यहां विवाह एक पारिवारिक मसला समझ जाता है, लेकिन अब समय की मांग है कि हम विवाह पंजीकरण के माने समझे. पंजीकरण जरूरी है. शादी के तुरंत बाद खासतौर पर एनआरआई लड़के से शादी के समय पंजीकरण करवाने के बाद इस की एक प्रति अपने पास रखना जरूरी है क्योंकि धोखाधड़ी के मामले में ऐसे कानूनी दस्तावेज महिला का पक्ष मजबूत बनाते हैं जिस से तलाक की प्रक्रिया जल्दी निबटने की संभावना बनती है.

विवाद के मामले

अक्तूबर, 2006 में घरेलू हिंसा कानून आने के बाद स्त्रियों के प्रति होने वाले अत्याचारों की सुनवाई 498 सेक्शन के तहत होने लगी. जिस के नतीजे में देश के अलगअलग थानों अदालतों में इस के तहत लाखों से अधिक विवाद के मामले दर्ज हुए.

इतना होने के बाद भी कहीं न कहीं कानूनी व्यवस्था ऐसी है जिस से भारत में तलाक लेना आसान बात नहीं होती क्योंकि देश के कानून में न्यायालयों द्वारा इस बात के समुचित आदेश दिए गए हैं कि वे तलाक के प्रकरणों पर अपना निर्णय सुनाने में जल्दीबाजी न करें, इसलिए तलाक के प्रकरणों में सुनाई की तिथियां लंबे अंतराल वाली दी जाती हैं. दोनों पक्षों द्वारा न्यायालय के अनेक चक्कर लगवाए जाते हैं ताकि इस बीच उन में कोई सुलह हो जाए, लेकिन ऐसा कभीकभी ही हो पाता है.

मगर अधिकांश मामलों में ऐसा नहीं होता. प्रेम और सदविश्वास का टूटा धागा प्राय जुड़ नहीं पाता. यदि गांठ गठीले हो कर दबाव और मजबूरी में जुड़ती भी है, तो दोनों पक्ष जीवनपर्यंत विपरीत धु्रव बन कर मजबूरी का जीवन व्यतीत करते देखे गए हैं. अत: दांपत्य की डोर खींच कर टूटने के कगार पर पहुंच जाए तो उसे दांपत्य दुर्घटना मान कर टूट जाने देना चाहिए. अदालतें अब यह बात समझने लगी है. इसलिए वे अपना निर्णय सुनाने में उतनी देर नहीं करतीं, जितनी पहले करती थीं.

आमतौर पर जब विवाह विच्छेद के साथ अन्य मुद्दे जैसे भरणपोषण, बच्चों का संरक्षण, उत्तराधिकार और संपत्ति वितरण जुड़े होते हैं तो अदालतों को निर्णय सुनाने में देर लगती है. यदि कोई स्त्री पति के अत्याचार की शिकायत अपनी याचिका में करती है तो उसे अत्याचार को सिद्ध करने में वक्त लगता है.

हां लेकिन अगर पतिपत्नी को जल्दी तलाक चाहिए तो पतिपत्नी अगर आपसी समझैते पर एकसाथ याचिका दायर करें तो इस से तलाक जल्दी मिल जाता है क्योंकि उन के ज्यादातर  झगड़ों के मुद्दे अदालत में जाने से पहले ही सुलझ चुके होते हैं.

जब एकसाथ रहना मुश्किल हो

आमतौर पर शादी के 1 साल के बाद ही तलाक लेने की सोची जा सकती है क्योंकि कानून 1 साल के अंदर तलाक दिए जाने का प्रावधान नहीं है. फिर भी अगर किसी दंपती में शादी के दो महीने बाद ही खटपट शुरू हो जाए और परिस्थितियां इस तरह असामान्य बन जाएं कि एकसाथ रहना बेहद मुश्किल हो चुका हो तो उन के याचिका दायर करने के बाद हाई कोर्ट यह देखता है कि उन की तलाक प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाए या नहीं.

जब प्रेम की डोरी टूट जाए

विवाह के प्रथम चरण यानी बच्चा पैदा करने से पूर्व भी तलाक की सुनवाई शीघ्र होती लेकिन यदि बच्चे हो जाएं तब उन के व्यस्क होने पर, उन के दायित्व निर्वाह के बाद पतिपत्नी यदि तलाक मांगें तो अदालतें तलाक का मामला जल्दी निबटाती हैं. भले ही अभी तलाक की प्रक्रिया भारत में लंबी हो, लेकिन बदलते वक्त के साथ अदालतें भी समझने लगी हैं कि जब प्रेम की डोरी टूट जाए तो रिश्ते को फिर से जोड़ने की जद्दोजहद करने से बेहतर है उसे तोड़ देना.

तलाकों में अब सिल्वर तलाक की संख्या भी बढ़ रही है जिस में पतिपत्नी बच्चों की शादियां करने के बाद अकेले सुख से रहना चाहते हैं चाहे उन को दूसरा साथी मिले या न मिले. अदालतों में 60 से ऊपर के जोड़े भी तलाक के लिए आने लगे हैं जिस का अर्थ है कि जोड़े एकदूसरे को झेल नहीं पा रहे पर बच्चों के कारण दबाव  झेल रहे थे.

जीवन के आखिरी साल अकेले ही सही पर कम से कम सुकून से तो गुजरें, यह भी जरूरी है. इस में झगड़ालू डौमिनेटिंग धर्म को नुकसान होता है पर यह तो उस की अपनी गलती ही होती है.

वैसे भारत में तलाक दर अभी भी 6% के आसपास है जो पुलिस में सब से कम है पर यह मकानों की कमी के कारण ज्यादा है, संस्कृति और परवरिश के कारण कम. तलाक के बाद सब को मकान नहीं मिलता और देश में किराए पर मकान लेना अकेले के लिए मुश्किल है.

अदालतें आमतौर पर विरोधाभासी कन्फ्यूजन पैदा करने वाली बातें करती हैं. उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय कभी तुरंत तलाक दिलवा देते हैं तो कभी महीनों, सालों इंतजार कराते हैं.

सुंदर माझे घर-भाग 2 : दीपेश ने कैसे दी पत्नी को श्रद्धांजलि

नीरा ने न केवल ड्राइंगरूम बल्कि बैडरूम और रसोईघर को भी सामान्य साजसामान की सहायता व अपनी कल्पनाशीलता से आधुनिक रूप दे दिया था, साथ ही, आगे बगीचे में उस ने गुलाब, गुलदाऊदी, गेंदा और रजनीगंधा आदि फूलों के पेड़ व घर के पीछे कुछ फलों के पेड़ और मौसमी सब्जियां भी लगाई थीं. अपने लगाए पेड़पौधों की देखभाल वह नवजात शिशु के समान करती थी. कब किसे कितनी खाद और पानी की जरूरत है, यह जानने के लिए उस ने बागबानी से संबंधित एक पुस्तक भी खरीद ली थी.

दीपेश कभीकभी घर सजानेसंवारने में पत्नी की मेहनत और लगन देख कर हैरान रह जाता था. एक बार वह साड़ी खरीदने के लिए मना कर देती थी लेकिन यदि उसे कोई सजावटी या घर के लिए उपयोगी सामान पसंद आ जाता तो वह उसे खरीदे बिना नहीं रह सकती थी.

नीरा की ‘मा झे सुंदर घर’ की कल्पना साकार हो उठी थी. धीरेधीरे एक वर्ष पूरा होने जा रहा था. वह इस अवसर को कुछ नए अंदाज से मनाना चाहती थी. इसीलिए घर में एक साधारण पार्टी का आयोजन किया गया था. घर को गुब्बारों और रंगबिरंगी पट्टियों से सजाया गया था. काम की हड़बड़ी में ऊपर के कमरे से नीचे उतरते समय नीरा का पैर साड़ी में उल झ गया और वह नीचे गिर गई. सिर में चोट आई थी लेकिन उस ने ध्यान नहीं दिया और पार्टी का मजा किरकिरा न हो जाए, यह सोच कर चुपचाप दर्द को  झेलती रही.

‘आज मैं बहुत थक गई हूं. अब सोना चाहती हूं,’ पार्टी समाप्त होने पर नीरा ने थके स्वर में दीपेश से कहा था.

‘अब आलतूफालतू काम करोगी तो थकोगी ही. भला इतना सब ताम झाम करने की क्या जरूरत थी?’ दीपेश ने सहज स्वर में कहा था. ऊपरी चोट के अभाव के कारण दीपेश ने नीरा के गिरने की घटना को गंभीरता से नहीं लिया था.

जब नीरा सुबह अपने समय पर नहीं उठी तब दीपेश को चिंता हुई. जा कर देखा तो पाया कि वह बेसुध पड़ी थी, चेहरे पर अजीब से भाव थे जैसे रातभर दर्द से तड़पती रही हो. दीपेश ने फौरन डाक्टर को बुला कर दिखाया. डाक्टर ने उसे शीघ्र ही अस्पताल में भरती कराने की सलाह देते हुए कहा कि गिरने के कारण सिर में अंदरूनी चोट आई है. ‘सिर की चोट को कभी भी हलके रूप में नहीं लेना चाहिए. कभीकभी साधारण चोट भी जानलेवा हो जाती है.’

डाक्टर की बात सच साबित हुई. लगभग 5 दिन जिंदगी और मौत के साए में  झूलने के बाद नीरा चिरनिद्रा में सो गई. सभी सगेसंबंधी, अड़ोसीपड़ोसी इस अप्रत्याशित मौत का समाचार सुन कर हक्कबक्के रह गए.

नीरा का अंतिम संस्कार करने के बाद दीपेश ने घर में प्रवेश किया तो उस के कुशल हाथों से सजासंवरा घर उसे मुंह चिढ़ाता प्रतीत हुआ. उस के लगाए पेड़पौधे कुछ ही दिनों में सूख गए थे. दीपेश सम झ नहीं पा रहा था कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने के बाद भी घर वीरान क्यों हो गया? उन के जीवन में तूफान क्यों आया? उस समय वह नितिन और रीना को अपनी गोद में छिपा कर खूब रोया. तब नन्ही रीना उस के आंसू पोंछती हुई बोली थी, ‘डैडी, ममा नहीं हैं तो क्या हुआ, उन की यादें तो हैं.’’

दीपेश ने बच्चों का मन रखने के लिए आंसू पोंछ डाले थे. लेकिन नीरा का चेहरा उन के हृदय पर ऐसा जम गया था कि उस को निकाल पाना उस के लिए संभव ही नहीं था. वह घर कैसा जहां खुशियां न हों, प्यार न हो, स्वप्न न हों.

दीपेश के मांपिताजी नहीं थे, सो, नीरा की मां ने आ कर उन की बिखरती गृहस्थी को फिर से समेटने का प्रयत्न किया था.

एक दिन सवेरे दीपेश का मन टटोलने के लिए मांजी ने कहा, ‘बेटा, जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता, फिर से घर बसा लो. बच्चों को मां व तुम्हें पत्नी मिल जाएगी. आखिर मैं कब तक साथ रहूंगी.’

‘पापा, आप नई मां ले आइए. हम उन के साथ रहेंगे,’ नन्हे नितिन, जो नानी की बात सुन रहा था, ने भोलेपन से कहा और उस की बात का समर्थन रीना ने भी कर दिया.

दीपेश सोच नहीं पा रहे थे कि बच्चे अपने मन से कह रहे हैं या मांजी ने उन के नन्हे मन में नई मां की चाह भर दी है. वह जानता था कि नीरा की यादों को वह अपने हृदय से कभी हटा नहीं सकता. फिर क्यों दूसरा विवाह कर वह उस लड़की के साथ अन्याय करे जो उस के साथ तरहतरह के स्वप्न संजोए इस घर में प्रवेश करेगी.

2 महीने बाद जाते हुए जब मांजी ने दोबारा दीपेश के सामने अपना सु झाव रखा तो वह एकाएक मना न कर सका. शायद इस की वजह यह थी कि रीना को अपनी नानी के साथ काम करते देख कर उस का मन बेहद आहत हो जाता था. कुछ ही दिनों में रीना बेहद बड़ी लगने लगी थी. उस की चंचलता कहीं खो गईर् थी. यही हाल नितिन का भी था. जो नितिन अपनी मां को इधरउधर दौड़ाए बिना खाना नहीं खाता था वही अब जो भी मिलता, बिना नानुकुर के खा लेता था.

बच्चों का परिवर्तित स्वभाव दीपेश को मन ही मन खाए जा रहा था. सो, मांजी के प्रस्ताव पर जब उन्होंने अपने मन की चिंता बताई तो वे बोली थीं, ‘बेटा, यह सच है कि तुम नीरा को भूल नहीं पाओगे. नीरा तुम्हारी पत्नी थी तो मेरी बेटी भी थी. जाने वाले के साथ जाया तो नहीं जा सकता और न किसी के जाने से जीवन ही समाप्त हो जाता.’

दीपेश को मौन पा कर मांजी फिर बोलीं, ‘तुम कहो तो नंदिता से तुम्हारी बात चलाऊं. तुम तो जानते ही हो, नंदिता नीरा की मौसेरी बहन है. उस के पति का देहांत एक कार दुर्घटना में हो गया था. वह भी तुम्हारे समान ही अकेली है तथा स्त्री होने के साथसाथ एक बेटी अर्चना की मां होने के नाते वह तुम से भी ज्यादा मजबूर और बेसहारा है.’

मांजी की इच्छानुसार दीपेश ने घर बसा लिया था लेकिन फिर भी न जाने क्यों जिस घर पर कभी नीरा का एकाधिकार था उसी घर पर नंदिता का अधिकार होना वह सह नहीं पा रहा था.

नंदिता ने दीपेश को तो स्वीकार कर लिया लेकिन बच्चों को स्वीकार नहीं कर पा रही थी. वैसे, दीपेश भी क्या उस समय अर्चना को पिता का प्यार दे पाए थे. घर में एक अजीब सा असमंजस, अविश्वास की स्थिति पैदा हो गई थी. वह अपनी बच्ची को ले कर ज्यादा ही भावुक हो उठती थी.

नंदिता को लगता था, उस की बेटी को कोई प्यार नहीं करता है. घर में अशांति, अविश्वास, तनाव और खिंचाव देख कर बस एक बात उन के दिमाग को मथती रहती थी कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन कर बनाया यह घर प्रेम, ममता और अपनत्व का स्रोत क्यों नहीं बन पाया? आंतरिक और बाहरी शक्तियों में समरसता स्थापित क्यों नहीं हो पा रही है? क्यों उन की शक्तियां क्षीण हो रही हैं? उन में क्या कमी है? अपनी आंतरिक और बाहरी शक्तियों को निर्देशित कर उन में संतुलन स्थापित कर क्यों वे न स्वयं खुद रह पा रहे हैं और न दूसरों को खुश रख पा रहे हैं?

नई मां की अपने प्रति बेरुखी देख कर रीना और नितिन अपने में सिमट गए थे. लेकिन बड़ी होती अर्चना ने दिलों की दूरी को पाट दिया था. वह मां के बजाय रीना के हाथ से खाना खाना चाहती, उसी के साथसाथ सोना चाहती, उसी के साथ खेलना चाहती. रीना और नितिन की आंखों में अपने लिए प्यार और सम्मान देख कर नंदिता में भी परिवर्तन आने लगा था. बच्चों के निर्मल स्वभाव ने उस का दिल जीत लिया था या अर्चना को रीना और नितिन के साथ सहज, स्वाभाविक रूप में खेलता देख उस के मन का डर समाप्त हो गया था.

एक बार दीपेश को लगा था कि उन  के घर पर छाई दुखों की छाया हटने लगी है. रीना कालेज में आ गई थी तथा नितिन और अर्चना भी अपनीअपनी कक्षा में प्रथम आ रहे थे. तभी एक दिन नंदिता ऐसी सोई कि फिर उठ ही न सकी. पहले 2 बच्चे थे, अब 3 बच्चों की जिम्मेदारी थी. लेकिन फर्क इतना था कि पहले बच्चे छोटे थे, अब बड़े हो गए थे और अपनी देखभाल स्वयं कर सकते थे व अपना बुराभला सोच और सम झ सकते थे.

रीना ने घर का बोझ उठा लिया. अब दीपेश भी रीना के साथ रसोई तथा अन्य कामों में हाथ बंटाते तथा नितिन और अर्चना को भी अपनाअपना काम करने के लिए प्रेरित करते. घर की गाड़ी एक बार चल निकली थी, लेकिन इस बार के आघात ने उन्हें इतना एहसास करा दिया था कि दुखसुख के बीच में हिम्मत न हारना ही व्यक्ति की सब से बड़ी जीत है. वक्त किसी के लिए नहीं रुकता. जो वक्त के साथ चलता है वही जीवन के संग्राम में विजयी होता है.

इस एहसास और भावना ने दीपेश के अंदर के अवसाद को समाप्त कर दिया था. अब वे औफिस के बाद का सारा समय बच्चों के साथ बिताते या नीरा द्वारा बनाए बगीचे की साजसंभाल करते तथा उस से बचे समय में अपनी भावनाओं को कोरे कागज पर उकेरते. कभी वे गीत बन कर प्रकट होतीं तो कभी कहानी बन कर.

शीघ्र ही उन की रचनाएं प्रतिष्ठित पत्रपत्रिकाओं में स्थान पाने लगी थीं. उन के जीवन को राह मिल गई थी. समय पर बच्चों के विवाह हो गए और वे अपनेअपने घरसंसार में रम गए. उन की लेखनी में अब परिपक्वता आ गई थी.

 

Father’s day 2023: मां के बिना पिता बच्चों को कैसे संभाले

4 दिन पहले तक अभिषेक की जिंदगी में सब कुछ बहुत खूबसूरत था. एक प्यारी सी बीवी थी जो हर वक्त उस का ख्याल रखती थी. दो प्यारेप्यारे बच्चे थे जिन की खिलखिलाहट से सारा घर गुंजायमान रहता था. पर 4 दिन के अंदर जिंदगी ने ऐसा खेल खेला कि उस के घर में सब तरफ सूनापन और उदासी पसर गई. उस की पत्नी को अचानक कोविड हुआ और दोतीन दिनों के अंदर ही वह सब को छोड़ कर चली गई.

वह खुद भी कोरोना पॉजिटिव था. कोरोना से पत्नी की मौत की खबर पा कर ज्यादा लोग तो आ ही नहीं सके. वैसे भी कोरोना की वजह से हालात बहुत खराब थे. केवल उस की मां, सासससुर और बहन समेत कुछ करीबी रिश्तेदार मातम मनाने के लिए आए. बाकी सब तो शाम में ही लौट गए मगर उस की मां और बहन रुक गए. अभिषेक ने खुद को आइसोलेट कर लिया. मां बच्चों को संभालने लगी. बहन को भी 4 -5 दिनों में अपने घर जाना पड़ा.

इधर एकडेढ़ महीने रुक कर मां को भी पिताजी के पास लौटना पड़ा. अभिषेक के पिताजी गांव में व्यवसाय करते थे और ज्यादा दिन अकेले नहीं रह सकते थे. मां के जाने के बाद बच्चों की जिम्मेदारी पूरी तरह अभिषेक पर आ गई. वैसे
गनीमत थी कि फिलहाल उस का वर्क फ्रॉम होम चल रहा था. इसलिए उसे बच्चों को अकेले घर में छोड़ कर ऑफिस जाने की टेंशन नहीं थी. मगर ऑफिस का काम तो पूरा करना ही होता था. उस पर छोटे बच्चों को पूरे दिन संभालना भी आसान नहीं होता. कोरोना की वजह से उस ने मेड को भी छुट्टी दी हुई थी.

जाते वक्त मां ने समझाया था कि वह दूसरी शादी कर ले. मगर अभिषेक दूसरी शादी के पक्ष में नहीं था. वह अपने बच्चों की जिंदगी में सौतेली मां को ले कर आना नहीं चाहता था. अभिषेक ने तय किया कि वह बच्चों को अपने बल पर पालेगा.

इस के लिए उस ने कुछ तैयारियां शुरू की. सब से पहले एक टाइम टेबल बनाया. किन चीजों की कब जरूरत पड़ेगी या बाजार से क्या ला कर रखना है जैसी चीजों की लिस्ट बनाई. बच्चों से अपनी मजबूरी डिस्कस की और समझाया कि उन्हें भी पापा के साथ कॉर्पोरेट करना पड़ेगा. यूट्यूब देख कर खाना बनाना सीखा. फिर क्या था कुछ समय में ही अभिषेक की जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ गई. वह अब अपने बच्चों का पिता होने के साथ साथ प्यारदुलार करने वाली मां भी था, बैठा कर पढ़ाने वाली टीचर भी था, घर का कमाऊ सदस्य भी था और पूरा घर संभालने वाली हाउसवाइफ की भूमिका भी निभा रहा था.

हाल ही में की गई एक स्टडी के मुताबिक़ सिंगल पिता की मदद हर कोई करना चाहता है. यहां तक कि दफ्तर में ऐसे पुरुषों को दूसरों के मुकाबले 21% ज्यादा बोनस मिलता है. अकेले पिताओं के साथ शानदार व्यवहार को फादरहुड बोनस कहा गया. ऐसा भी माना जाता है कि सिंगल पिताओं के पास नौकरी के मौके ज्यादा आते हैं. मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि अकेले घरपरिवार और बच्चों के साथ ऑफिस की जिम्मेदारियां उठाना एक पुरुष के लिए बिलकुल भी सहज नहीं.

यह सच है कि आज के समय में पुरुष महिलाओं वाले काम करने में पहले की तरह हिचकिचाते नहीं. जरुरत पड़ने पर बच्चों की नैप्पी बदलने से ले कर उन के लिए टिफ़िन तैयार करने का काम भी बखूबी कर लेते हैं. ऐसा वे पत्नी की
तबियत खराब होने या किसी तरह की परेशानी आने पर उस की मदद के लिए करते हैं. पत्नी के निर्देशों के साथ कभीकभार बच्चे को संभाल लेना आसान है. मगर जब बात आती है एक सिंगल फादर के रूप में बच्चों की पूरी परवरिश करने की तो यह डगर आसान नहीं होती.

दरअसल माताओं को हमेशा से ही बच्चों के ज्यादा करीब समझा जाता है. पत्नी की मौत या तलाक लिए जाने के बाद पुरुष को मॉम्स वाले सारे काम करने होते हैं. बहुत सारे ऐसे काम जो महिलाएं सालों से करती आ रही हैं उन्हें जब
पुरुष करते हैं तो दिक्कत आती ही है. ऊपर से पुरुषों वाले काम करने होते हैं वह अलग. ऐसे में वे इस जिम्मेदारी को कठिनाई से संभालते हैं. बच्चों को मां और पिता दोनों का प्यार देने का प्रयास करते हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी इच्छा से शादी नहीं करते और सिंगल फादर बनते हैं. वैसे देखा जाए तो शादी न करने वालों के देखे पत्नी के मर जाने या कहीं चले जाने के बाद बच्चों को संभालना पड़े तो यह ज्यादा कठिन होता है क्यों कि बच्चों को मां की आदत लग चुकी होती है.

सिंगल फादर कैसे बनें परफेक्ट पापा

सब से जरुरी है अनुशासन

पुरुषों को कठोर ह्रदय का माना जाता है. किसी भी परिवार में पिता सख्ती के लिए और मां प्यार और ममता लुटाने के लिए जानी जाती है. लेकिन जब घर में पुरुष को ही महिला का भी काम करना पड़े तो पुरुष यानी सिंगल फादर को
अपने स्वभाव में भी बदलाव लाना पड़ता है. वह बच्चों को शांति और प्यार से संभालना चाहता है.

सख्ती दिखाने पर बच्चे कहीं दूर न हो जाएं यह सोच कर अक्सर वह बच्चों को कई मामलों में छूट दे देता है और अनुशासन की बात भूल जाता है. इस का नतीजा कई दफा सही नहीं निकलता और बच्चे हाथ से निकलने लगते हैं. इसलिए जरुरी है बैलेंस बना कर रखना. बच्चों को कुछ नियम सिखाएं और उन का पालन भी करवाएं. नियम थोड़े फ्लैक्सिबल हों मगर बच्चों में यह डर बिठाना भी जरुरी है कि अनुशासन तोड़ने पर उन्हें सजा मिल सकती है. जैसे आप बच्चों को टिफिन खत्म कर के आने का नियम बनाइए लेकिन रोज पौष्टिक खाने के बजाए कभीकभी उन की पसंद का चटपटा या जंकफूड भी बना दें ताकि ऐसा न हो कि घर के खाने से बोर हो कर बच्चा बाहर की चीज़ें खाना शुरू कर दे और आप के डर से टिफिन का खाना डस्टबिन में फेंकना शुरू कर दे.

मल्टीटास्कर बनें

आप को भी महिलाओं की तरह मल्टीटास्कर बनना होगा. घर और ऑफिस के कामों में बैलेंस बना कर रखना होगा. भले ही आप बिलकुल परफैक्टली हर काम न निबटा सकें मगर इतना तो कर ही सकते हैं कि सब सामान्य रूप से चलता जाए. आप चाहें तो अपने बॉस से भी इस सन्दर्भ में बात कर सकते हैं. उन्हें दिक्कत बताइए और बात कर के अपने लिए टाइम फ्लेक्सिबल करा सकते हैं.

घर के काम जो रात में निबटाए जा सकते हैं उन्हें कर के रखिए. कामकाजी महिलाएं भी ऐसा ही करती हैं. आप सुबह के टिफिन की तैयारी रात में ही कर के रखिए. इसी तरह बच्चों की स्कूल ड्रेस रात में ही एक जगह पूरी तरह से
तैयार कर के और प्रेस कर के रखिए. यानी आप को प्रीप्लानिंग पर ध्यान देना होगा.

टाइम मैनेजमेंट

सिंगल फादर को टाइम मैनेजमेंट का ख्याल रखना पड़ता है. आप के पास समय की कमी काफी कमी होगी क्योंकि एक साथ बहुत सी भूमिकाएं अदा करनी है. जरुरी है कि हर काम का समय निश्चित कीजिए. ऐसा न हो कि केवल काम ही करते रह जाएं, बीच बीच में रिलैक्स के लिए ब्रेक भी लीजिए. सुबह जल्दी उठा जाए तो हर काम करीने से निबट जाता है. ध्यान रखें औरतें घर में सब से पहले इसी वजह से उठती हैं ताकि बाद में हड़बड़ी न करनी पड़े.

कम्युनिकेशन गैप न आने दें

ज्यादातर घरों में बच्चे पिता से डरते हैं और कम बातें करते हैं. अपनी छोटी बड़ी हर बात वे मां से ही शेयर करते हैं. मगर सिंगल फादर के केस में पिता को ही मां की भूमिका भी निभानी होती है. ध्यान रखें कि अब आप पहले
की तरह सिर्फ जरूरत की बात करने की स्थिति में बिल्कुल नहीं हैं. आप को बच्चों के साथ लगातार संवाद बना कर रखना होगा. ऐसे में जरूरी है कि आप भी उन की मां की तरह गुड लिसनर बनें. प्यार और धैर्य के साथ उन की बातें
सुनें और फिर जवाब भी उतने ही खूबसूरत और कंविंसिंग अंदाज में दें ताकि बच्चे हर बात आप से शेयर करना शुरू कर दें. आप को पिता की जगह उन का दोस्त बनना होगा. फिर देखिएगा कैसे आप का बच्चों के साथ रिश्ता परफेक्ट
हो जाएगा.

मदद लेने से हिचकिचाएं नहीं

किसी से मदद लेना शर्म की बात नहीं. आप को तो गर्व होना चाहिए कि आप 2 लोगों की भूमिका अदा कर रहे हैं. ऐसे में यदि कहीं कोई समस्या आती है तो फोन कर के किसी रिश्तेदार से, आस पड़ोस वालों या दोस्तों से भी सही
जानकारी ले सकते हैं.

बच्चों को प्यार से समझाएं

एक पुरुष के लिए अकेले छोटे बच्चों को संभालना आसान नहीं होता. मगर यदि वह धैर्य रखें और बच्चों को अपने छोटेछोटे काम खुद करने की ट्रेनिंग दे तो धीरेधीरे सब मैनेज हो सकता है. बच्चों के साथ बहुत सब्र रखने की जरूरत
पड़ती है. उन्हें जोर जबरदस्ती या डांट फटकार कर कुछ नहीं सिखाया जा सकता. इस के विपरीत यदि उन्हें प्यार से, खेलखेल में चीज़ें सिखाई जाएं तो वे जल्दी अडॉप्ट कर लेते हैं.

कभी आपा न खोएं

आप यदि अकेले बच्चों और घर के साथ ऑफिस का काम नहीं संभाल पा रहे तो हेल्प के लिए मेड रख लें. यदि आप बच्चों की शरारतों से परेशान है या इस बात से दुखी हैं कि वे आप की कोई हेल्प नहीं करते तो भी आपा खो कर
चीखनेचिल्लाने के बजाय प्यार से उन्हें परिस्थितियों से वाकिफ कराएं और समझाएं कि आप उन का सहयोग क्यों और किस तरह चाहते हैं.

बच्चों से भी घर के कामों में मदद लें

बच्चों को पढ़ाई के साथ छोटेमोटे काम करते रहने की आदत डालें. आप उन्हें सब्जी काटने, घर की डस्टिंग करने, पौधों में पानी डालने, कपड़े तह कर के रखने, अपने कपड़े प्रैस करने, अपने जूते या स्कूल बैग साफ़ करने, चाय कॉफी
बनाने जैसे काम करने को कह सकते हैं. इन्हें वे चाव से करेंगे. अगर कोई काम उन्हें नहीं आता तो आप उन को सिखा भी सकते हैं.

बच्चों का टाइम टेबल बनाएं

बच्चों में कम उम्र से ही एक अनुशासन के साथ चलने की आदत डालें. उन के लिए टाइम टेबल बनाएं और उसी अनुसार उन की दिनचर्या फिक्स करें. निचित समय पर उन्हें पढ़ाने बैठाएं. उन की कॉपियां चेक करें. जो
असाइनमेंट्स मिले हैं उन पर चर्चा करें. अगर उन्हें कहीं दिक्कत आ रही है तो वह हिस्सा समझाएं ताकि पढ़ाई में उन की रूचि बनी रहे. बीचबीच में उन्हें खेलने या रिलैक्स होने का मौका भी दें. कभीकभी खुद भी बच्चों के साथ खेलें ताकि आप का बांड अच्छा बन सके.

अपना भी रखिए ख्याल

कहीं ऐसा न हो कि बच्चों का ख्याल रखतेरखते आप अपने प्रति लापरवाह हो जाएं और अपनी सेहत बिगाड़ लें. यह बिलकुल भी मत भूलिए कि आप का ख्याल रखा जाना भी उतना ही जरूरी है.

याद रखिए सब कुछ मैनेज करते हुए अपनी शारीरिक और मानसिक सेहत का ख्याल आप को खुद ही रखना होगा. अगर आप ही ठीक नहीं होंगे तो उन का ख्याल कौन रखेगा? अच्छे पिता बने रहने के लिए आप को खुद को फिट भी रखना होगा. अपने पूरे दिन में काम की भागदौड़ के बीच आप को एक्सरसाइज और फिटनेस के लिए भी एक समय निश्चित करना होगा. अपने खाने में पौष्टिकता और फिटनेस के लिए आवश्यक चीजें शामिल करनी होंगी.

बॉलीवुड के सिंगल फादर्स 

बॉलीवुड में भी कुछ ऐसे पिता भी है जो बच्चों को मां के न होते हुए बखूबी पाल रहे है और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी इच्छा से शादी नहीं की और सिंगल फादर बने.

राहुल देव

फिल्म एक्टर राहुल देव की पत्नी रीना ने कैंसर के कारण 2009 में दम तोड़ दिया. इस के बाद राहुल की जिंदगी में अकेलापन घर करने लगा. राहुल ने अपने बेटे के लिए दूसरी शादी नहीं की. राहुल का सिद्धांत नाम का एक बेटा है. राहुल ने सिंगल रहने का फैसला लिया और बच्चे के साथ जीवन जीने लगे. उस वक्त सिद्धांत 10 साल का था और अब 21 साल का हो चुका है.

राहुल बोस

राहुल बोस काफी चर्चित एक्टर रहे हैं और कई बेहतरीन फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं. समाज सेवा करने के लिए भी राहुल को लोगों के बीच जाना जाता है. राहुल बोस ने भी शादी नहीं की है बल्कि 6 बच्चों को गोद लिया है. राहुल
ने अंडमान और निकोबार से 6 बच्चों को गोद लिया और उन्हें अकेले पाल रहे हैं. इस के साथ ही वे प्रोफेशनल लाइफ को भी हैंडल कर रहे हैं.

तुषार कपूर

जानेमाने अभिनेता जितेंद्र के बेटे तुषार कपूर भी बगैर शादी के पिता बने हैं. इन की कहानी भी बेहद दिलचस्प है. तुषार कपूर सरोगेसी के जरिए बेटे के पिता बने है. उन के बेटे का नाम लक्ष्य है जिसे वे बहुत प्यार से अकेले पाल रहे हैं.

करण जौहर

सिंगल फादर की लिस्ट में करण जौहर का नाम भी चर्चित है. करण जौहर बॉलीवुड का काफी जाना माना नाम है. एक सफल फिल्म मेकर होने के साथ ही वह एक बेहतर पिता भी हैं. करण जौहर अपनी ख़ुशी से बिना शादी के दो जुड़वां बच्चों के पिता बने हैं. बेटे का नाम यश है और बेटी का नाम रूही है. अपने दोनों बच्चों के साथ ये जम कर मस्ती करते दिखते हैं. तुषार कपूर की तरह ये भी सरोगेसी के जरिए पिता बने हैं.

कमल हासन

कमल हासन का पत्नी सारिका से पहले ही तलाक हो गया था और श्रुति हासन और अक्षरा हासन अपने पापा के साथ बड़ी हुईं.

संजय दत्त

संजय दत्त की पहली पत्नी ऋचा शर्मा की कैंसर से मृत्यु हो गई थी और वो अपनी बेटी त्रिशाला के सिंगल पैरेंट बने. हालांकि कुछ सालों बाद त्रिशाला की कस्टडी उनकी मौसी को मिल गई लेकिन संजय दत्त अपनी तमाम परेशानियों के बाद भी अपनी जिम्मेदारियों को नहीं भूले.

मेघमल्हार: भाग 1- अभय की शादीशुदा जिंदगी में किसने मचाई खलबली

उस का नाम मेघा न हो कर मल्हार होता तो शायद मेरे जीवन में बादलों की गड़गड़ाहट के बजाय मेघमल्हार की मधुर तरंगें हिलोरें ले रही होतीं. परंतु ऐसा नहीं हुआ था. वह काले घने मेघों की तरह मेरे जीवन में आई थी और कुछ ही पलों में अपनी गड़गड़ाहट से मुझे डराती और मेरे मन के उजालों को निगलती हुई अचानक चली गई.

मेघा मेरे जीवन में तब आई जब मैं अधेड़ावस्था की ओर अग्रसर हो रहा था. मेरी और उस की उम्र में कोई बहुत ज्यादा अंतर नहीं था. मैं 30 के पार था और वह 20-22 के बीच की निहायत खूबसूरत लड़की. वह कुंआरी थी और मैं एक शादीशुदा व्यक्ति. उस से लगभग 10 साल बड़ा, परंतु उस ने मेरी उम्र नहीं, मुझ से प्यार किया था और मुझे इस बात का गर्व था कि एक कमसिन लड़की मेरे प्यार में गिरफ्तार है और वह दिलोजान से मुझ से प्यार करती है और मैं भी उसे उसी शिद्दत से प्यार करता हूं.

मेरे साथ रहते हुए उस ने मुझ से कभी कुछ नहीं मांगा. मैं ही अपनी तरफ से उसे कभी कपड़े, कभी कौस्मैटिक्स या ऐसी ही रोजमर्रा की जरूरत की चीजें खरीद कर दे दिया करता था. हां, रेस्तरां में जा कर पिज्जा, बर्गर खाने का उसे बहुत शौक था. मैं अकसर उसे मैक्डोनल्ड्स या डोमिनोज में ले जाया करता था. उसे मेरे साथ बाहर जानेआने में कोई संकोच नहीं होता था. उस के व्यवहार में एक खिलंदरापन होता था. बाहर भी वह मुझे अपना हमउम्र ही समझती थी और उसी तरह का व्यवहार करती थी. भीड़ के बीच में कभीकभी मुझे लज्जा का अनुभव होता, परंतु उसे कभी नहीं. ग्लानि या लज्जा नाम के शब्द उस के जीवन से गायब थे.

वह असम की रहने वाली थी और अपने मांबाप से दूर मेरे शहर में पढ़ाई के लिए आई थी. होस्टल में न रह कर वह किराए का मकान तलाश कर रही थी और इसी सिलसिले में वह मेरे मकान पर आई थी. अपने घर में मैं अपनी पत्नी और एक छोटे बच्चे के साथ रहता था. उसे किराए पर एक कमरे की आवश्यकता थी. हमारा अपना मकान था, परंतु हम ने कभी किराएदार रखने के बारे में नहीं सोचा था. हमें किराएदार की आवश्यकता भी नहीं थी, परंतु मेघा इतनी प्यारी और मीठीमीठी बातें करने वाली लड़की थी कि कुछ ही पलों में उस ने मेरी पत्नी को मोहित कर लिया और न न करते हुए भी हम ने उसे एक कमरा किराए पर देने के लिए हां कर दी. वह मेरे घर में पेइंगगेस्ट की हैसियत से रहने लगी. एक घर में रहते हुए हमारी बातें होतीं, कभी एकांत में, कभी सब के सामने और पता नहीं वह कौन सा क्षण था, जब उस की भोली सूरत मेरे दिल में समा गई और उस की मीठी बातोें में मुझे रस आने लगा. मैं उस के इर्दगिर्द एक मवाली लड़के की तरह मंडराने लगा. पत्नी को तो आभास नहीं हुआ, परंतु वह मेरे मनोभावों को ताड़ गई कि मैं उसे किस नजर से देख रहा था.

यह सच भी है कि लड़कियां पुरुषों के मनोभाव को बहुत जल्दी पहचान जाती हैं. उस ने एक दिन बेबाकी से पूछा, ‘‘आप मुझे पसंद करते हैं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, तुम एक बहुत प्यारी लड़की हो,’’ मैं ने बिना किसी हिचक के कहा.

‘‘तुम एक पुरुष की दृष्टि से मुझे पसंद करते हो न?’’ उस ने जोर दे कर पूछा.

मैं सकपका गया. उस की आंखों में तेज था. मैं न नहीं कह सका. मेरे मुंह से निकला, ‘‘हां, मैं तुम्हें प्यार करता हूं,’’ मैं सच को कहां तक छिपा सकता था.

‘‘आप का घर बिखर जाएगा,’’ उस ने मुझे सचेत किया. मैं चुप रह गया. वह सच कह रही थी. परंतु प्यार अंधा होता है. मैं उस के प्रति अपने झुकाव को रोक नहीं सका. वह भी अपने को रोकना नहीं चाहती थी. उस के अंदर आग थी और वह उसे बुझाना चाहती थी. वह मुझ से प्यार न करती तो किसी और से कर लेती. लड़कियां जब घर से बाहर कदम रखती हैं तो उन के लिए लड़कों की कोई कमी नहीं होती.

हम दोनों जल्द ही एक अनैतिक संबंध में बंध गए. हमें इस बात की भी कोई परवा नहीं थी कि हम एक ही घर में रह रहे थे, जहां मेरी पत्नी और एक छोटा बच्चा था, परंतु हम सावधानी बरतते थे और अकसर एकांत में मिलने के अवसर ढूंढ़ निकालते थे.

एक दिन वह बोली, ‘‘अभय,’’ अकेले में वह मुझे मेरे नाम से ही बुलाती थी, ‘‘हमारे संबंध ज्यादा दिनों तक किसी की नजरों से छिपे नहीं रह सकते हैं.’’

‘‘तब…?’’ मैं ने इस तरह पूछा जैसे समस्या का उस के पास समाधान था.

‘‘मुझे आप का घर छोड़ना पड़ेगा,’’ उस ने बिना हिचक के कहा.

‘‘तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी?’’ मैं आश्चर्यचकित रह गया.

‘‘नहीं, मैं केवल आप का घर छोड़ूंगी, आप को नहीं… मुझे आप दूसरा घर किराए पर दिलवा दो. हम लोग वहीं मिला करेंगे. हफ्ते में 1 या 2 बार… आपस में सलाह कर के.’’

‘‘मैं शायद इतनी दूरी बरदाश्त न कर सकूं,’’ मेरे दिल के ऊपर जैसे किसी ने एक भारी पत्थर रख दिया था. हवा जैसे थम सी गई थी. सांस रुकने लगी थी. प्यार में ऐसा क्यों होता है कि जब हम मिलते हैं तो हर चीज आसान लगती है और जब बिछड़ते हैं तो हर चीज बेगानी हो जाती है. समय भारी लगने लगता है.

उस का स्वर सधा हुआ था, ‘‘अगर आप चाहते हैं कि हमारे संबंध इसी तरह बरकरार रहें तो इतनी दूरी हमें बरदाश्त करनी ही पड़ेगी. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

वह अपने इरादे पर दृढ़ थी और मैं उस के सामने पिटा हुआ मोहरा…पत्नी को उस ने उलटीसीधी बातों से मना लिया और वह इस प्रकार अपने कालेज के पास एक नए घर में रहने के लिए आ गई. मैं ने अपना परिचय वहां उस के स्थानीय गार्जियन के तौर पर दिया था. इस प्रकार मुझे उस के घर आनेजाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी. किसी को शक भी नहीं होता था.

परंतु अलग घर में रहने के कारण मैं मेघा से रोज नहीं मिल पाता था. औफिस की व्यस्तताएं अलग थीं. फिर घर की जिम्मेदारियां थीं. मैं दोनों से विमुख नहीं होना चाहता था, परंतु मेघा का आकर्षण अलग था. मैं उस के हालचाल जानने के बहाने छुट्टी में उस से मिलने चला जाता था. परंतु हर रविवार जाने से पत्नी को शक भी हो सकता था. कई बार तो वह भी साथ चलने को तैयार हो जाती थी. एकाध बार उसे ले कर भी जाना पड़ा था. तब मैं मन मसोस कर रह जाता था.

Father’s Day 2023: परीक्षाफल- क्या चिन्मय ने पूरा किया पिता का सपना

जैसे किसान अपने हरेभरे लहलहाते खेत को देख कर गद्गद हो उठता है उसी प्रकार रत्ना और मानव अपने इकलौते बेटे चिन्मय को देख कर भावविभोर हो उठते थे.

चिन्मय की स्थिति यह थी कि परीक्षा में उस की उत्तर पुस्तिकाओं में एक भी नंबर काटने के लिए उस के परीक्षकों को एड़ीचोटी का जोर लगाना पड़ता था. यही नहीं, राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर की अन्य प्रतिभाखोज परीक्षाओं में भी उस का स्थान सब से ऊपर होता था.

इस तरह की योग्यताओं के साथ जब छोटी कक्षाओं की सीढि़यां चढ़ते हुए चिन्मय 10वीं कक्षा में पहुंचा तो रत्ना और मानव की अभिलाषाओं को भी पंख लग गए. अब उन्हें चिन्मय के कक्षा में प्रथम आने भर से भला कहां संतोष होने वाला था. वे तो सोतेजागते, उठतेबैठते केवल एक ही स्वप्न देखते थे कि उन का चिन्मय पूरे देश में प्रथम आया है. कैमरों के दूधिया प्रकाश में नहाते चिन्मय को देख कर कई बार रत्ना की नींद टूट जाती थी. मानव ने तो ऐसे अवसर पर बोलने के लिए कुछ पंक्तियां भी लिख रखी थीं. रत्ना और मानव उस अद्भुत क्षण की कल्पना कर आनंद सागर में गोते लगाते रहते.

चिन्मय को अपने मातापिता का व्यवहार ठीक से समझ में नहीं आता था. फिर भी वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार उन्हें प्रसन्न रखने की कोशिश करता रहता. पर तिमाही परीक्षा में जब चिन्मय के हर विषय में 2-3 नंबर कम आए तो मातापिता दोनों चौकन्ने हो उठे.

‘‘यह क्या किया तुम ने? अंगरेजी में केवल 96 आए हैं? गणित में भी 98? हर विषय में 2-3 नंबर कम हैं,’’ मानव चिन्मय के अंक देखते ही चीखे तो रत्ना दौड़ी चली आई.

‘‘क्या हुआ जी?’’

‘‘होना क्या है? हर विषय में तुम्हारा लाड़ला अंक गंवा कर आया है,’’ मानव ने रिपोर्ट कार्ड रत्ना को थमा दिया.

‘‘मम्मी, मेरे हर विषय में सब से अधिक अंक हैं, फिर भी पापा शोर मचा रहे हैं. मेरे अंगरेजी के अध्यापक कह रहे थे कि उन्होंने 10वीं में आज तक किसी को इतने नंबर नहीं दिए.’’

‘‘उन के कहने से क्या होता है? आजकल बच्चों के अंगरेजी में भी शतप्रतिशत नंबर आते हैं. चलो, अंगरेजी छोड़ो, गणित में 2 नंबर कैसे गंवाए?’’

‘‘मुझे नहीं पता कैसे गंवाए ये अंक, मैं तो दिनरात अंक, पढ़ाई सुनसुन कर परेशान हो गया हूं. अपने मित्रों के साथ मैं पार्क में क्रिकेट खेलने जा रहा हूं,’’ अचानक चिन्मय तीखे स्वर में बोला और बैट उठा कर नौदो ग्यारह हो गया.

मानव कुछ देर तक हतप्रभ से बैठे शून्य में ताकते रह गए. चिन्मय ने इस से पहले कभी पलट कर उन्हें जवाब नहीं दिया था. रत्ना भी बैट ले कर बाहर दौड़ कर जाते हुए चिन्मय को देखती रह गई थी.

‘‘मानव, मुझे लगता है कि कहीं हम चिन्मय पर अनुचित दबाव तो नहीं डाल रहे हैं? सच कहूं तो 96 प्रतिशत अंक भी बुरे नहीं हैं. मेरे तो कभी इतने अंक नहीं आए.’’

‘‘वाह, क्या तुलना की है,’’ मानव बोले, ‘‘तुम्हारे इतने अंक नहीं आए तभी तो तुम घर में बैठ कर चूल्हा फूंक रही हो. वैसे भी इन बातों का क्या मतलब है? मेरे भी कभी 80 प्रतिशत से अधिक अंक नहीं आए, पर वह समय अलग था, परिस्थितियां भिन्न थीं. मैं चाहता हूं कि जो मैं नहीं कर सका वह मेरा बेटा कर दिखाए,’’ मानव ने बात स्पष्ट की.

उधर रत्ना मुंह फुलाए बैठी थी. मानव की बातें उस तक पहुंच कर भी नहीं पहुंच रही थीं.

‘‘अब हमें कुछ ऐसा करना है जिस से चिन्मय का स्तर गिरने न पाए,’’ मानव बहुत जोश में आ गए थे.

‘‘हमें नहीं, केवल तुम्हें करना है, मैं क्या जानूं यह सब? मैं तो बस, चूल्हा फूंकने के लायक हूं,’’ रत्ना रूखे स्वर में बोली.

‘‘ओफ, रत्ना, अब बस भी करो. मेरा वह मतलब नहीं था, और चूल्हा फूंकना क्या साधारण काम है? तुम भोजन न पकाओ तो हम सब भूखे मर जाएं.’’

‘‘ठीक है, बताओ क्या करना है?’’ रत्ना अनमने स्वर में बोली थी.

‘‘मैं सोचता हूं कि हर विषय के लिए एकएक अध्यापक नियुक्त कर दूं जो घर आ कर चिन्मय को पढ़ा सकें. अब हम पूरी तरह से स्कूल पर निर्भर नहीं रह सकते.’’

‘‘क्या कह रहे हो? चिन्मय कभी इस के लिए तैयार नहीं होगा.’’

‘‘चिन्मय क्या जाने अपना भला- बुरा? उस के लिए क्या अच्छा है क्या नहीं, यह निर्णय तो हमें ही करना होगा.’’

‘‘पर इस में तो बड़ा खर्च आएगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. हमें रुपएपैसे की नहीं चिन्मय के भविष्य की चिंता करनी है.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें,’’ रत्ना ने हथियार डाल दिए पर चिन्मय ने मानव की योजना सुनी तो घर सिर पर उठा लिया था.

‘‘मुझे किसी विषय में कोई ट्यूशन नहीं चाहिए. मैं 5 अध्यापकों से ट्यूशन पढ़ूंगा तो अपनी पढ़ाई कब करूंगा?’’ उस ने हैरानपरेशान स्वर में पूछा.

‘‘5 नहीं केवल 2. पहला अध्यापक गणित और विज्ञान के लिए होगा और दूसरा अन्य विषयों के लिए,’’ मानव का उत्तर था.

‘‘प्लीज, पापा, मुझे अपने ढंग से परीक्षा की तैयारी करने दीजिए. मेरे मित्रों को जब पता चलेगा कि मुझे 2 अध्यापक घर में पढ़ाने आते हैं तो मेरा उपहास करेंगे. मैं क्या बुद्धू हूं?’’ यह कह कर चिन्मय रो पड़ा था.

पर मानव को न मानना था, न वह माने. थोड़े विरोध के बाद चिन्मय ने इसे अपनी नियति मान कर स्वीकार लिया. स्कूल और ट्यूशन से निबटता चिन्मय अकसर मेज पर ही सिर रख सो जाता.

मानव और रत्ना ने उस के खानेपीने पर भी रोक लगा रखी थी. चिन्मय की पसंद की आइसक्रीम और मिठाइयां तो घर में आनी ही बंद थीं.

समय पंख लगा कर उड़ता रहा और परीक्षा कब सिर पर आ खड़ी हुई, पता ही नहीं चला.

परीक्षा के दिन चिन्मय परीक्षा केंद्र पहुंचा. मित्रों को देखते ही उस के चेहरे पर अनोखी चमक आ गई, पर रत्ना और मानव का बुरा हाल था मानो परीक्षा चिन्मय को नहीं उन्हें ही देनी हो.

परीक्षा समाप्त हुई तो चिन्मय ही नहीं रत्ना और मानव ने भी चैन की सांस ली. अब तो केवल परीक्षाफल की प्रतीक्षा थी.

मानव, रत्ना और चिन्मय हर साल घूमने और छुट्टियां मनाने का कार्यक्रम बनाते थे पर इस वर्ष तो अलग ही बात थी. वे नहीं चाहते थे कि परीक्षाफल आने पर वाहवाही से वंचित रह जाएं.

धु्रव पब्लिक स्कूल की परंपरा के अनुसार परीक्षाफल मिलने का समाचार मिलते ही रत्ना और मानव चिन्मय को साथ ले कर विद्यालय जा पहुंचे थे. उन की उत्सुकता अब अपने चरम पर थी. दिल की धड़कन बढ़ी हुई थी. विद्यालय के मैदान में मेला सा लगा था. कहीं किसी दिशा में फुसफुसाहट होती तो लगता परीक्षाफल आ गया है. कुछ ही देर में प्रधानाचार्या ने इशारे से रत्ना को अंदर आने को कहा तो रत्ना हर्ष से फूली न समाई. इतने अभिभावकों के बीच से केवल उसे ही बुलाने का क्या अर्थ हो सकता है, सिवा इस के कि चिन्मय सदा की तरह प्रथम आया है. वह तो केवल यह जानना चाहती थी कि वह देश में पहले स्थान पर है या नहीं.

उफ, ये मानव भी ऐन वक्त पर चिन्मय को ले कर न जाने कहां चले गए. यही तो समय है जिस की उन्हें प्रतीक्षा थी. रत्ना ने दूर तक दृष्टि दौड़ाई पर मानव और चिन्मय कहीं नजर नहीं आए. रत्ना अकेली ही प्रधानाचार्या के कक्ष में चली गई.

‘‘देखिए रत्नाजी, परीक्षाफल आ गया है. हमारी लिपिक आशा ने इंटरनेट पर देख लिया है, पर बाहर नोटिसबोर्ड पर लगाने में अभी थोड़ा समय लगेगा,’’ प्रधानाचार्या ने बताया.

‘‘आप नोटिसबोर्ड पर कभी भी लगाइए, मुझे तो बस, मेरे चिन्मय के बारे में बता दीजिए.’’

‘‘इसीलिए तो आप को बुलाया है. चिन्मय के परीक्षाफल से मुझे बड़ी निराशा हुई है.’’

‘‘क्या कह रही हैं आप?’’

‘‘मैं ठीक कह रही हूं, रत्नाजी. कहां तो हम चिन्मय के देश भर में प्रथम आने की उम्मीद लगाए बैठे थे और कहां वह विद्यालय में भी प्रथम नहीं आया. वह स्कूल में चौथे स्थान पर है.’’

‘‘मैं नहीं मानती, ऐसा नहीं हो सकता,’’ रत्ना रोंआसी हो कर बोली थी.

‘‘कुछ बुरा नहीं किया है चिन्मय ने, 94 प्रतिशत अंक हैं. किंतु…’’

‘‘अब किंतुपरंतु में क्या रखा है?’’ रत्ना उदास स्वर में बोली और पलट कर देखा तो मानव पीछे खड़े सब सुन रहे थे.

‘‘चिन्मय कहां है?’’ तभी रत्ना चीखी थी.

‘‘कहां है का क्या मतलब है? वह तो मुझ से यह कह कर घर की चाबी ले गया था कि मम्मी ने मंगाई है,’’ मानव बोले.

‘‘क्या? उस ने मांगी और आप ने दे दी?’’ पूछते हुए रत्ना बिलखने लगी थी.

‘‘इस में इतना घबराने और रोने जैसा क्या है, रत्ना? चलो, घर चलते हैं. चाबी ले कर चिन्मय घर ही तो गया होगा,’’ मानव रत्ना के साथ अपने घर की ओर लपके थे. वहां से जाते समय रत्ना ने किसी को यह कहते सुना कि पंकज इस बार विद्यालय में प्रथम आया है और उसी ने चिन्मय को परीक्षाफल के बारे में बताया था, जिसे सुनते ही वह तीर की तरह बाहर निकल गया था.

विद्यालय से घर तक पहुंचने में रत्ना को 5 मिनट लगे थे पर लिफ्ट में अपने फ्लैट की ओर जाते हुए रत्ना को लगा मानो कई युग बीत गए हों.

दरवाजे की घंटी का स्विच दबा कर रत्ना खड़ी रही, पर अंदर से कोई उत्तर नहीं आया.

‘‘पता नहीं क्या बात है…इतनी देर तक घंटी बजने के बाद भी अंदर से कोई आवाज नहीं आ रही है मानव, कहीं चिन्मय ने कुछ कर न लिया हो,’’ रत्ना बदहवास हो उठी थी.

‘‘धीरज रखो, रत्ना,’’ मानव ने रत्ना को धैर्य धारण करने को कहा पर घबराहट में उस के हाथपैर फूल गए थे. तब तक वहां आसपास के फ्लैटों में रहने वालों की भीड़ जमा हो गई थी.

कोई दूसरी राह न देख कर किसी पड़ोसी ने पुलिस को फोन कर दिया. पुलिस अपने साथ फायर ब्रिगेड भी ले आई थी.

बालकनी में सीढ़ी लगा कर खिड़की के रास्ते फायरमैन ने चिन्मय के कमरे में प्रवेश किया तो वह गहरी नींद में सो रहा था. फायरमैन ने अंदर से मुख्यद्वार खोला तो हैरानपरेशान रत्ना ने झिंझोड़कर चिन्मय को जगाया.

‘‘क्या हुआ, बेटा? तू ठीक तो है?’’ रत्ना ने प्रेम से उस के सिर पर हाथ फेरा था.

‘‘मैं ठीक हूं, मम्मी, पर यह सब क्या है?’’ उस ने बालकनी से झांकती सीढ़ी और वहां जमा भीड़ की ओर इशारा किया.

‘‘हमें परेशान कर के तुम खुद चैन की नींद सो रहे थे और अब पूछ रहे हो यह सब क्या है?’’ मानव कुछ नाराज स्वर में बोले थे.

‘‘सौरी पापा, मैं आप की अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते बेटे, हमें तुम पर गर्व है,’’ रत्ना ने उसे गले से लगा लिया था. मानव की आंखों में भी आंसू झिलमिला रहे थे. कैसा जनून था वह, जिस की चपेट में वे चिन्मय को शायद खो ही बैठते. मानव को लग रहा था कि जीवन कुछ अंकों से नहीं मापा जा सकता, इस का विस्तार तो असीम, अनंत है. उन्मुक्त गगन की सीमा क्या केवल एक परीक्षा की मोहताज है?

Father’s day Special: बाप बड़ा न भैया

उस दिन डाक में एक सुनहरे, रुपहले,  खूबसूरत कार्ड को देख कर उत्सुकता हुई. झट खोला, सरसरी निगाहों से देखा. यज्ञोपवीत का कार्ड था. भेजने वाले का नाम पढ़ते ही एक झनझनाहट सी हुई पूरे शरीर में.

ऐसी बात नहीं थी कि पुनदेव का नाम पढ़ कर मुझे कोई दुख हुआ, बल्कि सच तो यह था कि मुझे उस व्यवस्था पर, उस सामाजिक परिवेश पर रोना आया.

पुनदेव का तकिया कलाम था ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा’ तब मुझे उस की यह स्वरचित पंक्तियां बेवकूफी भरी लगती थीं पर अब उस कार्ड को देख कर लग रहा था, शायद वही सही सोचता था और हमारी इस व्यवस्था को बेहतर जानता था.

कार्ड को फिर पढ़ा. लिखा था, ‘‘डाक्टर पुनदेव (एम.ए. पीएच.डी.) प्राचार्य, रामयश महाविद्यालय, हीरापुर, आप को सपरिवार निमंत्रित करते हैं, अपने तृतीय पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर…’’

मेरी आंखें कार्ड पर थीं, पर मन बरसों पीछे दौड़ रहा था.

पुनदेव 5वीं बार 10वीं कक्षा में फेल हो गया था. उस के परिवार में अब तक किसी ने 7वीं पास नहीं की थी, पुनदेव क्या खा कर 10वीं करता. सारे गांव में जंगल की आग की तरह यही चर्चा फैली हुई थी. जिस केजो जी में आता, कहता और आगे बढ़ जाता.

एक वाचाल किस्मके अधेड़ व्यक्ति ने व्यंग्य कसते हुए कहा, ‘लक्ष्मी उल्लू की सवारी करेगी. पुनदेव के खानदान में सभी लोग उल्लू हैं.’

पर रामयश (पुनदेव के पिता) उन लोगों में से थे जो यह मान कर चलते थे कि इस दुनिया में लक्ष्मी की कृपा से सब काला सफेद हो सकता है. वह काले को सफेद करने की उधेड़बुन में लगे थे.

तब तक उन के दरबारी आ गए और लगे राग दरबारी अलापने. कोई स्कूल के शिक्षकों को लानत भेजता तो कोई गांव के उन परिवारों को गालियां देने लगता, जो पढ़ेलिखे थे और बकौल दरबारियों के पुनदेव के फेल हो जाने से बेहद प्रसन्न थे. रामयश चतुर सेनापति थे. वह अपने उन चमचों को बखूबी पहचानते थे, पर उस समय उन की बातों का उत्तर देना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा.

थोड़ी देर हाजिरी लगा कर वे पालतू मानव अपनीअपनी मांदों में चले गए तो रामयश ने अपने एक खास आदमी को बुलावा भेजा.

विक्रमजी शहर का रहने वाला था. रामयश को बड़ेबड़े सत्ताधारियों तक पहुंचाने वाली सीढ़ी का काम वही करता था. उसे आया देख कर उन्होंने गहन गंभीर आवाज में कहा, ‘विक्रमजी, आप ने तो सुना ही होगा कि पुनदेव इस बार भी फेल हो गया, स्कूल बदलतेबदलते मेरी फजीहत भी हुई और हाथ लगे ढाक के वही तीन पात. पर मैं हार मानने वाले खिलाडि़यों में से नहीं हूं. धरतीआकाश एक कर दीजिए. कर्मकुकर्म कुछ भी कीजिए, पर मेरे कुल पर काला अक्षर भैंस बराबर का जो ठप्पा लगा है, उसे पुनदेव के जरिए दूर कीजिए. इस बार मैं उसे पास देखना चाहता हूं. मैं इन दो टके के मास्टरों के पास गिड़गिड़ाने नहीं जाऊंगा. पता नहीं, ये लोग अपनेआप को जाने क्या समझते हैं.’

विक्रम ने कुछ दिन बाद लौट कर कहा, ‘रामयशजी, सारा बंदोबस्त हो गया. गंगा के उस पार के हाईस्कूल में प्रधानाध्यापक से बात हो गई है. 10 हजार रुपए ले कर वह पुनदेव को पास कराने की गारंटी ले लेगा. पुनदेव को अपने कमरे में बैठा कर परचे हल करा देगा. बस, समझ लीजिए पुनदेव पास हो गया?’

रामयश गद्गद हो गए और कहा,

‘मुझे भी इतनी देर से अक्ल आई, विक्रमजी. पहले आप से कहा होता तो अब तक मेरा बेटा कालिज में होता.’

सचमुच ही पुनदेव पास हो गया. अब यह अलग बात थी कि वह इतने बड़े अश्वमेध के पश्चात दूसरी श्रेणी में ही पास हुआ था. पर जहां लोग एकएक बूंद को तरस रहे हों वहां लोटा भर पानी मिल गया देख रामयश का परिवार फूला न समा रहा था. उस सफलता की खुशी में गांव वालों को कच्चापक्का भोज मिला. रात्रि में नाचगाने की व्यवस्था थी. नाच देखने वालों के लिए बीड़ी, तंबाकू, गांजा, भांग, ताड़ी और देसी दारू तक की मुफ्त व्यवस्था थी. लग रहा था कि रामयश खुशी के मारे बौरा गए हों.

उन की पत्नी भी खुशी के इजहार में अपने पति महोदय से पीछे नहीं थीं. रिश्तेनाते की औरतों को बुला कर तेलसिंदूर दिया. सामूहिक गायन कराया. पंडित को धोतीकुरता, टोपीगंजी और गमछा दे कर 5 रु पए बिवाई फटे पैरों पर चढ़ा कर मस्तक नवाया. बेचारे पंडितजी सोच रहे थे कि यजमानिन का एक बेटा हर साल पास होता रहता तो कपडे़लत्ते की चिंता छूट जाती. नौकरों में अन्नवस्त्र वितरित किए गए.

शहर के सब से अच्छे कालिज में पुनदेव का दाखिला हुआ. छात्रावास में रहना पुनदेव ने जाने किन कारणों से गैरमुनासिब समझा. शुरू में किराए का एक अच्छा सा मकान उस के लिए लिया गया. कालिज जाने के लिए एक नई चमचमाती मोटरसाइकिल पिता की ओर से उपहारस्वरूप मिली. खाना बनाने के लिए एक बूढ़ा रसोइया तथा सफाई और तेल मालिश के लिए एक अलग नौकर रखा गया. कुल मिला कर नजारा ऐसा लगता था जैसे 20 वर्षीय पुनदेव शहर में डाक्टरी या वकालत की प्रैक्टिस करने आया हो.

10वीं कक्षा 6 बार में पास करने वाले पुनदेव के लिए उस की उम्र कुछ मानों में वरदान साबित हुई. कक्षा में पढ़ने वाले कम उम्र के छात्र स्वत: ही उसे अपना बौस मानने लगे. जी खोल कर खर्च करने के लिए उस के पास पैसों की कमी नहीं थी. लिहाजा, कालिज में उस के चमचों की संख्या भी तेजी से बढ़ी. अपने उन साथियों को वह मोटरसाइकिल पर बैठा कर सिनेमा ले जाता, रेस्तरां में उम्दा किस्म का खाना खिलाता. प्रथम वर्ष के पुनदेव के कालिज पहुंचने पर जैसी गहमागहमी होती, वैसी प्राचार्य के आने पर भी नहीं होती.

तिमाही परीक्षा के कुछ रोज पहले पुनदेव ने मुझे बुलाया और बडे़ प्यार से गले लगाता हुआ बोला, ‘यार, तुम तो अपने ही हो, पर परायों की तरह अलगअलग रहते हो. इतना बड़ा मकान है साथ ही रहा करो न. कुछ मेरी भी मदद हो जाएगी पढ़ाईलिखाई में.’

मैं ने कहा, ‘नहीं भाई, मेरे लिए छात्रावास ही ठीक है. तुम नाहक ही इस झमेले में पड़े हो. कालिज की पढ़ाई हंसीठट्ठा नहीं है, कैसे पार लगाओगे?’

पुनदेव ने हंस कर एक धौल मेरी पीठ पर जमाया और कहा, ‘‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा.’’

मैं ने कहा, ‘नहीं भाई, पैसा सब कुछ नहीं है.’

पुनदेव ने एक अर्थपूर्ण मुसकराहट बिखेरी. कुछ देर और इधरउधर की बातें कर के मैं वापस आ गया.

छात्रावास के संरक्षक प्रो. श्याम ने जब मुझे यह सूचना दी कि दर्शन शास्त्र विभागाध्यक्ष प्रो. मनोहर अपनी खूबसूरत, कोमल, सुशील कन्या की शादी पुनदेव से करने जा रहे हैं तो वाकई मुझे दुख हुआ. केवल दुख ही नहीं, क्रोध, घृणा और लज्जा की मिलीजुली अनुभूतियां हुईं. सारा कालिज जानता था कि पुनदेव ‘गजेटियर मैट्रिक’ है. संधि और समास भी कोई उस से पूछ ले तो क्या मजाल वह एक वाक्य बता दे. उस के पास जितने सूट थे, उतने वाक्यों का वह अंगरेजी में अनुवाद भी नहीं जानता था. वैसे उस से अपनी बेटी की शादी कर के प्रो. मनोहर दर्शनशास्त्र के किस सूत्र की व्याख्या कर रहे थे? क्या गुण देखा था उन्होंने? जी चाहा घृणा से थूक दूं उन के नाम पर, जो अपने को ज्ञानी कहते थे, पर उल्लू से हंसिनी की शादी रचाने जा रहे थे.

‘तुम क्या सोचने लगे?’ जब प्रोफेसर श्याम का यह वाक्य कानों में पड़ा तो मेरी तंद्रा भंग हुई.

मैं ने कहा, ‘कुछ नहीं, सर.’

वह हंस कर बोले, ‘‘मैं सब समझता हूं, तुम क्या सोच रहे हो? मैं ने ही नहीं, बहुत प्रोफेसरों ने मना किया, पर मनोहरजी का कहना है, ‘लड़के के पास सबकुछ है, विद्या के सिवा और विद्या केसिवा मेरे पास कुछ नहीं है. सबकुछ का ‘कुछ’ के साथ संयोग सस्ता, सुंदर और टिकाऊ होगा.’ अब तुम बताओ, हम लोग इस में क्या कर सकते हैं…उन की बेटी उन की मरजी.’’

 

शादी बड़ी धूमधाम से हुई. रामयश हाथ जोड़े, सिर झुकाए प्रो. मनोहर के सामने खड़े थे. विदाई के समय आमतौर पर जैसे कन्या पक्ष विनम्रता और सज्जनता में लिपटा अश्रुपूरित नेत्रों से देखता है, वैसे उस विवाह में वर पक्ष खड़ा था. खड़ा भी क्यों नहीं रहता, जिस घर में किसी ने इस से पूर्व हाईस्कूल नहीं देखा था, यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर उस घर का समधी हो गया था. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता में ‘हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में…’ पढ़ा था. पर विद्या की मूर्खता के साथ शादी पहली बार देख रहा था. प्रो. मनोहर की पत्नी ससुराल से आए बेटी के गहने, कपड़े देखदेख कर मारे हर्ष के पागल सी हो गई थीं.

विवाहोपरांत रामयश ने एक बंगलानुमा मकान खरीद लिया था. पुनदेव अब नए मकान में सपत्नीक रहता था, एकदो और नौकरचाकरों को ले कर. छात्र जीवन का गृहस्थाश्रम के साथ इतना सुंदर समन्वय अन्यत्र कहां देखने को मिलता.

एक रोज प्रो. श्याम की पत्नी को ले कर प्रो. मनोहर की धर्मपत्नी अपने जामाता के घर गईं. बेटी का वैभव देख कर इतनी प्रसन्न हुईं कि बोल पड़ीं, ‘सारी जिंदगी प्रोफेसरी की, पर ऐसा गहनाकपड़ा, इतने नौकरचाकर हम ने सपने में भी नहीं देखे, बड़ा अच्छा रिश्ता खोजा है, नीलम के बाबूजी ने नीलम के लिए.’

छात्रावास में प्रो. श्याम की पत्नी के माध्यम से यह बात सभी लड़कों के लिए एक चुटकुला बन गई थी.

परीक्षा के दिन निकट आते गए. सभी लड़के अपनेअपने कमरों में सिमटते गए, किताबों और प्रश्नोत्तरों की दुनिया में दीनदुनिया से बेखबर, पर पुनदेव की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया. वह  वैसे ही मस्त था, पान की गिलौरियों और  ठंडाई के गिलासों में. हां, प्रोफेसर का जामाता बनने के बाद उस में एक तबदीली हुई थी.

अब वह उपन्यासों का रसिया हो गया था. मोटरसाइकिल की डिकी हो या तकिया, दोचार उपन्यास जरूर रखे होते. इस शौक के बारे में वह कहता, ‘मेरे ससुरजी कहते हैं कि इस से लिखने की क्षमता बढ़ती है, भाषा सुधरती है और परीक्षा में कम से कम, लिखना तो मुझे ही होगा.’

परीक्षा कक्ष में पुनदेव को देख कर लगा कि शायद वह बीमार हो, इसलिए अनुपस्थित है. पर उस के एक खास चमचे ने परचा खत्म होने पर कहा, ‘यार, पहुंच हो तो पुनदेव की तरह. विभागाध्यक्ष का दामाद है, पलंग पर बैठ कर परीक्षा दे रहा है. नए व्याख्याता उस के लिए प्रश्नोत्तर ले कर बैठते हैं. वह उन्हें अपनी कापी पर केवल उतार देता है. बेशक लोगों की नजरों में बीमार है पर असल में मजे लूट रहा है.’

मैं भौचक्का था इस जानकारी से.

परीक्षा खत्म होने पर सभी इधरउधर चले गए, पर पुनदेव अपने ससुर के साथ पर्यटन करता रहा. यह तो बाद में अन्य प्रोफेसरों से पता चला कि उस की कापियां जिन लोगों के पास गई थीं, वह उन सब की चरण रज लेने और बच्चों के लिए मिठाई देने निक ला था.

परीक्षाफल निकला. मुझे अपने प्रथम श्रेणी में आने की खुशी नहीं हुई, जब मैं ने देखा कि प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान पुनदेव का था.

उस समय स्नातक और आनर्स की पढ़ाई साथसाथ ही होती थी. हम ने भी स्नातक आनर्स में दाखिला ले लिया और जिंदगी की गाड़ी पहले की तरह ही अपनी रफ्तार से चलती रही. पुनदेव बी.ए में 2 जुड़वां बेटों का बाप बन कर और भी अकड़ गया था. उस ने दर्शनशास्त्र में दाखिला लिया था. अत: विभागाध्यक्ष के दामाद होने का एक लाभ यह भी मिल रहा था कि बाकी छात्रों को उपस्थिति सशरीर बनवानी पड़ती, जबकि उस का काम कक्षा में आए बिना ही चल जाता.

इसी प्रकार पुनदेव को बी.ए. आनर्स में भी जैसतैसे बड़ेबड़े पापड़ बेल कर बस, प्रथम श्रेणी मिल सकी. इस बार उसे कोई स्थान नहीं मिला था. उस की निर्लज्जता मुझे अब भी याद है, जब उस ने प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पाने वाले हम तीनों विद्यार्थियों से मुबारकबाद देते हुए कहा था, ‘तुम तीनों को मेरा शुक्रगुजार होना चाहिए कि मैं ने परीक्षकों से कहा, ‘सर, मुझे केवल प्रथम श्रेणी चाहिए, कोई विशिष्टता नहीं क्योंकि जो पढ़ाकू दोस्त हैं, उन की छात्रवृत्ति बंद हो गई तो वे मुझ से नाराज हो जाएंगे.’ और तुम लोगों की नाराजगी मुझे कतई गवारा नहीं.’

गुस्सा तो बहुत आया, पर उस से बात कौन बढ़ाता. गुस्सा पी कर हम चुप रह गए.

पुनदेव ने इधर एम.ए. में दाखिला लिया, उधर रामयश को प्रो. मनोहर की कृपा एवं रामयश के पैसों के कारण विधायक का टिकट मिल गया. चुनाव अभियान में पुनदेव और उस केखास किस्म के साथी दिनरात लगे रहते, पोस्टर छपते, परचे लिखे जाते, दूसरी पार्टी वालों के बैनर रातोंरात नोच दिए जाते, दीवारों पर लिखे चुनाव प्रचार पर कालिख पोत दी जाती. सक्रिय विरोधियों को पिटवा दिया जाता. उन की चुनाव सभाओं में पुनदेव के फेल होने वाले दोस्त हंगामा कर देते. काले झंडे लहराने लगते. ईंटरोड़े बरसाने लगते, भीड़ तितरबितर हो जाती.

मेरा खून खौल जाता. जी चाहता अकेले ही मैदान में कूद पडूं और उस की सारी कलई खोल कर रख दूं, पर मेरे मांबाप ऐसे कामों के विरोधी थे. उन्होंने जबरदस्ती मुझे वापस शहर भेज दिया और कहा, ‘तुम क्या कर लोगे अकेले? वह किसी से वोट मांगता नहीं है. साफ कहता है, ‘आप लोग बूथ पर आने का कष्ट न करें, सारे वोट शांतिपूर्वक खुद ब खुद गिर जाएंगे. आप लोगों के वहां जाने से, जाने क्या हुड़दंग हो जाए. फिर आप लोग यह न कहना कि तुम ने हमें सचेत नहीं किया.’ बेटे, इस जंगलराज में राजनीति को दूर से सलाम करो और अपना काम करो.’

एम.ए. तक आतेआते मुझ में परिपक्वता आ गई थी. मैं सोचता, ‘पुनदेव क्या करेगा ऐसी नकली डिगरी हासिल कर के. वह न बोल सकता है, न तर्क कर सकता है. बात की तह तक जाने की उस की सामर्थ्य ही नहीं है. केवल हल्ला कर सकता है, मारपीट कर सकता है.’

मुझे कभीकभी उस पर दया भी आती, ‘बेचारा पुनदेव, चोरी कर के, चापलूसी कर के पास तो हो गया, पर साक्षात्कार में क्या होगा. खेतीबाड़ी या व्यवसाय ही करना था तो इतने वर्ष स्कूलकालिज में व्यर्थ ही गंवा दिए.’ फिर मन में बैठा चोर फुसफुसाता, ‘उस का बाप विधायक है. उस के लिए हजारों रास्ते हैं, तुम अपनी फिक्र करो.’

अंतिम परचा देने के बाद मैं मोती झील पर अपने दोस्तों के साथ टहल रहा था. प्रो. श्याम थोड़ी देर पूर्व मिले थे और मेरी तथा मेरे अन्य 2 मित्रों की तारीफों के पुल बांध कर अभीअभी विदा हुए थे.

जाने किधर से कार लिए हुए पुनदेव आ गया और बड़ी गर्मजोशी से मिला. इधरउधर की बातें होती रहीं. पुनदेव की परेशानी यह थी कि इस बार कुलपति आई.ए.एस. पदाधिकारी आ गए थे और उन्होंने परीक्षा में ‘जंगलराज’ नहीं चलने दिया था. पुनदेव ने उन पर हर तरह का दबाव डलवा कर देख लिया था. भय दिखा कर, लोभ दे कर भी आजमा लिया था, पर वह टस से मस नहीं हुए थे. प्रो. मनोहर क्या करते, जब कुलपति खुद ही 2-3 बार परीक्षा हाल का चक्कर लगा जाते थे.

जब अपनी सारी परेशानी पुनदेव बयान कर चुका तो जाने क्यों मेरे मन को तसल्ली सी हुई.

‘चलो, कहीं तो तुम्हारा ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा’ वाला फार्मूला गलत हुआ.’ मैं ने भड़ास निकालते हुए कहा, ‘आगे क्या इरादा है, क्योंकि जैसा तुम बतला रहे हो, उस हिसाब से तुम पास नहीं हो सकोगे. पास हो भी गए तो प्राध्यापक तो बन नहीं पाओगे.’

पुनदेव ने अपनी आंखों में लाखों वाट के बल्ब की रोशनी भर कर एक हथेली से दूसरी को जकड़ते हुए पुन: वही राग अलापा, ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा.’ तुम देखते रहे हो, मैं एक बार फिर साबित कर दूंगा कि बाप बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपय्या.’

जाने कैसे पुनदेव की खींचखांच कर दूसरी श्रेणी आ गई. मुझे अपनी नौकरी के सिलसिले में इस शहर में आना पड़ा. बरसों बाद एक सहपाठी मोहन मिला तो उस ने बतलाया, ‘मनोहरजी की सलाह पर रामयश ने शहर में एक कालिज खोल दिया है. 20-20 हजार

रुपए दान दे कर पुनदेव किस्म के व्याख्याताओं की नियुक्तियां हुई हैं. उसी में पुनदेव भी लग गया है.’

मैं ने मुंह बना कर कहा, ‘ऐसे कालिज का क्या भविष्य है, मोहन?’

पर अब उस कार्ड को देख कर पता चल रहा था कि पुनदेव के पिता के नाम पर खोला गया वह कालिज विश्व- विद्यालय का अंगीभूत कालिज है और पुनदेव की तरह विद्या का दुश्मन विद्यार्थी उस का प्राचार्य है. पता नहीं, कैसे यह सब संभव हुआ, मैं नहीं जानता. पर उस का रटारटाया वाक्य रहरह कर मेरे कमरे की दीवारों में गूंजने लगा.

मैं दांत पीसता हुआ चीख उठा, ‘नहीं, पुनदेव, नहीं. तुम्हारा दरबे यानी द्रव्य सब कुछ नहीं है, तुम भूल जाते हो कि भौतिक सुखों के अलावा भी मन का एक जगत है, जहां व्यक्ति खुद को, खुद की कसौैटी पर ही खरा या खोटा साबित करता है. तुम्हारा मन तुम्हें धिक्कारता होगा. तुम ज्ञानपिपासु छात्रों से मुंह चुराते होगे. तुम्हें खुद पता होगा कि जिस जिम्मेदारी की कुरसी पर तुम बैठे हो, उस के काबिल तुम न थे, न हो, न होगे. यह सब संयोग था या…याद रखना अवसर या संयोग प्रकृति केशाश्वत नियम नहीं होते, बल्कि अपवाद होते हैं.’

सहसा मेरे कंधे पर स्पर्श सा हुआ और मैं चेतनावस्था में आ गया.

पत्नी ने चाय की प्याली मेरे सामने मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘क्या अपवाद होता है?’’

मैं ने कार्ड उस के हाथों में देते हुए कहा, ‘‘14 वर्ष बाद गांव के किसी व्यक्ति ने साग्रह बुलाया है. तुम भी चलना. हजारों किलोमीटर की यात्रा करनी है, तैयारी शुरू कर दो.’’

‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ की बावरी उर्फ मोनिका भदौरिया ने मेकर्स पर लगाए आरोप हैं

टीवी शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ काफी सुर्खियों में है. दर्शको के बीच ये शो काफी फेमस है. जिन लोगों की वजह से शो को इतना नाम मिला अब वहीं लोग इसकी जड़े खोदने में लगे है. बता दे, पहले शैलेश लोढ़ा और फिर जेनिफर मिस्त्री ने असित मोदी पर आरोप लगाए थे. इतना ही नहीं धीरे-धारे सारे एक्टर्स ने शो के मेकर्स पर आरोप लगाने लगे है. ऐसे ही शो मे बावरी का किरदार निभाने वाली मोनिका भदौरिया ने शो के मेकर्स पर गंभीर आरोप लगाए.

उन्होंने भी ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ शो के प्रोड्यूसर असित मोदी के बारे में काफी कुछ कहा था. उन्होंने अब कहा है कि शो के दौरान उनको मन में आत्महत्या करने के विचार आते थे. इतना ही नहीं, पहले उन्होंने आरोप लगाया था कि मेकर्स ने उनको तीन महीने की पेमेंट नहीं दी है, जो कि करीब 4 से 5 लाख रुपये तक है.

 

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मेकर्स की बातों ने आहत किया- मोनिका भदौरिया

मोनिका भदौरिया ने एक इंटरव्यू में बताया कि ‘मैं कई सारी पारिवारिक समस्याओं से जूझी रही हूं. मैंने अपनी मां और दादी दोनों को खोया है. ये दोनों ही बहुत कम समय के अंतराल पर मुझे छोड़कर गई थीं. दोनों ही मेरा सहारा थीं. उन्होंने मेरी अच्छी परवरिश की है.

मैं उनके जाने के गम से उबर नहीं पा रही थी और मुझे लगा था कि मेरी लाइफ अब खत्म हो गई है. इस दौरान मैं तारक मेहता में काम कर रही थी और वो भी बहुत टाचर्र था. इन सब के कारण मैं मेरे मन में ये ख्याल आने लगा था कि कि मुझे आत्महत्या कर लेनी चाहिए. उन्होंने मेकर्स से कहा कि उसके पिता की मौत हो गई तो हमने पैसे दिए. हमने उसकी बीमार मां के इलाज के लिए पैसे दिए… तो इन शब्दों ने मुझे बहुत आहत किया था.’

मोनिका ने आगे  इंटरव्यू में कहा शो के निर्माताओं पर पैसे के लिए एक्टर्स को धोखा देने और कॉन्ट्रैक्ट में चीजों को स्पष्ट रूप से न बताने का आरोप लगाया है.

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