जीती तो मोहे पिया मिले, हारी तो पिया संग

सियाने टक बिजनैस स्कूल हैनोवर से एमबीए किया तो भारी पैकेज के साथ गूगल ने उसे अपने यहां नौकरी दे कर उस के वीजा को ऐक्सटैंड करवा दिया. अब कुछ दिनों के लिए वह इंडिया जा रही थी. मगर इतना कुछ हासिल करने के बावजूद सिया के चेहरे पर गमों के बादल मंडरा रहे थे. आंसुओं के बोझ से पलकें सूज गई थीं. यह भी इत्तफाक ही था कि ठीक 2 साल पहले ही दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर अपनों से दूर होने का शोकाकुल मन इमिग्रेशन के लिए सिया के बढ़ते कदमों को बारबार पीछे खींच रहा था और आज वही मन उस से कितनी निर्दयता से आंखमिचौली करते हुए उसे आगे ही नहीं बढ़ने दे रहा था.

बोस्टन की गलियों में सैम की बांहों में बंधी वह अनमनी सी दिन भर घूमती रही. उस के मन में उमड़ रहे विरहवियोग के समंदर को शांत करता सैम हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से ले कर स्टैनफोर्ड के चप्पेचप्पे में उसे घुमाता रहा. सिया के दुबलेपतले नाजुक शरीर को अपनी बांहों में भरते हुए सैम भर्राए कंठ से बोला, ‘‘मुझे ऐसे छोड़ कर मत जाओ सिया, मैं तुम्हारे बिना किसी आईने की तरह टूट कर बिखर जाऊंगा… जिसे तुम जानती तक नहीं उसी की होने के लिए लौट रही हो और जिस ने तुम्हें प्राणों से बढ़ कर चाहा उसे छोड़ रही हो.’’

सैम का इतना कहना था कि सिया किसी लता की तरह उस से लिपट गई. दोनों की आंखों से सावनभादो बरस रहे थे. सैम ने बांहों में भरी सिया को ला कर कार की पिछली सीट पर बैठा दिया. उसे आलिंगन में कसते हुए उस के अश्रुपूरित चेहरे पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. सिया भी प्यार की इस बरसात में बिना किसी प्रतिवाद के भीगती रही. कभी न खत्म होने वाली जुदाई की घडि़यों से घबरा कर दोनों ने प्यार की मर्यादा की सरहद को पार कर लिया. दोनों को कहीं कोई पछतावा नहीं था. दोनों पूर्णता के एहसास में डूबउतरा रहे थे.

एकदूसरे को समर्पित हो कर दोनों का शोकाकुल मन ऊंची लहरों के जाने के बाद किसी समंदर की तरह शांत पड़ चुका था. परम संतुष्टि का एहसास संजोए अभीअभी शादी के बंधन में बंधे नए जोड़े की तरह दोनों घूमते रहे. मतवाला मन पंख लगा कर उड़ा जा रहा था. दोनों एकदूसरे में इतने खोए हुए थे कि हर बार उन की गाड़ी चारों ओर से घूम कर हाईवे पर आ कर रुक रही थी. यह बोस्टन शहर की अपनी विशेषता है.

सैम के गले में अपनी बांहों का हार पहनाते हुए सिया ने कहा, ‘‘सैम, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सारी जिंदगी इसी तरह गोलगोल घूमते रहें?’’ जवाब में सैम ने उसे बांहों में भर लिया. बड़ी जद्दोजहद के बाद दोनों ने अपने उतावलेपन पर काबू पाया. फिर सिया को बांहों में ही लिए भरे मन से सैम ने अपनी गाड़ी हवाईअड्डे की ओर मोड़ दी.

3 घंटे का रिपोर्टिंग टाइम बीत गया था. प्लेन के उड़ान भरने में घंटा भर रह गया था. सैम से गले मिल कर सिया सामान की ट्रौली के साथ झटके से आगे बढ़ तो गई मगर फिर उसी वेग से पीछे लौट कर सैम से लिपट गई. अश्रुपूरित नेत्रों से सिया ने सैम को बाय कहते हुए विदा ली. जब तक आंखों से वह ओझल नहीं हुई हाथ हिलाते हुए सैम उसे निहारता रहा. यह प्यार भी बड़ी खूबसूरत और अजीबोगरीब घटना होती है. जिस ने किया वह ठगा ही रह जाता है. कैसे प्यार के हजारों रंग मिल कर धनक बन कर, धड़कते दिलों में चुपके से उतर कर देश, जाति, धर्म, भाषा की सारी सरहदें चुटकियों में फांद जाते हैं.

‘उदास, बुझा हुआ सैम हैनोवर लौट रहा होगा,’ सोच सिया बेचैन हो उठी. 4 घंटे के सफर में उस के खयालों से शायद ही वह बाहर आ सकी. ‘यह भी बड़ा हसीन इत्तफाक है कि किसी दूसरे देश का वासी उस के सपनों का, अरे नहीं उस के जीवन का राजकुमार बन गया,’ सोच वह एक अजीब ठंड के एहसास से सिहर उठी. फिर शाल को ओढ़ते हुए सैम की छवि को कल्पना में साकार कर उठी कि काश, इस यात्रा में वह भी उस के साथ होता.

एक मीठी सी आह भर कर उस ने आंखें बंद कर लीं. सभी तरह से अनजान सैम चुपकेचुपके उस की धड़कन बन गया… 2 साल पहले के अतीत के सारे पन्ने 1-1 कर उस के समक्ष खुलते चले गए. डाइनिंगहौल में टेबल पर सजी केवल नौनवैज डिशेज को डबडबाई नजरों से देखती असहाय सी वैजिटेरियन सिया. सभी कितने आनंद से खाने का लुत्फ उठा रहे थे. सिया अपने कमरे में प्रवेश कर ही रही थी कि अचानक सैम वहां आ पहुंचा और फिर उसे डाइनिंगहौल में आने को विवश कर दिया.

बटर लगे ब्रैडपीस, दही और कुछ ताजे फलों के साथ सिया को प्लेट थमाई तो उस का मुरझाया चेहरा खिल उठा. दोनों के विषय एवं क्लासेज बिल्डिंग्स अलगअलग थीं फिर भी उस दिन के बाद से सैम उस की आवश्यकता बन कर उस की हर समस्या का समाधान बन गया. 1 साल बाद सभी स्टूडैंट्स होस्टल से बाहर कौटेज ले कर रहते हैं. 3 लड़कियों के साथ सिया के रहने की व्यवस्था सैम ने ही की. सिया के पैसे कम से कम खर्च हों, सैम को हर समय इस की चिंता रहती थी. उस भयानक रात को सिया कैसे भूल सकती है जब बर्फ का तूफान आया था. सारा हैनोवर अंटार्टिका बन गया था. बिजली के जाने से सब कुछ ठप हो गया था. आवागमन के सारे रास्ते बंद हो चुके थे.

इतनी ठंड और बर्फ की परवाह न करते हुए सैम सिया के खानेपीने के सामान के साथ उस के कौटेज आ गया था. उस तूफानी रात को सिया ने सैम को रोक लिया था. उस अंधेरी रात को दोनों ने टौर्च की रोशनी में बिताया था. बिजली की हर गरजना के साथ वह सहम कर सैम की हथेलियों को थाम लेती थी. ऐसा देश जहां सैक्स को भी और चीजों की तरह शारीरिक आवश्यकता समझा जाता है, उसी देश के एक फरिश्ते ने उसे आगोश में बांधे सारी रात गुजार दी पर कहीं असंयमित नहीं हुआ… मर्यादा की सीमा नहीं लांघी.

2 हफ्ते पहले सैम सिया को न्यूजर्सी ले गया था. ‘फारमर्स सन औफ गार्डन सिटी’ का कह कर स्वयं का परिचय देने वाले सैम के महल को सिया अपलक देखती रह गई. दरवाजे पर खड़ी चमचमाती 3-3 गाडि़यां, थोड़ी दूरी पर पार्क किया रिक्रीएशन व्हीकल, जो एक तरह से सारी सुविधाओं से सजा मोबाइल घर होता है, ट्रैक्टर, खेती करने के सारे औजार, स्टैबल में बंधे श्वेतश्याम रंग के तगड़े घोड़े, मुरगीखाना आदि को देख कर सिया को अपने देश के दीनहीन, भूखे किसान और उन के नंगधडं़ग बच्चे याद आ गए. कैसे लुटेरों के हाथों में देश चला गया है कि दिनोंदिन गरीबीबेकारी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है. सैम के मम्मीडैडी ने सिया को गले लगा कर प्यार किया. तीनों दिन तक उस की सुखसुविधा का खयाल अच्छी तरह रखने के लिए सैम को आगाह करते रहे. पर रात तक वे नीचे के लिविंग रूम में बैठ कर मूवी देखते रहते और फिर दोनों कितनी शालीनता से गुड नाइट कह अपनेअपने रूम में चले जाते. कोई ताकझांक नहीं.

राबर्ट वुड हौस्पिटल में मैडिसिन की पढ़ाई कर रही सैम की बहन एलिस भी मैमोरियल डे की छुट्टी पर घर आ गई थी. सिया और सैम को देख हंस कर उस ने परफैक्ट पेयर कहा. उस ने सिया को ढेर सारे परफ्यूम, लिपस्टिक और नेलपौलिश दी. सैम की मां ने भी फेयरी जैसे श्वेत परिधान के साथ धवल मोतियों का सैट मुसकराते हुए अंगरेजी में यह कहते हुए सिया को दिया, ‘‘सैम, तुम्हें बहुत चाहता है… हमेशा सुखी व खुश रहो.’’ सिया ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें देखा और फिर अपनी मिट्टी की परंपरा को निभाते हुए उन के पैरों को छू लिया. मैमोरियल डे के दिन सैम उसे न्यूयौर्क सिटी घुमाने ले गया. पूरा दिन दोनों एकदूसरे में बंधे घूमते रहे.

उस दिन हडसन नदी में अनगिनत बड़े जहाज आए थे. उन जहाजों पर कहीं विमान उतर रहे थे तो कहीं उड़ रहे थे जिन्हें देख कर सिया किसी बच्ची की तरह चहक उठी थी. सारे दर्शनीय स्थल देख कर दोनों थक गए थे. टाइम्स स्क्वायर में सड़क के किनारे बनी गैलरी में बैठ कर दोनों ने थिएटर का आनंद उठाया. वहीं पास के रेस्तरां में डिनर ले कर रौक फेलर सैंटर की विपरीत दिशा में बनी लोहे की बैंच पर बैठ गए.

रात को जब सिया को ठंड लगने लगी तो सैम ने उसे अपनी जैकेट के अंदर ले लिया. दोनों यों ही बैठे एकदूसरे के दिलों की धड़कनें सुनते रहे. सैम की उंगलियां जब सिया के बदन पर बिजली का करंट बन कर प्रवाहित होने लगीं तो वह जैकेट से बाहर आ गई. बड़ी मुश्किल से अपने बेताब मन को समझा सकी. ‘‘यू इंडियन बेबी,’’ कहते हुए सैम ने हंस कर उसे पास खींच लिया.

सड़क किनारे पार्किंग में लगी गाड़ी में दोनों ने सारी रात गुजारी थी. बहकते मन पर काबू पाना कितना मुश्किल लगा था.

मैसी मौल से सिया ने अपने मम्मीपापा, दिव्या व दिया के लिए ड्रैसेज लीं. उस के लाख मना करने के बावजूद सैम ने उन लोगों के लिए कितने उपहार खरीद दिए थे. सिया को तो उस ने अपनी पसंद की सारी चीजों से ढक दिया था.

आज जो भी घटित हुआ वह अचानक था, फिर भी कितना तसल्ली दे गया है मन को. जिसे मन से चाहा उस की समर्पिता भी हो गई. क्या हुआ जो अगर उस के म्ममीपापा अपनी सोच और पारिवारिक मर्यादा के लिए सैम को उस के जीवन में नहीं ला सके. वह अपने होंठों को सी लेगी. उफ तक नहीं करेगी. उन की इच्छा का मान रखते हुए वह राज से ब्याह कर लेगी. प्रीत की गली इतनी संकरी होती ही है कि जहां 2 दिल ही मुश्किल से समाते हैं तो तीसरे के समाने की गुंजाइश ही कहां रह जाती है. इस तन पर राज का अधिकार क्यों न हो जाए दुलहनियां तो सैम की ही रहेगी. अपनी समस्त पीड़ा को, मीठी कसक को आंसुओं से नहला आनंद उगा लेगी. जिस ने भी सच्ची प्रेम पगी इस चुनर को ओढ़ा उस के अंतर में ‘एरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोए…’ के बोल प्रतिध्वनि हो उठे.

अतीत को खंगालने में सारा समय सिया ने आंखों में ही बिता दिया. देह की सिहरन उसे आनंद की चरम सीमा पर ले आई थी. बीते पलों की खुमारी उसे खुल कर सांसें भी नहीं लेने दे रही थी. सैम तो नहीं पर उस के परिमल को अपने साथ ले कर आई थी जिसे महसूस कर के उस के प्रेम का मधु पी कर सच में बौरा उठा था सिया का कणकण. जहाज की लैंडिंग की घोषणा हो रही थी.

जैसे ही सिया हवाईअड्डे से बाहर आई दोनों छोटी बहनें दिव्या और दिया दौड़ कर उस से लिपट गईं. मम्मीपापा की छलक आई आंखों को देखते ही वे दौड़ कर दोनों से लिपट गई. ‘‘मां देखो न दीदी कितनी खिल गई है… राज जीजू कितने खुश होंगे दीदी को देख कर… दीदी की उपलब्धियों पर उन्हें कितना गर्व होगा,’’ दिव्या बोली.

‘‘अच्छा तो बड़ी बातें बनाने लगी है तू,’’ कहते हुए सिया बुदबुदाई, ‘‘अरे बावरी सैम जीजू कह.’’

दूसरे दिन ही राज अपने मम्मीपापा के साथ सिया के घर आ गया. उसे देख कर सिया खुश नहीं हुई तो उसे दुख भी नहीं हुआ. सब कुछ उस ने अपनी नियति पर छोड़ दिया था. उस के मम्मीपापा तो उन के समक्ष छिपे जा रहे थे. उन्होंने सिया की टक स्कूल की उपलब्धियों को उन्हें बताया जिन्हें सुन कर वे चुप हो गए. औपचरिकता के लिए भी उन्होंने सिया को बधाई नहीं दी. एकांत पाते ही राज ने सिया के समक्ष अपनी शंका जाहिर करते हुए कहा, ‘‘सुना है अमेरिका में लोग खुलेआम कहीं भी, किसी से भी सैक्स ऐंजौय कर लेते हैं… इतने लंबे समय में तुम ने कभी इस का आनंद लिया या नहीं? अगर नहीं लिया तो तुम परले दर्जे की बेवकूफ हो.

‘‘और कुछ नहीं तो लिप किस तो अवश्य दिया होगा जिसे कोई भी गले लगाते समय अंकित कर के होंठों पर मुहर लगा ही देता है. मुझे नहीं लग रहा है कि तुम इन सब से स्वयं को बचा पाई होगी. क्यों ठीक कहा न? कोई बात नहीं, जब मैं वहां जाऊंगा तो सूद सहित इस की भरपाई कर लूंगा,’’ कहते हुए उस ने सिया की उंगलियों को भींच दिया. दर्द से सिया के मुंह से कराह निकल गई. राज की ओछी मानसिकता पर, उस की गिरी सोच पर घृणा से सिया उस से हाथ छुड़ा कर भागी. कितना फर्क है सैम और राज की छुअन में… एक की जरा सी छुअन सारी ऋतुओं को पल भर में ही पावस और वसंत बना कर रख देती है तो दूसरे के स्पर्श से अनगिनत बिलबिलाते कीड़े उस के शरीर पर रेंग गए… कैसे इस लिजलिजे व्यक्ति के साथ अपना जीवन बिता पाएगी…

इंगेजमैंट से ले कर शादी का सारा इंतजाम सिया के पापा को करना था और ये सब किसी पांचसितारा होटल में होने की बात कह कर उन लोगों ने विदा ली. फेसटाइम कर के सिया ने सारी बातें सैम को बता कर अपने मन को हलका कर लिया था. जैसेजैसे इंगेजमैंट के दिन निकट आ रहे थे, राज के यहां से फरमाइशों की लिस्ट में कोई न कोई नई आइटम जुड़ती जा रही थीं. सिया के पापामम्मी चिंतित से लग रहे थे. उन की खुशियों का दायरा सिमटता जा रहा था.

जब उन्होंने कार की मांग रखी तो सिया के पापा उबल पड़े, ‘‘नहीं करनी हमें सिया की शादी इन लालचियों के यहां. मेरी प्रतिभाशाली बेटी के समक्ष कुछ भी तो नहीं है राज… एक मामूली इंजीनियर जो मेरी बेटी के बल पर अमेरिका जाएगा, फिर इस की मेहरबानियों से एच4 वीजा पर नौकरी करेगा.’’ ‘‘सच पापा,’’ कह कर सिया उन के गले लग गई.

तभी खुसरो की पंक्तियां उस के कानों में रस घोल गईं. ‘‘खुसरो बाजी प्रेम की लागी पी के संग, जीती तो मोहे पिया मिले, हारी तो पिया संग.’’

मारे खुशी के वह पूरी रात सैम से बातें करती प्रेम रस में भीगती रही. सैम से सभी आश्वासन पा कर सिया ने अगले दिन सैम के इतिहास से सभी घर वालों को अवगत करा दिया, जिसे सुन कर सभी सैम के बारे में जानने के लिए उत्सुक हो गए. फिर क्या था, फेसटाइम पर सैम से सभी ने जी खोल कर बातें कीं. सैम के आकर्षक व्यक्तित्व और शालीनता ने सभी को मोह लिया.

बेटी के शानदार चयन पर गौरवान्वित हो पापा और मम्मी की आंखें भर आईं.

दिव्या व दिया भी आगे की पढ़ाई अमेरिका में करेंगी. सैम से आश्वासन पा कर सभी भविष्य के सुनहरे सपनों में खो गए. सिया के लिए तो खुशियों की कायनात ही जमीं पर उतर आई थी. जो इश्क आसान नहीं था उसे सिया के धैर्य और अटल विश्वास ने प्राप्त कर लिया था. मीरा बन कर सैम की जोगिन तो हमेशा रहेगी तभी रुक्मिणी और सत्यभामा के जीवन को जी पाएगी.

3 हफ्ते के भीतर सैम अपने परिवार के साथ इंडिया आ गया. पहले रजिस्टर्ड मैरिज और फिर छेड़छाड़ वाली भारतीय परंपराओं वाली ऊटपटांग रस्मों व रिवाज से खूब धूमधाम से शादी हुई. भारतीय दूल्हा बना सैम सब का दुलारा बना हुआ था. उस की मम्मी, पापा और बहन की खुशियां सिया समेट नहीं पा रही थी. श्वेत परिधान और हीरेमोतियों के जेवरों से चमचमाती सिया और सैम के परिवार आपस में जुड़ गए. कहीं जाति, धर्म, देश का आडंबर नहीं था. एकदूसरे के घर के तौरतरीकों को मानसम्मान देते हुए दोनों परिवार खिल उठे थे.

फिर सैम और सिया ने अपना हनीमून अपने परिवार वालों के साथ भारत के सारे दर्शनीय स्थानों को घूमघूम कर मनाया. पंख लगा कर छुट्टी के दिन गुजर गए. अगले हफ्ते ही सिया और सैम को अपनी ड्यूटी जौइन करनी थी. हजारों खूबसूरत सपनों को पलकों में सजाए खुशी के आंसुओं को दामन में समेटे सिया वहां लौट गई जहां एक नया सूर्योदय उस के जीवन को आलोकित करने के लिए बेचैन था.

तुम प्रेमी क्यों नहीं: प्रेमी और पति में क्या फर्क होता है

शेखर के लिए मन लगा कर चाय बनाई थी, पर बाहर जाने की हड़बड़ी दिखाते हुए एकदम झपट कर उस ने प्याला उठा लिया और एक ही घूंट में पी गया. घर से बाहर जाते वक्त लड़ा भी तो नहीं जाता. वह तो दिनभर बाहर रहेगा और मैं पछताती रहूंगी. ऐसे समय में उसे घूरने के सिवा कुछ कर ही नहीं पाती.

मैं सोचती, ‘कितना अजीब है यह शेखर भी. किसी मशीन की तरह नीरस और बेजान. उस के होंठों पर कहकहे देखने के लिए तो आदमी तरस ही जाए. उस का हर काम बटन दबाने की तरह होता है.’ कई बार तो मारे गुस्से के आंखें भर आतीं. कभीकभी तो सिसक भी पड़ती, पर कहती उस से कुछ भी नहीं.

शादी को अभी 3 साल ही तो गुजरे थे. एक गुड्डी हो गई थी. सुंदर तो मैं पहले ही थी. हां, कुछ दुबली सी थी. मां बनने के बाद वह कसर भी पूरी सी हो गई. आईने में जब भी अपने को देखती हूं तो सोचती हूं कि शेखर अंदर से अवश्य मुरदा है, वरना मुझे देख कर जरा सी भी प्रशंसा न करे, असंभव है. कालिज में तो मेरे लिए नारा ही था, ‘एक अनार सौ बीमार.’

दूसरी ओर पड़ोस में ही किशोर बाबू की लड़की थी नीरू. बस, सामान्य सी कदकाठी की थी. सुंदरता के किसी भी मापदंड पर खरी नहीं उतरती थी. परंतु वह जिस से प्यार करती थी वह उस की एकएक अदा पर ऐसी तारीफों के पुल बांधता कि वह आत्मविभोर हो जाती. दिनरात नीरू के होंठों पर मुसकान थिरकती रहती. कभीकभी उस की बहनें ही उस से जल उठतीं.

नीरू मुझ से कहती, ‘‘क्या करूं, दीदी. वह मुझ से खूब प्यार भरी बातें करता है. हर समय मेरी प्रशंसा करता रहता है. मैं मुसकराऊं कैसे नहीं. कल मैं उस के लिए गाजर का हलवा बना कर ले गई तो उस ने इतनी तारीफ की कि मेरी सारी मेहनत सफल हो गई.’’

वास्तव में नीरू की बात गलत न थी. अब कोई मेहनत कर के आग की आंच में पसीनेपसीने हो कर खाना बनाए और खाने वाला ऐसे खाए जैसे कोई गुनाह कर रहा हो तब बनाने वाले पर क्या गुजरती है, यह कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है.

जाने शेखर ही ऐसा क्यों है. कभीकभी सोचती हूं, उस की अपनी परेशानियां होंगी, जिन में वह उलझा रहता होगा. दफ्तर की ही क्या कम भागदौड़ है. बिक्री अधिकारी है. आज यहां है तो कल वहां है. आज इस समस्या से उलझ रहा है तो कल किसी दूसरी परेशानी में फंसा है. परंतु फिर यह तर्क भी बेकार लगता है. सोचती हूं, ‘एक शेखर ही तो बिक्री अधिकारी नहीं है, हजारों होंगे. क्या सभी अपनी पत्नियों से ऐसा ही व्यवहार करते होंगे?’

वैसे आर्थिक रूप से शेखर बहुत सुरक्षित है. उस का वेतन हमारी गृहस्थी के लिए बहुत अधिक ही है. वह एक भरेपूरे घर का ऐसा मालिक भी नहीं है कि रोज नईनई उलझनों से पाला पड़े. परिवार में पतिपत्नी के अलावा एक गुड्डी ही तो है. सबकुछ तो है शेखर के पास. बस, केवल नहीं हैं तो उस के होंठों में शब्द और एक प्रेमी अथवा पति का उदार मन. इस के साथ नीरू तो दो पल भी न रहे.

मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी शेखर ने मुंह पर मेरे व्यवहार या सुंदरता की तारीफ की हो. मुझ पर कभी मुग्ध हो कर स्वयं को सराहा हो.

अब उस दिन की ही बात लो. नीरू ने गहरे पीले रंग की साड़ी पहन ली थी, जोकि उस के काले रंग पर बिलकुल ही बेमेल लग रही थी. परंतु रवि जाने किस मिट्टी का बना था कि वह नीरू की प्रशंसा में शेर पर शेर सुनाता रहा.

नीरू को तो जैसे खुशी के पंख लग गए थे. वह आते ही मेरी गोद में गिर पड़ी थी. मैं ने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ नीरू, कोई बात हुई?’’

‘‘बात क्या होगी,’’ नीरू ने मेरी बांह में चिकोटी काट कर कहा, ‘‘आज क्या मैं सच में पीली साड़ी में कहर बरपा रही थी. कहो तो.’’

मैं क्या उत्तर देती. पीली साड़ी में वह कुछ खास अच्छी न लग रही थी, पर उसे खुश करने की गरज से कहा, ‘‘हां, सचमुच तुम आज बहुत सुंदर लग रही हो.’’

‘‘बिलकुल ठीक,’’ नीरू चहक उठी, ‘‘रवि भी ऐसा ही कहता था. बस, वह मुझे देखते ही कवि बन जाता है.’’

मुझे याद है, एक बार पायल पहनने का फैशन चल पड़ा था. ऐसे में मुझे भी शौक चढ़ा कि मैं भी पायल पहन लूं. मेरे पैर पायलों में बंध कर निहायत सुंदर हो उठे थे. जिस ने भी उन दिनों मेरे पैर देखे, बहुत तारीफ की. पर चाहे मैं पैर पटक कर चलूं या साड़ी उठा कर चलूं, पायलों का सुंदर जोड़ा चमकचमक कर भी शेखर को अपनी ओर न खींच पाया था. एक दिन तो मैं ने खीझ कर कहा, ‘‘कमाल है, पूरी कालोनी में मेरी पायलों की चर्चा हो रही है, पर तुम्हें ये अभी तक दिखाई ही नहीं दीं.’’?

‘‘ऐं,’’ शेखर ने चौंक कर कहा, ‘‘यह वही पायलों का सेट है न, जो पिछले महीने खरीदा था. बिलकुल चांदी की लग रही हैं.’’

अब कैसे कहती कि चांदी या पायलों को नहीं, शेखर साहब, मेरे पैरों के बारे में कुछ कहिए. असल बात तो पैरों की तारीफ की है, पर कह न पाई थी.

यह भी तो तभी की बात है. नीरू ने भी मेरी पसंद की पायलें खरीदी थीं. उन्हें पहन कर वह रवि के पास गई थी. बस, जरा सी ही तो उन की झंकार होती थी, मगर बड़ी दूर से ही वे रवि के कानों में बजने लगी थीं. रवि ने मुग्ध भाव से उस के पैरों की ओर देखते हुए कहा था, ‘‘तुम्हारे पैर कितने सुंदर हैं, नीरू.’’

कितनी छोटीछोटी बातों की समझ थी रवि में. सुनसुन कर अचरज होता था. अगर नीरू ने उस से शादी कर ली तो दोनों की जिंदगी कितनी प्रेममय हो जाएगी.

मैं नीरू को सलाह देती, ‘‘नीरू, रवि से शादी क्यों नहीं कर लेती?’’

पर नीरू को मेरी यह सलाह नहीं भाती. मुसकरा कर कहती, ‘‘रवि अभी प्रेमी ही बना रहना चाहता है, जब तक कि उस के मन की कविता खत्म न हो जाए.’’

‘‘कविता?’’ मैं चौंक कर रह जाती. रवि का मन कविता से भरा है, तभी उस से इतनी तारीफ हो पाती है. कितना आकुल रहता है वह नीरू के लिए. शेखर के मन में कविता ही नहीं बची है, वह तो पत्थर है, एकदम पत्थर. सामान्य दिनों को अगर मैं नजरअंदाज भी कर दूं तो भी बीमारी आदि होने पर तो उसे मेरा खयाल करना ही चाहिए. इधर बीमार पड़ी, उधर डाक्टर को फोन कर दिया. फिर दवाइयां आईं और मैं दूसरे दिन से ही फिर रसोई के कामों में जुट गई.

मुझे याद है, एक बार मैं फ्लू की चपेट में आ गई थी. शेखर ने बिना देर किए दवा मंगा दी थी, पर मैं जानबूझ कर अपने को बीमार दिखा कर बिस्तर पर ही पड़ी रही थी. शेखर ने तुरंत मायके से मेरी छोटी बहन सुलू को बुला लिया था. मैं चाहती थी कि शेखर नीरू के रवि की तरह ही मेरी तीमारदारी करे, मेरे स्वास्थ्य के बारे में बारबार पूछे, मनाए, हंसाए, मगर ऐसा कुछ न हुआ. बीमारी आई और भाग गई.

इतना ही नहीं, शेखर स्वयं बीमार पड़ता तो इस बात की मुझ से कभी अपेक्षा नहीं करता कि मैं उस की सेवाटहल में लगी रहूं. मैं जानबूझ कर उस के पास बैठ भी जाऊं तो मुझे जबरन उठा कर किसी काम में लगवा देता या अपने दफ्तरी हिसाब के जोड़तोड़ में लग जाता. ऐसी स्थिति में मैं गुस्से से उबल पड़ती. अगर कभी रवि बीमार होता तो उस की डाक्टर सिर्फ नीरू होती.

‘‘मैं रवि को पा कर कभी निराश नहीं होऊंगी, दीदी,’’ नीरू अकसर कहती, ‘‘उसे हमेशा मेरी चिंता सताती रहती है. मैं अगर चाहूं तो भी लापरवाह नहीं हो सकती. पहले ही वह टोक देगा. कभीकभी उस की याददाश्त पर मैं दंग हो जाती हूं. लगता है, जैसे वह डायरी या कैलेंडर हो.’’

याददाश्त के मामले में भी शेखर बिलकुल कोरा है. अगर कहीं जाने का कार्यक्रम बने तो वह अधिकतर भूल ही जाता है. सोचती हूं कि किसी दिन वह कहीं मुझे ही न भूल जाए.

एक दिन मैं ने शादी वाली साड़ी पहनी थी. शेखर ने देखा और एक हलकी सी मिठास से वह घुल भी गया, पर वह बात नहीं आई जो नीरू के रवि में पैदा होती. मुझे इतना गुस्सा आया कि मुंह फुला कर बैठ गई. घंटों उस से कुछ न बोली. शेखर को किसी भी चीज की जरूरत पड़ी तो गुड्डी के हाथों भिजवा दी. शेखर ने रूठ कर कहा, ‘‘अगर गुड्डी न होती तो आप हमें ये चीजें किस तरह से देतीं?’’

‘‘डाक से भेज देती,’’ मैं ने ताव खा कर कहा. शेखर हंसने लगा, ‘‘इतनी सी बात पर इतना गुस्सा. हमें पता होता कि बीवियों की हर बात की प्रशंसा करनी पड़ती है तो शादी से पहले हम कुछ ऐसीवैसी किताबें जरूर पढ़ लेते.’’

मैं ने भन्ना कर शेखर को देखा और बिलकुल रोनेरोने को हो आई, ‘‘प्रेमी होना हर किसी के बस की बात नहीं होती. तुम कभी प्रेमी न बन पाओगे. रवि को तो तुम ने देखा होगा?’’

‘‘कौन रवि?’’ शेखर चौंका, ‘‘कहीं वह नीरू का प्रेमी तो नहीं?’’

‘‘जी हां, वही,’’ मैं ने नमकमिर्च लगाते हुए कहा, ‘‘नीरू की एकएक बात की तारीफ हजार शब्दों में करता है. तुम्हारी तरह हर समय चुप्पी साधे नहीं रहता. बातचीत में भी इतनी कंजूसी अच्छी नहीं होती.’’

‘‘अरे, तो मैं क्या करूं. बिना प्रेम का पाठ पढ़े ही ब्याह के खूंटे से बांध दिए गए. वैसे एक बात है, प्रेमी बनना बड़ा आसान काम है समझीं, मगर पति बनना बहुत मुश्किल है.

‘‘जाने कितनी योग्यताएं चाहिए पति बनने के लिए. पहले तो उत्तम वेतन वाली नौकरी जिस से लड़की का गुजारा भलीभांति हो सके. सिर पर अपनी छत है या नहीं, घर कैसा है, उस के घर के लोग कैसे हैं, घर में कितने लोग हैं. लड़के में कोई बुराई तो नहीं, उस के अच्छे चालचलन के लिए पासपड़ोसियों का प्रमाणपत्र आदि चाहिए और जब पूरी तरह पति बन जाओ तो अपनी सुंदर पत्नी की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न करो. अपनेआप को ही लो. तुम्हें सोना, सजनासंवरना, गपें मारना, फिल्में देखना आदि यही सब तो आता था. नकचढ़ी भी कितनी थीं तुम. हमारे घर की सीमित सुविधाओं में तुम्हारा दम घुटता था.’’

अब शेखर बिलकुल गंभीर हो गया था, ‘‘तुम जानती ही हो कैसे मैं ने धीरेधीरे तुम्हें बिलकुल बदल दिया. व्यर्थ गपें मारना, फिल्में देखना सब तुम ने बंद कर दिया. फिर तुम ने मुझे भी तो बदला है,’’ शेखर ने रुक कर पूछा, ‘‘अब कहो, तुम्हें शेखर की भूमिका पसंद है या रवि की?’’

‘‘रवि की,’’ मैं दृढ़ता से बोली, ‘‘प्रेम ही जिंदगी है, यह तुम क्यों भूल जाते हो?’’

‘‘क्यों, मैं क्या तुम से प्रेम नहीं करता. हर तरह से तुम्हारा खयाल रखता हूं. जो बना कर देती हो, खा लेता हूं. दफ्तर से छुट्टी मिलते ही फालतू गपशप में उलझने के बजाय सीधा घर आता हूं. तुम्हें जरा सी छींक भी आए तो फौरन डाक्टर हाजिर कर देता हूं. क्या यह प्रेम नहीं है?’’

‘‘यह प्रेम है या कद्दू की सब्जी?’’ मैं बिलकुल झल्ला गई, ‘‘तुम्हें प्रेम करना रवि से सीखना पड़ेगा. दिनरात नीरू से जाने क्याक्या बातें करता रहता है. उस की तो बातें ही खत्म नहीं होतीं. नीरू कुछ भी ओढ़ेपहने, खाएपकाए रवि उस की प्रशंसा करते नहीं थकता. नीरू तो उसे पा कर किसी और चीज की तमन्ना ही नहीं रखती.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. तब तुम ने नीरू से कभी यह क्यों नहीं कहा कि वह रवि से शादी कर ले.’’

‘‘कहा तो है…’’

‘‘फिर वह विवाह उस से क्यों नहीं करता?’’

‘‘रवि का कहना है कि जब तक उस के अंदर की कविता शेष न हो जाए तब तक वह विवाह नहीं करना चाहता. विवाह से प्रेम खत्म हो जाता है.’’

‘‘सब बकवास है,’’ शेखर उत्तेजित हो कर बोला, ‘‘आदमी की कविता भी कभी मरती है? जिस व्यक्ति ने सभ्यता को विनाशकारी अणुबम दिया, उस के अंदर की भी कविता खत्म नहीं हुई थी. ऐसा होता तो वह कभी अपने अपराधबोध के कारण आत्महत्या नहीं करता, समझीं. असल में रवि कभी भी नीरू से शादी नहीं करेगा. यह सब उस का एक खेल है, धोखा है.’’

‘‘क्यों?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘असल में बात तो प्रेमी और पति बनने के अंतर की है, यह रवि का चौथा प्रेम है. इस से पहले भी उस ने 3 लड़कियों से प्रेम किया था.

‘‘जब पति बनने का अवसर आया, वह भाग निकला. प्रेमी बनना बड़ा आसान है. कुछ हुस्नइश्क के शेर रट लो. कुछ विशेष आदतें पाल लो…और सब से बड़ी बात अपने सामने बैठी महिला की जी भर कर तारीफ करो. बस, आप सफल प्रेमी बन गए.

‘‘जब भी शादी की बात आएगी, देखना कैसे दुम दबा कर भाग निकलेगा.

‘‘तुम देखती चलो, आगेआगे होता है क्या? अब भी तुम्हें शिकायत है कि मैं रवि जैसा प्रेमी क्यों नहीं हूं? और अगर है तो ठीक है, कल से मैं भी कवितागजल की पुस्तकें ला कर तैयारी करूंगा. कल से मेरी नौकरी बंद. गुड्डी की देखभाल बंद, तुम्हारे शिकवेशिकायतें सुनना बंद, बाजारघर का काम बंद. बस, दिनरात तुम्हारे हुस्न की तारीफ करता रहूंगा.’’

शेखर के भोलेपन पर मेरी हंसी छूट गई. अब मैं कहती भी क्या क्योंकि यथार्थ की जमीन पर आ कर मेरे पैर जो टिक गए थे.

स्नेह मृदुल: एक दूसरे से कैसे प्यार करने लगी स्नेहलता और मृदुला

जेठ की कड़ी दोपहर में यदि बादल छा जाएं और मूसलाधार बारिश होने लगे तो मौसम के साथसाथ मन भी थिरक उठता है. मौसम का मिजाज भी स्नेहा की तात्कालिक स्थिति से मेल खा रहा था. जब से मृदुल का फोन आया था उस का मनमयूर नाच उठा था. उन दोनों के प्रेम को स्नेहा के परिवार की सहमति तो पहले ही मिल गई थी. इंतजार था तो बस मृदुल के परिवार की सहमति का. इसीलिए स्नेहा ने ही मृदुल को एक आखिरी प्रयास के लिए आगरा भेजा था. उस के मानने की उम्मीद तो काफी कम थी, परंतु स्नेहा मन में किसी तरह का मैल ले कर नवजीवन में कदम नहीं रखना चाहती थी. बस थोड़ी देर पहले ही मृदुल ने अपने घरवालों की रजामंदी की खुशखबरी उसे दी थी. कल सुबह ही मृदुल और उस के मातापिता आने वाले थे.

स्नेहा जब मृदुल से पहली बार मिली थी, तो उस के आत्मविश्वास से भरे निर्भीक व्यक्तित्व ने ही उसे सब से ज्यादा प्रभावित किया था. स्नेहा कालेज के तीसरे वर्ष में थी. अपनी खूबसूरती तथा दमदार व्यक्तित्व की वजह से वह कालेज में काफी लोकप्रिय थी. हालांकि पढ़ाई में वह ज्यादा होशियार नहीं थी, परंतु वादविवाद तथा अन्य रचनात्मक कार्यों में उस का कोई सानी नहीं था. अपनी क्लास से निकल कर स्नेहा कैंटीन की तरफ जा ही रही थी कि एक तरफ से आ रहे शोर को सुन कर रुक गई.

इंजीनियरिंग कालेज के नए सत्र के पहले दिन कालेज में काफी भीड़ थी. मनाही के बावजूद पुराने विद्यार्थी नए आए विद्यार्थियों की रैगिंग ले रहे थे. काफी तेज आवाज सुन कर स्नेहा उस तरफ मुड़ गई. ‘‘जूनियर हो कर इतनी हिम्मत कि हमें जवाब देती है. इसी वक्त मोगली डांस कर के दिखा वरना हम मोगली की ड्रैस में भी डांस करवा सकते हैं.’’

‘‘हा… हा… हंसी के सम्मिलित स्वर.’’ ‘‘शायद आप को पता नहीं कि दासप्रथा अब खत्म हो गई है. करवा सकने वाले आप हैं कौन? फिर भी अगर आप लोगों ने जबरदस्ती की तो इसी वक्त प्रिंसिपल के पास जा कर आप की शिकायत करूंगी… रैगिंग बंद है शायद इस की भी जानकारी आप को नहीं है.’’

‘‘बिच… लड़कों की तरह कपड़े पहन कर उन की तरह बाल कटवा कर भूल गई है कि तू एक लड़की है और यह भी कि हम तेरे साथ क्याक्या कर सकते हैं.’’ ‘‘जी नहीं, मैं बिलकुल नहीं भूली कि मैं एक लड़की हूं… और आप को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि ताकत दोनों टांगों के बीच क्या है. इस पर निर्भर नहीं करती. चाहिए तो आजमा कर देख लीजिए.’’

देखती रह गई थी स्नेहा. उस निर्भीक तथा रंगरूप में साधारण होते हुए भी असाधारण लड़की को.

इस से पहले कि वे लड़के उसे कुछ कहते, स्नेहा उन के बीच आ गई और उन लड़कों को आगे कुछ भी कहने अथवा करने से रोक दिया. लड़के द्वितीय वर्ष के थे. स्नेहा के जूनियर, इसलिए उस के मना करने पर वहां से चले गए. ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘मृदुला सिंह पर आप मुझे मृदुल कहें तो सही रहेगा. अब पापा ने बिना पूछे यह नाम रख दिया, तो मैं ने अपनी पसंद से उसे छोटा कर लिया.’’ ‘‘अच्छा…फर्स्ट ईयर.’’

‘‘जी, तभी तो ये लोग मेरी ऐसी की तैसी करने की कोशिश कर रहे थे.’’ पता नहीं क्यों स्नेहा स्वयं को उस के आगे असहज महसूस करने लगी. फिर थोड़ा सा मुसकराई और पलट कर वहां से चली ही थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘आप ने तो अपना नाम बताया ही नहीं…’’

‘‘मैं?’’ ‘‘जी आप… अब इस खूबसूरत चेहरे का कोई तो नाम होगा.’’

‘‘हा… हा…’’ ‘‘मेरा नाम स्नेहलता है… मैं ने अपना नाम स्वयं छोटा नहीं किया… मेरे दोस्त मुझे स्नेहा बुलाते हैं.’’

‘‘मैं आप को क्या बुलाऊं… स्नेह… मैं आप को…’’ ‘‘1 मिनट… मैं तुम्हारी सीनियर हूं… तो तुम मुझे मैम बुलाओगी.’’

‘‘जी, मैडम.’’ ‘‘हा… हा…’’ दोनों एकसाथ हंस पड़ीं.

उम्र तथा क्लास दोनों में भिन्नता होने के बावजूद दोनों करीब आते चले गए. एक अजनबी डोर उन्हें एकदूसरे से बांध रही थीं. मृदुल आगरा के एक रूढि़वादी परिवार से थी. उस के घर में उस के इस तरह के पहनावे को ले कर उसे कई बातें भी सुननी पड़ती थीं. उस के घर वाले तो उस के इतनी दूर आ कर पढ़ाई करने के भी पक्ष में नहीं थे, परंतु इन सभी स्थितियों को उस ने थोड़े प्यार तथा थोड़ी जिद से अपने पक्ष में कर लिया था. हालांकि इस के लिए उसे एक बहुत लंबी लड़ाई भी लड़नी पड़ी थी, परंतु हारना तो उस ने सीखा ही नहीं था.

उस के पिता का डेरी का बिजनैस था. बड़े भाई तथा बहन की शादी हो चुकी थी. उस से छोटी उस की एक बहन थी. मृदुल बचपन से एक मेधावी छात्रा रही थी. छोटी क्लास से ही उसे छात्रवृत्ति मिलने लगी थी. इसलिए पिता को सहमत करने में उसे अपने टीचर्स का साथ भी मिला था. इस के इतर स्नेहा मणिपुर के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार की एकलौती संतान थी. मातापिता की लाडली. उस के पिता इंफाल के मशहूर आभूषण विक्रेता थे. उस के परिवार वाले तथा स्वयं वह भी काफी आधुनिक विचारों वाली थी.

आर्थिक, सामाजिक तथा पारिवारिक भिन्नता भी दोनों को बांट न सकी. दोनों की दोस्ती और गहरी होती चली गई. इतनी सारी भिन्नताओं के बावजूद दोनों में एक बहुत बड़ी समानता थी. पुरुषों की तरफ किसी भी तरह का आकर्षण न होने की. वैसे तो दोनों के कई पुरुष मित्र थे. परंतु सिर्फ मित्र. 1-2 बार स्नेहा ने कुछ मित्रों के करीब जाने की कोशिश भी की थी, परंतु अपनेआप को निर्लिप्त पाया था उस ने. जो आकर्षण एक पुरुष के लिए स्नेहा चाहती थी, वही आकर्षण मृदुल के लिए महसूस करने लगी थी. वह जान गई थी कि वह बाकी लड़कियों जैसी नहीं है. स्नेहा यह भी जान गई थी कि उसे मृदुल से प्रेम हो गया है, परंतु दिल की बात होंठों तक लाने में झिझक रही थी.

नदी की धारा के विपरीत बहने के लिए जिस साहस की आवश्यकता थी, स्नेहा वह बटोर नहीं पा रही. क्या होगा यदि मृदुल ने उसे गलत समझ लिया? वह उस की दोस्ती खोना नहीं चाहती थी. मगर एक दिल मृदुल ने ही उस की सारी समस्या का समाधान कर दिया. क्लास के बाद अकसर दोनों पास के पार्क में चली जाती थीं. उस दिन अचानक ही मृदुल ने उस की तरफ देख कर पूछा, ‘‘तुम मुझ से कुछ कहना चाहती हो स्नेह?’’

‘‘मैं… नहीं… नहीं तो?’’ ‘‘कह दो स्नेह…’’

‘‘मृदुल वह… वह… मुझे लगता है कि मैं…’’ साहस बटोर कर इतना ही कह पाई स्नेहा. ‘‘मैं नहीं स्नेह… हम दोनों एकदूसरे से प्रेम करते हैं.’’

जिस बात को आधुनिक स्नेहा कहने में झिझक रही थी उसी बात को रूढि़वादी सोच में पलीबढ़ी मृदुला ने सहज ही कह दिया. अचंभित रह गई थी स्नेहा.

‘‘मृदुल परंतु… कहीं यह असामान्य तो…’’ ‘‘प्रेम असामान्य अथवा सामान्य नहीं होता. प्रेम तो प्रेम होता है. परंतु क्योंकि हम दोनों ही स्त्री हैं, तो हमारे बीच का प्रेम अनैतिक, अप्राकृतिक तथा असामान्य है. पता है स्नेह प्रकृति कभी भेदभाव नहीं करती. परंतु समाज सदा से करता आया है.

यह समाज इतनी छोटी सी बात क्यों नहीं समझ पाता कि हम भी उन की तरह हंसतेबोलते है, उन की तरह हमारा भी दिल धड़कता है तथा उन की तरह की स्वतंत्र हैं. हां, एक भिन्नता है… उन के मानदंड के हिसाब से हम खरे नहीं उतरते. हमारा हृदय एक पुरुष की जगह स्त्री के लिए धड़कता है.’’ ‘‘वे यह समझ नहीं पाते हैं कि प्रकृति ने ही हमें ऐसा बनाया है.’’

‘‘तुम ने संगम का नाम तो सुना होगा स्नेह?’’ ‘‘हांहां मृदुल… प्रयाग में न?’’

हां, वहां 2 नदियों का मिलन होता है. गंगा तथा यमुना दोनों को ही हमारे देश में स्त्री मानते हैं. उन के साथ एक और नदी सरस्वती भी होती है, जो उन के अभूतपूर्व मिलन की साक्षी होती है. ‘‘आओ अब इसे एक अलग रूप में देखते हैं… 2 नदियां अथवा 2 स्त्रियां… दोनों का संगम… दोनों का एकिकार होना… जब ये पूजनीय हैं, तो 2 स्त्रियों का प्रेम गलत कैसे? कितना विरोधाभाष है’’

‘‘हां मृदुल वह तो है ही. मातापिता के विरोध के बावजूद विवाह करने वाले शिवपार्वती की तो लोग पूजा करते हैं. पर जब स्वयं की बेटी अथवा बेटा अपनी मरजी से विवाह करना चाहे तो उन की हत्या… परिवार की इज्जत के नाम पर.’’ ‘‘हां स्नेह… इस समाज में बलात्कार करने वाले, दंगा करने वाले, खून करने वाले सब सामान्य हैं. इन में से कई तो नेता बन बैठ जाते है, परंतु हम जैसे प्रेम करने वाले अपराधी तथा अमान्य हैं.’’

प्रेम के पथ पर वे आगे बढ़े जरूर परंतु अपने कैरियर पर ध्यान देना कम नहीं किया. वे दोनों ही काफी व्यावहारिक थीं. वे जानती थीं कि किसी भी तरह का निर्णय लेने से पहले उन का आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना आवश्यक था. इसलिए दोनों ने एक पल के लिए भी अपना ध्यान अपनी पढ़ाई से हटने नहीं दिया.

कुछ ही सालों में स्नेहा तथा मृदुल दोनों को ही काफी अच्छी नौकरी मिल गई. मृदुल तो अपना लेखन कार्य भी करने लगी थी. कई पत्रपत्रिकाओं में उस की कहानियां, लेख तथा कविताएं छपती थीं. आजकल वह एक उपन्यास पर काम कर रही थी. 9 खूबसूरत साल बीत गए थे. उन दोनों ने अपना एक फ्लैट भी ले लिया था. मुंबई की जिस कालोनी में वे रहती थीं. वहां के ज्यादातर लोगों को उन के बारे में पता था. मुंबई शहर की यही खूबसूरती है, वह सब को बिना भेदभाव के अपना लेता है. कई लोगों द्वारा उन्हें डिनर पर आमंत्रित भी किया गया था.

स्नेहा और मृदुल के सारे दोस्त उन की प्रेम की मिसाल देते थे. परंतु घरवालों की तरफ से अब शादी के लिए दबाव बढ़ने लगा था. इसलिए उन्होंने अपने रिश्ते को एक नाम देने की सोची. हालांकि मृदुल को यह आवश्यक नहीं लगता था, परंतु स्नेहा विवाह करना चाहती थी. इस के बाद दोनों ने अपने परिवार को वस्तुस्थिति से अवगत कराने की सोची. जैसा कि उम्मीद थी, दोनों परिवारों के लिए यह खबर किसी विस्फोट से कम नहीं थी. दोनों परिवार वाले उन की दोस्ती से अवगत थे, परंतु यह सत्य उन्हें नामंजूर था.

स्नेहा के मातापिता को मनाने के लिए वे दोनों साथ गई थीं. कुछ ही दिनों में उन का प्यार स्नेहा के मातापिता को उन के करीब ले आया. उन्होंने उन के रिश्ते को बड़े प्यार से अपना लिया. चलते समय जब मृदुल ने स्नेहा की मां को बड़े प्यार से मणिपुरी में कहा कि नंग की राशि यमलेरे (आप का चेहरा बहुत सुंदर है) तो वे खिलखिला उठी थीं. मृदुल ने स्नेहा के प्यार में टूटीफूटी मणिपुरी भी सीख ली थी. परंतु मृदुल के परिवार वाले काफी नाराज हो गए थे. उन्होंने मृदुल से सारे रिश्ते तोड़ लिए थे. डेढ़ साल की जद्दोजहद के बाद कुछ महीनों में मृदुल का परिवार उन के रिश्ते को ले कर थोड़ा सकारात्मक लग रहा था. इसलिए एक आखिरी कोशिश करने मृदुल वहां गई थी. अगले हफ्ते वे दोनों शादी करने की सोच रही थीं.

मृदुल के मातापिता ने तो स्नेहा को भी आमंत्रित किया था. स्नेहा जाना भी चाहती थी, परंतु जाने क्या सोच कर मृदुल ने मना कर दिया. फिर मृदुल के समझाने पर स्नेहा मान गई थी. अभी थोड़ी देर पहले मृदुल का फोन आया था और उस ने यह खुशखबरी दी थी. रात बिताना स्नेहा के लिए बहुत कठिन हो रहा था. उसे लग रहा था. जैसे घड़ी जान कर बहुत धीरे चल रही है. अपने स्वर्णिम भविष्य का सपना देखते हुए स्नेहा सो गई.

अगले दिन रविवार था. देर तक सोने वाली स्नेहा सुबह जल्दी उठ गई थी. पूरे घर की सफाई में लगी थी. उस घर की 1-1 चीज स्नेहा और मृदुल की पे्रमस्मृति थी. सुबह से दोपहर हो गई और फिर रात. न तो मृदुल स्वयं आई न ही उस का कोई फोन आया. स्नेहा के बारबार फोन करने पर भी जब मृदुल का फोन नहीं लगा तब स्नेहा ने मृदुल के पापा को फोन किया. उन का फोन भी बंद था.

स्नेहा का दिल किसी अनजानी आशंका से घबराने लगा था. उस के सारे दोस्त आ गए थे. पूरी रात आंखों में निकाल दी थी उन सभी ने. अगले दिन सुबह ही आगरा पुलिस थाने से फोन आया, ‘‘आप की सहेली मृदुला सिंह की मृत्यु छत से गिरने की वजह से हो गई. उन का पूरा परिवार शोककुल है, इसलिए आप को फोन नहीं कर पाए. उन का अंतिम संस्कार आज है. आप आना चाहें तो आ सकती हैं.’’

दर्द से टूट गई स्नेहा. मृत्यु…, मृत्यु…, उस के मृदुल की… नहीं… यह सच नहीं हो सकता ऐसा कैसे हो सकता है… उस ने ही जिद कर के मृदुल को भेजा था. वह तो जाना भी नहीं चाहती थी. स्नेहा को लग रहा था कि सारी गलती उस की है. उस के मम्मीपापा भी इंफाल से आ गए थे. इस दुख की घड़ी में वे अपनी लाडली को कैसे अकेला छोड़ सकते.

2 महीनों तक स्नेहा ने अपनेआप को उस घर में कैद कर लिया था. फिर दोस्तों तथा मम्मीपापा के समझाने पर वह इंफाल जाने को तैयार हो गई. मोबाइल औन कर के अपने औफिस फोन करने की सोच रही थी. उस ने फोन औन किया ही था कि उस की स्क्रीन पर एक वौइस मैसेज आया. स्नेहा यह देख कर चौंक गई, क्योंकि मैसेज मृदुल का था. यह मैसेज उसी दिन का था जिस दिन मृदुल की मृत्यु हुई थी. कांपते हुए हाथों से उस ने मैसेज पर क्लिक किया और मृदुल की आवाज… दर्द में डूबी हुई आवाज…

‘‘स्ने… स्नेह… श… ये… लोग… मुझे मारे देंगे… मैं कोशिश कर रही हूं तुम तक पहुंचने की… पर अगर मैं नहीं आ पाई तो… आगे बढ़ जाना स्नेह… इ ना ननगबु यमना नुंग्सी (मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं).’’ स्नेहा के मातापिता तथा उस के दोस्तों के लिए उसे चुप कराना मुश्किल हो गया था. सब ने सोचा उसे इस माहौल से निकालना जरूरी था. मृदुल के परिवार वाले काफी खतरनाक लोग लग रहे थे. परंतु सब के लाख समझाने पर जब स्नेहा नहीं मानी तो उस की मां वहीं उस के पास रुक गईं. स्नेहा ने मृदुल के हत्यारों को सजा दिलाने की ठान ही थी.

अगले 6 महीने स्नेहा केस के लिए दौड़भाग करती रही. इस लड़ाई में उस के मातापिता तथा दोस्तों का भी सहयोग मिल रहा था. परंतु लड़ाई बहुत कठिन तथा लंबी थी. उस रात स्नेहा को नींद नहीं आ रही थी. कौफी बना कर मृदुल के लिखने वाली टेबल पर बैठ गई. जब भी उसे मृदुल की बहुत याद आती वह वहां बैठ जाती थी. अचानक उस का हाथ मेज की दराज पर चला गया. दराज खुलते ही मृदुल का अधूरा उपन्यास उस के सामने था, जिसे वह बिलकुल भूल गई थी. उफ मृदुल ने तो एक दूसरा काम भी उस के लिए छोड़ा है. यह उपन्यास उसे ही तो पूरा करना होगा.

बड़े प्रेम से स्नेहा ने उपन्यास के शीर्षक को चूमा… स्नेह मृदुल शीर्षक के नीचे कुछ पंक्तियां लिखी थीं: ‘‘स्नेह की डोर में बंधे… स्नेह मृदुल,

मृदुल, कोमल, कंचन है प्रेम जिन का वह स्नेह मृदुल, संगम जिन का मिल पाना भी है कठिन, वह स्नेह मृदुल, जिन का प्रेम है परिमल वह स्नेह मृदुल…, स्नेह मृदुल… स्नेह मृदुल.’’

सबक: आखिर कैसे बदल गई निशा?

सुबह सैर कर के लौटी निशा ने अखबार पढ़ रहे अपने पति रवि को खुशीखुशी बताया, ‘‘पार्क में कुछ दिन पहले मेरी सपना नाम की सहेली बनी है. आजकल उस का अजय नाम के लड़के से जोरशोर के साथ इश्क चल रहा है.’’ ‘‘मुझे यह क्यों बता रही हो?’’ रवि ने अखबार पर से बिना नजरें उठाए पूछा.

‘‘यह सपना शादीशुदा महिला है.’’ ‘‘इस में आवाज ऊंची करने वाली क्या बात है? आजकल ऐसी घटनाएं आम हो गई हैं.’’

‘‘आप को चटपटी खबर सुनाने का कोई फायदा नहीं होता. अभी औफिस में कोई समस्या पैदा हो जाए तो आप के अंदर जान पड़ जाएगी. उसे सुलझाने में रात के 12 बज जाएं पर आप के माथे पर एक शिकन नहीं पड़ेगी. बस मेरे लिए आप के पास न सुबह वक्त है, न रात को,’’ निशा रोंआसी हो उठी. ‘‘तुम से झगड़ने का तो बिलकुल भी वक्त नहीं है मेरे पास,’’ कह रवि ने मुसकराते हुए उठ कर निशा का माथा चूमा और फिर तौलिया ले कर बाथरूम में घुस गया.

निशा ने माथे में बल डाले और फिर सोच में डूबी कुछ पल अपनी जगह खड़ी रही. फिर गहरी सांस खींच कर मुसकराई और रसोई की तरफ चल पड़ी. उस दिन औफिस में रवि को 4 परचियां मिलीं. ये उस के लंच बौक्स, पर्स, ब्रीफकेस और रूमाल में रखी थीं. इन सभी पर निशा ने सुंदर अक्षरों में ‘आईलवयू’ लिखा था.

इन्हें पढ़ कर रवि खुश भी हुआ और हैरान भी क्योंकि निशा की यह हरकत उस की समझ से बाहर थी. उस के मन में तो निशा की छवि एक शांत और खुद में सीमित रहने वाली महिला की थी.

रोज की तरह उस दिन भी रवि को औफिस से लौटने में रात के 11 बज गए. उन चारों परचियों की याद अभी भी उस के दिल को गुदगुदा रही थी. उस ने निशा को अपनी बांहों में भर कर पूछा, ‘‘आज कोई खास दिन है क्या?’’ ‘‘नहीं तो,’’ निशा ने मुसकराते हुए

जवाब दिया. ‘‘फिर वे सब परचियां मेरे सामान में क्यों रखी थीं?’’

‘‘क्या प्यार का इजहार करते रहना गलत है?’’ ‘‘बिलकुल नहीं, पर…’’

‘‘पर क्या?’’ ‘‘तुम ने शादी के 2 सालों में पहले कभी ऐसा नहीं किया, इसलिए मुझे हैरानी हो रही है.’’

‘‘तो फिर लगे हाथ एक नई बात और बताती हूं. आप की शक्ल फिल्म स्टार शाहिद कपूर से मिलती है.’’ ‘‘अरे नहीं. मजाक मत उड़ाओ, यार,’’ रवि एकदम से खुश हो उठा था.

‘‘मैं मजाक बिलकुल नहीं उड़ा रही हूं, जनाब. वैसे मेरा अंदाजा है कि आप बन रहे हो. अब तक न जाने कितनी लड़कियां आप से यह बात कह चुकी होंगी.’’ ‘‘आज तक 1 ने भी नहीं कही है यह बात.’’

‘‘चलो शाहिद कपूर नहीं कहा होगा, पर आप के इस सुंदर चेहरे पर जान छिड़कने वाली लड़कियों की कालेज में तो कभी कमी नहीं रही होगी,’’ निशा ने अपने पति की ठोड़ी बड़े स्टाइल से पकड़ कर उसे छेड़ा. ‘‘मैडम, मेरी दिलचस्पी लड़कियों में नहीं, बल्कि पढ़नेलिखने में थी.’’

‘‘मैं नहीं मानती कि कालेज में आप की कोई खास सहेली नहीं थी. आज तो मैं उस के बारे में सब कुछ जान कर ही रहूंगी,’’ निशा बड़ी अदा से मुसकराई और फिर स्टाइल से चलते हुए चाय बनाने के लिए रसोई में घुस गई. उस दिन से रवि के लिए अपनी पत्नी के बदले व्यवहार को समझना कठिन होता चला

गया था. उस रात निशा ने रवि से उस की गुजरी जिंदगी के बारे में ढेर सारे सवाल पूछे. रवि शुरू में झिझका पर धीरेधीरे काफी खुल गया. उसे पुराने दोस्तों और घटनाओं की चर्चा करते हुए बहुत मजा आ रहा था.

वैसे वह पलंग पर लेटने के कुछ मिनटों बाद ही गहरी नींद में डूब जाता था, लेकिन उस रात सोतेसोते 1 बज गया.

‘‘गुड नाइट स्वीट हार्ट,’’ निशा को खुद से लिपटा कर सोने से पहले रवि की आंखों में उस के लिए प्यार के गहरे भाव साफ नजर आ रहे थे.

अगले दिन निशा सैर कर के लौटी तो उस के हाथ में एक बड़ी सी चौकलेट थी. रवि के सवाल के जवाब में उस ने बताया, ‘‘यह मुझे सपना ने दी है. उस का प्रेमी अजय उस के लिए ऐसी 2 चौकलेट लाया था.’’ ‘‘क्या तुम्हें चौकलेट अभी भी पसंद है?’’

‘‘किसी को चौकलेट दिलवाने का खयाल आना बंद हो जाए, तो क्या दूसरे इंसान की उसे शौक से खाने की इच्छा भी मर जाएगी?’’ निशा ने सवाल पूछने के बाद नाटकीय अंदाज में गहरी सांस खींची और अगले ही पल खिलखिला कर हंस भी पड़ी. रवि ने झेंपे से अंदाज में चौकलेट के कुछ टुकड़े खाए और साथ ही साथ मन में निशा के लिए जल्दीजल्दी चौकलेट लाते रहने का निश्चय भी कर लिया.

‘‘आज शाम को क्या आप समय से लौट सकेंगे?’’ औफिस जा रहे रवि की टाई को ठीक करते हुए निशा ने सवाल किया. ‘‘कोई काम है क्या?’’

‘‘काम तो नहीं है, पर समय से आ गए तो आप का कुछ फायदा जरूर होगा.’’ ‘‘किस तरह का फायदा?’’

‘‘आज शाम को वक्त से लौटिएगा और जान जाइएगा.’’ निशा ने और जानकारी नहीं दी तो मन में उत्सुकता के भाव समेटे रवि को औफिस जाना पड़ा.

मन की इस उत्सुकता ने ही उस शाम रवि को औफिस से जल्दी घर लौटने को मजबूर कर दिया था. उस शाम निशा ने उस का मनपसंद भोजन तैयार किया था. शाही पनीर, भरवां भिंडी, बूंदी का रायता और परांठों के साथसाथ उस ने मेवा डाल कर खीर भी बनाई थी.

‘‘आज किस खुशी में इतनी खातिर कर रही हो?’’ अपने पसंदीदा भोजन को देख कर रवि बहुत खुश हो गया. ‘‘प्यार का इजहार करने का यह क्या बढि़या तरीका नहीं है?’’ निशा ने इतराते हुए पूछा तो रवि ठहाका मार कर हंस पड़ा.

भर पेट खाना खा कर रवि ने डकार ली और फिर निशा से बोला, ‘‘मजा आ गया, जानेमन. इस वक्त मैं बहुत खुश हूं… तुम्हारी किसी भी इच्छा या मांग को जरूर पूरा करने का वचन देता हूं.’’ ‘‘मेरी कोई इच्छा या मांग नहीं है, साहब.’’

‘‘फिर पिछले 2 दिनों से मुझे खुश करने की इतनी ज्यादा कोशिश क्यों की जा रही है?’’ ‘‘सिर्फ इसलिए क्योंकि आप को खुश देख कर मुझे खुशी मिलती है, हिसाबकिताब रख कर काम आप करते होंगे, मैं नहीं.’’ निशा ने नकली नाराजगी दिखाई तो रवि फौरन उसे मनाने के काम में लग गया.

रवि ने मेज साफ करने में निशा का हाथ बंटाया. फिर उसे रसोई में सहयोग दिया. निशा जब तक सहज भाव से मुसकराने नहीं लगी, तब तक वह उसे मनाने का खेल खेलता रहा. उस रात खाना खाने के बाद रवि निशा के साथ कुछ देर छत पर भी घूमा. बड़े लंबे समय के बाद दोनों ने इधरउधर की हलकीफुलकी बातें करते हुए यों साथसाथ समय गुजारा.

अगले दिन रविवार होने के कारण रवि देर तक सोया. सैर से लौट आने के बाद निशा ने चाय बनाने के बाद ही उसे उठाया. दोनों ने साथसाथ चाय पी. रवि ने नोट किया कि निशा लगातार शरारती अंदाज में मुसकराए जा रही है. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या आज भी मुझे कोई सरप्राइज मिलने वाला है?’’

‘‘बहुत सारे मिलने वाले हैं,’’ निशा की मुसकान रहस्यमयी हो उठी. ‘‘पहला बताओ न?’’

‘‘मैं ने अखबार छिपा दिया है.’’ ‘‘ऐसा जुल्म न करो, यार. अखबार पढ़े बिना मुझे चैन नहीं आएगा.’’

‘‘आप की बेचैनी दूर करने का इंतजाम भी मेरे पास है.’’ ‘‘क्या?’’

‘‘आइए,’’ निशा ने उस का हाथ पकड़ा और छत पर ले आई. छत पर दरी बिछी हुई थी. पास में सरसों के तेल से भरी बोतल रखी थी. रवि की समझ में सारा माजरा आया तो उस का चेहरा खुशी से खिल उठा और उस ने खुशी से पूछा, ‘‘क्या तेल मालिश करोगी?’’

‘‘यस सर.’’ ‘‘आई लव तेल मालिश.’’ रवि फटाफट कपड़े उतारने लगा.

‘‘ऐंड आईलवयू,’’ निशा ने प्यार से उस का गाल चूमा और फिर अपने कुरते की बाजुएं चढ़ाने लगी.

रवि के लिए वह रविवार यादगार दिन बन गया.

तेल मालिश करातेकराते वह छत पर ही गहरी नींद सो गया. जब उठा तो आलस ने उसे घेर लिया.

‘‘गरम पानी तैयार है, जहांपनाह और आज यह रानी आप को स्नान कराएगी,’’ निशा की इस घोषणा को सुन कर रवि के तनमन में गुदगुदी की लहर दौड़ गई.

रवि तो उसे नहाते हुए ही जी भर कर प्यार करना चाहता था पर निशा ने खुद को उस की पकड़ में आने से बचाते हुए कहा, ‘‘जल्दबाजी से खेल बिगड़ जाता है, साहब.

अभी तो कई सरप्राइज बाकी हैं. प्यार का जोश रात को दिखाना.’’ ‘‘तुम कितनी रोमांटिक…कितनी प्यारी…कितनी बदलीबदली सी हो गई हो.’’

‘‘थैंक यू सर,’’ उस की कमर पर साबुन लगाते हुए निशा ने जरा सी बगल गुदगुदाई तो वह बच्चे की तरह हंसता हुआ फर्श पर लुढ़क गया. निशा ने बाहर खाना खाने की इच्छा जाहिर की तो रवि उसे ले कर शहर के सब

से लोकप्रिय होटल में आ गया. भर पेट खाना खा कर होटल से बाहर आए तो यौन उत्तेजना का शिकार बने रवि ने घर लौटने की इच्छा जाहिर की. ‘‘सब्र का फल ज्यादा मीठा होता है, सरकार. पहले इस सरप्राइज का मजा तो ले लीजिए,’’ निशा ने अपने पर्स से शाहरुख खान की ताजा फिल्म के ईवनिंग शो के 2 टिकट निकाल कर उसे पकड़ाए तो रवि ने पहले बुरा सा मुंह बनाया पर फिर निशा के माथे में पड़े बलों को देख कर फौरन मुसकराने लगा.

निशा को प्यार करने की रवि की इच्छा रात के 10 बजे पूरी हुई. निशा तो कुछ देर पार्क में टहलना चाहती थी, लेकिन अपनी मनपसंद आइसक्रीम की रिश्वत खा कर वह सीधे घर लौटने को राजी हो गई. रवि का मनपसंद सैंट लगा कर जब वह रवि के पास पहुंची तो उस ने अपनी बांहें प्यार से फैला दीं.

‘‘नो सर. आज सारी बातें मेरी पसंद से हुई हैं, तो इस वक्त प्यार की कमान भी आप मुझे संभालने दीजिए. बस, आप रिलैक्स करो और मजा लो.’’ निशा की इस हिदायत को सुन कर रवि ने खुशीखुशी अपनेआपको उस के हवाले कर दिया.

रवि को खुश करने में निशा ने उस रात कोईर् कसर बाकी नहीं छोड़ी. अपनी पत्नी के इस नए रूप को देख कर हैरान हो रहा रवि मस्ती भरी आवाज में लगातार निशा के रंगरूप और गुणों की तारीफ करता रहा. मस्ती का तूफान थम जाने के बाद रवि ने उसे अपनी छाती से लगा कर पूछा, ‘‘तुम इतनी ज्यादा कैसे बदल गईर् हो, जानेमन? अचानक इतनी सारी शोख, चंचल अदाएं कहां से सीख ली हैं?’’

‘‘तुम्हें मेरा नया रूप पसंद आ रहा है न?’’ निशा ने उस की आंखों में प्यार से झांकते

हुए पूछा. ‘‘बहुत ज्यादा.’’

‘‘थैंक यू.’’ ‘‘लेकिन यह तो बताओ कि ट्रेनिंग कहां से ले रही हो?’’

‘‘कोई देता है क्या ऐसी बातों की ट्रेनिंग?’’ ‘‘विवाहित महिला एक पे्रमी बना ले तो उस के अंदर सैक्स के प्रति उत्साह यकीनन बढ़ जाएगा. कम से कम पुरुषों के मामले में तो ऐसा पक्का होता है. कहीं तुम ने भी तो अपनी उस पार्क वाली सहेली सपना की तरह किसी के साथ टांका फिट नहीं कर लिया है?’’

‘‘छि: आप भी कैसी घटिया बात मुंह से निकाल रहे हो?’’ निशा रवि की छाती से और ज्यादा ताकत से लिपट गई, ‘‘मुझ पर शक करोगे तो मैं पहले जैसा नीरस और उबाऊ ढर्रा फिर से अपना लूंगी.’’ ‘‘ऐसा मत करना, जानेमन. मैं तो तुम्हें जरा सा छेड़ रहा था.’’

‘‘किसी का दिल दुखाने को छेड़ना नहीं कहते हैं.’’ ‘‘अब गुस्सा थूक भी दो, स्वीटहार्ट. आज तुम ने मुझे जो भी सरप्राइज दिए हैं, उन के लिए बंदा ‘थैंकयू’ बोलने के साथसाथ एक सरप्राइज भी तुम्हें देना चाहता है.’’

‘‘क्या है सरप्राइज?’’ निशा ने उत्साहित लहजे में पूछा. ‘‘मैं ने तुम्हारी गर्भनिरोधक गोलियां फेंक

दी है?’’ ‘‘क्यों?’’ निशा चौंक पड़ी.

‘‘क्योंकि अब 3 साल इंतजार करने के बजाय मैं जल्दी पापा बनना चाहता हूं.’’ ‘‘सच.’’ निशा खुशी से उछल पड़ी.

‘‘हां, निशा. वैसे तो मैं भी अब ज्यादा से ज्यादा समय तुम्हारे साथ बिताने की कोशिश किया करूंगा, पर अकेलेपन के कारण तुम्हारे सुंदर चेहरे को मुरझाया सा देखना अब मुझे स्वीकार नहीं. मेरे इस फैसले से तुम खुश हो न?’’ निशा ने उस के होंठों को चूम कर अपना जवाब दे दिया.

रवि तो बहुत जल्दी गहरी नींद में सो गया, लेकिन निशा कुछ देर तक जागती रही. वह इस वक्त सचमुच अपनेआप को बेहद खुश व सुखी महसूस कर रही थी. उस ने मन ही मन अपनी सहेली सपना और उस के प्रेमी को धन्यवाद दिया. इन दोनों के कारण ही उस के विवाहित जीवन में आज रौनक पैदा हो गई थी.

पार्क में जानपहचान होने के कुछ दिनों बाद ही अजय ने सपना को अपने प्रेमजाल में फंसाने के प्रयास शुरू कर दिए थे. सपना तो उसे डांट कर दूर कर देती, लेकिन निशा ने उसे ऐसा करने से रोक दिया.

‘‘सपना, मैं देखना चाहती हूं कि वह तुम्हारा दिल जीतने के लिए क्याक्या तरकीबें अपनाता है. यह बंदा रोमांस करने में माहिर है और मैं तुम्हारे जरीए कुछ दिनों के लिए इस की शागिर्दी करना चाहती हूं.’’

निशा की इस इच्छा को जान कर सपना हैरान नजर आने लगी थी. ‘‘पर उस की शागिर्दी कर के तुम्हें हासिल क्या होगा?’’ आंखों में उलझन के भाव लिए सपना ने पूछा.

‘‘अजय के रोमांस करने के नुसखे सीख कर मैं उन्हें अपने पति पर आजमाऊंगी, यार.

उन्हें औफिस के काम के सिवा आजकल और कुछ नहीं सूझता है. उन के लिए कैरियर ही सबकुछ हो गया है. मेरी खुशी व इच्छाएं ज्यादा माने नहीं रखतीं. उन के अंदर बदलाव लाना मेरे मन की सुखशांति के लिए जरूरी हो गया

है, यार.’’ अपनी सहेली की खुशी की खातिर सपना ने अजय के साथ रोमांस करने का नाटक चालू रखा. सपना को अपने प्रेमजाल में फंसाने को वह जो कुछ भी करने की इच्छा प्रकट करता, निशा उसी तरकीब को रवि पर आजमाती.

पिछले दिनों निशा ने रवि को खुश करने के लिए जो भी काम किए थे, वे सब अजय की ऐसी ही इच्छाओं पर आधारित थे. उस ने कुछ महत्त्वपूर्ण सबक भविष्य के लिए भी सीखे थे. ‘विवाहित जीवन में ताजगी, उत्साह

और नवीनता बनाए रखने के लिए पतिपत्नी दोनों को एकदूसरे का दिल जीतने के प्रयास

2 प्रेमियों की तरह ही करते रहना चाहिए,’ इस सबक को उस ने हमेशा के लिए अपनी गांठ में बांध लिया. ‘अपने इस मजनू को अब हरी झंडी दिखा दो,’ सपना को कल सुबह यह संदेशा देने की बात सोच कर निशा पहले मुसकराई और फिर सो रहे रवि के होंठों को हलके से चूम कर उस ने खुशी से आंखें मूंद लीं.

करवा चौथ 2022: करवाचौथ- पति अनुज ने क्यों दी व्रत न रखने की सलाह?

‘‘कितनी बार समझाया है तुम्हें इन सब झमेलों से दूर रहने को? तुम्हारी समझ में नहीं आता है क्या?’’ अनुज ने गुस्से से कहा.

‘‘गुस्सा क्यों करते हो? तुम्हारी लंबी उम्र के लिए ही तो रखती हूं यह व्रत. इस में मेरा कौन सा स्वार्थ है?’’ निशा बोली.

‘‘मां भी तो रखती थीं न यह व्रत हर साल. फिर पापा की अचानक क्यों मौत हो गई थी? क्यों नहीं व्रत का प्रभाव उन्हें बचा पाया? मैं ने तो उन्हें अपना खून तक दिया था,’’ अनुज ने अपनी बात समझानी चाही.

‘‘तुम्हें तो हर वक्त झगड़ने का बहाना चाहिए. ऐसा इनसान नहीं देखा जो परंपराएं निभाना भी नहीं जानता,’’ निशा बड़बड़ाती रही.

अनुज ने निशा की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे भूखा रहने से ही मेरी उम्र बढ़ेगी, ऐसा ग्रंथों में लिखा है तो क्या सच ही है? ग्रंथों में तो न जाने क्या अनापशनाप लिखा हुआ है. सब मानोगी तो मुंह दिखाने लायक न रहोगी.’’ निशा बुरा सा मुंह बना कर बोली, ‘‘आप तो बस रहने दो. आप को तो बस मौका चाहिए मुझ पर किसी न किसी बात को ले कर उंगली उठाने का… मौका मिला नहीं तो जाएंगे शुरू सुनाने के लिए.’’

‘‘बात मौके की नहीं अंधविश्वास पर टिकी आस्था की है. ब्राह्मणों द्वारा विभिन्न प्रकार की धार्मिक रूढियों के जरीए स्त्री को ब्राह्मणवादी पित्रसत्ता के अधीन बनाए रखने की है.’’

‘‘बसबस आप तो चुप ही करो. क्यों किसी के लिए अपशब्द कहते हो. इस में ब्राह्मणों का क्या कुसुर… बचपन से सभी औरतों को यह व्रत करते हुए देख रही हूं. हमारे घर में मेरी मां भी यह व्रत करती हैं… यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहा है.’’

अनुज अपने गुस्से को काबू करते हुए बोला, ‘‘व्रत, पूजापाठ ये सब ब्राह्मणों ने ही बनाए ताकि ज्यादा से ज्यादा आम लोगों को ईश्वर और भाग्य का भय दिखा कर अपना उल्लू सीधा कर सकें. उन्हें शारीरिक बल से कमजोर कर उन पर पूरी तरह से कंट्रोल कर के मानसिक बेडि़यां पहनाई जा सकें. तुम तो नहीं मानती थीं ये सब… क्या हो गया शादी के बाद तुम्हारी मानसिकता को? इतना पढ़ने के बाद भी इन दकियानूसी बातों पर विश्वास?’’ यह आस्था, अंधविश्वास सिर्फ इसलिए ही तो है ताकि आस्था में कैद महिलाओं को किसी भी अनहोनी का भय दिखा कर ये ब्राह्मण, ये समाज के ठेकेदार हजारों वर्षों तक इन्हीं रीतिरिवाजों के जरीए गुलाम बनाए रख सकें. यही तो कहती थीं न तुम?’’

‘‘मैं ने करवाचौथ का व्रत आप से प्रेम की वजह से रखा है… आप की लंबी आयु के लिए.’’

‘‘तुम मेरे जीवन में मेरे संग हो यही काफी है. तुम्हें अपना प्यार साबित करने की कोई जरूरत नहीं. हम हमेशा हर तकलीफ में साथ हैं. यह एक दिन का उपवास कुछ साबित नहीं करेगा. वैसे भी तुम्हारे लिए भूखा रहना सही नहीं.’’

मुझे आप से कोई बहस नहीं करनी. हम  जिस समाज में रहते हैं उस के सब कायदेकानून मानने होते हैं. आप जल में रह कर मगर से बैर करने के लिए मत कहो… कल को कोई ऐसीवैसी बात हो गई तो मैं अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगी. आप चुपचाप घर जल्दी आ जाओ… मैं एक दिन भूखी रहने से मरने वाली नहीं हूं,’’ निशा रोंआसे स्वर में बोली.

पत्नी की जिद्द और करवाचौथ के दिन को महाभारत में बदल जाने की विकट स्थिति के बीच अनुज ने चुप हो जाना ही बेहतर समझा. तभी मां ने आवाज लगाई, ‘‘क्यों बेकार की बहस कर रहा है निशा से… औफिस जा.’’

‘‘अनुज नाराजगी से चला गया. उसे निशा से ऐसी बेवकूफी की आशा नहीं थी पर उस से भी ज्यादा गुस्सा उसे अपनी मां पर आ रहा था, जो इस बेवकूफी में निशा का साथ दे रही थीं. कम से कम उन्हें तो यह समझना चाहिए था. वे खुद 32 साल की उम्र से वैधव्य का जीवन जी रही हैं. सिर्फ 2 साल का ही तो था जब अचानक बाप का साया सिर से उठ गया.

अनुज को आज महसूस हो रहा था कि स्त्री मुक्ति पर कही, लिखी जाने वाली बातों का तब तक कोई औचित्य नहीं जब तक कि वे खुद इस आस्था और अंधविश्वास के मायाजाल से न निकलें. सही कह रहा था संचित (दोस्त) कि शुरुआत अपने घर से करो. गर एक की भी सोच बदल सको तो समझ लेना बदलाव है.

एक और सच: क्या बदल गया था जीतेंद्र

एक आदमी को सुख से जीने के लिए क्या-क्या चाहिए? आदमी का आदमी पर भरोसा, संबंधों में सहानुभूति, एकदूसरे का लिहाज, ठीक से जीने लायक आमदनी, जीवन की सुरक्षा, चैन की सांस ले सकने की आजादी, भयमुक्त वातावरण.

पर लूटमार, चोरीडकैती, हत्या, अपहरण, दंगाफसाद, बलात्कार और छलप्रपंच भरे इस वातावरण में क्या यह सब आम आदमी को नसीब है? लोग सुख से जिएं, इस की किसी को फिक्र है? नेता, जनप्रतिनिधि, अफसर सब के सब अपनेअपने जुगाड़ में जुटे हुए हैं. लोगों को जीने लायक मामूली सुविधाएं भी नहीं मिल रहीं.

हबड़तबड़ में स्टेशन की तरफ भागती जा रही अमिला यही सब लगातार सोचे जा रही है. गाड़ी न निकल जाए. निकल गई तो गांव के स्कूल तक कैसे पहुंचेगी. अफसर आ रहे हैं. अंबेडकर गांव में खानापूर्ति के लिए रोज अफसरों के दौरे होते रहते हैं. गांव पूरी तरह संतृप्त होना चाहिए. हुं, खाक संतृप्त होगा. कभी राजीव गांधी ने कहा था, सरकार गांवों के लिए 1 रुपया यानी 100 पैसा भेजती है पर वहां तक पहुंचतेपहुंचते वह 10 पैसे ही रह जाते हैं. 90 पैसे बीच की सरकारी मशीन खा जाती है. कैसे विकास हो देश का? पर इस के लिए जिम्मेदार कौन हैं? नेतागण, बिचौलिए, भ्रष्ट नौकरशाही और कहीं न कहीं हमसब.

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अजीब दिमाग होता है आदमी का. हर वक्त सोचविचार, मन में उठापटक, तर्कवितर्क. शहर से दूर इस गांव में तबादला कर दिया गया अमिला का. अफसरों से खूब गिड़गिड़ाई कि सर, बच्चा छोटा है. सास बहुत बूढ़ी हैं. कामकाज नहीं कर पातीं. ससुर को लकवा है. पति दूर के जिले में सरकारी सेवा में हैं. परिवार को देखने वाली मैं अकेली…मुझ पर रहम कीजिए, सर.

लेकिन पैसा ऐंठू, रिश्वतखोरों को कहीं किसी पर रहम आता है? झिड़क दिया अमिला को, ‘हर कोई शहर में रहना चाहता है. उस के लिए एक से एक बहाने. सब को यहीं, शहर में रखेंगे तो गांव में कौन जाएगा पढ़ाने? मैं जाऊं? तबादला न स्वीकार हो तो नौकरी छोड़ दीजिए. हम दूसरी अध्यापिका रख लेंगे. कोई कमी है क्या? सरकारी नौकरी के लिए हर कोई तैयार बैठा रहता है. बी.टी.सी. और बी.एड. वाले रोज धरनाप्रदर्शन कर रहे हैं कि उन्हें नौकरी नहीं दी जा रही, हम उन में से किसी को बुला लेंगे, आप अपना घरपरिवार संभालिए. हमें क्या फर्क पड़ता है?’

सच कह रहे हैं. अफसरों को क्या फर्क पड़ता है? फर्क तो काम करने वाले कर्मचारी को पड़ता है. तकलीफें तो उन्हें झेलनी पड़ती हैं. परेशान तो वे होते हैं. बाहर निकल आई थी दफ्तर से अमिला.

रामकिशन चपरासी पीछेपीछे खैनी हथेली पर रगड़ता भागाभागा आया था, ‘क्या टीचरजी, आप भी बस…इतने सालों से मास्टरी कर रही हैं और सरकारी अफसरों के कायदे नहीं जान पाईं. अरे, इन से काम कराने का एक ही तरीका है मैडम, इन्हें खुश करिए. और सरकारी देवता सिर्फ 2 प्रकार के भोग से ही खुश होते हैं, कैश या काइंड.’

जमीन में गड़ सी गई अमिला. कैश या काइंड. घर में कैश होता तो प्राइमरी स्कूल की इस अपमान भरी नौकरी में गांवगांव क्यों मारीमारी डोलती…घर- परिवार बरबाद करती…जीवन का जोखिम उठाती…

और काइंड…उस जैसी जवान युवती से ये अफसर और क्या चाहेंगे? सुनीता ने अपना तबादला काइंड से ही रुकवाया था. दबे स्वर में उसी ने अमिला से भी कहा था, ‘कहो तो बात करें?’

‘नहीं,’ स्पष्ट इनकार कर दिया था अमिला ने. सबकुछ मंजूर पर पति के प्रति ईमानदारी की कीमत पर कुछ भी मंजूर नहीं. औरत के पास और ऐसा होता ही क्या है जिस पर वह गर्व कर सके? एक यही तो.

पति सुमेर 2 सप्ताह में 1 दिन को घर आते हैं. बाकी दिन उसी कसबे में किराए के एक कमरे में हाथ से खाना और चाय बनाते हैं. गैस का छोटा चूल्हा ले रखा है. कभीकभार सड़क के ढाबे पर भी खा लेते हैं. सरकारी नौकरी है, छोड़ते भी नहीं बनती. परिवार है पर परिवार के सुख से वंचित.

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‘कुछ करिए न…गांव तक टे्रन से सुबहसुबह जाने में बहुत परेशानी होती है. कभीकभी टे्रन लेट हो जाती है, राजधानी के कारण कहीं बीच के स्टेशन पर रोक दी जाती है. स्कूल लेट पहुंचने पर प्रधान आंखें तरेरता है,’ रात को अमिला ने सुमेर से कहा.

अमिला ने बताया कि कसबे के स्टेशन से 4 किलोमीटर पैदल चल कर गांव पहुंचना पड़ता है. सीधा कोई रास्ता नहीं है. खेतों के बीच से पगडंडी जाती है. खेतों में बाजरा, ज्वार, अरहर, गन्ने की फसलों के बीच से निकलने में बहुत खतरा रहता है. आतेजाते कभी भी बदमाश दबोच कर खेतों में घसीट कर ले जा सकते हैं. कई केस हो चुके हैं. अकसर लड़कियों, युवतियों की लाशें मिलती हैं खेतों में क्षतविक्षत.

आसपास के गांव अपहरण उद्योग के लिए बदनाम हैं. दबंग लोग अपने घरों में दूरदूर से पकड़ कर लाई गई ‘पकड़ें’ रखते हैं. फिरौती मिल जाए तो छोड़ देते हैं न मिले तो मार कर कुएं में डाल देते हैं. पुलिस ही नहीं, आसपास के सब लोग जानते हैं पर सब का पैसा बंधा हुआ है. गांवों के लोग डर के कारण मुंह नहीं खोलते. नेता, पत्रकार और अफसर उन दबंगों के यहां दावत उड़ाने और ऐश करने आते रहते हैं. वे लोग उन की हर तरह की सेवा करते हैं.

सुन कर सुमेर परेशान जरूर हुए पर कुछ कर सकने में लाचार ही रहे. सोच कर बोले, ‘किसी तरह यह साल तो निकालना ही पड़ेगा, किसी नेता या अफसर से जुगाड़ निकालने की कोशिश करूंगा, शायद अगले साल तक कुछ कर पाऊं.’

‘और तब तक अगर मेरे साथ कुछ घट गया तो?’ अमिला परेशान हो उठी, ‘जब से उस खूनी कुएं के बारे में सुना है, सचमुच बहुत भय लगता है.’

झल्ला पड़े सुमेर, ‘15 दिन बाद घर आता हूं और तुम यही रोना ले कर बैठ जाती हो. ट्रेन से उस गांव जाने वाली तुम कोई अकेली तो हो नहीं. और भी सवारियां उतरती होंगी उस गांव की. सब के संगसाथ आयाजाया करो. ऐसे कौन खा जाएगा तुम्हें?’ कहने को कह तो गए सुमेर पर सोचते भी रहे, कहीं सचमुच अगर अमिला के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया तो? कितनी बदनामी होगी. पर करें तो क्या करें?

टे्रन में बैठी अमिला सारी स्थितियों पर सोचती रही. कुढ़ती और गुस्से से उबलती भी रही. सहसा उसे हेडमास्टर जितेंद्र की बात याद आई, ‘बहुत मत सोचा करो अमिला. यह दुनिया ऐसे ही चलेगी. हमारेतुम्हारे सोचने से कुछ नहीं होगा. मस्त रहा करो.’

जितेंद्र ही हैं जिन से वह अपने मन की बात कह लेती है. अपने भय और आतंक, अपनी आर्थिक परेशानियां, परिवार की कठिनाइयां बोलबता लेती है. पति तो 15 दिन में 1 दिन को आते हैं. उन से क्या कहे वह?

‘‘हम अध्यापकों को इस नौकरी में कितनी जलालत भोगनी पड़ती है. इस के बावजूद अगर हम इसे छोड़ें तो हजार हमारी जगह काम करने को तैयार हैं. इसी का लाभ उठाती है व्यवस्था,’’ जितेंद्रजी बोले, ‘‘हर सरकारी योजना को जनता के बीच पहुंचाना हमारा काम है. पोलियो ड्राप्स इतवार को पिलाइए, ‘स्कूल चलो’ आंदोलन हम चलाएं, ग्रामीणों को स्वच्छता का महत्त्व हम बताएं, वृक्षारोपण हम कराएं, साक्षरता अभियान चलाना हमारी जिम्मेदारी, मिड डे मील हमारी जिम्मेदारी, स्कूल की साफसफाई हमारी जिम्मेदारी, मुफ्त पुस्तकें बंटें हमारी जिम्मेदारी, बच्चे स्कूल न आएं तो घरघर जा कर उन्हें स्कूल में बुला कर लाएं, यह भी हमारा काम.

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गांधी जयंती हो या नेहरू दिवस, बुद्ध जयंती हो या अंबेडकर जयंती, हर मौके पर गण्यमान्य अतिथियों को बुला कर भाषण हमें कराने हैं. उन के चायनाश्ते का प्रबंध करना हमारी जिम्मेदारी, पर पैसा कहां से आए? इस सवाल पर सब एकदूसरे पर टालते हैं. प्रधानजी पैसा नहीं देते. आता है तो अपने पास रख लेते हैं. उन से कौन लड़े? है हम में ताकत? अफसरों से शिकायत करो तो कहते हैं, हम क्या जानें, वह आप की समस्या है, आप जानिए.’’

सहसा रुक कर हेडमास्टर जितेंद्र फिर बोले, ‘‘अब बड़ेबड़े शिक्षाधिकारी इस अंबेडकर गांव में आ रहे हैं. हर तरह गांव संतृप्त हुआ या नहीं, इस का मुआयना करने…हम ने शिक्षा अधिकारी से जा कर कहा, ‘सर, प्रधानजी न तो इमारत की मरम्मत का पैसा दे रहे हैं न रंगाईपुताई के लिए. बच्चों को पीने के पानी तक की कोई व्यवस्था नहीं हो पा रही. स्कूल में श्यामपट्ट तक नहीं है. लिखने के लिए चौक या खडि़या मिट्टी तक नहीं मिलती. स्कूल के दरवाजे लोग उखाड़ कर ले गए हैं. आवारा जानवर रात को स्कूल में घुस कर बैठते हैं. उन का गोबर हमें पहले साफ करना पड़ता है तब स्कूल चल पाता है, इस पर बच्चों के मांबाप एतराज करते हैं, कहते हैं. बच्चे सफाई नहीं करेंगे…हमें चपरासी मिलता नहीं है. कौन करे यह सब…’

‘‘जानती हो शहर के अफसर ने क्या कहा? बोले, ‘आप लोग जो वेतन पाते हैं वह किसलिए? उस में से करिए आप लोग. हम तो पैसा प्रधान को देते हैं, उस से मिलबैठ कर आप किसी तरह यह सब कराइए… और हां, मिड डे मील पर जरूर ध्यान दीजिए. किसी बच्चे ने शिकायत की तो समझ लीजिए…’ ’’

‘‘लेकिन सर, मिड डे मील तो हम हफ्ते में 1-2 दिन ही दे पाते हैं. प्रधान न सामग्री देते हैं न जलावन के लिए कुछ. न बर्तन देते हैं. क्या करें?

‘‘अफसर कहते हैं, हम कुछ नहीं जानते, हमें सबकुछ चाकचौबंद मिलना चाहिए.’’

जितेंद्र ने गुस्से से कहा, ‘‘आने दीजिए इस बार. सब कह देंगे बड़े अफसरों से. फिर जो होगा, देखा जाएगा,’’ उन का चेहरा क्रोध से तमतमा गया था.

‘‘नहीं, जितेंद्रजी, ऐसा हरगिज मत करिएगा,’’ अमिला घबरा गई थी. कुछ सोच कर बोली थी, ‘‘आप अपने गांव से उस गांव तक मोटरसाइकिल पर आते हैं. रास्ते में वह खूनी कुआं पड़ता है. आसपास के सारे गांव अपहरण उद्योग के लिए बदनाम हैं. आप को वह जालिम प्रधान कभी भी रास्ते में पकड़वा लेगा. आप को कुछ हो गया तो मैं इस गांव में किस के भरोसे नौकरी कर पाऊंगी? प्रधानजी की कैसी नजरें मुझे घूरती हैं, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. किसी भी दिन अनहोनी घट सकती है.’’

‘‘सब की ऐसी की तैसी,’’ जितेंद्रजी ने दिलासा दी, ‘‘अपने गांव में मेरी भी कुछ इज्जत है. अगर तुम पर जरा भी कोई आंच आई तो सैकड़ों लोगों को अपने गांव से ला कर यहां बवाल मचवा दूंगा.’’

‘‘उस सब की नौबत ही क्यों आने दी जाए? अक्ल से काम लें हम लोग,’’ अमिला ने कहा.

‘‘अक्ल से क्या काम लें, बताओ? प्रधानजी के पास मिड डे का अनाज और सामग्री आती है. वह हमें बहुत कम देते हैं. मीनू के अनुसार एक दिन भी हम बच्चों को नहीं खिला पाते. स्कूल की मरम्मत के लिए पैसा आया, प्रधान ने हड़प लिया. न गिरती इमारत की मरम्मत हो सकी, न दरवाजेखिड़कियां लग सकीं और न रंगाईपुताई हो सकी. यहां तक कि बच्चों के लिए मुफ्त बांटने को जो किताबें आईं वे तक गांव की स्टेशनरी की दुकान पर बेच दी गईं.

‘‘हेडमास्टर का एकमात्र कमरा है. उस में प्रधान ने अपने जानवरों का भूसा भरवा दिया है. पाठशाला एक प्रकार से पशुशाला बन गई है. शिकायत नहीं करेंगे तो अफसर चेतेंगे कैसे? सारा दोष हम पर मढ़ दिया जाएगा कि हम नकारा हैं और पैसा खा गए. सरकारी अफसर किसी को नहीं नापेंगे…हम मास्टरों को नाप देंगे… सस्पेंड तो करेंगे ही, संभव है नौकरी से निकाल बाहर करें. शिकायत के अलावा और कौन सा रास्ता है?’’

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अमिला को लगा, जितेंद्रजी कहते तो सच हैं पर सच का नतीजा वह भी जानते हैं और अमिला भी. जिस प्रधान के खिलाफ गांव में कोई चुनाव लड़ने तक की हिम्मत नहीं करता, जिस के पास हथियारबंद लोगों की पूरी फौज रहती है, जो आसपास के इलाके में कुख्यात है, जिस की चारों तरफ तूती बोलती है, जिस के खिलाफ कोई जबान तक नहीं खोलता, जिस के पास अफसर और नेताओं का जमावड़ा लगा रहता है, दावतें उड़ती रहती हैं, आसपास की लड़कियों को ला कर रात को ऐश और जश्न होते हैं, उस दबंग के खिलाफ अमिला या जितेंद्र जैसे मामूली लोगों की क्या हैसियत है कि वे कुछ कह पाएं. पर यह भी सच है कि यह अंबेडकर गांव है और सरकारी आदेश है कि गांव हर तरह से संतृप्त होना चाहिए. अफसर मुआयने पर आ रहे हैं. क्या हो?

स्कूल की सफाई और रंगाईपुताई जितेंद्रजी को अपने पैसे से करानी पड़ी. खाद और बीज का जो पैसा घर पर रखा था, उसे लगाना पड़ा. अमिला ने कहा, ‘‘सर, पूरे खर्चे का हिसाब लगाइए, कुछ मैं भी करूं, यह सिर्फ आप की ही जिम्मेदारी क्यों हो?’’

‘‘तुम रहने दो, अमिला. मुझे तुम्हारी हालत अच्छी तरह पता है,’’ जितेंद्रजी मुसकराए, ‘‘कुछ भी हो, मैं इस बार अफसरों के आने पर पूरी स्थिति सब के सामने रख दूंगा, फिर चाहे मुझे नौकरी से ही हाथ क्यों न धोना पड़े,’’ उन की आवाज में जो दृढ़ता थी, उस से अमिला सचमुच सहम गई थी. अगर उन्होंने ऐसा किया तो नतीजे की वह कल्पना कर सकती थी.

दबी जबान बोली, ‘‘अच्छी तरह सोच लीजिए…आएदिन प्रधानजी और गांव के छुटभैए नेता बेकसूर लोगों को सब के सामने बेइज्जत करते रहते हैं. हम लोगों की बेइज्जती करते उन्हें क्या देर लगेगी?’’

‘‘जो होगा, देखा जाएगा, पर सहने की भी एक सीमा होती है, अमिला. हम कहां तक सहें? इस का प्रतिकार किसी न किसी को, एक न एक दिन करना ही पड़ेगा. फिर हम ही क्यों न करें? और इसी मौके पर क्यों न करें? रोजरोज मरने से एक दिन मरना ज्यादा अच्छा है, अमिला. हमें हिम्मत से काम लेना चाहिए.’’

‘‘जिस हिम्मत का परिणाम हमें पहले से पता हो उसे दिखाने का क्या औचित्य है जितेंद्रजी?’’ अमिला ने कहा जरूर पर जितेंद्र अपने गुस्से को भीतर ही भीतर दबाते रहने का प्रयत्न करते रहे.

सफाई का प्रबंध, बच्चों के वस्त्रों की स्थिति, मिड डे मील, पीने के पानी की व्यवस्था, इमारत का रखरखाव, बच्चों की पढ़ाईलिखाई का स्तर सब की जांचपड़ताल की जाने लगी. बाहर से आए अफसर बिगड़ गए, ‘‘बहुत बुरी स्थिति है. आप लोग करते क्या रहते हैं?’’

जवाब में जितेंद्रजी ने सब के बीच सबकुछ कह दिया. अंत में उन्हीं लोगों से पूछा, ‘‘आप ही बताइए, इन स्थितियों में हम लोग क्या करें?’’

एक सहायक शिक्षाधिकारी तमक कर आगे बढ़ आए, ‘‘बहाने मत बनाइए मास्टर साहब, हम लोग सब जानते हैं, आप लोग क्या गुलगपाड़ा करते रहते हैं. स्कूल आते नहीं. अपने खेतों पर काम करते या करवाते रहते हैं. शिक्षामित्रों से काम चलाऊ पढ़ाई कराते रहते हैं या अपनी एवज में 500-700 रुपए में अध्यापक रख लेते हैं और उस से बच्चों को यह अधकचरा पढ़वाते रहे हैं. हमें सारी खबर रहती है आप लोगों की. प्रधानजी हमें एकएक खबर, एकएक सूचना लिख कर देते रहते हैं.’’

कुछ देर बाद जितेंद्रजी को भीतर अकेले में बुला लिया गया. प्रधानजी मुसकराए, ‘‘रात को गांव में अधिकारी यहां मौजमस्ती और खानेपीने के लिए रुकेंगे. अपनी मास्टरनी से कहो, उन की सेवा में रहे रात को.’’

‘‘नहीं, अमिलाजी नहीं रुक सकेंगी यहां, सर…’’ जितेंद्र ने बारीबारी हर किसी चेहरे की तरफ देखा, ‘‘उन का बच्चा छोटा है और घर पर बूढ़ी सास उस बच्चे को नहीं संभाल सकतीं. पति बाहर दूसरे शहर में रहते हैं.’’

‘‘हम कुछ नहीं सुनना चाहते,’’ प्रधानजी गरजे, ‘‘अगर उसे नौकरी करनी है तो रात को हमारे इन अफसरों और मेहमानों की सेवा के लिए रुकना ही पड़ेगा. तुम अकेले उस का स्वाद चखते रहे हो…हम लोगों को भी उस का मजा लेने दो.’’

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पता नहीं जितेंद्र को अचानक क्या हो गया. एक झन्नाटेदार चांटा जड़ दिया प्रधान के चेहरे पर. बस, फिर क्या था. जितेंद्र पर तमाम लोग एकदम टूट पड़े. उन्हें मारतेपीटते बाहर चबूतरे तक ले आए. वहां स्कूल के सारे बच्चे मौजूद थे. अमिला बुरी तरह घबरा गई. वे लोग लगातार लातघूंसे, थप्पड़मुक्के और जूतों से जितेंद्र की पिटाई कर रहे थे. अमिला तो एकदम हतबुद्ध. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि भीतर ऐसा क्या हुआ जो यह नौबत आ गई.

सारे बच्चों के बीच उन लोगों ने जितेंद्र को मुरगा बना दिया. एक दबंग ने पीछे से ऐसी लात मारी कि वह मुंह के बल गिर पड़े.

कुछ ही देर में अफसरों और नेताओं की गाडि़यां चली गईं. अमिला जितेंद्र के पास बैठी सिसकती रही.

New Year 2022: मिनी की न्यू ईयर पार्टी- क्या प्लान बना रही थी मिनी

अगलेकुछ दिनों में कुछ होने वाला था. मैं चारों पैरों पर खड़ा हो कर ताकने की कोशिश कर रहा था. घर की चौकीदारी तो मेरा ही काम है न. हर जने की आवाज पहचानता हूं. मिनी की सारी सहेलियों को जानता हूं. मालिकमालकिन का दुलारा हूं और मिनी तो कई बार कह देती है कि मैं तीसरा बेटा हूं उन का. उन की बातें चाहे समझ न आएं पर चेहरा तो पढ़ ही सकता हूं न.

‘‘मिनी, घर पर दोस्तों का जमघट न लगा लेना. अंजलि या रिया को बुलाना हो तो सोने के लिए बुला लेना और किसी को नहीं.’’

‘‘ओह मम्मी, मैं छोटी बच्ची थोड़े ही हूं. औफिस जाने लगी हूं. सचमुच इतनी हिदायतें देने की जरूरत है क्या?’’

शेखर ने फौरन मिनी को हमेशा की तरह पुचकारा, ‘‘माया, मिनी बड़ी हो गई है, यह जानती है कैसे रहना है. न्यू ईयर का समय है, बच्चे भी तो ऐंजौय करेंगे. जब हम दोनों बाहर जा रहे हैं तो यह भी घर में अकेली क्यों रहे… दोस्त आ भी जाएंगे तो बुरा क्या है?’’

‘‘मेरे सामने इस के फ्रैंड्स आते ही हैं, मुझे कोई दिक्कत नहीं पर मेरे पीछे से आने में मुझे चिंता रहती है, साफ बात है. राहुल भी दोस्तों के साथ गोवा चला गया वरना परेशानी की कोई बात ही न होती.’’

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मिनी ने अब लाड़ से माया के गले में हाथ डाल दिया, ‘‘ओके मम्मी. आप आराम से जाओ… जमघट नहीं लगेगा. खुश?’’

माया ने भी मिनी का गाल चूम लिया. मैं वहीं खड़ा यह रोचक दृश्य देख रहा था. शेखर ने मेरे सिर पर हाथ फेरा तो मैं भी पूंछ हिलाता हुआ उन से लिपट गया.

शेखर और माया हर साल तो न्यू ईयर पर मुंबई में घर पर ही रहते थे पर इस बार माया को न्यू ईयर पर कुछ दोस्तों के साथ गोवा जाना था.

राहुल भी औफिस से छुट्टी ले कर गोवा जा चुका है. उसे वैसे भी कोई ज्यादा रोकताटोकता नहीं है. अब यह मिनी… शैतान लड़की… हर साल न्यू ईयर पार्टी अंजलि के घर होती है. वहीं सब बच्चे इकट्ठा होते हैं. मिनी की एक बात मुझे पसंद है. उसे बाहर से अच्छा अपने घर पर दोस्तों के साथ समय बिताना पसंद है. उस में भी माया मना कर रही है. गलत बात है. बस, न्यू ईयर पर मिनी अंजलि के घर न चली जाए वरना मैं अकेला रह जाऊंगा. वैसे आज तक अकेला नहीं रहा.

शेखर और माया चले गए. मिनी ने मुझे गोद में बैठा लिया. लिपट गई मुझ से. कैसे जान लेती है न मेरे मन की बात. बोली, ‘‘डौंट वरी बडी, तू अकेला नहीं रहेगा. मैं कहीं नहीं जाऊंगी. घर पर पार्टी करेंगे.’’

मैं मन ही मन हंसा. बडी नाम रखा था मिनी ने मेरा. अपना नाम पसंद है मुझे. मिनी सोफे पर पसर गई. मैं भी वहीं फर्श पर लेट गया. उस ने फोन स्पीकर पर रखा और चहकी, ‘‘अंजलि, गुड न्यूज. न्यू ईयर पार्टी इस बार मेरे घर पर.’’

‘‘अरे वाह, अंकलआंटी गए?’’

‘‘हां. बोल, किसेकिसे बुलाना है?’’

‘‘वही अपना पूरा ग्रुप.’’

‘‘ठीक है, डिनर और्डर करेंगे, मूवी देखेंगे… सब शाम को आ जाओ. तुम ही सब से बात कर लो.’’

मेरे कान खड़े हुए मूवी. ओह, यह मिनी की बच्ची फिर ‘ओम शांति ओम’ लगाएगी. इतनी बड़ी फैन जो है शाहरूख की. इस का मूड अच्छा हो तो यही मूवी देखती है. चलो ठीक है. शेखर और माया के हर साल के टीवी के न्यू ईयर के प्रोग्राम से तो अच्छा ही कटेगा मेरा समय.

उन दोनों की टीवी की पसंद के प्रोग्राम से परेशान हो चुका हूं. जब से शेखर रिटायर हुए हैं पूरा दिन दोनों ‘सावधान इंडिया’ या ‘क्राइम पैट्रोल’ देखते हैं. उस के बाद दोनों बातें भी वैसी ही करने लगे हैं. देखा था न, अभी जाते हुए मिनी को कैसे समझा रहे थे कि जमाना खराब है, कोई किसी का नहीं, दोस्त ही दुश्मन होते हैं, किसी पर भी विश्वास नहीं करना वगैरावगैरा.

वह तो अच्छा है मिनी एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल रही थी. यह क्राइम पैट्रोल का ज्ञान है, मिनी जानती है वरना तो पार्टी हो ही न पाती. इस के दोस्त तो बहुत अच्छे हैं. जब भी आते हैं कैसा यंग माहौल हो जाता है. वाह, आज की रात धमाल रहेगा… मजा आएगा. अभी सो लेना चाहिए.

जैसे ही आंख लगी, मिनी संजय के साथ मेन्यू डिस्कस करने लगी, शेखर और माया घर पर नहीं होते तो मिनी का फोन स्पीकर पर रहता है, इसलिए मैं सब आराम से सुनता हूं. राहुल भी स्पीकर पर रखता है. उस की भी सब बातें मुझे पता हैं. गोवा दोस्तों के साथ नहीं गया है गर्लफ्रैंड प्रीति के साथ गया है और यह सिर्फ मैं जानता हूं. बडी सब जानता है.

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मिनी जोरशोर से पार्टी की तैयारी में लग गई है. न… न… कामवाम में नहीं, बस सोफे पर लेट कर फोन करने में. मिनी का बस चले तो पार्टी भी सोफे पर लेट कर निबटा लें. लेट कर फोन पर वीडियो, शो देखना या कोई किताब पढ़ना उस का शौक है पर बहुत मस्ती है उस में… मूड अच्छा हो तो मुझे बैठने ही नहीं देगी… इतना खेलेगी… क्या खेलती है? बताऊं? बुद्धू बनाती है मुझे.

इसी सोफे पर लेटीलेटी बारबार बौल फेंकती रहती है और

‘बडी जाओ, बौल लाओ… शाबाश’ कहती रहती है. कभी इधर फेंकेंगी, कभी उधर… कभी डाइनिंग टेबल के नीचे तो कभी सोफे के नीचे… पागल बनाती है पर मजा भी आता है. मुंबई के इन फ्लैट्स में यही खेल सकते हैं.

मिनी खाने का और्डर दे रही है. मेरे कान खड़े हो गए. यहां घर में सब वैजिटेरियन हैं, राहुल कभीकभी मेरे लिए कुछ नौनवैज पैक करवा लाता है. किसी को पता नहीं है कि वह बाहर नौनवैज खाने लगा है. बस, मुझे पता है. मुझे स्मैल आ जाती है कि जनाब बाहर नौनवैज उड़ा कर आए हैं. हां, तो जिस दिन राहुल मेरे लिए नौनवैज पैक करवा कर लाता है, अपनी पार्टी हो जाती है. वैसे माया के हाथ की सादी दाल और रोटी में भी स्वाद है पर रोजरोज… चेंज मुझे भी चाहिए.

मिनी फाइनल कर रही है… पिज्जा, चिकन बिरयानी, वेज बिरयानी, कोल्ड ड्रिंक्स, आइसक्रीम… मुझे खास इंट्रैस्ट नहीं आया. खैर, चिकन बिरयानी चलेगी. दालरोटी से तो बैटर ही रहेगी.

मिनी मेरे ऊपर गिरती हुए लिपट गई. हो गई इस की मस्ती शुरू. ‘‘बडी, पार्टी है. मजा आएगा… तेरे लिए चिकन बिरयानी, ठीक है?’’

मैं ने पूंछ हिला दी. हंसा, मिनी का हाथ चाट लिया.

‘‘चल, अब लंच करते हैं, फिर सोएंगे, शाम को फिर फ्रैश रहेंगे.’’

मिनी हम दोनों का खाना ले आई. दाल में भिगो कर रोटी के टुकड़े मेरे बरतन में मुझे दिए, खुद भी अपनी प्लेट ले कर बैठ गई. मिनी कुछ चीजों में सीधी है… जो भी माया बनाती है, चुपचाप खा लेती है. राहुल को खिला कर देखो दाल और रोटी, देखते ही कहता है कि क्या मैं बीमार हूं मां? उस समय मुझे जोर से हंसी आती है.

खाना खा कर हम दोनों सोने चले गए. बहुत सालों बाद दिन में 2 घंटे जम कर सोया, यह नींद रोज मेरे नसीब में कहां. ‘सावधान इंडिया’ और ‘क्राइम पैट्रोल’ की आवाजें सुनी हैं कभी? हर कोने में छिप कर लेट कर देख लिया… सो नहीं पाता.

शाम को मिनी मुझे बाहर घुमाने ले गई. सोसायटी की आंटियां मिनी से पूछ रही हैं कि और मिनी,

न्यू ईयर पार्टी कहां है? और शैतान मिनी कितना भोला मुंह बना कर कह रही है, ‘‘पार्टी नहीं है आंटी, घर पर ही हूं.’’

ये माया की सहेलियां हैं न… ये आंटियां नहीं, रिपोर्टर होती हैं. मिनी नहाधो कर तैयार हो रही है. दोस्तों के फोन आते रहे. सब खुश हैं… पार्टी के लिए एक घर खाली मिल गया है. 8 बजे सब आ गए. संजय, अंजलि, रोमा, टोनी, मयंक, रिया, नेहा, आरती… सब अच्छे लगते हैं मुझे.

टोनी ने पहला काम जमीन पर ही बैठ कर मुझ से खेलने का किया, ‘‘हैलो बडी, मिस यू यार.’’

यही कहता है वह हमेशा. मैं ने भी कहा, ‘‘मिस यू टू, तुम सब जल्दी आया करो… पर बोल नहीं पाता तो मेरी बात तो मुंह में ही रह जाती है न. सब मुझे ‘हैलो बडी’ कह कर प्यार कर रहे थे.’’

सैल्फी की शौकीन आरती ने सब से पहले मेरे साथ कई फोटो लिए, मैं ने भी

अच्छे पोज दिए, मुझे तो आदत हो गई है. राहुल व मिनी के सारे दोस्त मेरे साथ सैल्फी लेते हैं. तब मुझे स्टार जैसा फील होता है.

9 बजे तक खाने की डिलिवरी हो गई, रोमा ने कहा, ‘‘सुनो, खाना गरम है. पहले खा लें?’’

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मिनी की चिंता सब से अलग होती है. बोली, ‘‘रातभर पार्टी करेंगे. दोबारा भूख लग आई तो?’’

संजय ने कहा, ‘‘न्यू ईयर का टाइम है, फिर मंगवा लेंगे.’’ खाने के पैकेट खुल गए. मेरे बरतन में सब से पहले मिनी ने चिकन बिरयानी परोसी. थैंक्यू मिनी, कहते हुए मैं टूट पड़ा. बहुत बढि़या सारी खत्म कर दी. सब बच्चे ड्राइंगरूम में खा रहे थे.

मयंक ने पूछा, ‘‘बडी पिज्जा चाहिए?’’

मैं वहां से हट गया. बिरयानी के बाद पिज्जा कौन खाएगा. मुंह का स्वाद अच्छा था.

मिनी सब को समझा रही थी, ‘‘सुनो, सब लोग प्लीज 1-1 चीज कूड़ेदान में डालना…’’ सब अपनेअपने बरतन धोपोंछ कर रखना. मम्मी को बताना नहीं है कि हम ने पार्टी की है. उन के सामने पार्टी हो तो उन्हें ठीक लगता है. उन के पीछे से पार्टी हो तो उन्हें चिंता हो जाती है कि पता नहीं क्याक्या होता होगा.

रिया ने कहा, ‘‘डौंट वरी, हम सब संभाल लेंगे.’’ 10 बजे तक धीरेधीरे खाते हुए सब ने मजेदार गप्पें मारीं. कितनी अलग है इन की दुनिया. हलकीफुलकी मजेदार बातें… मूवीज की, नए गानों की… अपनेअपने औफिस की मजेदार बातें. मुझे यह साफ समझ आया कि संजय रिया का बौयफ्रैंड है, टोनी आरती का. बस, बाकी सब में अच्छी मजबूत दोस्ती है. सब ने मिल कर 1-1 चीज समेट दी.

मिनी ने कहा, ‘‘सुबह 8 बजे तक सब चले जाना वरना 9 बजे लता आंटी काम के लिए आएंगी… वे मम्मी को सब बता देंगी.’’

‘‘हांहां, डौंट वरी. आज पार्टी के लिए घर मिल गया, इतना बहुत है. न्यू ईयर पर होटलों की वेटिंग बहुत लंबी रहती है. अब आराम से खाना तो खाया… अब टाइमपास करेंगे.’’

मिनी बोली, ‘‘चलो, मूवी देखें कोई.’’

मेरे कान खड़े हो गए. कोई मूवी क्या? यह पक्का ‘ओम शांति ओम’ लगाएगी, इस का अच्छा मूड हो और यह यह मूवी न देखे… डायलौग रट गए हैं मुझे. सब अपनीअपनी पसंद बताने लगे, मैं आराम से बैठ गया, जानता हूं किसी की नहीं चलेगी. मिनी शाहरूख के अलावा किसी की मूवी नहीं देखेगी. 20 मिनट बाद तय हुआ कि ‘ओम शांति ओम’ देखी जाएगी.

देखा? वही हुआ जो मुझे सुबह से पता था. शैतान मिनी. हमेशा कैसे भोली सूरत बना कर अपनी बात मनवा लेती है… प्यारी है, दोस्त

प्यार करते हैं उसे. मूवी का नाम सुनते ही मैं मालिक और मालकिन के बैड के नीचे घुस

कर यह सोच कर लेट गया. शायद वहां आवाज कम आए.

टोनी आवाज देने लगा, ‘‘बडी आओ, मूवी देखें… कहां हो यार?’’

मैं ने कहा, ‘‘रहने दो भाई, तुम ही देख लो, तुम ने शायद एक बार ही देखी होगी… मुझे बख्शो. मैं मिनी के साथ ही रहता हूं.’’

मयंक भी आवाज दे रहा है, ‘‘कम,

बडी कम.’’

‘‘ओह, जाना पड़ेगा. कोई बुलाता है तो जाना ही पड़ता है. मैं ड्राइंगरूम में बच्चों के पास जा कर खड़ा हो गया. मयंक ने मुझे अपने से लिपटा लिया, ‘‘आओ, बडी, मूवी देखेंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘मुझे एक भी सीन नहीं देखना इस मूवी का. मुझे पूरी मूवी रट गई है, अब तो मिनी के अच्छे मूड से डर लगने लगा है. मुझे माफ करो.’’

अजी कहां, मिनी ने मेरे पास फर्श पर ही अपना तकिया रख लिया. लेट गई. बोली, ‘‘आ जा बडी, तेरे बिना मूवी देखने में मुझे मजा नहीं आता.’’

अब तो कहीं छिप कर बैठ नहीं सकता न. मूवी शुरू हो गई. मैं आंखें बंद किए लेटा तो था पर कानों में डायलौग तो पड़ने ही थे. अगर शाहरूख खान की मूवी के डायलौग का इम्तिहान हो तो मैं ही फर्स्ट आऊंगा और मिनी को श्रेय दूंगा. 12 बजने में 2 मिनट पर टीवी बंद कर दिया गया. फिर हैप्पी न्यू ईयर के शोर से ड्राइंगरूम गूंज उठा. सब एक दूसरे के गले मिल रहे थे. मुझे भी सब ने हैप्पी न्यू ईयर कहा. बच्चों में मैनर्स हैं.

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रोमा चिल्लाते हुए बोली, ‘‘अब थोड़ा डांस हो जाए.’’

मुझे पता है रोमा को डांस का शौक है. एक दिन बता रही थी कि उस ने डांस क्लास जौइन की है. मैं तो बहुत किनारे जा कर बैठ गया. डांस तो देखना था. मुझे इन बच्चों का डांस देखने में मजा आता है. ड्राइंगरूम का फर्नीचर एक तरफ कर जगह बना ली गई. मुझे पता था मिनी कौन सा म्यूजिक लगाएगी, यही तो सुनती है आजकल. बादशाह के गाने…

वैसे उसे और कर्णप्रिय मधुर गाने भी पसंद हैं पर फिर वही बात, उस का मूड अच्छा हो तो आप शाहरूख की मूवीज और बादशाह के गानों से बच ही नहीं सकते. बच्चे बढि़या डांस कर रहे हैं. यह टोनी… थोड़ा मोटा है पर डांस अच्छा कर लेता है. सब रोमा के स्टैप कौपी कर रहे हैं. वह सीखती है न, सब को नएनए स्टैप बता रही है हमारी मिनी. उसे किसी के डांस से मतलब नहीं. उस का अपना ही डांस होता है. कोई उसे तो कौपी कर ही नहीं सकता. कुछ भी करती है, अच्छा करती है.

अब डांस शुरू हो गया तो जल्दी नहीं रुकेगा. बीचबीच में कोल्ड ड्रिंक पी जाती, फिर शुरू हो जाते. 3 बजे तक डांस किया सब ने. बहुत मजा आया. वैसे तो मिनी माया के बताए घर के 2 काम करने में थक जाती है, पर इस समय देखो, अच्छा है… बच्चे मेरे सामने हैं. अच्छी पार्टी है. नहीं तो हर बार न्यू ईयर पर टीवी के बोरिंग प्रोग्राम.

डांस के बाद जिसे जो जगह समझ आई, वहीं सो गया. मिनी के बैड पर 3

लड़कियां… बाकी नीचे चादर बिछा कर सो गईं. शेखर व माया के बैडरूम में लड़के सो गए. सब इंतजाम देख मैं भी ड्राइंगरूम में फर्श पर बिछे अपने बैड पर सो गया. टोनी सोफे पर ही लेटा था, उस के खर्राटों से मेरी नींद खुलती रही. सब को पता था टोनी खर्राटे लेता है, इसलिए उसे सोफे पर सुलाया गया था, पर मैं तो फंस गया न.

मिनी के 7 बजे के अलार्म से भगदड़ सी मची. मिनटों में पूरा घर जैसे था वैसे व्यवस्थित कर दिया गया. एक बार फिर एकदूसरे को हैप्पी न्यू ईयर कहते हुए सब अपनेअपने घर चले गए. मिनी मुझे बाहर घुमा लाई. फिर लताबाई आ गई. मिनी ने लताबाई को भी न्यू ईयर विश किया. लता बाई ने पूछा, ‘‘मिनी, घर पर ही थी? कहीं गई नहीं? फ्रैंड्स लोग आए क्या?’’

‘‘नहीं, आंटी.’’

‘‘पार्टी नहीं की?’’

‘‘नहीं आंटी,’’ मिनी ने मुझे आंख मारते हुए ताली दी तो मैं ने भी आंख मारते हुए अपना पंजा उठा दिया.

‘‘ओह बडी, आई लव यू,’’ मिनी मुझ से लिपट गई, ‘‘लव यू टू, मिनी.’’

मिनी ने मेरे कान में पूछा, ‘‘बडी, मजा आया न पार्टी में?’’

‘‘हां, बहुत,’’ मैं ने जोरजोर से अपनी पूंछ हिला दी. युवा कहकहों से गूंजते घर में, हंसतेखेलते, डांस देखते मेरे नए साल की शुरुआत काफी अच्छी थी.

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चाहत की शिकार: क्यों श्वेता को मार दिया आनंद ने

लेखक- विनय कुमार पाठक

कुलमिला कर उस की जिंदगी की गाड़ी ठीकठाक चल रही थी. श्वेता से उस का परिचय होने के बाद तो जिंदगी में कोई कमी ही नहीं रह गई थी. बीचबीच में श्वेता उस के पास आती थी और उस की रातों को गुलजार कर जाया करती थी. वह अपनी जिंदगी से काफी संतुष्ट था खासकर श्वेता के आने के बाद से.

श्वेता समयसमय पर उस से थोड़ेबहुत पैसे लेती रहती थी, पर उसे इस का जरा भी अफसोस नहीं था, क्योंकि बदले में उसे श्वेता से काफीकुछ मिलता भी था.

परेशानी तब हुई, जब श्वेता की मांग दिनबदिन बढ़ने लगी. एक दिन तो उस ने उस से बड़ी मांग कर दी, ‘‘आनंद, मुझे 50,000 रुपए की सख्त जरूरत है,’’ यह उस ने आनंद के बालों में प्यार से हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘क्या… 50,000 रुपए? तुम पागल तो नहीं हो गई हो क्या श्वेता?’’ आनंद ने चौंक कर उठते हुए कहा था.

‘‘क्या तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते? पहली बार तुम मुझे मना कर रहे हो. क्या इतना ही प्यार है तुम्हारे दिल में मेरे लिए या फिर मुझ से मन भर गया है?’’ श्वेता ने प्यार से कहा.

‘‘देखो, जो रकम मेरे बस में है, वह मैं तुम्हें दे सकता हूं, पर 50,000 रुपए… इतने रुपए तो मेरी सालभर की तनख्वाह के बराबर हैं,’’ आनंद ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘7 साल की तनख्वाह के बराबर तो नहीं हैं न?’’ एकाएक श्वेता का रुख बदल गया.

‘‘अगर मैं पुलिस में शिकायत कर दूं तो 7 साल के लिए हवालात में चले जाओगे. सीसीटीवी कैमरे में सुबूत हैं कि तुम मुझे अपने साथ लाते रहे हो. यहां की हर गलीनुक्कड़ में सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं. मेरे कपड़ों पर तुम्हारी करतूत के सुबूत भी हैं. वैसे भी आजकल ‘मी टू’ के चलते बड़ेबड़ों की हालत खराब है, फिर तुम्हारी क्या बिसात है?’’

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‘‘देखो, 50,000 रुपए तो मुझे हर हाल में चाहिए ही चाहिए. तुम कैसे इंतजाम करोगे, यह तुम जानो. एक हफ्ते का समय है तुम्हारे पास,’’ कहते हुए श्वेता चली गई और आनंद हैरान सा उसे जाते हुए देखता रहा.

इस के बाद से आनंद काफी चिंतित रहने लगा था. उस की कुल तनख्वाह 6,000 रुपए महीने थी जिस में से 2-3 हजार रुपए तो वह श्वेता पर ही लुटा देता था. 1,000 रुपए घर भेज दिया करता था. बाकी उस के खानेपीने पर खर्च हो जाया करते थे. पैसों के लिए एकमात्र सहारा उस का मालिक था

जो 1-2 महीने से ज्यादा की एडवांस तनख्वाह नहीं दे सकता था.

तो फिर क्या किया जाए? अगर श्वेता ने पुलिस में शिकायत कर दी तो उसे लेने के देने पड़ जाएंगे. एक साल पहले ही वह मुंबई आया था. कोई ऐसा जानकार भी नहीं था जिस से उसे पैसों की मदद मिल सके.

आनंद मुंबई के दादर इलाके में एक प्लाट पर बने छोटे से झोंपड़ीनुमा मकान में रहता था. प्लाट के मालिक ने प्लाट की देखभाल के लिए उसे वहां टिका दिया था. प्लाट के मालिक की उस प्लाट पर एक बहुमंजिला अपार्टमैंट्स बनाने की योजना थी जिस के लिए बिल्डरों से बात चल रही थी.

आनंद को महज 6,000 रुपए तनख्वाह मिलती थी. घर पर बेकार बैठे रहने के बजाय यह भी बुरा न था. न जाने कितने लोग मुंबई जैसे बड़े शहरों में मामूली तनख्वाह पर काम करने आते हैं क्योंकि उन के पास और कोई काम नहीं होता. कइयों को तो काफी खराब हालात में रहना पड़ता है, पर वह संतुष्ट था. रहने को झोंपड़ी थी ही. वहीं कुछ कच्चापक्का बना कर खा लेता था. बिजलीपानी की सुविधा चौबीसों घंटे थी जिस का बिल मालिक अदा करता था.

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काफी सोचविचार के बाद आनंद के दिमाग में एक ही उपाय आया श्वेता को रास्ते से हटाने का. उस की हत्या कर देना, पर लाश को कहां और कैसे ठिकाने लगाएगा, यह बहुत बड़ी समस्या थी.

काफी सोचविचार के बाद आनंद ने लाश को प्लाट के एक कोने में फेंक कर खुद पुलिस को सूचित करने की योजना सोची. वह खुद शिकायत करेगा तो पुलिस को शक भी नहीं होगा.

अगली बार जब श्वेता आई तो आनंद ने उस का दिल खोल कर स्वागत किया.

‘‘जैसेतैसे मैं ने रुपयों का इंतजाम किया है. आगे से इतनी बड़ी रकम मत मांगना. मैं गरीब आदमी कहां से इतनी बड़ी रकम लाऊंगा?’’ आनंद ने श्वेता को बांहों में भरते हुए कहा.

श्वेता को इस बात से मतलब नहीं था कि आनंद ने रुपयों का इंतजाम कहां से किया है. मन ही मन उस ने सोचा, ‘रुपए तो मैं तुम से हमेशा मांगूंगी. आखिर मजबूरी में तुम्हें अपना जिस्म देती हूं तो उस का भुगतान तो देना ही होगा.’

श्वेता बोली, ‘‘अगर जरूरत नहीं होती तो तुम्हें क्यों तकलीफ देती…’’

फिर वे दोनों एकदूसरे के आगोश में समा गए. आनंद सोच रहा था कि वह आखिरी बार श्वेता के जिस्म को भोग रहा है, इस के बाद तो इसे खत्म कर देना है इसलिए वह जम कर उस के बदन का मजा ले रहा था.

श्वेता सोच रही थी कि आज 50,000 रुपए लेने के बाद फिर कब उस से रकम मांगनी है.

मौका पा कर आनंद ने श्वेता

का गला दबा दिया, फिर चाकू से

गले को रेत दिया और लाश को एक कोने में जा कर फेंक दिया.

आनंद को अपने प्लान पर पूरा भरोसा था, इसलिए वह आराम से सो गया. अगले दिन सुबह उस ने पुलिस कंट्रोल रूम को फोन कर जानकारी दी कि एक औरत की लाश प्लाट के एक कोने में पड़ी हुई है.

आनंद को यह गुमान था कि पुलिस को आसानी से चकमा दिया जा सकता है और इस के लिए उस ने खुद पुलिस से शिकायत करने की तरकीब अपनाई थी. शिकायत करने वाले पर पुलिस भला क्यों शक करेगी, उस ने यही सोचा था.

पुलिस ने आ कर सब से पहले श्वेता को अस्पताल पहुंचाया, जहां उसे ‘मृत लाया गया’ घोषित कर दिया. पुलिस ने अनजान शख्स के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर लिया.

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आनंद बहुत खुश हुआ. उसे अपनी योजना कामयाब होती दिखाई दी, पर उसे पता नहीं था कि पुलिस शक के आधार पर उस से पूछताछ शुरू कर देगी. विरोधाभाषी बयानों के चलते वह पकड़ में आ गया और फिर मामला सुलझ गया.

आनंद ज्यादा देर तक पुलिस के सामने टिक नहीं पाया और उस ने अपना जुर्म कबूल कर लिया. वही पुलिस को उस जगह पर भी ले गया जहां उस ने हत्या में इस्तेमाल किया गया चाकू छिपा कर रखा था.

इस तरह श्वेता के लालच ने उस की जिंदगी खत्म करवा दी और जिस्मानी आकर्षण ने आनंद की जिंदगी बरबाद कर दी.

अंतिम स्तंभ- भाग 1 : बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

‘‘तू यह बात किसी को मत बताना’’, वह मेरे हाथों को अपने हाथ में ले कर चिरौरी सी कर रही थी, ‘‘मेरी इतनी बात मान लेना.’’

मेरा मुंह उतर गया. ‘‘क्या रे, तू तो मेरा दिमाग ही खराब कर रही है. मैं तो तेरी दी यह साड़ी पहन कर दुनियाभर में मटकती फिरती हूं कि देखोदेखो सब लोग, मेरी प्यारी सहेली ने कितनी सुंदर साड़ी दी है. और तू कह रही है कि किसी को मत बताना.’’

‘‘तू मेरा नाम मत बताना, बस.’’

‘‘वाह, यह तो कोईर् भी पूछेगा कि इतनी सुंदर साड़ी किस सहेली ने दी, किस खुशी में दी.’’

‘‘तू तो जानती है रे, कितनी मुसीबत हो जाएगी मेरी.’’

‘‘जिंदगीभर मुसीबत ही रही तेरी तो…’’

मेरा मन सच में खराब हो गया. असल में मुझे याद आ गया. 35 बरस पहले भी सुमेधा ने मुझे साड़ी दी थी. ऐसे ही छिपा कर. ऐसे ही कहा था,  ‘किसी को मत बताना.’ अवसर था इस की पहली संतान, ‘पुत्र’ के जन्म का. सासससुर, जेठजेठानी, देवरदेवरानी, ढेर सारे रिश्तेदारों व अतिथियों से भरा घर. पूरे घर में आनंदोत्सव की धूम. वह मुझे अपने कमरे में ले गई थी. अपनी अलमारी खोल एक साड़ी निकाल कर मुझे पकड़ाते हुए बोली, ‘जल्दी से इसे अपने पर्स के भीतर डाल ले. अपने पैसे से खरीद कर लाई हूं. गुलाबी रंग तुझ पर बहुत खिलता है. जरूर पहनना इसे.’

‘तेरे पास पैसा ही कितना बचता है. सारी तनख्वाह तो तू अपनी सासुमां को देती है. अगर साड़ी देने का इतना ही मन था तो आज तो तोहफे में तुझे ढेरों साडि़यां मिली हैं. उन्हीं में से कोई मुझे दे देती.’

‘वे सब साडि़यां, तोहफे तो सासुमां को मिले हैं.’

‘बेटा तेरा हुआ है. लोगों ने तोहफे तुझे दिए हैं?’

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और आज, आज गृहप्रवेश का शुभ अवसर है. उसी बेटे ने बनवाया है शानदार मकान. मकान क्या है, शानदार शाही बंगला है. जाने कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर लाया है एक से एक बेशकीमती साजोसामान. भीतर से बाहर, हर ओर जगमगाते टाइल्स वाले फर्श. दमकती दीवारें. सामने अहाते में रंगबिरंगे फूलों से महकता बगीचा. पोर्टिको में खड़ी नईनवेली चमचमाती कार. बाजू में 2 दमदार दुपहिया वाहन दोनों पतिपत्नी के. रोबदार अलसेशियन कुत्ता. वैभव ही वैभव.

और मुझे याद आ रहा है उस का वह छोटा सा घर. ससुराल का संयुक्त परिवार वाला घर छूटने के बाद पति की नौकरी में जब वह घर बसाने आईर् थी, तो उसे यही घर मिला था. 2 छोटेछोटे कमरे, एक किचन. छोटा सा बरामदा. उसी से लगा निहायत छोटा सा बाथरूमटौयलेट. बरतन मांजने की जगह नहीं. न ही कपड़े सुखाने की.

हम सभी सहेलियों के वे दिन बड़ी भागदौड़ वाले थे. अपनी गृहस्थी से किसी तरह समय निकाल कर दोचार बार गई थी मैं उस के घर. एकदम अकबका जाती थी. इतने बड़े घर की लड़की, कैसे रहती है इस दड़बे जैसे छोटे से फ्लैट में. मगर वह खुश नजर आती.

तड़के सुबह से रात गए फुरसत ही नहीं उसे तो. मुंहअंधरे ही अपने नित्यकर्म से निबट, नाश्ता तैयार करना, चाय बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना. पति की तैयारी में मदद करना, रूमाल, पेन, डायरी रखना, सब के बैग में टिफिन रखना. सब से अंत में अपने पर्स में टिफिन बौक्स डाल मामूली सी साड़ी लपेट चप्पल फटकारती स्कूल भागना. शाम ढेर सारी कौपियों व सब्जीभाजी के थैलों से लदीफंदी जल्दीजल्दी घर लौटना.

पति, बच्चे सब उस का ही इंतजार करते बारबार दरवाजे पर आ रहे हैं. बाहर निकल कर ताक रहे हैं. उस की छाती खुशी से भर जाती. बच्चों को छाती से लगा झट से काम में जुट जाती. चायनाश्ता खाना. बीचबीच में बरतन साफ करना, पोंछा लगाते जाना. जिस पर सब की अलगअलग फरमाइशें. किसी को पकौड़े चाहिए, किसी को गुलगुले. सब की फरमाइशें पूरी करती सुख सागर में मगन.

ऐसे में कभी कोई सहेली, कोई रिश्तेदार, अतिथि आ जाए तो क्या पूछना. पति उस के भारी मजाकिया. छका डालते अपने मजाकों से सब को. नहले पर दहले भी पड़ते उन पर. वह देखदेख कर विभोर होती.

गृहस्थी का आनंददायक सुख. सुखों से भरे दिन बीतते गए. बच्चे बड़े होते गए. स्कूल, कालेज, नौकरीचाकरी, कामधंधे, शादीब्याह निबटते गए. नातीपोते भी आते गए.

व्यस्तताओं के इस दौर में हमारा संपर्क लंबे अरसे तक नहीं हो पाया. बरसों बाद उसे अपने ही शहर में, अपने ही दरवाजे पर देख कर मेरी तो चीख निकल गई. भरपूर गले मिल कर हम रो लिए. आंसू पोंछ कर मैं पूछने लगी, ‘कैसे आ गई तू अचानक यहां?’

‘मैं तो पिछले कई महीनों से यहां हूं. तेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी.’

‘मेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी? तेरा तो बचपन ही इन्हीं गलियों में बीता है. इसी सामने वाले घर में तो रहते थे तुम लोग.’

‘वह घर तो मेरे नानाजी का था न. शुरू में हम लोग नानाजी के घर में ही रहते थे. बाद में पिताजी भी नौकरी के साथ जगह बदलते रहे. नानाजी की मृत्यु के बाद यह घर बेच दिया गया. हमारा यहां आना भी छूट गया. एकदो बार तुम्हारे ही घर के शादीब्याह के कार्यक्रम में आए थे, तो तुम्हारे ही घर ठहरे थे.

‘अब तो पूरी गली बदल गई है. बिल्ंिडग ही बिल्ंिडग नजर आती हैं. पूरा शहर ही बदल गया है. मुझे तो अपनी गली ही पकड़ में नहीं आ रही थी. एक बुजुर्ग सज्जन से तेरे पिताजी का नाम ले कर पूछा तो वे बेचारे तेरे दरवाजे तक पहुंचा गए. यह भी बता गए कि यह घर तो एक अरसे से सूना पड़ा था, अब उन की लड़की आ कर रहने लगी है. अच्छा किया जो पति का साथ छूटने के बाद यहां आ गई. पिता के उजाड़ सूने घर में दिया जला दिया तूने तो. मगर यहां पुरानी यादें तो सताती होंगी.’

‘खूब. मगर तू बता रही थी कि तू पिछले कई महीने से यहां है. कहां ठहरी है?’

‘खैरागढ़ रोड पर. एक फ्लैट किराए पर लिया है. मेरा लड़का अब उसी तरफ मकान भी बनवा रहा है.’

‘मकान बनवा रहा है? इस शहर में, क्यों?’

‘बहू यहीं शिक्षाकर्मी हो गई है.’

‘और बेटा?’

‘बेटे का काम तो भागमभाग का है. बहू यहीं रहेगी. वह आताजाता रहेगा, यह सोच कर यहीं मकान बनवा रहा है.’

‘करता क्या है लड़का?’

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‘कंप्यूटर से संबंधित कुछ काम करता है. मैं आजकल के कामधंधे ठीक से समझती नहीं. महीने में 25 दिन तो दौरे पर रहता है. कभी कोलकाता, कभी लखनऊ, कभी धनबाद. जाने कहांकहां. घर आता है तो इतना थका रहता है कि मुझ से तो दो बोल भी नहीं बतिया पाता. अब मकान बनाने में भिड़ गया है तो और दम मारने की फुरसत नहीं.’

फिर वह मेरे घर अकसर ही आने लगी. हम बातें करते रहते. बचपन की, कालेज के दिनों की, अपनीअपनी गृहस्थी की. उस के पति अवकाशप्राप्ति के बाद ही सिधार गए थे. बताने लगी, ‘कह गए थे कि उन के भविष्य निधि वगैरह का पैसा दोनों बेटियों में बांट दिया जाए. मगर लड़के ने उन पैसों से मकान के लिए प्लौट खरीद लिया. कह दिया, बहनों को बाद में कमा कर दे देगा सारा पैसा. युद्ध स्तर पर चल रहा है मकान का काम. सारा पैसा उसी में झोंक रहा है. मुझ से स्पष्ट कह दिया, घर का खर्च तो अभी तुम्हें ही चलाना है, मां. वह नहीं कहता तो भी तो मैं करती ही थी अपनी खुशी से. महीनेभर का राशन, शाकसब्जियां, बच्चों की फरमाइशें, अभी तो पूरी पैंशन इसी सब में जा रही है.’

‘और बहू का पैसा?’

‘बाप रे, मैं उन पैसों के बारे में मुंह से नहीं बोल सकती. जाने क्या सोच कर बेटे ने जमीन का प्लौट भी उसी के नाम लिया है. सोचा होगा कुछ.’

और मैं गृहप्रवेश पर उस के घर गई तो दंग रह गई. यह तो राजामहाराजाओं का शाही बंगला लगता है. आखिर इतना पैसा इस के पास आया कहां से.

मगर वह गदगद थी, बोली, ‘‘बच्चा मेरा जिंदगीभर छोटे से दड़बे में रहा है न. सो, अपने सपनों का महल बनाया है. मेरे लिए इस से बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है. आज मेरा बहुत मन हो रहा है कि तुझे तेरी पसंद की साड़ी पहनाऊं.’’

मैं ने फिर वही बात कही कि तेरा इतना ही मन है तो जो इतनी साडि़यां तोहफे में आई हैं, मैं उन्हीं में से एक पसंद कर लेती हूं.

‘‘वे सब तो बहू को तोहफे  में मिली हैं. घर बहू का है. मैं तुझे अपनी तरफ से देना चाहती हूं. अपने पैसों से.’’

अगली शाम वह मुझे जिद कर दुकान ले गई. उस का मन रखने के लिए मैं ने एक साड़ी पसंद कर ली. अब वह कहने लगी कि, ‘‘किसी को बताना मत.’’

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उस की इस बात से मेरा मन खराब हो गया. इधर जब से वह वहां आई थी, उस की स्थिति देख कर मेरा मन खराब ही हो जाता था. उस का घर मेरे घर से काफी दूर था. उस तरफ रिकशा या कोई सवारी मिलती ही न थी. घर में 2 दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती. पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती. मेरे घर में बैठेबैठे घंटों हो जाते, न कोई उसे लेने आता, न खोजखबर लेता. बेटा घर में हो, तब भी नहीं. उलटे, मां को व्यंग्य करता, ‘तुम ही दौड़दौड़ कर सहेली के घर जाती हो. तुम्हारी सहेली तो कभी दर्शन ही नहीं देती.’

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डौलर का लालच : कैसे सेवकराम को ले डूबा मसाज पार्लर का लालच

लेखक- राजेंद्र शर्मा सूदन

सेवकराम फैक्टरी में मजदूर था. वह 12वीं जमात पास था. घर की खस्ता हालत के चलते वह आगे की पढ़ाई नहीं कर सका था, लेकिन उस का सपना ज्यादा पैसा कमा कर बड़ा आदमी बनने का था.

फैक्टरी में लंच टाइम हो गया था. सेवकराम सड़क के किनारे बने ढाबे पर खाना खा रहा था. उस के सामने अखबार रखा था. उस के एक पन्ने पर छपे एक इश्तिहार पर उस की निगाह टिक गई.

इश्तिहार बड़ा मजेदार था. उस में नए नौजवानों को मौजमस्ती वाले काम करने के एवज में 20-25 हजार रुपए हर महीने की कमाई लिखी गई थी. सेवकराम मन ही मन हिसाब लगाने लगा. इस तरह तो वह 5 साल तक भी दिल लगा कर काम करेगा, तो 8-10 लाख रुपए आराम से कमा लेगा.

इश्तिहार में लिखा था कि भारत के मशहूर मसाज पार्लर को जवान लड़कों की जरूरत है, जो विदेशी व भारतीय रईस औरतों की मसाज कर सकें. अच्छा काम करने वाले को विदेशों के लिए भी बुक किया जा सकता है.

इतना पढ़ते ही सेवकराम की आंखों के सामने रेशमी जुल्फें लहराती गोरे गुलाबी तराशे बदन वाली गोरीगोरी विदेशी औरतें उभर आईं, जिन्हें कभी पत्रिकाओं में, फोटो में या फिल्मों में देखा था. अगर उसे काम मिल गया, तो ऐसी खूबसूरत हसीनाओं के तराशे गए बदन उस की बांहों में होंगे. ऐसे में तो उस की जिंदगी संवर जाएगी. फैक्टरी में सारा दिन जान खपाने के बाद उसे 3 हजार रुपए से ज्यादा नहीं मिल पाते. मिल मालिक हर समय काम कम होने का रोना रोता रहता है.

सेवकराम ने उसी समय इश्तिहार के नीचे लिखा मोबाइल नंबर नोट किया और तुरंत फैक्टरी की नौकरी छोड़ने का मन बना लिया.

सेवकराम सीधा दफ्तर गया और बुखार होने का बहाना बना कर 3 दिन की छुट्टी ले ली. इस के बाद वह बाजार गया. वहां पर उस ने 2 जोड़ी नए कपडे़ और जूते खरीदे. वह जब बड़े घरानों की औरतों के सामने जाएगा, तो उस के कपड़े भी अच्छे होने चाहिए.

सेवकराम शाम तक सपनों में डूबा बाजार में घूमता रहा. उस का कमरे पर जाने को मन नहीं हो रहा था. रात का खाना भी उस ने बाहर ढाबे पर ही खाया. वह देर रात कमरे पर गया.

कमरे में 4-5 आदमी एकसाथ रहते थे. उस के तमाम साथी सो गए थे. वह भी अपनी चारपाई पर लेट गया. उस ने अपने साथ वाले लोगों का जायजा लिया कि गहरी नींद में सो गए हैं या नहीं. जब उसे तसल्ली हो गई, तो उस ने इश्तिहार वाला फोन नंबर मिलाया और बात की.

दूसरी तरफ से किसी लड़की की उखड़े हुए लहजे में आवाज गूंजी, ‘इतनी रात गुजरे कौन बेवकूफ बोल रहा है? तुम्हें जरा भी अक्ल नहीं है क्या? सुबह तो होने दी होती… क्या परेशानी है?’

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‘‘मैडमजी, माफ करना. मैं एक परदेशी हूं. हम एक कमरे में 4-5 लोग रहते हैं. मैं आप से चोरीछिपे बात करना चाहता था, इसलिए उन के सोने का इंतजार करता रहा. मैं ने आप का इश्तिहार अखबार में पढ़ा था. मैं आप के मसाज पार्लर में काम करना चाहता हूं. मुझे काम की सख्त जरूरत है.’’ सेवकराम ने बेहद नरम लहजे में कहा था. इस से दूसरी तरफ से बोल रही लड़की की आवाज में भी मिठास आ गई थी. ‘ठीक है, तुम ने हमारा इश्तिहार पढ़ा होगा. हमारे मसाज पार्लर की कई जवान औरतें, लड़कियां हमारी ग्राहक हैं, जिन की मसाज के लिए हमें जवान लड़कों की जरूरत रहती है. तुम बताओ कि मर्दों की मसाज करोगे या जवान औरतों की?’

यह सुनते ही सेवकराम रोमांचित हो उठा. उसे तो ऐसा महूसस हुआ, जैसे उसे नौकरी मिल गई है. उस की आवाज में जोश भर उठा. वह शरमाते हुए बोला, ‘‘मैडमजी, मेरी उम्र 30 साल है. मुझे जवान औरतों की मसाज करना अच्छा लगता है. मैं अपना काम मेहनत और ईमानदारी से करूंगा.’’

‘ठीक है, तुम्हें काम मिल जाएगा. बस, इतना ध्यान रखना होगा कि उस समय कोई शरारत नहीं होनी चाहिए, वरना नौकरी से निकाल दिए जाओगे,’ दूसरी तरफ से बेहद सैक्सी अंदाज में जानबूझ कर चेतावनी दी गई, तो सेवकराम रोमांटिक होते हुए बोला, ‘‘जी, मैं अपना काम समझ कर करूंगा. मेरे मन में उन के लिए कोई गलत भावना नहीं आएगी.’’

‘ठीक है, तुम्हारा नाम मैं रजिस्टर में लिख लेती हूं. कल दिन में तुम करिश्मा बैंक में 10 हजार रुपए हमारे खाते में जमा करा दो. रुपए जमा होते ही तुम्हारा एक पहचानपत्र भी बनाया जाएगा. जिसे दिखा कर तुम देश के किसी भी शहर में काम के लिए जा सकते हो,’ उधर से निर्देश दिया गया.

यह सुन कर सेवकराम कुछ परेशान हो गया और बोला, ‘‘मैडमजी, 10 हजार रुपए तो कुछ ज्यादा हैं.’’ ‘ठीक है, फिर हम तुम्हारा पहचानपत्र नहीं बनाएंगे. अगर तुम्हें पुलिस ने पकड़ लिया, तो क्या जेल जाना पसंद करोगे?’

‘‘क्या ऐसा भी हो जाता है मैडमजी?’’ सेवकराम ने थोड़ा घबराते हुए पूछा.

‘ऐसा हो जाता है सेवकरामजी. ये परदे में करने वाले काम हैं. पुलिस पकड़ लेती है. बोलो, क्या तुम पुलिस के चक्कर में फंसना चाहते हो?’

‘‘ठीक है मैडमजी, मैं कल ही 10 हजार रुपए जमा करा दूंगा. बस, आप मेरा पहचानपत्र बनवा कर तुरंत काम पर बुलाइए. मैं ज्यादा दिन बेरोजगार नहीं रह सकता,’’ सेवकराम ने कहा, तो फोन कट गया.

उस रात सेवकराम सो नहीं सका. उस के दिलोदिमाग में खूबसूरत, जवान औरतों के दिल घायल करते हुए जिस्मों के सपने छाए रहे. सारी रात ऐसे ही गुजर गई.

अगले दिन सेवकराम सीधे बैंक पहुंचा और अपनी पासबुक से 20 हजार रुपए निकाले. 10 हजार रुपए तो उस ने रात फोन पर बताए गए खाते में जमा करा दिए और बाकी के 10 हजार रुपए अपने खर्चे के लिए रख लिए. अब वह लाखों रुपए कमाएगा.

सेवकराम को तो अब मसाज पार्लर के दफ्तर से फोन आने का इंतजार था. इसी इंतजार में 4-5 दिन गुजर गए, मगर उस औरत का फोन नहीं आया.

सेवकराम को अब बेचैनी होना शुरू हो गई. उस ने 10 हजार नकद खाते में जमा कराए थे. इंतजार की घडि़यां काटनी मुश्किल होती हैं, फिर भीउस ने 7 दिनों तक इंतजार किया.

आखिर में सेवकराम ने ही फोन कर के पूछा, तो दूसरी तरफ से किसी औरत की आवाज गूंजी, मगर वह आवाज पहले वाली नहीं थी. उस के बात करने का लहजा जरा कड़क और गंभीर था.

‘‘क्या बात है मैडमजी, मुझे 10 हजार रुपए आप के खाते में जमा कराए 7-8 दिन गुजर गए हैं. अभी मेरा परिचयपत्र भी नहीं मिला है. मुझे काम की सख्त जरूरत है.’’

‘आप बेफिक्र रहें. आप का परिचयपत्र तैयार है. हमारी मसाज पार्लर कमेटी ने एक टीम बनाई है, जिस में आप का नाम भी शामिल है. इस टीम को विदेशों में भेजा जाएगा.’

सेवकराम खुशी से उछल पड़ा. वह चहकते हुए बोला, ‘मैडमजी, जल्दी से टीम को काम दिलाओ. विदेश में तो काम करने के डौलर मिलेंगे न?’’

‘हां, वहां से तो तुम लोगों की पेमेंट डौलरों में होगी,’ औरत ने बताया, तो थोड़ी देर के लिए सेवकराम सीने पर हाथ रख कर हिसाब लगाता रहा. आंखों के सामने नोटों के बंडल चमकते रहे. अपनी बेताबी जाहिर करते हुए उस ने पूछा, ‘‘अब देर क्यों की जा रही है? हम तो काम के लिए कहीं भी जाने को तैयार हैं.’’

‘आप सब के परिचयपत्र मंजूरी के लिए विदेश मंत्रालय भेजे जाने हैं. अगर भारत सरकार से मंजूरी मिल गई, तो तुम लोग किसी भी देश में बेधड़क हो कर काम कर सकते हो, मगर भारत सरकार की मंजूरी दिलाने के लिए 20 हजार रुपए का खर्चा आएगा. आप को 20 हजार रुपए उसी खाते में जमा कराने होंगे.’

‘‘मैडमजी, इतनी बड़ी रकम तो बहुत ज्यादा है. हम तो गरीब आदमी हैं,’’ सेवकराम की तो मानो हव  निकल गई थी. उस का जोश ढीला पड़ने लगा था.

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‘हम मानते हैं कि 20 हजार रुपए ज्यादा हैं, मगर यह सोचो कि जब तुम अलगअलग देशों में जाओगे, वहां से वापस आने पर लाखों रुपए ले कर आओगे. सोच लो, अगर विदेश नहीं जाना चाहते हो, तो रहने दो,’ औरत ने दूसरी तरफ से कहा, तो सेवकराम पलभर के लिए खामोश रहा, फिर जल्दी ही वह बोला, ‘‘ठीक है, मैं 20 हजार रुपए आप के खाते में जमा करा दूंगा. बस, मेरा काम सही होना चाहिए.’’

सेवकराम ने ठंडे दिमाग से सोचा, तो उसे यह काम फायदे का लगा. बेशक, 20 हजार रुपए उस के पास नहीं थे, फिर भी अगर उधार उठा कर लगा देगा, तो बाहर के पहले टूर में लाखों रुपए वारेन्यारे कर देगा, इसलिए 20 हजार रुपए उन के खाते में जमा कराना ही फायदे में रहेगा.

सेवकराम ने इधरउधर से रुपए उधार लिए और उसी खाते में जमा करा दिए. अब वह इंतजार करने लगा. उसे यकीन था कि उसे बुलाया जाएगा.

सेवकराम को इंतजार करतेकरते 10 दिन गुजर गए. सेवकराम के मन में तमाम तरह के खयाल आ रहे थे. वह इस मुगालते में था कि दफ्तर वाले खुद फोन करेंगे. वह महीने भर से काम छोड़ कर बैठा था. जमापूंजी खर्च हो चुकी थी. ऊपर से 20 हजार रुपए का कर्जदार और हो गया था.

काफी इंतजार करने के बाद सेवकराम ने उसी फोन नंबर पर फोन किया, तो मोबाइल बंद मिला. काफी कोशिश करने के बाद भी उस नंबर पर बात नहीं हुई. उस के पैरों तले जमीन खिसक गई.

वह उसी पल उस बैंक में गया, जहां अजनबी खाते में उस ने 30 हजार रुपए जमा कराए थे. वहां से पता चला कि वह खाता वहां से 5 सौ किलोमीटर दूर किसी शहर में किसी बैंक का था. अब उस खाते में महज 4 रुपए कुछ पैसे बाकी थे.

सेवकराम थाने में गया, लेकिन पुलिस ने उस की शिकायत लिखने की जरूरत नहीं समझी. थकहार कर वह कमरे पर लौट आया. विदेशों में जा कर खूबसूरत औरतों की मसाज करने के एवज में लाखों डौलर कमाने के चक्कर में सेवकराम ने अपनी जमापूंजी गंवा दी, साथ ही 20 हजार रुपए का कर्जदार भी हो गया. लालच में वह न तो घर का रहा और न घाट का.

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