बेवजह: दूसरे का अंतर्मन टटोलना आसान है क्या?

‘‘तू ने वह डायरी पढ़ी?’’ प्राची ने नताशा से पूछा.

‘‘हां, बस 2 पन्ने,’’ नताशा ने जवाब दिया.

‘‘क्या लिखा था उस में?’’

’’ज्यादा कुछ नहीं. अभी तो बस 2 पन्ने ही पढ़े हैं. शायद किसी लड़के के लिए अपनी फीलिंग्स लिखी हैं उस ने.’’

‘‘फीलिंग्स? फीलिंग्स हैं भी उस में?‘‘ प्राची ने हंसते हुए पूछा.

‘‘छोड़ न यार, हमें क्या करना. वैसे भी डायरी एक साल पुरानी है. क्या पता तब वह ऐसी न हो,’’ नताशा ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘अबे रहने दे. एक साल में कौन सी कयामत आ गई जो वह ऐसी बन गई. तू ने भी सुना न कि उस के और विवान के बीच क्या हुआ था. और अब उस की नजर तेरे अमन पर है. मैं बता रही हूं उसे तान्या के साए से भी दूर रख, तेरे लिए अच्छा होगा.’’

‘‘हां,’’ नताशा ने हामी भरी.

‘‘चल तू यह डायरी जल्दी पढ़ ले इस से पहले कि उसे डायरी गायब होने का पता चले. कुछ चटपटा हो तो मु झे भी बताना,’’ कहते हुए प्राची वहां से निकल गई.

नताशा कुछ सोचतेसोचते लाइब्रेरी में जा कर बैठ गई. 2 मिनट बैठ कर वह तान्या के बारे में सोचने लगी. उस के मन में तान्या को ले कर कई बातें उमड़ रही थीं. आखिर तान्या की डायरी में जो कुछ लिखा था उस की आज की सचाई से मिलताजुलता क्यों नहीं था? क्यों तान्या उसे कभी भी अच्छी नहीं लगी. वह एक शांत स्वभाव की लड़की है जो किसी से ज्यादा मतलब नहीं रखती. लेकिन, विवान के साथ उस का जो सीन था वह क्या था फिर.

पिछले साल कालेज में हर तरफ तान्या और विवान के किस्से थे. तान्या और विवान एकदूसरे के काफी अच्छे दोस्त थे. हालांकि, हमेशा साथ नहीं रहते थे पर जब भी साथ होते, खुश ही लगते थे. पर कुछ महीनों बाद तान्या और विवान का व्यवहार काफी बदल गया था. दोनों एकदूसरे से कम मिलने लगे. जबतब एकदूसरे के सामने आते, यहांवहां का बहाना बना कर निकल जाया करते थे. किसी को सम झ नहीं आया असल में हो क्या रहा है. फिर 2 महीने बाद नताशा को प्राची ने बताया कि तान्या और विवान असल में एकदूसरे के फ्रैंड्स विद बैनिफिट्स थे. उन दोनों ने कानोंकान किसी को खबर नहीं होने दी थी, लेकिन उसे खुद विवान ने एक दिन यह सब बताया था. उन दोनों के बीच यह सब तब खत्म हुआ जब तान्या ने ड्रामा करना शुरू कर दिया. ड्रामा यह कि वह हर किसी को यह दिखाती थी कि वह बहुत दुखी है और इस की वजह विवान है. वह तो बिलकुल पीछे ही पड़ गई थी विवान के.

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नताशा को यह सब सुन कर तान्या पर बहुत गुस्सा आया था. उस जैसी शरीफ सी दिखने वाली लड़की किसी के साथ फ्रैंड्स विद बैनिफिट्स में रहेगी और फिर पीछे भी पड़ जाएगी, यह उस ने कभी नहीं सोचा था. जब क्लासरूम में डैस्क के नीचे उसे तान्या की डायरी पड़ी मिली तो वह उसे पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाई. वह बस यह जानना चाहती थी कि आखिर यह तान्या डायरी में क्या लिखती होगी, अपने और लड़कों के किस्से या कुछ और.

लाइब्रेरी में बैठेबैठे ही नताशा ने वह डायरी पढ़ ली. डायरी पूरी पढ़ते ही उस ने अपना फोन उठाया और प्राची को कौल मिला दी.

‘‘हैलो,’’ प्राची के फोन उठाते ही नताशा ने कहा.

‘‘हां, बोल क्या हुआ,’’ प्राची ने पूछा.

‘‘जल्दी से लाइब्रेरी आ.’’

‘‘हां, पर हुआ क्या?’’

‘‘अरे यार, आ तो जा, फिर बताती हूं न.’’

‘‘अच्छा, रुक, आई,’’ प्राची कहते हुए लाइब्रेरी की तरफ बढ़ गई.

प्राची नताशा के पास पहुंची तो देखा कि वह किसी सोच में डूबी हुई है. प्राची उस की बगल में रखी कुरसी पर बैठ गई.

‘‘बता, क्या हुआ,’’ प्राची ने कहा.

‘‘यार, हम ने शायद तान्या को कुछ ज्यादा ही गलत सम झ लिया.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि तू यह डायरी पढ़. तू खुद सम झ जाएगी कि मैं क्या कहना चाहती हूं और यह भी कि तान्या के बारे में हम जो कुछ सोचते हैं, सचाई उस से बहुत अलग है. तू बस यह डायरी पढ़, अभी इसी वक्त,’’ नताशा ने प्राची को डायरी थमाते हुए कहा.

‘‘हां, ठीक है,’’ प्राची ने कहा और डायरी हाथ में ले कर पढ़ना शुरू किया.

5/9/18

कितना कुछ है जो मैं तुम से कहना चाहती हूं, कितना कुछ है जो तुम्हें बताना चाहती हूं, तुम से बांट लेना चाहती हूं. पर तुम कुछ सम झना नहीं चाहते, सुनना नहीं चाहते, कुछ कहना नहीं चाहते. मैं खुद को बहुत छोटा महसूस करने लगी हूं तुम्हारे आगे. ऐसा लगने लगा है कि मेरी सारी सम झ कहीं खो गई है. मेरी उम्र उतनी नहीं जिस में मु झे बच्चा कहा जा सके. बस, 18  ही तो है. उतनी भी नहीं कि मु झे बड़ा ही कहा जाए. इस उम्र में कुछ दीनदुनिया भुला कर जी रहे हैं, कुछ नौकरी कर रहे हैं, कुछ पढ़ रहे हैं तो कुछ प्यारव्यार में पड़े हैं.

मैं किस कैटेगरी की हूं, मु झे खुद को सम झ नहीं आ रहा. शायद उस कैटेगरी में हूं जिस में सम झ नहीं आता कि जिंदगी जा किस तरफ रही है. ऐसा लग रहा है कि बस चल रही है किसी तरह, किसी तरफ. मेरे 2 रूप बन चुके हैं, एक जिस में मैं अच्छीखासी सम झदार लड़की हूं और अपने कैरियर के लिए दिनरात मेहनत कर रही हूं. दूसरा, जहां मैं किसी को पाने की चाह में खुद को खो रही हूं और ऐसा लगने लगा है कि मेरा दिमाग दिनबदिन खराब हुआ जा रहा है.

कैसी फिलोसफर सी बातें करने लगी हूं मैं, है न? तुम हमेशा कहते रहते हो कि मैं इस प्यार और दोस्ती जैसी चीजों में माथा खपा रही हूं, यह सब मोहमाया है जिस में मैं जकड़ी जा रही हूं. पर तुम यह क्यों नहीं देखते कि मैं अपने कैरियर पर भी तो ध्यान दे रही हूं, पढ़ती रहती हूं, हर समय कुछ नया करने की कोशिश करती हूं. तुम्हारी हर काम में मदद भी तो करती हूं मैं, अपने खुले विचार भी तो रखती हूं तुम्हारे सामने. यह सबकुछ नजर क्यों नहीं आता तुम्हें?

शायद तुम सिर्फ वही देखते हो जो देखना चाहते हो. लेकिन, अगर मेरे इस प्यारव्यार से तुम्हें कोई मतलब ही नहीं है, फिर मु झ में तुम्हें बस यही क्यों नजर आता है, और कुछ क्यों नहीं?

13/9/18

मैं सम झ चुकी हूं कि तुम्हें मु झ से कोई फर्क नहीं पड़ता. अच्छी बात है. मैं ही बेवकूफ थी जो तुम्हारे साथ पता नहीं क्याक्या ही सोचने लगी थी. जो कुछ भी था हमारे बीच उसे मैं हमारी दोस्ती के बीच में नहीं लाऊंगी. लेकिन, तुम्हें नहीं लगता कि उस बारे में अगर हम कुछ बात कर लेंगे तो हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा. मु झे ऐसा लगने लगा है जैसे तुम ने मु झे खुद को छूने दिया, लेकिन मन से हमेशा दूर रखा. मैं तुम्हारे करीब हो कर भी इतना दूर क्यों महसूस करती हूं. जो सब मैं लिखती हूं, वह कह क्यों नहीं सकती तुम से आ कर.

5/10/18

हां, मैं ने हां कहा तुम्हें बारबार, पर सिर्फ तुम्हें ही कहा, यह तो पता है न तुम्हें. मैं तुम्हें तब गलत क्यों नहीं लगी जब मैं ने यह कहा था कि मैं तुम्हें चाहने लगी हूं, लेकिन तुम्हें मजबूर नहीं करना चाहती कि तुम मु झ से जबरदस्ती रिश्ते में बंधो. याद है तब तुम ने क्या कहा था कि तुम भी मु झ में इंटरेस्टेड हो लेकिन किसी रिश्ते में पड़ कर मु झे खोना नहीं चाहते. मैं इतना सुन कर भी बहुत खुश हुई थी. मु झे लगा था अगर 2 लोग एकदूसरे में इंटरैस्ट रखते हों, तो फिर तो कोई परेशानी ही नहीं है.

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मैं ने बस इतना सोचा कि तुम्हें मेरी फिक्र है, तुम मु झे खोना नहीं चाहते और इतना शायद दोस्ती से बढ़ कर कुछ सम झने के लिए काफी है. फिर, जब तुम मु झे अचानक से ही नजरअंदाज करने लगे, मु झ से नजरें चुराने लगे, और मैं ने गुस्से में तुम्हें यह कहा कि तुम ने मु झे तकलीफ पहुंचाई है, तो तुम मु झे ही गलत क्यों कहने लगे?

23/10/18

एक दोस्त हो कर अगर तुम एक दोस्त के साथ सैक्स करने को गलत नहीं मानते, तो मैं क्यों मानूं? नहीं लगा मु झे कुछ गलत इस में, तो नहीं लगा. पर मैं ने यह भी तो नहीं कहा था न कि मेरे लिए तुम सिर्फ एक दोस्त हो. यह तो बताया था मैं ने कि तुम्हारे लिए बहुतकुछ महसूस करने लगी हूं मैं. फिर तुम ने यह क्यों कहा कि मेरी गलती है जो मैं तुम से उम्मीदें लगाने लगी हूं.

26/10/18

नहीं, तुम सही थे. ऐसा कुछ था ही नहीं जिसे ले कर मु झे दुखी होना चाहिए. आखिर हां तो मैं ने ही कहा था. फैं्रड्स विद बैनिफिट्स ही था वह. अगर कुछ दिन पहले पूछते तुम मु झ से कि मैं दुखी हूं या नहीं तो मैं कहती कि मैं बहुत दुखी हूं, मर रही हूं तुम्हारे लिए. लेकिन अब मैं ऐसा नहीं कहूंगी. बल्कि कुछ नहीं कहूंगी. और कहूं भी क्यों जब मु झे पता है कि तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा. मैं भी कोशिश कर रही हूं कि मु झे भी फर्क न पड़े.

हां, जब भी कालेज की कैंटीन में तुम्हें किसी और से उसी तरह बात करते देखती हूं जिस तरह खुद से करते हुए देखा करती थी तो बुरा लगता है मु झे. वह हंसी जो तुम मेरे सामने हंसा करते थे. सब याद आता है मु झे, बहुत याद आता है. पर यह सब मैं तुम्हें नहीं बताना चाहती, अब नहीं.

2/11/18

तुम्हारी गलती नहीं थी, मु झे सम झ आ गया है. तुम मु झे नहीं चाहते और इस में तुम्हारी गलती नहीं है और न ही मेरी है. उस वक्त हम एकदूसरे को छूना चाहते थे, महसूस करना चाहते थे, सीधे शब्दों में सैक्स करना चाहते थे, जो हम ने किया. मैं न तुम्हें सफाई देना चाहती हूं कोई और न किसी और को. अब अगर तुम ने या किसी ने भी मु झ से यह पूछा कि मैं ने हां क्यों की थी तो मेरा जवाब यह नहीं होगा कि मैं तुम्हें चाहने लगी थी.  मेरा जवाब होगा कि मैं तुम्हारे साथ सैक्स करना चाहती थी, जो मैं ने किया, और मु झे नहीं लगता कि इस में कुछ भी गलत है.

तुम किसी को बताना चाहो तो बता दो, अब मु झे फर्क पड़ना बंद हो चुका है. मु झे अगर अपनी इच्छाओं और  झूठी शान में से कुछ चुनना हो तो मैं अपनी इच्छाएं ही चुनूंगी, हमेशा. लेकिन, मैं तुम से अब कभी उस तरह नहीं मिलूंगी जिस तरह कभी मिलती थी. उस तरह बातें नहीं करूंगी जिस तरह किया करती थी. तुम्हारे लिए वैसा कुछ फील नहीं करूंगी जो कभी करती थी. सब बेवजह था, मैं सम झ चुकी हूं.

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कुकरिया: क्या बेजुबानों से सबक ले पाए मानव?

हमारा घर बन रहा था, गुमानसिंह और रानो नए घर की चौकीदारी भी करते और मजदूरी भी. उन के 3 छोटेछोटे बच्चों के साथ एक कुतिया भी वहीं रहती थी जिसे वे ‘कुकरिया’ के नाम से बुलाते थे. इधर मेरे घर में भी एक पामेरियन पपी ‘पायल’ थी, जब से वह मेरे घर आई तब से मैं कुकरा जाति की बोली, भाषा सीख गई और मुझे इस जाति से लगाव भी हो गया. इन की भावनाएं और सोच भी मनुष्य जैसी होती हैं, यह सब ज्ञान मुझे पायल से मिला इसलिए मैं उसे अपना गुरु भी मानती हूं.

शुरू में पायल कुकरिया को देखते ही भगा देती थी, वह ‘कूंकूं’ कर गुमानसिंह की झोंपड़ी में छिप जाती, लेकिन धीरेधीरे दोनों हिलमिल गए. हमारे घर पहुंचते ही कुकरिया अपने दोनों पंजे आगे फैला कर अपनी गरदन झुका देती और प्यार से वह पांवों में लोट कर अपनी पूंछ हिलाती. मैं अपना थैला उसे दिखा कर कहती, ‘‘हांहां, तेरे लिए भी लाई हूं. चल, पहले मुझे आने तो दे.’’

मैं अपने निर्माणाधीन मकान के पिछवाड़े झोंपड़ी की ओर चल देती. रानो मेरे लिए झटपट खाट बिछा देती. रानो और उस के बच्चे भी कुकरिया के साथ मेरे पास आ कर जमीन पर बैठ जाते. अपनाअपना हिस्सा पा कर बच्चे छीनाझपटी करते, लेकिन पायल अपना अधिकतर हिस्सा छोड़ अपने पापा (मेरे पति) के पास चली जाती. कुकरिया अपना हिस्सा खा कर कभी भी पायल का हिस्सा नहीं खाती थी. बस, गरदन उठा कर पायल की ओर ताकती रहती, मैं 2-3 बार पायल को पुकारती.

‘‘ऐ पायलो, पायलिया…चलो बेटा, मममम खाओ. अच्छा, नहीं आ रही है तो मैं यह भी कुकरिया को दे दूं?’’

इस बीच मेरे पति को यदि मेरी बात सुनाई दे जाती तो वे भी पायल को टोकते, लेकिन पायल आती और अपने अधखाए खाने को सूंघ कर वापस चली जाती. पर कभीकभी तो वह इन के दुलारने पर भी नहीं आती. वे उस की हठीली मुद्रा देख वहीं से पूछते, ‘‘क्या है? पायल पापा के साथ काम करा रही है, उसे नहीं खाना. तुम कुकरिया को दे दो, वह खा लेगी.’’

तब मेरा ध्यान उन दोनों से हट कुकरिया की ओर जाता और मैं उस से कहती, ‘‘चल, ऐ कुकरिया, चल बेटी, यह भी तू ही खा ले. वह एक बार मुझे देखती और फिर पायल को, उस की मौन स्वीकारोक्ति को वह समझ जाती और निश्ंिचत हो उस चीज को खाने लगती. ऐसा रोज ही होता था. अपनी चीज को इतनी आसानी से कुकरिया को देने के पीछे पायल की शायद यह ही मंशा रही होगी कि घर में जो मुझे मिलता है वह इस बेचारी को कहां मिलता है जबकि घर में पायल अपनी मनपसंद वस्तु पाने के लिए मेरे आगेपीछे घूमती या मेरे दोनों बच्चों के पास जा, गरदन को झटका दे तिरछी नजरें कर उन्हें अपने स्वर में बताती कि मुझे और चाहिए. हम शाम 6 बजे वहां से चलते तो कुकरिया हमें गली के नुक्कड़ तक छोड़ने आती और जब हमारी गाड़ी सड़क पर भागने लगती तो पायल और कुकरिया एकदूसरी को नजरों से ओझल होने तक देखती रहतीं.

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एक बार मैं बीमार पड़ गई. 15 दिन तक वहां नहीं गई. जिस दिन गई उस दिन रविवार था. मैं ने देशी घी के परांठे सेंक कर रख दिए, उस दिन मेरे बच्चे भी साथ गए. कुकरिया मुझे देखते ही मेरे पांवों में ऐसी झपटी कि अपने बचाव में मेरा थैला तक हाथ से छूट गया. मेरा एक कदम बढ़ाना भी दूभर हो गया, बारबार उस के पंजे मेरे ऊपर तक आते, वह बारबार मेरी पीठ, कंधे, गरदन तक चढ़ी जा रही थी, मेरे बच्चे भी डर से चीख उठे, ‘‘मां, मां…पापा बचाओ.’’

कुछ मजदूर, गुमानसिंह और मेरे पति मेरी तरफ दौड़े, सब ने उसे अपनेअपने ढंग से धमकाया, फिर न जाने कैसे वह शीघ्र ही मुझे छोड़ अपनी झोंपड़ी में घुस गई. सभी आश्चर्यचकित थे कि आखिर ऐसा उस ने क्यों किया? हम सभी को उस की यह हरकत बड़ी दिल दहला देने वाली लगी, लेकिन मुझे एक खरोंच तक नहीं आई थी, मुझे ठीकठाक देख धीरेधीरे सभी अपने काम में लग गए. मेरी बेटी ने अपने गालों पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बाप रे, यह आप को खा जाती तो?’’

कुकरिया मुझे खाट पर बैठा देख बड़ी शालीनता से मेरे पास आई लेकिन अब उस की दशा ऐसी हो गई मानो उस पर घड़ों पानी पड़ा हो, गरदन झुका कर वह तेजी से मेरी खाट के नीचे घुस गई. मेरे बेटे को पायल से बदला लेने का आज अच्छा मौका मिला था, इसलिए उस ने पायल को पुकारा क्योंकि मुझे ले कर उस का और पायल का पहले से ही बैर था. मेरी बेटी के मुझ से चिपक कर लेटने पर पायल भी हमारे बीच घुस कर अपनी जगह बना लेती, लेकिन बेटा कभी पास बैठना भी चाहता तो पायल से सहन नहीं होता, उस के भूंकने पर भी जब वह मुझे नहीं छोड़ता तो पायल उस के पैरों में ऐसे लोटपोट हो जाती कि वह अपने बचाव में दरवाजा पकड़ कर लटक जाता और पैर ऊपर सिकोड़ लेता.

‘‘सौरी पायल, सौरी पायल,’’ कह वह अपनी जान बचाता, कभी वह उसे चिढ़ाने के लिए कहता, ‘‘मां, मेरी मां.’’

तब पायल उसे गुर्रा कर चेतावनी देती, वक्रदृष्टि और मसूढ़ों तक चमके दांतों को दिखा कर वह सावधान कर देती, ऐसी स्थिति में और दरवाजे से कूदने पर वह पैर पटक हट या धत कहता पर इस से अधिक उस का वश नहीं चलता. 3 ईंटों की कच्ची दीवार को पार करते हुए पायल को अपनी ओर आता देख उस ने पायल को डांट लगाई, ‘‘क्यों, यहां उस से डर गई. टीले पर खड़ी तमाशा देखती रही नालायक, मुझ पर तो बड़ी शेरनी बनती है.’’

बेटे की डांट खा वह मेरी खाट के पास मौन हो और कुकरिया खाट के नीचे से एकदूसरे को टुकुरटुकुर देखती रहीं. मैं ने नीचे झांक कर देखा तो कुकरिया की दृष्टि लज्जित और पायल की विवशता उस की भारी हो आई पलकों से झलक रही थी. बायोटैक्नोलौजी और 12वीं में पढ़ने वाले बुद्धिजीवी भाईबहन जिस बात को नहीं समझ सके वह पायल जान गई थी कि कुकरिया ने ऐसा क्यों किया? वह उस का आक्रमण नहीं बल्कि आग्रह था कि इतने दिन आप क्यों नहीं आईं? मैं बोल नहीं सकती वरना जरूर पूछती कि आप कहां थीं?  रानो चाय बना कर लाई थी, मैं ने साथ लाई चीजें ठंडे परांठों सहित सब को बांट दीं. बच्चे उठ कर घर देखने चले गए. तब वह खाट के नीचे से निकली और सहमते हुए एक टुकड़ा मुंह में दबाया, परांठा चबाते हुए थोड़ी गरदन तिरछी कर उस की खुली आंखें मुझ से उस कृत्य के लिए क्षमा याचना कर रही थीं. उस की मनोदशा देख मैं ने उस का सिर सहला दिया.

11 महीने तक हमारा गृहनिर्माण कार्य चला, इस दौरान कई बार ऐसा हुआ कि मैं वहां नियमित रूप से नहीं जा पाई, ये मुझे आ कर बताते, ‘‘मैं उसे खाना देता हूं तो वह खाती नहीं है, तुम्हें ढूंढ़ती है, जब मैं उस से कहता हूं कि मां आज नहीं आई है बेटा, तब वह खाना खाती है.’’ अगले दिन जब मैं वहां पहुंचती तो कुकरिया रिरिया कर अजीब आवाज में अपनी नाराजगी व्यक्त करती.

‘‘तुम्हें मेरी जरा भी चिंता नहीं है मां, मैं तुम्हें रोज याद करती हूं,’’ मैं उसे अपनी भाषा में बता उस का सिर सहलाने लगती, तब वह सामान्य होतेहोते अपना कूंकूंअंऊं का स्वर मंद कर देती और अपनी बात खत्म कर कहती, ‘‘चलो, ठीक है, लेकिन आप से मिले बिना रहा नहीं जाता. एक आप ही तो हैं जो मुझे प्यार करती हैं,’ उस की हांहूंऊंआं को मैं अब अच्छी तरह समझने लगी थी.

घर बन चुका था, पर अभी गृहप्रवेश नहीं हो पाया था. चौकीदार अपना हिसाब कर सप्ताह के अंदर कहीं और जाने वाला था. मुझे कुकरिया से लगाव हो गया था, मैं ने रानो से पूछा, ‘‘क्या तुम इसे भी अपने साथ ले जाओगी?’’ उस ने न में सिर हिलाया और अपनी निमाड़ी मिश्रित हिंदी भाषा में उत्तर दिया, ‘‘इस को वां नईं ले जाइंगे.’’

मैं पल भर के लिए खुश तो हुई लेकिन तुरंत ही व्याकुल हो कर पूछ बैठी, ‘‘तो यह यहां अकेली कैसे रहेगी?’’ रानो उदास हो कर बोली, ‘‘अब किया करेंगे? अम्म जहां बी जाते हैं, ऐसे कुत्ते म्हां आप ही आ जाते हैं.’’

अब मुझे कुकरिया की चिंता सताने लगी क्योंकि यह कालोनी शहर से दूर थी, अभी तक यहां सिर्फ 3 ही घर बने थे, बाकी 2 घरों में भी अभी कोई नहीं आया था, वे बंद पड़े थे और अब हमारे घर में भी ताला लग जाएगा, फिर यहां रोज कौन आएगा. अभी तक वहां पायल और कुकरिया के खौफ से कोई परिंदा भी पर नहीं मारता था, भूलाभटका कोई आ भी जाता तो इन की वजह से दुम दबा कर भागता नजर आता. मेरी दृष्टि में अकेलापन एक अवांछित दंड है, अब मुझे कुकरिया की चिंता सताने लगी, क्योंकि किराए के घर में तो हम उसे ले नहीं जा सकते.

चलते समय बड़ी व्यग्र दृष्टि से कुकरिया ने मुझे देखा. घर पहुंच कर इन्होंने मेरी परेशानी का कारण पूछा तो मैं ने बता दिया. सुन कर ये भी चिंतित हो गए लेकिन जल्दी ही इन्होंने एक रास्ता निकाला और मुझ से कहा, ‘‘गुमानसिंह को हम कुछ समय तक ऐसे ही 200 रुपए सप्ताह देते रहेंगे, वह जहां भी जाएगा उसे यही मजदूरी मिलेगी, यहां हमारे सूने घर की रखवाली भी होती रहेगी और कुकरिया को भी फिलहाल आश्रय मिल जाएगा.’’

दूसरे दिन गुमानसिंह के आगे हम ने यह प्रस्ताव रखा तो वह भी सहज तैयार हो गया. अगले महीने हमारी कालोनी में सड़क किनारे एक होटल, होस्टल और 4 घरों का निर्माण कार्य शुरू हुआ. हमारे घर के पास के 2 घरों का काम भी गुमानसिंह को मिला. ईंटसीमेंट का ट्रक आनेजाने के लिए उन लोगों ने उधर का कच्चा और ऊबड़खाबड़ रास्ता भी ठीक करवा लिया. अब रोज ही वहां पड़ोसी गांव के चरवाहे, उन के पशु हमारी कालोनी में भी घूमते दिख जाते. यह वातावरण देख मुझे बहुत संतोष होता.

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एक बार दीवाली की छुट्टियों में हम लोग पूरे 1 महीने बाद मथुरा से लौट कर आए. मैं मिठाई ले वहां पहुंची, तब रानो ने बताया, ‘‘तुम्हारे जाने के बाद कुकरिया ने बच्चे दिए हैं.’’ इतने में कुकरिया भी भीतर से निकली और मुझे देखते ही मेरे पैरों में लिपट गई. मैं उसे खाने की चीजें डाल पुलिया में झांक कर उस के बच्चे देखने लगी. पूरे 6 बच्चों की मां कुकरिया फिर मेरे पैर चाट अपने बच्चों को दूध पिलाने बैठ गई.

यह देख रानो ने कहा, ‘‘यहां ये किसी को नईं आने देती. बूंकती है, तुम्म पर नईं बूंकी.’’

कुछ दिन बाद हम ने भी अपने नए घर में प्रवेश किया, वहां जा कर हम सब ने कुकरिया का भी खयाल रखा. लेकिन तब तक वहां बाहर के और भी बड़े कुत्ते आने लगे थे, वे कुकरिया और उस के बच्चों की रोटी झपट कर खा जाते, 10-10 रोटियों में से भी कुकरिया को कभी एक टुकड़ा तक नहीं मिल पाता. उन आवारा कुत्तों को भगाने के सारे प्रयास विफल हो रहे थे. मेरा डंडा देख वे बरामदे पर नहीं चढ़ते लेकिन उन छोटे पिल्लों और कुकरिया को ऐसे डराते कि उन की खाई रोटी अंग नहीं लगती.

हम सब में प्रचंड शक्ति है, लेकिन पारिवारिक दायित्वों के बोझ तले मनुष्य तो क्या पशुपक्षी भी कमजोर पड़ जाते हैं, कुकरिया जब तक अकेली रही, शेरनी की तरह रही, लेकिन अब अपने बच्चों की खातिर वह भी कमजोर पड़ी. उसे अपनी चिंता नहीं थी, पर जब उस के निर्बल, अबोध बच्चों को बड़े कुत्ते काटते तो उन के बचाव में वह बेचारी भी लहूलुहान हो जाती, पायल भी कुकरिया का जम कर साथ देती, लेकिन आखिर जान सब को प्यारी होती है.

उन के रहनेखाने को तो हमारा घर था, लेकिन जब पायल, कुकरिया और पिल्ले कभी बाहर निकलते तब हमारी रखवाली में भी वे सहमे रहते. एक दिन मैं इसी चिंता में रसोई का द्वार खोल बरामदे में कुरसी पर बैठी थी. शाम के 6 बजे होंगे, मौसम सुहावना था. कुकरिया पहले से ही वहां उदास बैठी थी. आज मजूदरों ने बाहर के कुत्तों को इस ओर फटकने तक नहीं दिया था. पायल और पिल्ले आज बहुत दिन बाद चैन की सांस ले कर बाहर सड़क पर खेल रहे थे, मैं ने झुक कर कुकरिया के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘जाओ बेटा, तुम भी खेलो, छोटे पिल्ले तो पायल मौसी के साथ खेल रहे हैं, अब कोई डर नहीं, पापा ने सब को कह दिया है, अब यहां कोई नहीं आएगा.’’

लेकिन वह अपने आगे फैले पंजों पर मुंह रखे बैठी ही रही. मैं एक परांठा ले कर दोबारा आई, एक टुकड़ा डाला, फिर धीरेधीरे पूरा परांठा उस के आगे रख दिया, पर उस ने उन टुकड़ों को सूंघा तक नहीं. वह यों ही गहरी सोच में डूबी अपने पंजों को पनीली आंखों से निहारती रही. मैं ने उसे छू कर देखा, शायद बुखार हो, लेकिन वह सरक कर बिलकुल मेरे पैरों पर आ कर पसर गई. मुझे बैठा देख पिल्ले और पायल भी बरामदे में आ कर उछलकूद करने लगे.

अब पिल्ले 5 महीने के हो चुके थे. उन की भूख भी बढ़ गई. मैं उन का बढ़ता कद देख कर फूली नहीं समाती थी किंतु अपनी नौकरी और घर संभालते हुए उन के लिए दोनों समय रोटी बनाना अब मुझे अखरने लगा. अब तक यहां 5-6 घर बस चुके थे. वे सुरक्षा सब की करते. मैं कभी सोचती कि सब के घर से 2-2 रोटी मांग कर लाऊं और कभी सोचती कि इन्हें एक ही समय खाना दूं, पर ऐसा कर नहीं पाती थी. मैं चाहे कितनी भी थकी होती लेकिन घर वालों से पहले उन की व्यवस्था करती थी.

बचपन में मेरे नानाजी मुझे एक कुत्ते की कहानी सुनाते थे कि वह अपने मालिक के मन की बात जान लेता था और उस की मदद भी करता था, शायद कुकरिया भी मेरे मन की बात जान गई थी. एक दिन शाम को मैं पक्षियों का कलरव सुन रही थी, बरामदे के दक्षिणी छोर पर पायल और कुकरिया की गहरी मंत्रणा चल रही थी, मैं भी अपनी कुरसी वहीं ले आई. दोनों के चेहरे गंभीर थे. मैं ने उन के पास बैठते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा? तू खाने की चिंता मत कर, मम्मी थक जाती हैं न इसलिए ऐसा सोचती है. बस और कोई बात नहीं है.’’

पायल एक मूकदृष्टि मुझ पर डाल पांचों सीढि़यों पर पसरे उस के पिल्लों के पास जा बैठी और कुकरिया अपनी अश्रुपूरित नजरों से मुझे एकटक देखती रही. यह देख कर मेरा दिल दुखी हो गया. वातावरण शांत हो चला था, मैं अनमनी हो पढ़ने को एक किताब ले आई कि अचानक मुझे सुनाई दिया, ‘‘अब मैं चली जाऊंगी मां, आप पर बोझ नहीं बनूंगी.’’  किताब एक झटके से मेरे हाथ से छूट गई. मैं ने हड़बड़ा कर अपने चारों ओर देखा, मेरे आसपास पायल, कुकरिया और उन पिल्लों के अतिरिक्त कोई भी नहीं था, मैं तत्काल कुरसी छोड़ खड़ी हो गई, नीचेऊपर, आगेपीछे ताकझांक करने लगी और दोबारा कुरसी पर आ कर बैठ गई.

कुकरिया गरदन झुकाए मेरे पैरों के पास सरक आई, मैं ने स्थिर हो फिर उसे गौर से देखा. पायल मेरी ओर पीठ कर के बैठी थी, बाकी पिल्ले भी कभी अपनी बोझिल पलकें झपकाते और कभी बिलकुल ही बंद कर लेते. इस बीच मुझे दोबारा कुछ और सुनाई दिया, ‘‘मैं जानती हूं कि आप मेरे बच्चों का पूरा ध्यान रखेंगी. आप हैं न इन के पास, बस, अब मुझे इन की कोई चिंता नहीं है. अब मैं हमेशा के लिए चली जाऊंगी,’’ दूसरी बार के झटके से मैं बुरी तरह कांप गई.

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बड़बड़ाती हुई मैं एक सांस में खड़ी हो गई और चहलकदमी करने लगी. दिमाग तेजी से चल रहा था क्योंकि सही में मैं ने एक के बाद एक ये बातें सुनी थीं. इसी दम पर कि इस बार तो मैं उसे पकड़ ही लूंगी, लेकिन जब कोई हाथ नहीं लगा तो मैं घबरा गई. मैं लपकती सी भीतर घुस आई, अपनी बेटी को साथ ले फिर वहीं आ गई.  कुकरिया बारीबारी से अपने सोए पिल्लों को चाट रही थी. किसी का कीड़ा मुंह से निकालती तो किसी को मुंह से ऐसे स्पर्श करती जैसे हम अपने बच्चों के सिर पर हाथ फेरते हैं. कुकरिया की ये गतिविधियां बड़ी लुभावनी थीं किंतु मेरा मन अनगिनत आशंकाओं से भर गया था.

अचानक फोन की घंटी बज उठी, मैं भीतर आ कर घरेलू कार्यों में व्यस्त हो गई. दूसरे दिन सुबह 6 बजे के बाद द्वार खुलते ही सारे पिल्ले लपकझपक दौड़े आए, पर कुकरिया नहीं आई. मैं पुकारती रही.

‘‘कुकरिया, ओ कुकरिया.’’ उस की 2 रोटियां हाथ में दबा घर की परिक्रमा करते दूरदूर तक नजर दौड़ाई, फिर दोनों रोटियां कटोरे में रख दीं. 3 बजे के बाद मैं बचा भोजन एकत्र कर बाहर आई तब कुकरिया मुझे बरामदे की सीढि़यां चढ़ती दिखाई दी. मैं खुशी से चिल्ला उठी, ‘‘मेरी कुकरिया आ गई…तू कहां चली गई थी बेटी?’’

मैं ने अपने हाथों से एकएक कौर कुकरिया को खिलाया, उस की मनपसंद खीर भी. इस के बाद वह पायल और अपने बच्चों के साथ खूब खेली. कई बार गले मिली. कई बार वह मेरे आगेपीछे घूमी. मैं मगन और निश्ंिचत हो कर भीतर आ रही थी कि कुकरिया अपने बच्चों को छोड़ कर मेरे पैरों से लिपट गई. अपना माथा और मुंह कई बार आड़ीटेढ़ी हो मेरे पैरों से रगड़ा, कई बार मुझे चाटा.  इस के बाद वह सीधी सीढि़यों से नीचे उतरी और फिर उस ने पलट कर भी किसी को नहीं देखा, अपनी पीठ और पूंछ पर चढ़ते अपने बच्चों तक को भी नहीं और फिर वह सदासदा के लिए कहीं चली गई.

कुछ दिन हम सब उसे ढूंढ़ते रहे. मेरे पति और बच्चे अपनी बाइक और स्कूटी से जाते, लेकिन निराश हो दूर से मुझे ‘न’ में हाथ हिला आ जाते. उस के पिल्लों ने भी उसे 4-5 दिन ढूंढ़ा, मैं घंटों बाहर बैठी उस की राह देखती, तब पायल की आंखों में मुझे बहुत से भाव दिखाई देते, जैसे वह कह रही हो, ‘‘मां, वह अब नहीं आएगी, आप से कह कर तो गई है. उस के बच्चों का अब हमें ही खयाल रखना है.’’

पायल उन पिल्लों को अपने कटोरे में से दूधपानी पिलाती और बाद में खुद पीती. एक मां की तरह वह एक छोटी सी आहट पर उन के पास दौड़ी चली आती.

कालोनी की आबादी अब और बढ़ गई. ये मूक जानवर आदर और स्नेह की भाषा ही नहीं, मनुष्य की दृष्टि को भी समझते हैं. आज हम अपनी संस्कृति भूल भावनाविहीन हो गए हैं, मानव का निष्कपट आचरण और शुद्ध मन उसे सभ्य बनाता है, उच्च ज्ञान और उच्च पद पा कर भी यदि हम में संवेदना नहीं है, दूसरों के प्रति समझ नहीं है, तो हम क्या हैं?  हम सब सदियों से कुत्ते के साथ रह रहे हैं. यह कुकरा जाति की उदारता ही है कि वह नित्य हमेशा द्वार पर एकटूक आशा में बैठा मानवता की पशुता को मौन ही झेलता रहता है, यह सोच कर कि शायद कभी इसे मेरी याद आ जाए. पर मनुष्य है कि सोचता है, ‘मेरा पेट भर गया तो संसार में सब का पेट भर गया.’ अपने कुकरामोह के कारण मैं ने बहुत से बुद्धिजीवियों की चुभती निगाहों और व्यंग्यबाणों का अपनी पीठ पीछे कई बार सामना किया है, पर मुझे उन की कोई परवा नहीं क्योंकि मैं जानती हूं कि यदि मुझे मानवता का निर्वाह सही अर्थों में करना है तो पशुपक्षियों के बच्चों का खयाल भी अपने बच्चों की तरह रखना होगा.

एक दिन अचानक कुकरिया का सब से हृष्टपुष्ट पिल्ला कलुवा चल बसा, पड़ोस से कहीं हड्डी खा आया था. हम लोग उस दिन शहर से बाहर गए थे, शाम को घर आए, उस को बचाने के अनेक जतन किए पर डाक्टर भी कुछ न कर सके. 3 दिन की भूखप्यास से निढाल उसे अपनी ही चौखट पर पड़े देख हम आंसू बहाते रहे और अपने बच्चे की तरह हम ने उसे विदा किया. कलुवा के सभी साथी और पायल मेरे पास सिमट आए, कलुवा को जमीन में गाड़ते देख मेरे बेटे ने सिसकते हुए कहा, ‘‘इस की मां कितनी अच्छी थी, रसोई में रखी चीजों को भी कभी मुंह नहीं मारती थी.’’

बेटी ने भी तड़प कर कहा, ‘‘अपना घर बनते समय कुकरिया सारी रात अकेली पहरा देती थी, जरा सा खटका होता तो वह गुमानसिंह को जगा देती थी.’’ आएदिन वह हमें रात में चोर आने की खबर देता था. इन्होंने दोनों बहनभाई को समझाया, ‘‘ऐसे जी छोटा नहीं करते बेटा, प्रकृति बैलेंस करती चलती है.’’

इस तरह कलुवा के साथ कुकरिया को भी हम सब की ओर से उस दिन भावभीनी तरबतर विदाई हुई. कुकरिया आज जीवित है भी या नहीं, मैं नहीं जानती. जाऊं तो किस के पास जाऊं? किसे पता होगा? आज के दौर में तो लोगों के पास अपने सगेसंबंधियों से बात करने तक का समय और फुरसत नहीं है तो कुकरिया की खबर मुझे कौन देगा? किंतु कुकरिया की 2-3 पीढि़यां अभी भी पायल मौसी के साथ धमाचौकड़ी मचाती घूमती रहती हैं.

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मैं कभी गहरे सोच में पड़ जाती हूं कि क्या सचमुच कुकरिया ने उस दिन मुझ से मेरी भाषा में कहा था या वह मेरा भ्रम था? यदि भ्रम ही है तो वह अपने कहे अनुसार चली क्यों गई? अर्थात वह भ्रम नहीं था, अकाट्य सत्य था. एक ऐसा सत्य कि जिस पर कोई विश्वास नहीं करेगा, किंतु मैं, पायल और कुकरिया ही इस सत्य को जानते हैं.  अब जब भी मुझे कुकरिया की याद विचलित करने लगती है तो मैं उस के बच्चों के बीच बैठ अपना मन बहला लेती हूं. उस की ये धरोहर कुकरिया की स्मृतियां बन कर रह गई हैं. पायल और मैं एकदूसरे के हमदर्द होने के नाते व्याकुल क्षणों में एकदूसरे का सहारा बनते हैं.

Short Story: सबको साथ चाहिए

सुधीर के औफिस के एक सहकर्मी   रवि के विवाह की 25वीं वर्षगांठ थी. उस ने एक होटल में भव्य पार्टी का आयोजन किया था तथा बड़े आग्रह से सभी को सपरिवार आमंत्रित किया था. सुधीर भी अपनी पत्नी माधुरी और बच्चों के साथ ठीक समय पर पार्टी में पहुंच गए. सुधीर और माधुरी ने मेजबान दंपती को बधाई और उपहार दिया. रविजी ने अपनी पत्नी विमला से माधुरी का और उन के चारों बच्चों का परिचय करवाया, ‘‘विमला, इन से मिलो. ये हैं सुधीरजी, इन की पत्नी माधुरी और चारों बच्चे सुकेश, मधुर, प्रिया और स्नेहा.’’  ‘‘नमस्ते,’’ कह कर विमला आश्चर्य से चारों को देखने लगी. आजकल तो हम दो हमारे दो का जमाना है. भला, आज के दौर में 4-4 बच्चे कौन करता है? माधुरी विमला के चेहरे से उन के मन के भावों को समझ गई पर क्या कहती.

तभी प्रिया ने सुकेश की बांह पकड़ी और मचल कर बोली, ‘‘भैया, मुझे पानीपूरी खानी है. भूख लगी है. चलो न.’’

‘‘नहीं भैया, कुछ और खाते हैं, यह चटोरी तो हमेशा पहले पानीपूरी खिलाने ही ले जाती है. वहां दहीबड़े का स्टौल है. पहले उधर चलो,’’ स्नेहा और मधुर ने जिद की.

‘‘भई, पहले तो वहीं चला जाएगा जहां हमारी गुडि़या रानी कह रही है. उस के बाद ही किसी दूसरे स्टौल पर चलेंगे,’’ कह कर सुकेश प्रिया का हाथ थाम कर पानीपूरी के स्टौल की तरफ बढ़ गया. मधुर और स्नेहा भी पीछेपीछे बढ़ गए.

‘‘यह अच्छा है, छोटी होने के कारण हमेशा इसी के हिसाब से चलते हैं भैया,’’ मधुर ने कहा तो स्नेहा मुसकरा दी. चाहे ऊपर से कुछ भी कह लें पर अंदर से सभी प्रिया को बेहद प्यार करते थे और सुकेश की बहुत इज्जत करते थे. क्यों न हो वह चारों में सब से बड़ा जो था. चारों जहां भी जाते एकसाथ जाते. मजाल है कि स्नेहा या मधुर अपनी मरजी से अलग कहीं चले जाएं. थोड़ी ही देर में चारों अलगअलग स्टौल पर जा कर खानेपीने की चीजों का आनंद लेने लगे और मस्ती करने लगे.

सुधीर और माधुरी भी अपनेअपने परिचितों से बात करने लगे. किसी काम से माधुरी महिलाओं के एक समूह के पास से गुजरी तो उस के कानों में विमला की आवाज सुनाई दी. वह किसी से कह रही थी, ‘‘पता है, सुधीरजी और माधुरीजी के 4 बच्चे हैं. मुझे तो जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ. आजकल के जमाने में तो लोग 2 बच्चे बड़ी मुश्किल से पाल सकते हैं तो इन्होंने 4 कैसे कर लिए.’’

‘‘और नहीं तो क्या, मैं भी आज ही उन लोगों से मिली तो मुझे भी आश्चर्य हुआ. भई, मैं तो 2 बच्चे पालने में ही पस्त हो गई. उन की जरूरतें, पढ़ाई- लिखाई सबकुछ. पता नहीं माधुरीजी 4 बच्चों की परवरिश किस तरह से मैनेज कर पाती होंगी?’’ दूसरी महिला ने जवाब दिया.

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माधुरी चुपचाप वहां से आगे बढ़ गई. यह तो उन्हें हर जगह सुनने को मिलता कि उन के 4 बच्चे हैं. यह जान कर हर कोई आश्चर्य प्रकट करता है. अब वह उन्हें क्या बताए? घर आ कर चारों बच्चे सोने चले गए. सुधीर भी जल्दी ही नींद के आगोश में समा गए. मगर माधुरी की आंखों में नींद नहीं थी. वह तो 6 साल पहले के उस दिन को याद कर रही थी जब माधुरी के लिए सुधीर का रिश्ता आया था. हां, 6 साल ही तो हुए हैं माधुरी और सुधीर की शादी को. 6 साल पहले वह दौर कितना कठिन था. माधुरी को बड़ी घबराहट हो रही थी. पिछले कई दिनों से वह अपने निर्णय को ले कर असमंजस की स्थिति में जी रही थी.

माधुरी का निर्णय अर्थात विवाह का निर्णय. अपने विवाह को ले कर ही वह ऊहापोह में पड़ी हुई थी. घबरा रही थी. क्या होगा? नए घर में सब उसे स्वीकारेंगे या नहीं.

विवाह को ले कर हर लड़की के मन में न जाने कितनी तरह की चिंताएं और घबराहट होती है. स्वाभाविक भी है, जन्म के चिरपरिचित परिवेश और लोगों के बीच से अचानक ही वह सर्वथा अपरिचित परिवेश और लोगों के बीच एक नई ही जमीन पर रोप दी जाती है. अब इस नई जमीन की मिट्टी से परिचय बढ़ा कर इस से अपने रिश्ते को प्रगाढ़ कर यहां अपनी जड़ें जमा कर फलनाफूलना मानो नाजुक सी बेल को अचानक ही रेतीली कठोर भूमि पर उगा दिया जाए.

लेकिन माधुरी की घबराहट अन्य लड़कियों से अलग थी. नई जमीन पर रोपे जाने का अनुभव वह पहले भी देख चुकी थी. उस जमीन पर अपनी जड़ें जमा कर खूब पल्लवित हो कर नाजुक बेल से एक परिपक्व लताकुंज में परिवर्तित भी हो चुकी थी, लेकिन अचानक ही एक आंधी ने उसे वहां से उखाड़ दिया और उस की जड़ों को क्षतविक्षत कर के उस की जमीन ही उस से छीन ली.

2 वर्ष पहले मात्र 43 वर्ष की आयु में ही माधुरी के पति की हृदयगति रुक जाने से आकस्मिक मृत्यु हो गई. कौन सोच सकता था कि रात में पत्नी और बच्चों के साथ खुल कर हंसीमजाक कर के सोने वाला व्यक्ति फिर कभी उठ ही नहीं पाएगा. इतना खुशमिजाज, जिंदादिल इंसान था प्रशांत कि सब के दिलों को मोह लेता था, लेकिन क्या पता था कि उस का खुद का ही दिल इतनी कम उम्र में उस का साथ छोड़ देगा.

माधुरी तो बुरी तरह टूट गई थी. 18 सालों का साथ था उन का. 2 प्यारे बच्चे हैं, प्रशांत की निशानी, प्रिया और मधुर. मधुर तो तब मात्र 16 साल का हुआ ही था और प्रिया अपने पिता की अत्यंत लाडली बस 12 साल की ही थी. सब से बुरा हाल तो प्रिया का ही हुआ था.

एक खुशहाल परिवार एक ही झटके में तहसनहस हो गया. महीनों लगे थे माधुरी को इस सदमे से बाहर आ कर संभलने में. उम्र ही क्या थी उस की. मात्र 37 साल. वह तो उस के मातापिता ने अपना कलेजा मजबूत कर के उसे सांत्वना दे कर इतने बड़े दुख से उबरने में उस की मदद की. प्रिया और मधुर के कुम्हलाए चेहरे देख कर माधुरी ने सोचा था कि अब ये दोनों ही उस का जीवन हैं. अब इन के लिए उसे मजबूत छत बनानी है.

साल भर में ही वह काफी कुछ स्थिर हो गई थी. जीवन आगे बढ़ रहा था. मधुर मैडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था. प्रिया भी पढ़ने में तेज थी. स्कूल में अव्वल आती, लेकिन माधुरी की सूनी मांग और माथा देख कर उस की मां के कलेजे में मरोड़ उठती, इतना लंबा जीवन अकेले वह कैसे काट पाएगी?

‘अकेली कहां हूं मां, आप दोनों हो, बच्चे हैं,’ माधुरी जवाब देती.

‘हम कहां सारी उम्र तुम्हारा साथ दे पाएंगे बेटा. बेटी शादी कर के अपने घर चली जाएगी और मधुर पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में न जाने कौन से शहर में रहेगा. फिर उस की भी अपनी दुनिया बस जाएगी. तब तुम्हें किसी के साथ की सब से ज्यादा जरूरत पड़ेगी. यह बात तो मैं अपने अनुभव से कह रही हूं. अपने निजी सुखदुख बांटनेसमझने वाला एक हमउम्र साथी तो सब को चाहिए होता है, बेटी,’ मां उदास आवाज में कहतीं.  माधुरी उस से भी गहरी उदास आवाज में कहती, ‘मेरी जिंदगी में वह साथ लिखा ही नहीं है, मां.’

माधुरी का जवाब सुन कर मां सोच में पड़ जातीं. माधुरी को तो पता ही नहीं था कि उस के मातापिता इस उम्र में उस की शादी फिर से करवाने की सोच रहे हैं. 3 महीने पहले ही उन्हें सुधीर के बारे में पता चला था. सुधीर की उम्र 45 वर्ष थी. 2 वर्ष पूर्व ही ब्रेन ट्यूमर की वजह से उन की पत्नी की मृत्यु हो गई थी. 2 बच्चे 19 वर्ष का बेटा और 15 वर्ष की बेटी है. घर में सुधीर की वृद्ध मां भी है. नौकरचाकरों की मदद से पिछले 2 वर्षों से वह 68 साल की उम्र में जैसेतैसे बेटे की गृहस्थी चला रही थीं.

माधुरी की मां ने सुधीर की मां को माधुरी के बारे में बता कर विवाह का प्रस्ताव रखा. सुधीर की मां ने सहर्ष उसे स्वीकार कर लिया. वयस्क होती बेटी को मां की जरूरत का हवाला दे कर और अपने बुढ़ापे का खयाल करने को उन्होंने सुधीर को विवाह के लिए मना लिया.

‘मैं बूढ़ी आखिर कब तक तेरी गृहस्थी की गाड़ी खींच पाऊंगी. और फिर कुछ सालों बाद तेरे बच्चों का ब्याह होगा. कौन करेगा वह सब भागदौड़ और उन के जाने के बाद तेरा ध्यान रखने को और सुखदुख बांटने को भी तो कोई चाहिए न. अपनी मां की इस बात पर सुधीर निरुत्तर हो गए और वही सब बातें दोहरा कर माधुरी की मां ने जैसेतैसे उसे विवाह के लिए तैयार करवा लिया.

‘बेटी अकेलापन बांटने कोई नहीं आता. यह मत सोच कि लोग क्या कहेंगे? लोग तो अच्छेबुरे समय में बस बोलने आते हैं. साथ देने के लिए आगे कोई नहीं आता. अपना बोझ आदमी को खुद ही ढोना पड़ता है. सुधीर अच्छा इंसान है. वह भी अपने जीवन में एक त्रासदी सह चुका है. मुझे पूरा विश्वास है कि वह तेरा दुख समझ कर तुझे संभाल लेगा. तुम दोनों एकदूसरे का सहारा बन सकोगे.’

माधुरी ने भी मां के तर्कों के आगे निरुत्तर हो कर पुनर्विवाह के लिए मौन स्वीकृति दे दी. वैसे भी वह अब अपनी वजह से मांपिताजी को और अधिक दुख नहीं देना चाहती थी.

लेकिन तब से वह मन ही मन ऊहापोह में जी रही थी. सवाल उस के या सुधीर के आपस में सामंजस्य निभाने का नहीं था. सवाल उन 4 वयस्क होते बच्चों के आपस में तालमेल बिठाने का है. वे आपस में एकदूसरे को अपने परिवार का अंश मान कर एक घर में मिलजुल कर रह पाएंगे? सुधीर और माधुरी को अपना मान पाएंगे?

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यही सारे सवाल कई दिनों से माधुरी के मन में चौबीसों घंटे उमड़तेघुमड़ते रहते. जैसेजैसे विवाह के लिए नियत दिन पास आता जा रहा था ये सवाल उस के मन में विकराल रूप धारण करते जा रहे थे.

माधुरी अभी इन सवालों में उलझी बैठी थी कि मां ने उस के कमरे में आ कर सुधीर की मां के आने की खबर दी. माधुरी पलंग से उठ कर बाहर जाने के लिए खड़ी ही हुई थी कि सुधीर की मां स्वयं ही उस के कमरे में चली आईं. उन के साथ 14-15 साल की एक प्यारी सी लड़की भी थी. माधुरी को समझते देर नहीं लगी कि यह सुधीर की बेटी स्नेहा है. माधुरी ने उठ कर सुधीर की मां को प्रणाम किया. उन्होंने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘मैं समझती हूं माधुरी बेटा, इस समय तुम्हारी मनोस्थिति कैसी होगी? मन में अनेक सवाल घुमड़ रहे होंगे. स्वाभाविक भी है.

‘मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि अपने मन से सारे संशय दूर कर के नए विश्वास और पूर्ण सहजता से नए जीवन में प्रवेश करो. हम सब अपनीअपनी जगह परिस्थिति और नियति के हाथों मजबूर हो कर अधूरे रह गए हैं. अब हमें एकदसूरे को पूरा कर के एक संपूर्ण परिवार का गठन करना है. इस के लिए हम सब को ही प्रयत्न करना है. मेरा विश्वास है कि इस में हम सफल जरूर होंगे. आज मैं अपनी ओर से पहली कड़ी जोड़ने आई हूं. एक बेटी को उस की मां से मिलाने लाई हूं. आओ स्नेहा, मिलो अपनी मां से,’ कह कर उन्होंने स्नेहा का हाथ माधुरी के हाथ में दे दिया.

स्नेहा सकुचा कर सहमी हुई सी माधुरी की बगल में बैठ गई तो माधुरी ने खींच कर उसे गले से लगा लिया. मां के स्नेह को तरस रही स्नेहा ने माधुरी के सीने में मुंह छिपा लिया. दोनों के प्रेम की ऊष्मा ने संशय और सवालों को बहुत कुछ धोपोंछ दिया.

‘बस, अब आगे की कडि़यां हम मां- बेटी मिल कर जोड़ लेंगी,’ सुधीर की मां ने कहा तो पहली बार माधुरी को लगा कि उस के मन पर पड़े हुए बोझ को मांजी ने कितनी आसानी से उतार दिया.

जल्द ही एक सादे समारोह में माधुरी और सुधीर का विवाह हो गया. माधुरी के मन का बचाखुचा भय और संशय तब पूरी तरह से दूर हो गया, जब सुधीर से मिलने वाले पितृवत स्नेह की छत्रछाया में उस ने प्रिया को प्रशांत के जाने के बाद पहली बार खुल कर हंसते देखा. अपने बच्चों को ले कर माधुरी थोड़ी असहज रहती, मगर सुधीर ने पहले दिन से ही मधुर और प्रिया के साथ एकदम सहज पितृवत व स्नेहपूर्ण व्यवहार किया. सुधीर बहुत परिपक्व और सुलझे हुए इंसान थे और मांजी भी. घर में उन दोनों ने इतना सहज और अनौपचारिक अपनेपन का वातावरण बनाए रखा कि माधुरी को लगा ही नहीं कि वह बाहर से आई है. सुधीर का बेटा सुकेश और मधुर भी जल्दी ही आपस में घुलमिल गए. कुछ ही महीनों में माधुरी को लगने लगा कि जैसे यह उस का जन्मजन्मांतर का परिवार है.

माधुरी के मातापिता भी उसे अपने नए परिवार में खुशी से रचाबसा देख कर संतुष्ट थे. दिन पंख लगा कर उड़ते गए. सुधीर का साथ पा कर माधुरी के मन की मुरझाई लताफिर हरी हो गई. ऐसा नहीं कि माधुरी को प्रशांत की और सुधीर को अपनी पत्नी की याद नहीं आती थी, लेकिन उन दोनों की याद को वे लोग सुखद रूप में लेते थे. उस दुख को उन्होंने वर्तमान पर कभी हावी नहीं होने दिया. उन की याद में रोने के बजाय वे उन के साथ बिताए सुखद पलों को एकदूसरे के साथ बांटते थे.  सोचतेसोचते माधुरी गहरी नींद में खो गई. इस घटना के 10-12 दिन बाद ही सुधीर ने माधुरी को बताया कि रविजी और उन की पत्नी उन के घर आने के इच्छुक हैं. माधुरी उन के आने के पीछे की मंशा समझ गई. उस ने सुधीर से कह दिया कि वे उन्हें रात के खाने पर सपरिवार निमंत्रित कर लें. 2 दिन बाद ही रविजी अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को ले कर डिनर के लिए आ गए. विमला माधुरी की हैल्प करवाने के बहाने किचन में आ गई और माधुरी से बातें करने लगी. माधुरी ने स्नेहा से कहा कि प्रिया को बोल दे, डायनिंग टेबल पर प्लेट्स लगा कर रख देगी.

‘‘उसे आज बहुत सारा होमवर्क मिला है मां. उसे पढ़ने दीजिए. मैं आप की हैल्प करवा देती हूं,’’ स्नेहा ने जवाब दिया.

‘‘पर बेटा, तुम्हारे तो टैस्ट चल रहे हैं. तुम जा कर पढ़ाई करो. मैं मैनेज कर लूंगी,’’ माधुरी ने स्नेहा से कहा.

‘‘कोई बात नहीं मां. कल अंगरेजी का टैस्ट है और मुझे सब आता है,’’ स्नेहा प्लेट पोंछ कर टेबल पर सजाने लगी. तभी सुकेश और मधुर बाजार से आइसक्रीम और सलाद के लिए गाजर और खीरे वगैरह ले आए. सुकेश ने तुरंत आइसक्रीम फ्रीजर में रखी और मां से बोला, ‘‘मां, और कुछ काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बेटा. अब तुम आनंद और अमृता को अपने रूम में ले जाओ. वे लोग बाहर अकेले बोर हो रहे हैं,’’ माधुरी ने कहा तो सुकेश बाहर चला गया.

‘‘ठीक है मां, कुछ काम पड़े तो बुला लेना,’’ स्नेहा भी अपना काम खत्म कर के चली गई. अब किचन में सिर्फ मधुरी और विमला ही रह गईं. अब विमला ज्यादा देर तक अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाई और उस ने माधुरी से सवाल किया, ‘‘हम तो 2 ही बच्चों को बड़ी मुश्किल से संभाल पा रहे हैं. आप ने 4-4 बच्चों को कैसे संभाला होगा? चारों में अंतर भी ज्यादा नहीं लगता. स्नेहा और मधुर तो बिलकुल एक ही उम्र के लगते हैं.’’  माधुरी इस सवाल के लिए तैयार ही थी. वह अत्यंत सहज स्वर में बोली, ‘‘हां, स्नेहा और मधुर की उम्र में बस 8 महीनों का ही फर्क है.’’

‘‘क्या?’’ विमला बुरी तरह से चौंक गई, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’

तब माधुरी ने बड़ी सहजता से मुसकराते हुए संक्षेप में अपनी और सुधीर की कहानी सुना दी.  अब तो विमला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा.

‘‘तब भी आप के चारों बच्चों में इतना प्यार है जबकि वे आपस में सगे भी नहीं हैं. मेरे तो दोनों बच्चे सगे भाईबहन होने के बाद भी आपस में इतना झगड़ते हैं कि बस पूछो मत. एक मिनट भी नहीं पटती है उन में. मैं तो इतनी तंग आ गई हूं कि लगता है इन्हें पैदा ही क्यों किया? लेकिन आप के चारों बच्चों में तो बहुत प्यार और सौहार्द दिखता है. चारों आपस में एकदूसरे पर और आप पर तो मानो जान छिड़कते हैं,’’ विमला बोली.

तभी सुधीर की मां किचन में आईं और विमला से बोलीं, ‘‘बात सगेसौतेले की नहीं, प्यार होता है आपसी सामंजस्य से. दरअसल, हम सब अपने जीवन में कुछ अपनों को खोने का दर्द झेल चुके हैं इसलिए हम सभी अपनों की कीमत समझते हैं. इस दर्द और समझ ने ही मेरे परिवार को प्यार से एकसाथ बांध कर रखा है. चारों बच्चे अपनी मां या पिता को खोने के बाद अकेलेपन का दंश झेल चुके थे, इसलिए जब चारों मिले तो उन्होंने जाना कि घर में जितने ज्यादा भाईबहन हों उतना ही मजा आता है. यही राज है हमारे परिवार की खुशियों का. हम दिल से मानते हैं कि सब को साथ चाहिए.’’

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विमला उन की बातें सुन कर मुग्ध हो गई, ‘‘सचमुच मांजी, आप के परिवार के विचार और सौहार्द तो अनुकरणीय हैं.’

समय बीतता गया. सुकेश पढ़लिख कर इंजीनियर बना तो मधुर डाक्टर बन गया. मधुर ने एमडी किया और सुकेश ने बैंगलुरु से एमटेक. प्रिया और स्नेहा ने भी अपनेअपने पसंदीदा क्षेत्र में कैरियर बना लिया और फिर उन चारों के विवाह, फिर नातीपातों का जन्म, नामकरण मुंडन आदि की भागदौड़ में बरसों बीत गए. फिर एकएक कर सब पखेरू अपनेअपने नीड़ों में बस गए. सुकेश और प्रिया दोनों इंगलैंड चले गए. जहां दोनों भाईबहन पासपास ही रहते थे. मधुर बेंगलुरु में सैटल हो गया और स्नेहा मुंबई में. मांजी और माधुरी के मातापिता का निधन हो गया.

अब इतने बड़े घर में सुधीर और माधुरी अकेले रह गए. जब बच्चे और नातीपोते आते तो घर भर जाता. कभी ये लोग बारीबारी से सारे बच्चों के पास रह आते, लेकिन अधिकांश समय दोनों अपने घर में ही रहते. अपनी दिनचर्या को उन्होंने इस तरह से ढाला कि सुबह की चाय बगीचे की ताजी हवा में साथ बैठ कर पीते, साथ बागबानी करते. साथसाथ घर के सारे काम करने में दिन कब गुजर जाता, पता ही नहीं चलता. दोनों पल भर कभी एकदूसरे से अलग नहीं रह पाते. अब जा कर माधुरी और सुधीर को एहसास होता कि अगर उन्होंने उस समय अपने मातापिता की बात न मान कर विवाह नहीं किया होता तो आज जीवन की इस संध्याबेला में दोनों इतने माधुर्यपूर्ण साथ से वंचित हो कर बिलकुल अकेले रह जाते. जीवन की सुबह मातापिता की छत्रछाया में गुजर जाती है, दोपहर भागदौड़ में बीत जाती है मगर संध्याबेला की इस घड़ी में जब जीवन में अचानक ठहराव आ जाता है तब किसी के साथ की सब से अधिक आवश्यकता होती है. सुधीर के कंधे पर सिर टिकाए हुए माधुरी यही सोच रही थी. सचमुच, बिना साथी के जीवन अत्यंत कठिन और दुखदायक है. साथ सब को चाहिए.

एक अकेली: परिवार के होते हुए भी क्यों अकेली पड़ गई थी सरिता?

सरिता घर से निकलीं तो बाहर बादल घिर आए थे. लग रहा था कि बहुत जोर से बारिश होगी. काश, एक छाता साथ में ले लिया होता पर अपने साथ क्याक्या लातीं. अब लगता है बादलों से घिर गई हैं. कभी सुख के बादल तो कभी दुख के. पता नहीं वे इतना क्यों सोचती हैं? देखा जाए तो उन के पास सबकुछ तो है फिर भी इतनी अकेली. बेटा, बेटी, दामाद, बहन, भाई, बहू, पोतेपोतियां, नाते-रिश्तेदार…क्या नहीं है उन के पास… फिर भी इतनी अकेली. किसी दूसरे के पास इतना कुछ होता तो वह निहाल हो जाता, लेकिन उन को इतनी बेचैनी क्यों? पता नहीं क्या चाहती हैं अपनेआप से या शायद दूसरों से. एक भरापूरा परिवार होना तो किसी के लिए भी गर्व की बात है, ऊपर से पढ़ालिखा होना और फिर इतना आज्ञाकारी.

बहू बात करती है तो लगता है जैसे उस के मुंह से फूल झड़ रहे हों. हमेशा मांमां कह कर इज्जत करना. बेटा भी सिर्फ मांमां करता है.  इधर सरिता खयालों में खो जाती हैं: बेटी कहती थी, ‘मां, तुम अपना ध्यान अब गृहस्थी से हटा लो. अब भाभी आ गई हैं, उन्हें देखने दो अपनी गृहस्थी. तुम्हें तो सिर्फ मस्त रहना चाहिए.’  ‘लेकिन रमा, घर में रह कर मैं अपने कामों से मुंह तो नहीं मोड़ सकती,’ वे कहतीं.  ‘नहींनहीं, मां. तुम गलत समझ रही हो. मेरा मतलब सब काम भाभी को करने दो न…’

ब्याह कर जब वे इस घर में आई थीं तो एक भरापूरा परिवार था. सासससुर के साथ घर में ननद, देवर और प्यार करने वाले पति थे जो उन की सारी बातें मानते थे. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी पर बहुत पैसा भी नहीं था. घर का काम और बच्चों की देखभाल करते हुए समय कैसे बीत गया, वे जान ही न सकीं.

कमल शुरू से ही बहुत पैसा कमाना चाहते थे. वे चाहते थे कि उन के घर में सब सुखसुविधाएं हों. वे बहुत महत्त्वा- कांक्षी थे और पैसा कमाने के लिए उन्होंने हर हथकंडे का इस्तेमाल किया.   पैसा सरिता को भी बुरा नहीं लगता था लेकिन पैसा कमाने के कमल के तरीके पर उन्हें एतराज था, वे एक सुकून भरी जिंदगी चाहती थीं. वे चाहती थीं कि कमल उन्हें पूरा समय दें लेकिन उन को सिर्फ पैसा कमाना था, कमल का मानना था कि पैसे से हर वस्तु खरीदी जा सकती है. उन्हें एक पल भी व्यर्थ गंवाना अच्छा नहीं लगता था. जैसेतैसे कमल के पास पैसा बढ़ता गया, उन (सरिता) से उन की दूरी भी बढ़ती गई.

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‘पापा, आज आप मेरे स्कूल में आना ‘पेरैंटटीचर’ मीटिंग है. मां तो एक कोने में खड़ी रहती हैं, किसी से बात भी नहीं करतीं. मेरी मैडम तो कई बार कह चुकी हैं कि अपने पापा को ले कर आया करो, तुम्हारी मम्मी तो कुछ समझती ही नहीं,’ रमा अपनी मां से शर्मिंदा थी क्योंकि उन को अंगरेजी बोलनी नहीं आती थी.

कमल बेटी को डांटने के बजाय हंसने लगे, ‘कितनी बार तो तुम्हारी मां से कहा है कि अंगरेजी सीख ले पर उसे फुरसत ही कहां है अपने बेकार के कामों से.’  ‘कौन से बेकार के काम. घर के काम क्या बेकार के होते हैं,’ वे सोचतीं, ‘जब घर में कोई भी नौकर नहीं था और पूरा परिवार साथ रहता था तब तो एक बार भी कमल ने नहीं कहा कि घर के काम बेकार के होते हैं और अब जब वे रसोईघर में जा कर कुछ भी करती हैं तो वह बेकार का काम है,’ लेकिन प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहा.

उस दिन के बाद कमल ही बेटी रमा के स्कूल जाने लगे. पैसा आने के बाद कमल के रहनसहन में भी काफी बदलाव आ गया था. अब वे बड़ेबड़े लोेगों में उठनेबैठने लगे थे और चाहते थे कि पत्नी भी वैसा ही करे. पर उन को ऐसी महफिलों में जा कर अपनी और अपने कीमती वस्त्रों व गहनों की प्रदर्शनी करना अच्छा नहीं लगता था.  एक दिन दोनों कार से कहीं जा रहे थे. एक गरीब आदमी, जिस की दोनों टांगें बेकार थीं फिर भी वह मेहनत कर के कुछ बेच रहा था, उन की गाड़ी के पास आ कर रुक गया और उन से अपनी वस्तु खरीदने का आग्रह करने लगा. सरिता अपना पर्स खोल कर पैसे निकालने लगीं लेकिन कमल ने उन्हें डांट दिया, ‘क्या करती हो, यह सब इन का रोज का काम है. तुम को तो बस पर्स खोलने का बहाना चाहिए. चलो, गाड़ी के शीशे चढ़ाओ.’

उन का दिल भर आया और उन्हें अपना एक जन्मदिन याद आ गया. शादी के बाद जब उन का पहला जन्मदिन आया था. उन दिनों उन के पास गाड़ी नहीं थी. वे दोनों एक पुराने स्कूटर पर चला करते थे. वे लोग एक बेकरी से केक लेने गए थे. कमल के पास ज्यादा पैसे नहीं थे पर फिर भी उन्होंने एक केक लिया और एक फूलों का गुलदस्ता लेना चाहते थे. बेकरी के बाहर एक छोटी बच्ची खड़ी थी. ठंड के दिन थे. बच्ची ने पैरों में कुछ भी नहीं पहना था. ठंड से वह कांप रही थी. उस की हालत देख कर वे रो पड़ी थीं. कमल ने उन को रोते देखा तो फूलों का गुलदस्ता लेने के बजाय उस बच्ची को चप्पलें खरीद कर दे दीं. उस दिन उन को कमल सचमुच सच्चे हमसफर लगे थे. आज के और उस दिन के कमल में कितना फर्क आ गया है, इसे सिर्फ वे ही महसूस कर सकती थीं.

तब उन की आंखें भर गई थीं. उन्होंने कमल से छिपा कर अपनी आंखें पोंछ ली थीं.  सरिता की एक आदत थी कि वे ज्यादा बोलती नहीं थीं लेकिन मिलनसार थीं. उन के घर में जो भी आता था वे उस की खातिरदारी करने में भरोसा रखती थीं पर कमल को सिर्फ अपने स्तर वालों की खातिरदारी में ही विश्वास था. उन्हें लगता था कि एक पल या एक पैसा भी किसी के लिए व्यर्थ गंवाना नहीं चाहिए.

सरिता की वजह से दूरदूर के रिश्तेदार कमल के घर आते थे और उन की तारीफ भी करते थे. ‘सरिता भाभी तो खाना खिलाए बगैर कभी भी आने नहीं देती हैं’ या फिर ‘सरिता भाभी के घर जाओ तो लगता है जैसे वे हमारा ही इंतजार कर रही थीं’, ‘वे इतने अच्छे तरीके से सब से मिलती हैं’ आदि.  लेकिन उन की बेटी ही उन्हें कुछ नहीं समझती है. रमा ने कभी भी मां को अपना हमराज नहीं बनाया. वह तो सिर्फ अपने पापा की बेटी थी. इस में उस का कोई दोष नहीं है. उस के पैदा होने से पहले कमल के पास बहुत पैसा नहीं था लेकिन जिस दिन वह पैदा हुई उसी दिन कमल को एक बहुत बड़ा और्डर मिला था और उस के बाद तो उन के घर में पैसों की रेलमपेल शुरू हो गई.

कमल समझते थे कि यह सब उस की बेटी की वजह से ही हुआ है. इसलिए वे रमा को बहुत मानते थे. उस के मुंह से निकली हर बात पूरा करना अपना धर्म समझते थे. जिस से रमा जिद्दी हो गई थी. सरिता उस की हर जिद पूरी नहीं करती थी, जिस के चलते वह अपने पापा के ज्यादा नजदीक हो गई थी.  धीरेधीरे रमा अपनी ही मां से दूर होती गई. कमल हरदम रमा को सही और सरिता को गलत ठहराते थे. एक बार सरिता ने रमा को किसी गलत बात के लिए डांटा और समझाने की कोशिश की कि ससुराल में यह सब नहीं चलेगा तो कमल बोल पड़े, ‘हम रमा का ससुराल ही यहां ले आएंगे.’

उस के बाद तो सरिता ने रमा को कुछ भी कहना बंद कर दिया. कमल रमा की ससुराल अपने घर नहीं ला सके. हर लड़की की तरह उसे भी अपने घर जाना ही पड़ा. जब रमा ससुराल जा रही थी तो सब रो रहे थे. सरिता को भी दुख हो रहा था. बेटी ससुराल जा रही थी, रोना तो स्वाभाविक ही था.  सरिता को मन के किसी कोने में थोड़ी सी खुशी भी थी क्योंकि अब उन का घर उन का अपना बनने वाला था. अब शायद सरिता अपनी तरह अपने घर को चला सकती थीं. जब से वे इस घर में आई थीं कोई न कोई उन पर अपना हुक्म चलाता था. पहले सास का, ननद का, फिर बेटी का घर पर राज हो गया था, लेकिन अब वे अपना घर अपनी इच्छा से चलाना चाहती थीं.

रमा अपने घर में खुश थी. उस ने अपनी ससुराल में सब के साथ सामंजस्य बना लिया था. जिस बात की सरिता को सब से ज्यादा फिक्र थी वैसी समस्या नहीं खड़ी हुई. सरिता भी खुश थीं, अपना घर अपनी इच्छा से चला कर, लेकिन उन की खुशी में फिर से बाधा पड़ गई. रमा घर आई और कहने लगी, ‘पापा, मां तो बिलकुल अकेली पड़ गई हैं. अब भैया की शादी कर दो.’  सरिता चीख कर कहना चाहती थीं कि अभी नहीं, कुछ दिन तो मुझे जी लेने दो. पर प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कह पाईं और कुछ समय बाद रमा माला को ढूंढ़ लाई. माला उस के ससुराल के किसी रिश्तेदार की बेटी थी.

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माला बहुत अच्छी थी. बिलकुल आदर्श बहू, लेकिन ज्यादा मीठा भी सेहत को नुकसान देता है. इसलिए सरिता उस से भी कभीकभी कड़वी हो जाती थी. माला बहुत पढ़ीलिखी थी. वह सरिता की तरह घरघुस्सू नहीं थी. वह मोहित के साथ हर जगह जाती थी और बहुत अच्छी अंगरेजी भी बोल लेती थी, इसलिए मोहित को उसे अपने साथ हर जगह ले जाने में गर्व महसूस होता था. उस ने रमा को भी अपना बना लिया था. रमा उस की बहुत तारीफ करती थी, ‘मां, भाभी बहुत अच्छी हैं. मेरी पसंद की हैं इसलिए न.’

सरिता को हल्के रंग के कपड़े पसंद थे. आज तक वे सिर्फ कपड़ों के मामले में ही अपनी मालकिन थीं लेकिन यहां भी सेंध लग गई. माला सरिता को सलाह देने लगी, ‘मां, आप इतने फीके रंग मत पहना करें, शोख रंग पहनें. आप पर अच्छे लगेंगे.’  कमल कहते, ‘अपनी सास को कुछ मत कहो, वे सिर्फ हल्के रंग के कपड़े ही पहनती हैं. मैं ने कितनी बार कोशिश की थी इसे गहरे रंग के कपड़े पहनाने की पर इसे तो वे पसंद ही नहीं हैं.’

‘कब की थी कोशिश कमल,’ सरिता कहना चाहती थीं, ‘एक बार कह कर तो देखते. मैं कैसे आप के रंग में रंग जाती,’ पर बहू के सामने कुछ नहीं बोलीं.

आज सुबह रमा को घर आना था. उन्होंने रसोई में जा कर कुछ बनाना चाहा. पर माला आ गई, ‘मां, लाइए मैं बना देती हूं.’

‘नहीं, मैं बना लूंगी.’

‘ठीक है. मैं आप की मदद कर देती हूं.’

उन्होंने प्यार से बहू से कहा, ‘नहीं माला, आज मेरा मन कर रहा है तुम सब के लिए कुछ बनाने का. तुम जाओ, मैं बना लूंगी.’

माला चली गई. पता नहीं क्यों खाना बनाते समय उन्हें जोर से खांसी आ गई. मोहित वहां से गुजर रहा था. वह मां को अंदर ले कर आया और माला को डांटने के लिए अपने कमरे में चला गया. सरिता उस के पीछे जाने लगीं ताकि उसे समझा सकें कि इस में माला का कोई दोष नहीं है. वे कमरे के पास गईं तो देखा दोनों भाईबहन बैठे हुए हैं. रमा आ चुकी थी और उन से मिलने के बजाय पहले अपनी भाभी से मिलने चली गई थी.

उन्होंने जैसे ही अपने कदम आगे बढ़ाए, रमा की आवाज उन के कान में पड़ी, ‘मां को भी पता नहीं क्या जरूरत थी किचन में जाने की.’

तभी मोहित बोल पड़ा, ‘पता नहीं क्यों, मां समझती नहीं हैं, हर वक्त घर में कुछ न कुछ करती रहती हैं जिस से घर में कलह बढ़ती है, मेरे और माला के बीच जो खटपट होती है उस का कारण मां ही होती हैं.’

‘क्या मैं माला और मोहित के बीच कलह का कारण हूं,’ सरिता सोचती ही रह गईं.

तभी माला की अवाज सुनाई पड़ी, ‘मैं तो हर वक्त मां का खयाल रखती हूं पर पता नहीं क्यों, मां को तो जैसे मैं अच्छी ही नहीं लगती हूं. अभी भी तो मैं ने कितना कहा मां से कि मैं करती हूं पर वे मुझे करने दें तब न.’

‘मैं समझती हूं, भाभी. मां शुरू से ही ऐसी हैं,’ रमा की आवाज आई.

‘मां को तो बेटी समझ नहीं पाई, भाभी क्या समझेगी,’ सरिता चीखना चाहती थीं पर आवाज जैसे गले में ही दब गई.

‘अच्छा, तुम चिंता मत करो, मैं समझाऊंगा मां को,’ यह मोहित की आवाज थी.

‘कभी मां की भी इतनी चिंता करनी थी बेटे,’ कहना चाहा  सरिता ने पर आदत के अनुसार फिर से चुप ही रहीं.

‘मैं देखती हूं मां को, कहीं ज्यादा तबीयत तो खराब नहीं है,’ माला बोली.

‘जब अपने ही मुझे नहीं समझ रहे तो तू क्या समझेगी जिसे इस घर में आए कुछ ही समय हुआ है,’ सरिता के मन ने कहा.

इधर, आसमान में बिजली के कड़कने की तेज आवाज आई तो वे खयालों की दुनिया से बाहर आ गईं. दरअसल, दोपहर का खाना खाने के बाद जब वे बाजार जाने के लिए घर से निकली थीं तो सिर्फ बादल थे पर जब जोर से बरसात होने लगी तो वे एक बारजे के नीचे खड़ी हो गई थीं. और अब फिर सोचने लगीं कि अगर वे भीग कर घर जाएंगी तो सब क्या कहेंगे? रमा अपनी आदत के अनुसार कहेगी, ‘मां को बस, भीगने का बहाना चाहिए.’

कमल कहेंगे, ‘कितनी बार कहा है कि गाड़ी से जाया करो पर नहीं’.  मोहित कहेगा, ‘मां, मुझे कह दिया होता, मैं आप को लेने पहुंच जाता.’

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बहू कहेगी, ‘मां, कम से कम छाता तो ले ही जातीं.’

सरिता ने सारे खयाल मन से अंतत: निकाल ही दिए और भीगते हुए अकेली ही घर की तरफ चल पड़ीं.

Short Story: आज मैं रिटायर हो रही हूं

कुनकुनी धूप जाड़े में तन को कितना चैन देती है यह कड़कड़ाती ठंड के बाद धूप में बैठने पर ही पता लगता है. मेरी चचिया सास ने अचार, मसाले सब धूप में रख दिए थे. खाट बिछा कर अपने सिरहाने पर तकियों का अंबार भी लगा दिया था. चादरें, कंबल और क्याक्या.

‘‘चाची, लगता है आज सारी की सारी धूप आप ही समेट ले जाएंगी. पूरा घर ही बाहर बिछा दिया है आप ने.’’

‘‘और नहीं तो क्या. हर कपड़े से कैसी गंध आ रही है. सब गीलागीला सा लग रहा है. बहू से कहा सब बाहर बिछा दे. अंदर भी अच्छे से सफाई करवा ले. दरवाजे, खिड़कियां सब खुलवा दिए हैं. एक बार तो ताजी हवा सारे घर से निकल जाए.’’

‘‘सुबह से मुग्गल धूप जलने की तेज सुगंध आ रही है. मैं सोच रही थी कि पड़ोस के गुप्ताजी के घर आज किसी का जन्मदिन होगा सो हवन करवा रहे हैं, तो आप ने ही हवन सामग्री जलाई होगी घर में.’’

‘‘कल तेरे चाचा भी कह रहे थे कि घर में हर चीज से महक आ रही है. सोचा, आज हर कोने में सामग्री जला ही दूं.’’

सलाइयां लिए स्वेटर बुनने में मस्त हो गईं चाची. उन की उंगलियां जिस तेजी से सलाइयों के साथ चलती हैं हमारा सारा खानदान हैरान रह जाता है. बड़ी फुर्ती से चाची हर काम करती हैं. रिश्तेदारी में किसी के भी घर पर बच्चा पैदा होने की खबर हो तो बच्चे का स्वेटर चाची पहले ही बुन कर रख देती हैं. दूध के पैसे देने जाती हैं तो स्वेटर साथ होता है. 60-65 के आसपास तो उन की उम्र होगी ही फिर भी लगता नहीं है कभी थक जाती होंगी. उन की बहू और मैं हमउम्र हैं और हमारे बीच में अच्छी दोस्ती भी है. हम कई बार थक जाती हैं और उन्हें देख कर अपनेआप पर शरम आ जाती है कि क्या कहेगा कोई. जवान बैठी है और बूढ़ी हड्डियां घिसट रही हैं.

‘‘चाची, आप बैठ जाओ न, हम कर तो रही हैं. हो जाएगा न… जरा चैन तो लेने दो.’’

‘‘चैन क्या होता है बेटा. आधा काम कर के भी कभी चैन होता है. बस, जरा सा ही तो रह गया है. बस, हो गया समझो.’’

‘‘मां, तुम कोई भी काम ‘मिशन’ ले कर मत किया करो. तुम तो बस, करो या मरो के सिद्धांत पर काम करती हो. कल दिन नहीं चढ़ेगा क्या? बाकी काम कल हो जाएगा न… या सारा आज ही कर के सोना है.’’

‘‘कल किस ने देखा है बेटा, कल आए न आए. कल का नाम काल…’’

‘‘कैसी मनहूस बातें करती हो मां. चलो, छोड़ो, भाभी और निशा कर लेंगी.’’

विजय भैया, चाची को खींच कर ले जाते हैं तब कहीं उन के हाथ से काम छूटता है.

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आज 15-20 दिन के बाद धूप निकली है और चाची सारा का सारा घर ही बाहर ले आई हैं. निशा के माथे के बल आज कुछ गहरे लग रहे हैं. सर्दी की वजह से उस की बांह में कुछ दिन से काफी दर्द चल रहा था. घर का जरूरी काम भी वह मुश्किल से कर पा रही थी. ऊपर से बच्चों के टैस्ट भी चल रहे हैं. सारी की सारी रसोई और सारे के सारे बिस्तर बाहर ले आने की भला क्या जरूरत थी. धूप कल भी तो निकलेगी. लोहड़ी के बाद तो वैसे भी धूप ही धूप है. सुबह तो सामान महरी से बाहर रखवा लिया, शाम को समेटते समय निशा की शामत आएगी. दुखती बांह से निशा रात का खाना बनाएगी या भारी रजाइयां और गद्दे उठाएगी. कैसे होगा उस से? कुछ कह नहीं पाएगी सास को और गुस्सा निकालेंगी बच्चों पर या विजय भैया पर.

मैं जानती हूं. आज चाची के घर परेशानी होग  बिस्तर तो परसों भी सूख जाते या 4 दिन बाद भी. टैस्ट को कैसे रोका जाएगा. और वही हुआ भी.

दूसरे दिन निशा धूप में कंबल ले कर लेटी थी और चाची उखड़ीउखड़ी थीं.

‘‘क्या हुआ चाची, निशा की बांह का दर्द कम नहीं हुआ क्या?’’

‘‘कल 4 बिस्तर जो उठाने पड़े. बस, हो गई तबीयत खराब.’’

‘‘चाची, उस की बांह में तो पहले से ही दर्द था. आप ने इतना झमेला डाला ही क्यों था. आप समझती क्यों नहीं हैं. ज्यादा से ज्यादा आप अपना तकियारजाई ले आतीं. जोशजोश में आप निशा पर कितना काम लाद देती हैं. मैं ने आप से पहले भी कहा था कि अब घर के काम में ज्यादा दिलचस्पी लेना आप छोड़ दीजिए. अपनी बहू को उस के हिसाब से सब करने दीजिए पर मानती ही नहीं हैं आप.’’

मैं ने कान में धीरे से फुसफुसा कर कहा. चाची ने गौर से मुझे देखा. मैं दावा कर सकती हूं कि चाची के साथ भी मेरा मित्रवत व्यवहार चलता है. दकियानूस नहीं हैं चाची और न ही अक्खड़. समझाओ तो समझ भी जाती हैं.

‘‘अब उस की बांह तो और दुख गई न. आप ने इतना बखेड़ा कर डाला. एक बिस्तर सुखा लेतीं. आज भी तो धूप है न… कुछ आज भी हो जाता.’’

सुनती रहीं चाची फिर धीरे से उठ कर नीचे चली गईं. वापस आईं तो उन के हाथ में लहसुन जला गरमगरम तेल था.

‘‘निशा, उठ बेटा.’’

चाची ने धीरे से निशा का कंबल खींचा. उठ कर बैठ गई निशा. उन्होंने उस की बांह में कस कर मालिश कर दी.

‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं, बांह में दर्द है. मैं बादामसौंठ का काढ़ा बना देती. अभी नीचे गैस पर चढ़ा कर आई हूं. रमिया को समझा आई हूं कि उसे कब उतारना है…अभी गरमागरम पिएगी तो रात तक दर्द गायब हो जाएगा.’’

मैं कनखियों से देखती रही. निशा के माथे के बल धीरेधीरे कम होने लगे थे.

‘‘रात को खिचड़ी बना लेंगे,’’ चाची बोलीं, ‘‘तेरे पापा को भी अच्छी लगती है.’’

सासबहू की मनुहार मुझे बड़ी प्यारी लग रही थी. निशा चुपचाप काढ़ा पी रही थी. मेरी सास नहीं हैं और इन दोनों को देख कर अकसर मुझे यह प्रश्न सताता है कि अगर मेरी सास होतीं तो क्या चाची जैसी होतीं या किसी और तरह की. मुझे याद है, मेरे बेटे के जन्म के समय मुझे खुद पता नहीं कि चाची क्याक्या पिला दिया करती थीं. मैं मना करती तो चपत सिर पर सवार रहती.

‘‘खबरदार, फालतू बात मत करना.’’

‘‘चाची, इतना क्यों खिलाती हो?’’

‘मेरी सास कहा करती थीं कि बहू  और घोड़े को खिलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता. तू चुपचाप खा ले जो भी मैं खिलाऊं.’’

‘‘घोड़ा और बहू एक कैसे हो गए, चाची?’’

‘‘घोड़ा ताकतवर होगा तो ज्यादा बोझ उठाएगा और बहू ताकतवर होगी तो बीमार कम पड़ेगी. बीमार कम पड़ेगी तो बेटे की कमाई, दवा पर कम लगेगी और कामों में ज्यादा. सेहतमंद बहू के बच्चे सेहतमंद होंगे और घर की बुनियाद मजबूत होगी. सेहतमंद बहू ज्यादा काम करेगी तो घर के ही चार पैसे बचेंगे न. अरे, बहू को खिलाने के फायदे ही फायदे हैं.’’

‘‘आप की सास आप को बहुत खिलाती थीं क्या?’’

‘‘तेरी सास नानुकर करती रहती थी. खानेपीने में नकारी…इसीलिए तो बीमार रहती थी. मुझे देख मैं अपनी सास का कहना मानती थी इसीलिए आज भी भागभाग कर सब काम कर लेती हूं.’’ चाची अपनी सास को बहुत याद करती हैं. अकसर मैं ने इस रिश्ते को बदनाम ही पाया है. सास भी कभी प्यार कर सकती है यह सदा एक प्रश्न ही रहा है. पराए खून और पराई संतान पर किसी को प्यार कम ही आता है. मुझे याद है जब निशा इस घर में आई थी तब मेरी शादी को 2 साल हो चुके थे. चाचाचाची अपनी दोनों बेटियां ब्याह कर अकेले रह रहे थे. विजय की नौकरी तब बाहर थी. हमारी कोठी बहुत बड़ी है. आमनेसामने 2 घर हैं, बीच में बड़ा सा आंगन. पूरे घर पर एक ही बड़ी सी छत.

मेरी भी 2 ननदें ब्याही हुई हैं और पापा की छत्रछाया में मैं और मेरे पति बड़े ही स्नेह से रहते हैं. चाचीचाचा का बड़ा सहारा है. विजय भैया शादी के बाद 2 साल तो बाहर ही रहे अब इसी शहर में उन की बदली हो गई है.  निशा के आने तक चाची ही मेरी सास थीं. मेरी दोनों ननदें बड़ी हैं. इस घर में क्या माहौल है क्या नहीं मुझे क्या पता था. मन में एक डर था कि बिना औरत का घर है, पता नहीं कैसेकैसे सब संभाल पाऊंगी, ननदें ब्याही हुई थीं…उन का भी अधिकार मित्रवत न हो कर शुरू में रोबदार था. चाची कम दखल देती थीं और लड़कियों को अपनी करने देती थीं. कुछ दिन ऐसा चला था फिर एक दिन पापा ने ही मुझे समझाया था :

‘‘मुझे अपने घर में लड़कियों का ज्यादा दखल पसंद नहीं है. इसलिए तुम जराजरा बात के लिए उन का मुंह मत देखा करो. तुम्हारी चाची हैं न. कोई भी समस्या हो, कुछ भी कहनासुनना हो तो उन से पूछा करो. लड़कियां अपने घर में हैं… जो चाहें सो करें, मेरे घर में तुम हो, मेरी छोटी भाभी हैं… एक तरह से वे भी मेरी बहू जैसी ही हैं. फिर क्यों कोई बाहर वाली हमारे घर के लिए कोई भी निर्णय ले.’’

मेरा हाथ पकड़ कर पापा चाची की रसोई में ले गए थे. सिर पर पल्ला खींच चाची ने अपने हाथ का काम रोक लिया था.

‘‘बीना, आज से इसे तुम्हें सौंपता हूं. तुम्हीं इस की मां भी हो और सास भी.’’

बरसों बीत गए हैं. मुझे वे क्षण आज भी याद हैं. चाची ने गुलाबी रंग की सफेद किनारी वाली साड़ी पहन रखी थी. माथे पर बड़ी सी सिंदूरी बिंदिया. तब चाची पूरियां तल रही थीं. आटा छिटक कर परात से बाहर जा गिरा था, हमारे घरों में ऐसा मानते हैं कि आटा परात से बाहर जा छिटके तो कोई मेहमान आता है. विजय भैया और चाचा तब नाश्ता कर रहे थे.

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‘‘मां, तुम्हारा आटा छिटका…देखो आज कौन आता है.’’

ये दोनों बातें साथसाथ हुई थीं. रसोई में मेरा प्रवेश करना और चाची का आटा छिटकना.

‘‘जी सदके… मेहमान क्यों आज तो मेरी बहूरानी प्रीति आई है…आजा मेरी बच्ची…’’

अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब हम स्वयं नहीं जानते कि हम कितने उदास हो चुके हैं. मायका दूर था…घर में करने वाली मैं अकेली औरत, पापा और मेरे पति अजय के जाने के बाद घर में अकेली घुटती रहती थी या जराजरा बात के लिए अपनी ननदों को फोन करती. शायद पापा को उस दिन पहली बार मेरी समस्या का खयाल आया था.

…और चाची ने बांहें फैला कर जो उस पल छाती से लगाया तो वह स्नेहिल स्पर्श मैं आज तक भूली नहीं हूं. रोने लगी थी मैं. शायद उस पल की मेरी उदासी इतनी प्रभावी थी कि सब भीगभीग से गए थे. पापा आंखें पोंछ चले गए थे. विजय भैया ने मेरा सिर थपक दिया था.

‘‘हम हैं न भाभी. रोइए मत. चुप हो जाइए.’’

वह दिन और आज का दिन, चाची से ऐसा प्यार मिला कि अपना मायका ही भूल गई मैं. चाची मेरी सखी भी बन गईं और मेरी मां भी.

मेरे दोनों बेटों के जन्म पर चाची ने ही मुझे संभाला. विजय भैया की शादी में चाची ने हर जिम्मेदारी मुझ पर डाल रखी थी. निशा के गहनों में, चूडि़यों में, गले के हारों में, कपड़ों में सूटसाडि़यों से शालस्वेटरों तक चाची ने मेरी ही राय को प्राथमिकता दी थी. निशा भी हिलीमिली सी लगी. आते ही मुझ से  प्यार संजो लिया उस ने भी. लगभग 8 साल हो गए हैं निशा की शादी को और 10 साल मुझे इस घर में आए. बहुत अच्छी निभ रही है हम में. एक उचित दूरी और संतुलन रख कर हमारा रिश्ता बड़ा अच्छा चल रहा है. निशा के माथे पर जरा सा बल पड़े तो समझ जाती हूं मैं.

‘‘चाची, आप थोड़ाथोड़ा अपना हाथ खींचना शुरू कर दीजिए न. उसे उसी के तरीके से करने दीजिए, अब आप की जिम्मेदारी खत्म हो चुकी है. जरा देखिए, हम कैसेकैसे सब करती हैं, कहीं कोई परेशानी आएगी तो पूछ लेंगे न.’’

‘‘मैं बेकार हो जाऊंगी तब. हाथपैर ही न चलाए तो आज ही जंग लग जाएगा.’’

‘‘जंग कैसे लगेगा. सुबह उठ कर चाचाजी के साथ सैर करने जाइए, रसोई के अंदर जरा कम जाइए. बाहर से मदद कर दीजिए, सब्जी काट दीजिए, सलाद काट दीजिए. सूखे कपड़े तह कर के अलगअलग रख दीजिए. कितने ही हलकेफुलके काम हैं…जराजरा अपने अधिकार कम करना शुरू कीजिए.’’

‘‘तुझे क्या लगता है कि मैं अनावश्यक अधिकार जमाती हूं? निशा ने कुछ कहा है क्या?’’

‘‘नहीं चाची, उस ने क्या कहना है. मैं ही समझा रही हूं आप को. अब आप चिंता मुक्त हो कर जीना शुरू कीजिए, सुबहसुबह उठ कर नहाधो कर रसोई में जाने की अब आप को क्या जरूरत है, फिर आप के जोड़ भी दुखते हैं.

‘‘ऐसा कौन बरात का खाना बनाना होता है. 10 बजे तक सारे काम निबटा देना आप की कोई जरूरत तो नहीं है न. 7 बजे उठ कर भी नाश्ता बन सकता है. दोपहर का तो 2 बजे चाहिए, इतनी हायतौबा सुबहसुबह किसलिए. अपने वक्त किया न आप ने, अब निशा का वक्त शुरू हुआ है तो करने दीजिए उसे. रिटायर हो जाइए अब आप.’’

चाची चुपचाप सुनती रहीं. मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं यह मेरी अनावश्यक सुलह ही प्रमाणित न हो जाए. कहीं निशा यही न समझ ले कि मैं ही सासबहू में दुख पैदा कर रही हूं. सच तो यह है कि सास कभीकभी बिना वजह अपनी हड्डियां तोड़ती रहती हैं, जो बेटे की गृहस्थी में योगदान नहीं बनता बल्कि एक अनचाहा बोझ बन जाता है.

‘‘अब मां ने कर ही दिया है तो ठीक है, यों ही सही.’’

‘‘मैं ने तो सोचा था आज कोफ्ते बनाऊंगी… मां ने सुबहसुबह उठ कर दाल चढ़ा दी.’’

‘‘हम सोच रहे थे कि इस इतवार नई पिक्चर देखने जाएंगे पर मां ने मामीजी को खाने पर बुला लिया.’’

‘‘जोड़ों का दर्द है मां को तो सुबहसुबह क्यों उठ जाती हैं. सारा दिन खाली ही तो रहते हैं हम. इतनी मारधाड़ भी किसलिए.’’

निशा का स्वर कई बार कानों मेें पड़ जाता है जिस कारण मुझे चिंता भी होने लगती है. चाची का ममत्व अनचाहा न बन जाए. वे तो सदा से इसी तरह करती आ रही हैं न. सो आज भी करती हैं. उन्हें लगता है कि वे बहू की सहायता कर रही हैं जबकि बहू को सहायता चाहिए ही नहीं. अकसर यह भी देखने में आता है कि बहू नकारा होती नहीं है बस, सास के अनुचित सेवादान से नकारी हो जाती है. जाहिर सी बात है, जिस तरह एक म्यान में 2 तलवारें नहीं समा सकतीं उसी तरह 2 मंझे हुए कलाकार, 2 बहुत समझदार लोग, 2 कमाल के रसोइए एक ही साथ काम नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों ही ‘परफैक्ट’ हैं, दोनों ही संपूर्ण हैं.

रात भर मुझे नींद नहीं आई, पता नहीं सुबह क्या दृश्य मिलेगा, सुबह 6 बजे उठी तो देखा सामने चाची की रसोई में अंधेरा था. कहीं चाची बीमार तो नहीं हो गईं. वे तो 6 बजे तक नहाधो कर सब्जियां भी चढ़ा चुकी होती हैं. कहीं मेरी ही कोई बात उन्हें बुरी तो नहीं लग गई जो कुछ मन पर ले लिया हो.  लपक कर चाची का दरवाजा खटखटा दिया. ‘‘आ जाओ बेटी, दरवाजा खुला है,’’ चाचा का स्वर था.

भीतर जा कर देखा तो नया ही रंग नजर आया. चाची रजाई में बैठी आराम से अखबार पढ़ रही थीं. मेज पर चाय के खाली कप पड़े थे. मेरी तरफ देखा चाची ने. एक प्यारी सी हंसी आ गई उन के होंठों पर.

‘‘चाची, आप ठीक तो हैं न,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह तो मैं भी पूछ रहा हूं. कह रही है कि आज से मैं रिटायर हो रही हूं. रात को ही इस ने निशा को समझा दिया कि सुबह से वही रसोई में जाएगी मैं नहीं… पता नहीं इसे एकाएक क्या सूझा है… मैं समझाता रहा…मेरी तो सुनी ही नहीं… आज अचानक से इस में इतना बड़ा परिवर्तन…’’

चाचा अपनी ऐनक उतार स्नानागार में चले गए और मैं मंत्रमुग्ध सी चाची का एक और प्यारा सा रूप देखती रही.

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क्षितिज के उस पार

‘‘मां, क्या इस शनिवार भी पिताजी नहीं आएंगे?’’  अंजू ने मुझ से तीसरी बार पूछा था. मैं खुद समझ नहीं पा रही थी. अभय का न तो पिछले कुछ दिनों से फोन ही आया था, न कोई खबर. सोचने लगी कि क्या होता जा रहा है उन्हें. पहले तो कितने नियमित थे. हर शनिवार को हम लोग उन के पास चले जाते थे 2 दिन के लिए और अगले शनिवार को उन्हें आना होता था. सालों से यह क्रम चला आ रहा था, पर पिछले 2 महीनों से उन का आना हो ही नहीं पाया था. बच्चियों के इम्तिहान करीब थे, इसलिए उन्हें भी ले जाना संभव नहीं था. मैं ही 2 बार हो आई थी, पर क्या अभय को बच्चियों की भी याद नहीं आती होगी?

‘‘मां, पिताजी तो इस बार मेरे जन्मदिन पर भी आना भूल गए…’’ मंजू ने रोंआसे स्वर में कहा था.

‘‘हां…और क्या…इस बार वह आएंगे न तो मैं उन से कुट्टी कर लूंगी…मैं नहीं जाऊंगी कहीं भी उन की कार में घूमने…’’

‘‘अरे, पहले पिताजी आएं तो सही…’’ अंजू ने मंजू को चिढ़ाते हुए कहा था.

‘‘ऐसा करते हैं, शाम तक उन का इंतजार कर लेते हैं, नहीं तो फिर मैं ही सुबह की बस से चली जाऊंगी…आया रह लेगी तुम लोगों के पास…क्या पता, उन की तबीयत ही ठीक न हो या फिर दादीजी बीमार हों,’’ मैं आशंकाओं में घिरती जा रही थी. रात को ठीक से नींद भी नहीं आ पाई थी. मन देर तक उधेड़बुन में ही लगा रहा. अगर बीमार थे या कोई और बात थी तो खबर तो भेज ही सकते थे. यों अहमदाबाद से आबूरोड इतना अधिक दूर भी तो नहीं है. फिर इतने सालों से आतेजाते तो यह दूरी और भी कम लगने लगी है.

इन गरमियों में हमारी शादी को पूरे 9 वर्ष हो जाएंगे. मुझे आज भी याद है वह घटना जब अभय से मेरी गृहस्थी से संबंधित बातचीत हुई थी. शुरूशुरू में जब मुझे अहमदाबाद में नौकरी मिली थी तब मैं कितना घबराई थी, ‘तुम राजस्थान में हो…हम लोग एक जगह तबादला भी नहीं करवा पाएंगे.’

‘तो क्या हुआ…मैं हर हफ्ते आता रहूंगा,’ अभय ने समझाया था.

समय अपनी गति से गुजरता रहा.

अभय को अभी 2 छोटी बहनों की शादी करनी थी. पिता का देहांत हो चुका था. बैंक में मात्र क्लर्क की ही तो नौकरी थी उन की. मेरा अचानक ही कालेज में व्याख्याता पद पर चयन हो गया था. यह अभय की ही हिम्मत और प्रेरणा थी कि मैं यहां अलग फ्लैट ले कर बच्चियों के साथ रह पाई थी. छोटी ननद भी तब मेरे साथ ही आ गई थी. यहीं से कोई कोर्स करना चाहती थी. अलग रहते हुए भी मुझे कभी लगा नहीं था कि मैं अभय से दूर हूं. वह अकसर दफ्तर से कालेज फोन कर लेते. शनिवार, इतवार को हम लोग मिल ही लेते थे.

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घर की आर्थिक दशा भी धीरेधीरे सुधरने लगी थी. बड़ी ननद का धूमधाम से विवाह कर दिया था. फिर पिछले साल छोटी भी ब्याह कर ससुराल चली गई. कुछ समय बाद अभय की भी पदोन्नति हो गई थी. महीने पहले ही आबूरोड में बैंक मैनेजर हो कर आए थे. नई कार ले ली थी, पर अब एक नई जिद शुरू हो गई थी. वे अकसर कहते, ‘रितु, तुम अब नौकरी छोड़ दो…मुझे अब स्थायी घर चाहिए. यह भागदौड़ मुझ से नहीं होती है और फिर मां का भी स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता है…’

मैं हैरान हो गई थी, ‘5 साल हो गए, इतनी अच्छी नौकरी है, फिर जब बच्चियां छोटी थीं, इतनी परेशानियां थीं तब तो मैं नौकरी करती रही. अब तो मुझ में आत्म- विश्वास आ गया है. बच्चियां भी स्कूल जाती हैं. इतनी जानपहचान यहां हो गई है कि कोई परेशानी नहीं. अब भला नौकरी छोड़ने में क्या तुक है?’

पिछली बार यही सब जब मैं ने कहा था तो अभय झल्ला कर बोले थे, ‘तुम समझती क्यों नहीं हो, रितु. तब जरूरत थी, मुझे बहनों की शादी करनी थी, पैसा नहीं था, पर अब तो ऐसी कोई बात नहीं है.’

‘क्यों, अंजू, मंजू के विवाह नहीं करने हैं?’ मैं ने भी तुनक कर जवाब दिया था.

‘उन के लिए मेरी तनख्वाह काफी है,’ उन्होंने एक ही वाक्य कहा था.

मैं फिर कुछ नहीं बोली थी, पर अनुभव कर रही थी कि पिछले कुछ दिनों से यही मुद्दा हम लोगों के आपसी तनाव का कारण बना हुआ था. कितनी ही बहस कर लो, हल तो कुछ निकलने वाला नहीं था. पर अब मैं नौकरी कैसे छोड़ दूं? इतने साल तक एक कामकाजी महिला रहने के बाद अब नितांत घरेलू बन कर रह जाना शायद मेरे लिए संभव भी नहीं था.

ठीक है, मां बीमार सी रहती थीं पर नौकर भी तो था. फिर हम लोग भी आतेजाते ही रहते थे. अहमदाबाद में बच्चियां अच्छे स्कूल में पढ़ रही थीं.

‘साल दो साल बाद तुम्हारा तबादला भी तो होता रहता है,’ मैं ने तनिक गुस्से में कहा था.

‘जिन के तबादले होते रहते हैं उन के बच्चे क्या पढ़ते नहीं?’ अभय ने चिढ़ कर कहा था. मैं क्या कहती? सोचने लगी कि इन्हें मेरी नौकरी से इतनी चिढ़ क्यों होने लगी है? कारण मेरी समझ से परे था. यों भी हम लोग कुछ समय के लिए ही मिल पाते थे. इसलिए जब भी मिलते, समय आनंद से ही गुजरता था.

शुरू में बातों ही बातों में एक दिन उन्होंने कहा था, ‘रितु, मेरा तो अब मन करता है कि तुम लोग सदा मेरे साथ ही रहो. अब और अलग रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है.’ मैं तो तब भी नहीं समझी थी कि यह सब अभय गंभीरता से कह रहे हैं. बाद में जब उन्होंने यही सब बारबार कहना शुरू कर दिया, तब मैं चौंकी थी, ‘आखिर तुम अब क्यों नहीं चाहते कि मैं नौकरी करूं? अचानक तुम्हें क्या हो गया है?’ ‘रितु, मैं ने बहुत सोच कर देखा है, इस तरह तो हम हमेशा ही अलगअलग रहेंगे. फिर अब जब आर्थिक स्थिति भी पहले से बेहतर है, तब क्यों अनावश्यक रूप से यह तनाव झेला जाए? बारबार आना मुश्किल है, मेरा पद भी जिम्मेदारी का है, इसलिए छुट्टियां भी नहीं मिल पातीं.’

मुझे अब यह प्रसंग अरुचिकर लगने लगा था, इसलिए मैं ने उन्हें कोई जवाब ही नहीं दिया था.

रात को नींद देर से ही आई थी. सुबह फिर मैं ने आया को बुला कर सारा काम समझा दिया था. बच्चियों की पढ़ाई आवश्यक थी. इसलिए उन्हें साथ ले जाने का इरादा नहीं था.

बस का 4-5 घंटे का सफर ही तो था, पर रात को सो न पाने की वजह से बस में ही झपकी लग गई थी. जब एक जगह बस रुकी और सब लोग चायनाश्ते के लिए उतरे, तभी ध्यान आया कि सुबह मैं ने ठीक से नाश्ता नहीं किया था, पर अभी भी कुछ खाने की इच्छा नहीं थी. बस, एक प्याला चाय मंगा कर पी. मन फिर आशंकित होने लगा था कि पता नहीं, अभय क्यों नहीं आ पाए.

आबूरोड बस स्टैंड से घर पास ही था. रिकशा कर के जब घर पहुंची तो अभय घर से निकल ही रहे थे.

‘‘रितु, तुम?’’ अचानक मुझे इस तरह आया देख शायद वह चौंके थे.

‘‘इतने दिनों से आए क्यों नहीं?’’ मैं ने अटैची रख कर सीधे प्रश्न दाग दिया था.

‘‘अरे, छुट्टी ही नहीं मिली… आवश्यक मीटिंग आ गई थी. आज भी दोपहर को कुछ लोग आ रहे हैं, इसीलिए तो तुम्हें फोन करने जा रहा था. चलो, अंदर तो चलो.’’

अटैची उठा कर अभय भीतर आ गए थे.

घर इस बार साफसुथरा और सजासंवरा लग रहा था, नहीं तो यहां पहुंचते ही मेरा पहला काम होता था सबकुछ व्यवस्थित करना. मांजी भी अब कुछ स्वस्थ लगी थीं.

‘‘शालू…चाय बनाना अच्छी सी…’’ अभय ने कुछ जोर से कहा था.

मैं सहसा चौंकी थी.

‘‘अरे, शालिनी है न…पड़ोस ही में तो रहती है. वही आ जाती है मां को संभालने…बीच में तो ये काफी बीमार हो गई थीं…मुझे दिन भर बाहर रहना पड़ता है, शालिनी ने ही इन्हें संभाला था.’’

तभी मुझे कुछ ध्यान आया. पिछली बार आई थी, तब मांजी ने ही कहा था, ‘पड़ोस में रामबाबू हैं न…रिटायर्ड हैडमास्टर साहब, उन की बेटी यहीं स्कूल में पढ़ाती है. बापबेटी ही हैं. बड़ी समझदार बिटिया है. मां नहीं है उस की, दिन में 2 बार पूछ जाती है.’

‘‘दीदी, चाय लीजिए,’’ शालिनी चाय के साथ बिस्कुटनमकीन भी ले आई थी. दुबलीपतली, सुंदर, घरेलू सी लड़की लगी थी. फिर वह बोली, ‘‘आप जल्दी से नहाधो लीजिए. मैं ने खाना बना लिया है. आप तो थकी होंगी, मैं अभी गरमागरम फुलके सेंक देती हूं.’’

मैं कुछ कह न पाई थी. मुझे लगा कि अपने ही घर में जैसे मेहमान बन कर आई हूं. मैं सोचने लगी कि यह शालिनी घर की इतनी जिम्मेदार सदस्या कब से हो गई?

अटैची से कपड़े निकाल कर मैं नहाने चली गई थी.

‘‘वह बहादुर कहां गया है?’’ बाथरूम से निकल कर मैं ने पूछा.

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‘‘छुट्टी पर है. आजकल तो शालू सुबहशाम खाना बना देती है, इसलिए घर चल रहा है. वाह, कोफ्ते…और मटर पुलाव…वाह, शालूजी, दिल खुश कर दिया आप ने,’’ अभय चटखारे ले कर खा रहे थे.

मेरे मन में कुछ चुभा था. रसोई का काम छोड़े मुझे काफी समय हो गया था. नौकरी और फिर घर पर बच्चों की संभाल के कारण आया ही सब कर लेती थी. यहां पर बहादुर था ही.

‘रितु, तुम्हारे हाथ का खाना खाए अरसा हो गया. कहीं खाना पकाना भूल तो नहीं गईं,’ अभय कभी कह भी देते थे.

‘यह भी कोई भूलने की चीज है. फिर ये लोग ठीक ही बना लेते हैं.’

‘पर गृहिणी की तो बात ही और होती है.’

मैं समझ जाती थी कि अभय चाहते हैं कि मैं खुद उन के लिए कुछ बनाऊं पर फिर बात आईगई हो जाती.

अचानक अभय बोले, ‘‘तुम्हें पता है, शालू बहुत अच्छा सितार बजाती है?’’

अभय ने कहा तो मुझे लगा कि जैसे मैं यहां शालू के ही बारे में सबकुछ जानने आई हूं. मन खिन्न हो उठा था. खाना खातेखाते ही फिर अभय ने कहा, ‘‘शालू, तुम्हें बाजार जाना था न. दफ्तर जाते समय तुम्हें छोड़ता जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ शालिनी भी मुसकराई थी.

मैं सोच रही थी कि इतने दिनों बाद मैं यहां आई हूं, अभय को न तो मेरे बारे में कुछ जानने की इच्छा है, न घर के बारे में और न ही बच्चियों के बारे में. बस, एक ‘शालू…शालू’ की रट लगा रखी थी.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगा.’’

‘‘ठीक है,’’ मैं ने अंदर से ही कह दिया था. तभी खिड़की से देखा, शालिनी कार में अगली सीट पर अभय के बिलकुल पास बैठी थी. पता नहीं अभय ने क्या कहा था, उस के मंद स्वर में हंसने की आवाज यहां तक आई थी.

मन हुआ कि अभी इसी क्षण लौट जाऊं. सोचने लगी कि आखिर मैं यहां आई ही क्यों थी?

मांजी खाना खा कर शायद सो गई थीं. मेज पर रखा अखबार उठाया, पर मन पढ़ने में नहीं लगा था.

अभय शायद 2 घंटे बाद लौटे थे. मैं ने उठ कर चाय बनाई.

‘‘रितु, रात का खाना हमारा शालू के यहां है,’’ अभय ने कहा था.

‘‘शालू…शालू…शालू…मैं क्या खाना भी नहीं बना सकती. समझ में नहीं आता कि तुम लोग क्यों उस के इतने गुलाम बने हुए हो. बहादुर छुट्टी पर क्या गया, लगता है, उस छोकरी ने इस घर पर आधिपत्य ही जमा लिया है.’’

‘‘रितु, क्या हो गया है तुम्हें? इस तरह तो तुम कभी नहीं बोलती थीं. घर का कितना ध्यान रखती है शालिनी…तुम्हें कुछ पता भी है? तुम्हें तो अपनी नौकरी… अपने कैरियर के सिवा…’’

‘‘हां, सारी अच्छाइयां उसी में हैं…मैं अभद्र हूं…बहुत बुरी हूं…कह लो जो कुछ कहना है…मैं क्या जानती नहीं कि उस का जादू तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोल रहा है. उसे घुमानेफिराने के लिए समय है तुम्हारे पास…और बीवी, जो इतने दिनों बाद मिली है, उस के पास दो घड़ी बैठ कर बात भी नहीं कर सकते.’’

‘‘वह बात करने लायक भी तो हो…’’ अभय भी चीखे थे…और चाय का प्याला परे सरका दिया था. फिर मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘क्यों बात का बतंगड़ बनाने पर तुली हो?’’

‘‘बतंगड़ मैं बना रही हूं कि तुम? क्या देख नहीं रही कि जब से आई हूं तब से शालू…शालू की रट लगा रखी है…यह सब तो मेरे सामने हो रहा है…पता नहीं पीठ पीछे क्याक्या गुल…’’

‘‘रितु…’’ अभय का एक जोर का तमाचा मेरे गाल पर पड़ा. मैं सचमुच अवाक् थी. अभय कभी मुझ पर हाथ भी उठा सकते हैं, मैं तो ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकती थी. मेरा इतना अपमान…वह भी इस लड़की की खातिर…

तकिए में मुंह छिपा कर मैं सिसक पड़ी थी…अभय चुपचाप बाहर चले गए थे. शायद उन्होंने महरी से कहा था कि शालिनी के यहां खाने के लिए मना कर दे. मांजी तो शाम को खाना खाती नहीं थीं. उन्हें दूध दे दिया था. मैं सोच रही थी कि अभय कुछ तो कहेंगे, माफी मांगेंगे फिर मैं रसोई में जा कर कुछ बना दूंगी…पर वे तो बैठक में बैठे सिगरेट पर सिगरेट पीते जा रहे थे. मन फिर जल उठा कि आखिर ऐसा क्या कर दिया मैं ने. शायद इस तरह बिना किसी पूर्व सूचना के आ कर उन के कार्यक्रम को चौपट कर दिया था, उसी का इतना गम होगा. गुस्से में आ कर मैं ने फिर अटैची में कपड़े ठूंस लिए थे.

‘‘मैं जा रही हूं…अहमदाबाद…’’ मैं ने ठंडे स्वर में कहा था.

‘‘अभी…इस समय?’’

‘‘हां…अभी बस मिल जाएगी…’’

‘‘कल चली जाना, अभी तो रात काफी हो गई है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ मैं भी जिद पर आमादा थी. शायद अभय के थप्पड़ की कसक अब तक गालों पर थी.

‘‘ठीक है, मैं छोड़ आता हूं…’’

अभय चुपचाप कार निकालने चले गए थे. मैं और भी जलभुन गई थी कि कितने आतुर हैं मुझे वापस छोड़ आने को. मैं चुप थी…और अभय भी चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. मेरी आंखें छलछला आईं कि कभी यह रास्ता कितना खुशनुमा हुआ करता था.

‘‘रितु, मैं ने बहुत सोचविचार कर देख लिया है…तुम्हें अब यह नौकरी छोड़नी पड़ेगी…और कोई चारा नहीं है…’’ अभय ने जैसे एक हुक्म सा सुना डाला था.

‘‘क्यों, क्या कोई लौंडीबांदी हूं मैं आप की, कि आप ने फरमान दे दिया, नौकरी करो तो मैं नौकरी करने लगूं…आप कहें नौकरी छोड़ दो…तो मैं नौकरी छोड़ दूं?’’

‘‘हां, यही समझ लो…क्योंकि और किसी तरह से तो तुम समझना ही नहीं चाहती हो और ध्यान से सुन लो, अगर तुम अब अपनी जिद पर अड़ी रहीं तो मैं भी मजबूर हो कर…’’

‘‘क्या? क्या करोगे मजबूर हो कर, मुझे तलाक दे दोगे? दूसरी शादी कर लोगे उस…अपनी चहेती…क्या नाम है, उस छोकरी का…शालू के साथ?’’ गुस्से में मेरा स्वर कांपने लगा था.

‘‘बंद करो यह बकवास…’’ अभय का कंपकंपाता बदन निढाल सा हो गया था. गाड़ी डगमगाई थी. मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. सामने से एक ट्रक आता दिखा था और गाड़ी काबू से बाहर थी.

‘‘अभय…’’ मैं ने चीख कर अभय को खींचा था और तभी एक जोरदार धमाका हुआ था. गाड़ी किसी बड़े से पत्थर से टकराई थी.

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ 2-3 साइकिल सवार उतर कर पूछने लगे थे. ट्रक ड्राइवर भी आ गया था, ‘‘बाबूजी, क्या मरने का इरादा है? भला ऐसे गाड़ी चलाई जाती है…मैं ट्रक न रोक पाता तो… वह तो अच्छा हुआ कि गाड़ी पत्थर से ही टकरा कर रुक गई, मामूली ही नुकसान हुआ है.’’

मैं ने अचेत से पड़े अभय को संभालना चाहा था, डर के मारे दिल अभी तक धड़क रहा था.

‘‘अभय, तुम ठीक तो हो न…?’’ मेरा स्वर भीगने लगा था.

‘‘यह तो अच्छा हुआ बहनजी…आप ने इन्हें खींच लिया वरना स्टियरिंग पेट में घुस जाता तो…’’ ट्रक ड्राइवर कह रहा था.

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अभय ने मेरी तरफ देखा तो मैं ने आंखें झुका ली थीं.

‘‘बाबूजी, इस समय गाड़ी चलाना ठीक नहीं है, आगे की पुलिया भी टूटी हुई है. आप पास के डाकबंगले में रुक जाइए, सुबह जाना ठीक होगा…गाड़ी की मरम्मत भी हो जाएगी,’’ ड्राइवर ने राय दी.

‘‘हां…हां, यही ठीक है…’’ मैं सचमुच अब तक डरी हुई थी.

डाकबंगला पास ही था. मैं तो निढाल सी बाहर बरामदे में पड़ी कुरसी पर ही बैठ गई थी. अभय शायद चौकीदार से कमरा खोलने के लिए कह रहे थे.

‘‘बाबूजी, खाना खाना चाहें तो अभी पास के ढाबे से मिल जाएगा…फिर तो वह भी बंद हो जाएगा,’’ चौकीदार ने कहा था.

‘‘रितु, तुम अंदर कमरे में बैठो, मैं खाना ले कर आता हूं,’’ कहते हुए अभय बाहर चले गए थे.

साधारण सा ही कमरा था. एक पलंग बिछा था. कुछ सोच कर मैं ने बैग से चादर, कंबल निकाल कर बिछा दिए थे. फिर मुंह धो कर गाउन पहन लिया. अभय को बड़ी देर हो गई थी खाना लाने में. सोचने लगी कि पल भर में ही क्या हो जाता है.

एकाएक मेरा ध्यान भंग हुआ था. अभय शायद खाना ले कर लौट आए थे.

अभय ने साथ आए लड़के से प्लेटें मेज पर रखने को कहा था.

खाना खाने के बाद अभय ने एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी सिगरेट सुलगानी चाही थी.

‘‘बहुत सिगरेट पीने लगे हो…’’ मैं ने धीरे से उन के हाथ से लाइटर ले लिया था और पास ही बैठ गई थी, ‘‘इतनी सिगरेट क्यों पीने लगे हो?’’

‘‘दूर रहोगी तो कुछ तो करूंगा ही…’’ पहली बार अभय का स्वर मुझे स्वाभाविक लगा था, ‘‘थक गया हूं रितु, ठीक है तुम नौकरी मत छोड़ना, मैं ही समय से पहले सेवानिवृत्त हो जाऊंगा, बस, अब तो खुश हो,’’ उन्होंने और सहज होने का प्रयास किया था…और मुझे पास खींच लिया था. फिर धीरे से मेरे उस गाल को सहला दिया था जहां शाम को थप्पड़ लगा था.

‘‘नहीं अभय, मैं नौकरी छोड़ दूंगी… आखिर मेरी सब से बड़ी जरूरत तो तुम्हीं हो,’’ कहते हुए मेरा गला रुंध गया था.

‘‘सच…क्या सच कह रही हो रितु?’’ अभय ने मेरी आंखों में झांका.

‘‘हां सच, बिलकुल सच,’’ मैं ने धीरे से कहते हुए अपना सिर अभय के कंधे पर टिका दिया था.

मन का रिश्ता: खून के रिश्तों से जुड़ी एक कहानी

मेरे हाथों में मेहंदी लगी देख सुदेश ने सवाल उछाल दिया, ‘‘यह मेहंदी किस खुशी में लगाई है? कोई शादीब्याह, तीजत्योहार या व्रतउपवास है क्या?’’

जवाब में मैं ने भी प्रश्न ही उछाल दिया, ‘‘आप को मालूम है…मधु की शादी तय हो गई है?’’

‘‘कौन मधु?’’

‘‘आप भी न कमाल करते हैं. अरे, हमारे पड़ोसी विपिनजी की बेटी, जिसे आप बचपन से देखते आ रहे हैं. सुंदर, सुशील, प्रतिभाशाली और काम में निपुण…’’ मेरी बात अधूरी ही रह गई जब सुदेश ने बात काटते हुए प्रश्न किया, ‘‘वही मधु न जिसे विपुल ने रिजेक्ट कर दिया था?’’

‘‘रिजेक्ट नहीं किया था,’’ मैं तमतमा उठी. मानो मेरा अपना अपमान हुआ हो. ‘‘उसे सौम्या पसंद थी. उस से प्यार करता था वह. खैर, वे सब पुरानी बातें हो गईं. मुझे तो खुशी है मधु को भी अच्छा घरवर मिल गया. शादी अच्छे से संपन्न हो जाए.’’

‘‘हुंह…बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना. तुम्हें हमेशा दूसरों के सुखचैन की पड़ी रहती है,’’ कहते हुए उन्होंने फाइलों में मुंह छिपा लिया. मैं सोच में डूब गई. शायद बेटा विपुल और ये ठीक ही कहते हैं. न जाने क्यों मुझ से किसी का बुरा सोचा ही नहीं जाता. चाहे वह आत्मीय हो या अजनबी, हमेशा हर एक के लिए दुआ ही निकलती है.

सुदेश तो कई बार समझाने भी लग जाते हैं कि तुम्हें थोड़ा व्यावहारिक होना चाहिए. सांसारिक दृष्टिकोण रखना कोई बुरी बात नहीं है. पर मैं चाह कर भी अपनेआप को बदल नहीं पाती.

विपुल हंसते हुए कहता है, ‘पापा, हमारी मम्मी इस ग्रह की नहीं हैं, किसी दूसरे ग्रह की प्राणी लगती हैं.’ मैं भी उन के मजाक में शामिल हो जाती. पर मुझे हमेशा यही लगता कोई इनसान इतना आत्मकेंद्रित कैसे हो सकता है? आखिर इनसानियत भी तो कोई चीज है.  मधु के साथ अनजाने में मुझ से जो अपराध हुआ था, वह मुझे हमेशा सालता रहता था. दरअसल सुंदर, गुणी मधु से मैं हमेशा से प्रभावित थी और उसे अपनी बहू बनाने का सपना भी देखती थी. जाने- अनजाने अपना यह सपना मैं मधु और उस के घर वालों पर भी प्रकट कर चुकी थी और वे भी इस रिश्ते से मन ही मन बेहद खुश थे. सुदर्शन, इंजीनियर दामाद उन्हें घर बैठे जो मिल रहा था.

विपुल दूसरे शहर में नौकरी करने लगा था. इस बार जब वह छुट्टी ले कर आया तो मैं ने अपना मंतव्य उस पर प्रकट कर दिया. हालांकि पहले भी मैं उसे मधु को ले कर छेड़ती रहती थी, लेकिन इस बार जब उस ने मुझे गंभीर और शादी की तिथि निश्चित करने के लिए जोर डालते देखा तो वह भी गंभीर हो उठा.‘मम्मी, मैं अपनी सहकर्मी सौम्या से प्यार करता हूं और उसी से शादी करूंगा.’

मुझे झटका सा लगा था, ‘पर बेटे…’

‘प्लीज मम्मी, शादी मेरा निहायत व्यक्तिगत मामला है. मैं इस में आप की पसंद को अपनी पसंद नहीं मान सकता. मुझे उस के साथ पूरी जिंदगी गुजारनी है.’

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‘मधु हर तरह से तुम्हारे लिए उपयुक्त है, बेटा. निहायत शरीफ…’ मैं ने अपना पक्ष रखना चाहा.  ‘आई एम सौरी, जिस लड़की से मैं प्यार नहीं करता उस से शादी नहीं कर सकता,’ विपुल इतना कह चला गया. मैं बिलकुल टूट सी गई थी. लेकिन सुदेश ने भी मुझे ही दोषी ठहराया था, ‘गलती तुम्हारी है इंदु. तुम्हें मधु या उस के घर वालों से कोई भी वादा करने से पहले विपुल से पूछ लेना चाहिए था.’

मैं ने अपनी गलती मान ली थी. मधु और उस के घर वालों के सम्मुख वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हुए मैं ने क्षमा भी मांग ली थी. मधु ने तो मेरी मजबूरी समझ ली थी. हालांकि उस के चेहरे से लग रहा था कि उसे गहरा धक्का लगा है पर उस के घरवाले काफी उत्तेजित हो गए थे. खूब खरीखोटी सुनाई उन्होंने मुझे. मैं ने गरदन झुका कर सबकुछ सुन लिया था. आखिर गलती मेरी थी. ऊपर से संबंध भले ही फिर से सामान्य हो गए थे पर कहीं कोई गांठ पड़ गई थी. पहले वाली बेतकल्लुफी और अपनापन कहीं खो सा गया था. विपुल की शादी में वे शामिल नहीं हुए. पूरा परिवार ही शहर से बाहर चला गया था. इरादतन या संयोगवश, मैं आज तक नहीं जान पाई. स्वभाववश मैं ने हमेशा की तरह यही कामना की थी कि मधु को भी जल्दी ही अच्छा घरवर मिल जाए. और एक दिन मधु की मां खुशीखुशी शादी का कार्ड पकड़ा गई थीं. मैं ने उन्हें गले से लगा लिया था.

‘‘सच कहूं बहन, आप से भी ज्यादा आज मैं खुश हूं,’’ और इसी खुशी में मैं ने अपने हाथों में मेहंदी रचा ली थी. ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ जैसा पति का व्यंग्य भी मेरी खुशी को कम नहीं कर सका था. बहुत उत्साह से मैं ने शादी की सभी रस्मों में भाग लिया और फिर भारी मन से बेटी की तरह मधु को विदा किया.

मधु की शादी के बाद विपुल और सौम्या घर आए तो मैं मधु की विदाई का गम भूल उन के सत्कार में लग गई. सौम्या भी बहुत अच्छी लड़की थी. मुझे उस पर भी बेटी सा स्नेह उमड़ आता था. बापबेटे हमेशा की तरह मुझ पर हंसते थे. ‘मम्मी को सब में अच्छाइयां ही नजर आती हैं. परायों से भी रिश्ता जोड़ लेती हैं. फिर तुम तो उन की इकलौती बहू हो. तुम पर तो जितना प्यार उमड़े कम है.’  सच, उन के साथ पूरा सप्ताह कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चला. उन के जाने के बाद एक दिन बाजार में मुझे मधु मिल गई. उसे देखते ही मेरा चेहरा एकदम खिल उठा, लेकिन गौर से उसे देखा तो जी धक से रह गया. सूनी मांग, सूनी कलाइयां, सूना माथा और भावनाशून्य चेहरा… मुझे चक्कर सा आने लगा. पास के खंभे को पकड़ अपने को संभाला.

‘‘कब आईं तुम? और यह क्या है?’’ वह फफक उठी. देर तक फूटफूट कर रोती रही, ‘‘सब खत्म हो गया आंटी, एक दुर्घटना में वे चल बसे. ससुराल वालों ने अशुभ कह कर दुर्व्यवहार आरंभ कर दिया. मैं यहां आ गई. दोचार दिन तो सब ने हाथोंहाथ लिया. पर अब भाभीभैया अवहेलना करने लगे हैं. आखिर हूं तो मैं बोझ ही. मां सबकुछ देखतीसमझती हैं पर कर कुछ नहीं पातीं. जीवन बोझ लगने लगा है. मरने का मन करता है.’’

‘‘पागल हो गई हो? ऐसा कभी सोचना भी मत. चलो, मेरे साथ घर चलो,’’ उस का मुंह धुला कर मैं ने उसे चाय पिलाई. जब उस का मूड कुछ ठीक हो गया तो मैं ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘तुम तो काफी पढ़ीलिखी हो. पति की जगह नौकरी पर क्यों नहीं लग जातीं?’’

‘‘सोचा था. पता चला, उस जगह देवर लगने का प्रयास कर रहे हैं.’’

‘‘लेकिन पहला हक तुम्हारा है. यदि तुम आत्मसम्मान की जिंदगी जीना चाहती हो तो तुम्हें अपने हक के लिए लड़ना होगा.’’

‘‘लेकिन मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम…कैसे क्या करना है?’’

‘‘हूं… एक आइडिया है. विपुल उसी शहर में है. मैं उस से कहती हूं, वह तुम्हारी मदद करेगा.’’

विपुल पहले तो एकदम बिदक गया, ‘‘क्या मां, आप हर किसी के फटे में टांग डालती रहती हो.’’ पर जवाब में मेरी ओर से कोई आवाज सुनाई नहीं दी तो तुरंत मेरी मनोस्थिति ताड़ गया, ‘‘ठीक है मम्मी, मैं प्रयास करता हूं.’’  विपुल के प्रयास रंग लाए और मधु को नौकरी मिल गई. वह बेहद खुश थी. उस की मुसकान देख कर मुझे लगा कि मेरी गलती का आंशिक पश्चात्ताप हो गया है. उस के जाने के बाद एक दिन उस की मां मिल गईं. उन्होंने  यह कहते हुए मेरा बड़ा एहसान माना कि मैं ने मधु को नई जिंदगी दी है.

‘‘मैं तो चाहती हूं उस का फिर से घर भी बस जाए. अभी उस की उम्र ही क्या है?’’ मेरी जबान फलीभूत हुई. मधु की मां ने ही एक दिन बताया कि मधु ने अपने एक सहकर्मी से आर्यसमाज में शादी कर ली है. उस के भाईभाभी ऊपर से तो रोष जता रहे हैं, लेकिन मन ही मन खुश हैं कि चलो, बला टली.

‘‘यह दुनिया ऐसी ही है बहन. आप के बेटेबहू कोई अपवाद नहीं हैं.’’

‘‘लेकिन आप तो अपवाद हैं. अपनों की तो हर कोई सोचता है लेकिन आप तो परायों के लिए भी…’’

‘‘अपनापराया कुछ नहीं होता. रिश्ते तो मन के होते हैं. जिस से मन जुड़ जाए वही अपना लगने लगता है. मधु को मैं ने हमेशा अपनी बेटी की तरह चाहा है. उस के लिए कुछ करने से मुझे कभी रोकना मत.’’

वैसे प्यार तो मुझे सौम्या से भी बहुत हो गया था. सच कहूं, मुझे हर वक्त उस की चिंता लगी रहती थी. पतली, नाजुक, छुईमुई सी लड़की कैसे आफिस और घर दोनों जिम्मेदारियां संभालती होगी? विपुल से जब भी बात होती मैं उसे सौम्या की मदद करने की सीख देना नहीं भूलती.  और जब से मुझे पता चला कि वह गर्भवती है तो एक ओर तो मैं हर्ष से फूली नहीं समाई, लेकिन दूसरी ओर उस की चिंता मुझे दिनरात सताने लगी. मैं ने डरतेडरते सुदेश से अपने मन की बात कही, ‘‘मैं चली जाती हूं दोनों के पास उन्हें संभालने. सौम्या बेचारी, कैसे मैनेज कर रही होगी?’’

‘‘इंदु, तुम्हारा इतना संवेदनशील और लचीला होना मुझे बहुत अखरता है. अभी उसे मात्र 2 महीने हुए हैं. उसे 9 महीने इसी अवस्था में गुजारने हैं. तुम कब तक उन की देखभाल करोगी? वे बच्चे नहीं हैं. अपनेआप को और अपने घर को संभाल सकते हैं. उन्हें तुम्हारे हस्तक्षेप, जिसे तुम सहयोग कहती हो, की जरूरत नहीं है. जरूरत होगी, तब वे अपनेआप तुम्हें बुला लेंगे और तभी तुम्हारा जाना सार्थक और सम्मानजनक होगा.’’

मैं कहना चाहती थी, भला अपनों के काम आने में क्या सम्मान और सार्थकता देखना, पर जानती थी ऐसा कहना एक बार फिर मेरी व्यावहारिक नासमझी को ही दर्शाएगा. इसलिए चुप्पी लगा गई. पर गुपचुप छिटपुट तैयारियां करना मैं ने आरंभ कर दिया था. बहू के लिए खूब सारे सूखे मेवे खरीद लाई थी. कोई जाएगा तो साथ भिजवा दूंगी. फोन पर हिदायतों का दौर तो जारी था ही.  इसी बीच खबर लगी कि मधु भी गर्भवती है. मैं ने मधु की मां से मिल कर उन्हें बधाई दी. पता चला कि वे मधु के पास ही जा रही थीं.  मैं तुरंत घर लौटी. मेवे का पैकेट खोल कर उस के 2 पैकेट बनाए और तुरंत मधु की मां को ला कर थमा दिए, ‘‘यह एक पैकेट विपुल आ कर ले जाएगा और दूसरा मधु के लिए है.’’  डबडबाई आंखों से उन्होंने दोनों पैकेट थाम लिए. समय के साथसाथ सौम्या की तबीयत संभलने लगी थी. मैं विपुल से फोन पर हमेशा यही कहती, ‘‘जरा सी भी दिक्कत हो तो मुझे निसंकोच फोन कर देना. मैं तुरंत पहुंच जाऊंगी.’’

‘‘बिलकुल मां, यह भी भला कोई कहने की बात है?’’

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सौम्या की डिलीवरी का समय पास आ गया था. उस ने अब आफिस से छुट्टियां ले ली थीं. आपस में सलाह- मशविरा कर उन्होंने हमें सूचित किया कि डिलीवरी के समय मैं सौम्या के पास रहूं इसलिए सुदेश के खाने का प्रबंध कर मैं उन के पास रहने चली गई. तय हुआ कि डिलीवरी के बाद कुछ वक्त गुजार कर मैं लौट आऊंगी और तब सौम्या की मां आ कर सब संभाल लेंगी.

सौम्या का समय पूरा हो चुका था पर उसे अभी तक लेबरपेन आरंभ नहीं हुआ था. डाक्टर की सलाह पर हम ने उसे अस्पताल में भरती करवा दिया. अभी हम पूरी तरह व्यवस्थित भी नहीं हो पाए थे कि पास लाई गई दूसरी प्रसूता को देख मैं चौंक उठी. यह तो मधु थी. वह दर्द से कराह रही थी. उसे आसपास का जरा भी होश न था. उस की मां उसे संभालने का असफल प्रयास कर रही थीं. मैं ने उन्हें धीरज बंधाया. जल्दी ही मधु को लेबर रूम में ले जाया गया और कुछ समय बाद ही उस ने एक बेटे को जन्म दे दिया. भावातिरेक में उस की मां मेरे गले लग गईं. अब बस सौम्या की चिंता थी. डाक्टर ने चेकअप किया. सामान्य प्रसव के कोई आसार न देख आपरेशन से बच्चा पैदा करने का निर्णय लिया गया. मैं बारबार सौम्या के सुरक्षित प्रसव की कामना कर रही थी. मधु और उस की मां ने मेरी बेचैनी देखी तो मुझे धीरज बंधाया.

‘‘सब अच्छा ही होगा. आप जैसे भले लोगों के साथ कुदरत हमेशा भला ही करेगी.’’

जब तक सौम्या आपरेशन थिएटर में बंद रही और विपुल बाहर चक्कर काटता रहा उस दौरान मधु की मां ने बातों से मेरा दिल बहलाए रखा. साथ ही मधु और अपने नवासे को भी संभालती रहीं. लेडीडाक्टर ने जब जच्चाबच्चा दोनों के सुरक्षित होने की सूचना दी तब ही मुझे चैन पड़ा. घर में पोती आई थी. मैं बहुत खुश थी, लेकिन यह जान कर मेरी चिंता बढ़ गई कि नवजात बच्ची बहुत कमजोर है. सौम्या की हालत भी ज्यादा अच्छी नहीं थी. फिर उसे दूध भी नहीं उतर रहा था. अस्पताल में नर्सरी आदि की सुविधा नहीं थी. डाक्टर के अनुसार बच्ची को यदि कुछ समय तक किसी नवप्रसूता का दूध मिल जाए तो उस की स्थिति संभल सकती थी.

‘‘आप को एतराज न हो तो मैं इसे दूध पिला देती हूं,’’ मधु ने स्वयं को प्रस्तुत किया तो हम एकबारगी तो चौंक गए.

‘‘नेकी और पूछपूछ,’’ कहते हुए उस की मां ने बच्ची को तुरंत मधु की गोद में डाल दिया. मधु ने उसे प्यार से आंचल में ढांप लिया और दूध पिलाने लगी. मैं उस के इस ममतामयी रूप पर निछावर हो गई.

2 दिन हो गए थे. सुदेश भी आ गए थे. मधु जितनी बार अपने बेटे को दूध पिलाती, याद से गुडि़या को भी पिला देती. तीसरे दिन डाक्टर ने चेकअप किया. मधु की अस्पताल से छुट्टी हो चुकी थी. गुडि़या की तबीयत संभल गई थी, लेकिन सौम्या को अभी कुछ दिन और अस्पताल में रहना था. उस के घाव अभी भरे नहीं थे. बड़ी असमंजस की स्थिति थी. गुडि़या को मां से दूर भी नहीं किया जा सकता था और अभी कुछ दिन उसे और ऊपर के दूध के साथ मां के दूध की जरूरत थी. हम सोच ही रहे थे कि क्या किया जाए कि मधु बोल पड़ी, ‘‘हमारा घर पास में ही है. मैं इसे दूध पिलाने आती रहूंगी. साथ ही ऊपर का दूध भी बना कर लाती रहूंगी.’’

‘‘हां हां, आप चिंता मत कीजिए. हम सब संभाल लेंगे,’’ मधु की मां भी तुरंत बोल पड़ीं.

3-4 दिन तक मांबेटी का यही क्रम चलता रहा. मधु न केवल गुडि़या को दूध पिला जाती बल्कि ताजा गुनगुना दूध बना कर भी ले आती. कभी सौम्या के लिए खिचड़ी, दलिया आ जाता.  मधु की मां जो दवा मधु के लिए बनातीं उस की एक खुराक आ कर सौम्या को भी खिला जातीं. विपुल और उस के पापा ये सब देख कर अचंभित रह जाते. अपनी अब तक की सोच पर शर्मिंदगी के भाव उन के चेहरे पर स्पष्ट परिलक्षित होते थे. मैं मधु को बारबार कहती, ‘‘तुम्हें इतना श्रम अभी नहीं करना चाहिए. तुम्हें आराम की जरूरत है.’’

‘‘मुझे ये सब करने से इतना आराम मिल रहा है कि मैं आप को बता नहीं सकती,’’ वह मुसकरा कर कहती. एक नर्स ने तो मुझ से पूछ भी लिया था, ‘‘क्या रिश्ता है आप का इस लड़की से?’’

‘‘इनसानियत का रिश्ता, जिस के तार मन से जुड़े होते हैं,’’ यह कहते हुए मेरे चेहरे पर असीम तृप्ति के भाव थे.

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आत्मनिर्णय

मैं सोचती रह गई कि आज की नई पीढ़ी क्या हम बड़ों से ज्यादा समझदार हो गई है? आन्या ने जो फैसला लिया, शायद ठीक ही था, जबकि परिपक्व होते हुए भी आत्मनिर्णय लेने में मैं ने कितनी देर लगा दी थी.

मैं ने आन्या के पापा को उस के पैदा होने के महीनेभर बाद ही खो दिया था. हरीश हमारे पड़ोसी थे. वे विधुर थे और हम एकदूसरे के दुखसुख में बहुत काम आते थे. हरीश से मेरा मन काफी मिलता था. एक बार हरीश ने लिवइन रिलेशनशिप का प्रस्ताव मेरे सामने रखा तो मैं ने कहा, ‘यह मुमकिन नहीं है. आप के और मेरे दोनों के बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. पति को तो खो ही चुकी हूं, अब किसी भी कीमत पर आन्या को नहीं खोना चाहती. हम दोनों एकदूसरे के दोस्त हैं, यह काफी है.’ उस के बाद फिर कभी उन्होंने यह बात नहीं उठाई.

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धीरेधीरे समय का पहिया घूमता रहा और आन्या अपनी पढ़ाई पूरी कर के नौकरी करने लगी. उसे बस से औफिस पहुंचने में करीब सवा घंटा लगता था. एक दिन अचानक आन्या ने आ कर मुझ से कहा, ‘‘मम्मी, बहुत दूर है. मैं बहुत थक जाती हूं. रास्ते में समय भी काफी निकल जाता है. मैं औफिस के पास ही पीजी में रहना चाहती हूं.’’

एक बार तो उस का प्रस्ताव सुन कर मैं सकते में आ गई, फिर मैं ने सोचा कि एक न एक दिन तो वह मुझ से दूर जाएगी ही. अकेले रह कर उस के अंदर आत्मविश्वास पैदा होगा और वह आत्मनिर्भर रह कर जीना सीखेगी, जोकि आज के जमाने में बहुत जरूरी है. मैं ने उस से कहा, ‘‘ठीक है बेटा, जैसे तुम्हें समझ में आए, करो.’’

3-4 महीने बाद उस ने मुझे फोन कर के अपने पास आने के लिए कहा तो मैं मान गई, और जब उस के दिए ऐड्रैस पर पहुंच कर दरवाजे की घंटी बजाई तो दरवाजे पर एक सुदर्शन युवक को देख कर भौचक रह गई. इस से पहले मैं कुछ बोलूं, उस ने कहा, ‘‘आइए आंटी, आन्या यहीं रहती है.’’

यह सुन कर मैं थोड़ी सामान्य हो कर अंदर गई. आन्या सोफे पर बैठ कर लैपटौप पर कुछ लिख रही थी. मुझे देखते ही वह मुझ से लिपट गई और मुसकराते हुए बोली, ‘‘मम्मी, यह तनय है, मैं इस से प्यार करती हूं. इसी से मुझे शादी करनी है. पर अभी ससुराल, बच्चे, रीतिरिवाज किसी जिम्मेदारी के लिए हम मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से परिपक्व नहीं हैं. अलग रह कर रोजरोज मिलने पर समय और पैसे की बरबादी होती है. इसलिए हम ने साथ रह कर समय का इंतजार करना बेहतर समझा है. मैं जानती हूं अचानक यह देख कर आप को बहुत बुरा लग रहा है, लेकिन आप मुझ पर विश्वास रखिए, आप को मेरे निर्णय से कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.

‘‘और मैं यह भी जानती हूं, आप पापा के जाने के बाद बहुत अकेला महसूस कर रही हैं. आप हरीश अंकल से बहुत प्यार करती हैं. आप भी उन के साथ लिवइन में रह कर अपने अकेलेपन को दूर करें. फिर मुझे भी आप की ज्यादा चिंता नहीं रहेगी.’’

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यह सब सुनते ही एक बार तो मुझे बहुत झटका लगा, फिर मैं ने सोचा कि आज के बच्चे कितने मजबूत हैं. मैं तो कभी आत्मनिर्णय नहीं ले पाई, लेकिन जीवन का इतना बड़ा निर्णय लेने में उस को क्यों रोकूं. तनय बातों से अच्छे संस्कारी परिवार का लगा. अब समय के साथ युवा बदल रहे हैं, तो हमें भी उन की नई सोच के अनुसार उन की जीवनशैली का स्वागत करना चाहिए. उन पर हमारा निर्णय थोपने का कोई अर्थ नहीं है. और यह मेरी परवरिश का ही परिणाम है कि वह मुझ से दूसरे बच्चों की तरह छिपा कर कुछ नहीं करती. मैं ने तनय को अपने गले से लगाया कि उस ने आन्या के भविष्य की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले कर मुझे मुक्त कर दिया है. मैं संतुष्ट मन से घर लौट आई और आते ही मैं ने हरीश के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी.

नश्तर: पति के प्यार के लिए वे जिंदगीभर क्यों तरसी थी?

लेखक- नीलम कुलश्रेष्ठ

पैरों की एडि़यां तड़कने लगी हैं, चेहरे की झुर्रियां भी जबतब कसमसाने लगी हैं. कितनी भी कोल्ड क्रीम घिसें, थोड़ी देर में ही जैसे त्वचा तड़कने लगती है. बूढ़े लोगों को देखना और बात है, लेकिन बुढ़ापे को अपने शरीर में महसूस करना और बात. सारी इंद्रियों की शक्ति धीरेधीरे जाने कहां लुप्त होने लगती है. बस, एक ही चीज खत्म नहीं होती, और वह है अंदर की चेतना.

कभीकभी उन्हें झुंझलाहट भी होती है कि सारी शक्ति की तरह यह चेतना भी क्षीण क्यों नहीं हो जाती. यदि ऐसा हो जाए तो कितना अच्छा हो. सुबह उठ कर खाओपीओ, हलकेफुलके काम करो और सो जाओ, अवकाशप्राप्त जिंदगी में और है ही क्या, लेकिन ऐसा होता कहां है.

उन की चेतना के आंचल में ढेरों नश्तर घुसे हुए हैं. वे चाहती हैं कि उन्हें नोच कर बाहर फेंक दें. वे तो जमीन में उगे कैक्टस की मानिंद हैं, ऊपर से कितना भी काटो, फिर उग आएंगे. एक नश्तर तो उन की चेतना में पिरोए दिल की झिल्ली में जैसे बारबार दंश मारता रहता है.

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अर्चना दीदी उन से 5 वर्ष छोटी हैं. वे गौरवर्णा, चिकनी त्वचा वाली गोलमटोल महिला हैं. अकसर ऐसी स्त्रियों के गाल उन्नत होते हैं और आंखें छोटीछोटी व कटीली. वे इन का इस्तेमाल करना भी खूब जानती हैं. कहने को तो वे विजयजी की दूर के रिश्ते की बहन हैं, लेकिन जब भी घर में कदम रखेंगी, आंखें नचा कर, तरहतरह के मुंह बना कर इस तरह बात करेंगी कि विजयजी हंसतेहंसते लोटपोट हो जाते हैं.

अपनी ही बात पर मोहित हो वे विजयजी के गले में बांहें डाल देंगी, ‘क्यों भैया, मैं ने ठीक कहा न?’

‘तुम गलत ही कब कहती हो,’ विजयजी उन की ब्लाउज व साड़ी के बीच की खुली कमर को अपनी बांहों में घेर कर उन्हें अपने पास खींच लेंगे.

वे यह नाटक कुछ महीनों से देखती चली आ रही हैं. कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती. घर के किसी कोने में आंसू बहाती रहती हैं या कुढ़ती रहती हैं. इस गले लगाने या लिपटने से आगे भी उन दोनों के बीच कुछ और है, वे टोह नहीं ले पाई हैं. वैसे भी वे हर समय पति के पीछे थोड़े ही लगी रहती हैं.

कभीकभी उन्हें अपनेआप पर बेहद खीझ होती है कि क्यों उन्होंने खुद को दब्बू बना रखा है? शादी से पहले जब वे सोफे पर कूद कर ‘धम’ से बैठती तो मां बड़बड़ाया करती थीं, ‘क्या लड़कों जैसी उछलतीकूदती रहती है, जरा लड़कियों जैसी नजाकत से रहा कर.’

तीज से एक दिन पहले मां एक कटोरी में मेहंदी घोल कर बैठ जातीं. तब वे बहाना बनातीं, ‘मां, कल विज्ञान का टैस्ट है.’

‘तू हर साल बहाना करती है. लड़कियों को पता नहीं क्याक्या शौक होते हैं. नेलपौलिश लगाएंगी, लिपस्टिक लगाएंगी, चूडि़यां पहनेंगी. लेकिन एक तू…नंगे डंडे जैसे हाथ लिए घूमती रहती है. चल, आज तो मेहंदी का शगुन कर ले.’

बेहद खीझते हुए वे मां के सामने बैठ जातीं. मां मेहंदी में नीबू, चीनी, चाय का पानी और न जाने क्याक्या मिला कर उसे तैयार करतीं, पर मेहंदी लगवाते हुए वे शोर मचातीं, ‘मां, जल्दी करो, दुखता है.’

मां तो जैसे तीजत्योहारों पर तानाशाह बन जाती थीं, ‘चुपचाप बैठी रह. कल नहाने से पहले तुझे हरे रंग की चूडि़यां पहननी हैं.’

‘ठीक है, पहन लूंगी, लेकिन यह किस ने कानून बनाया है कि मेहंदी लगा कर उसे धो डालो. मुझे तो मेहंदी का हरा रंग ही लुभावना लगता है.’

‘तू बड़बड़ मत कर, मेहंदी बिगड़ जाएगी.’

मां के तानाशाही लाड़दुलार में जैसे उन का मन भीगभीग जाता था. वे हथियार डाल देती थीं. दूसरे दिन मेहंदी लगे हाथों में हरे रंग की चूडि़यों के साथ हरे रंग की साड़ी जैसेतैसे पिन लगा कर पहन लेतीं, मां निहाल हो उठतीं, ‘कैसी राजकुमारी सी लग रही है, जिस के घर जाएगी, वह धन्य हो जाएगा.’

अपनी शादी की दूसरी रात वे ऐसे ही तो नख से शिख तक तैयार हुई थीं. ननद व जेठानी उन्हें सजा कर स्वयं ठगी सी रह गई थीं.

लेकिन जिन के लिए सज कर वे बैठी थीं, उन्होंने बिना उन का चेहरा देखे रुखाई से कहा था, ‘जा कर कपड़े बदल लीजिए, भारी साड़ी में गरमी लग रही होगी.’

वे अपमान का घूंट पी दूसरे कमरे में जा कर सूती जरी की किनारी वाली साड़ी पहन कर आ गई थीं. उस निर्मोही ने फिर भी उन की तरफ नहीं देखा था. बत्ती बंद करते हुए कहा था, ‘शादी की भागदौड़ में आप भी थक गई होंगी, मैं भी थक गया हूं. मुझे जोरों की नींद आ रही है,’ 2 मिनट में ही करवट बदल कर गहरी नींद में सो गए थे.

विजयजी के साथ उन की शादी के शुरुआती 8 दिन ऐसे ही बीते थे. वे अनब्याही दुलहन की तरह मायके लौट आई थीं. घर में जरा भी एकांत मिलता तो अपनेआप झरझर आंसू बहने लगते. वे नहीं चाह रही थीं कि कोई उन के आंसू देखे, लेकिन मां की छठी इंद्रिय ने बेटी के मन की थाह को सूंघ ही लिया. एक दिन उन्होंने पूछ ही लिया था, ‘तू अकेले में क्यों रोती है?’

पहले तो वे सकुचाईं कि किस तरह कहें कि उन की देह को पति ने स्पर्श तक नहीं किया. फिर संकोच छोड़ कर सारी बात उन्हें बता दी.

‘यदि ऐसा था तो शर्म को त्याग कर उन से इस का कारण पूछना था.’

‘मैं ऐसी बात कैसे पूछ सकती थी?’

‘पतिपत्नी के संबंधों में संकोच कैसा? वैसे हम लोगों ने पैसा तो भरपूर दिया था, लेकिन हो सकता है कि कुछ लेनदेन के बारे में उन की नाराजगी हो?’

‘यदि वे ऐसे लालची हैं तो मैं वहां नहीं रहूंगी.’

‘बेटी, पहले तू पूछ कर तो देख.’

मां के प्रोत्साहन के कारण दूसरी बार ससुराल आ कर वे खुद को आश्वस्त महसूस कर रही थीं. जैसे ही विजयजी ने रात को बत्ती बुझानी चाही, उन्होंने उन का हाथ पकड़ लिया, ‘जरा, आज हम लोग बातचीत कर लें.’

विजयजी ने झुंझला कर हाथ छुड़ाया, ‘क्या बात करनी है? शादी हो गई, तुम इस घर की मालकिन बन गईं और क्या चाहिए?’

‘यदि मैं आप का मन नहीं जीत पाई तो मेरा इस घर में आना बेकार है.’

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‘तुम औरतों को चाहिए क्या, कपड़ा और खाना. इन चीजों की तुम्हें जिंदगीभर कमी नहीं होगी,’ फिर उन्होंने स्विच की तरफ हाथ बढ़ाना चाहा. पर उन्होंने उन का हाथ दृढ़ता से पकड़ लिया, ‘नहीं, आज मुझे इतना अधिकार दीजिए कि मैं आप से चंद बातें कर सकूं.’

वे बेमन पलंग पर तकिए के सहारे टिक कर बैठ गए, ‘अब कहो? मैं कहां नाराज हूं,’ वह उन्हें आग्नेय नेत्रों से देख कर बोले.

‘आप की आंखें तो कुछ और ही कह रही हैं,’ वे जैसे हर प्रहार के लिए कलेजा कड़ा कर के बैठी थीं.

‘मेरे चाचा से पूछो कि मेरी नाराजगी का कारण क्या है?’

‘मैं ने सुना तो था कि आप के पिताजी सीधेसादे हैं, शादी की हर बात तय करने के लिए आप के चाचा को आगे कर देते हैं.’

‘हां, उन्हीं चाचा ने रुपयों के लालच में मुझे तुम्हारे पिता के हाथों बेच दिया.’

उन का चेहरा भी तमतमा आया था, ‘मेरे पिता दूल्हा खरीदने नहीं निकले थे. उन्होंने तो अपनी जाति की प्रथा के हिसाब से रुपया दिया था. फिर मेरे पिता व्यापार करते हैं, उन के लिए 2 लाख रुपए अपनी मरजी से देना बड़ी बात नहीं थी.’

‘2 लाख? लेकिन चाचा ने तो हमें डेढ़ लाख रुपए ही दिए थे.’

‘नहीं, सच में मेरे पिता ने 2 लाख रुपए दिए थे.’

‘तो क्या मेरे चाचा झूठ बोलेंगे?’

‘इस बात का फैसला तो बाद में होगा. अब समसया यह है तो हम लोगों को सहज जीवन व्यतीत करना चाहिए.’

‘मैं तुम्हारे लिए बिका हूं, यह बात मुझे सहज नहीं होने दे रही.’

‘मैं आप को सहज कर दूंगी,’ कह कर उन्होंने स्वयं बिजली के बटन पर हाथ रख दिया. ऐसे में उन के कंगन बज उठे थे.

उन दिनों वे मन ही मन कितनी आहत होती थीं. पति तो नवविवाहिता पत्नी का दीवाना हो जाता है, लेकिन उन के हाथ में कुछ उलटा ही रचा था, जैसे कि उन्हें मेहंदी का भी उलटा रंग ही पसंद आता था. वे जबरदस्ती उन्हें अपने आकर्षण में बांध रही थीं. बस, ऐसे ही एक बेटे व बेटी की मां बन गई थीं.

कभी उन्होंने सुना था कि यदि दूल्हे व दुलहन के मन में ब्याह के मंडप के नीचे कोई गांठ हो तो वह जिंदगीभर नहीं खुलती. क्या यह बात सच है? उसी मंडप में चाचाजी ने 50 हजार रुपए अपनी जेब में खिसका लिए थे. यह बात पंडित की बहुत खुशामद करने के बाद पता लगी थी.

उन्होंने लाख कोशिश कर के देख ली थी, पर पति के दिल को वे पूरी तरह जीत नहीं पाई थीं. इसीलिए पास के स्कूल में उन्होंने नौकरी कर ली थी. बच्चों के लिए एक आया रख ली थी. दोपहर के खाने के लिए विजयजी घर पर आते थे, आया उन्हें खाना खिला देती व घर की देखभाल भी कर लेती थी.

तब स्कूल में बराबर की अध्यापिकाओं में उन का मन रम गया था. कभी स्कूल से ही पास के बाजार में चाट खाने का कार्यक्रम बन जाता तो कभी फिल्म देखने का. उधर विजयजी ने भी चैन की सांस ली थी कि वे उन पर अपनी खीझ नहीं उतारतीं, अपनी सहेलियों में मस्त हैं.

एक दिन एक अध्यापिका के पिता की मृत्यु के कारण स्कूल 11 बजे ही बंद हो गया. सो, वे जल्दी घर आ गईं. 5 मिनट तक वे दरवाजा खटखटाती रहीं, तब कहीं आया ने खोला. वह कुछ हकलाते हुए बोली, ‘बच्चों को स्कूल छोड़ आईर् थी. स…स…साहब जल्दी घर आ गए हैं…’

‘क्यों?’

‘उन को दर्द हो रहा है?’

‘कहां?’

‘कमर में…न…नहीं सिर में…’

उस की हकलाहट पर उन्हें आश्चर्य हुआ. उन्होंने उसे घूर कर देखा था. यह देख उन्हें कुछ ज्यादा ही आश्चर्य हुआ कि यह तो बड़े सलीके से साड़ी बांधा करती है, पर इस समय वह बेतरतीब सी क्यों  नजर आ रही है? माला का पेंडेंट सदा बीच में रहता है, वह कंधे पर क्यों पड़ा हुआ है? बाल भी बेतरतीब हो रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा लगा, लेकिन वे सीधे अंदर घुसती चली गईं. कमरे में देखा, पति कुरसी पर बैठे उलटा अखबार पढ़ रहे हैं. उन्हें हंसी आ गई, ‘क्या सिर में इतना दर्द हो रहा है कि उलटे अक्षर समझ में आ रहे हैं?’

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‘किस के सिर में दर्द हो रहा है?’

‘आप के और किस के?’

‘मेरे तो नहीं हो रहा,’ खिसिया कर उन्होंने उलटा अखबार सीधा कर लिया.

‘कपिला तो ऐसा ही कह रही थी.’

‘पहले सिर में दर्द हो रहा था, लेकिन कपिला ने चाय बना दी. चाय के साथ दवा लेने से आराम है?’

उन्होंने कपड़े बदलने के लिए जैसे ही सोने के कमरे में कदम रखा, बिस्तर की सिलवटें देख कर तो जैसे उन का रक्त ही जम गया. एक झटके में कपिला की बेतरतीब बंधी साड़ी, उस का हकलाना, विजयजी का उलटा अखबार पढ़ना और बिस्तर की सिलवटें जैसे उन्हें सबकुछ समझा गई थीं. वे उसी कमरे में कपड़े बदलते हुए जारजार रो उठी थीं. उन्हें अपनेआप पर ही आश्चर्य हो रहा था कि वे कपिता के बाल पकड़ कर उसे घसीट कर घर से बाहर क्यों नहीं कर देतीं या विजयजी से लड़ कर घर में हंगामा क्यों नहीं खड़ा कर देतीं? लेकिन वे खामोश ही रहीं.

बाद में उन्होंने अचानक स्कूल से कई बार आ कर देखा, लेकिन कभी कुछ सुराग हाथ नहीं लगा.

हां, जब भी पति घर में होते, उन की आंखें हमेशा जिस ढंग से कपिला का पीछा करती रहतीं, इस से उस के प्रति उन का आकर्षण छिपा न रहता. उन दिनों वे समझ गईर् थीं कि जो पुरुष अपने मन की गांठ के कारण अपनी सुसंस्कृत पत्नी को भरपूर प्यार नहीं कर पाते, वे अपने तनमन की प्यास बुझाने के लिए अकसर भटक जाते हैं.

उस दिन को याद कर के जैसे आज भी नुकीला नश्तर उन के दिल में चुभता रहता है. जब वे कभी कपिला को टोकतीं तो वह उत्तर देती, ‘जल्दी क्या है बाईजी, अभी सारा काम हो जाएगा.’

एक बार कपिला ने एक दिन की छुट्टी मांगी, लेकिन 3 दिनों बाद काम पर लौट कर आई. वे तो मौका ही ढूंढ़ रही थीं. जानबूझ कर आगबबूला हो गईं, ‘तुझे पता नहीं है, मैं बाहर काम करती हूं?’

‘मैं ने गीता मेम की बाई को बोला तो था कि मेरे पीछे आप का काम कर ले.’

‘सिर्फ एक दिन आई थी. आज तू अपना हिसाब कर और चलती बन.’

‘पहले साहब से तो पूछ कर देख लो, मुझे निकालना पसंद करेंगे कि नहीं?’ कह कर वह कुटिलता से मुसकराई.

‘साहब कौन होते हैं घर के मामले में दखल देने वाले?’ कहते हुए उन का चेहरा तमतमा गया.

‘लो बोलो, वे तो घर के मालिक हैं…किस औरत को अपने घर में रखना है और किसे नहीं, वे ही तो सोचेंगे. मैं जब आईर् थी तो कैसे उदास रहते थे. अब कैसे खुश रहते हैं. उन की खुशी के वास्ते ही अपने घर में रख लो.’

‘तू बहुत बदतमीज औरत है.’

‘देखो, गाली मत निकालना. गाली देना हम को भी आता है,’ कपिला चिल्लाई.

उन्होंने बिना बोल मेज पर रखे पर्स में से रुपए निकाल कर उस का हिसाब चुकता कर दिया. वह बकती हुई चली गई. लेकिन क्या आज भी उन के जीवन से वह जा पाई है? उन के नारीत्व की खिल्ली उड़ाती उस की कुटिल मुसकान क्या अभी भी उन का पीछा छोड़ पाई है?

अब बुढ़ापे में यह अर्चना आ मरी है. वह अकसर अपने बचपन के किस्से सुनाती है, ‘भाभी, जब हम अपनी मौसी के यहां, यानी कि भैया की चाची के यहां गरमी की छुट्टियों में जाते थे तो जानती हो, तब ये बिलकुल जोकर लगते थे. ये किताब ले कर छत पर पढ़ने चले जाते थे. मैं पीछे से इन्हें धक्का दे कर ‘हो’ कर के डरा देती थी.’

तब हमेशा चुप रहने वाले विजयजी भी चहकते, ‘और जानती हो, इस ने मुझे भी शैतान बना दिया था. एक बार यह कुरसी पर बैठी तकिए का गिलाफ काढ़ रही थी. मैं ने इस की चोटी का रिबन कुरसी से बांध दिया था. जब यह कुरसी से उठी तो धड़ाम से ऐसे गिरी…’ विजयजी ने कुरसी पर से उठ कर गिरने का ऐसा अभिनय किया कि सीधे अर्चना की गोद में जा गिरे और दोनों देर तक खिलखिलाते, हंसते रहे.

वे क्रोध से कसमसा उठीं कि 64 वर्ष की उम्र में इस बुढ़ऊ को क्या हो गया है. फसाद की जड़ यह अर्चना ही है. इस के पति अकसर दौरे पर रहते हैं. बच्चे होस्टल में रह रहे हैं, इसलिए जबतब उन के घर आ टपकती है. बड़े अधिकार से आते ही घोषणा कर देती है, ‘आज तो हम यहीं खाना खाएंगे.’

विजयजी अवकाशप्राप्त हैं. इस उम्र में यदि कोई चुहल करने वाला मिल जाए तो फिर तो चांदी ही चांदी है. पत्नी से वे कभी ठीक से जुड़ नहीं पाए. अर्चना से मिल रहे इस खुलेदिल के प्यारदुलार से जैसे उन के चेहरे पर रंगत आ गई है.

वे मन ही मन कुढ़ती रहती हैं. वैसे पति ऐसा कुछ नहीं करते कि उन से लड़झगड़ सकें. दोनों के रिश्तों के ऊपर भाईबहन का बोर्ड लगा है. वे कहें भी तो क्या? वैसे उन के दिल के दौरे का कारण भी तो अर्चना ही थीं.

उस दिन दोपहर में खाना बन चुका था. खाना लगाने के लिए अर्चना की सहायता लेने वे कमरे में जा रही थीं. अचानक दरवाजे के परदे के पीछे ही वे अर्चना की आवाज सुन कर रुक गईं.

‘छोडि़ए भैया…’

‘तुम मुझे भैया क्यों कहती हो?’ विजयजी का अधीर स्वर सुनाई दिया था.

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‘जब हम युवा थे तो मैं ने आप को भैया कहने से इनकार किया था. खुद आगे बढ़ कर आप का प्यार मांगा था, लेकिन तब आप ने मेरा प्यार ठुकरा दिया था.’

‘हां, वह मेरी कायरता थी. तुम मुझ से उम्र में भी कितनी छोटी थीं. फिर मैं अपने रिश्तों के कारण डर गया था कि घर वाले क्या समझेंगे. बस, उन्हीं कारणों से तुम्हारी मां के सामने शादी का प्रस्ताव नहीं रख सका.’

‘तो अब मेरे पास क्यों आना चाह रहे हैं?’

‘इसलिए कि चाचाजी द्वारा रुपए के लालच में जबरदस्ती मेरे सिर मढ़ दी गई पत्नी के लिए मेरे दिल में कोई रुचि नहीं है.’

यह सुनते ही उन का सिर घूम गया. अपनी उम्र, अपना पूरा जीवन इस घर को दे दिया, फिर भी उम्र के इस मुकाम पर अब यह कह रहे हैं? उन्हें लगा था कि उन की छाती के बाईं ओर एक बवंडर उठ रहा है. फिर उन्हें कुछ याद न रहा कि वे कितनी देर बेहोश रही थीं.

दिल के पहले दौरे से उबरने में उन्हें महीनों लग गए थे. बेटी व बेटे के परिवार उन की देखरेख के लिए आ गए थे. उस समय पति उन के पलंग के आसपास ही रहते थे. उन्हें आश्चर्य होता कि कैसा होता है पतिपत्नी का रिश्ता. आपस में प्यार हो या न हो, एकदूसरे के साथ की आदत तो हो ही जाती है. एक की तकलीफ दूसरे की तकलीफ बन जाती है.

बेटे ने तो बहुत जिद की कि वे दोनों उस के साथ ही चलें, किंतु वे अड़ी रहीं. ‘बेटे, जब हाथपैर थकने लगेंगे, तब तो तुम्हारे पास ही आना है. अभी तुम आजादी से रहो.’

बच्चों के परिवारों के जाते ही फिर अर्चना दीदी का आना आरंभ हो गया था.

कुछ महीनों बाद उन्होंने अपने स्वास्थ्य पर काफी हद तक काबू पा लिया था. उन के मन में क्रोध उभरता रहता था कि उन की अब कितनी जिंदगी बची है, 4-5 या हद से हद 10-12 साल. फिर क्यों वे पति के संबंधों को ले कर कुढ़ती रहें? उन की बरदाश्त करने की सीमा चुक गई थी. वे समझ ही नहीं पा रही थीं कि अर्चना की बच्ची से कैसे पीछा छुड़ाएं. उन की उम्र भी ऐसी थी कि  यदि इस बारे में किसी से शिकायत करें तो वह उन की झुर्रियों को देख कर हंस देगा. उन्हें लगता है, अब अपनेआप ही कोई रास्ता खोजना होगा.

एक दिन उन्हें पता लगा कि अर्चना के पति दिवाकर दौरे से लौट आए हैं. उन्होंने अर्चना को फोन किया, ‘आज हम लोग शाम को खाने पर आप के यहां आ रहे हैं.’

उन्होंने अर्चना के घर पहुंच कर अपना लाया स्टील का डब्बा खोला और उस में से एक गुलाबजामुन निकाल कर दिवाकर के सामने खड़ी हो गईं, ‘मुंह खोलिए, मैं ने ये गुलाबजामुन खासतौर से आप के लिए बनाए हैं.’

दिवाकर ने उन के इस अचानक उमड़ रहे दुलार से हैरान हो कर मुंह खोल दिया. तब उन्होंने उन के मुंह में अपने हाथ से गुलाबजामुन डाल दिया, ‘बताइए कैसा लगा?’

‘बहुत ही स्वादिष्ठ.’

जब तक अर्चना रसोई में खाना बनाती रही, वे अपने से छोटे दिवाकर को बातों में उलझाए रहीं. पूर्व मुलाकातों में वे समझ गई थीं कि लंबी यात्राओं ने दिवाकर में किताबें पढ़ने का शौक पैदा कर दिया है…वे खानेपीने के भी बहुत शौकीन हैं.

जब भी दिवाकर शहर में होते, वे पति के संग वहीं चल देतीं. विजयजी अकसर उन के घर चलने से आनाकानी करते, क्योंकि वे अर्चना से खुल कर बातें न कर पाते थे. तब वे उन से कहतीं, ‘देखते नहीं हो, दिवाकर नहीं होते तो अर्चना किस तरह साधिकार हमारे घर आ जाती है. मेरा कितना समय उस की खातिरदारी में निकलता है. क्यों न हम लोग भी उस के घर जाया करें.’

अब मन ही मन कुढ़ने की अर्चना की बारी थी. वह भाभी को दिवाकर से देशविदेश की चर्चा करते देखती, किताबों का आदानप्रदान करते देखती तो हतप्रभ रह जाती. वह इतनी प्रतिभाशाली नहीं थी कि इतनी ऊंचीऊंची बातें कर सके.

दिवाकर तो उन से मिल कर निहाल हो उठते थे, ‘भाभीजी, आप से बातचीत कर के मुझे पहली बार पता लगा है कि महिलाओं का भी मानसिक स्तर ऊंचा हो सकता है,’

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जब भी वे शहर में होते तो अर्चना पर जोर डालते कि चलो, आज भाभीजी के यहां चलते हैं.

उन के घर के अंदर आते ही वे घोषणा कर देते, ‘भाभीजी, आज तो हम आप के हाथ का बना खाना खाएंगे. बहुत दिनों से लजीज खाना नहीं खाया है.’

तब अर्चना बुरा मान जाती, ‘तो क्या मैं बुरा खाना बनाती हूं?’

‘खाना तो तुम भी अच्छा बनाती हो, किंतु भाभीजी के हाथ के खाने की बात ही कुछ और है.’

जब वे दोनों किसी बहस में मशगूल होते तो उन की आंखों से छिपा न रहता कि  विजयजी व अर्चना के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं. उन्हें पति का चेहरा देख कर मन ही मन हंसी आती.

धीरेधीरे अर्चना उन के घर आना कम करती जा रही थी. यदि आती भी तो विजयजी से कुछ दूरी बनाए रखती. उस ने मन ही मन समझ लिया था कि उस के पति भाभीजी से बेहद प्रभावित हैं. वे उम्र में बड़ी हैं तो क्या हुआ, उन का बौद्धिक आकर्षण तो उन्हें बांधे ही रखता है.

एक दिन दिवाकर उन के यहां आ कर खूब हंसे, ‘भाभाजी, जानती हैं, आप की ननद उम्र से पहले ही सठिया गई है. मैं आप से अधिक बातचीत करता हूं तो इन्हें लगता है कि हमारे बीच रोमांस चल रहा है. हो…हो…हो…भाभीजी, मैं तो यहां आना चाहता हूं, लेकिन यह ही मुझे रोकती रहती है.’

‘अर्चना दीदी, आप ने ऐसा सोच भी कैसे लिया, मेरी उम्र भी तो देखी होती. कहीं ऐसा तो नहीं है कि सावन के अंधे को हमेशा हरा ही हरा दिखाई देता है?’

भोले दिवाकर कुछ समझ न पाए, लेकिन विजयजी व अर्चना पर मानो घड़ों पानी पड़ गया.

विजयजी भी उन्हें एक साधारण गृहिणी समझते थे. अब वे भी उन के बौद्धिक ज्ञान से चमत्कृत हैं. उन्होंने एक दिन पूछा, ‘तुम में इतना ज्ञान कहां से आया?’

‘आप ने तो सारा जीवन अपनी नौकरी व अपने में ही गुमसुम रह कर निकाल दिया. पर मैं बच्चों के बड़े

होने पर कैसे जीवन काटती? इन्हीं किताबों की बातों में रुचि ले कर जीवन काटा है.’

‘मैं तुम्हारे साथ रह कर भी तुम्हें समझ नहीं पाया.’

‘तो अब समझ लीजिए,’ इतना कह कर उन्होंने पति के कंधे पर सिर टिका दिया, ‘अभी देर कहां हुई है?’

जब पति ने हंस कर उन के कंधे पर हाथ रख दिया तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ, जैसे उन्होंने तमाम नश्तरों को थाम लिया है.

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मृगतृष्णा

गली में पहरा देते चौकीदार के डंडे की खटखट और सन्नाटे को चीरती हुई राघव के खर्राटों की आवाज के बीच कब रात का तीसरा प्रहर भी सरक गया, पता ही न चला. पलपल उधेड़बुन में डूबा दिमाग और आने वाले कल होने वाली संभावनाओं से आशंकित मन पर काबू रखना मेरे लिए संभव नहीं हो पा रहा था. मैं लाख कोशिश करती, फिर भी 2 दिनों पहले वाला प्रसंग आंखों के सामने उभर ही आता था. उन तल्ख तेजाबी बहसों और तर्ककुतर्क के पैने, कंटीले झाड़ की चुभन से खुद को मुक्त करने का प्रयास करती तो एक ही प्रश्न मेरे सामने अपना विकराल रूप धारण कर के खड़ा हो जाता, ‘क्या खूनी रिश्तों के तारतार होने का सिलसिला उम्र के किसी भी पड़ाव पर शुरू हो सकता है?’

कभी न बोलने वाली वसुधा भाभी, तभी तो गेहुंएं सांप की तरह फुंफकारती हुई बोली थीं, ‘सुमि, अब और बरदाश्त नहीं कर सकती. इस बार आई हो तो मां, बाऊजी को समझा कर जाओ. उन्हें रहना है तो ठीक से रहें, वरना कोई और ठिकाना ढूंढ़ लें.’

‘कोई और ठिकाना? बाऊजी के पास तो न प्लौट है न ही कोई फ्लैट. बैंक में भी मुट्ठीभर रकम होगी. बस, इतनी जिस से 1-2 महीने पैंशन न मिलने पर भी गुजरबसर हो सके. कहां जाएंगे बेचारे?’ भाभी के शब्द सुन कर कुछ क्षणों के लिए जैसे रक्तप्रवाह थम सा गया था. जिस बहू का आंचल कितनी ही व्यस्तताओं के बावजूद कभी सिर से सरका न हो, जिस ने ससुर से तो क्या, घर के किसी भी सदस्य से खुल कर बात न की हो, वह यों अचानक अपनी ननद से मुंहजोरी करने का दुसाहस भी कर सकती है?

मैं पलट कर भाभी के प्रश्न का मुंहतोड़ जवाब देने ही वाली थी कि मां ने बीचबचाव सा किया था, ‘बहू, ठीक ढंग से तुम्हारा क्या मतलब है?’

‘मकान का पिछला हिस्सा खाली कर के इन्हें हमारे साथ रहना होगा,’ भाभी ने अपना फैसला सुनाया.

‘उस हिस्से का क्या करोगे?’ अपनी ऊंची आवाज से मैं ने भाभी के स्वर को दबाने की पुरजोर कोशिश की तो जोरजोर से चप्पल फटकारते हुए वे कमरे से बाहर चली गईं.

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मैं ने एक नजर विवेक भैया पर डाली कि शायद पत्नी की ऐसी हरकत उन्हें शर्मनाक लगी हो. पर वह मेरा कोरा भ्रम था. भैया की आवाज तो भाभी से भी बुलंद थी, ‘किराए पर देंगे और क्या करेंगे? इस मकान को बनवाने के लिए बैंक से इतना कर्जा लिया है, उसे भी तो उतारना है. कोई पुरखों की जमीनजायदाद तो है नहीं.’

‘किराए पर ही देना है तो हम से किराया ले लो. मैं अपना चौका ऊपर ही समेट लूंगी,’ अपने घुटनों को सहलाती हुई मां, बेटे के मोह में इस कदर फंसी हुई थीं कि  इस बात की तह तक पहुंच ही नहीं पा रही थीं कि उन्हें घर से बेघर करने में भाभी को भैया का पूरा साथ मिला हुआ है. पथराए से बाऊजी चुपचाप पलंग के एक कोने पर बैठे बेमकसद एक ही तरफ देख रहे थे.

‘कुल मिला कर 2 हजार रुपए तो पैंशन के मिलते हैं. उतना तो आप का निजी खर्चा है. मकान के उस हिस्से से तो 3 हजार रुपए की उगाही होगी,’ भैया ने भाभी की आवाज में आवाज मिलाई तो बाऊजी अपने बेटे का चेहरा देखते रह गए थे. उन का पूरा शरीर कांप रहा था.

‘जब पूत ही कपूत बन जाए तो उस पराए घर की बेटी को क्या कहा जा सकता है?’ फुसफुसाती हुई मां की आवाज भीग गई. वे रोतरोते भी बाऊजी से उलझ पड़ीं, ‘इसलिए तो तुम से कहती थी, चार पैसे बुढ़ापे के लिए संभाल कर रखो. पर तुम ने कब सुनी मेरी? अब देख लिया, अपनी औलाद भी किस तरह मुंह फेरती है.’

मैं मां की बात और नहीं सुन पाई थी. पूरा माहौल तनावभरा हो गया था. अगले दिन चुपचाप अपने घर लौट आई थी. अब वहां कहनेसुनने के लिए बचा ही क्या था. अब तो सारे रिश्ते ही झूठे लग रहे थे.

शाम को मैं चौके में चाय बनाने के लिए घुस गई थी. मन, मस्तिष्क जैसे बस में ही नहीं थे. काफी समय बीत जाने के बाद भी जब चाय नहीं बन पाई तो राघव खुद ही चौके में आ गए थे, एक प्याली मुझे दे कर दूसरी प्याली हाथ में ले कर अम्मा के पास जा कर अखबार खोल कर बैठ गए. सुबह के कुछ घंटे अम्मा के साथ बिताना उन की आदत में है. इसीलिए तो मैं ने उन्हें श्रवण कुमार का नाम दिया था.

चौके से बाहर निकल कर मैं कुछ काम निबटाने के लिए यहांवहां घूम रही थी. पर मन तनाव की गिरफ्त में था. भाभी के बरताव का डंक मेरे मन में बुरी तरह चुभा हुआ था. भाभी तो पराए घर की है, पर भैया को क्या हुआ? वे तो सब की इज्जत करते थे, फिर यह बदलाव क्यों आया? न जाने कब आंखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं गश खा कर गिर पड़ी. आंख खुली तो अम्मा मेरी पेशानी सहला रही थीं. बदहवास से राघव मेरी आंखों पर पानी के छींटे डाल रहे थे.

‘क्या बात है सुमि, कुछ परेशान दिख रही हो?’ इन्होंने पूछा.

‘नहीं, कुछ भी तो नहीं,’ चालाकी से मैं ने अपना दुख छिपाने की नाकाम सी कोशिश की. पर पूरे शरीर का तो खून ही जैसे किसी ने निचोड़ लिया था.

राघव आश्वस्त नहीं हुए थे, ‘देखो सुमि, सुख बांटने से बढ़ता है, दुख बांटने से कम होता है. हम तुम्हारे अपने ही तो हैं…कुछ कहती क्यों नहीं?’

मैं सोचने लगी कि राघव जैसे लोग कितने सुखी रहते हैं. बिना किसी गिलेशिवे के जिंदगी में आए उतारचढ़ावों को स्वीकार करते चले जाते हैं. लेकिन हमारे जैसे लोग हर रिश्ते को कसौटी पर ही परखते रह जाते हैं. जिंदगी में जो पाया है, उस से संतुष्ट नहीं होते. कुछ और पाने की लालसा में जो कुछ पाया है, उसे भी खो देते हैं.

अपराधबोध मन पर हावी हो उठा था. राघव के कसे हुए तेवरों में दोस्ती की परछाईं थी. फिर भी विश्वास करने को जी नहीं चाह रहा था.

अपने अभिभावकों के पक्षधर बने रहने वाले राघव को भला मेरे मायके वालों से क्यों सहानुभूति होने लगी. आज भी यदि अम्मा और मुझे एक ही तुला पर रख कर तोला जाए तो शायद राघव की नजरों में अम्मा का ही पलड़ा भारी होगा.

एक नजर अम्मा को देखा था. कहते हैं, औरत ही औरत की पीड़ा को समझ सकती है. पर उन आंखों में भी जो भाव थे, उन्हें अपनेपन की संज्ञा देना गलत था.

मौकेबेमौके अम्मा कितनी बार तो सुना चुकी थीं, ‘अपने मायके का दुख डंक की तरह चुभता है.’

‘जाके पैर न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई’ की दुहाई समयसमय पर देने वाली अम्मा इस समय मेरे मर्म पर निशाना लगाने से नहीं चूकेंगी, इतना तो इस घर में इतने बरसों से रहतेरहते जान ही गईर् थी. शादी के बाद हर 2 दिनों में मेरे मायके में संदेश भिजवाने वाली अम्मा की नजरें मेरे ही मां, बाऊजी में खोट निकालेंगी.

प्याज के छिलकों की तरह अतीत के दृश्य परतदरपरत मेरी आंखों के सामने खुलते चले गए थे. जब भी अम्मा, पिताजी इकट्ठे बैठते, अम्मा आंखें नम कर लेतीं, ‘संस्कार बड़ों से मिलते हैं. मैं तो पहले ही कहती थी, किसी अच्छे परिवार से नाता जोड़ो. मेरा राघव एकलौता बेटा है, उस की तो गृहस्थी ही नहीं बसी.’

‘ऐसी बात नहीं है,’ पिताजी भीगे स्वर में कहते, ‘बहू के मायके वाले तो बहुत अच्छे हैं. रमेश चंद्र प्रोफैसर थे. शीला बहन तो परायों को भी अपना बनाने वालों में हैं. भाई कितना मिलनसार है…और भाभी अमीर खानदान की एकलौती वारिस है, पर घमंड तो छू तक नहीं गया. हां, बहू का स्वभाव विचित्र है. संवेदनशीलता, भावुकता नाम को भी नहीं. मैं तो हीरा समझ कर लाया था. अब यह कांच का टुकड़ा निकली तो जख्म तो बरदाश्त करने ही पड़ेंगे.’

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पिताजी मेरे मायके का जुगराफिया खींचतेखींचते जब मुझे कोसते तो अम्मा के जख्मों की कुरेदन और बढ़ जाती. वे मेरे मातापिता को बुलवा भेजतीं. शिकायतों की फेहरिस्त काफी लंबी होती थी. जैसे, मुझे बड़ों का सम्मान करना नहीं आता, पति को कुछ समझती नहीं, कोई काम करीने से कर नहीं सकती, ‘बेहद नकचढ़ी है आप की बेटी,’ कहतेकहते अम्मा बहस का सारांश पेश करतीं. मां सजायाफ्ता मुजरिम की तरह गरदन लटका कर मेरा एकएक गुनाह कुबूल करती जातीं. बाऊजी कभी उन के आरोपों का खंडन करना चाहते भी, तो मां आंख के इशारे से रोक देतीं. समधियाने में तर्कवितर्क करना उन्हें जरा नहीं भाता था. फिर राघव तो उन के दामाद थे. उन्हें कुछ बुरा न लगे, इसलिए वे चुप ही रहना पसंद करती थीं. बेचारी मां को देख कर ससुराल के लोगों पर गुस्सा आता और मां पर दया. निम्नमध्यवर्गीय परिवार में 2 बच्चों की मां से अधिक निरीह जीव शायद और कोई नहीं होता.

इधर मेरे मातापिता के घर से बाहर निकलते ही माहौल बिलकुल बदल जाता. अम्मा, पिताजी किसी न किसी बहाने से घर के बाहर निकल जाते थे, ताकि हम दोनों पतिपत्नी आपस में बातचीत कर के ‘इस मसले’ को हल कर सकें. पर मुझे तो उस समय राघव की शक्ल से भी चिढ़ हो जाती थी. उन्हीं के सामने मेरे मातापिता की बेइज्जती होती रहती, पर वे मेरे पक्ष में एक भी शब्द कहने के बजाय उपदेश ही देते रहते.

अम्मा घर लौट कर बड़े प्यार से एक थाली में छप्पनभोग परोस कर मुझे समझातीं, ‘बहू, कमरे में जा, राघव अकेला बैठा है, खुद भी खा, उसे भी खिला.’

‘मेमने की खाल में भेडि़या,’ मैं मन ही मन बुदबुदाती. इसी को तो तिरिया चरित्तर कहते हैं. मन में दबा गुस्सा मुंह पर आ ही जाता था और मैं चिढ़ कर जवाब देती थी, ‘कोई नन्हे बालक हैं, जो मुंह में निवाला दूंगी? अपने लाड़ले की खुद ही देखभाल कीजिए.’

कमरे में जाने के बजाय मैं घर से निकल पड़ती और सामने वाले पार्क में जा कर बैठ जाती. कालोनी के लोग अकसर पार्क में चलहकदमी करते रहते थे. मेरी पनीली आंखें और उतरा हुआ चेहरा देख कर आसपास खड़े लोगों में जिज्ञासा पैदा हो जाती थी. वे तरहतरह की अटकलें लगाते. कोई कुछ कहता, कोई कुछ पूछता.

मैं घर में घटने वाले छोटे से छोटे प्रसंग का बढ़चढ़ कर बयान करती. ससुराल पक्ष के हर सदस्य को खूब बदनाम करती. घर लौटने का मन न करता था. ऐसा लगता, सभी मेरे दुश्मन हैं. यहां तक कि मां, बाऊजी भी दुश्मन लगते थे. इन लोगों को कुछ कहने के बजाय वे यों मुंह लटका कर चले जाते हैं जैसे बेटी दे कर कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो.

2-4 दिन शांति से बीतते और फिर वही किस्सा शुरू हो जाता. गलती राघव की थी, उस के अभिभावकों की थी या मेरी, नहीं जानती, पर पेशी के लिए मेरे मांबाऊजी को ही आना पड़ता था. कुछ ही समय में मां तंग आ गई थीं. तब विवेक भैया ही आ कर मुझे ले जाते थे.

मायके में भी मेरे लिए उपदेशों की कमी नहीं थी, ‘राघव एकलौता बेटा है, सर्वगुण संपन्न. न देवर न कोई ननद, जमीनजायदाद का एकलौता वारिस है. तू थोड़ा झुक कर चले तो घर खुशियों से भर जाए.’

‘मां, अगर तुम चाहती हो कि बेजबान गाय की तरह खूंटे से बंधी जुगाली करती रहूं तो तुम गलत समझती हो.’

यहांवहां डोलती भाभी, मेरे मुख से निकले हर शब्द को चुपचाप सुन रही होगी, इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया, क्योंकि उन के हावभाव देख कर जरा भी एहसास नहीं होता था कि मेरे शब्दों ने उन पर कोई प्रभाव भी छोड़ा होगा. मां अकेले में मुझे समझातीं, ‘पगली, समझौता करना औरत की जरूरत है. अपनी भाभी को देख, लाखों का दहेज लाई है. हम ने तो तुझे 4 चूडि़यों और लाल जोड़े में ही विदा कर दिया था.’

तब मैं दांत पीस कर रह जाती, ‘कैसी मां है, बेटी के प्रति जरा भी सहानुभूति नहीं.’

मां जातीं तो बाऊजी मेरे पास आ कर बैठ जाते. मेरे सिर पर हाथ रख कर कहते, ‘चिंता मत कर सुमि, मैं जब तक जिंदा हूं, तेरा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता. न जाने कैसे लोगों से पाला पड़ा है. लोग बहू को बेटी की तरह रखते हैं, और ये लोग…’

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बाऊजी के शब्दों से ऐसा लगता था जैसे डूबते को एक सहारा मिला हो. ‘कोई तो है, जो मेरा अपना है,’ सोचते हुए मैं समर्पित भाव से चौके में जा कर बाऊजी की पसंद के पकवान बना कर उन्हें आग्रहपूर्वक खिलाती. राघव की कमाई से जोड़ी हुई रकम से मैं भाभी के साथ बाजार जा कर उन के लिए कोई अच्छा सा उपहार ले आती थी. बाऊजी तब मुझे खूब दुलारते, ‘कितना अंतर है बेटी और बेटे में? सुमि मुझे कितना मान देती है.’

अप्रत्यक्ष रूप से दिया गया वह उपालंभ भैयाभाभी हम सब से नजरें चुराते हुए यों झेलते थे, जैसे उन्होंने कोई कठोर अपराध किया हो. मुझे लगता, मां भी बाऊजी की तरह ही क्यों नहीं सोचतीं? वे तो मेरी जननी हैं, उन्हें तो बेटी के प्रति और भी संवेदनशील होना चाहिए था.

अपरिपक्वता की दहलीज पर कुलांचें भरता मन सोच ही नहीं पाया कि मां की भी तब अपनी मजबूरी रही होगी. महंगाई के जमाने में पति की सीमित आमदनी में से 2 बच्चों की परवरिश करना कोई हंसीखेल तो था नहीं. घर के खर्चों में से इतना बचता ही कहां था, जो अपनी बीए पास बेटी के लिए दहेज की रकम जुटा पातीं. एकएक पैसा सोचसमझ कर खर्च करने वाली मां कभीकभी एक रूमाल और चप्पल लेने के लिए भी तरसा देती थीं.

फैशनेबल पोशाकों में लिपटी हुई अपनी सहपाठिनों को देख कर मेरा मन तड़पता तो जरूर था, पर कर कुछ भी नहीं पाता था. अभावों के शिलाखंड तले दबाकुचला बचपन धीरेधीरे सरकता चला गया और मुझे यौवन की सौगात थमा गया. बचपन में मिले अभावों ने मेरे मन में कुंठा की जगह ऊंची इच्छाओं को जन्म देना शुरू कर दिया था.

मैं बेहद महत्त्वाकांक्षी हो उठी थी. कल्पनाओं के संसार में मैं ने रेशमी परिधानों से सजेसंवरे ऐसे धनवान पति की छवि को संजोया था, जिस के पास देशीविदेशी डिगरियों के अंबार हों, नौकरों की फौज हो, आलीशान बंगला हो, गाडि़यां हों. सास के रूप में ऐसी चुस्तदुरुस्त महिला की कल्पना की थी जो क्लबों में जाती हो, किटी पार्टियों में रुचि लेती हो. सिगार के कश लेते हुए ससुर पार्टियों में ही बिजी रहते हों.

कुल मिला कर मैं ने बेहद संभ्रांत ससुराल की कल्पना की थी. कहते हैं, जीवन में जब कुछ भी नहीं  मिलता, तो बहुत कुछ पाने की लालसा मन में इतनी तेज हो उठती है कि इंसान अपनी औकात, अपनी सीमाओं तक को भूल जाता है. तभी तो साधारण से व्यक्तित्व वाले बीए पास राघव, जिन के पास ओहदे के नाम पर लोअर डिवीजन क्लर्क के लेबल के अलावा कुछ भी न था, मुझे जरा भी आकर्षित नहीं कर पाए थे. उस पर उन का एकलौता होना मुझे इस बात के लिए हमेशा आशंकित करता रहा था कि हो न हो, इन लोगों की उम्मीदें मुझ से बहुत अधिक होंगी.

मेरे विरोध के बावजूद मां, बाऊजी ने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी और मैं राघव की दुलहन बन कर इस घर में आ गई. यों कमी इस घर में भी कोई न थी. शिक्षित परिवार न सही, जमीनजायदाद सबकुछ था, यहां तक कि मुंहदिखाई की रस्म पर पिताजी ने गाड़ी की चाबी मुझे दे दी थी. पर मेरा मन परेशान था. हीरे, चांदी की चकाचौंध और सोने, नगीने की खनक तो राघव के पिता की दी हुई है, उस का अपना क्या है? वेतन भी इतना कि ऐशोआराम के साधन तो दूर की बात, मेरे लिए अपनी जरूरतें पूरी करना भी मुश्किल था.

मैं हर समय चिढ़तीकुढ़ती रहती. सासससुर को बेइज्जत करना और पति की अनदेखी करना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया था. शुरू में तो राघव कुछ नहीं कहते थे, पर जब पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगा तो फट पड़े थे, ‘तुम कोई महारानी हो, जो हमेशा लेटी रहो और मां सेवा करती रहें?’

‘क्या मतलब?’ मैं तन गई थी.

‘मतलब यह कि घर की बहू हो, घर के कामकाज में मां की मदद करो.’

‘क्यों, क्या मेरे आने से पहले तुम्हारी मां काम नहीं करती थीं?’ मैं ने ‘महाभारत’ शुरू होने की पूर्वसूचना सी दी थी.

‘तब और अब में फर्क है. जब कोई सामने होता है तो उम्मीद होती ही है.’

‘मेरी मां तो मेरी भाभी से जरा भी उम्मीद नहीं करतीं. तुम्हारे घर के रिवाज इतने विचित्र क्यों हैं?’

‘तुम्हारी भाभी नौकरी करती है, आर्थिक रूप से तुम्हारे परिवार की सहायता करती है,’ राघव ने गुस्से से मेरी ओर देखा तो मैं समझ गई कि काम तो मुझे करना ही पड़ेगा, पर इतनी जल्दी मैं झुकने को तैयार न थी. खामोश नदी में पत्थर फेंकना मुझे भी आता था. मैं मुस्तैदी से काम में जुट गई. सास चाय बनातीं, मैं चीनी उड़ेल देती. पिताजी या राघव मीनमेख निकालते तो मैं अम्मा का नाम लगा देती.

एक दिन मैं ने सब्जी को इतने छोटेछोटे टुकड़ों में काट दिया कि अम्मा परेशान हो उठीं. फिर तो आरोपप्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया. मैं ने हर आरोप का मुंहतोड़ जवाब दिया. घात लगा कर हर समय आक्रमण की तैयारी में मैं लगी रहती. क्या मजाल जो कोई थोड़ी सी भी चूंचपड़ कर ले.

राघव को बुरा तो लगता था, पर मेरे अशिष्ट स्वभाव को देख कर चुप हो जाते थे. जल्द ही सास समझ गईं कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं. सासससुर दोनों ने खुद को एक कमरे में समेट लिया. घर में अब मेरा एकछत्र राज था. अपनी मरजी से पकाती, घूमतीफिरती. घर में खूब मित्रमंडली जमती थी. कुल मिला कर आनंद ही आनंद था.

अपने रणक्षेत्र में विजयपताका फहरा कर मैं ने भाभी को फोन किया. मजे लेले कर खूब किस्से सुनाए. भाभी तब तो चुपचाप सुनती रही थीं, पर जब मैं मां के पास गई तो उन्होंने जरूर कुरेदा था, ‘क्या बात है सुमि, बहुत खुश दिखाई दे रही हो?’

‘भाभी, घर का हर आदमी अब मेरे इशारों पर नाचता है. क्या मजाल जो कोई उफ भी कर जाए.’

‘घर का खर्चा भी तुम्हारे ही हाथ में होगा?’ उन की जिज्ञासा और बढ़ गईर् थी.

‘ससुरजी पूरी पैंशन मेरे हाथ पर रख देते हैं. तुम तो जानती ही हो, राघव की तनख्वाह तो इतनी कम है कि राशन का खर्चा भी नहीं निकल सकता.’

अपनी पूरी तनख्वाह मां की हथेली पर रखने वाली भाभी के मन में ईर्ष्या के बीज अंकुरित हो चुके हैं, मैं तब भला कहां जान पाईर् थी.

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‘भाभी, बस एक ही बात खटकती है,’ मैं ने मुंह लटका लिया.

‘वह क्या?’

‘राघव की मुंहबोली बहन जबतब आ टपकती है.’

‘अपने सगेसंबंधी भी कभी बुरे लगते हैं, उन से तो घर भराभरा लगता है,’ अपने सुखी संसार पर कलह के बादलों का पूर्वानुमान होते देख मां ने जैसे मुझे आगाह किया था, पर सीख तो उसी को दी जाती है जो सीखना चाहे. मैं तो सिखाना चाहती थी.

‘घर तो भरा रहता है, पर आवभगत भी तो करनी पड़ती है. खर्चा होता है सो अलग.’

मां जैसे सकते में आ गई थीं. हर सगेसंबंधी का आदरसत्कार करने वाली मां को बेटी के कथन में पराएपन की बू आ रही थी. अपना मत व्यक्त कर के मैं तो लौट आई थी.

मेरे विवाह को 3 वर्ष हो गए थे. घर में नया मेहमान आने वाला था. सभी खुश थे. अम्मा (राघव की मां) मेरी खूब देखभाल करती थीं. जीजान से वे नन्हे शिशु के आगमन की तैयारियों में जुटी हुई थीं. किस समय किस चीज की जरूरत होगी, इसी उधेड़बुन में उन का पूरा समय निकल जाता था.

‘कहीं ऐसा न हो, मेरे करीब आ कर वे मेरे साम्राज्य में हस्तक्षेप करना शुरू कर दें,’ आशंका के बादल मेरे मन के इर्दगिर्द मंडराने लगे थे. एक दिन मैं ने उन्हें साफ शब्दों में कह दिया, ‘अम्मा, आप ज्यादा परेशान न हों, प्रसव मैं अपनी मां के घर पर करूंगी.’

‘पहली जचगी, वह भी मायके में?’ वे चौंकी थीं.

‘जी हां, क्योंकि आप से ज्यादा मुझे अपनी मां पर भरोसा है,’ बहुत दिनों बाद मैं ने खाली प्याले में तूफान उठाया था. सहसा सामने खड़े राघव का पौरुष जाग गया था. उन्होंने खींच कर एक तमाचा मेरे गाल पर जड़ दिया था, ‘इस घर में तुम ने नागफनी रोपी है. पूरे घर को नरक बना कर रख दिया. अब तो इस घर की दीवारें भी काटने को दौड़ती हैं.’

‘मेरा अपमान करने की तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई. अब मैं एक पल भी यहां नहीं रुकूंगी.’

मैं ने बैग में कपड़े ठूंसे और मां के पास चली आई. वैसे भी 8वां महीना चल रहा था, आना तो था ही. मुझे किसी ने रोका नहीं था और अगर कोई रोकता भी तो मैं रुकने वाली नहीं थी.

मां के ड्राइंगरूम में काफी हलचल थी. भाभी के मातापिता बेटी की ‘गोद भराई’ की रस्म पर रंगीन टीवी और फ्रिज लाए थे. छोटेछोटे कई उपहारों से कमरा भरा हुआ था. घर के सभी सदस्य समधियों की सेवा में बिछे हुए थे.

मां ने उड़ती सी नजर मुझ पर डाली थी. उन की अनुभवी आंखों को यह समझते जरा भी देर न लगी कि मेरे घर में जरूर कुछ न कुछ घटना घटी है. पर पाहुनों के सामने पूछतीं कैसे? अपने साथ मेरी ससुराल भी तो बदनाम होती, जो उन की जैसी समझदार महिला को कतई मंजूर न था.

मेहमान चले गए तो मां व बाऊजी मेरे पास आ कर बैठ गए. भैया के कमरे से छन कर आ रही रोशनी से साफ था कि वे लोग अभी तक सोए नहीं है. मां धीरेधीरे मुझे कुरेदती रहीं और मैं सब कुछ उगलती चली गई, ‘मां, तुम नहीं जानती, वे कैसेकैसे संबोधन मुझे देते हैं…उन्होंने मुझे ‘नागफनी’ कहा है,’ मैं रोंआसी हो उठी थी.

‘ठीक ही तो कहा है, गलत क्या, कहा है?’ भैया की गुस्से से भरी आवाज थी. आपे से बाहर हो कर न जाने कब से वे दरवाजे पर खड़े हुए मेरी और मां की बातें सुन रहे थे. मां कभी मेरा मुंह देखतीं कभी भैया का.

‘सुमि, आखिर भावनाओं का भी कुछ मोल होता है. राघव एकलौते हैं… न जाने कैसीकैसी उम्मीदें रखते हैं लोग अपने बेटे और बहू से, पर तू तो कहीं भी खरी नहीं उतरी. तुझे तो खामोश नदी में पत्थर फेंकना ही आता है.’

मां भैया को चुप करवाना चाहती थीं, पर उन का गुस्सा सारी सीमाएं पार कर चुका था, ‘इस लड़की को सबकुछ तो मिला…पैसा, प्यार, मान, इज्जत…इसी में सबकुछ पचाने की सामर्थ्य नहीं है. जब सबकुछ मिल जाए तो उस की अवमानना, उस के तिरस्कार में ही सुख मिलता है,’ कहते हुए भैया उठे और कमरे से बाहर निकल गए.

उस के बाद भैयाभाभी की बातचीत काफी देर तक चलती रही. इधर मां मुझे पूरी रात समझाती रहीं कि मैं अपना फैसला बदल लूं. एक तो खर्च का अतिरिक्त भार वहन करने की क्षमता उन में नहीं थी. जो कुछ करना था, भैयाभाभी को ही करना था. दूसरे, बढ़े हुए काम का बोझ उठाने की हिम्मत भी उन के कमजोर शरीर में नहीं थीं. भैयाभाभी के बदले हुए तेवरों में उन्हें आने वाले तूफान की संभावना साफ दिखाई दे रही थी.

पर मैं टस से मस न हुई. राघव की मां से कुछ भी अपने लिए करवाने का मतलब था अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारना. दूसरे ही दिन राघव के पिता का फोन आया था, ‘बच्चे हैं…नोकझोंक तो आपस में चलती ही रहती है. बहू से कहिए, सामान बांध ले और घर लौट आए.’

पर मैं तो विष की बेल बनी हुई थी. न जाना था, न ही गई. पूरा दिन आराम करती, न हिलती, न डुलती. मां की भी उम्र हो चली थी, कितना कर पातीं? भाभी पूरा दिन दफ्तर में काम करतीं और लौट कर मां का हाथ बंटातीं. मैं भाभी को सुना कर मां का पक्ष लेती, ‘मां बेचारी कितना काम करती हैं. एक मेरी सास हैं, राजरानी की तरह पलंग पर बैठी रहती है.’

मां से सहानुभूति जताते हुए मेरी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा फूट पड़ती थी. मां मुझे दुलारती रहतीं, पर इस बीच भाभी मैदान छोड़ कर चली जाती थीं. काफी दिनों तक उन का मूड उखड़ा रहता था.

नन्हें अभिनव के आगमन पर सभी मौजूद थे. उसे देखते ही राघव की मां निहाल हो उठी थीं, ‘हूबहू राघव की तसवीर है. वैसे ही नाकनक्श, उतना ही उन्नत मस्तक, वही गेहुंआं रंग.’

‘सूरत चाहे राघव से मिले, पर सीरत मुझ से ही मिलनी चाहिए,’ मैं ने बेवकूफीभरा उत्तर दिया और अपने गंदे तरीके पर राघव की नाराजगी की प्रतीक्षा करने लगी. पर उन्होंने कुछ नहीं कहा था.

पोते को दुलारने के लिए बढ़े अम्मा के हाथ खुदबखुद पीछे हट गए थे. मैं मन ही मन विजयपताका लहरा कर मुसकरा रही थी. 2 महीने तक मां और भाभी मेरी सेवा करती रहीं. राघव की मां खूब सारे मेवे, पंजीरी और फल भिजवाती रही थीं, पर मैं किसी भी चीज को हाथ न लगाती थी.

एक दिन मां के हाथ की बनी हुई खीर खा रही थी कि भाभी ने करारी चोट की. ‘दीदी, तुम्हारी सास ने इतने प्रेम से कलेवा भेजा है, उस का भी तो भोग लगाओ.’

‘अपनी समझ अपने ही पास रखो तो बेहतर होगा. मेरे घर के मामलों में ज्यादा हस्तक्षेप न करो.’

‘तुम्हारा घर…’ मुंह बिचकाते हुए भाभी कमरा छोड़ कर चली गईं तो मैं कट कर रह गई. आखिरकार मैं अपशब्दों पर उतर आईर् थी.

उन्हीं दिनों भैयाभाभी ने दफ्तर से कर्जा ले कर मेरी ही ससुराल के पास मकान खरीद लिया था. 4 कमरों के इस मकान में आने से पहले ही मां ने यह फैसला ले लिया था कि मां और बाऊजी, पिछवाड़े के हिस्से में रहेंगे. यह मशवरा उन्हें मैं ने ही दिया था और भैया मान भी गए थे.

नए मकान में आने की तैयारी जोरशोर से चल रही थी. उठापटक और परेशानी से बचने के लिए मैं ससुराल लौट आई थी.

घर लौटी तो खुशी के बादल छा गए थे. सास ने भावावेश में आ कर अभिनव को गोद में ले लिया और लगीं उस का मुंह चूमने.

‘नन्हा, फूल सा बालक, कहीं कोई संक्रमण हो गया तो?’ मैं ने उसे अपनी गोद में समेट लिया और साथ ही सुना भी दिया, ‘बच्चे की देखभाल मैं खुद करूंगी. आप सब को चिंता करने की जरूरत नहीं है.’

पिताजी अब कुछ भी नहीं कहते थे, जैसे समझ गए थे कि बहू के सामने कुछ भी कहना पत्थर पर सिर पटकने जैसा ही है. पासपड़ोस के लोग अम्माजी से सवाल करते कि बहू मायके से क्या लाई है तो मैं बढ़चढ़ कर मायके की समृद्धि और दरियादली का गुणगान करती. भाभी के मायके से आई हुई चूडि़यां मां ने मुझे उपहारस्वरूप दी थीं. बाकी सब के लिए उपहार मैं राघव की कमाई से बचाई हुई रकम से ही ले आई थी. सास की एक सहेली ने उलटपलट कर चूडि़यां देखीं, फिर प्रतिक्रिया दी, ‘मोटे कंगन होते तो ठीक रहता, मजबूती भी बनी रहती.’

मैं उस दिन खूब रोई थी, ‘आप लोग दहेज के लालची हैं. कोई और बहू होती तो थाने की राह दिखा देती.’

उस दिन के बाद से मैं ने उन लोगों को अभिनव को छूने न दिया. कोई परेशानी होती तो रिकशा करती और मां के पास पहुंच जाती. मायका तो अब कुछ ही गज के फासले पर था.

राघव के पिता का स्वास्थ्य अब गिरने लगा था. घर का वातारण देख कर वे अंदर ही अंदर घुलने लगे थे. डाक्टर ने दिल का रोग बताया था. जिस वृक्ष की जड़ें खोखली हो गई हों वह कब तक अंधड़ों का मुकाबला कर सकता है? और एक रात ससुरजी सोए तो उठे ही नहीं. पूरे घर का वातावरण ही बदल गया. शोक में डूबी अम्मा का रहासहा दर्प भी जाता रहा. साम्राज्य तो उन का पहले ही छिन गया था.

राघव ने मुझे विश्वास में ले कर सलाह दी ‘अम्मा बहुत अकेलापन महसूस करती हैं, कुछ देर अभिनव को उन के पास छोड़ दिया करो.’

दुख का माहौल था. तब कुछ भी कहना ठीक न जान पड़ा था, पर मैं ने मन ही मन एक फैसला ले लिया था, ‘अभिनव को अम्मा से दूर ही रखूंगी.’

 

मायके के पड़ोस वाले स्कूल में अभिनव का दाखिला करवा दिया. स्कूल बंद होने के बाद बाऊजी अभिनव को अपने घर ले जाते थे. मां उसे नहलाधुला कर होमवर्क करवातीं और सुला देतीं. शाम को मैं जा कर उसे ले आती थी. एक तो सैर हो जाती थी, दूसरे, इसी बहाने से मैं मां से भी मिल लेती थी. बाऊजी की देखरेख में अभिनव तो कक्षा में प्रथम आने लगा था, पर मां इस अतिरिक्त कार्यभार से टूट सी गई थीं. एकाध बार दबे शब्दों में उन्होंने कहा भी था, ‘शतांक को भी देखना पड़ता है. बहू तो नौकरी करती है.’

पर मैं अभिनव को अपने घर के वातावरण से दूर ही रखना चाहती थी.

धीरेधीरे भाभी ने उलाहने देने शुरू कर दिए थे, ‘पहले बेटी घर पर अधिकार जमाए रखती थी, अब नाती भी आ जाता है. मेरा शतांक बीमार हो या स्वस्थ रहे, पढ़े न पढ़े, इन्हें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता है. एक को सिर पर चढ़ाया हुआ है, दूसरा जैसे पैरों की धूल है.’

भाभी ने साफ तौर पर अभिनव की तुलना शतांक से कर के जैसे सब का अपमान करने की हिम्मत जुटा ली थी. अपने सामने अपने ही मातापिता की झुकी हुई गरदन देखने की पीड़ा कितनी असहनीय होती है, उस दिन मैं ने पहली बार जाना था.

फिर भी हिम्मत जुटा कर कहा था मैं ने, ‘घर तो मेरे बाऊजी और मां का है. हम तो आएंगे ही.’

‘भूल कर रही हो, यह घर मेरे और तुम्हारे भैया के अथक परिश्रम से बना है. तुम्हारे सासससुर की तरह किसी ने हमें उपहार में नहीं दिया. यह अलग बात है कि तुम्हारी तरह नातेरिश्तेदारों से संबंध तोड़ कर नहीं बैठे हैं. यही गनीमत समझो.’

वसुधा भाभी के शब्दों ने बारूद के ढेर में चिनगारी लगाने का काम किया था. उस दिन के बाद से स्थिति बिगड़ती चली गई. कभी मांबाऊजी का अपमान होता, कभी मेरा और कभी अभिनव का. ऐसे माहौल में मांबाऊजी पिछवाड़े का हिस्सा छोड़ कर भैयाभाभी के साथ समायोजन कैसे स्थापित कर सकते थे? अपने पास इतने साधन नहीं थे कि अलग से गृहस्थी बसा सकें. कहां जाएंगे मांबाऊजी, यही प्रश्न मन को बारबार कटोचता है.

आत्मविवेचन करती हूं तो मां की मौन आंखों के बोलते प्रश्नों का जवाब ढूंढ़ नहीं पाती. कभी लगता है, शायद मैं ही दोषी हूं, अपनी ससुराल और पति से दूर भाग कर मायके में सुख ढूंढ़ने की कोशिश करती रही. पर सुख पाना तो दूर, मां व बाऊजी को ही दरदर भटकने को मजबूर कर दिया.

‘कितनी सुखी हैं राघव की मां? संस्कारी बेटा है, सिर पर छत है और पिताजी की छोड़ी हुई संपदा, जिसे जब तक जीएंगी, भोगेंगी. सिर्फ मेरी ही स्थिति परकटे पक्षी सी हो गई है, जिस में उड़ने की तमन्ना तो है, पर पंख ही नहीं हैं. कहां ढूंढ़ूं इन पंखों को? मायके की देहरी पर या ससुराल के आंगन में?’ यही सोचतेसोचते आंखें एक बार फिर नम हो आई हैं.

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