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Summer Special: सनस्क्रीन से स्किन को दें सुरक्षा कवच

सनस्क्रीन को सनब्लौक क्रीम, सनटैन लोशन, सनबर्न क्रीम, सनक्रीम भी कहते हैं. यह लोशन, स्प्रे या जैल रूप में हो सकता है. यह सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों को अवशोषित या परावर्तित कर के सनबर्न से सुरक्षा उपलब्ध कराता है. जो महिलाएं सनस्क्रीन का उपयोग नहीं करती हैं उन्हें त्वचा का कैंसर होने की आशंका अधिक होती है. नियमित रूप से सनस्क्रीन लगाने से झुर्रियां कम और देर से पड़ती हैं. जिन की त्वचा सूर्य के प्रकाश के प्रति संवेदनशील होती है उन्हें रोज सनस्क्रीन लगाना चाहिए.

क्या है एसपीएफ

एसपीएफ अल्ट्रावायलेट किरणों से सनस्क्रीन द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली सुरक्षा को मापता है. लेकिन एसपीएफ यह नहीं मापता है कि सनस्क्रीन कितने बेहतर तरीके से अल्ट्रावायलेट किरणों से सुरक्षा करेगा. त्वचारोग विशेषज्ञ एसपीएफ 15 या एसपीएफ 30 लगाने की सलाह देते हैं. ध्यान रखें, अधिक एसपीएफ अधिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराता है.

सनस्क्रीन न लगाने के नुकसान

सनस्क्रीन हर मौसम में लगाना चाहिए. समर में इसे लगाना बहुत ही जरूरी है. इस सीजन को त्वचा के रोगों का सीजन कहा जाता है. इस मौसम में समर रैशेज, फोटो डर्माइटिस, पसीना अधिक आना और फंगस व बैक्टीरिया के संक्रमण से अधिकतर महिलाएं परेशान रहती हैं. समर में थोड़ी देर भी धूप में रहने से सनटैन और सनबर्न की समस्या हो जाती है. टैनिंग इस मौसम में त्वचा की सब से सामान्य समस्या है. अत: घर से बाहर निकलने से पहले अच्छी गुणवत्ता वाला सनस्क्रीन जरूर इस्तेमाल करें.

जो महिलाएं सनस्क्रीन का उपयोग नहीं करती हैं उन की त्वचा समय से पहले बुढ़ा जाती है, उस पर झुर्रियां पड़ जाती हैं. यूवी किरणों का अत्यधिक ऐक्सपोजर त्वचा के कैंसर का कारण बन सकता है.

कैसे चुनें सनसक्रीन

सही सनस्क्रीन का चयन करना बहुत जरूरी है. अधिकतर महिलाओं के लिए एसपीएफ 15 वाला सनस्क्रीन बेहतर होता है. लेकिन जिन की त्वचा का रंग बहुत हलका हो, त्वचा के कैंसर का पारिवारिक इतिहास हो या फिर लुपुस जैसी बीमारी के कारण त्वचा सूर्य के प्रकाश के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो, उन्हें एसपीएफ 30 या उस से अधिक एसपीएफ वाला सनस्क्रीन लगाना चाहिए. अगर आप सोचती हैं कि एसपीएफ 30 वाला सनस्क्रीन एसपीएफ 15 वाले सनस्क्रीन से दोगुना अच्छा है तो यह सही नहीं है. एसपीएफ 15-93% यूवीबी को फिल्टर करता है तो एसपीफ 30 इस से थोड़ा सा अधिक यानी 97% यूवीबी को फिल्टर करता है.

त्वचारोग विशेषज्ञों का मानना है कि कम से कम एसपीएफ 30 वाला सनस्क्रीन लगाएं. कई महिलाएं एसपीएफ 50 वाला सनस्क्रीन भी लगाती हैं, लेकिन बाजार में कोई ऐसा सनस्क्रीन उपलब्ध नहीं है, जो हानिकारक यूवी किरणों से 100% सुरक्षा उपलब्ध कराए. हमेशा अच्छे ब्रैंड के सनस्क्रीन का ही इस्तेमाल करें. जिन्हें पसीना अधिक आता हो, उन्हें वाटरपू्रफ या स्वैटपू्रफ सनस्क्रीन लगाना चाहिए.

सनस्क्रीन कैसे और कितना लगाएं

सही सनस्क्रीन से भी अधिक लाभ नहीं मिलेगा, अगर आप इस का रोज और सही तरीके से इस्तेमाल नहीं करेंगी. पेश हैं, कुछ सुझाव:

– सनस्क्रीन धूप में निकलने से 15 से 30 मिनट पहले लगाएं.

– अगर आप मेकअप करना चाहती हैं तो इसे मेकअप करने से पहले लगाएं.

– सनस्क्रीन बहुत कम मात्रा में न लगाएं.

– चेहरे पर ही नहीं शरीर के बाकी खुले भागों पर भी लगाएं.

– हर 2 घंटे बाद सनस्क्रीन दोबारा लगाएं.

– ऐक्सपाइरी डेट वाला सनस्क्रीन न लगाएं, क्योंकि वह प्रभावी नहीं रहता है.

सनस्क्रीन: मिथ और तथ्य

मिथ: सनस्क्रीन लगाने से सनटैन नहीं

हो सकता.

तथ्य: अगर आप एसपीएफ 30 वाला सनस्क्रीन लगाती हैं तो आप सनबर्न से बच सकती हैं. अच्छा सनस्क्रीन आप को यूवीए और यूवीबी किरणों से भी बचा लेगा. लेकिन अगर आप लंबे समय तक धूप में रहेंगी तो आप को सनटैन की समस्या हो सकती है.

मिथ: पानी में सनबर्न नहीं होता है.

तथ्य: पानी झुलसा देने वाली गरमी में शरीर को ठंडा कर देता है, क्योंकि पानी में डूबा शरीर सूर्य की किरणों से सुरक्षित रहता है. लेकिन यह धारणा बिलकुल गलत है. पानी वास्तव में यूवी किरणों को परावर्तित करता है. इस प्रकार से हमें इन के प्रति अधिक ऐक्सपोज कर देता है.

मिथ: कार या बस की खिड़की से आप को सूर्य की यूवी किरणें नुकसान नहीं पहुंचा सकती हैं.

तथ्य: यह बिलकुल गलत धारणा है, क्योंकि हानिकारक यूवी किरणें ग्लास को पैनिट्रेट कर लेती हैं. अगर आप को विंडोसीट के पास बैठना पसंद है या अपने काम के सिलसिले में लंबी ड्राइव करनी पड़ती है, तो आप को उस से अधिक मात्रा में सनस्क्रीन लगाना चाहिए जितना आप सामान्यतौर पर लगाती हैं.

(डा. मनीष पौल, स्किन लैजर सैंटर)

विकराल शून्य- निशा की कौनसी बीमारी से बेखबर था सोम?

‘‘कैसी विडंबना है, हम पराए लोगों को तो धन्यवाद कहते हैं लेकिन उन को नहीं, जो करीब होते हैं, मांबाप, भाईबहन, पत्नी या पति,’’ अजय ने कहा.

‘‘उस की जरूरत भी क्या है? अपनों में इन औपचारिक शब्दों का क्या मतलब? अपनों में धन्यवाद की तलवार अपनत्व को काटती है, पराया बना देती है,’’ मैं ने अजय को जवाब दिया.

‘‘यहीं तो हम भूल कर जाते हैं, सोम. अपनों के बीच भी एक बारीक सी रेखा होती है, जिस के पार नहीं जाना चाहिए, न किसी को आने देना चाहिए. माना अपना इनसान जो भी हमारे लिए करता है वह हमारे अधिकार या उस के कर्तव्य की श्रेणी में आता है, फिर भी उस ने किया तो है न. जो मांबाप ने कर दिया उसी को अगर वे न करते या न कर पाते तो सोचो हमारा क्या होता?’’ अजय बोला.

अजय की गहरी बातें वास्तव में अपने में बहुत कुछ समाए रखती हैं. जब भी उस के पास बैठता हूं, बहुत कुछ नया ही सीख कर जाता हूं.

बड़े गौर से मैं अजय की बातें सुनता था जो अजय कहता था, गलत या फिजूल उस में तो कुछ भी नहीं होता था. सत्य है हमारा तो रोमरोम किसी न किसी का आभारी है. अकेला इनसान संपूर्ण कहां है? क्या पहचान है एक अकेले इनसान की? जन्म से ले कर बुढ़ापे तक मनुष्य किसी न किसी पर आश्रित ही तो रहता है न.

‘‘मेरी पत्नी सुबह से शाम तक बहुत कुछ करती है मेरे लिए, सुबह की चाय से ले कर रात के खाने तक, मेरे कपड़े, मेरा कमरा, मेरी व्यक्तिगत चीजों का खयाल, यहां तक कि मेरा मूड जरा सा भी खराब हो तो बारबार मनाना या किसी तरह मुझे हंसाना,’’ मैं अजय से बोला.

‘‘वही सब अगर वह न करे तो जीवन कैसा हो जाए, समझ सकते हो न. मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिन की बीवियां तिनका भी उठा कर इधरउधर नहीं करतीं. पति ही घर भी संभालता है और दफ्तर भी. पत्नी को धन्यवाद कहने में कैसी शर्म, यदि उस से कुछ मिला है तुम्हें? इस से आपस का स्नेह, आपस की ऊष्मा बढ़ती है, घटती नहीं,’’ अजय ने कहा.

सच ही कहा अजय ने. इनसान इतना तो समझदार है ही कि बेमन से किया कोई भी प्रयास झट से पहचान जाता है. हम भी तो पहचान जाते हैं न, जब कोई भावहीन शब्द हम पर बरसाता है.

उस दिन देर तक हम साथसाथ बैठे रहे. अपनी जीवनशैली और उस के तामझाम को निभाने के लिए ही मैं इस पार्टी में आया था, जहां सहसा अजय से मुलाकात हो गई थी. हमारी कंपनी के ही एक डाइरेक्टर ने पार्टी दी थी, जिस में मैं हाजिर हुए बिना नहीं रह सकता था. इसे व्यावसायिक मजबूरी कह लो या तहजीब का तकाजा, निभाना जरूरी था.

12 घंटे की नौकरी और छुट्टी पर भी कोई न कोई आयोजन, कैसे घर के लिए जरा सा समय निकालूं? निशा पहले तो शिकायत करती रही लेकिन अब उस ने कुछ भी कहनासुनना छोड़ दिया है. समूल सुखसुविधाओं के बावजूद वह खुश नजर नहीं आती. सुबह की चाय और रात की रोटी बस यही उस की जिम्मेदारी है. मेरा नाश्ता और दोपहर का खाना कंपनी के मैस में ही होता है. आखिर क्या कमी है हमारे घर में जो वह खुश नजर नहीं आती? दिन भर वह अकेली होती है, न कोई रोकटोक, न सासससुर का मुंह देखना, पूरी आजादी है निशा को. फिर भी हमारे बीच कुछ है, जो कम होता जा रहा है. कुछ ऐसा है जो पहले था अब नहीं है.

सुबह की चाय और अखबार वह मेरे पास छोड़ जाती है. जब नहा कर आता हूं, मेरे कपड़े पलंग पर मिलते हैं. उस के बाद यंत्रवत सा मेरा तैयार होना और चले जाना. जातेजाते एक मशीनी सा हाथ हिला कर बायबाय कर देना.

मैं पिछले कुछ समय से महसूस कर रहा हूं, अब निशा चुप रहती है. हां, कभी माथे पर शिकन हो तो पूछ लेती है, ‘‘क्या हुआ? क्या आफिस में कोई समस्या है?’’

‘‘नहीं,’’ जरा सा उत्तर होता है मेरा.

आज शनिवार की छुट्टी थी लेकिन पार्टी थी, सो यहां आना पड़ा. निशा साथ नहीं आती, उसे पसंद नहीं. एक छत के नीचे रहते हैं हम, फिर भी लगता है कोसों की दूरी है.

मैं पार्टी से लौट कर घर आया, चाबी लगा कर घर खोला. चुप्पी थी घर में. शायद निशा कहीं गई होगी. पानी अपने हाथ से पीना खला. चाय की इच्छा नहीं थी. बीच वाले कमरे में टीवी देखने बैठ गया. नजर बारबार मुख्य

द्वार की ओर उठने लगी. कहां रह गई यह लड़की? चिंता होने लगी मुझे. उठ कर बैडरूम में आया और निशा की अलमारी खोली. ऊपर वाले खाने में कुछ उपहार पड़े थे. जिज्ञासावश उठा लिए. समयसमय पर मैं ने ही उसे दिए थे. मेरा ही नाम लिखा था उन पर. स्तब्ध रह गया मैं. निशा ने उन्हें खोला तक नहीं था. महंगी साडि़यां, कुछ गहने. हजारों का सामान अनछुआ पड़ा था. क्षण भर को तो अपना अपमान लगा यह मुझे, लेकिन दूसरे ही क्षण लगा मेरी बेरुखी का इस से बड़ा प्रमाण और क्या होगा?

उपहार देने के बाद मैं ने उन्हें कब याद रखा. साड़ी सिर्फ दुकान में देखी थी, उसे निशा के तन पर देखना याद ही नहीं रहा. कान के बुंदे और गले का जड़ाऊ हार मैं ने निशा के तन पर सजा देखने की इच्छा कब जाहिर की? वक्त ही नहीं दे पाता हूं पत्नी को, जिस की भरपाई गहनों और कपड़ों से करता रहा था. जरा भी प्यार समाया होता इस सामान में तो मेरे मन में भी सजीसंवरी निशा देखने की इच्छा होती. मेरा प्यार और स्नेह ऊष्मारहित है. तभी तो न मुझे याद रहा और न ही निशा ने इन्हें खोल कर देखने की इच्छा महसूस की होगी. सब से पुराना तोहफा 4 महीनों पुराना है, जो निशा के जन्मदिन का उपहार था. मतलब यह कि पिछले 4 महीनों से यह सामान लावारिस की तरह उस की अलमारी में पड़ा है, जिसे खोल कर देखने तक की जरूरत निशा ने नहीं समझी.

यह तो मुझे समझ में आ गया कि निशा को गहनों और कपड़ों की भूख नहीं है और न ही वह मुझ से कोई उम्मीद करती है.

2 साल का वैवाहिक जीवन और साथ बिताया समय इतना कम, इतना गिनाचुना कि कुछ भी संजो नहीं पा रहा हूं, जिसे याद कर मैं यह विश्वास कर पाऊं कि हमारा वैवाहिक जीवन सुखमय है.

निशा की पूरी अलमारी देखी मैं ने. लाकर में वे सभी रुपए भी वैसे के वैसे ही पड़े थे. उस ने उन्हें भी हाथ नहीं लगाया था.

शाम के 6 बज गए. निशा लौटी नहीं थी. 3 घंटे से मैं घर पर बैठा उस का इंतजार कर रहा हूं. कहां ढूंढू उसे? इस अजनबी शहर में उस की जानपहचान भी तो कहीं नहीं है. कुछ समय पहले ही तो इस शहर में ट्रांसफर हुआ है.

करीब 7 बजे बाहर का दरवाजा खुला.

बैडरूम के दरवाजे की ओट से ही मैं ने देखा, निशा ही थी. साथ था कोई पुरुष, जो सहारा दे रहा था निशा को.

‘‘बस, अब आप आराम कीजिए,’’

सोफे पर बैठा कर उस ने कुछ दवाइयां मेज पर रख दी थीं. वह दरवाजा बंद कर के चला गया और मैं जड़वत सा वहीं खड़ा रह गया. तो क्या निशा बीमार है? इतनी बीमार कि कोई पड़ोसी उस की सहायता कर रहा है और मुझे पता तक नहीं. शर्म आने लगी मुझे.

आंखें बंद कर चुपचाप सोफे से टेक लगाए बैठी थी निशा. उस की सांस बहुत तेज चल रही थी. मानो कहीं से भाग कर आई हो. मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी पास जाने की. शब्द कहां हैं मेरे पास जिन से बात शुरू करूंगा. पैसों का ढेर लगाता रहा निशा के सामने, लेकिन यह नहीं समझ पाया, रुपयापैसा किसी रिश्ते की जगह नहीं ले सकता.

‘‘क्या हुआ निशा?’’ पास आ कर मैं ने उस के माथे पर हाथ रखा. तेज बुखार था, जिस वजह से उस की आंखों से पानी भी बह रहा था. जबान खिंच गई मेरी. आत्मग्लानि का बोझ इतना था कि लग रहा था कि आजीवन आंखें न उठा पाऊंगा.

किसी गहरी खाई में जैसे मेरी चेतना धंसने लगी. अच्छी नौकरी, अच्छी तनख्वाह के साथ मेरा घर, मेरी गृहस्थी कहीं उजड़ने तो नहीं लगी? हंसतीखेलती यह लड़की ऐसी कब थी, जब मेरे साथ नहीं जुड़ी थी. मेरी ही इच्छा थी कि मुझे नौकरी वाली लड़की नहीं चाहिए. वैसी हो जो घर संभाले और मुझे संभाले. इस ने तो मुझे संभाला लेकिन क्या मैं इसे संभाल पाया?

‘‘आप कब आए?’’ कमजोर स्वर ने मुझे चौंकाया. अधखुली आंखों से मुझे देख रही थी निशा.

निशा का हाथ कस कर अपने हाथ में पकड़ लिया मैं ने. क्या उत्तर दूं, मैं कब आया.

‘‘चाय पिएंगे?’’ उठने का प्रयास किया निशा ने.

‘‘कब से बीमार हो?’’ मैं ने उठने से उसे रोक लिया.

‘‘कुछ दिन हो गए.’’

‘‘तुम्हारी सांस क्यों फूल रही है?’’

‘‘ऐसी हालत में कुछ औरतों को सांस की तकलीफ हो जाती है.’’

‘‘कैसी हालत?’’ मेरा प्रश्न विचित्र सा भाव ले आया निशा के चेहरे पर. वह मुसकराने लगी. ऐसी मुसकराहट, जो मुझे आरपार तक चीरती गई.

फिर रो पड़ी निशा. रोना और मुसकराना साथसाथ ऐसा दयनीय चित्र प्रस्तुत करने लगा मानो निशा पूर्णत: हार गई हो. जीवन में कुछ भी शेष नहीं बचा. डर लगने लगा मुझे. हांफतेहांफते निशा का रोना और हंसना ऐसा चित्र उभार रहा था मानो उसे अब मुझ से

कोई भी आशा नहीं रही. अपना हाथ खींच लिया निशा ने.

तभी द्वार घंटी बजी और विषय वहीं थम गया. मैं ही दरवाजा खोलने गया. सामने वही पुरुष खड़ा था, मेरी तरफ कुछ कागज बढ़ाता हुआ.

‘‘अच्छा हुआ, आप आ गए. आप की पत्नी की रिपोर्ट्स मेरी गाड़ी में ही छूट गई थीं. दवा समय से देते रहिए. इन की सांस बहुत फूल रही थी इसलिए मैं ही छोड़ने चला आया था.’’

अवाक था मैं. निशा को 4 महीने का गर्भ था और मुझे पता तक नहीं. कुछ घर छोड़ कर एक क्लीनिक था, जिस के डाक्टर साहब मेरे सामने खड़े थे. उन्होंने 1-2 कुशल स्त्री विशेषज्ञ डाक्टरों का पता मुझे दिया और जल्दी ही जरूरी टैस्ट करवा लेने को कह कर चले गए. जमीन निकल गई मेरे पैरों तले से. कैसा नाता है मेरा निशा से? वह कुछ सुनाना चाहती है तो मेरे पास सुनने का समय नहीं. तो फिर शादी क्यों की मैं ने, अगर पत्नी का सुखदुख भी नहीं पूछ सकता मैं.

चुपचाप आ कर बैठ गया मैं निशा के पास. मैं पिता बनने जा रहा हूं, यह सत्य अभीअभी पता चला है मुझे और मैं खुश भी नहीं हो पा रहा. कैसे आंखें मिलाऊं मैं निशा से? पिछले कुछ महीनों से कंपनी में इतना ज्यादा काम है कि सांस भी लेने की फुरसत नहीं है मुझे. निशा दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी और मैं ने एक बार भी पूछा नहीं, उसे क्या तकलीफ है.

निशा के विरोध के बावजूद मैं उसे उठा कर बिस्तर पर ले आया. देर तक ठंडे पानी की पट्टियां रखता रहा. करीब आधी रात को उस का बुखार उतरा. दूध और डबलरोटी ही खा कर गुजारा करना पड़ा उस रात, जबकि यह सत्य है, 2 साल के साथ में निशा ने कभी मुझे अच्छा खाना खिलाए बिना नहीं सुलाया.

सुबह मैं उठा तो निशा रसोई में व्यस्त थी. मैं लपक कर उस के पास गया. कुछ कह पाता, तब तक तटस्थ सी निशा ने सामने इशारा किया. चाय ट्रे में सजी थी.

‘‘यह क्या कर रही हो तुम? तुम तो बीमार हो,’’ मैं ने कहा.

‘‘बीमार तो मैं पिछले कई दिनों से हूं. आज नई बात क्या है?’’

‘‘देखो निशा, तुम ने एक बार भी मुझे नहीं बताया,’’ मैं ने कहा.

‘‘बताया था मैं ने लेकिन आप ने सुना ही नहीं. सोम, आप ने कहा था, मुझे इस घर में रोटीकपड़ा मिलता है न, क्या कमी है, जो बहाने बना कर आप को घर पर रोकना चाहती हूं. आप इतनी बड़ी कंपनी में काम करते हैं. क्या आप को और कोई काम नहीं है, जो हर पल पत्नी के बिस्तर में घुसे रहें? क्या मुझे आप की जरूरत सिर्फ बिस्तर में होती है? क्या मेरी वासना इतनी तीव्र है कि मैं चाहती हूं, आप दिनरात मेरे साथ वही सब करते रहें?’’ निशा बोलती चली गई.

काटो तो खून नहीं रहा मेरे शरीर में.

‘‘आप मुझे रोटीकपड़ा देते हैं, यह सच

है. लेकिन बदले में इतना बड़ा अपमान भी करें, क्या जरूरी है? सोम, आप भूल गए, पत्नी का भी मानसम्मान होता है. रोटीकपड़ा तो मेरे पिता के घर पर भी मिलता था मुझे. 2 रोटी तो कमा भी सकती हूं. क्या शादी का मतलब यह होता है कि पति को पत्नी का अपमान करने का अधिकार मिल जाता है?’’ निशा बिफर पड़ी.

याद आया, ऐसा ही हुआ था एक दिन. मैं ने ऐसा ही कहा था. इतनी ओछी बात पता नहीं कैसे मेरे मुंह से निकल गई थी. सच है, उस के बाद निशा ने मुझ से कुछ भी कहना छोड़ दिया था. जिस खबर पर मुझे खुश होना चाहिए था उसे बिना सुने ही मैं ने इतना सब कह दिया था, जो एक पत्नी की गरिमा पर प्रहार का ही काम करता.

निशा को बांहों में ले कर मैं रो पड़ा. कितनी कमजोर हो गई है निशा, मैं देख ही नहीं पाया. कैसे माफी मांगूं अपने कहे की. लाखों रुपए हर महीने कमाने वाला मैं इतना कंगाल हूं कि न अपने बच्चे के आने की खबर का स्वागत कर पाया और न ही शब्द ही जुटा पा रहा हूं कि पत्नी से माफी मांग सकूं.

पत्नी के मन में पति के लिए एक सम्मानजनक स्थान होता है, जिसे शायद मैं खो चुका हूं. लाख हवा में उड़ता रहूं, आना तो जमीन पर ही था मुझे, जहां निशा ने सदा शीतल छाया सा सुख दिया है मुझे.

मेरे हाथ हटा दिए निशा ने. उस के होंठों पर एक कड़वी सी मुसकराहट थी.

‘‘ऐसा क्या हुआ है मुझे, जो आप को रोना आ गया. आप रोटीकपड़ा देते हैं मुझे, बदले में संतान पाना तो आप का अधिकार है न. डाक्टर ने कहा है, कुछ औरतों को गर्भावस्था में सांस की तकलीफ हो जाती है. ठीक हो जाऊंगी मैं. आप की और घर की देखभाल में कोई कमी नहीं आएगी,’’ निशा ने कहा.

‘‘निशा, मुझ से गलती हो गई. मुझे माफ कर दो. पता नहीं क्यों मेरे मुंह से

वह सब निकल गया,’’ मैं निशा के आगे गिड़गिड़ाया.

‘‘सच ही आया होगा न जबान पर, इस में माफी मांगने की क्या जरूरत है? मैं जैसी हूं वैसी ही बताया आप ने.’’

‘‘तुम वैसी नहीं हो, निशा. तुम तो संसार की सब से अच्छी पत्नी हो. तुम्हारे बिना मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा. अगर मैं अपनी कंपनी का सब से अच्छा अधिकारी हूं तो उस के पीछे तुम्हारी ही मेहनत और देखभाल है. यह सच है, मैं तुम्हें समय नहीं दे पाता लेकिन यह सच नहीं कि मैं तुम से प्यार नहीं करता. तुम्हें गहनों, कपड़ों की चाह होती तो मेरे दिए तोहफे यों ही नहीं पड़े होते अलमारी में. तुम मुझ से सिर्फ जरा सा समय, जरा सा प्यार चाहती हो, जो मैं नहीं दे पाता. मैं क्या करूं, निशा, शायद आज संसार का सब से बड़ा कंगाल भी मैं ही हूं, जिस की पत्नी खाली हाथ है, कुछ नहीं है जिस के पास. क्षमा कर दो मुझे. मैं तुम्हारी देखभाल नहीं कर पाया.’’ मैं रोने लगा था.

मुझे रोते देख कर निशा भी रोने लगी थी. रोने से उस की सांस फूलने लगी थी. निशा को कस कर छाती से लगा लिया मैं ने. इस पल निशा ने विरोध नहीं किया. मैं जानता हूं, मेरी निशा मुझ से ज्यादा नाराज नहीं रह पाएगी. मुझे अपना घर बचाने के लिए कुछ करना होगा. घर और बाहर में एक उचित तालमेल बनाना होगा, हर रिश्ते को उचित सम्मान देना होगा, वरना वह दिन दूर नहीं जब मेरे बैंक खातों में तो हर पल शून्य का इजाफा होगा ही, वहीं शून्य अपने विकराल रूप में मेरे जीवन में भी स्थापित हो जाएगा.

दुनिया गोल है

‘‘हैलो…मां, कैसी हो?’’

‘‘अरे कुछ न पूछ बेटी, 4 दिनों से कांताबाई नहीं आ रही है. काम करकर के कमर टेढ़ी हो गई है. घुटनों का दर्द भी उभर आया है.’’

‘‘जितना जरूरी है उतना ही किया करो, मां.’’

‘‘उतना ही करती हूं, बेटी. खैर, छोड़, तू तो ठीक है?’’

‘‘हां मां. परसों विभा मौसी की पोती की मंगनी थी, शगुन में खूब अच्छा सोने का सैट आया है. मौसी ने भी बहुत अच्छा लेनादेना किया है. 2 दिनों से बारिश का मौसम हो रहा है. सोच रही हूं आज दालबाटी बना लूं.’’

‘‘भैया से बात हुई? उन का आने का कोई प्रोग्राम है?’’

‘‘हां, पिछले हफ्ते फोन आया था. अभी तो नहीं आ रहे.’’

‘‘रीनू से बात होती होगी, कैसी है वह? मैं तो सोचती ही रह जाती हूं कि उस से बात करूंगी पर फिर तुझ से ही समाचार मिल जाते हैं.’’

‘‘वह ठीक है, मां? अच्छा अब फोन रखती हूं, कालेज के लिए तैयार होना है.’’ मां से हमेशा मेरी इसी तरह की बातें होती हैं. ज्यादातर वक्त तो वे ही बोलती हैं क्योंकि मेरे पास तो बताने के लिए कुछ होता नहीं है. पहले फोन बंद करते वक्त अकसर मेरे दिमाग में यही बात उठती थी कि मां की दुनिया कितनी छोटी है. खानापीना, लेनदेन, बाई, रिश्तेदार और पड़ोसी बस, इन्हीं के इर्दगिर्द उन की दुनिया घूमती रहती है. देश में कितना कुछ हो रहा है. कितने स्ंिटग औपरेशन हो रहे है, चुनावों में कैसीकैसी पैंतरेबाजी चल रही हैं, घरेलू हिंसा, यौनशोषण कितना बढ़ गया है, इन सब से उन्हें कोई सरोकार नहीं है. जबकि यहां पत्रपत्रिकाएं, जर्नल्स सबकुछ पढ़ कर हर वक्त खुद को अपडेट रखना पड़ता है. एक तो मेरा विषय राजनीति विज्ञान है जिस में विद्यार्थियों को हर समय नवीनतम तथ्य उपलब्ध करवाने होते हैं, दूसरे, बुद्धिजीवियों की मीटिंग में कब किस विषय पर बहस छिड़ जाए, इस वजह से भी खुद को हमेशा अपडेट रखना पड़ता है और जब इंसान बड़े मुद्दों में उलझ जाता है तो बाकी सबकुछ उसे तुच्छ, नगण्य लगने लगता है.

मैं मां की बातों को भुला कर फिर से अपनी दुनिया में खो जाती. रीनू से बात किए वाकई काफी वक्त बीत गया है. वह भी तो अपने काम में बहुत व्यस्त रहती है. दूसरे, अमेरिका और इंडिया में टाइमिंग का इतना अंतर है कि जब मैं फ्री होती हूं, बात करने का मूड होता है तब वह सो रही होती है या किसी जरूरी काम में फंसी होती है. पर आज रात मैं उस से जरूर बात करूंगी, उस की छुट्टी भी है. यही सोच कर मैं ने उस दिन उसे रात में स्काइप पर कौल किया था. काफी दिनों बाद बेटी की सूरत देखते ही मैं द्रवित हो उठी थी, ‘कितनी दुबली हो गई है तू? चेहरा भीकैसा पीलापीला नजर आ रहा है? तबीयत तो ठीक है तेरी?’

‘हां मौम, मैं बिलकुल ठीक हूं, एक प्रोजैक्ट में बिजी हूं. रही दुबला होने की बात, तो हर इंडियन मां को अपनी संतान हमेशा कमजोर ही नजर आती है. नानी भी तो जब भी आप से मिलती हैं, अरे बिट्टी, तू कितनी कमजोर हो गई है, कह कर लिपटा लेती हैं आप को. फिर नसीहतें आरंभ, दूध पिया कर, बादाम खाया कर…’

‘अच्छा छोड़ वह सब. यह वैक्यूमक्लीनर की आवाज आ रही है? मेड काम कर रही है?’ मेरी नजरें अब रीनू से हट कर उस के इर्दगिर्द दौड़ने लगी थीं.

‘यहां कहां मेड मौम? सबकुछ खुद ही करना पड़ता है. रोजर, मेरा रूममेट सफाई कर रहा है.’

‘क्या? तू एक लड़के के साथ रह रही है? कब से?’ मेरी चीख निकल गई थी. ‘कम औन मौम. आप इतना ओवररिऐक्ट क्यों कर रही हैं. यहां यह सब आम है. यही कोई 6-7 महीनों से हम साथ हैं.’ ‘साथ मतलब क्या? रीनू, हमारे लिए यह सब आम नहीं है. हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार इन सब की अनुमति नहीं देते. तुम्हारे नानानानी और दादादादी को ये सब पता चला तो तूफान उठ खड़ा होगा.’

‘फिलहाल तो आप बिना बात तूफान खड़ा कर रही हैं मौम, यह तो शुक्र है वैक्यूमक्लीनर की आवाज में रोजर कुछ सुन नहीं पा रहा है वरना उसे कितना बुरा लगता.’ ‘तुम्हें रोजर को बुरा लगने की फिक्र है और मुझ पर जो बीत रही है उस की जरा भी परवा नहीं?’

‘मौम प्लीज, आप बिना वजह बात का बतंगड़ बना रही हैं. मैं ने आप को बताया न, यहां ये सब आम बात है. दरअसल, आप की दुनिया बहुत छोटी है. इंसान चांद पर घर बसाने की सोच रहा है और आप की सोच अभी तक हमारा परिवार, हमारे संस्कार इन्हीं पर टिकी हुई है. एक बार अपनी दुनिया से बाहर निकल कर जरा बाहर की दुनिया देखिए, खुद ब खुद समझ जाएंगी. रोजर इधर ही आ रहा है मौम. बेहतर होगा हम इस टौपिक को यहीं समाप्त कर दें.’ ‘सिर्फ टौपिक ही क्यों, सबकुछ समाप्त कर दो.’ गुस्से में मैं ने संपर्कविच्छेद कर दिया था. मेरे गुस्से से न केवल स्टूडैंट्स बल्कि घर वाले भी खौफ खाते हैं. यह तापमापी के पारे की तरह पल में चढ़ता है तो समझानेबुझाने या क्षमायाचना करने पर पल में उतर भी जाता है. देर तक उस के शब्द मेरे कानों में गूंजते रहे थे. मैं ने सिर झटक दिया था, मानो ऐसा कर के मैं सबकुछ एक झटके में दिमाग से बाहर फेंक दूंगी और सोने का प्रयास करने लगी थी. बहुत दिनों तक मेरा न रीनू से बात करने का मन हुआ था, न मां से. यह सोच कर दुख भी होता कि मैं रीनू का गुस्सा मां पर क्यों निकाल रही हूं. फिर मैं ने मां से बात की थी पर रीनू की बात  गोल कर गई थी. मांबाबा को आजकल वैसे भी कम सुनाई देने लगा है, इसलिए भी मैं उन्हें बताने से हिचक रही थी. पता नहीं, आधीअधूरी बात सुन कर वे जाने क्या मतलब निकाल लें जबकि मामला इतना गंभीर हो ही न? सासससुर देशाटन पर गए हुए थे.

चलो, एक तरह से अच्छा ही है. वे लौटेंगे, तब तक तो शायद वेणु भी लौट आएं. फिर वे अपनेआप संभाल लेंगे. वेणु की कमी मुझे इस वक्त बेहतर खटक रही थी. काश, वे इस वक्त मुझे संभालते, समझाते मेरे पास होते. वेणु और मेरी लवमैरिज थी. साथसाथ पढ़ते प्रेम के अंकुर फूटे और जल्द ही प्यार का पौधा पल्लवित हो उठा था. दक्षिण भारतीय वेणु आगे जा कर आर्मी में चले गए और मैं एक कालेज में शिक्षिका हो गई. हम दोनों जानते थे कि हमारे कट्टरपंथी परिवार इस बेमेल विवाह के लिए कभी राजी नहीं होंगे, इसलिए हम ने कोर्टमैरिज कर ली थी. जब वेणु मुझे दुलहन के जोड़े में अपने घर ले गए तो थोड़ी नाराजगी दिखाने के बाद वे लोग जल्दी ही मान गए थे. और फिर दक्षिण भारतीय तरीके से हमारा विवाह संपन्न हुआ था. पर मेरे मांबाबा को यह बात बेहद नागवार गुजरी थी. वे शादी में शरीक नहीं हुए थे. मैं उन से गुस्सा थी लेकिन वेणु ने हिम्मत नहीं हारी, मनाने के प्रयास जारी रखे. आखिर रीनू के जन्म के बाद मांबाबा पिघले और उन्होंने हमें दिल से अपना लिया. उस वक्त मैं बच्चों की तरह किलक उठी थी. मां से लिपट कर ढेरों फरमाइशें कर डाली थीं. तब से वेणु और रीनू उन के लिए मुझ से भी बढ़ कर हो गए थे. ऐसी शिकायत कर के मैं अकसर उन से बच्चों की भांति रूठ जाया करती थी. और सभी इसे मेरी जलन कह कर खूब आनंद उठाते थे. वेणु को नौर्थईस्ट में पोस्ंिटग मिली तो मैं रीनू को ले कर उन के साथ रहने आ गई थी. पर छोटी सी बच्ची के साथ उस असुरक्षित इलाके में रहना हर वक्त खतरे से खेलते रहना था. रीनू का खयाल कर के मैं हमेशा के लिए अपने सासससुर के पास रहने आ गई थी. मैं ने वापस कालेज में पढ़ाना आरंभ कर दिया था.

वेणु छुट्टियों में आते रहते थे. जिंदगी एक बंधेबंधाए ढर्रे पर चलने लगी थी. रीनू पढ़ने के लिए विदेश चली गई और फिर वहीं अच्छी सी नौकरी भी करने लग गई. दिल तो बहुत रोया पर बदलते जमाने और उस की खुशी का खयाल कर मन को समझा लिया. पर अब, अब तो पानी सिर से ऊपर बढ़ गया है. इधर, कुछ समय से वेणु की पोस्ंिटग भी काफी सीनियर पोजीशन पर हिमालय की तराई वाले इलाके में हो गई थी. वहां पड़ोसी देश से छिटपुट लड़ाई चल रही थी और आएदिन छोटीबड़ी मुठभेड़ की खबरें आती रहती थीं. मुझे हर वक्त सिर पर तलवार  लटकती प्रतीत होती थी, जाने कब कैसा अप्रिय समाचार आ जाए. वेणु की बहुत दिनों से कोई खबर न थी. पर यह अच्छी बात थी क्योंकि सेना में ऐसा माना जाता है कि जब तक किसी के बारे में कोई खबर न मिले, समझ लेना चाहिए सब सकु शल है. मैं भी यही सोच कर वेणु के सकुशल लौट आने का इंतजार कर रही थी. वेणु की यादों के साथ रीनू के दिए घाव ताजा हो गए थे. जीवनसाथी तो मैं ने भी अपनी मनमरजी से चुना था. पर उस के साथ रही तो शादी के बाद ही थी. लेकिन यहां तो बिलकुल ही उलट मामला है. फिर मैं ने और वेणु ने शादी के बाद भी सब को मनाने के प्रयास जारी रखे थे. सब की घुड़कियां, धमकियां झेलीं, ताने सुने पर आखिर सब को मना कर रहे. और इस जैनरेशन को देखो, पता है मां गुस्सा है, नाराज है पर मानमनौवल का एक फोन तक नहीं. काश, वेणु यहां होते. खैर, बहुत इंतजार के बाद एक दिन रीनू का फोन आया था. पर बस, औपचारिक वार्त्तालाप-आप कैसी हैं? दादादादी कब आएंगे? पापा ठीक होंगे. और फोन रख दिया था. ऐंठ में मैं ने भी कुछ नहीं कहासुना.

हमारे फोनकौल्स न केवल सीमित बल्कि बेहद औपचारिक भी हो गए थे. मां जरूर थोड़े दिनों में फोन कर मेरे हाल जानती रहतीं. वेणु और सासससुर की अनुपस्थिति ने उन्हें मेरे प्रति ज्यादा चिंतित बना दिया था. वे मुझे धीरज और विश्वास देने का प्रयास करतीं. उन का आग्रह था, मैं अकेली न रहूं और उन के पास रहने चली जाऊं. मैं ने उन से कहा कि मैं तो छुट्टियों में हमेशा ही आती हूं. अभी सासससुर भी नहीं हैं तो वे मेरे पास आ जाएं. पर उन्होंने इतनी लंबी यात्रा करने में असमर्थता जता कर मेरा प्रस्ताव सिरे से खारिज कर दिया. उन के अनुसार, वे छुट्टियों में मेरा इंतजार करेंगी और मैं थोड़ी लंबी छुट्टियां प्लान कर सकूं तो अच्छा होगा.

‘कोई खास वजह, मां?’

‘अरे नहीं, खास क्या होगी? बस ऐसे ही तेरे साथ रहने को दिल कर रहा था. क्या पता कितना जीना और शेष है? अब तबीयत ठीक नहीं रहती. तेरे भैयाभाभी को भी इसी दौरान रहने को बुला लिया है. सब साथ रहेंगे, खाएंगे, पीएंगे तो अच्छा लगेगा.’ पहली बार मां की दुनिया अलग नहीं, थोड़ी अपनी सी महसूस हुई. उन का दर्द अपना दर्द लगा. ‘हां मां, ज्यादा छुट्टियां ले कर आने का प्रयास करूंगी. कांता बाई से मुझे भी मालिश करवानी है. आजकल मुझे भी आर्थ्राइटिस की प्रौब्लम हो गई है. आप के हाथ की मक्का की रोटी और सरसों का साग खाने का भी बहुत मन हो रहा है. गोभी, गाजर वाला अचार भी डाल कर रखना मां.’ प्रत्युत्तर में उधर चुप्पी छाई रही तो मैं समझ गई कि भावनाओं के आवेग ने हमेशा की तरह मां का गला अवरुद्ध कर दिया है.

‘जल्द मिलते हैं, मां’, मां की भावनाओं का सम्मान करते हुए मैं ने तुरंत फोन रख दिया था. अगले सप्ताह एक लंबी छुट्टी अरेंज कर जल्दी ही उन्हें अपने आने की सूचना भी दे दी. स्टेशन पर मांबाबा दोनों को मुझे लेने आया देख मैं हैरत में पड़ गई थी क्योंकि उन के गिरते स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए मैं ने उन्हें सख्त हिदायत दे रखी थी कि वे कभी भी मुझे लेनेछोड़ने आने की औपचारिकता में नहीं पड़ेंगे. बेमन से ही सही, वे मेरी हिदायत की पालना करते भी थे. पर आज अचानक…वो भी दोनों…जरा सा भी कुछ असामान्य देख इंसान का दिमाग हमेशा उलटी ही दिशा में सोचने लगता है. मेरे शक की सूई भी उलटी ही दिशा में घूमने लगी. अवश्य ही वेणु को ले कर कोई बुरी खबर है. मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा.

‘वेणु की कोई खबर, बेटी? ठीक है न वह?’

मैं ने राहत की सांस ली, ‘आप को तो मालूम ही है मां, कोई खबर नहीं, मतलब सब कुशल ही होगा.’

‘एक बहुत अच्छी खबर है. मैं एक प्यारे से गुड्डे की परनानी और तू नानी बन गई है.’ मां की नजरें मेरे चेहरे पर जमी थीं, जहां एक के बाद एक रंग आजा रहे थे. मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी, मां किस की बात कर रही हैं.

‘हमारी रीनू ने 2 दिन पहले एक बेटे को जन्म दिया है. वह यहीं है घर पर, हमारे पास.’

‘क्या?’ आश्चर्य से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया था. ‘उस ने तुझे यह तो बता ही दिया था कि वह रोजर नाम के किसी लड़के के साथ रह रही थी.’

‘हां, पर यह सब नहीं बताया था.’

‘उस की हिम्मत ही नहीं पड़ी बेटी, तेरे गुस्से से वह घबरा गई थी. फिर उसे यह भी खयाल था कि तू अभी बिलकुल अकेली रह रही है. वेणु भी इतने खतरनाक मोरचे पर तैनात हैं तो तू वैसे ही बहुत परेशान होगी.’

‘पर मां, उसे मुझे तो बताना था,’ मेरी आंखों के सम्मुख उस का पीला, दुबला चेहरा घूम गया.

‘वह तुझे बताना चाहती थी पर तभी सब गड़बड़ा गया. रोजर इतनी जल्दी बच्चे के लिए तैयार नहीं था. वह अबौर्शन करवाना चाहता था पर रीनू उस के लिए तैयार नहीं हुई. विवाद बढ़ा और रोजर घर छोड़ कर चला गया.’

‘ओह,’ मैं ने सिर थाम लिया. ‘रीनू बहुत हताश और परेशान हो गई थी पर तुझे और दुखी नहीं करना चाहती थी. इसलिए सारा गम अकेले ही पीती रही. एक दिन उस की बहुत याद आ रही थी तो उस का हालचाल जानने के लिए मैं ने ऐसे ही उसे फोन कर दिया. मैं फोन पर ही उसे दुलार रही थी कि सहानुभूति पा कर वह फूट पड़ी और सब उगल दिया. ‘हम ने उसे भरोसा दिलाया कि तुझे नहीं बताएंगे पर वह तुरंत हमारे पास इंडिया आ जाए और यहीं बच्चे को जन्म दे. उस ने हमारी बात मानी और आ गई. कल उसे अस्पताल से घर ले आए हैं. अभी तेरे भैयाभाभी उस के पास हैं. तेरे आने की खबर से वह काफी बेचैन है. तुम दोनों आमनेसामने हो, इस से पहले तुम दोनों को सबकुछ बता देना आवश्यक था.

‘उम्र और अनुभव ने हमें बहुतकुछ सिखा दिया है बेटी. हम कितने ही आधुनिक क्यों न हो जाएं, अपनी अगली और पिछली पीढि़यों से हमारा टकराव स्वाभाविक है. ऐसे हर टकराव का मुकाबला हमें संयम और विश्वास से करना होगा. अपने बच्चों के साथ यदि हम ही खड़े नहीं होंगे तो औरों को उंगलियां उठाने का मौका मिलना स्वाभाविक है. हम अलगअलग पीढि़यों की दुनिया कितनी भी अलगअलग क्यों न हो, आ कर मिलती तो एक ही जगह है क्योंकि यह दुनिया गोल है. हम घूमफिर कर फिर वहीं आ खड़े होते हैं जहां से कभी आगे बढ़े थे. यह समय गुस्सा करने का नहीं, समझदारी से काम लेने का है. ‘आज की तारीख में हमारे लिए सब से बड़ी खुशी की बात यह है कि हमारी बेटी हमारे पास सकुशल है और उस के साथसाथ यह बच्चा भी अब हमारी जिम्मेदारी है. रीनू का आत्मविश्वास लौटा लाने के लिए उसे यह विश्वास दिलाना बेहद जरूरी है.’

घर आ चुका था. मैं ने भाग कर पहले रीनू को, फिर नन्हे से नाती को सीने से लगा लिया. रीनू आश्वस्त हुई, फिर खुलने लगी, ‘इस की आंखें बिलकुल पापा जैसी हैं न मौम…मौम, मुझे आप के हाथ का पायसम और उत्तपम खाना है,’ वह बच्चों की तरह किलक रही थी. ‘नानू, नानी, मौम आप सब को एक बात बतानी थी. कल रात दिल नहीं माना तो मैं ने रोजर को गुड्डू का फोटो भेज दिया, उस का जवाब आया है. वह शर्मिंदा है, जल्द आएगा.’ मां मुझे देख कर मुसकरा रही थीं.

नेफ्रोटिक सिंड्रोम किसे कहा जाता है, जानें लक्षण और इलाज

गुंजन आजकल काफी परेशान है क्योंकि दिन प्रतिदिन उसके हाथ पैरों में सूजन बढ़ती जा रही है। जिसकी वजह से वह ठीक से काम नहीं कर पाती और जल्दी थक भी जाती है। उसने डॉक्टर से सलाह लेने की सोची। डॉक्टर ने चेकअप के बाद बताया कि यह नेफ्रोटिक सिंड्रोम की वजह से ऐसा हो रहा है, तो गुंजन हैरान हो गई।  हैरानी के साथ गुंजन ने नेफ्रोटिक सिंड्रोम के विषय में जानना चाहा, क्योंकि वह तो अपनी हेल्थ का बहुत ध्यान रखती है। इस बीमारी के विषय में डॉक्टर ने जो भी जानकारी दी वह आपसे साझा करने जा रही हूं।

नेफ्रोटिक सिंड्रोम, सिम्पटम्स का एक ग्रुप होता है जो इस बात का संकेत हैं कि हमारी किडनी सही तरीके से काम नहीं कर रही है. एक अन्य शब्दों से कहा जाए तो यह सिंड्रोम एक किडनी डिसऑर्डर है जो हमारे यूरिन में बहुत अधिक प्रोटीन पास करने का कारण बनता है. यह समस्या आमतौर पर किडनी में उन स्मॉल ब्लड वेसल्स के ग्रुप को नुकसान होने की वजह से होती है, जो ब्लड से वेस्ट और एक्सेस वॉटर को फिल्टर करते हैं. नेफ्रोटिक सिंड्रोम किसी भी उम्र के लोगों को प्रभावित कर सकता है. आइए जानें इस बीमारी के बारे में और अधिक.

नेफ्रोटिक सिंड्रोम के लक्षण कौन से हैं?

नेफ्रोटिक सिंड्रोम के चार मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं:

  • -यूरिन में बहुत अधिक प्रोटीन होना, जिसे डॉक्टर प्रोटीन्यूरिया कहा जाता है.
  • -ब्लड में फैट और कोलेस्ट्रॉल लेवल का बढ़ना. इसे मेडिकल टर्म में हाइपरकोलेस्ट्रोलेमिया के रूप में जाना जाता है.
  • -टांगों, पैरों और एड़ियों में सूजन. यह सूजन कई बार हाथों और पैरों में भी हो सकती है. इसे एडेमा कहा जाता है.
  • -ब्लड में एल्बुमिन का लो लेवल होना. इसे मेडिकल टर्म में हाइपोएल्ब्यूमिनमिया के नाम से जानता है.

नेफ्रोटिक सिंड्रोम का उपचार

नेफ्रोटिक सिंड्रोम का उपचार इस समस्या के कारणों पर निर्भर करता है. कोलेस्ट्रॉल और ब्लड प्रेशर को कंट्रोल करने से इसकी गंभीरता को कम किया जा सकता है. इस स्थिति में निम्नलिखित दवाईयों की सलाह दी जा सकती है:

  • -ब्लड प्रेशर मेडिकेशन्स जैसे एसीइ इन्हिबिटर्स आदि. इससे ब्लड प्रेशर को सही बनाए रखने में यूरिन में प्रोटीन की मात्रा को कम करने में मदद मिलती है
  • -ड्यूरेटिक्स यानि वॉटर पिल्स ताकि सूजन कम की जा सके
  • -कोलेस्ट्रॉल कम करने की दवाईयां
  • -ब्लड थिनर्स ताकि आसानी से ब्लड क्लॉट्स बन सकें
  • -इम्यून सिस्टम को सप्रेस करने के लिए मेडिकेशन्स जैसे कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स

इसके साथ ही डॉक्टर रोगी को सूजन कम करने के लिए कम नमक लेने की सलाह देंगे. यहीं नहीं, इस स्थिति में रोगी को कम सैचुरेटेड फैट्स और कोलेस्ट्रॉल युक्त डाइट लेनी चाहिए. अगर नेफ्रोटिक सिंड्रोम इन ट्रीटमेंट्स से बेहतर न हो, तो रोगी को डायलिसिस की आवश्यकता हो सकती है.

इस समस्या से बचाव के लिए रोगी को अपना ब्लड प्रेशर और डायबिटीज को कंट्रोल में रखना जरूरी है. कॉमन इंफेक्शंस के लिए वैक्सीन्स लेने की भी राय दी जाती है. अगर आपके डॉक्टर ने एंटीबायोटिक्स लेने की सलाह दी है, तो सही से उन्हें लें. आप बेहतर महसूस कर रहे हैं, तब भी इन दवाईयों को अपनी मर्जी से लेना बंद न करें.

जानें फेशियल हेयर ग्रोथ यानी चेहरे पर बाल आने के 3 कारण

पुरुषों में फेशियल हेयर को सामान्य और अट्रैक्टिव माना जाता है. हालांकि, महिलाओं में इसे उतना सामान्य नहीं माना जाता है. केवल पुरुषों के चेहरे पर ही बाल नहीं होते, बल्कि कुछ हद तक महिलाओं के चेहरे पर भी यह होते हैं. लेकिन, अगर महिलाओं के चेहरे पर यह बाल थिक और डार्क हों, तो इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं. महिलाएं इन बालों से छुटकारा पाने के लिए शेविंग, वैक्सिंग, प्लकिंग या केमिकल्स आदि का इस्तेमाल करती हैं. इसके लिए कुछ ट्रीटमेंट्स जैसे लेजर, इलेक्ट्रोलाइसिस या दवाईयों की सलाह भी दी जा सकती है. लेकिन, यह सभी मेथड्स महंगे होते हैं और स्किन इरिटेशन का भी कारण बन सकते हैं. आइए जानते हैं कि फेशियल हेयर ग्रोथ के क्या कारण हो सकते हैं?

फेशियल हेयर ग्रोथ के क्या हो सकते हैं कारण?

फेशियल हेयर अधिकतर महिलाओं को ठोडी के नीचे, अपर लिप्स, गर्दन के आसपास होते हैं. यह बाल महिलाओं के गालों या जॉलाइन में बहुत कम दिखाई देते हैं. लेकिन, यह बाल सख्त, डार्क और अनवांटेड होते हैं. महिलाओं में फेशियल हेयर के कई कारण होते हैं. जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

हॉर्मोन-

हिर्सुटिज्म एक ऐसा डिसऑर्डर है, जिसमें रोगी के चेहरे पर जीन्स, हार्मोनल चेंजेज और कुशिंग सिंड्रोम आदि के कारण अत्यधिक बाल हो सकते हैं. इस समस्या को कंट्रोल करना संभव नहीं है. लेकिन, न्यूट्रिशियस व बैलेंस्ड डाइट, रोजाना एक्सरसाइज और अननेसेसरी मेडिसिन्स को नजरअंदाज करने से इस समस्या के जोखिम को कम किया जा सकता है.

पॉलिसिस्टिक ओवरीयन सिंड्रोम-

अगर किसी को पॉलिसिस्टिक ओवरीयन सिंड्रोम या हार्मोनल इम्बैलेंस की समस्या है, तो उस व्यक्ति में मेल हार्मोन एंड्रोजन की प्रोडक्शन अधिक मात्रा में हो सकती है और इसके परिणामस्वरूप चेहरे पर अधिक बाल आ सकते हैं.

जेनेटिक्स-

जेनेटिक्स भी फेशियल हेयर की ग्रोथ के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं. अगर आपकी मां, बहन या दादी-नानी को थिक फेशियल हेयर हैं, तो यह समस्या आपको होने की संभावना अधिक होती है.

भाग्यवश हम अपने शरीर से हेयर रिमूव कर सकते हैं. अगर किसी को हॉर्मल इम्बैंलेंस या पॉलिसिस्टिक ओवरीयन सिंड्रोम के कारण यह समस्या है, तो अपने डॉक्टर से बात करें ताकि सही उपचार हो सके और इससे छुटकारा पाया जा सके. इसके लिए डॉक्टर आपको दवाईयां और सही डाइट की सलाह दे सकते हैं. अगर यह जेनेटिक है ,तो आप फेशियल वैक्स या थ्रेडिंग के लिए सैलून जा सकते हैं. इसके साथ ही अन्य कई तरीके भी हैं जिनसे आप इस समस्या से छुटकारा पा सकते हैं या इसे कम कर सकते हैं.

दाल को पकाने से पहले भिगोना क्‍यों जरूरी है?

दालों को एक सुपरफूड माना जाता है, जिसमें कई न्यूट्रिएंट्स होते हैं. यह प्रोटीन का अच्छा स्त्रोत हैं और मीट व एनिमल फूड्स का एक हेल्दी अलटरनेटिव भी हैं. यही नहीं, दालें डाइट्री फाइबर और काम्प्लेक्स कार्ब्स भी प्रदान करती हैं. दालों के फायदे यही खत्म नहीं होते, इनमें कैल्शियम, फोस्फोरस, आयरन और बी काम्प्लेक्स विटामिन्स भी भरपूर मात्रा में होते हैं. अक्सर दालों को बनाते हुए हम इन्हें कुछ देर भिगोना जरूरी नहीं मानते. लेकिन. क्या आप जानते हैं कि इन्हें पकाने से पहले भिगोना आवश्यक है? आइए जानते हैं कि क्यों दालों को पकाने से पहले कुछ देर भिगोना जरूरी है?

दाल को पकाने से पहले भिगोना क्‍यों जरूरी है?

कुछ दालें प्राकृतिक रूप से हमारे शरीर में गैस और ब्लोटिंग का कारण बन सकती हैं. लेकिन, पकाने से पहले दालों को थोड़ी देर भिगोने से दाल से टैनिन और फाइटिक एसिड आदि रिमूव हो जाते हैं. टैनिन और फाइटिक एसिड दाल के पौष्टिक तत्वों को कम कर देते हैं. जिससे यह दालें गैस और ब्लोटिंग का कारण बन सकती है. यही नहीं, दालों को भिगोने से एंजाइम्स को स्टिमुलेट में मदद मिलती है, जिससे दाल आसानी से पच जाती है. ऐसा भी माना जाता है कि दालों को पकाने से पहले भिगोने से इनमें न्यूट्रिएंट्स अच्छे से एब्जॉर्ब हो जाते हैं. जिससे हमें सभी पोषक तत्व आसानी से मिल जाते हैं. यही कारण है कि हमें सभी दालों को पकाने से पहले थोड़ी देर अवश्य भिगोना चाहिए. इसका एक और कारण यह भी है कि इससे दाल जल्दी पक जाती है जिससे गैस और समय की भी बचत होती है.

दालों को भिगोने का सही समय क्या है?

पकाने से पहले दालों को दो से आठ घंटे भिगोने की सलाह दी जाती है. भिगोने से पहले दाल को अच्छे से दो से तीन बार धो लें. अब एक बाउल में पानी लें और दाल को भिगों दें. दाल के प्रकार के अनुसार आप तीस मिनट्स से लेकर दो घंटे तक भिगो सकते हैं. साबुत दालों को दो घंटे तक भिगोना जरूरी है. फलियों जैसे राजमा, छोले आदि को आठ से बारह घंटे तक भिगो कर पकाया जाता है. पकाने से पहले भिगोई हुई दाल को फ्रेश कोल्ड वॉटर से रिंस अवश्य करें.

सोकिंग यानी भिगोना एक ऐसा तरीका है जिसका इस्तेमाल सदियों से किया जाता रहा है. इसके कई हेल्थ बेनेफिट्स हैं. यही नहीं, इसके साथ ही दालें जल्दी भी बन जाती हैं. इसलिए, आप भी दालों को बनाने से पहले कुछ देर इन्हें भिगो कर रखना न भूलें.

मेरा वजन 118 किलोग्राम हैं, क्या बैरिएट्रिक सर्जरी के द्वारा अतिरिक्त चरबी को खत्म हो सकती है?

सवाल

मेरी उम्र 38 साल और वजन 118 किलोग्राम हैं. मुझे पिछले 8 सालों से डायबिटीज की शिकायत है. मुझे किसी ने सलाह दी है कि बैरिएट्रिक सर्जरी के द्वारा अतिरिक्त चरबी को खत्म कर के डायबिटीज को भी ठीक किया जा सकता है. यह बात कितनी सही है?

जवाब

जी हां, बहुत संभावना है कि बैरिएट्रिक सर्जरी के द्वारा डायबिटीज को पूरी तरह खत्म किया जा सकता है. इस के लिए सब से पहले हमें कुछ टैस्ट द्वारा बौडी में इंसुलिन के स्तर की जांच करनी होती है. यदि जांच फेवर में हो तो मरीज की मैटाबोलिक सर्जरी की जाती है. इस सर्जरी को करने के बाद डायबिटीज ठीक हो जाती है.

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सवाल

मेरी उम्र 32 साल और वजन 108 किलोग्राम है. मैं डाइटिंग व ऐक्सरसाइज के द्वारा वजन कम करने की बहुत कोशिश करती हूं लेकिन बहुत ज्यादा फर्क नहीं आ पाता है. क्या बाजार में उपलब्ध वजन कम करने की दवाइयां व सप्लिमैंट लेना सुरक्षित है और यह कारगर साबित होता है?

जवाब

वजन कम करने के लिए दवा व सप्लिमैंट का प्रयोग किया जा सकता है. इस का प्रभाव भी पड़ता है, लेकिन यह प्रभाव सीमित समय तक ही रहता है. जैसे ही दवा लेना बंद करते हैं वजन बढ़ने लगता है. दूसरा वजन में केवल 5 से 10% तक ही फर्क पड़ता है. यह दवा व सप्लिमैंट केवल कुछ अधिक वजन वाली सामान्य आबादी पर ही कारगर साबित होता है. यह दवा दिमाग के सैरोटोनिन रिसैप्टर 2 को सक्रिय करती है. इस रिसैप्टर के सक्रिय होने से भूख कम लगती है और थोड़ा सा खाने से ही पेट भर जाने का एहसास होता है. अत्यधिक मोटापे से ग्रस्त लोगों पर इस दवा का कोई असर नहीं होता. आप को सम?ाना होगा कि यदि आप का मोटापा आनुवंशिक है तो आप के पास सर्जरी और नियमित संतुलित आहार व व्यायाम ही विकल्प है.

-डा. कपिल अग्रवाल

डाइरैक्टर, हैबिलाइट सैंटर फौर बैरिएट्रिक ऐंड लैप्रोस्कोपिक सर्जरी

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शायद कुछ नया मिलेगा: क्या खुद को बदल पाया विजय

विजय अपने किसी जानपहचान वाले की तारीफ करते हुए कह रहा था, ‘‘बड़े दिलदार इंसान हैं हमारे ये भाईसाहब. राजा हैं राजा. बहुत बड़े दिल के मालिक हैं. जेब में चाहे 50 रुपए ही हों, खर्चा 500 का कर देते हैं. मेहमाननवाजी में कभी कोई कमी नहीं करते. बड़े शाही स्वभाव के हैं.’’

मैं समझ नहीं पा रहा था. वह उन के जिस गुण की तारीफ कर रहा था क्या वह वास्तव में तारीफ के लायक था. कहीं वही पुराना अंदाज ही तो नहीं दिखा रहा विजय?

‘‘अभी कुछ दिन पहले ही इन के बेटे की शादी हुई है. इन्होंने दिल खोल कर खर्चा किया. औफिस में सब को खूब शराब पिलाई. खाने पर खूब खर्चा किया. सभी वाहवाह करते हैं.’’

‘‘जी,’’ बढ़ कर हाथ मिला लिया मैं ने, ‘‘आप किस जगह काम करते हैं, क्या करते हैं, मतलब आप अपना ही कारोबार करते हैं या किसी नौकरी में हैं?’’

‘‘इन का अकाउंट्स का काम है, साहब. डी पी मेहता का नाम सुना होगा आप ने. वह इन्हीं की फर्म है.’’

एक लौ फर्म का नाम बताया मुझे विजय ने. उस व्यक्ति को देख कर ऐसा नहीं लगा मुझे कि वह इतनी बड़ी लौ फर्म का मालिक होगा. एक मुसकान का आदानप्रदान हुआ और वे साहब विदा ले कर चले गए. विजय के साथ अंदर आ गया मैं. विजय मेरा साढ़ू भाई है.

‘‘आइए, जीजाजी,’’ सौम्या मेरी आवाज सुनते ही चली आई थी. दीवाली का तोहफा ले कर गया था मैं.

‘‘दीदी ने क्या भेजा है, इस बार मठरी और बेसन की बर्फी तो नहीं बनाई होगी. दीदी के हाथ में दर्द था न.’’

‘‘बनाई है बाबा, और आधे से ज्यादा काम मुझ से कराया है तुम्हारी दीदी ने. अब यह मत कहना सब दीदी ने बनाया है. सारी मेहनत मेरी है इस बार. बेसन में कलछी भी मैं ने घुमाई है और मैदे में मोयन डाल उसे भी मैं ने ही मला है.’’

मैं ने जरा सा बल डाला माथे पर, सच बताया तो बड़ीबड़ी आंखें और भी बड़ी कर लीं सौम्या ने. मेरे हाथ से डब्बा झपट लिया, ‘‘क्या सच में?’’

सौम्या का सिर थपक दिया मैं ने, ‘‘जीती रहो. और सुनाओ, कैसी हो?’’

‘अच्छी हूं’ जैसी अभिव्यक्ति उभर आई सौम्या के गले लगने में. सौम्या का माथा चूमा मैं ने. मेरी छोटी बहन जैसी है सौम्या, मेरी बेटी जैसी.

‘‘और सुनाइए, आप कैसे हैं? इस बार बहुत देर बाद मुलाकात हुई है. फोन पर बात होती है तब भी कभी बाथरूम में होते हैं, कभी पता नहीं कहां होते हैं आप?’’ विजय से पूछा. मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया. बस, मुसकराभर दिया. अभी जो बाहर किसी की तारीफ में इतने पुल बांध रहा था. मेरे सामने, अब चुप था.

सौम्या झट से चाय बना लाई और प्लेट में इडलीसांभर.

‘‘भई वाह, तुम्हारे हाथ के इडलीसांभर का जवाब नहीं.’’

‘‘तुम्हारे मायके वाले पहले हलवाई का काम करते थे क्या? तुम दोनों बहनों को हर पल इन्हीं कामों की ही लगी रहती है. बाजार में क्या नहीं मिलता. सोहन हलवाई के पास अच्छी से अच्छी मिठाई मिलती है. 200 रुपए किलो से शुरू होती है 1000 रुपए किलो तक जो चाहो ले लो. पैसा खर्च करो, क्या नहीं मिलता.’’

सदा की तरह का रवैया था विजय का इस बार भी. उस ने इस बार भी जता दिया था, हमारा परिवार कंजूस है. हम रुपयापैसा खर्च करने में पीछे हटते हैं.

‘‘सोहन हलवाई की मिठाई में मेरी बहन के हाथ का प्यार नहीं है न, जिस की कीमत उस की 1000 रुपए किलो मिठाई से कहीं ज्यादा है.’’

‘‘अपनीअपनी सोच है, विजयजी. मैं आप की सोच को गलत नहीं कहता. आप मेरी सोच का सम्मान कीजिए. अगर इन बहनों को 1000 रुपए किलो वाली चीज 400 रुपए खर्च कर के घर में मिल जाती है तो 600 रुपए भी तो हमारा ही बचता है न. मेरी पत्नी अपने कपडे़ खुद डिजाइन करती है. जो सूट बाजार में 2000 का आता है उसे वह 700 रुपए में बना लेती है, 1300 रुपए किस के बचते हैं, मेरे ही घर के न. मुझे इतनी सुरक्षा अवश्य रहती है कि समय पर मुझे जो चाहिए, इस की दीदी अवश्य हाजिर कर देगी.

‘‘तभी झट से निकाल देगी न जब उस के पास होगा, होगा तभी जब वह अपनी मेहनत से बचाएगी. हमें इतनी मेहनती जीवनसाथी मिली है, आप को इस बात का सम्मान करना चाहिए. जेब में 100 रुपया हो और इंसान 50 का खर्चा करे, इस में समझदारी है या जेब में 50 रुपया हो और इंसान 500 का खर्च करे, इस में समझदारी है? क्या ऐसा इंसान हर पल कर्ज में नहीं डूबा रहेगा? ये जो साहब अभी गए जिन की आप तारीफ कर रहे थे, क्या सच में डी पी मेहता लौ फर्म वाले ही हैं?’’

‘‘कौन, जीजाजी?’’ सौम्या का प्रश्न था.

‘अभी जो गए वे डीपी मेहता लौ फर्म में अकाउंट्स का काम देखते हैं. संयोग से ये भी मेहता ही हैं.’’

हंसी आने लगी मुझे विजय की बुद्धि पर. हमें कंजूस कहने के लिए बेचारे ने अकाउटैंट को मालिक बना दिया था. सिर्फ यही समझाने के लिए कि देखिए, दिलदार आदमी क्या होता है, 50 जेब में और खर्चा 500 का करता है.’’

‘‘पिछले दिनों इन के बेटे ने भाग कर चुपचाप मंदिर में शादी कर ली. तो क्या करते मेहता साहब? कैसे बताते सब को कि बेटे ने शादी कर ली है. सब को मिठाई बांट दी और औफिस में सब को खिलापिला दिया. इन की जेब में तो कभी पैसे रहते ही नहीं. सदा किसी न किसी की उधारी ही चलती है. इन की तुलना हमारे परिवार से करने की क्या तुक?’’

क्रोध आने लगा था, सौम्या को, ‘‘पीठ पीछे आप गाली भी इसी आदमी को देते हैं कि जब देखो उधार ही मांगता रहता है फिर जीजाजी के सामने उसी को बढ़ाचढ़ा कर बताने का क्या मतलब? मेहताजी खर्च ही कर पाते तो इज्जत से अपने दोनों बच्चों की शादी न कर लेते. बेटी ने भी लड़का पसंद कर रखा था और बेटे ने भी लड़की कब से समझबूझ रखी थी. मातापिता क्या अंधे थे जो कुछ नजर नहीं आता था. वे %

दूसरी हार: आजम को किस बात का अफसोस था

आ  जम, हैदर और रऊफ एक मिडिल क्लास के कौफी हाउस में बैठे कौफी की चुस्कियां ले रहे थे. तीनों दसवीं क्लास तक साथसाथ पढ़े थे. हैदर और रऊफ पहले से कौफी हाउस में थे, जबकि आजम थोड़ी देर पहले वहां पहुंचा था. तीनों की भेंट कभीकभार ही होती थी.

‘‘तो तुम आजकल टैक्सी चला रहे हो?’’ हैदर ने आजम से पूछा.

‘‘हां, क्या तुम ने यही पूछने के लिए बुलाया था?’’ आजम ने खुश्क स्वर में कहा और हैदर के कीमती सूट की तरफ देखा.

हैदर उस के चेहरे को ताकतेहुए बोला, ‘‘और तुम्हारी टांगें? क्या तुम पहले की तरह अब भी तेज दौड़ सकते हो?’’

‘‘टांगें भी ठीक हैं, लेकिन इस बात का मुझे यहां बुलाने से क्या संबंध है?’’ आजम ने उसे घूरते हुए कहा.

‘‘इस बारे में तुम्हें रऊफ बताएगा.’’ हैदर ने रऊफ की ओर इशारा करते हुए कहा, जो अब तक बिलकुल चुपचाप बैठा था. वह दुबलापतला युवक था, लेकिन उस का सिर एक तरफ झुका हुआ था, जैसे वह कान लगा कर कोई आवाज सुन रहा हो. उस के बारे में यह मशहूर था कि वह पचास गज के फासले से ही पुलिस वालों के कदमों की आहट सुन लेता था. हैदर और रऊफ आपराधिक गतिविधियों में संलग्न रहते थे. वे कभीकभी बड़ा हाथ भी मार लेते थे.

रऊफ बोला, ‘‘तुम्हें स्कूल में सब से तेज दौड़ने वाला छात्र कहा जाता था. मैं ने अपनी जिंदगी में किसी को इतना तेज दौड़ते हुए नहीं देखा. तुम ने एक किलोमीटर दौड़ने का क्या रिकौर्ड बनाया था आजम?’’

‘‘4 मिनट 10 सेकेंड. लेकिन यह स्कूल के जमाने की बात है. बाद में तो मैं 24 सेकेंड में 220 गज का फासला तय कर के स्टेट चैंपियन बन गया था. लेकिन उस के बाद कमबख्त शकील ने 22 सेकेंड में यह फासला तय कर के मेरा रिकार्ड तोड़ दिया. कोई सोच सकता है कि सिर्फ 2 सेकेंड के फर्क से मैं दूसरे नंबर पर आ गया.’’ आजम निराश स्वर में बोला.

हैदर धीरे से हंसा, ‘‘मुझे यकीन था कि तुम उस मनहूस शकील को पराजित करने में कामयाब हो जाओगे? वह बड़ा मगरूर और बददिमाग लड़का था.’’

‘‘शकील कहां है आजकल?’’ रऊफ ने पूछा.

‘‘पता नहीं, किसी बड़ी कंपनी में ऊंची पोस्ट पर नौकरी कर रहा होगा. वह पढ़ने में भी तो काफी तेज था.’’ आजम ने कहा.

‘‘शकील ऊंची पोस्ट पर और तुम टैक्सी ड्राइवर…यहां भी तुम उस से मात खा गए.’’ रऊफ आंखें बंद कर के मुस्कराया.

आजम की मुट्ठियां भिंच गईं, ‘‘अब यह सब बातें छोड़ो. बताओ, मुझे यहां क्यों बुलाया है.’’

‘‘50 लाख रुपए. क्या तुम यह रकम लेना पसंद करोगी.’’

आजम का चेहरा पीला पड़ गया. वह कुछ देर चुप रहने के बाद बोला, ‘‘क्या तुम लोग कहीं डाका डालना चाहते हो.’’

‘‘तुम्हें हम दोनों के कामों के बारे में तो मालूम ही होगा. इसलिए ताज्जुब करने की कोई जरूरत नहीं है. अगर तुम्हें 50 लाख रुपए कमाने में दिलचस्पी हो तो बोलो. नहीं तो कोई बात नहीं.’’ हैदर ने उस के चेहरे पर निगाहें गड़ाते हुए कहा.

‘‘लेकिन मैं ही क्यों?’’ आजम बोला.

‘‘हमें एक तेज दौड़ने वाले आदमी की जरूरत है. काम बहुत आसान है, जिस में नाकामी का सवाल ही नहीं पैदा होता और आमदनी… तुम सुन ही चुके हो. तीसरा हिस्सा 50 लाख रुपए बनता है. क्या खयाल है?’’ रऊफ ने कहा.

‘‘पूरी बात सुने बगैर मैं क्या जवाब दे सकता हूं.’’ आजम को अब 50 लाख रुपए लहराते हुए दिखाई देने लगे थे.

रऊफ ने सिर हिलाया और मेज पर आगे की तरफ झुकता हुआ बोला, ‘‘नाजिमाबाद में एक बहुत बड़ी टूल फैक्ट्री है. हैदर पिछले 2 महीने से वहीं नौकरी कर रहा है. हर माह की 5 तारीख को वहां के कर्मचारियों को तनख्वाह दी जाती है. यह धनराशि लगभग एक सौ पचास लाख होती है.’’ रऊफ ने जेब से कागज का एक टुकड़ा निकाल कर मेज पर फैला दिया. आजम ने उस पर खिंची हुई टेढ़ी तिरछी लकीरों को देखा, लेकिन उस की समझ में कुछ नहीं आया.

‘‘ये देखो, यह है फैक्ट्री की चारदीवारी और यह है प्रवेश द्वार. इस के पास ही एक छोटा सा दरवाजा है. बड़े दरवाजे से फैक्ट्री के कर्मचारी आतेजाते हैं. इसलिए यह दिन में 4 बार ही खुलता है. लेकिन छोटा दरवाजा खुला रहता है, जहां से फैक्ट्री के दफ्तर के लोग आतेजाते हैं. दरवाजे के अंदर दाखिल हो तो खुला मैदान आता है जो सीमेंट का बना हुआ है. यह मैदान पार करने के बाद फैक्ट्री का औफिस है.

‘‘फैक्ट्री के मुख्य प्रवेश द्वार और औफिस के बीच करीब 5 सौ फुट की दूरी है. पहले यह मैदान औफिस के कर्मचारियों द्वारा अपनी गाडि़यां खड़ी करने के काम आता था, लेकिन अब फैक्ट्री के मालिकों ने सामने वाला प्लाट भी खरीद लिया है, जहां सभी गाडि़यां खड़ी की जाती हैं. मैदान में सुबहशाम ट्रकों पर माल लादा और उतारा जाता है. बाकी समय यह खाली पड़ा रहता है.’’ हैदर ने विस्तार से आजम को बताते हुए कहा, ‘‘अब तुम समझे कि हमें तुम्हारी मदद की क्यों जरूरत पड़ी.’’

आजम हैरानी से उन दोनों को बारीबारी से देखता रहा.

रऊफ बोला, ‘‘फैक्ट्री के प्रवेश द्वार से गाड़ी अंदर नहीं जा सकती. फैक्ट्री के औफिस में एक सौ पचास लाख की धनराशि होती है. तुम्हें औफिस के अंदर से धनराशि का थैला उठा कर फैक्ट्री के प्रवेश द्वार तक दौड़ लगानी है-बहुत तेज. बाहर हम लोग गाड़ी में बैठे तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे. जैसे ही तुम गाड़ी में बैठोगे, गाड़ी दस सेकेंड में वहां से एक मील दूर पहुंच जाएगी. सारा मामला 500 फुट मैदान पार करने का है.’’

‘‘यानी मैं…’’ आजम ने कुछ कहना चाहा.

‘‘हां, तुम…तुम्हारे जैसा तेज दौड़ने वाला आदमी ही यह काम कर सकता है. 5 तारीख को सुबह ठीक साढ़े 10 बजे एकाउंटेंट तिजोरी में से एक सौ पचास लाख रुपए निकालता है. उस की मदद के लिए 3 औरतें होती हैं. वे कमरा बंद कर के रकम गिनते हैं और हर कर्मचारी की तनख्वाह के अनुसार रकम को लिफाफों में बंद करते जाते हैं.

रकम प्राप्त करना कोई मसला नहीं है. एकाउंटेंट एक बूढा आदमी है. रिवाल्वर देख कर वह कोई विरोध नहीं करेगा. और तीनों औरतें तो डर के मारे कांपने लगेंगी. बस, तुम्हें रुपयों का थैला उठा कर फैक्ट्री के प्रवेश द्वार तक दौड़ लगानी है-तेज, खूब तेज. तुम्हें सारे रिकौर्ड तोड़ देने हैं.’’ हैदर ने आजम को उत्साहित करते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं.’’ आजम ने जल्दी से कहा, ‘‘मैं यह काम नहीं कर सकता, चाहे तुम मुझे कितने ही रुपए दो. इस काम में बहुत खतरा है. फिर सवाल यह भी है कि मुझे प्रवेश द्वार के अंदर कौन जाने देगा. फैक्ट्री के कर्मचारियों को पहचान पत्र जारी किए जाते हैं, जिन्हें दिखा कर अंदर जाने की अनुमति मिलती है.’’

रऊफ बोला, ‘‘पहचान पत्र पर फोटो नहीं होती. तुम हैदर का पहचान पत्र दिखा कर अंदर जा सकते हो. तुम्हें कोई नहीं रोकेगा. फैक्ट्री में रोजाना नए कर्मचारी भर्ती किए जाते हैं, क्योंकि 1-2 कर्मचारी नौकरी छोड़ कर चले जाते हैं. फैक्ट्री काफी बड़ी है, इसलिए कोई भी गार्ड या गेटमैन इतने कर्मचारियों या मजदूरों के चेहरे याद नहीं रख सकता. आजम, यह बड़ा आसान काम है और तुम जैसे तेज दौड़ने वाले आदमी के लिए तो यह कोई काम ही नहीं है.’’

‘‘मैं तेज दौड़ सकता हूं लेकिन गोली की रफ्तार से मुकाबला नहीं कर सकता.’’ आजम ने हकबकाते हुए कहा.

‘‘गोली चलने की नौबत नहीं आएगी. बूढे़ एकाउंटेंट को गोली चलानी नहीं आती. वह कमरे का दरवाजा बंद रखने का आदी है.’’ हैदर बोला. लेकिन आजम फिर भी नहीं तैयार हुआ. उस ने कहा कि वह बंद दरवाजा कैसे तोड़ेगा. इस पर हैदर ने कहा, ‘‘मैं रिपेयरिंग विभाग में कार्यरत हूं. मैं घटना से एक दिन पहले उस दरवाजे की कुंडी कुछ ढीली कर दूंगा, जिस से वह एक धक्के में खुल जाएगा.’’

लेकिन तब भी आजम यह काम करने को तैयार नहीं हुआ. इस पर रऊफ बोला, ‘‘आजम अब दौड़ने के काबिल नहीं रहा.’’

‘‘ये बात नहीं है.’’ आजम ने विरोध किया.

‘‘हमें मालूम है, तुम दौड़ सकते हो, लेकिन तुम्हारे अंदर हौसले की कमी है. यही वजह है कि तुम शकील से शिकस्त खा गए.’’ रऊफ जोर से हंसा, ‘‘50 लाख से तो तुम कई टैक्सियों के मालिक बन सकते हो. लेकिन तुम इस के लिए कोशिश करना ही नहीं चाहते.’’ फिर वह हैदर से बोला, ‘‘चलो हैदर, किसी दूसरे की तलाश करें, जो तेज दौड़ने के साथसाथ शानदार भविष्य का इच्छुक हो.’’

रऊफ और हैदर उठ खड़े हुए. रऊफ जाते समय आजम से बोला कि अगर वह अपना फैसला बदले तो हैदर को फोन कर दे. आजम ने कहा, ‘‘मैं अपना फैसला नहीं बदलूंगा.’’ लेकिन अगली रात आजम ने अपना फैसला बदल दिया और उन के साथ काम करने को तैयार हो गया.

फिर दूसरे ही दिन से आजम ने मैदान में दौड़ लगाने का अभ्यास शुरू कर दिया. उसे यह देख कर बहुत तसल्ली हुई कि वह अब भी उतना ही तेज दौड़ सकता है. फर्क सिर्फ यह पड़ा था कि अभ्यास छूटने से उस की सांस अब जल्दी फूलने लगी थी.

लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं थी, उसे फैक्ट्री के औफिस से प्रवेश द्वार तक सिर्फ एक ही बार दौड़ लगानी थी. फिर तो उसे गाड़ी में बैठ कर वहां से निकल भागना था. रविवार के दिन आजम ने जब मैदान में दौड़ लगाई तो वह आश्चर्यचकित रह गया. उस की रफ्तार पहले से काफी ज्यादा बढ़ गई है.

शीघ्र ही 5 तारीख आ गई, जिस दिन टूल फैक्ट्री में तनख्वाह बंटनी थी और आजम को रऊफ एवं हैदर के साथ नाजिमाबाद पहुंचना था. एक घंटे के बाद वे लोग फैक्ट्री के पास पहुंच गए. रऊफ ने फैक्ट्री के मुख्य प्रवेश द्वार से कुछ दूर पहले ही अपनी गाड़ी रोक दी. वहां से आजम पैदल ही फैक्ट्री तक पहुंचा. ठीक 10 बजे फैक्ट्री का दरवाजा खुला और कर्मचारी कतारबद्ध हो कर अंदर जाने लगे.

आजम भी लाइन में लग गया. नंबर आने पर उस ने चौकीदार को हैदर का पहचान पत्र दिखाया, जिस ने सरसरी तौर से उस पर नजर डाली और आगे बढ़ने का इशारा किया. दरवाजे से घुसने पर उस ने अंदर का निरीक्षण किया. रऊफ ने वहां का जो नक्शा बनाया था, वह एकदम ठीक था.

आजम ने फैक्ट्री के औफिस से छोटे दरवाजे तक का फासला नजरों से मापा, वह लगभग, 500 फुट ही था. यानी 150 गज. आजम यह फासला 15-16 सेकेंड में तय कर सकता था. अब उसे यह इत्मीनान हो गया कि यह काम वाकई ज्यादा मुश्किल नहीं है.

इस से पहले आजम, रऊफ और हैदर इस योजना पर कई बार बात कर चुके थे तथा हर मामले पर अपनी दृष्टि डाल चुके थे. यही नहीं, आजम हैदर से मिलने के बहाने पूरी फैक्ट्री बाहर से देख चुका था.

आजम आगे बढ़ता जा रहा था. लेकिन वह अन्य कर्मचारियों के साथ फैक्ट्री के अंदर नहीं गया, बल्कि कुछ दूरी पर बने शौचालय की ओर बढ़ गया. उसे अपना काम ठीक साढ़े 10 बजे अंजाम देना था. 10:25 पर वह शौचालय से बाहर निकला और फैक्ट्री के औफिस के पास पहुंच कर रुक गया. उस ने जेब में रिवाल्वर टटोला जिसे रऊफ ने दिया था. फिर वह औफिस के अंदर पहुंचा.

आजम ने खिड़की से देखा कि तनख्वाह बांटने वाले कमरे में बूढ़ा एकाउंटेंट और 3 औरतें थीं. एकाउंटेंट तिजोरी से रुपए निकाल कर थैले में डाल चुका था. आजम ने दरवाजे का हैंडल घुमाया और दरवाजे को धक्का दिया. मगर दरवाजा टस से मस न हुआ. एक क्षण के लिए उस के होश उड़ गए.

लेकिन जब उस ने थोड़ा जोर से धक्का दिया तो दरवाजा खुल गया. बूढे़ एकाउंटेंट ने सिर उठा कर उस की ओर देखा, फिर उस के माथे पर बल पड़ गए. उस ने प्रश्नवाचक नजरों से आजम को देखा, जो अब तक रिवाल्वर निकाल चुका था. रिवाल्वर देख कर तीनों औरतों की चीखें निकल गईं.

‘‘खामोश!’’ आजम ने सख्त स्वर में कहा, ‘‘चुपचाप रुपयों का थैला मेरे हवाले कर दो, नहीं तो तुम लोग बेमौत मारे जाओगे.’’

‘‘नहीं.’’ बूढ़े एकाउंटेंट की सांसें फूलने लगीं, ‘‘इस में हमारी तनख्वाहें हैं.’’

‘‘जल्दी करो.’’ आजम ने कठोर स्वर में कहा. बूढे एकाउंटेंट ने डर के मारे नोटों से भरा थैला आजम की ओर बढ़ा दिया. आजम ने झपट कर थैला ले लिया. थैला बहुत भारी था. उसे पहली बार महसूस हुआ कि नोटों में भी काफी वजन होता है. वह सोचने लगा कि थैला ले कर दौड़ लगाने में उसे जरूर परेशानी होगी. लेकिन फिर भी वह 500 फुट का फासला 15-16 सेकेंड में तय कर सकता था.

आजम दरवाजे की ओर कदम बढ़ाते हुए बोला, ‘‘शोर मचाने की जरूरत नहीं है. अगर किसी ने शोर मचाया या मेरा पीछा करने की कोशिश की तो मैं गोली चला दूंगा.’’ फिर शीघ्र ही वह कमरे से बाहर निकला और दरवाजे की कुंडी लगा कर दौड़ना शुरू कर दिया.

7 साल पहले का जमाना लौट आया, जब आजम दर्शकों के सामने दौड़ लगाता था. आज भी वह अपनी योग्यता का भरपूर प्रदर्शन कर रहा था. उस के कानों में तेज हवाओं की सीटियां गूंज रही थीं. आजम को अपने पीछे दौड़ते कदमों का एहसास हो रहा था. ऐसे में उस के पैरों में मानो पंख लग गए थे.

वह जीजान से तेज दौड़ रहा था. उस की नजरों के सामने छोटा दरवाजा तेजी से पास आता जा रहा था. उस दरवाजे के बाहर रऊफ और हैदर गाड़ी में बैठे उस का इंतजार कर रहे थे. तभी उसे एहसास हुआ कि वह जिंदगी में कभी पहले इस से ज्यादा तेज नहीं दौड़ा था.

अचानक उसे किसी ने पीछे से पकड़ने का प्रयास किया. खतरे का एहसास होते ही क्षण भर के लिए उस का बदन टेढ़ा हो गया. आजम का कंधा पूरी ताकत के साथ सीमेंट के पक्के फर्श से टकराया लेकिन रुपयों का थैला उस के हाथ से फिर भी नहीं छूटा. ऐसे में उस के चेहरे के अंग सुरक्षित रहे. अगर वह सीधा गिरता तो शायद काफी समय तक कोई उसे पहचान न पाता.

जमीन से टकराते ही आजम के फेफड़ों में भरी हुई हवा निकल गई. उस ने एक गहरी सांस ले कर जल्दी से उठने की कोशिश की. लेकिन किसी ने उस की टांगें बड़ी मजबूती से पकड़ रखी थीं. उस के गले से एक तेज चीख निकल गई.

यह कैसे संभव हो सकता था. वह तो अपनी जिंदगी में कभी इतना तेज नहीं दौड़ा था. आखिर कोई आदमी उसे किस तरह पकड़ने में सफल हो गया. उस ने सिर घुमा कर पीछे देखा-एक युवक उस के टखने पकडे़ हुए था. वह युवक बोला, ‘‘माफ करना मित्र, इस थैले में मेरी तनख्वाह है. इसलिए मैं तुम्हें यह थैला ले कर भागने की इजाजत नहीं दे सकता.’’

पहले तो आजम को अपनी आंखों पर यकीन नहीं आया. फिर धीरेधीरे उस ने उस युवक को पहचान लिया. उस ने छोटी सी दाढ़ी बढ़ा रखी थी. उसे पकड़ने वाला युवक शकील था, जिस ने 7 साल पहले कालेज में उसे दौड़ प्रतियोगिता में हराया था.

‘‘शकील!’’ आजम के हलक से एक दर्दभरी कराह निकली, ‘‘तुम…तुम यहां क्या कर रहे हो?’’

‘‘मैं इस टूल फैक्ट्री का कर्मचारी हूं.’’ शकील ने कठोर स्वर में जवाब दिया, ‘‘एक विभाग का मैनेजर.’’

फिर पलक झपकते ही वहां फैक्ट्री के बहुत से कर्मचारी इकट्ठा हो गए. उन्होंने पहले रुपयों का थैला उठाया, फिर आजम को उस के पैरों पर खड़ा किया. वे आपस में जोरजोर से बातें कर रहे थे. रऊफ और हैदर को भी पकड़ लिया गया था.

आजम को उन दोनों की कोई परवाह नहीं थी. उसे रुपए हाथ से निकल जाने का भी कोई दुख नहीं हुआ. आजम को बस एक ही बात का अफसोस था कि इस बार भी वह दौड़ में शकील के मुकाबले दूसरे नंबर पर रहा.

– प्रस्तुति : कलीम उल्लाह   

मम्मी जी के बेटे जी: क्या पति को सास से दूर कर पाई जूही

प्रतिभा ने अपनी ससुराल फोन किया. 3 बार घंटी बजने के बाद वहां उस के पति शरद ने रिसीवर उठाया और हौले से कहा, ‘‘हैलो?’’ शरद की आवाज सुन कर प्रतिभा मुसकराई. उस ने चाहा कि वह शरद से कहे कि मम्मीजी के बेटेजी.

मगर यह बात उस के होंठों से बाहर निकलतेनिकलते रह गई. वह सांस रोके असमंजस में रिसीवर थामे रही. उधर से शरद ने दोबारा कहा, ‘‘हैलो?’’ प्रतिभा शरद के बारबार ‘हैलो’ कहते सुनने से रोमांचित होने लगी, पर उस ने शरद की ‘हैलो’ का कोई जवाब नहीं दिया. सांसों की ध्वनि टैलीफोन पर गूंजती रही. फिर शरद ने थोड़ी प्रतीक्षा के बाद झल्लाते हुए कहा, ‘‘हैलो, बोलिए?’’ किंतु प्रतिभा ने फिर भी उत्तर नहीं दिया, उलटे, वह हंसने को बेताब हो रही थी, इसीलिए उस ने रिसीवर रख दिया. रिसीवर रखने के बाद उस की हंसी फूट पड़ी. हंसतेहंसते वह पास बैठी अपनी बेटी जूही के कंधे झक झोरने लगी. जूही को मम्मी की हंसी पर आश्चर्य हुआ. इसीलिए उस ने पूछा, ‘‘मम्मी, किस बात पर इतनी हंसी आ रही है? टैलीफोन पर ऐसी क्या बात हो गई?’’ ‘‘टैलीफोन पर कोई बात ही कहां हुई,’’ प्रतिभा ने उत्तर दिया. ‘‘तो फिर आप को इतनी हंसी क्यों आ रही है? पापा पर?’’ जूही चौंकी. ‘‘हां.’’

‘‘उन्होंने ऐसा क्या किया?’’ ‘‘यह सम झाना मुश्किल है.’’ ‘‘मगर कुछ तो बतलाइए, मम्मी, प्लीज?’’ ‘‘वे आएंगे तब बतलाऊंगी, जूही,’’ प्रतिभा ने पीछा छुड़ाने के लिए बेटी जूही से कह दिया. किचन में जा कर प्रतिभा खाना बनाने लगी, मगर उस की हंसी फिर भी रुक नहीं रही थी. उसे रहरह कर इसी बात पर आश्चर्य हो रहा था कि शरद भी कैसा व्यक्ति है जो 2 बच्चों का बाप बन गया, मगर अपनी मां का आंचल अभी भी छोड़ नहीं पाया. बातबात पर मम्मीमम्मी की रट लगाता रहता है. अपने पापा के प्रति तो शरद को इतना लगाव नहीं रहा, मगर मम्मी तो जैसे उस के रोमरोम में बसी हैं.

कदमकदम पर मम्मी उसे याद आती रहती हैं. विवाह के कुछ वर्षों बाद उस ने जब पापामम्मी से अलग होने का सु झाव दिया था तो शरद की पहली प्रतिक्रिया यही हुई थी, ‘मम्मी को अलग कैसे छोड़ सकते हैं.’ इस पर चकित होते हुए प्रतिभा ने शरद से पूछा था, ‘क्यों नहीं छोड़ सकते हो? तुम कोई दूध पीते बच्चे हो जो मम्मी से अलग नहीं रह सकते?’ ‘तुम्हें कैसे सम झाऊं, प्रतिभा. यह मामला दूसरी तरह का है,’ तब शरद ने बहुत ही भावुक हो कर उत्तर दिया था. ‘क्या मतलब? कुछ सम झाओ न?’ ‘बात यह है कि यह भावनाओं का मामला है. भावनात्मक लगाव के कारण ही मम्मी से अलग होना मु झे…’ भावावेश में शरद अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था, क्योंकि उस स्थिति को व्यक्त करने लायक शब्द उसे सू झे नहीं थे. उस ने अपने हावभाव से मम्मी से विछोह की पीड़ादायक स्थिति अभिव्यक्त कर दी थी.

अपने पति की इस बात को प्रतिभा सम झ गई थी, इसीलिए उस ने दोटूक शब्दों में पूछा था, ‘भावनाएं क्या केवल तुम्हारे ही पास हैं? मेरा हृदय क्या भावनाशून्य है?’ ‘क्या मतलब?’ ‘मतलब यही कि मु झे अपने मम्मीपापा से लगाव नहीं है क्या?’ ‘किस ने कहा कि लगाव नहीं है?’ ‘तो फिर तुम ने यह क्यों नहीं सोचा कि मैं अपने मम्मीपापा को छोड़ कर यहां, दूसरे नगर में, इस नए परिवार में कैसे आ गई?’ लेकिन प्रतिभा की इस बात का शरद कोई उत्तर नहीं दे पाया था. वह मुंहबाए देखता रहा था. ‘अपने मम्मीपापा से तुम्हारा यह विछोह तो नाममात्र का है,’ प्रतिभा फिर बोली थी, ‘क्योंकि हम तो इसी नगर में अपना अलग चूल्हा कायम करेंगे. हम कोई दूसरे नगर में नहीं बसेंगे, उन के पास ही रहेंगे. यहां जगह की कमी नहीं होती तो हम अलग होने का विचार भी नहीं करते. मजबूरी में ही यह विचार कर रहे हैं.’

इस मजबूरी का तो शरद भी कायल था, क्योंकि 2 कमरे एवं एक किचन वाले इस घर में विवाह के बाद वह खुद को बंधाबंधा सा महसूस करता था. अभी तक वह मांबाप, भाईबहन के साथ रहता आया था, मगर उसे यह घर छोटा कभी महसूस नहीं हुआ था. पर विवाह के बाद उसे महसूस होने लगा था कि घर जैसे पहले से छोटा हो गया है, इसीलिए इस से बड़े घर की कामना उस ने की थी. प्रतिभा ने उस की इस कामना की पूर्ति के लिए अलग होने की बात सु झाई थी, किंतु यह सु झाव शरद को पसंद नहीं था, क्योंकि अपनी मम्मी से अलग होने की कल्पना मात्र से ही वह सिहर उठा था. इसीलिए इस विकल्प को वह टालता रहा था. शरद के पापा ने ही शरद की पीड़ा सम झते हुए सु झाव दिया था, ‘‘भैया, कोई बड़ा घर ढूंढ़ो. ढाई कमरे में अब गुजरबसर संभव नहीं है.’ तब शरद और उस का छोटा भाई हेमंत बड़ा मकान ढूंढ़ने निकले थे,

किंतु बहुत भटकने के बाद भी उन्हें कम किराए वाला बड़ा मकान नहीं मिला था. जो मिले थे उन का किराया भी बहुत अधिक था और पेशगी में बड़ी रकम की मांग भी थी. उन की और भी कई शर्तें थीं, इसीलिए उन्होंने यह प्रयास त्याग दिया था. वे मन मसोस कर रह गए थे. इसी दौरान 2 कमरे एवं एक किचन वाले एक फ्लैट की सहज प्राप्ति का मौका आ गया था. हुआ यों था कि शहर से बाहर पूर्वी क्षेत्र में शरद के एक सहयोगी ने वह फ्लैट खरीदा था. वह उस में रहने भी लगा था, किंतु तबादला हो जाने से उसे जाना पड़ रहा था. वह चाहता था कि उस फ्लैट में कोई ऐसा किराएदार आ जाए जो जरूरत होने पर फ्लैट खाली कर दे, दुखी न करे. उसे शरद की मकान की परेशानी पता थी, इसीलिए उस ने शरद से कहा कि वह यदि चाहे तो उस के फ्लैट में आ जाए. अभी 3 वर्ष तक उस के यहां लौटने की कोई संभावना नहीं है. लिहाजा, इन 3 वर्षों तक वह यहां रह सकता है. इस बीच वह अ%2

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