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कभी न छोड़ें शादी के बाद नौकरी

राइटर- प्रियंका यादव

शादी के बाद महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे जौब छोड़ दें क्योंकि घर में रहने वाली महिला को यह समाज संस्कारी महिला की संज्ञा देता है जो बिलकुल भी सही नहीं है. असल में यह समाज महिलाओं को चारदीवारी में कैद रखना चाहता है. ऐसे में महिलाओं को यह चाहिए कि वे शादी के बाद भी अपनी जौब जारी रखें ताकि घर में रहने वाली संस्कारी महिला की छवि को तोड़ा जा सके.

यह समाज शादी के बाद महिलाओं पर घरेलू बनने का दबाव डालता है क्योंकि वह चाहता है कि महिलाएं घर तक ही सीमित रहें. समाज को लगता है कि घर से बाहर निकलने पर महिलाएं अपने हक के बारे में जान जाएंगी और बरसों से चली आ रही रूढि़वादी परंपराओं को मानने से इनकार कर देंगी. यह एक तरह से बगावत होगी समाज के उन ठेकेदारों के खिलाफ जो सदियों से महिलाओं का किसी न किसी रूप में शोषण करते आए हैं. महिलाओं को चाहिए कि वे अपनेआप को ऐसे शोषण करने वाले लोगों से बचाएं.

इस क्षेत्र में सब से पहला कदम महिलाओं का शादी के बाद भी जौब करना है. शादीशुदा महिलाओं को अपने भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. उन्हें यह सम?ाना चाहिए कि जौब उन के लिए कितनी जरूरी है. यह न सिर्फ उन के घर से बाहर निकलने का जरीया है बल्कि यह उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाती ह.ै उन्हें अपनी योग्यता का इस्तेमाल करना चाहिए. उन्हें यह सोचना चाहिए कि उन की पढ़ाई का क्या फायदा है अगर वे उस का उपयोग ही न कर सकें.

आखिर वजह क्या है

यह समाज हमेशा से यह चाहता आया है कि महिलाएं घर तक ही सीमित रहें. इस के लिए समाज किचन का निर्माण भी ऐसे ही किया कि उस में एक बार में एक व्यक्ति ही काम कर सके. महिलाओं को समाज की इस सोच को तोड़ना है कि रसोईघर सिर्फ महिलाओं का क्षेत्र है. इस के लिए सब से पहले खुली किचन का निर्माण करना होगा या किचन की सैंटिंग ऐसी करनी होगी कि वहां एकसाथ कम से कम 2 लोग काम कर सकें.

जब लड़की अपने पिता के घर होती है तो वह आसानी से जौब कर लेती है. लेकिन शादी के बाद महिलाएं जौब क्यों नहीं करतीं? तो इस का एक कारण है कि उन के होने वाले पति या ससुराल वाले इस की इजाजत नहीं देते. महिलाओं का शादी के बाद जौब न करने का दूसरा कारण महिलाओं द्वारा जल्दी बच्चे कर लेना है. ऐसे में बच्चे के जन्म लेने में 9 महीने का समय लग जाता है और इस के बाद अगले 3 साल तक उस की देखभाल करने की जरूरत होती है.

ऐसे में महिलाएं उसी में बंध कर रह जाती हैं. इसलिए जरूरी है कि लड़कियां शादी से पहले फैमिली प्लानिंग के बारे में होने वाले पति से बात कर लें. शादी से पहले अपने होने वाले पार्टनर से अपने मन की बात करें. उन्हें यह बताएं कि शादी के बाद भी आप जौब करना चाहती हैं.

घर वालों से खुल कर बात करें

बहुत सी महिलाएं शादी के बाद अपने अरमानों का गला घोट देती हैं. वे अपने बेहतर कैरियर तक को छोड़ देती हैं. अत: शादी का फैसला सोचसम?ा कर करें और ऐसा जीवनसाथी चुनें जो आप को कैरियर में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे.

जो लड़कियां कैरियर औरिएंटल होती हैं और शादी के बाद जौब छोड़ना नहीं चाहतीं, उन्हें इस बारे में अपने पार्टनर और उस के घर वालों से खुल कर बात करनी चाहिए. इस से उन लोगों के जवाब से महिलाओं को निर्णय लेने में आसानी हो जाएगी.

महिलाएं अपने होने वाले पति से पूछ सकती हैं कि शादी के बाद उन के कैरियर को बढ़ावा देने के लिए वे किस प्रकार से सपोर्ट कर सकते हैं? क्या वे घरेलू जिम्मेदारियों में आप का हाथ बंटाएंगे या फिर परिवार के बढ़ने के बाद भी क्या वे उन के कैरियर की गंभीरता को सम?ोंगे? अगर परिवार के लोगों ने नौकरी छोड़ने को कहा तो क्या वह उन्हें सम?ाने की कोशिश करेंगे? ऐसे ही कुछ सवाल पूछ कर महिलाएं अपने लिए सही जीवनसाथी चुन सकती हैं.

शादीशुदा महिलाएं समय का रखें ध्यान

शादीशुदा महिलाओं को अपने समय का विशेष ध्यान रखना चाहिए. इस के लिए वे अगले दिन के लंच की तैयारी रात में ही कर लें जैसे सब्जियां काट कर फ्रिज में रख दें, रात में ही कपड़े प्रैस कर लें, अपना बैग तैयार कर लें, इस तरह से महिलाएं अपने काम के समय को बचा सकती हैं.

दिल्ली की रहने वाली 28 वर्षीय अनु बताती हैं कि उन की शादी को 2 साल हो गए हैं. शुरू में शादी के बाद जौब करने में उन्हें काफी परेशानियां आईं, फिर उन्होंने अपनी सैलरी का एक हिस्सा दे कर नौकरानी रख ली. अब वे घर और औफिस दोनों का काम बड़ी सरलता से कर लेती हैं. उन्होंने यह भी बताया कि वे अपनी सैलरी का 40% हिस्सा नौकरानी शांता को देती हैं, लेकिन उन्हें इस का कोई मलाल नहीं है क्योंकि वे सम?ाती हैं कि जौब हर महिला को करनी चाहिए और इसे शादी के बाद भी जारी रखना चाहिए.

कामकाजी महिलाओं को घर और औफिस दोनों का काम करना होता है. ऐसे में वे अपने कामों को छोटेछोटे हिस्सों में बांट दें. परिवार के हर सदस्य को उस की जरूरत का खुद खयाल रखने दें, जेबें चैक करने के बाद गंदे कपड़ों को टोकरी में डालने को कहें, खाने के बाद उन्हें अपनी थाली खुद उठाने को कहें, अपने पार्टनर से टेबल और बैड लगाने को कहें, उन्हें पानी का जार भरने जैसे छोटेछोटे काम करने को दें.

पुरुषों को भी यह सम?ाना होगा कि यह केवल महिलाओं का ही काम नहीं है क्योंकि एक कामकाजी महिला के रूप में कार्यालय और घर दोनों अच्छी तरह संभाल रही हैं, इसलिए दोनों को घर के कामों में हाथ बंटाना चाहिए, अगर आप के पार्टनर को खाना बनाना आता है तो उन से कहें कि वे भी खाना बनाया करें. यदि परिवार में अन्य सदस्य हैं. तो सभी को विनम्रता से यह स्पष्ट करें कि आप एक कामकाजी महिला हैं और आप भी जौब करती हैं इसलिए सभी को मिल कर काम करना होगा.

धर्म क्या चाहता है

हर धर्म चाहता है कि औरतें कमजोर रहें और इसलिए धर्म के धोखेबाज तरहतरह के तरीके अपनाते हैं. वे कहते हैं कि पूजापाठ से घर में बरकत होती है, बच्चे होते हैं, लड़की को अच्छा वर मिलता है, बीमार ठीक होता है, इन सब के लिए आदमी अपना समय कम लगाते हैं, औरतें ज्यादा समय लगाती हैं. वर्किंग औरतों को इस साजिश को सम?ा लेना चाहिए और धर्म में समय नहीं लगाना चाहिए.

तीर्थस्थान की जगह मनोरंजक स्थान पर जाएं, जहां फुरसत हो और कार्यक्रम आप के अनुसार तय हो, मंदिर के कपाट खुलने या पंडितों के दिए समय के अनुसार नहीं. मंदिरों में लाइनों में समय बरबाद न करें, किसी समुद्री तट या जंगल का मजा लें.

घर में पूजापाठ के नाम पर घंटों आंखें मूंद कर बैठने की जगह व्यवसाय करें, पौधे लगाएं, घर की देखभाल करें ताकि कोई यह न कह सके कि घर है या कबाड़खाना.

एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि एक शिशु को मां की सब से अधिक जरूरत केवल 3 वर्ष तक ही होती है, इस के बाद जैसेजैसे उस का विकास होता जाता है उस का ध्यान कम रखना पड़ता है. इस बीच महिलाएं अपने बच्चे के लिए बेबी सिटर या कहें बेबी केयर अपौइंट कर सकती हैं और इस के बाद महिलाएं अपनी जौब को जारी रख सकती हैं.

महिलाओं को इस बात से पीछे नहीं हटना चाहिए कि उन की सैलरी बेबी केयर और नौकरानी में निकल जाएगी. उन्हें उस वक्त बस यह ध्यान रखना है कि वे अपनी जौब को जारी रखें क्योंकि यही एक जरीया है जो उन्हें बाहरी दुनिया से जोड़े रखेगा और मर्दों के कंधे से कंधा मिला कर चलने का अवसर प्रदान करेगा.

मेघा पेशे से डाक्टर हैं. उन के 2 बच्चे हैं. ऐसे में बच्चों को अकेला छोड़ कर क्लीनिक जाना उन के लिए एक मुश्किल फैसला था. इस वजह से वे अपनी नौकरी छोड़ने की सोच रही थीं. तभी उन की एक दोस्त ने सु?ाव दिया कि वे एक फुलटाइम बेबी सिटर रख लें. मेघा ने ऐसा ही किया. इस के बाद मेघा टैंशन फ्री हो कर क्लीनिंग जाने लगीं.

जमाना बदल गया है

ऐसी ही एक कहानी दिल्ली के पटेल नगर में रहने वाली नीति बताती हैं. वे कहती हैं कि वे एक न्यूज चैनल में कार्यरत हैं. अपने अनुभव बताते हुए वे कहती हैं कि उन्हें हमेशा से यह डर लगता था कि बच्चे होने के बाद क्या वे अपनी जौब जारी रख पाएंगी? लेकिन नौकरानी और बेबी सिटर की सहायता से वे अपने घर और जौब दोनों को अच्छे से संभाल लेती हैं. वे कहती हैं कि महिलाओं को हमेशा अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करनी चाहिए. इस के लिए जरूरी है कि वे शादी के बाद भी जौब करें.

महिलाओं के लिए नौकरी करना और उस के साथसाथ घर और बच्चे की जिम्मेदारी संभालना आसान काम नहीं है, लेकिन नए जमाने की महिलाओं ने इसे बखूबी निभाया है. महिलाओं को अपने पार्टनर को यह बताना चाहिए कि घर और बच्चे दोनों के हैं इसलिए जिम्मेदारी भी दोनों की है, किसी एक की नहीं.

वे लोग जो सम?ाते हैं कि कामकाजी महिलाएं घर का अच्छे से खयाल नहीं रखती हैं उन्हें शुगर कौस्मैटिक की कोफाउंडर विनीता अग्रवाल और ममा अर्थ की ओनर कजल अलघ का नाम नहीं भूलना चाहिए. वहीं अगर मीडिया इंडस्ट्री की बात की जाए तो उच्च पदों पर कार्यरत महिलाएं जैसे अंजना ओम कश्यप भी शादीशुदा हैं, फिर भी वे घर और जौब दोनों को अच्छे से संभाल रही हैं.

भारत के कई राज्यों और शहरों में ऐसी महिलाएं हैं जिन्होंने फूड स्टाल लगा कर खुद को आत्मनिर्भर बनाया है. वे न केवल अपना खर्चा उठाती हैं बल्कि अपने परिवार की जरूरतों का भी पूरा खयाल रखती हैं.

ऐसा ही एक स्टौल दिल्ली के लाजपत नगर में एक महिला चलाती हैं जो मोमोस के लिए फेमस हैं. इन्हें ‘डोलमा आंटी’ के नाम से जाना जाता है. हमें अपने आसपास राह चलते हुए ऐसी कई महिलाएं दिख जाती हैं जो नीबू पानी, जूस, लस्सी और चाय आदि का स्टाल लगाती हैं. यह वे महिलाएं हैं जिन से हमें प्रेरणा मिलती हैं. ये महिलाएं उन सभी महिलाओं के लिए उदाहरण पेश करती हैं जो शादी के बाद जौब छोड़ कर खुद को घरगृहस्थी में व्यस्त कर लेती हैं और अपना कैरियर दांव पर लगा देती हैं.

ऐसे बहुत से काम हैं जिन्हें शादीशुदा महिलाएं पार्टटाइम के तौर पर कर सकती हैं. ये काम घर बैठे भी किए जा सकते हैं. आमतौर पर ये काम कुछ घंटे के होते हैं जैसे राइटिंग, प्रूफ रीडिंग, एडिटिंग, टाइपिंग आदि. पार्टटाइम काम करने के लिए जरूरी है कि आप के पास उन कामों से संबंधित विषय वस्तु हो जैसे प्रूफ रीडिंग और राइटिंग के लिए टेबल और कुरसी की जरूरत होती है.

कामकाजी महिलाओं के फायदे

कामकाजी महिला होने के बहुत फायदे हैं जैसे कामकाजी महिलाएं आर्थिक रूप से सक्षम होती हैं. वे अधिक कौन्फिडैंट होती हैं क्योंकि वे बनठन कर रहती है इसलिए उन की पर्सनैलिटी होती है. कामकाजी महिलाएं बहुत खुशमिजाज होती हैं और साथ ही साथ जिंदगी को एक नए तरीके से देखने में भी विश्वास रखती हैं.

इस के अलावा और भी कई फायदे हैं:

आर्थिक रूप से सक्षम: आर्थिक रूप से सक्षम कामकाजी महिलाओं का समाज में एक अलग रुतबा होता है. आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण वे अपने आर्थिक फैसले खुद ले सकती हैं. वे जो भी चाहें वह खरीद सकती हैं. इस के लिए उन्हें पति पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है. यदि महिलाएं शादी के बाद जौब नहीं करतीं तो उन्हें छोटीछोटी जरूरतों के लिए अपने पति का मुंह ताकना पड़ता है. यह उन महिलाओं को असहज महसूस करा सकता है जिन्होंने शादी से पहले जौब की हो.

अपनेआप को इस असहजता से निकालने के लिए उन्हें शादी के बाद भी जौब करनी चाहिए. आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण वे अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देती हैं. इस के अलावा आय का एक सोर्स और बढ़ने से घर में सेविंग होने लगती है जोकि उन के भविष्य के लिए बहुत जरूरी है.

अधिक अट्रैक्टिव : शादीशुदा कामकाजी महिलाएं अधिक अट्रैक्टिव होती हैं क्योंकि वे दुनिया से जुड़ी हुई होती हैं. उन्हें पता होता कि फैशन में क्या चल रहा है इसलिए वे पति का अधिक प्यार भी पाती हैं. यह भी देखा गया है कि कामकाजी महिलाओं के पति अधिक रोमांटिक होते हैं. इस वजह से उन के बीच रोमांस अधिक होता है. वहीं अगर घरेलू महिला की बात की जाए तो वे कम अट्रैक्टिव होती हैं क्योंकि वे फैशन से लगभग कट चुकी होती हैं. उन का दायरा अब केवल घर तक ही सीमित रह जाता है. इसी वजह से उन के बीच रोमांस कम होता है.

अधिक कौन्फिडैंट : कामकाजी महिलाओं के कौन्फिडैंट की डोर खुले आसमान में गोते खाती हुई नजर आती है. यह कौन्फिडैंट उन्हें चारदीवारी से बाहर निकल कर आता है. वहीं अगर घरेलू महिलाओं की बात करें तो उन का सारा समय चौका बरतन में ही निकल जाता है. ऐसे में बाहरी दुनिया से उन का नाता लगभग टूट जाता है.

32 वर्षीय सुप्रिया एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करती हैं. उस का कौन्फिडैंस उन की बातों से साफ ?ालकता है. वहीं अगर घरेलू महिलाओं की बात की जाए तो वे लोगों से बात करने में ?ि?ाकती हैं.

निजी रिश्तों में आता है निखार : यह बात कई अध्ययनों के माध्यम से सामने आई है कि कामकाजी महिलाएं अपने क्षेत्र में अधिक सफल होती हैं. उन का निजी जीवन ज्यादा खुशनुमा होता है.

अधिक खुशमिजाज : लोगों का मानना है कि बाहर काम करना बहुत कठिन है, लेकिन सच तो यह है कि यदि घर पर कोई विशेष काम न हो तो महिलाओं को बाहर निकल कर जौब करनी ही चाहिए. इस से न केवल वे आत्मनिर्भर बनेंगी बल्कि तनावमुक्त भी रहेंगी. हाल ही में हुई एक स्टडी के मुताबिक, कामकाजी महिलाओं में गृहिणियों के मुकाबले कम अवसाद और तनाव देखने को मिला है. लोगों का मानना है कि कामकाजी महिलाएं घरेलू महिलाओं के मुकाबले अधिक खुशमिजाज होती हैं.

आदर्श महिलाएं : कामकाजी महिलाएं अपने बच्चों के सामने एक आदर्श के रूप में निखरती हैं. यह भी देखा गया है कि यदि किसी घरपरिवार में आर्थिक तंगी को ले कर तनाव देखने को मिलता है तो ऐसी स्थिति में ये महिलाएं बाहर निकल कर नौकरी कर के अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को मजबूत करती हैं. इन सब बातों का प्रभाव बच्चों की मानसिक स्थिति पर पड़ता है और आगे चल कर वे इस से अपने इरादों में मजबूती पाते हैं.

बदलता है नजरिया : घर से बाहर निकल कर काम करने वाली महिलाओं की सोच का नजरिया घरेलू महिलाओं की सोच में अधिक हो जाता है क्योंकि वे बाहर निकल कर पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही होती हैं. ऐसी स्थिति में कामकाजी महिलाएं पुरुषों के कार्य को भलीभांति सम?ा सकती हैं. यह देखने में आया है कि कामकाजी महिलाएं अपने परिवार के हित में जो भी फैसला लेती हैं. वह खुले दिल और दिमाग से होता है.

हमें बौलीवुड की फिल्म ‘की एंड का’ से प्रेरणा लेनी चाहिए. फिल्म में दिखाया गया है कि करीना कपूर एक कैरियर ऐंबीशंस लड़की है जो मानती है कि जरूरी नहीं है कि महिलाएं किचन में ही काम करें. वे कौरपोरेट औफिस में भी अच्छी तरह काम कर सकती हैं. वहीं अर्जुन कपूर की अपने पिता के बिजनैस में कोई रुचि नहीं है. वह मानता है कि एक लड़का भी अच्छे से किचन संभाल सकता है.

हमें इस फिल्म से यह सीखना चाहिए कि घरपरिवार की जिम्मेदारी महिलापुरुष कुछ दोनों की है. महिलाओं को यह सम?ाने की जरूरत है कि यह समाज उन्हें बस घर में कैद करना चाहता है. इस के लिए वह अलगअलग हथकंडे अपनाता है जैसे घर संभालना, बच्चों की देखभाल करना, आदर्श बहू बनना और न जाने क्याक्या. महिलाओं को इन सभी बातों को दरकिनार कर के अपने कैरियर के बारे में सोचना चाहिए. उन्हें इस बात को इग्नोर नहीं करना चाहिए कि उन का आत्मनिर्भर होना कितना जरूरी है.

शिणगारी: आखिर क्यों आज भी इस जगह से दूर रहते हैं बंजारे?

बंजारों के एक मुखिया की बेटी थी शिणगारी. मुखिया के कोई बेटा नहीं था. शिणगारी ही उस का एकमात्र सहारा थी. बेहद खूबसूरत शिणगारी नाचने में माहिर थी.

शिणगारी का बाप गांवगांव घूम कर अपने करतब दिखाता था और इनाम हासिल कर अपना व अपनी टोली का पेट पालता था.

शिणगारी में जन्म से ही अनोखे गुण थे. 17 साल की होतेहोते उस का नाच देख कर लोग दांतों तले उंगली दबाने लगे थे.

ऐसे ही एक दिन बंजारों की यह टोली उदयपुर पहुंची. तब उदयपुर नगर मेवाड़ राज्य की राजधानी था. महाराज स्वरूप सिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे थे. उन के दरबार में वीर, विद्वान, कलाकार, कवि सभी मौजूद थे. एक दिन महाराज का दरबार लगा हुआ था. वीर, राव, उमराव सभी बैठे थे. महफिल जमी थी. शिणगारी ने जा कर महाराज को प्रणाम किया.

अचानक एक खूबसूरत लड़की को सामने देख मेवाड़ नरेश पूछ बैठे, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘शिणगारी… महाराज. बंजारों के मुखिया की बेटी हूं…’’ शिणगारी अदब से बोली, ‘‘मुजरा करने आई हूं.’’

‘‘ऐसी क्या बात है तुम्हारे नाच में, जो मैं देखूं?’’ मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘मेरे दरबार में तो एक से बढ़ कर एक नाचने वालियां हैं.’’

‘‘पर मेरा नाच तो सब से अलग होता है महाराज. जब आप देखेंगे, तभी जान पाएंगे,’’ शिणगारी बोली.

‘‘अच्छा, अगर ऐसी बात है, तो मैं तुम्हारा नाच जरूर देखूंगा. अगर मुझे तुम्हारा नाच पसंद आ गया, तो मैं तुम्हें राज्य का सब से बढि़या गांव इनाम में दूंगा. अब बताओ कि कब दिखाओगी अपना नाच?’’ मेवाड़ नरेश ने पूछा. ‘‘मैं सिर्फ पूर्णमासी की रात को मुजरा करती हूं. मेरा नाच खुले आसमान के नीचे चांद की रोशनी में होता है…’’ शिणगारी बोली, ‘‘आप अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार वाले टीले तक एक मजबूत रस्सी बंधवा दीजिए. मैं उसी रस्सी पर तालाब के पानी के ऊपर अपना नाच दिखाऊंगी.’’

शिणगारी के कहे मुताबिक मेवाड़ नरेश ने अपने महल से पिछोला सरोवर के उस पार बनेरावला दुर्ग के खंडहर के एक बुर्ज तक एक रस्सी बंधवा दी.

पूर्णमासी की रात को सारा उदयपुर शिणगारी का नाच देखने के लिए पिछोला सरोवर के तट पर इकट्ठा हुआ. महाराजा व रानियां भी आ कर बैठ गए.

चांद आसमान में चमक रहा था. तभी शिणगारी खूब सजधज कर पायलें छमकाती हुई आई. उस ने महाराज व रानियों को झुक कर प्रणाम किया और दर्शकों से हाथ जोड़ कर आशीर्वाद मांगा. फिर छमछमाती हुई वह रस्सी पर चढ़ गई. नीचे ढोलताशे वगैरह बजने लगे.

शिणगारी लयताल पर उस रस्सी पर नाचने लगी. एक रस्सी पर ऐसा नाच आज तक उदयपुर के लोगों ने नहीं देखा था. हजारों की भीड़ दम साधे यह नाच देख रही थी. खुद मेवाड़ नरेश दांतों तले उंगली दबाए बैठे थे. रानियां अपलक शिणगारी को निहार रही थीं.

नाचतेनाचते शिणगारी पिछोला सरोवर के उस पार रावला दुर्ग के बुर्ज पर पहुंची, तो जनता वाहवाह कर उठी. खुद महाराज बोल पड़े, ‘‘बेजोड़…’’

कुछ पल ठहर कर शिणगारी रस्सी पर फिर वापस मुड़ी. बलखातीलहराती रस्सी पर वह ऐसे नाच रही थी, जैसे जमीन पर हो. इस तरह वह आधी रस्सी तक वापस चली आई.

अभी वह पिछोला सरोवर के बीच में कुछ ठहर कर अपनी कला दिखा ही रही थी कि किसी दुष्ट के दिल पर सांप लोट गया. उस ने सोचा, ‘एक बंजारिन मेवाड़ के सब से बड़े गांव को अपने नाच से जीत ले जाएगी. वीर, उमराव, सेठ इस के सामने हाथ जोड़ेंगे. क्षत्रियों को झुकना पड़ेगा और ब्राह्मणों को इस की दी गई भिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी…’ और तभी रावला दुर्ग के बुर्ज पर बंधी रस्सी कट गई.

शिणगारी की एक तेज चीख निकली और छपाक की आवाज के साथ वह पिछोला सरोवर के गहरे पानी में समा गई.

सरोवर के पानी में उठी तरंगें तटों से टकराने लगीं. महाराज उठ खड़े हुए. रानियां आंसू पोंछते हुए महलों को लौट गईं. भीड़ में हाहाकार मच गया. लोग पिछोला सरोवर के तट पर जा खड़े हुए. नावें मंगवाई गईं. तैराक बुलाए गए. तालाब में जाल डलवाया गया, पर शिणगारी को जिंदा बचा पाना तो दूर उस की लाश तक नहीं खोजी जा सकी.

अगले दिन दरबार लगा. शिणगारी का पिता दरबार में एक तरफ बैठा आंसू बहा रहा था.

मेवाड़ नरेश बोले, ‘‘बंजारे, हम तुम्हारे दुख से दुखी हैं, पर होनी को कौन टाल सकता है. मैं तुम्हें इजाजत देता हूं कि तुम्हें मेरे राज्य का जो भी गांव अच्छा लगे, ले लो.’’

‘‘महाराज, हम ठहरे बंजारे. नाच और करतब दिखा कर अपना पेट पालते हैं. हमें गांव ले कर क्या करना है. गांव तो अमीर उमरावों को मुबारक हो…’’ शिणगारी का बाप रोतेरोते कह रहा था, ‘‘शिणगारी मेरी एकलौती औलाद थी. उस की मां के मरने के बाद मैं ने बड़ी मुसीबतें उठा कर उसे पाला था. वही मेरे बुढ़ापे का सहारा थी. पर मेरी बेटी को छलकपट से तो नहीं मरवाना चाहिए था अन्नदाता.’’

मेवाड़ नरेश कुछ देर सिर झुकाए आरोप सुनते रहे, फिर तड़प कर बोले, ‘‘तेरा आरोप अब बरदाश्त नहीं हो रहा है. अगर तुझे यकीन है कि रस्सी किसी ने काट दी है, तो तू उस का नाम बता. मैं उसे फांसी पर चढ़वा कर उस की सारी जागीर तुझे दे दूंगा.’’

‘‘ऐसी जागीर हमें नहीं चाहिए महाराज. हम तो स्वांग रच कर पेट पालने वाले कलाकार हैं,’’ शिणगारी के पिता ने कहा. ‘‘तो तुम जो चाहो मांग लो,’’ मेवाड़ नरेश गरजे.

‘‘नहीं महाराज…’’ आंसुओं से नहाया बंजारों का मुखिया बोला, ‘‘जिस राज्य में कपटी व हत्यारे लोग रहते हैं, वहां का इनाम, जागीर, गांव लेना तो दूर की बात है, वहां का तो मैं पानी भी नहीं पीऊंगा. मैं क्या, आज से उदयपुर की धरती पर बंजारों का कोई भी बच्चा कदम नहीं रखेगा महाराज.’’

यह सुन कर सभा में सन्नाटा छा गया. वह बंजारा धीरेधीरे चल कर दरबार से बाहर निकल गया.

इस घटना को बीते सदियां गुजर गईं, पर अभी भी बंजारे उदयपुर की जमीन पर कदम नहीं रखते हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी बंजारे अपने बच्चों को शिणगारी की कहानी सुना कर उदयपुर की जमीन से दूर रहने की हिदायत देते हैं.

लेखक- शिवचरण चौहान

गूंगी गूंज- क्यों मीनो की गुनाहगार बन गई मां?

“रिमझिम के तराने ले के आई बरसात, याद आई किसी से वो पहली मुलाकात,” जब
भी मैं यह गाना सुनती हूं, तो मन बहुत विचलित हो जाता है, क्योंकि याद
आती है, पहली नहीं, पर आखिरी मुलाकात उस के साथ.

आज फिर एक तूफानी शाम है. मुझे सख्त नफरत है वर्षा  से. वैसे तो यह भुलाए
न भूलने वाली बात है, फिर भी जबजब वर्षा होती है तो मुझे तड़पा जाती है.

मुझे याद आती है मूक मीनो की, जो न तो मेरे जीवन में रही और न ही इस
संसार में. उसे तकदीर ने सब नैमतों से महरूम रखा था. जिन चीजों को हम
बिलकुल सामान्य मानते हैं, वह मीनो के लिए बहुत अहमियत रखती थीं. वह मुंह
से तो कुछ नहीं बोल सकती थी, पर उस के नयन उस के विचार प्रकट कर देते थे.

कहते हैं, गूंगे की मां ही समझे गूंगे की बात. बहुतकुछ समझती थी, पर मैं
अपनी कुछ मजबूरियों के कारण मीनो को न चाह कर भी नाराज कर देती थी.

बारिश की पहली बूंद पड़ती और वह भाग कर बाहर चली जाती और खामोशी से आकाश
की ओर देखती, फिर नीचे पांव के पास बहते पानी को, जिस में बहती जाती थी
सूखें पत्तों की नावें. ताली मार कर खिलखिला कर हंस पड़ती थी वह.

बादलों को देखते ही मेरे मन में एक अजीब सी उथलपुथल हो जाती है और एक
तूफान सा उमड़ जाता है जो मुझे विचलित कर जाता है और मैं चिल्ला उठती हूं
मीनो, मीनो…

मीनो जन्म से ही मानसिक रूप से अविकसित घोषित हुई थी. डाक्टरों की सलाह
से बहुत जगह ले गई, पर कहीं उस के पूर्ण विकास की आशा नजर नहीं आई.

मीनो की अपनी ही दुनिया थी, सब से अलग, सब से पृथक. सब सांसारिक सुखों से
क्या, वह तो शारीरिक व मानसिक सुख से भी वंचित थी. शायद इसीलिए वह कभीकभी
आंतरिक भय से प्रचंड रूप से उत्तेजित हो जाती थी. सब को उस का भय था और
उसे भय था अनजान दुनिया का, पर जब वह मेरे पास होती तो हमेशा सौम्य, बहुत
शांत व मुसकराती रहती.

बहुत कोशिश की थी उस रोज कि मुझे गुस्सा न आए, पर 6 वर्षों की सहनशीलता
ने मानसिक दबावों के आगे घुटने टेक दिए थे और क्रोध सब्र का बांध तोड़ता
हुआ उमड़ पड़ा था. क्या करती मैं? सहनशीलता की भी अपनी सीमाएं होती हैं.

एक तरफ मीनो, जिस ने सारी उम्र मानसिक रूप से 3 साल का ही रहना था और
दूसरी ओर गोद में सुम्मी. दोनों ही बच्चे, दोनों ही अपनी आवश्यकताओं के
लिए मुझ पर निर्भर.

उस दिन एहसास हुआ था मुझे कि कितना सहारा मिलता है एक संयुक्त परिवार से.
कितने ही हाथ होते हैं आप का हाथ बंटाने को और इकाई परिवार में
स्वतंत्रता के नाम पर होती है आत्मनिर्भरता या निर्भर होना पड़ता है
मनमानी करती नौकरानी पर. नौकर मैं रख नहीं सकती थी, क्योंकि मेरी 2
बेटियां थीं और कोई उन पर बुरी नजर नहीं डालेगा, इस की कोई गारंटी नहीं
थी.

आएदिन अखबारों में ऐसी खबरें छपती रहती हैं. मीनो के साथसाथ मेरा भी
परिवार सिकुड़ कर बहुत सीमित हो गया था. संजीव, मीनो, सुम्मी और मैं.
कभीकभी तो संजीव भी अपने को उपक्षित महसूस करते थे. हमारी कलह को देख कर
कई लोगों ने मुझे सलाह दी कि मीनो को मैं पागलखाने में दाखिल करा दूं और
अपना ध्यान अपने पति और दूसरी बच्ची पर पूरी तरह दूं, पर कैसे करती मैं
मीनो को अपने से दूर. उस का संसार तो मैं ही थी और मैं नहीं चाहती थी कि
उसे कोई तकलीफ हो, पर अनचाहे ही सब तकलीफों से छुटकारा दिला दिया मैं ने.

उस दिन मेरा और संजीव का बहुत झगड़ा हुआ था. फुटबाल का ‘विश्व कप’ का
फाइनल मैच था. मैं ने संजीव से सुम्मी को संभालने को कहा, तो उस ने मना
तो नहीं किया, पर बुरी तरह बोलना शुरू कर दिया.

यह देख मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं ने भी उलटेसीधे जवाब दे दिए. फुटबाल
मैच में तो शायद ब्राजील जीता था, परंतु उस मौखिक युद्ध में हम दोनों ही
पराजित हुए थे. दोनों भूखे ही लेट गए और रातभर करवटें बदलते रहे.

सुबह भी संजीव नाराज थे. वे कुछ बोले या खाए बिना दफ्तर चले गए. जैसेतैसे
बच्चों को कुछ खिलापिला कर मैं भी अपनी पीठ सीधी करने के लिए लेट गई.
हलकीहलकी ठंडक थी. मैं कंबल ले कर लेटी ही थी कि मीनो, जो खिलौने से खेल
रही थी, मेरे पास आ गई. मैं ने हाथ बाहर निकाल उसे अपने पास लिटाना चाहा,
पर मीनो बाहर बारिश देखना चाहती थी.

मैं ने 2-3 बार मना किया, मुझे डर था कि कहीं मेरी ऊंची आवाज सुन कर
सुम्मी न जाग जाए. उस समय मैं कुछ भी करने के मूड में नहीं थी. मैं ने एक
बार फिर मीनो को गले लगाने के लिए बांह आगे की और उस ने मुझे कलाई पर काट
लिया.

गुस्से में मैं ने जोर से उस के मुंह पर एक तमाचा मार दिया और चिल्लाई,
‘‘जानवर कहीं की. कुत्ते भी तुम से ज्यादा वफादार होते हैं. पता नहीं
कितने साल तेरे लिए इस तरह काटने हैं मैं ने अपनी जिंदगी के.’’

कहते हैं, दिन में एक बार जबान पर सरस्वती जरूर बैठती है. उस दिन दुर्गा
क्यों नहीं बैठी मेरी काली जबान पर. अपनी तलवार से तो काट लेती यह जबान.

थप्पड़ खाते ही मीनो स्तब्ध रह गई. न रोई, न चिल्लाई. चुपचाप मेरी ओर बिना
देखे ही बाहर निकल गई मेरे कमरे से और मुंह फेर कर मैं भी फूटफूट कर रोई
थी अपनी फूटी किस्मत पर कि कब मुक्ति मिलेगी आजीवन कारावास से, जिस में
बंदी थी मेरी कुंठाएं. किस जुर्म की सजा काट रही हैं हम मांबेटी?

एहसास हुआ एक खामोशी का, जो सिर्फ आतंरिक नहीं थी, बाह्य भी थी. मीनो
बहुत खामोश थी. अपनी आंखें पोंछती मैं ने मीनो को आवाज दी. वह नहीं आई,
जैसे पहले दौड़ कर आती थी. रूठ कर जरूर खिलौने पर निकाल रही होगी अपना
गुस्सा.

मैं उस के कमरे में गई. वहां का खालीपन मुझे दुत्कार रहा था. उदासीन बटन
वाली आंखों वाला पिंचू बंदर जमीन पर मूक पड़ा मानो कुछ कहने को तत्पर था,
पर वह भी तो मीनो की तरह मूक व मौन था.

घबराहट के कारण मेरे पांव मानो जकड़ गए थे. आवाज भी घुट गई थी. अचानक अपने
पालतू कुत्ते भीरू की कूंकूं सुन मुझे होश सा आया. भीरू खुले दरवाजे की
ओर जा कूंकूं करता, फिर मेरी ओर आता. उस के बाल कुछ भीगे से लगे.

यह देख मैं किसी अनजानी आशंका से भयभीत हो गई. कितने ही विचार गुजर गए
पलछिन में. बच्चे उठाने वाला गिरोह, तेज रफ्तार से जाती मोटर कार का मीनो
को मारना.

भीरू ने फिर कूंकूं की तो मैं उस के पीछे यंत्रवत चलने लगी. ठंडक के
बावजूद सब पेड़पौधे पानी की फुहारों में झूम रहे थे. मेरा मजाक उड़ा रहे
थे. मानव जीवन पा कर भी मेरी स्थिति उन से ज्यादा दयनीय थी.

भीरू भागता हुआ सड़क पर निकल गया और कालोनी के पार्क में घुस गया. मैं उस
के पीछेपीछे दौड़ी. भीरू बैंच के पास रुका. बैंच के नीचे मीनो सिकुड़ कर
लेटी हुई थी. मैं ने उसे उठाना चाहा, पर वह और भी सिकुड़ गई. उस ने कस कर
बैंच का सिरा पकड़ लिया. मैं बहुत झुक नहीं सकती. हैरानपरेशान मैं इधरउधर
देख रही थी, तभी संजीव को अपनी ओर आते देखा.

संजीव ने घर फोन किया, लेकिन घंटी बजती रही, इसलिए परेशान हो कर दफ्तर से
घर आया था. खुले दरवाजे व सुम्मी को अकेला देख बहुत परेशान था कि मिसेज
मेहरा ने संजीव को मेरा पार्क की तरफ भागने का बताया. वे भी अपना दरवाजा
बंद कर आ रही थीं.

संजीव ने झुक कर मीनो को बुलाया तो वह चुपचाप बाहर घिसट कर आ गई. मीनो को
इस प्रव्यादेश का जिंदगी में सब से बड़ा व पहला धक्का लगा था. पर मैं खुश
थी कि कोई और बड़ा हादसा नहीं हुआ और मीनो सुरक्षित मिल गई.

घर आ कर भी वह वैसे ही संजीव से चिपटी रही. संजीव ने ही उस के कपड़े बदले
और कहा, ‘‘इस का शरीर तो तप रहा है. शायद, इसे बुखार है,” मैं ने जैसे ही
हाथ लगाना चाहा, मीनो फिर संजीव से लिपट गई और सहमी हुई अपनी बड़ीबड़ी
आंखों से मुझे देखने लगी.

मैं ने उसे प्यार से पुचकारा, “आ जा बेटी, मैं नही मारूंगी,” पर उस के
दिमाग में डर घर कर गया था. वह मेरे पास नहीं आई.

”ठंड लग गई है. गरम दूध के साथ क्रोसीन दवा दे देती हूं,“ मैं ने मायूस
आवाज में कहा.

“सिर्फ दूध दे दो. सुबह तक बुखार नहीं उतरा, तो डाक्टर से पूछ कर दवा दे
देंगे,” संजीव का सुझाव था.

मैं मान गई और दूध ले आई. थोड़ा सा दूध पी मीनो संजीव की गोद में ही सो
गई. अनमने मन से हम ने खाना खाया. सुबह का तूफान थम गया था. शांति थी हम
दोनों के बीच.

संजीव ने प्यार भरे लहजे से पूछा, “उतरा सुबह का गुस्सा?”

उस का यह पूछना था और मैं रो पड़ी.

“पगली सब ठीक हो जाएगा?” संजीव ने प्यार से सहलाया. मेरी रुलाई और फूटी.
मन पर एक पत्थर का बोझ जो था मीनो को तमाचा मारने का.

मीनो सुबह उठी तो सहज थी. मेरे उठाने पर गले भी लगी. मैं खुश थी कि मुझे
माफ कर वह सबकुछ भूल गई है. मुझे क्या पता था कि उस की माफी ही मेरी सजा
थी.

मीनो को बुखार था, इसलिए हम उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने सांत्वना
दी कि जल्दी ही वह ठीक हो जाएगी, पर मानो मीनो ने न ठीक होने की जिद पकड़
ली हो. 4 दिन बाद बुखार टूटा और मीनो शांति से सो गई- हमेशाहमेशा के लिए,
चिरनिद्रा में. मुक्त कर गई मुझे जिंदगीभर के बंधनों से. और अब जब भी
बारिश होती है, तो मुझे उलाहना सा दे जाती है और ले आती है मीनो का एक
मूक संदेश, ”मां तुम आजाद हो मेरी सेवा से. मैं तुम्हारी कर्जदार नहीं
बनना चाहती थी. सब ऋणों से मुक्त हूं मैं.

‘‘मीनो मुझे मुक्त कर इस सजा से. यादों के साथ घुटघुट कर जीनेमरने की सजा.”

लेखिका- नीलमणि भाटिया

अमेरिका जैसा मैंने देखा: बेटे-बहू के साथ कैसा था शीतल का सफर

अमेरिका पहुंचने के 2 महीने बाद ही बेटी श्वेता ने जब अपनी मां शीतल को फोन पर उस के नानी बनने का समाचार सुनाया तो शीतल की आंखों से खुशी और पश्चात्ताप के मिश्रित आंसू बह निकले. शीतल को याद आने लगा कि शादी के 4 वर्ष बीत जाने के बाद भी श्वेता का परिवार नहीं बढ़ा तो उस के समझाने पर, श्वेता की योजना सुन कर कि अभी वे थोड़ा और व्यवस्थित हो जाएं तब इस पर विचार करेंगे, उस ने व्यर्थ ही उस को कितना लंबाचौड़ा भाषण सुना दिया था. उस समय दामाद विनोद के, कंपनी की ओर से, अमेरिका जाने की बात चल रही थी. अब उस को एहसास हो रहा है कि पहले वाला जमाना तो है नहीं, अब तो मांबाप अपनेआप को बच्चे की परवरिश के लिए हर तरह से सक्षम पाते हैं, तभी बच्चा चाहते हैं.

4-5 महीने बाद श्वेता ने मां शीतल से फोन पर कहा, ‘‘ममा, आप अपना पासपोर्ट बनवा लीजिए, आप को यहां आना है.’’

‘‘क्यों क्या बात हो गई? तेरी डिलीवरी के लिए तेरी सास आ रही हैं न?’’

‘‘हां, पहले आ रही थीं लेकिन डाक्टर ने उन्हें इतनी दूर फ्लाइट से यात्रा करने के लिए मना कर दिया है, इसलिए अब वे नहीं आ सकतीं.’’

‘‘ठीक है, देखते हैं. तू परेशान मत होना.’’ फोन पर बेटी ने यह अप्रत्याशित सूचना दी तो वह सोच में पड़ गई, लेकिन उस ने मन ही मन तय किया कि वह अमेरिका अवश्य जाएगी.

पासपोर्ट बनने के बाद वीजा के लिए सारे डौक्युमैंट्स तैयार किए गए. श्वेता ने फोन पर शीतल को समझाया कि अमेरिका का वीजा मिलना बहुत ही कठिन होता है, साक्षात्कार के समय एक भी डौक्युमैंट कम होने पर या पूछे गए एक भी प्रश्न का उत्तर संतोषजनक न मिलने पर साक्षातकर्ता वीजा निरस्त करने में तनिक भी संकोच नहीं करता. उस के बाद वह कोई भी तर्क सुनना पसंद नहीं करता. अमेरिका घूमने जाने वालों को, वहां अधिक से अधिक 6 महीने ही रहने की अनुमति मिलती है, इसलिए उन की बातों से उन को यह नहीं लगना चाहिए कि वे वहीं बसने जा रहे हैं, लेकिन उन की कल्पना के विपरीत जब साक्षातकर्ता ने 2-3 प्रश्न पूछने के बाद ही मुसकरा कर वीजा की अनुमति दे दी तो उन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. सारे डौक्युमैंट्स धरे के धरे रह गए. बाहर प्रतीक्षा कर रहे अपने बेटे को जब उन्होंने हाथ हिला कर उस की जिज्ञासा पर विराम लगाया तो उस ने उन का ऐसे अभिनंदन किया, जैसे वे कोई मुकदमा जीत कर आए हों.

अंत में शीतल का अपने पति के साथ अमेरिका जाने का दिन भी आ गया. वे पहली बार वहां जा रहे थे. सीधी फ्लाइट नहीं थी, इसलिए बेटे ने पूछा, ‘‘यदि आप लोगों को यात्रा करने में तनिक भी असुविधा लग रही है तो व्हीलचेयर की सुविधा ले सकते हैं? पूरा समय आप लोग एक गाइड के संरक्षण में रहेंगे?’’

 ‘‘नहीं, इस की आवश्यकता नहीं है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

मुंबई से 9 घंटे की उड़ान के बाद वे लंदन के हीथ्रो हवाईअड्डे पर पहुंचे. वहां से अमेरिका के एक राज्य टेक्सास के लिए दूसरे विमान से जाना था. अब फिर उन को 9 घंटे की यात्रा करनी थी. उन लोगों ने एक बात का अनुभव किया कि घरेलू विमान से यात्रा करते समय जो झटके लगते हैं, वो इस में बिलकुल नहीं लग रहे थे. उड़ान मंथर गति से निर्बाध अपनी मंजिल की ओर अग्रसर थी.

टेक्सास हवाईअड्डे के बाहर श्वेता अपने पति विनोद के साथ उन की प्रतीक्षा कर रही थी. बेटी पर निगाह पड़ते ही शीतल को एहसास हुआ कि औरत मातृत्व के रूप में सब से अधिक गरिमा से परिपूर्ण लगती है, वह बहुत सुंदर लग रही थी.

उस का चेहरा कांति से दमक रहा था. उस का मन अपनी बेटी के लिए गर्व से भर उठा. भावातिरेक में उस ने उस को गले लगा लिया. वहां से वे लोग कार से डेलस, उन के घर पहुंचे, जो कि लगभग 40 किलोमीटर दूर था. शाम हो गई थी.

बेटी ने घर पहुंचने के लगभग 1 घंटे बाद कहा, ‘‘मेरी क्लास है, यहां डिलीवरी के पहले बच्चे की होने वाली मां को जन्म के बाद बच्चे की कैसे देखभाल की जाए, समझाया जाता है. आप लोग आराम कीजिए, मैं क्लास अटैंड कर के आती हूं.’’

रास्ते की थकान होने के कारण  हम दोनों जल्दी ही गहरी नींद में सो गए. जब जोरजोर से दरवाजा खटखटाने की आवाज हुई तो वह जल्दी से उठ कर दरवाजा खोलने के लिए भागी. उस को याद आया कि बेटी ने जातेजाते चौकस हो कर सोने के लिए कहा था, जिस से कि वे दरवाजा खोल सकें, क्योंकि वहां दरवाजे की घंटी नहीं होती है.

अंदर आते हुए श्वेता बड़बड़ा रही थी, ‘‘अरे ममा, यहां पर जरा सी आवाज होते ही पड़ोसी अपनेअपने दरवाजों को खोल कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं.’’ जब उस ने बताया कि लगभग आधे घंटे से वह बाहर खड़ी थी तो उस को बड़ी ग्लानि हुई.

लेकिन तुरंत ही वह अपनी मां को सांत्वना देती हुई बोली, ‘‘कोई बात नहीं, जेट लैग (अमेरिका में जब रात होती है, तब भारत में दिन होता है इसलिए शरीर को वहां के क्रियाकलापों के अनुसार ढालने में समय लगता है, उसी को जेट लैग कहते हैं) में ऐसी ही नींद आती है.’’ आगे उस ने अपनी बात को जारी रखते हुए बताया, ‘‘यहां पर आप की किसी भी गतिविधि से यदि पड़ोसी को असुविधा होती है तो वे पुलिस को बुलाने में जरा भी संकोच नहीं करते. यहां तक कि ऊपरी फ्लोर में रहने वालों के छोटे बच्चों के भागनेदौड़ने की आवाज के लिए भी निचले फ्लोर में रहने वाले एतराज कर सकते हैं, यहां का कानून बहुत सख्त है.’’

श्वेता के साथ जब कभी शीतल बाजार जाती तो भारत के विपरीत वह देखती कि सड़क पार करते समय पैदल यात्री की सुविधा के लिए ट्रैफिक रुक जाता था. कहीं पर भी कितनी भी भीड़ क्यों न हो, कोई किसी से टकराता नहीं था. हमेशा एक दूरी निश्चित रहती थी, चाहे वह आम लोगों में हो या यातायात के साधनों में हो. किसी भी मौल में या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर अजनबी भी मुसकरा कर हैलो अवश्य कहते हैं. गर्भवती स्त्रियों के साथ उन का बड़ा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार होता है.

घरों में कामवाली मेड के अभाव में सभी गृहकार्य और बाजार के कार्य स्वयं करने के कारण भारत में जो उन से सुविधा मिलने से अधिक जो मानसिक यंत्रणा को भोगना पड़ता है, वह न होने से जीवन सुचारु रूप से चलता है. गृहकार्य को सुविधाजनक बनाने के लिए बहुत सारे उपकरण भी घरों में उपलब्ध होते हैं. वातानुकूलित घर होने के कारण निवासियों की ऊर्जा का हृस नहीं होता. सड़क पर टै्रफिक जाम न होने के कारण समय बहुत बचता है और उस से उत्पन्न मानसिक तनाव नहीं होता. वहां पर इंडियन स्टोर्स के नाम से बहुत सारी दुकानें खुली हैं, जहां लगभग सभी भारतीय खा- पदार्थ और चाट आदि मिलती हैं. वहां जा कर लगता ही नहीं कि हम भारत में नहीं हैं.

श्वेता की ससुराल में गर्भकाल के 7वें या 9वें महीने में बहू की गोदभराई की रस्म होती है. शीतल के वहां पहुंचने की प्रतीक्षा हो रही थी, इसलिए 9वें महीने में समारोह के आयोजन का विचार किया गया. जिन को बुलाना था उन को उन की  ईमेल आईडी पर निमंत्रण भेजा गया. उन लोगों ने अपनी उपस्थिति के लिए हां या न में लिखने के साथ यह भी लिखा कि वे कितने लोग आएंगे, साथ में अपना बजट लिख कर यह भी पूछा कि उपहार में क्या चाहिए. अमेरिका में अजन्मे बच्चे के लिंग के बारे में पहले से ही डाक्टर बता देते हैं, इसलिए उपहार भी उसी के अनुकूल दिए जाते हैं. उस को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि अपने बच्चे के प्रयोग में आई हुई कीमती वस्तुओं को भी वहां के लोग उपहार में देने और लेने में तनिक भी संकोच नहीं करते. इस से समय और पैसे की बहुत बचत हो जाती है.

समारोह में जितने भी लोग आए थे, लगभग सभी भारतीय पारंपरिक वेशभूषा में सुसज्जित हो कर आए थे और हिंदी में बात कर रहे थे. उन की जिज्ञासा को उस की बेटी ने यह कह कर शांत किया कि हमेशा मजबूरी में पाश्चात्य कपड़े पहन कर और अंगरेजी बोल कर सब ऊब जाते हैं, इसलिए समारोहों में ऐसा कर के अपने भारतीय होने के सुखद एहसास को वे खोना नहीं चाहते. उस ने सोचा कि यह कैसी विडंबना है कि भारत में भारतीय पाश्चात्य सभ्यता को अपना कर खुश होते हैं.

वहां पर सभी कार्य स्वयं करने होते हैं, इसलिए जितने भी मेहमान आए थे, सब ने मिलजुल कर सभी कार्य किए और कार्यक्रम समाप्त होने के बाद सब पूरे हौल को साफ कर के सारा कूड़ा तक कूड़ेदान में डाल कर आए. और तो और, बचा हुआ खा- पदार्थ भी जिन को जितना चाहिए था, सब ने मिल कर बांट लिया.

अंत में श्वेता के डिलीवरी का दिन भी आ गया. विनोद उस को डाक्टर को दिखाने के लिए अस्पताल ले कर गए तो वहां से उन का फोन आया कि उसे आज ही भरती करना पड़ेगा. सुन कर शीतल के मन में खुशी और चिंता के मिश्रित भाव उमड़ने लगे. अस्पताल गई तो बेटी को हलके दर्द में ही कराहते देख कर उस ने कहा, ‘‘बेटा, अभी से घबरा रही है, अभी तो बहुत दर्द सहना पड़ेगा.’’ उसे अपना समय याद आ गया था. आगे की तकलीफ कैसी झेलेगी, यह सोच कर उस का मन व्याकुल हो गया. इतने में डाक्टर विजिट पर आ गईं. उस ने शीतल का परिचय श्वेता से पाना चाहा तो उस के बताने पर मुसकरा कर ‘हैलो’ कह कर उस ने उस का स्वागत किया और बेटी व दामाद से आगे की प्रक्रिया के बारे में बातचीत करने लगी. उस के बाद डाक्टर ने श्वेता को एक इंजैक्शन दिया और सोने के लिए कह कर चली गई.

जब डाक्टर ने बेटी को सोने के लिए कहा तो उसे आश्चर्य हुआ कि दर्द में कोई कैसे सो सकता है? जिस का समाधान बेटी ने किया कि जो इंजैक्शन दिया है उस से दर्द का अनुभव नहीं होगा. उस के मन में जो दुश्चिंता थी कि कैसे वह अपनी बेटी को दर्द में तड़पते देख पाएगी, लुप्त हो चुकी थी और उस ने राहत की सांस ली. विज्ञान के नए आविष्कार को मन ही मन धन्यवाद दिया. बेटी ने कहा, ‘‘ममा, आप भी सो जाइए.’’ डाक्टर बारबार आ कर श्वेता को संभाल रही थी तो उस को वहां अपनी उपस्थिति का कोई औचित्य भी नहीं लगा, इसलिए वेटिंगरूम में जा कर सो गई. वहां की व्यवस्था से संतुष्ट होने और अपने थके होने के कारण शीतल तुरंत ही गहरी नींद में सो गई.

सुबह 5 बजे के लगभग विनोद ने उसे जगाया और कहा, ‘‘औपरेशन करना पड़ेगा, चलिए.’’ अपनी नींद को कोसती हुई औपरेशन के नाम से कुछ घबराई हुई बेटी के पास गई तो उस ने देखा कि वह औपरेशन थिएटर में जाने के लिए तैयार हो रही है. शीतल को देख कर वह मुसकराने लगी तो उस ने सोचा कि बेकार ही वह उस की हिम्मत पर शक कर रही थी. मन ही मन उस को अपनी बेटी पर गर्व हो रहा था.

औपरेशन थिएटर में विनोद भी श्वेता के साथ पूरे समय रहे. उन्होंने वहां सारी प्रक्रिया की फोटो भी खींची जो देख कर वह आश्चर्यचकित रह गई, जैसे कोई खेल हो रहा है. भारत में तो उस ने ऐसा कभी देखासुना भी नहीं था. वहां पर मां को प्रसव के लिए मानसिक रूप से इतना तैयार कर देते हैं कि परिवार वालों को चिंता करने की या उसे संभालने की आवश्यकता ही नहीं होती. आधे घंटे में ही दामाद बच्चे को गोद में ले कर बाहर आ गए. चांद सी बच्ची की नानी बन कर शीतल फूली नहीं समा रही थी. उस ने देखा बच्चे की दैनिक क्रियाकलापों को सुचारु रूप से करने की पूरी जानकारी नर्स दामाद को दे रही थी. उस की तो किसी भी कार्य में दखलंदाजी की आवश्यकता ही नहीं महसूस की जा रही थी. वह तो पूरा समय केवल मूकदर्शक बनी बैठी रही.

उस ने सोचा, तभी बेटी ने वीजा के साक्षात्कार के समय भूल कर भी बेटी की डिलीवरी के लिए जा रहे हैं, ऐसा न कहने के लिए समझाया था. उस ने चैन की सांस ली कि उस की यह चिंता भी कि कैसे वह मां और बच्चे को संभालेगी, उस को तो कुछ पता ही नहीं है, निरर्थक निकली. घर आ कर बेटी ने बच्चे को संभाल कर पूरी तरह साबित भी कर दिया.

वहां पर बच्चे को अस्पताल से ले जाने के लिए कारसीट का होना अति आवश्यक है, उस के बिना बच्चे को डिस्चार्ज ही नहीं करते. इसलिए उस की भी व्यवस्था कर के उसे नियमानुसार कार की पिछली सीट पर स्थापित किया गया. अस्पताल की साफसफाई और रखरखाव किसी फाइवस्टार होटल से कम नहीं था. डाक्टर और नर्स सभी कमरे में मुसकराते हुए प्रवेश करते थे और उस को ‘हैलो’ कहना नहीं भूलते थे, जो उस की उपस्थितिमात्र को महत्त्वपूर्ण बना देता था. जिस दिन डिस्चार्ज होना था, उस दिन उन सब ने श्वेता को काफी देर बैठ कर बच्चे से संबंधित बातें समझाईं. उस के लिए ये सारी प्रक्रिया किसी सपने से कम नहीं थी.

घर आने के बाद, भारत के विपरीत, मिलने आने वालों के असमय और बिना सूचित किए न आने से बच्चे के किसी भी कार्यकलाप में विघ्न नहीं पड़ता था. बच्चे के कमरे में भी बिना अनुमति के कोई प्रवेश नहीं करता था. बच्चे को दूर से ही देखने की कोशिश करते थे और गोद में उठाने से पहले हाथ अवश्य धोते थे, जिस से उस को किसी भी संक्रमण से बचाया जा सके. वह विस्मित सी सब देखती रहती थी. बेटी से पर्याप्त बातचीत करने का समय मिल जाता था.

बातों ही बातों में उस ने बताया कि वहां पर एकल मातृत्व के कारण और एक उम्र के बाद मांबाप और बच्चों के बीच में मानसिक, शारीरिक व आर्थिक जुड़ाव न होने के चलते अवसाद की समस्या भारत की तुलना में बहुत अधिक है. लेकिन अब वे बहुतकुछ भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो कर उसे अपना रहे हैं. दूसरी ओर भारतीय उन की अच्छी बातों को न सीख कर, बुराइयों का अनुकरण कर के गर्त में जा रहे हैं. वहां दूसरी गंभीर समस्या मोटापे को ले कर है क्योंकि वहां अधिकतर डब्बाबंद खा- पदार्थों का अत्यधिक सेवन किया जाता है. इस का भी असर भारत की नई पीढ़ी में देखा जा सकता है.

अमेरिका में 6 महीने कब बीत गए, शीतल को पता ही नहीं चला. वहां के सुखद एहसासों और यादों के साथ भारत लौटने के बाद, एक कसक उस को हमेशा सालती रहती है कि यदि हर भारतीय वहां की बुरी बातों के स्थान पर अच्छी बातों को अपना ले और युवापीढ़ी को उन के बौद्धिक स्तर के अनुसार नौकरी व वेतन मिले तो कोई भी अपनों को छोड़ कर अमेरिका पलायन का विचार भी मन में न लाए.

आधी सी रेखा: फैंस के दिलों पर राज करने वाली अभिनेत्री की अधूरी प्रेम कहानी

रेखा भले ही बेमन से फिल्मी दुनिया में आई थीं, लेकिन जब उन्होंने अपनी ऐक्टिंग का जादू दिखाया तो वह दर्शकों के दिल में बस गईं. दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली इस हसीना का नाम कई अभिनेताओं के साथ जुड़ा, लेकिन बदकिस्मती से दिल का कोना खाली ही रह गया. इस गम को दबा कर हमेशा मुसकान बिखेरने वाली यही है आधीअधूरी रेखा, जो…

निर्देशक और अपने दौर के नामी व कामयाब लेखक एस. अली राजा की साल 1974 में प्रदर्शित फिल्म ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ हालांकि एक चलताऊ मसाला फिल्म थी, लेकिन यह फिल्म बौक्स औफिस पर जबरदस्त हिट रही थी. इस फिल्म में वह सब कुछ था, जो किसी भी फिल्म को हिट करवाने के लिए जरूरी होता है. मसलन रहस्य, रोमांच, प्यार, सैक्स, मारधाड़, डाकू, तवायफ, पुलिस और ठाकुर साहब वगैरह. लेकिन हकीकत में यह चली अभिनेत्री रेखा की वजह से थी, जिन्होंने 70 के दशक के चलन को धता बताते हुए एक निहायत ही उत्तेजक दृश्य दिया था.

इस सीन को देखने के लिए उस दौर के बड़ेबूढ़े तो बड़ेबूढ़े, स्कूली बच्चे और कालेज के छात्र तक पगला उठे थे. जिन्होंने ‘प्राण जाए पर…’ को दसियों बार देखा था और हर बार लाइन में लग कर टिकट लिया था. तब नीचे का टिकट महज 35 पैसे का आता था, लेकिन यह रकम भी उस दौर में कम नहीं होती थी.

कम इस लिहाज से कही जा सकती है कि वे तालाब से नहा कर निकलती गदराई ऐक्ट्रैस रेखा को एकदम नग्न देख पा रहे थे. जिन्होंने यह फिल्म देखी होगी, वे अब बूढ़े हो गए हैं लेकिन शायद ही याद्दाश्त जाने तक वे तालाब से नहा कर निकलती रेखा का नग्न बदन भूल पाए होंगे.

‘प्राण जाए पर…’ के एक और आकर्षण नायक सुनील दत्त थे, जो तब तक 1957 की ‘मदर इंडिया’ के बाद से कोई दरजन भर हिट फिल्में दे चुके थे. इस के पहले दर्शकों ने रेखा को उन की पहली फिल्म ‘सावन भादों’ में भी देखा और सराहा था, जो एक देहाती अल्हड़ लड़की चंदा की भूमिका में थीं, लेकिन तब फिल्मी पंडितों ने रेखा के चलने में शक जताया था, क्योंकि वे सांवली थीं, मोटी भी थीं और उन का चेहरामोहरा तब लगने वालों को हिंदी फिल्मों जैसा नहीं लगा था.

रेखा ने एकएक कर सारी आशंकाएं न केवल ध्वस्त कर दीं, बल्कि अपनी जबरदस्त अभिनय प्रतिभा का ऐसा लोहा मनवाया कि आज भी उन की कई फिल्मों की मिसाल दी जाती है. साल 1970 में प्रदर्शित उन की पहली फिल्म ‘सावन भादों’ का हिट होना किसी अजूबे से कम नहीं था, क्योंकि इस में अधिकांश कलाकार चाहे फिर वे इफ्तिखार जैसे मंझे और सधे चरित्र अभिनेता ही क्यों न हों, अनजाने से थे.

रेखा के साथ साथ खुद नवीन निश्चल की भी यह पहली फिल्म थी, लेकिन दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया. बाद में नवीन यदाकदा ही सफल हुए, पर रेखा ने फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा. कुछ दिनों बाद एक्टिंग के साथ साथ लोग उन की सुंदरता के भी कायल हो गए, जो आज तक हैं.

त्रासद बचपन

रेखा के नाम का सिक्का चल निकला तो लोग उन की व्यक्तिगत जिंदगी टटोलने उधेड़ने लगे, जो उन के सेलिब्रेटी और कामयाब होने की एक और निशानी थी. जब धीरेधीरे कर उन की जिंदगी की कहानी उजागर होने लगी तो लोगों की दिलचस्पी उन में और बढ़ने लगी. क्योंकि अब तक उन के इश्क के किस्से भी मीडिया और महफिल में चटखारे लेले कर कहे और सुने जाने लगे थे. 70 के दशक में प्रिंट मीडिया ही हुआ करता था. रेखा खासतौर से अखबारों और मैगजींस की जरूरत बन गई थीं.

दरअसल, रेखा उन बदकिस्मत करार दे दी गईं अभिनेत्रियों में से एक हैं, जिन का बचपन आम बच्चों सरीखा नहीं था. हालांकि उन के पिता जेमिनी गणेशन दक्षिण भारतीय फिल्मों का बड़ा नाम थे. लेकिन उन्होंने कभी रेखा को अपना नाम और प्यार नहीं दिया.

मां पुष्पवल्ली छोटीमोटी ऐक्ट्रैस थीं, जिन की पटरी कभी पति से बैठी नहीं. रेखा के जन्म के बाद तो दोनों के बीच इतनी कड़वाहट आ गई कि दोनों अलग हो गए. इन दोनों ने विधिवत शादी की भी थी या नहीं, यह रहस्य अभी तक रहस्य ही है.

रेखा जो उस वक्त भानुरेखा गणेशन थीं, मां के हिस्से में आईं. पुष्पवल्ली की माली हालत ठीक नहीं थी, इसलिए पैसा कमाने की गरज से उन्होंने 13 साल की इकलौती बेटी को फिल्मों में ढकेल दिया.

ढकेलना शब्द इसलिए भी सटीक बैठता है, क्योंकि रेखा फिल्मों में काम नहीं करना चाहती थीं. वह बचपन में मोटी भी थीं और काली या सांवली भी, जैसी कि आमतौर पर दक्षिण भारतीय लड़कियां होती हैं. लेकिन इस में कोई शक नहीं कि इस हालत में भी वे आकर्षक लगती थीं. उन में एक अपील थी, जो हिंदी फिल्मों में आने के बाद और निखरती गई.

प्यार के अधूरे किस्से

9वीं क्लास से ही रेखा को पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी थी. जब वे मां के साथ चेन्नई से मुंबई आईं तब अभाव और संघर्ष भी जरूरी घरेलू सामान की तरह उन के साथ लदे थे. लगता नहीं कि तब ही रेखा को यह एहसास हो गया होगा कि उन की जिंदगी में उन का अपना कुछ नहीं है. वे एक अधूरेपन के साथ पैदा हुई थीं, जो अब तक साए की तरह उन के साथ है.

अच्छी इकलौती बात यही है कि उन्होंने इस अधूरेपन से समझौता कर लिया है और इस के साथ जीने की आदत भी डाल ली है, वह भी मुसकराते हुए. मानो यही उन की जिंदगी भर की जमापूंजी है. अब 69 की उम्र में उन के चेहरे की रौनक देखते लगता नहीं कि उन्हें कोई गिलाशिकवा किसी से है और है भी तो वह उन के दिल के बेसमेंट के भी नीचे कहीं दफन है.

रेखा के प्यार के किस्से सच्चेझूठे जैसे भी हों, आज भी चर्चा में रहते हैं. ‘सावन भादों’ के रिलीज होने के तुरंत बाद ही फिल्म इंडस्ट्री में यह हवा फैल गई थी कि वे और नवीन निश्चल एकदूसरे से प्यार करते हैं. सत्तर के दशक का यह रिवाज था कि जो जोड़ी हिट हो जाती थी, उस पर प्यार का ठप्पा झट से लग जाता था. पहली फिल्म हिट हो जाना एक तरफ वरदान होता है तो किसी श्राप से भी कम नहीं होता.

नवीन निश्चल को शायद रेखा से इश्क के चर्चों से कुछ हासिल नहीं हो रहा था. दूसरे उन्हें अपने भविष्य के राजकपूर या दिलीप कुमार हो जाने का भी गुमान था, लिहाजा उन्होंने रेखा से जल्द कन्नी काट ली.

मुंबई में रेखा का पहला अनुभव ही बहुत कड़वा था. ‘सावन भादों’ भले ही उन की पहली प्रदर्शित फिल्म थी, लेकिन उन की साइन की गई पहली हिंदी फिल्म ‘अनजाना सफर’ थी, जिस में उन के अपोजिट विश्वजीत चटर्जी थे. इस फिल्म की शूटिंग महबूब स्टूडियो में हुई थी.

एक दृश्य में विश्वजीत को रेखा का चुंबन लेना था. रेखा तब महज 15 साल की थीं और इस दृश्य को फिल्माने में उन के साथ जो हुआ, उस के लिए वे बिलकुल भी तैयार नहीं थीं.

कमसिन रेखा को सेट पर देखते ही उम्र में उन से 25 साल बड़े विश्वजीत सुधबुध खो बैठे थे. उन्होंने जानबूझ कर एक के बाद एक वहशियों की तरह दरजन भर जबरिया चुंबन रेखा के होंठों के ले डाले, जिस से रेखा न केवल सहम गई थीं बल्कि डर कर रोने भी लगी थीं.

यह फिल्म ‘दो शिकारी’ नाम से 1979 में रिलीज हुई और बौक्स औफिस पर ज्यादा चली नहीं थी. जबकि तब तक रेखा कई हिट फिल्में दे चुकी थीं और किसी फिल्म में उन का होना ही उस की सफलता की गारंटी माना जाता था.

इस हादसे से जैसेतैसे उबरी रेखा का नाम नवीन निश्चल के बाद अभिनेता विनोद मेहरा से तेजी और इतनी शिद्दत से जुड़ा था कि उन्हें पतिपत्नी मान लिया गया था. विनोद मेहरा के साथ रेखा की मानिक चटर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘घर’ काफी सफल रही थी, जिस में रेखा ने बलात्कार पीडि़ता गृहिणी के रोल में जान डाल दी थी.

रेखा ने जमाई धाक

इस फिल्म के गाने ‘तेरे बिन जिया जाए न…’, ‘आप की आखों में कुछ…’ और ‘आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे…’ आज भी खूब गुनगुनाए जाते हैं. रेखा और विनोद मेहरा की कथित शादी भी बड़ी रहस्यमय थी, जिस के बारे में साल 2004 में सिम्मी ग्रेवाल के एक शो में रेखा ने खंडन किया था कि उन्होंने विनोद मेहरा से कभी शादी नहीं की.

70 के दशक में फिल्म इंडस्ट्री जितनी बदली, उतनी पहले कभी नहीं बदली थी. अभिनेत्रियों के लिहाज से भी यह पीढ़ी परिवर्तन का दौर था. मधुबाला, नरगिस और मीना कुमारी जैसी प्रतिभावान अभिनेत्रियों का दौर गुजर चुका था, जिन की जगह हेमा मालिनी, जया बच्चन मुमताज और रेखा लेती जा रही थीं.

साल 1976 से इंडस्ट्री में अमिताभ बच्चन और रेखा के इश्क के चर्चे होने लगे, जिस की शुरुआत ‘दो अनजाने’ फिल्म से हुई थी. इस के बाद इस जोड़ी ने एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में दीं, जिन में ‘आलाप’, ‘खून पसीना’, ‘गंगा की सौगंध’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘मिस्टर नटवर लाल’, ‘सुहाग’, ‘राम बलराम’ और ‘सिलसिला’ उल्लेखनीय हैं.

अमिताभ उन दिनों टौप पर थे तो रेखा भी उन्नीस नहीं थीं, जिन्होंने कौमेडी के साथसाथ समांतर सिनेमा वाली ‘उत्सव’, ‘कलयुग’, ‘विजेता’ और ‘उमराव जान’ जैसी फिल्मों के जरिए अपनी एक्टिंग की धाक जमा ली थी.

अमिताभ रेखा की जोड़ी को गोल्डन जोड़ी कहा जाने लगा था. इन के इश्क में हकीकत का तड़का ‘मुकद्दर का सिकंदर’ फिल्म से लगा था, जिस में रेखा तवायफ जोहरा बाई की भूमिका में थीं. यूं तो प्रकाश मेहरा की इस फिल्म के सारे फ्रेम कसे हुए थे, पर वह फ्रेम ऊपर और नीचे दोनों तबकों के दिलोदिमाग में गहरे तक बैठ गया था, जिस में रेखा कहती हैं कि जोहरा अब नाचेगी तो सिर्फ सिकंदर के लिए.

यह सिलसिला साल 1981 में प्रदर्शित यश चोपड़ा की ‘सिलसिला’ फिल्म तक चला था, जो एक खास मकसद से बनाई गई थी. आप इसे प्रतीकात्मक तौर पर दोनों की बायोपिक भी कह सकते हैं.

परिपक्व प्रेम त्रिकोण पर बनी ‘सिलसिला’ में रेखा के सामने जया थीं या जया के सामने रेखा थीं, यह तय कर पाना बेहद मुश्किल भरा काम है. आज तक कोई विश्लेषक यह तय नहीं कर पाया कि किस ने अच्छी एक्टिंग की थी. पत्नी की भूमिका में जया ने या फिर प्रेमिका बनी रेखा ने जो रियल लाइफ में भी क्रमश: अमिताभ की पत्नी और प्रेमिका थीं.

जो भी हो, तब यह फिल्म अमिताभ बच्चन के करिअर की डूबती नैया पार लगाने के लिए बेहद जरूरी हो गई थी, जिस में अपने दौर की 2 धाकड़ नायिकाएं एक तरह से वास्तविक जिंदगी को परदे पर साकार कर रही थीं.

हकीकत में भी रेखा कभी अमिताभ को जया से छीन नहीं पाईं और शायद इस का ज्यादा मलाल भी उन्हें अब न होता हो, लेकिन तब अमिताभ से ध्यान बंटाने के लिए उन्होंने कामयाब बिजनैसमैन मुकेश अग्रवाल से शादी कर ली थी, जिस का हश्र फिल्मों सरीखा ही हुआ.

शादी के 6 महीने बाद ही मुकेश ने आत्महत्या कर ली थी, जिस का जिम्मेदार रेखा को ही ठहराया गया था.

सभी को दी टक्कर

अकेले जया बच्चन को ही नहीं, बल्कि रेखा ने ड्रीम गर्ल के खिताब से नवाजी गई हेमा मालिनी को भी कड़ी चुनौती दी थी, जिन के साथ 2 ही फिल्मों में काम किया, पहली थी 1972 में आई ‘गोरा और काला’ जिस में जुबली कुमार यानी राजेंद्र कुमार डबल रोल में थे. यह फिल्म सुपरहिट रही थी और 1975 में प्रदर्शित ‘धर्मात्मा’ ने भी तगड़ा बिजनैस किया था.

दोनों ही फिल्मों में हेमा और रेखा का आमनासामना न के बराबर हुआ था, लेकिन जितना भी हुआ उस में रेखा भारी पड़ी थीं.

अपनी समकालीन अभिनेत्रियों पर रेखा हमेशा हावी नजर आईं तो इस की वजह उन की अकड़, ठसक या स्टारडम नहीं, बल्कि एक्टिंग ही थी. निर्देशक रमेश तलवार की 1981 में आई फिल्म ‘बसेरा’ एक ऐसी ही पारिवारिक फिल्म थी, जिस में रेखा को अपनी पागल हो गई बड़ी बहिन राखी के पति शशि कपूर से शादी करनी पड़ती है.

इस फिल्म में रेखा ने बहुत ही सटीक और जमीनी एक्टिंग कर दर्शकों और समीक्षकों का दिल जीत लिया था. इस किरदार में एक्टिंग की गुंजाइश बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन रेखा ने जताया था कि गुंजाइश होती नहीं बल्कि पैदा की जाती है.

1981 में ही प्रदर्शित एक और फिल्म ‘एक ही भूल’ में उन्होंने शबाना आजमी को जरा भी स्पेस नहीं दिया था. हालांकि इस फिल्म के हीरो जितेंद्र के साथ उन की जोड़ी जमने लगी थी. इन दोनों की फिल्मों का अपना एक अलग ही फ्लेवर होता था.

ऐसी ही एक फिल्म ‘मांग भरो सजना’ में रेखा के सामने मौसमी चटर्जी थीं, जिस के भावुक दृश्यों में रेखा ज्यादा प्रभावी साबित हुई थीं. शुद्ध व्यावसायिक मसाला फिल्म ‘राम बलराम’ में जीनत अमान रेखा के सामने ज्यादा टिक नहीं पाई थीं.

इन फिल्मों ने चौंकाया भी

180 के लगभग फिल्मों में अभिनय कर चुकीं रेखा ने अपने सुनहरे दिनों में कुछ ऐसी भी फिल्मों में काम किया, जिन से दर्शक चौंके भी थे. मसलन मीरा नायर की 1996 में आई ‘कामसूत्र’ और बासु भट्टाचार्य निर्देशित फिल्म ‘आस्था’, जिस में नायक ओम पुरी थे. इन फिल्मों में हालांकि सैक्स और सहवास दृश्यों की भरमार थी, लेकिन उन में एक मैसेज भी था. पर रेखा 90 के दशक तक इतना नाम कमा चुकी थीं कि दर्शकों और उन के प्रशंसकों ने उन्हें इन भूमिकाओं में खारिज कर दिया था.

इस के पहले ‘कलयुग’, ‘विजेता’ और ‘उत्सव’ जैसी कला फिल्मों में उन्होंने अपनी एक्टिंग की गहरी छाप छोड़ी थी. श्याम बेनेगल की 1981 में प्रदर्शित फिल्म ‘कलयुग’ में तो उन्हें एक चुनौतीपूर्ण भूमिका मिली थी. आज महाभारत होता तो कैसा होता, यह इस फिल्म में व्यापारिक घरानों की लड़ाई के जरिए बताया गया था.

फिल्म में शशि कपूर, अमरीश पुरी, अनंत नाग, ओम पुरी, राज बब्बर, कुलभूषण खरबंदा, सुषमा श्रेष्ठ, सुप्रिया पाठक और विक्टर बनर्जी जैसे मंझे हुए कलाकारों के सामने द्रौपदी के शेड वाली रेखा ने अपनी चमक बरकरार रखी थी. इस फिल्म को तब मास्को अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में दिखाया गया था और इसे फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था.

गिरीश कर्नाड की ‘उत्सव’ फिल्म में वसंत सेना के रोल में भी रेखा ने चौंकाया था, क्योंकि यह फिल्म भी वात्स्यानन के कामसूत्र पर आधारित थी, जिस में सहवास दृश्यों की भरमार थी. रेखा ने उन्मुक्त लेकिन सहज ढंग से इन दृश्यों में अभिनय किया था.

मुमकिन है उन की मंशा यह दिखाने की रही हो कि वे सभी शेड्स में एक्टिंग कर सकती हैं और दूसरी समकालीन सफल अभिनेत्रियों सरीखी पूर्वाग्रही और कुंठित नही हैं, जो इमेज के चलते ऐसे रोल करने में हिचकिचाती हैं.

रेखा होने के मायने

रेखा की जिंदगी देख कर कहा जा सकता है कि जो उन्होंने चाहा वह उन्हें कभी नहीं मिला. अपने दौर के मशहूर शायर निदा फाजली की यह गजल उन पर फिट बैठती है ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता…’ लेकिन बहैसियत एक ऐक्ट्रैस रेखा को जो प्यार और प्रशंसा मिली, वह भी हर किसी को नहीं मिलती. उन्होंने जो भी हासिल किया, अपने दम पर किया. उन का कोई गौडफादर नहीं था. यह सहज ही साबित हो गया कि अभिनय उन के खून में है और वे बनी ही एक्टिंग के लिए हैं.

तीन दशक तक उन्होंने जम कर शानदार एक्टिंग की. सेट पर खूब मौजमस्ती की. भीतर से रोते हुए मुसकराती रहीं. वह कोई साधारण औरत नहीं कर सकती. रेखा ने जताया कि कोई भी औरत बदसूरत नहीं होती, बशर्ते वह सलीके से रहे और अपनी सेहत और फिटनेस पर ध्यान देती रहे.

एक वक्त में अभिनेता शशि कपूर ने उन्हें बदसूरत और मोटी कह कर बेइज्जत किया था, लेकिन बाद में वही शशि कपूर अपनी फिल्मों में उन्हें लेने के लिए मोहताज रहने लगे थे और यही रेखा होने के अपने अलग माने हैं.

जिस पूर्णता की तलाश में रेखा जिंदगी भर भटकती रहीं और उसे प्यार में ढूंढती रहीं, वह रेगिस्तान के पानी की तरह होता है, जो होता नहीं है बस उस के होने का भ्रम भर होता है.

8 Summer Hair Care Tips: गरमी के मौसम में ऐसे करें बालों की देखभाल

बढ़ती गरमी के साथ जब नमी हाथ मिलाती है तो उस का असर बालों पर सब से पहले दिखाई पड़ता है. कभी रेशमी नजर आने वाले बाल उमस भरी गरमी में शैंपू करने के बाद एक दिन में ही चिपचिपे और तैलीय हो जाते हैं जिस के चलते जहां पहले हफ्ते में 2-3 बार शैंपू से काम चल जाता था वहां अब रोजाना शैंपू की जरूरत पड़ने लगती है. मगर रोजाना शैंपू का इस्तेमाल बालों को कमजोर और ड्राई कर सकता है.

आप को शैंपू का इस्तेमाल कैसे और कब करना चाहिए यह जानकारी आप के लिए बेहद अहम साबित होगी ताकि समर की हीट हो या उमस आप के बाल हैल्दी और खूबसूरत बने रहें.

  1. पसीना और प्रदूषण होता है खतरनाक

आजकल के भागदौड़ वाले लाइफस्टाइल में बालों का ?ाड़ना, ड्राई हेयर, उल?ो बाल, डैंड्रफ, दोमुंहे बालों की प्रौब्लम आम बात हो गई है. गरमी के मौसम में स्कैल्प ज्यादा तेल छोड़ती है जिसे से पसीना, प्रदूषण और स्कैल्प पर मैल जमा होने से बाल बहुत जल्दी चिपचिपे और गंदे नजर आने लगते हैं. पसीने के साथ स्कैल्प पर निकला नमक बालों की सेहत के लिए नुकसानदेह साबित होता है. यह बालों की जड़ों को कमजोर करता है, जिस से हेयरफौल की समस्या पैदा होती है.

साथ ही गरमियों में बालों से आने वाली गंदी बदबू से अकसर महिलाएं व पुरुष दोचार होते हैं. दरअसल, हमारी स्कैल्प पर आया पसीना और गरमी का मौसम दोनों फंगस और बैक्टीरिया पैदा होने के लिए बेहतरीन वातारवरण प्रदान करते हैं जिस से बालों में से अजीब सी दुर्गंध आने लगती है. इन सभी समस्याओं का इलाज बालों की अच्छी तरह साफसफाई करने और देखभाल से ही संभव है.

2. शैंपू करने का सही तरीका

हो सकता है कि आप शैंपू करती हों, लेकिन वह स्कैल्प से तेल को न हटा पाता हो. इस के लिए जरूरी है कि आप शैंपू करते वक्त जल्दबाजी न करें. इस के साथ ही शैंपू में झाग बनाने के लिए सर्क्यूलर मोशन का उपयोग करने से बाल एकदूसरे से रगड़ खा कर कमजोर हो जाते हैं. ऐसे में बालों के उलझ कर टूटने की समस्या भी देखने को मिलती है. इसलिए झाग बनाने के लिए साइडटूसाइड मोशन का उपयोग करें.

इस तरीके से हेयर स्ट्रैंड्स को नुकसान नहीं पहुंचता. इस के साथ ही शैंपू के वक्त स्कैल्प पर उंगलियों का हलका दबाव ही इस्तेमाल करें. शैंपू को सिर पर सीधे लगाने से पहले बालों को  अच्छी तरह गीला करें और शैंपू को भी सीधे सिर में डालने के बजाय थोड़े से पानी में घोल लें. इस से शैंपू अच्छी तरह बालों की सफाई भी करेगा और उस से बालों को नुकसान भी नहीं होगा.

3. हेयर टाइप के अनुसार चुनें शैंपू

ड्राई स्कैल्प और बालों के लिए आप सल्फेट फ्री शैंपू का औप्शन चुन सकती हैं. दरअसल, सल्फेट से स्कैल्प ड्राई होती है और वहीं स्कैल्प को साफ करने के लिए आप माइल्ड फौर्मूले का यूज कर सकती हैं. गरमियों में डैड सैल्स, हेयर स्टाइलिंग प्रोडक्ट्स और डैंड्रफ से छुटकारा पाने के लिए हमेशा क्लैरिफाइंग शैंपू का इस्तेमाल करें. अगर स्कैल्प बहुत ज्यादा औयली रहती है तो सल्फेट शैंपू इस्तेमाल करने की आवश्यकता है.

4. बाल धोने के लिए उपयोग करें ठंडा पानी

बालों को धोने के लिए ठंडे पानी से बेहतर कुछ भी नहीं. यह हेयर क्यूटिकल्स को बंद कर देता है और बालों को शाइनी टैक्स्चर देता है. यह स्कैल्प को बिना ड्राई किए नैचुरल औयल को बरकरार रखता है, साथ ही बालों को मजबूत बना कर उन्हें टूटने से भी रोकता है.

5. स्कैल्प नहीं बालों के लिए बना है कंडीशनर

स्कैल्प पर कंडीशनर का इस्तेमाल करने से बालों के औयली होने की समस्या लगातार बनी रहती है. इसलिए कंडीनशर का इस्तेमाल सिर्फ बालों की लंबाई में ही करें. कंडीशनर लगाने के बाद बालों को धोने के लिए ठंडे पानी का ही इस्तेमाल करें.

6. बेजान बालों में जान डाल देगा ऐप्पल साइडर विनेगर

स्कैल्प में तेल स्राव को कम करने के लिए सैलिसिलिक ऐसिड या ग्लाइकोलिक ऐसिड शैंपू का उपयोग करने की सलाह दी जाती है. ऐप्पल साइडर विनेगर बालों के पीएच लैवल को संतुलित करने के साथसाथ किसी भी बिल्डअप को गहराई से साफ करने के लिए अच्छा काम करता है. शैंपू से बाल धोने के बाद थोड़े से पानी में एक टेबलस्पून ऐप्पल साइडर विनेगर डाल कर उस से बालों को धो लें. इस से बालों में पसीने की बदबू से भी लंबे वक्त तक छुटकारा मिलेगा.

7. हीट स्टाइलिंग टूल्स का इस्तेमाल

गरमियों में हीट स्टाइलिंग टूल्स का इस्तेमाल जितना हो सके उतना कम करें. यह आप के हेयर हैल्थ के लिए बेहतर होता है. दरअसल, गरमियों में बारबार स्टाइलिंग टूल्स के इस्तेमाल से बाल कमजोर और जल्दी दोमुंहे हो जाते हैं, जिस से हेयर ग्रोथ प्रभावित होती है. ड्रायर का अधिक इस्तेमाल भी बालों को बेजान बना देता है. हेयर ड्रायर के इस्तेमाल के बजाय बालों को प्राकृतिक तरीके से सूखने दें. इस से बाल जल्दी औयली नहीं होंगे.

8. गरमियों में ट्राई करें हेयर मास्क

गरमियों में बालों को डीप कंडीशनिंग के साथसाथ बेहतर मौइस्चराइजिंग की आवश्यकता होती है. बालों की सेहत को दुरुस्त करने के लिए हेयर मास्क मददगार साबित होते हैं. 15 दिन में एक बार हेयर मास्क का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए, फिर बाल चाहे किसी भी हेयर टाइप के क्यों न हों.

हेयर मास्क के लिए एक बाउल में 1 चम्मच जैतून का तेल लें और उस में आधा केला मैश कर लें. अब इस में 1/4 कप दही मिक्स करें. इन सब को अच्छी तरह मिला कर बालों में लगा कर 20 मिनट लगा रहने दें. फिर बालों को धो लें.

-सोनिया राणा

क्या आपको पता है इन 10 नूडल्स के बारे में

‘‘टू मिनट नूडल्स,’’ यानी मैगी से तो सब वाकिफ हैं, पर क्या आप को पता है की दुनियाभर में कितनी तरह के नूडल्स खाए जाते हैं? जी हां, ढेरों तरह के.

कोई झक सफेद, तो कोई पतली सुतली जैसे या फिर कोई चौड़े रिबन जैसे बने होते हैं. कुछ आटे से बने होते हैं तो कुछ चावल, मैदे, आलू, अंडे, शकरकंद या कुट्टू से. और भी तरहतरह के नूडल्स मार्केट में उपलब्ध हैं. आकार, रंग में भिन्न ये नूडल्स बनाए भी कई तरीके से जाते हैं और नाम भी अलगअलग होते हैं.

बच्चे तो इन्हें चाव से खाते ही हैं, बड़े भी खूब पसंद करते हैं. बनाने में भी आसान और स्वाद भी भरपूर. मनचाही सब्जियों को मिला कर इन्हें पौष्टिक भी बनाया जा सकता है.

आज ऐसे ही कुछ नूडल्स के बारे में जानते हैं जो चीन की सीमा को लांघ कर कई अन्य देशों में भी उतने ही लोकप्रिय बन गए हैं.

  1. यूनान राइस नूडल्स

यों तो चावल के नूडल्स कई आकर के मिलते हैं, लेकिन गोल और सामान्य स्पैगेटी की तरह के नूडल्स सब से ज्यादा लोकप्रिय हैं जिन्हें यूनान नूडल्स या मी जिआन भी कहते हैं. दक्षिणी पश्चिमी चीन के यूनान प्रोविंस से लोकप्रिय हुए ये नूडल्स अकसर ग्लूटेन फ्री चावल और पानी के मिश्रण से बनाए जाते हैं. कई तरह की डिशेज बनाई जाती हैं जिन में सब से ज्यादा लोकप्रिय ‘क्रौसिंग द ब्रिज राइस नूडल्स’ है. चिकन, पोर्क एवं मसाले खासकर स्टार ऐनीज और अदरक के साथ बनाए गए सूप के साथ तैयार नूडल्स को परोसा जाता है.

  1. मी फेन या राइस सेंवइयां

पतले नूडल्स जो भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका में आम मिलते हैं, चीनी में इन्हें मी फेन और थाई में सन मी कहते हैं. दक्षिणी चीन से आए ये नूडल्स बहुत ही पतले, भंगुर और उजले होते हैं. इन्हें पकाना बहुत ही आसान होता है. 10 मिनट तक गरम पानी में डुबो कर रखना पर्याप्त है. पानी निकाल कर चाहें तो ब्राथ में डाल लीजिए अथवा तवे पर सब्जियों के साथ हलका फ्राई कर लीजिए. बहुत ही फ्लेवरफुल और कम तैलीय होने की वजह से ये लोगों में बहुत ही लोकप्रिय हैं. फिलीपींस के प्रसिद्ध व्यंजन ‘पंसित’ भी राइस नूडल्स, सब्जियां, चिकन, श्रिंप, सोया सौस आदि के साथ टौस कर बनाए जाता हैं. ‘पैड थाई’ बनाने में भी इसी तरह के नूडल्स प्रयोग किए जाते हैं.

  1. हे फन

ये मोटे और चपटे नूडल्स हैं जिन्हें थाई में सन यई कहा जाता है. माना जाता है कि ये सर्वप्रथम दक्षिणी चीन के ग्वांग?ाउ प्रांत में बने थे. कैंटोनीज डिश ‘चाउ फन’ में ये नूडल्स मीट अथवा वैजिटेबल्स के साथ ड्राई फ्राई किए जाते हैं या फिर इन्हें गाढ़ी और स्टार्ची सौस के साथ पका लिया जाता है. चावल के आटे और पानी से बने नूडल्स अमूमन लंबी स्ट्रिप्स या शीट्स के रूप में मार्केट में मिलते हैं जिन्हें मनचाहे आकार में काट कर काम में लाया जा सकता है.

यीन जेन फन या सिल्वर नीडल नूडल्स एकदम सफेद और बहुत ही छोटे आकार के होते हैं. महज 5 सीएम लंबे और 5 एमएम व्यास के. इन नूडल्स के दोनों सिरे नुकीले होते हैं. मलयेशिया और सिंगापुर में इन्हें रत नूडल्स के नाम से भी जाना जाता है. राइस और पानी के मिश्रण को महीन छलनी के माध्यम से सीधे उबलते हुए पानी में डाल कर बनाया जाता है. इन्हें टूटने से बचाने के लिए बनाने वक्त कौर्न स्टार्च भी मिलाया जाता है.

  1. लामिआन या हैंड पुल्ड नूडल्स

हाथ से खींच कर लंबे किए गए चीनी नूड्ल्स. गेहूं के आटे, नमक, पानी से बनाए जाने वाले इन नूडल्स में कभीकभी लचीलापन देने के लिए अल्कलाइन भी मिलाए जाते हैं. पकने के बाद ये बहुत मुलायम, चिकने होते हैं और ये हमेशा ताजे ही परोसे जाते हैं. उत्तर पश्चिमी चीन के प्रसिद्ध व्यंजन ‘डानडान नूडल्स’ में यही नूडल्स उपयोग में लाए जाते हैं.

  1. फन जी या ग्लास नूडल्स

बहुत ही पतले, लंबे और लगभग पारदर्शी इन नूडल्स के रंगों में भिन्नता, इन्हें बनाने में प्रयुक्त स्टार्च सामग्री पर निर्भर करती है. मूंग बींस, आलू, शकरकंद अथवा सागूदाने के हिसाब से ये या तो सफेद, हलके स्लेटी या फिर भूरे रंग के हो सकते हैं. इन्हें या तो 3 से 5 मिनट के लिए उबाल कर या फिर गरम पानी में कुछ देर तक भिगोने के बाद प्रयोग में लाया जा सकता है.

  1. मीसुआ

चीन के फुजिआन राज्य के पतले नमकीन और सब से लंबे नूडल्स. गीले आटे को 30 मीटर तक खींच कर इन नूडल्स को बनाया जाता है. चीन में जन्मदिन की पार्टियों में यही नूडल्स सर्व किए जाते हैं. चीनी मान्यताओं के हिसाब से इन नूडल्स को लंबी उम्र से जोड़ कर देखा जाता है. इन नूडल्स को सूप के साथ सर्व कर सकते हैं या फिर कम आंच पर सब्जियों के साथ टौस कर भी तैयार किया जाता है.

  1. चाउमिन

चाउमिन के तो हम सब दीवाने हैं. चाउमिन का शाब्दिक अर्थ है फ्राइड नूडल्स. आकर में पतले और क्रिस्पी नूडल्स सब से पहले ग्वांगडोंग चीन में बने थे. इन्हें बनाने से पहले उबालना जरूरी होता है. इन की मोटाई के हिसाब से 2 से 6 मिनट तक. इन्हें ठंडे पानी से धो कर और पानी निकाल कर मनचाही  सब्जियों, अंडों अथवा मांस के साथ टौस कर तैयार किया जाता है.

  1. वानटोन नूडल्स

पतले आकार के ये नूडल्स अंडे, पानी और लाइ वाटर (सोडियम या पोटैशियम हाईड्राक्साइड का घोल) से बनाया जाता है. इन्हें इन के आकार और रंग की वजह से एंजेल हेयर पास्ता भी कहते हैं. दक्षिणी चीन और हौंगकौंग में बने इन नूडल्स को थोड़ी देर तक गरम पानी में उबाल कर ठंडे पानी के नीचे रखा जाता है. कैंटोनी डिश ‘श्रिंप वानटोन’ लोगों को बहुत भाती है.

  1. नाइफ कट नूडल्स

इस तरह के नूडल्स की स्ट्रैंड हर दूसरे स्ट्रैंड से आकार, लंबाई में भिन्न होती  है. गौरतलब है कि काफी अभ्यास के बाद ही कोई शैफ इन नूडल्स को बनाने में महारत हासिल करता है. अन्य नूडल्स के मुकाबले ये नूडल्स मोटे होते हैं और नूडल्स के दोनों किनारे भी खुरदरे होते हैं.

  1. लामिआन

मुलायम, सिल्की और चाउमिन से थोड़े मोटे इन एग नूडल्स को बनाने का तरीका अलग होता है. इस का शाब्दिक अर्थ है टास्ड नूडल्स. इन्हें उबालना पड़ता है फिर बहुत ही कम सौस, पकी हुई सब्जियों, मांस के साथ टौस कर लिया जाता है.

-चेतना वर्धन           

शार्क टैंक की नमिता थापर जूझ रही हैं IVF से, जानिए ये कैसे करता है काम

‘शार्क टैंक इंडिया’ का दूसरा सीजन भी पहले सीजन की तरह बहुत प्रचलित हो रहा है. इस शो में नए उद्यमी यानी इंटरप्रेन्योर पार्टिसिपेट करते हैं और अपने बिजनेस आइडियाज को इस शो के जजेज के सामने बताते हैं ताकि वो उनके बिजनेस में निवेश करें. यह शो के जजेज न केवल सक्सेसफुल और अमीर हैं, बल्कि उनका जीवन अन्य लोगों को प्रेरित भी करता है. समय- समय पर शो में यह जजेज अपने निजी जीवन के बारे में बताते हैं. हाल ही में इसकी एक जज नमिता थापर ने अपनी  IVF जर्नी के बारे में बताया था. आईये जानें नमिता थापर की IVF जर्नी के बारे में और पाएं जानकारी IVF के बारे में.

नमिता थापर की IVF जर्नी

नमिता थापर एमक्योर फार्मा की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं. ‘शार्क टैंक इंडिया’ की जज अनुसार उनकी पहली प्रेग्नेंसी सामान्य थी. लेकिन, दूसरी प्रेग्नेंसी में उन्हें बहुत समस्या हुई क्योंकि वो कंसीव नहीं कर पा रही थी. वो इसके बाद दो बार IVF ट्रीटमेंट से गुजरी, जो दोनों बार फेल हो गया. उनके मुताबिक यह ट्रीटमेंट बहुत ही मुश्किल होता है, जिसमें महिला शारीरिक और मानसिक समस्याओं से गुजरती है. नमिता थापर का कहना था कि चार साल में दो अटेम्प्स के बाद उन्होंने इस ट्रीटमेंट को न लेने का निर्णय लिया. लेकिन, इसके कुछ समय बाद उन्होंने नेचुरली कंसीव किया. आज वो दो बच्चों की हैप्पी मदर है.

क्या है IVF और कैसे करता है यह काम?

IVF का फुल फॉर्म है इन विट्रो फर्टिलाइजेशन. यह प्रोसिजर्स की एक काम्प्लेक्स सीरीज है जिनका इस्तेमाल फर्टिलिटी में मदद करता है और यह जेनेटिक प्रॉब्लम्स को दूर करने में भी सहायक है. इस प्रोसीजर में पुरुषों के स्पर्म और महिलों के अंडाणुओं को आर्टिफिशियल तरीके से फर्टिलाइज किया जाता है. बाद में फीटस के विकसित होने पर इसे महिला के यूटरस में ट्रांसफर कर दिया जाता है. IVF की मदद से हेल्दी बेबी की मां बनना कई फैक्टर्स पर निर्भर करता है जैसे उम्र और इंफर्टिलिटी का कारण आदि. इसके साथ ही यह प्रोसीजर महंगा और इंवेसिव भी है. यही नहीं, इसमें बहुत अधिक समय भी लगता है.

IVF ट्रीटमेंट एक मुश्किल प्रोसीजर है लेकिन आजकल बहुत से लोग इसका इस्तेमाल कर के पेरेंट्स बनने का सुख पा रहे हैं. आजकल का लाइफस्टाइल ऐसा है कि लोग या तो अधिक उम्र में शादी करते हैं या फॅमिली प्लानिंग देरी से करते हैं. जिससे पुरुषों और महिलाओं में इनफर्टिलिटी की परेशानियां बढ़ रही हैं. ऐसे में आज के दौर में यह कई लोगों के लिए प्रोसीजर वरदान की तरह साबित हो रहा है.

जब जिंदगी तमाशे में डूब जाए

छिछली होती सोच का नतीजा यह है कि आज किसी भी हिंदी, अंगरेजी अखबार या चैनल को खोल लें उस में ज्यादातर खबरें सैलिब्रिटीज के खाने, पहनने, बीच पर नहाने, एअरपोर्ट पर आनेजाने पर होती हैं. ऐश्वर्या राय, अभिषेक बच्चन और उन की बेटी आराध्य न्यूयौर्क से मुंबई आईं तो फोटोग्राफरों का हुजूम जमा था और जब ये फोटो इंस्टाग्राम पर डाले गए तो हजारों नहीं लाखों तक लाइक्स मिले.

शाहरुख खान के जन्मदिन के मौके पर उन के घर के सामने खड़ी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा. तमन्ना भाटिया और विजय का किसिंग फोटो इतना वायरल हुआ कि टाइम्स औफ इंडिया ने इस की पूरी खबर बना कर छाप दी और उस का औनलाइन वीडियो जम कर चला. दीया मिर्जा अपने पति वैभव और स्टैप डौटर समायरा के साथ दिखीं, यह इंडियन एक्सप्रैस के लिए खबर थी.

आखिर इस सब का मतलब क्या है? ये आम जिंदगी को किस तरह प्रभावित करते हैं कि इन सैलिब्रिटीज के कपड़ों पर, बोलने पर, रंग पर, फैशन पर समय और शक्ति बरबाद की जाए? तमाशा हरेक को अच्छा लगता है पर जब जिंदगी तमाशे में डूब जाए और हरकोई टिकटौक या इंस्टाग्राम की रील्स के लाइक्स गिनने शुरू कर दे तो साफ है कि जनता की सोच की शक्ति गहरे पानी में डूब चुकी है.

तमाशा उबाऊ मेहनती जिंदगी से राहत पाने के लिए अच्छा है पर इस के लिए अपना समय और मेहनत मोबाइलों पर लाइक्स डालने में लगा लेने वाली जनता को वे परेशानियां उठानी ही पड़ेंगी, जो आज दिख रही हैं. आज दुनियाभर में एक तरह की अशांति है. कोविड-19 का डर इतना नहीं रह गया जितना कि नौकरियां खोने का. पैसे की तंगी का, पतिपत्नी या प्रेमीप्रेमिका का भय है.

यह इसलिए है कि जिंदगी को जिस गंभीरता से जीना जरूरी है उसे हम भूलने लगे हैं. हमारी जिंदगी की डोर अब कुछ सितारों, कुछ सैलिब्रिटीज के हाथों में हो गई है. ऐसा नहीं है कि पहले सबकुछ अच्छा था. सदियों तक लोग राजाओं और देवीदेवताओं के गुलाम रहते थे और वे जो अत्याचार करते, अनाचार करते, सहते थे. इतिहास बारबार अकालों, बीमारियों, युद्धों से भरा है. दुनियाभर में विशाल किले और मंदिर, चर्च, मसजिदें हैं पर आम लोगों के घर अभी पिछले कुछ सौ साल पहले बनने शुरू हुए जब साइंस और तकनीक ने धर्म और राजाओं की थोपी सोच से मुक्ति दिलाई.

अफसोस कि कहीं पेले, कहीं विराट कोहली, कहीं अमिताभ, कहीं लेडी गागा की चर्चाएं लोगों को फिर बहकाने लगी हैं और शासक व धर्म भी उन की सहायता से जनता को बेवकूफ बनाए रखने में सफल हो रहे हैं. आज वैज्ञानिक व चिंतक सिर्फ दिखावटी मजदूर रह गए हैं. वे गुलामों की तरह के हैं. उन से ज्यादा नहीं. यह चुनना हरेक का अपना फैसला कि उस का आदर्श कोई तमाशबीन है या वह जो खोज करता है, सवालों के हल ढूंढ़ता है, निर्माण करता या करवाता है. आप का फैसला क्या है?

सीलन: उमा बचपन की सहेली से क्यों अलग हो गई?

बचपन से ही वह हमेशा नकाब में रहती थी. स्कूल के किसी बच्चे ने कभी उस का चेहरा नहीं देखा था. हां, मछलियों सी उस की आंखें अकसर चमकती रहती थीं. कभी शरारत से भरी हुई, तो कभी एकदम शांत और मासूम. लेकिन कभीकभी उन आंखों में एक डर भी दिखाई देता था. हम दोनों साथसाथ पढ़ते थे. पढ़ाई में वह बेहद अव्वल थी. जोड़घटाव तो जैसे उस की जबां पर रहता था. मुझे अक्षर ज्ञान में मजा आता था. कहानियां, कविताएं पसंद आती थीं, जबकि गणित के समीकरण, विज्ञान, ये सब उस के पसंदीदा सब्जैक्ट थे.

वह थोड़ी संकोची, किसी नदी सी शांत और मैं एकदम बातूनी. दूर से ही मेरी आवाज उसे सुनाई दे जाती थी, बिलकुल किसी समुद्र की तरह. स्कूल में अकसर ही उसे ले कर कानाफूसी होती थी. हालांकि उस कानाफूसी का हिस्सा मैं कभी नहीं बनता था, लेकिन दोस्तों के मजाक का पात्र जरूर बन जाता था. मैं रिया के परिवार के बारे में कुछ नहीं जानता था. वैसे भी बचपन की दोस्ती घरपरिवार सब से परे होती है. बचपन से ही मुझे उस का नकाब बेहद पसंद था, तब तो मैं नकाब का मतलब भी नहीं जानता था. शक्लसूरत उस की अच्छी थी, फिर भी मुझे वह नकाब में ज्यादा अच्छी लगती थी.

बड़ी क्लास में पहुंचते ही हम दोनों के स्कूल अलग हो गए. उस का दाखिला शहर के एक गर्ल्स स्कूल में हो गया, जबकि मेरा दाखिला लड़कों के स्कूल में करवा दिया गया. अब हम धीरेधीरे अपनीअपनी दिलचस्पी के काम के साथ ही पढ़ाई में भी बिजी हो गए थे, लेकिन हमारी दोस्ती बरकरार रही. पढ़ाईलिखाई से वक्त निकाल कर हम अब भी मिलते थे. वह जब तक मेरे साथ रहती, खुश रहती, खिली रहती. लेकिन उस की आंखों में हर वक्त एक डर दिखता था. मुझे कभी उस डर की वजह समझ नहीं आई. अकसर मुझे उस के परिवार के बारे में जानने की इच्छा होती. मैं उस से पूछता भी, लेकिन वह हंस कर टाल जाती.

हालांकि अब मुझे समझ आने लगा था कि नकाब की वजह कोई धर्म नहीं था, फिर ऐसा क्या था, जो उसे अपना चेहरा छिपाने को मजबूर करता था? मैं अकसर ऐसे सवालों में उलझ जाता. कालेज में भी मेरे अलावा उस की सिर्फ एक ही सहेली थी उमा, जो बचपन से उस के साथ थी. मेरे मन में उसे और उस के परिवार को करीब से जानने के कीड़े ने कुलबुलाना शुरू कर दिया था. शायद दिल के किसी कोने में प्यार के बीज ने भी जन्म ले लिया था. मैं हर मुलाकात में उस के परिवार के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन उस की खिलखिलाहट में सब भूल जाता था. अकसर मैं अपनी कहानियों और कविताओं की काल्पनिक दुनिया उस के साथ ही बनाता और सजाता गया.

बड़े होने के साथ ही हम दोनों की मुलाकात में भी कमी आने लगी. वहीं मेरी दोस्ती का दायरा भी बढ़ा. कई नए दोस्त जिंदगी में आए. उन्हें मेरी और रिया की दोस्ती की खबर हुई. एक दिन उन्होंने मुझे उस से दूर रहने की नसीहत दे डाली. मैं ने उन्हें बहुत फटकारा. लेकिन उन के लांछन ने मुझे सकते में डाल दिया था. वे चिल्ला रहे थे, ‘जिस के लिए तू हम से लड़ रहा है. देखना, एक दिन वह तुझे ही दुत्कार कर चली जाएगी. गंदी नाली का कीड़ा है वह.’ मैं कसमसाया सा उन्हें अपने तरीके से लताड़ रहा था. पहली बार उस के लिए दोस्तों से लड़ाई की थी. मैं बचपन से ही अकेला रहा था. मातापिता के पास समय नहीं होता था, जो मेरे साथ बिता सकें. उमा और रिया के अलावा किसी से कोई दोस्ती नहीं. पहली बार किसी से दोस्ती हुई और

वह भी टूट गई. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह एक सर्द दोपहर थी. सूरज की गरमाहट कम पड़ रही थी. कई महीनों बाद हमारी मुलाकात हुई थी. उस दोपहर रिया के घर जाने की जिद मेरे सिर पर सवार थी. कहीं न कहीं दोस्तों की बातें दिल में चुभी हुई थीं.

मैं ने उस से कहा, ‘‘मुझे तुम्हारे मातापिता से मिलना है.’’

‘‘पिता का तो मुझे पता नहीं, लेकिन मेरी बहुत सी मांएं हैं. उन से मिलना है, तो चलो.’’ मैं ने हैरानी से उस के चेहरे की ओर देखा. वह मुसकराते हुए स्कूटी की ओर बढ़ी. मैं भी उस के साथ बढ़ा. उस ने फिर से अपने खूबसूरत चेहरे को बुरके से ढक लिया. शाम ढलने लगी थी. अंधेरा फैल रहा था. मैं स्कूटी पर उस के पीछे बैठ गया. मेन सड़क से होती हुई स्कूटी आगे बढ़ने लगी. उस रोज मेरे दिल की रफ्तार स्कूटी से भी ज्यादा तेज थी. अब स्कूटी बदनाम बस्ती की गलियों में हिचकोले खा रही थी.

मैं ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘रास्ता भूल गई हो क्या?’’

उस ने कहा, ‘‘मैं बिलकुल सही रास्ते पर हूं.’’ उस ने वहीं एक घर के किनारे स्कूटी खड़ी कर दी. मेरे लिए वह एक बड़ा झटका था. रिया मेरा हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचते हुए एक घर के अंदर ले गई. अब मैं सीढि़यां चढ़ रहा था. हर मंजिल पर औरतें भरी पड़ी थीं, वे भी भद्दे से मेकअप और कपड़ों में सजीधजी. अब तक फिल्मों में जैसा देखता आया था, उस से एकदम अलग… बिना किसी चकाचौंध के… हर तरफ अंधेरा, सीलन और बेहद संकरी सीढि़यां. हर मंजिल से अजीब सी बदबू आ रही थी. जाने कितनी मंजिल पार कर हम लोग सब से ऊपर वाली मंजिल पर पहुंचे. वहां भी कमोबेश वही हालत थी. हर तरफ सीलन और बदबू. बाहर से देखने पर एकदम छोटा सा कमरा, जहां लोगों के होने का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था. ज्यों ही मैं कमरे के अंदर पहुंचा, वहां ढेर सारी औरतें थीं. ऐसा लग रहा था, मानो वे सब एक ही परिवार की हों.

मुझे रिया के साथ देख कर उन में से कुछ की त्योरियां चढ़ गईं, लेकिन साथ वालियों को शायद रिया ने मेरे बारे में बता रखा था, उन्होंने उन के कान में कुछ कहा और फिर सब सामान्य हो गईं.

एकसाथ हंसनाबोलना, रहना… उन्हें देख कर ऐसा नहीं लग रहा था कि मैं किसी ऐसी जगह पर आ गया हूं, जो अच्छे घर के लोगों के लिए बैन है. वहां छोटेछोटे बच्चे भी थे. वे अपने बच्चों के साथ खेल रही थीं, उन से तोतली बोली में बातें कर रही थीं. घर का माहौल देख कर घबराहट और डर थोड़ा कम हुआ और मैं सहज हो गया. मेरे अंदर का लेखक जागा. उन्हें और जानने की जिज्ञासा से धीरेधीरे मैं ने उन से बातें करना शुरू कीं.

‘‘यहां कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस आ गई… मजबूरी थी.’’

‘‘क्या मजबूरी थी?’’

‘‘घर की मजबूरी थी. अपना, अपने बच्चों का, परिवार का पेट पालना था.’’

‘‘क्या घर पर सभी जानते हैं?’’

‘‘नहीं, घर पर तो कोई नहीं जानता. सब यह जानते हैं कि मैं दिल्ली में रहती हूं, नौकरी करती हूं. कहां रहती हूं, क्या करती हूं, ये कोई भी नहीं जानता.’’

मैं ने एक और औरत को बुलाया, जिस की उम्र 45 साल के आसपास रही होगी.

मेरा पहला सवाल वही था, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘‘मजबूरी.’’

‘‘कैसी?’’

‘‘घर में ससुर नहीं, पति नहीं, सिर्फ बच्चे और सास. तो रोजीरोटी के लिए किसी न किसी को तो घर से बाहर निकलना ही होता.’’

‘‘अब?’’

‘‘अब तो मैं बहुत बीमार रहती हूं. बच्चेदानी खराब हो गई है. सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए गई. डाक्टर का कहना है कि खून चाहिए, वह भी परिवार के किसी सदस्य का. अब कहां से लाएं खून?’’

‘‘क्या परिवार में वापस जाने का मन नहीं करता?’’

‘‘परिवार वाले अब मुझे अपनाएंगे नहीं. वैसे भी जब जिंदगीभर यहां कमायाखाया, तो अब क्यों जाएं वापस?’’

यह सुन कर मैं चुप हो गया… अकसर बाहर से चीजें जैसी दिखती हैं, वैसी होती नहीं हैं. उन लोगों से बातें कर के एहसास हो रहा था कि उन का यहां होना उन की कितनी बड़ी मजबूरी है. रिया दूर से ये सब देख रही थी. मेरे चेहरे के हर भावों से वह वाकिफ थी. उस के चेहरे पर मुसकान तैर रही थी. मैं ने एक और औरत को बुलाया, जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर थी. मैं ने कहा, ‘‘आप को यहां कोई परेशानी तो नहीं है?’’

उस ने मेरी ओर देखा और फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘जब तक जवान थी, यहां भीड़ हुआ करती थी. पैसों की कोई कमी नहीं थी. लेकिन अब कोई पूछने वाला नहीं है. अब तो ऐसा होता है कि नीचे से ही दलाल ग्राहकों को भड़का कर, डराधमका कर दूसरी जगह ले जाते हैं. बस ऐसे ही गुजरबसर चल रही है. ‘‘आएदिन यहां किसी न किसी की हत्या हो जाती है या फिर किसी औरत के चेहरे पर ब्लेड मार दिया जाता है. ‘‘अब लगता है कि काश, हमारा भी घर होता. अपना परिवार होता. कम से कम जिंदगी के आखिरी दिन सुकून से तो गुजर पाते,’’ छलछलाई आंखों से चंद बूंदें उस के गालों पर लुढ़क आईं और वह न जाने किस सोच में खो गई.मुझे अचानक वह ककनू पक्षी सी लगने लगी. ऐसा लगने लगा कि मैं ककनू पक्षियों की दुनिया में आ गया हूं. मुझे घबराहट सी होने लगी. धीरेधीरे उस के हाथों की जगह बड़ेबड़े पंख उग आए. ऐसा लगा, मानो इन पंखों से थोड़ी ही देर में आग की लपटें निकलेंगी और वह उसी में जल कर राख हो जाएंगी. क्या मैं ऐसी जगह से आने वाली लड़की को अपना हमसफर बना सकता हूं? दिमाग ऐसे ही सवालों के जाल में फंस गया था.

अचानक ही मुझे बुरके में से झांकतीचमकती सी रिया की उदास डरी हुई आंखें दिखीं. मुझे अपने मातापिता  की भागदौड़ भरी जिंदगी दिख रही थी, जिन के पास मुझ से बात करने का वक्त नहीं था और साथ ही, वे दोस्त भी दिखे, जो अब भी कह रहे थे, ‘निकल जा इस दलदल से, वह तुम्हारी कभी नहीं होगी.’ मेरा वहां दम घुटने लगा. मैं वहां से बाहर भागा. बाहर आते ही रिया की अलमस्त सुबह सी चमकती हंसी ने हर सोच पर ब्रेक लगा दिया. मैं दूर से ही उसे खिलखिलाते देख रहा था. उफ, इतने दमघोंटू माहौल में भी कोई खुश रह सकता है भला क्या?

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