Family Story : माली – क्या अरुंधती को मिला मां बनने का सुख

Family Story : ‘‘औ… औ… औ…’’ अरुंधती की आंख खुली तो किसी के ओकने की आवाज सुन कर एकाएक विचार मस्तिष्क में कौंधा, ‘क्या श्यामली को उलटियां हो रही हैं.’ तत्काल ही बिस्तर छोड़ वह बाहर की ओर लपकी. बाहर जा कर देखा तो श्यामली पौधों को पानी दे रही थी. ‘‘क्यों रे श्यामली, अभी तू उलटी कर रही थी?’’ श्यामली चौंक कर, ‘‘जी मैडमजी.’’ अरुंधती श्यामली के कुछ और पास आ कर मुसकराई और भौंहें उठा कर शरारती अंदाज में बोली, ‘‘क्या बात है श्यामली, कोई खुशखबरी है क्या?’’ श्यामली कुछ न बोली. दोनों हाथों से मुंह छिपा कर ऐसे खड़ी हो गई मानो शर्म के मारे अभी जमीन में गड़ जाएगी.

अरुंधती को बात सम झते देर न लगी, ‘‘श्यामली, यह तो बहुत ही खुशी की बात है. अब तू सुन, आज से तू कोई भारी काम नहीं करेगी और अपने खानपान पर पूरा ध्यान देगी. और सुन, रमिया कहां है, सो रहा है क्या? बुला उस को. मैं आज उस की खबर लेती हूं. अब सारे काम वही करेगा, तू सिर्फ आराम करेगी, सम झी?’’ अरुंधती के चेहरे पर खुशी, चिंता और उतावलेपन का मिलाजुला भाव था. श्यामली शरमा कर वहां से दौड़ गई. अरुंधती ने हाथ को ऐसे उठाया मानो कह रही हो ‘आराम से, थोड़ा हौलेहौले चल श्यामली, जरा संभल कर.’ शादी के 12 साल बीत चुके थे. अरुंधती की ममता तृषित थी. उस की बगिया में कोई फूल नहीं खिल सका. रहरह कर अतृप्त मातृत्व सूनी कोख में टीस मारता था. सभी कोशिशें कर लीं,

सभी अच्छे से अच्छे डाक्टर, बड़ेबड़े पंडितवैद्य, तांत्रिक और ओ झा से संपर्क किया लेकिन प्रकृति उस की गोद में संतान डालना भूल गई थी. अरुंधती को पौधों से बहुत ही प्यार था. वह पौधों की देखभाल ऐसे करती थी मानो वे उस के अपने बच्चे हों या फिर कह सकते हैं कि, जो ममता, जो वात्सल्य उस में उबलउबल कर बाहर छलकता था वही स्नेह वह इन पौधों पर छिड़क कर अपनी ममता की प्यास शांत करती थी. रमिया उस के यहां माली का काम करता था, बहुत छुटपन से वह अरुंधती के पास था. अरुंधती को उस से बहुत लगाव था. उस ने रमिया के रहने के लिए घर के पीछे एक छोटा सा क्वार्टर बनवा दिया था. रमिया अरुंधती का बहुत ध्यान रखता था और खासकर उस की बगिया का. उसे मालूम था कि इन पौधों में मैडमजी की जान बसती है. सो, वह उन की देखभाल में कोई कसर न छोड़ता था.

पिछले साल ही रमिया गांव से गौना करवा कर श्यामली को ले आया था. श्यामली थी तो सांवली पर उस के नैननक्श गजब के आकर्षक थे. वह बहुत ही कम बोलती थी, अधिकतर बातों का जवाब बस सिर हिला कर देती थी. काम में बहुत ही होशियार थी. सो, अरुंधती के घर के कामों में भी अब श्यामली हाथ बंटा देती थी. खाली समय में श्यामली अरुंधती से लिखना और पढ़ना भी सीखती थी. अरुंधती के स्नेह और अपनेपन की वजह से श्यामली जल्द ही उस से बहुत ही घुलमिल गई और धीरेधीरे दोनों बहुत करीब आ गईं, अपनी हर बात एकदूसरे से बांटने लगीं. तभी आज अचानक श्यामली की उलटियों की आवाज ने अरुंधती को चौंका दिया. श्यामली मां बनने वाली है, इस विचार से ही अरुंधती इतनी रोमांचित हो उठी कि उस के रोमरोम में सिहरन हो उठी मानो उस की स्वयं की कोख में से कोई नन्ही कोंपल प्रस्फुटित होने वाली है. ‘‘शेखर,’’ अरुंधती अपने पति से बोली. ‘‘हां अरु, कहो क्या बात है?’’ शेखर ने पूछा. ‘‘वो अपनी श्यामली है न, वो मां बनने वाली है.’’ ‘‘अरे वाह, यह तो बहुत ही खुशी की बात है,’’ शेखर अरुंधती की ओर देखते हुए बोला. ‘‘हां, बहुत ही खुशी की बात है. कितने वर्षों बाद हमारे आंगन में किलकारियां गूंजेंगी.

नन्हेमुन्हे बहुत ही कोमल रुई जैसे मुलायम प्यारेप्यारे छोटे से बच्चे को गोद में ले कर छाती से चिपकाने का अवसर आया है शेखर, है न? मैं ठीक कह रही हूं न?’’ अरुंधती शेखर से बोल रही थी और शेखर जैसे किसी सोच में पड़ा अरुंधती के इस उतावलेपन का आकलन कर रहा था. शेखर चिंतित था यह सोच कर कि अरुंधती की ममता उसे किस ओर ले जा रही है. इतना उतावलापन, इतना उस बच्चे के बारे में सोचना कहीं अरुंधती के लिए घातक सिद्ध न हो. पर अरुंधती तो बस बोले जा रही थी, ‘‘मैं ने तो श्यामली से कह दिया है कि वह कोई काम न करे, सिर्फ आराम करे और अच्छीअच्छी चीजें खाए. खूब जूस पिए. और हां, दूध बिना भूले दोनों समय पीना बहुत जरूरी है. आखिर पेट में एक नन्ही सी जान पल रही है.’’ वह बोलती जा रही थी और शेखर उस में वात्सल्य का बीज फूटते हुए साफसाफ देख रहा था. अरुंधती का अधिकतर समय अब श्यामली की तीमारदारी में ही निकलता था.

उस को समय से खाना खिलाना, जूस पिलाना, जबरदस्ती दूध पिलाना, समयसमय पर डाक्टर से चैकअप करवाना सब अरुंधती खुद करती थी. रमिया और श्यामली तो जैसे मैडमजी के युगोंयुगों के लिए आभारी हो गए थे. कौन किस के लिए इतना करता है, वह भी घर के एक मामूली से नौकर के लिए. उन्हें तो सम झ ही नहीं आता था कि वे मैडमजी के इन एहसानों का बदला कैसे चुकाएंगे. सौ जन्मों में भी इतने प्यार, विश्वास और अपनेपन का मूल्य नहीं चुकाया जा सकता. आखिर वह समय भी आ गया जिस की सब को प्रतीक्षा थी. श्यामली ने एक फूल से नन्हे पुत्र को जन्म दिया. सब से पहले अरुंधती ने उस को गोद में लिया. उस की आंखों से झर झर आंसू बह रहे थे. बच्चे को उस ने अपनी छाती से चिपका रखा था. उसे महसूस हो रहा था कि उस की छाती से दूध की सहस्त्रों धाराएं फूट पड़ी हैं. ‘

‘लाइए मैडम, बच्चे को उस की मां को दें ताकि वह बच्चे को स्तनपान करवा सके,’’ अचानक नर्स की आवाज से अरुंधती की तंद्रा भंग हुई. ‘‘हां, हां,’’ कह कर अरुंधती ने बच्चे को श्यामली की बगल में लिटा दिया और जैसे किसी स्वप्न से जागने के एहसास ने उस को हिला कर रख दिया. वह बहुत ही भारी मन से लड़खड़ाती हुई कमरे से बाहर निकल आई. शेखर बाहर ही खड़ा था. उसे जिस बात का अंदेशा था वही घटित हुआ. शेखर ने अरुंधती को कमर से पकड़ कर गाड़ी में बैठाया और घर ले आया. अरुंधती शून्य में थी, कुछ बोली नहीं. शेखर ने भी कोई बात नहीं छेड़ी क्योंकि वह भलीभांति जानता था कि इस समय अरुंधती के मन में क्या चल रहा है. 3 दिन गुजर गए. अरुंधती ने स्वयं को संभाल लिया था. वह रोज श्यामली से मिलने अस्पताल जाती. कुछ देर बच्चे के साथ खेलती, प्यार करती और घर आ जाती. कल श्यामली अस्पताल से घर आने वाली थी. अरुंधती ने स्वयं रमिया के यहां सारी व्यवस्थाएं करवाईं ताकि श्यामली और बच्चे को कोई परेशानी न हो. ‘‘उआं…उआं…’’ आवाज कानों में पड़ते ही अरुंधती की नींद खुली. ‘अरे, यह क्या, श्यामली घर आ गई?’ अरुंधती बिस्तर से लगभग भागती हुई उठी और तीर की गति से बाहर निकली. लपक कर रमिया के घर की तरफ दौड़ी. ‘

अरे यहां तो ताला पड़ा है. फिर श्यामली कहां… कहीं घर में तो नहीं वह…’ अपने दरवाजे की ओर लपकी लेकिन उसे फिर बाहर से ही बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी. वह बाहर निकल कर बेचैनी से इधरउधर नजरें दौड़ाने लगी. तभी उसे बगिया में कुछ हरकत सी महसूस हुई. वह तुरंत उस ओर दौड़ी, जा कर देखा तो वहां फूलों के बीच श्यामली का बच्चा लेटा हुआ था. ऐसा लग रहा था मानो अभीअभी एक नन्हा सा नयानया फूल खिला है. अरुंधती ने उस को देखते ही गोद में उठा लिया और बोली, ‘ये रमिया और श्यामली क्या पागल हो गए हैं जो इस नन्ही सी जान को यों जमीन पर लिटा दिया. वह पलट कर आवाज देने ही वाली थी कि बच्चे के हाथ में एक कागज का टुकड़ा देख कर रुक गई और उस कागज के पुर्जे को पढ़ने लगी.’ ‘‘मैडम जी, ‘‘यह आप की बगिया का फूल है, हम तो माली थे. हम ने बीज लगाया था. परंतु इस बीज को प्यार और ममता से सींचा ‘‘आप ने. अब इस फूल पर सिर्फ और सिर्फ आप का अधिकार है. ‘‘आप की, श्यामली.’’ अरुंधती कांप रही थी. उस की आंखें अविरल बह रही थीं. बच्चे को छाती से कस कर चिपटा कर मानो वह पूरे वेग से चिल्लाई, ‘‘शेखर, देखो, मैं बंजर नहीं हूं. यह देखो, फूल खिला है, मेरी बगिया का फूल, श्यामली का फूल.’’

Famous Hindi Stories : एक भगोना केक – क्यों उसे देना पड़ा माफीनामा

Famous Hindi Stories : स्नेहा तिरेक में लेख के महानायक, मुख्य महापुरुष मित्र सोनुवाजी ने एक भगोना केक बनाने की ग्रीष्म प्रतिज्ञा की. पूरा विश्व यह प्रतिज्ञा सुन कर प्रलयानुमान लगाने लगा. उन की यह प्रतिज्ञा इतिहास में ‘सोनुवा की प्रतिज्ञा’ नाम से लिखी जाएगी. आखिर क्यों? योंतो पिछले जन्म के पापों के आधिक्य से जीवन में अनेक चोंगा मित्रों की रिसीविंग करनी पड़ी, किंतु दैत्यऋण (दैवयोग के विपरीत) से हमारी भेंट मित्रों के मित्र अर्थात मित्राधिराज के रूप में प्रत्यक्ष टैलीफोन महाराज से हुई, जिन की बुद्धि का ताररूपी यश चतुर्दिक प्रसारित हो रहा था. दशोंदिशा के दिक्पाल उस टैलीफोन महर्षि के नैटवर्क को न्यूनकोण अवस्था में झुक झुक कर प्रणाम कर रहे थे. हमारे जीवन के संचित पुण्यों का टौकटाइम वहीं धराशायी हो गया क्योंकि हम ने उन से मित्रता का लाइफटाइम रिचार्ज करवा लिया था.

कला क्षेत्र में आयु की दृष्टि से भीष्म भी घनिष्ठ बडी बन जाते हैं लेकिन हमारे महापुरुष मित्र, भीष्म नहीं ग्रीष्म, प्रतिज्ञा किया करते हैं. हकीकत में वे महान भारतवर्ष की आधुनिक शिक्षा पद्धति के सुमेरू संस्थान एवं गुरुकल (प्रतिष्ठा कारणों से नाम का उल्लेख नहीं किया गया है) द्वारा उत्पादित एवं उद्दंडता से दीक्षित थे पर दीक्षित नहीं, किंतु ज्ञान के अत्यधिक धनी हैं, इतने धनी कि उन के आधे ज्ञान को जन्म के साथ ही स्विस बैंक के लौकरों में बंद करवाया गया. अन्यथा वे दुनिया कब्जा लेते और डोनाल्ड ट्रंप व जो बाइडेन को लोकतांत्रिक कब्ज हो जाता. हम उन की चर्चा करेंगे तो यह लेख महाकाव्य हो जाएगा. सो, मैं लेख को उन की एक जीवनलीला पर ही केंद्रित रखूंगा. उन की मित्रता में इतना सामर्थ्य था कि जब वे निषादराज के समान भक्तिभाव प्रकट करते थे तो सामने वाला मित्र एक युग आगे का दरिद्र सुदामा बन जाता था. कालांतर में यह हुआ कि हमारे एक अन्य पारस्परिक मित्र की जयंती की कौल आई तो रात्रि के 12 बजे देव, नाग, यक्ष, किन्नर, गंधर्व और दैत्यों ने बिना मोदीजी के आदेश के थालियां बजाईं और दीप जलाया. कहीं दीप जले कहीं दिल.

यह विराट दृश्य देख कर हमारा दिल सुलग उठा. उसी दिवस, स्नेहातिरेक में, लेख के महानायक व मुख्य महापुरुष मित्र ने केक बनाने की ग्रीष्म प्रतिज्ञा की. पूरा विश्व यह प्रतिज्ञा सुन कर प्रलयानुमान लगाने लगा. उन की यह प्रतिज्ञा इतिहास में ‘सोनुवा की प्रतिज्ञा’ नाम से लिखी जाएगी. उन के संदर्भ में यह जनश्रुति भी प्रचारित है कि वे मिनिमम इनपुट से मैक्सिमम आउटपुट देने वाले ऋषि हैं. सो, वे अपनी बालकनी में ‘एक टब जमीन’ में ही ‘वांछित उत्प्रेरक वनस्पतियों’ की जैविक खेती भी करते थे. ‘एक टब जमीन’ की अपार सफलता के बाद देवाधिपति सोनुवा महाराज ने ‘एक भगोना केक’ के निर्माण की घोषणा की. इस महान कार्य के वे स्वयंभू, नलनील एवं विश्वकर्मा अर्थात ‘थ्री इन वन’ थे. वे तत्काल इस कार्य में मनोयोग से लगे, मानो इसी के लिए उन का जन्म हुआ हो. सर्वप्रथम उन्होंने अनावश्यक सामग्रियों के एकत्रीकरण में दूतों को भेज कर उन की अव्यवस्था की.

इस के बाद अपने ज्ञानचक्षुओं को खोल कर बैठ गए. वैसे तो वे स्वभाववश मनमोहन सिंह थे किंतु ग्रीष्म प्रतिज्ञाओं के बाद वे किम जोंग हो जाते थे. तब उन का विकट रूप देख कर मैं ने अनेक भूतों को मदिरा मांगते देखा क्योंकि वे पानी नहीं पीते. किसी अभागी भैंस के 2 लिटर दूध को एक भगोने में डाल कर उसे सासबहू सीरियल की कथा सुना कर पकाते रहे. तत्पश्चात उन्होंने मैनमेड ‘मिल्कमेड’ डाल कर उसे शेख चिल्ली की बुद्धि जैसा मोटा बना दिया. अब उसे अनवरत कई युगों तक फेंटते रहे. जब उन का कांग्रेस का चुनावचिह्न शक्तिहीन हुआ तब उन्होंने वह पेस्ट दूसरे बड़े भगोने के अंदर नीचे कंकड़पत्थर की भीष्म शैया बना कर रख दिया और उन भगोनों को भाग्य के भरोसे अग्निदेव को समर्पित कर के 2 घंटे की तीर्थयात्रा पर निकल गए. मैं उन की रक्षा में लक्षमण सा फील करता हुआ धनुषबाण ले कर बैठ गया. लगभग एक युग के अंतराल के बाद मैं ने उन से दूरभाष पर संपर्क स्थापित किया तो उन्होंने अग्नि को और प्रबल कर के कुछ क्षणों में आने को कह दिया. मैं उन के आशीष वचन सुन कर निश्ंिचत रहा. सोनुवा महाराज ने आते ही अपनी यज्ञ सामग्री का निरीक्षण किया तो अपने परिपक्व ज्ञानलोचनों से उसे अधपका पाया.

एक और देव पुरुष ने उसे ‘बीरबल का केक’ कहा. तब भी सोनुवाजी के आत्मविश्वास में रंच मात्र भी कमी न आई. वे चीन का विरोध करते हुए आधा किलो चीनी की समिधा ‘केकाकुंड’ में झोंक कर चल दिए और इधर सब स्वाहा होता रहा. 2 घंटे के एक और युग बीत जाने पर प्रलय के बाद जब सृष्टि जगी तो पाया गया कि उस यज्ञ की बेदी में समय के थपेड़ों के गहरे काले स्याह निशान पड़ गए, जिन्हें सोनुवा महाराज ने अपने विज्ञान की कार्बन डेटिंग से बताया कि अभागी काली भैंस के दूध के रंग के कारण से यह पदार्थ भी वही रंग ले कर कोयले में परिवर्तित हो गया है जो कि दूसरे देशों को निर्यात कर के हम लोग कई भगोने केक चीन से आयात करेंगे. हम उन की इस सफलता पर भूतपूर्व अदनान सामी की तरह फूल कर कुप्पा और भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तरह चुप्पा दोनों हो गए थे.

पर वास्तविक समस्या अब थी. कोयले की खान बने भगोनेरूपी पात्र अब एक बूंद पानी रखने के भी पात्र नहीं बचे. हम ने उन्हें इतना रगड़ा कि हाथ रगड़ गए. शायद आदि मानव के चकमक पत्थर रगड़ने के बाद विश्व इतिहास में यह रगड़ने की ऐसी दूसरी घटना थी. हालांकि, इस में बौस द्वारा कर्मचारी को रगड़ना नहीं सम्मिलित किया गया है. उस दिवस, विम बार और उस के समकक्ष सभी उत्पादों के विज्ञापन में आने वाली सुंदर महिलाएं सूर्पणखा के बराबर लगने लगीं. यद्यपि हम ने वह केक 70 कोनों का मुंह बना कर खाया भी और जन्मदिन वाले मित्र से कहा भी कि तुम ने जन्म ले कर अच्छा नहीं किया, अगर जन्म न लेते तो यह केक अस्तित्व में न आता. इस घटना से सोनुवा महाराज को पाककला से विरक्ति हो गई.

उन्होंने तत्काल स्वयं को किचन के किचकिचीय जीवन से मुक्त रखने का निर्णय ले कर सृष्टि पर उपकार किया. उन का माफीनामा जल्द ही संग्रहालय में रखवाया जाएगा जो मानवजाति को भोजन पर किसी भी ऐसे प्रयोग से हतोत्साहित करने का प्रमाणपत्र सिद्ध होगा. क्या उन का क्षमापत्र पढ़ कर काला हुआ पात्र उन्हें क्षमा करेगा? हम उन्हें भगोना बरबाद होने से लगे सदमे से बचाने में प्रयत्नशील हैं. इस के लिए 7 मित्रों की संसद में यह निर्णय हुआ है कि अब वह भगोना भी एक टब जमीन के साथ रखा जाएगा और उस में भी उसी वांछित उत्प्रेरक वनस्पति की खेती होगी जिसे वायु में उड़ा कर वातावरण को संतुष्टि मिलती है और हमारे मन को वह शक्ति जिस से हम इस केक को न याद कर पाएं और गाएं ‘एक भगोना केक, जल्दीजल्दी फेंक.’

Hindi Satire : बीमार पड़ना घाटे का सौदा नहीं

Hindi Satire : 8 बजे के करीब नाश्ता खत्म कर सरला धोबी को प्रैस के लिए कपड़े देने नीचे उतरी तो लौबी में उमेशजी से मुलाकात हो गई. वे थोड़े चिंतित से लिफ्ट से निकल रहे थे. दोनों हाथों में कई थैले पकड़े थे. सरला को थोड़ा आश्चर्य हुआ कि आज उमेश भाई साहब दफ्तर नहीं गए, जरूर कोई विशेष बात है.

उमेशजी ने सरला का अभिवादन किया तो उस ने अपना प्रश्न पूछ ही लिया.

वे ठिठके. फिर थोड़े परेशान से बोले, ‘‘क्या बताऊं भाभीजी, ज्योत्सना बीमार है. 3 दिन हो गए हैं.’’

‘‘एकदम ठीक हमारे सामन रहने वाली हमारी पड़ोसिन बीमार है और हमें पता तक नहीं?’’ सरला ने बड़े भोलेपन से कहा.

‘‘मैं तो परेशान हो गया हूं, भाभीजी. दफ्तर से छुट्टी ले कर ज्योत्सना की तीमारदारी में जुटा हूं. उस पर भी सारा घर अस्तव्यस्त हो गया है. सच, घर तो घरवाली से ही है. वह देखभाल न करे तो सब चौपट हो जाता है,’’ उमेशजी के स्वर में मन की गहन पीड़ा व्याप्त थी.

‘‘मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताइए?’’ सरला ने औपचारिकतावश कह दिया.

‘‘जरूर बताएंगे, भाभीजी, अरे, इस तरह के सुखदुख में पड़ोसी ही काम आते हैं,’’ कहते हुए उमेशजी अपने फ्लैट में घुस गए.

सरला प्रैस वाले को कपड़े दे कर ज्योत्सना को देखने चली गई. करीब घंटा वहां बैठ कर जब लौटी तो उस का मन उदास और अशांत था. अब उस के अंतर में केवल एक  ही महत्त्वाकांक्षा थी कि काश, वह भी बीमार पड़ जाती.

ज्योत्सना क्या शान से पलंग पर लेटी थी. हर समय फोन पर नोटिफिकेशन की घंटी बज रही थी. कितने ठाट से वह अपने पति से सेवा करा रही थी. उमेशजी मौसमी का जूस उसे अपने हाथ से पिला रहे थे. ज्योत्सना की 2 सहेलियां उस से मोबाइल पर चैट कर रही थीं. सिरहाने रखी मेज पर दवाइयां, ग्लूकोस और पीने का पानी रखा था.

बड़ी ठाटदार सैटिंग थी. ज्योत्सना सब की चिंता और सहानुभूति का केंद्र बनी हुई शान से पलंग पर गर्व से मुसकरा रही थी और बीमारी भी कोई खास नहीं, थोड़ा सा जुकाम और खांसी तथा हलकी हरारत. बस मोबाइल पर ‘टेक केयर,’ ‘गैट फैल सून’ के मैसेज भरे थे. सरला और ज्योत्सना किसी ग्रु्रप में नहीं थीं, दोनों का अलगअलग सर्कल था.

सरला का अंतर कसक गया. ज्योत्सना के परिपेक्ष्य में उस ने अपने खुद के जीवन का मूल्यांकन किया. क्या वह सचमुच एक हाड़मांस की जीवित नारी है अथवा एक मशीन जो दिन में चौबीसों घंटे और साल में बारहों महीने बस यंत्रवत अपने काम में जुटी रहती है?

सुबह 5 बजे उठना, घर की सफाई, दूध की थैली, अखबार लेना फिर दोनों बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना. तैयार हो कर 8 बजे तक खुद और पति को नाश्ता करा और दोनोें के लंच पैक कर दफ्तरों को विदा होना, घर की साफसफाई पीछे से मेड कर जाती थी. शाम को औफिस से लौट कर मशीन में कपड़े धोना, शाम को बच्चों को कोचिंग में भेजना. रात को उन्हें खिला कर उन का स्कूल का काम कराना. फिर रात का खाना. इस दौरान बाजार के 1-2 चक्कर भी लग जाते.

रात जब 10 बजे के बाद सरल बैड पर लेटती है तो थकान से उस की नसनस चटकने लगती है. ऐसे में पति को भी रोमांच का दौरा पड़ता है. खैर, उसे तो खुशीखुशी अपने सारे दायित्व पूरे करने ही हैं.

आज ज्योत्सना के यहां से लौट कर सरला को सिर्फ अपने ऊपर ही नहीं, अपने पति पर भी खीज आ रही थी. आखिर उस की यह मशीन किस कंपनी की बनी है जो कभी रुकती ही नहीं, न ही उस में कोई टूटफूट होती है? 15 साल हो गए शादी को. सभी उसे गारंटेड लेने लगे थे.

उधर पति महोदय भी पक्के व्हाट्सऐप डाक्टर थे. पढ़ने का शौक है पर साहित्य नहीं, फिजिकल या डिजिटल पत्रपत्रिकाएं नहीं, आयुर्वेदिक और होमियोपैथी के मैसेज पढ़ेंगे. घर में दवाखाना बना रखा है. जरा उसे या बच्चों को कोई तकलीफ हुई नहीं कि उन की डाक्टरी शुरू. पेट दर्द हुआ तो नक्स वोमिका दे दी. सिरदर्द में डिस्प्रिन यानी हर परेशानी का दवा दे देंगे.

संयोग से उन की सारी दवाएं कारगर सिद्ध होतीं. 1 या 2 खुराक में ही वह और बच्चे चुस्तदुरुस्त हो जाते हैं. बीमारी सिर उठाती है और वे तत्काल उसे कुचल देते हैं. ऐसे में बीमार पड़ कर ऐशोआराम करने का अवसर ही कहां मिल पाता है?

सरला थोड़ा आराम करने लेट गई. ज्योत्सना ने आज उसे एकदम हिला कर रख दिया था. वह बेहद थकीथकी सी लग रही थी. काश, वह भी बीमार पड़ जाती. पर तभी उस का अंतर कांप गया. कहीं उसे कोई गंभीर बीमारी हो गई तो? कैंसर, किडनी फेल्योर या फिर हृदय रोग. इन जानलेवा बीमारियों का स्मरण करते ही उस ने अपनी महत्त्वाकांक्षा पर पानी फेर दिया. उस ने अपनी प्रार्थना को परिवर्तित कर दिया. वह गंभीर रूप से नहीं, साधारण रूप से बीमार पड़ना चाहती थी. वह एक ऐसी बीमारी चाहती थी जिस का इलाज उस के पति के पास न हो और जिस में उसे 8-10 दिन का विश्राम मिल जाए.

कैसा सुखद संयोग था वह. कितनी तत्परता से सरला की मनोकामना पूरी हो गई. दिल्ली में सीजनल वायरल फैला. कदाचित वायरल ने सरला के मन की अभिलाषा को सुन लिया था. कोविड का काला साया तो अब भुला दिया गया था पर इस वायरल का भी अपना मिजाज था.

एक दिन दोपहर बाद सरला के सारे बदन में दर्द शुरू हो गया. माथा तपने लगा. कमर टूटने लगी. आंखों में जलन, सर्दी के कारण बदन में झुरझुरी. वह छुट्टी ले कर घर आ गई. पति को मैसेज कर दिया. पति ने औनलाइन दवाइयों का और्डर कर दिया.

श्रीमानजी शाम 6 बजे दफ्तर से लौटे तो सरला को अक्तूबर की 20 तारीख को पलंग पर कंबल ओढ़े लेटा देख कर मुसकरा कर बोले, ‘‘वायरल को बुला लिया? चलो, कोई बात नहीं. एक खुराक में ही रफूचक्कर हो जाएगा,’’ कह उन्होंने आए पैकेट में से 2 टैबलेट दीं.’’

सरला ने श्रीमानजी की आत्मविश्वास से भरी यह गर्वोक्ति सुनी तो उस का दिल डूब गया. जैसेतैसे उस की मनचाही हुई और यहे महाशय सब गुड़गोबर कर देना चाहते हैं.

बहरहाल, श्रीमानजी ने सरला को आयुर्वेदिक दवा की 2 खुराक दीं. 2 घंटे बीत गए. कुछ नहीं हुआ. वह खुश, पर श्रीमानजी निराश. उन्होंने घंटेघंटे भर के अंतर से कई दवाइयां दीं पर सब बेकार.

बीमारी आ चुकी थी. करीब 9 बजे बुखार नापा. 104 डिगरी. सरला ने थर्मामीटर देखा तो कंपकंपी छूट गई और वह घबरा कर बोली, ‘‘डाक्टर को कंसल्ट कराएं. इतना तेज बुखार है.’’

‘‘वायरल है, इस में डाक्टर क्या करेगा?’’ श्रीमानजी ने तटस्थ स्वर में कहा, ‘‘रात के खाने का क्या होगा? सुबह का कुछ बचा है?’’

सुबह की थोड़ी सी दाल बची थी. बासी खाना उसे पसंद नहीं था. इसलिए मेड से उतना ही बनवाती थी जितनी जरूरत होती. अत: खाना नहीं था.

श्रीमानजी ने दूध उबाला और उन तीनों ने चाइनीज खाना और्डर किया और ठाट से खाया. सरला को 1 गिलास दूध दिया. उसे एकदम जहर जैसा कड़वा लगा.

श्रीमानजी और बच्चे आराम से सो गए. पर सरला रातभर बुखार में तपती रही. सिर दर्द से फटता रहा. पलभर भी वह सो नहीं पाई. सुबह के समय जरा आंख लगी. उस के व्हाट्सऐप गु्रप में कईयों के बीमार होने के मैसेज थे. सभी के लिए सब ने ‘टेक केयर’ का एक सा मैसेज कर टरका दिया.

सुबह सरला की आंख खुली तो उस ने देखा, दोनों बच्चे तैयार हो कर स्कूल जाने वाले हैं. श्रीमानजी बेहद बौखलाए हुए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे. वह उठ कर बैड पर बैठी तो लगा जैसे शरीर की सारी शक्ति को किसी ने निचोड़ लिया है. श्रीमानजी ने पास आ कर उस की तबीयत का न हाल पूछा, न माथे पर प्यार भरा हाथ रख बुखार देखा, न एक प्याला गरम चाय पेश की.

वहे आए और बेहद उखड़े स्वर में बोले, ‘‘तुम बीमार क्या हुईं, सब चौपट हो गया. 6 बजे नींद खुली. तब तक दूध की थैली डिलिवरी बौय बाहर रख गया था जो किसी के डौग ने फाड़ दी.’’

‘‘तो क्या दूध नहीं मिला? तो अब बच्चे क्या पीएंगे?’’ सरला का कलेजा कसक गया.

‘‘तुम दूध की बात कर रही हो मुझे तो लंच की फिक्र है. फिलहाल तो मैं ने उन्हें 100-100 रुपए दे दिए हैं. स्कूल की कैंटीन से कुछ खा लेंगे.’’

सरला का दिल टूट गया. वह एक लंबी सांस छोड़ कर बोली, ‘‘सैंडविच बना कर रख देते?’’

‘‘खाक रख देता. आज न ब्रैड है न खटर. डिलिवरी वाले 2 घंटे का समय मांग रहे हैं. ज्योत्सनाजी के यहां से 1 प्याला दूध मांग कर लाया तब जा कर हम तीनों ने चाय पी है.’’

‘‘पर रात को तो 1 गिलास दूध बचा था?’’ सरला ने डूबे स्वर में कहा.

‘‘शशि उसे फ्रिज में रखना भूल गई, गिलास बाहर ही रह गया. अंधेरे में मोबाइल उठाते हुए लुढ़क गया,’’ श्रीमानजी ने बड़ी शालीनता से कहा.

दूध प्रसंग अभी चल ही रहा था कि शशि और रजत चीखने लगे, ‘‘मां हमारी टाई कहां है?’’ ‘‘मां, मेरा पैन नहीं मिल रहा है,’’ सब तरफ मां… मां… की आवाजें लग रही थीं.

बड़ी मुश्किल से सरला पलंग के नीचे उतरी. उसे बड़े जोर का चक्कर आया और वह पलंग पर ही बैठ गई. चौबीस घंटे से कम में ही बुखार ने उसे चौपट कर के रख दिया था. उस से उठा नहीं जा रहा था. वह फिर से लेट गई.

बच्चे जैसेतैसे तैयार हो गए. श्रीमानजी उन्हें छोड़ने बस स्टैंड चले गए. पलंग पर लेटेलेटे ही सरला ने देखा पूरा घर कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. चारों तरफ सामान बिखरा हुआ था.

करीब आधे घंटे बाद श्रीमानजी लौटे. साथ में थे फल, डबलरोटी और मक्खन जो डिलिवरी बौय दरवाजे पर रख गया था. उन्हें एक  तरफ रख कर उन्होंने दाढ़ी बनाई और नहाने के लिए स्नानघर में घुस गए. अगले क्षण ही सरला को स्नानघर से उन की चीख सुनाई दी, ‘‘सरला, यह क्या नल में तो गरम पानी की एक बूंद भी नहीं है?’’

8 बज रहे थे. गर्म में पानी कहां से आता? सुबह गीजर औन करना रह गया था. यह मेरा ही काम था न.

श्रीमानजी तौलिया लपेटे बाहर आए और बिगड़ कर बोले, ‘‘गरम पानी के बिना तो मुझ से नहाया नहीं जाएगा.’’

‘‘सुबह गीजर नहीं खोला था?’’ सरला ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर दफ्तर बिना नहाए ही जाना होगा.’’

श्रीमानजी बड़बड़ाते चल गए. बिना नहाए कपड़े बदल तैयार हो गए. नाश्ते में कौर्नफ्लैक्स, रात की सब्जी और ब्रैड.’’

सरला ने बुखार नापा, 102 था. जैसे ही श्रीमानजी ने अपना ब्रीफकेस उठाया, उस ने घोर निराशा से पूछा, ‘‘आप दफ्तर जा रहे हैं?’’

‘‘और आप क्या सोचती हैं मैं ससुराल जा रहा हूं?’’

‘‘मुझे 102 बुखार है. क्या आप दफ्तर से छुट्टी नहीं ले सकते?’’

‘‘आज क्या, मैं तो अगले हफ्ते तक छुट्टी नहीं ले सकता. औडिट पार्टी आई हुई है. दफ्तर के हिसाबकिताब की जांच चल रही है. रहा बुखार तो इस ने दिल्ली की आधी से ज्यादा जनता को जकड़ रखा है. आज अखबार में यह समाचार छपा है कि इस बुखार पर कोई दवा असर नहीं करती. वायरल महोदय बिना बुलाए आते हैं और बिना भगाए अपनेआप तशरीफ ले जाते हैं. यह कोरोना वायरस नहीं है.’’

बाप रे बाप. इतना लंबा भाषण. सरला ने अपने कान बंद कर लिए. श्रीमानजी के चले जाने के बाद वह सिर्फ यही सोच रही थी, यदि यह बुखार उसे नहीं, श्रीमानजी को आया होता तो क्या तब भी वहे दफ्तर जाते?

पलंग पर पड़ी रही सरला. एकदम पस्त और निर्जीव सी. 2-3 बार उस ने औफिस से पूछा भी कोई काम तो नहीं अटक रहा पर किसी ने भी ‘गैट वैल सून’ के अलावा कुछ नहीं बोला. कोई प्यार के 2 बोल नहीं. शाम को बच्चे आए. बच्चों ने औनलाइन छोलेभठूरे और्डर कर मजे से खाए. फल, नमकीन और डबलरोटी से काम चला लिया. सरला के मुंह में कड़वाहट घुली हुई थी. कुछ भी खाने को जी नहीं कर रहा था.

हां, सरला की एक प्याला चाय की इच्छा हो रही थी. उस की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि  वह उठे और चाय बनाए. उस ने शशि से कहा तो वह बोली, ‘‘मां, दूध कहां है चाय बनाने के लिए? अब सिर्फ दूध के लिए तो औनलाइन और्डर करूंगी तो वे क्व50 डिलिवरी चार्ज ले लेंगे.’’

रात हुई. श्रीमानजी तशरीफ लाए. कुछ थके, कुछ परेशान से. आते ही बच्चों से गप्पें मारने लगे. एक बार भी उस के पास आ कर नहीं पूछा कि तबीयत कैसी है.

दिनभर तो कोई आया नहीं, श्रीमानजी के पीछेपीछे ज्योत्सना और 120 नंबर वाली ममता भी आ धमकीं.

श्रीमानजी ने दोनों पड़ोसिनों को देखा तो उन की बांछें खिल गईं. उस से तो कुछ पूछा नहीं पर उन दोनों हट्टीकट्टी महिलाओं से उन की तबीयत के बारे में पूछताछ करने लगे. फिर दौड़ेदौड़े रसोईघर में गए. तब तक डिलिवरी वाले स्नैक्स व फल दे गए. वे 6 प्याले चाय बना लाए. हंसहंस कर वे उन दोनों से बातें करते रहे और कीमती नमकीन काजू खिलाते रहे.

सरला के दिल पर सांप लोटते रहे. पर वह क्या करती? बेबस सी पड़ी रही.

मिजाजपुरसी करने वाली महिलाएं 2 मिनट के लिए टेक केयर कह कर चली गईं. चली गईं तो समस्या उठी रात के खाने की. श्रीमानजी ने बड़ा कड़वा सा मुंह बना कर कहा, ‘‘यार सरला, तुम बीमार क्या हुईं, चौबीस घंटों में एक बार भी ढंग का खाना नहीं मिला? बाहर का खाना खा कर पेट खराब हो गया है. मेड भी कुछ नहीं बनाना जानती.’’

‘‘पिताजी, रूपक रेस्तरां चलते हैं. उन के डोसे और इडली बहुत बढि़या होते हैं, औनलाइन मंगाएंगे तो ठंडे हो जाएंगे,’’ शशि बोली.

‘‘हां, पिताजी चलते हैं. बहुत दिन हो गए बाहर खाए हुए,’’ रजत बोला.

‘‘ठीक है. आप के लिए कुछ पैक करा लाएं?’’ श्रीमानजी ने ऐसी बेरुखी से पूछा मानो औपचारिकता निभा रहे हों.

सरला ने मना कर दिया तो वे बड़े शायराना अंदाज में बोले, ‘‘ठीक है, बुखार में भूख मर जाती है. फिर बुखार में न खाना ही ठीक रहता है. चलो, तुम्हें मौसमी का जूस दे देते हैं. कह रहे हैं इस बुखार में मौसमी का जूस दवा का काम कर रहा है,’’ और फिर जूस दे दिया.

मुझे मौसमी का जूस दे कर तीनों रूपक रेस्तरां चले गए. करीब डेढ़ घंटे बाद अपनेअपने पेट पर हाथ फेरते हुए मीठा पान चबाते हुए लौट आए.

श्रीमानजी कह रहे थे, ‘‘अगर जरा होथियारी से और्डर दिया होता तो क्व200 बच जाते और एक डोसा तथा 3 इडलियां यों बरबाद न जातीं. ऐसे मौकों पर तुम्हारी मां की सख्त जरूरत होती है.’’

‘‘मैं ने तो आप से पहले ही कहा था कि मैं इडली नहीं खाऊंगी और सादा डोसा लूंगी,’’ शशि बोली.

सरला का अंतर कसक गया. जरूर क्व500-700 पर ये लोग पानी फेर आए होंगे. उसे फिर झुरझुरी सी होने लगी थी. तो क्या फिर से बुखार बढ़ने लगा? उस ने अपने हाथपांव टटोले. बर्फ जैसे ठंडे, बुखार बढ़ने लगा था.

वे तीनों कपड़े बदल कर अपनेअपने काम में मस्त हो गए. शशि और रजत स्कूल का काम कर रहे थे. उन के पिता दफ्तर से लाई हुई फाइल पढ़ रहे थे.

सरला ने शशि से थर्मामीटर लाने को कहा तो वह तुनक कर बोली, ‘‘मां, मैं हिंदी का लेख लिख रही हूं. कल नहीं दिया तो सजा मिलेगी.’’

श्रीमानजी ने सबकुछ सुना अनसुना कर दिया. वे पलंग पर पड़े हुए किताब पढ़ते रहे. सरला का दिल डूब गया. उसे अपने पारिवारिक जीवन के चिरंतन सत्य के दर्शन हो चुके थे.

अगले 3 दिन तक बिस्तर पर पड़े रहने के बाद सरला ने अपने कान पकड़ लिए. उस ने अपनी महत्त्वाकांक्षा के दुष्परिणामों को खुली आंखों से देख लिया था. उस की बीमारी से श्रीमानजी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा था. वे रोज दफ्तर जाते रहे.

हां, घर जरूर कूड़ेदान बन गया था. 3 दिन तक  घर की सफाई न हो तो उस के फलस्वरूप उत्पन्न गंदगी की सहज कल्पना की जा सकती है. मेड ने भी एक दिन नागा कर लिया था० बीच में कि उसे भी वायरल ने पकड़ लिया है.

मैले कपड़ों से स्नानघर भर गया था. जब और कपड़े खत्म हो गए तो श्रीमानजी ने नीचे प्रैस करने वाले धोबी को बुला कर सारे कपड़े धुलवा लिए रूमाल और बनियान तक. धोबी ने साबुन का पूरा पैकेट खत्म कर दिया. धुलाई और प्रैस का जब क्व1000 का बिल उस ने पेश किया तो सरला की आंखों के आगे अंधेरा छा गया.

घर में बढ़ती गंदगी और बिगड़ते बजट से अधिक आतंकित करने वाली बात थी उसे देखने आने वाली पड़ोसिनों की संख्या और श्रीमानजी का उन के प्रति नदीदेपन का व्यवहार.

सरला की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ये औरतें दिन में क्यों नहीं आतीं जबकि वह उस समय अकेली होती है? तब आएं तो उन से कुछ मदद भी मिले. चाय या कौफी बना दें तो अच्छा रहे. पर नहीं, वे तो जानबूझ कर शाम को इन के सामने ही आएंगी और एक ये हैं कि उन्हें देख कर ट्यूबलाइट की तरह चमक जाएंगे.

नहीं, इस तरह बीमार पड़ना घाटे का सौदा ही नहीं, खतरनाक भी है. सरला ने फैसला कर लिया कि अब वह ठीक हो कर ही रहेगी. एक दिन शाम को वह डाक्टर के पास जा कर दवा ले आई. उस ने 6-6 घंटे के अंतराल से दवा शुरू की. चौबीस घंटों में उस का बुखार उतर गया.

इस बुखार के साथ ही बीमार पड़ आराम करने का बुखार भी उतर गया. बीमार पड़ने पर बजाय आराम मिलने के शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक कष्टों की जो अनुभूति हुई. उस का स्मरण करते ही सरला के पूरे शरीर में फिर से झरझरी फैलने लगी.

Hindi Story Online : अजमेर का सूबेदार: रहीम की क्या थी कूटनीति

Hindi Story Online : बात सन 1581 के शुरुआती दिनों की है. अकबर के संरक्षक बैरम खां के बेटे अब्दुर्रहीम खानखाना के पास कवि का कोमल दिल ही नहीं शाही आनबानशान और मुगल साम्राज्य के लिए मरमिटने का जज्बा भी था. उस के बाजुओं में कितनी ताकत थी यह उन्होंने गुजरात विजय, मेवाड़ के कुंभलनेर और उदयपुर के किले पर अधिकार कर के साबित कर दिया था.

बादशाह अकबर ने अब्दुर्रहीम की बहादुरी, ईमानदारी और समर्पण के भाव को देख कर ही उसे ‘मीर अर्ज’ की पदवी से नवाजा तो इस में कोई पक्षपात नहीं था, बल्कि वे जानते थे कि कलम और तलवार के धनी रहीम खानखाना कूटनीति के भी अच्छे जानकार हैं, तभी तो बादशाह ने उन्हें मेवाड़ मामले और खास कर महाराणा प्रताप की चट्टानी आन को तोड़ने के लिए अजमेर की सूबेदारी सौंपी थी. जिस काम को मानसिंह जैसा सेनापति और खुद बादशाह अकबर नहीं कर सके उस काम को करने के लिए खानखाना को अजमेर भेजना और वह भी यह कह कर कि शेर को जिंदा पकड़ कर दरबार में पेश करना है, कुछ अजीब लगता है लेकिन इस में कहीं न कहीं एक नायक की काबिलीयत के प्रति एक बादशाह का विश्वास भी झलकता है.

अजमेर आ कर रहीम ने पहले बेगमों, बांदियों, बच्चों को अस्त्रशस्त्र, रसद समेत शेरपुर के किले में सुरक्षित रखा ताकि उन की गैरमौजूदगी में वे सब सुरक्षित रह सकें. अब बेगमें क्षत्राणियां तो हैं नहीं कि पति को लड़ाई में भेज कर खुद किले में तीर, भाले, तलवार चलाने का अभ्यास करती रहें. यह तो शाही फौज के साथ सुरक्षा के साए में रहने वाली हरम की औरतें हैं जिन्हें अपनी अस्मत की रक्षा के लिए मर्दों पर ही निर्भर रहना है क्योंकि इसलाम धर्म इस से आगे की उन्हें इजाजत नहीं देता.

अब्दुर्रहीम खानखाना किले के विश्रामगृह में बैठे पसोपेश में हैं, परेशान हैं, सोच रहे हैं पर समझ नहीं पा रहे कि कैसे इस अरावली के शेर को काबू में करें. राणाप्रताप सिर्फ मेवाड़ पर नहीं, लोगों के दिलों पर राज करता है. आन का पक्का, भीलों का राजा नहीं उन का साथी है. कोई तो उस की कमजोरी पकड़ में नहीं आ रही जिस के सहारे वह आगे बढ़े. सारे सियासी दांवपेच उन की बेखौफ दिलेरी के सामने फीके पड़ जाते हैं.

तनमन में मेवाड़ प्रेम और स्वदेश सम्मान की रक्षा का संकल्प लिए यह राणा बिना समुचित सेना और हथियारों के भी शाही सेना पर भारी पड़ जाता है. भीलों का रणकौशल गजब का है. उन की पत्थरों और तीरों की मार के आगे मुगलिया सेना के पांव उखड़ जाते हैं.

आखिर क्या हुआ हल्दी घाटी में. राजा मानसिंह युद्ध जीत गए, उदयपुर छीन लिया, लेकिन क्या वाकई यह मुगलिया फौज की जीत थी? सारी रसद लुट गई, न राणा बंधे न उन का कुंवर. खाली हाथ भूखीप्यासी सेना को ले कर मानसिंह वापस आगरा लौटे थे. तो क्या राजा मानसिंह का शाही स्वागत हुआ था? नहीं, किस तरह इस बेकाबू राणा को काबू में करें यह वह समझ नहीं पा रहे.

अचानक उन की बड़ी बेगम ने विश्राम घर में प्रवेश किया और बोलीं, ‘‘क्या बात है मेरे सरताज, बडे़ सोच में हैं. कोई परेशानी?’’

‘‘परेशानी ही परेशानी है बेगम, एक हो तो बताएं. आप को याद है न हल्दी घाटी से लौटने पर मानसिंह की कितनी बेइज्जती हुई थी. बादशाह की पेशानी पर बल थे और उन्होंने कहा था कि क्या मानसिंह उम्मीद करते हैं कि उन की इस शर्मनाक जीत पर हम जश्न मनाएंगे? माबदौलत तो उन की शक्ल भी देखना नहीं चाहते.’’

‘‘हां, मुझे याद है,’’ बड़ी बेगम ने कहा, ‘‘बादशाह ने बदायूनी को तो सोने की मोहरों से नवाजा था और मिर्जा राजा से नाराज ही रहे थे.

‘‘बादशाह तो इतने नाराज थे कि उस के 3 महीने बाद वे खुद ही मुहिम पर निकले थे और 1 नहीं 3 हमले  राणा पर किए थे.’’

‘‘तो राणा कौन से बादशाह के हाथ आ गए थे,’’ चिंता से छटपटा रहे रहीम ने कहा, ‘‘अरे बेगम, उस के बाद भी तो जगहजगह थाने बनाए गए, हमले किए गए, लेकिन राणा के छापामारों ने मुजाहिदखां जैसे हैवानी थानेदार को भी मार डाला. एक साल बाद 15 अक्तूबर, 1577 को शाहबाज खां को भेजा गया. उस का खौफ तो जरूर फैला लेकिन वह भी तो बेकाबू राणा को बांधने में नाकाम ही रहा. 3 साल उन्हीं अरावली की पहाडि़यों में झख मारने के बाद खाली हाथ ही तो लौटा था. फिर अजमेर के सूबेदार बने दस्तम खान. वह मेवाड़ क्या जाते जब आमेर में ही दम तोड़ना पड़ा.’’

‘‘लेकिन मेरे हुजूर, आप यह सोचिए कि इन सब के बाद जब यह तय हुआ कि किसी खास बंदे को इस बेहद संगीन मामले से निबटने को भेजा जाए तो बादशाह सलामत को सिर्फ आप सूझे. कितना विश्वास है उन को आप पर और आप की काबिलीयत पर. आप को तो खुश होना चाहिए.’’

‘‘बेगम, आलमपनाह का यही भरोसा तो मुझे खाए जा रहा है. सोचिए, क्या होगा अगर यह भरोसा टूट गया?’’ रहीम वाकई परेशान थे.

‘‘इस तरह हिम्मत हारना आप को शोभा नहीं देता, हुजूर. पूरे हौसले के साथ टूट पडि़ए दुश्मनों पर. आप के सामने वह है क्या भला? आप भूल गए गुजरात विजय को जब आप ने बिना मदद का इंतजार किए सिर्फ 10 हजार सिपाहियों को साथ ले कर सुलतान मुजफ्फर की 1 लाख पैदल और 40 हजार घुड़सवार सेना को परास्त कर दिया था.’’ बेगम अब्दुर्रहीम खानखाना को प्रोत्साहित तो कर रही थीं पर उन के मन में भी डर था. वह भी जानती थीं कि भरोसा टूटने पर बादशाह कैसा कहर बरपा करते हैं.

‘‘बेगम, आप ख्वाहमख्वाह मेरी झूठी हौसलाअफजाई मत कीजिए. क्या आप को पता नहीं कि मेरे पीछे उधर आगरा में साजिशों का दौर चल रहा होगा, बादशाह के कान भरे जा रहे होंगे. अब्बा हुजूर ने बादशाह को इस लायक बनाया, गद्दीनशीन कराया, राजकाज संभाला, उन्हें सियासत सिखाई. जब उन्हें बेइज्जत  करने में बादशाह को मिनट नहीं लगा तो भला मेरी बिसात क्या है? आप को शायद पता नहीं है कि हुमायूं की शिकस्त के बाद शहंशाह शेरशाह ने अब्बा की मिन्नतें की थीं कि वह उन के साथ ही रहें लेकिन अब्बा हुजूर ने हिंदुस्तान के शहंशाह का साथ छोड़ कर हुमायूं का साथ दिया था.’’

अपने पति को शायद ही कभी इतने भावावेश में देखा होगा बेगम ने. अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिंदी भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाले रहीम बड़े गंभीर व्यक्ति थे.

बेगम बोलीं, ‘‘हां, मेरे सरताज, मुझे तो यह भी पता है कि जब बादशाह अकबर गद्दी पर बैठे तो उन का सदर मुकाम सरहिंद था, क्योंकि दिल्ली और आगरा पर अफगानों की तलवार मंडरा रही थी. इस मुसीबतजदा बादशाह को हेमू से निजात अब्बा हुजूर ने ही दिलाई थी. यही नहीं अब्बा हुजूर ने बादशाह की हिचकिचाहट के बावजूद निहत्थे हेमू को मार कर और सिकंदर शूरी से समर्पण करवा कर इस बड़ी सल्तनत की नींव डाली थी.’’

अबुल फजल भी अकबरनामा में स्वीकारते हैं, ‘‘बैरमखां वास्तव में सज्जन था और उस में उत्कृष्ट गुण थे. वस्तुत: हुमायूं और अकबर दोनों ही सिंहासन प्राप्ति के लिए बैरमखां के ऋणी थे.’’

खानखाना के चेहरे पर फिर वही बेबस हंसी खेल गई, ‘‘क्या अब्बा उस दर्दनाक मौत के हकदार थे जो उन्हें पाटन में मुहम्मदखां के हाथों मिली? बोलिए बेगम, क्या मेरा डर नाजायज है?’’ उन्हें पिता की स्वामिभक्ति और बदले में मिला अपमान, धोखा, मौत आज बहुत विचलित कर रहा था. वह तो वैसे भी बड़े, नेक, ज्ञानी और नम्र थे. उन के बारे में मशहूर है कि वह दान करते समय अपनी नजरें नीचे रखते थे. कारण पूछने पर उत्तर देते-

‘‘देनदार कोई और है, भेजत है दिन रैन,

लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन.’’

ऐसे रहीम खानखाना आज महाराणा को कुचलने के अभियान पर हैं. अब जो भी हो, काम तो करना ही है यह सोच कर उन्होंने कहा, ‘‘बेगम, रात बहुत हो गई है. आप सो जाएं, कल सुबह मैं फौज के साथ मुहिम पर निकलूंगा. आप सब हिफाजत से रहें इस का मैं ने पक्का बंदोबस्त कर दिया है. आप किसी भी तरह की फिक्र न करें.’’

सुबह खानखाना मेवाड़ के भीतरी भाग की खाक छानने के लिए कूच कर गए. उन का मुख्य लक्ष्य था महाराणा को बांधना, विवश करना. दिन बीत चुके थे, लेकिन इस जंगली चीते का कुछ भी अतापता नहीं लग रहा था. थकेहारे तंबू  में बैठे दूसरे दिन की योजना बना रहे थे तभी एक विश्वस्त गुप्तचर भागता हुआ आया.

‘‘हुजूर, गजब हो गया. शेरपुर का किला राणा ने लूट लिया, सारी रसद, हथियार सबकुछ…’’ गुप्तचर हांफता हुआ बोला.

‘‘शेरपुर का किला? क्या? रसद, हथियार और उस में रह रहे लोग, बेगम, बांदियां बच्चे?’’ रहीम खानखाना यह कह कर बिलबिला उठे. उन की आत्मा कांप उठी, आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उन औरतों की करुण चीत्कार से उन के कान फटने लगे जिन्हें समयसमय पर मुगल सैनिकों ने रौंदा था. उन्हें याद आई 25 फरवरी, 1568 की बादशाह की चित्तौड़ विजय, जब किले में पहुंचने पर हजारों नारियों की धधकती हुई चिताग्नि ने उन का स्वागत किया था.

एक कमजोर इनसान की तरह अब्दुर्रहीम खानखाना भी मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि प्रताप के निवास में पहुंचने से पहले उस की बेगमों को मौत आ जाए. तभी उन्हें ध्यान आया कि  जंगलों की खाक छानने वाला राणा भला हरम क्या रखता होगा. लेकिन फिर भी औरतें बरबाद तो हो ही सकती हैं.

‘‘कैसे बचाएं उन की अस्मत, यह सवाल जेहन में आते ही रहीम के मुंह से निकला, ‘‘हम तो न दीन के रहे न दुनिया के. अब करें तो क्या?’’

और तभी खानखाना गा उठे:

‘‘सुमिरों मन दृढ़ कर कै, नंदकुमार,

जो वृषभान कुंवारि के प्रान अधार.’’

वे सिसक उठे और अपने ही हाथों से चेहरा ढक कर निढाल पड़ गए कि  तभी कानों में स्वर गूंजा, ‘हुजूर, हुजूर, उठिए, आप से मिलने कोई दूत आया है. कहता है उसे महाराणा ने भेजा है.’

‘‘क्या महाराणा ने भेजा है? उसे बाइज्जत पेश करो. उस के साथ कोई भी बदसलूकी नहीं होनी चाहिए.’’

आगंतुक आया. अब्दुर्रहीम खानखाना उसे देखते रह गए. गोराचिट्टा रंग, ऊंचा कद, मजबूत काठी. चेहरे पर ऐसा रुआब जो राजाओं के चेहरे पर होता है. वह उसे देख कर हैरान रह गए और सोचने लगे, दूत ऐसा है तो राणा खुद कैसा होगा? लेकिन प्रकट में पूछा, ‘‘कहिए, क्या खिदमत करें आप की?’’

युवक की रोबीली आवाज गूंज उठी, ‘‘सूबेदार साहब, आप मेरी खिदमत क्या करेंगे. मैं अकेले में आप से कुछ बात करना चाहता हूं, अगर आप चाहें तो.’’

रहीम ने हाथ उठाया तो सिपाही बाहर चले गए. उन्होंने कहा, ‘अब आप कहिए?’

आगंतुक का गंभीर स्वर फूटा, ‘‘मैं एकलिंग महाराज के दीवान महाराणा प्रताप का एक सेवक हूं. उन्होंने ही मुझे आप के पास भेजा है.’’

‘‘हांहां कहिए, हमें उन की सभी शर्तें मंजूर होंगी,’’ अजमेर के सूबेदार अपने धड़कते दिल पर काबू रख कर बोले, ‘‘बस, एक बार राणा बादशाह सलामत के हुजूर में चल पड़ें और दरबार में उन्हें कोर्निश कर लें फिर मेवाड़ के जो हिस्से छीन लिए गए हैं वे सभी उन्हें वापस मिल जाएंगे.’’

‘‘कोर्निश, हांड़मांस के उस मामूली इनसान को. वह है क्या? एक आक्रमणकारी की अत्याचारी औलाद. सूबेदार साहब, वह आप का बादशाह होगा. हमारे राणा का तो वह बस, एक प्रतिद्वंद्वी है.’’

अब्दुर्रहीम खानखाना का हाथ म्यान पर गया तो उस युवक का खनकदार स्वर उभरा, ‘‘सूबेदार साहब, तैश मत खाइए. पहले पूरी बात सुनिए. राजनीति से ऊपर उठिए. मैं किसी और उद्देश्य से आया हूं.’’

खानखाना बोले, ‘‘कहिए, क्या चाहते हैं आप के राणा हम से?’’

‘‘कुछ देना चाहते हैं आप को. गलती से आप के बच्चे, बेगमें बंदी बना ली गई हैं, उन्हें हमारे राणा लौटाना चाहते हैं, बस.’’

ऐसे होते हैं राजपूत. वे हैरान थे. फिर मिर्जा राजा क्या राजपूत नहीं? उन का तो ऐसा किरदार नहीं. क्या वाकई उन्हें काफिर कहा जा सकता है? सोचतेसोचते भी खानखाना प्रकट में बोले, ‘‘तो भला इस में पूछना क्या? यह तो मेहरबानी है हम पर.’’

‘‘नहीं, यह तभी संभव हो सकता है जब आप हमारा साथ दें. पालकियां आएंगी लेकिन उन्हें रास्ते में कोई रोकेगा नहीं, टोकेगा नहीं. वे सीधे आप के पास आएंगी. मंजूर है तो बोलिए.’’

खानखाना सोच में पड़ गए. उन्हें अलाउद्दीन खिलजी का किस्सा याद आया. डोलियां चित्तौड़ की ही तो थीं. कहीं यह शातिर प्रताप की कोई चाल तो नहीं. समझ में नहीं आता क्या करें. दिमाग का कहना है इस नौजवान को अभी बांध लो, मन कहता है, ‘इस की बात मानो.’ तभी वह नौजवान हंस पड़ा.

‘‘सोच में पड़ गए सूबेदार साहब? यही न कि कहीं पद्मिणी बाइसा की डोलियों की तरह इन में से भी सिपाही न निकल पड़ें? तो वह धोखे के जवाब का धोखा था. यह तो अपनी इच्छा से महाराणा आप पर मेहरबानी करना चाहते हैं. इस में भला धोखा क्यों? देख लीजिए, हमारी सचाई पर भरोसा हो तो ठीक है, वरना…निकल तो मैं जाऊंगा.’’

‘‘ठहरो, मुझे मंजूर है,’’ दिमाग पर मन हावी हो गया और इस आत्मविश्वासी युवक पर भरोसा करने का मन कर आया खानखाना का.

नियत दिन डोलियां आईं. आगेआगे घोड़े पर वही युवक सवार था. खानखाना के सिपाहियों के हाथ म्यान पर, लेकिन सब चुप. युवक उन सभी डोलियों के साथ अंदर दाखिल हुआ. पहले बांदियां निकलीं, फिर उन्होंने पालकियों के परदे हटाए और बेगमों और बच्चों को बाहर निकाला. सब से अंत में बड़ी बेगम बाहर आईं. उन्हें देख कर खानखाना की सांस में सांस आई जो अब तक जाने कहां अटकी थी. यह सोच कर कि क्या पता किस डोली में से राणा निकल कर टूट पडे़ं, किस में से कुंवर अमर सिंह छलांग लगा दें.

युवक बाहर जाने को मुड़ा. रहीम ने टोका, ‘‘रुको नौजवान, तुम ने मुझ पर इतना बड़ा एहसान किया है कि मैं उस का बदला तो नहीं चुका सकता. लेकिन फिर भी…’’ यह कहते हुए खानखाना ने अपने गले से वह नौलखा हार निकाला जो बादशाह ने उन्हें सुलतान मुजफ्फर को परास्त करने पर दिया था.

बेगम हड़बड़ाई, ‘‘हांहां, क्या गजब कर रहे हैं आप. जानते हैं ये कौन हैं?’ ये हैं राजकुंवर अमरसिंह. इन की खातिर कीजिए. ये इनाम लेंगे भला आप से?’’

रहीम को काटो तो खून नहीं. वह कुंवर को बस, देखते ही रह गए.

बड़ी बेगम ने हाथ पकड़ कर अमर को तख्त पर बिठाया और शौहर से बोलीं, ‘‘ये सच्चे राजपूत हैं. ये किसी की बहूबेटी की इज्जत से नहीं खेलते. उन्हें दरिंदों से बचाते हैं. मेरी जिंदगी का तो बेड़ा पार हो गया हुजूर. मैं ने इन के अब्बा हुजूर के भी दर्शन कर लिए.’’

फिर कुछ सोचते हुए बड़ी बेगम बोली, ‘‘उस…आप के अकबर बादशाह के दुश्मन ने कहा कि हमारी दुश्मनी बादशाह से है उस के मातहतों से नहीं.

‘‘जानते हैं, एक दिन इन के अब्बा हुजूर हमारे तंबू के बाहर खडे़ हो कर अंदर आने की इजाजत मांग रहे थे. मैं हैरान, परेशान, बदहवास सी भागी और उन के कदमों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगी. बेखयाली में मैं बेपरदा हो चुकी थी, लेकिन उस इनसान ने हमारे कंधे पर अपना दुशाला डाला और बोले, ‘‘मां, आप का स्थान चरणों में नहीं, सिर माथे पर है. अमर, इन सभी माताबहनों को सम्मान से खानखाना के पास पहुंचा आओ. रास्ते में कोई कष्ट न हो.’’

बड़ी बेगम उठीं, लोहबान जलाया और अमर सिंह की आरती उतारते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, आज से तुम मेरे बेटे हो. मुझे अब फतह और शिकस्त से कोई वास्ता नहीं. जब तक जिंदा हूं तुम्हारी सलामती की दुआ मांगती रहूंगी. कोई भी तुम्हारा बाल बांका नहीं कर सकेगा, अकबर बादशाह हों या खुद मेरे ये शौहर.’’

खानखाना की आंखें भर आईं, गला रुंध गया. रोकतेरोकते भी आंसू ढुलक ही पडे़. इस क्षण वे न एक सूबेदार थे, न बादशाह के 5 हजारी मनसबदार. वह थे एक आम आदमी, एक कोमल हृदय कवि. उन्हें लगा कि प्रताप ने उन्हें ही नहीं, अकबर बादशाह को भी करारी शिकस्त दी है और यह नौजवान, जो उन की बेगम को नमस्कार कर के, खेमे से बाहर निकल रहा है, क्या कोई इनसान है? फिर खुद… उन के मुंह से निकल पड़ा,

‘‘तै रहीम मन आपनो, कीन्हों चारु चकोर,

निसि वासर लागो रहे, कृष्णचंद्र की ओर.’’

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फिर भी, अकसर छोटे शहर की लडकियां उन सपनों को किसी बड़े संदूक में छिपा लेती हैं. उस संदूक का नाम होता है ‘कल’. कारण, वही पुराना. अभी हमारे देश के छोटे शहरों और कसबों में सोच बदली कहां है? घर की इज्ज़त हैं लड़कियां. जल्दी शादी कर उन्हें उन के घर भेजना है जहां की अमानत बना कर मायके में पाली जा रही है. इसलिए लड़कियों के सपने उस कभी न खुलने वाले संदूक में उन के साथसाथ ससुराल और अर्थी तक की यात्रा करते हैं.

जो लड़कियां बचपन में ही खोल देती हैं उस संदूक को, उन के सपने छिटक जाते हैं. इस से पहले कि वे छिटके सपनों को बिन पाएं, बड़ी ही निर्ममता से वे कुचल दिए जाते हैं, उन लड़कियों के अपनों द्वारा, समाज द्वारा.

कुछ ही होती हैं जो सपनों की पताका थाम कर आगे बढती हैं. उन की राह आसान नहीं होती. बारबार उन की स्त्रीदेह उन की राह में बाधक महसूस है. अपने सपनों को अपनी शर्त पर जीने के लिए उन्हें चट्टान बन कर टकराना होता है हर मुश्किल से. ऐसी ही एक लड़की है वैशाली.

हर शहर की एक धड़कन होती है. वह वहां के निवासियों की सामूहिक सोच से बनती है. दिल्लीमुंबई में सब पैसे के पीछे भागते मिलेंगे. एक मिनट भी जाया करना जैसे अपराध है. छोटे शहरों में इत्मीनान दिखता है. ‘हां भैया, कैसे हो?’ के साथ छोटे शहरों में हालचाल पूछने में ही लोग 2 घंटे लगा देते हैं.

देवास की हवाओं में जीवन की सादगी और भोलेपन की धूप की खुशबु मिली हुई थी. बाजारवाद ने पूरे देश के छोटेबड़े शहरों में अपनी जड़ें जमा ली थीं. लेकिन देवास में अभी भी वह शैशव अवस्था में था. कहने का मतलब यह है कि शहर में आए बाजारवाद का असर वैशाली पर भी था. लिबरलिज्म यानी बाजारवाद की हवाओं ने ही तो बेहिचक इधरउधर घूमतीफिरती वैशाली को बेफिक्र बना दिया था. उम्र हर साल एक सीढ़ी चढ़ जाती. पर बचपना है कि दामन छुड़ाने का नाम ही नहीं लेता.

वैसे भी, मांबाप की एकलौती बेटी होने के कारण वह बहुत लाड़प्यार में पली थी. जो इच्छा करती, झट से पूरी कर दी जाती. यों छोटीमोटी इच्छाओं के आलावा एक इच्छा जो वैशाली बचपन से अपने मन में पाल रही थी वह थी आत्मनिर्भर होने की. वह जानती थी कि इस मामले में मातापिता को मनाना जरा कठिन है. पर उस ने मेहनत और उम्मीद नहीं छोड़ी. वह हर साल अपने स्कूल में अच्छे नंबर ला कर पास होती रही. मातापिता की इच्छा थी कि पढ़लिख जाए, तो जल्दी से ब्याह कर दें और गंगा नहाएं.

एक दिन उस ने मातापिता के सामने अपनी इच्छा जाहिर कर दी कि वह नौकरी कर के अपने पंखों को विस्तार देना चाहती है. शादी उस के बाद ही. काफी देर मंथन करने के बाद आखिरकार उन्होंने इजाजत दे दी. वैशाली तैयारी में जुट गई. आखिरकार उस की मेहनत रंग लाई और दिल्ली की एक बड़ी कंपनी का अपौइंटमैंट लैटर उस के हाथ आ गया.

वैशाली की ख़ुशी जैसे घर की हवाओं में अगरबत्ती की खुशबू की तरह महकने लगी. यह अपौइंटमैंट लैटर थोड़ी ही था, उस के पंखों को परवाज पर लगी नीली स्याही की मुहर थी. मातापिता भी उस की ख़ुशी में शामिल थे, पर अंदरअंदर डर था कि इतनी दूर दिल्ली में अकेली कैसे रहेगी. आसपास के लोगों ने डराया भी बहुत… ‘दिल्ली है, भाई दिल्ली, लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं. जरा देखभाल के रहने का इंतजाम कराना.’ वे खुद भी तो आएदिन अख़बारों में दिल्ली की खबरें पढ़ते रहते थे. यह अलग बात है कि छोटेबड़े कौन से शहर लड़कियों के लिए सुरक्षित हैं, पर खबर तो दिल्ली की ही बनती है.

दिल्ली देश की ही नहीं, खबरों की भी राजधानी है. आम आदमी तो खबरें पढ़पढ़ कर वैसे घबराया रहता है जैसे सारे अपराध दिल्ली में ही होते हों. जितना हो सकता था उन्होंने वैशाली को ऊंचनीच समझाई. फिर भी डर था कि जाने का नाम नहीं ले रहा था.

दिल्ली में निवास करने वाले अड़ोसपड़ोस के दूरदराज के रिश्तेदारों के पते लिए जाने लगे. न जाने कितने नंबर इधरउधर के परिचितों के ले कर वैशाली के मोबाइल की कांटैक्ट लिस्ट में जोड़े जाने लगे. तसल्ली इतनी थी कि किसी गाढ़े वक्त में बेटी फोन मिला देगी तो कोई मना थोड़ी न कर देगा. आखिर इतनी इंसानियत तो बची ही है जमाने में. उन्हें क्या पता कि दिल्ली घड़ी की नोंक पर चलती है.

मां ने डब्बाभर कर लड्डू व मठरी रख दिए साथ में. कुछ नहीं खा पाएगी, तो भी ये लड्डू, मठरी, सत्तू तो साथ देगा ही. दिल लाख आगेपीछे कर रहा हो, पर बेटी की इच्छा तो पूरी करनी ही थी. लिहाजा, कदम चल पड़े दिल्ली की ओर.

औफिस के श्याम ने ‘ओय’ होटल बुक कर दिया था. यह सस्ता होता है, दोचार दिन तो टिकना ही पड़ेगा, यही ठीक रहेगा. वैशाली के लिए गर्ल्स पीजी की ढूंढा जाने लगा. आखिरकार, लक्ष्मीनगर में एक गर्ल्स पीजी किराए पर ले लिया था. खानानाश्ता मिल ही जाएगा. औफिस, बस, 2 मेट्रो स्टेशन दूर था. यहां सब लड़कियां ही थीं. पिता बेफिक्र हुए कि उन की लड़की सुरक्षित है.

वैशाली अपना रूम एक और लड़की से शेयर करती थी. उस का नाम था मंजुलिका. मंजुलिका वेस्ट बंगाल से थी. जहां वैशाली दबीसिकुड़ी सी थी, मंजुलिका तेजतर्रार, हाईफाई. कई साल से दिल्ली में रह रही थी. चाहे आप इसे आबोहवा कहें या वक्त की जरूरत, दिल्ली की ख़ास बात है कि वह लड़कियों को अपनी बात मजबूती से रखना सिखा ही देती है. मंडे को जौइनिंग थी. मातापिता जा चुके थे.

अब शनिवार, इतवार पीजी में ही काटने थे. बड़ा अजीब लग रहा था इतनी तेजतर्रार लड़की के साथ दोस्ती करना, पर जरूरत ने दोनों में दोस्ती करा दी. शुरुआत मंजुला ने ही की. पर जब उस ने अपने लोक के किस्सों का पिटारा खोला, तो खुलता ही चला गया. मंजुलिका रस लेले कर सुनती रही.

उस के लिए यह एक अजीब दुनिया थी. अपना लोक याद आने लगा जहां लोगों के पास इतना समय होता था कि कभी भी, कहीं भी महफिलें जम जातीं. लोग चाचा, मामा, फूफा होते… मैडम और सर नहीं. देर तक बातें करने के बाद दोनों रात की श्यामल चादर ओढ़ कर सो गईं.

औफिस का पहला दिन था. वैशाली ने जींस और लूज शर्ट पहन ली. गीले बालों पर कंघी करती हुई वह बाथरूम से बाहर निकली ही थी कि मंजुलिका ने सीटी बजाते हुए कहा, ‘पटाखा लग रही हो, क्या फिगर है तुम्हारी.’ वह हंस दी. वैसे, जींसटौप तो कभीकभी देवास में भी पहना करती थी वह. कभी ऐसा कुछ अटपटा महसूस ही नहीं हुआ था. उस ने ध्यान ही कहां दिया था अपनी फिगर पर.

उस का ऊपर का हिस्सा कुछ ज्यादा ही भारी है, यह उसे आज महसूस हुआ जब औफिस पहुंचने पर बौस सन्मुख ने उसे अपने चैंबर में बुलाया और उस से बात करते हुए पूरे 2 मिनट तक उस के ऊपरी भाग को घूरते रहे. वैशाली को अजीब सी लिजलिजी सी फीलिंग हुई. जैसे सैकड़ों चीटियां उस के शरीर को काट रही हों. उस ने जोर से खांसा. बौस को जैसे होश आया हो. उसे फ़ाइल पकड़ा कर काम करने को कहा.

फ़ाइल ले कर वैशाली अपनी टेबल पर आ गई यी संज्ञाशून्य सी. देवास में उस ने लफंगे टाइप के लड़के देखे थे, पर शायद हर समय मां या पिताजी साथ रहने या फिर सड़क पर घूमने वाले बड़ों का लिहाज था, इसलिए किसी की इतनी हिम्मत नहीं हुई थी. उफ़, कैसे टिकेगी वह यहां? जब शीशे के पार केबिन में बैठे हुए उस ने सन्मुख को देखा था तो पिता की ही तरह लगे थे वे. 50 वर्ष के आसपास की उम्र, हलके सफेद बाल, शालीन सा चेहरा. बड़ा सुकून हुआ था कि बौस के रूप में उसे पिता का संरक्षण मिल गया है. लेकिन, क्यों एक पुरुष अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के लिए भी, बस, पुरुष ही होता है. अपने विचारों को झटक कर वैशाली ने अपना ध्यान काम पर लगाने का मन बनाया.

आखिर वह यहां काम करने ही तो आई है. कुछ बनने आई है. सारी मेहनत सारा संघर्ष इसीलिए तो था. वह हिम्मत से काम लेगी और अपना पूरा ध्यान अपने सपनों को पूरा करने में लगाएगी. पर जितनी बार भी उसे बौस के औफिस में जाना पड़ता, उस का संकल्प हिल जाता. अब तो बौस और ढीठ होते जा रहे थे. उस के खांसने का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा था.

पीजी में लौटने के बाद वैशाली खुद को बहुत समझाती रही कि उसे, बस, अपने सपनों पर ध्यान देना है. पर उस लिजलिजी एहसास का वह क्या करे जो उसे अपनी देह पर महसूस होता, चींटियां सी चुभतीं, घिन आती. घंटों साबुन रगड़ कर नहाई, पर वह फीलिंग निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी. काश, सारे मैल साबुन से धोए जा सकते. आज उसे अपने शरीर से नफरत हो रही थी. पर क्यों? उस की तो कोई गलती नहीं थी. अफ़सोस, यह एक दिन का किस्सा नहीं था. आखिर, रोजरोज उन काट खाने वाली नज़रों से वह खुद को कैसे बचाती.

हफ्तेभर में वैशाली जींसटौप छोड़ कर सलवारकुरते में आ गई. 10 दिनों तक दुपट्टा पूरा खोल कर ओढ़ कर आती रही. 15वें दिन तक दुप्पट्टे में इधरउधर कई सेफ्टीपिन लगाने लगी. पर बौस की एक्सरे नज़रें हर दुपट्टे, हर सेफ्टीपिन के पार पहुंच ही जातीं. आखिर वह इस से ज्यादा कर ही क्या सकती थी? वह समझ नहीं पा रही थी कि इस समस्या का सामना कैसे करे. एकएक दिन कर के एक महीना बीता. पहली पगार उस के हाथ में थी. पर वह ख़ुशी नहीं थी जिस की उस ने कल्पना की थी. मंजुलिका ने टोका, “आज तो पगार मिली है, पहली पगार. आज तो पार्टी बनती है.” वैशाली खुद को रोक नहीं पाई, जितना दिल में भरा था, सब उड़ेल दिया.

मंजुलिका दांत भींच कर गुस्से में बोली, “सा SSS… की मांबहन नहीं हैं क्या? उन्हें जा के घूरे, जितना घूरना है. और भी कुछ हरकत करता है क्या ?”

नहीं, बस, गंदे तरीके से घूरता है. ऐसा लगता है कि… कुछ कहने के लिए शब्द खोजने में असमर्थ वैशाली की आंखें क्रोध, नफरत और दुख से डबडबा गईं.

“अब समझी, तू जींसटौप से सूट कर क्यों आई यी. अरे, तेरी गलती थोड़ी न है. देख, तब भी उस का घूरना तो बंद हुआ नहीं. कहां तक सोचेगी. इग्नोर कर ऐसे घुरुओं को. हम लोग कहां परवा करते हैं. जो मन आया, पहनते हैं, ड्रैस, शौर्ट्स, जैगिंग… अरे जब ऐसे लोगों की आंखों में एक्सरे मशीन फिट रहती ही है तो वे कपड़ों के पार देख ही लेंगे. सो मनपसंद कपड़ों के लिए क्यों मन मारें? जरूरी है हम अपना काम करें, परवा न करें. वह कहावत सुनी है ना, ‘हाथी अपने रास्ते चलते हैं और कुत्ते भूंकते रहते हैं’. अब आगे बढ़ना है तो इन सब की आदत तो डालनी ही होगी. ठंड रख, कुछ दिनों बाद नया शिकार ढूंढ लेंगे,” मंजुलिका किसी अनुभवी बुजुर्ग की तरह उस को शांत करने की कोशिश करने लगी.

“मैं सोच रही हूं, नौकरी बदल लूं,” वैशाली ने धीरे से कहा. उस की बात पर मंजुलिका ने ठहाका लगा कर कहा, “नौकरी बदल कर जहां जाएगी वहां भी से ही घूरने वाले मिलेंगे. बस, नाम और शक्ल अलग होगी. कहा न, इग्नोर कर.”

“इग्नोर करने के अलावा भी कोई तो तरीका होगा न…” वैशाली अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाई कि मां का फोन आ गया. मांबाबूजी उस की पहली तनख्वाह की ख़ुशी को उस के साथ बांटना चाहते थे. मां चहक कर बता रही थीं कि उन्होंने आसपड़ोस में मिठाई बांटी है. बाबूजी ने अपने औफिस में सब को समोसा, बर्फी की दावत दी. सब बधाई दे रहे थे कि उन की बहादुर बेटी अकेले अपने सपनों के लिए संघर्ष कर रही है. आखिरकार, महिला सशक्तीकरण में उन का भी कुछ योगदान है.

“ओह मां, ओह पिताजी”, इतना ही कह पाई पर अंदर तक भीग गई वह इन स्नेहभरे शब्दों से. सारी रात वैशाली रोती रही. कहां उस के मातापिता उस पर इतना गर्व कर रहे हैं और कहां वह नौकरी छोड़ कर वापस जाने की तैयारी कर रही है, वह भी किसी और के अपराध की सजा खुद को देते हुए. मंजुलिका कहती है, इग्नोर कर. वही तो कर रही थी, वही तो हर लड़की करती है बचपन से ले कर बुढापे तक. पर यह तो समस्या का हल नहीं है. इस से वह लिजलिजी वाली फीलिंग नहीं जाती.

पुरुष को जनने वाली स्त्री, जिस की कोख का सहारा सभी ढूंढते हैं, को अपने ही शरीर के प्रति क्यों अपराधबोध हो. सारी रात वैशाली सोचती रही. अगले दिन लंच पर उस ने अपनी बात साथ में काम करने वाली निधि को बताई. फिर तो जैसे बौस की इस हरकत का पिटारा ही खुल गया. कौन सी ऐसी महिला थी जो उस की इस हरकत से परेशान न होती हो.

निधि ने कहा, “हाथ पकडे तो तमाचा भी लगा दूं, पर इस में क्या करूं? मुकर जाएगा. समस्या विकट थी. बात केवल सन्मुख की नहीं थी. ऐसे लोग नाम और रूप बदल कर हर औफिस में हैं, हर जगह हैं. आखिर, इन का इलाज क्या हो? और इग्नोर भी कब तक? नहीं वह जरूर इस समस्या का कोई न कोई हल खोज कर रहेगी.

घर आने के बाद वैशाली का मन नहीं लग रहा था. ड्राइंग फ़ाइल निकाल कर स्केचिंग करने लगी. यही तो करती है वह हमेशा जब मन उदास होता है. बाहर बारिश हो रही थी और अंदर वह आग उगल रही थी. तभी मामा के लड़के का फोन आ गया. गाँव में रहने वाला 10 साल का ममेरा भाई जीवन उस का बहुत लाडला रहा है अकसर फोन कर अपने किस्से सुनाता रहता है, दीदी यह बात, दीदी वह बात… और शुरू हो जाते दोनों के ठहाके.

आज भी उस के पास एक किस्सा था, “दीदी, सुलभ शौचालय बनने के बाद भी गाँव के लोग संडास का इस्तेमाल नहीं करते. बस, यहांवहां जहां भी जगह मिल्रती है, बैठ जाते हैं. टीवी में विज्ञापन देख कर हम घंटी खरीद लाए. अब गाँव में घूमते हुए जहां कोई फारिग होता मिल जाता, तो हौ कह कर घंटी बजा देते हैं. सच्ची दीदी, बहुत खिसियाता है. कई बार कपड़े समेट कर उठ खड़ा होता है. कई बार पिताजी से शिकायत भी होती है. अकेले मिलने पर डांट भी देते हैं. पर हम भी सुधरते नहीं हैं और उन की झेंप देखने लायक होती है. गलत काम का एहसास होता है. देखना, एक दिन ये लोग सब शौचालय इस्तेमाल करने लगेंगे.” बहुत देर तक वह इस बात पर हंसती रही, फिर न जाने कब नींद ने उसे आगोश में ले लिया. आंख सीधे सुबह ही खुली. घडी में देखा, देर हो रही थी. सीधे बाथरूम की तरफ भागी.

आज उस ने जींसटौप ही पहना. बढ़ती धडकनों को काबू कर पूरी हिम्मत के साथ औफिस गई और अपनी टेबल पर बैठ फाइलें निबटाने लगी. तभी बौस ने उसे केबिन में बुलाया. उसे देख उन के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. आंखें अपना काम करने लगीं.

“एक मिनट सर,” वैशाली ने जोर से कहा. सन्मुख हड़बड़ा कर उस के चेहरे की ओर देखने लगे. वैशाली ने फिर से अपनी बात पर वजन देते हुए कहा, “एक मिनट सर, मैं यहां बैठ जाती हूं, फिर 5 मिनट तक आप मुझे जितना चाहिए घूरिए और यह हर सुबह का नियम बना लीजिए. पर, बस एक बार… ताकि जितनी भी लिजलिजी फीलिंग मुझे होनी है वह एक बार हो जाए. उस के बाद जब अपनी सीट पर जा कर मैं काम करना शुरू करूं तो मुझे यह डर न लगे कि अभी फिर आप बुलाएंगे, फिर घूरेंगे और मैं फिर उसी गंदी फीलिंग से और अपने शरीर के प्रति उसी अपराधबोध से गुजरूंगी.

“जिस दिन से औफिस में आई हूं, यह सब झेल रही हूं. आप की मांबहन नहीं हैं क्या? जितना घूरना है उन्हें घूरो. मैं जानती हूं कि आप नहीं तो कोई और आप की मांबहन को घूर रहा होगा. अपनी मांबहन, पत्नी, बेटी सब से कह दीजिएगा कि वे भी घूरनेवालों से घूरने का टाइम फिक्स कर दें. दोनों का समय और तकलीफ बचेगी.

“जी सर, हमारा भी टाइम फिक्स कर दीजिए,” वैशाली के पीछे आ कर खड़ी हुई निधि व अन्य कलीग्स ने एकसाथ कहा. वैशाली अंदर आते समय जानबूझ कर गेट खुला छोड़ आई थी. और उस के पीछे थी इस साहस पर ताली बजाते पुरुष कर्मचारियों की पंक्ति.

बौस शर्म से पानीपानी हो रहे थे.

और उस के बाद सन्मुख किसी महिला को घूरते हुए नहीं पाए गए.

लेखिका- वंदना बाजपेयी

ओरिएंट इकोटेक न्यू फैन 

ओरिएंट इलेक्ट्रिक का ईकोटेक न्यू फैन स्टाइलिश और टिकाऊ है जो गर्मियों में जबरदस्त ठंडी हवा देता है. ये बीएलडीसी टेक्नोलॉजी वाला पंखा सिर्फ 28 वाट बिजली खपत करता है। यानी नॉर्मल पंखों के मुकाबले कम बिजली बिल और इन्वर्टर पर भी दोगुना टाइम तक चलेगा। इसके जंगरोधी एल्यूमिनियम ब्लेड्स इसे मजबूत और टिकाऊ बनाते हैं. 1200 मिमी का स्वीप साइज और 220 सीएमएम एयर डिलीवरी मतलब कमरे के हर कोने तक ठंडी हवा पहुंचेगी।  मैट ब्राउन, ग्लेशियर ग्रे और क्लासिक व्हाइट जैसे खूबसूरत कलर ऑप्शन हैं  और 3 साल की वारंटी भी.

स्किन टोन के हिसाब से खरीदें Nail Polish, बढ़ जाएगी हाथों की रौनक

Nail Polish : आपकी फ्रेंड ने बहुत गहरे रंग की नेल पोलिश लगाई , जिसे देखकर आप उसके हाथों की दीवानी बन गई. और बिना कुछ सोचें आपने भी उसे खरीदने का मन बना लिए. लेकिन जब आपने उसे पने नाखूनों पर टाई किया तो आपको न कोई तारीफ मिली और न ही आपके हाथों की रौनक बढ़ी , जिसे देखकर आप निराश हो गई. लेकिन क्या आपने सोचा  है कि आपके साथ ऐसा क्यों हुआ? इसका कारण है कि जिस तरह स्किन टोन व स्किन टाइप को ध्यान में रखकर क्रीम्स का चयन किया जाता है, ठीक उसी तरह नेल पौलिश का भी. ताकि वो आपके हाथों को भद्दा नहीं बल्कि उसकी रौनक को बढ़ाने का काम करें. तो चलो जानते हैं कि किस स्किन टोन पर कैसी नेल पौलिश अच्छी लगेगी.

स्किन टोन को ध्यान में रखें 

– अगर आपकी स्किन वाइट है और आप बहुत अधिक ग़हरे शेड्स लगाना चाहती हैं तो आपके हाथों पर डार्क ब्लू, रेड, मजेंटा , ऑरेंज, रूबी शेड्स काफी ज्यादा फबेंगे. क्योंकि ये आपके हाथों को और ब्राइट बनाने का काम करते हैं. आप ट्रांसपेरेंट शेड्स को  टाई न करें, क्योंकि ये आपकी स्किन में मिल जाने के कारण आपके हाथों को डल दिखाने का ही काम करेंगे.

-अगर आपका स्किन टोन डस्की यानि सांवली स्किन है तो आप ज्यादातर नेल पैंट्स टाई कर सकते हैं. क्योंकि डस्की ब्यूटी का कोई मुकाबला जो नहीं है, उन पर ज्यादातर चीजें फबती हैं.  इन पर ब्राइट और वाइब्रेंट कलर्स जैसे पिंक, येलो, ऑरेंज के साथसाथ मैटेलिक कलर्स जैसे गोल्ड और सिल्वर कलर भी काफी अच्छे लगते हैं. क्योंकि ये स्किन टोन को और उभारने का काम जो करते हैं.

– आपका स्किन टोन अगर डार्क है और आप यह सोच रही हैं कि मेरे नेल्स पर तो कोई भी नेल पौलिश सूट नहीं करेगी तो आपकी ये सोच बिलकुल गलत है. क्योंकि अगर आप डीप रेड, पिंक और नियोन  कलर्स अपने नेल्स पर लगाती हैं तो ये कलर्स अच्छे से ब्लेंड होकर आपकी स्किन को वाइब्रेंट लुक देने का काम करते हैं.

अलग अलग प्रकार की नेल पौलिश   

अभी हमने बात करी थी स्किन टोन के हिसाब से नेल पौलिश खरीदने की, लेकिन आपको बता दें कि नेल पौलिश भी कई तरह की होती हैं. जैसे मैट, शीर फिनिश, ग्लोसी, क्रीमी, ग्लिटरी, मेटालिक, टेक्सचरड फिनिश, जो हर स्किन टोन पर सूट करती है. इसे आप अपनी पसंद के हिसाब से चूज़ करके अपने हाथों की खूबसूरती को बड़ा सकती हैं. वैसे आजकल जैल और लौंग लास्टिंग ग्लोसी फिनिश वाली नेल पौलिश काफी डिमांड में हैं.

कैसे लगाएं नेल पौलिश 

भले ही आपने अपनी स्किन टोन के हिसाब से नेल पौलिश का चयन किया हो , लेकिन अगर उसे सही तरीके से नहीं लगाया तो आपकी सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है. इसलिए जब भी नेल पौलिश लगाएं तो सबसे पहले नेल्स को अच्छे से फाइल कर लें, ताकि नेल पौलिश उभर कर आ सके. साथ ही आप हमेशा ड्राई नेल्स पर ही नेल पौलिश अप्लाई करें , क्योंकि इससे उसके हटने का डर नहीं रहता है. नाखूनो पर हमेशा नेल पोलिश की फिनिशिंग नजर आए , इसके लिए आप पहले सिंगल कोट लगाएं, फिर उसके सूखने के बाद ही दूसरा कोट अप्लाई करें. आप चाहें तो क्यूटिकल आयल का इस्तेमाल नेल पेंट अप्लाई करने के बाद जरूर करें, क्योंकि इससे नेल्स हाइड्रेट रहते हैं. समय समय पर मेनीक्योर करवाती रहें , क्योंकि इससे नेल्स क्लीन रहेंगे, जो न सिर्फ दिखने में अच्छे लगेंगे बल्कि नेल्स को मजबूत बनाने के साथसाथ उनकी ग्रोथ में भी मददगार साबित होंगे.

खरीदें हमेशा ब्रैंडेड नेल पौलिश 

जितना जरूरी होता है स्किन टोन के हिसाब से नेल पौलिश को खरीदना, उतना ही जरूरी होता है ब्रैंडेड नेल पौलिश को खरीदना. क्योंकि लोकल नेल पौलिश भले ही आपको सस्ते दामों और डिफरेंट कलर्स में मिल जाए , लेकिन वो नेल्स को कमजोर बनाने के साथसाथ उनके मोइस्चर को चुरा लेती है. साथ ही बहुत ज्यादा केमिकल्स  वाली नेल पौलिश इस्तेमाल करने  से नेल्स पर पीलापन आने लगता है. इसलिए जब भी खरीदें हमेशा ब्रैंडेड नेल पौलिश ही खरीदें.

Skin Problems : सनस्क्रीन की चिपचिपाहट से परेशान हो गई हूं, क्या करूंं?

 Skin Problems :  अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक पढ़ें

सवाल-

मैं दिल्ली में सर्विस करती हूं. गरमियों में मेरा रंग बहुत ही काला हो जाता है. मुझे समझ नहीं आता कि मुझे कौन सा चाहिए और किस एसपीएफ की सनस्क्रीन लगाना? मैं जो भी सनस्क्रीन लगाती हूं मुझे पसीना आने लग जाता है और इसे मैं लगाना बंद कर देती हूं.

जवाब-

आप को दिल्ली में रहते हुए 35-40 एसपीएफ का सनस्क्रीन लगाना चाहिए. आप किसी भी अच्छी क्वालिटी का सनस्क्रीन खरीद सकती हैं बस लगाने का तरीका सही होना चाहिए. घर से निकलने से 10 मिनट पहले सनस्क्रीन लगा लें. हर सनस्क्रीन से पसीना आता ही है इसलिए पसीना आने दें. परेशान न हों. हैंकी या टिशू पेपर से फेस पर थपथपा दें और पसीने को सुखा लें. दोबारा पसीना नहीं आएगा. इस के बाद आप ऐसे भी बाहर जा सकती हैं. इस के ऊपर मेकअप करना चाहे तो मेकअप भी कर सकती हैं.

ये भी पढ़ें- 

सनस्क्रीन को सनब्लौक क्रीम, सनटैन लोशन, सनबर्न क्रीम, सनक्रीम भी कहते हैं. यह लोशन, स्प्रे या जैल रूप में हो सकता है. यह सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों को अवशोषित या परावर्तित कर के सनबर्न से सुरक्षा उपलब्ध कराता है. जो महिलाएं सनस्क्रीन का उपयोग नहीं करती हैं उन्हें त्वचा का कैंसर होने की आशंका अधिक होती है. नियमित रूप से सनस्क्रीन लगाने से झुर्रियां कम और देर से पड़ती हैं. जिन की त्वचा सूर्य के प्रकाश के प्रति संवेदनशील होती है उन्हें रोज सनस्क्रीन लगाना चाहिए.

क्या है एसपीएफ

एसपीएफ अल्ट्रावायलेट किरणों से सनस्क्रीन द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली सुरक्षा को मापता है. लेकिन एसपीएफ यह नहीं मापता है कि सनस्क्रीन कितने बेहतर तरीके से अल्ट्रावायलेट किरणों से सुरक्षा करेगा. त्वचारोग विशेषज्ञ एसपीएफ 15 या एसपीएफ 30 लगाने की सलाह देते हैं. ध्यान रखें, अधिक एसपीएफ अधिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराता है.

सनस्क्रीन न लगाने के नुकसान

सनस्क्रीन हर मौसम में लगाना चाहिए. समर में इसे लगाना बहुत ही जरूरी है. इस सीजन को त्वचा के रोगों का सीजन कहा जाता है. इस मौसम में समर रैशेज, फोटो डर्माइटिस, पसीना अधिक आना और फंगस व बैक्टीरिया के संक्रमण से अधिकतर महिलाएं परेशान रहती हैं. समर में थोड़ी देर भी धूप में रहने से सनटैन और सनबर्न की समस्या हो जाती है. टैनिंग इस मौसम में त्वचा की सब से सामान्य समस्या है. अत: घर से बाहर निकलने से पहले अच्छी गुणवत्ता वाला सनस्क्रीन जरूर इस्तेमाल करें.

जो महिलाएं सनस्क्रीन का उपयोग नहीं करती हैं उन की त्वचा समय से पहले बुढ़ा जाती है, उस पर झुर्रियां पड़ जाती हैं. यूवी किरणों का अत्यधिक ऐक्सपोजर त्वचा के कैंसर का कारण बन सकता है.

पाठक अपनी समस्याएं इस पते पर भेजें : गृहशोभा, ई-8, रानी झांसी मार्ग, नई दिल्ली-110055.
व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या 9650966493 पर भेजें.

Short Stories in Hindi : अतीत की पगडंडियां

लेखिका- कृतिका गुप्ता

Short Stories in Hindi : अलका यानी श्रीमती रंजीत चौधरी से मेरा परिचय सिर्फ एक साल पुराना है, पर उन के प्रति मैं जो अपनापन महसूस करता हूं, वह इस परिचय को पुराना कर देता है. आज अलकाजी जा रही हैं. उन के पति रंजीत चौधरी नौकरी से रिटायर हो गए हैं इसलिए अब वह सपरिवार अपने शहर इलाहाबाद वापस जा रहे हैं.

मैं उदास हूं, उन से आखिरी बार मिलना चाहता हूं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं. उन्हें जाते हुए देखना मेरे लिए कठिन होगा फिर भी मिलना तो है ही. यही सोच कर मेरे कदम उन के घर की ओर उठ गए.

मैं जितने कदम आगे को बढ़ाता था मेरा अतीत मुझे उतना ही पीछे ले जाता था. आखिर मेरे सामने वह दिन आ ही गया जब मैं पहली बार चौधरी साहब के  घर गया था. वैसे मेरा श्रीमती चौधरी से सीधे कोई परिचय नहीं था, मेरा परिचय तो उन के घर रह कर पढ़ने वाले उन के भतीजे प्रभात से था.

मैं स्कूल में अध्यापक था, अत: प्रभात ने मुझे अपनी चाची के बच्चों को पढ़ाने के काम में लगा दिया था. इसी सिलसिले में मैं उन के घर पहली बार गया था. दरवाजा प्रभात के चाचा यानी चौधरी साहब ने खोला था.

सामान्य कद, गोरा रंग, उम्र कोई 55 साल, सिर पर बचे आधे बाल जोकि सफेद थे और आंखें ऐसी मानो मन के भीतर जा कर आप का एक्सरे उतार रही हों. प्रभात से अकसर उस की चाची की जो तारीफ मैं ने सुनी थी उस से अंदाजा लगाया था कि उस की चाची बहुत प्यारी और ममतामयी महिला होंगी.

चौधरी साहब ने प्रभात के साथसाथ अपने बच्चों गौरवसौरभ को भी बुलाया, साथ में आई एक बहुत ही खूबसूरत महिला.

प्रभात ने बताया कि यह उस की चाची हैं. मैं चौंक पड़ा. मैं ने उन्हें ध्यान से देखा. लंबा कद, गोरा रंग, छरहरा बदन, आकर्षक चेहरे पर स्मित मुसकान और उम्र रही होगी कोई 30-32 साल. अगर प्रभात मुझे पहले न बताता तो मैं उन्हें चौधरी साहब की बेटी ही समझता.

पहली बार उन्हें देख कर उन के प्रति एक अजीब सी दया और सहानुभूति का भाव मेरे मन में उमड़ आया था. और उमड़ भी क्यों न आता, 30 साल की खूबसूरत महिला को 55 साल के आदमी की पत्नी के रूप में देखना, इस के अलावा और क्या भाव ला सकता था.

मुझे उन के बच्चों को पढ़ाने का काम मिल गया. मैं हर दोपहर, स्कूल के बाद उन्हें पढ़ाने के लिए जाने लगा था. उस समय चौधरी साहब आफिस गए होते थे और प्रभात कालिज.

बच्चों को पढ़ाते समय वह अकसर मेरे लिए चायनाश्ता दे जाया करती थीं. पहली बार मैं ने मना किया तो वह बोली थीं, ‘कालिज से सीधे यहां पढ़ाने आ जाते हो, भूख तो लग ही आती होगी. थोड़ा खा लोगे तो तुम्हारा भी मन पढ़ाने में ठीक से लगने लगेगा.’

मैं ने फिर कभी उन का चायनाश्ते के लिए प्रतिवाद नहीं किया था.

श्रीमती चौधरी बहुत ही स्नेही और लोकप्रिय महिला थीं. मुझे उन के घर अकसर उन की कोई न कोई पड़ोसिन बैठी मिलती थी, कभी किसी व्यंजन की रेसिपी लिखती तो कभी कोई नया व्यंजन चखती.

एक बार उन्होंने मुझ से कहा था, ‘तुम मुझे बारबार श्रीमती चौधरी कह कर यह न याद दिलाया करो कि मैं रंजीत चौधरी की पत्नी हूं. तुम मुझे अलका कह कर बुला सकते हो.’ तब से मैं उन्हें अलकाजी ही कहने लगा था.

एक रोज मैं ने उन से पूछा, ‘अलकाजी, आप की शादी आप से दोगुने उम्र के इनसान से क्यों हुई?’ मेरे इस सवाल के जवाब में उन्होंने जो कुछ कहा उसे सुन कर मैं झेंप सा गया था. वह बोली थीं, ‘यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है, जो सच है वह सच है. मैं एक छोटे से गांव की रहने वाली हूं. मैं तब बहुत छोटी थी, जब मेरे मांबाप गुजर गए थे. मेरे चाचाचाची ने मुझे पालापोसा था. उन्होंने ही मेरी शादी चौधरी साहब से तय की थी. उन्होंने यह तो देखा कि लड़का अच्छी नौकरी में है, अच्छा घर है पर यह नहीं देखा कि वह मुझ से उम्र में कितना बड़ा है और तब मैं इतनी समझ भी नहीं रखती थी कि इस का विरोध कर सकूं.

‘तुम यह भी कह सकते हो कि मुझ में विरोध कर सकने की हिम्मत ही नहीं थी. अपनी किस्मत समझ कर मैं ने इसे स्वीकार कर लिया था. फिर जब मेरे जीवन में गौरवसौरभ आ गए तो लगा कि मुझे फिर से जीने का मकसद मिल गया है और अब तो इतना समय बीत गया है कि मुझे लोगों की घूरती निगाहों, पीठपीछे की कानाफूसी, इस सब की आदत हो गई है.

‘हां, बुरा तब लगता है जब लोग मेरे और प्रभात के रिश्ते पर उंगलियां उठाते हैं. तुम्हीं कहो, अनुपम, क्या मैं इतनी गिरी हुई लगती हूं कि अपने रिश्ते के बेटे के साथ…छी, मुझे तो सोच कर भी शरम आती है. फिर लोग कहते हुए क्यों नहीं झिझकते? तो क्या उन का चरित्र मुझ से भी गयाबीता नहीं है? प्रभात को मैं ने सदा अपना बड़ा बेटा, गौरवसौरभ का बड़ा भाई समझ कर ही स्नेह दिया है.’

इतना कहते हुए उन की आंखों में छलक आई दो बूंदों को मैं ने देख लिया था, जिसे वह जल्दी से छिपा गई थीं. मैं जानता था कि उन के महल्ले में श्रीमती चौधरी और प्रभात को ले कर तरहतरह की बातें कही जाती थीं. कोई कहता कि उन का रिश्ता चाचीभतीजे से बढ़ कर है, कोई कहता, प्रभात उन का पे्रमी है. जितने मुंह उतनी बातें होती थीं.

लोग मुझ से भी पूछते थे, ‘तुम से श्रीमती चौधरी कैसा व्यवहार करती हैं?’ मैं झुंझला जाता था. कभी तो इतना गुस्सा आता था कि जी करता एकएक को पीट डालूं. पर कभीकभी मैं खुद इन्हीं बातों को सोचने के लिए मजबूर हो जाता था.

श्रीमती चौधरी, प्रभात को बहुत महत्त्व देती थीं. हर एक बात पर उस की राय लेती थीं, कभीकभी तो चौधरी साहब की बात को भी काट कर वह प्रभात की ही बात मानती थीं.

कभीकभी मैं सोचने लगता कि यह कैसा रिश्ता है उन दोनों का? पर फिर मुझे लगता कि अगर अलका चौधरी 30 साल की न हो कर 50 साल की होतीं और प्रभात से ऐसा ही बरताव करतीं तो शायद सब उन्हें ममतामयी मां कहते. पर आज वह किसी और ही संबोधन से जानी जाती थीं.

आज मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गए थे. मैं ने अलकाजी से कहा, ‘मैं आज तक आप को सिर्फ पसंद करता था, पर अब मैं आप का आदर भी करने लगा हूं. जो आप ने किया वह करना सच में सब के बस की बात नहीं है.’

उस दिन मैं ने एक नई अलका को जाना था, जो अकारण ही मुझे बहुत अच्छी लगने लगी थीं. मैं उन के आकर्षण में खोने लगा था, जिसे मैं चाह कर भी रोक नहीं पा रहा था. मैं जानता था कि वह शादीशुदा हैं और 2 बच्चों की मां हैं, पर इस से मेरी भावनाओं के आवेगों में कोई कमी नहीं आ रही थी. वह मुझ से उम्र में 4-5 साल बड़ी थीं फिर भी मैं अपनेआप को उन के बहुत करीब पाता था.

वह भी मेरा बहुत खयाल रखती थीं. कभीकभी तो मुझे लगता था कि वह भी मुझे पसंद करती हैं. फिर अपनी ही सोच पर मुझे हंसी आ जाती और मैं इस विचार को अपने मन से परे धकेल देता.

वक्त अपनी गति से बीत रहा था. शरद ऋतु के बाद अचानक ही कड़ाके की ठंड पड़ने लगी थी. मैं बैठा बच्चों को पढ़ा रहा था. उस दिन चौधरीजी भी घर पर ही थे. अलकाजी मुझे नाश्ता देने आईं तो मैं ने पाया कि उन के बालों से पानी टपक रहा था, वह शायद नहा कर आई थीं. भरी ठंड में शाम ढले उन का नहाना मुझे विचलित कर गया. मैं कुछ सोचता उस से पहले ही मेरे कानों में चौधरीजी की आवाज पड़ी, ‘इतनी ठंड में नहाई क्यों?’

अलकाजी ने जवाब दिया, ‘जो आग बुझा नहीं सकते उसे भड़काते ही क्यों हैं? इस जलन को पानी से न बुझाऊं तो क्या करूं?’

चौधरीजी ने क्या जवाब दिया मैं सुन नहीं पाया, शायद उन्होंने टेलीविजन चला दिया था. अगले दिन जब मैं उन के घर पहुंचा तो गौरवसौरभ पड़ोस के घर खेलने गए हुए थे. वह मुझ से बोलीं, ‘तुम बैठो, मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’

वह जाने को मुड़ीं तो मैं ने उन का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘आप बैठो जरा.’

फिर मैं ने उन्हें बिठा कर पानी का गिलास थमाया, जिसे वह एक ही सांस में पी गईं. मैं ने उन से पूछा, ‘आप ठीक तो हैं, अलकाजी? आप की आंखें इतनी लाल क्यों हैं? और यह आप के चेहरे पर चोट का निशान कैसा है?’

मेरी बात सुनते ही वह फफक कर रो पड़ीं. मैं इस के लिए तैयार नहीं था. समझ नहीं पाया कि क्या करूं, उन्हें रोने दूं या चुप कराऊं? फिर कुछ पल रो लेने के बाद उन की आंखों से बरसाती बादल खुद ही तितरबितर हो गए. वह कुछ संयत हो कर बोलीं, ‘परेशान कर दिया न तुम्हें?’

‘कैसी बातें कर रही हैं?’ मैं ने कहा, ‘आप बताएं, आप परेशान क्यों हैं?’ वह बुझे स्वर में बोलीं, ‘तुम नहीं समझ पाओगे, अनुपम?’ मैं ने थोड़ा रुक कर कहा, ‘अलकाजी मैं ने कल आप की और चौधरीजी की सारी बातें सुन ली थीं.’

अलकाजी ने मुझे चौंक कर ऐसे देखा मानो मैं ने उन्हें चोरी करते रंगेहाथों पकड़ लिया हो. वह एक बार फिर सिसक उठीं.

मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘अलकाजी, परेशान या दुखी होने की जरूरत नहीं. आप मुझ पर भरोसा कर सकती हैं. अगर चाहें तो मुझ से बात कर सकती हैं, इस से आप का मन हलका हो जाएगा. पर आप ने बताया नहीं, यह चोट…क्या आप को किसी ने मारा है?’

अलकाजी ने व्यंग्य से होंठ टेढ़े करते हुए कहा, ‘चौधरी साहब को लगता है कि पड़ोस में रहने वाले श्रीवास्तवजी से मेरा कुछ…’

उन की बात सुन मैं ने सिहर कर पूछा, ‘वह ऐसा कैसे सोच सकते हैं?’

‘वह कुछ भी सोच सकते हैं अनुपम. किसी 56 साल के पुरुष की पत्नी अगर जवान हो तो वह उस के बारे में कुछ भी सोच सकता है.’ श्रीवास्तवजी तो फिर भी ठीक हैं, वह तो दूध वाले तक के लिए मुझ पर शक करते हैं.’

अलकाजी की बातें सुन कर मैं चौधरीजी के प्रति घृणा से भर उठा, ‘आप उन्हें समझाती क्यों नहीं?’ वह झुंझला कर बोलीं, ‘क्या समझाऊं और कब तक समझाऊं? हमारी शादी को 9 साल हो गए हैं. 2 बच्चे हैं हमारे, फिर भी वह मुझ पर शक करते हैं. मैं ही क्यों बारबार अपनी पवित्रता का सुबूत दूं, क्यों मैं ही अग्निपरीक्षा से गुजरूं? क्या मेरा कोई आत्मसम्मान नहीं है?’

उन की बातों ने मुझे झकझोर डाला था. मैं अब तक यही समझता था कि वह एक सुखी गृहस्थी की मालकिन हैं पर आज जब मैं ने उन की हंसती हुई दुनिया का रोता हुआ सच देखा तो जाना कि वह कितनी अकेली और परेशान हैं.

देखतेदेखते एक साल बीत गया. गौरवसौरभ की परीक्षाएं हो चुकी थीं और अब उन्हें मेरी जरूरत न थी. फिर भी मैं किसी न किसी बहाने अलकाजी से मिलने चला ही जाता था. जब कभी प्रभात से मुलाकात होती तो वह कहता, ‘आप को चाचीजी पूछ रही थीं.’

बस, इतनी सी बात का सूत्र पकड़ कर मैं उन के घर पहुंच जाता. पर मन में कहीं एक डर भी था कि कहीं मेरा अधिक आनाजाना अलकाजी के लिए किसी परेशानी का कारण न बन जाए.

फिर एक दिन मुझे प्रभात मिला. उस ने मुझे बताया कि हम सब यह शहर छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इलाहाबाद जा रहे हैं. मैं चौंक पड़ा, यह खबर मेरे लिए बहुत ही अप्रत्याशित और तकलीफदेह थी.

अतीत की पगडंडियों पर चलतेचलते मैं अलकाजी के दरवाजे तक पहुंच चुका था. हिम्मत कर मैं ने दरवाजा खट- खटाया, दरवाजा अलकाजी ने ही खोला. मुझे देख कर उन की आंखों में एक अनोखी सी खुशी तैर गई थी जिसे छिपाती हुई वह बोलीं, ‘‘अनुपम, आओआओ? मिल गई फुरसत आने की?’’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह शिकायत किसलिए? शिकायत तो मुझे करनी चाहिए थी कि आप जा रही हैं मुझे छोड़ कर…मेरा मतलब हमारा शहर छोड़ कर?’’ अंदर घुसते ही मैं ने देखा, बैठक का सारा सामान खाली हो चुका था, सिर्फ दीवान पड़ा था. मैं ने बैठते हुए कहा, ‘सामान से खाली घर कैसा लगता है न?’

ठीक वैसा ही जैसा भावनाओं और संवेदनाओं से खाली मन लगता है,’’ अलकाजी ने अर्थ भरे नयनों से देखते हुए कहा. बात की गंभीरता को कम करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘सब लोग कहां हैं?’’

‘‘प्रभात, बच्चों को ले कर आज ही गया है. थोड़ी पैकिंग बाकी है, जिसे पूरा कर के मैं और चौधरीजी भी कल निकल जाएंगे,’’ अलकाजी ने बताया. फिर कुछ रुक कर अपने पैर के अंगूठे से फर्श कुरेदती हुई बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ अनुपम, जो तुम आज आ गए. बहुत इच्छा थी आखिरी बार तुम से मिलने की.’’

मैं ने उत्सुक हो कर पूछा, ‘‘क्यों, कोई खास काम था क्या मुझ से?’’

‘‘काम…काम तो कुछ नहीं था, पर कुछ है जो तुम्हें बताना शेष रह गया था. न बताऊंगी तो जीवन भर मन ही मन उन्हीं बातों से घुटती रहूंगी.

‘‘तुम जानना चाहते हो कि मैं यहां से क्यों जा रही हूं? डरती हूं कि जिस आग को अब तक अपने मन में दबा कर रखा था वह मुझे ही न जला डाले. अनुपम, मैं यह तो जानती हूं कि तुम मुझ से प्यार करते हो पर शायद तुम नहीं जानते कि मैं भी तुम से प्यार करने लगी हूं.’’

उन की यह बात सुन कर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा था. अपने प्यार की स्वीकृति मिलते ही मेरा मन अचानक उन्हें अपनी बांहों में लेने को मचल उठा. मैं ने तरल निगाहों से उन की ओर देखा, अलका के होंठ खामोश थे पर उन में उठता कंपन बता रहा था कि वे प्रतीक्षित हैं.

मैं अपनी जगह से उठ कर उन की ओर बढ़ा ही था कि उन्होंने कहा, ‘‘अब तक तो चौधरीजी को शक ही था पर डरती हूं कि मेरे मन में फूट आई तुम्हारे प्यार की कोंपल, उन का शक यकीन में न बदल दे, इसीलिए यहां से पलायन कर रही हूं क्योंकि यहां रहते हुए मैं खुद को तुम से मिलने से रोक नहीं पाऊंगी. और अगर ऐसा हुआ तो मेरी अब तक की सारी तपस्या और आत्मसम्मान मिट्टी में मिल जाएगा. तुम्हें यह सब बताना जरूरी भी था क्योंकि इस अनकहे प्यार का अंतर्दाह अब मुझ से और सहन नहीं हो रहा था.’’

इतना कह कर वह चुप हो मेरी ओर देखने लगीं. उन की बातें सुन कर मैं उन के पास गया और उन का चेहरा अपने हाथों में ले कर माथा चूम कर बोला, ‘‘आप का आत्मसम्मान और प्यार दोनों ही मेरे लिए सहेजने और पूजा करने के योग्य हैं. आप से दूर होना मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है, पर शायद यही सही है. यह अंतर्दाह हमारी नियति है.’’

Situationship: दिल देने का नया ट्रैंड

Situationship: ‘कसमें वादे प्यार वफा सब बाते हैं बातों का क्या,,,’ फिल्म ‘उपकार’ का यह गीत ही सिचुएशनशिप रिलेशन है. इस प्यार को क्या नाम दूं, यह कहने और सोचने की जरूरत को ख़त्म करती है सिचुएशनशिप रिलेशन. इस में दो लोग एकदूसरे की जरूरत को पूरा करने के लिए साथ में रहते हैं. इस में दोनों एकदूसरे के साथ घूमने जा सकते हैं, लंच या डिनर कर सकते हैं. लेकिन इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया जाता है.

यहां आप बिना शर्त एकदूसरे के साथ हैं वह भी तब तक, जब तक आप का मन चाहे और जब मन भर जाए तो दूसरे पार्टनर के प्रति आप की कोई जवाबदेही नहीं होती. वे इस रिश्ते के बारे में न तो किसी को बताना चाहते और न ही इस को कोई नाम देना चाहते हैं. आइए जानें कैसा होता है यह सिचुएशनशिप रिलेशन.

एक समय ऐसा था जब लोग प्यार के लिए बगावत तो क्या, मरनेमारने पर आ जाते थे और उस के लिए अपना घरबार सब छोड़ देते थे जैसे कि ‘मैं ने प्यार किया’, ‘बागी’, ‘कयामत से कयामत तक’ जैसी कई फिल्मों में दिखाया गया है. वास्तव में ये फिल्में सही माने में समाज का आईना थीं. तभी तो हीररांझा और शीरींफरहाद जैसी जोड़ियां प्रचलित हुईं.

लेकिन अब प्यार ‘यों ही नहीं हो जाता’ बल्कि सोचसमझ कर, जांचपरख कर होता/किया जाता है. आज के युवा जोड़े एकदूसरे को कोई भी कमिटमैंट करने से पहले सौ बार सोचते हैं और कुछ समय रिलेशनशिप में साथ रह कर एकदूसरे को जज करते हैं. अगर बाद में सबकुछ सही लगा तो ठीक वरना रास्ता बदलने में देर नहीं लगाते. लेकिन बाद में रास्ता बदलने पर ब्रेकअप आदि को झेलने का दम भी उन में नहीं है, इसलिए एक बीच का रास्ता निकला है जहां न ब्रेकअप हो और न ही कमिटमैंट लेकिन साथ हो. इसे ही अब हमारी नई पौध सिचुएशनशिप रिलेशन कह रही है.

यानी, रिश्ता तो है लेकिन अपने नाम के अनुरूप ही यह 2 शब्दों ‘सिचुएशनशिप’ और ‘रिलेशन’ से मिल कर बना है. यह रिश्ता सिचुएशन पर डिपैंड करता है. मतलब, यहां रिश्ता चलाने का कोई प्रैशर एकदूसरे पर नहीं होता क्योंकि दोनों का ही कोई कमिटमैंट एकदूसरे के साथ नहीं होता. इस रिश्ते में लोग रोमांस और शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए एकसाथ आते हैं.

कुछ लोग तो केवल टाइमपास के लिए भी इस रिश्ते में आ जाते हैं. इस में अलग होना बहुत आसान है. बिना किसी एक्सप्लेनेशन के आप अपने पार्टनर को छोड़ सकते हैं वह भी बिना किसी सवालजवाब के.

युवाओं को क्यों पसंद आ रहा है सिचुएशनशिप रिलेशन

इस बारे में प्रियांशु, जो कि अभी ग्रेजुएशन कर रहे हैं, का कहना है कि दरअसल, कई बार कुछ लोग अपने पुराने रिलेशनशिप में मिले धोखे या असफलता की वजह से भी इस तरह की रिलेशनशिप को पसंद करने लगते हैं.

दूसरे, ब्रेकअप के दर्द से एक बार गुजरने के बाद वह दोबारा उन परिस्थितियों में नहीं पड़ना चाहते जहां दिल टूटने जैसा कौन्सैप्ट हो. वहीं, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी लाइफ के गोल्स से भटके बिना रिलेशनशिप के फायदों को एंजौय करने के लिए इस में आ जाते हैं.

सिचुएशनशिप के फायदे

इस तरह के रिश्तों में इंटिमेसी का लैवल, एकसाथ बिताया गया समय आदि सभी अलगअलग लोगों के लिए अलगअलग होता है. इस में दो लोग केवल एकदूसरे के साथ लव रिलेशनशिप के फायदों को शेयर करने के लिए साथ होते हैं. यहां एकदूसरे के साथ कोई भी प्यारभरा वादा नहीं किया जाता.

इस रिश्ते में दोनों पार्टनरों के बीच फ्यूचर को ले कर भी कोई बात नहीं होती है. इस रिश्ते में दोनों लोग बिना किसी शर्त के एकसाथ रहते हैं और अच्छा समय बिताते हैं. सिचुएशनशिप रिलेशन में आ कर कई बार युवाओं को खुद के बारे में जाननेसमझने का मौका मिलता है. कई बार आप को अपनी प्रायोरिटीज के बारे में भी रिलेशनशिप में आने के बाद पता लगता है.

कैसे पता करें कि आप का रिलेशन सिचुएशनशिप है

इस रिलेशनशिप में पार्टनर पब्लिकप्लेस में मिलने से बचते हैं और एकदूसरे के घर पर जाना और रिलेटिव से मिलना भी अवौयड करते हैं. सोशल गैदरिंग में जाते ही अगर पार्टनर अनजान बन जाता है तो यह भी सिचुएशनशिप का ही एक लक्षण है. पार्टनर वैसे तो बहुत क्लोज है लेकिन बहुत ज्यादा इमोशनल अटैचमैंट और किसी तरह के कमिटमैंट से बच रहा है, तो यहां मामला क्लियर है कि आप सिचुएशनशिप में हैं. अगर दोनों रिश्ते को औफिशियली ऐक्सेप्ट करने से बचते हैं तो यह सिचुएशनशिप है.

सिचुएशनशिप के नुकसान

 यहां पता तो है कि कोई कमिटमैंट नहीं है लेकिन फिर भी जब मनमुताबिक चीजें नहीं होतीं तो मन में खीझ उठना स्वाभाविक है. यदि एक व्यक्ति ज्यादा इमोशनल है तो सिचुएशनशिप उस के लिए भावनात्मक उतारचढ़ाव और असुरक्षा का कारण बन सकती है.

सिचुएशनशिप के कारण कई अच्छे पार्टनर आप के हाथ से निकल सकते हैं. आप रिलेशन में हैं, इसलिए दूसरे औप्शन पर भी ध्यान नहीं देते और सारी उम्र साथ निभाने वाले अच्छे पार्टनर से कई बार हाथ धो बैठते हैं.

ध्यान से परखें क्योंकि सिचुएशनशिप कोई एक्सक्लूसिव रिश्ता नहीं है

सिचुएशनशिप में अगर दोनों में से एक भी रिश्ते के प्रति सीरियस हो जाता है तो उसे इमोशनल कंफ्यूजन का शिकार होना पड़ता है. क्योंकि दोनों में से किसी को भी यह नहीं पता होता है कि वे रिश्ते के किस मोड़ पर खड़े हैं. इस तरह की इमोशनल टैंशन उन्हें मानसिक रूप से तनाव दे सकती है. साथ ही, सिचुएशनशिप में बहुत समय और ऊर्जा बरबाद हो सकती है. लोग अपने संबंध को समझने और उसे सही दिशा देने की कोशिश में बहुत सारा समय खर्च कर सकते हैं लेकिन अगर अंत में वह संबंध किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता, तो यह समय और ऊर्जा की बरबादी साबित हो सकती है.

सिचुएशनशिप में भविष्य की कोई गारंटी नहीं होती. लोग एकदूसरे के साथ समय बिताते हैं लेकिन वे यह नहीं जानते कि उन का संबंध आगे चल कर किसी ठोस आधार पर टिकेगा या नहीं. इसलिए इस तरह के रिश्ते में भी सोचसमझ कर आगे बढ़ना ही समझदारी है.

वैसे भी, रिश्ता कोई भी हो, समर्पण मांगता ही है. ऐसे में एकदूसरे के साथ सच्चे बने रहना जरूरी होता है. सिचुएशनशिप भी ऐसा ही रिश्ता है जो एकदूसरे से सच्चाई की अपेक्षा पूरी होने के साथ अच्छे से चल सकता है. इसलिए रिश्ता चाहे जो भी हो उस में आने से पहले कई बार सोचें कि क्या वाकई आप को उस रिलेशन की जरूरत है या फिर ऐसे ही दूसरों की देखादेखी इस में शामिल हो रहे हैं. एक बार खुद से यह सवाल करिएगा जरूर?

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