Famous Hindi Stories : पापा जल्दी आ जाना

 Famous Hindi Stories : ‘‘पापा, कब तक आओगे?’’ मेरी 6 साल की बेटी निकिता ने बड़े भरे मन से अपने पापा से लिपटते हुए पूछा.

‘‘जल्दी आ जाऊंगा बेटा…बहुत जल्दी. मेरी अच्छी गुडि़या, तुम मम्मी को तंग बिलकुल नहीं करना,’’ संदीप ने निकिता को बांहों में भर कर उस के चेहरे पर घिर आई लटों को पीछे धकेलते हुए कहा, ‘‘अच्छा, क्या लाऊं तुम्हारे लिए? बार्बी स्टेफी, शैली, लाफिंग क्राइंग…कौन सी गुडि़या,’’ कहतेकहते उन्होंने निकिता को गोद में उठाया.

संदीप की फ्लाइट का समय हो रहा था और नीचे टैक्सी उन का इंतजार कर रही थी. निकिता उन की गोद से उतर कर बड़े बेमन से पास खड़ी हो गई, ‘‘पापा, स्टेफी ले आना,’’ निकिता ने रुंधे स्वर में धीरे से कहा.

उस की ऐसी हालत देख कर मैं भी भावुक हो गई. मुझे रोना उस के पापा से बिछुड़ने का नहीं, बल्कि अपना बीता बचपन और अपने पापा के साथ बिताए चंद लम्हों के लिए आ रहा था. मैं भी अपने पापा से बिछुड़ते हुए ऐसा ही कहा करती थी.

संदीप ने अपना सूटकेस उठाया और चले गए. टैक्सी पर बैठते ही संदीप ने हाथ उठा कर निकिता को बाय किया. वह अचानक बिफर पड़ी और धीरे से बोली, ‘‘स्टेफी न भी मिले तो कोई बात नहीं पर पापा, आप जल्दी आ जाना,’’ न जाने अपने मन पर कितने पत्थर रख कर उस ने याचना की होगी. मैं उस पल को सोचते हुए रो पड़ी. उस का यह एकएक क्षण और बोल मेरे बचपन से कितना मेल खाते थे.

मैं भी अपने पापा को बहुत प्यार करती थी. वह जब भी मुझ से कुछ दिनों के लिए बिछुड़ते, मैं घायल हिरनी की तरह इधरउधर सारे घर में चक्कर लगाती. मम्मी मेरी भावनाओं को समझ कर भी नहीं समझना चाहती थीं. पापा के बिना सबकुछ थम सा जाता था.

बरामदे से कमरे में आते ही निकिता जोरजोर से रोने लगी और पापा के साथ जाने की जिद करने लगी. मैं भी अपनी मां की तरह जोर का तमाचा मार कर निकिता को चुप करा सकती थी क्योंकि मैं बचपन में जब भी ऐसी जिद करती तो मम्मी जोर से तमाचा मार कर कहतीं, ‘मैं मर गई हूं क्या, जो पापा के साथ जाने की रट लगाए बैठी हो. पापा नहीं होंगे तो क्या कोई काम नहीं होगा, खाना नहीं मिलेगा.’

किंतु मैं जानती थी कि पापा के बिना जीने का क्या महत्त्व होता है. इसलिए मैं ने कस कर अपनी बेटी को अंक में भींच लिया और उस के साथ बेडरूम में आ गई. रोतेरोते वह तो सो गई पर मेरा रोना जैसे गले में ही अटक कर रह गया. मैं किस के सामने रोऊं, मुझे अब कौन बहलानेफुसलाने वाला है.

मेरे बचपन का सूर्यास्त तो सूर्योदय से पहले ही हो चुका था. उस को थपकियां देतेदेते मैं भी उस के साथ बिस्तर में लेट गई. मैं अपनी यादों से बचना चाहती थी. आज फिर पापा की धुंधली यादों के तार मेरे अतीत की स्मृतियों से जुड़ गए.

पिछले 15 वर्षों से ऐसा कोई दिन नहीं गया था जिस दिन मैं ने पापा को याद न किया हो. वह मेरे वजूद के निर्माता भी थे और मेरी यादों का सहारा भी. उन की गोद में पलीबढ़ी, प्यार में नहाई, उन की ठंडीमीठी छांव के नीचे खुद को कितना सुरक्षित महसूस करती थी. मुझ से आज कोई जीवन की तमाम सुखसुविधाओं में अपनी इच्छा से कोई एक वस्तु चुनने का अवसर दे तो मैं अपने पापा को ही चुनूं. न जाने किन हालात में होंगे बेचारे, पता नहीं, हैं भी या…

7 वर्ष पहले अपनी विदाई पर पापा की कितनी कमी महसूस हो रही थी, यह मुझे ही पता है. लोग समझते थे कि मैं मम्मी से बिछुड़ने के गम में रो रही हूं पर अपने उन आंसुओं का रहस्य किस को बताती जो केवल पापा की याद में ही थे. मम्मी के सामने तो पापा के बारे में कुछ भी बोलने पर पाबंदियां थीं. मेरी उदासी का कारण किसी की समझ में नहीं आ सकता था. काश, कहीं से पापा आ जाएं और मुझे कस कर गले लगा लें. किंतु ऐसा केवल फिल्मों में होता है, वास्तविक दुनिया में नहीं.

उन का भोला, मायूस और बेबस चेहरा आज भी मेरे दिमाग में जैसा का तैसा समाया हुआ था. जब मैं ने उन्हें आखिरी बार कोर्ट में देखा था. मैं पापापापा चिल्लाती रह गई मगर मेरी पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मुझ से किसी ने पूछा तक नहीं कि मैं क्या चाहती हूं? किस के पास रहना चाहती हूं? शायद मुझे यह अधिकार ही नहीं था कि अपनी बात कह सकूं.

मम्मी मुझे जबरदस्ती वहां से कार में बिठा कर ले गईं. मैं पिछले शीशे से पापा को देखती रही, वह एकदम अकेले पार्किंग के पास नीम के पेड़ का सहारा लिए मुझे बेबसी से देखते रहे थे. उन की आंखों में लाचारी के आंसू थे.

मेरे दिल का वह कोना आज भी खाली पड़ा है जहां कभी पापा की तसवीर टंगा करती थी. न जाने क्यों मैं पथराई आंखों से आज भी उन से मिलने की अधूरी सी उम्मीद लगाए बैठी हूं. पापा से बिछुड़ते ही निकिता के दिल पर पड़े घाव फिर से ताजा हो गए.

जब से मैं ने होश संभाला, पापा को उदास और मायूस ही पाया था. जब भी वह आफिस से आते मैं सारे काम छोड़ कर उन से लिपट जाती. वह मुझे गोदी में उठा कर घुमाने ले जाते. वह अपना दुख छिपाने के लिए मुझ से बात करते, जिसे मैं कभी समझ ही न सकी. उन के साथ मुझे एक सुखद अनुभूति का एहसास होता था तथा मेरी मुसकराहट से उन की आंखों की चमक दोगुनी हो जाती. जब तक मैं उन के दिल का दर्द समझती, बहुत देर हो चुकी थी.

मम्मी स्वभाव से ही गरम एवं तीखी थीं. दोनों की बातें होतीं तो मम्मी का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज हो जाता और पापा का धीमा होतेहोते शांत हो जाता. फिर दोनों अलगअलग कमरों में चले जाते. सुबह तैयार हो कर मैं पापा के साथ बस स्टाप तक जाना चाहती थी पर मम्मी मुझे घसीटते हुए ले जातीं. मैं पापा को याचना भरी नजरों से देखती तो वह धीमे से हाथ हिला पाते, जबरन ओढ़ी हुई मुसकान के साथ.

मैं जब भी स्कूल से आती मम्मी अपनी सहेलियों के साथ ताश और किटी पार्टी में व्यस्त होतीं और कभी व्यस्त न होतीं तो टेलीफोन पर बात करने में लगी रहतीं. एक बार मैं होमवर्क करते हुए कुछ पूछने के लिए मम्मी के कमरे में चली गई थी तो मुझे देखते ही वह बरस पड़ीं और दरवाजे पर दस्तक दे कर आने की हिदायत दे डाली. अपने ही घर में मैं पराई हो कर रह गई थी.

एक दिन स्कूल से आई तो देखा मम्मी किसी अंकल से ड्राइंगरूम में बैठी हंसहंस कर बातें कर रही थीं. मेरे आते ही वे दोनों खामोश हो गए. मुझे बहुत अटपटा सा लगा. मैं अपने कमरे में जाने लगी तो मम्मी ने जोर से कहा, ‘निकी, कहां जा रही हो. हैलो कहो अंकल को. चाचाजी हैं तुम्हारे.’

मैं ने धीरे से हैलो कहा और अपने कमरे में चली गई. मैं ने उन को इस से पहले कभी नहीं देखा था. थोड़ी देर में मम्मी ने मुझे बुलाया.

‘निकी, जल्दी से फे्रश हो कर आओ. अंकल खाने पर इंतजार कर रहे हैं.’

मैं टेबल पर आ गई. मुझे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘निकी, कपड़े कौन बदलेगा?’

‘ममा, आया किचन से नहीं आई फिर मुझे पता नहीं कौन से…’

‘तुम कपड़े खुद नहीं बदल सकतीं क्या. अब तुम बड़ी हो गई हो. अपना काम खुद करना सीखो,’ मेरी समझ में नहीं आया कि एक दिन में मैं बड़ी कैसे हो गई हूं.

‘चलो, अब खाना खा लो.’

मम्मी अंकल की प्लेट में जबरदस्ती खाना डाल कर खाने का आग्रह करतीं और मुसकरा कर बातें भी कर रही थीं. मैं उन दोनों को भेद भरी नजरों से देखती रही तो मम्मी ने मेरी तरफ कठोर निगाहों से देखा. मैं समझ चुकी थी कि मुझे अपना खाना खुद ही परोसना पड़ेगा. मैं ने अपनी प्लेट में खाना डाला और अपने कमरे में जाने लगी. हमारे घर पर जब भी कोई आता था मुझे अपने कमरे में भेज दिया जाता था. मैं टीवी देखतेदेखते खाना खाती रहती थी.

‘वहां नहीं बेटा, अंकल वहां आराम करेंगे.’

‘मम्मी, प्लीज. बस एक कार्टून…’ मैं ने याचना भरी नजर से उन्हें देखा.

‘कहा न, नहीं,’ मम्मी ने डांटते हुए कहा, जो मुझे अच्छा नहीं लगा.

खाने के बाद अंकल उस कमरे में चले गए तथा मैं और मम्मी दूसरे कमरे में. जब मैं सो कर उठी, मम्मी अंकल के पास चाय ले जा रही थीं. अंकल का इस तरह पापा के कमरे में सोना मुझे अच्छा नहीं लगा. जाने से पहले अंकल ने मुझे ढेर सारी मेरी मनपसंद चाकलेट दीं. मेरी पसंद की चाकलेट का अंकल को कैसे पता चला, यह एक भेद था.

वक्त बीतता गया. अंकल का हमारे घर आनाजाना अनवरत जारी रहा. जिस दिन भी अंकल हमारे घर आते मम्मी उन के ज्यादा करीब हो जातीं और मुझ से दूर. मैं अब तक इस बात को जान चुकी थी कि मम्मी और अंकल को मेरा उन के आसपास रहना अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन पापा आफिस से जल्दी आ गए. मैं टीवी पर कार्टून देख रही थी. पापा को आफिस के काम से टूर पर जाना था. वह दवा बनाने वाली कंपनी में सेल्स मैनेजर थे. आते ही उन्होंने पूछा, ‘मम्मी कहां हैं.’

‘बाहर गई हैं, अंकल के साथ… थोड़ी देर में आ जाएंगी.’

‘कौन अंकल, तुम्हारे मामाजी?’ उत्सुकतावश उन्होंने पूछा.

‘मामाजी नहीं, चाचाजी…’

‘चाचाजी? राहुल आया है क्या?’ पापा ने बाथरूम में फे्रश होते हुए पूछा.

‘नहीं. राहुल चाचाजी नहीं कोई और अंकल हैं…मैं नाम नहीं जानती पर कभी- कभी आते रहते हैं,’ मैं ने भोलेपन से कहा.

‘अच्छा,’ कह कर पापा चुप हो गए और अपने कमरे में जा कर तैयारी करने लगे. मैं पापा के पास पानी ले कर आ गई. जिस दिन पापा मेरे सामने जाते मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं उन के आसपास घूमती रहती थी.

‘पापा, कहां जा रहे हो,’ मैं उदास हो गई, ‘कब तक आओगे?’

‘कोलकाता जा रहा हूं मेरी गुडि़या. लगभग 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘मेरे लिए क्या लाओगे?’ मैं ने पापा के गले में पीछे से बांहें डालते हुए पूछा.

‘क्या चाहिए मेरी निकी को?’ पापा ने पैकिंग छोड़ कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा. मैं क्या कहती. फिर उदास हो कर कहा, ‘आप जल्दी आ जाना पापा… रोज फोन करना.’

‘हां, बेटा. मैं रोज फोन करूंगा, तुम उदास नहीं होना,’ कहतेकहते मुझे गोदी में उठा कर वह ड्राइंगरूम में आ गए.

तब तक मम्मी भी आ चुकी थीं. आते ही उन्होंने पूछा, ‘कब आए?’

‘तुम कहां गई थीं?’ पापा ने सीधे सवाल पूछा.

‘क्यों, तुम से पूछे बिना कहीं नहीं जा सकती क्या?’ मम्मी ने तल्ख लहजे में कहा.

‘तुम्हारे साथ और कौन था? निकिता बता रही थी कि कोई चाचाजी आए हैं?’

‘हां, मनोज आया था,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई बोलीं, ‘तुम जाओ यहां से,’ कह कर मेरी बांह पकड़ कर कमरे से निकाल दिया जैसे चाचाजी के बारे में बता कर मैं ने उन का कोई भेद खोल दिया हो.

‘कौन मनोज, मैं तो इस को नहीं जानता.’

‘तुम जानोगे भी तो कैसे. घर पर रहो तो तुम्हें पता चले.’

‘कमाल है,’ पापा तुनक कर बोले, ‘मैं ही अपने भाई को नहीं पहचानूंगा…यह मनोज पहले भी यहां आता था क्या? तुम ने तो कभी बताया नहीं.’

‘तुम मेरे सभी दोस्तों और घर वालों को जानते हो क्या?’

‘तुम्हारे घर वाले गुडि़या के चाचाजी कैसे हो गए. शायद चाचाजी कहने से तुम्हारे संबंधों पर आंच नहीं आएगी. निकिता अब बड़ी हो रही है, लोग पूछेंगे तो बात दबी रहेगी…क्यों?’

और तब तक उन के बेडरूम का दरवाजा बंद हो गया. उस दिन अंदर क्याक्या बातें होती रहीं, यह तो पता नहीं पर पापा कोलकाता नहीं गए.

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

घड़ी ने रात के 2 बजाए. मुझे लगा अब मुझे सो जाना चाहिए. मगर आंखों में नींद कहां. मैं ने अलमारी से पापा की तसवीर निकाली जिस में मैं मम्मीपापा के बीच शिमला के एक पार्क में बैठी थी. मेरे पास पापा की यही एक तसवीर थी. मैं ने उन के चेहरे पर अपनी कांपती उंगलियों को फेरा और फफक कर रो पड़ी, ‘पापा तुम कहां हो…जहां भी हो मेरे पास आ जाओ…देखो, तुम्हारी निकी तुम्हें कितना याद करती है.’

एक दिन सुबह संदीप अखबार पढ़तेपढ़ते कहने लगे, ‘जानती हो आज क्या है?’

‘मैं क्या जानूं…अखबार तो आप पढ़ते हैं,’ मैं ने कहा.

‘आज फादर्स डे है. पापा के लिए कोई अच्छा सा कार्ड खरीद लाना. कल भेज दूंगा.’

‘आप खुशनसीब हैं, जिस के सिर पर मांबाप दोनों का साया है,’ कहतेकहते मैं अपने पापा की यादों में खो गई और मायूस हो गई, ‘पता नहीं मेरे पापा जिंदा हैं भी या नहीं.’

‘हे, ऐसे उदास नहीं होते,’ कहतेकहते संदीप मेरे पास आ गए और मुझे अंक में भर कर बोले, ‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने उन्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. अखबारों में भी उन का विवरण छपवा दिया पर अब तक कुछ पता नहीं चला.’

मैं रोने लगी तो मेरे आंसू पोंछते हुए संदीप बोले थे, ‘‘अरे, एक बात तो मैं तुम को बताना भूल ही गया. जानती हो आज शाम को टेलीविजन पर एक नया प्रोग्राम शुरू हो रहा है ‘अपनों की तलाश में,’ जिसे एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेता होस्ट करेगा. मैं ने पापा का सारा विवरण और कुछ फोटो वहां भेज दिए हैं. देखो, शायद कुछ पता चल सके.’?

‘अब उन्हें ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है…इतने सालों में हमारी फोटो और उन के चेहरे में बहुत अंतर आ गया होगा. मैं जानती हूं. मुझ पर जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती,’ कह कर मैं वहां से चली गई.

मेरी आशाओं के विपरीत 2 दिन बाद ही मेरे मोबाइल पर फोन आया. फोन धर्मशाला के नजदीक तपोवन के एक आश्रम से था. कहने लगे कि हमारे बताए हुए विवरण से मिलताजुलता एक व्यक्ति उन के आश्रम में रहता है. यदि आप मिलना चाहते हैं तो जल्दी आ जाइए. अगर उन्हें पता चल गया कि कोई उन से मिलने आ रहा है तो फौरन ही वहां से चले जाएंगे. न जाने क्यों असुरक्षा की भावना उन के मन में घर कर गई है. मैं यहां का मैनेजर हूं. सोचा तुम्हें सूचित कर दूं, बेटी.

‘अंकल, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. बहुत एहसान किया मुझ पर आप ने फोन कर के.’

मैं ने उसी समय संदीप को फोन किया और सारी बात बताई. वह कहने लगे कि शाम को आ कर उन से बात करूंगा फिर वहां जाने का कार्यक्रम बनाएंगे.

‘नहीं संदीप, प्लीज मेरा दिल बैठा जा रहा है. क्या हम अभी नहीं चल सकते? मैं शाम तक इंतजार नहीं कर पाऊंगी.’

संदीप फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘ठीक है, आता हूं. तब तक तुम तैयार रहना.’

कुछ ही देर में हम लोग धर्मशाला के लिए प्रस्थान कर गए. पूरे 6 घंटे का सफर था. गाड़ी मेरे मन की गति के हिसाब से बहुत धीरे चल रही थी. मैं रोती रही और मन ही मन प्रार्थना करती रही कि वही मेरे पापा हों. देर तो बहुत हो गई थी.

हम जब वहां पहुंचे तो एक हालनुमा कमरे में प्रार्थना और भजन चल रहे थे. मैं पीछे जा कर बैठ गई. मैं ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं और उस व्यक्ति को तलाश करने लगी जो मेरे वजूद का निर्माता था, जिस का मैं अंश थी. जिस के कोमल स्पर्श और उदास आंखों की सदा मुझे तलाश रहती थी और जिस को हमेशा मैं ने घुटन भरी जिंदगी जीते देखा था. मैं एकएक? चेहरा देखती रही पर वह चेहरा कहीं नहीं मिला, जो अपना सा हो.

तभी लाठी के सहारे चलता एक व्यक्ति मेरे पास आ कर बैठ गया. मैं ने ध्यान से देखा. वही चेहरा, निस्तेज आंखें, बिखरे हुए बाल, न आकृति बदली न प्रकृति. वजन भी घट गया था. मुझे किसी से पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. यही थे मेरे पापा. गुजरे कई बरसों की छाप उन के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. मैं ने संदीप को इशारा किया. आज पहली बार मेरी आंखों में चमक देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए.

भजन समाप्त होते ही हम दोनों ने उन्हें सहारा दे कर उठाया और सामने कुरसी पर बिठा दिया. मैं कैसे बताऊं उस समय मेरे होंठों के शब्द मूक हो गए. मैं ने उन के चेहरे और सूनी आंखों में इस उम्मीद से झांका कि शायद वह मुझे पहचान लें. मैं ने धीरेधीरे उन के हाथ अपने कांपते हाथों में लिए और फफक कर रो पड़ी.

‘पापा, मैं हूं आप की निकी…मुझे पहचानो पापा,’ कहतेकहते मैं ने उन की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं, जैसे बचपन में किया करती थी. प्रार्थना कक्ष के सभी व्यक्ति एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. वे सब हमारे पास जमा हो गए.

पापा ने धीरे से सिर उठाया और मुझे देखने लगे. उन की सूनी आंखों में जल भरने लगा और गालों पर बहने लगा. मैं ने अपनी साड़ी के कोने से उन के आंसू पोंछे, ‘पापा, मुझे पहचानो, कुछ तो बोलो. तरस गई हूं आप की जबान से अपना नाम सुनने के लिए…कितनी मुश्किलों से मैं ने आप को ढूंढ़ा है.’

‘यह बोल नहीं सकते बेटी, आंखों से भी अब धुंधला नजर आता है. पता नहीं तुम्हें पहचान भी पा रहे हैं या नहीं,’ वहीं पास खड़े एक व्यक्ति ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘क्या?’ मैं एकदम घबरा गई, ‘अपनी बेटी को नहीं पहचान रहे हैं,’ मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी.

पापा ने अपना हाथ अचानक धीरेधीरे मेरे सिर पर रखा जैसे कह रहे हों, ‘मैं पहचानता हूं तुम को बेटी…मेरी निकी… बस, पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया हूं. मुझे माफ कर दो बेटी.’

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा था. अपार स्नेह देखा मैं ने उन की आंखों में. मैं कस कर उन से लिपट गई और बोली, ‘अब घर चलो पापा. अपने से अलग नहीं होने दूंगी. 15 साल आप के बिना बिताए हैं और अब आप को 15 साल मेरे लिए जीना होगा. मुझ से जैसा बन पड़ेगा मैं करूंगी. चलेंगे न पापा…मेरी खुशी के लिए…अपनी निकी की खुशी के लिए.’

पापा अपनी सूनी आंखों से मुझे एकटक देखते रहे. पापा ने धीरे से सिर हिलाया. संदीप को अपने पास खींच कर बड़ी कातर निगाहों से देखते रहे जैसे धन्यवाद दे रहे हों.

उन्होंने फिर मेरे चेहरे को छुआ. मुझे लगा जैसे मेरा सारा वजूद सिमट कर उन की हथेली में सिमट गया हो. उन की समस्त वेदना आंखों से बह निकली. उन की अतिभावुकता ने मुझे और भी कमजोर बना दिया.

‘आप लाचार नहीं हैं पापा. मैं हूं आप के साथ…आप की माला का ही तो मनका हूं,’ मुझे एकाएक न जाने क्या हुआ कि मैं उन से चिपक गई. आंखें बंद करते ही मुझे एक पुराना भूला बिसरा गीत याद आने लगा :

‘सात समंदर पार से, गुडि़यों के बाजार से, गुडि़या चाहे ना? लाना…पापा जल्दी आ जाना.’

Hindi Fiction Stories : तहखाने – क्या अंशी इस दोहरे तहखाने से आजाद हो पाई?

Hindi Fiction Stories :  रंगों को मुट्ठी में भर कर झुके हुए आसमान को पाना मुश्किल है क्या? या बदरंग चित्रों की कहानी दोहराव के लिए परिपक्व है? इन चित्रों की दहशत अब उस के मन की मेड़ों से फिसलने लगी है.

दौड़ते विचारों के कालखंड अपनी जगह पाने को अधीर हो डरा रहे हैं कि अंशी ने आईने को अपनी तरफ मोड़
लिया है. पूरी ताकत से वह उस कालखंड़ के टुकड़े करना चाहती है. अब चेहरा साफ दिखाई दे रहा है.
साहस और आत्मविश्वास से ओतप्रोत. खुद को भरपूर निहार कर जीन्स को ठीक किया है. नैट के टौप के अंदर पहनी स्पैगिटी को चैक किया. ठुड्डी को गले से लगा कर भीतर की तरफ झांका. सधे हुए उभारों और कसाब में रत्तीभर ढील की गुंजाइश नहीं है. संतुष्टि के पांव पसारते ही होंठों को सीटीनुमा आकृति में मोड़ कर सीधा किया.

लिपिस्टिक का रंग कपड़ों से मेल खा रहा है. ‘ वो ‘ के आकार में आईब्रो फैलाने और सिकोड़ने की कोई खास वजह नहीं है, फिर भी बेवजह किए गए कामों की भी वजह हुआ करती है.

कलाई पर गोल्डन स्टोन की घड़ी को कसते हुए अंशी ने पैर से ड्रायर खोल कर सैंडिल निकाले, उन्हें पहनने का असफल प्रयास जानबूझ कर किया गया. पहनने तक ये प्रयास जारी रहा. इस के पीछे जो भी वजह रही हो, मगर पुख्ता वजह तो व्यस्तता प्रदर्शित करना ही है.

सुरररर… सुररररर कर बौडी
स्प्रे कंधों के नीचे, बांहों पर छिड़का और फिर उस के धुएं से ऊपर से नीचे तक नहा ली है.

इस बार आईने ने खुद उसे निहारा, “गजब, क्या लग रही हो यार?”

सामने लगा ड्रेसिंग टेबल का आईना बुदबुदा उठा… जो भी हो, ऐसा तो होना ही था.

अंशी एक मौडर्न गर्ल है. मौडर्निटी का हर गुण उस के भीतर समाया हुआ है, यही जरूरी है. छोटे कपड़े, परंपरावादी सोच से इतर खुले विचार, मनपसंद कामों की सक्रियता, दबाव के बगैर जिंदगी को जीना और सब से महत्वपूर्ण खुद को पसंद करना, हर बौल पर छक्का जड़ने की काबिलीयत. बौस तो क्या, पूरा स्टाफ चारों खाने चित्त. खुद की आइडियल खुद,
दफ्तर का आकर्षण और दूसरा खिताब झांसी की रानी का. किसी की हिम्मत नहीं कि अंशी को उस की मरजी के बगैर उसे शाब्दिक या अस्वीकारिए नजरिए से छू भी ले. हां, जब मन करे तो वह छू सकती है, खरौंच सकती है सदियों से पड़ी दिमाग में धूल की परतों को.

बोलने की नजाकत और चाल की अदायगी में माहिर हो कर आधुनिकता की सीढ़ियों पर चढ़ना बेहद
आसान है. हालात मुट्ठी में करना कौन सा बड़ा काम है? अपनी औकात का फंदा गले में लगा कर क्यों
मरती हैं औरतें? ढील देती हुई बेचारगी को चौतरफा से घेरे रहती हैं, ताकि ये उन के हाथ में रहे और वह
जूझती रहें ताउम्र अपने ही बुने फंदों में. औरत बेचारी, अबला सब कोरी बकवास. सब छलावा है जंग में उतरने की पीड़ा से बचने का. और फिर कौन सा बच पाती हैं? एक पूरा तानेबानों का दरिया उन के इर्दगिर्द फैला होता है, जिस में फंसी निकलने की झटपटाहट ताउम्र जीने देती है उन्हें. वाह री औरत… कौन
सी मिट्टी की बनी है रे तू? शिकायत है तुझे उस समाज से, जिस की सृजनकर्ता है तू और उस की डोर को तू ने ही ढीली छोड़ कर अपनी ऊंचाइयों में उड़ने दिया और बैठीबैठी देखती रही हवाओं का रुख.

अब जितना जी चाहे रोपीट ले, कोई मसीहा नहीं आने वाला, बेचारगी को कौन पसंद करता है भला, एक जोरदार ठहाका लगा कर बैड पर पड़ा सफेद फैंसी पर्स उठा कर उस ने कंधे पर टांग लिया और लैपटौप बैग
हाथ में ले कर चल दी.

ड्राइविंग सीट पर बैठते ही अंशी ने अपने लहराते बालों को हाथों से संवारा और बालों में फंसेबड़े फ्रेम के ब्रांडेड गौगल्स को आंखों पर चढ़ा लिया. कार स्टार्ट करते ही पहले म्यूजिक औन किया है… नौटी… नौटी.. नौटी.. नौटी… ऐ जी नौटी सिरमौर बालिए… हिमाचली लोकसंगीत की धुन पर झूमते, गुनगुनाते हुए उस ने क्लिच दबा कर गाड़ी का एक्सीलेटर दे दिया है. गाड़ी अपनी स्पीड से दौड़ रही है.

दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ते समय 6 गज की साड़ी में लिपटी दिव्या से उस का आमनासामना हो गया है. सादगी को ओढ़े, दायरों का बौर्डर जिस्म से चिपका, उपस्थित हो कर भी सब से अलग, मुंह में जबान न के
बराबर. हमेशा डरीसहमी सी जैसे दफ्तर न हो कर कोई कब्रगाह हो. इशारों पर नाचती दिव्या से बौस ने
कहा, “ओवर टाइम.”

“यस सर,” उस ने कहा. किसी और की टेबल का काम करने को तो न चाहते हुए भी उसे कहना पड़ा, “यस सर,” फिर भी नौकरी जाने और बौस की नजरों से उतरने का डर.

अंशी ने गर्मजोशी से “हाय” कह कर पहल की और बोली, °बहुत सुंदर साड़ी है आप की, मगर रोजरोज कैसे संभालती हो आप इसे?”

“आदत हो गई है अब तो…”

“दिव्याजी, आप को देख कर मुझे अपनी मम्मा याद आ जाती हैं। बिलकुल आप की हूबहू तसवीर, सेम
पहनावा, सेम व्यक्तित्व और…”

“और… और क्या?”
जवाब में हंस दी वह.

“आदर्शवादी, संस्कारी महिला,” दिव्या अब उत्साहित हो मुसकराई, “हम ने साड़ी को जीवित रखा है आज भी और संस्कारों को भी…” नाक सिकोड़ते हुए अंशी ने लापरवाही से उस की भावनाओं को सहमति दी है.

“चलिए, आ गया हमारा
स्थायी पड़ाव.”

“स्थायी…?”

“हां, कम से कम दफ्तर तो स्थायी ही रहना है रिटायरमेंट तक, बाकी का मुझे भरोसा नहीं.”

“भरोसा तो जिंदगी का भी नहीं है, बस सब जिए जा रहे हैं. या यों कहो, लाठी से हांके जा रहे हैं,” ठहाका लगाते हुए अंशी ने दिव्या को कंधे से पकड़ लिया, “टूटी हुई बातें, बुझा हुआ निराश चेहरा… सब के सब गहने हैं आप जैसी औरतों के, जो एक दिन सांप बन कर न डसे तो कहना.”

“तो और क्या करें? समाज में रहना है, मर्यादा में न रहें तो कौन इज्जत देगा.”

“कौन सी इज्जत दिव्याजी, बताओ तो जरा… बुरा न मानना… कौन इज्जत देता है आप को? या परवाह
करता है घर में या दफ्तर में? आप के बच्चे? आप के पति? या दफ्तर में बौस? क्या कमी छोड़ी है आप ने? फिर भी…”

अंशी की बातों से उस के होंठों ने खामोशी को अख्तयार कर लिया और वह सकपका कर अपनी टेबल की ओर बढ़ गई है. अंशी का बिंदास नजरिया दिव्या को कभी न भाया. उस का पहनावा, देह भाषा और निडरता कुछ भी नहीं, भला शोभा देती है क्या भले घर की औरतों को मर्दों जैसी हरकतें? मन ही मन
बुदबुदा कर दिव्या ने अपना काम संभाला, मगर कहीं न कहीं उस की बातें आज उसे झकझोर रही हैं. सही तो कह रही है वह, क्या गलत कहा अंशी ने? क्या पाया आज तक उस ने? दिनभर पिलने के बाद घर
में सब की जीहुजूरी, बच्चों को लाड़दुलार करते और दूसरों की पसंद पूछतेपूछते भूल ही गई है कि उसे
क्या पसंद है? और किसी ने पूछा भी कहां कभी? न किसी ने उस की इच्छाएं पूछीं, न सपने. सपने तो
होते ही कहां हैं औरतों के, वह तो परिवार के सपनों पर जीती हैं. सुबह से खटतेखटते आई हूं और
जा कर भी आराम कहां? न बनाव, न श्रंगार, जरा सा हंस लूं तो जवाब देही… रो लूं तो उपेक्षा झेलूं… उफ्फ…
जरा भी सलीका न सीखा हम ने, हाथों के नाखूनों से जमे आटे को चोरी से साफ करने लगी है.

अखिल की निगाहें बराबर अंशी पर लगी हैं. वह कई बार उठ कर खुद उस के पास आयागया और इन 4-5 घंटों में 6 बार उसे अपने केबिन में बुला चुका है. शायद उसे आज के ड्रेसप के लिए कोई
काम्पलीमैंट भी दिया है.

अंशी ने इतरा कर अपनी अदा से उसे कोई खास महत्व नहीं दिया है. वह ऐसी गंभीरता का अभिनय कर रही है, जैसे इस दफ्तर की सिलेब्रिटी है और अखिल उस का बौस न हो कर कोई कुलीग है.

दफ्तर के उस हाल में एक धुंध सी है, जिस में सब साफ दिखाई नहीं दे रहा है, मगर ये तय है कि अंशी
अपनी जिंदगी को जी रही है अपनी शर्तों पर, अपनी सुविधा से अपने बनाए नियमों से अपने रास्ते खुद तय कर रही है. वह खुश है, किसी से शिकायत भी नहीं. कभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में मजबूरियों का
दुखड़ा रोते भी नहीं सुना है. जिंदगी इसी का नाम तो नहीं? नहीं… नहीं… ये सभ्यता नहीं, हमारी परंपराएं इसे आदर से नहीं देखतीं, मर्दों के कंधे पर हाथ रख कर बात करना, बातबात पर ठहाके लगा कर हंस देना… छोटेछोटे कपड़ों से झांकते आमंत्रित करते अंग… लाज का नामोनिशान नहीं… उफ्फ… बेशर्मी को आधुनिकता नहीं कहा जा सकता. अगर यही है परिवर्तन तो नहीं चाहिए ऐसा बदलाव… अपनों की नजर में न सही, पर अपनी नजर में तो सम्माननीय हूं न, नहीं मिला जीने का सुख तो क्या? आत्मसम्मान से तो धनी हूं मैं… नहीं चाहिए मुझे अंशी जैसी जिंदगी… क्या सचमुच अंशी की जिंदगीखराब है? क्या वह खुश नहीं? या लोग उस से खुश नहीं? सब तो बैलेंस कर के चलती है वह… फिर
क्यों आपत्ति है मुझे या किसी को…? विचारों के झूले पर झूलते मन को दिव्या ने अपने तर्कवितर्क से रोक दिया है और अपने काम में लग गई है.

शाम को अंशी अखिल की गाड़ी में सवार हो कर निकली है. अपनी गाड़ी को उस ने पोर्च में लगा दिया है.
बहुत स्टाइल से वह अखिल के बराबर वाली सीट पर बैठी है और पर्स पीछे वाली सीट पर फेंक दिया है.

दिनभर की थकान से अनमनी सी अंशी जैसे अखिल की गोद में लुढ़क ही जाएगी. अखिल ने उस के हाथ को कस कर पकड़ लिया है और गाड़ी में ही एक जबरदस्त किस अंकित कर दिया. उस की इस हरकत से अंशी बनावटी नाराजगी जाहिर करते हुए कहने लगी है, “इतने बेसब्र मर्द मुझे बिलकुल पसंद नहीं अखिल.”

“ये तो रोमांस का टेलर है मेरी…” बात को अधूरा ही छोड़ दिया है.”

“यही तो कमी है तुम मर्दों में, कि मिल जाए तो औरत को समूचा ही खा लेना चाहते हो तुम लोग?”

“अंशी, नाराज क्यों होती हो जान…”

“माइंड योर लैंग्वेज, मैं कोई जानवान नहीं हूं अखिल… ये सब छलावा है… मैं इसे नहीं मानती.”

“मेरे साथ मेरा रूम शेयर कर सकती हो? ये छलावा नहीं है?”

“मैं अपनी इच्छाओं की मालिक हूं अखिल, जो चाहूं कर सकती हूं. न तुम मुझे रोक सकते हो और न ये
जमाना.”

“मैं तुम्हे चाहने लगा हूं अंशी… बाई गौड…”

“हा… हा… हा… चाहत… किसी से भी… इतनी सस्ती होती है क्या?”

“तुम सस्ती कहां हो अंशी? मेरे दिल से पूछो, कितनी कीमती हो तुम मेरे लिए?”

“अच्छा… कितनी कीमत लगाई है तुम ने मेरी?”

“ओह्ह, बस कर दी न दिल तोड़ने वाली बात…”

“सचाई हकीकत से बहुत अलग होती है.”

“तुम मेरी बगल वाली सीट पर बैठी हो, ये सचाई नहीं है क्या?”

“हां, यह सचाई है, मगर ये पूरी सचाई है कि मैं तुम्हें या तुम मुझे नहीं चाहते हो.”

“अब कैसे दिखाऊं तुम्हें? अंशी, मैं सोतेजागते बस तुम्हारे ही बारे में ही सोचता रहता हूं, यकीन करो
मुझ पर…”

“हा… हा… हा… दूसरा छलावा… कोई शादीशुदा मर्द अपनी खूबसूरत बीवी की गैरहाजिरी में किसी लड़की को घर में लाता है. उस के साथ अय्याशी करता है. बीवी के आते ही चूहे की तरह दुबक जाता है और कहता है कि वह चाहने लगा है… हा… हा… हा.”

“तुम भी तो अपने पति को धोखा दे रही हो अंशी… तुम भी तो शादीशुदा हो… बताओ… मैं झूठ बोल रहा हूं क्या?”

“तुम बेवकूफ हो अखिल… जरूरत को चाहत समझ बैठे हो… तुम्हारा साथ, तुम्हारी कंपनी. मेरी जरूरत है बस और कुछ नहीं… मैं सतीसावित्री नहीं बनना चाहती… न ही बिना अपराध रोज सूली पर चढ़ना चाहती हूं…”

“ये झूठ है, मैं ने तो कभी अपनी पत्नी को सूली पर नहीं चढ़ाया… न ही कोई इलजाम लगाया उस पर.”

“हा… हा… हा… एक संस्कारी औरत का खिताब उस के माथे पर लगा कर बिंदास जिंदगी जी रहे हो और क्या चाहते हो… वो बेचारी अबला तो तुम्हें पति परमेश्वर ही समझती होगी न?”

“यार, तुम भी ये क्या बातें ले कर बैठ गईं?” हारे हुए अखिल को इस गरमाहट के खत्म होने का डर सताने
लगा, तो वह झुंझला उठा.

“अच्छा नहीं करती… बस… सुनो अखिल, रास्ते से बियर की बोतल ले लेना प्लीज…”

“यस डार्लिंग… मुझे याद है…”

“ठंडी बियर…”

“हां.”

शौप से 2 बोतल गाड़ी की पिछली सीट पर डाल कर अखिल ने ड्राइविंग सीट को संभाल लिया है.

घर आने तक बहस की गहमागहमी फिर से रोमांस में तबदील हो चुकी है. चुप्पी ने माहौल को रोमांटिक कर दिया है.

अंशी के स्टैपकट बाल उस के टौप पर पड़े अखिल को अधीर कर रहे हैं. इस बात
से बेखबर अंशी गाड़ी के बाहर लगातार चलती गाड़ियों को देख रही है, जो रुकेंगी नहीं… दौड़ती
रहेंगी… लगातार… यही जिंदगी है… अपनी धुन में दौड़ना… संतुष्टि तक दौड़ते रहना…

14वें माले पर लिफ्ट से पहुंच कर अखिल ने जेब से चाबी निकाल कर दरवाजे का लौक खोला. अंदर आ कर उसी तरह वापस से लौक भी कर दिया.

“तुम्हें शावर लेना है अंशी? चाहो तो फ्रेश हो जाओ… प्रिया की नाइटी ले लेना.”

“तुम जाओ अखिल… मैं देखती हूं,” अंशी ने मोबाइल को स्विच औफ मोड पर डाल दिया है और बैड पर
पर्स फेंक कर पसर गई है.

6 इंची मोटे डनलप के गद्दों ने उस की थकान को छूमंतर कर दिया है.
अखिल ने बाशरूम से आ कर म्यूजिक औन कर दिया. उस का मूड एकदम अलग सा दिख रहा है. अब
अंशी भी शावर लेने के बाद ब्लैक कलर की औफ शोल्डर नाइटी में है. अखिल ने सारी लाइट औफ कर
दी है और रूम स्प्रे से कमरे को महका दिया है. बैडरूम में हलकीहलकी सी रोशनी है, जो रोमांस में डूबने
को मचल रही है. एक रंगीन मोमबत्ती डिजाइनर वाल की सीध में जल रही है, जो हजारों सितारों की तरह
रोशनी दे रही है.

अखिल कांच के गिलास में पैग बना रहा है. अंशी उस के करीब आ कर बैठ गई है, बिलकुल करीब. उस की सांसों की गरमाहट अखिल महसूस कर रहा है. चीयर्स कर पहला पैग खत्म किया
है… फिर दूसरा… तीसरा… और चौथा… नशा गहराने लगा है… उस ने अंशी को बांहों में भर लिया. उस की आंखें बंद हैं. उस ने उस की दोनों बंद आंखों पर एकएक चुम्बन अंकित कर दिया है.

अंशी ने अपनी बांहों को उस के गले में डाल कर उस का चेहरा अपने करीब कर लिया है. अखिल के हाथ उस की पीठ पर रेंग रहे हैं.
इसी मुद्रा में लिपटे दोनों बैठे हैं, जरूरत के साधनमात्र… न प्रेम, न चाहत, न कसक, न भावनाएं…

डुबोने के बाद पूरा समंदर एकदम शांत है. अंशी ने हौले से अपने सीने पर रखा अखिल का हाथ हटाया. नाईटी पहन कर वह ड्राइंगरूम में आ गई है. पर्स से सिगरेट निकाल कर सुलगाई है और सोफे पर
बैठ कर पैर टेबल पर फैला लिए हैं. एक गहरा कश लिया है… “लक्ष्य, मेरे पति.. हा… हा… हा… तुम्हारे हाथों की कठपुतली नहीं हूं मैं, अपनी मरजी से जीना आता है मुझे… और तुम्हारी औकात ही क्या है? मुझ
जैसी लड़की को शिकंजे में जकड़ने की? नहीं… लक्ष्य ये कभी नहीं होगा… जाओ, चले जाओ… देखती हूं… कौन तुम्हें अपने दिल में जगह देगी? यहां से वहां चाटते रहना सब की जूतियां… एक दिन सब की
सब छोड़ के चली जाएंगी… फिर मैं भी थूक दूंगी तुम्हारे मुंह पर… देखो, मैं ने थूक ही दिया है तुम्हारे पूरे मुंह पर… तुम्हारी औकात यही है लक्ष्य… तुम ने मेरा जीना दुश्वार किया है न… अब मेरी भी इच्छाओं के तहखाने खुल गए हैं, जो कब के बंद पड़े थे. मेरे भी सपने हैं, जो उन तहखानों से झांक रहे हैं, खुली हवा में सांस लेने को मचल रहे हैं. अब ये तहखाने कभी बंद नहीं होंगे. मेरे हौसले की किरणें इस की सीलन को खत्म कर देंगी. घुटघुट कर जीना मेरे हिस्से में नहीं, अब तुम्हारे हिस्से में होगा… अब तुम मेरा इंतजार करोगे… मेरे लिए अपनी सारी सांसें न्योछावर करोगे और बदले में कुछ नहीं मिलेगा. राहत,
हमदर्दी का एक लफ्ज भी नहीं… तुम मेरी मौजूदगी को घर के कोनेकोने में तलाशोगे और मैं अपनी
रंगीन दुनिया में ऐश करूंगी… मैं परंपरावादी, संस्कारी, आश्रित और बेचारी नही हूं… सुना तुम ने…? ऐश के रास्ते जितना तुम्हारे लिए खुले हैं, उतना मेरे लिए भी… मैं… मैं हूं… अब मैं नहीं, तुम मुझ से डरोगे… दहशत खाओगे… जैसे मैं खाती हूं… लक्ष्य, मैं नहीं हूं अब… तुम ने मुझे खो दिया है.

लेखिका- छाया अग्रवाल

Hindi Stories Online : फरेब – जिस्म के लिए मालिक और पति ने दिया धोख़ा?

Hindi Stories Online :  जब प्रोग्राम खत्म होने को होता, तो उसे फूलों का एक खूबसूरत गुलदस्ता भेंट कर चुपचाप लौट जाता.

शुरूशुरू में तो मुसकान ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया, पर जब वह उस के हर प्रोग्राम में आने लगा, तो उस के मन में उस नौजवान के लिए एक जिज्ञासा जाग उठी कि आखिर वह कौन है? वह उस के हर प्रोग्राम में क्यों होता है? उसे उस के हर अगले प्रोग्राम की तारीख और जगह की जानकारी कैसे हो जाती है? वगैरह.

नट जाति से ताल्लुक रखने वाली मुसकान एक कुशल नाचने वाली थी. अपने बौस के आरकैस्ट्रा ग्रुप के साथ वह आएदिन नएनए शहरों में अपना प्रोग्राम देने जाती रहती थी.

लंबा कद, गोरा रंग और खूबसूरत चेहरे वाली मुसकान जब स्टेज पर नाचती थी, तो लोग दिल थाम लेते थे. उस के बदन की लोच, कातिल अदाएं और होंठों पर छाई रहने वाली मुसकान ने हजारों लोगों को अपना दीवाना बना रखा था, पर उस की दीवानगी में आहें भरने वालों में शायद ही कोई यह जानता था कि उस की मुसकान के पीछे उस के दिल में कितना दर्द छिपा हुआ है.

मुसकान महज 15 साल की थी, तब उस के मांबाप ने उसे इसी आरकैस्ट्रा ग्रुप के मालिक के हाथों बेच दिया था. तब उस का नाच में माहिर होना ही उस का शाप बन गया था. वैसे भी उन दलित परिवारों में बेटियों का बिकना आम था. बहुत सी तो खुद ही भाग जाती थीं.

मुसकान से कहा गया था कि गु्रप का मालिक उस के नाच से प्रभावित हो कर उसे अपने ग्रुप में शामिल कर रहा है और इस के लिए उस ने उस के मांबाप को एक मोटी रकम दी है. तब उसे उस की यह शर्त थोड़ी अटपटी जरूर लगी थी कि उसे उस के साथ ही रहना होगा.

जब मुसकान ने इस बात पर एतराज जताया था, तो ग्रुप के मालिक महेश ने उसे यह कह कर भरोसा दिलाया था कि वह जब चाहे अपने मांबाप से मिलने जा सकती है.

मुसकान को आरकैस्ट्रा ग्रुप में शामिल हुए सालभर बीतने को आया था. इस बीच वह कई जगह अपने प्रोग्राम दे चुकी थी. उसे इज्जत के साथ पैसे भी मिलते थे.

इस के बाद तो मुसकान को बारबार बेचा गया. कभी उस की भावनाओं का सौदा हुआ, तो कभी उस के जिस्म का. बीतते दिनों के साथ यह हकीकत उस के सामने आई कि महेश न सिर्फ अपने ग्रुप में शामिल लड़कियों की देह बेचता है, बल्कि उन के जिस्म का भी सौदा करता है. अगर कोई लड़की उस की इस बात की खिलाफत करती है, तो उसे बुरी तरह सताया जाता है. पर मुसकान इस की शिकायत किस से करती. वह भी उन हालात में, जब उस के मांबाप ने ही उसे इस जलालतभरी जिंदगी में धकेल दिया था. उसे कुछ दिनों में ग्राहकों से भी शिकायत नहीं रही.

मुसकान दलदल में फंसी एक बेबस और बेजान जिंदगी जी रही थी कि वह नौजवान उस की जिंदगी में आया. उस ने मुसकान की जिंदगी में एक हलचल सी मचा दी थी.

मुसकान ने तय किया था कि वह उस से अकेले में मिलेगी. वह पूछेगी कि आखिर वह उस के पीछे क्यों पड़ा है?

कल फिर मुसकान का प्रोग्राम था. उसे इस बात का पक्का यकीन था कि वह नौजवान कल भी आएगा.

देखा जाए, तो मुसकान अकसर लोगों से मिलती रहती थी. इन में अच्छे लोग भी होते थे और बुरे लोग भी. पर सच कहा जाए, तो बुरे लोगों की तादाद ज्यादा होती थी. वे लोग उस के रंगरूप और जवानी के दीवाने होते थे. उन के लिए वह एक खूबसूरत जिस्म थी, जिस वे भोगना चाहते थे.

मुसकान ने एक आदमी भेज कर उसे बुला लिया था. वह उस के सामने चुपचाप बैठा था.

मुसकान कुछ देर तक उस के बोलने का इंतजार करती रही, फिर बोली, ‘‘मैं देख रही हूं कि पिछले तकरीबन एक साल से तुम मेरे हर प्रोग्राम में रहते हो, मुझे गुलदस्ता भेंट करते हो और लौट जाते हो. मैं जान सकती हूं कि क्यों?’’

‘‘क्योंकि मुझे आप पसंद हैं…’’ वह गंभीर आवाज में बोला, ‘‘मैं आप को चाहने लगा हूं.’’

‘‘ऐसा ही होता है. कई बार लोग हमारी जैसी नाचने वाली किसी लड़की की किसी खास अदा पर फिदा हो कर उसे चाहने लगते हैं. पर उन की यह चाहत थोड़ी देर की होती है, जो बीतते समय के साथ खत्म हो जाती है.’’

‘‘परंतु, मेरी चाहत ऐसी नहीं है. सच तो यह है कि आप को अपनी जिंदगी में शामिल करना चाहता हूं.’’

‘‘यह मुमकिन नहीं है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि जिन लोगों के साथ मैं काम करती हूं, वे यह हरगिज पसंद नहीं करेंगे कि मैं उन का साथ छोड़ कर जाऊं.’’

‘‘सवाल यह नहीं कि लोग क्या चाहते हैं. सवाल यह है कि आप क्या चाहती हैं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘बतलाऊंगा, पर इस के पहले आप यह बताइए कि क्या आप अपनी इस मौजूदा जिंदगी से खुश हैं?’’

मुसकान उस के इस सवाल का जवाब न दे सकी. वह कुछ देर तक चुपचाप उसे देखती रही, फिर बोली, ‘‘अगर मैं कहूं कि नहीं तो…?’’

‘‘तो मैं कहूंगा कि आप इस जिंदगी को ठोकर मार दीजिए.’’

‘‘और…?’’

‘‘और मेरी चाहत को कबूल कर मेरी जिंदगी में शामिल हो जाइए.’’

‘‘मैं फिर कहूंगी कि तुम्हारा यह प्रस्ताव भावुकता में दिया गया प्रस्ताव है, जिसे मैं स्वीकार नहीं कर सकती.’’

‘‘ऐसा नहीं है…’’ वह बोला, ‘‘और मैं समीर इसे आप के सामने साबित कर के रहूंगा,’’ कहने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और चला गया.

इस के बाद भी समीर मुसकान से मिलता रहा. वह जब भी उस से मिलता, अपना प्रस्ताव उस के सामने जरूर दोहराता.

सच तो यह था कि मुसकान भी उस के प्रस्ताव को स्वीकार कर अपनी इस जलालत भरी जिंदगी से आजाद होना चाहती थी, पर यह बात भी वह अच्छी तरह जानती थी कि महेश इतनी आसानी से उसे अपने चंगुल से आजाद नहीं होने देगा. वह उस के लिए सोने का अंडा देने वाली मुरगी जो थी. पर समीर की चाहत और लगाव देख कर मुसकान ने फैसला कर लिया कि वह समीर का प्रस्ताव स्वीकार करेगी.

जब मुसकान ने अपने इस फैसले की जानकारी समीर को दी, तो खुशी से उस की आंखें चमक उठीं. मुसकान पलभर तक खुशी से चमकते उस के चेहरे को देखती रही, फिर गंभीर आवाज में बोली, ‘‘पर समीर, महेश इतनी आसानी से मुझे छोड़ने वाला नहीं.’’

‘‘मैं उसे मुंहमांगी कीमत दूंगा और तुम्हें उस से खरीद लूंगा.’’

‘‘ठीक है, बात कर के देखो. शायद वह तुम्हारी बात मान जाए.’’

समीर ने मुसकान को साथ ले कर महेश से बात की और उसे बताया कि वह हर कीमत पर मुसकान को हासिल करना चाहता है.

‘‘हर कीमत पर…’’ महेश ‘कीमत’ शब्द पर जोर देता हुआ बोला.

‘‘हां…’’ समीर बोला, ‘‘तुम कीमत बोलो?’’

‘‘10 लाख…’’ महेश ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘मंजूर है,’’ समीर बिना एक पल गंवाए बोला.

समीर महेश को मुंहमांगी कीमत दे कर मुसकान को अपने आलीशान घर में ले आया. घर की सजावट देख मुसकान हैरान हो कर बोली, ‘‘यह घर तुम्हारा है?’’

‘‘हां…’’ समीर उस के खूबसूरत चेहरे को प्यार से देखता हुआ बोला, ‘‘और अब तुम्हारा भी.’’

‘‘मेरा कैसे?’’

‘‘वह ऐसे कि तुम मेरी पत्नी बनने वाली हो.’’

‘‘सच?’’

‘‘बिलकुल सच…’’ समीर उसे अपनी बांहों में भरता हुआ बोला, ‘‘हम कल ही शादी कर लेंगे.’’

समीर ने मुसकान से शादी कर ली. मुसकान को लगा था कि समीर को पा कर उस ने दुनियाजहान की खुशियां पा ली हों. वह दिलोजान से उस पर न्योछावर हो गई थी. समीर भी उसे दिल की गहराइयों से चाहता था.

कुछ दिनों तक तो मुसकान को अपनी यह दुनिया बेहद भली और खुशगवार लगी थी, परंतु फिर वह इस से ऊबने लगी थी. उसे ऐसा लगने लगा था, जैसे उस की जिंदगी एक ढर्रे में बंध गई हो. ऐसे में उसे अपनी स्टेज की दुनिया याद आने लगी थी. उस की उस दुनिया में कितना रोमांच, कितना ग्लैमर था.

एक दिन अचानक मुसकान के आरकैस्ट्रा ग्रुप के मालिक महेश ने उस के सामने अपने ग्रुप की ओर से एक जगह प्रोग्राम देने का प्रस्ताव रखा और उस के बदले उसे एक मोटी रकम देने का वादा किया, तो वह इनकार न कर सकी.

‘‘प्रोग्राम कब है?’’ मुसकान ने पूछा.

‘‘कल.’’

‘‘कल…?’’ मुसकान के चेहरे पर निराशा के भाव फैले, ‘‘पर, समीर तो यहां नहीं हैं. वे कारोबार के सिलसिले में 4 दिनों के लिए शहर से बाहर गए हुए हैं. मुझे इस प्रोग्राम के लिए उन से इजाजत लेनी होगी.’’

‘‘अरे, डांस का प्रोग्राम ही तो देना है…’’ महेश बोला, ‘‘किसी अमीरजादे का बिस्तर तो नहीं गरम करना. भला इस में समीर को क्या एतराज हो सकता है?’’

‘‘फिर भी…’’

‘‘मान भी जाओ मुसकान.’’

‘‘ठीक है,’’ मुसकान ने हामी भर दी.

मुसकान ने डरे हुए मन से यह प्रोग्राम कर लिया. उसे उम्मीद थी कि वह समीर को इस के लिए मना लेगी, परंतु उस का ऐसा सोचना, उस की कितनी बड़ी भूल थी. इस का अहसास उसे समीर के लौटने पर छुआ.

‘‘यह मैं क्या सुन रहा हूं,’’ समीर मुसकान को गुस्से से घूरता हुआ बोला.

‘‘क्या…?’’

‘‘तुम ने फिर से डांस का प्रोग्राम किया.’’

‘‘आप को किस ने बताया?’’

‘‘मेरे एक दोस्त ने, जो तुम्हें अच्छी तरह से जानता है.’’

मुसकान को जिस बात का डर था, वही हुआ.

‘‘इस में खराबी क्या है…’’ मुसकान समीर का गुस्सा कम करने की कोशिश करते हुए बोली, ‘‘आजकल तो अच्छे घरानों की लड़कियां भी ऐसे प्रोग्राम करती हैं. फिर महेश ने इस के लिए मुझे एक मोटी रकम भी दी है.’’

‘‘मतलब, तुम ने पैसों के लिए प्रोग्राम किया है?’’

‘‘हां समीर…’’

‘‘आखिर तुम ने अपनी औकात दिखा ही दी और तुम ने यह भी साबित कर दिया कि तुम निचली जाति से ताल्लुक रखती हो.’’

‘‘समीर, अब तुम मेरी बेइज्जती कर रहे हो…’’ मुसकान तल्ख आवाज में बोली, ‘‘मैं नहीं समझती कि मैं ने यह प्रोग्राम दे कर कोई गलती की है. सच तो यह है कि डांस मेरा जुनून है और इस जुनून से मैं अपनेआप को ज्यादा दिनों तक दूर नहीं रख सकती.’’

समीर पलभर तक उसे गुस्से में घूरता रहा, फिर पैर पटकता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

‘‘समीर, आखिर तुम मेरी इस छोटी सी गलती के लिए मुझ से कब तक नाराज रहोगे?’’ तीसरे दिन रात की तनहाई में मुसकान समीर की ओर करवट लेते हुए बोली.

‘‘तुम्हारे लिए यह छोटी सी गलती है, पर तुम्हारी यही छोटी सी गलती मेरी बदनामी का सबब बन गई है. लोग

यह कह कर मेरा मजाक उड़ाते हैं कि देखो समीर की पत्नी स्टेज पर नाचती फिरती है.’’

‘‘लोगों का क्या है, उन का तो काम ही कुछ न कुछ कहना है. अगर हम उन के कहे मुताबिक चलने लगे, तो हमारी जिंदगी मुश्किल हो जाएगी.’’

‘‘इस का मतलब यह कि तुम दिल से चाहती हो कि तुम डांस प्रोग्राम करती रहो.’’

‘‘हां, बशर्ते तुम इस की इजाजत दो,’’ मुसकान बोली.

समीर कुछ देर तक चुपचाप मुसकान के खूबसूरत चेहरे और भरेभरे बदन को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हें इस की इजाजत दूंगा, पर इस के लिए मेरे काम भी कर देना.’’

‘‘कैसे काम?’’

‘‘तुम कभीकभी मेरे कारोबार से संबंधित अमीर लोगों से मिल लेना.’’

‘‘क्या कह रहे हो तुम?’’ यह सुन कर मुसकान हैरान रह गई.

‘‘तुम मेरी पत्नी हो, तभी तो मैं तुम से ऐसी बातें कह रहा हूं…’’ समीर अपनी आवाज में मिठास घोलता हुआ बोला, ‘‘देखो मुसकान, अगर तुम ऐसा करती हो, तो हमें उन लोगों से अपनी कंपनी के लिए बड़े और्डर मिलेंगे, जिस से हमारा लाखों का मुनाफा होगा.

‘‘एक पत्नी होने के नाते क्या तुम्हारा यह फर्ज नहीं कि तुम अपने पति का कारोबार बढ़ाने में उस की मदद करो और फिर तुम ऐसा पहली बार तो नहीं कर रही हो?

‘‘तुम्हारी जाति में तो ऐसा होता ही रहता है. तुम ही तो कह रही थीं कि कितनी ही लड़कियों को ऊंची जाति वाले उठा कर ले जाते थे और सुबह पटक जाते थे.’’

समीर ने मुसकान की दुखती नस पर हाथ रख दिया था और ऐसे में वह चाह भी इस से इनकार नहीं कर सकी.

‘‘ठीक है,’’ मुसकान बुझे मन से बोली.

समीर एक दबदबे वाले शख्स को अपने घर लाया और न चाहते हुए भी मुसकान को उस की बात माननी पड़ी. फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा. समीर हर दिन किसी अमीर शख्स को अपने साथ लाता और मुसकान को उसे खुश करना पड़ता.

यह बात तो मुसकान को बाद में मालूम हुई कि असल में समीर, जिन्हें अपने कारोबार से संबंधित लोग बतलाता था, वे उस के हुस्न और जवानी के खरीदार थे और समीर उन को अपनी पत्नी का खूबसूरत जिस्म सौंपने के लिए उन से एक मोटी रकम वसूलता था.

मुसकान ने जिसे भी अपना समझा, उसी ने उसे बेचा. पहले उस के मांबाप ने उसे बेचा और अब उस का पति उसे बेच रहा था. लेकिन दोनों अब पैसे में जो खेल रहे थे.

Hindi Story Collection : किशमिश

Hindi Story Collection : ‘‘अरे, जरा धीरे चलो भई. कितना तेज चल रहे हो. मुझ में इतनी ताकत थोड़े ही है कि मैं तुम्हारे बराबर चल सकूं,’’ दिवाकर ने कहा और हांफते हुए सड़क के किनारे चट्टान पर निढाल हो कर बैठ गए. फिर पीछे पलट कर देखा तो मंजरी उन से थोड़ी दूर ऐसी ही एक चट्टान पर बैठी अपने दुपट्टे से पसीना पोंछती हलाकान हो रही थी. साथ चल रहे हम्माल ने भी बेमन से सामान सिर से उतारा, बैठ गया और बोला, ‘‘टैक्सी ही कर लेते साहब, ऐसा कर के कितना पैसा बचा लेंगे?’’

‘‘हम पैसा नहीं बचा रहे हैं. रहने दो, तुम नहीं समझोगे,’’ दिवाकर ने कहा. थोड़ी देर में मंजरी ने फिर चलना शुरू किया और उन से आधी दूर तक आतेआते थक कर फिर बैठ गई.

‘‘अरे, थोड़ा जल्दी चलो मैडम, चल कर होटल में आराम ही करना है,’’ दिवाकर ने जोर से कहा. जैसेतैसे वह उन तक पहुंची और थोड़ा प्यार से नाराज होती हुई बोली, ‘‘अरे, कहां ले आए हो, अब इतनी ताकत नहीं बची है इन बूढ़ी होती हड्डियों में.’’

‘‘तुम्हारी ही फरमाइश पर आए हैं यहां,’’ दिवाकर ने भी मंजरी से मजे लेते हुए कहा. आखिरकार वे होटल पहुंच ही गए. वास्तव में मंजरी और दिवाकर अपनी शादी की 40वीं सालगिरह मनाने गंगटोक-जो कि सिक्किम की जीवनरेखा तीस्ता नदी की सहायक नदी रानीखोला के किनारे बसा है और जिस ने साफसफाई के अपने अनुकरणीय प्रतिमान गढ़े हैं-आए हैं. इस से पहले वे अपने हनीमून पर यहां आए थे. और उस समय भी वे इसी होटल तक ऐसे पैदल चल कर ही आए थे. और तब से ही गंगटोक उन्हें रहरह कर याद आता था. यहां उसी होटल के उसी कमरे में रुके हैं, जहां हनीमून के समय रुके थे. यह सब वे काफी प्रयासों के बाद कर पाए थे.

40 साल के लंबे अंतराल के बाद भी उन्हें होटल का नाम याद था. इसी आधार पर गूगल के सहारे वे इस होटल तक पहुंच ही गए. होटल का मालिक भी इस सब से सुखद आश्चर्य से भर उठा था. उस ने भी उन की मेहमाननवाजी में कोई कसर नहीं उठा रखी थी. यहां तक कि उस ने उन के कमरे को वैसे ही संवारा था जैसा वह नवविवाहितों के लिए सजाता है. यह देख कर दिवाकर और मंजरी भी पुलकित हो उठे. उन के चेहरों से टपकती खुशी उन की अंदरूनी खुशी को प्रकट कर रही थी.

फ्रैश हो कर उन दोनों ने परस्पर आलिंगन किया, बधाइयां दीं. फिर डिनर के बाद रेशमी बिस्तरों से अठखेलियां करने लगे. सुबह जब वे उठे तो बारिश की बूंदों ने उन का तहेदिल से स्वागत किया. बड़ीबड़ी बूंदें ऐसे बरस रही थीं मानो इतने सालों से इन्हीं का इंतजार कर रही थीं. नहाधो कर वे बालकनी में बैठे और बारिश का पूरी तरह आनंद लेने लगे.

‘‘चलो, थोड़ा घूम आते हैं,’’ दिवाकर ने मंजरी की ओर कनखियों से देखते हुए कहा.

‘‘इतनी बारिश में, बीमार होना है क्या?’’ मंजरी बनावटी नाराजगी से बोली.

‘‘पिछली बार जब आए थे तब तो खूब घूमे थे ऐसी बारिश में.’’

‘‘तब की बात और थी. तब खून गरम था और पसीना गुलाब,’’ मंजरी भी दिवाकर की बातों में आनंद लेने लगी.

‘‘अच्छा, जब मैं कहता हूं कि बूढ़ी हो गई हो तो फिर चिढ़ती क्यों हो?’’ दिवाकर भी कहां पीछे रहने वाले थे.

‘‘बूढ़े हो चले हैं आप. इतना काफी है या आगे भी कुछ कहूं,’’ मंजरी ने रहस्यमयी चितवन से कहा तो दिवाकर रक्षात्मक मुद्रा में आ गए और अखबार में आंखें गड़ा कर बैठ गए. हालांकि अंदर ही अंदर वे बेचैन हो उठे थे. ‘आखिर इस ने इतना गलत भी तो नहीं कहा,’ उन्होंने मन ही मन सोचा. इतने में कौलबैल बजी. मंजरी ने रूमसर्विस को अटैंड किया. गरमागरम मनपसंद नाश्ता आ चुका था.

‘‘सौरी, मैं आप का दिल नहीं दुखाना चाहती थी. चलिए, नाश्ता कर लीजिए,’’ मंजरी ने पीछे से उन के गले में बांहें डाल कर और उन का चश्मा उतारते हुए कहा. फिर खिलखिला कर हंस दी. दिवाकर की यह सब से बड़ी कमजोरी है. वे शुरू से मंजरी की निश्छल और उन्मुक्त हंसी के कायल हैं. जब वह उन्मुक्त हो कर हंसती है तो उस का चेहरा और भी प्रफुल्लित, और भी गुलाबी हो उठता है. वे उस से कहते भी हैं, ‘तुम्हारी जैसी खिलखिलाहट सब को मिले.’

‘‘आज कहां घूमने चलना है नाथूला या खाचोट पलरी झील? बारिश बंद होने को है,’’ दिवाकर ने नाश्ता खत्म होतेहोते पूछा. मंजरी ने बाहर देखा तो बारिश लगभग रुक चुकी थी. बादलों और सूरज के बीच लुकाछिपी का खेल चल रहा था.

‘‘नाथूला ही चलते हैं. पिछली बार जब गए थे तो कितना मजा आया था. रियली, इट वाज एडवैंचरस वन,’’ कहतेकहते मंजरी एकदम रोमांचित हो गई.

‘‘जैसा तुम कहो,’’ दिवाकर ने कहा. हालांकि उन को मालूम था कि उन के ट्रैवल एजेंट ने उन के आज ही नाथूला जाने के लिए आवश्यक खानापूर्ति कर रखी है.

‘‘अब तक नाराज हो, लो अपनी नाराजगी पानी के साथ गटक जाओ,’’ मंजरी ने पानी का गिलास उन की ओर बढ़ाते हुए कहा और फिर हंस दी. उन दोनों के बीच यह अच्छी बात है कि कोई जब किसी से रूठता है तो दूसरा उस को अपनी नाराजगी पानी के साथ इसी तरह गटक जाने के लिए कहता है और वातावरण फिर सामान्य हो जाता है.

टैक्सी में बैठते ही दोनों हनीमून पर आए अपनी पिछली नाथूला यात्रा की स्मृतियों को ताजा करने लगे.

वास्तव में हुआ यह था कि नाथूला जा कर वापस लौटने में जोरदार बारिश शुरू हो गई थी और रास्ता बुरी तरह जाम. जो जहां था वहीं ठहर गया था. फिर जो हुआ वह रहस्य, रोमांच व खौफ की अवस्मरणीय कहानी है जो उन्हें आज भी न केवल डराती है बल्कि आनंद भी देती है.

उस वक्त जैसे ही जाम लगा और अंधेरा होना शुरू हुआ तो उन की बेचैनी बढ़ने लगी. वे दोनों और ड्राइवर बस, अपना समय होने पर और दिवाकर के बहुत मना करने के बावजूद ड्राइवर ने साथ लाई शराब पी और खाना खा कर सो गया. गाड़ी के अंदर की लाइट भी लूज होने से बंद हो गई.

दोनों अंधेरे में परस्पर गूंथ कर बैठ गए. जो अंधेरा नवविवाहितों को आनंद देता है, वह कितना खौफनाक हो सकता है, यह वे ही जानते हैं. रात के सन्नाटे में हर आहट आतंक का नया अध्याय लिख देती. दिवाकर ने हिम्मत कर के गाड़ी से बाहर निकल कर देखा तो होने को वहां बहुत सी गाडि़यां थीं लेकिन इन के आसपास जितनी भी थीं उन में सारे लोग ऐसे ही दुबके हुए थे. वह तो यह अच्छा था कि बारिश बंद हो चुकी थी. और आसमान में इक्केदुक्के तारे अपने होने का सुबूत देने लगे थे. मंजरी सिर नीचा और आंखें बंद किए बैठी थी.

ड्राइवर बेसुध सो रहा था. उस के खर्राटों से मंजरी के बदन में झुरझुरी सी हो रही थी. इतने में खिड़की के शीशे पर ठकठक हुई तो मंजरी की तो चीख ही निकल गई. लेकिन दिवाकर की आवाज सुन कर जान में जान आई. दिवाकर ने बताया था कि वहां से कुछ दूरी पर सेना का कैंप है, उन में से किसी का जन्मदिन है, इसलिए वे कैंपफायर कर रहे हैं. और इसी बहाने लोगों की सहायता भी.

मंजरी थोड़े नानुकुर के बाद जाने को राजी हुई थी. जब दिवाकर ने वहां पहुंच कर सैनिकों को बताया कि उन के पिताजी भी सेना में थे और 1967 का नाथूला का युद्घ लड़ा था तो दिवाकर उन के लिए आदर के पात्र हो गए. फिर वह रात गातेबजाते कब निकल गई थी, पता ही नहीं चला. उस दिन दिवाकर ने मंजरी को पहली बार गाते हुए सुना था. मंजरी ने गाया था- ‘ये दिल और उन की निगाहों के साए…’ उस दिन से आज तक दोनों को वह घटना ऐसे याद है मानो कल ही घटी हो.

‘‘अरे, कहां खो गई,’’ दिवाकर ने कहा तो स्मृतियों को विराम लग गया.

इधर, ड्राइवर ने चायनाश्ते के लिए गाड़ी रोक दी. दोनों ने साथ लाया नाश्ता किया और बिना चीनी की चाय पी. दिवाकर अपने जमाने में बहुत तेज मीठी चाय के शौकीन रहे हैं, और इसी कारण मंजरी की पसंद भी धीरेधीरे वैसी ही होती चली गई. लेकिन दिवाकर को डायबिटीज ने अनुशासित कर दिया. नतीजतन, मंजरी भी वैसी ही चाय पीने लगी. दिवाकर उस से कहते भी हैं कि तुम अपनी पसंद का ही खायापिया करो. पर वह हर बार बात को हंस कर टाल देती है. मीठे के नाम पर अब दोनों केवल मीठी बातें ही करते हैं, बस.

नाथूला में वे सब से पहले वार मैमोरियल गए और शहीदों को श्रद्धासुमन अर्पित किए. चीनी सीमा दिखते ही दिवाकर को बाबूजी की याद आ गई. नाथूला पास भारत और चीन (तिब्बत) को जोड़ने वाले हिमालय की वादियों में एक बेहद खूबसूरत किंतु उतना ही खतरनाक रास्ता है. यह प्राचीनकाल से दोनों देशों को सिल्क रोड (रेशम मार्ग) के माध्यम से जोड़ता है और यह सांस्कृतिक, व्यापारिक एवं ऐतिहासिक यात्राओं का गवाह रहा है. जो इन दोनों देशों के 1962 के युद्ध के बाद बंद कर दिया गया था. जिसे 2006 में आंशिक रूप से खोला गया.

बाबूजी ने 1967 का वह युद्ध लड़ा था जो इसी नाथूला पास पर लड़ा गया. बाबूजी ने इसी युद्ध में अपनी जांबाजी के चलते एक पैर खो कर अनिवार्यतया सेवानिवृत्ति ली थी जिसे भारत की चीन पर विजय के बाद लगभग बिसार दिया गया. जबकि 1962 का वह युद्ध सभी को याद है जिस में देश ने मुंह की खाई थी. इस की पीड़ा बाबूजी को ताउम्र रही.

दिवाकर ने जब बाबूजी को अपने हनीमून पर गंगटोक जाने का इरादा बताया था, तो बाबूजी की युद्घ की सारी स्मृतियां ताजी हो गई थीं. चीनी सैनिकों की क्रूरता और उन का युद्धकौशल सभी कुछ उन की आंखों के आगे घूम गया था. साथ ही, अपने पैर को खोने की पीड़ा भी आंखों के रास्ते बह उठी थी. बाबूजी नहीं चाहते थे कि उन के बच्चे उस देश की सीमा को दूर से भी देखें, जिस ने एक बार न सिर्फ अपने देश को हराया था, बल्कि उन का पैर, नौकरी एवं सुखचैन हमेशा के लिए छीन लिया था. इसीलिए उन्होंने दिवाकर से कहा था कि पहाड़ों पर ही जाना है तो बद्रीनाथ, केदारनाथ हो आओ. लेकिन दिवाकर के गरम खून ने यह कहा कि ‘हम हनीमून के लिए जा रहे हैं, धार्मिक यात्रा पर नहीं.’ तब बाबूजी ने हथियार डालते हुए मां को इस बात के लिए डांट भी लगाई थी कि उन के लाड़प्यार ने ही बच्चों को बिगाड़ा है.

इतने लंबे वैवाहिक जीवन में मंजरी ने दिवाकर को जितना जाना, उस के आधार पर ही उन्होंने दिवाकर को अकेला रहने दिया. जब काफी समय दिवाकर ने अतीत में विचरण कर लिया तब, दिवाकर जहां खड़े थे, उन के सामने वाली एक ऊंची चट्टान के पास खड़े हो कर, मंजरी ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘क्यों जी, कैसी लग रही हूं मैं यहां?’’ इस पर दिवाकर ने वर्तमान में लौटते हुए कहा, ‘‘अरे रे, उस पर क्यों चढ़ रही हो, तुम से न हो सकेगा अब यह सब.’’

‘‘ओके बाबा, अब मैं भी कौनसी चढ़ी ही जा रही हूं इस पर. लेकिन इस के साथ फोटो तो खिंचवा सकती हूं न,’’ मंजरी ने फोटो के लिए पोज देते हुए कहा. दिवाकर ने भी कहां देर की, अपने कैमरे से फटाफट कई फोटो खींच लिए. दोनों को याद आया कि पिछली बार रोल वाले कैमरे से कैसे वे एकएक फोटो गिनगिन कर खींचते थे. और यह भी कि कैसे दोनों में प्रतियोगिता होती थी कि कौन ऐसी ही चट्टानों और कठिन चढ़ाइयों पर पहले पहुंचता है. मंजरी की शारीरिक क्षमता काफी अच्छी थी क्योंकि वह अपनी शिक्षा के दौरान ऐथलीट रही थी. मगर फिर भी दिवाकर कभी जानबूझ कर हार जाते तो मंजरी का चेहरा जीत की प्रसन्नता से और भी खिल जाता था. इस पर दिवाकर उस की सुंदरता पर कुरबान हो जाते. सो, हनीमून और भी गरमजोशी से भर उठता.

गंगटोक से नाथूला जाते और आते समय सारे रास्ते जंगलों को देख कर दिवाकर को बड़ा दुख हुआ. क्योंकि अब जंगल उतना सघन नहीं रहा. पेड़ों की निर्मम कटाई ने हिमालय की हसीन पर्वतशृंखलाओं का जैसे चीरहरण कर लिया हो. जब यह बात उन्होंने मंजरी से शेयर की तो मंजरी ने विकास को जरूरी बताया. उन का यह भी कहना था कि लोग बढ़ेंगे तो पानी, बिजली, आवास, सड़कें सभी चाहिए. इन के लिए पेड़ तो काटने ही पड़ेंगे.

दिवाकर ने उन को संतुलित विकास की अवधारणा बताई कि विकास जितना जरूरी है उतने ही वन प्रदेश भी आवश्यक हैं. इस में जब आदमी की लालची प्रवृत्ति घर कर जाती है तभी सारी गड़बड़ होती है. केदारनाथ और कश्मीर में आई विनाशकारी बाढ़ ने भी शायद आदमी के लिए सबक का काम नहीं किया है.

‘‘मैं आप से शैक्षिक बातचीत में नहीं जीत सकती. यह मुझे भी पता है और आप भी जानते हैं,’’ मंजरी ने दिवाकर से कहा और उन की तरफ पानी की बोतल बढ़ा दी. दिवाकर ने पानी पिया. मंजरी को ऐसा लगा कि उन का सारा आक्रोश जैसे उन्होंने ठंडा कर दिया हो. इस पूरी चर्चा का आनंद ड्राइवर ने भी खूब उठाया. होटल पहुंचे तब तक दोनों थक कर चूर हो चुके थे. कुछ खाया न पीया और जो बिस्तर पर पड़े तो दिवाकर की नींद सुबह तब खुली जब मंजरी ने चाय तैयार कर के उन को जगाया.

‘‘ऐसे मनाने आए हैं शादी की सालगिरह इतनी दूर,’’ मंजरी ने अर्थपूर्ण तरीके से कहा तो दिवाकर ने बहुत थके होने का स्पष्टीकरण दिया. मंजरी भी मन ही मन इस बात को मान रही थी लेकिन प्रकट रूप में उन से असहमत बनी हुई थी. फिर आगे बोली, ‘‘चलिए, जल्दी से चाय खत्म कर के तैयार हो जाइए. अभी तो हमें खाचोट पलरी झील के साथसाथ रूमटेक, नामग्याल और टीशिलिंग मौंटेसरी भी चलना है.’’

‘‘अरे यार, आज तो बिलकुल भी हिम्मत नहीं हो रही,’’ दिवाकर ने कहा. फिर करवट बदल कर सोने लगे. इस पर जब मंजरी ने बनावटी गुस्से से उन का कंबल खींच कर उन को उठाने की कोशिश की तो उन्होंने उसे भी अपने साथ कंबल में लपेट लिया. फिर वे कहीं नहीं गए.

लंबे आराम के बाद नींद खुली तो बादल बिलकुल खिड़की पर आ कर दस्तक सी दे रहे थे. दोनों बालकनी में बैठ कर गरमागरम चायपकौड़ों के साथ ठंडे मौसम का आनंद लेने लगे. तब तक भी दिवाकर की थकान पूरी तरह उतरी नहीं थी. बल्कि उन को हरारत हो आई. मंजरी उन को ले कर परेशान हो उठी. साथ लाई दवा वह दे ही रही थी कि कौलबैल बजी. दरवाजा खोला तो होटल का मालिक खड़ा था. उस ने नमस्कार किया. मंजरी ने उसे प्रश्नवाचक नजरों से देखा तो वह बोला, ‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’

‘‘हां, हां, जरूर,’’ यह दिवाकर की आवाज थी. वे बिस्तर पर ही उठ बैठे थे. जब उन्होंने सेठ के आने का कारण पूछा तो वह बोला, ‘‘आप हमारे खास मेहमान हैं. मैं ने जब घर पर आप के बारे में बताया तो पत्नीबच्चे सब आप से मिलना चाहते हैं. आज का डिनर आप हमारे साथ करेंगे तो अच्छा लगेगा. हमारे यहां का मोमोज खाएंगे तो हमेशा याद रखेंगे. जब मंजरी ने दिवाकर के स्वास्थ्य के बारे में बताया तो उस ने डाक्टर की व्यवस्था की. और दिवाकर के आग्रह पर डिनर में केवल दूधदलिया का ही इंतजाम करवाया.’’

सेठ को हलका सा याद आया कि पिछली बार जब ये लोग आए थे तो होटल में कोल्डडिं्रक खत्म हो जाने पर इन्हीं दिवाकर ने काफी हंगामा मचाया था. सेठ ने बातचीत के दौरान जब इस बात का जिक्र किया तो दिवाकर ने माना कि सच में ऐसा ही हुआ था. उन्होंने यह भी कहा कि जब आदमी जवान होता है और नईनई बीवी साथ होती है तब अकसर ही ऐसी बेवकूफियां कर बैठता है.

‘‘सब वक्त, वक्त की बात है. अब यह गरम पानी ही दुनियाभर में सारे कोल्डडिं्रक का और दूधदलिया ही सारे भोजन का मजा देते हैं,’’ दिवाकर ने गरम पानी पीते हुए कहा. तो सभी लोग जोर से हंस पड़े. होटल आ कर मंजरी ने अगली सुबह ही वापस लौट जाने को कहा तो दिवाकर ने यह कह कर मना कर दिया कि अभी बहुत घूमना बाकी है और वे जल्दी ही ठीक हो जाएंगे.

अगले दिन सुबह वे खेचेओपलरी झील गए. यह गंगटोक से लगभग 150 किलोमीटर पश्चिम में है और पेलिंग शहर के नजदीक. यहां कंचनजंगा, जो कि दुनिया की तीसरी सर्वोच्च चोटी है, इतनी करीब दिखाई देती है मानो पूरे क्षेत्र को वह अपना आशीष सिर पर हाथ रख कर दे रही हो. गंगटोक से ले कर झील तक के रास्ते में उन को अनेक तरह के लोग कई प्रकार की वेशभूषा में दिखाई दिए. जब गाइड ने बताया कि इस झील को स्थानीय भाषा में ‘शो जो शो’ कहते हैं जिस का अर्थ होता है ‘ओ लेडी सिट हियर’ इस पर वे दोनों खूब हंसे और मंजरी ने जगहजगह बैठ कर खूब फोटो खिंचवाए. हर फोटो पर दिवाकर कहते, ‘ओ लेडी सिट हियर.’

फिर अगले कुछ दिन और रुक कर वे दूसरी कई झीलों, रूमटेक, नामग्याल और टीशिलिंग जैसे प्राचीन बौद्ध मठों और गंगटोक शहर में कई स्थानों पर घूमे व अपनी इस यात्रा को भी जीवंत बनाते रहे.

आज वे वापस लौट रहे हैं. इस पूरे विहार ने उन के जीवन में उत्साह, उमंग, आनंद और अनेक आशाओं का संचरण कर दिया. दिवाकर ने मंजरी से कहा, ‘‘अंगूर जब सूख जाता है तब भी उस में मिठास कम नहीं होती, बल्कि स्थायी हो जाती है. अंगूर का रसभरा जीवन कुछ ही दिनों का होता है, लेकिन किशमिश हमेशा के लिए होती है और अधिक गुणकारी भी. आदमी का जीवन भी ऐसा ही होता है. समझ रही हो ना, क्या कह रहा हूं मैं?’’ दिवाकर ने मंजरी से पूछा.

‘‘जी,’’ मंजरी ने भी उसी उत्साह से कहा और उन के कंधे पर सिर रख दिया. दिवाकर उस के बालों को सहलाने लगे और दोनों किशमिश सी मिठास महसूस करने लगे.

Hindi Kahaniyan : ओढ़ी हुई दीवार

Hindi Kahaniyan : नजर बारबार उस फोटो फ्रेम से जा कर उलझ जाती है जिस के आधे हिस्से में कभी एक सुंदर सी तसवीर दिखाई देती थी, मगर अब वह जगह खाली पड़ी है. उस ने कई बार चाहा कि वह उस फोटो फ्रेम में कोई दूसरी तसवीर लगा कर वह रिक्तता दूर कर दे. मगर चाह कर भी वह कभी ऐसा नहीं कर सकी, क्योंकि वह जानती थी कि ऐसा करने से वह खालीपन दूर होने वाला नहीं. वह खालीपन उस नई तसवीर के पीछे से भी झांकेगा, कहकहे लगाएगा और कहेगा, ‘तुम कायर हो, तुम में इतनी हिम्मत नहीं कि इस खालीपन को दूर कर सको.’

आज भी स्टील का वह फोटो फ्रेम ममता की मेज पर उसी तरह पड़ा है. उस में एक तरफ ममता की फोटो लगी हुई है कुछ लजाते हुए, कुछ मुसकराते हुए, आंखें बिछाए जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रही हो. और आज भी वह वैसे ही प्रतीक्षा में आंखें बिछाए बैठी है, ठीक उस फोटो फ्रेम वाली तसवीर की तरह. अभी 3, साढ़े 3 साल ही तो बीते हैं, जब फोटो फ्रेम के उस खाली हिस्से में प्रभात की भी तसवीर दिखाई देती थी. आज तो यह नाम भी जैसे अंदर तक चीर जाता है. यही नाम तो है जो इतने सालों से उसे सालता रहता है. एकाएक कार के हौर्न से उस का ध्यान टूट गया. यह हौर्न बगल वाले कमरे की चंचल और शोख किम्मी के लिए था. इसी तरह होस्टल की हर लड़की का कोई न कोई चाहने वाला था.

कभीकभी ममता को भी लगता, काश, इन में से एक हौर्न उस के लिए भी होता. उसे इस होस्टल में रहते हुए पूरे 2 साल होने को आए थे. आज से 2 साल पहले जब वह इस नए शहर के एक स्कूल में अध्यापिका हो कर आई थी तो उस की अकेली रहने की समस्या इस होस्टल ने पूरी कर दी थी, जहां उस के समान कितनी ही लड़कियां, शायद लड़कियां नहीं, औरतें, रहा करती थीं. यहां किसी का भी भूतकाल पूछने की पद्धति नहीं थी. सभी वर्तमान में जीती थीं. वह भी किसी तरह अपने दिन गुजार रही थी. खैर, दिन तो किसी तरह गुजर जाते थे, मगर रातें, न जाने कहां से ढेर सारा सूनापन किसी भयानक स्वप्न की तरह आ घेरता. ऐसे क्षणों में उसे किसी ऐसे साथी की आवश्यकता महसूस होने लगती जो उस के दिनभर के सुखदुख को बांट सके. ऐसे नाजुक क्षणों में उसे महसूस होता कि नारी सचमुच पुरुष के बिना कितनी अधूरी है. उसे किसी साथी की आवश्यकता है क्योंकि यह उस के मन की, उस के शरीर की आवश्यकता है. सब आवश्यकताओं की पूर्ति तो वह कर सकती है, मगर यह आवश्यकता? और तब उसे प्रभात की आवश्यकता महसूस होने लगती.

उसे लगता जैसे अभी दरवाजे को लात से ठेलता हुआ प्रभात उस कमरे में आ जाएगा और बड़े प्यार से कहेगा, ‘अरे, मुन्मु, तू यहां बैठी है. चल, उठ, देख मैं ने तेरे लिए अपने दोस्त से कह कर लोनावला की चिक्की मंगाई है. चल, अब बहुत हो चुका रूठना, अच्छे बच्चे ज्यादा जिद नहीं किया करते.’ और इतने अवसाद के क्षणों में भी उस के मुंह में चिक्की का स्वाद उभर आता. वह तो ससुराल में भी सारी लाज छोड़ कर घर के सामने से गुजरते हुए चिक्की वाले को रोक लेती थी. कभीकभी उसे लगता जैसे प्रभात उसी के पलंग पर बाजू में लेटा है और उस का हाथ अपने हाथों में ले कर अपने नाखूनों से उस के पौलिश लगे बड़ेबड़े नाखून रगड़ रहा है. यह उस की हमेशा की आदत थी. कभीकभी तो वह नाखून पकड़ कर तोड़ने की कोशिश करने लगता और वह दर्द से चीख उठती. इस पर भी वह हाथ न छोड़ता और अधिक चीखने पर कहता, ‘तुम्हारे पिताजी ने ये हाथ अब मुझे सौंप दिए हैं. अब ये मेरी चीज हैं, मैं जो चाहूं करूं.’

इस पर वह झूठमूठ रूठते हुए हाथों से उस के सीने को पीटने लगती, अंत में सीने से चिपट जाती. अब ये बातें सोचतेसोचते उस की आंखें भर आतीं और उस की उंगलियों में एक कसक उठने लगती है. उस का गला रुंध जाता और मन करता कि वह किसी के सीने से लग कर बहुतबहुत रोए. मगर इस समय उसे सीने से लगाने के लिए केवल तकिया ही मिलता और सचमुच उस का तकिया आंसुओं से भीग जाता. से अभी तक याद है, यह तसवीर फोटो फ्रेम में प्रभात ने स्वयं ही लगाई थी. शादी के कुछ ही दिनों बाद दोनों ने अलगअलग तसवीरें खिंचवाई थीं. न जाने क्यों वह उस के साथ तसवीर उतरवाने को तैयार नहीं हुआ था. वह भी नईनवेली होने के कारण ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई थी. यह तो खुद फोटोग्राफर ने ही कहा था कि साहब, तसवीर तो इकट्ठी ही अच्छी लगती है. मगर न जाने क्यों उस ने साफ इनकार कर दिया था. वह उस के इनकार का कारण नहीं समझ सकी थी, न ही उसे कुछ पूछने की हिम्मत ही हुई थी.

मगर यह फोटो फ्रेम वह स्वयं ही खरीद कर लाया था और अपने ही हाथों से वे दोनों तसवीरें लगा कर मेज पर रखते हुए बोला था, ‘लो, अब तो हो गए न दोनों साथसाथ. अरे, लोगों को यह दिखाने की क्या आवश्यकता है कि हम में कितना प्रेम है? प्रेम भी भला कोई बताने की चीज है?’ इस घटना से ममता को प्रभात रूखे स्वभाव का अरसिक व्यक्ति ही लगा था. पर उस ने सोचा था कि वह उस का वह रूखापन कुछ ही दिनों में अपने प्रेम द्वारा दूर कर देगी जो उस में संभवतया अकेलेपन के कारण आ गया हो. मगर ममता ने कभी यह नहीं सोचा था कि उस का यही रूखापन उस के लिए दुख का कारण भी बन सकता है. वह हर शाम उस का बेकरारी से इंतजार करते हुए अपने कमरे की खिड़की पर खड़ी रहती, जो सीधे सामने की सड़क पर खुलती थी. मगर प्रभात उस की ओर ध्यान दिए बिना ही मां को आवाज देता हुआ दवाई, फल आदि देने सीधे उन के कमरे में चला जाता. वहीं से वह रसोईघर में जा कर भाभी के पास बैठ कर चाय पीता और तब कहीं जा कर कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में आता.

ममता दिनभर सोचा करती थी कि आज वह उस से खूब बातें करेगी या फिर कहीं बाहर घूमने के लिए चलने की फरमाइश करेगी. मगर वह केवल दोचार बातें पूछ कर और कपड़े बदल कर दोस्तों की चौकड़ी में बैठने निकल जाता. एकदो बार उस ने हिम्मत कर के कहा भी, मगर वह हमेशा कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाता. रात को भी वह देर से घर आता और खाना खा कर सो जाता. मगर जब कभी मौज में होता तो उसे रात दोदो बजे तक सोने ही न देता. कुल मिला कर वह उस के लिए एक उपेक्षित खिलौना बन कर रह गई थी, जिस से बच्चा कभी दिल बहला लिया करता है. अपने प्रति प्रभात की इस उपेक्षा का कारण ढूंढ़ने पर ममता इस परिणाम पर पहुंची कि यह सब उस के मांबाप और भाभी के कारण ही है, जिन के अत्यधिक लाड़प्यार में वह बचपन से डूबा रहा है और अभी तक उबर नहीं पाया है. उसे प्रभात को अपनी ओर आकृष्ट करने और उस का प्यार पाने का उपाय यही सूझा कि उसे उस के मांबाप से अलग कर दिया जाए.

दिमाग में इन विचारों के घर करते ही उस ने त्रियाचरित्र के सारे फार्मूले आजमाने शुरू कर दिए. कभी वह मां पर बिगड़ पड़ती तो कभी भाभी पर. और उस के इस तांडव ने घर में कलह मचा कर रख दी. मगर प्रभात पर इन सब बातों का विपरीत ही प्रभाव पड़ा. वह ममता से और अधिक दूर रहने लगा. आखिर हार कर उस ने स्त्रियों का आखिरी अस्त्र इस्तेमाल किया और तुनक कर अपने मायके जा बैठी. मायके से लौटने की उस ने यही शर्त रखी कि प्रभात को मांबाप से अलग घर ले कर रहना होगा, जिसे प्रभात ने कभी स्वीकार नहीं किया. इस से ममता को और ठेस लगी. फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ी रही. उस की यही जिद उसे ले डूबी. यहां तक कि वकील के नोटिस का जवाब भी प्रभात ने नहीं दिया और मामला कोर्ट तक जा पहुंचा. वह अपने ही रचे गए चक्रव्यूह में खुद फंस गई. इधर इस मामले को ममता के भाइयों ने अपनी इज्जत का सवाल बना लिया और वे कचहरी की दीवारों से सिर मारने लगे. इस कांड ने उस के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन ला दिया जिस की उसे कल्पना भी नहीं थी. जिंदगी इतनी जटिल है, यह उस ने पहली ही बार जाना. किसी तरह उस के भाइयों ने उसे अध्यापिका की यह नौकरी दिला दी थी. मगर वह अपने घर से बाहर नहीं जाना चाहती थी. उसे अपने इस निष्कासन का अर्थ तभी मालूम हुआ जब उस के बड़े भाई ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा था, ‘ममता, शादी के बाद बेटी के लिए पिता का घर पराया हो जाता है. तुम ने सुना ही होगा कि बेटी की डोली और अरथी में कोई फर्क नहीं होता.’

उस दिन के बाद उसे अपना वह घर, जिस में उस ने सारा बचपन बिताया था, पराया लगने लगा था. उसे अपने भाई के इन उपदेशों में अपने सिर का बोझ उतारने का भाव ही नजर आया था और इसीलिए उस ने यह नौकरी सहर्ष स्वीकार कर ली थी. परिवर्तन का दूसरा झटका उसे तब लगा था जब उसे आवेदनपत्र में अपना नाम लिखना पड़ा था. आखिर वह क्या लिखे : श्रीमती ममता अथवा कुमारी ममता? समाज के कानून बनाने वालों ने विवाहित अथवा अविवाहित और विधवा के लिए तो नियम बनाए थे, मगर इस बीच की स्थिति पर शायद किसी ने भी विचार नहीं किया था. पिछले 2 सालों से उस के कानों में कोर्ट में ऊंचे स्वर में पुकारा जाने वाला नाम ही गूंजता रहा था- ममता देवी विरुद्ध प्रभात कुमार. किसी ने भी उस के नाम के आगेपीछे कुछ नहीं लगाया. वहां तो सारा उपक्रम इन दोनों नामों को अलग करने के लिए ही किया जाता रहा. अखबार में छपने वाली तलाक की खबरें, जिन्हें पढ़ कर वह पहले कभी हंसा करती थी, अब खुद उसे एक बिगड़ती हुई जिंदगी का एहसास दिलाने लगीं. अब किसी भी दशा में वह उन पर हंस नहीं पाती थी. उसे अब महसूस होने लगा था कि अपनेआप को प्रगतिशील कहने वाली, नारी मुक्ति आंदोलन की बड़ीबड़ी बातें बघारने वाली नारियां भी किसी पुरुष की छाया पाने के लिए कितनी लालायित रहती हैं.

उस रोज बसस्टौप वाली घटना से तो उस का यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया था. उस रोज वह सीताबड़ी मेन बसस्टौप पर शंकरनगर से आने वाली बस के लिए लाइन में खड़ी थी. बस आने में अभी देर थी और बसस्टौप पर भीड़ ज्यादा थी. वह लाइन में खड़ी बोरियत दूर करने के लिए अपने बैग में रखी पत्रिका के पन्ने पलटने लगी थी कि तभी एक मनचला युवक उसे धक्का देता हुआ आगे बढ़ गया. इस पर बिफरते हुए वह बोली थी, ‘आंखें नहीं हैं या तमीज नहीं है? बिना धक्का दिए चला ही नहीं जाता, शोहदा कहीं का.’ इस पर वह युवक भी उद्दंडता से बोल उठा था, ‘मेमसाहब, यह आप का घर नहीं है, बसस्टैंड है. यहां भीड़ होती ही है, और भीड़ में धक्के भी लगते ही हैं. यदि इतनी ही रईसी है तो टैक्सी में सफर किया कीजिए, बस आम जनता के लिए है, समझीं?’

उसे ऐसे उत्तर की अपेक्षा नहीं थी. इस बात पर आसपास खड़े कुछ युवक हंस पड़े थे. उसे कुछ जवाब देते नहीं बना तो वह लाइन से निकल कर बसस्टैंड छोड़ कर सड़क पर आ गई. उस अपमान को वह बड़ी मुश्किल से पी सकी थी. उस रोज उसे प्रभात की याद हो आई थी जब उस ने एक युवक को उस के पर्स में हाथ डालने के शक में भरी भीड़ में पीट दिया था. उस दिन उसे लगा कि एक अकेली स्त्री किसी पुरुष के बिना उस बेल की तरह है जो बिना सहारे के जमीन पर पड़ी लोगों के पैरों तले कुचल दी जाती है. बेल को यदि पैरों तले रौंदे जाने से बचाना है तो उसे कोई न कोई सहारा चाहिए ही, चाहे उसे गुलाब के कांटेदार पौधे का सहारा ही क्यों न मिले. फिर भले ही उस का बदन छिलता रहे, मगर वह कुचले जाने से तो बची रहेगी. साथ ही, कभीकभी ही सही, गुलाब की खुशबू भी तो मिलेगी.

इन्हीं विचारों की ऊहापोह में उस ने निश्चित कर लिया कि वह प्रभात के बिना नहीं रह सकती. इस तरह तिरस्कृत जिंदगी जीने से तो बेहतर वही जिंदगी थी. कम से कम सिर पर रक्षा का छत्र तो था. भले ही थोड़ी उपेक्षा सहनी पड़े और अब तो शायद थोड़ा अपमान भी, मगर कभीकभी प्यार भी तो मिलेगा. जगहजगह अपमानित हो कर भटकने से तो यही बेहतर है कि थोड़ी उपेक्षा सह ली जाए और उस ने प्रभात के आगे आत्मसमर्पण करने का निर्णय ले लिया. वह उसे पत्र लिखेगी कि वह आ रही है, वह उसे स्टेशन पर लेने आ जाए.

सुबह की व्यस्तता ने उस के पत्र लिखने के निर्णय को शाम पर टाल दिया. दिनभर वह अनमने भाव से ढीलेढीले हाथों से ब्लैकबोर्ड पर चाक चलाती रही. शाम को थक कर चूर हो जब वह होस्टल की सीढि़यां चढ़ रही थी तभी मोबाइल पर आया मैसेज देखा. भाई ने भेजा था, लिखा था :

‘‘प्रिय बहन,

‘‘बधाई हो, हम लोग कोर्ट में केस जीत गए हैं. अब तुम सदासदा के लिए प्रभात से मुक्त हो गई हो. अब तुम्हें कभी उस का अपमान सहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. तुम्हारा तलाक मंजूर हो गया है.’’ मोबाइल उस के कांपते हाथों से फिसल कर नीचे गिर गया. उस का सिर चकराने लगा और वह पलंग पर औंधी गिर पड़ी. उस के धक्के से पास ही मेज पर रखा फोटो फ्रेम गिर पड़ा और उस का शीशा चूरचूर हो गया और फोटो फ्रेम में एक ओर लगी उस की तसवीर बाहर निकल आई. वह फफकफफक कर रो पड़ी. उस का जीवन भी तो अब उस खाली फोट फ्रेम के समान ही रह गया था- रिक्त, केवल एक शून्य. वह अपनी ही ओढ़ी हुई दीवार के नीच दब कर रह गई थी.

अनिल कुमार ‘मनमौजी’

Hindi Kahaniyan : दौड़ – क्या निशा के अंदर रवि बदलाव ला पाया

Hindi Kahaniyan : ‘‘नमस्ते, मम्मीजी. कल रात क्या आप सब लोग कहीं बाहर गए हुए थे?’’ अपनी आवाज में जरा सी मिठास लाते हुए निशा बोली.

‘‘हां, कविता के बेटे मोहित का जन्मदिन था इसलिए हम सब वहां गए थे. लौटने में देर हो गई थी.’’

कविता उस की बड़ी ननद थी. मोहित के जन्मदिन की पार्टी में उसे बुलाया ही नहीं गया, इस विचार ने उस के मूड को और भी ज्यादा खराब कर दिया.

‘‘मम्मी, रवि से बात करा दीजिए,’’ निशा ने जानबूझ कर रूखापन दिखाते हुए पार्टी के बारे में कुछ भी नहीं पूछा और अपने पति रवि से बात करने की इच्छा जाहिर की.

‘‘रवि तो बाजार गया है. उस से कुछ कहना हो तो बता दो.’’

‘‘मुझे आफिस में फोन करने को कहिएगा. अच्छा मम्मी, मैं फोन रखती हूं, नमस्ते.’’

‘‘सुखी रहो, बहू,’’ सुमित्रा का आशीर्वाद सुन कर निशा ने बुरा सा मुंह बनाया और फोन रख दिया.

‘बुढि़या ने यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसी हूं…’ गुस्से में बड़बड़ाती निशा अपना पर्स उठाने के लिए बेडरूम की तरफ चल पड़ी.

कैरियर के हिसाब से आज का दिन निशा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण व खुशी से भरा था. वह टीम लीडर बन गई है. यह समाचार उसे कल आफिस बंद होने से कुछ ही मिनट पहले मिला था. इसलिए इस खुशी को वह अपने सहकर्मियों के साथ बांट नहीं सकी थी.

आफिस में निशा के कदम रखते ही उसे मुबारकबाद देने वालों की भीड़ लग गई. अपने नए केबिन में टीम लीडर की कुरसी पर बैठते हुए निशा खुशी से फूली नहीं समाई.

रवि का फोन उस के पास 11 बजे के करीब आया. उस समय वह अपने काम में बहुत ज्यादा व्यस्त थी.

‘‘रवि, तुम्हें एक बढि़या खबर सुनाती हूं,’’ निशा ने उत्साही अंदाज में बात शुरू की.

‘‘तुम्हारा प्रमोशन हो गया है न?’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’ निशा हैरान हो उठी.

‘‘तुम्हारी आवाज की खुशी से मैं ने अंदाजा लगाया, निशा.’’

‘‘मैं टीम लीडर बन गई हूं, रवि. अब मेरी तनख्वाह 35 हजार रुपए हो गई है.’’

‘‘गाड़ी भी मिल गई है. अब तो पार्टी हो जाए.’’

‘‘श्योर, पार्टी कहां लोगे?’’

‘‘कहीं बाहर नहीं. तुम शाम को घर आ जाओ. मम्मी और सीमा तुम्हारी मनपसंद चीजें बना कर रखेंगी.’’

रवि का प्रस्ताव सुन कर निशा का उत्साह ठंडा पड़ गया और उस ने नाराज लहजे में कहा, ‘‘घर में पार्टी का माहौल कभी नहीं बन सकता, रवि. तुम मिलो न शाम को मुझ से.’’

‘‘हमारा मिलना तो शनिवारइतवार को ही होता है, निशा.’’

‘‘मेरी खुशी की खातिर क्या तुम आज नहीं आ सकते हो?’’

‘‘नाराज हो कर निशा तुम अपना मूड खराब मत करो. शनिवार को 3 दिन बाद मिल ही रहे हैं. तब बढि़या सी पार्टी ले लूंगा.’’

‘‘तुम भी रवि, कैसे भुलक्कड़ हो, शनिवार को मैं मेरठ जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हारे जैसी व्यस्त महिला को अपने भाई की शादी याद है, यह वाकई कमाल की बात है.’’

‘‘मुझे ताना मार रहे हो?’’ निशा चिढ़ कर बोली.

‘‘सौरी, मैं ने तो मजाक किया था.’’

‘‘अच्छा, यह बताओ कि मेरठ रविवार की सुबह तक पहुंच जाओगे न?’’

‘‘आप हुक्म करें, साले साहब के लिए जान भी हाजिर है, मैडम.’’

‘‘घर से और कौनकौन आएगा?’’

‘‘तुम जिसे कहो, ले आएंगे. जिसे कहो, छोड़ आएंगे. वैसे तुम शनिवार की रात को पहुंचोगी, इस बात से नवीन या तुम्हारे मम्मीडैडी नाराज तो नहीं होंगे?’’

‘‘मुझे अपने जूनियर्स को टे्रनिंग देनी है. मैं चाह कर भी पहले नहीं निकल सकती हूं.’’

‘‘सही कह रही हो तुम, भाई की शादी के चक्कर में इनसान को अपनी ड्यूटी को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.’’

‘‘तुम कभी मेरी भावनाओं को नहीं समझ सके,’’ निशा फिर चिढ़ उठी, ‘‘मैं अपने कैरियर को बड़ी गंभीरता से लेती हूं, रवि.’’

‘‘निशा, मैं फोन रखता हूं. आज तुम मेरे मजाक को सहन करने के मूड में नहीं हो. ओके, बाय.’’

रवि और निशा ने एम.बी.ए. साथसाथ एक ही कालिज से किया था. दोनों के बीच प्यार का बीज भी उन्हीं दिनों में अंकुरित हुआ.

रवि ने बैंक में पी.ओ. की परीक्षा पास कर के नौकरी पा ली और निशा ने बहुराष्ट्रीय कंपनी में. करीब 2 साल पहले दोनों ने घर वालों की रजामंदी से प्रेम विवाह कर लिया.

दुलहन बन कर निशा रवि के परिवार में आ गई. वहां के अनुशासन भरे माहौल में उस का मन शुरू से नहीं लगा. टोकाटाकी के अलावा उसे एक बात और खलती थी. दोनों अच्छा कमाते हुए भी भविष्य के लिए कुछ बचा नहीं पाते थे.

उन दोनों की ज्यादा कमाई होने के कारण हर जिम्मेदारी निभाने का आर्थिक बोझ उन के ही कंधों पर था. निशा इन बातों को ले कर चिढ़ती तो रवि उसे प्यार से समझाता, ‘हम दोनों बड़े भैया व पिताजी से ज्यादा समर्थ हैं, इसलिए इन जिम्मेदारियों को हमें बोझ नहीं समझना चाहिए. अगर हम सब की खुशियों और घर की समृद्धि को बढ़ा नहीं सकते हैं तो हमारे ज्यादा कमाने का फायदा क्या हुआ? मैडम, पैसा उपयोग करने के लिए होता है, सिर्फ जोड़ने के लिए नहीं. एकसाथ मिलजुल कर हंसीखुशी से रहने में ही फायदा है, निशा. सब से अलगथलग हो कर अमीर बनने में कोई मजा नहीं है.’

निशा कभी भी रवि के इस नजरिये से सहमत नहीं हुई. ससुराल में उसे अपना दम घुटता सा लगता. किसी का व्यवहार उस के प्रति खराब नहीं था पर वह उस घर में असंतोष व शिकायत के भाव से रहती. उस का व रवि का शोषण हो रहा है, यह विचार उसे तनावग्रस्त बनाए रखता.

निशा को जब कंपनी से 2 बेडरूम वाला फ्लैट मिलने की सुविधा मिली तो उस ने ससुराल छोड़ कर वहां जाने को फौरन ‘हां’ कर दी. अपना फैसला लेने से पहले उस ने रवि से विचारविमर्श भी नहीं किया क्योंकि उसे पति के मना कर देने का डर था.

फ्लैट में अलग जा कर रहने के लिए रवि बिलकुल तैयार नहीं हुआ. वह बारबार निशा से यही सवाल पूछता कि घर से अलग होने का हमारे पास कोई खास कारण नहीं है. फिर हम ऐसा क्यों करें?

‘मुझे रोजरोज दिल्ली से गुड़गांव जाने में परेशानी होती है. इस के अलावा सीनियर होने के नाते मुझे आफिस में ज्यादा समय देना चाहिए और ज्यादा समय मैं गुड़गांव में रह कर ही दे सकती हूं.’

निशा की ऐसी दलीलों का रवि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था.

अंतत: निशा ने अपनी जिद पूरी की और कंपनी के फ्लैट में रहने चली गई. उस के इस कदम का विरोध मायके और ससुराल दोनों जगह हुआ पर उस ने किसी की बात नहीं सुनी.

रवि की नाराजगी, उदासी को अनदेखा कर निशा गुड़गांव रहने चली गई.

रवि सप्ताह में 2 दिन उस के साथ गुजारता. निशा कभीकभार अपनी ससुराल वालों से मिलने आती. सच तो यह था कि अपना कैरियर बेहतर बनाने के चक्कर में उसे कहीं ज्यादा आनेजाने का समय ही नहीं मिलता.

अच्छा कैरियर बनाने के लिए अपने व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयों को निशा ने कभी ज्यादा महत्त्व नहीं दिया. अपने छोटे भाई नवीन की शादी में वह सिर्फ एक रात पहले पहुंचेगी, इस बात का भी उसे कोई खास अफसोस नहीं था. अपने मातापिता व भाई की शिकायत को उस ने फोन पर ऊंची आवाज में झगड़ कर नजरअंदाज कर दिया.

‘‘शादी में हमारे मेरठ पहुंचने की चिंता मत करो, निशा. आफिस के किसी काम में अटक कर तुम और ज्यादा देर से मत पहुंचना,’’ रवि के मोबाइल पर उस ने जब भी फोन किया, रवि से उसे ऐसा ही जवाब सुनने को मिला.

शनिवार की शाम निशा ने टैक्सी की और 8 बजे तक मेरठ अपने मायके पहुंच गई. अब तक छिपा कर रखी गई प्रमोशन की खबर सब को सुनाने के लिए वह बेताब थी. अपने साथ बढि़या मिठाई का डब्बा वह सब का मुंह मीठा कराने के लिए लाई थी. उस के पर्स में प्रमोशन का पत्र पड़ा था जिसे वह सब को दिखा कर उन की वाहवाही लूटने को उत्सुक थी.

टैक्सी का किराया चुका कर निशा ने अपनी छोटी अटैची खुद उठाई और गेट खोल कर अंदर घुस गई.

घर में बड़े आकार वाले ड्राइंगरूम को खाली कर के संगीत और नृत्य का कार्यक्रम आयोजित किया गया था. तेज गति के धमाकेदार संगीत के साथ कई लोगों के हंसनेबोलने की आवाजें भी निशा के कानों तक पहुंचीं.

निशा ने मुसकराते हुए हाल में कदम रखा और फिर हैरानी के मारे ठिठक गई. वहां का दृश्य देख कर उस का मुंह खुला का खुला रह गया.

निशा ने देखा मां बड़े जोश के साथ ढोलक बजा रही थीं. तबले पर ताल बजाने का काम उस की सास कर रही थीं.

रवि मंजीरे बजा रहा था और भाई नवीन ने चिमटा संभाल रखा था. किसी बात पर दोनों हंसी के मारे ऐसे लोटपोट हुए जा रहे थे कि उन की ताल बिलकुल बिगड़ गई थी.

उस की छोटी ननद सीमा मस्ती से नाच रही थी और महल्ले की औरतें तालियां बजा रही थीं. उन में उस की जेठानी अर्चना भी शामिल थी. अचानक ही रवि की 5 वर्षीय भतीजी नेहा उठ कर अपनी सीमा बूआ के साथ नाचने लगी. एक तरफ अपने ससुर, जेठ व पिता को एकसाथ बैठ कर गपशप करते देखा. अपनी ससुराल के हर एक सदस्य को वहां पहले से उपस्थित देख निशा हैरान रह गई.

उन के पड़ोस में रहने वाली शीला आंटी की नजर निशा पर सब से पहले पड़ी. उन्होंने ऊंची आवाज में सब को उस के पहुंचने की सूचना दी तो कुछ देर के लिए संगीत व नृत्य बंद कर दिया गया.

लगभग हर व्यक्ति से निशा को देर से आने का उलाहना सुनने को मिला.

मौका मिलते ही निशा ने रवि से धीमी आवाज में पूछा, ‘‘आप सब लोग यहां कब पहुंचे?’’

‘‘हम तो परसों सुबह ही यहां आ गए थे,’’ रवि ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

निशा ने माथे पर बल डालते हुए पूछा, ‘‘इतनी जल्दी क्यों आए? मुझे बताया क्यों नहीं?’’

रवि ने सहज भाव से बोलना शुरू किया, ‘‘तुम्हारी मम्मी ने 3 दिन पहले मुझ से फोन पर बात की थी. उन की बातों से मुझे लगा कि वह बहुत उदास हैं. उन्हें बेटे के ब्याह के घर में कोई रौनक नजर नहीं आ रही थी. तुम्हारे जल्दी न आ सकने की शिकायत को दूर करने के लिए ही मैं ने उन से सब के साथ यहां आने का वादा कर लिया और परसों से यहीं जम कर खूब मौजमस्ती कर रहे हैं.’’

‘‘सब को यहां लाना मुझे अजीब सा लग रहा है,’’ निशा की चिढ़ अपनी जगह बनी रही.

‘‘ऐसा करने के लिए तुम्हारे मम्मीपापा व भाई ने बहुत जोर दिया था.’’

निशा ने बुरा सा मुंह बनाया और मां से अपनी शिकायत करने रसोई की तरफ चल पड़ी.

मां बेटी की शिकायत सुनते ही उत्तेजित लहजे में बोलीं, ‘‘तेरी ससुराल वालों के कारण ही यह घर शादी का घर लग रहा है. तू तो अपने काम की दीवानी बन कर रह गई है. हमें वह सभी बड़े पसंद हैं और उन्हें यहां बुलाने का तुम्हें भी कोई विरोध नहीं करना चाहिए.’’

‘‘जो लोग तुम्हारी बेटी को प्यार व मानसम्मान नहीं देते, तुम सब उन से…’’

बेटी की बात को बीच में काट कर मां बोलीं, ‘‘निशा, तुम ने जैसा बोया है वैसा ही तो काटोगी. अब बेकार के मुद्दे उठा कर घर के हंसीखुशी के माहौल को खराब मत करो. तुम से कहीं ज्यादा इस शादी में तुम्हारी ससुराल वाले हमारा हाथ बंटा रहे हैं और इस के लिए हम दिल से उन के आभारी हैं.’’

मां की इन बातों से निशा ने खुद को अपमानित महसूस किया. उस की पलकें गीली होने लगीं तो वह रसोई से निकल कर पीछे के बरामदे में आ गई.

कुछ समय बाद रवि भी वहां आ गया और पत्नी को इस तरह चुपचाप आंसू बहाते देख उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरा तो निशा उस के सीने से लग कर फफक पड़ी.

रवि ने उसे प्यार से समझाया, ‘‘तुम अपने भाई की शादी का पूरा लुत्फ उठाओ, निशा. व्यर्थ की बातों पर ध्यान देने की क्या जरूरत है तुम्हें.’’

‘‘मेरी खुशी की फिक्र न मेरे मायके वालों को है न ससुराल वालों को. सभी मुझ से जलते हैं… मुझे अलगथलग रख कर नीचा दिखाते हैं. मैं ने किसी का क्या बिगाड़ा है,’’ निशा ने सुबकते हुए सवाल किया.

‘‘तुम क्या सचमुच अपने सवाल का जवाब सुनना चाहोगी?’’ रवि गंभीर हो गया.

निशा ने गरदन हिला कर ‘हां’ में जवाब दिया.

‘‘देखो निशा, अपने कैरियर को तुम बहुत महत्त्वपूर्ण मानती हो. तुम्हारे लक्ष्य बहुत ऊंचाइयों को छूने वाले हैं. आपसी रिश्ते तुम्हारे लिए ज्यादा माने नहीं रखते. तुम्हारी सारी ऊर्जा कैरियर की राह पर बहुत तेजी से दौड़ने में लग रही है…तुम इतना तेज दौड़ रही हो… इतनी आगे निकलती जा रही हो कि अकेली हो गई हो… दौड़ में सब से आगे, पर अकेली,’’ रवि की आवाज कुछ उदास हो गई.

‘‘अच्छा कैरियर बनाने का और कोई रास्ता नहीं है, रवि,’’ निशा ने दलील दी.

‘‘निशा, कैरियर जीवन का एक हिस्सा है और उस से मिलने वाली खुशी अन्य क्षेत्रों से मिलने वाली खुशियों के महत्त्व को कम नहीं कर सकती. हमारे जीवन का सर्वांगीण विकास न हो तो अकेलापन, तनाव, निराशा, दुख और अशांति से हम कभी छुटकारा नहीं पा सकते हैं.’’

‘‘मुझे क्या करना चाहिए? अपने अंदर क्या बदलाव लाना होगा?’’ निशा ने बेबस अंदाज में पूछा.

‘‘जो पैर कैरियर बनाने के लिए तेज दौड़ सकते हैं वे सब के साथ मिल कर नाच भी सकते हैं…किसी के हमदर्द भी बन सकते हैं. जरूरत है बस, अपना नजरिया बदलने की…अपने दिमाग के साथसाथ अपने दिल को भी सक्रिय कर लोगों का दिल जीतने की,’’ अपनी सलाह दे कर रवि ने उसे अपनी छाती से लगा लिया.

निशा ने पति की बांहों के घेरे में बड़ी शांति महसूस की. रवि का कहा उस के दिल में कहीं बड़ी गहराई तक उतर गया. अपने नजदीकी लोगों से अपने संबंध सुधारने की इच्छा उस के मन में पलपल बलवती होती जा रही थी.

‘‘मैं बहुत दिनों से मस्त हो कर नाची नहीं हूं. आज कर दूं जबरदस्त धूमधड़ाका यहां?’’ निशा की मुसकराहट रवि को बहुत ताजा व आकर्षक लगी.

रवि ने प्यार से उस का माथा चूमा और हाथ पकड़ कर हाल की तरफ चल दिया. उसे साफ लगा कि पिछले चंद मिनटों में निशा के अंदर जो जबरदस्त बदलाव आया है वह उन दोनों के सुखद भविष्य की तरफ इशारा कर रहा था.

Famous Hindi Stories : खड़ूस मकान मालकिन – क्या था आंटी का सच

Famous Hindi Stories : ‘‘साहबजी, आप अपने लिए मकान देख रहे हैं?’’ होटल वाला राहुल से पूछ रहा था. पिछले 2 हफ्ते से राहुल एक धर्मशाला में रह रहा था. दफ्तर से छुट्टी होने के बाद वह मकान ही देख रहा था. उस ने कई लोगों से कह रखा था. होटल वाला भी उन में से एक था. होटल का मालिक बता रहा था कि वेतन स्वीट्स के पास वाली गली में एक मकान है, 2 कमरे का. बस, एक ही कमी थी… उस की मकान मालकिन.

पर होटल वाले ने इस का एक हल निकाला था कि मकान ले लो और साथ में दूसरा मकान भी देखते रहो. उस मकान में कोई 2 महीने से ज्यादा नहीं रहा है.

‘‘आप मकान बता रहे हो या डरा रहे हो?’’ राहुल बोला, ‘‘मैं उस मकान को देख लूंगा. धर्मशाला से तो बेहतर ही रहेगा.’’

अगले दिन दफ्तर के बाद राहुल अपने एक दोस्त प्रशांत के साथ मकान देखने चला गया. मकान उसे पसंद था, पर मकान मालकिन ने यह कह कर उस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया कि रात को 10 बजे के बाद गेट नहीं खुलेगा.

राहुल ने सोचा, ‘मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर देर रात हो जाती है…’ वह बोला, ‘‘आंटी, मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर रात को देर हो सकती है.’’

‘‘ठीक है बेटा,’’ आंटी बोलीं, ‘‘अगर पसंद न हो, तो कोई बात नहीं.’’

राहुल कुछ देर खड़ा रहा और बोला, ‘‘आंटी, आप उस हिस्से में एक गेट और लगवा दो. उस की चाबी मैं अपने पास रख लूंगा.’’

आंटी ने अपनी मजबूरी बता दी, ‘‘मेरे पास खर्च करने के लिए एक भी पैसा नहीं है.’’

राहुल ने गेट बनाने का सारा खर्च खुद उठाने की बात की, तो आंटी राजी हो गईं. इस के साथ ही उस ने झगड़े की जड़ पानी और बिजली के कनैक्शन भी अलग करवा लिए. दोनों जगहों के बीच दीवार खड़ी करवा दी. उस में दरवाजा भी बनवा दिया, लेकिन दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ.

सारा काम पूरा हो जाने के बाद राहुल मकान में आ गया. उस ने मकान मालकिन द्वारा कही गई बातों का पालन किया. राहुल दिन में अपने मकान में कम ही रहता था. खाना भी वह होटल में ही खाता था. हां, रात में वह जरूर अपने कमरे पर आ जाता था. उस के हिस्से में ‘खटखट’ की आवाज से आंटी को पता चल जाता और वे आवाज लगा कर उस के आने की तसल्ली कर लेतीं.

उन आंटी का नाम प्रभा देवी था. वे अकेली रहती थीं. उन की 2 बेटियां थीं. दोनों शादीशुदा थीं. आंटी के पति की मौत कुछ साल पहले ही हुई थी. उन की मौत के बाद वे दोनों बेटियां उन को अपने साथ रखने को तैयार थीं, पर वे खुद ही नहीं रहना चाहती थीं. जब तक शरीर चल रहा है, तब तक क्यों उन के भरेपूरे परिवार को परेशान करें.

अपनी मां के एक फोन पर वे दोनों बेटियां दौड़ी चली आती थीं. आंटी और उन के पति ने मेहनतमजदूरी कर के अपने परिवार को पाला था. उन के पास अब केवल यह मकान ही बचा था, जिस को किराए पर उठा कर उस से मिले पैसे से उन का खर्च चल जाता था.

एक हिस्से में आंटी रहती थीं और दूसरे हिस्से को वे किराए पर उठा देती थीं. पर एक मजदूर के पास मजदूरी से इतना बड़ा मकान नहीं हो सकता. पतिपत्नी दोनों ने खूब मेहनत की और यहां जमीन खरीदी. धीरेधीरे इतना कर लिया कि मकान के एक हिस्से को किराए पर उठा कर आमदनी का एक जरीया तैयार कर लिया था.

राहुल अपने मांबाप का एकलौता बेटा था. अभी उस की शादी नहीं हुई थी. नौकरी पर वह यहां आ गया और आंटी का किराएदार बन गया. दोनों ही अकेले थे. धीरेधीरे मांबेटे का रिश्ता बन गया.

घर के दोनों हिस्सों के बीच का दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ. हमेशा खुला रहा. राहुल को कभी ऐसा नहीं लगा कि आंटी गैर हैं. आंटी के बारे में जैसा सुना था, वैसा उस ने नहीं पाया. कभीकभी उसे लगता कि लोग बेवजह ही आंटी को बदनाम करते रहे हैं या राहुल का अपना स्वभाव अच्छा था, जिस ने कभी न करना नहीं सीखा था. आंटी जो भी कहतीं, उसे वह मान लेता.

आंटी हमेशा खुश रहने की कोशिश करतीं, पर राहुल को उन की खुशी खोखली लगती, जैसे वे जबरदस्ती खुश रहने की कोशिश कर रही हों. उसे लगता कि ऐसी जरूर कोई बात है, जो आंटी को परेशान करती है. उसे वे किसी से बताना भी नहीं चाहती हैं. उन की बेटियां भी अपनी मां की समस्या किसी से नहीं कहती थीं.

वैसे, दोनों बेटियों से भी राहुल का भाईबहन का रिश्ता बन गया था. उन के बच्चे उसे ‘मामामामा’ कहते नहीं थकते थे. फिर भी वह एक सीमा से ज्यादा आगे नहीं बढ़ता था. लोग हैरान थे कि राहुल अभी तक वहां कैस टिका हुआ है.

आज रात राहुल जल्दी घर आ गया था. एक बार वह जा कर आंटी से मिल आया था, जो एक नियम सा बन गया था. जब वह देर से घर आता था, तब यह नियम टूटता था. हां, तब आंटी अपने कमरे से ही आवाज लगा देती थीं.

रात के 11 बज रहे थे. राहुल ने सुना कि आंटी चीख रही थीं, ‘मेरा बच्चा… मेरा बच्चा… वह मेरे बच्चे को मुझ से छीन नहीं सकता…’ वे चीख रही थीं और रो भी रही थीं.

पहले तो राहुल ने इसे अनदेखा करने की कोशिश की, पर आंटी की चीखें बढ़ती ही जा रही थीं. इतनी रात को आंटी के पास जाने की उस की हिम्मत नहीं हो रही थी, भले ही उन के बीच मांबेटे का अनकहा रिश्ता बन गया था.

राहुल ने अपने दोस्त प्रशांत को फोन किया और कहा, ‘‘भाभी को लेता आ.’’

थोड़ी देर बाद प्रशांत अपनी बीवी को साथ ले कर आ गया. आंटी के कमरे का दरवाजा खुला हुआ था. यह उन के लिए हैरानी की बात थी. तीनों अंदर घुसे. राहुल सब से आगे था. उसे देखते ही पलंग पर लेटी आंटी चीखीं, ‘‘तू आ गया… मुझे पता था कि तू एक दिन जरूर अपनी मां की चीख सुनेगा और आएगा. उन्होंने तुझे छोड़ दिया. आ जा बेटा, आ जा, मेरी गोद में आ जा.’’

राहुल आगे बढ़ा और आंटी के सिर को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगा. आंटी को बहुत अच्छा लग रहा था. उन को लग रहा था, जैसे उन का अपना बेटा आ गया. धीरेधीरे वे नौर्मल होने लगीं.

प्रशांत और उस की बीवी भी वहीं आ कर बैठ गए. उन्होंने आंटी से पूछने की कोशिश की, पर उन्होंने टाल दिया. वे राहुल की गोद में ही सो गईं. उन की नींद को डिस्टर्ब न करने की खातिर राहुल बैठा रहा.

थोड़ी देर बाद प्रशांत और उस की बीवी चले गए. राहुल रातभर वहीं बैठा रहा. सुबह जब आंटी ने राहुल की गोद में अपना सिर देखा, तो राहुल के लिए उन के मन में प्यार हिलोरें मारने लगा. उन्होंने उस को चायनाश्ता किए बिना जाने नहीं दिया.

राहुल ने दफ्तर पहुंच कर आंटी की बड़ी बेटी को फोन किया और रात में जोकुछ घटा, सब बता दिया. फोन सुनते ही बेटी शाम तक घर पहुंच गई. उस बेटी ने बताया, ‘‘जब मेरी छोटी बहन 5 साल की हुई थी, तब हमारा भाई लापता हो गया था. उस की उम्र तब 3 साल की थी. मांबाप दोनों काम पर चले गए थे.

‘‘हम दोनों बहनें अपने भाई के साथ खेलती रहतीं, लेकिन एक दिन वह खेलतेखेलते घर से बाहर चला गया और फिर कभी वापस नहीं आया. ‘‘उस समय बच्चों को उठा ले जाने वाले बाबाओं के बारे में हल्ला मचा हुआ था. यही डर था कि उसे कोई बाबा न उठा ले गया हो.

‘‘मां कभीकभी हमारे भाई की याद में बहक जाती हैं. तभी वे परेशानी में अपने बेटे के लिए रोने लगती हैं.’’ आंटी की बड़ी बेटी कुछ दिन वहीं रही. बड़ी बेटी के जाने के बाद छोटी बेटी आ गई. आंटी को फिर कोई दौरा नहीं पड़ा.

2 दिन हो गए आंटी को. राहुल नहीं दिखा. ‘खटखट’ की आवाज से उन को यह तो अंदाजा था कि राहुल यहीं है, लेकिन वह अपनी आंटी से मिलने क्यों नहीं आया, जबकि तकरीबन रोज एक बार जरूर वह उन से मिलने आ जाता था. उस के मिलने आने से ही आंटी को तसल्ली हो जाती थी कि उन के बेटे को उन की फिक्र है. अगर वह बाहर जाता, तो कह कर जाता, पर उस के कमरे की ‘खटखट’ बता रही थी कि वह यहीं है. तो क्या वह बीमार है? यही देखने के लिए आंटी उस के कमरे पर आ गईं.

राहुल बुखार में तप रहा था. आंटी उस से नाराज हो गईं. उन की नाराजगी जायज थी. उन्होंने उसे डांटा और बोलीं, ‘‘तू ने अपनी आंटी को पराया कर दिया…’’ वे राहुल की तीमारदारी में जुट गईं. उन्होंने कहा, ‘‘देखो बेटा, तुम्हारे मांबाप जब तक आएंगे, तब तक हम ही तेरे अपने हैं.’’

राहुल के ठीक होने तक आंटी ने उसे कोई भी काम करने से मना कर दिया. उसे बाजार का खाना नहीं खाने दिया. वे उस का खाना खुद ही बनाती थीं.

राहुल को वहां रहते तकरीबन 9 महीने हो गए थे. समय का पता ही नहीं चला. वह यह भी भूल गया कि उस का जन्मदिन नजदीक आ रहा है. उस की मम्मी सविता ने फोन पर बताया था, ‘हम दोनों तेरा जन्मदिन तेरे साथ मनाएंगे. इस बहाने तेरा मकान भी देख लेंगे.’

आज राहुल की मम्मी सविता और पापा रामलाल आ गए. उन को चिंता थी कि राहुल एक अनजान शहर में कैसे रह रहा है. वैसे, राहुल फोन पर अपने और आंटी के बारे में बताता रहता था और कहता था, ‘‘मम्मी, मुझे आप जैसी एक मां और मिल गई हैं.’’

फोन पर ही उस ने अपनी मम्मी को यह भी बताया था, ‘‘मकान किराए पर लेने से पहले लोगों ने मुझे बहुत डराया था कि मकान मालकिन बहुत खड़ूस हैं. ज्यादा दिन नहीं रह पाओगे. लेकिन मैं ने तो ऐसा कुछ नहीं देखा.’’ तब उस की मम्मी बोली थीं, ‘बेटा, जब खुद अच्छे तो जग अच्छा होता है. हमें जग से अच्छे की उम्मीद करने से पहले खुद को अच्छा करना पड़ेगा. तेरी अच्छाइयों के चलते तेरी आंटी भी बदल गई हैं,’ अपने बेटे के मुंह से आंटी की तारीफ सुन कर वे भी उन से मिलने को बेचैन थीं.

राहुल मां को आंटी के पास बैठा कर अपने दफ्तर चला गया. दोनों के बीच की बातचीत से जो नतीजा सामने आया, वह हैरान कर देने वाला था.

राहुल के लिए तो जो सच सामने आया, वह किसी बम धमाके से कम नहीं था. उस की आंटी जिस बच्चे के लिए तड़प रही थीं, वह खुद राहुल था. मां ने अपने बेटे को उस की आंटी की सचाई बता दी और बोलीं, ‘‘बेटा, ये ही तेरी मां हैं. हम ने तो तुझे एक बाबा के पास देखा था. तू रो रहा था और बारबार उस के हाथ से भागने की कोशिश कर रहा था. हम ने तुझे उस से छुड़ाया. तेरे मांबाप को खोजने की कोशिश की, पर वे नहीं मिले.

‘‘हमारा खुद का कोई बच्चा नहीं था. हम ने तुझे पाला और पढ़ाया. जिस दिन तू हमें मिला, हम ने उसी दिन को तेरा जन्मदिन मान लिया. अब तू अपने ही घर में है. हमें खुशी है कि तुझे तेरा परिवार मिल गया.’’ राहुल बोला, ‘‘आप भी मेरी मां हैं. मेरी अब 2-2 मांएं हैं.’’ इस के बाद घर के दोनों हिस्से के बीच की दीवार टूट गई.

लेखक- अभय कृष्ण गुप्ता

Stories : रामलाल की घर वापसी – कौन थी कमला

Stories :  सात आठ घंटे के सफर के बाद बस ने गांव के बाहर ही उतार दिया था . कमला को भी रामलाल ने अपने साथ बस से उतार लिया था.

“देखो कमला तुम्हारा पति जब तुम्हारे साथ इतनी मारपीट करता है तो तुम उसके साथ क्यों रहना चाहती हो ”

कमला थोड़ी देर तक खामोश बनीं रही . उसने कातर भाव से रामलाल की ओर देखा

“पर …….”

“पर कुछ नहीं तुम मेरे साथ चलो”

“तुम्हारे घर के लोग मेरे बारे में पूछेंगे तो क्या कहोगे”

“कह दूंगा  कि तुम मेरी घरवाली हो, जल्द बाजी में ब्याह करना पड़ा”.

कमला कुछ नहीं बोली .दोनों के कदम गांव की ओर बढ़ गये .

रामलाल के सामने विगत एक माह में घटा एक एक घटनाक्रम चलचित्र की भांति सामने आ रहा था .

रामलाल शहर में मजदूरी करता था . ब्याह नहीं हुआ था इसलिए जो मजदूरी मिलती उसमें उसका खर्च आराम से चल जाता . थोड़े बहुत पैसे जोड़कर वह गांव में अपनी मां को भी भैज देता .गांव में एक बहिन और मां ही रहते हैं . एक बीघा जमीन है पर उससे सभी की गुज़र बसर होना संभव नहीं था .गांव में मजदूरी मिलना कठिन था इसलिए उसे शहर आना पड़ा .शहर गांव से तो बहुत दूर था “पर उसे कौन रोज-रोज गांव आना है” सोचकर यही काम करने भी लगा था . एक छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया था . एक स्टोव और कुछ बर्तन . शाम को जब काम से लौटता तो दो रोटी बना लेता और का कर सो जाता . दिन भर का थका होता इसलिए नींद भी अच्छी आती . वह ईमानदारी से काम करता था इस कारण से सेठ भी उस पर खुश रहता . वह अपनी मजदूरी से थोड़े पैसे सेठ के पास ही जमा कर देता

” मालिक जब गांव जाऊंगा तो आप से ले लूंगा ‘ .उसे सेठ पर भरोसा था .

साल भर हो गया था उसे शहर में रहते हुए . इस एक साल में वह अपने गांव जा भी नहीं पाया था .उस दिन उसने देर तक काम किया था . वह अपने कमरे पर देर से पहुंचा था .जल्दबाजी में उसे ध्यान ही नहीं रहा कि वो सेठ से कुछ पैसे ले ले . उसने अपनी जेब टटोली दस का सिक्का उसके हाथ में आ गया “चलो आज का खर्चा तो चल जाएगा कल सेठ से पैसे मिल ही जायेंगे” .रामलाल ने गहरी सांस ली . दो रोटी बनाई और खाकर सो गया .

सुबह जब वह नहाकर काम पर जाने के लिए निकला तो पता चला कि पुलिस वाले किसी को घर से निकलने ही नहीं दे रहे हैं . सरकार ने लांकडाउन लगा दिया है . बहुत देर तक ऐ वह इसका मतलब ही नही समझ पाया .केवल यही समझ में आया कि वो आज काम पर नहीं जा पाएगा .वह उदास कदमों से अपने कमरे पर लौट आया . मकान मालिक उसके कमरे के सामने ही मिल गया था.

“देखो रामलाल लाकडाउन लग गया है महिने भर का .कोई वायरस फैल रहा है . तुम एक काम करो कि जल्दी से जल्दी कमरा खाली कर दो”

रामलाल वैसे ही लाकडाउन का मतलब नहीं समझ पाया था उस पर वायरस की बात तो उसे बिल्कुल भी समझ में नहीं आई ।

“कमरा खाली कर दो …. मुझसे कोई गल्ती हो गई क्या ?’

“नहीं पर तुम काम पर जा नहीं पाओगे तो कमरे का किराया कैसे दोगे”

“क्या महिने भर काम बंद रहेगा “?

“हां घर से निकलोगे तो पुलिस वाले डंडा मारेंगे”.

रामलाल के सामने अंधेरा छाने लगा .उसके पास तो केवल दस का सिक्का ही है . वह कुछ नहीं बोला उदास क़दमों से अपने कमरे में आ कर जमीन पर बिछी दरी पर लेट गया .

उसकी नींद जब खुली तब तक शाम का अंधेरा फैलने लगा था . उसने बाहर निकल कर देखा . बाहर सुनसान था . उसे पैसों की चिंता सता रही थी यदि वह कल ही सेठ से पैसे ले लेता तो कम से खाने की जुगाड़ तो हो जाती . यदि वह सेठ के पास चला जाए तो सेठ उसे पैसे अवश्य दे सकते हैं . उसने कमरे से फिर बाहर की ओर झांका बहुत सारे पुलिस वाले खड़े थे. उसकी हिम्मत बाहर निकलने की नहीं हुई .वह फिर से दरी पर लेट गया . उसकी नींद जब खुली उस समय रात के दो बज रहे थे . भूख के कारण उसके पेट में दर्द सा हो रहा था .वह उठा “दो रोटी बना ही लेता हूं दिन भर से कुछ खाया कहां है” .स्टोव जला लिया पर आटा रखने वाले डिब्बे को खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी .वह जानता था कि उसमें थोड़ा सा ही आटा शेष है .यदि अभी रोटी बना ली तो कल के लिए कुछ नहीं बचेगा .उसने निराशा के साथ डिब्बा खोला और सारे आटे को थाली में डाल लिया . दो छोटी छोटी रोटी ही बन पाई . एक रोटी खा ली और दूसरी रोटी को डिब्बे में रख दिया .

सुबह हो गई थी .उसने बाहर झांक कर देखा .पुलिस कहीं दिखाई नहीं दी  . वह कमरे से बाहर निकल आया . उसके कदम सेठ के घर की ओर बढ़ लिए . सेठ का घर बहुत दूर था छिपते छिपाते वह उनके घर के सामने पहुंच गया था .दिन पूरा निकल आया था .यह सोचकर कि सेठ जाग गये होंगे ,उसके हाथ बाहर लगी घंटी पर पहुंच गए थे .उनके नौकर ने दरवाजा खोला था

“जी मैं रामलाल हूं सेठ के ठेके पर काम करता हूं”

“हां तो…..

“मुझे कुछ पैसे चाहिए हैं”

“हां तो ठेके पर जाना वहीं मिलेंगे, सेठजी घर पर नौकरों से नहीं मिलते”

“पर वो लाकडाउन लग गया है न तो काम तो महिने भर बंद रहेगा”

“तभी आना…”

“तुम एक बार उनसे बोलो तो वो मुझे बहुत चाहते हैं ”

“अच्छा रूको मैं पूछता हूं” . नौकर को  शायद दया आ गई थी उस पर .

नौकर के साथ सेठ ही बाहर आ गए थे .उनके चेहरे पर झुंझलाहट के भाव साफ़ झलक रहे थे जिसे रामलाल नहीं पढ़ पाया . सेठ जी को देखते ही उसने झुक कर पैर पड़ने चाहे थे पर सेठ ने उसे दूर से ही झटक दिया .

“अब तुम्हारी हिम्मत इतनी हो गई कि घर पर चले आए”

“वो सेठ जी कल आपसे पैसे ले नहीं पाया था , मेरे पास बिल्कुल भी पैसे नहीं हैं, ऊपर से लाकडाउन हो गया है इसलिए आना पड़ा” . रामलाल ने सकपकाते हुए कहा .

“चल यहां से बड़ा पैसे लेने आया है, मैं घर पर लेन-देन नहीं करता”

सेठ ने उसे खूंखार निगाहों से घूरा तो रामलाल घबरा गया .उसने सेठ जी के पैर पकड़ लिए “मेरे पास बिल्कुल भी पैसे नहीं हैं थोड़े से पैसे मिल जाते हुजूर” .

सेठ ने उसे ठोकर मारते हुए अंदर चला गया .हक्का-बक्का रामलाल थोड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा .उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ।.तभी पुलिस की गाड़ियों के आने की आवाज गूंजने लगी . वह भयभीत हो गया और भागने लगा .छिपते छिपाते वह अपने कमरे के नजदीक तक तो पहुंच गया पर यहीं गली में उसे पुलिस वालों ने पकड़ लिया .वह कुछ बोल पाता इसके पहले ही उसके ऊपर डंडे बरसाए जाने लगे थे . रामलाल दर्द से कराह उठा . अबकी बार पुलिस वालों ने गंदी गंदी  गालियां देनी शुरू कर दी थी . तभी एक मोटरसाइकिल पर सवार कुछ नवयुवक आकर रुक गये . उन्होंने ने पुलिस वालों से कुछ बात की . पुलिस ने उन्हें जाने दिया . रामलाल भी इसी का फायदा उठा कर वहां से खिसक लिया . वह हांफते हुए अपने कमरे की दरी पर लेट गया । उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे जिन्हें पौंछने वाला कोई नहीं था . उसे अपनी मां की याद सताने लगी.

“क्या हुआ बेटा रो क्यों रहा है”

“कुछ नहीं मां पीठ पर दर्द हो रहा है”

“अच्छा बता मैं मालिश कर देती हूं”

मां की याद आते ही उसके आंसुओं की रफ्तार बढ़ गई थी . रोते-रोते वह सो गया था . दोपहर का समय ही रहता होगा जब उसकी आंख खुली .उसका सारा बदन दुख रहा था . पुलिस वालों ने उसे बेदर्दी से मारा था  वह कराहता हुआ उठा .बहुत जोर की भूख लगी थी . वह जानता था कि डिब्बे में अभी एक रोटी रखी हुई है .

सूखी और कड़ी रोटी खाने में समय लगा .वह अब क्या करे ? उसके सामने अनेक प्रश्न थे .

मकान मालिक ने दरवाजा भी नहीं खटखटाया था सीधे अंदर घुस आया था ” तुम कमरा कब खाली कर रहे हो”

वह सकपका गया

“मैं इस समय कहां जाऊंगा, आप कुछ दिन रूक जाओ, माहौल शांत हो जाने दो ताकि मैं दूसरा कमरा ढूंढ सकूं”

रामलाल हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था .

“नहीं माहौल तो मालूम नहीं कब ठीक होगा तुम तो कमरा कल तक खाली कर दो…. नहीं तो मुझे जबरदस्ती करनी पड़ेंगी” . कहता हुआ वह चला गया . रामलाल को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे .वह चुपचाप बैठा रहा ।.अभी तो उसे शाम के खाने की भी फ़िक्र थी .

सूरज ढलने को था .रामलाल अभी भी वैसे ही बैठा था खामोश और वह करता भी क्या? . उसने कमरे का दरवाजा जरा सा खोलकर देखा . बाहर पुलिस नहीं थी , वह बाहर निकल आया . थोड़ी दूर पर उसे कुछ भीड़ दिखाई दी .वह लड़खड़ाते हुए वहां पहुंच गया .कुछ लोग खाने का पैकेट बांट रहे थे . वह भी लाईन में लग गया .हर पैकेट को देते हुए वो फोटो खींच रहे थे इसलिए समय लग रहा था . उसका नंबर आया एक व्यक्ति ने उसके हाथ में खाने का पैकेट रखा साथ के और लोग उसके चारों ओर खड़े हो गए .कैमरे का फ्लेश चमकने लगा .फोटो खिंचवा कर वो लोग जा चुके थे . रामलाल भी अपने कमरे कीओर लौट पड़ा “चलो ऊपर वाले ने सुन ली आज के खाने का इंतजाम तो हो गया, इसी में से कुछ बचा लेंगे तो सुबह का लेंगे” .

उसे बहुत जोरों से भूख लगी थी इसलिए कमरे में आते ही उसने पैकेट खोल लिया था . पैकेट में केवल दो मोटी सी पुड़ी थीं और जरा सी सब्जी .सब्जी बदबू मार रहीथी ,शायद वह खराब हो गई थी .हक्का-बक्का रामलाल रोटियों को कुछ देर तक यूं ही देखता रहा फिर उसने मोटी पुड़ी को चबाना शुरू कर दिया . दरी पर लेट कर वह भविष्य के बारे में सोचने लगा . वह अब क्या करें । कमरा भी खाली करना है .अपने गांव भी नहीं लौट सकता क्योंकि ट्रेने और बस बंद हो चुकी है, पैसे भी नहीं है . वह समझ ही नहीं पा रहा था कि वह करे तो क्या करें . उसने फिर से ऊपर की ओर देखा कमरे से आसमान दिखाई नहीं दिया पर उसने मन ही मन भगवान को अवश्य याद किया .

‌उसे सुबह ही पता लगा था कि सरकार की ओर से खाने की व्यवस्था की गई है इसलिए वह ढ़ूढ़ते हुए यहां आ गया था . उसके जैसे यहां बहुत सारे लोग लाईन में लगे थे . वे लोग भी मजदूरी करने दूसरी जगह से आए थे . यहीं उसकी मुलाकात मदन से हुई थी जो उसके पास वाले जिले में था .  उसे से ही उसे पता चला कि बहुत सारे मजदूर शाम को पैदल ही अपने अपने गांव लौट रहे हैं मदन भी उनके साथ जा रहा है .रामलाल को लगा कि यही अच्छा मौका है उसे भी इनके साथ गांव चले जाना चाहिए . पर क्या इतनी दूर पैदल चल पायेगा . पर अब उसके पास कोई विकल्प है भी नहीं यदि मकान मालिक ने जबरन उसे कमरे से निकाल दिया तो वह क्या करेगा .गहरी सांस लेकर उसने सभी के साथ गांव लौटने का मन बना लिया .

शाम को वह अपना सामान बोरे में भरकर निर्धारित स्थान पर पहुंच गया जहां मदन उसका इंतज़ार कर रहा था . सैंकड़ों की संख्या में उसके जैसे लोग थे जो अपना अपना सामान सिर पर रखकर पैदल चल रहे थे .इनमें बच्चे भी थे और औरतें भी .रात का अंधकार फैलता जा रहा था पर चलने वालों के कदम नहीं रूक रहे थे .कुछ अखबार वाले और कैमरा वाले सैकड़ों की इस भीड़ की फोटो खींच रहे थे . इसी कारण से पुलिस वालों ने उन्हें घेर लिया था  .वो गालियां बक रहे थे और लौट जाने का कह रहे थे .भीड़ उनकी बात सुन नहीं रही थी . पुलिस ने जबरन उन्हें रोक लिया था “आप सभी की जांच की जाएगी और रूकने की व्यवस्था की जाएगी कोई आगे नहीं बढ़ेगा” लाउडस्पीकर से बोला जा रहा था .सारे लोग रूक गये थे. एक एक कर सभी की जांच की गई .फिर सभी को इकट्ठा कर आग बुझाने वाली मशीन से दवा छिड़क दी गई . दवा की बूंदें पड़ते ही रामलाल की आंखों में जलन होने लगी थी . मदन भी आंख बंद किए कराह रहा था और भी लोगों को परेशानी हो रही थी पर कोई सुनने को तैयार ही नहीं था .दवा झिड़कने वाले कर्मचारी उल्टा सीधा बोल रहे थे . सारे लोगों को एक स्कूल में रोक दिया गया था . सैकड़ों लोग और कमरे कम . बिछाने के लिए केवल दरी थी . पानी के लिए हैंडपंप था . महिलाओं के लिए ज्यादा परेशानी थी . दो रोटी और अचार खाने को दे दिया गया था .

“साले हरामखोरों ने परेशान कर दिया” बड़बड़ाता हुआ एक कर्मचारी जैसे ही निकला एक महिला ने उसे रोक लिया “क्या बोला ….हरामखोर … अरे हम तो अच्छे भले जा रहे थे हमको जबरन रोक लिया और अब गाली दे रहे हैं” .

महिला की आवाज सुनकर और भी लोग इकट्ठा हो गए थे .

“सालों को जमाई जैसी सुविधाएं चाहिए …”

वह फिर बड़बड़या .

“रोकने की व्यवस्था नहीं थी तो काहे को रोका…दो सूखी रोटी देकर अहसान बता रहे हैं” . किसी ने जोर से बोला था ताकि सभी सुन लें . पर साहब को यह पसंद नहीं आया . उन्होंने हाथ में डंडा उठा लिया था “कौन बोला…जरा सामने तो आओ.. यहां मेरी बेटी की बारात लग रही है क्या ….जो तुम्हें छप्पन व्यंजन बनवाकर खिलवायें”.

सारे सकपका गये .वे समझ चुके थे कि उन्हें कुछ दिन ऐसे ही काटना पड़ेंगे .छोटे से कमरे में बहुत सारे लोग जैसे तैसे रात को सो लेते और दिन में बाहर बैठे रहते .बाथरूम तक की व्यवस्था नहीं थी औरतें बहुत परेशान हो रहीं थीं .कोई नेताजी आए थे उनसे मिलने .वहां के कर्मचारियों ने पहले ही बता दिया था कि कोई नेताजी से कोई शिकायत नहीं करेगा इसलिए बाकी  सारे लोग तो खामोश रहे पर एक बुजुर्ग महिला खामोश नहीं रह पाई . जैसे ही नेताजी ने मुस्कुराते हुए पूछा “कैसे हो आप लोग…. हमने आपके लिए बहुत सारी व्यवस्थाएं की है उम्मीद है आप अच्छे से होंगे”

बुजुर्ग महिला भड़क गई

“दो सूखी रोटी और सड़ी दाल देकर अहसान बता रहे हो .”

किसी को उम्मीद नहीं थी .सभी लोग सकपका गये . एक कर्मचारी उस महिला की ओर दोड़ा ,पर महिला खामोश नहीं हुई “हुजूर यहां कोई व्यवस्था नहीं है हम लोग एक कमरे में भेड़ बकरियों की तरह रह रहे हैं ”

नेताजी कुछ नहीं बोले .वे लौट चुके थे . उनके जाने के बाद सारे लोगों पर कहर टूट पड़ा था .

सरकार ने बस भिजवाई थी ताकि सभी लोग अपने अपने गांव लौट सकें . मदन और रामलाल एक ही बस में बैठ रहे थे ,तभी किसी महिला के रोने की आवाज सुनाई दी थी .उत्सुकता वश वो वहां पहुंच गया था .एक आदमी एक औरत के बाल पकड़ पीठ पर मुक्के मार रहा था . वह औरत दर्द से बिलबिला रही थी .

“इसे क्यों मार रहे हो भाई” रामलाल से सहन नहीं हो रहा था .

“ये तू बीच में मत पड़, ये मेरी घरवाली है समझ गया तू”

उसने अकड़ कर कहा

“अच्छा घरवाली है तो ऐसे मारोगे”

“तुझे क्या जा अपना काम कर”

रामलाल का खून खौलने लगा था “पर बता तो सही इसने किया क्या है”

“ये औरत मनहूस है इसके कारण ही मैं परेशान हो रहा हूं” ,कहते हुए उसने जोर से औरत के बाल खीचे .वह दर्द से रो पड़ी . रामलाल सहन नहीं कर सका . उसने औरत का हाथ पकड़ा और अपनी बस में ले आया .

“तुम  मेरे साथ बैठो देखता हूं कौन माई का लाल है जो तुम्हें हाथ लगायेगा”.

औरत बहुत देर तक सुबकती रही थी . कमला नाम बताया था उसने . उसने तो केवल यह सोचा था कि उसके आदमी का गुस्सा जब शांत हो जायेगा तो वो ही उसे ले जायेगा .पर वो उसे लेने नहीं आया “अच्छा ही हुआ उसने उसका जीवन खराब कर रखा था, पर वह यह जायेगी कहां” . प्रश्न तो रामलाल के थे पर उतर उसके पास नहीं था .बस से उतर कर उसने उसे साथ ले जाने का फैसला कर लिया था .

रामलाल के साथ कमला भी सोचती हुई कदम बढ़ा रही थी . उसे नहीं मालूम था कि उसका भविष्य क्या है पर रामलाल उसे अच्छा लगा था . वह जिन यातनाओं से होकर गुजरी है शायद उसे उनसे छुटकारा मिल जाए .

मां बाहर आंगन में बैठी ही मिल गई थी .

वह उनसे लिपट पड़ा ” मां….” उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे . रो तो मां भी रही थी , जब से लाकडाउन लगा था तब से ही मां उसके लिए बैचेन थीं . उन्होंने उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया था .दोनों रो रहे थे , कमला चुपचाप मां बेटे को रोता हुआ देख रही थी .अपने आंसू पौंछ कर उसने कमला की ओर इशारा किया “मां आपकी बहु…..”

चौंक गईं मां ” बहु ….. तूने बगैर मुझसे पूछे ब्याह रचा लिया ….?”

“वो मां मजबूरी थी लाकडाउन के कारण…. गांव आना था इसे कहां छोड़ता…. बेसहारा है न मां”

मां ने नजर भर कर कमला को देखा

“चल अच्छा किया”

मां ने कमला का माथा चूम लिया.

Family Drama : एक और अध्याय – आखिर क्या थी दादी मां की कहानी

Family Drama :  वृद्धाश्रम के गेट से सटी पक्की सड़क है, भीड़भाड़ ज्यादा नहीं है. मैं ने निकट से देखा, दादीमां सफेद पट्टेदार धोती पहने हुए वृद्धाश्रम के गेट का सहारा लिए खड़ी हैं. चेहरे पर  झुर्रियां और सिर के बाल सफेद हो गए हैं. आंखों में बेसब्री और बेबसी है. अंगप्रत्यंग ढीले हो चुके हैं किंतु तृष्णा उन की धड़कनों को कायम रखे हुए है.

तभी दूसरी तरफ से एक लड़का दौड़ता हुआ आया. कागज में लिपटी टौफियां दादीमां के कांपते हाथों में थमा कर चला गया. दादीमां टौफियों को पल्लू के छोर में बांधने लगीं. जैसे ही कोई औटोरिकशा पास से गुजरता, दादीमां उत्साह से गेट के सहारे कमर सीधी करने की चेष्टा करतीं, उस के जाते ही पहले की तरह हो जातीं.

मैं ने औटोरिकशा गेट के सामने रोक दिया. दादीमां के चेहरे से खुशी छलक पड़ी. वे गेट से हाथ हटा कर लाठी टेकती हुई आगे बढ़ चलीं.

‘‘दादीमां, दादीमां,’’ औटोरिकशा से सिर बाहर निकालते हुए बच्चे चिल्लाए.

‘‘आती हूं मेरे बच्चो,’’ दादीमां उत्साह से भर कर बोलीं, औटोरिकशा में उन के पोतापोती हैं, यही समय होता है जब दादीमां उन से मिलती हैं. दादीमां बच्चों से बारीबारी लिपटीं, सिर सहलाया और माथा चूमने लगीं. अब वे तृप्त थीं. मैं इस अनोखे मिलन को देखता रहता. बच्चों की स्कूल से छुट्टी होती और मैं औटोरिकशा लिए इसी मार्ग से ही निकलता. दादीमां इन अमूल्य पलों को खोना नहीं चाहतीं. उन की खुशी मेरी खुशी से कहीं अधिक थी और यही मुझे संतुष्टि दे जाती. दादीमां मुझे देखे बिना पूछ बैठीं, ‘‘तू ने कभी अपना नाम नहीं बताया?’’

‘‘मेरा नाम रमेश है, दादी मां,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब तुझे नाम से पुकारूंगी मैं,’’ बिना मेरी तरफ देखे ही दादीमां ने कहा.

स्कूल जिस दिन बंद रहता, दादीमां के लिए एकएक पल कठिन हो जाता. कभीकभी तो वे गेट तक आ जातीं छुट्टी के दिन. तब गेटकीपर उन्हें समझ बुझा कर वापस भेज देता. दादीमां ने धोती की गांठ खोली. याददाश्त कमजोर हो चली थी, लेकिन रोज 10 रुपए की टौफियां खरीदना नहीं भूलतीं. जब वे गेट के पास होतीं, पास की दुकान वाला टौफियां लड़के से भेज देता और तब तक मुझे रुकना पड़ता.

‘‘आपस में बांट लेना बच्चो…आज कपड़े बहुत गंदे कर दिए हैं तुम ने. घर जा कर धुलवा लेना,’’ दादीमां के पोपले मुंह से आवाज निकली और तरलता से आंखें भीग गईं.

मैं मुसकराया, ‘‘अब चलूं, दादी मां, बच्चों को छोड़ना है.’’

‘‘हां बेटा, शायद पिछले जनम में कोईर् नेक काम किया होगा मैं ने, तभी तू इतना ध्यान रखता है,’’ कहते हुए दादीमां ने मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेर दिया था.

‘‘कौन सा पिछला जनम, दादी मां? सबकुछ तो यहीं है,’’ मैं मुसकराया.

दादीमां की आंखों में घुमड़ते आंसू कोरों तक आ गए. उन्होंने पल्लू से आंखें पोंछ डालीं. रास्तेभर मैं सोचता रहा कि इन बेचारी के जीवन में कौन सा तूफान आया होगा जिस ने इन्हें यहां ला दिया.

एक दिन फुरसत के पलों में मैं दादीमां के हृदय को टटोलने की चेष्टा करने लगा. मैं था, दादीमां थीं और वृद्धाश्रम. दादीमां मुझे ले कर लाठी टेकतेटेकते वृद्धाश्रम के अपने कमरे में प्रवेश कर गईं. भीतर एक लकड़ी का तख्त था जिस में मोटा सा गद्दा फैला था. ऊपर हलके रंग की भूरी चादर और एक तह किया हुआ कंबल. दूसरी तरफ बक्से के ऊपर तांबे का लोटा और कुछ पुस्तकें. पोतापोती की क्षणिक नजदीकी से तृप्त थीं दादीमां. सांसें तेजतेज चल रही थीं. और वे गहरी सांसें छोड़े जा रही थीं.

लाठी को एक ओर रख कर दादीमां बिस्तर पर बैठ गईं और मुझे भी वहीं बैठने का इशारा किया. देखते ही देखते वे अतीत की परछाइयों के साथसाथ चलने लगीं. पीड़ा की धार सी बह निकली और वे कहती चली गईं.

‘‘कभी मैं घर की बहू थी, मां बनी, फिर दादीमां. भरेपूरे, संपन्न घर की महिला थी. पति के जाते ही सभी चुकने लगा…मान, सम्मान और अतीत. बहू घर में लाई, पढ़ीलिखी और अच्छे घर की. मुझे लगा जैसे जीवन में कोई सुख का पौधा पनप गया है. पासपड़ोसी बहू को देखने आते. मैं खुश हो कर मिलाती. मैं कहती, चांदनी नाम है इस का. चांद सी बहू ढूंढ़ कर लाई हूं, बहन.

‘‘फिर एकाएक परिस्थितियां बदलीं. सोया ज्वालामुखी फटने लगा. बेटा छोटी सी बात पर ? झिड़क देता. छाती फट सी जाती. मन में उद्वेग कभी घटता तो कभी बढ़ने लगता. खुद को टटोला तो कहीं खोट नहीं मिला अपने में.

‘‘इंसान बूढ़ा हो जाता है, लेकिन लालसा बूढ़ी नहीं होती. घर की मुखिया की हैसियत से मैं चाहती थी कि सभी मेरी बातों पर अमल करें. यह किसी को मंजूर न हुआ. न ही मैं अपना अधिकार छोड़ पा रही थी. सब विरोध करते, तो लगता मेरी उपेक्षा की जा रही है. कभीकभी मुझे लगता कि इस की जड़ चांदनी है, कोई और नहीं.

‘‘एक दिन मुझे खुद पर क्रोध आया क्योंकि मैं बच्चों के बीच पड़ गई थी. रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था. हर्ष बरामदे में खड़ा चांदनी की राह देख रहा था. झुंझलाहट और बेचैनी से वह बारबार ? झल्ला रहा था. रात गहराई और घड़ी की सुइयां 11 के अंक को छूने लगीं. तभी एक कार घर के सामने आ कर रुकी. चांदनी जब बाहर निकली तब सांस में सांस आई.

‘‘‘ओह, कितनी देर कर दी. मुझे तो टैंशन हो गई थी,’ हर्ष सिर झटकते हुए बोला था. चांदनी बता रही थी देर से आने का कारण जिसे मैं समझ नहीं पाई थी.

‘‘‘यह ठीक है, लेकिन फोन कर देतीं. तुम्हारा फोन स्विचऔफ आ रहा था,’ हर्ष फीके स्वर में बोला था.

‘‘‘इतने लोगों के बीच कैसे फोन करती, अब आ गई हूं न,’ कह कर चांदनी भीतर जाने लगी थी.

‘‘मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने इतना ही कहा कि इतनी रात बाहर रहना भले घर की बहुओं को शोभा नहीं देता और न ही मुझे पसंद है. देखतेदेखते तूफान खड़ा हो गया. चांदनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई. हर्र्ष भी उस पर बड़बड़ाता रहा और दोनों ने कुछ नहीं खाया.

‘‘मुझे दुख हुआ, मुझे इस तरह चांदनी को नहीं डांटना चाहिए था. ? झिड़कने के बजाय समझना चाहिए था. लेकिन बहू घर की इज्जत थी, उसे इस तरह सड़क पर नहीं आने देना चाहती थी. एक मुट्ठीभर उपलब्धि के लिए अपने दायित्वों को भूलना क्या ठीक है? नारी को अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए हमेशा ही जूझना पड़ा है.

‘‘हर्ष मेरे व्यवहार से कई दिनों तक उखड़ाउखड़ा सा रहा. लेकिन मैं ने बेटे की परवा नहीं की. हर्ष हर बात पर चांदनी का पक्ष लेता. मां थी मैं उस की, क्या कोई मां अपने बच्चों का बुरा चाहेगी? कई बार मुझे लगता कि बेटा मेरे हाथ से निकला जा रहा है. मैं हर्ष को खोना नहीं चाहती थी.

‘‘यह मेरी कमजोरी थी. मैं हर्ष को समझने की कोशिश करती तो वह अजीब से तर्क देने लग जाता. वह नहीं चाहता कि चांदनी घर में चौकाचूल्हा करे. घर के लिए बाई रखना चाहता था वह, जो मुझे नापसंद था. मैं साफसफाई पसंद थी जबकि सभी अस्तव्यस्त रहने के आदी थे. मूर्ख ही थी मैं कि बच्चों के आगे जो जी में आता, बक देती थी. कभी धैर्य से मैं ने नहीं सोचा कि सामंजस्य किसे कहते हैं.

‘‘चांदनी भी कई दिनों तक गुमसुम रही. बहूबेटा मेरे विरोध में खड़े दिखाई देने लगे थे. एक दिन चांदनी खाना रख कर मेरे सामने बैठ गई. खाना उठाते ही मेरे मुंह से न चाह कर भी अनायास छूट गया, ‘तुम्हारे मायके वालों ने कुछ सिखाया ही नहीं. भूख ही मर जाती है खाना देख कर.’

‘‘चांदनी का मुंह उतर गया, लेकिन कुछ न बोली. आज सोचती हूं कि मैं ने क्यों बहू का दिल दुखाया हर बार. क्यों मेरे मुंह से ऐसे कड़वे बोल निकल जाते थे. अब उस का दंड भुगत रही हूं. आज पश्चात्ताप में जल रही हूं, बहुत पीड़ा होती है, बेटा.’’ दादीमां रोंआसी हो गईं.

‘‘जो हुआ, सो हुआ, दादी मां. इंसान हैं सभी. कुछ गलतियां हो जाती हैं जीवन में,’’ मैं ने अपना नजरिया पेश किया.

दादी आगे कहने लगीं, ‘‘हर्ष को भी न जाने क्या हुआ कि वह मुझ से दूरदूर होता रहा. न जाने मुझ से क्या चूक हो रही थी, वह मैं तब न समझ सकी थी. एक स्त्री होने की वेदना, उस पर वैधव्य. विकट परिस्थिति थी मेरे लिए. लगता था कि मैं दुनिया में अकेली हूं और सभी से बहुत दूर हो चुकी हूं.

‘‘कुछ सालों बाद चांदनी की गोद भर गई. बड़ा संतोष हुआ कि शायद बचीखुची जिंदगी में खुशी आई है. कुछ माह और बीते, चांदनी का समय क्लीनिकों में व्यतीत होता या फिर अपने कमरे में. चांदनी की छोटी बहन नीना आ गई थी. नीना सारा दिन कमरे में ही गुजार देती. देर तक सोना, देर रात तक बतियाते रहना. घर का काफी काम बाई के जिम्मे सौंप दिया गया था.

‘‘एक दिन हर्ष औफिस से जल्दी आया और सीधे रसोई में जा कर डिनर बनाने लगा. इतने में नीना रसोई में आ गई, ‘अरे…अरे जीजू, यह क्या हो रहा है? मुझ से कह दिया होता.’

‘‘मुझ से रहा नहीं गया, सो, बोल पड़ी कि इंसान में समझ हो तो बोलना जरूरी नहीं होता. हर्ष का पारा चढ़ गया और देर तक मुझ पर चीखताचिल्लाता रहा.

‘‘खाना पकाना, कपड़े धोना और छोटेमोटे काम बाई के जिम्मे सौंप कर सभी निश्ंचित थे. मेरे होने न होने से क्या फर्क पड़ता? बाई व्यवहार की अच्छी थी. मेरा भी खयाल रखने लगी. न जाने क्यों मैं सारी भड़ास बाई पर ही निकाल देती. तंग आ कर एक दिन बाई ने काम ही छोड़ दिया. मेरे पास संयम नाम की चीज ही नहीं थी और चांदनी व हर्ष के लिए यह मुश्किल घड़ी थी. यह अब समझ रही हूं.

‘‘समय बीता और चांदनी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. बहुत खुशी हुई, जीने की आस बलवती हो गई. चांदनी की बहन नीना कब तक रहती, वह भी चली गई. इस बीच, एक आया रख ली गई. बिस्तर गीला है तो आया, दूध की दरकार है तो आया. हर्ष जब घर में होता, बच्चों की देखभाल में सारा दिन गुजार देता. औफिस का तनाव और घर की जिम्मेदारी ने हर्ष को चिड़चिड़ा बना दिया. हर्ष मेरे सामने छोटीछोटी बात पर भड़क उठता.

‘‘नोक झोक और तकरार में 3 वर्ष बीत गए. मुझ से रहा नहीं गया. एक दिन मैं ने बहू से कह ही दिया कि वह बच्चों को खुद संभाले, दूसरे पर निर्भर होना ठीक नहीं है. हमारे जमाने में यह सब कहां था, सब खुद ही करना पड़ता था.

‘‘जब पता लगा कि चांदनी का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब है तो मुझे दुख हुआ. वहीं, इस बात से भी दुख हुआ कि किसी ने मुझे नहीं बताया. क्या मैं सब के लिए पराई हो गई थी?

‘‘पराए होने का एहसास तब हुआ जब एक दिन हर्ष ने मुझे ऐसा आघात दिया जिसे सुन कर मैं तड़प गई थी. वह था, वृद्धाश्रम में रहने का. उस दिन हर्ष मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘मां, तुम्हें यहां न आराम है और न ही मानसिक शांति. मैं चाहता हूं कि तुम वृद्धाश्रम में सुखशांति से रहो.’

‘‘मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं. मैं जिस मुगालते में थी, वह एक फरेब निकला. संभावनाओं की घनी तहें मेरी आंखों से उतर गईं. कैसे मैं ने अपनेआप को संभाला, यह मैं ही जानती हूं. विचार ही किसी को भला और बुरा बनाते हैं. मेरे विचारव्यवहार बेटाबहू को रास नहीं आए. मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ दिया गया. महीनों तक मैं बिन पानी की मछली सी तड़पती रही. आंसू तो कब के सूख चुके थे.

‘‘वृद्धाश्रम की महिलाएं मुझे समझती रहीं, कहतीं, ‘मोह त्याग कर भक्ति का सहारा ले लो. यही भवसागर पार कराएगा. यहां कुछ अपनों के सताए हुए हैं, कुछ अपने कर्मों से.’ मैं ने तो अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी थी. बुजुर्गों को आदर अपने व्यवहार से मिलता है जिस की मैं हकदार नहीं थी.’’दादीमां कुछ देर के लिए चुप हो गईं, फिर मेरी ओर कातर दृष्टि से देखती हुई बोलीं, ‘‘बस, यही है कहानी, बेटा.’’

मैं दादीमां की कहानी से कुछ समझने की कोशिश में था. समझ तो एक ही कारण, बुढ़ापा और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को न ढाल पाना.

‘‘5 महीने वृद्धाश्रम में काट दिए हैं, बेटा. बेटाबहू कभीकभार मिलने आ जाते हैं. मोहमाया से कौन बच पाया है, न ऋषिमुनी, न योगी. मैं भी एक इंसान हूं. बहूबेटे की अपराधिन हूं. बच्चों की जिंदगी में दखल देना बड़ी भूल थी जिस का पश्चात्ताप कर रही हूं.’’

तभी कमरे की कुंडी किसी ने खड़खड़ाई. विचारों के साथसाथ बातों की शृंखला टूट गई. दादीमां के खाने का वक्त हो गया है, मैं उठ खड़ा हुआ. दादीमां का शाम का समय आपसी बातों में कट जाएगा जबकि लंबी रात व्यर्थ के चिंतन और करवटें बदलने में. सुबह का समय व्यायाम को समर्पित है तो दोपहर का बच्चों की प्रतीक्षा में.

3 दिन बीते, तब लगा कि दादीमां से मिलना चाहिए. मैं तैयार हो कर सीधे वृद्धाश्रम जा पहुंचा. दादीमां नहानेधोने से फ्री हो चुकी थीं. मुझे देख कर उत्साह से भर गईं और कमर सीधी करते हुए बोलीं, ‘‘बच्चों की छुट्टियां कब तक हैं, बेटा? राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गई हैं.’’

‘‘क्या कहूं दादी मां, उन बच्चों को उन के मातापिता ने बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया, अब वहीं रह कर पढ़ेंगे,’’ मैं ने बु?ो मन से कहा. अब तो मैं वह काम ही नहीं करता. आप को बच्चों से मिलाने के लिए मैं ने यह रूट पकड़ा था.

‘‘क्या? बच्चों को मु?ा से दूर कर दिया. यह अच्छा नहीं किया उन के मातापिता ने. तू ही बता, अब मैं किस के सहारे जिऊंगी? इस से तो अच्छा है कि जीवन को त्याग दूं,’’ दादीमां फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘दादी मां, मन छोटा मत करो. छुट्टी के दिन बोर्डिंग स्कूल से लाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली है. मैं बच्चों से मिलवा दिया करूंगा,’’ मैं दिलासा देता रहा, जब तक दादीमां शांत न हुईं.

‘‘तू ने बहुत उपकार किए हैं मुझ पर. ऋण नहीं चुका पाऊंगी मैं.’’

‘‘कौन सा?ऋण? क्या आप मेरी दादीमां नहीं हैं, बताइए?’’ मैं ने कहा.

दादीमां ने आंखें पोंछीं और आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘हां, तेरी भी दादीमां हूं, मैं धन्य हो गई, बेटा.’’

‘‘फिर ठीक है, कल रविवार है, मैं सुबह आऊंगा आप को लेने.’’

‘‘झूठ तो नहीं कह रहा है, बेटा? अब मुझे डर लगने लगा है,’’ दादीमां ने शंकित भाव से कहा.

‘‘सच, दादी मां, होस्टल से लौट कर रमा से भी मिलवाऊंगा, चलोगी न?’’

‘‘कौन रमा,’’ दादीमां चौंकी.

‘‘मेरी पत्नी, आप की बहू. वह बोली थी कि दोपहर का खाना बना कर रखूंगी, दादीमां को लेते आना.’’

‘‘ना रे, बमुश्किल 2 रोटी खाती हूं,’’ दादीमां थोड़ी देर सोचती रहीं, फिर आंखें बंद कर बुदबुदाईं, ‘‘ठीक है, बहू को नेग देने तो जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘कौन सा नेग?’’

‘‘यह तू नहीं समझेगा,’’ दादीमां ने अपने गले में पड़ी सोने की भारी चेन को बिना देखे टटोला, फिर निस्तेज आंखों में एक चमक आ कर ठहर गई.

तभी बाहर कुछ आहट होने लगी. दादीमां ने बिना मुड़े लाठी टटोलतेटटोलते बाहर ?ांका. हर्ष और चांदनी बच्चों के साथ खड़े थे. वे आवाक रह गईं.

‘‘मां, तुम्हें लेने आए हैं हम. बच्चे आप के बिना नहीं रह सकते,’’ हर्ष सिर ?ाकाए बोल रहा था.

घरवालों के बीच मैं क्या करता. अब मेरा क्या काम रह गया था. मैं वहां से चलने लगा, तो दादीमां ने रोक लिया.

‘‘तू कहां जा रहा है,’’ और मुझे हर्ष से मिलवाया. उस ने मुझे धन्यवाद कहा और मां से फिर चलने को कहा.

दादीमां को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, आतुर हो कर पूछ बैठीं, ‘‘यह सच बोल रहा है न, चांदनी?’’

‘‘सच कह रहे हैं मांजी, हम से जो गलतियां हुईं उन्हें क्षमा कर दीजिए, प्लीज,’’ चांदनी गिड़गिड़ाई.

‘‘क्या गलतियां मुझ से नहीं हुईं, लेकिन अभी एक काम बाकी रह गया है…’’ दादीमां सोच में डूब गईं.

‘‘कौन सा काम, मांजी?’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘पहले मैं अपनी छोटी बहू से मिलूंगी. तुम्हें पता है, मुझे एक बेटाबहू और मिले हैं.’’

दादीमां के कहने का मंतव्य सब की समझ में आ गया. सभी की निगाहें मेरी तरफ मुड़ गईं. उधर दादीमां खुशी के मारे बिना लाठी लिए खड़ी थीं मानो कहानी का एक और अध्याय प्रारंभ करने वाली हों. हर्ष बोला, ‘‘ठीक है, हम सब रमेश के यहां चलेंगे. मैं ड्राइवर को कह देता हूं, गाड़ी वहीं ले आए.’’ हर्ष बिना हिचक मां व अपनी पत्नी के साथ मेरी गाड़ी में बैठ गया.

  लेखक: यदु जोशी ‘गढ़देशी’

Stories : स्वीकृति – डिंपल की सोई ममता कैसे जाग उठी

 Stories : आशीष के जाते ही डिंपल दरवाजा बंद कर रसोईघर की ओर भागी. जल्दी से टिफिन अपने बैग में रख शृंगार मेज के समक्ष तैयार होते हुए वह बड़बड़ाती जा रही थी, ‘आज फिर औफिस के लिए देर होगी. एक तो घर का काम, फिर नौकरी और सब से ऊपर वही बहस का मुद्दा…’ 5 वर्ष के गृहस्थ जीवन में पतिपत्नी के बीच पहली बार इतनी गंभीरता से मनमुटाव हुआ था. हर बार कोई न कोई पक्ष हथियार डाल देता था, पर इस बार बात ही कुछ ऐसी थी जिसे यों ही छोड़ना संभव न था.

‘उफ, आशीष, तुम फिर वही बात ले बैठे. मेरा निर्णय तो तुम जानते ही हो, मैं यह नहीं कर पाऊंगी,’ डिंपल आपे से बाहर हो, हाथ मेज पर पटकते हुए बोली थी. ‘अच्छाअच्छा, ठीक है, मैं तो यों ही कह रहा था,’ आखिर आशीष ने आत्मसमर्पण कर ही दिया. फिर कंधे उचकाते हुए बोला, ‘प्रिया मेरी बहन थी और बच्चे भी उसी के हैं, तो क्या उन्हें…’

बीच में ही बात काटती डिंपल बोल पड़ी, ‘मैं यह मानती हूं, पर हमें बच्चे चाहिए ही नहीं. मैं यह झंझट पालना ही नहीं चाहती. हमारी दिनचर्या में बच्चों के लिए वक्त ही कहां है? क्या तुम अपना वादा भूल गए कि मेरे कैरियर के लिए हमेशा साथ दोगे, बच्चे जरूरी नहीं?’ आखिरी शब्दों पर उस की आवाज धीमी पड़ गई थी. डिंपल जानती थी कि आशीष को बच्चों से बहुत लगाव है. जब वह कोई संतान न दे सकी तो उन दोनों ने एक बच्चा गोद लेने का निश्चय भी किया था, पर…

‘ठीक है डिंपी?’ आशीष ने उस की विचारशृंखला भंग करते हुए अखबार को अपने ब्रीफकेस में रख कर कहा, ‘मैं और मां कुछ न कुछ कर लेंगे. तुम इस की चिंता न करना. फिलहाल तो बच्चे पड़ोसी के यहां हैं, कुछ प्रबंध तो करना ही होगा.’ ‘क्या मांजी बच्चों को अपने साथ नहीं रख सकतीं?’ जूठे प्याले उठाते हुए डिंपल ने पूछा.

‘तुम जानती तो हो कि वे कितनी कमजोर हो गई हैं. उन्हें ही सेवा की आवश्यकता है. यहां वे रहना नहीं चाहतीं, उन को अपना गांव ही भाता है. फिर 2 छोटे बच्चे पालना…खैर, मैं चलता हूं. औफिस से फोन कर तुम्हें अपना प्रोग्राम बता दूंगा.’ तैयार होते हुए डिंपल की आंखें भर आईं, ‘ओह प्रिया और रवि, यह क्या हो गया…बेचारे बच्चे…पर मैं भी अब क्या करूं, उन्हें भूल भी नहीं पाती,’ बहते आंसुओं को पोंछ, मेकअप कर वह साड़ी पहनने लगी.

2 दिनों पहले ही कार दुर्घटना में प्रिया तो घटनास्थल पर ही चल बसी थी, जबकि रवि गंभीर हालत में अस्पताल में था. दोनों बच्चे अपने मातापिता की प्रतीक्षा करते डिंपल के विचारों में घूम रहे थे. हालांकि एक लंबे अरसे से उस ने उन्हें देखा नहीं था. 3 वर्ष पूर्व जब वह उन से मिली थी, तब वे बहुत छोटे थे.

वह घर, वह माहौल याद कर डिंपल को कुछ होने लगता. हर जगह अजीब सी गंध, दूध की बोतलें, तारों पर लटकती छोटीछोटी गद्दियां, जिन से अजीब सी गंध आ रही थी. पर वे दोनों तो अपनी उसी दुनिया में डूबे थे. रवि को तो चांद सा बेटा और फूल जैसी बिटिया पा कर और किसी चीज की चाह ही नहीं थी. प्रिया हर समय, बस, उन दोनों को बांहों में लिए मगन रहती. परंतु घर के उस बिखरे वातावरण ने दोनों को हिला दिया. तभी डिंपल बच्चा गोद लेने के विचार मात्र से ही डरती थी और उन्होंने एक निर्णय ले लिया था. ‘तुम ठीक कहती हो डिंपी, मेरे लिए भी यह हड़बड़ी और उलझन असहाय होगी. फिर तुम्हारा कैरियर…’ आशीष ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था.

दोनों अपने इस निर्णय पर प्रसन्न थे, जबकि वह जानती थी कि बच्चे पालने का अर्थ घर का बिखरापन ही हो, ऐसी बात नहीं है. यह तो व्यक्तिगत प्रक्रिया है. पर वह अपना भविष्य दांव पर लगाने के पक्ष में कतई न थी. वह अच्छी तरह समझती थी कि यह निर्णय आशीष ने उसे प्रसन्न रखने के लिए ही लिया है. लेकिन इस के विपरीत डिंपल बच्चों के नाम से ही कतराती थी. डिंपल ने भाग कर आटो पकड़ा

और दफ्तर पहुंची. आधे घंटे बाद ही फोन की घंटी घनघना उठी, ‘‘मैं अभी मुरादाबाद जा रहा हूं. मां को भी रास्ते से गांव लेता जाऊंगा,’’ उधर से आशीष की आवाज आई.

‘‘क्या वाकई, मेरा साथ चलना जरूरी न होगा?’’ ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, मांजी तो जाएंगी ही. और कुछ दिनों पहले ही बच्चे नानी से मिले थे. उन्हें वे पहचानते भी हैं. तुम्हें तो वे पहचानेंगे ही नहीं. वैसे तो मैं ही उन से कहां मिला हूं. खैर, तुम चिंता न करना. अच्छा, फोन रखता हूं…’’

2 दिनों बाद थकाटूटा आशीष वहां से लौटा और बोला, ‘‘रवि अभी भी बेहोश है, दोनों बच्चे पड़ोसी के यहां हैं. वे उन्हें बहुत चाहते हैं. पर वे वहां कब तक रहेंगे? बच्चे बारबार मातापिता के बारे में पूछते हैं,’’ अपना मुंह हाथों से ढकते हुए आशीष ने बताया. उस का गला भर आया था. ‘‘मां बच्चों को संभालने गई थीं, पर वे तो रवि की हालत देख अस्पताल में ही गिर पड़ीं,’’ आशीष ने एक लंबी सांस छोड़ी.

‘‘मैं ने आज किशोर साहब से बात की थी, वे एक हफ्ते के अंदर ही डबलबैड भिजवा देंगे.’’ ‘‘एक और डबलबैड क्यों?’’ आशीष की नजरों में अचरजभरे भाव तैर गए.

‘‘उन दोनों के लिए एक और डबलबैड तो चाहिए न. हम उन्हें ऐसे ही तो नहीं छोड़ सकते, उन्हें देखभाल की बहुत आवश्यकता होगी. वे पेड़ से गिरे पत्ते नहीं, जिन्हें वक्त की आंधी में उड़ने के लिए छोड़ दिया जाए,’’ डिंपल की आंखों में पहली बार ममता छलकी थी. उस की इस बात पर आशीष का रोमरोम पुलकित हो उठा और वह कूद कर उस के पास जा पहुंचा, ‘‘सच, डिंपी, क्या तुम उन्हें रखने को तैयार हो? अरे, डिंपी, तुम ने मुझे कितने बड़े मानसिक तनाव से उबारा है, शायद तुम नहीं समझोगी. मैं आजीवन तुम्हारे प्रति कृतज्ञ रहूंगा.’’ पत्नी के कंधों पर हाथ रख उस ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की.

डिंपल चुपचाप आशीष को देख रही थी. वह स्वयं भी नहीं जानती थी कि भावावेश में लिया गया यह निर्णय कहां तक निभ पाएगा.

डिंपल सारी तैयारी कर बच्चों के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. 10 बजे घंटी बजी. दरवाजे पर आशीष खड़ा था और नीचे सामान रखा था. उस की एक उंगली एक ने तो दूसरी दूसरे बच्चे ने पकड़ रखी थी. उन्हें सामने देख डिंपल खामोश सी हो गई. बच्चों के बारे में उसे कुछ भी तो ज्ञान और अनुभव नहीं था. एक तरफ अपना कैरियर, दूसरी तरफ बच्चे, वह कुछ असमंजस में थी. आशीष और बच्चे उस के बोलने का इंतजार कर रहे थे. ऊपरी हंसी और सूखे मुंह से डिंपल ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘हैलो, कैसा रहा सफर?’’

‘‘बहुत अच्छा, बच्चों ने तंग भी नहीं किया. यह है प्रार्थना और यह प्रांजल. बच्चो, ये हैं, तुम्हारी मामी,’’ आशीष ने हंसते हुए कहा. परंतु चारों आंखें नए वातावरण को चुपचाप निहारती रहीं, कोई कुछ भी

न बोला. डिंपल ने बच्चों का कमरा अपनी पसंद से सजाया था. अलमारी में प्यारा सा कार्टून पिं्रट का कागज बिछा बिस्कुट और टाफियों के डब्बे सजा दिए थे. बिस्तर पर नए खिलौने रखे थे.

प्रांजल खिलौनों से खेलने में मशगूल हो, वातावरण में ढल गया, किंतु प्रार्थना बिस्तर पर तकिए को गोद में रख, मुंह में अंगूठा ले कर गुमसुम बैठी हुई थी. वह मासूम अपनी खोईखोई आंखों में इस नए माहौल को बसा नहीं पा रही थी. पहले 4-5 दिन तो इतनी कठिनाई नहीं हुई क्योंकि आशीष ने दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी. दोनों बच्चे आपस में खेलते और खाना खा कर चुपचाप सो जाते. फिर भी डिंपल डरती रहती कि कहीं वे उखड़ न जाएं. शाम को आशीष उन्हें पार्क में घुमाने ले जाता. वहां दोनों झूले झूलते, आइसक्रीम खाते और कभीकभी अपने मामा से कहानियां भी सुनते.

आशीष, बच्चों से स्वाभाविकरूप से घुलमिल गया था और बच्चे भी सारी हिचकिचाहट व संकोच छोड़ चुके थे, जिसे वे डिंपल के समक्ष त्याग न पाते थे. शायद यह डिंपल के अपने स्वभाव की प्रतिक्रिया थी. एक हफ्ते बाद डिंपल ने औफिस से छुट्टी ले ली थी ताकि वह भी बच्चों से घुलमिल सके. यह एक परीक्षा थी, जिस में आशीष उत्तीर्ण हो चुका था. अब डिंपल को अपनी योग्यता दर्शानी थी. हमेशा की भांति आशीष तैयार हो कर 9 बजे दफ्तर चल दिया. दोनों बच्चों ने नाश्ता किया. डिंपल ने उन की पसंद का नाश्ता बनाया था.

‘‘अच्छा बच्चो, तुम जा कर खेलो, मैं कुछ साफसफाई करती हूं,’’ नाश्ते के बाद बच्चों से कहते समय हमेशा की भांति वह अपनी आवाज में प्यार न उड़ेल पाई, बल्कि उस की आवाज में सख्ती और आदेश के भाव उभर आए थे. थालियों को सिंक में रखते समय डिंपल उन मासूम चेहरों को नजरअंदाज कर गई, जो वहां खड़े उसे ही देख रहे थे. ‘‘जाओ, अपने खिलौनों से खेलो. अभी मुझे बहुत काम करना है,’’ और वह दोनों को वहीं छोड़ अपने कमरे की ओर बढ़ गई.

कमरा ठीक कर, किताबों और फाइलों के ढेर में से उस ने कुछ फाइलें निकालीं और उन में डूब गई. कुछ देर बाद उसे महसूस हुआ, जैसे कमरे में कोई आया है. बिना पीछे मुड़े ही वह बोल पड़ी, ‘‘हां, क्या बात है?’’

परंतु कोई उत्तर न पा, पीछे देखा कि प्रार्थना और प्रांजल खड़े हैं. प्रांजल धीरे से बोला, ‘‘प्रार्थना को गाना सुनना है.’’

डिंपल ने एक ठंडी सांस भर कमरे के कोने में रखे स्टीरियो को देखा, फिर अपनी फाइलों को. उसे एक हफ्ते बाद ही नए प्रोजैक्ट की फाइलें तैयार कर के देनी थीं. सोचतेसोचते उस के मुंह से शब्द फिसला, ‘‘नहीं,’’ फिर स्वयं को संभाल उन्हें समझाते हुए बोली, ‘‘अभी मुझे बहुत काम है, कुछ देर बाद सुन लेना.’’ दोनों बच्चे एकदूसरे का मुंह देखने लगे. वे सोचने लगे कि मां तो कभी मना नहीं करती थीं. किंतु यह बात वे कह न पाए और चुपचाप अपने कमरे में चले गए.

डिंपल फिर फाइल में डूब गई. बारबार पढ़ने पर भी जैसे मस्तिष्क में कुछ घुस ही न रहा था. पैन पटक कर डिंपल खड़ी हो गई. बच्चों के कमरे में झांका, वहां एकदम शांति थी. प्रार्थना तकिया गोद में लिए, मुंह में अंगूठा दबाए बैठी थी. प्रांजल अपने सूटकेस में खिलौने जमाने में व्यस्त था. ‘‘यह क्या हो रहा है?’’

‘‘अब हम यहां नहीं रहेंगे,’’ प्रांजल ने फैसला सुना दिया. उस रात डिंपल दुखी स्वर में पति से बोली, ‘‘मैं और क्या कर सकती हूं, आशीष? ये मुझे गहरी आंखों से टुकुरटुकुर देखा करते हैं. मुझ से वह दृष्टि सहन नहीं होती. मैं उन्हें प्रसन्न देखना चाहती हूं, उन्हें समझाया कि अब यही उन का घर है, पर वे नहीं मानते,’’ डिंपल का सारा गुबार आंखों से फूट कर बह गया.

प्रांजल और प्रार्थना के मौन ने उसे हिला दिया था, जिसे वह स्वयं की अस्वीकृति समझ रही थी. उस ने उन्हें अपनाना तो चाहा लेकिन उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया. ‘‘मैं जानता हूं, यह कठिन कार्य है, पर असंभव तो नहीं. मांजी ने भी उन्हें समझाया था कि उन की मां बहुत दूर चली गई है, अब वापस नहीं आएगी और पिता भी बहुत बीमार हैं. पर उन का नन्हा मस्तिष्क यह बात स्वीकार नहीं पाता. लेकिन धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘शायद उन्हें यहां नहीं लाना चाहिए था. कहीं अच्छाई के बदले कुछ बुरा न हो जाए.’’ ‘‘नहीं, डिंपी, हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए. इस समय उन्हें भरपूर लाड़प्यार और ध्यान की आवश्यकता है. हम जितना स्नेह उन्हें देंगे, वे उतने ही समीप आएंगे. वे प्यार दें या न दें, हमें उन्हें प्यार देते रहना होगा.’’

‘‘मेरे लिए शायद ऐसा कर पाना कठिन होगा. मैं उन्हें अपनाना चाहती हूं, पर फिर भी अजीब सा एहसास, अजीब सी दूरी महसूस करती हूं. इन बच्चों के कारण मैं अपना औफिस का कार्य भी नहीं कर पाती जब वे

पास होते हैं तब भी और जब दूर होते हैं तब भी. मेरा मन बड़ी दुविधा में फंसा है.’’ ‘‘मैं ने तो इतना सोचा ही नहीं. अगर तुम को इतनी परेशानी है तो कहीं होस्टल की सोचूंगा. बच्चे अभी तुम से घुलेमिले भी नहीं हैं,’’ आशीष ने डिंपल को आश्वासन देते हुए कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं उन्हें वापस नहीं भेजना चाहती, स्वीकारना चाहती हूं, सच. मेरी इच्छा है कि वे हमारे बन जाएं, हमें उन्हें जीतना होगा, आशू, मैं फिर प्रयत्न करूंगी.’’ अगले दिन सुबह से ही डिंपल ने गाने लगा दिए थे. रसोई में काम करते हुए बच्चों को भी आवाज दी, ‘‘मेरी थोड़ी मदद करोगे, बच्चो?’’

प्रांजल उत्साह से भर मामी को सामान उठाउठा कर देने लगा, किंतु प्रार्थना, बस, जमीन पर बैठी चम्मच मारती रही. उस के भोले और उदास चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं था आंखों के नीचे कालापन छाया था जैसे रातभर सोई न हो. पर डिंपल ने जब भी उन के कमरे में झांका था, वे सोऐ ही नजर आए थे. ‘‘अच्छा, तो प्रार्थना, तुम यह अंडा फेंटो, तब तक प्रांजल ब्रैड के कोने काटेगा और फिर हम बनाएंगे फ्रैंच टोस्ट,’’ डिंपल ने कनखियों से उसे देखा. पहली बार प्रार्थना के चेहरे पर बिजली सी चमकी थी. दोनों तत्परता से अपनेअपने काम में लग गए थे.

उस रात जब डिंपल उन्हें कमरे में देखने गई तो भाईबहन शांत चेहरे लिए एकदूसरे से लिपटे सो रहे थे. एक मिनट चुपचाप उन्हें निहार, वह दबेपांव अपने कमरे में लौट आई थी.

अगला दिन वाकई बहुत अच्छा बीता. दोनों बच्चों को डिंपल ने एकसाथ नहलाया. बाथटब में वे पानी से खूब खेले. फिर सब ने साथ ही नाश्ता किया. खरीदारी के लिए वह उन्हें बाजार साथ ले गई और फिर उन की पसंद से नूडल्स का पैकेट ले कर आई. हालांकि डिंपल को नूडल्स कतई पसंद न थे लेकिन उस दोपहर उस ने नूडल्स ही बनाए. आशीष टूर पर गया हुआ था. बच्चों को बिस्तर पर सुलाने से पूर्व वह उन्हें गले लगा, प्यार करना चाहती थी, पर सोचने लगी, ‘मैं ऐसा क्यों नहीं कर पाती? कौन है जो मुझे पीछे धकेलता है? मैं उन्हें प्यार करूंगी, जरूर करूंगी,’ और जल्दी से एक झटके में दोनों के गालों पर प्यार कर बिस्तर पर लिटा आई.

अपने कमरे में आ कर बिस्तर देख डिंपल का मन किया कि अब चुपचाप सो जाए, पर अभी तो फाइल पूरी करनी थी. मुश्किल से खड़ी हो, पैरों को घसीटती हुई, मेज तक पहुंच वह फाइल के पन्नों में उलझ गई. बाहर वातावरण एकदम शांत था, सिर्फ चौकीदार की सीटी और उस के डंडे की ठकठक गूंज रही थी. डिंपल ने सोचा, कौफी पी जाए. लेकिन जैसे ही मुड़ी तो देखा कि दरवाजे पर एक छोटी सी काया खड़ी है.

‘‘अरे, प्रार्थना तुम? क्या बात है बेटे, सोई नहीं?’’ डिंपल ने पैन मेज पर रखते हुए पूछा. पर प्रार्थना मौन उसे देखती रही. उस की आंखों में कुछ ऐसा था कि डिंपल स्वयं को रोक न सकी और घुटनों के बल जमीन पर बैठ प्रार्थना को गले से लिपटा लिया. बच्ची ने भी स्वयं को उस की गोद में गिरा दिया और फूटफूट कर रोने लगी. डिंपल वहीं बैठ गई और प्रार्थना को सीने से लगा, प्यार करने लगी.

काफी देर तक डिंपल प्रार्थना को यों ही सीने से लगाए बैठी रही और उस के बालों में हाथ फेरती रही. प्रार्थना ने उस के कंधे से सिर लगा दिया, ‘‘क्या सचमुच मां अब नहीं आएंगी?’’ अब डिंपल की बारी थी. अत्यंत कठिनाई से अपने आंसू रोक भारी आवाज में बोली, ‘‘नहीं, बेटा, अब वे कभी नहीं आएंगी. तभी तो हम लोगों को तुम दोनों की देखभाल करने के लिए कहा गया है.

‘‘चलो, अब ऐसा करते हैं कि कुछ खाते हैं. मुझे तो भई भूख लग आई है और तुम्हें भी लग रही होगी. चलो, नूडल्स बना लें. हां, एक बात और, यह मजेदार बात हम किसी को बताएंगे नहीं, मामा को भी नहीं,’’ प्रार्थना के सिर पर हाथ फेरते हुए डिंपल बोली. ‘‘मामी, प्रांजल को भी नहीं बताना,’’ प्रार्थना ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ठीक है, प्रांजल को भी नहीं. तुम और हम जाग रहे हैं, तो हम ही खाएंगे मजेदार नूडल्स,’’ डिंपल के उत्तर ने प्रार्थना को संतुष्ट कर दिया.

डिंपल नूडल्स खाती प्रार्थना के चेहरे को निहारे जा रही थी. अब उसे स्वीकृति मिल गई थी. उस ने इन नन्हे दिलों पर विजय पा ली थी. इतने दिनों उपरांत प्रार्थना ने उस का प्यार स्वीकार कर उस के नारीत्व को शांति दे दी थी. अब न डिंपल को थकान महसूस हो रही थी और न नींद ही आ रही थी. अचानक उस का ध्यान अपनी फाइलों की ओर गया कि अगर ये अधूरी रहीं तो उस के स्वप्न भी…परंतु डिंपल ने एक ही झटके से इस विचार को अपने दिमाग से बाहर निकाल फेंका. उसे बच्ची का लिपटना, रोना तथा प्यारभरा स्पर्श याद हो आया. वह सोचने लगी, ‘हर वस्तु का अपना स्थान होता है, अपनी आवश्यकता होती है. इस समय फाइलें इतनी आवश्यक नहीं हैं, वे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर सकती हैं, पर बच्चे…’

डिंपल ने प्रार्थना को प्यारभरी दृष्टि से निहारते देखा तो वह पूछ बैठी, ‘‘अच्छा, यह बताओ, अब कल की रात क्या करेंगे?’’ ‘‘मामी, फिर नूडल्स खाएंगे,’’ प्रार्थना ने नींद से बोझिल आंखें झपकाते हुए कहा.

‘‘मामी नहीं बेटे, मां कहो, मां,’’ कहते हुए डिंपल ने उसे गोद में उठा लिया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें