‘‘दीदी, तुम्हारे लिए जतिन का फोन है,’’ कह कर मैं हंसती हुई दीदी के हाथ में फोन दे कर बाहर चली गई.

तभी पिताजी की आवाज आई, ‘‘किस का फोन है इतनी रात में?’’

‘‘जी पापा, वो.... दीदी की एक सहेली का.’’

‘‘पर मैं ने तुम दोनों से क्या कह रखा है?’’ पापा चिल्लाए तो उन की ऊंची आवाज सुन कर मैं सहम गई. मुझे लगा आज तो दीदी की खैर नहीं. वह हमारे कमरे में चले आए और दीदी को फोन पर हंसते हुए देख कर गरज पड़े.

‘‘स्नेहा, क्या हो रहा है?’’

पापा की आवाज से दीदी के हाथ से रिसीवर छूट गया. पापा ने रिसीवर उठाया और उसी लहजे में बोले, ‘‘हैलो, कौन है वहां?’’

उधर से कोई आवाज न पा कर उन्होंने रिसीवर पटक दिया.

‘‘बताओ कौन था?’’

‘‘कोई नहीं पापा. नीरज भैया थे. आप उन से हमेशा नाराज रहते हैं न. इसलिए उन्होंने आप से बात नहीं की,’’ दीदी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बड़ी मौसी के बेटे का नाम ले लिया.

नीरज भैया पढ़ाई पर जरा कम ध्यान देते थे. इस वजह से पापा उन्हें पसंद नहीं करते थे.

‘‘इस समय क्यों फोन किया था उस नालायक ने?’’

‘‘पापा, उन्हें मेरी कुछ पुरानी किताबें चाहिए थीं.’’

‘‘उसे कब से किताबें अच्छी लगने लगीं? 11 बज गए हैं घड़ी में अलार्म लगाओ और बत्ती बंद कर सो जाओ.’’

पापा के जाते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘बच गए दीदी.’’

बस, यही थी हमारी जिंदगी. मम्मीपापा, दोनों के अनुशासन के बीच झूठ के सहारे हमारी जिंदगी कट रही थी. मम्मी तो कभीकभी मनमानी करने भी देती थीं पर पिताजी, वह तो लगता था कि पूर्वजन्म के हिटलर थे.

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