Family Story in Hindi: बायोलौजिकल फादर

Family Story in Hindi: ‘‘मम्मा पापा को कह दीजिए कि मेरे स्कूल न आया करें.’’ ‘‘मगर क्यों बेटी?’’ ‘‘कह दिया न न आया करें बस.’’ ‘‘अरे, तो कोई कारण तो होगा?’’ ‘‘मुझे पसंद नहीं उन का स्कूल आना. क्या यह कारण काफी नहीं?’’ ‘‘लेकिन रूसा तुम ही तो चाहती थीं कि पापा ही तुम्हारी पेरैंट्स मीटिंग में आएं. तुम्हारी खातिर वे हर बार दफ्तर से छुट्टी लेते थे.’’ ‘‘वह तब की बात थी,’’ रूसा उखड़े स्वर में बोली. ‘‘रूसा, मैं आजकल देख रही हूं तुम्हारा व्यवहार अपने पापा के प्रति बहुत रूढ़ होता जा रहा हो. यह ठीक बात नहीं बेटी.’’

लेकिन रूसा बिना कोई जवाब दिए अपने कमरे में चली गई. मैं हैरान रह गई यह क्या हो गया है इस लड़की को… धीरज तो जान थे उस की, रातदिन, पापा… पापा… कहते हुए उन से ही लिपटी रहती थी. जब कभी दफ्तर से आने में देरी हो जाती तो रोने लगती, बारबार फोन करती, पापा कितनी देर हो गई आइए न.

खाने पर उन का इंतजार करती, बिना धीरज के कभी खाना नहीं खाती. पहला निवाला पापा खिलाएंगे तभी खाएगी. मेरा तो कोई वजूद ही नहीं धीरज के सामने. कहीं जाना है तो पापा चाहिए, स्कूल की पेरेंट्स मीटिंग हो तो पापा चाहिए. धीरज भी तो दिल से चाहते हैं, कितनी परवाह करते हैं उस की लेकिन पिछले कई दिनों से मैं महसूस कर रही हूं कि रूसा बातबात पर धीरज को झिड़क देती है. पहले दोनों घंटों किसी बात को ले कर स्वस्थ चर्चा करते थे.

आजकल रूसा उन से चर्चा कम करती है, अपमानित अधिक करती है. एक धीरज ही हैं जो मुसकरा कर रह जाते हैं. मैं ने कई बार रूसा को उसके इस व्यवहार पर डांटा, ‘‘कैसे बात कर रही हो अपने पापा से… क्या यही सीखती हो स्कूल में अपने पापा से ऐसे बात की जाती है? तब धीरज ने ही हर बार मुझे रोक दिया, ‘‘जाने दो निकिता बच्ची है अभी वह.’’ ‘‘कैसे जाने दूं. अरे, संस्कार नाम की कोई चीज होती है,’’ मैं कहती. मुझे रूसा का यह व्यवहार बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. पिछले हफ्ते ही धीरज ने कहा, ‘‘रूसा ‘ऐनिमल’ लगी है मौल में.

इरादा हो तो औफिस से आते हुए टिकट ले आऊं?’’ पहले तो पिक्चर जाने की बात सुन खुशी से उछल पड़ती थी, लेकिन उस रोज उसने धीरज को टका सा जवाब दे दिया, ‘‘आप और मम्मा हो आइए, मैं अपने दोस्तों के साथ यह फिल्म देखना चाहती हूं.’’ महसूस तो धीरज भी कर रहे होंगे इस बदलाव को मगर जैसाकि उन का नाम है धीरज… बहुत धैर्य है उन में, शिकायत जैसी कोई चीज तो मानो उन की डिक्शनरी में ही नहीं है.

लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि वह कुछ भी कहे, हमेशा पापा के साथ जाने को ललकती रहती और अब कभी उसे अकेले जाते देख धीरज कहते चलो मैं साथ चलता हूं तो झट कह देती कि क्यों… क्या मैं अकेले नहीं जा सकती? मैं रातदिन इसी ऊहापोह में रहती कि क्या हो गया है इसे… कैसे इस समस्या से निबटारा पाऊं? कैसे उसे समझऊं? धीरज से कहती हूं तो हमेशा की तरह कह देते हैं, ‘‘निकिता, तुम बेकार में टैंशन ले रही हो… अकसर इस उम्र में बच्चों में यह बदलाव होता है, यह टीनऐज की प्रौब्लम है, समय के साथ ठीक हो जाएगी.’’

मगर यह सब धीरज के साथ ही क्यों? सरासर अन्याय है, ऐसा भी क्या बदलाव कि परिवार के सदस्यों को ही पराया कर दिया जाए. कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था. रूसा घर पर नहीं थी. आजकल वह मुझे बता कर नहीं जाती… पूछो तो कह देगी, ‘‘जाते वक्त टोकना जरूरी है… चुप नहीं रह सकतीं.’’ तभी उस की फास्ट फ्रैंड नूरा घर आई. बोली, ‘‘आंटी, रूसा है?’’ ‘‘नहीं बेटी.’’ ‘‘कहां गई है आंटी और कितनी देर में आएगी?’’ ‘‘पता नहीं बच्चे कुछ कह कर नहीं गई,’’ फिर कुछ सोच कर मैं ने नूरा से कहा, ‘‘नूरा, बेटी मुझे तुम से कुछ जरूरी बात करनी है.’’ ‘‘जी कहिए आंटी.’’ ‘‘आओ अंदर बैठते हैं,’’ कहते हुए मैं नूरा को अपने कमरे में ले आई. बहुत प्यार और निवेदनभरे शब्दों में मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटी, क्या तुम इन दिनों रूसा के व्यवहार में कोई अंतर देख रही हो?’’ कुछ देर नूरा खामोश रही, मुझे उस की खामोशी खल रही थी. मैं ने फिर कहा, ‘‘देखो बच्चे, तुम उस की खास दोस्त हो इसलिए मैं तुम से पूछ रही हूं.

समझ हैल्प मांग रही हूं तुम से. प्लीज… मेरे सवाल का जवाब दो यों खामोश न रहो नूरा,’’ मैं उस के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. तब उस ने झट खड़े हो मेरे हाथ पकड़ लिए. बोली, ‘‘प्लीज आंटी, ऐसा मत करिए, देखिए मैं बहुत ज्यादा तो नहीं जानती, मगर हां कुछ दिनों से रूसा कुछ परेशान है.’’ ‘‘क्या उस ने तुम्हें अपनी परेशानी बताई?’’ नूरा फिर चुप हो गई.

न जाने क्यों उस के चेहरे से मुझे लग रहा था कि वह कुछ जानती है मगर कह नहीं पा रही. ‘‘तुम जानती हो नूरा… मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि तुम्हें पता है. जो पता है बता दो मुझे बच्चे, इस से शायद हम मिल कर रूसा की कोई हैल्प कर पाएं… उस की परेशानी को समझ पाएं और कोई हल खोज पाएं.’’ ‘‘आंटी, कहते हुए अच्छा नहीं लग रहा मगर आप इतना पूछ रही हैं तो बताती हूं कि रूसा आजकल अंकल को ले कर बहुत परेशान हैं.’’ ‘‘अंकल को ले कर? लेकिन धीरज से उसे क्या परेशानी हो सकती है? वह तो बहुत चाहती है अपने पापा को, मुझ से भी ज्यादा… क्या कुछ कह दिया धीरज ने उसे? कोई बात हुई उस की धीरज से?’’ ‘‘नहीं आंटी, मगर पता नहीं क्यों वह कहती है कि अंकल उस के पापा नहीं हैं, आप लोगों ने जबरदस्ती उसे उस के बायोलौजिकल फादर से दूर किया है और इन दिनों वह अपने बायोलौजिकल फादर को ले कर बहुत कांशियस है.’’ ‘‘क्या?’’ मैं सन्न रह गई, मेरे लिए यह अप्रत्याशित था. ‘‘और क्या कहा रूसा ने?’’ दम तोड़ती आवाज से मैं ने कहा.

‘‘आंटी, मैं बस इतना ही जानती हूं कि अब उस के मन में अंकल के प्रति केवल नफरत है. क्यों? कैसे? यह मुझे नहीं पता.’’ ‘‘ठीक है बेटी, शुक्रिया तुम ने मुझे सहयोग किया. अगर मेरी एक बात और मानो तो रूसा को मत बताना कि हमारे बीच कोई बात हुई है.’’ ‘‘श्योर, बिलकुल नहीं बताऊंगी आंटी.’’ नूरा चली गई मगर छोड़ गई मुझे सवालों के भंवर में.

आखिर कौन हो सकता है जिस ने मेरे इस छोटे से सुखी संसार में आग लगा दी. 1-1 कर सारे परिजन के चेहरे मेरी आंखों के सामने क्रम से आते चले गए लेकिन मन उन सभी चेहरों पर रैड क्रास लगाता जा रहा था. मेरे तो सभी से अच्छे रिश्ते हैं. सभी मेरी हकीकत से परिचित हैं, फिर कौन हैं वह ? मैं अपने ही अतीत के गलियारों में अकेली भटक रही थी.

अतीत की वह घटना एक भंवर की तरह मेरे चारों ओर तेज गति से घूम रही थी और मैं उस में बिना अपनी मरजी के गोते लगा रही थी. क्या दोष है मेरा? फिर क्यों कुदरत मेरी इतनी परीक्षा ले रही है? बड़ी मुश्किल से खुशी मेरे हिस्से आई है, धीरज जैसा पति किसीकिसी को ही मिलता है. सच यह उन के प्यार का ही परिणाम है कि मैं अपने अतीत के दुष्चक्त्र से उभर पाई. मैं आत्मालाप ही कर रही थी कि मोबाइल की घंटी बज उठी, देखा मेरी कजिन रितु थी.

‘‘हां रितु, बोल कैसे याद किया? आ रही है क्या घर?’’ ‘‘नहीं निक्कू घर तो नहीं आ रही हूं अभी, मगर तू बता तू कैसी है?’’ ‘‘ठीक हूं, मगर यह सवाल?’’ उस ने बिना मेरी बात का उत्तर दिए अगला सवाल कर दिया, ‘‘तू कहां है अभी?’’ ‘‘घर पर और कहां रहूंगी?’’ ‘‘और जीजू?’’ ‘‘जीजू औफिस में.’’ ‘‘रूसा?’’ ‘‘वह कहीं गई है लेकिन तू इतना क्यों पूछ रही है? कोई खास बात?’’ इस बार मैं ने उस के सवाल का उत्तर दिए बगैर सवाल किया. ‘‘निक्कू, दरअसल बात यह है कि आज मुझे मार्केट में चंदन मिला था.’’

चंदन नाम सुनते ही एक पल को लगा दिल की धड़कन ही थम गई… पूरी देह में किसी ने गरम लावा उड़ेल दिया हो. ‘‘निक्कू… निक्कू… तू ठीक तो है न?’’ मेरी ओर से कोई प्रतिक्रिया न पा कर रितु घबराते हुए बोली. ‘‘अ… हां… हां… रितु सुन रही हूं, क्या कह रहा था वह?’’ ‘‘कहेगा क्या वह, मांबाप ने नाम भले ही चंदन रखा है उस का मगर विष की चलतीफिरती दुकान है वह.

जरा भी नहीं बदला वह निक्कू, जाने क्यों मुझे उस के इरादे ठीक नहीं लग रहे.’’ बात कुछकुछ समझ आ रही थी मुझे, फिर भी मैं ने रितु से पूछा, ‘‘क्या कह रहा था रितु वह? मुझे पूरी बात बता.’’ ‘‘वह इसी शहर में तबादला करा कर आ गया है. उस ने शादी तो तभी कर ली थी मगर उसे अब तक कोई बच्चा नहीं हुआ और लगता है कोई उम्मीद भी नहीं. इसीलिए उस की नीयत अपनी रूसा पर है.

वह अपनी बेटी को वापस लेना चाहता है, शायद तबादला भी इसीलिए कराया है. तू रूसा का ध्यान रखना निक्कू. तू जानती है वह शातिर दिमाग है कुछ भी कर सकता है. बाकी मैं 1-2 दिन में आकर तुझे मिलती हूं.’’ कहते हुए रितु ने मोबाइल औफ कर दिया. मैं जड़ सी काफी देर सोफे पर बैठी रही. मन किया जोरजोर से चीख पड़ूं क्यों… मेरे साथ ये सब? आखिर क्या बिगाड़ा है मैं ने कुदरत का? मेरी परीक्षा लेने पर क्यों तुला हुआ है? कितनी मुश्किल से संभली है मेरी गृहस्थी.

एक बार उजाड़ कर मन नहीं भरा… फिर मुझे मानसिक संताप दे कर बीमारी के कठघरे में डालना चाहता है. मैं क्या करूं… किस से कहूं? धीरज से… नहीं… नहीं उन से कुछ नहीं कहूंगी, किस से मदद मांगू… कौन करेगा मदद? भारी संकट नजर आ रहा था मुझे. मैं काफी देर यों ही आंखें बंद किए बैठी रही. मुझे याद आया मेरे उन डिप्रैशन के दिनों में मेरी मैडिटेशन गुरु ने कहा था जब भी ऐसी स्थिति आए जिस में तुम्हें कोई हल नजर न आए तब कुछ देर आंखें बंद कर बैठे रहो. जिंदगी की किताब कोई अजूबी नहीं, इस के हर प्रश्न का उत्तर इसी किताब के किसी पन्न पर दर्ज होता है.

बस पूरी शक्ति केंद्रित कर उसे खोजना होता है. थोड़ी देर बाद मन से आवाज आई, मुझे एक बार सारी बातें रूसा को बता देनी चाहिए. अगर तब भी वह चंदन के साथ जाना चाहे तो वह उसे रोकेगी नहीं बल्कि भुला देगी उसे और अपने धीरज के साथ कहीं और जा कर बस जाएगी. थोड़ी देर बाद जब रूसा लौटी तो मैं ने घड़ी देखी, अभी धीरज को दफ्तर से आने में काफी वक्त है.

अत: आज ही इस बात का फैसला कर लूंगी. ‘‘आ गई बेटी… कहां गई थी? बता कर जाती तो अच्छा होता, मुझे फिक्र हो रही थी.’’ ‘‘अपने पर्सनल काम से गई थी,’’ उस ने छोटा सा उत्तर दिया. मन आहत हो गया जिस बच्ची का हम से अधिक कोई पर्सनल न था, आज उस के लिए हम पराए हो गए हैं. मैं समझ गई चंदन ने मेरी बच्ची की जिंदगी में जहर घोल दिया है. ‘‘यहां आओ रूसा, मुझे तुम से कुछ बात करनी है,’’ मैं ने दरवाजा लगाते हुए कहा. ‘‘क्या बात करनी है जल्दी से कीजिए, मुझे बहुत काम है.’’ मन रो उठा उस के इस कठोर व्यवहार से.

धीरज पिछले कई दिनों से इस व्यवहार को हंस कर कैसे झेल रहे हैं? न जाने कहां से लाते हैं इतनी हिम्मत? मुझे भी हिम्मत से काम लेना होगा. ‘‘बैठो यहां.’’ रूसा बेमन से सोफे पर धंस गई. मैं ने बिना उस की परवाह किए अपनी बात कहनी शुरू की, ‘‘मैं जो कुछ कह रही हूं उसे बहुत ध्यान से सुनना रूसा, फिर तुम्हें एक दिन का समय देती हूं उस पर अच्छे से विचार करना. उस के बाद तुम्हारा जो भी निर्णय होगा हमें वह मंजूर होगा.’’ मेरा इतना कहते ही वह मेरी ओर गौर से देखने लगी. ‘‘बात आज से 17 साल पुरानी है, मैं बीए फाइनल में थी, मेरे पापा को उन के किसी रिश्तेदार ने मेरे लिए एक रिश्ता बताया. लड़का पढ़ालिखा और सरकारी नौकरी में था, परिवार का इकलौता बेटा था और कोई औलाद नहीं थी.

मेरे पापा को लगा सरकारी नौकरी है इसलिए बेटी को आर्थिक रूप से कोई परेशानी नहीं होगी, ऊपर से एकलौता है इस से उन की बेटी को परिवार का भरपूर प्यार भी मिलेगा. फिर विश्वस्त रिश्तेदार ने यह रिश्ता सुझया है, इसलिए अधिक क्या सोचना. उस समय परिवार में बेटियों से रजामंदी लेने की कोई प्रथा नहीं थी. केवल उन्हें बताया जाता था कि तुम्हारा रिश्ता तय कर दिया गया है.

इस तरह मैं चंदन के परिवार में बहू बन कर आ गई. शादी में जम कर दहेज की मांग रखी चंदन और उस की मां ने,…पापा ने मेरे भविष्य को देख वह भी स्वीकार कर ली. ‘‘कुछ दिन ठीक से गुजरे थे कि उस की मां ने बच्चे के लिए मुझ पर दबाव बनाना शुरू कर दिया, जबकि बच्चे को जन्म केवल स्त्री नहीं देती, तुम विज्ञान की छात्रा हो समझ सकती हो. खैर, समय रहते मुझे गर्भ ठहरा तो उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि उन्हें तो बेटा ही चाहिए, बेटी हुई तो गला दबा दूंगी उस का.

मैं उनकी बातों से एक पल को सहम गई …क्या वाकई अगर बेटी हो गई तो… तो फिर खुद को ही समझती, नहीं… नहीं उन्होंने गुस्से में कह दिया होगा, अपने बच्चे के साथ कोई ऐसा करता है… एक पत्नी की ताकत उस का पति होता है, जिस के सहारे वह जमाने से लड़ सकती है. मैं ने जब चंदन के सामने यह बात रखी तो उस ने दो टूक शब्दों में कहा, ‘‘क्या कहा…?’’ ‘‘यही कि मां सही कह रही है, अगर बेटी हुई तो समझ लेना जिंदा नहीं रहेगी.’’ ‘‘हैरान थी मैं कैसा व्यक्ति है? क्या पढ़ाई की है? नहीं जानता बेटा या बेटी पैदा करने में अकेले स्त्री के हाथ नहीं होता. सरकारी अस्पताल में साधारण प्रसव से बेटी हुई.

अस्पताल में मेरी बेटी बिलकुल स्वस्थ थी. 2 घंटे बाद ही चंदन की मां मुझे घर ले आईं. घर आने के घंटे बाद मैं नहा कर बिस्तर पर लेटी गई. उस बच्ची को चंदन की मां नहलाने ले गईं और थोड़ी देर बाद कपड़े पहना कर और एक कपड़े में लपेट कर मेरे पास सुला गई. बहुत देर तक वह रोई नहीं… मैं ने सोचा सो रही है. मेरी छाती में दूध भर आया तो मैं ने उसे दूध पीने के लिए उठाया. देखा तो वह अपनी सांसें खो चुकी थी. ठंडी और नीली पड़ चुकी थी मेरी बच्ची. नहलाने के बहाने चंदन की मां ने सच में उस का गला घोट दिया था.

सब को यही पता रहा कि बच्ची अचानक मर गई… लेकिन हकीकत मैं जानती थी मगर मुझे इतना आतंकित कर दिया गया था कि किसी को कह नहीं पा रही थी…यहां तक कि मांपिताजी को भी नहीं. ‘‘इस घटना के बाद भी मैं उस घर में रह रही थी, किंतु जैसे पिंजरे में मैना रहती है. अपनी सांसें समेटे… न मालूम किस पल मेरी गरदन भी दबा दी जाए.

अफसोस तो यह कि चंदन पर इस का कोई असर नहीं, समझ नहीं पा रही थी कि कैसा आदमी है. ‘‘इस घटना के बाद मैं हर पल डरीसहमी रहती. 4 महीने गुजरे कि फिर से वही चक्र चला. मुझ पर फिर से गर्भवती होने का दबाव बनाया गया. 6 माह बाद मैं फिर गर्भवती हुई. दूसरी बार भी वही बातें …मुझे धमकाया गया कि याद रखना बेटी हुई तो वही हश्र होगा. लेकिन मैं नहीं चाहती थी कि इस बार यदि बेटी हुई तो मैं उसे खो दूं, इसलिए जैसेजैसे समय करीब आ रहा था मेरा भय बढ़ रहा था. मुझे अपने परिवार से भी ज्यादा मिलने नहीं दिया जाता. वे लोग घर आते तो बस 5-10 मिनट. जब मेरे प्रसव का समय करीब आया मैं ने एक कागज पर पिछली बार के हादसे का जिक्र करते हुए लोकल में रह रही अपनी चचेरी बहन रितु को बुला कर धीरे से वह कागज उसके हाथ में थमा दिया, साथ ही अनुरोध किया कि इस बार भी यदि बेटी हुई तो प्लीज रितु मेरी बच्ची को बचा लेना. ‘‘रितु ने मेरा साथ दिया.

उस ने एक एनजीओ की मदद ली और वही हुआ जिस का डर था, दूसरी बार तुम पैदा हुई एनजीओ की मदद से तुम सही समय पर उस अस्पताल से सकुशल निकाल कर अपनी नानी के घर पहुंचा दी गईं. लेकिन मैं अभी अस्पताल में ही थी, तुम्हारे इस तरह चले जाने से नाराज चंदन और उस की मां मुझे अस्पताल में यह कह कर छोड़ गए कि तुम्हारे लिए अब उस घर में कोई जगह नहीं है… मैं क्या करती एक स्त्री के लिए 2 ही घर होते हैं या तो मायका या ससुराल.’’ ‘‘लेकिन जब उन्होंने मुझे तुम से मांगा तो तुम ने मुझे उन्हें दिया क्यों नहीं? वे कर लेते मेरी परवरिश.’’ ‘‘हा… ऐसा तुम्हें लगता है या तुम्हारी आंखों पर झठ का चश्मा चढ़ा दिया गया है इसलिए तुम ऐसा कह रही हो.

वे तुम्हें मांगेंगे जिन के हाथ तुम्हारा गला घोटने के लिए बेताब थे. जानती हो जिन्होंने रिश्ता कराया था उन्हें भी बहुत अफसोस हुआ तो उन्होंने चंदन की मां को कहा कि बहू को नहीं रखना है न रखो मगर अपनी बच्ची को संभालो या उस का खाना खर्चा दो. सुनना चाहोगी क्या कहा तुम्हारे बायोलौजिकल फादर और उस की मां ने?’’ ‘‘क्या कहा?’’ ‘‘यह कि तुम उन का खून नहीं हो, हमें नहीं पता हमारी बहू का किसकिस से संबंध है. वे करते तुम्हारी परवरिश. मेरा स्वर में नफरत और क्रोध से कांप रहा था. ‘‘फिर क्या हुआ?’’ इस बार रूसा के स्वर में नर्मी थी. ‘‘जो आघात मुझे लगा उस से मैं अपना मानसिक संतुलन खो बैठी थी. मुझे ठीक होने में पूरे 2 साल लगे. यह बहाना मिला चंदन को मुझ से तलाक लेने का कि मैं शुरू से पागल थी.

जब संभली तब तक जिंदगी बहुत आगे निकल चुकी थी और मैं वहीं खड़ी रह गई. पता चला था चंदन ने मुझ से तलाक ले कर दूसरी शादी कर ली और अपना तबादला कहीं ओर करा लिया. कोई पत्नी का हक नहीं दिया मुझे. मेरे परिवार ने भी अपनी बेटी को पा कर उसे भुला दिया. साथ ही तुम्हारी नानी ने तुम्हें बहुत चाव से पाला,’’ बोलतेबोलते मेरा गला सूख गया तो रूसा उठ कर मेरे लिए पानी ले आई. लेकिन मैं बिना पानी पीए ही अपनी बात कह देना चाहती थी. ‘‘फिर…’’ ‘‘फिर आए धीरज हमारी जिंदगी में.

वे तुम्हारे मौसाजी के दोस्त थे. सबकुछ जान कर उन्होंने न केवल मुझे अपनाया बल्कि तुम्हें भी एक पिता का प्यार दिया. तुम्हारी नानी ने तो कहा भी था कि बच्ची को हम संभाल लेंगे लेकिन धीरज ने स्पष्ट कह दिया कि नहीं मैं मांबेटी को अलग नहीं देख सकता. एक चंदन था तुम्हारा बायोलौजिकल फादर जिस ने तुम्हें अपना लहू भी न माना, सीधेसीधे कहूं तो हराम की औलाद कह कर ठुकरा दिया.

दूसरी ओर धीरज जिन्होंने तुम्हें वही प्यार दिया जो एक सगा बाप अपनी संतान को देता है. बेचारे धीरज तो खुद पिता भी न बन पाए. न जाने कहां कमी रह गई. मगर उन्होंने कभी तुम्हें खुद से अलग नहीं माना, हमेशा यही कहते रहे कि क्या हुआ जो रूसा मेरा खून नहीं है, रिश्ते क्या केवल खून के होते हैं, रिश्ते तो प्यार से पनपते हैं. मैं अपनी बेटी को इतना प्यार दूंगा कि कोई नहीं कह पाएगा कि मैं उस का पापा नहीं हूं और उन्होंने वह कर दिखाया.

जहां हमें ऋणी होना चाहिए था उन का, पिछले कई दिनों से वे तुम्हारी नफरत और उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं. मैं यह सब सह नहीं पाऊंगी. बता दे रही हूं. जब भी मैं तुम दोनों के बीच वह प्यार देखती थी तो लगता था सच खून से बढ़ कर होता है प्यार का रिश्ता. मगर नहीं मैं और धीरज गलत साबित हुए. तुम ने साबित कर दिया, आखिर लहू ही बोलता है. हम परवरिश से किसी के संस्कार नहीं बदल सकते. मैं आवेश में कहती जा रही थी. ‘‘खुद को अपराधी महसूस कर रही हूं किस बात की सजा मिल रही है धीरज को? उन की अच्छाई की? उन्होंने हमारे बारे में सोचा दूसरी ओर वह चंदन, शायद मेरी उस बच्ची जिसे मेरे आंचल का रसपान करने का एक मौका भी नहीं दिया उन दुष्टों ने उस का श्राप ही लगा कि उस का वंश नहीं चला. वह निर्वंशी रह गया.

अब अपना नाम चलाने की मजबूरी है तो तुम्हें हासिल करना चाहता है. उसे प्रेम नहीं है तुम से रूसा, तुम उस के पौरुष का प्रमाण हो केवल. इसलिए वह तुम्हें हम से छीन लेना चाहता है. वह आया ही शहर में तुम्हें हासिल करने के लिए. अब फैसला तुम पर छोड़ती हूं. एक दिन का समय देती हूं. तुम्हारा जो भी फैसला होगा हमें मंजूर होगा ही, साथ ही अपने उस फैसले के लिए भविष्य में तुम खुद जिम्मेदार रहोगी.

इस बात का ध्यान रखना कि फिर हम कभी कहीं नहीं होंगे तुम्हारे जीवन में. अब तुम जा सकती हो. बहुत काम है न तुम्हें? मैं ने उसी तैश में अपनी बात समाप्त की.’’ रूसा बुझे कदमों से उठी और अपने कमरे में चली गई. मैं उस के उसे फैसले के लिए खुद को तैयार कर रही थी, मन ही मन खुद को धीरज की गुनहगार महसूस कर रही थी.

सोच लिया था आज धीरज को आने पर सबकुछ बता कर माफी मांग लूंगी. आज की शाम अन्य दिनों से कुछ अधिक गहरी और लंबी लग रही थी. परिणाम पता नहीं क्या होगा. आशंका के कई काले बादल उमड़ रहे थे. कान डोरबैल की ओर ही लगे थे, 7 बज रहे थे. जैसे ही डोरबैल बजी दिल की धड़कन तेज हो गई, सहमते कदमों से दरवाजा खोलने बाहर आई तो देखा रूसा पहले ही दरवाजे पर पहुंच चुकी है, ‘‘वैलकम पापा.’’ ‘‘अरे वाह आज तो मेरा बच्चा बड़े अच्छे मूड में दिख रहा है.

कोई फरमाइश है क्या?’’ धीरज की सहजता देख मेरी आंखें छलक आईं कि किस मिट्टी के बने हो तुम धीरज. ‘‘हुं… पापा,’’ अचानक रूसा गंभीर हो गई और कान पकड़ते हुए बोली, ‘‘आई एम सौरी पापा,’’ और फिर धीरज के गले लग गई. ‘‘अरे किस बात की सौरी बच्चे…’’ ‘‘पापा, पिछले दिनों में थोड़ा भटक गई थी… मेरे कारण मेरे अच्छे पापा का बहुत दिल दुखा, मुझे माफ कर दीजिए पापा, माफ करेंगे न?’’ ‘‘मेरा अच्छा बच्चा,’’ कह कर धीरज ने रूसा को गले लगा लिया. मैं ने कुदरत का धन्यवाद अदा किया. लगा वह तूफानी भंवर अब मेरी गृहस्थी को कोई चोट नहीं पहुंचा पाएगा.

Family Story in Hindi

Hindi Love Story: तुम्हारा साथ

Hindi Love Story: हौजरी की फैक्टरी में कार्यरत किरण तेजी से कपड़ों की पैकिंग में व्यस्त थी. तभी उस की नजर दीक्षा पर पड़ी. दीक्षा को कंपनी में भरती हुए अभी 1 महीना ही हुआ था लेकिन उस की सूनी आंखें एक दर्द समेटे हुए नजर आती हैं. दीक्षा अकसर काम के बीच में रुक जाती और उस की आंखें शून्य में कुछ तलाशने लगती हैं.

किरण भी क्या करे? इस छोटी सी नौकरी के बदौलत किसी तरह अपनी सम्मानजनक जिंदगी को बना कर रखे हुए है. उस का दुख कम है क्या? 25 वर्ष की उम्र तक आते हुए वह इतनी सख्त और भावनाओं से रहित हो जाएगी यह उसे खुद पता नहीं था.

अपने सहकर्मी के संग वह जल्दी घुलतीमिलती नहीं है, यह सोच कर कि क्या बातें होंगी? वही लौट कर पुरानी, घरगृहस्थी और बच्चों की बातें. यही विषय उसे बातचीत करने से रोकते हैं. शादीशुदा औरतों का तो यही रोना रहता है कि मेरे पति को क्या पसंद है या वे मेरे लिए क्या उपहार लाया या मैं ने उस के लिए क्या पकाया, मेरा बच्चा सब से स्मार्ट और मेरा पति सब से भोला, इन्हीं सब बातों से उसे चिढ़ हो जाती थी. जैसे कल की ही बात हो.

वह छोटे से शहर सीतापुर में अपने मम्मीपापा और छोटे भाई के साथ रहती थी. उस का गांव सीतापुर से मात्र 15 किलोमीटर पर है. आम, अमरूद के बगीचे और सब्जी की खेती से प्राप्त आय के अतिरिक्त उस के पिताजी ने टैक्टर की ऐजेंसी भी ले रखी है साधनसंपन्न घर में उस की बहुत लाड़प्यार से परवरिश हुई. 12वीं कक्षा पास करते ही किरण ने आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ जाने की जिद लगा दी.

पिताजी ने भी लखनऊ एक फ्लैट में उस के रहने का इंतजाम कर दिया जिस में उस के साथ 2 अन्य लड़कियां भी रहती थीं. शुरू के 2 वर्ष तो उसे लखनऊ की आबोहवा को समझाने में लग गए. जल्द ही वह भी स्कूटी में फर्राटा भरती लड़़कियों में शामिल हो गई. स्नातक के बाद उस का पढ़ाई से मन उचट गया तो उस के पिताजी उस पर वापस सीतापुर आने का दबाव बनाने लगे. उस के पास लखनऊ में रुकने का कोई कारण भी नहीं बचा था तो उस ने एक बीमा कंपनी में ऐजेंट का काम संभाल लिया.

यह तरकीब उसे मोहित ने बताई जो खुद भी उसी कंपनी में ऐजेंट था. मोहित उस के साथ ही कालेज में भी पढ़ता था. 6 फुट लंबा मोहित दिखने में सुदर्शन और स्वभाव से हंसमुख युवक था. कालेज में उस की कई लड़कियों से दोस्ती थी. वह सब की सहायता को भी हमेशा तत्पर रहता था. जब उसे किरण की समस्या पता चली तो उस की सहायता कर उस की नजरों में भी उठ गया. 2-4 बार वह किरण के साथ सीतापुर भी गया और उस के रिश्तेदारों से मिल कर उन का भी जीवन बीमा कराया.

धीरेधीरे वह किरण के परिवार का अभिन्न अंग बनता चला गया. किरण साधारण नैननक्स की सांवली रंगत की युवती थी. आज तक किसी सहपाठी से ऐसी तवज्जो नहीं मिली थी. वह मोहित के प्रति आकर्षित हो मन ही मन अपने भावी जीवन के सुनहरे स्वप्न बुनने लगी. एक दिन अमीनाबाद में खरीदारी करते हुए उसे एक गुलाबी रंग की चिकनकारी से सजी चादर बहुत पसंद आई मगर उस की कीमत अधिक होने के कारण लेने में झिझक रही थी. ‘‘इसे पैक कर दो,’’ मोहित ने चादर दुकानदार की तरफ बढ़ाते हुए कहा. ‘‘अरे नहीं, आज बहुत शौपिंग कर ली है. इसे फिर कभी आ कर ले जाऊंगी,’’ किरण ने दुकानदार के हाथ से चादर वापस रखते हुए कहा. ‘‘अगले महीने तुम्हारा बर्थडे है, इसे मेरा तोहफा समझा. मुझे ढूंढ़ना पड़ता मगर यह तुम्हारी पसंद का हैं,’’ कह कर मोहित ने उसे तुरंत पैक कर किरण को गिफ्ट कर दिया. उस दिन अमीनाबाद की कुल्फी उसे इतनी स्वाद लगी जैसे जिंदगी में पहली बार कुल्फी खा रही हो.

घर पहुंच कर भी वह यही सोचती रही कि मोहित को मेरा जन्मदिन याद है. इस का मतलब वह भी मेरे प्रति गंभीरता से सोचता है. उस के आगेपीछे न जाने कितनी लड़कियां घूमती रहती हैं मगर उसे मैं पसंद आई. किरण के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. न जाने कितने ख्वाब उस की आंखों में सज गए. अब किरण अपने कपड़ों और मेकअप के प्रति सजग हो उठी. उधर घर वाले उस के लिए रिश्ता तलाशने में जुट गए थे.

मगर किरण की किसी रिश्ते में कोई रुचि नहीं थी. अपने जन्मदिन पर किरण ने अपने बैड पर वही चादर बिछाई. उस से लिपट कर कितने प्रेमप्रस्ताव उस ने मन ही मन मोहित से कह दिए. उस के फ्लैट की अन्य 2 युवतियां रीता और संगीता भी मोहित के आने की खबर से उत्साहित हो उठीं. तीनों ने मिल कर प्लान बनाया कि आज घर में ही केक काट कर डिनर के लिए बाहर चलेंगे. गुलाबी रिबन और गुब्बारे से घर को सजा कर तीनों भी तैयार हो गईं.

नियत समय पर मोहित अपने एक मित्र के साथ फ्लैट में हाजिर हो गया. काली जींस और सफेद टीशर्ट में सजा मोहित कहर ढा रहा था. जल्द ही मोहित और उस का मित्र सौरभ सब से ऐसे घुलमिल गए जैसे पुराने मित्र हों. मोहित ने रीता और संगीता को भी जीवन बीमा पौलिसी लेने को राजी कर लिया. उन्हें मोहित से पौलिसी लेते देख कर किरण ने दोनों की टोक दिया, ‘‘अरे मैं कितने महीनों से तुम्हें इस के लाभ समझा रही हूं मगर तुम्हें समझा नहीं आया और मोहित की बात सुन कर 5 मिनट में फार्म भरने बैठ गईं.’’ ‘‘तुम्हारी बातों में तर्क नहीं था इस ने हमें सरल तरीके से इस के लाभ समझा दिए.’’ रीता ने लापरवाही से कहा. ‘‘क्यों परेशान हो मैं जल्द ही सेल्स मैनेजर बनने वाला हूं फिर तुम्हें ही पौलिसी दिलाया करूंगा,’’

मोहित ने उसे प्यार से समझाया. किरण भी उस की सम्मोहक आंखों में डूब कर रह गई. मोहित और किरण की नजदीकियां बढ़ने लगीं, औफिस से निकल कर जब वे फील्ड वर्क पर होते तो एक बार फ्लैट में जरूर आते. दिन में उस की रूममेट अपने औफिस में रहती थी. उन्हें पता ही नहीं चला कि किरण और मोहित फ्लैट को अपनी कामनाओं की पूर्ति करने का साधन बना चुके हैं.

किरण मोहित की हर बात में आंख मूद कर विश्वास करती. मोहित अब सेल्स मैनेजर बन चुका था और वह उस की चहेती सेल्स ऐजेंट. 2 साल बीत गए. घर वालों ने जब शादी का दबाव डालना शुरू किया तो किरण ने मोहित से ही सीधे बात करना उचित समझा. फ्लैट का दरवाजा लगाते हुए किरण ने मोहित से कहा, ‘‘सुनो, आजकल पिताजी शादी करने के लिए बहुत दबाव बना रहे हैं.’’ मोहित ने किरण को गोद में उठा कर बिस्तर पर लिटाते हुए कहा, ‘‘कुछ महीनों के लिए किसी तरह से टाल दो बस.’’

‘‘फिर कुछ महीनों के बाद क्या होगा?’’ किरण ने अपने मुख पर झाक आए मोहित के घुंघराले बालों को हाथों से पीछे की तरफ समेट कर एक चुंबन लेते हुए पूछा. ‘‘2 महीने में ट्रांसफर लिस्ट निकलने वाली है, मुझे बनारस या कानपुर मिलने वाला है,’’ मोहित उस के शरीर को अपनी बांहों में जकड़ते हुए बोला. ‘‘फिर उस के बाद?’’ किरण रोमांटिक हो उस से सर्प की तरह लिपट कर बोली. ‘‘उस के बाद तुम अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते,’’ कह कर मोहित ने उस के शरीर के साथ ही दिलोदिमाग को भी मसल कर रख दिया. शब्द पिघले शीशे की तरह कानों से उतर कर कलेजे को चीरते हुए चले गए.

मोहित शारीरिक सुख भोग कर तृप्त हो कर सो गया और किरण अपनी बेबसी पर आंसू बहाती रह गई. पिछले 4 साल का घटनाक्रम उस की आंखों में घूम गया… मोहित ने कभी कहा ही नहीं कि वह किरण से प्यार करता हैं. उस से ही शादी करेगा. दोनों के बीच औफिस के विभिन्न विषयों पर घंटों बात हो जाती थी मगर प्यार के कसमेवादे तो कभी नहीं हुए. किरण ने एकतरफा प्यार किया और अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया, जिसे मोहित ने तुरंत स्वीकार कर लिया.

मोहित की जगह कोई भी होता तो शायद यही करता. अब किरण के पास घुटघुट कर रोने के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा था. उस दिन भी दीक्षा को देर तक शून्य में निहारते देख कर किरण कों तरस आ गया. उस ने दीक्षा के पास आ कर उस की पीठ को प्यार से सहला दिया. दीक्षा वर्तमान में लौट आई. सामने किरण की नजरों में उभरी सहानुभूति को देख कर उस की आंखों में कैद दुख का बांध टूट गया. आंसुओं की लहर उमड़ पड़ी, जिसे रोकने के लिए वह उठ कर वाशरूम की तरफ दौड़ पड़ी.

जी भर कर रोने के बाद उस ने अपने मुंह को धो कर संयत किया. वापस अपनी जगह आ कर पूर्ववत कार्य करने लगी. सुमन और किरण में धीरेधीरे मित्रता बढ़ने लगी लेकिन दोनों ही अपने अतीत के विषय में बात करने से कतराती थीं. एक दिन दीक्षा ने किरण को बताया, ‘‘आज मुझे जल्दी निकलना है, मेरे मकानमालिक के बेटे की शादी होने वाली है इसलिए मुझे अपना कमरा खाली करना होगा. अब फिर से नई जगह तलाश करना कितना मुश्किल है.’’ ‘‘कितने समय से यहां रह रही हो?’’ किरण ने पूछा. ‘‘2 साल से, मगर मुझे सिर्फ 2 महीने का ही समय दिया हैं,’’ दीक्षा ने रोनी सूरत बना कर कहा. किरण को उस की काली कजरारी आंखों में याचना दिखी. बोली, ‘‘मैं अपनी सोसायटी में पता करती हूं, तुम भी तलाश जारी रखो.’’

किरण को दीक्षा से हमदर्दी हो उठी. दीक्षा मात्र 20 वर्ष की ही थी. उस के आगे 25 वर्षीय किरण अपनेआप को बहुत सयानी समझाती. किरण मोहित से धोखा खाने के बाद और मोहित की ट्रांसफर के बाद बीमा कंपनी में कार्य करने में खुद को असहज महसूस करती. कंपनी में मोहित की जगह एक नया सेल्स मैनेजर अजय आ गया. अजय उसी के गृहनगर सीतापुर का था. अजय साधारण कदकाठी का मिलनसार युवक था.

कंपनी में उस के आने के बाद स्टाफ में एक नया जोश और उत्साह पैदा हो गया. कंपनी की छमाई रिपोर्ट में उन की ब्रांच का बिजनैस टौप पर था. इसी खुशी में एक होटल में सभी कर्मचारियों के लिए पार्टी रखी गई. किरण आधेअधूरे मन से उस में शामिल हुई. अजय ने उस दिन पार्टी में सभी सदस्यों के आपसी तालमेल को इस का श्रेय दिया लेकिन किरण की कार्यशैली की विशेष प्रशंसा हुई. सभी ने उस का फूलों के गुलदस्ते के साथ जोरदार तालियों से स्वागत किया. किरण पिछला सबकुछ भूल कर काम में डूबती चली गई. उस दिन उसे तेज बुखार था उस ने औफिस से छुट्टी ले ली.

फ्लैट में दवा ले कर अकेले पड़ी थी. ऐसे में उसे अपने भविष्य को ले कर एक अनिश्चिंतता दिखाई दी. उस ने विचार किया कि अपने अभिभावकों के बताए रिश्तों में से एक रिश्ते को वह चुन लेगी. दिनभर बदन दर्द से करवटें बदलते हुए उसे शाम को गहरी नीद आ गई. फ्लैट की डोरबैल से उस की नीद खुली. शाम के 6 बज रहे थे. दरवाजे खोलते ही सामने अजय को देख कर हैरान रह गई. ‘‘ऐसे क्या देख रही हो? क्या मैं तुम्हारा हालचाल नहीं पूछ सकता?’’ अजय ने कहा. ‘‘यह बात नहीं है.

आप को यों अचानक देख कर हैरानी हुई,’’ कह कर उस ने अजय को अंदर आने को कहा. अजय सेब, संतरे के थैलों को उसे पकड़ाते हुए एक कुरसी पर बैठ गया. ‘‘कुछ दिनों के लिए घर जाने की सोच रही हूं,’’ किरण ने कहा. ‘‘जब चलना हो बता देना, मैं भी अपने परिवार से मिलने चल पड़ूंगा,’’ अजय ने लापरवाही से कहा. ‘‘परिवार में कौनकौन हैं,’’ किरण ने औपचारिकता से पूछा. ‘‘मम्मीपापा और छोटा भाई है,’’ अजय ने लापरवाही से जवाब दिया. ‘‘सीतापुर में कब से रहते हो?’’ ‘‘अभी 2 साल पहले ही घर बनवाया है, इस से पहले पूरा परिवार गांव में ही था.’’ ‘‘हमारा भी पुश्तैनी घर गांव में ही है.

सीतापुर का घर, पापा ने 20 साल पहले बनवाया था.’’ उस दिन औफिस में जब किरण अजय के कैबिन में बीमा भुगतान संबंधी फाइल ले कर पहुंची अजय अपनी कुरसी पर मौजूद नहीं था. उस का फोन सामने ही रखा था जिसे देख कर वह समझा गई कि आसपास में ही कहीं गया है. अजय की प्रतीक्षा में वह वही कुरसी पर बैठ गई.

कुछ शादी के कार्ड के नमूने भी रखे हुए थे. उसे याद आया कि अजय ने उसे बताया था कि कार्ड की डिजाइन उस की पसंद की ही रखेगा. किरण ने कार्ड उठाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि तभी अजय का फोन बज उठा. उस में मम्मा शब्द डिस्प्ले हो रहा था. उस ने फोन उठा लिया, ‘‘सुनो मैं अपने मायके जा रही हूं. अब तुम्हारी मारपीट बरदाश्त से बाहर है. अपने दोनों बच्चे भी ले जाऊंगी. तुम्हें उस लड़की के साथ गुलछर्रे उड़ाने है तो उड़ाओ.

मुझे अपनी नौकरानी मत समझाना. अब दोबारा इस विषय में बात भी मत करना.’’ ‘‘रौंग नंबर मिला दिया है आप ने, यह अजय का नंबर है,’’ किरण ने कहा. ‘‘ओह तो तुम्हीं हो वह चुड़ैल. मेरे लिए ही नहीं तुम्हारे लिए भी वह रौंग नंबर है.’’ किरण स्तब्ध रह गई. अजय भी उस के पीछे आ कर खड़ा हो गया. किरण की कुछ समझा में नहीं आ रहा था. अजय अपनी नाकाम शादी के सच्चे, झाठे किस्से सुनाता जा रहा था और वह न जाने क्याक्या अनर्गल बके जा रही थी. कैबिन के बाहर लोग इकट्ठा हो चुके थे. उस दिन के बाद उस औफिस में काम करना उस के लिए मुश्किल होता गया.

उसे अपनी पीठ पर सहकर्मियों की हंसी और सहानुभूति चुभती सी महसूस होती. किरण दिल्ली अपनी मौसी के पास चली आई. कुछ समय बाद, फरीदाबाद की इस फैक्टरी में काम करने लगी और यहीं शिफ्ट हो गई. दीक्षा के लिए इतनी जल्दी अच्छी और सुरक्षित जगह तलाश करना आसान नहीं था इसलिए किरण ने उसे अपने साथ ही फ्लैट में रहने का प्रस्ताव दे दिया.

दीक्षा कम बोलने वाली लड़की है लेकिन घर की साफसफाई और भोजन बनाने में कुशल है जबकि किरण घरबाहर के सारे काम, स्कूटी दौड़ाते हुए मिनटों में निबटा देती. दोनों साथ ही स्कूटी से फैक्टरी जातीं और साथ ही बाजार, सिनेमा का भी आनंद लेतीं. उन की मित्रता घनिष्ठता में बदलने लगी. एक बीमार पड़ती तो दूसरी जीजान से सेवा करती. ‘‘किरण उठो न,’’ दीक्षा ने ट्रे में चाय संग पकौड़ों को बैड की साइड टेबल में रखते हुए कहा. ‘‘सुबहसुबह पकौड़े?’’ ‘‘10 बज गए हैं, कितना सोओगी?’’ दीक्षा ने अपने गीले बालों से टपकते पानी को तौलिए में लपेटते हुए कहा.

‘‘ओह तुम कितनी सुंदर हो दीक्षा. काश, मैं लड़का होती,’’ किरण ने आह भर कर कहा. ‘‘लड़कों का नाम न लेना मुझे नफरत हो चुकी है.’’ ‘‘सही कहा, मुझे भी सख्त नफरत है, मैं ने कभी पूछा नहीं तुम से लेकिन अगर तुम अपना मन हलका करना चाहती हो तो खुल कर कह सकती हो,’’ किरण ने दीक्षा का हाथ पकड़ कर उसे अपने पास बैड पर बैठाते हुए कहा. ‘‘कहूंगी नहीं तो शायद अंदर ही अंदर घुट कर रह जाऊंगी,’’ दीक्षा ने कहा.

दीक्षा कानपुर के कपड़ा व्यवसाई परिवार की सब से बड़ी बेटी थी. उस से छोटी 2 बहनें जुड़वां होने के कारण आपस में ही खेलकूद करती रहतीं. दीक्षा उन से उम्र में 8 वर्ष बड़ी थी. जब वे 10 वर्ष की हुईं, दीक्षा 18 वर्ष की हो गई. वह घर से बाहर अपने मित्रों के संग अधिक समय बिताने लगी. उस का घर में मन कम ही लगता था. उन्हीं दिनों पड़ोसी मकान में हमउम्र 4 नवयुवक किराए पर रहने के लिए आए.

दीक्षा अपनी बालकनी से उन की गतिविधियां देखती रहती थी. कुछ समय पश्चात इशारों में ही हायहैलो होने लगी. फिर फोन नंबर की अदलाबदली भी हो गई. अब वह वीडियोकौल से सभी से जुड़ती चली गई. दीक्षा की मां को जब यह बात पता चली तो उस दिन उस की बहुत पिटाई हुई. दीक्षा ने बहुत समझाया कि वे सिर्फ दोस्त ही तो हैं. मगर उस की मां इन सब बातों के सख्त खिलाफ थीं.

दीक्षा की मां सौतेली हैं, यह तो उसे मालूम था मगर आज उसे एहसास भी हो गया कि अगर ये मेरी सगी मां होतीं तो ऐसा नहीं करतीं. दीक्षा मन ही मन प्रतिशोध की आग में जल उठी. इस आग को उन लड़कों ने भी हवा दी और फिर एक दिन दीक्षा घर से भाग गई. दीक्षा इस घटना के करीब साल बाद ही घर छोड़ कर निकली थी. सालभर वो अपने मातापिता की हर सलाह को नकारात्मक ढंग से लेती और अपनी नानी से घंटों बुराई करती.

नानी भी उसे समझाने के बजाय उस की मां के सौतेले रिश्ते को ही दोष देतीं. उस ने उन लड़कों को बताया था कि वह बनारस अपनी नानी के घर चली जाएगी, उन्होंने उसे ऐसा कदम उठाने से मना किया था. वे कहां जानते थे कि दीक्षा सचमुच घर से बिना बताए निकल जाएगी. पुलिस ने चारों लड़कों को सब से पहले पूछताछ के लिए उठाया तो उन्होंने बताया कि वह हम से सिर्फ फोन पर हंसीमजाक ही किया करती थी. पुलिस ने उन के खिलाफ कोई सुबूत न मिलने पर उन्हें चेतावनी दे कर छोड़ दिया. दीक्षा गुस्से में घर से निकल कर नानी के पास बनारस जाने के लिए बस स्टैंड पर आ गई. वहां उसे लखनऊ की बस अड्डे से निकलती दिखाई दी तो उसी में चढ़ गई.

वह सोच रही थी कि कानपुर शहर से जितना जल्दी निकल सके, उतना अपने मातापिता की पहुंच से दूर हो जाएगी. लखनऊ का टिकट ले कर किरण बस की खिड़की से सिर टिका कर बैठ गई. पीछे छूटते नजारों के साथ ही वह भविष्य के सपने बुनने लगी… कुछ समय बाद बस एक जलपानगृह में रुकी. किरण बस से नहीं उतरी. उसे ध्यान आया कि वह अपना फोन भी जल्दबाजी में घर ही छोड़ कर आ गई है.

उस का क्रोध अब तक शांत हो चुका था. उस ने अपने परिवार को सूचना देने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति का फोन प्रयोग में लाने के लिए इधरउधर देखा. उस के पीछे की सीट पर एक महिला अपने छोटे से बच्चे को गोद में लेकर बैठी थी. 1-2 सवारियां बस में इधरउधर छितरी हुई बैठीं अपने झाले से जलपान निकाल कर बैठी हुई थीं. बाकी सवारियां नीचे उतर चुकी थीं. ‘‘मुझे एक काल करनी है क्या आप अपना फोन इस्तेमाल करने के लिए देंगी ?’’ दीक्षा ने कहा. ‘‘हां ले लो,’’ महिला ने उसे तुरंत फोन थमा दिया. दीक्षा को न तो नानी का फोन नंबर याद था न ही घर के किसी सदस्य का, उसे सिर्फ अपना फोन नंबर याद था जिसे वह घर भूल कर आई थी.

उस ने उसी पर काल किया. लगातार 4 बार काल करने पर उस की छोटी बहनों ने उस का फोन थाम लिया. ‘‘हैलो दीदी, तुम्हारा फोन घर पर रह गया है.’’ ‘‘मुझे मालूम है सुनो मैं नानी के घर बनारस जा रही हूं, पापा को बता देना चिंता न करें.’’ ‘‘तुम कब घर आओगी?’’ ‘‘अब से मैं बनारस में ही रहूंगी, वहीं पढ़ाई करूंगी, मम्मी को बता देना,’’ कह कर दीक्षा ने फोन काट दिया. दोनों बहनें अपने खेल में व्यस्त हो गईं.

जब शाम 8 बजे तक दीक्षा घर नहीं पहुंची तो उस की मां ने उस की खोजखबर लेनी चाही तो उसे दीक्षा के बनारस जाने की खबर मिली. सुबह 8 बजे से कालेज के लिए निकली दीक्षा बनारस भी नहीं पहुंची थी. पुलिस में उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखा दी गई. बनारस नानी के घर से भी लोग बसअड्डे और रेलवे स्टेशन की खाक छानते रहे, दीक्षा का पता नहीं चला.

जलपानगृह से बस के चलते ही दीक्षा की बगल में एक नवयुवक आ कर बैठ गया. जल्द ही दोनों घुलमिल कर बातें करने लगे. उस ने दीक्षा को विश्वास में ले लिया कि वह उसे विश्वनाथ बाबा की गली के पास स्थित उस की नानी के घर सुरक्षित पहुंचा देगा. वह भी लखनऊ अमीनाबाद से कुछ सामान लेगा, फिर शाम की ट्रेन से बनारस निकल जाएगा. उस ने अपने मोबाइल से उस के लिए भी ट्रेन का टिकट बुक कर दिया.

सुबह के 10 बजे थे और ट्रेन शाम की थी तो दीक्षा उस के साथ अमीनाबाद घूमने निकल पड़ी. दोनों ने एक रेस्तरां में खाना खाया और फिर दीक्षा को कुछ याद नहीं रहा. लगातार 3 महीनों तक यौन शोषण का शिकार होती रही. एक देह व्यापार के अड्डे से बिकती हुई वह दूसरे अड्डे में पहुंच कर शारीरिक, मानसिक प्रताड़ना झेलते हुए मानसिक रूप से अस्वस्थ होती चली गई.

एक दिन एक गैस्ट हाउस में किसी मुखबिर की सूचना से छापा पड़ा और उस में नाबालिग लड़कियों के साथ दीक्षा भी बरामद हुई. दीक्षा की विक्षिप्त हालत को देखते हुए उसे मानसिक रोग चिकित्सालय भेज दिया गया. उस के परिवार वालों ने उसे अपनाने से मना कर दिया. दीक्षा नारी सुधार गृह का हिस्सा बन कर रह गई.

जब उस की मानसिक स्थिति में सुधार हुआ तो उस की इस फैक्टरी में नौकरी लगा दी गई. अब वह अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने के लिए आजाद थी. मगर उस की जिंदगी में कोई रंग, उमंग बची ही नहीं थी. दीक्षा अपनी आपबीती सुना कर सिसकने लगी. किरण ने उसे गले से कस कर अपने से लगा लिया. दोनों को एकदूसरे की धड़कन साफ सुनाई दे रही थी.

दीक्षा अभी भी सिसक रही थी. किरण ने भावावेश में भर कर उस के चेहरे पर चुंबनों की बरसात करते हुए कहा, ‘‘रो मत पगली, हमारी जिंदगी में अब कोई तीसरा नहीं आएगा, हम दोनों ही एकदूसरे के पूरक बन कर रहेंगे.’’ समय कब किसी के लिए रुका है दोनों ने स्टांप पेपर में हस्ताक्षर कर एकदूसरे को अपना साथी बनाते हुए, अपनी चलअचल संपत्ति का वारिस घोषित कर दिया. अब लोग उन्हें पीठ पीछे क्या कहते हैं इस की उन्हें कोई परवाह नहीं होती. वे एकदूसरे के पूरक बन चुके हैं यही उन का अंतिम सत्य है बाकी दुनिया मिथ्य बन चुकी है.

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Monsoon Homecare: मौनसून में फंगस फ्री घर के लिए टिप्स ऐंड ट्रिक्स

Monsoon Homecare: रीना 1 सप्ताह के लिए अपने मायके चली गई थी. वापस लौटी तो घर की हालत देख सिर चकरा गया. घर के सारे कोनों में फंगस और फफूंद लग गए थे. अलमारी में रखे कपड़े, फर्नीचर, आलू, प्याज पर भी फंगस की परत आ गई थी. सारे घर में सिलन की बदबू फैल गई थी. मायके में किया हफ्तेभर का आराम घर आते ही किरकिरा हो गया. लेकिन अपनी सूझबूझ से उस ने 1 ही दिन में घर को पहले जैसा करने में कोई कसर न छोड़ी.

चलिए, जानते हैं ऐसे टिप्स ऐंड ट्रिक्स जिन से बरसात के मौसम में हम अपने घर को फंगस फ्री बना सकते हैं.

मौनसून के मौसम में वातावरण में नमी बढ़ जाती है, जिस से घर में फंगस और फफूंदी पनपने लगते हैं. इस से न केवल स्वास्थ्य प्रभावित होता है बल्कि घर का सामान भी खराब हो सकता है.

फफूंदी से बचाने के लिए अपनाएं टिप्स

बंद घर में मौनसून के कारण फंगस लगने की समस्या अधिक होती है क्योंकि घर के अंदर बाहर की सूर्य की किरण नहीं आ पाती और न ही हवा जिन से सिलन आई जगह सूख नहीं पाती जिस कारण यह समस्या अधिक होती है. इसलिए धूप के समय घर की खिड़कियां खुली रखें, जिस से ताजा हवा और धूप घर के अंदर आए.

धूप फंगस और बैक्टीरिया को पनपने से रोकती है. फर्नीचर और बुक शेल्फ को दीवारों से थोड़ा दूर रखें, ताकि हवा का प्रवाह बना रहे.
किचन और बाथरूम में एग्जौस्ट फैन का इस्तेमाल करें. नहाने के बाद बाथरूम के दरवाजे खुले रखें ताकि नमी जल्दी सूख सके. शौवर कर्टन और भारी मैट का प्रयोग मौनसून में टालें.

फफूंदी हटाने के लिए अपनाएं ट्रिक्स

* फफूंदी हटाने के लिए विनेगर एक बेहतरीन उपाय है. इसे स्प्रे कर 20 मिनट छोड़ें और फिर स्क्रब कर के गरम पानी से साफ करें. बेकिंग सोडा भी प्रभावी है.इसे पानी में मिला कर स्प्रे करें और 1 घंटा बाद साफ करें.

* अंधेरी जगहों पर कपूर और लौंग का इस्तेमाल करें. इन्हें कपड़े में बांध कर अलमारी या शूरैक में रखें. नीबू का रस भी फंगस हटाने में कारगर है. इसे प्रभावित जगह पर रगड़ें और फिर स्क्रब करें.

* नीम के सूखे पत्तों को कपड़े में बांध कर घर की नमी वाली जगहों पर रखें. यह ऐंटी फंगल होने के साथसाथ वस्त्रों को नम होने से भी बचाता है. इन घरेलू उपायों से आप मौनसून में अपने घर को फंगस मुक्त रख सकते हैं.

Monsoon Homecare

मौनसून में Fungal Infection से बचने के लिए ऐक्सपर्ट से जानें खास सुझाव

Fungal Infection: मौनसून का आना चुभतीजलती गरमी से हमें राहत तो देता है, साथ ही हमारी स्किन के लिए कई चुनौतियां भी ले कर आता है. इस में बढ़ी हुई ह्यूमिडिटी हमारी स्किन को ऐक्ने, फंगल इन्फैक्शन और डल कौंप्लेक्स का शिकार बना सकती है. इसलिए ऐसे मौसम में अपनी स्किन को सही रखने के लिए बैस्ट केयर की जरूरत होती है.

मौनसून में स्किन केयर

मौनसून के मौसम में भी स्किन को हैल्दी और शाइन बनाए रखने के लिए स्किन को क्लीन और ड्राई रखना बहुत जरूरी है. इस के लिए कुछ खास बातों का ध्यान रखें :

  • नियमित रूप से अपनी स्किन को सौम्य क्लींजर से साफ करें.
  • टी ट्री औयल बेस क्लींजिंग का इस्तेमाल करें. इस में ऐंटीबैक्टीरियल प्रौपर्टी हैं जो औयल के ब्लौकेज से बचाती हैं.
  • मौनसून में त्वचा बहुत रूखी हो जाती है, इसलिए सोने से पहले हमेशा क्लींजिंग मिल्क से त्वचा को साफ करें और धो लें.
  • पौष्टिक खाना खाएं और तैलीय चीजों से बचें.

इस के अलावा इन उपायों को अपनाएं :

मोइस्चराइजर का उपयोग करें : मौनसून में भी अपनी त्वचा को हाइड्रेटेड रखना जरूरी है. एक हलका, औयल फ्री, जैल बेस्ड मोइस्चराइजर का उपयोग करें.

नैचुरल ऐलिमैंट्स : कुछ प्राकृतिक तत्त्व हैं जो मौनसून में त्वचा की देखभाल के लिए उपयोगी हो सकते हैं. जैसे- खीरा त्वचा को ठंडा और शांत करता है और सूजन को कम करने में मदद करता है. ऐलोवेरा जैल स्किन को मोइस्चर प्रदान करता है और जलन को शांत करता है. आप इसे फेस पैक के रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

मौनसून में फिटकरी का उपयोग कर त्वचा को साफ किया जा सकता है, जो फंगल संक्रमण और त्वचा की समस्याओं को कम करने में मदद करता है.

नैचुरल और और्गेनिक चीजों का प्रयोग करें. जैसे :

  • एलोवेरा स्किन को मोइस्चर प्रदान करता है और जलन को शांत करता है.
  • रोजवाटर स्किन को कूल रखता है और टोन करता है.
  • चंदन पाउडर स्किन को कुलिंग पहुंचाता है और दागधब्बों को कम करने में मदद करता है.
  • हलदी चंदन फेस पैक स्किन को ग्लोइंग बनाने और इन्फैक्शन से बचाने में मदद करता है.
  • बेसन और हलदी का मिश्रण स्किन को ऐक्सफोलिएट करता है और रंगत में सुधार करता है.

ऐंटीफंगल उत्पादों का उपयोग करें

अगर आप को फंगस की समस्या है, तो ऐंटीफंगल उत्पादों का उपयोग करें. आप प्रभावित क्षेत्रों पर ऐंटीफंगल क्रीम या पाउडर का उपयोग कर सकते हैं.

पैरों को ड्राई रखें

पैरों को ड्राई रखना बहुत जरूरी है, खासकर पैरों के बीच में. अपने पैरों को अच्छी तरह से सुखाने के लिए तौलिए का उपयोग करें, विशेषकर पंजों के बीच ड्राइनैस का ध्यान रखें.

सांस लेने योग्य कपड़े पहनें

सूती कपड़े पहनें जो हवा को पास करे. टाइट फिटिंग कपड़ों से बचें जो नमी को फंसा सकते हैं.

हाइड्रेटेड रहें

पानी पीते रहें ताकि आप की स्किन में पानी की कमी न हो और स्किन हैल्दी रहे.

व्यक्तिगत वस्तुओं को साझा करने से बचें

व्यक्तिगत वस्तुओं जैसे तौलिए, मोजे और जूतों को शेयर न करें.

ऐंटीफंगल साबुन का प्रयोग करें

ऐंटीफंगल साबुन का उपयोग करें जो फंगस से बचाता है और आप की स्किन को क्लीन रखता है

पैरों की अतिरिक्त देखभाल

पैरों की देखभाल : पैरों की देखभाल करने के लिए नियमित रूप से अपने पैर के नेल्स को काटें और डेड स्किन सैल्स को हटाने के लिए झांवें का उपयोग करें.

हाथों की देखभाल : हाथों की देखभाल करने के लिए नियमित रूप से अपने हाथ धोएं और उन्हें हाइड्रेटेड रखने के लिए मोइस्चराइजर लगाएं.

बारिश में हाई हील्स पहनने के लिए सुझाव

ड्राई पैर : बारिश के मौसम में पैर गीले होने की संभावना अधिक होती है, जिस से फंगल इन्फैक्शन का खतरा बढ़ जाता है. इसलिए सुनिश्चित करें कि आप के पैर हर समय ड्राई रहें.

खुले जूते : जहां तक ​​संभव हो खुले जूते या सैंडल पहनें ताकि आप के पैरों को हवा मिलती रहे और पसीना कम हो.

नमी शोषक मोजे : अगर आप को हील्स पहनने की जरूरत है, तो ऐसे मोजे चुनें जो नमी को सोखते हों और उन्हें बारबार बदलें, खासकर यदि वे नम हो जाएं.

ऐंटीफंगल पाउडर : आप ऐंटीफंगल पाउडर का उपयोग कर सकते हैं ताकि आप के पैरों को ड्राई फंगल इन्फैक्शन से बचाया जा सके.

पैरों की सफाई : बारिश में बाहर से आने के बाद अपने पैरों को अच्छी तरह से धो लें और ड्राई कर अच्छी तरह से लोशन लगा लें.

जूतों का ध्यान : अपने हील्स वाले जीतों को साफ रखें और उन्हें नियमित रूप से बदलें.

पेडीक्योर : इस मौसम में पेडीक्योर करवा कर ऐक्स्ट्रा ध्यान रखें. आप चाहें तो घर पर भी यह कर सकते हैं. इस के लिए सब से पहले गुनगुने पानी में थोड़ा शैंपू और नमक डाल कर पैरों को 10-15 मिनट के लिए भिगोएं. फिर पैरों को स्क्रब करें और प्यूमिस स्टोन से एड़ियों को साफ करें. इस के बाद नाखूनों को काटें और फाइल करें और फिर मोइस्चराइजर लगाएं. अंत में अपनी पसंद का नेल पेंट लगाएं.

पौष्टिक आहार और हाइड्रेशन

कम मसाले वाला खाना खाएं और खूब पानी पिएं. फ्रूट्स का सेवन करें.

हील्स का चुनाव

कुछ हाई हील्स सिंथेटिक सामग्री से बनी होती है, जो नमी को सोख नहीं पाती है, जिस से फंगल इन्फैक्शन का खतरा बढ़ जाता है.

हाइड्रेटिंग मोइस्चराइजर

पैरों की स्किन को हैल्दी बनाने के लिए हाइड्रेटिंग मोइस्चराइजर अच्छी तरह से लगाएं. हील्स पहनने से पहले और बाद में भी.

विटामिन सी का सेवन

रोजाना लंच के बाद विटामिन सी का सेवन करें (1 गिलास पानी में विटामिन सी मिक्स कर के पी लें).

रैनबो डाइट फौलो करें

अलगअलग कलर की सब्जी और फल खाएं, साथ में नीबू रस मिला लें.

अगर आप भी मौनसून के मौसम में ऐक्सपर्ट की इन बातों का खयाल रखेंगे तो बारिश में में आप के पैर फंगल फ्री और खूबसूरत दिखेंगे और हील्स पहनने में भी प्रौब्लम नहीं होगी.

Fungal Infection

Bhumi Pednekar: वैलनेस का मतलब सिर्फ शारीरिक तंदुरुस्ती नहीं…

Bhumi Pednekar: फिल्म ‘दम लगा के हईशा’ से बौलीवुड में डैब्यू करने वाली भूमि पेडनेकर आजकल अपने लुक और फिटनैस कि वजह से चर्चा में हैं.

हाल ही मे भूमि ने दिल्ली में नए स्पोर्ट्स स्टोर का उद्घाटन किया. इसलिए इस अवसर पर वे बहुत ही फिट और स्टाइलिश नजर आईं.

ट्रैडमिल पर दौड़ पूरी की

इस आयोजन में फिटनैस उत्साही भूमि पेडनेकर ने स्पोर्ट्स ब्रा, ब्लैक स्किनी जौगिंग के साथ ब्लू और व्हाइट जैकेट ओपन कर के पहनी हुई थी और फिर पार्टिसिपेट्स के साथ मिल कर एक सामूहिक लक्ष्य के तहत ट्रैडमिल पर कुल 1,000 किलोमीटर की दौड़ पूरी की, जिस का उद्देश्य सामुदायिक भावना को बढ़ावा देना और लोगों को फिटनैस के प्रति प्रेरित करना है.

वैलनेस का मतलब सिर्फ शारीरिक तंदुरुस्ती नहीं

इवेंट के दौरान भूमि पेडनेकर ने कहा, “यह मेरे लिए बहुत खास अनुभव था कि मैं एक ऐसे आयोजन का हिस्सा बनी जो फिटनैस को एक सामाजिक उद्देश्य से जोड़ता है. मेरे लिए वैलनेस का मतलब सिर्फ शारीरिक तंदुरुस्ती नहीं, बल्कि समुदाय को सशक्त बनाना भी है. नई दिल्ली के लोगों के साथ यह जुड़ाव मेरे लिए एक अच्छी बात रही. इस तरह के मंच हमें साझा जनून और प्रयासों के माध्यम से सकारात्मक बदलाव लाने के लिए एकसाथ आने का अवसर देते हैं.”

भूमि की फिटनैस का राज

भूमि ने जिस समय बौलीवुड में डैब्यू किया था, उस वक्त उन का वजन 90 किलोग्राम था. उन्होंने फिल्म के लिए 30 किलोग्राम वजन बढ़ाया था और उस के बाद उन्होंने उतनी ही तेजी से 35 किलोग्राम वजन कम किया था और अब उन के फिगर को देख हर कोई हैरान है. उन्होंने बिना किसी डाइटिशियन से टिप्स लिए मां के संग मिल कर डाइट प्लान बनाया, घर का खाना खा कर और वर्कआवट कर के वेट लौस किया और अब वे इतनी फिट हो चुकी हैं लगता ही नहीं कि वे कभी इतनी फैटी हुआ करती थीं.

बैलेंस्ड डाइट और ऐक्सरसाइज

भूमि खाने में बहुत बैलेंस्ड डाइट लेती हैं. वर्कआउट में रनिंग करती हैं. इस के साथ ही वे पिलाटेस, रनिंग, स्ट्रैंथ और वेट ट्रेनिंग जैसे वर्कआउट्स करती हैं. इस से उन का वेट कंट्रोल में रहता है. अब भूमि अपनी फिटनैस से मिसाल पेश कर रही हैं.

अपनी बौडी के लिए टाइम निकालो

भूमि का कहना है कि रोज अपनी बौडी के लिए टाइम निकालो, दिन में एक बार ऐक्सरसाइज जरूर करो. जैसे हम 2 बार खाना खाते हैं वैसे ही ऐक्सरसाइज का ध्यान रखो. बस आप जिम पहुंच जाओ चाहे ऐक्सरसाइज 15 मिनट करो 30 मिनट करो, आधे घंटे सैर करने चले जाओ.

Bhumi Pednekar

Drama Story: बेइज्जती- अजीत ने क्या किया था रसिया के साथ

Drama Story: करिश्मा और रसिया भैरव गांव से शहर के एक कालेज में साथसाथ पढ़ने जाती थीं. साथसाथ रहने से उन दोनों में गहरी दोस्ती हो गई थी. उन का एकदूसरे के घरों में आनाजाना भी शुरू हो गया था.

करिश्मा के छोटे भाई अजीत ने रसिया को पहली बार देखा, तो उस की खूबसूरती को देखता रह गया. रसिया के कसे हुए उभार, सांचे में ढला बदन और रस भरे गुलाबी होंठ मदहोश करने वाले थे.

रसिया ने एक दिन महसूस किया कि कोई लड़का छिपछिप कर उसे देखता है. उस ने करिश्मा से पूछा, ‘‘वह लड़का कौन है, जो मुझे घूरता है?’’

‘‘वह…’’ कह कर करिश्मा हंसी और बोली, ‘‘वह तो मेरा छोटा भाई अजीत है. तुम इतनी खूबसूरत हो कि तुम्हें कोई भी देखता रह जाए…

‘‘ठहरो, मैं उसे बुलाती हूं,’’ इतना कह कर उस ने अजीत को पुकारा, जो दूसरे कमरे में खड़ा सब सुन रहा था.

‘‘आता हूं…’’ कहते हुए अजीत करिश्मा और रसिया के सामने ऐसा भोला बन कर आया, जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो.

करिश्मा ने बनावटी गुस्सा करते हुए पूछा, ‘‘अजीत, तुम मेरी सहेली रसिया को घूरघूर कर देखते हो क्या?’’

‘‘घूरघूर कर तो नहीं, पर मैं जानने की कोशिश जरूर करता हूं कि ये कौन हैं, जो अकसर तुम से मिलने आया करती हैं,’’ अजीत ने कहा.

‘‘यह बात तो तुम मुझ से भी पूछ सकते थे. लो, अभी बता देती हूं. यह मेरी सहेली रसिया है.’’

‘‘रसिया… बड़ा प्यारा नाम है,’’ अजीत ने मुसकराते हुए कहा, तो करिश्मा ने रसिया से अपने भाई का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘रसिया, यह मेरा छोटा भाई अजीत है. इसे अच्छी तरह पहचान लो, फिर न कहना कि तुम्हें घूर रहा था.’’

‘‘ओ हो अजीत… मैं हूं रसिया. क्या तुम मुझ से दोस्ती करोगे?’’ रसिया ने पूछा.

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं…’’ कहते हुए अजीत ने जोश के साथ अपना हाथ उस की ओर बढ़ाया.

रसिया ने उस से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘अजीत, तुम से मिल कर खुशी हुई. वैसे, तुम करते क्या हो?’’

‘‘मैं कालेज में पढ़ता हूं. जल्दी पढ़ाई खत्म कर के नौकरी करूंगा, ताकि अपनी बहन की शादी कर सकूं.’’

रसिया जोर से हंस पड़ी. उस के हंसने से उस के उभार कांपने लगे. यह देख कर अजीत के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

तभी रसिया ने कहा, ‘‘वाह अजीत, वाह, तुम तो जरूरत से ज्यादा समझदार हो गए हो. सिर्फ बहन की शादी करने का इरादा है या अपनी भी शादी करोगे?’’

‘‘अपनी भी शादी कर लूंगा, अगर तुम्हारी जैसी खूबसूरत लड़की मिली तो…’’ कहते हुए अजीत वहां से चला गया.

रात में जब अजीत अपने बिस्तर पर लेटा, तो रसिया के खयालों में खोने लगा. उसे बारबार रसिया के दोनों उभार कांपते दिखाई दे रहे थे. वह सिहर उठा.

2 दिन बाद अजीत रसिया से फिर अपने घर पर मिला. हंसीहंसी में रसिया ने उस से कह दिया, ‘‘अजीत, तुम मुझे बहुत प्यारे और अच्छे लगते हो.’’

अजीत को ऐसा लगा, मानो रसिया उस की ओर खिंच रही है. अजीत बोला, ‘‘रसिया, तुम भी मुझे बहुत अच्छी लगती हो. तुम मुझ से शादी करोगी?’’

यह सुन कर रसिया को हैरानी हुई. उस ने हड़बड़ा कर कहा, ‘‘तुम ने मेरे कहने का गलत मतलब लगाया है. तुम नहीं जानते कि मैं निचली जाति की हूं? ऐसा खयाल भी अपने मन में मत लाना. तुम्हारा समाज मुझे नफरत की निगाह से देखेगा. वेसे भी तुम मुझ से उम्र में बहुत छोटे हो. करिश्मा के नाते मैं भी तुम्हें अपना भाई समझने लगी थी.’’

अजीत कुछ नहीं बोला और बात आईगई हो गई.

समय तेजी से आगे बढ़ता गया. एक दिन करिश्मा ने अपने जन्मदिन पर अपनी सहेलियों को घर पर बुलाया. काफी चहलपहल में देर रात हो गई, तो रसिया घबराने लगी. उसे अपने घर जाना था. उस ने करिश्मा से कहा, ‘‘अजीत से कह दो कि वह मुझे मेरे घर छोड़ दे.’’

करिश्मा ने अजीत को पुकार कर कहा, ‘‘अजीत, जरा इधर आना. तुम रसिया को अपनी मोटरसाइकिल से उस के घर तक छोड़ आओ. आसमान में बादल घिर आए हैं. तेज बारिश हो सकती है.’’

‘‘इन से कह दो कि रात को यहीं रुक जाएं,’’ अजीत ने सुझाया.

‘‘नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मेरे घर वाले परेशान होंगे. अगर तुम नहीं चल सकते, तो मैं अकेले ही चली जाऊंगी,’’ रसिया ने कहा.

‘‘नहीं, मैं आप को छोड़ दूंगा,’’ कह कर अजीत ने अपनी मोटरसाइकिल निकाली, तभी हलकीहलकी बारिश शुरू हो गई. कुछ फासला पार करने पर तूफानी हवा के साथ खूब तेज बारिश और ओले गिरने लगे. ठंड भी बढ़ गई थी.

रसिया ने कहा, ‘‘अजीत, तेज बारिश हो रही है. क्यों न हम लोग कुछ देर के लिए किसी महफूज जगह पर रुक कर बारिश के बंद होने का इंतजार कर लें?’’

‘‘तुम्हारा कहना सही है रसिया. आगे कोई जगह मिल जाएगी, तो जरूर रुकेंगे.’’

बिजली की चमक में अजीत को एक सुनसान झोंपड़ी दिखाई दी. अजीत ने वहां पहुंच कर मोटरसाइकिल रोकी और दोनों झोंपड़ी के अंदर चले गए.

अजीत की नजर रसिया के भीगे कपड़ों पर पड़ी. वह एक पतली साड़ी पहन कर सजधज कर करिश्मा के जन्मदिन की पार्टी में गई थी. उसे क्या मालूम था कि ऐसे हालात का सामना करना पड़ेगा. पानी से भीगी साड़ी में उस का अंगअंग दिखाई दे रहा था.

रसिया का भीगा बदन अजीत को बेसब्र कर रहा था. वह बारबार सोचता कि ऐसे समय में रसिया उस की बांहों में समा जाए, तो उस के जिस्म में गरमी भर जाए,

कांपती हुई रसिया ने अजीत से कुछ कहना चाहा, लेकिन उस की जबान नहीं खुल सकी. लेकिन ठंड इतनी बढ़ गई थी कि उस से रहा नहीं गया. वह बोली, ‘‘भाई अजीत, मुझे बहुत ठंड लग रही है. कुछ देर मुझे अपने बदन से चिपका लो, ताकि थोड़ी गरमी मिल जाए.’’

‘‘क्यों नहीं, भाई का फर्ज है ऐसी हालत में मदद करना,’’ कह कर अजीत ने रसिया को अपनी बांहों में जकड़ लिया. धीरेधीरे वह रसिया की पीठ को सहलाने लगा. रसिया को राहत मिली.

लेकिन अब अजीत के हाथ फिसलतेफिसलते रसिया के उभारों पर पड़ने लगे और उस ने समझा कि रसिया को एतराज नहीं है. तभी उस ने उस के उभारों को दबाना शुरू किया, तो रसिया ने अजीत की नीयत को भांप लिया.

रसिया उस से अलग होते हुए बोली, ‘‘अजीत, ऐसे नाजुक समय में क्या तुम करिश्मा के साथ भी ऐसी ही हरकत करते? तुम्हें शर्म नही आई?’’ कहते हुए रसिया ने अजीत के गाल पर कस कर चांटा मारा.

यह देख कर अजीत तिलमिला उठा. उस ने भी उसी तरह चांटा मारना चाहा, पर कुछ सोच कर रुक गया.

उस ने रसिया की पीठ सहलाते हुए जो सपने देखे थे, वे उस के वहम थे. रसिया उसे बिलकुल नहीं चाहती थी. जल्दबाजी में उस ने सारा खेल ही खत्म कर दिया. अगर रसिया ने उस की शिकायत करिश्मा से कर दी, तो गड़बड़ हो जाएगी.

अजीत झट से शर्मिंदगी दिखाते हुए बोला, ‘‘रसिया, मुझे माफ कर दो. मेरी शिकायत करिश्मा से मत करना.’’

‘‘ठीक है, नहीं करूंगी, लेकिन इस शर्त पर कि तुम यह सब बिलकुल भूल जाओगे,’’ रसिया ने कहा.

‘‘जरूरजरूर. दोबारा मैं ऐसा नहीं करूंगा. मैं ने समझा था कि दूसरी निचली जाति की लड़कियों की तरह शायद तुम भी कहीं दिलफेंक न हो.’’

‘‘तुम्हारे जैसे बड़े लोग ही हम निचली जाति की लड़कियों से गलत फायदा उठाने की कोशिश करते हैं. सभी लड़कियां कमजोर नहीं होतीं. अब यहां रुकना ठीक नहीं है. बारिश भी कम हो गई है. अब हमें चलना चाहिए,’’ रसिया ने कहा.

दोनों मोटरसाइकिल से रसिया के घर पहुंचे. रसिया ने बारिश बंद होने तक अजीत को रोकना चाहा, लेकिन वह नहीं रुका.

उस दिन के बाद से अजीत अपने गाल पर हाथ फेरता, तो गुस्से में उस के रोंगटे खड़े हो जाते.

अजीत रसिया के चांटे को याद करता और तड़प उठता. सोचता कि रसिया ने चांटा मार कर उस की जो बेइज्जती की है, वह उसे जिंदगीभर भूल नहीं सकता. उस चांटे का जवाब वह जरूर देगा.

उस दिन करिश्मा के यहां खूब चहलपहल थी, क्योंकि उस की सगाई होने वाली थी. उस की सहेलियां नाचनेगाने में मस्त थीं. रसिया भी उस जश्न में शामिल थी, क्योंकि वह करिश्मा की खास सहेली जो थी. वह खूब सजधज  कर आई थी.

अजीत भी लड़कियों के साथ नाचने लगा. उस की नजर जब रसिया से टकराई, तो दोनों मुसकरा दिए. अजीत ने उसी समय मौके का फायदा उठाना चाहा.

अजीत ने झूमते हुए आगे बढ़ कर रसिया की कमर में हाथ डाला और अपनी बांहों में कस लिया. फिर उस के गालों को ऐसे चूमा कि उस के दांतों के निशान रसिया के गालों पर पड़ गए.

यह देख रसिया तिलमिला उठी और धक्का दे कर उस की बांहों से अलग हो गई. रसिया ने उस के गाल पर कई चांटे रसीद कर दिए. जश्न में खलबली मच गई. पहले तो लोग समझ ही नहीं पाए कि माजरा क्या है, लेकिन तुरंत रसिया की कठोर आवाज गूंजी, ‘‘अजीत, तुम ने आज इस भरी महफिल में केवल मेरा ही नहीं, बल्कि अपनी बहन औेर सगेसंबंधियों की बेइज्जती की है. मैं तुम पर थूकती हूं.

‘‘मैं सोचती थी कि शायद तुम उस दिन के चांटे को भूल गए हो, पर मुझे ऐसा लगता है कि तुम यही हरकतें अपनी बहन करिश्मा के साथ भी करते होगे.

‘‘अगर मैं जानती कि तुम्हारे दिल में बहनों की इसी तरह इज्जत होती है, तो यहां कभी न आती. ’’

रसिया ने करिश्मा के पास जा कर उस रात की घटना के बारे में बताया और यह भी बताया कि अजीत ने उस से भविष्य में ऐसा न होने के लिए माफी भी मांगी थी.

करिश्मा का सिर शर्म से झुक गया. उस की आखों से आंसू गिर पड़े. करिश्मा की दूसरी सहेलियों ने भी अजीत की थूथू की और वहां से बिना कुछ खाए रसिया के साथ वापस चली गईं.

नासमझ अजीत ने रसिया को जलील नहीं किया था, बल्कि अपने परिवार की बेइज्जती की थी.

लेखक- कुंवर गुलाब सिंह

Drama Story

Moral Story in Hindi: खामोश जिद- क्या हुआ था रुकमा के साथ

Moral Story in Hindi: ‘‘शहीद की शहादत को तो सभी याद रखते हैं, मगर उस की पत्नी, जो जिंदा भी है और भावनाओं से भरी भी. पति के जाने के बाद वह युद्ध करती है समाज से और घर वालों के तानों से. हर दिन वह अपने जज्बातों को शहीद करती है.

‘‘कौन याद रखता है ऐसी पत्नी और मां के त्याग को. वैसे भी इतिहास गवाह है कि शहीद का नाम सब की जबान पर होता है, पर शहीद की पत्नी और मां का शायद जेहन पर भी नहीं,’’ जैसे ही रुकमा ने ये चंद लाइनें बोलीं, तो सारा हाल तालियों से गूंज गया.

ब्रिगेडियर साहब खुद उठ कर आए और रुकमा के पास आ कर बोले, ‘‘हम हैड औफिस और रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे, जिस से वे तुम्हारे लिए और मदद कर सकें,’’ ऐसा कह कर रुकमा को चैक थमा दिया गया और शहीद की पत्नी के सम्मान समारोह की रस्म अदायगी भी पूरी हो गई.

चैक ले कर रुकमा आंसू पोंछते हुए स्टेज से नीचे आ गई. पतले काले सफेद बौर्डर वाली साड़ी, माथे पर न बिंदी और काले उलझे बालों के बीच न सुहाग की वह लाल रेखा. पर बिना इन सब के भी उस का चेहरा पहले से ज्यादा दमक रहा था. थी तो वह शहीद की बेवा. आज उस के शहीद पति के लिए सेना द्वारा सम्मान समारोह रखा गया था. समारोह के बाद बुझे कदमों से वह स्टेशन की तरफ चल दी.

ट्रेन आने में अभी 7-8 घंटे बाकी थे. सोचा कि चलो चाय पी लेते हैं. नजरें दौड़ा कर देखा कि थोड़ी दूर पर रेलवे की कैंटीन है. सोचा, वहीं पर चलते हैं दाम भी औसत होंगे.

रुकमा पास खड़े अपने पापा से बोली, ‘‘पापा, चलो कुछ खा लेते हैं. अभी तो ट्रेन आने में बहुत देर है.’’

बापबेटी अपना पुराना सा फटा बैग समेट कर चल दिए.

चाय पीतेपीते पापा बोले, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि वे बात करेंगे या ऐसे ही बोल रहे हैं कि रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखेंगे.’’

‘‘पता नहीं पापा, कुछ भी कह पाना मुश्किल है.’’

‘‘रुकमा, तुम आराम करो. मैं जरा ट्रेन का पता लगा कर आता हूं,’’ कहते हुए पापा बाहर चले गए.

रुकमा ने अपने पैरों को समेट कर ऊपर सीट पर रख लिया और बैग की टेक लगा कर लेट गई और धीरे से सौरभ का फोटो निकाल कर देखने लगी.

देखतेदेखते रुकमा भीगी पलकों के रास्ते अपनी यादों के आंगन में उतरती चली गई. कितनी खुश थी वह जब पापा उस का रिश्ता ले कर सौरभ के घर गए थे. पूरे रीतिरिवाज से उस की शादी भी हुई थी. मां ने अपनी बेटी को सदा सुहागन बने रहने के लिए कोई भी रिवाज नहीं छोड़ा था. यहां तक कि गांव के पास वाले मन्नत पेड़ पर जा कर पूर्णमासी के दिन दीया भी जलाया था. शादी भी धूमधाम से हुई थी.

सौरभ को पा कर रुकमा धन्य हो गई थी. सजीला, बांका, जवान, सांवला रंग, लंबा गठा शरीर, चौड़ा सीना, जो देखे उसे ही भा जाए. रुकमा भी कम सुंदर न थी. हां, मगर लंबाई उतनी न थी.

सौरभ हर समय उसे उस की लंबाई को ले कर छेड़ता था. जब सारा परिवार एकसाथ बैठा हो तो तब जरूर ‘जिस की बीवी छोटी उस का भी बड़ा नाम है…’ गाना गा कर उसे छेड़ता था. वह मन ही मन खीजती रहती थी, मगर ज्यादा देर नाराज न हो पाती थी क्योंकि सौरभ झट से उसे मना लेना जानता था.

पर यह सुख कुछ ही समय रह पाया. उसी समय सीमा पर युद्ध शुरू हो गया था और सौरभ की सारी छुट्टियां कैंसिल हो गई थीं. उसे वापस जाना पड़ा था.

उस रात रुकमा कितना रोई थी. सुबह तक आंसू नहीं थमे थे, सौरभ उस को समझाता रहा था. उस की सुंदर आंखें सूज कर लाल हो गई थीं. सौरभ के जाने में अभी 2 दिन बाकी थे.

सौरभ कहता था, ‘ऐसे रोती रहोगी तो मैं कैसे जाऊंगा.’

घर में सभी लोग कहते हैं कि ये 2 दिन तुम दोनों खुश रहो, घूमोफिरो, पर जैसे ही कोई जाने की बात करता तो अगले ही पल रुकमा की आंखों से आंसू लुढ़कने लगते.

सौरभ उसे छेड़ता, ‘यार, तुम्हारी आंखों में नल लगा है क्या, जो हमेशा टपटप गिरता रहता है.’

सौरभ की इस बचकानी हरकत से रुकमा के चेहरे पर कुछ देर के लिए हंसी आ जाती, मगर अगले ही पल फिर चेहरे पर उदासी छा जाती.

जिस दिन सौरभ को जाना था, उस रात रुकमा सौरभ के सीने पर सिर रख कर रोती ही रही और अब तो सौरभ भी अपने आंसू न रोक पाया. आखिर सिपाही के अंदर से बेइंतिहा प्यार करने वाला पति जाग ही गया जो अपनी नईनवेली दुलहन के आगोश में से निकलना नहीं चाहता था, पर छुट्टी की मजबूरी थी, वापस तो जाना ही था.

‘‘रुकमा, उठ…’’ पापा ने हिलाते हुए रुकमा को जगाया और कहा, ‘‘ट्रेन प्लेटफार्म नंबर 2 पर आ रही है.’’

पापा की आवाज से रुकमा अपनी यादों से बाहर आ गई. आंखों को हाथों से मलते हुए वह उठ खड़ी हुई, जैसे किसी ने उस की चोरी पकड़ ली हो.

‘‘क्या बात है बेटी… तुम फिर से…’’

‘‘नहीं पापा… ऐसा कुछ भी नहीं…’’

थोड़ी देर में ट्रेन आ गई और रुकमा ट्रेन में बैठते ही फिर यादों में खो गई. कैसे भूल सकती है वह दिन, जब सौरभ को खुशखबरी देने को बेकरार थी लेकिन सौरभ से बात ही न हो पाई. शायद लाइन और किस्मत दोनों ही खराब थीं और तभी कुछ दिन में ही खबर आ गई कि सौरभ सीमा पर लड़ते हुए शहीद हो गए हैं. उस वक्त रुकमा ड्राइंगरूम में बैठी थी, तभी सौरभ के दोस्त उस का सामान ले कर आए थे.

आंखों और दिल ने विश्वास ही नहीं किया. रुकमा को लगा, वह भी आ रहा होगा. हमेशा की तरह मजाक कर रहा होगा. होश में ही नहीं थी. मगर होश तो तब आया जब ससुर ने पापा से कहा था, ‘रुकमा को अपने साथ वापस ले जाएं. मेरा बेटा ही चला गया तो इसे रख कर क्या करेंगे.’

उस ने अपने सासससुर को समझाया था कि वह सौरभ के बच्चे की मां बनने वाली है लेकिन उन्होंने तो उसे शाप समझ कर घर से निकाल दिया.

तभी सिर के ऊपर रखा बैग रुकमा के सिर से टकराया और वह चीख पड़ी. बाहर झांक कर देखा कि कोई स्टेशन आने वाला है. कुछ ही देर में वह झांसी पहुंच गए.

घर पहुंचते ही मां बोलीं, ‘‘बड़ी मुश्किल से यह सोया है. कुछ देर इसे गोद में ले कर बैठ जा.’’

रुकमा कुछ ही महीने पहले पैदा हुए अपने बेटे को गोद में ले कर प्यार करने लगी.

मां ने पूछा, ‘‘वहां सौरभ के घर वाले भी आए थे क्या?’’

‘‘नहीं मां,’’ रुकमा बोली.

शाम को खाने में साथ बैठते हुए पापा ने रुकमा से पूछा, ‘‘अब आगे क्या सोचा है? तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है.’’

रुकमा ने लंबी गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘हां पापा, मैं ने सबकुछ सोच लिया है. मेरे बेटे ने अपने फौजी पिता को नहीं देखा, इसलिए मैं फौज में ही जाऊंगी.’’

रुकमा के मातापिता हमेशा उस के साथ खड़े रहते थे. बेटे को मां के पास छोड़ कर रुकमा दिल्ली में एमबीए करने आ गई और नौकरी भी करने लगी.

रुकमा को यह भी चिंता थी कि कार्तिक बड़ा हो रहा था. उसे भी स्कूल में दाखिला दिलाना होगा.

रुकमा यह सब सोच ही रही थी कि मां की अचानक हुई मौत से वह फिर बिखर गई और अब तो कार्तिक की भी उस के सिर पर जिम्मेदारी आ गई. उसे अब नौकरी पर जाना मुश्किल हो गया.

बेटा अभी बहुत छोटा था और घर पर अकेले नहीं रह सकता था. पापा भी अभी रिटायर नहीं हुए थे.

जब कोई रास्ता नजर नहीं आया, तभी सहारा बन कर आए गुप्ता अंकल यानी उस के साथ में काम कर रही दोस्त अर्चना के पिताजी.

अर्चना ने कहा, ‘‘रुकमा, आज मेरे भतीजे का बर्थडे है. तू कार्तिक को ले कर जरूर आना, कोई बहाना नहीं चलेगा और तू भी थोड़ा अच्छा महसूस करेगी.’’

‘‘ठीक है, मैं आती हूं,’’ रुकमा ने हंस कर हां कर दी और औफिस से बाहर आ गई.

घर आ कर कार्तिक से कहा, ‘‘आज मेरा बाबू घूमने चलेगा. वहां पर तेरे बहुत सारे फ्रैंड्स मिलेंगे.’’

‘‘हां मम्मी…’’ कार्तिक खुशी से मां के गले लग गया.

मां बेटे खूब तैयार हो कर पार्टी में पहुंचे. पार्टी क्या थी, ऐसा लग रहा था जैसे कोई शादी हो. शहर की सारी नामीगिरामी हस्तियां मौजूद थीं. तभी किसी ने पीछे से पुकारा. रुकमा ने पीछे पलट कर देखा कि उस के औफिस का सारा स्टाफ मौजूद था.

केक वगैरह काटने के बाद अर्चना ने उसे अपने पिताजी से मिलवाया. वे बोले, ‘‘बेटी, तुम्हारे बारे में सुन कर बड़ा दुख हुआ कि आज भी ऐसी सोच वाले लोग हैं. बेटी, जो सज्जन सामने आ रहे हैं, वे उसी रैजीमैंट में पोस्टेड हैं जिस में तुम्हारे पति थे. मुझे अर्चना ने सबकुछ बताया था.

‘‘कर्नल साहब, ये रुकमा हैं. फौज में जाना चाहती हैं. अगर आप की मदद मिल जाती तो अच्छा होता,’’ और फिर उन्होंने रुकमा के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया.

‘‘बेटी, तुम मुझे 1-2 दिन में फोन कर लेना. मुझ से जो बन पड़ेगा, मैं जरूर मदद करूंगा.’’

कर्नल के सहयोग से रुकमा देहरादून जा कर एसएसबी की कोचिंग लेने लगी और वहीं आर्मी स्कूल में पार्टटाइम बच्चों को पढ़ाने भी लगी. बेटे कार्तिक का दाखिला भी एक अच्छे स्कूल में करा दिया.

मगर मंजिल आसान न थी. हर रोज सुबह 4 बजे उठ कर फौज जैसी फिटनैस लाने के लिए दौड़ने जाती, फिर 20 किलोमीटर स्कूटी से बेटे को स्कूल छोड़ती और लाती, फिर शाम को वह फिजिकल ट्रेनिंग लेने जाती, लौट कर बच्चे का होमवर्क और घर का पूरा काम करती.

रोज की तरह रुकमा एक दिन जब बच्चे को सुलाने जा ही रही थी तभी पापा का फोन आया और फिर से वही राग ले कर बैठ गए, ‘रुकमा, मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम क्यों इतना सब बेकार में कर रही हो. दीपक का फिर फोन आया था. वह तुम्हें और तुम्हारे बेटे को खूब खुश रखेगा. मेरी बात मान जा बेटी, तेरे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है, मेरा क्या भरोसा. मैं भी तेरी मां की तरह कब चला जाऊं, तो तेरा क्या होगा.’

‘‘पापा, मैं अपने बेटे कार्तिक और सौरभ की यादों के साथ बहुत खुश हूं. मैं किसी और को प्यार कर ही न पाऊंगी, यह उस रिश्तों के साथ उस से बेईमानी होगी. मैं सौरभ की जगह किसी और को नहीं दे सकती.

‘‘मुझे सौरभ से बेइंतिहा मुहब्बत करने के लिए सौरभ की जरूरत नहीं है, उस की यादें ही मेरी मुहब्बत को पूरी कर देंगी. मैं जज्बात में उबलती हुई नसीहतों की दलीलें नहीं सुनना चाहती.’’

पापा ने कहा, ‘क्या कोई इस तरह जाने के बाद पागलों सी मुहब्बत करता है.’

‘‘सौरभ मेरे दिलोदिमाग पर छाया हुआ है. एकतरफा प्यार की ताकत ही कुछ ऐसी होती है कि वह रिश्तों की तरह 2 लोगों में बंटता नहीं है. उस में फिर मेरा हक होता है,’’ यह कहते हुए रुकमा ने फोन काट दिया, फिर प्यार से सो रहे पास लेटे बेटे कार्तिक का सिर सहलाने लगी.

तभी रुकमा ने फौज में भरती का इश्तिहार अखबार में पढ़ा. रुकमा और भी खुश हो गई कि एक सीट शहीद की विधवाओं के लिए आरक्षित है. अब उसे सौरभ के अधूरे ख्वाब पूरे होते नजर आने लगे.

इन सब मुश्किल तैयारियों के बाद फौज का इम्तिहान देने का समय आ गया. मेहनत रंग लाई. लिखित इम्तिहान के बाद उस ने एसएसबी के भी सभी राउंड पास कर लिए. लेकिन यहां तक पहुंचने के बाद एक नई परेशानी खड़ी हो गई, वहां पर एक और शहीद की पत्नी थी पूजा और उस ने भी सारे टैस्ट पास कर लिए थे और सीट एक थी.

आखिरी फैसले के लिए सिलैक्शन अफसर ने अगले दिन की तारीख दे दी और कहा कि पास होने वाले को इत्तिला दे दी जाएगी.

उदास मन से रुकमा वापस आ गई, लेकिन इतने पर भी वह टूटी नहीं. उसे अपने ऊपर विश्वास था. उस का दुख बांटने अर्चना आ जाती थी और दिलासा भी देती थी. तय तारीख भी निकल चुकी थी.

रुकमा को यकीन हो गया कि उस का सिलैक्शन नहीं हुआ इसलिए फिर उस ने उसी दिनचर्या से एक नई जंग लड़नी शुरू कर दी.

तभी एक दिन औफिस से लौट कर उसे सिलैक्शन अफसर की चिट्ठी मिली जिस में उसे हैड औफिस बुलाया गया था. सिलैक्शन का कोई जिक्र न होने के चलते रुकमा उदास मन से बुलाए गए दिन पर हैड औफिस पहुंच गई. वहां जा कर देखा कि साहब के सामने पूजा भी बैठी थी.

साहब ने दोनों को बुला कर पूछा कि तुम दोनों की काबिलीयत और जज्बे को देखते हुए हम ने रक्षा मंत्रालय से 2 वेकैंसी की मांग की थी. रक्षा मंत्रालय ने एक की जगह 2 वेकैंसी कर दी हैं और तुम दोनों ही सिलैक्ट हो गई हो. बाहर औफिस से अपना सिलैक्शन लैटर ले लो.

रुकमा यह सुनते ही शून्य सी हो गई. सौरभ को याद कर उस की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. लैटर ले कर उस ने सब से पहले अर्चना को फोन कर शुक्रिया अदा किया.

पापा उस समय देहरादून में बेटे कार्तिक के पास थे. घर पहुंच कर रुकमा पापा से लिपट गई और खुशखबरी दी.

पापा बोले, ‘‘तू बचपन से ही जिद्दी थी, पर आज तू ने अपने प्यार को ही जिद में तबदील कर दिया. और अपने बेटे को उस के फौजी पिता कैसे थे, यह बताने के लिए तू खुद फौजी बन गई. हम सभी तेरे जज्बे को सलाम करते हैं.’’

रुकमा ने देखा कि अर्चना और उस के स्टाफ के लोग बाहर दरवाजे पर खड़े थे. रुकमा इस खुशी का इजहार करने के लिए अर्चना से लिपट गई.

Moral Story in Hindi

Love Story: लौटते हुए- क्यों बिछड़े थे दो प्रेमी

Love Story: रेल पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी, सबकुछ पीछे छोड़ते हुए, तेज बहुत तेज. अचानक ही उस की स्पीड धीरेधीरे कम होने लगी. कोई छोटा सा स्टेशन था. रेल वहीं रुक गई. भीड़ का एक रेला सा मेरे डब्बे में चढ़ आया. मु झे हंसी आने को हुई यह सोच कर कि इन यात्रियों का बस चले तो शायद एकदूसरे के सिर पर पैर रख कर भी चढ़ जाएं.

अचानक एक चेहरे को देख कर मैं चौंकी. वह अरुण था. वह भी दूसरे यात्रियों के साथ ऊपर चढ़ आया था. उसे देखते ही दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में भी मुझे पसीना आ गया. शायद उस ने मुझे अभी नहीं देखा था, यह सोच कर मैं ने राहत की सांस ली ही थी कि अचानक वह पलटा. डब्बे में सरसरी दृष्टि फिराते हुए जैसे ही उस की नजर मुझ पर पड़ी, वह चौंक कर बोला, ‘‘रेखा, तुम?’’

मैं अपनेआप को संयत करने की कोशिश करने लगी. इस तरह कभी अरुण से मिलना होगा, इस की तो मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. मुझे लगने लगा, दुनिया बहुत छोटी है जहां बिछड़े हुए साथी कहीं न कहीं आपस में मिल ही जाते हैं.

अरुण भी खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था. बोला, ‘‘सौरी, मैं ने आप को देखा नहीं था, वरना मैं इस डब्बे में न चढ़ता. खैर, अगला स्टेशन आने पर मैं डब्बा बदल लूंगा.’’

उस के मुंह से अपने लिए ‘आप’ सुनते ही मु झे एक धक्का सा लगा. मैं सोचने लगी, ‘घटनाएं आदमी को कितना बदल देती हैं. समय की धारा में संबंध, रिश्तेनाते, यहां तक कि संबोधन भी बदल जाते हैं. कल तक मैं अरुण के लिए ‘तुम’ थी और आज?’ मेरे मुंह से एक सर्द आह निकलतेनिकलते  रह गई.

‘‘यह रेल मेरी बपौती नहीं है,’’ मैं ने स्वर को यथासंभव सहज बनाते हुए कहा. लेकिन अपने हावभाव को छिपाने में मैं असमर्थ रही.

अरुण के साथ ही डब्बे में 2-4 बदमाश टाइप के लड़के भी चढ़ आए थे. पहले उन की तरफ मेरा ध्यान नहीं गया था. अरुण को देखते ही मैं अपने होश खो बैठी थी. लाल कमीज पहने एक युवक मु झ से सट कर बैठ गया. अरुण ने भी उसे देखा था, लेकिन उस ने फौरन ही मेरी तरफ से मुंह फेर लिया था. शायद उसे उस युवक का मेरे साथ इस तरह सट कर बैठना बरदाश्त नहीं हुआ था.

लेकिन मैं चाहती थी कि अरुण मेरी तरफ देखे. उस ने अखबार के पीछे अपना चेहरा छिपा लिया था. लेकिन मैं जानती थी कि वह अखबार नहीं पढ़ रहा होगा, चोर नजरों से मुझे ही देख रहा होगा. 2 साल अरुण के साथ रही हूं, सबकुछ भूल कर, सिर्फ उसी की बन कर. शायद अरुण अपनी आदत भूल चुका हो, मुझे किसी और के साथ बात करते देखते ही उसे गुस्सा आ जाता था. जिद्दी बच्चे जैसा ही तो व्यवहार रहा है उस का. जो आदत उस की 26 साल में बनी थी वह 2 साल में

अपने को संभाल मैं कैब का इंतजार करने लगी. अचानक अरुण मेरे पास आया और बोला, ‘‘सुनिए, मैं यहां के बारे में कुछ नहीं जानता. आप को अगर कोई परेशानी न हो तो मु झे यहां के किसी होटल तक पहुंचा दीजिए.’’

मैं देख रही थी कि अरुण यह सबकुछ कहते हुए हिचकिचा रहा था. पहले की तरह उस के स्वर में न अपनापन था, न बेफिक्री.

मैं उस के साथ ही कैब में बैठ गई. फिर मैं सोचने लगी कि अरुण को मैं अपने घर ले चलूं तो शायद उसे दोबारा पा सकूं. लेकिन… लेकिन अगर अरुण ने मना कर दिया तो इस ‘तो’ ने सारी बात पर फुलस्टौप लगा दिया.

लेकिन न जाने कैसे मेरी दबी इच्छा बाहर निकल ही आई. मैं कह बैठी, ‘‘आप को परेशानी न हो तो मेरे घर पर रुक जाइए.’’

‘‘तुम्हारे घर,’’ अरुण ने आश्चर्यचकित हो कर कहा. उस की स्वीकृति पा कर मैं ने कैब वाले को अपने घर की तरफ चलने  का इशारा किया. मेरे दिल से एक बो झ सा उतर गया. 15 मिनट में ही कैब मेरे घर तक पहुंच गई. अपने कमरे की अस्तव्यस्त हालत के कारण मु झे अरुण के सामने शर्म आने लगी. अरुण कमरे का निरीक्षण कर रहा था, बोला, ‘‘कमरा तो तुम्हें अच्छा मिल गया है.’’

‘‘हां, 5,000 रुपए किराया है इस का. इस से कम में तो मिल ही नहीं सकता,’’ मैं कह गई.

तरोताजा होने के लिए अरुण बाथरूम में चला गया. इतनी देर में मैं ने सब चीजें करीने से लगा दीं. नाश्ते का इंतजाम भी कर लिया. अरुण को क्याक्या पसंद है, यह सब मु झे अभी तक याद था. उसे नाश्ता करा कर मैं भी नहाने चली गई.

‘‘क्या खाइएगा?’’ बहुत दिनों बाद मैं ने किसी से पूछा था. अरुण अपने सामने 4 साल पहले वाली रेखा को देख कर चौंक गया था. वह रेखा भी तो उस से सबकुछ पूछ कर बनाती थी.

‘‘जो रोज बनाती हो,’’ अरुण ने कहा. फिर मेरे जी में आया कि कह दूं, ‘अरुण, रोज मैं खाना बनाती ही कहां हूं. औरत सिर्फ अपना पेट भरने के लिए खाना नहीं बनाती. उस की कला तो दूसरों को तृप्त करने के लिए होती है. जब कोई खाने वाला ही नहीं तो मैं खाना किस के लिए बनाती?’

लेकिन मैं कुछ भी न कह पाई. चुपचाप मैं ने अरुण की पसंद की चीजें बना लीं. लेकिन हम दोनों में से कोई भी एक कौर भी आराम से नहीं खा पाया. हर कौर के साथ कुछ न कुछ घुटता जा रहा था.

रात हो चुकी थी. अरुण भी इधरउधर टहल कर लौट आया था.

‘‘मैं ने आप का बिस्तर लगा दिया है. बगल में मेरी सहेली रहती है. मैं वहां सो जाऊंगी,’’ मैं ने कहा तो अरुण आहत हो कर बोला, ‘‘रेखा, आदमी को कुछ तो विश्वास करना ही चाहिए. मैं इतना नीच तो नहीं हूं.’’

इस से आगे सुनने की मेरी हिम्मत नहीं थी. मैं ने वहीं बिस्तर लगा लिया. सारी रात जागते हुए ही बीती. अरुण भी जागता रहा और हम दोनों ही एकदूसरे की नजर बचा कर एकदूसरे को देखते रहे.

रोज की तरह सूरज निकल आया था अपनी अंजलि में ढेर सारी आस्थाएं लिए, विश्वास लिए. मैं ने सोचा, ‘मेरा रोज का काला सूरज आज क्या मेरे लिए भी नई आशाएं ले कर आया है?’

मैं ने जल्दीजल्दी खाना बनाया औफिस जो जाना था. अरुण चुपचाप लेटा हुआ था. न जाने वह क्या सोच रहा था.

मैं ने तैयार हो कर चाबी उसे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘खाना बना हुआ है, खा लेना.’’

‘‘औफिस से जल्दी आ सको, तो अच्छा है,’’ अरुण ने कहा तो मेरी इच्छा हुई कि काश, अरुण यही कह देता, ‘रेखा, आज तुम औफिस मत जाओ.’

लेकिन मैं जानती थी, अरुण ऐसा नहीं कह पाएगा. उस समय भी तो वह ऐसा नहीं कह पाया था जब मैं हमेशाहमेशा के लिए उस का घर छोड़ रही थी. तब आज कैसे कह सकता था जबकि मैं वापस लौटने के लिए ही जा रही थी.

औफिस में भी अरुण को नहीं भूल पाई. कितना परेशान हो रहा होगा वह. शायद पहचान का नया सिरा ढूंढ़ने की कोशिश में हो. इसी उधेड़बुन में मैं जल्दी ही घर लौट आई.

मैं खाने के लिए मेज साफ करने लगी. अरुण का बैलेट वहीं रखा था. उसे हटा कर मेज साफ करने की सोच जैसे ही मैं ने बैलेट हटाया, उस में से एक फोटो नीचे गिर पड़ी.

एकाएक मैं चौंक पड़ी. किसी बच्चे का फोटो था. सहसा मु झे एक धक्का सा लगा. मैं नीचे, बहुत नीचे गिरती जा रही हूं और अरुण लगातार ऊपर चढ़ता जा रहा है. अब मैं अरुण को कभी नहीं पा सकूंगी. पहले एक छोटी सी आशा थी कि शायद उसे दोबारा कभी पा लूंगी. लेकिन आज उस आशा ने भी दम तोड़ दिया था. अरुण का बच्चा है, तो पत्नी भी होगी. जो बात पिछले 24 घंटों में मैं अरुण से नहीं पूछ पाई थी, उस का उत्तर अपनेआप ही सामने आ गया था. अरुण के पास सबकुछ था. पत्नी, बेटा, लेकिन मेरे पास…

‘‘बहुत प्यारा बच्चा लग रहा है. क्या नाम है इस का?’’ मैं ने किसी तरह पूछा.

‘‘अंशुक,’’ कहते हुए अरुण के चेहरे पर अपराधबोध उतर आया था.

मेरे गले में फिर से कुछ अटकने लगा था. अरुण का भी शायद यही हाल था. कभी हम दोनों ने यही नाम अपने बच्चे के लिए सोचा था. आज अंशुक अरुण का पुत्र है, लेकिन मेरा पुत्र क्यों नहीं है? अंशुक मेरा पुत्र भी तो हो सकता था.

मैं मन ही मन कुलबुलाने लगी, ‘अरुण, क्या तुम ने हमारे उस घर में लिपटी धूल को पोंछने के साथसाथ मु झे भी पोंछ डाला है? क्या तुम मु झे अपने दिल से निकाल सके हो? तुम ने अपने पुत्र का नाम अंशुक क्यों रखा?’

मैं ढेरों सवाल पूछना चाहती थी, लेकिन कुछ भी पूछने की मेरी हिम्मत एक बार फिर जवाब दे गई. अब तो शायद मेरी जिंदा रहने की ताकत भी खत्म हो जाएगी. अभी तक  झूठी ही सही, लेकिन फिर भी आशा तो थी ही पीछे लौटने की. लेकिन अब तो सब दरवाजे बंद हो चुके हैं और आगे भी रास्ता बंद दिखाई दे रहा है. अब मैं कहां जाऊंगी? हार… हार… इस हार ने तो मु झे अंदर तक तोड़ डाला है.

फिर भी मैं शीघ्र ही संभल गई. इन  4 सालों के एकाकीपन ने मु झे इतना तो सिखा ही दिया था कि परिस्थितियों के अनुसार अपने को किस तरह काबू में रखना चाहिए.

‘‘कहां चलना है?’’ मैं  सहज हो कर तैयार हो गई थी. अब तक मैं सम झ चुकी थी कि अरुण अब मेरा केवल परिचित मात्र रह गया है. लेकिन फिर भी मैं ने लाल बौर्डर वाली पीली साड़ी पहनी थी. अरुण अपनी पसंद की साड़ी में मु झे देखता ही रह गया था. मैं ने फिर मन ही मन कहा, ‘क्या देख रहे हो, अरुण? मैं वही रेखा हूं. कुछ भी, कहीं भी नहीं बदला है. फिर, किस वजह से हम एकदूसरे से इतनी दूर हो गए हैं?’

मैं ने सिर  झटक दिया. सीढि़यां उतरते ही हम भीड़भरी सड़क का एक अंग बन गए.

उस दिन मैं थक कर चूर हो गई थी. पर मेरी आंखों में नींद कहां थी. अरुण भी पिछला कुछ नहीं भूला था. वह लगातार सिगरेट पीता रहा. फिर अचानक बोला, ‘‘रेखा, वैसे तो अब तुम पर मेरा कोई हक नहीं लेकिन तब भी कह रहा हूं, इतनी दूर अकेली मत रहो. लौट आओ, वापस लखनऊ. नौकरी करना इतना जरूरी तो नहीं?’’

मेरे गले में कुछ अटकने लगा. अरुण को औरतों का नौकरी करना कभी पसंद नहीं आया. मैं ने फिर कहना चाहा, ‘अरुण, नौकरी करना उन के लिए जरूरी नहीं जिन के पास सबकुछ हो, मेरे पास तो कुछ भी नहीं. फिर पिछला सब भुलाने के लिए ही तो मैं इतनी दूर आई हूं. वरना नौकरी तो मु झे वहां भी मिल जाती. लखनऊ वापस लौट कर मैं क्या जिंदा भी रह पाऊंगी? जब अतीत बुरे सपने की तरह पीछा करेगा तो उस से मैं कैसे बचूंगी? कहांकहां भागूंगी? किसकिस से बचूंगी? नहीं अरुण, मु झे वापस लौटने को मत कहो. मु झे  झूठी मृगतृष्णा में मत फंसाओ. जानते हो, रेतीली चट्टानों के पीछे भागने वाले को प्यासा ही भटकना पड़ता है.’

मेरी आह निकल गई. मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया.

अपनी पीड़ा को मैं किस से कहती? जिसे मैं ने तनमन से पागलपन की हद तक प्यार किया था उसी ने मु झे गलत सम झा था. मु झ पर अविश्वास किया था. इसी वजह से मेरा दबा आत्मसम्मान सिर उठा चुका था और फिर मैं ने कठोर फैसला कर ही लिया था. तब मैं अरुण से यह कह कर चली आई थी, ‘अरुण, अविश्वास करना तुम्हारी आदत में शामिल हो चुका है. इसलिए तुम मेरी किसी बात पर अब विश्वास नहीं कर पाओगे. मैं जा रही हूं.

यकीन मानो, अब कभी मैं तुम्हारे दरवाजे पर लौट कर नहीं आऊंगी.’

मु झे याद आया, अरुण उस वक्त अचकचा रहा था. लेकिन कुछ कह नहीं पाया था और तब मेरा सबकुछ लखनऊ में ही छूट गया था. फिर कोलकाता ने ही मु झे नई जिंदगी दी थी.

‘‘राकेश कहां है आजकल?’’ अचानक मेरे मुंह से निकल गया.

अरुण ने कंधे सीधे कर सिगरेट  ली. मैं ने महसूस किया, वह कुछ ज्यादा ही सिगरेट पीने लगा है. मुंह से धुआं निकालते हुए उस ने कहा, ‘‘अमेरिका में है. वहीं उस ने किसी बंगाली लड़की से शादी कर ली है.’’

मु झे चक्कर सा आने लगा. यानी, सब आगे बढ़ गए हैं. राकेश अमेरिका में है अपनी पत्नी के पास. मु झ पर अविश्वास करने वाला मेरा पति भी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ है. तो क्या मैं ही अभिशप्त हूं? क्या मेरा कारावास कभी खत्म नहीं होगा?

अपने लिए निर्णय पर अब मु झे पछतावा होने लगा.  झूठे आत्मसम्मान के चक्कर में मु झे क्या मिला? अतीत के चंद सुखद पन्ने और अंधकारमय एकाकी भविष्य ही न, जहां भटक जाने पर भी अब मु झे कोई पुकारने वाला नहीं. अभी तक कभी रोई नहीं थी. फिर इस वक्त ही क्यों मु झे पछतावा हो रहा है? तब मैं खुद ही तो उन सारे दरवाजों को बंद कर आई थी हमेशाहमेशा के लिए.

एक सवाल ने मेरे मन में हलचल मचा दी थी. अरुण से उस समय नहीं पूछ पाई थी, सोचा था, अरुण खुद पूछेगा और मैं  झूठा आत्मसम्मान छोड़ कर उस के पास वापस चली जाऊंगी. लेकिन उस का भी तो आत्मसम्मान बाधक बना हुआ था. इसीलिए तो मेरे इस सवाल का जवाब मु झे नहीं मिल पाया था,  ‘अरुण, तुम ने मु झ पर अविश्वास क्यों किया? मैं ने तो तुम्हें हमेशा ही चाहा. एक ही छत के नीचे, एक ही बिस्तर पर लेटे हम क्या एकदूसरे से इतना दूर हो गए थे कि एकदूसरे को सम झ नहीं सकते थे या सम झा नहीं सकते थे?’ मु झे याद है, 4 साल पूर्व की घटना, लग रहा था जैसे अभी कल ही घटी है.

‘आज राकेश आया था. हम कितनी देर बातें करते रहे, पता ही न चला.’

मेरी आवाज पर अरुण कुछ चौंक सा गया था, बोला था, ‘अच्छा, कब आया था? मु झ से मिला नहीं.’ लेकिन मैं ने अरुण की बात पर ध्यान नहीं दिया था. तब अरुण अपने अंदर एक वहम पाल बैठा था. फिर वह उसे पालता ही रहा था. जानेअनजाने मैं ने भी उस वहमरूपी पौधे को और सींच दिया था, कहा था, ‘तुम से अच्छा ही है वह.’

उस वक्त उम्र के उस मोड़ पर रंगीन दुनिया में विचरते हुए मैं ने यथार्थ के धरातल पर उतरने की जरूरत नहीं सम झी थी. प्यार के आवेश में मैं सबकुछ भूल गई थी. प्यार के साथ सम झदारी भी चाहिए. अरुण पर अगाध विश्वास के कारण ही तो मैं सब से हंसती हुई बोलती रहती थी.

लेकिन तभी मैं ने महसूस किया था कि अरुण बदलता जा रहा है. हमारे संबंधों में अजीब सा ठंडापन आ गया है. जब हम दोनों बैठते तो बीच में एक निशब्द सन्नाटा पसरा रहता. पहले दूर रहते हुए भी एकदूसरे के सुखद स्पर्श का एहसास होता रहता था, लेकिन अब स्थिति में एक अजीब सा अंतर आ गया था.

मैं अरुण के पास जाने की कोशिश करती तो लगता, अरुण मेरी आंखों में किसी और को तलाश रहा है. अरुण ऊपर से अब ठंडी राख की तरह लगने लगा था, लेकिन उस का अंतर जल रहा था, क्रोध से या फिर ईर्ष्या से. और फिर एक दिन ठंडी राख के अंदर जलते अंगारों से मन जल उठा था, बुरी तरह  झुलस गया था.

अब अरुण लौट रहा था अपने बच्चे और पत्नी के पास, जो व्याकुलता से उस का इंतजार कर रहे होंगे. मैं अरुण को स्टेशन छोड़ने गई थी. मेरा पल्ला हवा में लहरा कर अरुण के कंधे से लिपट गया था, जो शायद मेरे लौट जाने की इच्छा को प्रकट कर रहा था.

हम दोनों ही चुप थे. कितने अनपूछे प्रश्न हमारे बीच तैर रहे थे. रेल आ गई. 2-3 मिनट बाकी थे. मैं पूछना चाह रही थी, ‘अरुण, क्या सारा दोष मेरा ही था, तुम निर्दोष थे? तब फिर मु झे ही क्यों सजा भुगतनी पड़ रही है? क्या इसलिए कि मैं तुम्हें आज भी भुला नहीं पाई हूं?’ रेल ने सीटी दे दी. अरुण लपक कर डब्बे में चढ़ गया. बंद मुट्ठी से कुछ फिसलने लगा था. खिड़की पर रखे मेरे कांपते हाथ पर अरुण ने हौले से अपना हाथ रख दिया था और फिर धीरे से बोला था, ‘‘अपना खयाल रखना.’’

रेल चल चुकी थी. 2-3 दिन का सुखद वर्तमान  झटके से फिसल गया था. अरुण लौट रहा था अपने परिवार के पास और मु झे… मु झे इन फिसले हुए कणों को सहेज कर रखना था. मैं सिसक पड़ी थी मन ही मन बड़बड़ाते हुए, ‘अरुण, तुम्हारा तो इंतजार हो रहा होगा, लेकिन मेरा अब कौन इंतजार करेगा?

‘तुम्हारी कहानी शायद यहीं समाप्त हो जाएगी, लेकिन मेरी कहानी तो यहीं से शुरू हो रही है, नए सिरे से.’

और मेरे पैर उस रास्ते पर बढ़ चले जिसे मैं खुद भी नहीं जानती.

राइटर- अंजुला श्रीवास्तव

Love Story

Thriller Story: दर्द आत्महत्या का- क्या हुआ बनवारी के साथ

Thriller Story: जीवन में हमेशा वह कहां होता है जो सोचासमझा हो, वह भी हो जाता है जो अनजानाअनचाहा हो और वह भी जिसे शायद कभी सपने में ही सोचा हो. कभी सोचतेसोचते हम कितना कुछ सोच लेते हैं जो बड़ा सुखद, बड़ा मीठा होता है और कभीकभी कड़वा और डरावना भी कल्पना में आ कर चला जाता है.

उस दिन सहसा एक दूर के रिश्तेदार के दाहसंस्कार पर जाना पड़ा. पता चला जाने वाले ने आत्महत्या कर ली थी. क्या हुआ, क्यों हुआ, इस पर तो परिवार वाले भी असमंजस और सदमे में थे लेकिन जाने वाला चर्चा का विषय जरूर बना था. हर आने वाला चेहरा एक सवालिया निशान बना दूसरे का चेहरा देख रहा था.

‘‘क्या हुआ, भाई साहब, कुछ पता चला?’’

‘‘क्या पतिपत्नी में झगड़ा हुआ था? सुना है आजकल हर रोज झगड़ा होता था. बनवारी भाई साहब तो कईकई दिन घर पर खाना भी नहीं खाते थे. कहते हैं, कल रात भी सुबह से भूखे थे. खाली पेट जहर ने असर भी जल्दी किया. बस, खाते ही गरदन ढुलक गई…’’

‘‘कौन जाने खुद खा लिया या किसी ने खिला दिया. अब मरने वाला तो उठ कर बताने से रहा कि उसे किसी ने मारा या वह खुद मरा.’’

मैं लोगों की भीड़ में बैठा सब सुन रहा था. तरहतरह के सवाल और तरहतरह के जवाब. संवेदना कहां थी वहां किसी के शब्दों में. मरने वाले ने खुद ही अपनी मौत को एक तमाशा बना दिया था. पुलिस केस बन गया था जिस वजह से लाश का पोस्टमार्टम होना भी जरूरी था.

जो चला गया सो गया लेकिन अपनी मौत पर रोने वालों के मन में दुख कम गुस्सा आक्रोश अधिक छोड़ गया. पत्नी पर कोई भी ससुराल का सदस्य ताना कस सकता था, ‘अरी, तू तो अपने पति की सगी नहीं हुई जिस का दिया खाती थी, तो भला हमारी क्या होगी.’

बच्चों पर सदा एक आत्मग्लानि का बोझ था कि उन का पिता उन से दुखी हो कर मौत के मुंह में चला गया. कोई कुछ भी सुना दे, भला बच्चों के पास क्या उत्तर होगा कि क्यों उन का पिता उन्हें सवालों के इस चक्रव्यूह में छोड़ गया.

वापस तो चला आया मैं, लेकिन सामान्य नहीं हो पा रहा हूं. बारबार वही सब नजर आता है. सोचता हूं, क्यों मरने वाला यों मर गया. यदि जीवन में कोई परेशानी थी तो क्या मर कर हल हो गई होगी?

जीवित रहते तो कुछ भी करते लेकिन मरने के बाद क्या पा लिया होगा, सिवा इस के कि न खुशी से जी पाए न मर कर ही चैन पाया. परिवार पर दाग लगा सो अलग.

होता है न ऐसा कभीकभी, किसी का साहस या दुस्साहस हमें भी कमजोर या बहादुर बना देता है. कोई कहता है  ‘‘अरे भई, सबकुछ था पास, बेटीबेटा, कमाऊ पत्नी, अच्छा घर, गाड़ी और अच्छी नौकरी. जीवन का हर वह सुख जो इनसान को चाहिए. सब था, फिर क्या कम था जिस वजह से जहर ही खा लिया.’’

यह सुन थोड़ा असमंजस में पड़ गया मैं. क्या उत्तर दूं? शायद मैं इतनी हिम्मत कभी नहीं जुटा सकता कि आत्महत्या ही कर लूं.

‘‘बनवारी लाल को जमीन खरीदने का बहुत शौक था. मांबाप बचपन में ही लंबाचौड़ा परिवार छोड़ कर मर गए थे. 6-7 बहनें थीं, भाई था, जो कमाया उन पर लगाया. उन से फारिग हुआ तो अपना परिवार शुरू हो गया. जरा सा पैसा एक जमीन के टुकड़े पर लगाया जिस से कुछ लाभ हुआ और लगाया और लाभ हुआ, और होता गया. आज की तारीख में 40-50 लाख की जमीन है बनवारी के परिवार के पास. सुना है और जमीन खरीदना चाहता था जिस के लिए पत्नी से रुपए मांगता था. उस ने नहीं दिए तो जोश में आ कर जहर खा लिया.’’

बनवारी लाल तो चले गए लेकिन एक प्रश्न छोड़ गए, ‘‘क्या सचमुच आत्महत्या करना बड़ी बहादुरी का काम है?’’

मैं एक भावुक इनसान हूं. मन में जो धंस गया बस, धंस गया. जीवन और मृत्यु दोनों में क्या वरण करना बहादुरी का काम है और क्या कायरता का. उस दिन के बाद मैं अकसर अब अपनी ही आत्महत्या का सपना देखने लगा हूं. सपने में डरने लगा हूं मैं यह देख कर कि मेरी आत्महत्या मेरे परिवार के लिए कितना बड़ा अभिशाप बन गई. वे तो रोतेपीटते मेरा दाहसंस्कार भी कर चुके हैं. मेरी चिता की आग बुझ गई है लेकिन उस आग का क्या जो आजीवन मेरे परिवार के जीवन में जलती रहेगी. बेटी की शादी की बात चलेगी तो मेरा प्रश्न कैसे नहीं उठेगा. बेटा पत्नी लाना चाहेगा तो लोग मेरी पत्नी के व्यवहार पर भी उंगली उठाएंगे ही.

अगर मैं भी बनवारी लाल की तरह लाखों की जमीन छोड़ कर मरता हूं तो उस का मुझे क्या लाभ मिलेगा? जमीनजायदाद पर एक दिन परिवार वाले ही ऐश करेंगे. मुझे क्या मिला? अगर मैं बनवारी लाल होता तो क्या मैं आत्महत्या करने की हिम्मत करता? क्या मुझ में इतनी हिम्मत होती? मैं यह सोचता भी हूं और डरता भी हूं. असहनीय लगता है मुझे अपने परिवार पर ऐसा कहर ढा देना. मुझ में इतनी हिम्मत नहीं है.

इसी सोच में मैं कुछ दिन डूबता- उतराता रहा.  मेरे सोचते रहने को पत्नी अकसर कुरेदने लगती. उस दिन  युवा होता बेटा भी पास में बैठा था, सहसा मैं ने पूछ लिया,  ‘‘क्या बनवारी लाल ने आत्महत्या कर के हिम्मत का काम किया?’’

‘‘ पापा, कैसी बात पूछ रहे हैं, मरने के लिए भला हिम्मत की क्या जरूरत? यह तो पागल, डरपोक और मानसिक रोगों से पीडि़त इनसान का काम है. आत्महत्या करना तो कायरता है. जीवन से पलायन को आप हिम्मत का काम कैसे कह सकते हैं? बनवारी लाल अंकल तो अवसाद के मरीज थे. बातबात पर मरने की धमकी देना उन का रोज का काम था. उन का तो इलाज भी चल रहा था.’’

‘‘अच्छा, तुम्हें कैसे पता?’’

‘‘उन का बेटा ही बता रहा था. उस के चाचा ने भी तो 4 साल पहले आत्महत्या ही की थी.’’

‘‘क्या…लेकिन उन का तो ब्लड प्रैशर…’’

‘‘अरे, नहीं पापा,’’ बीच में बात काटते हुए बेटा बोला, ‘‘यह सब तो लोगों को सुनाने के लिए होता है. बनवारी अंकल के लिए भी तो वे अपने मुंह से यही कहते हैं.’’

वह एक पल को रुका फिर कहने लगा, ‘‘इन की तो पारिवारिक हिस्ट्री है. इन के एक और चाचा हैं, वह भी जराजरा सी बात पर आत्महत्या की ही धमकी देते हैं. बनवारी अंकल ने भी उस दिन धमकी ही दी थी. अब परिवार वालों ने भी रोज का तमाशा समझ कह दिया, ‘‘ठीक है, जाइए, आप की जो इच्छा है कर लीजिए…और बस…’’

स्तब्ध सा मैं पत्नी और बेटे का चेहरा देखता रहा.

बेटा हाथ का काम छोड़ मेरे पास आ बैठा. धीरे से मेरा हाथ पकड़ लिया.

‘‘आप ऐसा बेतुका प्रश्न क्यों कर रहे हैं, पापा? आप ने ही तो समझाया है मुझे कि जीवन से भागना कायर लोगों का काम है.’’

मुसकरा दिया मैं. बेटे का माथा सहला दिया.

‘‘जी कर कुछ तो करेंगे. भला मर कर क्या कर पाएंगे…कुछ भी तो नहीं.’’

कभीकभी सब गड्डमड्ड हो जाता है, जब परिवार में या करीबी ही कोई ऐसा कायरता भरा कदम उठा ले. कहते हैं, आत्महत्या बड़ी हिम्मत का काम है. अरे, तनाव तो सब के जीवन में है. कुछ आफिस का तनाव, कुछ बेटी के लिए उचित वर न मिल पाने का तनाव, कुछ पत्नी की अस्वस्थता का तो कुछ बेटे के   भविष्य को ले कर तनाव. अगर कोई आत्महत्या ही करना चाहे तो हरेक के  पास कितनी वजह हैं. जमीन न खरीद पाने का दुख भी क्या कोई वजह है. आखिर क्या जरूरत थी इतनी जमीन खरीद कर यहांवहां घर की संपत्ति बिखेर देने की?

अवसाद में मर गया वह, शायद मजाकमजाक में परिवार को डराना चाहता था, नहीं सोचा होगा कि मर ही जाएगा. डराना चाहता होगा बस, उसी प्रयास में मर गया क्योंकि किसीकिसी खानदान में यह प्रयास वंश दर वंश चलता है जो कभी  सफल हो जाता है और कभी असफल भी.

बनवारी जैसे भी मरा, बस, मर गया और यही सत्य है कि अपना इस से बड़ा नुकसान वह नहीं कर सकता था. एक इज्जत भरी मौत तो हमारा हक है न. कोई हमारी मौत पर भी हमें धिक्कारे इस से बड़ा अपमान और क्या होगा?

जोश में यों ही मर जाना प्रकृति का घोर अपमान है. बनवारी लाल ने अच्छा नहीं किया. तरस आता है मुझे उस पर. बेचारा बनवारी लाल…

Thriller Story

Story in Hindi: ढाल- सलमा की भूल का क्या था अंजाम

Story in Hindi: अभी पहला पीरियड ही शुरू हुआ था कि चपरासिन आ गई. उस ने एक परची दी, जिसे पढ़ने के बाद अध्यापिकाजी ने एक छात्रा से कहा, ‘‘सलमा, खड़ी हो जाओ, तुम्हें मुख्याध्यापिकाजी से उन के कार्यालय में अभी मिलना है. तुम जा सकती हो.’’

सलमा का दिल धड़क उठा, ‘मुख्याध्यापिका ने मुझे क्यों बुलाया है? बहुत सख्त औरत है वह. लड़कियों के प्रति कभी भी नरम नहीं रही. बड़ी नकचढ़ी और मुंहफट है. जरूर कोई गंभीर बात है. वह जिसे तलब करती है, उस की शामत आई ही समझो.’

‘तब? कल दोपहर बाद मैं क्लास में नहीं थी, क्या उसे पता लग गया? कक्षाध्यापिका ने शिकायत कर दी होगी. मगर वह भी तो कल आकस्मिक छुट्टी पर थीं. फिर?’

सामने खड़ी सलमा को मुख्या- ध्यापिका ने गरदन उठा कर देखा. फिर चश्मा उतार कर उसे साड़ी के पल्लू से पोंछा और मेज पर बिछे शीशे पर रख दिया.

‘‘हूं, तुम कल कहां थीं? मेरा मतलब है कल दोपहर के बाद?’’ इस सवाल के साथ ही मुख्याध्यापिका का चेहरा तमतमा गया. बिना चश्मे के हमेशा लाल रहने वाली आंखें और लाल हो गईं. वह चश्मा लगा कर फिर से गुर्राईं, ‘‘बोलो, कहां थीं?’’

‘‘जी,’’ सलमा की घिग्घी बंध गई. वह चाह कर भी बोल न सकी.

‘‘तुम एक लड़के के साथ सिनेमा देखने गई थीं. कितने दिन हो गए

तुम्हें हमारी आंखों में यों धूल झोंकते हुए?’’

मुख्याध्यापिका ने कुरसी पर पहलू बदल कर जो डांट पिलाई तो सलमा की आंखों में आंसू भर आए. उस का सिर झुक गया. उसे लगा कि उस की टांगें बुरी तरह कांप रही हैं.

बेशक वह सिनेमा देखने गई थी. हबीब उसे बहका कर ले गया था, वरना वह कभी इधरउधर नहीं जाती थी. अम्मी से बिना पूछे वह जो भी काम करती है, उलटा हो जाता है. उन से सलाह कर के चली जाती तो क्या बिगड़ जाता? महीने, 2 महीने में वह फिल्म देख आए तो अम्मी इनकार नहीं करतीं. पर उस ने तो हबीब को अपना हमदर्द माना. अब हो रही है न छीछालेदर, गधा कहीं का. खुद तो इस वक्त अपनी कक्षा में आराम से पढ़ रहा होगा, जबकि उस की खिंचाई हो रही है. तौबा, अब आगे यह जाने क्या करेगी.

चलो, दोचार चांटे मार ले. मगर मारेगी नहीं. यह हर काम लिखित में करती है. हर गलती पर अभिभावकों को शिकायत भेज देती है. और अगर अब्बा को कुछ भेज दिया तो उस की पढ़ाई ही छूटी समझो. अब्बा का गुस्सा इस मुख्याध्यापिका से उन्नीस नहीं इक्कीस ही है.

‘‘तुम्हारी कक्षाध्यापिका ने तुम्हें कल सिनेमाघर में एक लड़के के साथ देखा था. इस छोटी सी उम्र में भी क्या कारनामे हैं तुम्हारे. मैं कतई माफ नहीं करूंगी. यह लो, ‘गोपनीय पत्र’ है. खोलना नहीं. अपने वालिद साहब को दे देना. जाओ,’’ मुख्याध्यापिका ने उसे लिफाफा थमा दिया.

सलमा के चेहरे का रंग उड़ गया. उस ने उमड़ आए आंसुओं को पोंछा. फिर संभलते हुए उस गोपनीय पत्र को अपनी कापी में दबा जैसेतैसे बाहर निकल आई.

पूरे रास्ते सलमा के दिल में हलचल मची रही. यदि किसी लड़के के साथ सिनेमा जाना इतना बड़ा गुनाह है तो हबीब उसे ले कर ही क्यों गया? ये लड़के कैसे घुन्ने होते हैं, जो भावुक लड़कियों को मुसीबत में डाल देते हैं.

अब अब्बा जरूर तेजतेज बोलेंगे और कबीले वाली बड़ीबूढि़यां सुनेंगी तो तिल का ताड़ बनाएंगी. उन्हें किसी लड़की का ऊंची पढ़ाई पढ़ना कब गवारा है. बात फिर मसजिद तक भी जाएगी और फिर मौलवी खफा होगा.

जब उस ने हाईस्कूल में दाखिला लिया था तो उसी बूढ़े मौलवी ने अब्बा पर ताने कसे थे. वह तो भला हो अम्मी का, जो बात संभाल ली थी. लेकिन अब अम्मी भी क्या करेंगी?

सलमा पछताने लगी कि अम्मी हर बार उस की गलती को संभालती हैं, जबकि वह फिर कोई न कोई भूल कर बैठती है. वह मांबेटी का व्यवहार निभने वाली बात तो नहीं है. सहयोग तो दोनों ओर से समान होना चाहिए. उसे अपने साथ बीती घटनाएं याद आने लगी थीं.

2 साल पहले एक दिन अब्बा ने छूटते ही कहा था, ‘सुनो, सल्लो अब 13 की हो गई, इस पर परदा लाजिम है.’

‘हां, हां, मैं ने इस के लिए नकाब बनवा लिया है,’ अम्मी ने एक बुरका ला कर अब्बा की गोद में डाल दिया था, ‘और सुनो, अब तो हमारी सल्लो नमाज भी पढ़ने लगी है.’

‘वाह भई, एकसाथ 2-2 बंदिशें हमारी बेटी पर न लादो,’ अब्बा बहुत खुश हो रहे थे.

‘देख लीजिए. फिर एक बंदिश रखनी है तो क्या रखें, क्या छोड़ें?’

‘नमाज, यह जरूरी है. परदा तो आंख का होता है?’

और अम्मी की चाल कामयाब रही थी. नमाज तो ‘दीनदार’ होने और दकियानूसी समाज में निभाने के लिए वैसे भी पढ़नी ही थी. उस का काम बन गया.

फिर उस का हाईस्कूल में आराम से दाखिला हो गया था. बातें बनाने वालियां देखती ही रह गई थीं. अब्बा ने किसी की कोई परवा नहीं की थी.

सलमा को दूसरी घटना याद आई. वह बड़ी ही खराब बात थी. एक लड़के ने उस के नाम पत्र भेज दिया था. यह एक प्रेमपत्र था. अम्मी की हिदायत थी, ‘हर बात मुझ से सलाह ले कर करना. मैं तुम्हारी हमदर्द हूं. बेशक बेटी का किरदार मां की शख्सियत से जुड़ा होता है.’

मैं ने खत को देखा तो पसीने छूटने लगे. फिर हिम्मत कर के वह पत्र मैं ने अम्मी के सामने रख दिया. अम्मी ने दिल खोल कर बातें कीं. मेरा दिल टटोला और फिर खत लिखने वाले महमूद को घर बुला कर वह खबर ली कि उसे तौबा करते ही बनी.

मां ने उस घटना के बाद कहा, ‘सलमा, मुसलिम समाज बड़ा तंगदिल और दकियानूसी है. पढ़ने वाली लड़की को खूब खबरदार रहना होता है.’

सलमा ने पूछा, ‘इतना खबरदार किस वास्ते, अम्मी?’

वह हंस दी थीं, ‘केवल इस वास्ते कि कठमुल्लाओं को कोई मौका न मिले. कहीं जरा भी कोई ऐसीवैसी अफवाह उड़ गई तो वे अफवाह उदाहरण देदे कर दूसरी तरक्की पसंद, जहीन और जरूरतमंद लड़कियों की राहों में रोड़े अटका सकते हैं.’

‘आप ठीक कहती हैं, अम्मी,’ और सलमा ने पहली बार महसूस किया कि उस पर कितनी जिम्मेदारियां हैं.

पर 2-3 साल बाद ही उस से वह भूल हो गई. अब उस अम्मी को, जो उस की परम सहेली भी थीं, वह क्या मुंह दिखाएगी? फिर अब्बा को तो समझाना ही मुश्किल होगा. इस बार किसी तरह अम्मी बात संभाल भी लेंगी तो वह आइंदा पूरी तरह सतर्क रहेगी.

सलमा ने अपनी अम्मी रमजानी को पूरी बात बता दी थी. सुन कर वह बहुत बिगड़ीं, ‘‘सुना, इस गोपनीय पत्र में क्या लिखा है?’’

सलमा ने लिफाफा खोल कर पढ़ सुनाया.

रमजानी बहुत बिगड़ीं, ‘‘अब तेरी आगे की पढ़ाई गई भाड़ में. तू ने खता की है, इस की तुझे सजा मिलेगी. जा, कोने में बैठ जा.’’

शाम हुई. अब्बा आए, कपड़े बदल कर उन्होंने चाय मांगी, फिर चौंक उठे, ‘‘यह इस वक्त सल्लो, यहां कोने में कैसे बैठी है?’’

‘‘यह मेरा हुक्म है. उस के लिए सजा तजवीज की है मैं ने.’’

‘‘बेटी के लिए सजा?’’

‘‘हां, हां, यह देखो…खर्रा,’’ सलमा की अम्मी गोपनीय पत्र देतेदेते रुक गईं, ‘‘लेकिन नहीं. इसे गोपनीय रहने दो. मैं ही बता देती हूं.’’

और सलमा का कलेजा गले में आ अटका था.

‘‘…वह बात यह है कि अपनी सल्लो की मुख्याध्यापिका नीम पागल औरत है,’’ अम्मी ने कहा था.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मसजिद के मौलवी से भी अधिक दकियानूसी और वहमी औरत.’’

‘‘बात क्या हो गई?’’

‘‘…वह बात यह है कि मैं ने सल्लो से कहा था, अच्छी फिल्म लगी है, जा कर दिन को देख आना. अकेली नहीं, हबीब को साथ ले जाना. उसे बड़ी मुश्किल से भेजा. और बेचारी गई तो उस की कक्षाध्यापिका ने, जो खुद वहां फिल्म देख रही थी, इस की शिकायत मुख्याध्यापिका से कर दी कि एक लड़के के साथ सलमा स्कूल के वक्त फिल्म देख रही थी.’’

‘‘लड़का? कौन लड़का?’’ अब्बा का पारा चढ़ने लगा.

रमजानी बेहद होशियार थीं. झट बात संभाल ली, ‘‘लड़का कैसा, वह मेरी खाला है न, उस का बेटा हबीब. गाजीपुर वाली खाला को आप नहीं जानते. मुझ पर बड़ी मेहरबान हैं,’’ अम्मी सरासर झूठ बोल रही थीं.

‘‘अच्छा, अच्छा, अब मर्द किस- किस को जानें,’’ अब्बा ने हथियार डाल दिए.

बात बनती दिखाई दी तो अम्मी, अब्बा पर हावी हो गईं, ‘‘अच्छा क्या खाक? उस फूहड़ ने हमारी सल्लो को गलत समझ कर यह ‘गोपनीय पत्र’ भेज दिया. बेचारी कितनी परेशान है. आप इसे पढ़ेंगे?’’

‘शाबाश, वाह मेरी अम्मी,’ सलमा सुखद आश्चर्य से झूम उठी. अम्मी बिगड़ी बात यों बना लेंगी, उसे सपने में भी उम्मीद न थी, ‘बहुत प्यारी हैं, अम्मी.’

सलमा ने मन ही मन अम्मी की प्रशंसा की, कमाल का भेजा पाया है अम्मी ने. खैर, अब आगे जो भी होगा, ठीक ही होगा. अम्मी ढाल बन कर जो खड़ी रहती हैं अपनी बेटी के लिए.

शायद अब्बा ने खत पढ़ना ही नहीं चाहा. बोले, ‘‘रमजानी, वह औरत सनकी नहीं है. दरअसल, मैं ने ही उन मास्टरनियों को कह रखा है कि सलमा का खयाल रखें. वैसे कल मैं उन से मिल लूंगा.’’

‘‘तौबा है. आप भी वहमी हैं, कैसे दकियानूसी. बेचारी सल्लो…’’

‘‘छोड़ो भी, उसे बुलाओ, चाय तो बने.’’

‘‘वह तो बहुत दुखी है. आई है जब से कोने में बैठी रो रही है. आप खुद ही जा कर मनाओ. कह रही थी, मुख्याध्यापिका ने शक ही क्यों किया?’’

‘‘मैं मनाता हूं.’’

और शेर मुहम्मद ने अपनी सयानी बेटी को उस दिन जिस स्नेह और दुलार से मनाया, उसे देख कर सलमा अम्मी की व्यवहारकुशलता की तारीफ करती हुई मन ही मन सोच रही थी, ‘आइंदा फिर कभी ऐसी भूल नहीं होनी चाहिए.’

और सलमा यों अपने चारों ओर फैली दकियानूसी रिवायतों की धुंध से जूझती आगे बढ़ी तो अब वह कालिज की एक छात्रा है. उस के इर्दगिर्द उठी आंधियां, मांबेटी के व्यवहार के तालमेल के आगे कभी की शांत हो गईं.

लेखक- इनायतबानो कायमखानी

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