एक भिखारी रोज की तरह भीख मांगने निकला. शगुन के तौर पर 1 मुट्ठी जौ अपनी खाली झोली में डाल कर निकला. रास्ते में उस ने राजा की सवारी आते देखी. उसे अच्छी भीख की उम्मीद बंधी. लेकिन यह क्या? भिखारी के सामने राजा ने खुद अपनी झोली फैला दी. भिखारी क्या करता, कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह तो खुद दूसरों से भीख लेता था. आज राजा ने भीख के लिए अपनी झोली उस के सामने फैला दी.

आखिर उस ने अपनी झोली में हाथ डाला और मन मार कर जौ के 2 दाने निकाल कर राजा की झोली में डाल दिए. लेकिन सारा दिन उसे जौ के 2 दाने चले जाने का मलाल सालता रहा. बहरहाल, सारा दिन घूमघूम कर भीख मांगने के बाद भिखारी घर लौटा. जब उस ने अपनी झोली को पलटा तो हैरानी से उस की आंखें खुली की खुली रह गईं. दान में मिली चीजों के साथ झोली से जौ के 2 सोने के दाने भी मिले. वह पछताने लगा, काश, उस ने मुट्ठी भर कर जौ राजा की झोली में डाल दिए होते. किस्से की सीख : दान की महिमा.

दानवीर कर्ण का भी किस्सा है. दान ने ही कर्ण के प्राण ले लिए. महाभारत के युद्ध में अर्जुन की रक्षा के मद्देनजर देवराज इंद्र ने कर्ण से उस का कवच दान में मांग लिया था.

हालांकि बदले में इंद्र ने कर्ण को 5 तीर दिए. लेकिन कृष्ण ने कुंती को भेज कर वे पांचों तीर मंगवा लिए. इसी दानी स्वभाव के कारण कर्ण की मौत हुई वरना कर्ण अर्जुन से भी बड़ा योद्धा था और महाभारत के युद्ध में इस तरह मारा नहीं जाता.

दानदक्षिणा की बात की जाए और एकलव्य का जिक्र न हो, यह भला कैसे हो सकता है. निषाद पुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया. तब एकलव्य ने दूर से देखदेख कर धनुष चलाना सीखा और वन में द्रोणाचार्य की मूर्ति बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा. जल्द ही वह इस विद्या में निपुण हो गया. एक दिन द्रोणाचार्य के आगे एकलव्य की धनुर्विद्या उजागर हुई. अर्जुन की तुलना में एकलव्य की धनुर्विद्या के प्रति निष्ठा और पारंगतता से द्रोणाचार्य कांप गए और उन्होंने उस से गुरुदक्षिणा में अंगूठा मांग लिया ताकि अर्जुन के अलावा और कोई धनुर्विद्या में पारंगत न रहे. यह और बात है कि एकलव्य ने तर्जनी और मध्यम उंगली से तीर चलाने का अभ्यास करना शुरू कर दिया. लेकिन यह कितनी अजीब बात है कि एकलव्य को बगैर कुछ सिखाए द्रोणाचार्य ने दक्षिणा में उस का अंगूठा मांग लिया.

दान परंपरा की शुरुआत

वैसे सनातन हिंदू धर्म में हैं तो कई कर्मकांडी ढकोसले, पर दानदक्षिणा इन सब में सब से बड़ा ढकोसला है. हिंदू धर्म में दान को महापुण्य बताया गया है. वेदों में भी दान की महिमा का तरहतरह से बखान किया गया है. ऋग्वेद के 10वें अध्याय के 117 विभिन्न सूक्तों में दान की महिमा का वर्णन है. अर्थवेद के तीसरे अध्याय में भी सहस्र हाथों से दान करने की बात की गई है. ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, मनुसंहिता में ब्राह्मण की महत्ता और दान से प्राप्त होने वाले पुण्य का बखान भरा पड़ा है. पर यह सब धन कमाने और बटोरने की ब्राह्मणों की जुगत है. इन का दरअसल, धर्म से कुछ खास लेनादेना नहीं है.

दान परंपरा की शुरुआत इसीलिए हुई, क्योंकि वर्णव्यवस्था में सब से ऊपर रहने के बावजूद आर्थिक रूप से ब्राह्मणों की स्थिति अच्छी नहीं थी. उन के बुरे दिन चल रहे थे. तब ब्राह्मणों ने अपनी रोजीरोटी और आजीविका के लिए दान परंपरा की शुरुआत की. इस के लिए तरहतरह के धार्मिक पाखंड रचे गए. बताया जाता है कि कृष्ण का द्वापर युग बहुत हद तक ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ था. अनुभव, ज्ञान और कौशल के कारण कृष्ण की व्यवस्था में वृद्धों का महत्त्व कहीं अधिक था. इसलिए एक आख्यान के अनुसार द्वारिका का निर्माण कृष्ण ने विश्वकर्मा से कराया था और विश्वकर्मा को हमेशा वृद्ध के रूप में प्रदर्शित किया जाता है.

कलयुग का हौआ

इतिहासकार आर.एन. नंदी कहते हैं कि चौथी सदी के आरंभ से ले कर 5वीं सदी के अंत तक ब्राह्मणों ने पुरोहिताई, दानदक्षिणा के अलावा आजीविका के और नएनए रास्ते तलाशने शुरू किए. इस दौरान ब्राह्मणों ने नए सिरे से जजमान (यजमान) बनाना शुरू किया.

स्वरोजगार के कई तरीके ईजाद किए, जो दरअसल में गैरपरंपरावादी तरीके से हट कर थे. जीविका निर्वाह के नएनए तरीके फलित ज्योतिष, भविष्य कथन आदि तरीके ढूंढ़े गए.

शूद्रों पर अलग से धार्मिक कर्मकांड थोपे गए. इसी दौरान वेदाध्ययन, मूर्तिपूजा शुरू हुई. इसी कड़ी में तीसरी से 5वीं सदी के बीच पुराण साहित्य रचे गए. इन में विष्णु पुराण, वायु पुराण और मत्स्य पुराण विशेष उल्लेखनीय हैं. इन पुराणों में दान की महत्ता और दान संबंधी कर्मकांडों का बढ़चढ़ कर उल्लेख किया गया. इन सब के पीछे ब्राह्मणों का मकसद धर्म और कर्मकांड से विरक्त रहने वाले यजमानों को पाप का भय दिखा कर उन से पीछा छुड़ाने का उपाय सुझा कर अपने लिए जीवन निर्वाह का साधन जुटाना था. अपने इसी उद्देश्य के मद्देनजर कलियुग का हौआ फैलाया गया और कहा गया कि इस युग में पुण्य स्वत: कम हो जाएंगे और पाप की वृद्धि होगी. पातकों के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए दानपुण्य करने की बात कही गई.

इसी तरह अक्षय तृतीया या आखा तीज को दान के लिए ही जाना जाता है. ब्राह्मणों ने लोगों के दिमाग में यह बात ठूंस दी है कि अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान का कभी क्षय नहीं होता है. इसी परंपरा के तहत बड़े पैमाने पर कन्यादान की परंपरा चल पड़ी. इस परंपरा ने बालविवाह का चलन भी शुरू किया. अक्षय तृतीया के दिन राजस्थान समेत उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर बाल विवाह होते हैं.

दानदक्षिणा की महिमा

बहरहाल, दान की महिमा पर एक नजर डाल ली जाए. इस की लंबी सूची है. यही नहीं सूची में श्रेष्ठ दान के ढेर सारे स्तर बताए गए हैं. गोदान को श्रेष्ठ दान बताया गया है.

इस के बाद अन्नदान, वस्त्रदान, स्वर्णदान और भूमिदान भी है. धर्मशास्त्रों में अष्टदान की बात कही गई है. अष्टदान के अंतर्गत तिल, लोहा, सोना, कपास, नमक, सप्तधान, भूमि और गोदान को शामिल किया गया है.

अष्टदान की महिमा इस तरह बताई गई है. तिल के दान से असुर, दैत्य और दानव तृप्त होते हैं. लोहे के दान से यम प्रसन्न होते हैं. सोने के दान से धर्मराज की सभा के ब्रह्मादि देवता और ऋषिमुनि प्रसन्न होते हैं. स्वर्ण दान से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है. कपास के दान से यम का दूत प्रसन्न होता है. नमकदान से यम का भय जाता रहता है. चावल, जौ, गेहूं, उरद, चना जैसे सप्तधान से यमलोक में संतोष की प्राप्ति होती है. भूमिदान से स्वर्ग का द्वार खुल जाता है. गोदान से स्वर्ग की नदी वैतरणी पार कर के मोक्ष प्राप्त होता है.

सिर्फ इतना ही नहीं, अगर ब्राह्मण की अकाल मौत हो जाए तो ब्राह्मण की बेटी का कन्यादान अपना दायित्व समझ कर कराना चाहिए. कोई सर्पदंश से मर गया हो तो ब्राह्मण को सोने का सांप बना कर देना चाहिए. हाथी से मौत होने पर स्वर्ण हाथी, राजा द्वारा मृत्यु हो जाने पर स्वर्ण पुरुष, शत्रु ने मार डाला हो तो स्वर्ण बैल, शैया पर मृत्यु हुई हो तो स्वर्ण विष्णु, सूअर ने मार डाला हो तो भैंस दान, पेड़ की वजह से मौत होने पर वस्त्र, अन्नदान के साथ स्वर्ण वृक्ष दान देने का शास्त्र प्रावधान किया गया है. पर्वत की चोटी से गिर कर मौत हुई हो तो अनाज का पहाड़ बना कर दान करने का विधान बताया गया है. आग से जल कर मृत्यु होने पर यथाशक्ति कुआं खोद कर ब्राह्मण को उत्सर्ग करने की बात कही गई है.

कहा गया है कि जो मनुष्य परलोक में अक्षय सुख की अभिलाषा रखता है, उसे अपने लिए संसार या घर में जो वस्तु सर्वाधिक प्रिय है, उसे गुणवान ब्राह्मण को दान करना चाहिए, जो सामान्य किस्म का दान है, उसे किसी को भी दान कर के पुण्य कमाया जा सकता है. मिसाल के तौर पर विद्यादान, कन्यादान, जलदान से तृप्ति, अन्नदान से कभी न खत्म होने वाले सुख की प्राप्ति होती है. तिलदान से संतान की प्राप्ति, दीपदान से आंखें नीरोग रहने की बात कही गई है.

दान देने की सीख के पीछे बहुत सारे लोचे हैं. कुल मिला कर आशय यह है कि जीतेजी ही नहीं, मरने के बाद भी ब्राह्मणों की ही सुखसुविधा का ध्यान रखने की बात तमाम धर्मग्रंथ कहते हैं और कुछ नहीं तो पिता के मरने के बाद बेटे के लिए दशक्रिया का नियम बना कर पिता के ऋण से मुक्ति का रास्ता बताया गया है. पिंडदान के साथ 5 या 7 या 9 ब्राह्मणों को दानदक्षिणा देने के नाम पर उन के लिए जीने के तमाम साधन दान में देने को कहा गया है.

बहरहाल, धर्मग्रंथों में अलगअलग तरह के दान के महत्त्व का बखान किया गया है. मसलन, भूमिदान से तमाम तरह के इच्छित फलों की प्राप्ति, स्वर्णदान से दीर्घायु होने, चांदीदान से उत्तम रूप की प्राप्ति और वस्त्रदान से चंद्रलोक, अश्वदान से अश्विनी कुमार के लोक और गोदान से सूर्यलोक की प्राप्ति, गृहदान से उत्तम घर आदि का लालच दिया गया है. इतना कुछ अगर किसी ब्राह्मण को दान में मिल जाए तो और क्या चाहिए.

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