दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक रिट फाइल करने वाले को फटकारते हुए कहा कि पहले जमीन एनक्रोच कर के मकान बनाना और फिर जब मकान तोड़ा जाने लगे तो बच्चों और गर्भवती औरतों की दुहाई देना कानून से माखौल है. दिल्ली के कुछ इलाकों में केंद्र सरकार की लैंड एजेंसी डीडीए (दिल्ली डेवलपमैंट अथौरिटी) अवैध मकान गिरा रही है जिस पर एक निवासी ने रिट दाखिल की थी कि गिराने का काम सुनवाई पूरी तरह से खत्म हो जाने तक रोका जाए.

दिल्ली ही नहीं देशभर में खाली पड़ी सरकारी या प्राइवेट जमीन पर कुछ भी बना कर, जिस में दुकान, खोमचा, मकान, मंदिर, मसजिद, मजार, चर्च बना कर उस पर हक जमाना एक दस्तूर बन गया है. जमीन की मिल्कियत किस की है, इस की परवाह न कर के कब्जा करना शातिर चोरों का ही नहीं, भोलेभाले गरीबों का भी काम है और वाजिब मालिक कलपता रह जाता है.

आमतौर पर अदालतों में मामले 10-20 साल तक चल जाते हैं और बहुत से संपत्ति मालिक उस हक को छोड़ कर या तो सो जाते हैं या फिर आधे चौथाई दाम में फैसला कर लेते हैं. सरकारें समय-समय पर कब्जा छुड़ाने का नाटक करती हैं पर होताहवाता कुछ नहीं है क्योंकि कब्जा रात अंधेरे में नहीं होता, सरकारी अधिकारियों की आंखों के सामने होता है.

जैसे संपत्ति मालिक झगड़ा नहीं करना चाहते वैसे ही सरकारी अफसर भी सोचते हैं कि कौन सी जमीन उन के बाप की है. वे तभी जागते हैं जब पता चलता है कि कौडि़यों की जमीन की कीमत अरबों की हो गई है.
सरकारी लापरवाही ने असल में कब्जा संस्कृति को बढ़ावा दिया है. आम आदमी की संपत्ति भी इसीलिए कब्जाई जाती है कि यह सनातन हक बन गया है. कब्जाई जमीन के एक हिस्से में मंदिर, मसजिद बनने पर सुरक्षाकवच भी मिल जाता है. यह हमारे विश्वगुरु की जोर पकड़ती सोच का भी नतीजा है कि भीड़ की बात ही अंतिम सच होती है और भीड़ का अगुआ चाहे संत, फकीर, मौलवी हो या नेता, अफसर, चलेगी उसी की.

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