सुगंधा एक आदर्श पुत्रवधू, पत्नी व मां थी. सब उस की प्रशंसा करते नहीं थकते. विवाह से पहले मायके में व स्कूल में भी सब की चहेती थी. इस का एक कारण था कि उस ने कभी किसी को किसी काम के लिए मना नहीं किया. बचपन से ही उसे मातापिता ने यही सिखाया था. शांत स्वभाव की सुगंधा को चाहने वालों की कमी नहीं थी. इस पर भी धीरेधीरे सुगंधा को भीतर ही भीतर अजीब सा खालीपन लगने लगा था. उसे डिप्रैशन ने घेर लिया.

यह देख कर सुगंधा के पति जीतेन उसे अपने एक मित्र के पास ले गए. वे प्रसिद्ध मनोविद थे. सारी बातें सुनने के बाद वे बोले, ‘‘सुगंधा, आप प्रतिभासंपन्न व कुशल गृहिणी हैं. आप सदैव दूसरों की खुशी का ध्यान रखती हैं. आप को न कहना नहीं आता है. बस यही आप की समस्या है. इस घेरे से बाहर निकलिए. न कहना भी सीखें. थोड़ा अपनी इच्छानुरूप भी जी कर देखें.’’

घर आ कर सुगंधा ने मन ही मन डाक्टर की बातों पर विचार किया. उसे उन की बातों में सचाई नजर आई. दूसरों की खुशियों तले उस की अपनी इच्छाएं आकांक्षाएं कहीं दब गई थीं. अत: उस ने फैसला किया कि अब वह अपने लिए भी जी कर देखेगी, अपनी एक अलग पहचान बनाएगी. धीरेधीरे उस ने ‘न’ कहना सीख लिया. बच्चों को प्यार से कहती, ‘‘तुम यह काम खुद कर सकते हो. मैं नहीं कर पाऊंगी.’’

सास को भी मृदु स्वर में कह डालती, ‘‘मांजी, मैं आप की इस बात से सहमत नहीं हूं. हमें किसी के घरेलू मामले में दखलंअदाजी नहीं करनी चाहिए.’’

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