Meghalaya Honeymoon Murder : मध्य प्रदेश की सोनम रघुवंशी का मामला इन दिनों सुर्खियों में है. सोनम पर आरोप है कि उस ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर अपने पति की हत्या करवा दी. कुछ दिन पहले मेरठ की मुसकान का मामला भी सुर्खियों में था. मुसकान ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर पति की हत्या कर दी. औरैया की प्रगति की दिलीप से शादी हुई और शादी के 14वें दिन ही प्रगति ने भाड़े के हत्यारों से अपने पति की हत्या करवा दी.
हैदराबाद के गुरुमूर्ति ने अपनी पत्नी माधवी को मार कर उस के टुकड़े टुकड़े किए और फिर उन टुकड़ों को कुकर में उबाल दिया.
अमरोहा की रहने वाली शबनम ने अपने प्रेमी सलीम के साथ मिल कर 14-15 अप्रैल, 2008 की रात को अपने ही परिवार के 7 लोगों को नशीला पदार्थ दे कर उन का गला काट दिया था.
सलीम और शबनम के बीच शारीरिक संबंध थे, जिस से शबनम कुंआरे में ही प्रैगनैंट हो गई थी. सहारनपुर के योगेश रोहिला को अपनी पत्नी नेहा पर शक था। उस ने पत्नी को गोली मार दी और साथ ही अपने 3 बच्चों को भी गोली मार कर उन्हें छत से नीचे फेंक दिया.
सवाल यह है कि इस तरह घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं?
दोषी कौन
ऐसी तमाम घटनाओं के पीछे कई सामाजिक कारण भी छिपे होते हैं जिन पर बात नहीं होती. स्त्रीपुरुषों के बीच प्रेम संबंध होना स्वाभाविक होता है. यह प्रेम संबंध शादी से पहले भी हो सकता है और शादी के बाद भी लेकिन समाज तो शादी से पहले के ही संबंधों को स्वीकार नहीं करता. शादी के बाद होने वाले संबंधों को तो हमारा समाज पाप या गुनाह के तौर पर देखता है. समाज की यह मानसिकता धर्म से निकलती है और यहीं से समस्याएं शुरू होती हैं.
पुरोहित वर्ग कभी नहीं चाहता कि औरतें उस के हाथों से निकल जाएं इसलिए वह इस तरह के प्रेम संबंधों में शामिल औरतों को कुलटा, बदचलन या रंडी शब्द से नवाजता है.
किसी औरत को अपने पति के अलावा किसी और से प्रेम हो जाए यह बात समाज हजम नहीं कर पाता. यहां समाज के अंदर बैठा पुरुषवाद हावी हो जाता है.
योगेश ने अपनी पत्नी और बच्चों की हत्या इसी वजह से की क्योंकि वह अपनी पत्नी के ऐक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर को बरदाश्त नहीं कर पाया. सवाल यह है कि पुरुषों में योगेश जैसी मानसिकता के होते हुए क्या कोई महिला हिम्मत कर सकती है कि वह अपनी जिंदगी को स्वयं तय कर सके? अगर किसी शादीशुदा औरत को किसी और मर्द से प्यार हो जाए तो उस के पास क्या विकल्प बचता है? यही न कि वह अपने पति से तलाक ले ले लेकिन अगर पति तलाक न देना चाहे तब वह क्या करे?
इस तरह की परिस्थितियों में समाज का रवैया कभी भी औरतों के पक्ष में नहीं होता क्योंकि समाज औरतों को इस लायक समझता ही नहीं कि वे अपनी जिंदगी अपने तौर तरीके से जिएं.
कई ऐसे मामले भी हैं जिन में पति का किसी और महिला से अफेयर होने के बाद उस ने अपनी पत्नी को ठिकाने लगा दिया. यहां भी पुरुषवादी सोच ही जिम्मेदार है. क्या मर्द अपनी पहली पत्नी को तलाक दे कर दूसरी से शादी नहीं कर सकता था? लेकिन ऐसा करने पर उस की पहली पत्नी दूसरी शादी कर लेती या अपने पति की बेवफाई का बदला लेने के लिए कहीं और अफेयर चलाती, यह मर्द बरदाश्त नहीं कर सकता इसलिए वह अपनी पहली बीवी की हत्या कर देता है.
2012 मूवी की शुरुआत में एक सीन है जिस में फिल्म का हीरो अपने दोनों बच्चों को लेने अपनी पत्नी के घर जाता है जो अपने बौयफ्रैंड के साथ लिवइन में रहती है. एक सीन में हीरो और उस के बीवीबच्चों के साथ उस की बीवी का बौयफ्रैंड भी हवाई जहाज में साथ होता है. फिल्म का यह दृश्य अमेरिकन समाज की हकीकत है. वहां औरतों को इतनी आजादी है कि वह अपने रास्ते खुद तय कर सकें.
क्या भारतीय में ऐसी कल्पना भी की जा सकती है
सभ्य समाज में इंसान के हाथों इंसान का कत्ल कभी भी माफी के काबिल नही होता. ऐसे हर अपराध में अपराधी को सजा जरूर मिलनी चाहिए. मुसकान हो, शबनम हो या फिर प्रगति ये सब समाज के अपराधी हैं. इन्हें कठोर सजा जरूर मिलनी चाहिए लेकिन इन के अपराधी बनने में सिर्फ और सिर्फ यही जिम्मेदार नहीं हैं, हमारा समाज और हमारी सामाजिकता की संकीर्णताओं से उपजी वृहद विकृतियों में ऐसी उर्वरकता हमेशा मौजूद होती है जहां से थोक के भाव मे ऐसे अपराधी जन्म लेते हैं.
जब कुदरत किसी लड़की को प्रेम के लिए तैयार कर देता है तब समाज उस की इच्छाओं के आगे कई दीवारें खड़ी कर देता है। यहीं से शबनम, प्रगति और मुसकान जैसी चुड़ैलों का उदय होता है.
शादी से पहले सैक्स तो दूर की बात है. लड़की के लिए तो खुल कर हंसना भी वर्जित है. वह क्या करे जब उसे प्रेम हो जाए? वह क्या करे जब वह कुंआरेपन में प्रैगनैंट हो जाए? वह क्या करे जब उसे अपने पति से प्रेम न हो. वह क्या करे जब उसे शादी के बाद किसी और से प्यार हो जाए? समाज में इस तरह की बातों को स्वीकार करने कोई गुंजाइश नहीं. कोई खिड़की कोई दरवाजा भी तो नहीं जहां से इसे हजम करने की कोई गुंजाइश बाकी हो।
2 प्यार करने वालों को खुदकुशी पर मजबूर करने वाला समाज या प्रेमी जोड़ों की थोक के भाव मे हत्याएं करने वाला समाज कभी शबनम, मुसकान और प्रगति के सच को नहीं समझ पाएगा.
शादी की जरूरत ही क्यों
प्रकृति में नर और मादा के मिलन से नया जीवन पैदा होता है। इस में कहीं किसी धर्म की जरूरत नहीं. जन्म की तरह मृत्यु भी एक प्राकृतिक घटना है। इस में भी किसी धर्म की जरूरत नहीं. नर और मादा मिल कर नया जीवन पैदा करें यह भी प्राकृतिक है. पशुपक्षी भी जोड़ी बनाते हैं, सहवास करते हैं और अपनी नस्ल आगे बढ़ाते हैं. इंसान एक सामाजिक पशु ही है इसलिए उसे भी सहवास के लिए विपरीत लिंग की जरूरत पड़ती है.
सामाजिक प्राणी होने के नाते जोड़ी बनाने के लिए सामाजिक नियम तय किए गए ताकि समाजिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा न हो, इसलिए कबीलाई दौर में वयस्क होने पर लड़का और लड़की को साथ रहने की अनुमति समाज से लेनी पड़ती थी. यहीं से विवाह, शादी या निकाह की परंपरा शुरू हुई.
आज भी कई आदिवासी जनजातियों में जहां कोई धर्म नहीं पहुंचा वहां उन के अपने कस्टम फौलो किए जाते हैं, जिन में किसी पुरोहित की जरूरत नहीं होती और यह परंपराएं हजारों वर्षों से यों ही चली आ रही हैं.
स्त्री को पुरुष की और पुरुष को स्त्री की जरूरत है. इसी जरूरत को पूरा करने की खातिर कबीलाई युग में शादियों का प्रचलन शुरू हुआ. उस से पहले नर और मादा स्वछंद हो कर जोड़ियां बनाते थे और तब तक साथ रहते थे जब तक दोनों को एकदूजे की जरूरत होती थी.
मातृसत्तात्मक समाज में औरत के लिए बंदिशें नहीं थीं लेकिन जैसेजैसे हम कबीलों से सभ्यताओं की ओर आगे बढ़ते गए, पितृसत्तात्मक समाज बनता गया और इस मर्दवादी समाज में औरतों के दायरे सिमटते चले गए. धीरेधीरे सभ्यताओं के विस्तार का यह दौर सत्ता ताकत और वर्चस्व की होड़ में बदल गया.
ताकत, सत्ता या वर्चस्व की लड़ाई में मरनेमारने वाले लोगों में औरतें नहीं होती थीं. वे घरों में रह कर पति के लौटने का इंतजार करतीं यदि पति मर जाएं तो उस के नाम पर पूरी जिंदगी गुजार देतीं और जिंदगीभर ससुराल में रह कर पति के परिवार की गुलामी करतीं. कभी शिकायत न करतीं. जीवनभर की इस गुलामी के एवज में उसे ‘आदर्श नारी’ का खिताब मिलता था.
जो औरत जितनी शिद्दत और वफादारी के साथ अपनी गुलामी को निभाती वह उतनी ही अच्छी मानी जाती थी.
सहना, औरत का गहना हो गया. उस का आस्तित्व पति, पिता, भाई और बेटा के बिना कुछ नहीं था. इस तरह धीरेधीरे आधी आबादी गुलाम हो कर रह गई. आदर्श नारी के इस कौंसैप्ट में बदचलनी के लिए कोई जगह नहीं थी. किसी भी मामले में नारी की मरजी का तो सवाल ही नहीं था. शादी से पहले उस के जीवन की डोर उस के पिता या भाई के हाथों में थी तो शादी के बाद उस का पति ही उस का मालिक था.
ऐसे दौर में लड़कियां खरीदी जाती थीं, बेची जाती थी, जीती जाती थीं या चुरा ली जाती थीं. सब ताकत का खेल था. जो जितना धनी था उस के पास उसी अनुपात में औरतें होती थीं. संवेदनाओं और मानवता के धरातल पर औरतों की कीमत लगातार घटती चली गई.
एक वक्त आया जब औरत बोझ हो गई. बोझ को निबटाने की खातिर धन खर्च किया जाने लगा. इस तरह पूरब की दुनिया में दहेज प्रथा की शुरुआत हुई. लड़की की मरजी के कोई मायने नहीं थे. शादी के नाम पर हवस की शिकार होने के साथ वह बच्चे पैदा करने की मशीन ही थी. पति के घर में बंधुआ मजदूर बन कर जीवन गुजार देने के उदाहरण पर उस की बेटियां चलतीं और उन बेटियों को आदर्श नारी का गुण सिखाना घर की बड़ीबूढ़ी औरतों की जिम्मेदारी थी.
आप कहेंगे कि जमाना बदल गया है. आजकल की शादियां वैसी नहीं होतीं. आज लड़की की रजामंदी भी पूछी जाती है. आज लड़कियों को तालीम दी जा रही है. वे नौकरियां कर रही हैं लेकिन यह पूरा सच नहीं है. समाज के बहुसंख्यक हिस्से में आज भी लड़कियों की मरजी के कोई मायने नहीं हैं. वे पढ़ रही हैं ताकि दहेज कम लगे. वे नौकरियों में भी खुद की मरजी से नहीं हैं बल्कि घर वालों ने बाकायदा इस के लिए इजाजत दी है.
कोई लड़की अपनी मरजी से अपनी पसंद के लड़के के साथ शादी नहीं कर सकती। जो ऐसा कर पाने में सक्षम होती है उसे बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं और बहुत कुछ झेलना पड़ता है. खाप पंचायतों से बच गई तो औनर किलिंग का खतरा तो होता ही है। इस से भी बच गई तो जीवनभर सामाजिक तिरस्कार का सामना तो उसे करना ही होता है.
पवित्रता की आड़ में और नैतिकता के नाम पर होने वाले कुंठाओं के इस प्रायोजित कार्यक्रम में पवित्रता और नैतिकता जैसी कोई बात तो होती ही नहीं. लड़की की मरजी के बिना उस की शादी कर देने में कैसी पवित्रता है? कन्या को दान की वस्तु समझ कर झटपट उसे निबटा देने में कौन सी नैतिकता है? कन्या अगर दान की सामग्री ही है तो दामाद को मोटा रिश्वत क्यों?
गरीब हो या मिडिल क्लास, विवाह सभी के लिए खुशी कम और मुसीबत ज्यादा है. सक्षम वर्ग या ऐलीट क्लास के लिए परंपराएं कभी बेड़ियां नहीं बनतीं. 90% आबादी जिन परंपराओं के बोझ तले दब कर कराह रही होती हैं, ऊपर की 10% आबादी उन्हीं अकीदों को ऐंजौय करती है. शादियों के मामले में भी यही होता है.
अपनी दादी की शादी की उम्र का पता कीजिये. 10-12 साल में शादी और फिर यौवन की दहलीज तक पहुंचने तक 10-12 बच्चे. 30 की आयु तक तो औरतें नानीदादी बन जाती थीं. 10-12 साल की बच्चियों के साथ विवाह के नाम पर हर घर में पवित्र बालात्कार होता था.
13 साल की उम्र में बच्चा पैदा करते समय लड़की की दर्दनाक मौत पर संवेदनाएं दर्ज करवाने की कोई परंपरा विकसित नहीं हुई थी. यह तो भाग्य का खेल था. लड़की की मय्यत दफनाने के साथ ही लड़के की दूसरी शादी की तैयारियां शुरू हो जाती थीं.
नबी और अवतारों ने शादियों के नाम पर अपनी पत्नियों के साथ जो उदाहरण पेश किए हैं क्या आप अपनी बेटियों को ऐसी शादी का हिस्सा बनने दे सकते हैं?
आज शादी जैसी प्रथा को ढोते रहने की कोई जरूरत ही नहीं है. इस के लिए जरूरी है कि हम मानवीय हो कर स्त्री और पुरुष के नैसर्गिक संबंधों पर तार्किक हो कर सोचना शुरू करें. इश्क को हवा दें. 2 जवां दिलों के बीच की मुहब्बत को स्वीकार करें.
फिलहाल लिव इन रिलेशनशिप परंपरागत शादियों का विकल्प हो सकती है. इसे खुले दिल से स्वीकार करें.
क्या विवाह व्यवस्था खत्म होने से मनुष्य जानवर हो जाएगा
कुछ लोग यह कुतर्क कर सकते हैं कि शादी के बिना तो हम जानवर जैसे हो जाएंगे.
दुनिया के तमाम विकसित देशों में शादियां कोई जन्मजन्मांतर का बंधन नहीं रह गईं। फिर भी वहां की सोसायटी हर मामले में हम से बेहतर हैं. दुनिया के 10 खुशहाल देशों की सामाजिक व्यवस्था को ही देख लीजिए, जहां ज्यादातर लोग बिन शादी के खुशीखुशी रहते हैं. बिन शादी के बच्चे भी होते हैं. वे तो जानवर नहीं हो गए?
शादियों पर होने वाले खर्च के मामले में भारत सब से आगे है और शादियों के बाद दहेज उत्पीड़न, घरेलू कलह या घरेलू हिंसा के मामले में भी हमारा देश दुनिया मे सब से आगे है.
शादी की व्यवस्था कई सामाजिक बुराइयों को जन्म देती है, साथ ही यह व्यवस्था महिला विरोधी भी होती है. औरतों का सब से ज्यादा उत्पीड़न शादियों के नाम पर ही होता है. गरीब तबके की ज्यादातर शादियों में लड़की मैच्योर नहीं होती. जब तक उसे दुनियादारी की समझ होती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. ऐसे में उस के पास रिश्ते को झेलने के अलावा कोई और दूसरा विकल्प बचता ही नहीं.
शादी खत्म तो तलाक का झंझट भी खत्म और दोनों के खत्म होते ही शादियों के नाम पर होने वाली सामाजिक हरामखोरी भी खत्म हो जाएगी.
जब तक दिल मिले साथ रहें. जब रिश्ता बोझ बन जाए तो अलग हो जाएं. इस में गलत क्या है?
हमारा समाज नर और मादा की ‘नैचुरल नीड’ को ‘जन्मजन्मांतर का रिश्ता’ बताने का ढोंग करता है और एक औरत को एक मर्द के साथ संस्कारों की मजबूत जंजीरों से बांध कर आशीर्वाद के रूप में दोनों को ताउम्र साथ रहने की जिद थमा देता है और इस गठबंधन पर ईश्वरीय मुहर लगा कर इसे ‘विवाह’ का नाम दे देता है. इस अमानवीय और अप्राकृतिक प्रायोजन में नारी की संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती. भारतीय उपमहाद्वीप में विवाह पद्धति चाहे जो हो, शादी का मतलब बस यही होता है.
ठंडे दिमाग से इस सवाल पर विचार कीजिए कि 2 जवां इंसानों को साथ रहने के लिए शादी की जरूरत ही क्यों?