27नवंबर, 1973 की त्रासदी वाली रात. इस रात मुंबई के केईएम अस्पताल में कार्यरत नर्स अरुणा शानबाग के साथ वहीं जो हादसा हुआ उस ने उन की जिंदगी को त्रासदीपूर्ण बना अस्पताल के बैड में कैद कर दिया. दरअसल, अरुणा उसी अस्पताल में अस्थायी सफाई कर्मचारी सोहनलाल भारथा वाल्मीकि की खुन्नस और यौन लालसा की शिकार बनीं और जिस समय अरुणा के साथ यह घटना घटी, तब उन की उम्र महज 25 साल 5 महीने 26 दिन थी. इस के बाद लंबे त्रासदीपूर्ण जीवन से अरुणा को जब 18 मई, 2015 की रात मुक्ति मिली. तब उन की उम्र 66 साल 11 महीने 17 दिन हो चुकी थी यानी अरुणा शानबाग ने 41 साल 5 महीने 31 दिन त्रासदी के बीच काटे.इस बीच कितना कुछ बीत गया. सोहनलाल भारथा वाल्मीकि अपनी सजा काट कर आजाद भी हो गया. जो जुर्म उस ने किया, उस के लिए उसे महज 7 साल की सजा मिली और यह सजा उसे केवल अरुणा शानबाग पर हमला करने और लूटपाट के लिए दी गई. अस्पताल के प्रबंधकों ने चूंकि बलात्कार के मामले को दबा दिया था, इसलिए सोहनलाल पर बलात्कार या अप्राकृतिक यौन हमले का केस नहीं बना. लेकिन सोहनलाल की विकृत मानसिकता का खमियाजा लगभग 42 साल अरुणा को झेलना पड़ा. इतने लंबे समय तक अरुणा को परसिस्टैंट वैजिटेटिव यानी आंशिक होश की स्थिति से गुजरना पड़ा.

भावनाहीन जीवन

अरुणा के इस त्रासदीपूर्ण जीवन पर बहुत सारे लेख लिखे गए, तो कई कहानियां, सीरियल, नाटक व किताबें भी लिखी गईं. यहां तक कि इस नारकीय जीवन से अरुणा को मुक्ति दिलाने के लिए पिंकी विरानी नामक एक पत्रकार ने पैसिव यूथनेसिया यानी इच्छामृत्यु के लिए आवेदन भी किया. लेकिन सर्वोच्च अदालत ने विशेष परिस्थिति में पैसिव यूथनेसिया को मंजूर किया. इस के तहत सर्वोच्च अदालत ने चिकित्सा बंद कर व लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटा कर अप्रत्यक्ष रूप से जीवन का अंत करने को मंजूरी दी. सर्वोच्च न्यायलय का यह फैसला ऐतिहासिक माना गया. पूरे देश भर में इस को ले कर नए सिरे से बहस शुरू हुई. एक तरफ समाज के कई तबकों द्वारा यह आशंका जताई गई कि इस का बेजा इस्तेमाल कहीं अधिक होगा, तो दूसरी तरफ लंबे समय से अरुणा की देखभाल कर रहीं केईएम अस्पताल की नर्सें पैसिव यूथनेसिया के लिए तैयार नहीं हुईं. उन का कहना यही था कि अरुणा उन्हें रिस्पौंस करती हैं. लिहाजा, अरुणा की लौ बुझी नहीं. यह और बात है कि नर्सों के इस फैसले को चिकित्सा जगत के कुछ लोगों ने मैडिकल पौलिटिक्स का नाम दिया. हालांकि यह विषय अलग से विचार करने का है कि 42 सालों तक परसिस्टैंट वैजिटेटिव स्थिति में जीवन का महज भ्रम जगाए रहने वाली, देखनेसुनने, बोलने, हिलनेडुलने में नाकाम, भावनाहीन अरुणा शानबाग इस मुद्दे पर क्या कुछ कहना चाहती थीं, कोई नहीं जान पाया. हमें नहीं पता कि अपनी पीड़ा को वे किन शब्दों में बयान करती थीं और कुछ नहीं तो उन की जिस प्रतिक्रिया का हवाला उन की सेवा करने वाली नर्सों ने दिया वे क्या वैसी थीं?

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