तीनों दोस्त बढ़चढ़ कर अपनीअपनी सास की बुराई में मशगूल थे कि रात के 9 बज गए.

‘‘मैं चला...’’ रूपम हड़बड़ा कर उठता हुआ बोला, ‘‘वरना मेरी बीवी मेरी सास की ही तो बेटी है,’’ कह कर वह बाहर निकल गया.

‘‘हमारी भी तो...’’ कह कर सौरभ, सुमित भी पीछेपीछे निकल गए.

नियत दिन तीनों की सासूमांएं पहुंच गईं.

रूपम की सास अघ्यापिका के पद से रिटायर हुईं थीं. इसलिए उन की बातचीत हमेशा उपदेशात्मक रहती थी. वे अपनी बेटी व रूपम को हमेशा नादान बच्चा ही सम झती थीं. बेटी को तो आदत थी पर रूपम जबतब  झल्ला जाता.

‘‘जब मेरे मांबाप हमें कुछ नहीं बोलते तो तुम्हारी मम्मी क्यों हमेशा उपदेश देने के मूड में रहती हैं?’’

‘‘ठीक से बोलो रूपम, वे तुम्हारी भी मां हैं... हमारे भले के लिए ही बोलतीं हैं. इस में बुरा मानने वाली कौन सी बात है?’’ रिमी धीमी आवाज में सम झाती.

‘‘तो क्या इस बात पर भी सम झाएंगी कि मु झे अपनी पत्नी के साथ कैसे बात करनी चाहिए, उसे टाइम देना चाहिए, उस के साथ घूमना चाहिए, काम में हाथ बंटाना चाहिए, अब बच्चा पैदा कर लेना चाहिए? तुम्हें है कोई शिकायत मु झ से? अपनी शिकायतें हम खुद निबटा लेंगे.’’

‘‘तुम इतनी छोटीछोटी बातों को दिल से क्यों लगाते हो? मां ही तो हैं, बोल दिया तो क्या हुआ?’’

‘‘तो फिर बारबार क्यों बोलतीं हैं? उन के पास बैठना ही मुश्किल है. तुम्हें तो तब पता चले जब मेरी मां तुम्हें हर समय उपदेश देती रहें. जरा सा भी नहीं सुन पाती हो उन का बोला हुआ... और सही कहें या गलत... तुम सुनो,’’ उस की आवाज ऊंची होने लगती.

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