बहुतसमय बाद दीदी के घर जाना हुआ. सोम का केरल तबादला हो गया था इसलिए इतनी दूर से जम्मू आना आसान नहीं था. जब दीदी के बेटे की शादी हुई थी तब बच्चों की सालाना परीक्षा चल रही थी. मैं तब नहीं आ पाई थी और फिर सोम को भी छुट्टी नहीं थी. मौसी के बिना ही उस के भानजे की शादी हो गई थी. मैं इस बार बहुत सारा चाव मन में लिए मायके, ससुराल और दीदी के घर आई. मन में नई बहू से मिलने की चाह सब से ज्यादा थी.

हम ने बड़े जोश और उत्साह से दीदी के घर में पैर रखा. सुना था बड़ी प्यारी है दीदी की बहूरानी. मांबाप की लाडली और एक ही भाई की अकेली बहन. दीदी सास बन कर कैसी लगती होंगी, यह देखने की भी मन में बड़ी चाह थी.

अकसर ऐसा होता है कि सास बन कर

एक नारी सहज नहीं रह पाती. कहींकहीं कुछ सख्त हो जाती है मानो अपनी सास के प्रति दबीघुटी कड़वाहट बहू से बदला ले कर निकालना चाहती हो.

बड़ा लाड़प्यार किया दीदी ने, सिरआंखों पर बैठाया. मगर बहू कहीं नहीं नजर आई मुझे.

‘‘अरे दीदी बहुत हो गई आवभगत… यह बताओ हमारी बहू कहां है?’’

मु?ो दीदी आंखें चुराती सी लगीं. मेरा और सोम का चेहरा देख कर भी अनदेखा करती हुई सी दीदी पुन: इधरउधर की ही बातें करने लगीं, तो सोम से न रहा गया. उन्होंने कहा, ‘‘दीदी, आप कुछ छिपा तो नहीं रहीं… कहां हैं बहू और राजू?’’

‘‘वे हमारे साथ नहीं रहते… बड़े घर की लड़की का हमारे घर में मन नहीं लगा.’’

यह सुन कर हम दोनों अवाक रह गए.

‘‘बड़े घर की लड़की है, मतलब?’’ मैं ने कहा, ‘‘रिश्ता बराबर वालों के साथ नहीं किया

था क्या?’’

दीदी चुप थीं. जीजाजी की नजरों में दीदी के लिए नाराजगी साफ नजर आने लगी थी मुझे

अफसोस हुआ सब जान कर. मध्यवर्गीय

परिवार है जीजाजी का जहां 1-1 पैसा सोचसम?ा कर खर्च किया जाता है.

जिस लड़की ने कभी पानी का गिलास उठा कर खुद नहीं पीया, दीदी उस से सुबह 4 बजे उठ कर सारा घर संभालने की उम्मीद कर रही थीं.

‘‘हम भी तो करते थे,’’ की तर्ज पर दीदी का तुनकना जीजाजी को और भड़का गया.

‘‘तुम टाटाबिरला की बेटी नहीं थीं, जिस के घर में नौकरों की फौज होती है. तुम्हारी मां भी दिन चढ़ते ही घर की चक्की में पिसना शुरू करती थीं और मेरी मां भी. नौकरानी के नाम पर दोनों घरों में एक बरतन मांजने वाली होती थी. तुम्हारा जीवनस्तर हम से मेल खाता था. पाईपाई बचा कर खर्च करना दोनों ही घरों की आदत भी थी और जरूरत भी. इसीलिए तुम ने निभा लिया.

‘‘और वह बच्ची भी तो किसी तरह निभा ही रही थी. दबी आवाज में उस ने मुझ से कहा भी था कि पापा मुझे रसोई के काम की आदत नहीं है… रसोइया और फुलटाइम नौकर रख लीजिए.’’

‘‘क्व4-5 हजार हर महीने मैं कहां से लाती?’’

‘‘तो उस घर की लड़की इस घर में क्यों लाईं जहां नौकरों के नाम पर क्व20-25 हजार हर महीने खर्च किए जाते हैं. रिश्ता और दोस्ती सदा बराबर वालों में करनी चाहिए. मैं सदा समझता रहा, मगर तब तुम्हें लालच था अमीर घर का.’’

‘‘तो लड़की न देते हमारे घर में… वही पड़ताल कर लेते हमारे

घर की.’’

‘‘उन्हें लायक समझदार लड़का मिल रहा था, जिस ने शादी के

6 महीने बाद ही उन का कारोबार संभाल लिया था. उन की पड़ताल तो सही थी. उन की इच्छा पूर्ण हो गई. वे खुश हैं. दुखी तुम हो,’’ कह दनदनाते हुए जीजाजी उठ कर घर से बाहर चले गए.

पता चला शादी के 2-3 महीने बाद ही राजू मेधा को ले कर अलग घर में चला गया था. क्या करता वह? पहले ही दिन से दीदी की बहू से इतनी अपेक्षाएं हो गई थीं. जराजरा बात पर अपमानित होना उसे नागवार गुजर रहा था.

राजू ने समझाया था मां को, ‘‘क्या बात है मां अपनी पसंद की बहू लाईं और अब वही तुम्हें पसंद नहीं… इस तरह क्यों बात करती हो उस से जैसे वह नासमझ बच्ची हो. 26-27 साल की एमबीए लड़की बहू बना कर लाई हो और उस से उम्मीद करती हो 4-5 साल बच्ची की तरह जराजरा बात तुम से पूछ कर करे… अब तुम्हारा जमाना नहीं रहा जब घर वाले जहां बैठा देते थे बेबस बहू वहीं बैठ जाती थी.’’

‘‘नहीं बेटा, बेबस वह क्यों होने लगी. बेबस तो मैं हूं, जिस ने बेटा पालपोस कर किसी को सौंप दिया.’’

‘‘मां, कैसी बेसिरपैर की बातें कर रही हो?’’

जीजाजी पलपल जलती में पानी डालने का अथक प्रयास करते रहे थे, मगर आग दिनप्रतिदिन प्रचंड होती चली गई.

‘‘तुम पीछे की ओर देख कर आगे नहीं बढ़ सकती हो दीदी. जिस काम की उम्मीद तुम बहू से करती रही हो वही तो तुम कम पढ़ीलिखी भी करती रही हो न. उस का एमबीए करना किस काम आया जरा सोचो न? बच्चे कमाते हैं. अगर क्व5 हजार का नौकर अपनी जेब से रख सकते हैं तो तुम्हें क्या एतराज है?’’

दीदी चुपचाप सुनतीं मुंह फुलाए बैठी रहीं.

‘‘राजू और बहू को फोन करो. हम उन से मिलना चाहते हैं. या तो वे यहां चले आएं या फिर हमें

अपना पता बता दें हम उन के घर चले जाते हैं,’’ सोम ने अपना निर्णय सुना दिया.

यह सुनते ही दीदी का पारा सातवें आसमान जा पहुंचा. बोलीं, ‘‘कोई नहीं जाएगा उन के घर और न ही वह लड़की यहां आएगी.’’

‘‘देखा शोभा इस का रवैया? राजू बेचारा 2 पाटों में पिस रहा है. अरे, जैसा घर, जैसी लड़की तुम ने पसंद की राजू ने हां कर दी… अब चाहती हो बच्चे साथसाथ भी न रहें… यह कैसे संभव है? जीना हराम कर दिया है तुम ने सब का… न मुझे उन से मिलने देती हो न उन्हें यहां आने देती हो.’’

जीजाजी इकलौती संतान के वियोग में पागल से होते जा रहे थे. सदा अपनी ही चलाने वाली दीदी सम?ा नहीं पा रही थीं कि वे बबूल की फसल बो कर आम नहीं खा सकतीं. पिछले 7-8 महीने से लगातार इस तनाव ने जीजाजी की सेहत पर भी बुरा असर डाला था. मेज पर दवाओं का ढेर लगा था.

‘‘मैं अपने घर की समस्या किसकिस के पास ले जाऊं? कौन समझएगा इस औरत को जब मैं ही न सम?ा सका? मेधा हर रोज फोन कर के हमारा हालचाल पूछती है. राजू ने तो अपना घर भी ले लिया है.’’

दीदी का तमतमाया चेहरा देख सोम और मैं सम?ा नहीं पा रहे थे कि क्या करें. आज के परिवेश में इतनी सहनशीलता किसी में नहीं रही जो तनाव को पी जाए.

तभी सोम ने इशारा कर के मुझे बाहर बुलाया और कुछ सम?ाया. फिर जीजाजी को भी बाहर बुला लिया.

दीदी अंदर बरतन समेट रही थीं.

10 मिनट के बाद मैं अंदर चली आई और सोम जीजाजी के साथ राजू के घर चले गए.

‘‘कहां गए दोनों?’’ विचित्र सा भाव था दीदी की आंखों में.

‘‘जीजाजी की छाती में दर्द होने लगा है… कितना परेशान हो गए हैं राजू की वजह से. सोम उन्हें डाक्टर के पास ले गए हैं,’’ मैं ने झूठ बोला.

सुन कर दीदी घबरा गईं. मगर बोली कुछ भी नहीं.

‘‘हर वक्त कलहक्लेश हो घर में तो ऐसा होता ही है. इस में नया क्या है… सहने की भी एक हद होती है. तुम तो रोपीट लेती हो, जीजाजी तो रो भी नहीं सकते फिर बीमार नहीं होंगे तो क्या होगा? अगर कुछ ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा, जानती हो? जवानी में भी आजकल लोगों में सहनशीलता नहीं रही और तुम 60 साल के आदमी से यह आस लगाए बैठी. क्या तुम्हारी जिद पर अपना बुढ़ापा खराब कर लें वे?’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘मतलब यह है कि बेकार की जिद छोड़ो और बच्चों से मिलनाजुलना शुरू करो. तुम नहीं मिलना चाहतीं तो जीजाजी को तो मत रोको. अगर दिल का रोग लग गया तो हाथ मलती रह जाओगी दीदी… अकेली रह जाओगी. तब पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा. बहू अमीर घर की है उस का रहनसहन वैसा है तो क्या यह उस का दोष हो गया? अपने जैसे घर की कोई क्यों नहीं ले आईं, जिस का जीवनस्तर तुम से मिलताजुलता होता और तुम्हारे मन में भी कोई हीनभावना न आती.

‘‘दीदी, क्या यही सच नहीं है कि तुम बड़े घर की बच्ची को पचा नहीं पाई हो. जो लड़की अपने पिता के काम में सहयोग कर के इतना कमा रही थी उस ने तुम जैसे मध्यवर्गीय परिवार में शादी को हां कर दी सिर्फ इसलिए कि इस घर की सादगी और संस्कार उसे पसंद आ गए थे. राजू उसे अच्छा लगा था और…’’

‘‘बस करो शुभा… तुम भी राजू की बोली मत बोलो,’’ दीदी बीच ही में बोल पड़ीं.

‘‘इस का मतलब मैं ने भी वही समझ है, जो राजू को समझ में आया है… मेधा एक अच्छी लड़की है… वह तो तुम्हें अपनाना चाहती है. बस, तुम्हीं उस की नहीं बनना चाहती हो.’’

दीदी कुछ बोलीं नहीं.

‘‘तुम दोनों अब बूढ़े हो रहे हो… शरीर कमजोर होगा तब बच्चों का सहारा चाहिए… बच्चे न बुलाएं तो भी समझ में आता है. तुम्हारे बच्चे सिरआंखों पर बैठाते हैं.’’

आधा घंटा चुप्पी छाई रही. सोम का फोन आया. उन्होंने कुछ और समझाया मुझे.

‘‘जीजाजी की छाती में बहुत दर्द हो रहा है क्या? राजू को बुला लिया क्या आप ने? अच्छा किया. हम भला इस शहर में किसे जानते हैं,’’ मेरा स्वर कुछ ऊंचा हो गया तो दीदी के भी कान खड़े हो गए.

‘‘राजू को बुला लिया… क्या मतलब? उसे बुलाने की क्या जरूरत थी,’’ दीदी ने पूछा.

मैं अवाक रह गई कि दीदी को जीजाजी की तबीयत की चिंता नहीं. राजू को क्यों बुला लिया बस यही प्रश्न किया. मैं हैरान थी कि एक औरत इतनी भी जिद कर सकती है. बहू से नफरत इतनी ज्यादा कि पति जाए तो जाए बेटा घर न आए. मैं ने उसी पल यह निर्णय ले लिया कि दीदी की जिद को खादपानी डाल कर एक विशालकाय पेड़ नहीं बनने देना. एक स्त्री का त्रियाहठ इतना नहीं बढ़ने देना कि घर ही तबाह हो जाए.

दीदी को जीजाजी की पीड़ा समझ में नहीं आ रही तो वही भाषा बोलनी पड़ेगी जिसे दीदी समझे. 2 घंटे बाद स्थिति बदल चुकी थी. राजू और मेधा हमारे सामने थे. आते ही उस ने मेरे और दीदी के पांव छुए.

‘‘पापा को हलका दिल का दौरा पड़ा है मम्मी… मौसाजी और डाक्टर साहब उधर हैं… चलिए, आप भी वहां.’’

दीदी को हम पर शक था तभी तो वे यह सुन कर भी इतनी परेशान नहीं हुई थीं.

‘‘हांहां, चलो दीदी राजू के घर,’’ मैं ने झट से कहा.

राजू और मेधा अंदर कमरे में चले गए और जब बाहर आए तब उन के हाथ दीदी और जीजाजी के अटैची थे.

‘‘चलिए मम्मी… पापा को पूरा आराम चाहिए और पूरी देखभाल… जो आप अकेली नहीं कर पाएंगी… चलिए उठिए न मम्मी क्या सोच रही हैं पापा को आप की जरूरत है… जल्दी उठिए.’’

राजू ने हाथ पकड़ कर उठाया और फिर हम सब बाहर खड़ी गाड़ी में आ बैठे. लगभग आधे घंटे के बाद हम राजू के घर के बाहर खड़े थे. खुशी के अतिरेक में मेरी आंखें भर आईं कि राजू इतना बड़ा हो गया है कि अपने घर के बाहर खड़ा हमारा गृहप्रवेश करा रहा है. बड़े स्नेह और सम्मान से मेधा दीदी को उन के कमरे में ले गई.

‘‘मम्मी, यह रहा आप का कमरा,’’ मेधा का चेहरा संतोष से दमक रहा था, ‘‘यह आप की अलमारी, यह बाथरूम, सामने दीवार पर टीवी… और भी आप जो चाहेंगी आ जाएगा.’’

‘‘तेरे पापा कहां हैं?’’ दीदी का स्वर कड़वा ही था.

‘‘वह उधर कमरे में लेटे हैं… डाक्टर और मौसाजी भी वहीं हैं.’’

तनिक सी चिंता उभर आई दीदी के माथे पर. फिर तुरंत वह उन के पास पहुंच गईं. वास्तव में जीजाजी लेटे हुए थे.

डाक्टर उन्हें समझ रहे थे, ‘‘तनाव से बचिए आप. खुश रहने की कोशिश कीजिए… क्या परेशानी है आप को जरा बताइए न? आप का बेटा होनहार है. बहू भी इतनी अच्छी है. आप की कोई जिम्मेदारी भी नहीं है तो फिर क्यों दिल का रोग लगाने जा रहे हैं आप?’’

जीजाजी चुप थे. दीदी की आंखें भर आई थीं. शायद अब दीदी को बीमारी का विश्वास हो गया था. सोम मुझे देख कर मंदमंद मुसकराए. मेधा सब के लिए चाय और नाश्ता ले आई. जीजाजी के लिए सूप और ब्रैड. चैन दिख रहा था अब जीजाजी के चेहरे पर… आंखें मूंदे चुपचाप लेटे थे. शुरुआत हो चुकी थी. आशा है, परिणाम भी सुखद ही होगा.

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