पापा और बूआ की बातें मैं सुन रहा था. अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब आप बिना कुछ पूछे ही अपने सवालों के जवाब पा जाते हैं. कहीं का सवाल कहीं का जवाब बन कर सामने चला आता है. नातेरिश्तेदारी की कटुता दोस्ती की कटुता से कहीं ज्यादा दुखदायी होती है क्योंकि रिश्तेदार को हम बदल नहीं सकते जबकि दोस्ती में ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती. न पसंद आए तो दोस्त को बदल दो, छोड़ दो उसे, ऐसी क्या मजबूरी कि निभाना ही पड़े?

‘‘मनुष्य हैं हम और समाज में हर तरह के प्राणी से हमारा वास्ता पड़ता है,’’ पापा बूआ को समझाते हुए बोले, ‘‘जहां रिश्ता बन जाए वहां अगर कटुता आ जाए तो वास्तव में बहुत तकलीफ होती है. न तो छोड़ा जाता है और न ही निभाया जाता है. बस, एक बीच का रास्ता बच जाता है. फीकी बेजान मुसकान लिए स्वागत करो और दिल का दरवाजा सदा के लिए बंद. अरे भई, हमारा दिल तो प्यार के लिए है न, जहां नफरत नहीं रह सकती क्योंकि हमें भी तो जीना है न. नफरत पाल कर हम कैसे जिएं. किसी इनसान का स्वभाव यदि सामने वाले को नंगा करना ही है तो हम कब तक नंगा होना सह पाएंगे?’’

बूआ के घर कोई उत्सव है और उन का देवर जबतब उन के हर काम में बाधा डाल रहा है. बचपन से बूआ उस के साथ थीं, मां बन कर बूआ ने अपने देवर को पाला है. जब बूआ की शादी हुई तब उन का देवर मात्र 5 साल का था.

मांबाप नहीं थे, इसलिए जब भी बूआ मायके आती थीं तो वह भी उंगली पकड़े साथ होता था. हम अकसर सोचते थे कि बूआ तो नई ब्याही लगती ही नहीं. शादी होते ही वह एकदम से सयानी सी लगने लगी हैं. मैं तब 7-8 साल का था जब बूआ की शादी हुई थी. अकसर मां का बूआ से वार्तालाप कानों में पड़ जाता था :

‘सजासंवरा तो कर गायत्री. तू तो नई ब्याही लगती ही नहीं.’

‘इतना बड़ा बच्चा साथ चले तो क्या नई ब्याही बन कर चलना अच्छा लगता है, भाभी. सभी राजू को मेरा बच्चा समझते हैं. क्या 5 साल के बच्चे की मां दुलहन की तरह सजती है?’

मात्र 20 साल की मेरी बूआ मंडप से उठते ही 5 साल के जिस बच्चे की मां बन चुकी थीं वही बच्चा आज बातबेबात बूआ का मन दुखा रहा है…जिस पर वह परेशान हैं. बूआ के बेटे की शादी थी. बूआ न्योता देने गई थीं जिस पर उस ने रुला दिया था.

‘‘आज याद आई मेरी.’’

‘‘कल ही तो कार्ड छप कर आए हैं. आज मैं आ भी गई.’’

‘‘कुछ सलाहमशविरा तक नहीं, मुझ से रिश्ता करने से पहले…कार्ड तक छप गए और मुझे पता तक नहीं कि बरात का इंतजाम कहां है और लड़की काम क्या करती है.’’

स्तब्ध बूआ हैरानपरेशान रह गई थीं. इस तरह के व्यवहार की नहीं न सोची थी. बूआ कुछ कार्ड साथ भी ले गई थीं देवर के मित्रों और रिश्तेदारों के लिए.

‘‘रहने दो, रहने दो, भाभी, बेइज्जती करती हो और न्योता भी देने चली आईं, न मैं आऊंगा और न ही मेरे ससुराल वाले. कोई नहीं आएगा तुम्हारे घर पर…तुम ने हमारे रिश्तेदारों की बेइज्जती की है… पहले जा कर उन से माफी मांगो.’’

‘‘बेइज्जती की है मैं ने? लेकिन कब, किस की बेइज्जती की है मैं ने?’’

‘‘भाभी, तुम ने अपने बेटे का रिश्ता करने से पहले हम से नहीं पूछा, मेरे ससुराल वालों से नहीं पूछा.’’

‘‘मेरे घर में क्या होगा उस का फैसला क्या तुम्हारे ससुराल वाले करेंगे या तुम करोगे? हम लड़की देखने गए, पसंद आई…हम ने उस के हाथ पर शगुन रख दिया. 15 दिन में ही शादी हो रही है. तुम्हारे भैया और मैं अकेले किसी तरह पूरा इंतजाम कर रहे हैं…राहुल को छुट्टी नहीं मिली. वह सिर्फ 2 दिन पहले आएगा, अब हम तुम्हारे ससुराल वालों से माफी मांगने कब जाएं? और क्यों जाएं?’’

‘‘भाभी, तुम लोग जरा भी दुनियादारी नहीं समझते. तुम ने अपने घर का मुहर्त किया, वहां भी मेरे ससुराल वालों को नहीं बुलाया.’’

‘‘वहां तो किसी को भी नहीं बुलाया था. तुम भी तो वहीं थे. सिर्फ घर के लोग थे और हम ने पूजा कर ली थी, फिर उस बात को तो आज 2 साल हो गए हैं. आज याद आया तुम्हें गिलाशिकवा करना जब मैं तुम्हें शादी का न्योता देने आई हूं.’’

पुत्र समान देवर का कूदकूद कर लड़ना बूआ समझ नहीं पा रही थीं. न जाने कबकब की नाराजगी और नाराजगी भी वह अपने ससुराल वालों को ले कर जता रहा था जिन से बूआ का कोई वास्ता न था.

समधियाना तो फूलों की खुशबू की तरह होता है जहां हमें सिर्फ इज्जत देनी है और लेनी है. फूल की सुंदरता को दूर से महसूस करना चाहिए तभी उस की सुंदरता है, हाथ लगा कर पकड़ोगे तो उस का मुरझा जाना निश्चित है और हाथ भी कुछ नहीं आता.

कुछ रिश्ते सिर्फ फूलों की खुशबू की तरह होते हैं जिन के ज्यादा पास जाना उचित नहीं होता. पुत्र या पुत्री के ससुराल वाले, जिन से हमारा मात्र तीजत्योहार या किसी कार्यविशेष में मिलना ही शोभा देता है. ज्यादा आनाजाना या दखल देना अकसर किसी न किसी समस्या या मनमुटाव को जन्म देता है क्योंकि यह रिश्ता फूल की तरह नाजुक है जिसे बस दूर से ही नमस्कार किया जाए तो बेहतर है.

देवर बातबेबात अपने ससुराल वालों को घर पर बुलाना चाहता था जिस पर अकसर बूआ चिढ़ जाया करती थीं. हर पल उन का बूआ के घर पर पसरे रहना फूफाजी को अखरता था. हर घर की एक मर्यादा होती है जिस में बाहर वाले का हर पल का दखल सहन नहीं किया जा सकता. अति हो जाने पर फूफाजी ने भाई को अलग हो जाने का संदेशा दे दिया था जिस पर काफी बावेला मचा था. जिसे पुत्र बना कर पाला था वही देवर बराबर की हिस्सेदारी मांग रहा था.

‘‘कौन सा हिस्सा? हमारे मांबाप जब मरे तब हम किराए के घर में रहते थे और तुम 2 साल तक ननिहाल में पलते रहे. अपनी शादी के बाद मैं तुम्हें अपने घर लाया और पालपोस कर बड़ा किया. अपने बेटे के मुंह का निवाला छीन कर अकसर तुम्हारे मुंह में डाला…कौन सा हिस्सा दूं मैं तुम्हें? हमारे मातापिता कौन सी दौलत छोड़ कर मरे थे जिसे तुम्हारे साथ बांटूं. मैं ने यह सबकुछ अपने हाथ से कमाया है. तुम भी कमाओ. मेरी तुम्हारे लिए अब कोई जिम्मेदारी नहीं बनती.’’

‘‘आप ने कोई एहसान नहीं किया जो पालपोस कर बड़ा कर दिया.’’

‘‘मैं ने जो किया वह एहसान नहीं था और अब जो तुम करने को कह रहे हो उस की मैं जरूरत नहीं समझता. हमें माफ करो और जाओ यहां से…हमें चैन से जीने दो.’’

फूफाजी ने जो उस दिन हाथ जोड़े, उन्हीं पर अड़े रहे. मन ही मर गया उन का. क्या करते वह अपने भाई का?

‘‘यह कल का बच्चा ऐसी बकवास कर गया. आखिर क्या कमी रखी मैं ने? न लाता ननिहाल से तो कोई मेरा क्या बिगाड़ लेता, पलता वहीं मामा के परिवार का नौकर बन कर. आज इज्जत से जीने लायक बन गया तो मेरे ही सिर पर सवार…हद होती है बेशर्मी की.’’

वह अलग घर में चला गया था लेकिन मौकेबेमौके उस ने जहर उगलना नहीं छोड़ा था. बूआ के बेटे की शादी का नेग उस ने उठा कर घर से बाहर फेंक दिया था. बीमार हो गई थीं बूआ.

‘‘क्या हो गया है इस लड़के की बुद्धि को. हमारा ही दुश्मन बना बैठा है. हम ने क्या नुकसान कर दिया है इस का. इज्जत के सिवा और क्या चाहते हैं इस से,’’ बूआ का स्वर पुन: कानों में पड़ा.

‘‘भूल जाओ न उसे,’’ पापा बोले थे, ‘‘समझ लो उस का कोई भी अस्तित्व कहीं है ही नहीं. शरीर का जो हिस्सा सड़गल जाए उसे काट कर अलग करना ही पड़ता है वरना तो सारा शरीर गलने लगता है… तुम्हारा अपना बेटा शादी कर के अपने घर में खुश है न, तुम पतिपत्नी चैन से जीते क्यों नहीं? क्यों उठतेबैठते उसी का रोना ले कर बैठे रहते हो?’’

‘‘अपना बेटा खुश है और यह कौन सा पराया था. भैया, हम ने कभी इस की खुशी पर कोई रोक नहीं लगाई. अपने बेटे पर उतना खर्च नहीं किया जितना इस पर करते रहे. इस की पढ़ाई का कर्ज हम आज तक उतार रहे हैं. अपना बेटा तो वजीफे से ही पढ़ गया. जहां इस ने कहा, वहीं इस की शादी की. अब और क्या करते. कम से कम अपने घर में चैन से जीने तो देता हमें…हमारे पीछे हाथ धो कर पड़ना उस ने अपना अधिकार बना लिया है. हम खुश हुए नहीं कि जहर उगलना शुरू. चार लोगों में तमाशा बनाना जैसे शगल है उस का…अभी राहुल के घर बच्चा होगा…’’

‘‘तब मत बुलाना न उसे. जब तुम जानती हो कि वह तुम्हारा तमाशा बनाता है तब काट कर फेंक क्यों नहीं देतीं उसे.’’

‘‘भैया, वह अपना है.’’

‘‘अपना समझ कर सब सहन करती हो उसी का तो वह फायदा उठाता है. शायद वह तुम पर वही अधिकार चाहता है, जो तब था जब तुम ब्याह कर उस घर में गई थीं. तुम ने अपनी संतान तब पैदा की थी जब तुम्हारा देवर 10 साल का था. इतने साल का उस का एकाधिकार छिन जाना उस से सहा नहीं गया. अपनी सीमा रेखा भूल गया.

‘‘ऐसी मानसिकता धीरेधीरे प्रबल होती गई. उस का अपमानित करना बढ़ता गया और तुम्हारी सहनशक्ति बढ़ती गई. मोहममता की मारी तुम उसे बालहठ समझती रहीं. दबी आवाज में मैं ने तुम से पहले भी कहा था, ‘अपने बेटे और देवर में उचित तालमेल रखो. जिस का जितना हक बनता है उसे न उस से ज्यादा दो और न ही कम.’ अब त्याग दो उसे. अपने जीवन से निकाल दो अभी.’’

स्तब्ध रह गया हूं मैं आज. मेरे पिता जो सदा निभाना सिखाते रहे, आज काट कर फेंक देना सिखाने लगे.

‘‘वो जमाना नहीं रहा अब जब हम आग का दरिया पचा जाया करते थे और समुंदर के समुंदर पी कर भी जाहिर नहीं होने देते थे. आज का इनसान इतना सहनशील नहीं रहा कि बुराई पर बुराई सहता रहे और खून के घूंट पी कर भी मुसकराता रहे.

‘‘आज हर तीसरा इनसान अवसाद में जी रहा है. आखिर क्यों? पढ़ाईलिखाई ने तहजीब में रहना सिखाया है न इसीलिए तहजीब ही निभातेनिभाते हम अवसाद का शिकार हो जाते हैं. जो लोग कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ा करते हैं वे तो अपनी भड़ास निकाल चुकते हैं न, भला वे क्यों जाएंगे अवसाद में.

‘‘संस्कारी और तहजीब वाला इनसान खुद पर ही जुल्म करे, क्या इस से यह अच्छा नहीं कि वह उस इनसान से ही किनारा कर ले. भूल जाओ उस 5 साल के बच्चे को जो कभी तुम्हारा हर पल का साथी था. अब बहुत बदल चुका है वह. समझ लो वह इस शहर में ही नहीं रहता. सोच लो अमेरिका चला गया है…दिल को खुश रखने को यह खयाल क्या बुरा है गायत्री?’’

कुछ कचोटने लगा है मुझे. मेरे आफिस में मेरा एक घनिष्ठ मित्र है जो आजकल बदलाबदला सा लगने लगा है. पिछले 10 साल से हम साथसाथ हैं. अच्छी दोस्ती थी हम में. जब से मेरा प्रोमोशन हुआ है, वह नाखुश सा है. जलन वाली तो कोई बात ही नहीं है क्योंकि उस का क्षेत्र मेरे क्षेत्र से सर्वदा अलग है. ऐसा तो है ही नहीं कि उस की कोई शह मेरी गोद में चली आई हो. कटाकटा सा भी रहता है और मौका मिलते ही चार लोगों के बीच अपमानित भी करता है. पिछले 6 महीने से मैं उस का यह व्यवहार देख रहा हूं, कोशिश भी की है कि बैठ कर पूछूं मगर पता नहीं क्यों वह अवसर भी नहीं देता. कभीकभी लगता है वह मुझ से दुश्मनी भी निकाल रहा है. अपना व्यवहार भी मैं पलपल परख रहा हूं कि कहीं मैं ही कोई भूल तो नहीं कर रहा.

हैरान हूं मैं. मैं तो आज भी वहीं खड़ा हूं जहां कल खड़ा था, ऐसा लगता है वही दूर जा कर खड़ा हो गया है और बातबेबात मेरा उपहास उड़ा रहा है. धीरेधीरे दुखी रहने लगा हूं मैं. आखिर मैं कहां भूल कर रहा हूं. काम में जी नहीं लगता. ऐसा लगता है कोई प्यारी चीज हाथ से निकली जा रही है. शायद मेरे स्नेह का निरादर कर उसे अच्छा लगता है.

‘‘अपनेआप के लिए भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी बनती है न गायत्री. अपने पति के प्रति, अपनी सेहत के प्रति… अपने लिए जीना सीखो, बच्ची.’’

पापा अकसर प्यार से बूआ को बच्ची कहते हैं. बूआ की अपने देवर के प्रति ममता तो मैं बचपन से देखता आ रहा हूं आज ऐसी नौबत चली आई कि उसी से बूआ को हाथ खींचना पड़ेगा… क्योंकि बूआ अवसाद में जा चुकी है. डिप्रेशन का मरीज जब तक डिप्रेशन की वजह से दूर न होगा, जिएगा कैसे.

‘‘कोई भी रिश्ता तभी तक निभ सकता है जब तक दोनों ही निभाने के इच्छुक हों. अमृत का भरा कलश केवल एक बूंद जहर से विषाक्त हो जाता है. हमारा मन तो मानवीय मन है जिस पर इन बूंदों का निरंतर गिरना हमें मार न दे तो क्या करे.

‘‘अपना निरादर कराना भी तो प्रकृति का अपमान है न. सहना भी तभी तक उचित है जब तक आप सह पाएं. सहने की अति यदि आप को या हमें मारने लग जाए तो क्यों न हाथ खींच लिया जाए, क्योंकि रिश्तों के साथसाथ अपने प्रति भी हमारी कोई जिम्मेदारी है न. क्यों कोई आप के प्यार और अपनत्व का तिरस्कार करता रहे, क्यों आप के वात्सल्य और स्नेह को कोई अपनी जागीर ही समझ कर जब चाहे पैर के नीचे रौंद दे और जब चाहे जरा सा पुचकार दे.

‘‘अब छोटा बच्चा नहीं है वह कि तुम हाथ खींच लोगी तो मर जाएगा. 2 बच्चों का बाप है. अपने आलीशान घर में रहता है. तुम्हारे घर से कहीं बड़ा घर है उस का. क्या कभी बुलाता है वह तुम्हें? क्या तुम से कभी पूछता है वह कि तुम जिंदा हो या मर गईं?

‘‘उसे उतना ही महत्त्व दो जिस के वह लायक है. संकरे बर्तन में ज्यादा वस्तु डाली जाए तो वह छलक कर बाहर निकलती है. यह इनसानी फितरत है बच्ची, पास पड़ी शह की मनुष्य कद्र नहीं करता. जो मिल जाए वह मिट्टी और जो खो जाए वह सोना, तो सोना बनो न पगली…मिट्टी क्यों बनती हो?’’

चुप हो गए पापा. शायद बूआ पर नींद की गोली का असर हो चुका है. गहरी पीड़ा में हैं बूआ. क्षमता से ज्यादा जो सह चुकी हैं.

फूफाजी और पापा बाहर चले आए. हमारा पूरा परिवार बूआ की वजह से दुखी है. निर्णय हुआ कि कुछ दिन दोनों राहुल के पास बंगलौर चले जाएंगे इस माहौल से दूर. शायद जगह बदल कर बूआ को अच्छा लगे.

हफ्ता भर बीत चुका है. अब मैं अपने नाराज चल रहे मित्र की तरफ देखता ही नहीं हूं. जरूरी बात भी नहीं करता. पास से निकल जाता हूं जैसे उसे देखा ही नहीं. पहले उस के लिए रोज जूस मंगवाता था, अब सिर्फ अपने ही लिए मंगवाता हूं. नतीजा क्या होगा मैं नहीं जानता मगर मैं चैन से हूं. कुंठा तंग नहीं करती, ऐसा लगता है अपनेआप पर दया कर रहा हूं. क्या करूं मेरे लिए भी तो मेरी कोई जिम्मेदारी बनती है न. पापा सच ही तो कह रहे थे, किसी के लिए मिट्टी भी क्यों बना जाए. सहज उपलब्ध हो कर क्यों अपना मान घटाया जाए. आखिर हमारे आत्मसम्मान के प्रति भी हमारी कोई जिम्मेदारी बनती है कि नहीं.

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