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शिखा के पास क्या नहीं था. जितना उस ने सोचा भी नहीं था. उस से कहीं अधिक उसे मिला था. लंबाचौड़ा फ्लैट, जिस के छज्जे से समुद्र की लहरें अठखेलियां करती दिखाई पड़ती थीं. उस पर रखे सीमेंट के गमलों में उस ने खूब सारी लताएं लगाई थीं, जो सदाबहार फूलों से लदी रहती थीं. इन सब का सुख लेने के लिए उस ने छज्जे पर सफेद बेंत की कुरसियां डलवा रखी थीं. अकसर वह और उस का पति चांदनी रातों में वहां बैठ कर समुद्र की लहरों को मचलते देखा करते थे. ऐसे में किलकारी मारती उन की बच्ची रूपा उन्हें बारबार धरती पर खींच लाया करती थी.

शिखा का ड्राइंगरूम भी कम खूबसूरत नहीं था. ड्राइंगरूम में लगे बड़ेबड़े शीशे के दरवाजे छज्जे पर ही खुलते थे. उन में से भी समुद्र साफ दिखाई देता था. दीवारों पर लगी बड़ीबड़ी मधुबनी कलाकृतियां आने वाले अतिथियों का मन मोह लेती थीं. बढि़या रैक्सीन का सफेद सोफा तो जैसे ड्राइंगरूम की शान था. उस पर वह इधरउधर गुलदस्ते सजा देती थी. नीली लेस लगे सफेद परदों से पूरा ड्राइंगरूम बहुत भव्य लगता था.

इसी तरह शिखा ने अपना शयनकक्ष भी सजाया हुआ था. पूरा हलका गुलाबी. उस की हर चीज में गुलाबी रंग का स्पर्श था. उस से लगा स्नानघर समूचा संगमरमर से बना था. फ्लैट बनवाते समय उस ने स्नानघर और रसोई पर ज्यादा ध्यान दिया था. उस का खयाल है कि यही दोनों चीजें किसी फ्लैट की जान होती हैं. अगर ये दोनों चीजें अच्छी न हों तो सबकुछ बेकार. इसीलिए उस ने अपने बाथरूम का टब सफेद संगमरमर का बनवाया था. उस के एक तरफ हलके रंगों के प्लास्टिक के परदे थे. जब शिखा उस में नहाती थी तो अपने को रानीमहारानी से कम नहीं समझती थी.

अब तो कहते हुए भी शर्म आती है, पर शुरू में उस ने सोचा था कि उस के 4-5 बच्चे होंगे. इसीलिए उस के उस फ्लैट में 5 कमरे थे. पर वह केवल एक ही बच्ची की मां बन कर रह गई. एक बच्ची के साथ यह फ्लैट उस को बहुत बड़ा लगता था. इसलिए उस ने केवल 3 कमरे अपने लिए सजाए थे, शेष 2 को आने वाले मेहमानों के लिए खाली रख छोड़ा था.

जब से शिखा के पति ने ‘शिपिंग’ कंपनी खोली थी तब से तो वह और भी अकेली हो गईर् थी. उस के पति को अकसर बाहर जाना पड़ता था. कुछ कपड़ों तथा जरूरत के सारे छोटेमोटे सामान के साथ उस के पति की अटैची सदा तैयार रहती. उस की बेटी रूपा कुछ साल बाद बड़ी हो गई थी. कालेज में पढ़ने लगी थी. मां के लिए उस के पास ज्यादा टाइम नहीं था. 4 चौकरों के बीच खिलौनों की तरह चक्कर काटती रहती थी. शिखा क्या करे. करने को कुछ काम ही नहीं था.

कभी कुछ भी करने को न होता तो वह नौकरों से पूरा फ्लैट धुलवा डालती. वह सफाई की शुरू से ही शौकीन थी. इस सफाई में उस का आधा दिन निकल जाता था. कभीकभी वह ड्राइंगरूम के शीशे स्वयं साफ करने लगती थी. उस के नौकर जो पुराने हो चुके थे, उसे काम करने से रोकते रहते थे. पर मन लगाने के लिए उसे कुछ काम तो करना चाहिए ही था. वह उपन्यास पढ़पढ़ कर ऊब गई थी क्योंकि उस के पति का स्टेटस देखते हुए उसे इस आयु में कोई जौब नहीं देगा. वैसे भी वह नौकरी करने की बात सोच भी नहीं सकती थी. पैसों कीकोई कमी नहीं थी.

जब मन बिलकुल न लगता तो दोनों मांबेटी कार ले कर खरीदारी के लिए निकल जाती थीं. थोड़े दिन उसी खरीदारी को व्यवस्थित करने में निकल जाते थे. कुछ दिन तो रूपा की पोशाक के लिए नई डिजाइन सोचने तथा कुछ अलट्रेशन कराने की बताने में ही निकल जाते थे. शिखा को बहुत अच्छा लगता जब उस की डिजाइन पर सिला कपड़ा रूपा पर खूब फबता.

पूरी रौनक तो उन दिनों आती थी, जब उस का पति अरुण दौरे से लौट कर घर आता. नौकरों में भी चहलपहल बढ़ जाती थी. 2 नौकर तो रसोई में जुटे रहते थे. अरुण को जोजो चीजें पसंद होतीं वे सब बनतीं. ऐसे में खाने की मेज पर डोंगों और प्लेटों की एक बाढ़ सी आ जाती. तब शिखा सजीसंवरी घूमती रहती थी.

मगर रूपा तब भी अपने में मस्त रहती. उसे अपनी सहेलियों और मित्रों के साथ इतना अच्छा लगता था कि वह घर को भूल ही जाती थी. उसे पता था, पिताजी जैसे आए हैं, वैसे ही चले जाएंगे. शाम को तो उन से मिलना ही है. बस और क्या चाहिए. फिर बड़ों के साथ बैठ कर उसे क्या मिलेगा. केवल प्यार भरी कोई नसीहत कि ऐसा करो, वैसा न करो, लड़कियों को खाना बनाना आना ही चाहिए, लड़कियों का बाहर बहुत नहीं रहना चाहिए आदिआदि.

जब से रूपा कालेज में पढ़ने लगी थी उसे यह सुनना बहुत बुरा लगने लगा था. शिखा जब उस मोबाइल पर फोन कर के कहती कि रूपा घर आने में देर न किया करो तो रूपा झंझाला उठती और कहती कि बताइए, घर आ कर मैं क्या करूं. यहां तो मेरा मन ही नहीं लगता. इसलिए थोड़ा शीला के घर चली जाती हूं.

जब शिखा उस से कहती कि बेटी, लड़कियों का ज्यादा देर बाहर रहना ठीक नहीं है तो रूपा कहती कि मां, पिताजी तो कभी ऐसा नहीं कहते. तुम हो कि सदा मुझे रोकती ही रहती हो. मां, अब दुनिया पहले से बहुत बदल गई है. लड़केलड़कियों में कोई अंतर नहीं होता आदि  कहती हुई दनादन सीढि़यां उतर जाती.

शिखा यह सब सुन कर भी चुप रह जाती थी. वह सोचने लगती कि क्या सचमुच जमाना बदल गया है. अपने जमाने में उसे अपनी मां और दादी से कितना डर लगता था. उसे स्कूल भी घर का नौकर छोड़ने जाता था. छुट्टी होते ही नौकर स्कूल के दरवाजे पर खड़ा मिलता था. एक दिन स्कूल से सीधे वह सहेली के घर चली गई थी. घर आते ही देखा पिता छड़ी ले कर दरवाजे पर चक्कर लगा रहे थे. मां अंदर अलग परेशान हो रह थी. वह डर के मारे सहम गई थी. बस इतना ही कह पाई थी, ‘‘मां, उस सहेली की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए चली गई थी.’’

मगर आगे के लिए रास्ता बंद हो गया था. पिता बोले थे, ‘‘यदि तुम्हें जाना ही था तो पूछ कर जाती. अब आगे से कभी कहीं नहीं जाना.’’

दादी तो सीधे गालियां ही देने लगी थीं, ‘‘आजकल की लड़कियों को लोकलाज तो है नहीं. जहां चाहे घूमती फिरती हैं.’’

चाहे जो भी हो, वह जमाना था बड़ा अच्छा. लड़कियों में एक सलीका था, लिहाज था. छोटे बड़ों की इज्जत करते थे. पर अब तो हर बात का जवाब उन के पास मौजूद है. वह कैसे सम?ाए रूपा को. उसे लगता है जवानी के तूफान में रूपा बहकती जा रही है. वह कैसे रोके उसे.

एक दिन शिखा ने अरुण से भी कहा, ‘‘अरुण, रूपा को समझओ. तुम तो

बाहर रहते हो, वह दिनभर घर से बाहर रहती है. मेरी एक नहीं सुनती. तुम ने उसे प्यार में सिर पर चढ़ा रखा है. कालेज से भी देर से आने लगी हैं.’’

उत्तर में अरुण ने कहा, ‘‘शिखा, सच कहता हूं तुम अपने दकियानूसी विचारों को छोड़ नहीं पाईं. जमाना देखो, लड़कियां दुनिया नहीं देखेंगी तो सीखेंगी कैसे. फिर तुम किस की पत्नी हो,’’ उस के पति सिर ऊंचा कर के थोड़ा सीना तान कर कहते, ‘‘शिपिंग कंपनी के मालिक की, जिस के 3-3 कारखाने भी हैं. तुम्हें किसी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए,’’ अरुण शिखा के कंधे पकड़ मुसकरा दिया.

अरुण उन की बातों से थोड़ा मुसकराने लगती. फिर सोचती, ये सुख के क्षण बेकार की बातों में चले जाएंगे. अरुण 4 दिन के लिए आए हैं, उन को सुख ही सुख देना चाहिए. यह सोच कर वह उन का हाथ पकड़ कर कहने लगती, ‘‘तुम आ जाते हो तो मुझ में नई ताकत आ जाती है. मन कहता है कि तुम से सबकुछ कह डालूं. मेरी आदत तो तुम समझाते ही हो, अकेले में घबरा जाती हूं,’’ कहते हुए वह चुपचाप अपना सिर अरुण के सीने पर रख देती और सुख का एहसास करने लगती.

अरुण भी धीरेधीरे उस के बाल सहलाने लगता और कहता, ‘‘तुम खुश रहती हो तो मुझे भी अच्छा लगता है.’’

मगर शिखा सोचती रहती, कभी आदमी अपना मन खोल कर नहीं रख सकता. रूपा के प्रति हो सकता है वह गलत हो, पर उस की आदतों में जो खुलापन आ रहा है, उसे वह कैसे रोके. अगर उस ने अरुण से कह भी दिया तो उस का क्या अर्थ निकलेगा. इस बात को सोच कर वह सबकुछ भूल कर अरुण के स्पर्श के सुख में खो जाती.

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