व्यवस्थाएं खंभे पर ही टिकी होती हैं जिन में एक खंभान्याय- पालिका का भी होता है जिसे नोचने की इजाजत किसी भी खिसियानी बिल्ली को नहीं होती. वैसे तो हर खंभा अपनेआप को दूसरे खंभों से ऊपर दिखा कर इमारत को बेडौल करने में लगा रहता है पर न्यायपालिका की बात ही कुछ और है.

सभ्यता का तकाजा होता है कि झूठ या झूठ जैसा बोला जाए तो हम खंभे को स्तंभ कहने लगें. देवभाषा के प्रयोग से संवाद की गरिमा बढ़ जाती है, जैसे नेकर वाले सुसंस्कृति गिरधर कविराय और कबीर की लाठी को दंड कहते हैं, झंडे को ध्वज कहते हैं और वरदी को गणवेश कहते हैं.

लोकतंत्र का जो उपरोक्त स्तंभ है वह 1969 के पहले पुरानी रियासतों में खुद जाया करता था. भूतपूर्व राजामहाराजाओं को विशेष अधिकार प्राप्त थे जिन में यह भी एक था कि पूर्व राजामहाराजाओं पर चले प्रकरणों की सुनवाई के लिए अदालतें उन के दरबार में खुद जाया करेंगी. कम्युनिस्टों से समर्थन लेने के चक्कर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह अधिकार खत्म करना पड़ा.

बहरहाल, यह स्तंभ साहित्यकारों को तो हमेशा ही अपने यहां बुलवा कर उन पर मुकदमे चलाता रहा है. ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार एक बार मिर्जा गालिब को जब बुलाया गया और अंगरेज मजिस्ट्रेट ने उन का नाम पढ़ते हुए कहा था कि असद उल्ला खां, कौम मुसलमान, तब गालिब ने उन्हें टोकते हुए कहा था कि आधा मुसलमान...

‘आधा कैसा?’ मजिस्ट्रेट ने आश्चर्य से पूछा.

‘आधा इसलिए क्योंकि शराब पी लेता हूं, सूअर नहीं खाता,’ वे बोले थे.

गालिब समेत बहुत सारे साहित्यिक लोगों पर मुकदमे चले हैं पर वे उन के समय में ही चले हैं. लेकिन इधर हिंदूवादी संगठनों के फैलाव के बाद तो मरने के बाद भी मुकदमा चल सकता है. कल मैं ने सपने में देखा कि रामानुजन के लेख को पाठ्यक्रम से हटाने पर मची हायतोबा के चक्कर में एक अदालत द्वारा गोस्वामी तुलसीदास को बुला लिया गया. अदालत ने पूछा, ‘तुम्हारा नाम?’

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