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सोचा था जब मैं परिपक्व हो जाऊंगा, तब अपने अंदर चले आ रहे इस द्वंद्व का समाधान भी खोज लूंगा. मुझे हमेशा से एक धुंध, एक धुएं में जीने की आदत सी पड़ गई है. कुछ भी साफ नहीं, न अंदर न बाहर. अकसर सोचता रह जाता हूं कि जो कुछ मैं महसूस करता हूं, वह क्यों. दूसरों की भांति क्यों नहीं मैं. सब अपनी दुनिया में खोए... मग्न... और शायद खुश भी. लेकिन एक मैं हूं जो बाहर से भले ही मुसकराता रहूं पर अंदर से पता नहीं क्यों एक उदासी घेरे रहती है. अब जबकि मेरी उम्र 35 वर्ष के पार हो चली है, तो मुझे अपनी पसंद, नापसंद, प्रेरणाएं, मायूसियों का ज्ञान हो गया है. लेकिन क्या खुद को समझ पाया हूं मैं!

आज औफिस की इस पार्टी में आ कर थोड़ा हलका महसूस कर रहा हूं. अपने आसपास मस्ती में नाचते लोग, खातेगपियाते, कि तभी मेरी नज़र उस पर पड़ी. औफिस में नया आया है. दूसरे डिपार्टमैंट में है. राघव नाम है. राघव को देखते ही भीतर कुछ हुआ. जैसे कुछ सरक गया हो. कहना गलत न होगा कि उस की दृष्टि ने मेरी नज़रों का पीछा किया. कभी जैंट्स टौयलेट में तो कभी बोर्डरूम में, कभी कैफ़ेटेरिया में तो कभी लिफ्ट में - मैं ने हर जगह उस की दृष्टि को अपने इर्दगिर्द अनुभव किया. यह सिलसिला पिछले कुछ दिनों से यों ही चला आ रहा था.

वैसे मुझे यह शक होता भी क्योंकि मैं औरतों में रुचि नहीं रखता जबकि 12वीं में ही मैं ने गर्लफ्रैंड बना ली थी. कालेज में भी एकदो अफेयर हुए. पर मेरा दिल अकसर लड़कों की ओर देख धड़कता रहता. होस्टल में मेरा एक बौयफ्रैंड भी था, सब से छिप कर. तब मुझे लगता था कि मैं इस से प्यार तो करता हूं पर यह बात मैं किसी से कह नहीं सकता. उस जमाने में यह जग उपहास का कारण तो था ही, गैरकानूनी भी था. और फिर हमारा धर्म, और उस के स्वघोषित रक्षक जो इस समाज की मर्यादा बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, यहां तक कि हिंसा पर भी उतर सकते हैं, उन से अपनी रक्षा कर पाना मेरे लिए संभव न था. चुप रहने में ही भलाई थी. फिर मेरा दिमाग कहता कि यह मेरे दिल की भटकन है. मैं केवल नए पार्टनर टटोल रहा हूं. कभी लड़की की तरफ आकर्षित होता हूं तो कभी किसी लड़के की तरफ आसक्ति हो जाती.

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