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दूसरे दिन शाम को जब रवि आए तो मैं ने उन से पड़ोसियों के व्यंग्य और आक्षेपों की बात कही. रवि बोले, ‘‘तुम क्यों दूसरों की बातों में अपना दिमाग खराब करती हो? तुम शहर से बाहर घूमने भी तो नहीं जातीं. अच्छा हो कि

तुम कुछ दिनों की छुट्टी ले कर मां के पास चली जाओ या उन्हें यहां बुला लो. तुम्हें अच्छा लगेगा. क्यों अपनेआप को सब से काटती जा रही हो?’’

‘‘रवि, मैं तुम्हारे बिना कहीं जाने की कल्पना भी नहीं कर सकती. 2 दिन का विछोह भी मेरे लिए कठिन है. और मां को कैसे बुला लूं? मां इस बात को कभी नहीं स्वीकार करेंगी कि उन की बेटी एक...’’

‘‘फिर तुम बताओ प्रिया, मैं अपना घरबार, बीवीबच्चे छोड़ कर तो तुम्हारे पास रह नहीं सकता, यह सब तुम्हें पहले सोचना था.’’

रवि के कथन और इस प्रकार की प्रतिक्रिया से मैं अवाक रह गई. मेरे विश्वास को ठेस लगी.

‘‘खैर छोड़ो, चलो कहीं लौंग ड्राइव पर चलते हैं,’’ रवि बोले.

मैं आहत सी बोली, ‘‘नहीं रवि, आज मन नहीं है.’’

थोड़ी देर में रवि चले गए तो मैं सोचने लगी कि यह क्या कर डाला मैं ने? रवि ठीक ही तो कहते हैं. वे मेरे लिए अपना घरबार तो नहीं छोड़ सकते. दोष मेरा है. यह जानने के बाद कि रवि शादीशुदा हैं मु  झे पीछे हट जाना चाहिए था. पर मैं दिल के हाथों मजबूर हो गई. रवि की चाहत में बुराभला सब कुछ भूल गई.

मेरा औफिस से लौटने के बाद पहला काम होता था लेटर बौक्स खोल कर उस दिन की डाक देखना. एक दिन देखा तो एक निमंत्रणपत्र था विवाह का, वह भी रवि के घर से. रवि के बेटे के विवाह का. मु  झे आश्चर्य हुआ. रवि ने पहले तो नहीं बताया.

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