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‘‘तोकान खोल कर सुन लो, आज से इस घर में या तो तुम रहोगी या मैं,’’ अपना आखिरी फैसला सुनाते हुए ये कमरे से बाहर निकलने लगे.

मैं भी गुस्से में तमतमाई तो थी ही सो अपना भी फैसला इन के कानों में डाल दिया, ‘‘अब आप ही इस घर में रहिए और अपने बच्चों को भी संभालिए. घर आप का है, आप को ही यहां रहने का अधिकार है, मैं ही...’’ इस के आगे चुप रह जाना पड़ा क्योंकि यह दरवाजे से बाहर जा चुके थे.

इन के जाते ही बड़ी कठिनाई से जबरदस्ती रोके हुए मेरे आंसू टपटप गिरने शुरू हो गए. पिछले दिनों तीनों बच्चे 1-1 कर बीमार पड़ गए थे. कई रातें जाग कर बितानी पड़ी थीं. घर में मेहमानों का तांता अलग से लगा हुआ था, काम करने वाली भी कई दिनों से नहीं आ रही थी,

उस पर गैस लाइन में कई दिनों से ब्रेक हो रहा था. सिलैंडर भी कई दिनों से खत्म था. वैसे मैं हर संकट को किसी न किसी तरह   झेल लेती हूं किंतु बच्चों की बीमारी मु  झे तोड़ देती है. इसी वजह से कई दिनों से मेरा मन बड़ा अनमना सा रहा.

आज कई दिनों के बाद 3 बच्चों को एकसाथ स्कूल भेज कर मु  झे काफी राहत सी महसूस हो रही थी. रात को अपनाअपना स्कूल बैग ठीक करते हुए बच्चों ने कहा, ‘‘मां, कई दिनों से आप ने इडली और डोसा नहीं बनाया है. आज दालचावल जरूर भिगो दीजिएगा.’’

बच्चों का मन रखने के लिए मैं ने सोने से पहले दालचावल भिगो दिए थे. बच्चों के स्कूली जाने के पश्चात सुबह के जरूरी काम निबटा कर मैं ने सोचा कि गरमियों के दिन हैं, चलो पहले दालचावल पीस लूं, फिर नहाऊंगी.

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