उस दिन मैं टेलीविजन के सामने बैठी अपनी 14 साल की बेटी के फ्राक में बटन लगा रही थी. पति एक हाथ में चाय का गिलास लिए अपना मनपसंद धारावाहिक देखने में व्यस्त थे. तभी दरवाजे पर घंटी बजी और मैं उठ कर बाहर आ गई.

दरवाजा खोला तो सामने मकानमालिक वर्माजी खड़े थे. मैं ने बड़े आदर से उन्हें भीतर बुलाया और अपने पति को आवाज दे कर ड्राइंगरूम में बुला लिया और बड़े विनम्र स्वर में बोली, ‘‘अच्छा, क्या लेंगे आप. चाय या ठंडा?’’

‘‘नहीं, इन सब की तकलीफ मत कीजिए. बस, आप बैठिए, एक जरूरी बात करनी है,’’ वर्माजी बेरुखी से बोले.

मैं अपने पति के साथ जा कर बैठ गई. थोड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी सुबहसुबह कैसे आना हुआ. फिर अपने विचारों को विराम दे कर चेहरे पर बनावटी मुसकान ला कर उन्हें देखने लगी.

‘‘मुझे इस मकान की जरूरत है. आप कहीं और मकान ढूंढ़ लीजिए,’’ उन्होंने एकदम सपाट स्वर में कहा.

‘‘क्या?’’ मेरे पति के मुंह से निकला, ‘‘पर मैं ने तो 11 महीने की लीज पर आप से मकान लिया है. आप इस तरह बीच में छोड़ने के लिए कैसे कह सकते हैं.’’

‘‘सर, मेरी मजबूरी है इसलिए कह रहा हूं. और फिर यह मेरा हक है कि मैं जब चाहे आप से मकान खाली करवा सकता हूं.’’

दोनों के बीच विवाद को बढ़ता देख कर मैं ने बेहद विनम्र स्वर में कहा, ‘‘पर ऐसा क्या कारण है भाई साहब जो आप को अचानक इस मकान की जरूरत पड़ गई. हम ने तो हमेशा समय पर किराया दिया है. फिर आप का तो और भी एक मकान है. आप उसे क्यों नहीं खाली करवा लेते.’’

‘‘कारण आप भी जानती हैं. मुझे पहले से पता होता तो आप को कभी भी यह मकान न देता. मेरा 1 महीने का कमीशन और सफेदी कराने में जो पैसा खर्च हुआ, सो अलग.’’

‘‘पर ऐसा क्या किया है हम ने?’’ मैं चौंक गई.

‘‘कारण आप की बेटी है और उस की बीमारी है. पिछले मकान से भी आप को इसलिए निकाला गया क्योंकि आप की बेटी को एड्स है और ऐसी घातक बीमारी के मरीज को मैं अपने घर में नहीं रख सकता. फिर कालोनी के कई लोगों को भी एतराज है.’’

‘‘भाई साहब, यह बीमारी कोई संक्रामक रोग तो है नहीं और न ही छुआछूत से फैलती है. यह तो हर जगह साबित हो चुका है और फिर हम दोनों में से यह किसी को भी नहीं है.’’

‘‘यह सब न मैं सुनना चाहता हूं और  न ही पासपड़ोस के लोग. अधिक पैसा कमाने की होड़ में आप लोग जरा भी नहीं समझते कि बच्चे किस तरफ जा रहे हैं. किन से मिलते हैं. बाहर क्याक्या गुल खिलाते हैं.’’

‘‘वर्माजी,’’ मेरे पति चीख पड़े, ‘‘आप के मुंह में जो आए कहते चले जा रहे हैं. आप को मकान खाली चाहिए मिल जाएगा पर इस तरह के अपशब्द और लांछन मुंह से मत निकालिए.’’

‘‘10 दिन बाद मकान की चाबियां लेने आऊंगा,’’ कह कर वर्माजी उठ कर चले गए.

उन के जाते ही मैं निढाल हो कर सोफे पर पसर गई. तभी भीतर से चारू आई और मुझ से आ कर लता की तरह लिपट कर रोने लगी. मेरे पति मेरे पास आ कर बैठ गए. कुछ कहतेकहते उन की  आवाज टूट गई, चेहरा पीला पड़ गया मानो वही दोषी हों.

अतीत चलचित्र सा मानसपटल पर तैरने लगा और एक के बाद एक कितनी ही घटनाएं उभरती चली गईं, जिन्हें मैं हमेशा के लिए भूल जाना चाहती थी.

मैं उस दिन किटी पार्टी से लौटी ही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. फोन चारू के स्कूल से उस की क्लास टीचर का था. मेरे फोन उठाते ही वह हांफती हुई बोलीं, ‘आप चारू की मम्मी बोल रही हैं.’

मेरे ‘हां’ कहने पर वह बिना रुके बोलती चली गईं, ‘कहां थीं आप अब तक. मैं तो काफी समय से आप को फोन मिला रही हूं. आप के पति भी अपने आफिस में नहीं हैं.’

‘क्यों, क्या हुआ?’ मैं थोड़ा घबरा गई.

‘चारू सीढि़यों से फिसल कर नीचे गिर गई थी. काफी खून बह गया है. हम ने फौरन उसे फर्स्ट एड दे दी है. अब वह ठीक है. आप उसे यहां से ले जाइए,’ वह एक ही सांस में बोल गईं.

मैं ने बिना देर किए आटो किया और चारू के स्कूल पहुंच गई. वह मेडिकल रूम में लेटी थी और मुझे देख कर थोड़ा सुबकने लगी. मैं ने झट से उसे सीने से लगाया. तब तक वहां पर बैठी एक टीचर ने बताया कि आज हमारी नर्स छुट्टी पर थी. इसलिए पास के क्लीनिक से उस को मरहमपट्टी करवा दी है तथा एक पेनकिलर इंजेक्शन भी दिया है. मैं उसे थोड़ा सहारा दे कर घर ले आई. 1-2 दिन में चारू पूरी तरह ठीक हो गई और स्कूल जाने लगी.

इस बात को कई महीने हो गए. एक दिन सुबहसुबह मेरे पति ने बताया कि प्रगति मैदान में पुस्तक मेला चल रहा है. मैं भी जाने को तैयार हो गई पर चारू थोड़ा मुंह बनाने लगी.

‘ममा, वहां बहुत चलना पड़ता है. मैं घर पर ही ठीक हूं.’

‘क्यों बेटा, वहां तो तुम्हारी रुचि की कई पुस्तकें होंगी. तुम्हें तो किताबों से काफी लगाव है. खुद चल कर

अपनी पसंद की पुस्तकें ले लो,’ मेरे पति बोले.

‘नहीं पापा, मेरा मन नहीं है,’ कह कर वह बैठ गई, ‘अच्छा, आप मेरे लिए कामिक्स ले आना और इंगलिश हैंडराइटिंग की कापी भी. टीचर कहती हैं मेरी हैंडराइटिंग आजकल इतनी साफ नहीं है.’

‘क्यों तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ मैं ने उस को अलग कमरे में ले जा कर पूछा. मुझे लगा कहीं उस के पीरियड्स न होने वाले हों, शायद इसीलिए वह थोड़ा जाने के लिए आनाकानी कर रही हो.

पति ने थोड़ा जोर से कहा, ‘नहीं बेटा, तुम को साथ ही चलना पड़ेगा. मैं ऐसे तुम को घर पर अकेला नहीं छोड़ सकता.’

वह अनमने मन से तैयार हो गई. पर मैं ने महसूस किया कि वह मेले में जल्दी ही बैठने की जिद करने लगती. फिर उसे एक तरफ बिठा कर हम लोग घूमने चले गए.

घर आतेआते वह फिर से एकदम निढाल हो गई. अगले दिन स्कूल की छुट्टी थी. मैं उसे ले कर डाक्टर के पास गई. उस ने थोड़े से टेस्ट लिख दिए जो 1-2 दिन में कराने थे. 2 दिन बाद फिर से ब्लड टेस्ट के लिए खून लिया चारू का.

अगले दिन सुबहसुबह डाक्टर का फोन आ गया और मुझे फौरन अस्पताल में बुलाया. पति तब आफिस जाने वाले थे. उन की कोई जरूरी मीटिंग थी. मैं ने कहा कि 12 बजे के बाद मैं आ कर मिल लेती हूं. पर वह बड़े सख्त लहजे में बोलीं कि आप दोनों ही फौरन अभी मिलिए. मैं थोड़़ा बिफर सी गई कि ऐसा भी क्या है कि अभी मिलना पड़ेगा पर वह नहीं मानीं.

हमारे पहुंचते ही डाक्टर बोलीं, ‘मुझे आप दोनों का ब्लड टेस्ट करना पड़ेगा.’

‘हम दोनों का?’ मैं एकदम मुंह बना कर बोली.

‘मैं ने आप की बेटी का 2 बार ब्लड टेस्ट किया है. मुझे बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि उसे एड्स है.’

‘क्या?’ हम दोनों ही चौंक गए. मेरी सांसें तेज होती गईं और छाती जोरजोर से धड़कने लगी. मैं ने अविश्वास से डाक्टर की तरफ देख कर कहा, ‘आप ने सब टेस्ट ठीक से तो देखे हैं, ऐसा कैसे हो सकता है?’

‘ऐसा ही है. अब देखना यह है कि यह बीमारी कहीं आप दोनों में तो नहीं है.’

मेरे तो प्राण ही सूख गए. मुझे स्वयं पर भरोसा था और अपने पति पर भी. फिर भी एक बार के लिए मेरा विश्वास डोल गया. यह सब कैसे हो गया था. हमारा ब्लड ले लिया गया. लगा जैसे सबकुछ खत्म हो गया है. मेरे पति उस दिन आफिस नहीं गए और न ही मेरा मन किसी काम में लगा.

दूसरे दिन हम दोनों की रिपोर्ट आ गई और रिपोर्ट निगेटिव थी. मैं ने डाक्टर को चारू के बारे में सबकुछ बताया और आश्वासन दिलाया कि उस के साथ कहीं कोई दुर्व्यवहार नहीं हुआ.

बातोंबातों में डाक्टर ने एकएक कर के बहुत सारे प्रश्न पूछे. तभी अचानक मुझे याद आया कि जब वह स्कूल में सीढि़यों से नीचे गिरी थी तो बाहर से एक इंजेक्शन लगवाया था. डाक्टर की आंखें फैल गईं.

‘आप के पास उस के ट्रीटमेंट और इंजेक्शन की परची है?’

‘ऐसा तो मुझे स्कूल वालों ने कुछ नहीं दिया पर एक टीचर कह रही थी कि उसे इंजेक्शन दिया था और इस बात की पुष्टि चारू ने भी की थी.’

हम लोग उसी क्षण स्कूल में जा कर प्रिंसिपल से मिले और अपनी सारी व्यथा सुनाई.

प्रिंसिपल पहले तो बड़े मनोयोग से सारी बातें सुनती रहीं फिर थोड़ी देर के लिए उठ कर चली गईं. उन के वापस आते ही मेरे पति ने कहा कि यदि आप उस टीचर को किसी तरह बुला दें जो चारू को क्लीनिक में ले कर गई थी तो हमें कारण ढूंढ़ने में आसानी होगी. कम से कम हम उस पर कोई कानूनी काररवाई तो कर सकते हैं.

‘क्या आप को उस का नाम मालूम है?’ वह बड़े ही रूखे स्वर में बोलीं.

चारू उस समय हमारी साथ थी पर वह इस बात का कोई ठीक से उत्तर नहीं दे सकी. इस पर प्रिंसिपल ने बड़ी लापरवाही से उत्तर दिया कि मैं मामले की छानबीन कर के आप को बता दूंगी.

मेरे पति आपे से बाहर हो गए. उन की खीज बढ़ती गई और धैर्य चुकता गया.

‘हमारे साथ इतना बड़ा हादसा हो गया और हम किस मानसिक दौर से गुजर रहे हैं, इस बात का अंदाजा है आप को. एक तो आप के स्कूल में उस दिन नर्स नहीं थी, उस पर जो उपचार बच्ची को दिया गया उस का भी आप के पास ब्योरा नहीं है. आप सबकुछ कर सकती हैं पर आप कुछ करना नहीं चाहती हैं. इसीलिए कि आप का स्कूल बदनाम न हो जाए. मैं एकएक को देख लूंगा.’

‘आप को जो करना है कीजिए, पर इस तरह चिल्ला कर स्कूल की शांति भंग मत कीजिए,’ वह लगभग खड़े होते हुए बोलीं.

दोषियों को दंड दिलवाने की इच्छा भी बेकार साबित हुई. चारू की रिपोर्ट से हम ने थोड़ेबहुत हाथपैर मारे पर सुबूतों के अभाव में दोषी डाक्टर एवं उस का स्टाफ बिना किसी बाधा के साफ बच कर निकल गया और जो हमारी बदनामी हुई, वह अलग.

हां, यदि प्रिंसिपल चाहती तो उन को सजा हो सकती थी पर वह क्लीनिक तो चलता ही प्रिंसिपल के इशारे पर था. स्कूल में प्रवेश से पहले सभी विद्यार्थियों को एक सामान्य हेल्थ चेकअप एवं सर्टिफिकेट की जरूरत होती थी जो वहीं से मिल सकता था.

चारू को एड्स होने की बात दावानल की भांति शहर भर में फैल गई. हम लोगों को हेय नजरों से देखा जाने लगा. चारू की स्कूल में भी हालत लगभग ऐसी ही थी.

सरकार के सारे बयान कि एड्स कोई छुआछूत की बीमारी नहीं है व छूने से एड्स नहीं फैलता, लगभग खोखले हो चुके थे. मेरे घर पर भी कालोनी वालों का आना लगभग न के बराबर हो गया. किटी पार्टी छूट गई. बरतन मांजने वाली भी काम से किनारा कर गई. हम लोग उपेक्षित एवं दयनीय से हो कर रह गए थे. हम सुबह से शाम तक 20 बार जीते 20 बार मरते.

यह जानते हुए भी कि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है फिर भी अपने मन को समझाने के लिए जिस ने जो बताया मैं ने कर डाला. जिस का असर मेरे तनमन पर यह पड़ा कि मैं खुद को बीमार जैसा अनुभव करने लगी थी. यह जिंदगी तो मौत से भी कहीं ज्यादा कष्ट- दायक थी.

एक दिन चारू रोती हुई स्कूल से आई और कहने लगी कि क्लास टीचर ने उसे सब से अलग और पीछे बैठने के लिए कह दिया है. कहा ही नहीं, अलग से इस बात की व्यवस्था भी कर दी है. मेरा दिल भीतर तक दहल गया. इस छोटे से दिल के टुकड़े को जीतेजी अलग कैसे कर दूं. वह बिलखती रही और मैं चुपचाप तिलतिल सुलगती रही.

मैं ने वह स्कूल और घर छोड़ दिया तथा इस नई कालोनी में घर ले लिया और पास ही के स्कूल में चारू को एडमिशन दिलवा दिया, यही सोच कर कि जब तक यह स्कूल जा सकती है जाए. उस का मन लगा रहेगा. पर यहां भी हम से पहले हमारा अतीत पहुंच गया.

अचानक पति के कहे शब्दों से मेरी तंद्रा टूटी और मैं वर्तमान में आ गई.

हमें 10 दिन के भीतर मकान खाली करना है यह सोच कर हम फिर से परेशान हो उठे. जैसेजैसे समय बीतता जा रहा था हमारी चिंता और बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी.

एक दिन सुबहसुबह दरवाजे की घंटी बजी तो मैं परेशान हो उठी. मुझे दरवाजे और टेलीफोन की घंटियों से अब डर लगने लगा था. मैं ने दरवाजा खोला. सामने एक बेहद स्मार्ट सा व्यक्ति खड़ा था. उस ने मेरे पति से मिलने की इच्छा जाहिर की. मैं बड़े सत्कार से उसे भीतर ले आई. मेरे पति के आते ही वह खड़ा हो गया. फिर बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘मैं डा. चौहान हूं, चाइल्ड स्पेशलिस्ट. आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं.’’

‘‘मैं आप को कैसे भूल सकता हूं,’’ सकते में खड़े मेरे पति बोले, ‘‘आप की वजह से तो मेरी यह हालत हुई है. आप के क्लीनिक के इंजेक्शन की वजह से तो मेरी बच्ची को एड्स हो गया. अदालत से भी आप साफ छूट गए. अब क्या लेने आए हैं यहां? एक मेहरबानी हम पर और कीजिए कि हम तीनों को जहर दे दीजिए.’’

‘‘सर, आप मेरी बात तो सुनिए. आप जितनी चाहे बददुआएं मुझे दीजिए, मैं इसी का हकदार हूं. जो गलती मेरे क्लीनिक से हुई है उस के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं. मेरी ही लापरवाही से यह सबकुछ हुआ है. कोर्ट ने मुझे बेशक छोड़ दिया पर आप का असली गुनहगार मैं हूं. और यह एक बोझ ले कर मैं हर पल जी रहा हूं,’’ और हाथ जोड़ कर वह मेरी ओर देखने लगा. स्वर पछतावे से भरा प्रतीत हुआ.

‘‘मैं ने इस शहर को छोड़ कर पास के शहर में अपना नया क्लीनिक खोल लिया है. इनसान दुनिया से तो भाग सकता है पर अपनेआप से नहीं. मैं मानता हूं कि मेरा अपराध अक्षम्य है पर फिर भी मुझे प्रायश्चित्त करने का मौका दीजिए.

‘‘मैं अपने सूत्रों से हमेशा आप के परिवार पर नजर तो रखता रहा पर यहां तक आने और माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा सका. अभी कल ही मुझे पता चला कि आप पर फिर से मकान का संकट आ पड़ा है तो मैं यहां तक आने की हिम्मत कर सका हूं.

‘‘मैं जहां रहता हूं वहीं नीचे मेरा क्लीनिक है. मैं चाहता हूं कि आप लोग मेरे साथ चल कर मेरे मकान में रहिए. मुझे आप से कोई किराया नहीं चाहिए बल्कि आप की चारू का उपचार मेरी देखरेख में चलता रहेगा. मुझे एक बड़ी खुशी यह होगी कि मेरे लिए आप लोगों की सेवा का मौका मिलेगा,’’ कहतेकहते वह मेरे चरणों में गिर पड़ा. उस का स्वर जरूरत से ज्यादा कोमल एवं सहानुभूति भरा था.

मुझे समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूं. उस का स्वर भारी और आंखें नम थीं. उस के यह क्षण मुझे कहीं भीतर तक छू गए. अचानक मां के स्वर याद आ गए, ‘अतीत कड़वा हो या मीठा, उसे भुलाने में ही हित है.’

‘‘मुझे सोचने के लिए समय चाहिए. मैं कल तक आप को उत्तर दूंगी.’’

‘‘मैं कल आप का उत्तर सुनने नहीं बल्कि आप को लेने आ रहा हूं. मेरा आप का कोई खून का रिश्ता तो नहीं पर अपना अपराधी समझ कर ही मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लीजिए,’’ कहते- कहते उस का गला भर गया और आंसू छलक आए.

उस के इन शब्दों में आत्मीयता और अधिकार के भाव थे. आंखें क्षमायाचना कर रही थीं.

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