मेरे पति मारपीट व गाली-गलौज करते हैं, मैं क्या करूं?

सवाल-

मैं विवाहित महिला हूं. 4 साल का बेटा है. पति सरकारी नौकरी करते हैं. समस्या यह है कि ससुराल वालों के कहने पर मेरे पति मेरे साथ मारपीट व गालीगलौज करते हैं और बातबात पर दूसरी शादी करने व तलाक देने की धमकी देते हैं. घरेलू हिंसा से परेशान हो कर मैं अपने बेटे के साथ मायके रहने चली गई. कुछ समय पहले मेरे पिता का देहांत हो गया तो मैं ससुराल वापस आ गई. लेकिन पति व ससुराल वालों का मेरे प्रति रवैया अभी भी वैसा का वैसा ही है. ससुर अकसर धमकी देते हैं कि उन की पहुंच ऊपर तक है. दरअसल, मेरी ननद पुलिस में दारोगा है, इसी बात का वे मुझ पर रोब जमाते रहते हैं. मैं बहत परेशान हूं. उचित सलाह दें.

जवाब-

पहले आप अपने पति से अकेले में प्यार से बात करें और समझाने की कोशिश करें. फिर भी बात न बने तो आप अदालत में जज के समक्ष अपनी सुरक्षा के लिए बचावकारी आदेश ले सकती हैं.

पति या ससुराल पक्ष द्वारा पत्नी का शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मौखिक, मनोवैज्ञानिक या किसी भी प्रकार का यौन शोषण किया जाना घरेलू हिंसा के अंतर्गत आता है और कोई भी पीड़ित महिला या उस का पड़ोसी या परिवार का कोई भी सदस्य अपने क्षेत्र के न्यायिक मजिस्ट्रेट की कोर्ट में शिकायत दर्ज करा कर बचावकारी आदेश हासिल कर सकता है. इस कानून का उल्लंघन होने की स्थिति में पीड़ित करने वाले को जेल के साथसाथ जुर्माना भी हो सकता है.

आप भी अपने साथ हो रहे अन्याय व प्रताड़ना के खिलाफ घरेलू हिंसा कानून के अंतगर्त ससुराल वालों के खिलाफ केस दर्ज करा कर न केवल ससुराल में रहने का अधिकार पा सकती हैं, बल्कि मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना का मुआवजा की मांग भी कर सकती हैं.

आप की ससुराल वाले आप के अधिकारों की अनभिज्ञता के चलते आप के साथ ऐसा दुर्व्यवहार कर रहे हैं. जब आप उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी देंगी तो वे रास्ते पर आ जाएंगे.

जब पति ही बलात्कारी बन जाए

इसराईल की एक महिला शीरा इसकोवा पर सितंबर, 2020 में उस के पति ने 20 बार धारदार चाकू से जानलेवा हमला किया. उस के बाद उसे अस्पताल ले जाया गया. डाक्टरों का कहना था कि महिला का बचना मुश्किल है, लेकिन अपनी हिम्मत के बल पर शीरा मौत को मात दे कर जी उठी.

घटना के 14 महीने बाद कोर्ट ने घरेलू हिंसा के मामले में कोई मजबूत कानून नहीं होने की वजह से उस के आरोपी पति को निर्दोष बता दिया. कोर्ट की इस जजमैंट को ले कर पीडि़त महिला ने कहा था, ‘‘मुझे शरीर में 20 चाकू धंसने पर भी उतना दर्द नहीं हुआ, जितना कोर्ट के इस फैसले को सुनने पर हुआ.’’

इसराईल जैसे संपन्न देश में भी ऐसे कानून हैं जहां एक महिला पर पति द्वारा 20 चाकू घोंपे जाने के बावजूद उसे निर्दोष साबित कर दिया गया. लेकिन सिर्फ इसराईल ही एक अकेला ऐसा देश नहीं है. भारत समेत कई बड़े देशों में महिला विरोधी कानून आज भी लागू हैं.

भारत के पतियों को रेप की आजादी

मैरिटल रेप का सवाल लगातार किसी न किसी रूप में चर्चा का केंद्र बना हुआ है. विवाहित महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा की घटनाएं आज भी हो रहे हैं. भारत में वैवाहिक बलात्कार कानून की नजर में अपराध नहीं है यानी अगर पति अपनी पत्नी के की मरजी के बगैर उस से जबरन शारीरिक संबंध बनाता है तो उसे अपराध नहीं माना जाता.

एक पीडि़त महिला ने कोर्ट में जब यह कहते हुए गुहार लगाई कि उस का पति उस के साथ अप्राकृतिक कृत्य करता है, तो कोर्ट ने यह कहते हुए पति को बलात्कार के मामले में अपराधमुक्त कर दिया कि अगर पत्नी कानूनी तौर पर विवाहित है और उस की उम्र 18 साल से अधिक है, तो पत्नी के साथ बलपूर्वक या उस की इच्छा के विरुद्ध अप्राकृतिक यौन संबंध या यौन क्रिया अपराध या बलात्कार नहीं है.

हमारे भारतीय समाज में तो शादी को एक पवित्र बंधन माना गया है. यहां एक पति का अपनी पत्नी के साथ मार कर जबरन रेप को अपराध क्यों नहीं माना जाता? क्या पत्नी की देह पर उस का अपना कोई अधिकार नहीं है? क्या 21वीं सदी में भी शादी के बाद महिला की स्थिति सिर्फ पति की दासी जैसी है और उस का अपना कोई अस्तित्व नहीं है? क्या शादी के बाद भारतीय पतियों को कानूनी तौर पर पत्नी का बलात्कार करने का लाइसैंस मिल जाता है?

अगर कोई पति अपनी पत्नी के साथ मार कर जबरन सैक्स करता है, तो भारत का बलात्कार का कानून पति पर लागू नहीं होता और उस का नतीजा यह है कि महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार बन रही हैं.

मैरिटल रेप से जूझ रही महिलाओं की कहानी

लता, बदला हुआ नाम, कहती है कि उस का पति रोज शराब के नशे में चूर उस के साथ जानवरों जैसा सलूक करता है और वह जिंदा लाश की तरह बस पड़ी रहती है. तब उस का पति और हिंसक हो जाता है. हर रात वह उस के लिए एक खिलौने की तरह है, जिसे वह अलगअलग तरह से इस्तेमाल करता है.

पत्नी से लड़ाई के दौरान वह अपनी खुन्नस पत्नी का बलात्कार कर के निकालता है. तबीयत खराब होने पर कभी वह न कह दे तो पति सहन नहीं कर पाता है. अब वह इन संबंधों से ऊबने लगी है. उस का मन करता है कहीं भाग जाए, पर 2-2 बच्चों को पालना है, इसलिए सहने को मजबूर है.

एक महिला का कहना है कि एक रोज उस के पति ने उसे मारापीटा और घसीट कर कमरे में ले गया. उस ने अपनी पूरी ताकत से खुद को पति से अलग करना चाहा, लेकिन वह नहीं रुका. और तो और उस ने उस के प्राइवेट पार्ट में टौर्च घुसा दी जिस से वह बेहोश हो गई. लेकिन पति दरवाजा बंद कर बाहर निकल गया. उस के बाद ससुराल वालों ने उसे अस्पताल पहुंचाया. वह कहती हैं कि उस के बाद वह कभी अपनी ससुराल नहीं गई.

सैक्स के लिए परेशान करता था

कुछ साल पहले एक पत्नी द्वारा सैक्स के लिए मना करने पर पति ने उस का गला दबा कर मारने की कोशिश की थी. 34 वर्ष की महिला संगम विहार में अपने पति और 2 बच्चों के साथ रहती थी. दोनों की शादी को 17 साल हो गए थे. दोनों के बीच सैक्स को ले कर अकसर झगड़ा होता था.

पत्नी का आरोप था कि करीब 1 महीने पहले उस ने फैमिली प्लानिंग का औपरेशन करवाया था, इसलिए डाक्टर ने 3 महीने तक उसे शारीरिक संबंध बनाने से मना किया था. लेकिन पति अकसर उसे सैक्स के लिए परेशान करता था. एक रोज वह यह कहते हुए पत्नी का गला दबाने लगा कि अगर तू मेरे साथ सैक्स नहीं करेगी तो मैं तुझे जान से मार दूंगा. फिर तंग आ कर पत्नी को पुलिस को फोन करना पड़ा.

यहां सब से बड़ा सवाल यह है कि हमारे समाज में शादी चलाने और पति को खुश रखने की जिम्मेदारी औरतों के जिम्मे ही क्यों है? क्या औरत के शरीर और मरजी कोई माने नहीं है?

कोर्ट का तर्क

कोर्ट के अनुसार यह कैसे साबित होगा कि घर की चारदीवारी में क्या हुआ? कैसे पता चलेगा कि पत्नी की रजामंदी नहीं थी? रेप के कई झठे मामले अदालतों में पहुंचे और इस से कई जिंदगियां बरबाद हुईं. बैडरूम को अदालतों तक ले जाने की यह कोशिश बहुत खतरनाक साबित हो सकती है. इसलिए मैरिटल रेप को अपराध के दायरे में रखा जाना उचित नहीं क्योंकि इस से विवाह संस्था चरमरा सकती है.

मगर यदि एक ऐसी संस्था की नींव बलात्कार जैसे अपराध पर टिकी हो तो उस संस्था का चरमरा जाना ही बेहतर रास्ता है. मैरिटल रेप कोई घर की बात नहीं है, बल्कि एक अपराध है. यह अपराध चाहे कोई भी करे इस से उस का चरित्र या उस की परिभाषा बदल नहीं जाती.

मैरिटल बलात्कार का मामला कई बार सांसद में भी उठा, लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला. यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट भी पत्नी की सहमति के बगैर उस से यौन संबंध स्थापित करने के कृत्य को अपराध घोषित करने से इनकार कर चुका है.

‘यूनिवर्सिटी औफ वौरविक’ और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफैसर रहे उपेंद्र बख्शी कहते हैं कि मेरे विचार से इस कानून को खत्म कर देना चाहिए. पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के खिलाफ होने वाली घरेलू हिंसा और यौन हिंसा से जुड़े कानूनों में कुछ प्रगति जरूर हुई है, लेकिन वैवाहिक बलात्कार को रोकने के किए कोई कदम नहीं उठाया गया है.

1980 में प्रोफैसर बख्शी जानेमाने वकीलों में शामिल थे और उन्होंने अपनी बात सांसदों की समिति को भारत में बलात्कार से जड़े कानूनों में संसोधन को ले कर कई सुझव भी भेजे थे. समिति ने उन के सारे सुझवों को स्वीकार कर लिया सिवा मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने के सुझव को. सरकार ने तर्क दिया कि वैवाहिक कानून का अपराधिकरण विवाह संस्था को अस्थिर कर सकता है और महिलाएं इसका इस्तेमाल पुरुषों को परेशान करने के लिए कर सकती हैं.

2013 में संयुक्त राष्ट्र की एक समिति ने भारत के इस रवैए पर चिंता जताते हुए सिफारिश की थी कि भारत सरकार वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करे. निर्भया मामले में प्रदर्शन के बाद गठित जेएस वर्मा समिति ने भी इस की सिफारिश की थी. कई समितियां बनी. लेकिन स्थिति जस की तस बनी हुई है.

1947 में भारत का आधा हिस्सा ही आजाद हुआ था, बाकी आधा अभी भी गुलाम है. महिलाएं पितृसत्तात्मक सोच के नीचे घुट रही हैं. भारत आधुनिकता का सिर्फ मुखौटा ओढ़े हुए है.  अगर सतह को खंरोच कर देखें, तो असली चेहरा साफसाफ नजर आएगा.

पत्नी की शरीर संपत्ति नहीं

भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में आज भी पत्नी के शरीर पर पति का हक माना जाता है. इस कथित हक के हिसाब से लोग अकसर मान लेते हैं कि उन्हें पत्नी के साथ उस की मरजी के खिलाफ भी सैक्स करने का अधिकार है क्योंकि शादी के बाद पत्नी उस की संपत्ति की तरह है जिसे वह जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है.

ऐसे में वैवाहिक बलात्कार जैसे मुद्दे पुरुषों के लिए बेतुके लगते हैं. लेकिन क्या शादी का मतलब पत्नी से जबरदस्ती करने की आजादी है? क्या कानून का सहारा ले कर औरतों के खिलाफ हो रहे अत्याचार को सही ठहराया जा सकता है?

भारत में आज भी घरेलू हिंसा के खिलाफ सख्त कानूनों की कमी है. पत्नी के बलात्कार के खिलाफ भारत में कोई कानून है ही नहीं. फिर भी अदालतें यही कहती हैं कि अकसर औरतें कानूनों का दुरुपयोग करती हैं. लेकिन वही कानून एक बलात्कारी को पीडि़ता से शादी करने का औफर देता है ताकि उस की सजा माफ हो सके.

जस्टिस बोबडे ने एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के आरोपी व्यक्ति से पूछा था कि क्या वह उस से शादी करने के लिए तैयार है? सीजेआई ने वैवाहिक बलात्कार के एक अलग मामले में दूसरा भयानक सवाल यह किया था कि जब 2 लोग पति और पत्नी के तौर पर साथ रह रहे हैं, पति चाहे कितना भी क्रूर हो, क्या उन के बीच यौन संबंध को बलात्कार कहा जा सकता है?

क्या इस तरह के सवाल घरेलू हिंसा को और बढ़ावा नहीं देते हैं? क्या एक इंसान होने के नाते औरत को ‘न’ कहने का कोई हक नहीं है? फिर चाहे वह व्यक्ति उस का पति ही क्यों न हो. शादीशुदा होने से रेप का अपराध क्या कम गंभीर हो जाता है यानी पत्नी अगर 8 साल से ऊपर की है तो पति को वैवाहिक बलात्कार के लिए ‘हाल पास’ मिल जाता है. पति बिना किसी डर के अपनी पत्नी के साथ जो चाहे, जैसे चाहे कर सकती है, उस पर कोई कानूनी शिकंजा नहीं कसेगा.

पति का हक

आज  भी कुछ लोग ऐसे हैं जो पत्नी के बलात्कार के खिलाफ कानून बनाने के हक में नहीं हैं. ‘आंसर्स डौट कौम’ ने इस मुद्दे पर हो रही चर्चा पर लिखा था कि पति का अपनी पत्नी के जिस्म पर पूरा हक है. किसी सैक्स वर्कर के पास जाने से अच्छा है पत्नी के साथ ही जबरदस्ती करो. एक और व्यक्ति ने लिखा था कि पत्नी का बलात्कार इतना संजीदा मुद्दा नहीं है जितना किसी लड़की से बलात्कार करना. पत्नी को अपने पति की जरूरतों का खयाल रखना चाहिए.

नाक कटने का डर

अधिकतर मामलों में महिलाएं अपने घर में ही पति के हाथों बलात्कार की शिकार होती हैं. लेकिन वे अपनी शिकायत ले कर सामने नहीं आ पातीं क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि ऐसा करने से समाज में उन की नाक कट जाएगी और अगर कोई अपने हक के लिए बोलना भी चाहती है तो उस की आवाज दबा दी जाती है.

अफसोस की बात है कि हमारी न्याय प्रणाली भी दोषी का साथ देती है. छोटे से ले कर बड़ा अधिकारी पैसे दे कर खरीद लिया जाता है. लेकिन वहीं पश्चिमी देशों में महिलाओं के हितों में नए कानून ही नहीं बनते, बल्कि उन का पालन भी होता है. लेकिन हमारे यहां अगर कोई कानून बन भी जाए तो उस का पालन नहीं होता, केवल दुरुपयोग होता है.

100 से भी अधिक देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखा गया है. लेकिन भारत लगभग 32 देशों की चमकदार लीग पर खड़ा है, जहां वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं माना जाता है. ब्रितानी औपनिवेशिक दौर का यह कानून भारत में 1860 से लागू है, जिस में जिक्र था कि अगर पति अपनी पत्नी के साथ जबरन सैक्स करे और पत्नी की उम्र 18 साल से कम की न हो तो उसे रेप नहीं माना जाएगा.

इस प्रावधान के पीछे यह मान्यता है कि शादी में सैक्स की सहमति छिपी हुई होती है और पत्नी इस सहमति को बाद में वापस नहीं ले सकती है. लेकिन खुद ब्रिटेन ने भी 1991 में वैवाहिक बलात्कार को यह कहते हुए अपराध की श्रेणी में रख दिया कि छिपी हुई सहमति को अब गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है. लेकिन महान भारतीय पितृसत्तात्मक मानसिकता ने लंबे समय तक एक विडंबना को पाले रखा, जो आज तक चली आ रही है.

मैरिटल रेप का अपवाद हमारे कानून और समाज में पितृसत्तात्मक सोच को प्रदर्शित करता है. औपनिवेशिक कानून लागू होने के बाद जब पहली बार अपवाद को जोड़ा गया तो नीति निर्माताओं ने चर्चा की थी कि क्या कानून को रेप करने वाले पति को बचाना चाहिए या शादी में रेप को बरदाश्त करने की पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति को यह अपवाद वैधता देता है?

वैवाहिक बलात्कार का ही परिणाम है कि आज कई महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होने को मजबूर हैं. आंकड़े बताते हैं कि देश में शादी करने वाली 15 से 49 साल के बीच की हर 3 में से 1 महिला पति के हाथों हिंसा का शिकार होने की बात कहती है. एक सर्वे के अनुसार 31 फीसदी विवाहित महिलाओं से उन के पति शारीरिक, यौन और मानसिक उत्पीड़न करते हैं.

महिलाओं पर वैवाहिक बलात्कार के प्रभाव

पतियों द्वारा वैवाहिक बलात्कार और अन्य गलत दुर्व्यवहार महिलाओं में तनाव, अवसाद, भावनात्मक संकट और आत्महत्या के विचारों जैसे मानसिक स्वास्थ्य प्रभाव उत्पन्न करता है. वैवाहिक बलात्कार हिंसक आचरण बच्चों के स्वास्थ्य और सेहत को भी प्रभावित करता है.

एक ओर पारिवारिक हिंसक माहौल, तो दूसरी ओर ये घटनाएं स्वयं और बच्चों की उपयुक्त देखरेख कर सकने की महिलाओं की क्षमता को कमजोर कर सकती हैं. अपरिचित या परिचित व्यक्ति द्वारा बलात्कार की शिकार पीडि़ताओं की तुलना में वैवाहिक  बलात्कार की शिकार पीडि़ताओं के बारबार बलात्कार की घटनाओं का शिकार होने की अधिक संभावना रखती है.

यह चौंकाता है. लेकिन यह सच है कि हम एक ऐसे देश में हैं जो ज्यादातर यही मानता है कि एक भारतीय महिला शादी के बाद कई चीजों के साथ अपने पति के लिए कभी खत्म नहीं होने देने वाली, बदली न जा सकने वाली और हमेशा के लिए सहमति सौंपने वाली होती है, जिसे केवल मौत ही खत्म कर सकती है.

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 यह सुनिश्चित करता है कि राज्य किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र के भीतर कानूनों के समान संरक्षण से इनकार नहीं करेगा, लेकिन भारतीय आपराधिक कानून महिलाओं खासकर के उन महिलाओं के साथ भेदभाव करता है, जिन का पतियों द्वारा बलात्कार किया जाता है. हालांकि संविधान सभी को समानता की गारंटी देता है.

आधुनिक समाज में जब हर स्तर पर स्त्रियों की भागीदारी व बराबरी की कोशिश हो रही है और इन कोशिशों का श्रेय पुरुष बढ़चढ़ कर लेते रहे हैं. लेकिन अब समय आ गया है कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित किया जाए. इस के दायरे में उन सभी महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटना को शामिल किया जा सकता है जो कभी भी विवाहित रही हों अर्थात विवाहित, तलाकशुदा, पति से अलग हो कर रह रही महिला और लिविंग पार्टनर के साथ उन की इच्छा के विरुद्ध पति या जीवनसाथी द्वारा जबरन यौन संबंध बनाने या फिर यौन हिंसा का प्रावधान होना चाहिए.

सरकार को महिलाओं के सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए पत्नी से बलपूर्वक यौनाचार को बलात्कार की श्रेणी में शामिल करने की दिशा में सकारात्मक कदम उठाने ही पड़ेंगे वरना थकहार कर महिलाओं को उसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में घुट कर जीने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में न रखा जाना पितृसत्तात्मक को और मजबूत करता है.

चुनाव इतने निरर्थक क्यों हैं

हालांकि 5 विधानसभा चुनावों के बाद सरकारें बन गई है पर क्या इन चुनाव परिणामों के बाद औसत आदमी और विशेषतौर पर औसत औरतों की जिंदगी पर कोई असर पडऩे वाला है. आजकल हर 5 साल में 3 चुनाव होते हैं. केंद्र का, राज्य विधानसभा का, म्यूनिसिप्लैटी का जिला अध्यक्ष का पर हर चुनाव के बाद वादों और नारों के जीवन उसी पुराने ढर्रे पर चलता रहता है.

चुनाव भारत में ही नहीं, लगभग सारी दुनिया में न उत्साह जगाते है, न नई आशा लाते हैं. लगभग सभी देशों में चुनाव अखबारों की सुर्खियों में कुछ माह बने रहते हैं. पर जनता पर कोई असर पडऩा हो, यह नहीं दिखता. शायद ही किसी देश में चुनावों से ऐसी सरकार निकली जिस ने पूरी जनता की कायापलट कर दी हो. भारत में 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी पर 2004 तक लोग खिन्न हो चुके थे कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार आ गई. यानी लोगों को चुनी सरकार का काम पसंद नहीं आया.

2009 में कांग्रेस एक बार फिर आई पर 2014 में उसे रिजैक्ट कर दिया गया. 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आई और आज भी मजबूती से बैठी है पर फिर क्या? क्या कहीं कुछ ऐसा हो रहा है जो पहले नहीं हुआ. कहीं नई सरकार का असर दिख रहा है?

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चुनावों से सरकारें आती जाती रहती हैं या बनी भी रहती हैं पर जनता को कोई लंबाचौड़ा अंतर नहीं दिखता. आखिर क्यों? वह लोकतंत्र किस काम का, वह वोिटग किस काम की, वह हल्लागुल्ला किस काम का जब अंत में वही या उसी तरह के लोग उसी तरह से देश चलाने रहें.

भारत में सब कुछ अच्छा हो रहा है. यह दावा तो बहुत थोड़े से ही कर सकेंगे. चुनाव देश की कार्यप्रणाली को बदलने में पूरी तरह असफल होते जा रहे हैं. घर में एक बच्चा होता है, घर की शक्ल बदल जाती है. शादी हो जाती है, घर व रवैया बदल जाता है. किसी की अकाल मृत्यु होती है, झटका लगता है. कुछ भी पहले की तरह नहीं होता रहता. फिर चुनाव देश की जिंदगी में ऐसा बदलाव क्यों नहीं करते जैसे एक व्यक्ति जिंदगी में बच्चे होना उन की पढ़ाई में सफलता मिलना, नौकरी मिलना, दोस्ती बनने से होती है. चुनाव इतने निरर्थक से क्यों हैं.

लोग लेट देने जा रहे हैं. पिछले चुनावों में 4 विधानसभाओं ने उसी पार्टी को चुना जो पहले थी. तो अब वहां क्या नया होगा? पंजाब में कुछ दिन नई पार्टी का नयापन दिखेगा पर फिर सब कुछ दर्रे पर आ जाएगा. तो क्या चुनाव निरर्थक हो गए हैं?

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नाम बड़े और दर्शन छोटे

देश में 2 समाज बनाने की पूरी तैयारी चल रही है- एक पैसे वालों का, एक बिना पैसों वालों का. समाज का गठन इसा तरह किया जा रहा है कि दोनों को आपस में एक दूसरे का चेहरा भी न देखना पड़े. पैसे वाले केवल पैसे वालों के साथ रहे और बिना पैसे वाले रातदिन लग कर अपने शरीर और जन के जोड़े रखने के लिए मेहनत कर के अलगथलग रहें. इन दोनों वर्गों में अपनेअपने छोटेछोटे और वर्ग भी होंगे, बहुतबहुत अमीर, बहुत अमीर, अमीर कम अमीर. बिना पैसे वालों में बहुतबहुत गरीब से मध्यर्म वर्ग तक होगा जो पैसे वालों को कमा कर भी देगा और अपनी बचत भी उन के पास आएगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली से 75 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश में दिल्ली आगरा के बीच बनने वाले जेवर हवाई अड्डे का जो उद्घाटन किया है वह इस वर्ग विभाजन की एक और ईट है. इस विशाल 3000 एकड़ में फैले हवाई अड्डे पर 30000 करोड़ से ज्यादा खर्च होंगे जो जनता पर कर लगा कर वसूले जाएंगे और उस में वे ही जा सकेंगे जो फर्राटेदार गाडिय़ों में 75 किलोमीटर जा सकें और हजारों के टिकट खरीद सकें. बल्कि आम जनता के लिए भेड़ों की तरह भरी बसें हैं जिन की फटी सीटें और गमाती बदबू कुत्तों को भी उन में घुसने न दे. मुंबई और कोलकाता की लोकल ट्रेनें इ सकी सुबूत हैं. दिल्ली में 3 पहिए वाले ग्रामीण सेवा के वाहन इस के जीते जागते निशान हैं.

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अब सडक़ें ऐसी बनेंगी जिन में दोनों तरह के लोगों को एकदूसरे को देखने की जरूरत ही न हो. अमीरों के लिए जो बनेगा वह वहीं बनाएंगे जिसे अमीर देखना भी नहीं चाहते. उन की बस्तियां अभी बसेंगी फिर उजाड़ दी जाएंगी और किसी दलदली जगह बसा दी जाएंगी जहां सीवर न हों या होंं  तो भरे हों, जहां एयरकंडीशंड बसे न हो, ट्रकनुमा धक्के हों.

जेवर हवाई अड्डा दुनिया का चौथा सबसे बड़ा हवाई अड्डा होगा. पर क्या भारत के प्रति व्यक्ति की आय दुनिया के चौथे नंबर पर खड़े प्रति व्यक्ति वाले देश के बराबर है? यह एशिया का सब से बड़ा हवाई अड्डा होगा पर क्या हमारी आम बेबस जनता चीनी, जापानी, दक्षिणी कोरियाई तो छोडि़ए, थाईलैंड और वियतनाम की जनता के बराबर भी खुशहाल है, संपन्न है.

जेवर हवाई अड्डा चमचमाता होगा, बढिय़ा ग्रेनाइट के फर्श होंगे, महंगा खाना परोसने वाले रेस्ट्रां होंगे जहां चाय 250 ग्राम रुपए की एक कप होगी. पर क्या वे औरतें इस के दर्शन कर पाएंगे जिन्हें अपने घर आए मेहमान के लिए 3 एक जैसे कप जुटाने में तकलीफ होती है?

जेवर हवाई अड्डा प्रगति का प्रतीक है पर यह प्रगति तब अच्छी लगेगी जब आम लोगों का जीवन स्वर भी उठ रहा हो. जब आम लोग और ज्यादा छोटे मोहल्लों में जाने को विवश हो रहे हों तो क्या जेवर को पहन कर मोदीयोगी इतराते फिरें, यह अच्छा है?

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आखिर भारत चीन से पीछे क्यों है

भारत की औरतों को चीन से ज्यादा चीनी के दामों की चिंता रहती है पर चीन का खतरा और उस से कंपीटिशन हम सब के सिर पर हर समय सवार है. वैसे तो चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपना कार्यकाल रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की तरह असीमित करा लिया है पर अभी

वे अपने देश और दुनिया की नजरों में खलनायक नहीं बने हैं, जबकि तुर्की के रजब तैयब एर्दोगन और रूसी राष्ट्रपति पुतिन इसी तरह के बदलाव पर लोकतंत्र के हत्यारे और दुनिया के लिए खतरा घोषित कर दिए गए हैं.

पुतिन के विपरीत शी जिनपिंग की छवि एक बेहद सौम्य व सरल से नेता की है जो संरक्षक ज्यादा लगता है, मालिक कम. चीनी नीतियां भी ऐसी ही हैं. शी जिनपिंग के रोड और बैस्ट योजना का लक्ष्य सारे देशों को एक मार्ग से जोड़ना, बहुत देशों को पसंद आया है क्योंकि बहुत से अलगथलग पड़े देश व बड़े देशों के दूर वाले इलाकों से यह मार्ग गुजरने लगा है. यह पिछले 7-8 सालों से बन रहा है और बहुत जगह असर दिख रहा है.

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चीन की प्रगति इन सालों में बेहद अच्छी रही है और चीन चाहे सैनिक तेवर दिखा रहा हो, उस की सेनाओं ने भारत के अलावा कहीं पैर नहीं पसारे हैं. साउथ सी में वह अपना प्रभुत्व जमा रहा है पर अभी तक शांतिपूर्वक है.

अब शी जिनपिंग ने पिछले 3 दशकों में सरकारी छूटों का लाभ उठा कर धन्ना सेठ बने चीनियों पर नकेल कसनी शुरू की है. चीन में भी अंबानियों और अदानियों की कमी नहीं है, जिन्होंने सिर्फपहुंच और खातों के हेरफेर से पैसा कमाया है और कम्युनिस्ट देश में कैपिटलिस्ट मौज मना रहे हैं. अलीबाबा कंपनी के जैक मा का उदाहरण सब से बड़ा है जिस के पर हाल में कुतरे गए. एक भवन निर्माण कंपनी को भी डूबने से नहीं रोका गया क्योंकि उस ने बेहद घपला कर हजारों मकान बना डाले थे. हम तो पुरानी परंपराओं को खोदखोद कर निकाल कर सिर पर मुकुट में लगा रहे हैं.

चीनी नेता अब फिर से पार्टी राज ला रहे हैं जो अच्छा साबित होगा या नहीं अभी नहीं कह सकते पर यह पक्का है कि सिरफिरे ही सही कट्टरवादी माओत्सेतुंग ने ही चीन को पुरानी परंपराओं से निकालने के लिए हर पुरानी चीज को ध्वस्त कर डाला था. जो चीन तैयार हुआ वह दुनियाभर के लिए चुनौती बन गया है.

चीन अपनी सेना को भी मजबूत कर रहा है और अपने विमानों, पनडुब्बियों, एअरक्राफ्ट कैरियरों के बेड़े तैयार कर रहा है. भारत को डराए रखने के लिए चीन भारत सीमा के निकट हवाईअड्डे और सड़कें बना रहा है बिना विदेशी यानी पश्चिमी देशों की सहायता से.

अमेरिका शी जिनपिंग के चीन से भयभीत है और इसलिए आस्ट्रेलिया, जापान और भारत के साथ एक क्वैड संधि की गई है ताकि चारों देश मिल कर चीन का सामना कर सकें. इन चारों को यह तो पक्का भरोसा है कि वे चीन को अपनी तकनीक, बाहुबल या चालबाजी से बहका नहीं सकेंगे. जापान को मालूम है कि वह अब चीन पर कब्जा नहीं कर सकता जैसा उस ने 100 साल पहले किया था.

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शी जिनपिंग का लैफ्ट टर्न वही टर्न है जो कांग्रेस अब राहुल गांधी की पहल में कर रही है. जब तक किसी देश का आम आदमी भरपेट खाना नहीं खाएगा और उसे बराबरी का एहसास नहीं होगा, वह उन्नति में सहायक नहीं होगा, अलीबाबा या अदानी या अंबानी किसी देश की उन्नति की नींव नहीं बन सकते हैं, ये परजीवी हैं जो आम जनता की रगों से खून चूसते हैं. हमारी मंदिर, हिंदूमुसलिम नीति भी वही है. शी जिनपिंग अलग दिख रहे हैं, कितने हैं, पता नहीं. हां, एक मजबूत चीन भारत के लिए लगातार खतरा रहेगा जब तक हम भी उतने ही मजबूत न हों. हमारी पूंजी तो फिलहाल प्रधानमंत्री के सपनों के संसद परिसर और राममंदिर में लग रही है.

क्या जरूरी है रिश्ते का नाम बदलना

गुरुग्राम की रहने वाली रंजना के बेटे की शादी का अवसर था. विदाई के समय दुलहन की मां अपनी बेटी से गले मिलते हुए बोलीं, ‘‘अब एक मम्मी से नाता तोड़ कर दूसरी मम्मी को अपना बनाने जा रही हो. आज से तुम्हारी मम्मी रंजनाजी हैं. अब इन की बेटी हो तुम.’’

रंजना ने तुरंत उन की बात काटते हुए कहा, ‘‘नहीं, मैं आप से एक मां का अधिकार नहीं छीनना चाहती. मम्मी तो आप ही रहेंगी इस की. मैं अभी तक अपनी बेटी का प्यार तो पा ही रही थी, अब मुझे बहू का प्यार चाहिए. मैं मां के साथसाथ खुद को अब ‘सासूमां’ कहलवाना भी पसंद करूंगी. सासबहू के सुंदर रिश्ते को महसूस करने का समय आया है. मैं भला क्यों वचिंत रहूं इस सुख से?’’

प्रश्न है कि आखिर आवश्यकता ही क्यों पड़ती है रिश्तों के नाम बदलने की या किसी अन्य रिश्ते से तुलना करने की? सास शब्द इतना भयंकर सा क्यों हो गया कि बोलते ही मस्तिष्क में ममतामयी स्त्री के स्थान पर एक कू्रर, डांटतीफटकारती अधेड़ महिला की तसवीर उभरने लगती है. बहू शब्द क्यों इतना पराया लगने लगा कि अपनत्व की भावना से सजाने के लिए उस पर बेटी शब्द का आवरण डालना पड़ता है. कारण स्पष्ट है कि कुछ रिश्तों ने अपने नामों के अर्थ ही खो दिए हैं.

अहम और स्वार्थ के दलदल में फंस कर एकदूसरे के प्रति व्यवहार इतना रूखा हो गया है कि रिश्तों का केवल एक पक्ष ही उजागर हो रहा है. उन रिश्तों का सुखद पहलू दर्शाने के लिए किसी अन्य रिश्ते के नाम का सहारा लेना पड़ रहा है. मगर केवल नाम बदल देने से कोई भी रिश्ता उजला नहीं हो सकता. इस के लिए आवश्यक है कि व्यवहार व सोच में बदलाव लाया जाए.

क्यों बदनाम है सासबहू का संबंध

सास और बहू का रिश्ता आपसी अनबन के लिए बदनाम है. इसे सुंदर रूप देने के लिए यह समझना होगा कि इस में अब समय के साथ बदलाव लाया जाए. वर्तमान परिवेश में अधिकतर बहुएं कामकाजी हैं तथा सास भी पहले की तरह घर में बंद रहने वाली नहीं रहीं. अब इस रिश्ते में मांबेटी जैसे स्नेह के अतिरिक्त आपसी सामंजस्य व मित्रता की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है. यदि दोनों पक्ष कुछ बातों को ध्यान में रख एकदूसरे से अच्छा व्यवहार करें तो इस रिश्ते का नाम बदलने की आवश्यकता ही नहीं होगी.

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सास शब्द से परहेज क्यों

‘सास’ शब्द सब का चहेता बन जाए और सासबहू का रिश्ता प्रेम की भावना से पगा एक मोहक रिश्ता कहलाए, इस के लिए सास को निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए:

– बहू पर अपना भरपूर स्नेह उड़ेल देने के साथ ही उस में एक मित्र की छवि देखने का प्रयास करना होगा.

– एक स्त्री होने के नाते बहू की भावनाओं को बखूबी समझना होगा.

– दकियानूसी सोच से ऊपर उठ कर व्यर्थ के व्रत और रीतिरिवाजों का बोझ उस पर लादने से बचना होगा.

– वर्तमान में कपड़ों का वर्गीकरण विवाहित अथवा अविवाहित को ले कर नहीं होता. अत: ड्रैस को ले कर उस पर ऐसा कोई नियम लागू करने से बचना होगा.

– घर में रह रही बहू को मशीन न समझ कर संवेदनाओं से परिपूर्ण व्यक्ति समझना होगा.

– यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति के अपने अलगअलग विचार होते हैं. किसी विषय पर मतभेद हों तो सास नाहक ही तंज कसने के स्थान पर प्रेम की भाषा में अपनी बात कह दे तथा बहू के विचार सुन कर समझने का प्रयास करे तो टकराव के लिए कोई स्थान ही नहीं होगी.

– बहू से किसी बात पर भी दुरावछिपाव न करते हुए उसे परिवार का अंग समझ सब कुछ साझा किया जाए.

– बहू के साथ कभीकभी आउटिंग करना रिश्ते में स्नेह बढ़ाने का काम करेगा.

बहू शब्द अप्रिय क्यों

बहू बन जाने पर लड़की की दुनिया बदल जाती है. उसे कर्त्तव्यों की एक लंबी सी लिस्ट थमा दी जाती है. नए वातावरण में स्वयं को स्थापित करने की चुनौती स्वीकार करते हुए उसे रिश्तों में अपनेपन के नए रंग भरने होते हैं. बहू शब्द अप्रिय न रहे, इस के लिए उसे भी कुछ बातें ध्यान में रखनी होंगी:

– मन में ससुराल के प्रति अपनेपन की भावना के साथ प्रवेश करे.

– वहां के माहौल से जल्द ही परिचित होने का प्रयास करे. यदि हर बात में वह ससुराल की तुलना मायके से करेगी तो उस के हाथ निराशा ही लगेगी.

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– आज के समय पढ़ीलिखी लड़कियां परिस्थितियों को समझते हुए अपने जीवन से जुड़े फैसले स्वयं लेना चाहती हैं. एक बहू होने के नाते उन्हें चाहिए कि यदि किसी विषय में निर्णय लेते समय सासबहू की टकराहट हो तो कुछ अपनी मनवा कर कुछ उन की मान कर सामंजस्य बैठाएं.

– वह इस सत्य को न भूले कि उस के पति का परिवार के अन्य व्यक्तियों से भी नाता है और उन के प्रति उत्तरदायित्व भी है. अत: ‘मेरा पति सिर्फ मेरा है’ की सोच त्याग ईर्ष्या से दूर रहना होगा.

– सोशल मीडिया के इस युग में मोबाइल या व्हाट्सऐप के माध्यम से बहू अपने संबंधियों व मित्रों से जुड़ी रहती है. उसे चाहिए कि ससुराल की हर बात सब को न बताए. छोटीमोटी समस्याओं को तूल न देते हुए जल्द ही सुलझाने का प्रयास करे.

आधी आबादी लीडर भी निडर भी

किचन से कैबिनेट और घर की चारदीवारी से खेल के मैदान तक, गुपचुप घर में सिलाईबुनाई करती, पापड़बडि़यां तोड़ने से बोर्डरूम तक एक लंबा सफर तय करने वाली आधी आबादी ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि वह घर के साथसाथ बाहर का काम भी उतने ही बेहतर तरीके से संभाल सकती है. व्रतउपवास, कर्मकांड और उस के पांव में बेडि़यां डालने के लिए धर्म के माध्यम से फैलाए जा रहे अंधविश्वासों के घेरे से वह निकल सकती है, यह बात भी उस ने साबित कर दी है.

यह सही है कि किसी भी बड़े बदलाव के लिए जरूरी है समाज की सोच बदलना. बेशक अभी पुरुष समाज की सोच में 50% ही बदलाव आया हो, लेकिन महिलाओं ने अब ठान लिया है कि वे नहीं रुकेंगी और तमाम बाधाओं के बावजूद चलती रहेंगी. फिर चाहे वे शहरी महिला हो या किसी पिछड़े गांव की जो आज सरपंच बनने की ताकत रखती है और खाप व्यवस्था को चुनौती भी देती है.

बहुत समय पहले बीबीसी के एक कार्यक्रम में अभिनेत्री मुनमुन सेन ने कहा था कि महिलाएं किसी भी स्तर पर हों, किसी भी जाति या वर्ग से हों, वे एक ही होती हैं. उन के कुछ मसले एकजैसे होते हैं, उन में आपस में यह आत्मीयता होती है. आज वे मिलजुल कर अपने मसले जुटाने और अपनी पहचान की स्वीकृति पर मुहर लगाने में जुटी हैं, फिर चाहे कोई पुरुष साथ दे या न दे वे सक्षम हो चुकी हैं.

कर रही हैं निरंतर संघर्ष

यह समाज की विडंबना ही तो है कि घर हो या दफ्तर, राजनीति हो या देश, जब कभी और जहां भी महिलाओं को सशक्त बनाने, उन को मजबूत करने पर चर्चा होती है, तो ज्यादातर बात ही होती है, कोई कोशिश नहीं होती. लेकिन वे अपने स्तर पर कोशिश कर रही हैं और कामयाब भी हो रही हैं.

जिस देश की संसद में महिलाएं अब तक 33 फीसदी आरक्षण के लिए संघर्ष कर रही हैं, उसी देश के दूसरे कोनों में ऐसी भी महिलाएं हैं, जो अपने हिस्से का संघर्ष कर छोटीबड़ी राजनीतिक कामयाबी तक पहुंच रही हैं.

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी और अमेरिका की फर्स्ट लेडी होने के अलावा दुनियाभर में मिशेल ने अपनी एक अलग पहचान बनाई जो उन्होंने खुद अपने दम पर हासिल की. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के बाद हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से ला किया. सिडले और आस्टिसन के लिए काम करने के बाद मिशेल ने एक पब्लिलकएलाइजशिकागो ‘अमेरीकोर्प नैशनल सर्विस प्रोग्राम’ की स्थापना की.

उन का बचपन मुश्किलों भरा था, लेकिन मिशेल ने बहुत पहले ही यह सम झ लिया था कि उन्हें मुश्किलों के बीच से रास्ता बना कर जीत हासिल करनी है. मिशेल को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था, इसलिए उन्होंने 2015 में ‘लेट गर्ल्सलर्न’ इनीशिएटिव की शुरुआत की, जहां उन्होंने अमेरिकी लोगों को उच्च शिक्षा में जाने के लिए प्रोत्साहित किया.

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पा ली है मंजिल

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आते ही औरतों की प्रगति, उन की समस्याओं, उन के साथ होने वाली हिंसा, अत्याचार, उन की असुरक्षा से घिरे प्रश्नों यानी उन से जुड़े हर तरह के सवालों की विवेचना व अवलोकन होना आरंभ हो जाता है. कहीं सेमीनार आयोजित किए जाते हैं तो कहीं नारीवादी संगठन फेमिनिज्म की बयार को और हवा देने के लिए नारेबाजी पर उतर आते हैं. इंटरनैशनल वूमंस डे की शुरुआत औरतों के काम करने के अधिकार, उन्हें समाज में सुरक्षा प्रदान करने के लक्ष्य के साथ हुई थी, लेकिन आज जब औरतों ने हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर लिया है और वे कामयाबी का परचम लहरा रही हैं.

आईटी, बीपीओ या बड़ीबड़ी कंपनियों में औरतों की उपस्थिति को देखा जा सकता है. वे मैनेजर हैं, बैंकर हैं, सीईओ हैं, फाउंडर है और प्रेसीडेंट भी है. आज बिजनैस के कार्यक्षेत्र में जैंडर को ले कर की जाने वाले भिन्नता के कोई माने नहीं रह गए हैं. वैसे भी अगर आर्थिक अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना है तो औरतों की सक्रिय भूमिका को स्वीकारना ही होगा.

वास्तव में देखा जाए तो अब नकारने की स्थिति है भी नहीं. हर ओर से महिलाएं उठ खड़ी हुई हैं. ममता बनर्जी हों या सोनिया की पीढ़ी या फिर मलाला और ग्रेटा कम उम्र की युवतियां, बदलाव की आंधी हर ओर से चल रही है.

रख चुकी हैं हर पायदान पर कदम

बेहद प्रभावशाली भाषण से संयुक्त राष्ट्र की बोलती बंद करने वाली ग्रेटा थनबर्ग किसान आंदोलन के दौरान भारत के खिलाफ दुष्प्रचार करने के आरोप में विवादों में अवश्य हैं, पर संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अपनी बातों से दुनियाभर के नेताओं का ध्यान आकर्षित करने वाली 16 वर्षीय स्वीडिश छात्रा ग्रेटा थनबर्ग को टाइम मैगजीन ने 2019 का ‘पर्सन औफ द ईयर’ घोषित किया.

मलाला विश्व की कम उम्र में शांति का नोबेल पुरस्कार पाने वाली पहली युवती है. पाकिस्तान में तालिबानी आतंकवादियों ने इस की हत्या का प्रयास किया क्योंकि मलाला लड़कियों को पढ़ाने का काम कर रही थी जबकि तालिबान ने पढ़ाई पर रोक लगाई हुई थी.

आज वह करोड़ों लड़कियों की प्रेरणा बन चुकी है. उस के सम्मान में संयुक्त राष्ट्र ने प्रत्येक वर्ष 12 जुलाई को मलाला दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की.

जरमनी की चांसलर ऐंजेला मर्केल दुनिया की तीसरी सब से शक्तिशाली हस्ती हैं. उन्हें दुनिया की सब से शक्तिशाली महिला भी कहा जाता है. कमला हैरिस ने तो इतिहास ही रच दिया है. वे अमेरिका की पहली अश्वेत और पहली एशियाई अमेरिकी उप राष्ट्रपति हैं.

तोड़ रही हैं अंधविश्वासों की बेडि़यां

हर क्षेत्र में ऐसी महिलाओं के नामों की सूची इतनी लंबी है कि उन की उपस्थिति को सैल्यूट किए बिना नहीं रहा जा सकता है खासकर भारतीय समाज में जहां उन से केवल घर संभालने और धार्मिक कर्मकांडों में उल झे रहने की ही उम्मीद की जाती थी. सदियों से वे कभी पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती आ रही हैं, कभी बच्चों की सलामती के लिए पूजा करती आ रही हैं तो कभी घर की सुखशांति के लिए हवन और भजन करती आ रही हैं.

उन की कंडीशनिंग इस तरह की गई कि वे घर के बाहर जा कर अपनी पहचान बनाने के बारे में सोचेंगी तो उन्हें पाप लगेगा. लेकिन उन्होंने तमाम मिथकों को तोड़ा, परंपराओं का उल्लंघन किया, अपने अस्तित्व को आकार दिया. इस सब के बावजूद घर को भी बखूबी संभाला और परिवार की डोर को भी थामे रखा. असफल होने के डर से खुद को बाहर निकाला और जो थोड़ा डर अभी भी धार्मिक कुरीतियों के कारण उन के भीतर व्याप्त है उसे भी वह सांप की केंचुल की तरह छोड़ने को तत्पर हैं.

सपोर्ट सिस्टम खड़ा करना होगा

समाजशास्त्री मानते हैं कि औरतों को सब से पहले अपनी असफलताओं को ले कर परेशान होना छोड़ देना चाहिए. उन्हें परिवार व कैरियर के बीच एक बैलेंस बनाए रखना होगा क्योंकि समाज में ऐसी ही सोच व्याप्त है. पर इस मुश्किल से उभरने के लिए उन्हें एक सपोर्ट सिस्टम खड़ा करना होगा. उन्हें बीच राह में प्रयास करना छोड़ नहीं देना चाहिए.

कई औरतें जब डिलिवरी के बाद दोबारा काम पर आती हैं तो उन्हें लगता है कि इतने दिनों में जो एडवांस्मैंट हो चुकी है, वह कहीं उन्हें पीछे न धकेल दे. अपडेट रहना तरक्की की पहली शर्त है, इसलिए तमाम व्यवधानों के बावजूद अगर वे पुन: कोचिंग लें तो उन्हें सहायता मिलेगी. किसी गाइड की मदद ली जा सकती है. ताकि इन्फोसिस जैसी कंपनियां अपने कर्मचारियों को किसी बाहरी गाइड से मदद लेने के लिए प्रोत्साहित करती हैं जिस से उन के मानसिक क्षितिज का विस्तार हो सके. कार्यक्षेत्र में उन के लिए एक सपोर्ट सिस्टम की जरूरत है.

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जमीन से जुड़ी महिलाएं

  सोनी सोढ़ी

(आदिवासी समाज की लीडर)

एक छोटे से स्कूल में बच्चों को पढ़ाने वाली सोनी की जिंदगी 2011 में हुई उस घटना के बाद से हमेशाहमेशा के लिए बदल गई.

इस आदिवासी युवती को उस के भाई की पत्रकारिता की कीमत चुकानी पड़ी. जेल, लगातार बलात्कार और मानसिक शोषण, यहां तक कि गुप्तांग में पत्थर डाल कर उसे निहायत शर्मनाक ढंग से प्रताडि़त किया गया. उसे नक्सली बनाने पर तुली छत्तीसगढ़ सरकार को आखिरकार उसे रिहा करना ही पड़ा. जेल से मर्मस्पर्शी पत्र लिख कर अपने समर्थकों का हौसला बनाए रखा. अपने पर किए हर अत्याचार को उस ने अश्रु की स्याही से न लिख कर हिम्मत और शक्ति की लेखनी से लोगों तक पहुंचाया.

सोनी बताती है कि जब ये सब उस के साथ हुआ तो उसे लगा कि अब वह खड़ी नहीं हो पाएगी. औरतों को सिखाया जाता है कि उन की इज्जत ही उन का सबकुछ है. मैं भी यही सोचती थी और जब मेरे साथ ये सब हुआ तो मु झे लगा कि मैं अब किसी काबिल नहीं रह गई हूं. पर उसे हिम्मत देने वाली भी दो औरतें ही थीं. जेल में उसे दो औरतें मिलीं, जिन्होंने उसे अपने स्तन दिखाए. उन के निपल काट दिए गए थे. तभी सोनी ने ठान लिया कि वह लड़ेगी. उन्होंने अपने गुरु को एक चिट्ठी लिखी और यहीं से शुरु हुई उन की लड़ाई. आज सोनी बस्तर में आदिवासियों के हक के लिए उठने वाली एक बुलंद आवाज है.

शहनाज खान

(युवा सरपंच)

राजस्थान के भरतपुर जिले में रहने वाली  25 साल की शहनाज वहां की कामां पंचायत से सरपंच चुनी गई है. वह राजस्थान की पहली महिला एमबीबीएस डाक्टर सरपंच है. वह कहती है, ‘‘मु झ से पहले मेरे दादाजी भी यहां से सरपंच थे. लेकिन उन के बाद यह बात उठी कि चुनाव में कौन खड़ा होगा. परिवार वालों ने मु झे चुनाव में खड़ा होने को कहा और मैं जीत गई.’’

शहनाज मानती है कि लोग आज भी अपनी बेटियों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजते हैं, इसलिए वह लड़कियों की शिक्षा पर काम करना चाहती है और उन सभी अभिभावकों के सामने अपना उदाहरण रखना चाहती है जो बेटियों को पढ़ने नहीं भेजते.

  सैक्सुअलिटी एक छोटा सा हिस्सा है

महिलाओं को आजादी व बराबरी का हक तभी सही मानों में मिल पाएगा जब स्त्री और पुरुष के बीच के अंतर को जरूरत से ज्यादा महत्त्व देना बंद कर दिया जाएगा. सैक्सुअलिटी जीवन का महज एक छोटा सा हिस्सा है. जैंडर का हमारे जीवन में रोल तो है पर यही सबकुछ नहीं है. यह हमारे जीवन का एक हिस्सा भर है. प्रजनन अंगों को हमारे जीवन में बस एक काम करना होता है, पर इसे पूरा जीवन तो नहीं माना जा सकता. लेकिन फिलहाल मानव आबादी इसी काम को पूरा जीवन बनाने में लगी है. 90 फीसदी आबादी के दिमाग में एक औरत का मतलब कामुकता है. इस सोच को बदलने के लिए ही आधी आबादी आज कटिबद्ध है.

महिलाओं और पुरुषों को 2 अलग प्रजातियां की तरह देखना ठीक नहीं है. अगर हम ने ऐसा किया तो आने वाले समय में अगर संघर्ष हुआ तो एक बार फिर से पुरुषों का वर्चस्व हो जाएगा. अगर फिर से युद्ध के हालात बने तो महिलाओं को चारदीवारी के भीतर जाना होगा.

यहां उन महिलाओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है जो समाज में किसी मुकाम पर पहुंच गई हैं. वे एक बदलाव ला सकती हैं. स्त्री और पुरुष की लड़ाई बनाने के बजाय आधी आबादी को समाज में अपनी काबिलीयत से पहचान बनानी होगी और वह इस में सफल भी हो गई है. कुछ कदम बेशक उसे और चलने हैं, उस के बाद मंजिल उस की मुट्ठी में होगी. महिलाओं ने खुद को सम झना शुरू कर दिया है. वे अपने अस्तित्व को जानने लगी हैं, अपनी शक्ति को पहचानने लगी हैं. नतीजतन समाज में बदलाव की हवा चलने लगी है.

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  बिना डरे बिना घबराए

दुनियाभर में हो रहीं रिसर्च बताती हैं कि औरतें मल्टीटास्किंग होती हैं. अब हर परीक्षा में लड़कियां लड़कों को पीछे छोड़ रही हैं. हर लिहाज से औरतें ज्यादा ताकतवर हैं, लेकिन यह भी एक कड़वी सचाई है कि दुनिया की फौर्च्यून 500 कंपनियों में सिर्फ 4 फीसदी महिलाएं सीईओ हैं. समान वेतन और समान अधिकार तथा काम करने के बेहतर माहौल जैसी चीजों के लिए महिलाएं संघर्ष कर रही हैं. हैरानी की बात है कि इन अधिकारों की बात करने वाली महिलाओं को फेमनिस्ट कह कर नकार दिया जाता है. जरा सोचिए अगर आधी आबादी भी पूरी क्षमता से काम करे तो क्या होगा? नुकसान आधी आबादी का नहीं, पूरी मानवता का हो रहा है.

महिलाएं अब पहले की तरह पुरुषों की परछाईं में दुबक नहीं रहीं बल्कि उस से बाहर  निकल कर नुमाइंदगी कर रही हैं, दिशा दिखा रही हैं और वह भी बिना डरे, बिना घबराए.

भारत-जापान दोस्ती की  मिसाल

अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी दौरे पर आ रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी “रुद्राक्ष” अंतर्राष्ट्रीय सहयोग सम्मेलन केंद्र का उद्घाटन करेंगे. उनके साथ जापान के प्रतिनिधि भी रहेंगे. रुद्राक्ष को जापानी शैली में सजाया जा रहा है. जैपनीज़ फूलों की सुगंध रुद्राक्ष में  फ़ैलेगी. रुद्राक्ष कन्वेंसन सेंटर परिसर में प्रधानमंत्री रुद्राक्ष के पौधे को भी लगाएंगे. कार्यक्रम के दौरान रुद्रक्ष कन्वेंसन सेण्टर में इन्डोजापन कला और संस्कृति की झलक भी दिखेगी. रुद्राक्ष कन्वेंसशन सेण्टर पर बने 3 मिनट के ऑडियो विज़ुअल को भी “रुद्राक्ष ” में प्रधानमंत्री मेहमानों के साथ देखने की संभवना है . प्रधानमंत्री  का  यहां करीब 500 लोगों से संवाद करना भी प्रस्तावित है . संभावना है कि वीडियो फ़िल्म के माध्यम से जापान के प्रधानमंत्री देंगे शुभकामनाएं.  उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बदलते बनारस की तस्वीर दुनिया देखेगी.

सर्व विद्या की राजधानी काशी में धर्म ,अध्यात्म ,कला, संस्कृति और विज्ञान पर  चर्चा होती है, तो इसका सन्देश पूरी दुनिया में  जाता है.

बनारस में संगीत के सुर,लय और ताल की  त्रिवेणी अविरल बहती रहती है. 2015 में वाराणसी को यूनेस्को के ‘सिटीज ऑफ म्यूजिक’ से नवाजा गया था.  शिल्पियों की थाती वाले शहर बनारस ने दुनिया को कला की प्राचीन नमूनों से परिचित कराया है, जिसका कायल पूरा विश्व है.

दुनिया के सबसे प्राचीन और जीवंत शहर काशी को जापान ने भारत से दोस्ती का एक ऐसा नायाब तोहफ़ा रुद्राक्ष के रूप में दिया है ,जहां  आप बड़े म्यूजिक कंसर्न , कांफ्रेंस,नाटक और प्रदर्शनियां  जैसे कार्यक्रम दुनिया के बेहतरीन उपकरणों और सुविधाओं के साथ कर सकेंगे. कन्वेंशन सेंटर की नींव  2015 में उस समय पड़ गई थी, जब जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे  को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी लेकर आए थे.

शिवलिंग की आकृति वाला वाराणसी कन्वेंशन सेण्टर जिसका नाम शहर के मिज़ाज के अनुरूप रुद्राक्ष है. इसमें स्टील के एक सौ आठ रुद्राक्ष के दाने भी लगाए  गए है. जितना खूबसूरत ये देखने में  लग रहा है ,उतनी ही इसकी खूबियां भी है.

सिगरा में ,तीन एकड़ (13196 sq mt ) में ,186 करोड़ की लागत से बने  रुद्राक्ष में 120 गाड़ियों की पार्किंग  बेसमेंट में हो सकती है. ग्राउंड फ्लोर ,और प्रथम तल ,को लेकर हाल होगा जिसमे वियतनाम से मंगाई गई कुर्सियों पर 1200 लोग एक साथ बैठ सकते है. दिव्यांगों के लिए भी दोनों दरवाजो के पास 6 -6 व्हील चेयर का इंतज़ाम है. इसके अलावा शैचालय भी दिव्यांगों फ्रेंडली बनाए गए है.  हाल में बैठने की छमता पार्टीशन से कम या ज़्यादा भी किया जा सकता है. इसके अलावा आधुनिक ग्रीन रूम भी बनाया गया है. 150 लोगों की छमता वाला  दो कॉन्फ्रेंस हाल या गैलरी  भी है. जो दुनिया के आधुनिकतम उपकरणों से सुसज्जित  है. इस  हॉल को भी जरूरत के मुताबिक घटाया और  बढ़ाया जा सकता है.

रुद्राक्ष  को जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी ने फंडिंग  किया है. डिजाइन  जापान की कंपनी ओरिएण्टल कंसल्टेंट ग्लोबल ने  किया है. और निर्माण का काम भी जापान की फुजिता कॉरपोरेशन नाम की कंपनी ने किया है.

रुद्राक्ष में छोटा जैपनीज़ गार्डन बनाया गया है.  110 किलोवाट की ऊर्जा के लिए सोलर प्लांट लगा है.  वीआईपी रूप और उनके आने-जाने  का रास्ता भी अलग से है .

रुद्राक्ष को वातानुकूलित रखने के लिए इटली के उपकरण लगे है.दीवारों पर लगे ईंट भी ताप को रोकते और कॉन्क्रीट के साथ फ्लाई ऐश का भी इस्तेमाल किया गया  है. निर्माण और उपयोग की चीजों को देखते हुए ,ग्रीन रेटिंग फॉर इंटीग्रेटेड हैबिटेट असेसमेंट ( GRIHA ) की और से रुद्राक्ष को  ग्रेडिंग तीन मिली है. रुद्राक्ष में कैमरा समेत सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम है.   आग से भी सुरक्षा के उपकरणों पर भी विशेष ध्यान दिया गया है.

रुद्राक्ष  को जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी ने फण्ड किया है. डिजाइन  जापान की कंपनी ओरिएण्टल कंसल्टेंट ग्लोबल ने ही किया है, और निर्माण का काम भी जापान की फुजिता कॉरपोरेशन नाम की कंपनी ने  किया है. इसका निर्माण  10 जुलाई 2018 को शुरू हुआ था . अब  भारत जापान की दोस्ती का प्रतीक रुद्राक्ष बन कर तैयार हो गया है.

टूट रहे भविष्य के सपने

सरकार ने कोविड-19 के बढ़ते मामलों को देखते हुए 12वीं  कक्षा की परीक्षाओं को स्थगित कर दिया है और 10वीं कक्षा की परीक्षाएं लिए बिना सब के 11वीं कक्षा में भेज दिया है. मातापिता व छात्रों ने थोड़ी राहत की सांस ली है पर यह एक बड़ा बो झ है, जो वर्षों तक कीमत मांगेगा.

12वीं कक्षा की परीक्षाओं का टलना मतलब आगे के प्रवेश बंद. कालेजों, टैक्नीकल इंस्टिट्यूटों, विदेशी कालेजों आदि में सैकड़ों एडमीशनें 12वीं कक्षा की समय पर होने वाली परीक्षाओं पर टिकी हैं. 12वीं कक्षा की परीक्षा न केवल युवाओं के लिए चैलेंज है वरन उन के मांबाप की परीक्षा भी है और बेहद मोटा खर्च भी. यह परीक्षा उन सब के सिर पर सवार रहेगी और खर्च चालू रहेगा. 12वीं कक्षा की परीक्षा महीने 2 महीने बाद होगी और तब तक तैयारी करते रहना होगा.

इस बीच कितनी जगह प्रवेश परीक्षाओं का शैड्यूल है. कुछ पोस्टपोन कर देंगे कुछ नहीं. जब तिथि आएगी तो पता चलेगा कि डेट्स क्लैश कर रही हैं. युवाओं ने पहले फौर्म भर रखे थे यह देख कर कि कोई परीक्षा क्लैश न हो. अब नए सिरे से डेट्स मिलेंगी तो क्लैश तो होंगी ही.

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शिक्षा उद्योग भी अब सब से ज्यादा लाभदायक उद्योगों में आता है, जो बेहद क्रूर और लुटेरा है. इस में मांग ज्यादा है, सप्लाई कम. इसलिए हर व्यापारी अपने नियम बनाने में स्वतंत्र है बिना दूसरों की चिंता किए, बिना यह सोचे कि यदि कोविड-19 के कारण डेट्स क्लैश कर रही हैं या युवा परीक्षा में आ नहीं सकते तो क्या करना है. हर व्यापारी को खुद की कमाई की लगी है और हर मांबाप की जेब खाली हो रही है.

यही नहीं यदि कहीं 1 साल बरबाद हो गया तो जीवनभर का रास्ता हो सकता बंद हो जाए. हर संस्थान अपने नियम बनाता है और अपनी सुविधा के अनुसार उन्हें बदलेगा.

पिछले टाइमटेबल के अनुसार युवाओं ने कोर्स चुन लिए थे पर अब सब गड़बड़ हो जाएगा और कोई किसी की नहीं सुनेगा. युवाओं पर कोविड-19 से ज्यादा कहर शिक्षण संस्थानों के नियमों व हठधर्मी का वार होगा. कोविड-19 से तो वे बच निकलेंगे पर यह दुविधा उन्हें ले डूबेगी.

चूंकि शिक्षण संस्थानों में सीटों की सप्लाई मांग से कम है, यदि कहीं से कोई आदेश आ भी गया कि शिक्षण संस्थान लचीलापन दिखाएं, युवा बिना परीक्षाओं में बैठे सीटें खो देंगे, क्योंकि और उन्हें पा लेंगे. जो एक बार घुस गया, उसे निकालना मुश्किल भी है, सही भी नहीं है.

युवाओं के प्रेमप्रसंग भी मार खाएंगे. एक तो कोविड-19 की वजह से मिलनाजुलना कम हो गया ऊपर से 12वीं कक्षा ही नहीं बीए, एमए आदि हर तरह की परीक्षाओं के टल जाने के कारण नौकरी कर घर बसाने के सपने चूर होने लगेंगे.

कोविड-19 की एक मार उन निजी संबंधों पर पड़ेगी, जिन में सरकारी दखल कम से कम सीधे तौर पर तो नहीं है.

एक छोटी सी बीमारी कितना बड़ा कहर ढा सकती है यह आज की पीढ़ी को पता चलेगा. यह यूरोप ने 1939 से 1945 में जो सहा या वियतनाम व कंबोडिया ने 60-70 के दशक में सहा या सीरियाई आज सह रहे हैं, उस जैसा दर्द दे रहा है. बस फर्क इतना है कि खून नहीं बह रहा, पैसे की लूट भी हो रही है, मौतें भी हो रही हैं और भविष्य के सपने भी टूट रहे हैं.

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अपने ऊपर विश्वास करो सारे सपने सच होंगे: अलीशा अब्दुल्ला

चेन्नई की 29 साल की अलीशा अब्दुल्ला भारत की पहली और एकमात्र सुपर बाइक रेसर हैं. यही नहीं वह फास्टेस्ट वुमन कार रेसर भी हैं. मशहूर बाइक रेसर आर ए अब्दुल्ला की बेटी अलीशा बचपन से ही रेसिंग की ओर आकर्षित थी. 9 साल की उम्र में अलीशा गो-कार्टिंग के लिए तैयार हो गयी थी. 11  साल की होने तक उन्हों गो-कार्टिंग की बहुत सी रेस जीती. 13 साल की उम्र में उन्होंने एमआरएफ राष्ट्रीय गो-कार्टिंग चैम्पियनशिप जीत कर सब को चौंका दिया. 2004  में वह जेके टायर नेशनल रेसिंग चैम्पियनशिप में पांचवें स्थान पर पहुंचने में कामयाब रही. अब उन के पिता ने उन्हें सुपर बाइक रेसिंग में हिस्सा लेने को प्रोत्साहित किया. इसी के साथ अलीशा के सपनों को नई उड़ान मिल गई.आज वह अपनी बाइक और कार रेसिंग टीम रखने वाली भारत की सब से कम उम्र की लड़की है. इस साल वह कार और बाइक्स के नेशनल चैंपियन शिप के लिए रेसिंग करेंगी.

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आप की सफलता का राज क्या है?

मेरी सफलता का राज हार्ड वर्क है . मैं सब से यही बोलती हूं कि अपना फोकस केवल अपने मुकाम पर रखो. देर से ही सही पर सफलता जरूर मिलेगी.

आप के अंदर ऐसी कौन सी इनर स्ट्रेंथ है जो आप को यह सब करने को प्रेरित करती है?

मेरा अपने ऊपर विश्वास ही मेरी इनर स्ट्रेंथ है जो मुझे यह सब करने को प्रेरित करती है.

एक बेहतर महिला सुपर बाइक रेसर बनने के लिए क्या क्वालिटीज़ होने जरुरी हैं?

सब से पहले आप के पास अच्छा फंड्स बैकअप होना चाहिए क्यों कि इस प्रोफेशन में सब से ज्यादा पैसे लगते है. एक नार्मल रेस में कम से कम 5 -10 लाख का खर्च होता है. जाहिर है एक सामान्य वर्ग का व्यक्ति इस प्रोफेशन को आसानी से नहीं अपना सकता. इस के साथ ही फिटनेस भी जरुरी है. मैं रोज नियमित रूप से 3 घंटे वर्कआउट करती हूं.

क्या इस फील्ड में भी महिलाओं के साथ भेदभाव होते हैं?

हां जी बिलकुल होते हैं. कई लोगों का मेल ईगो जो हर्ट होता है.

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आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देना चाहेंगी?

आज में जो भी हूं अपने पिता की वजह से हूं. उन्होंने मुझे मोटर स्पोर्ट्स में 8 साल की उम्र से डाल दिया था और फिर मुझे हार्ड कोर ट्रेनिंग दे कर अलीशा अब्दुल्ला बनाया.

आप की जिंदगी का सब से खूबसूरत पल कौन सा था ?

मेरी जिंदगी का सब से खूबसूरत पल वह था जब मुझे मोटर स्पोर्ट्स की पहली महिला के तौर पर प्रेसिडेंट द्वारा अवार्ड दिया गया था.

समाज में लगातार हो रहे अपराधों के सन्दर्भ में क्या कहेंगी?

हम लोग इंसान हैं पर आजकल के समय में इंसानियत ख़त्म हो रही है. मुझे डर लगता है कि आने वाले जेनेरशन पर इस का कैसा प्रभाव पड़ेगा.

एक स्त्री के तौर पर आगे बढ़ने के क्रम में क्या आप को कभी असुरक्षा का एहसास हुआ ?

नहीं मुझे कभी असुरक्षा महसूस नहीं हुई. क्यों कि मेरे मेंटोर, मेरे पिता हमेशा मेरे साथ थे.

खाली समय में क्या करती हैं?

मुझे कुकिंग करना बहुत ज्यादा पसंद है. खाली समय में मैं कुकिंग करती हूँ.

अपने परिवार के बारे में बताइए. घर वालों का कितना सपोर्ट मिलता है

मेरे मौम डैड ने ही मेरे सपने पूरे किये हैं. उन की वजह से ही आज लोग मुझे अलीशा अब्दुल्ला के रूप में जानते हैं.

आप की नजर में फैशन क्या है?

फैशन का अर्थ है आप के जीने का तरीका.

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महिलाओं और लड़कियों को क्या सलाह देना चाहेंगी?

मैं महिलाओं को यही कहना चाहती हूँ कि अपने ऊपर विश्वास करो सारे सपने सच होंगे.

कोई सपना जो पूरा करना करना बाकी है?

मैं हिंदुस्तानी महिलाओं के लिए मिसाल बनना चाहती हूं. मेरे अकादमी अलीशा अब्दुल्ला में सिर्फ महिलाओं को कम से कम पैसों में रेसिंग ट्रेनिंग दी जाती है. उन्हें एक बड़े प्लेटफार्म पर परफौर्म करने का मौका भी दिया जाता है.

edited by-rosy

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