इनफर्टिलिटी के दौर से गुजर रहे अपने सहकर्मी को कैसे कर सकते हैं सपोर्ट?

आज हर दस में से एक व्‍यक्ति प्रजनन संबंधी समस्‍या का सामना कर रहा है, और किसी भी कार्यस्‍थल पर यह एक बहुत संवेदनशील मामला हो गया है. इनफर्टिलिटी के दौर से गुजर रहे लोगों को काफी तनाव एवं चिंता का सामना करना पड़ता है. जब इसके साथ-साथ व्‍यक्ति फर्टिलिटी का उपचार कराने से होने वाले शारीरिक दबाव को भी झेलता है तो उसकी उत्‍पादकता, ऊर्जा, और मानसिक सेहत पर भी बुरा असर पड़ता है.

डॉ डायना दिव्या क्रैस्टा,  मुख्य मनोवैज्ञानिक, नोवा आईवीएफ फर्टिलिटी सेंटर की बता रही हैं ऎसे उपाय जो इनफर्टिलिटी के दौर से गुजर रहे अपने सहकर्मी को सपोर्ट कर सके.

डायना दिव्या क्रैस्टा का कहना है कि -सांस्‍कृतिक रूप से, इनफर्टिलिटी और प्रेग्‍नेंसी लॉस को लेकर काफी वर्जनाएँ हैं. दुर्भाग्‍यवश, कपल्‍स जिस पीड़ा को सहते हैं, वह सामाजिक स्‍तर पर वास्‍तविक ‘लॉस’ के तौर पर वाकई प्रमाणित नहीं है. लेकिन यदि कोई आपके बेहद करीब है, जैसे कि आपका दोस्‍त या सहकर्मी जो कुछ इसी तरह के दौर से गुजर रहा है, तो हमें नीचे दी गई कुछ बातें ध्‍यान में रखनी चाहिए :

ध्यान दें और धैर्यपूर्वक सुनें-

सबसे पहले उनकी बात सुनें, उन्‍हें गले लगायें और उनके दिमाग में क्‍या चल रहा है, उसे आपके साथ शेयर करने का मौका दें.  खुली बातचीत सहयोगी एवं समावेशी कार्यस्‍थल की नींव है. अपने वर्कफोर्स को उन चिकित्‍सा स्थितियों को समझने पर जोर देने और सहयोग देने के लिए प्रोत्‍साहित करें जिनकी वजह से नियोक्‍ताओं को अधिक लचीलापन या अनुकूलन का अवसर प्रदान करने की जरूरत पड़ सकती है. कर्मचारियों पर ध्‍यान देने वाली संस्‍कृ‍ति का निर्माण करें जहाँ कर्मचारी प्रजनन संबंधी समस्‍याओं के बारे में खुलकर बातचीत और अपने दुख-दर्द आपस में साझा कर सकें.

संस्‍कृति में बदलाव शिक्षा पर निर्भर है-

सहयोग देने से पहले (या नीतियाँ बनाने से पहले), उन उपचारों के बारे में पूरी जानकारी पाना महत्‍वपूर्ण है जिन्‍हें कर्मचारी ले रहा है. इनफर्टिलिटी को किसी दूसरी स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍या से अलग नहीं करना चाहिए और न इससे डरना चाहिए. इसमें उपचार की जरूरत होती है और संस्‍थानों को इनफर्टिलिटी के सम्बन्ध में भी वैसे ही रिस्‍पॉन्‍स करना चाहिए जैसे वह दूसरी स्‍वास्‍थ्‍य स्थितियों को लेकर करते हैं.

उपचार की अलग-अलग प्रतिक्रिया-

हम आमतौर पर ‘फर्टिलिटी ट्रीटमेंट’ को ‘आईवीएफ’ (इन विट्रो फर्टि‍लाइजेशन) से जोड़कर देखते हैं, लेकिन इसमें कुछ दूसरे प्रोटोकॉल भी होते हैं जैसेकि ‘ओवुलेशन इंडक्‍शन’ या ‘आइयूआइ’ या फिर ‘सरोगेसी’ जिनमें चीरफाड़ या और कभी-कभी जटिल हस्‍तक्षेप करने पड़ते हैं. प्रत्‍येक आइवीएफ साइकल हर दूसरे साइकल से एकदम अलग हो सकता है क्‍योंकि हर व्‍यक्ति उपचार को लेकर अलग-अलग तरह से प्रतिक्रिया देता है.

लचीले बने रहना ही कुंजी है-

कई लोग परिवार को बढ़ाने को एक सीधी प्रक्रिया के तौर पर नहीं देखते हैं. हो सकता है कि, कर्मचारी अपनी इनफर्टिलिटी जाँच का भले ही सीधे खुलासा नहीं करें,  उन्‍हें अपने खुद के (या पार्टनर के) इलाज के लिए काम करने के ज्‍यादा लचीले शेड्यूल या अस्‍थायी इंतजाम पर चर्चा करने की जरूरत भी महसूस हो सकती है. व्‍यक्ति के रूटीन में बदलावों (या टेलीकम्‍युटिंग) की अनुमति देनी चाहिए ताकि वह अपने समय को उपचार की जरूरतों तथा बार-बार फर्टिलिटी क्‍लीनिक जाने के अनुसार अस्‍थायी रूप से समायोजित कर सके. इससे कर्मचारी को काम और जिंदगीके बीच बेहतर संतुलन बनाने में मदद मिल सकती है और उसे अपने संस्‍थान से लगाव का अहसास होता है तथा वह अपनी पेशागत भूमिकाओं एवं कर्तव्‍यों के लिए प्रशंसा मिलती है.

सपोर्ट ग्रुप्‍स का निर्माण करें-

फर्टिलिटी का इलाज करा रहे रोगियों का आमतौर पर यह मानना होता है कि उन्‍हें वही लोग समझ सकते हैं जो वाकई इस अनुभव से गुजर रहे हैं. चर्चा के लिए ग्रुप बनाने का सुझाव दें और निजी तौर पर सहयोग प्रदान करें या फिर रोगियों को सपोर्ट करने के लिए उनके मौजूदा ग्रुप में शामिल हों तथा गर्भधारण की कोशिश कर रहे कपल्‍स की भावनात्‍मक सेहत सुधारने की दिशा में काम करें. ग्रुप सभी कर्मचारियों के लिए खुला होना चाहिए, इनमें चिकित्‍सा संबंधी चुनौती का सामना कर रहे रोगी से लेकर, बच्‍चे को खोने का दर्द झेल रहे लोग और इनफर्टिलिटी का सामना कर रहे कपल्‍स शामिल हो सकते हैं. इस तरह के ग्रुप्‍स अलगाव के अहसास को दूर करने में मदद कर सकते हैं और लोगों को उनकी जिंदगी को फिर से पटरी पर लाने के नजरिये को बहाल करने में मददगार हो सकते हैं. ये ग्रुप्‍स कपल्‍स को आश्‍वासन दे सकते हैं कि जिंदगी के इस कठिन दौर में वे अकेले नहीं हैं.

सहयोग प्रदान करें

इनफर्टिलिटी के कारण महिला और पुरुष मैनेज करने योग्‍य तनाव से मैनेज नहीं किये जाने वाले तनाव की ओर बढ़ सकते हैं. या फिर उन्‍हें गंभीर मानसिक बीमारियाँ भी हो सकती हैं जैसे चिंता, उदासी और यहाँ तक कि वे सदमे का शिकार भी हो सकते हैं. अपने कर्मचारी पर नजर रखना बहुत महत्‍वपूर्ण है, और यह उन तक पहुँचने के योग्य बात है, जैसे कि एक कर्मचारी सहायता कार्यक्रम या परामर्शी सेवा उपयोगी हो सकती है.

हमें बातचीत के सभी मार्ग भी खुले रखने चाहिए  ताकि हर किसी को ऐसा लगे कि उसे पूरा सपोर्ट मिल रहा है. जैसे कि, कर्मचारी को हर सप्‍ताह एक ईमेल भेजकर उसकी जानकारी ले सकते हैं या फिर साप्‍ताहिक रूप से आमने-सामने बैठकर बात कर सकते हैं.

अगर आपके संगठन में कई कर्मचारियों का उपचार चल रहा है तो उनमें से उन सभी कर्मचारियों को खोजने की कोशिश करें जिन्‍हें नेटवर्क के जरिए एक-दूसरे के सपोर्ट की आवश्यकता है.

ऐंडोमैट्रिओसिस से बढ़ता बांझपन का खतरा

ऐंडोमैट्रिओसिस गर्भाशय से जुड़ी एक समस्या है. यह समस्या महिलाओं की प्रजनन क्षमता को सर्वाधिक प्रभावित करती है, क्योंकि गर्भधारण करने और बच्चे को जन्म देने में गर्भाशय की सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. कई महिलाओं में यह समस्या अत्यधिक गंभीर हो शरीर के दूसरे अंगों को भी प्रभावित करती है. वैसे आधुनिक दवा और उपचार के विभिन्न विकल्पों ने दर्द और बांझपन दोनों से राहत दिलाई है. ऐंडोमैट्रिओसिस का यह अर्थ नहीं है कि इस से पीडि़त महिलाएं कभी मां नहीं बन सकतीं, बल्कि यह है कि इस के कारण गर्भधारण करने में समस्या आती है.

क्या है ऐंडोमैट्रिओसिस

ऐंडोमैट्रिओसिस गर्भाशय की अंदरूनी परत की कोशिकाओं का असामान्य विकास होता है. यह समस्या तब होती है जब कोशिकाएं गर्भाशय के बाहर विकसित हो जाती हैं. इसे ऐंडोमैट्रिओसिस इंप्लांट कहते हैं. ये इंप्लांट्स आमतौर पर अंडाशय, फैलोपियन ट्यूब्स, गर्भाशय की बाहरी सतह पर या आंत और पैल्विक गुहा की सतह पर पाए जाते हैं. ये वैजाइना, सरविक्स और ब्लैडर पर भी पाए जा सकते हैं. बहुत ही कम मामलों में ऐंडोमैट्रिओसिस इंप्लांट्स पैल्विस के बाहर लिवर पर या कभीकभी फेफड़ों अथवा मस्तिष्क के आसपास भी हो जाते हैं.

ऐंडोमैट्रिओसिस के कारण

ऐंडोमैट्रिओसिस महिलाओं को उन के प्रजनन कालके दौरान प्रभावित करता है. इस के ज्यादातर मामले 25 से 35 वर्ष की महिलाओं में देखे जाते हैं. लेकिन कई बार 10-11 साल की लड़कियों में भी यह समस्या होती है. मेनोपौज की आयु पार कर चुकी महिलाओं में यह समस्या बहुत कम होती है. विश्व भर में करोड़ों महिलाएं इस से पीडि़त हैं. जिन महिलाओं को गंभीर पैल्विक पेन होता है उन में से 80% ऐंडोमैट्रिओसिस से पीडि़त होती हैं. इस के वास्तविक कारण पता नहीं हैं. हां, कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि ऐंडोमैट्रिओसिस की समस्या उन महिलाओं में अधिक है, जिन का बौडी मास इंडैक्स (बीएमआई) कम होता है. बड़ी उम्र में मां बनने वाली या कभी मां न बनने वाली महिलाओं में भी यह समस्या हो सकती है. इस के अलावा जिन महिलाओं में पीरियड्स जल्दी शुरू हो जाते हैं या मेनोपौज देर से होता है, उन में भी इस का खतरा बढ़ जाता है. इस के अलावा आनुवंशिक कारण भी इस में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

ऐंडोमैट्रिओसिस के लक्षण

ज्यादातर महिलाओं में ऐंडोमैट्रिओसिस का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता, लेकिन जो लक्षण दिखाई देते हैं उन में पीरियड्स के समय अत्यधिक दर्द होना, पीरियड्स या अंडोत्सर्ग के समय पैल्विक पेन ऐंडोमैट्रिओसिस का एक लक्षण है. लेकिन यह सामान्य महिलाओं में भी हो सकता है. इस दर्द की तीव्रता हर महीने बदल सकती है और अलगअलग महिलाओं में अलगअलग हो सकती है.

पैल्विक क्षेत्र में दर्द होना यानी पेट के निचले भाग में दर्द होना और यह दर्द कई दिनों तक रह सकता है. इस से कमर और पेट में दर्द भी हो सकता है. यह पीरियड शुरू होने से पहले हो सकता है और कई दिनों तक चल सकता है. मल त्यागने और यूरिन पास करने के समय दर्द हो सकता है. यह समस्या अधिकतर पीरियड्स के समय अधिक होती है. पीरियड्स के समय अत्यधिक रक्तस्राव होना, कभीकभी पीरियड्स के बीच में भी रक्तस्राव होना, यौन संबंध के दौरान या बाद में दर्द होना, डायरिया, कब्ज और अत्यधिक थकान होना. छाती में दर्द या खांसी में खून आना अगर ऐंडोमैट्रिओसिस फेफड़ों में है, सिरदर्द और चक्कर आना अगर ऐंडोमैट्रिओसिस मस्तिष्क में है.

रिस्क फैक्टर

कई कारक ऐंडोमैट्रिओसिस की आशंका बढ़ा देते हैं जैसे:

  1. कभी बच्चे को जन्म न दे पाना.
  2. 1 या अधिक निकट संबंधियों (मां, मौसी, बहन) को ऐंडोमैट्रिओसिस होना.
  3. कोई और मैडिकल कंडीशन जिस के कारण शरीर से मैंस्ट्रुअल फ्लो का सामान्य मार्ग बाधित होता है.
  4. यूरिन की असामान्यता.

ऐंडोमैट्रिओसिस और इनफर्टिलिटी

जिन महिलाओं को ऐंडोमैट्रिओसिस है, उन में से 35 से 50% महिलाओं को गर्भधारण करने में समस्या होती है. इस के कारण फैलोपियन ट्यूब्स बंद हो जाती हैं, जिस से अंडाणु और शुक्राणु का निषेचन नहीं हो पाता है. कभीकभी अंडे या शुक्राणु को भी नुकसान पहुंचता है. इस से भी गर्भधारण नहीं हो पाता. जिन महिलाओं में यह समस्या गंभीर नहीं होती है. उन्हें गर्भधारण करने में अधिक समस्या नहीं होती है. डाक्टर सलाह देते हैं कि जिन महिलाओं को यह समस्या है उन्हें बच्चे को जन्म देने में देर नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्थिति समय के साथ अधिक खराब हो जाती है.

पहली बार ऐंडोमैट्रिओसिस का पता ही तब चला जब कुछ महिलाएं बांझपन का उपचार करा रही थीं. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 25 से 50% बांझ महिलाएं ऐंडोमैट्रिओसिस की शिकार होती हैं, जबकि 30 से 50% महिलाएं, जिन्हें ऐंडोमैट्रिओसिस होता है वे बांझ होती हैं. सामान्य तौर पर संतानहीन दंपतियों में से 10% का कारण ऐंडोमैट्रिओसिस होता है. बांझपन की जांच करने के लिए किए जाने वाले लैप्रोस्कोपिक परीक्षण के समय ऐंडोमैट्रिअल इंप्लांट का पता चलता है. कई ऐसी महिलाओं में भी इस का पता चलता है, जिन्हें कोई दर्द अनुभव नहीं होता. ऐंडोमैट्रिओसिस के कारण महिलाओं की प्रजनन क्षमता क्यों प्रभावित होती है, यह पूरी तरह समझ में नहीं आया है, लेकिन संभवतया ऐनाटोमिकल और हारमोनल कारणों के कारण यह समस्या होती है. संभवतया हारमोन और दूसरे पदार्थों के कारण अंडोत्सर्ग, निषेचन और गर्भाशय में भू्रण के इंप्लांट पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

ऐंडोमैट्रिओसिस और कैंसर

कुछ अध्ययनों के अनुसार जिन महिलाओं को ऐंडोमैट्रिओसिस होता है उन में अंडाशय का कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है. यह खतरा उन महिलाओं में अधिक होता है जो बांझ होती हैं या कभी मां नहीं बन पाती हैं.

अभी तक ऐंडोमैट्रिओसिस और ओवेरियन ऐपिथेलियल कैंसर के मध्य संबंधों के स्पष्ट कारण का पता नहीं है. कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि ऐंडोमैट्रिओसिस इंप्लांट ही कैंसर में बदल जाता है. यह भी मानना है कि ऐंडोमैट्रिओसिस आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारणों से भी संबंधित हो सकता है. ये महिलाओं में अंडाशय का कैंसर होने की आशंका भी बढ़ा देते हैं.

डायग्नोसिस

ऐंडोमैट्रिओसिस का पता लगाने के लिए ये टैस्ट किए जाते हैं:

  1. पैल्विक ऐग्जाम: इस में डाक्टर हाथ से पैल्विक का परीक्षण करता है कि कोई असामान्यता तो नहीं है.
  2. अल्ट्रासाउंड: इस से ऐंडोमैट्रिओसिस होने का पता तो नहीं चलता है, लेकिन उस से जुड़े सिस्ट की पहचान हो जाती है.
  3. लैप्रोस्कोपी: यह सुनिश्चित करने के लिए कि ऐंडोमैट्रिओसिस है एक छोटी सी सर्जरी की जाती है, जिसे लैप्रोस्कोपी कहते हैं. इस में ऊतकों के सैंपल भी लिए जाते हैं, जिन की बायोप्सी से पता चल जाता है कि ऐंडोमैट्रिओसिस कहां स्थित है.

उपचार

पीरियड्स के दौरान होने वाले रक्तस्राव और दर्द भरे संभोग को गंभीरता से लें. स्थिति और अधिक गंभीर होने से पहले फर्टिलिटी विशेषज्ञ से मिलें. इस के उपचार के लिए दवा और सर्जरी का उपयोग किया जाता है. हारमोन थेरैपी भी इस के उपचार के लिए उपयोग की जाती है, क्योंकि मासिकधर्म के दौरान होेने वाले हारमोन परिवर्तन के कारण भी यह समस्या हो जाती है. हारमोन थेरैपी ऐंडोमैट्रिओसिस के विकास को धीमा करती है और ऊतकों के नए इंप्लांट्स को रोकती है. ऐंडोमैट्रिओसिस के कारण होने वाले दर्द की समस्या के लिए डाक्टर सर्जिकल उपचार बेहतर मानते हैं तथा बांझपन की समस्या के लिए आईवीएफ तकनीक की सलाह दी जाती है ताकि सामान्य से अधिक नुकसान होने से पहले संतान प्राप्ति की जा सके.

Infertility का इलाज है संभव

दुनियाभर में इनफर्टिलिटी की समस्या से जूझ रहे लोगों की समस्या दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है. भारत में 10 से 15% के बीच शादीशुदा कपल इनफर्टिलिटी की समस्या से जूझ रहे हैं. बता दें कि भारत में 30 मिलियन इंफर्टाइल कपल में से करीब 3 मिलियन कपल हर साल इनफर्टिलिटी का इलाज करवा रहे हैं. जबकि शहरी क्षेत्रों में ये आंकड़ा काफी ज्यादा है. वहां हर 6 में से 1 कपल इनफर्टिलिटी की समस्या से जूझ रहा है और इस के इलाज को ले कर काफी जागरूक है. लेकिन बता दें कि हर समस्या का इलाज संभव है. तभी तो उम्मीद छोड़ चुके कपल भी पेरैंट्स बन पाते हैं.

क्या है इनफर्टिलिटी

वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाईजेशन के अनुसार, इनफर्टिलिटी रिप्रोडक्टिव सिस्टम से जुड़ी हुई बीमारी है. इनफर्टिलिटी शब्द का इस्तेमाल तब किया जाता है, जब कपल बिना कोई प्रोटैक्शन इस्तेमाल लिए एक साल से ज्यादा समय से प्लान कर रहे हों, लेकिन फिर भी कंसीव करने में दिक्कत आ रही हो. इनफर्टिलिटी का कारण सिर्फ महिलाएं ही नहीं, बल्कि पुरुष भी होते हैं. अकसर महिलाओं में इस का कारण फैलोपियन ट्यूब का ब्लौक होना, अंडे नहीं बनना, अंडों की क्वालिटी खराब होना, थाईराइड होना, प्रैग्रैंसी हारमोंस का संतुलन बिगड़ना, पीसीओडी यानि पोलिसिस्टिक औवरियन सिंड्रोम आदि के कारण होता है, जिस से मां बनने में दिक्कत आती हैं.

वहीं पुरुषों में स्पर्म काउंट कम होना, उन की क्वालिटी सही नहीं होना व उन की मोटेलिटी यानि वे कितना ऐक्टिवली वर्क कर पाते हैं ठीक नहीं होती तब भी पार्टनर को कंसीव करने में दिक्कत होती है. लेकिन परेशान होने से नहीं बल्कि इनफर्टिलिटी के ट्रीटमैंट से आप की समस्या का समाधान होगा.

क्या है इस का निदान

मासिकधर्म को सामान्य करना:

चाहे बात  नार्मल तरीके की या फिर किसी ट्रीटमैंट से, डाक्टर्स सब से पहले आप के मासिकधर्म को नार्मल करने की कोशिश करते हैं, ताकि आप के हारमोंस नार्मल हो सकें और आप को कंसीव करने में कोई दिक्कत न आए. साथ ही आप के ओवुलेशन पीरियड को ट्रैक करने में आसानी हो. ऐसे में हैल्दी ईटिंग हैबिट्स व दवाओं के जरीए इसे सामान्य करने की कोशिश की जाती है.

हारमोंस के संतुलन को ठीक करना:

कंसीव करने के लिए जरूरी हारमोंस जैसे एफएसएच, जो ओवरीज में अंडों को बड़ा होने में मदद करता है, जिस से ऐस्ट्रोजन का उत्पादन बढ़ जाता है और फिर जो शरीर में एलएच हारमोंस की वृद्धि का संकेत देता है. जिस से सफलतापूर्वक ओवुलेशन होने के साथसाथ कंसीव करने में आसानी होती है. ऐसे में चाहे आप आईयूआई यानि इंट्रायूटरिन इनसेमिनेशन करवाएं या फिर इनविट्रो फर्टिलाइजेशन, दवाओं व इन्फेक्शन के जरीए उसे ठीक किया जा सकता है. इस में हैल्दी ईटिंग हैबिट्स भी काफी सहायक सिद्ध होती हैं.

अंडों को परिपक्व बनाने में मदद:

कुछ मामलों में देखा जाता है कि अंडे बनते तो हैं लेकिन मैच्योर हो कर फूटते नहीं हैं, जिस से कंसीव होने में दिक्कत होती है. ऐसे में दवाओं के जरीए हैल्दी ओवुलेशन करवाने की कोशिश की जाती हैं, ताकि आप का ट्रीटमैंट सफल हो कर आप पेरैंट्स बनने के सपने को पूरा कर सकें.

बंद ट्यूब को खोलना:

अगर आप की दोनों ट्यूब्स बंद हैं या फिर कोई एक, तो डाक्टर लैप्रोस्कोपी, हिस्ट्रोस्कोपी के जरीए उसे ओपन करते हैं. साथ ही अगर आप को सिस्ट की प्रौब्लम है, जो कंसीव करने में बाधा बनती है, तो डाक्टर सर्जरी के जरीए ही इसे रिमूव करते हैं, ताकि कंसीव करने में आसानी हो सके.

डाक्टर का कहना है कि इनविट्रो फर्टिलाइजेशन में महिला के अंडे व पुरुष के स्पर्म को ले कर प्रयोगशाला में फर्टीलाइज कर के महिला के यूटरस में डाला जाता है. इस प्रक्रिया के दौरान पूरी जांच, दवाओं व इंजैक्शन का सहारा लिया जाता है, ताकि किसी भी तरह की कोई दिक्कत न हो और पहले ही प्रयास में इसे सफल किया जा सके. लेकिन इस के लिए अनुभवी डाक्टर व दवाइयों का होना बहुत जरूरी होता है.

इन सब चीजों के अलावा आपको अपने लाइफस्टाइल में भी बदलाव लाने की जरूरत होगी.

Mother’s Day Special: जीवन पर हावी तो नहीं बांझपन

कुछ महिलाओं में अचानक प्रैगनैंसी जैसे लक्षण नजर आने लगते हैं जैसे माहवारी चक्र का बाधित होना, स्तनों में दूध बनना, कामेच्छा कम होना आदि. असल में इस का संबंध एक ऐसी स्थिति से होता है, जिसे हाइपरप्रोलैक्टिनेमिया कहा जाता है. इस में खून में प्रोलैक्टिन हारमोन का स्तर सामान्य से अधिक हो जाता है. ऐस्ट्रोजन के प्रोडक्शन में बड़े स्तर पर हस्तक्षेप होने से माहवारी चक्र में बदलाव आने लगता है.

प्रोलैक्टिन का मुख्य काम गर्भावस्था के दौरान स्तनों को और विकसित करने, दूध पिलाने के लिए उन्हें उभारने और दूध बनाने का होता है. वैसे किसी महिला के प्रैगनैंट न होने के दौरान भी यह हारमोन कम मात्रा में खून में घुला रहता है. लेकिन प्रैगनैंसी खासतौर से बच्चे के जन्म के बाद इस का स्तर काफी बढ़ जाता है. इस स्थिति में 75% से ज्यादा महिलाएं प्रैगनैंट न होने के बावजूद दूध उत्पन्न करने लगती हैं.

पुरुषों में भी प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ने से कामवासना में कमी, नपुंसकता, लिंग में पर्याप्त तनाव न आना और स्तनों का आकार बढ़ना जैसी समस्याएं सामने आने लगती हैं. टेस्टोस्टेरौन का स्तर कम होना भी इसी स्थिति के बाद का एक परिणाम है. अगर ऐसी स्थिति में इलाज न कराया जाए, तो शुक्राणुओं की गुणवत्ता घटने लगती है और वे ज्यादा देर जीवित भी नहीं रह पाते हैं. इस के चलते उन के निर्माण में गड़बड़ी भी आने लगती है.

प्रसव या गर्भधारण करने की उम्र में महिलाओं में यह ज्यादा प्रचलित है. हालांकि इस में महिलाओं की प्रासंगिक स्थिति सामान्य ही बनी रहती है. ऐसी महिलाएं, जिन का ओवेरियन रिजर्व अच्छा हो, उन्हें भी माहवारी में अनियमितता का सामना करना पड़ सकता है और यह एक तरह से इस डिसऔर्डर के आगमन का संकेत होता है.

बांझपन का कारण

खून में प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ने से प्रजनन क्षमता पर असर पड़ता है. इस में या तो पिट्यूटरी स्टाक कंप्रैस हो जाती है या फिर डोपामाइन का स्तर घट जाता है अथवा प्रोलैक्टिनोमा (पिट्यूटरी ऐडीनोमा का एक प्रकार) का जरूरत से ज्यादा प्रोडक्शन होने लगता है, जो हाइपोथैलेमस से गोनाडोट्रोपिन को रिलीज करने वाले हरमोरन (जीएनआरएच) के स्राव को रोकता है.

गोनाडोट्रोपिन को रिलीज करने वाले हरमोन (जीएनआरएच) के स्तर में कमी आने की वजह से ल्यूटीनाइजिंग हारमोन (एलएच) और फौलिकल स्टिम्युलेटिंग हारमोन (एफएसएच) के स्राव में भी कमी आने लगती है. परिणामस्वरूप बां झपन का सामना करना पड़ता है.

बांझपन की स्थिति

एक बार जब प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ जाता है, तो महिलाओं में माहवारी कम होने लगती है और खून में ऐस्ट्रोजन का स्तर घटने से अनियमितता के साथसाथ बां झपन की स्थिति भी पैदा होने लगती है. कुछ मामलों में माहवारी के प्रवाह में बदलाव इमेनोरिया के रूप में भी देखने को मिलता है, जिस में प्रजनन क्षमता वाली उम्र में भी माहवारी कम होने लगती है. कई बार तो प्रैगनैंट न होने या किसी मैडिकल हिस्ट्री की वजह से भी स्तनों में दूध बनाने लगता है और उन में दर्द भी महसूस होता है क्योंकि प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ने और कामेच्छा की कमी होने के साथ ही योनी में सूखापन आने से स्तनों के टिशू भी चेंज होने लगते हैं.

महिलाओं के उलट पुरुषों में माहवारी जैसा कोई भरोसेमंद लक्षण नजर नहीं आने की वजह से इस के वास्तविक कारण का पता लगाना बेहद मुश्किल होता है. उन में धीरेधीरे कामेच्छा की कमी आने, लिंग में पर्याप्त तनाव न आने, प्रजनन क्षमता में कमी आने और स्तनों का आकार बढ़ने जैसे लक्षण जरूर नजर आ सकते हैं. मगर कई बार ये कारक भी आसानी से नजर नहीं आते और उस की वजह से वास्तविक कारणों की पहचान नहीं हो पाती है.

महिलाओं में इस के संबंधित परिणाम

इस स्थिति में जैसे ही अंडाशय से ऐस्ट्रोजन का प्रोडक्शन प्रभावित होता है, बां झपन की संभावना बढ़ने के साथ ही ऐस्ट्रोजन की कमी के कारण बोन मिनरल डैंसिटी बीएमडी भी घटने लगती है और ओस्टियोपोरोसिस होने का खतरा भी बढ़ जाता है. ऐस्ट्रोजन हार्ट को बीमारियों से बचाने में भी बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए इस के स्तर में असंतुलन पैदा होने से आगे चल कर हार्ट से जुड़ी बीमारियां होने का खतरा भी पैदा हो जाता है. पिट्यूटरी ट्यूमर की वजह से प्रोलैक्टिन का जरूरत से ज्यादा प्रोडक्शन होने के कारण सिर में तेज दर्द और नजर कमजोर होने के साथसाथ अन्य हारमोंस के प्रोडक्शन में भी कमी आ जाती है, जिस के चलते हाइपरथायरोडिज्म हो सकता है, जो बां झपन के एक और कारण के रूप में सामने आता है.

कैसे करें डायग्नोज

इस कंडीशन को डाइग्नोज करने के लिए सब से पहले तो मरीज की मैडिकल हिस्ट्री देख कर यह पता लगाया जाता है कि कहीं उसे पहले से ही अस्पष्ट कारणों के चलते स्तनों से दूध का स्राव होने या स्तनों का आकार बढ़ने की समस्या तो नहीं रही है या फिर अनियमित माहवारी अथवा बां झपन की समस्या पहले से तो नहीं रहती है.

पुरुषों में यह पता लगाना जरूरी होता है कि उन की सैक्सुअल फंक्शनिंग कहीं पहले से तो खराब नहीं रही है और स्तनों से दूध का स्राव होने की समस्या कहीं पहले से तो नहीं है. अगर मैडिकल हिस्ट्री से हाइपरप्रोलैक्टिनेमिया के होने का पता चलता है, तो सब से पहले ब्लड टैस्ट के जरीए यह पता लगाया जाता है कि सीरम प्रोलैक्टिन का स्तर कितना है. इस में खाली पेट खून की जांच कराने को प्राथमिकता दी जाती है. अगर सीरम प्रोलैक्टिन का स्तर ज्यादा है, तो फिर आगे अन्य जरूरी टैस्ट करवाए जाते हैं.

आमतौर पर माहवारी न होने की स्थिति में सब से पहले प्रैगनैंसी टैस्ट कराया जाता है. इस के अलावा थायराइड हारमोन के स्तर का पता लगाने के लिए थायराइड के टैस्ट करवाए जाते हैं ताकि यह साफ हो जाए कि मरीज को हाइपरथायरोडिज्म तो नहीं है. अगर प्रोलैक्टिन का स्तर बहुत ज्यादा है, तो उस की वजह से ट्यूमर होने की आशंका भी पैदा हो जाती है. ऐसे में ब्रेन और पीयूष ग्रंथियों का एमआरआई कराने की सलाह भी दी जाती है, जिस में हाई फ्रीक्वैंसी रेडियो तरंगों के जरीए टिशू की इमेज ली जाती है और ट्यूमर के आकार का पता लगाया जाता है.

क्या इलाज संभव है

इलाज का पहला कदम उन प्रमुख कारणों का पता लगाना है, जिन के चलते यह स्थिति पैदा हुई. ये कारण शारीरिक भी हो सकते हैं. कुछ विशेष प्रकार की दवा लेने की वजह से भी ऐसा हो सकता है. इस के अलावा थायराइड या हाइपोथैलिमिक डिसऔर्डर या पिट्यूटरी ट्यूमर या फिर किसी सिस्टेमिक डिजीज की वजह से भी ऐसा हो सकता है.

एक बार जब बीमारी की वास्तविक वजह का पता चल जाता है और किसी ट्यूमर के होने की संभावना खत्म हो जाती है, तो ऐसी दवा के जरीए उपचार शुरू किया जाता है, जो शरीर में प्रोलैक्टिन के स्तर में कमी लाती है. इस से एफएसएच, एलएच और ऐस्ट्रोजन का स्तर फिर से सामान्य होने लगता है. नतीजतन प्रजनन क्षमता फिर से पहले की तरह कायम हो जाती है और माहवारी भी नियमित रूप से होने लगती है.

   -डा. तनु बत्रा

आईवीएफ ऐक्सपर्ट, इंदिरा आईवीएफ हौस्पिटल, जयपुर. 

एक्सपर्ट से जाने मेल फर्टिलिटी 101 और पुरुषों के बांझपन से जुड़ी समस्याएं

बांझपन प्रजनन तंत्र की एक समस्या है जो आपको महिला को गर्भवती करने से रोकती है। आज 7 में से एक कपल को बांझपन की समस्या है, इसका अर्थ है कि पिछले 6 महीने या सालभर में गर्भधारण करने के प्रयास में वे सफल नहीं रहे। इनमें आधे से भी ज्यादा मामलों में पुरुष बांझपन की एक अहम भूमिका होती है. डॉ रत्‍ना सक्‍सेना, फर्टिलिटी एक्‍सपर्ट, नोवा साउथेंड आईवीएफ एंड फर्टिलिटी, बिजवासन की बता रही हैं इसके लक्षण और उपाय.

पुरुष बांझपन के क्या लक्षण होते हैं?

बांझपन अपने आपमें ही लक्षण है। हालांकि, गर्भधारण का प्रयास कर रहे दंपति के मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक नकारात्मक प्रभावों के बारे में बता पाना काफी मुश्किल है। कई बार, बच्चा पैदा करना उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है। बच्चे की चाहत रखने वाले पुरुषों और महिलाओं दोनों में ही अवसाद, क्षति, दुख, अक्षमता और असफलता की भावना आम होती है।

दोनों में से कोई एक या दंपति, जो ऐसी किसी भी भावना से गुजर रहे हैं उन्हें चिकित्सकों जैसे थैरेपिस्ट या साइकेट्रिस्ट से प्रोफेशनल मदद लेनी चाहिए, ताकि वे जीवन के इस मुश्किल दौर से उबर पाएं।

हालांकि, कुछ मामलों में, पहले से मौजूद समस्या, जैसे कोई आनुवंशिक डिस्‍ऑर्डर, हॉर्मोनल अंसतुलन, अंडकोष के आस-पास की फैली हुई नसें या शुक्राणु की गति को रोकने वाली कोई समस्या हो तो उसके संकेत तथा लक्षण इस प्रकार हो सकते हैं:

1.यौन इच्छा का कम हो जाना या इरेक्शन बनाए रखने में समस्या होना (इरेक्टाइल डिसफंक्शन)
2.अंडकोष में दर्द, सूजन या गांठ होना
3. लगातार श्वसन संक्रमण होना
4.खुशबू ना आना
5.शरीर के बालों या चेहरे के बालों का कम हो जाना, साथ ही क्रोमोसोमल या हॉर्मोनल असामान्यताएं
6.स्पर्म काउंट का सामान्य से कम होना

पुरुष बांझपन के क्या कारण हैं
कई सारे शारीरिक और पर्यावरण से जुड़े कारक हैं जोकि आपके प्रजनन पर प्रभाव डाल सकते हैं। उन कारकों में शामिल हो सकते हैं:

एजुस्पर्मिया: शुक्राणु कोशिकाओं का उत्पादन करने में असमर्थता के कारण बांझपन।
ओलिगोस्पर्मिया: कम गुणवत्ता वाले शुक्राणु का उत्पादन।
आनुवंशिक रोग: क्लाइनफेल्टर सिंड्रोम, मायोटोनिक डिस्ट्रोफी, माइक्रोडिलीशन, हेमोक्रोमैटोसिस।
विकृत शुक्राणु: ऐसे शुक्राणु जो अंडे को निषेचित करने के लिये पर्याप्त समय तक जीवित नहीं रह सकते।
बीमारियां: डायबिटीज, ऑटोइम्यून रोग और सिस्टिक फाइब्रोसिस
वैरिकोसेले: एक ऐसी समस्या हैं, जहां आपके अंडकोष की नसें सामान्य से बड़ी होती हैं। इसकी वजह से उसकी गर्मी बढ़ जाती है, जो आपके द्वारा उत्पादित शुक्राणुओं के प्रकार या मात्रा को बदल सकता है।
कैंसर का इलाज: कीमोथैरेपी, रेडिएशन
लाइफस्टाइल से जुड़े विकल्प: शराब, धूम्रपान और नशीली दवाओं के उपयोग सहित मादक द्रव्यों का सेवन।
हॉर्मोनल परेशानियां: हाइपोथैलेमस या पिट्यूटरी ग्रंथियों को प्रभावित करने वाली समस्याएं
प्रोस्टेटेक्टोमी – प्रोस्टेट ग्रंथि को सर्जिकल रूप से हटाना, जो बांझपन, नपुंसकता और असंयम का कारण बनता है।
एंटीबॉडीज – एंटीबॉडीज जो शुक्राणु की गतिविधि को रोकते हैं, उससे अपने साथी के अंडे को निषेचित करने की शुक्राणु की क्षमता कम हो जाती है।

उपलब्ध परीक्षण
आपके चिकित्सक, आपकी मेडिकल हिस्ट्री का मूल्यांकन करते हैं और एक जांच करते हैं। पुरुष बांझपन से जुड़ी अन्य जांचों में शामिल हो सकता है:
सीमन का विश्लेषण- दो अलग-अलग दिनों में स्पर्म के दो नमूने लिए जाते हैं। चिकित्सक, किसी प्रकार की असामान्यता की जांच करने के लिये उस सीमन और स्पर्म तथा एंटीबॉडीज की उपस्थिति की जांच करेंगे। आपके स्पर्म की मात्रा, उसकी गतिशीलता और आकार की भी इस आधार पर जांच होगी।
ब्लड टेस्ट: हॉर्मोन के स्तर को जांचने और अन्य समस्याओं का पता लगाने के लिये ब्लड टेस्ट किए जाते हैं।
टेस्टीक्युलर बायोप्सी: अंडकोष (टेस्टिकल्‍स) के भीतर नलियों के नेटवर्क की जांच करने के लिये एक महीन सुई और एक माइक्रोस्कोप का उपयोग किया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि उनमें कोई शुक्राणु है या नहीं।
अल्ट्रासाउंड स्कैन- प्रजनन अंगों की इमेजिंग देखने के लिये अल्ट्रासाउंड स्कैन किए जाते हैं, जैसे कि प्रोस्टेट ग्रंथि, रक्त वाहिकाएं और स्‍क्रॉटम के अंदर की संरचनाएं।

कौन-कौन से उपचार होते हैं
वेसेक्टॉमी रिवर्सल: इस प्रक्रिया में, सर्जन आपके वास डिफरेंस को फिर से जोड़ देता है, जो स्‍क्रोटल ट्यूब होती है जिसके माध्यम से आपका शुक्राणु आगे बढ़ता है. उच्च क्षमता वाले सर्जिकल माइक्रोस्कोप के माध्यम से देखते हुए, सर्जन सावधानी से वास डिफरेंस के सिरों को वापस एक साथ सिल देता है।

वासोपिडीडिमोस्टोमी: ब्लॉकेज को हटाने की इस प्रक्रिया के लिये, आपके वास डिफरेंस को सर्जरी की मदद से दो हिस्सों में कर दिया जाता है और ट्यूब के आखिरी हिस्से को एक बार फिर जोड़ दिया जाता है. काफी सालों पहले जब सामान्य पुरुष नसबंदी की जाती थी तो इंफेक्शन या इंजुरी की वजह से एपिडीडिमिस या उपकोष में एक अतिरिक्त ब्लॉकेज हो जाता था। उसकी वजह चाहे कोई भी हो, आपके सर्जन एपिडीडिमिस ब्लॉकेज की बायपासिंग करके इस समस्या को सुलझा देंगे.

इंट्रासाइटोप्लास्मिक स्पर्म इंजेक्शन (आईसीएसआई): कृत्रिम प्रजनन तकनीकें उस बिंदु तक आगे बढ़ गई हैं जहां एक एकल शुक्राणु को एक अंडे में शारीरिक रूप से इंजेक्ट किया जा सकता है। इंट्रासाइटोप्लाज्मिक शुक्राणु इंजेक्शन (आईसीएसआई) में, शुक्राणु को एक विशेष कल्चर माध्यम में एक अंडे में इंजेक्ट किया जाता है। पुरुष के शुक्राणु को गर्भाशय ग्रीवा के माध्यम से उसके साथी के गर्भाशय में डालने से पहले एकत्रित किया जाता है, धोया और केंद्रित किया जाता है। इस प्रक्रिया ने पुरुष बांझपन के गंभीर कारकों के उपचार के विकल्पों को भी बदल दिया है। इस तकनीक की वजह से 90% बांझ पुरुषों के पास अब अपनी आनुवंशिक औलाद पाने का मौका है।

इन-विट्रो-फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) – पुरुष बांझपन से जूझ रहे कुछ दंपतियों के लिये इन-विट्रो-फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) एक पसंदीदा उपचार है। आईवीएफ प्रक्रिया के दौरान, गर्भाशय को इंजेक्शन योग्य प्रजनन दवाओं से स्टिम्युलेट किया जाता है, जिसकी वजह से कई सारे अंडे परिपक्‍व होते हैं। जब एग्स पर्याप्त रूप से परिपक्‍व हो जाते हैं तो फिर उन्हें एक सरल प्रक्रिया के द्वारा निकाल लिया जाता है। एक कल्चर डिश में या फिर सीधे हर परिपक्‍व एग में एक सिंगल स्पर्म को इंजेक्ट करके फर्टिलाइजेशन को अंजाम दिया जाता है। इस प्रक्रिया को इंट्रासाइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजेक्शन (ऊपर देखें) के नाम से जाना जाता है। फर्टिलाइजेशन के बाद, गर्भाशय ग्रीवा के माध्यम से डाले गए एक छोटे कैथेटर के माध्यम से दो से तीन भ्रूणों को गर्भाशय में रखने से पहले तीन से पांच दिनों तक भ्रूण के विकास की निगरानी की जाती है।

पीईएसए: यदि आपकी सर्जरी असफल हो जाती है तो एक और सर्जिकल प्रक्रिया, पर्क्यूटेनियस एपिडीडिमल स्पर्म एस्पिरेशन (पीईएसए) की जाती है। इसमें लोकल एनेस्थेसिया देकर एक पतली सुई को एपिडीडिमिस में डाला जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान, स्पर्म को निकाला जाता है और तुरंत ही आईसीएसआई के लिये इस्तेमाल किया जाता है या आगे इस्तेमाल के लिये फ्रीज कर दिया जाता है।

हॉर्मोनल दवाएं- मस्तिष्क में पिट्यूटरी ग्रंथि गोनैडोट्रोपिन हॉर्मोन स्रावित करती है, जो अंडकोष को शुक्राणु पैदा करने के लिए उत्तेजित करती है। कुछ मामलों में इन गोनैडोट्रोपिन के अपर्याप्त स्तर के कारण पुरुष बांझपन होता है। इन हॉर्मोन्स को दवा के रूप में लेने से शुक्राणु उत्पादन बढ़ाने में मदद मिल सकती है।

मनोवैज्ञानिक सेहत पर इनफर्टिलिटी का प्रभाव

इनफर्टिलिटी या बांझपन का इलाज करा रहे दंपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी है. इसके कई कारण है, जिसमें अनुवांशिकता, जीवनशैली का तरीका और सवाईकल म्युकस जैसी समस्याएं, फाइब्रॉयड, एंडोमेट्रियोसिस, पेल्विक इंफ्लेमेटरी जैसी परेशानियां शामिल हैं. प्रजनन का चक्र किशोरावस्था के बाद और बीसवें साल शुरू होता है. 30 की उम्र के बाद, प्रजनन क्षमता कम होने लगती है  और अंडों की संख्या कम होने के साथ-साथ अंडों की गुणवत्ता भी कम होने लगती है. इस तरह की परेशानियां, तनाव और चिंता को बढ़ाती है. इसका हानिकारक प्रभाव रिश्तों और व्यक्तिगत विकास पर पड़ता है. इस बारे में बता रही हैं डायना क्रस्टा, चीफ साइकोलॉजिस्ट, नोवा आईवीएफ फर्टिलिटी.

बांझपन एक चिकित्सा स्थिति है जोकि आपके जीवन के कई पहलुओं को प्रभावित करता है. यह दूसरों के साथ आपके रिश्तों को, जिंदगी को लेकर आपके नजरिये और खुद के लिये आपकी सोच को प्रभावित कर सकता है. आप इन भावनाओं का सामना किस तरह करेंगे, वह आपके व्यक्तित्व और जीवन के अनुभवों पर निर्भर करता है. ज्यादातर लोग परिवार, दोस्तों, चिकित्सा देखभाल करने वालों और मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों के समर्थन से लाभ उठा सकते हैं. शुक्राणु, अंडा, या भ्रूण दान या गर्भकालीन वाहक जैसे बांझपन उपचार विकल्पों पर विचार करते समय, प्रजनन परामर्शदाता की सहायता प्राप्त करना विशेष रूप से सहायक हो सकता है. निम्नलिखित जानकारियां आपको यह फैसला लेने में मदद कर सकती हैं कि फर्टिलिटी संबंधी तनाव के इलाज के लिये या आपके उपचार के विकल्पों का चुनाव करने के लिये आपको प्रोफेशनल मदद की जरूरत है या नहीं.

कब दिखाएं इनफर्टिलिटी काउंसलर को?

पूरी दुनिया में बांझपन और उसके इलाज से भावनात्मक तनाव से गुजरने की वजह से, बांझपन से जूझ रहे दंपतियों को मनोवैज्ञानिक मदद प्रदान करने की सिफारिश की गई. इसके अलावा, कई सारे दंपतियों ने स्वयं भी मनोवैज्ञानिक मदद लेने की इच्छा जाहिर की है. बांझपन को जीवन में होने वाले प्रमुख तनावों में से  सबसे मुख्य कारणों में से एक माना गया है. इसे अक्सर आत्मविश्वास की कमी, वयस्क होने की तरफ कदम बढ़ाने की धारणा में व्यवधान, भविष्य के लिये योजना बनाने में असमर्थता, पहचान और दुनिया को लेकर राय में बदलाव के रूप में परिभाषित किया जाता है. साथ ही व्यक्तिगत, आपसी और सामाजिक रिश्तों में भी बदलाव के रूप में माना जाता है. बांझपन और इसके उपचार से जूझ रहे दंपतियों में तनाव और चिंता का स्तर काफी ज्यादा होता है. वैसे तो तनावपूर्ण स्थितियों में चिंता होना एक सामान्य प्रतिक्रिया है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय शोध में यह बात सामने आई कि आम आबादी की तुलना में बांझ दंपतियों में चिंता का स्तर कहीं ज्यादा होता है. प्रजनन समाधान जैसे एआरटी उपचार-संबंधी अनुभव के परिणाम अक्सर नकारात्मक भाव के रूप में आते हैं. दरअसल, गर्भधारण की अनिश्चितता के साथ-साथ उपचार की विफलताओं को लेकर निराशा की वजह से ऐसा होता है. इसके साथ ही, क्रॉनिक और गंभीर तनाव और मनोवैज्ञानिक बीमारियां, एआरटी उपचार की सफलता को काफी ज्यादा प्रभावित करती है, जिसमें फॉलो-अप संभवत: एक दुष्चक्र बना रही है.

विशिष्ट बांझपन-

तनाव के आयामों में सामाजिक चुनौतियां शामिल हैं (जैसे, अकेलापन; अलगाव महसूस होना; परिवार और दोस्तों के साथ वक्त बिताने में असहजता और तनाव महसूस होना; टिप्पणियों को लेकर संवेदनशीलता और बांझपन के रिमांडर्स), वयस्क के रूप में विकसित होने संबंधी चिंताएं (जैसे, अपनी पहचान पाने के लिये पितृत्व एक जरूरी पड़ाव और जीवन का मुख्य लक्ष्य), भावनात्मक निकटता और यौन सुख में कमी; आत्मविश्वास का कम होना. इसलिये, बांझपन से जूझ रहे दंपतियों के लिये विशेष सहायता समूहों  की जरूरत को काफी महत्व मिला है, खासकर आज के कोविड के समय में.

सहायता समूह किस तरह सहायता करने के तंत्र में मदद कर रहे हैं?

कई बार रोगियों और दंपतियों को उपचार के दौरान एक मनोवैज्ञानिक या थैरेपिस्ट के पास जाने के बारे में पूछा जाता है. हालांकि, बांझपन से जूझ रहे कई दंपति इच्छाओं को पूरा करने के क्रम में, अपनी भावनाएं प्रभावित दंपतियों से साझा करने के लिये आगे आए हैं. ऐसे में सहायता करने वाले कम्युनिटी ग्रुप एकजुट होते हैं और बांझपन के कलंक से बाहर आने में मदद कर सकते हैं. साथ ही इस ग्रुप ने अन्य दंपतियों के साथ समान अनुभवों को जानने का मौका दिया. इससे दंपतियों को यह समझने में मदद मिल सकती है कि बांझपन की समस्या से गुजरने वाले वे अकेले नहीं हैं, साथ ही यह एहसास दिलाया कि उनकी प्रतिक्रियाएं, भावनाएं और संघर्ष सामान्य हैं और इस तरह उनके अकेलेपन को कम किया.

सहायता करने के कई सारे मॉडल्स के साथ, विशेष सपोर्ट ग्रुप, तनाव के उनके कारकों से लड़ने में उनकी मदद करते हैं. सहायक मॉडल, इनफर्टिलिटी संबंधी तनाव के विभिन्न आयामों का प्रबंधन करने के साथ-साथ परेशानी के अनुरूप मदद विकसित करने में अहम भूमिका निभाता है. हालांकि, सपोर्ट ग्रुप भी गहराई में जाकर, आत्मनिरीक्षण, मूल्यांकन कर समस्या के मूल कारण का पता लगाते हैं और फिर मन को शांति मिलती है. रोगी के अनुरूप काउंसलिंग सेंटर्स, विभिन्न रोचक थैरेपीज जैसे फोकस ग्रुप चर्चा, व्यक्तिगत मूल्यांकन के जरिए उन्हें अपने डर, चिंताओं और घबराहट को बाहर निकालने में मदद करते हैं और संतुलित आहार, सोने के सेहतमंद रूटीन के साथ दंपतियों को सेहतमंद दिनचर्या बनाए रखने में मदद करते हैं. साथ ही उनकी मानसिक और शारीरिक समस्याओं को कम करते हैं.

लंबे समय तक इनफर्टिलिटी होने से दोनों ही पार्टनर में अकेलापन और टूट जाने का गंभीर अनुभव हो सकता है. बांझपन जीवन की सबसे निराशानजक समस्या है, जिसका सामना दंपति करते हैं. सेहत से जुड़ी ढेर सारी चर्चाओं और अनिश्चितताओं के साथ, यह बांझपन अधिकांश दंपतियों में भावनात्मक उथल-पुथल पैदा कर सकती है. संयोग से, बांझपन उपचार के लिये नई और ज्यादा प्रभावी तकनीकें और सहयोगी तंत्र, लगातार विकसित हो रहे हैं.

बांझपन का इलाज है न, पढ़ें खबर

जब गर्भनिरोधक के बिना 1 वर्ष तक कोशिश करने के बाद भी स्वाभाविक रूप से कोई विवाहित जोड़ा गर्भधारण करने में अक्षम रहता है तो उसे बां झपन कहा जाता है. भारत में 10 से 15% जोड़े बां झपन से पीडि़त हैं. यह कई कारणों से हो सकता है जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप, थायराइड, मोटापा, हारमोनल समस्याएं और पौलिसिस्टिक  अंडाशय सिंड्रोम पीसीओएस.

इस के अलावा गलत लाइफस्टाइल की आदतें जैसे तंबाकू, शराब और खराब भोजन का सेवन और बिना शारीरिक मेहनत के जीवन जीने के परिणामस्वरूप होता है. यहां यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि बां झपन के कुल मामलों में एकतिहाई मामलों को महिला साथी, एकतिहाई मामलों में पुरुष साथी और बाकी मामलों में दोनों साथी इस में बराबर के भागीदार होते हैं. इसलिए यह सम झना आवश्यक है कि बां झपन सिर्फ एक महिला से जुड़ा मुद्दा नहीं है जैसाकि समाज अभी भी सोचता है.

अकसर देखा गया है कि पुरुष साथी में कई समस्याएं जैसे इरैक्टाइल डिस्फंक्शन यानी नपुंसकता और एजोस्पर्मिया यानी शुक्राणुओं की अनुपस्थिति होती है जिस से बां झपन की स्थिति आ जाती है. कुछ जोड़े समस्या की गहराई में पहुंचे बिना बच्चे पैदा करने की कोशिश करते रहते हैं. उन में से कई बाबाओं से भी संपर्क करते हैं और उन के समाधान के लिए  झाड़फूंक का सहारा लेते हैं.

सर्वोत्तम समाधान का विकल्प

बां झपन एक मैडिकल समस्या है और इसे दूर करने के लिए चिकित्सकीय समाधान की आवश्यकता होती है. दुनिया में 25 जुलाई, 1978 को पहला ‘टैस्ट ट्यूब बेबी,’ लुईस ब्राउन, पैदा हुई थी. लुईस का जन्म इनविट्रो फर्टिलाइजेशन या आईवीएफ प्रक्रिया से हुआ था. ‘इनविट्रो’ शब्द का अर्थ ‘किसी के शरीर के बाहर’ है और फर्टिलाइजेशन या निषेचन वह प्रक्रिया है जहां मादा का अंडा और पुरुष के शुक्राणु को जीवन बनाने के लिए एकसाथ फ्यूज किया जाता है. इस प्रकार अंडा और शुक्राणु शरीर के बाहर महिला के गर्भाशय के बजाय एक लैब में मिलते हैं और इसे बाद में गर्भाशय में डाल दिया जाता है.

यहीं से असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलौजी यानी एआरटी का भी जन्म हुआ. आईवीएफ, एआरटी की कई विधियों में से सिर्फ एक प्रक्रिया है. पिछले 44 वर्षों में दुनिया तकनीकी रूप से काफी आगे निकल चुकी है जिस से कई और एआरटी विकल्प उपलब्ध हुए हैं जिन में इंट्रासाइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजैक्शन (आईसीएसआई) और इंट्रायुटराइन इनसेमिनेशन (आईयूआई) शामिल हैं.

आइए इन चिकित्सा समाधानों को सम झते हैं ताकि विवाहित लोग अपनी बां झपन की समस्याओं के सर्वोत्तम समाधान का विकल्प चुन सकें.

जब एक दंपती 1 वर्ष से अधिक समय से स्वाभाविक रूप से बच्चा पैदा करने में असमर्थ रहें तो सर्वप्रथम उन्हें एक बां झपन विशेषज्ञ से परामर्श करना चाहिए. हालांकि यहां यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि कुछ जोड़े अपने जीवन में अपनी इच्छा से बाद में गर्भधारण करना चाहते हैं, इसलिए 1 वर्ष की अवधि सभी जोड़ों के लिए लागू नहीं होती है. इस काउंसलिंग के दौरान दंपती से मैडिकल इतिहास पर चर्चा की जाती है. यहां यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है कि बां झपन उपचार 100% सफलता की गारंटी नहीं देता है, इसलिए जोड़ों को इस प्रक्रिया के किसी भी जोखिम और दुष्प्रभावों को पहले ही जानना चाहिए.

ब्लड टैस्ट अल्ट्रासाउंड

इस के बाद विवाहित दंपती की समस्या की जड़ को सम झने के लिए रक्त परीक्षण (ब्लड टैस्ट) और स्कैन किए जाते हैं ताकि मधुमेह, उच्च रक्तचाप या थायराइड जैसी किसी भी पूर्व मौजूदा स्थिति को सम झा जा सके. हारमोन के स्तर और अल्ट्रासाउंड की जांच के लिए ब्लड टैस्ट भी किया जाता है ताकि यह जांचा जा सके कि महिला के गर्भाशय और अंडाशय में पीसीओएस, फाइब्रौएड्स या ऐंडोमिट्रिओसिस जैसी कोई वृद्धि है या नहीं. इस से यह पता लगाने में भी मदद मिलती है कि क्या महिला के अंडाशय में अंडे हैं जिन का उपयोग इलाज के लिए किया जा सकता है?

वीर्य विश्लेषण

वीर्य तरल पदार्थ है जिस में शुक्राणु होते हैं. शुक्राणुओं की संख्या, उन के आकार और उन की गति की जांच के लिए पुरुष साथी के वीर्य का विश्लेषण किया जाता है क्योंकि ये तीनों एक जोड़े की प्रजनन क्षमता के लिए आवश्यक हैं.

फौलोअप कंसल्टेशन

इन परीक्षणों के परिणाम घोषित होने के बाद विशेषज्ञ के साथ एक फौलोअप कंसल्टेशन फिक्स की जाती है. इस में निष्कर्षों पर चर्चा की जाती है जिस के बाद उपचार पर चर्चा होती है. इस में एक सामान्य चिकित्सक या ऐंडोक्राइनोलौजिस्ट के साथ फौलोअप शामिल हो सकती है जिस में किसी भी मौजूदा बीमारी के लिए दवा शुरू करने के लिए जो प्रजनन में बाधा उत्पन्न कर रही है पर चर्चा की जाती है.

ऐसा इसलिए है क्योंकि कई मामलों में अन्य बीमारियों के ठीक होने से दंपती जोड़े स्वाभाविक रूप से ही गर्भधारण कर लेते हैं. अन्यथा रोगियों के साथ एआरटी उपचार योजना पर चर्चा की जाती है, उन की सहमति ली जाती है और फिर उपचार शुरू होता है. कुछ मामलों में रोगियों को अधिक परीक्षण कराने के लिए भी कहा जा सकता है.

अंडाशय औषधि प्रयोग

इलाज के अंतर्गत महिला साथी को हारमोनल इंजैक्शन लेने की आवश्यकता होती है. एक सामान्य मासिकधर्म चक्र में हर महीने एक निश्चित संख्या में अंडा निकलता है. चूंकि एआरटी प्रक्रिया के लिए अधिक अंडों की उपलब्धता की आवश्यकता होती है, इसलिए हारमोनल इंजैक्शन द्वारा औषधि का प्रयोग यह सुनिश्चित करता है कि कई अंडे विकसित हों. महिला साथी को नियमित रूप से रक्त परीक्षण और अल्ट्रासाउंड की मदद से देखा जाता है कि दवाओं ने उसे कैसे प्रभावित किया है. फिर एक ट्रिगर इंजैक्शन दिया जाता है ताकि अंडे परिपक्व हो जाएं.

अंडा संग्रह/डिंब पिक और वीर्य संग्रह

अंडा संग्रह के दौरान मादा को ऐनेस्थीसिया के तहत रखा जाता है. अंडे की कल्पना करने के लिए योनि के माध्यम से एक अल्ट्रासाउंड छड़ी डाली जाती है जिस के बाद उन्हें सूई के साथ एकत्र किया जाता है. उसी दिन पुरुष साथी अपने वीर्य का नमूना प्रदान करता है. इस के बाद उन की गुणवत्ता की जांच की जाती है और अगले चरण के लिए केवल सर्वश्रेष्ठ वीर्य का ही उपयोग होता है.

फर्टिलाइजेशन और भू्रण स्थानांतरण

आईवीएफ और आईसीएसआई में फर्टिलाइजेशन की प्रक्रिया अलगअलग होती है. आईवीएफ में कई अंडों और शुक्राणुओं को फर्टिलाइजेशन के लिए एक इनक्यूबेटर में रखा जाता है.

आईसीएसआई में एक अच्छे शुक्राणु को अंडे में डाला जाता है. किसी भी प्रक्रिया में इस प्रकार बनने वाले भू्रण को 5-6 दिन यानी तब तक विकसित होने दिया जाता है जब तक कि वे ब्लास्टोसिस्ट नामक चरण तक नहीं पहुंच जाते. इन ब्लास्टोसिस्ट्स को प्रीइंप्लांटेशन जेनेटिक टैस्टिंग (पीजीटी) का उपयोग कर के उन के आनुवंशिक मेकअप के लिए जांचा जाता है जो किसी भी आनुवंशिक रूप से असामान्य ब्लास्टोसिस्ट को हटाने में मदद करता है.

ऐसा ही एक ब्लास्टोसिस्ट भू्रण स्थानांतरण नामक प्रक्रिया की मदद से गर्भाशय में स्थानांतरित किया जाता है. यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि एकसाथ कई भू्रण स्थानांतरित न हों वरना वे गर्भावस्था की जटिलताओं का कारण बन सकते हैं.

गर्भावस्था परीक्षण

स्थानांतरण के 12 दिनों के बाद गर्भावस्था परीक्षण किया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि इस के परिणामस्वरूप गर्भावस्था हुई है या नहीं.

इंट्रायूटराइन इनसेमिनेशन (आईयूआई) आईवीएफ और आईसीएसआई के लिए आईयूआई चरण सही है. हालांकि आईयूआई के लिए प्रक्रिया थोड़ी अलग है. अंतर्गर्भाशयी गर्भाधान वह प्रक्रिया है जिस में अंडे को निषेचित करने के लिए सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले शुक्राणुओं को गर्भाशय में इंजैक्ट किया जाता है. यहां उद्देश्य शुक्राणुओं को जितना हो सके अंडे के करीब लाना है. यह आईवीएफ और आईसीएसआई से अलग है क्योंकि अंडाणु और शुक्राणु दोनों को बाहरी वातावरण में संभाला जाता है.

आईयूआई आमतौर पर तब किया जाता है जब महिला साथी को ऐंडोमिट्रिओसिस, ग्रीवा संबंधी समस्याएं होती हैं, पुरुष बां झपन का अनुभव करता है या युगल अस्पष्टीकृत बां झपन का अनुभव करता है. यहां वीर्य का नमूना लिया जाता है जिसे सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले शुक्राणुओं का चयन करने और मलबे और वीर्य द्रव को हटाने के लिए धोया जाता है.

ओव्यूलेशन का समय (जब हर महीने महिला के अंडाशय से अंडा निकलता है) अल्ट्रासाउंड और रक्त परीक्षण की मदद से महिला साथी की बारीकी से निगरानी की जाती है. कुछ मामलों में रोगी प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने के लिए प्रजनन क्षमता की दवा भी ले सकता है. स्थानांतरण के 12 दिनों के बाद एक गर्भावस्था परीक्षण लिया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि इस के परिणामस्वरूप गर्भावस्था हुई है या नहीं.

सैल्फ साइकिल एवं डोनर साइकिल

जब एआरटी प्रक्रिया महिला और पुरुष भागीदारों के अंडों और शुक्राणुओं की मदद से की जाती है तो इसे सैल्फ साइकिल कहा जाता है. कुछ जोड़ों में या तो एक या दोनों फिर साथी पर्याप्त शुक्राणु या अंडे का उत्पादन नहीं कर सकते हैं. ऐसे मामलों में डोनर की आवश्यकता होती है.

यहां या तो अंडे या शुक्राणु या फिर दोनों ही डोनर से लिए जाते हैं, जैसा भी मामला हो, उस के अनुसार प्रक्रिया की जाती है. यह एक डोनर साइकिल है. इन विकल्पों पर बां झपन विशेषज्ञ द्वारा चर्चा की जाती है और इलाज शुरू करने से पहले रोगियों की सहमति ली जाती है.

-डा. क्षितिज मुर्डिया

सीईओ और सह संस्थापक, इंदिरा आईवीएफ.

पंडितों ने 4 सालों तक मां नहीं बनने की बात कही है, मैं क्या करुं?

सवाल- 

मैं 27 साल की हूं. मेरे विवाह को 5 महीने हो चुके हैं, लेकिन अभी तक प्रैगनैंट नहीं हुई हूं. क्या यह मेरे भीतर किसी कमी या गड़बड़ी का लक्षण है? कई पंडितों ने मुझ से कहा है कि मैं कम से कम अगले 4 सालों तक मां नहीं बन पाऊंगी. मैं इस बात से बहुत डरी हुई हूं. बताएं, मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

यह निश्चित तौर पर बता पाना कि आप कब मां बनेंगी, किसी के वश की बात नहीं है. अगर पतिपत्नी दोनों की फर्टिलिटी नौर्मल है यानी दोनों की प्रजननशक्ति अच्छी है और सारे हालात प्रैगनैंसी के अनुकूल हैं तब भी प्रैगनैंट होने के लिए यह जरूरी है कि पतिपत्नी दोनों का शारीरिक मेल उन दिनों में हो जिन दिनों में पुरुष शुक्राणु और स्त्री डिंब के मेलमिलाप का संयोग बनता है. स्त्री के मासिकचक्र में हर महीने कुछ ही दिन ऐसे होते हैं जिन में प्रैंगनैंसी का संयोग बनता है. फर्टिलिटी स्टडीज में देखा गया है कि जो दंपती हर तरह से सामान्य होते हैं उन में भी स्त्री के प्रैंगनैंट होने के चांसेज किसी 1 महीने में 20-25% ही होते हैं. 3 महीने लगातार जतन करने पर चांसेज 50%, 6 महीने में 72% और 12 महीने में 85% पाए गए हैं. अभी आप के विवाह को मात्र 5 महीने ही बीते हैं, इसलिए इस तरह निराश होना कतई ठीक नहीं है. अगर आप का मासिकचक्र 28 दिनों का है, तो आप दोनों का 11वें से 17वें दिन के बीच मिलन फलदायी हो सकता है. मसलन अगर आप का मासिक धर्म 8 अगस्त को शुरू होता है, तो इस हिसाब से 19 से 25 अगस्त के बीच का शारीरिक मेल आप को प्रैगनैंट बना सकता है. दरअसल, यही वे दिन होंगे जब आप की ओवरी से एग रिलीज होने के सब से ज्यादा चांसेज बनेंगे. किसी पंडित, ज्योतिषी या हस्तरेखा वाचक की बातों में आ कर बिना वजह अपने जीवन को संशय, चिंता या भय में न डालें.

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लेखिका- दीप्ति गुप्ता

ज्यादातर भारतीय लोगों को सुबह और शाम चाय पीने की आदत  होती  है. इसे पीने के बाद वे ताजा महसूस करते हैं. वैसे देखा जाए, तो चाय गर्भवती महिलाओं सहित दुनियाभर के लोगों द्वारा सबसे ज्यादा पीऐ जाने वाले खाद्य पदार्थों में से एक  है. प्रैग्नेंसी में खासतौर से सीमित मात्रा में चाय का सेवन बहुत अच्छा माना जाता है. दरअसल, चाय की पत्तियों में पॉलीफेनॉल और एंटीऑक्सीडेंट होते हैं., जो न केवल आपके ह्दय स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं बल्कि आपकी प्रतिरक्षा को भी बढ़ाते हैं. हालांकि,  इनमें कैफीन भी होता है, इसलिए इनका सेवन आपको एक दिन में 200 मिग्रा से ज्यादा नहीं करना चाहिए. वैसे विशेषज्ञ प्रैग्नेंसी में कुछ खास तरह की चाय का सेवन करने की सलाह देते हैं. उनके अनुसार, आमतौर पर ब्लैक टी, मिल्क टी, ग्रीन टी में 40 से 50 मिग्रा कैफीन होता है, जबकि हर्बल टी में कैफीन की मात्रा न के बराबर होती है. इसलिए प्रैग्नेंसी के दौरान हर्बल टी को एक स्वस्थ और बेहतरीन विकल्प माना गया है. यहां 6 तरह की हर्बल चाय हैं, जिनका प्रैग्नेंसी के दौरान सेवन करना पूरी तरह से सुरक्षित है.

1. अदरक की चाय-

अदरक की चाय में जो स्वाद है, वो किसी आम चाय में नहीं. इसे खासतौर से सर्दियों में पीया जाए, तो गर्माहट तो आती ही है ,साथ ही ताजगी का अहसास भी होता है. लेकिन किसी भी गर्भवती महिला को अपने रूटीन में अदरक की चाय जरूर शामिल करनी चाहिए. क्योंकि यह मॉर्निंग सिकनेस को कम करती है. इसे अपने रूटीन में शामिल करने के बाद सर्दी, गले की खराश और कंजेशन की समस्या से भी छुटकारा पाया जा सकता है. इसके लिए अदरक के कुछ टुकड़ों को गर्म पानी में उबाल  लें और दूध, शहद के साथ लाकर पी जाएं.

जानें क्यों महिलाओं के लिए खतरनाक हो सकता है फाइब्रौयड

20से 50 % महिलाओं को फाइब्रौयड की प्रौब्लम होती है, लेकिन केवल 3% मामलों में ही यह बांझपन का कारण बनता है. जो महिलाएं इस के कारण बांझपन से जूझ रही होती हैं, वे भी इस के निकलने के बाद सफलतापूर्वक गर्भधारण कर सकती हैं. बहुत ही कम मामलों में स्थिति इतनी गंभीर हो जाती है कि गर्भाशय निकालना पड़ता है. वैसे जिन महिलाओं को बांझपन की प्रौब्लम होती है उन में फाइब्रौयड्स अधिक बनते हैं. जानिए फाइब्रौयड के कारण बांझपन की प्रौब्लम क्यों होती है और उससे कैसे निबटा जाए:

क्या होता है फाइब्रौयड

यह एक कैंसर रहित ट्यूमर होता है, जो गर्भाशय की मांसपेशीय परत में विकसित होता है. जब गर्भाशय में केवल एक ही फाइब्रौयड हो तो उसे यूटराइन फाइब्रोमा कहते हैं. फाइब्रौयड का आकार मटर के दाने से ले कर तरबूज बराबर हो सकता है.

इंट्राम्युरल फाइब्रोयड्स

ये गर्भाशय की दीवार में स्थित होते हैं. यह फाइब्रौयड्स का सब से सामान्य प्रकार है.

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सबसेरोसल फाइब्रौयड्स

ये गर्भाशय की दीवार के बाहर स्थित होते हैं. इन का आकार बहुत बड़ा हो सकता है.

सबम्युकोसल फाइब्रौयड्स

ये गर्भाशय की दीवार की भीतरी परत के नीचे स्थित होते हैं.

सरवाइकल फाइब्रौयड्स

ये गर्भाशय की गरदन (सर्विक्स) में स्थित होते हैं.

फाइब्रौयड और बांझपन की प्रौब्लम

फाइब्रौयड का आकार और स्थिति निर्धारित करती है कि वह बांझपन का कारण बनेगा या नहीं. इस तरह से फाइब्रौयड्स सफल गर्भधारण और प्रसव में बाधा बनते हैं. कई मामलों में फाइब्रौयड्स निषेचित अंडे को गर्भाशय की भीतरी दीवार से जुड़ने नहीं देता. जब फाइब्रौयड गर्भाशय की बाहरी दीवार पर होता है तो गर्भाशय का आकार बदल जाता है और गर्भधारण करना कठिन हो जाता है.

गर्भाशय की एनाटौमी बदल जाना

जब फाइब्रौयड बहुत बड़े-बड़े होते हैं तो वे गर्भाशय की पूरी ऐनाटौमी को विकृत कर देते हैं, जिस से उस का आकार असामान्य रूप से बड़ा हो जाता है, इस से गर्भधारण करने में परेशानी आ सकती है.

निषेचन न हो पाना

गर्भाशय में फाइब्रौयड होने के कारण यूटरिन कैनाल काफी लंबी हो जाती है तो शुक्राणु समय से अंडे तक नहीं पहुंच पाते हैं, क्योंकि दूरी बढ़ जाती है और निषेचन नहीं हो पाता है.

शारीरिक संबंध बनाने में परेशानी होना

गर्भाशय में फाइब्रौयड होने के कारण शारीरिक संबंध बनाने में बहुत दर्द होता है. दरअसल इस दौरान शरीर में रिदमिक कौन्ट्रैक्शन होता है जो स्पर्म को अंडे के पास पहुंचाता है, लेकिन फाइब्रौयड के कारण यह डिस्टर्ब हो जाता है.

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इंप्लांटेशन में प्रौब्लम आना

फाइब्रौयड के कारण भ्रूणगुहा से जुड़ नहीं पाता. अगर जुड़ भी जाए तो ठीक प्रकार से विकसित नहीं हो पाता.

कैसे निबटें

फाइब्रौयड के कारण गर्भधारण करने में प्रौब्लम होना, बारबार गर्भपात होना, बच्चे के जन्म के समय अत्यधिक दर्द होना जैसी प्रौब्लमएं हो जाती हैं. लेकिन अत्याधुनिक तकनीकों ने फाइब्रौयड के कारण होने वाली बांझपन की प्रौब्लम के लिए कारगर उपचार उपलब्ध कराए हैं.

क्या है इसकी दवा

फाइब्रौयड के उपचार के लिए सब से पहले दवा दी जाती है. कई महिलाओं में दवा के सेवन से ही यह पूरी तरह ठीक हो जाता है.

सर्जरी:

जब दवा काम न करें तब मरीज को सर्जरी कराने की सलाह दी जाती है.

क्या है मायोमेक्टोमी

गर्भाशय की दीवार से फाइब्रौयड को सर्जरी के द्वारा निकाल दिया जाता है. एंडोमिट्रिअल ऐब्लेशन: इस में गर्भाशय की सब से अंदरूनी परत को निकाल दिया जाता है. इस प्रक्रिया का उपयोग तब किया जाता है जब फाइब्रौयड गर्भाशय की आंतरिक सतह पर होता है. लैप्रोस्कोपी तकनीक ने इन सर्जरियों को आसान व दर्दरहित बना दिया है. इस में समय भी काफी कम लगता है.

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ओपन सर्जरी है औप्शन

ओपन सर्जरी का औप्शन गर्भाशय के असामान्य रूप से बड़े होने और ट्यूमरों की संख्या को देखते हुए चुना जाता है. जब दोबारा सर्जरी करने की आवश्यकता पड़ती है तब भी ओपन सर्जरी को लैप्रोस्कोपी पर प्राथमिकता दी जाती है.

हीलिंग प्रोसैस

आमतौर पर लैप्रोस्कोपिक सर्जरी के 3 से 6 महीने बाद गर्भधारण करने की सलाह दी जाती है, लेकिन ओपन सर्जरी में 6 महीने आराम करने की सलाह दी जाती है ताकि घाव भर जाएं. हीलिंग प्रोसैस के बाद सामान्य रूप से गर्भधारण करने की संभावना देखी जाती है. सर्जरी के 1 साल के अंदर गर्भधारण करना जरूरी है, क्योंकि कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि 1 वर्ष के भीतर ही गर्भधारण करने का अवसर रहता है. सर्जरी द्वारा फाइब्रौयड निकालने के बाद जो महिलाएं सामान्य रूप से मां नहीं बन पा रही हैं, वे आईवीएफ का विकल्प चुन सकती हैं.

-डा. अरविंद वैद

आईवीएफ ऐक्सपर्ट, इंदिरा आईवीएफ अस्पताल, नई दिल्ली

क्या यें तो नहीं आपके मां न बन पाने के कारण

खानपान, शिफ्ट वाली नौकरी और रहन-सहन में आए बदलाव के कारण जहां एक तरफ लाइफस्टाइल पहले से अधिक बढ़ गया है, वहीं दूसरी तरफ टैकनोलौजी से भी कई हेल्थ प्रौब्लम बढ़ गई हैं. अब बढ़ती उम्र के साथ होने वाले रोग युवावस्था में ही होने लगे हैं. इनमें एक कौमन प्रौब्लम है युवाओं में बढ़ती इन्फर्टिलिटी. दरअसल, युवाओं में इन्फर्टिलिटी की समस्या आधुनिक जीवनशैली में की जाने वाली कुछ आम गलतियों की वजह से बढ़ रही है.

1. खानपान की गलत आदतें

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इन्फर्टिलिटी के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार होती है खानपान की गलत आदतें. समय पर खाना नही, जंक व फास्ट फूड खाने के क्रेज का परिणाम है युवावस्था में इन्फर्टिलिटी की प्रौब्लम. फास्ट फूड और जंक फूड खाने में मौजूद पेस्टीसाइड से शरीर में हारमोन संतुलन बिगड़ जाता है, जिसके कारण इन्फर्टिलिटी हो सकती है. इसलिए अपने खानपान में बदलाव का पौष्टिक आहार का सेवन करें. हरी सब्जियां, ड्राई फ्रूट्स, बींस, दालें आदि ज्यादा से ज्यादा खाएं.

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2. टेंशन

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आधुनिक जीवनशैली में लगभग हर व्यक्ति टेंशन से ग्रस्त है. काम का दबाव, कंपीटिशन की भावना, ईएमआई का बोझ, लाइफस्टाइल मैंटेन करने के लिए फाइनैंशल बोझ आदि कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो हम ने स्वयं अपने लिए तैयार की हैं. इन सभी के कारण ज्यादातर युवा टेंशन में रहते हैं और इन्फर्टिलिटी का शिकार हो रहे हैं. इससे बचने के लिए ऐसे काम करें कि आप टेंशन न हों. टेंशन के समय घर वालों और दोस्तों की मदद लें.

3. अधिक उम्र में विवाह

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आज तरक्की और सफलता की चाह में पुरुष और महिलाएं कम उम्र में विवाह नहीं करना चाहते. विवाह के बाद भी फाइनैंशियल सिक्युरिटी बनाते-बनाते बच्चे के बारे में सोचने में भी उन्हें समय लग जाता है. महिलाएं भी आजकल ज्यादा आत्मनिर्भर होने लगी हैं और वे कम उम्र में बच्चा नहीं चाहतीं. डाक्टर के अनुसार अधिक उम्र में विवाह होने से महिलाओं में ओवम की क्वालिटी प्रभावित होती है और इन्हीं कारणों से उन में इन्फर्टिलिटी की संभावना भी बढ़ जाती है.

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इसके अलावा गलत लाइफस्टाइल के कारण आजकल ज्यादातर महिलाओं में फाइब्रौयड्स बनना, ऐंडोमिट्रिओसिस से संबंधित समस्याएं भी होने लगी हैं. इस के अलावा हाइपरटैंशन जैसी बीमारी भी युवाओं में इन्फर्टिलिटी का कारण बन रही है.

4. एक्सरसाइज न करना

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काम के दबाव के कारण व्यायाम का समय निकालना युवाओं के लिए बहुत मुश्किल होता है. कौल सैंटर और मीडिया की नौकरी में तो समय की बाध्यता न होने के कारण काम का दबाव और प्रतियोगिता और भी बढ़ जाती है. युवाओं के लिए रीप्रोडक्शन से ज्यादा जरूरी हो गई है तरक्की और भौतिक ऐशोआराम के लिए पैसा. इसी कारण से जीवन का ज्यादा समय औफिस के कामों में बीतता है. अधिक समय तक काम करने के बाद औफिस से थक कर घर आने के बाद अधिकतर कपल्स में सैक्स की इच्छा में भी कमी हो जाती है. यदि काम के साथ ऐक्सरसाइज जारी रखते हैं तो इन्फर्टिलिटी से बचा जा सकता है.

5. नींद पूरी न होना

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नींद पूरी न कर पाने के कारण भी युवाओं में इन्फर्टिलिटी की समस्या बढ़ रही है. काम का बोझ और देर रात तक पार्टी करने के कारण युवकयुवतियां भरपूर नींद नहीं ले पाते हैं, जिस के कारण हारमोन में असंतुलन होता है और बांझपन की समस्या बढ़ती है. कई शोधों में भी यह बात सामने आ चुकी है कि नींद न पूरी होने के कारण हारमोन संतुलन बिगड़ जाता है और बांझपन की परेशानी हो सकती है. इसलिए नियमित रूप से कम से कम 7 से 9 घंटों की नींद लेनी चाहिए.

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6. वजन

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खानपान की गलत आदत और व्यस्त दिनचर्या में ऐक्सरसाइज के लिए समय न मिलने का परिणाम है मोटापा. डाक्टरों के अनुसार मोटापा इन्फर्टिलिटी समस्या की एक बड़ी वजह है. अधिक वजन महिला व पुरुष दोनों की फर्टिलिटी को प्रभावित करता रहता है. इस के अलावा जिन महिलाओं का वजन सामान्य से कम होता है उन में भी यह शिकायत हो सकती है. इसलिए यदि आप का वजन अधिक है तो इसे कम करने की कोशिश करें और अगर कम है तो उसे बढ़ाएं.

7. सिगरेट और शराब

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आजकल युवाओं में शराब, सिगरेट, कोकीन आदि का इस्तेमाल बेहद आम बात है. इन सभी नशीले पदार्थों की वजह से लड़के और लड़कियां दोनों की फर्टिलिटी प्रभावित होती है. इन के अधिक इस्तेमाल करने से सीमन की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है. एक तरफ जहां धूम्रपान करने से स्पर्म काउंट कम होता है, वहीं दूसरी तरफ शराब के सेवन से टेस्टोस्टेरौन हारमोन उत्पादन भी कम होता है. इस के अलावा दवाओं खासकर ऐंटीबायोटिक का इस्तेमाल अधिक करने के कारण भी बांझपन की समस्या बढ़ रही है.

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8. हेल्थ प्रौब्लम

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हाइपरटैंशन और हाई ब्लडप्रैशर जैसी समस्याएं जिन्हें बुजुर्गों की बीमारी माना जाता था, आज युवाओं में भी बहुत आम हो गई हैं और इन का प्रभाव उन की सैक्सुअल लाइफ पर भी पड़ रहा है. बचपन से ही कंप्यूटर और लैपटौप पर बैठना आम बात हो गई है. यह आदत भी इन्फर्टिलिटी की वजह बन रही है.

इन्फर्टिलिटी का उपचार असिस्टेड रीप्रोडक्टिव तकनीक यानी आईवीएफ के माध्यम से आप का मां बनने का सपना पूरा हो सकता है. मगर ऐसी स्थिति में डोनर की मदद लेनी पड़ती है. इसलिए हिदायत यह दी जाती है कि आप स्वस्थ जीवनशैली अपनाएं और इन्फर्टिलिटी की समस्या से बचें.

-डा. ज्योति बाली

इन्फर्टिलिटी स्पैशलिस्ट, मैडिकल डाइरैक्टर, बेबीसून, आईवीएफ सैंटर

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