सुपर पॉवर मिलने पर अभिनेत्री रिया शर्मा क्या करना चाहती है, पढ़े इंटरव्यू

अभिनेत्री रिया शर्मा महाराष्ट्र के नागपुर की है. उनकी मां प्रतिमा शर्मा एक यूट्यूबर हैं. उन्होंने नागपुर, महाराष्ट्र के एक कॉलेज से ग्रेजुएशन किया है. उन्होंने ‘सात फेरो की हेरा फेरी’, से कैरियर की शुरुआत की थी, इसके बाद उन्होंने “ये रिश्ते हैं प्यार के”, “तू सूरज मैं साँझ पियाजी”, “इतना ना करो मुझे प्यार के लिए” आदि कई धारावाहिकों में अभिनय के लिए जानी जाती हैं. आज उनका नाम टेलीविज़न जगत में बड़ी अभिनेत्रीयों में गिना जाता हैं. इसके अलावा वह हिंदी फिल्म रिया “एम.एस धोनी” में छोटा सा रोल निभा चुकी हैं. अभी रिया सोनी सब टीवी पर ‘ध्रुव तारा – समय सदी से परे’ यह एक फेंटासी शो है, जिसमें रिया ने तारा की भूमिका निभाई है, जिसे दर्शक पसंद कर रहे है. इस शो के प्रमोशन पर रिया ने अपनी जर्नी के बारें में बात की,पेश है कुछ अंश.

मिली प्रेरणा

रिया का कहना है कि मेरा अभिनय में आना एक इत्तफाक था. मुझे बचपन से ही परफोर्मेंस पसंद रहा, स्कूल से आने के बाद मैं आइने के सामने खड़ी होकर डायलाग बोलती थी. खुद से बातें करती थी और मुझे दर्शकों की वाहावाही बहुत पसंद थी, लेकिन मुझे ये पता नहीं था कि मैं एक्ट्रेस ही बनूँगी. दूर -दूर तक कभी मुंबई आने के बारें में नहीं सोचा था. अचानक मुझे शो ‘फियर फाइल्स’ एपिसोड की लीड के लिए बुलाया गया था, मैंने ऑडिशन दिया और चुनी गई और मुंबई आ गयी, जबकि मेरी पूरी फॅमिली एजुकेशन बैकग्राउंड से है.

मिला सहयोग

रिया कहती है कि मेरी माँ प्रतिमा शर्मा बहुत सपोर्टिव थी, बचपन में मुझे पोएट्री रिसाईटिंग, स्टेज ड्रामा आदि में ले जाती थी. उन्हें पता था कि मुझे ये सब पसंद है. कॉलेज में आने के बाद मैंने अभिनय को लेकर सोचना शुरू किया, लेकिन इतने बड़े शहर में अकेले जाना मेरे लिए बड़ी बात थी, लेकिन जब इत्तफाक से मैं अभिनय के लिए चुनी गई, तो मेरे पेरेंट्स ने साथ दिया. 17 साल की उम्र से मैंने अभिनय शुरू किया.

रिलेटेबल है ये कहानी

रिया कहती है कि मैंने इस तरह के फेंटासी शो पहले भी किये है और इसे सुनकर मैं बहुत उत्साहित थी. इसमें कॉमेडी, ड्रामा और अलग तरीके की बातचीत सबकुछ शामिल है. जो मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं हमेशा ही कुछ न कुछ आगे के लाइफ के बारें में सोचती रहती हूँ और उसे इमेजिन भी करती हूँ. मुझे लगता है सभी जीवन में ऐसी बातें हमेशा ही सोचते है,

आगे क्या होगा, पीछे क्या हुआ था, लोग तब कैसे थे ये सब जानने की इच्छा होती है.

मुझे पास्ट और फ्यूचर में जाने की भी बहुत इच्छा है. इस चरित्र से मैं कुछ अवश्य रिलेट करती हूँ, जैसे छोटी-छोटी हाव-भाव जो मुझसे मेल खाती है. मैंने पहले जो भी भूमिका निभाई है, हर चरित्र से खुद को रिलेट कर पाई हूँ. इसमें तारा हर चीज को देखकर उत्साहित हो जाती है. मैं भी रियल लाइफ में छोटी-छोटी चीजो से खुश हो जाती हूँ.

होती है अनुभव की कमी

कोविड की वजह से लोगों ने भविष्य की प्लानिंग करना छोड़ दिया है, क्योंकि कल के बारें में किसी को पता नहीं, लेकिन टाइम लाइन पर अगर कोई भविष्य को जान पाता है, तो उसे लाइफ की प्लानिंग करना आसान होगा क्या? इस बारें में रिया कहती है कि अगर फ्यूचर देखकर उसमे कुछ सुधार कर सकती थी, तो जीवन में आये उतार-चढ़ाव का सामना करने के अनुभव को पाने में समर्थ नहीं होती.

था संघर्ष

रिया आगे कहती है कि रियलिटी यहाँ का अलग ही था, मैं नागपुर जैसे छोटे शहर से आई थी, जहाँ ट्राफिक नहीं थी, लाइफ इजी थी. कभी मैंने इतना संघर्ष नहीं किया, थोड़े पैसे जो घर से मिले थे. जब वह खत्म होने लगी, तब चिंता सताने लगी, इससे पहले मुंबई इसकी ग्लैमर से बहुत प्रभावित थी, यहाँ समस्या यह थी कि शूट की पेमेंट 40 दिन बाद होती है और मुझे पैसों की जरूरत थी, लेकिन मैंने पेरेंट्स से पैसे नहीं मांगे और अपने पैसे से गुजारा करना चाहती थी. हालाँकि पेरेंट्स ने कभी पैसे के लिए मना नहीं किया, बल्कि ख़ुशी से देते थे, पर मेरे लिए अपने दम पर घर चलाना एक चुनौती थी और मैं वह कर पाई, जो मेरे लिए बड़ी बात रही. मैंने जिंदगी के बहुत कठिन समय को नजदीक से देखा है, इसलिए

आज जो भी मुझे मिलता है, उसमें खुश रहती हूँ.

इसके अलावा संघर्ष हमेशा रहता है, ये सही है कि अब चीजे थोड़ी आसान हुई है, लेकिन हमेशा कुछ अच्छा करने की कोशिश में संघर्ष है. असल में इंडस्ट्री के बारें में पता कर पाना आसान नहीं, क्योंकि यहाँ कभी काम है, कभी नहीं. कई बार एक काम मिलने के बाद आगे अच्छा मिलेगा या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं होती. मेरी माँ ने हमेशा कहा है कि लाइफ में रिस्क नहीं लेने से व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता और मुझे भी वह ऐसी ही सलाह देती आई है.

करना है हिंदी वेब और फिल्मों में काम

रिया हंसती हुई कहती है कि मैं हर शो के बाद मैं हिंदी फिल्मों और वेब में काम करने की इच्छा रखती हूँ, लेकिन कोई ढंग का काम नहीं मिलता. इसके अलावा मैं सोचती हूँ कि जब मुझे अच्छी शो में काम मिल रहा है, तो मैं मना कैसे कर सकती हूँ, क्योंकि आज बहुतों के पास एक अच्छा काम नहीं है. मुझे आगे चलकर हिंदी फिल्मों और वेब सीरीज को भी एक्स्प्लोर करना है. मुझे को-स्टार अभिनेता संजय दत्त और निर्देशक राजकुमार हिरानी के साथ काम करने की बहुत इच्छा है.

फैशन है पसंद

रिया को वेस्टर्न और इंडियन दोनों तरीके की पोशाक पसंद है. ये अधिकतर उनके मूड पर निर्भर होता है. वह हर तरीके की ड्रेस पहनती है.

रिश्तों को सहेजना है जरुरी

रिया कहती है कि रिश्तों में आजकल बहुत सारे बदलाव आ चुके है, आज रिश्तों में एक एडवेंचर या चुनौती होती है. मेरे हिसाब से किसी रिश्ते को संबंधों में बाँध लेने से उसे जीने में आसानी होती है, पर आज ऐसा नहीं है, बिना शर्तों के प्यार चलती है, शर्तों से वे बिगड़ जाती है. सपनो का राजकुमार मेरे जीवन में नहीं है. अभी सपने सिर्फ कैरियर ही है. तनाव होने पर मैं खुद को समझा लेती हूँ कि मुझे एक अच्छा काम मिला है और मुझे इसे दिल से करना है. अधिकतर मुझे पेरेंट्स की याद आती है और समय की कमी की वजह से जा नहीं पाती. फ़ोन पर बात कर लेती हूँ.

दिया सन्देश

युवाओं को मेरा मेसेज है कि सभी को अपने पेरेंट्स को देखकर, उनके मेहनत को देखकर सीख लेनी है, किसी चीज के न मिलने पर परेशान न हो, बल्कि धीरज धरे और आगे बढे, तनाव न लें. इससे सफलता अवश्य मिलेगी. मुझे कोई सुपर पॉवर मिलने पर असहाय लोग और जानवरों के लिए कुछ काम करना चाहती हूँ.

इन चीजों को नहीं करना चाहिए वेस्ट: अभिनेता जॉन कोककेन, पढ़ें पूरी इंटरव्यू

अभिनेता जॉन कोककेन मुंबई के एक मध्यमवर्गीय परिवार से हैं, उन्होंने मुख्य रूप से साउथ की फिल्मों में अधिक काम किया है. जॉन ने अपने पिता जॉन जोसेफ कोककेन को सम्मान देने के लिए अपना स्क्रीन नाम, जॉन कोककेन रखा है, जबकि उनका असली नाम अनीश जॉन कोककेन है. उनके इस फ़िल्मी कैरियर में पिता जॉन जोसेफ कोककेन और मां थ्रेसिअम्मा जॉन कोककेन का बहुत श्रेय वे मानते हैं. उनके पिता कॉलेज के सेवानिवृत्त उप-प्रिंसिपल हैं, जबकि उनकी मां ने 13 साल मिडल ईस्ट में मैट्रन के रूप में काम किया हैऔर अब रिटायर्ड है. जॉन ने होटल मैनजमेंट की पढ़ाई की है, लेकिन उनका मन हमेशा एक्टिंग की ओर लगा रहा. पढ़ाई पूरी कर जॉन ने होटल में 2 साल तक काम भी किया है.

अभिनय में आने से पहले उन्होंने एक एड में काम किया,जो एक नामचीन होटल की ब्रोशर के लिए था, जिससे उनकी थोड़ी पहचान बनी. साल 2005 में उन्होंने ग्लैडराग्स मैनहंट एंड मेगा मॉडल कांटेस्ट में भाग लिए, जिससे वे कई निर्देशकों के नजर में आये और कई विज्ञापनों में काम करने का मौका मिला. इसके बाद उन्हें दक्षिण की कई फिल्मों में विलेन की भूमिका निभाने का अवसर मिला, उन्होंने दक्षिण की तमिल, तेलगू, कन्नड़,मलयालम सभी भाषाओं में फिल्में की है. काम के दौरान उनकी मुलाकात साउथ की अभिनेत्री मीरा वासुदेवन के साथ हुई थी,जिससे उन्होंने शादी की और एक बेटे का पिता बनने के बाद आपसी अनबन की वजह से 4 साल बाद तलाक लिया और बाद मेंअभिनेत्री पूजा रामचंद्रन से शादी की और अब 7 महीने के बेटे के पिता है.डिजनी प्लस हॉटस्टार पर उनकी पहली वेब सीरीज फ्री लांसर काफी पौपुलर हो चुकी है,जिससे वे बहुत खुश है. उन्होंने खास गृहशोभा के लिए ज़ूम पर बात की, जहां उन्होंने अपनी जर्नी से जुड़े सभी पहलूओं पर चर्चा की, आइये जाने उनकी कहानी उनकी जुबानी.

रही चुनौती

फ्रीलांसर उनकी डेब्यू वेब सीरीज है, जिसमे उन्होंने एक कौप की भूमिका निभाई है. उनके इस नए अवतार में एक्टिंग करने के अनुभव के बारें में पूछने पर उनका कहना है कि इसमें मैंने एक इंटेलिजेंस ब्यूरो ऑफिसर राघवेन्द्र सेतु का रहा, जो बहुत कठिन होने के साथ-साथ मेरे लिए कठिन भी था. बहुत चुनौतीपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन मुझे खुशी इस बात से रही है कि मैं इसमें पहली बार एक पौजिटिव भूमिका निभा रही हूं और किसी डायरेक्टर ने पहली बार मेरे बारें में ऐसा चरित्र सोचा है, क्योंकि इससे पहले मैंने हमेशा विलेन की ही भूमिका निभाई है. मैंने अभिनेता के के मेनन को इस भूमिका के लिए फोलो किया है, उनके स्टाइल , संवाद बोलने के तरीके और एटीट्यूडको मैंने कौपी किया है. इसके अलावा मैं मुंबई से हूं और हिंदी बोलना जानता हूँ.

मिली नई भूमिका

अपने इस नए किरदार को करते हुए जॉन को बहुत अच्छा लगा है. अपने अनुभव के बारें में वे कहते है कि हर फिल्म में विलेन को हीरो से मार खाना पड़ता है, हीरो या तो हाथ काट देता है या गोली मार देता है, लेकिन इसमें ऐसा नहीं है. पहली बार किसी डायरेक्टर ने हटकर मेरे बारें में सोचा है,यही बदलाव मेरे अकार या शरीर को न देखकर एक अलग नजरिये से देखा है. मुझे बहुत अधिक ख़ुशी है, मैं निर्देशक नीरज पाण्डेय को दिल से धन्यवाद् देना चाहता हूं.

किये संघर्ष

मैं साधारण मध्यम वर्गीय परिवार से सम्बन्ध रखता हूँ,जिस दिन मैंने अपने पिता को एक्टिंग की बात कही थी, उन्होंने सीधा कह दिया था कि ‘ये सब अमीरों के शौक है,तुम ये सब शौक न पालो, तुम चुपचाप नौकरी करों.’तब मैंने होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई पूरी कर 2 साल तक होटल की नौकरी कर रहा था. काम के दौरान मेरे कद – काठी को देखकर मुझे मौडलिंग के ऑफर आते रहे, इससे मैंने मन में सोचा कि मुझे इस ओर भी थोड़ा फोकस करने की जरुरत है और मैंने मॉडलिंग शुरू की. मॉडलिंग से मुझे लोगों ने जाना और दक्षिण की कई फिल्मों में ऑफर आने लगे. मैंने अभिनय शुरू किया. मेरे परिवार में कभी कोई इंडस्ट्री से नहीं था. मैंने मेहनत और धीरज से अपना रास्ता तय किया है.

जो मिला करता गया

क्या आपने शुरू में हीरों बनने की बात नहीं सोची थी, क्योंकि आज तो हीरों भी विलेन की भूमिका निभाते है? मुझे ख़ुशी है कि आज के हीरों भी विलेन की भूमिका निभाते है, लेकिन जब मैंने शुरू किया था, तब इतना बदलाव इंडस्ट्री में नहीं था. मैने कोई हीरों या विलेन बनने का कोई प्लान नहीं किया था, पहला ऑफर विलेन का ही मेरे पास आया था, इसके बाद सारे ऑफर विलेन के ही आने लगे और मैं करता गया.

रियल लाइफ में जॉन

आपने विलेन की भूमिका निभाई है, लेकिन रियल लाइफ में विलेन से हीरों कैसे बन गए ? पूछने पर हंसते हुए जॉन कहते है कि मेरी पत्नी पूजा को मेरे किसी भी विलेन वाली फिल्म को नहीं देखती, क्योंकि उसे फिल्मों में मार खाना,स्क्रीन पर मर जाना बिल्कुल भी पसंद नहीं है. हमारी मुलाकात एक जिम में हुई थी, जहां हमारी पसंद, नापसंद सब धीरे-धीरे मैच होते गए, फिर हम दोनों ने साथ रहने का निर्णय लिया और शादी की. अभी मैं एक बेटे का पिता भी हूँ.

पसंद नई भूमिका

जॉन को आगे अधिक से अधिक हिंदी फिल्मों में अलग-अलग भूमिका निभाने का ड्रीम है. वे कहते है कि मैं एक कलाकार हूँ और हर चुनौतीपूर्ण भूमिका निभाना चाहता हूं. जब से मैं अभिनय के क्षेत्र में गया हूं,हिंदी फिल्मों में अभिनय की इच्छा है, क्योंकि मैं मुंबई में पला और बड़ा हुआ हूँ और मुंबई हमेशा मेरी पहली पसंद रही है.

अंदाज है अलग

साउथ की फिल्में और हिंदी फिल्मों की एक्टिंग में अंतर के बारें में जॉन बताते है कि साउथ की फिल्में बहुत लाउड होती है, एक विलेन के पीछे 50 गाड़ियाँ आती है,100 गुंडे खड़े रहते है, जबकि हिंदी सिनेमा थोड़ी रीयलिस्टिक और थमी हुई होती है. दोनों का अंदाज अलग है.

विलेन है पसंद

जॉन ने विलेन की भूमिका से शुरू कर अब एक रोमांटिक साउथ फिल्म कर रहे हैं, जिसके डायरेक्टर कृतिका उदयनिधि है. हिंदी फिल्मों में नीरज पाण्डेय,संजय गुप्ता, साजिद नाडियाडवाला, रोहित शेट्टी, जोया अख्तर, रीमा आदि डायरेक्टर के साथ जॉन काम करने की इच्छा रखते हैं. फिल्मों में बढ़ते वायलेंस के बारें में जॉन कहते है कि आज फिल्मों तकनीक का अधिक प्रयोग होता है, समय के साथ सबको चलना पड़ता है. इसकेअलावा पहले के दर्शक हीरो, जो अच्छे काम करते थे, उन्हें पसंद करते थे. आज के दर्शक को हीरो होनेके साथ-साथ, जो विलेन जैसा काम करता हो,पसंद आता है. दर्शकों की पसंद बदल चुकी है, लेकिन अंत में फिल्मों में मनोरंजन पहले भी था, अभी भी है और आगे भी रहेगा. जब तक दर्शकों का मनोरंजन हो रहा है, वह चलेगा.

संभालना पड़ता है खुद को

विलेन की भूमिका निभाने की वजह सेजॉन को कई बार असहजता का भी सामना करना पड़ता है. जब वे बाहर निकलते हैं, तो लोग उन्हें देखकर कानाफूसी करते है,कुछ लोग डर कर सामने आकर बात करते है. स्क्रीन की इमेज का सामना हमेशा करना पड़ता है. हीरो और विलेन साथ जाने पर लोग हीरो से ही बात करते है, साथ में पिक्चर खिचवाते है,वो मेरे साथ नहीं हो सकता.

हूं इन्ट्रोवर्ट

अपने बारें में जॉन कहते हैं कि मैं रियल लाइफ में शांत रहने वाला व्यक्ति हूं, अधिक पार्टी पसंद नहीं करता, शूट नहीं करने पर मैं परिवार के साथ समय बिताना, ट्रेवल करना, जिम जाना, योगा आदि करता हूँ. मैं इंत्रोवर्ट किस्म का व्यक्ति हूँ.

न करें वेस्ट

इस साल मेरी सोच यह है कि आने वाले प्रोजेक्ट में सभी को अच्छा काम मिले, क्योंकि किसी एक भूमिका को किसी एक कलाकार को जब मिलता है, तो दूसरे का काम जाता है. मैं किसी भी नए कलाकार को अभिनय के लिए सही कास्टिंग डायरेक्टर या डायरेक्टर से हमेशा मिलवाने की कोशिश इस साल भी पहले की तरह करता रहूँगा. पर्यावरण की सुरक्षा मैने शुरू कर दी है,प्लास्टिक का प्रयोग नहीं करता,पानी वेस्ट नहीं करता, जरुरत पड़ने पर गाड़ी निकालता हूँ. मैं सभी से कहना चाहता हूँ कि पानी, बिजली या प्लास्टिक हो, किसी भी चीज को वेस्ट न करें, जितना जरुरत हो उतना ही उपयोग करें, क्योंकि ये सभी चीजे बहुमूल्य है,बहुत कम को इसका लाभ मिल पाता है.

अभिनेता प्रेम परिजा सुपर पॉवर होने पर क्या करना चाहते है, पढ़ें इंटरव्यू

उड़ीसा के भुवनेश्वर में जन्मे अभिनेता प्रेम परिजा ने काफी संघर्ष के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी साख जमाने में कामयाब हुए है. उनकी डेब्यू वेब सीरीज कमांडो रिलीज पर है, जिसमें उन्होंने कमांडो की मुख्य भूमिका निभाई है. इसे लेकर वे बहुत उत्साहित है.

उन्हें बचपन से ही अभिनय की इच्छा थी. दिल्ली में हायर स्टडीज के साथ-साथ उन्होंने थिएटर में अभिनय करना शुरू किया, ताकि वे एक्टिंग सीख सकें. मुंबई आकर प्रेम ने पर्दे के पीछे कई फिल्मों के लिए असिस्टेंट डायरेक्टर का भी काम किया, जिसमे लखनऊ सेंट्रल, वेलकॉम टू कराची आदि कई है, जिससे वे फिल्मों की बारीकियों को अच्छी तरह से समझ सकें.

एक्टिंग था पैशन

प्रेम कहते है कि मैं 11 साल की आयु से अभिनय करना चाहता था. एक्टिंग मेरा पैशन रहा है. मैंने अपने पेरेंट्स को शुरु से ही इस बात की जानकारी दे दी थी. मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ, इसलिए मुझे अपनी राह खुद ही चुनना और उस पर चलना था. इसलिए मैंने संघर्ष को साथी समझा और आज यहाँ पहुँच पाया हूँ. मेरे आदर्श अभिनेता शाहरुख़ खान है, उन्होंने भी पहली टीवी शो फौजी में सैनिक की भूमिका निभाई थी और आज मैं भी पहली वेब सीरीज में कमांडो की भूमिका निभा रहा हूँ.

 

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मिला ब्रेक

कमांडों फिल्म में काम करने की उत्सुकता के बारें में पूछने पर प्रेम का कहना है कि मैंने भुवनेश्वर में रहते हुए छोटी उम्र से एक्टर बनना चाहता था. वहां से दिल्ली और फिर मुंबई आया, पर्दे के पीछे काफी सालों तक काम किया, ऐसे करीब 16 साल के बीत जाने पर अगर एक बड़ी हिंदी वेब शो जिसके निर्देशक विपुल अमृतलाल शाह है, उस फिल्म में काम करने का मेरा सपना, अब साकार होता हुआ दिखता है, इसकी ख़ुशी को बयान करना मेरे लिए संभव नहीं.

चुनौतीपूर्ण भूमिका

कमांडों की भूमिका में फिट बैठना आपके लिए कितना चुनौतीपूर्ण रहा? प्रेम कहते है कि मैं मुंबई में एसिस्टेंट डायरेक्टर का काम छोड़ने के बाद एक्टिंग के बारें में जब सोचा, तब मेरे दो ट्रेनर अक्षय और राकेश ने मुझे बहुत स्ट्रोंग ट्रेनिग दिया और मुझे एक कमांडो तैयार किया. स्क्रिप्ट मिलने पर जब पता चला कि मुझे कमांडो विराट की भूमिका निभानी है, तो मैंने थोड़े एक्स्ट्रा मार्शल आर्ट सीखा, मसल्स बढ़ाए और इंटरनली स्ट्रोंग मानसिक भावनाओं पर भी काम करना पड़ा.

कठिन था फिल्माना  

कठिन दृश्यों के बारें में प्रेम कहते है कि इसमें दो ऐसे मौके थे जब मुझे उसे शूट करना कठिन था. मेरे पहले दिन की शूटिंग, जब मुझे कैमरे के सामने एक्टिंग करना पड़ा. पहला दिन मुझे तिग्मांशु धुलिया के साथ शूट करना था. उस दिन कॉन्फिडेंस आने में समय लगा. पहले सीन में 6 से 7 टेक लगे थे. इसके अलावा एक सीन में आँखों से 10 साल की दोस्ती को बताना था, जो बहुत कठिन था. इसे भी करने में 7 से 8 टेक लगे थे.

 

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मिली प्रेरणा  

प्रेम आगे कहते है कि मेर परिवार में कोई भी एक्टिंग फील्ड से नहीं है, मेरे परिवार के सारें लोग एकेडमिक प्रोफेशन में है. मेरे पिता एक प्रतिभावान व्यक्ति थे. जब मैंने पहली बार सबको अभिनय की इच्छा के बारें में बताया तो सभी चकित रह गयें. मैं छोटी उम्र से फिल्में बहुत देखता था और फिल्में मुझे आकर्षित करती थी. मुझे याद है कि मैं शाहरुख़ की अधिक फिल्में देखता था. उनकी एक फिल्म को देखकर लगा कि मुझे भी इसी फील्ड में आना है. उनकी फिल्में देखकर ही मेरी एक्टिंग की प्रेरणा जगी.

मिला सहयोग  

परिवार के सहयोग के बारें में प्रेम का कहना है कि शुरू में उन्होंने पढ़ाई पूरी करने को कहा और मैं स्टडीज में काफी अव्वल भी था, लेकिन थिएटर में मेरी रूचि को देखने के बाद उन्हें लगने लगा कि मैं वाकई अभिनय में इंटरेस्ट रखता हूँ और उन्होंने मुझे अभिनय के लिए सहयोग दिया. दिल्ली के कॉलेज में मैंने पढ़ाई के साथ-साथ थिएटर सोसाइटी में भाग लिया. वहां परिवार वालों ने मुझे डांस और अभिनय करते हुए देखा तो उन्हें भी समझ आ गई कि मेरा इसी फील्ड में जाना सही होगा और सहयोग दिया.

किये संघर्ष

दिल्ली से मुंबई आकर खुद की पहचान बनाना प्रेम के लिए काफी मुश्किल था. वे कहते है कि मैं संघर्ष के बारें में कितना भी बताऊँ वह कम ही होगा. मैं इसे अपनी जर्नी मानता हूँ, संघर्ष नहीं. दिल्ली में मेरी जर्नी ख़त्म होने के बाद मुझे मुंबई जाना सही लगा लगा. यहाँ आकर भी मुझे फिल्म बनाने के बारें में जानकारी हासिल करना जरुरी लगा. मुझे एसिस्टेंट डायरेक्टर का काम 9 महीने के बाद मिला, जो डायरेक्टर निखिल अडवानी के साथ काम करने का था. मैंने उनके साथ कई फिल्मों के लिए काम किया और फिल्म बनाने की कला सीखी. शुरू में मैं खुद हर प्रोडक्शन हाउस में जाकर अपनी रिजुमे दिया करता था और एसिस्टेंट डायरेक्टर का काम माँगता था. इस दौरान मैंने फिजिकल ट्रेनिग और अभिनय को भी चालू रखा.

 

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वित्तीय संघर्ष

9 महीने की गैप में आपने अपनी फिनेंशियल स्थिति को कैसे सम्हाला? इस प्रश्न के जवाब में प्रेम का कहना है कि उन दिनों फाइनेंस को सम्हालना बहुत मुश्किल था. पेरेंट्स के भेजे गए पैसे से दिन गुजारता रहा. कई बार बहुत मुश्किल होता था. मुझे याद आता है कि मैं जिस फ्लैट में रहता था, उसमे 14 लड़के रहते थे, बाथरूम एक था, ताकि रेंट बचाया जा सकें. उस वक्त पिता थे, तो उन्होंने फाइनेंसियली बहुत हेल्प किया.

रिजेक्शन से होती है मायूसी  

शुरुआत में हुए रिजेक्शन का सामना करना और आगे फिर से खुद को ऑडिशन के लिए तैयार करना आसान नहीं था, क्योंकि ऐसे में उन्हें खुद की फाइनेंसियल पहलू को भी ध्यान में रखना पड़ा. प्रेम सोचते हुए कहते है कि सबसे अधिक मैं इन सबसे निपटने के लिए खुद को अनुसाशन में रखना पसंद करता किया. इसमें मैं मेडिटेशन करता हूँ, इससे मुझे आत्मविश्वास और शक्ति मिलती है. रिजेक्शन तो होना ही है और इसे सहजता से लेना भी पड़ता है. नहीं तो इस इंडस्ट्री में काम करना संभव नहीं. कई बार बहुत मायूसी होती है, तब मैं अपनी माँ, बहन और कुछ दोस्तों से बातचीत कर लेता हूँ, जो मुझे मेरे पैशन को याद दिलाते थे. इसके अलावा मैं अभिनय की ट्रेनिंग पर बहुत अधिक फोकस करता हूँ. इन सभी को करने से मुझे स्ट्रेस नहीं होता.

सपना स्टार बनने का

ड्रीम के बारें में प्रेम कहते है कि मैंने इस देश का सबसे बड़ा स्टार बनने का सपना देखा है और उसी दिशा में मेहनत कर रहा हूँ. इसके अलावा सबसे अधिक मनोरंजन वाली फिल्मों और अभिनय से दर्शकों को खुश करना चाहता हूँ. मेरे पास सुपर पॉवर, स्ट्रेंथ की होनी चाहिए, ताकि मैं जरुरतमंदों को जी-जान से मदद कर सकूँ. मेरी माँ की सीख भी यही है.

मिलेट्स से बने हेल्दी फूड के बारें में क्या कहती है महिला उद्यमी विद्या जोशी, जानें यहां

अगर जीवन में कुछ करने को ठान लिया हो तो समस्या कितनी भी आये व्यक्ति उसे कर गुजरता है. कुछ ऐसी ही कर दिखाई है, औरंगाबाद की महिला उद्यमी विद्या जोशी. उनकी कंपनी न्यूट्री मिलेट्स महाराष्ट्र में मिलेट्स के ग्लूटेन और प्रिजर्वेटिव फ्री प्रोडक्ट को मार्किट में उतारा है, सालों की मेहनत और टेस्टिंग के बाद उन्होंने इसे लोगों तक परिचय करवाया है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. उनके इस काम के लिए चरक के मोहा ने 10 लाख रुपये से सम्मानित किया है. उनके इस काम में उनका पूरा परिवार सहयोग देता है.

किये रिसर्च मिलेट्स पर

विद्या कहती है कि साल 2020 में मैंने मिलेट्स का व्यवसाय शुरू किया था. शादी से पहले मैंने बहुत सारे व्यवसाय किये है, मसलन बेकिंग, ज्वेलरी आदि करती गई, लेकिन किसी काम से भी मैं पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पा रही थी. मुझे हमेशा से कुछ अलग और बड़ा करना था, लेकिन क्या करना था, वह पता नहीं था. उसी दौरान एक फॅमिली फ्रेंड डॉक्टर के साथ चर्चा की, क्योंकि फ़ूड पर मुझे हमेशा से रूचि थी, उन्होंने मुझे मिलेट्स पर काम करने के लिए कहा. मैंने उसके बारें में रिसर्च किया, पढ़ा और मिलेट्स के बारें में जानने की कोशिश की. फिर उससे क्या-क्या बना सकती हूँ इस बारें में सोचा, क्योंकि मुझे ऐसे प्रोडक्ट बनाने की इच्छा थी, जिसे सभी खा सके और सबके लिए रुचिकर हो. किसी को परिचय न करवानी पड़े. आम इडली, डोसा जैसे ही टेस्ट हो. इसके लिए मैंने एक न्यूट्रीशनिस्ट का सहारा लिया, एक साल उस पर काम किया. टेस्ट किया, सबको खिलाया उनके फीड बेक लिए और फीडबेक सही होने पर मार्किट में लांच करने के बारें में सोचा.

मिलेट्स है पौष्टिक

विद्या आगे कहती है कि असल में मेरे डॉक्टर फ्रेंड को नैचुरल फ़ूड पर अधिक विशवास था. उनके कुछ मरीज ऐसे आते थे, जो रोटी नहीं खा सकते थे, ऐसे में उन्हें ज्वार, बाजरी, खाने के लिए कहा जाता था, जिसे वे खाने में असमर्थ होते थे. कुछ नया फॉर्म इन चीजो को लेकर बनाना था, जिसे लोग खा सकें. मसलन इडली लोग खा सकते है, मुझे भी इडली की स्वाद पसंद है. उसी सोच के साथ मैंने एक प्रोडक्ट लिस्ट बनाई और रेडी टू कुक को पहले बनाना शुरू किया, इसमें इडली का आटा, दही बड़ा, अप्पे, थालपीठ आदि बनाने शुरू किये. ये ग्लूटेन और राइस फ्री है. उसमे प्रीजरवेटिव नहीं है और सफ़ेद चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है. इसमें अधिकतर असली घी और गुड से लड्डू, कुकीज बनाया जाता है. इन सबको बनाकर लोगों को खिलाने पर उन्हें जब पसंद आया, तब मैंने व्यवसाय शुरू किया. इसमें मैंने बैंक से मुद्रा लोन लिया है. मैंने ये लोन मशीन खरीदने के लिए लिया था. सामान बनाने से लेकर पैकिंग और अधिक आयल को प्रोडक्ट से निकालने तक की मशीन मेरे पास है.

हूँ किसान की बेटी

विद्या कहती है कि नए फॉर्म में मैंने मिलेट्स का परिचय करवाया. इसमें सरकार ने वर्ष 2023 को मिलेट्स इयर शुरू किया जो मेरे लिए प्लस पॉइंट था. मैं रियल में एक किसान की बेटी हूँ, बचपन से मैंने किसानी को देखा है, आधा बचपन वहीँ पर बीता है. मेरे पिता खेती करते थे, नांदेड के गुंटूर गांव में मैं रहती थी. 11 साल तक मैं वही पर थी. कॉलेज मैंने नांदेड में पूरा किया. मैंने बचपन से ज्वार की रोटी खाई है. शहर आकर गेहूँ की रोटी खाने लगी थी. मेरे परिवार में शादी के बाद मैंने देखा है कि उन्हें ज्वार, बाजरी की रोटी पसंद नहीं, पर आब खाने लगे. बच्चे भी अब मिलेट्स की सभी चीजे खा लेते है. ज्वार, बाजरा, नाचनी, रागी, चेना, सावा आदि से प्रोडक्ट बनाते है.

मुश्किल था मार्केटिंग

विद्या को मार्किट में मिलेट्स से बने प्रोडक्ट से परिचय करवाना आसान नहीं था. विद्या कहती है कि मैंने व्यवसाय शुरू किया और कोविड की एंट्री हो चुकी थी. मेरा सब सेटअप तैयार था, लेकिन कोविड की वजह से पहला लॉकडाउन लग गया, मुझे बहुत टेंशन हो गयी. बहुत कठिन समय था, सभी लोग मुझे व्यवसाय शुरू करने को गलत कह रहे थे, क्योंकि ये नया व्यवसाय है, लोग खायेंगे नहीं. लोगों में मिलेट्स खाने को लेकर जागरूकता भी नहीं थी, जो आज है. इसमें भी मुझे फायदा यह हुआ है कि कोविड की एंट्री से लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है. हालाँकि दो महीने मेरा यूनिट बंद था, क्योंकि मैं लॉकडाउन की वजह से कही जा नहीं सकती थी, लेकिन लोग थोडा समझने लगे थे. बैंक का लोन था, लेकिन उस समय मेरे पति ने बहुत सहयोग दिया, उन्होंने खुद से लोन भरने का दिलासा दिया था. इसके बाद भी बहुत समस्या आई, कोई नया ट्राई करने से लोग डर रहे थे. शॉप में भी नया प्रोडक्ट रखने को कोई तैयार नहीं था, फिर मैंने सोशल मीडिया का सहारा लिया. तब पुणे से बहुत अच्छा रेस्पोंस मिला. वह से आर्डर भी मिले. इसके अलावा शॉप के बाहर भी सुबह शाम खड़ी होकर मिलेट्स खाने के फायदे बताती थी. बहुत कठिन समय था. अब सभी जानते है. आगे भी कई शहरों में इसे भेजने की इच्छा है.

मिलेट्स होती है सस्ती

विद्या का कहना है कि ये अनाज महंगा नहीं होता, पानी की जरुरत कम होती है. जमीन उपजाऊं अधिक होने की जरुरत नहीं होती. इसमें पेस्टीसाइड के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती. इसलिए इसके बने उत्पाद अधिक महंगे नहीं होते. मैं बाजार से कच्चे सामान लेती हूँ. आगे मैं औरंगाबाद के एग्रीकल्चर ऑफिस से सामान लेने वाली हूँ. किसान उनके साथ जुड़े होते है. वहां गुणवत्ता की जांच भी की जाती है. अच्छी क्वालिटी की प्रोडक्ट ली जाती है. सामान बनने के बाद भी जांच की जाती है. हमारे प्रोडक्ट में भी प्रिजेर्वेटिव नहीं होते. कई प्रकार के आटा, थालपीठ, ज्वार के पोहे, लड्डू आदि बनाती हूँ. मैं औरंगाबाद में रहती हूँ. गोवा, पुणे, चेन्नई और व्हार्ट्स एप ग्रुप और औरंगाबाद के दुकानों में भेजती हूँ. इसके अलावा मैं जिम के बाहर भी स्टाल लगाती हूँ.

मिला सहयोग परिवार का

परिवार का सहयोग के बारें में विद्या बताती है कि मैं हर दिन 10 से 12 घंटे काम करती हूँ, इसमें किसी त्यौहार या विवाह पर गिफ्ट पैकिंग का आर्डर भी मैं बनाती हूँ. सबसे अधिक सहयोग मेरे पति सचिन जोशी करते है, जो एक एनजीओ के लिए काम करते है. मेरे 3 बच्चे है, एक बड़ी बेटी स्नेहा जोशी 17 वर्ष और जुड़वाँ दो बच्चे बेदांत और वैभवी 13 वर्ष के है. बच्चे अब बड़े हो गए है, वे खुद सब काम कर लेते है. मेरी सास है, वह भी जितना कर सकें सहायता करती है. सहायता सरकार से नहीं मिला, लेकिन चरक के मोहा से मुझे 10 लाख का ग्रांट मिला है, जिससे मैं आगे मैं कुछ और मशीनरी के साथ इंडस्ट्रियल एरिया में जाने की कोशिश कर रही हूँ. अभी मैं मिलेट्स की मैगी पर काम कर रही हूँ. जो ग्लूटेन फ्री होगा और इसका ट्रायल जारी है. 5 लोगों की मेरे पास टीम है. प्रोडक्ट बनने के बाद न्यूट्रशनिस्ट के पास भेजा जाता है, फिर ट्रायल होती है. इसके बाद उसका टेस्ट और ड्यूरेबिलिटी देखी जाती है. फिर लैब में इसकी गुणवत्ता की जांच की जाती है.

सस्टेनेबल है मिलेट्स

स्लम एरिया में प्रेग्नेंट महिलाओं को मैं मिलेट्स के लड्डू देती हूँ, ताकि उनके बच्चे स्वस्थ पैदा हो. अधिकतर महिलायें मेरे साथ काम करती है. इसके अलावा तरुण भारत संस्था के द्वारा महिलाओं को जरुरत के अनुसार ट्रेनिंग देकर काम पर रखती हूँ. उन्हें जॉब देती हूँ, इससे उन्हें रोजगार मिल जाता है.

मिलेट्स से प्रोडक्ट बनाने के बाद निकले वेस्ट प्रोडक्ट को दूध वाले को देती हूँ, जो दुधारू जानवरों को खिलाता है. इस तरह से कुछ भी ख़राब नहीं होता. सब कंज्यूम हो जाता है.

विकास के आधार को लेकर क्या कहती है पत्रकार और टीवी एंकर बरखा दत्त

पत्रकार और राइटर बरखा दत्त का जन्म नई दिल्ली में एयर इंडिया के अधिकारी एस पी दत्त और प्रभा दत्त, के घर हुआ था. दत्त को पत्रकारिता की स्किल मां से मिला है. महिला पत्रकारों के बीच बरखा का नाम लोकप्रिय है. उनकी छोटी बहन बहार दत्त भी टीवी पत्रकार हैं. बचपन से ही क्रिएटिव परिवार में जन्मी बरखा ने पहले वकील या फिल्म प्रोड्यूस करने के बारें में सोचा, लेकिन बाद में उन्होंने पत्रकारिता को ही अपना कैरियर बनाया.

चैलेंजेस लेना है पसंद

वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के समय कैप्टेन बिक्रम बत्रा का इंटरव्यू लेने के बाद बरखा दत्त काफी पॉपुलर हुई थी. वर्ष 2004 में भूकंप और सुनामी के समय भी रिपोर्टिंग की थी. उन्हें चुनौतीपूर्ण काम करना बहुत पसंद था, इसके लिए उन्हें काफी कंट्रोवर्सी का सामना करना पड़ा. वर्ष 2008 में बरखा को बिना डरे साहसिक कवरेज के लिए पदम् श्री पुरस्कार भी मिला है. इसके अलावा उन्हें बेस्ट टीवी न्यूज एंकर का ख़िताब भी मिल चुका है. बरखा के चुनौतीपूर्ण काम में कोविड 19 के समय उत्तर से दक्षिण तक अकेले कवरेज करना भी शामिल है, जब उन्होंने बहुत कम मिडिया पर्सन को ग्राउंड लेवल पर मजदूरों की दशा को कवर करते हुए पाया. उनकी इस जर्नी में सबसे कठिन समय कोविड से आक्रांत उनकी पिता की मृत्यु को मानती है, जब वह कुछ कर नहीं पाई.

 

 

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बरखा दत्त ने मोजो स्टोरी पर ‘वी द वीमेन’ की 6 एडिशन प्रस्तुत किया है, जहाँ महिलाओं ने अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों से गुजरते हुए कैसे आगे बढ़ी है, उनके जर्नी की बात कही गयी है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. वह कहती है कि वुमन एम्पावरमेंट पर कई कार्यक्रम हर साल होते है, जिसमे कुछ तो एकेडमिक तो कुछ ग्लैमर से जुड़े शो होते है, जिससे आम महिलाएं जुड़ नहीं पाती. मैंने ग्रासरूट से लेकर सभी से बात की है. ग्राउंड से लेकर एडल्ट सभी को शामिल किया गया है, इसमें केवल महिलाएं ही नहीं, पुरुषों, गाँव और कम्युनिटी की औरतों को भी शामिल किया गया है. इसमें गे राईट से लेकर मेनोपोज सभी के बारें में बात की गई है, ताकि दर्शकों के पसंद के अनुसार कुछ न कुछ देखने और सीखने को मिले.

इक्विटी ऑफ़ वर्क है जरुरी

बरखा आगे कहती है कि मुझे लगता है, चुनौती हर इंसान का अपने अपने अंदर होता है, इसमें हमारे संस्कार, एक माहौल में बड़े होना शामिल होती है. घरों में क्वालिटी की बात नहीं होती, लेकिन महिलाएं काम और ड्रीम शुरू करती है, लेकिन आगे जाकर छोड़ देती है, इसे क्यों छोड़ दिया, या क्या समस्या था, पूछने पर वे परिवार और बच्चे की समस्या को खुद ही उजागर कर संतुष्टि पा लेती है. मैं हमेशा कहती हूँ कि ‘इक्वलिटी ऑफ़ वर्क’ अधूरी रहेगी, अगर महिला ने घर पर इक्वलिटी की बात न की हो, क्योंकि एक सर्वे में पता चला है कि कोविड के दौरान काफी महिलाओं ने काम करना छोड़ दिया है. देखा जाय तो महिलाएं हर बाधाओं को पार कर काम कर रही है. फाइटर जेट से लेकर फ़ौज और स्पेस में भी चली गई है, लेकिन आकड़ों को देखे तो इंडिया में काम करने वाली महिलाओं की संख्या में कमी आई है, बढ़ी नहीं है. भागीदारी काम में कम हो रही है. पढ़ी लिखी औरतों के लिए मेरा कहना है कि पढ़े लिखे होने की वजह से हमेशा जागरूक होनी चाहिए. हमें मौका गवाना नहीं चाहिए, क्योंकि कई महिलाओं को ये मौका नहीं मिल पाता है.

 

 

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करना पड़ा, खुद को प्रूव

बरखा कहती है कि मैंने कई बार अपनी बातों को जोर देकर सामने रखा है. वर्ष 1999 में जब मैंने कारगिल वार को कवर करने गई थी, मुझे अपनी ऑर्गनाइजेशन को बहुत मनाना पड़ा. वार फ्रंट में जाने का मौका नहीं मिल रहा था, आज तो महिलाएं फ़ौज में है, तब बहुत कम थी. उन्होंने कहा कि खाने , रहने औए बाथरूम के लिए जगह नहीं होगी, मैंने कहा कि मैं सबकुछ सम्हालने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि मैं एक वार ज़ोन में जा रही हूँ. मैंने देखा है कि आप जितना ही चुनौतीपूर्ण काम करें और अचीव कर लें, उतनी ही आपको बहुत अधिक मेहनत करने की जरुरत आगे चलकर होती है और उस पोस्ट पर पहुँच कर 10 गुना अधिक काम, कंट्रोवर्सी और जजमेंट की शिकार होना पड़ता है. एक महिला को पूरी जिंदगी संघर्ष करनी पड़ती है, वह ख़त्म कभी नहीं होती.

खुले मन से किया काम

बरखा ने हमेशा ही चुनौतीपूर्ण काम किया है और ग्राउंड लेवल से जुड़े रहना उन्हें पसंद है. वह कहती है कि कोविड के समय में मैंने दिल्ली से केरल गाडी में गयी थी और पूरे देश का कवरेज दिया था. किसी बड़ी मिडिया को मैंने रास्ते पर नहीं देखा. माइग्रेंट्स रास्ते पर पैदल जा रहे थे, केवल दो चार लोकल प्रेस दिखाई पड़ी थी. बड़े-बड़े टीवी चैनल कोई भी नहीं दिखा. रिपोर्टर के रूप मैं मुझे लोगों तक ग्राउंड लेवल तक पहुंचना मेरा पैशन रहा है. इसके अलावा मुझे ऑथेंटिक रहने की इच्छा हमेशा रही है, क्योंकि मैंने बहुतों को देखा है कि वे खुले मन से काम नहीं करते. फॉर्मल रहते है और अगर कोई व्यक्ति फॉर्मल रहता है, तो अगला भी कुछ कहने से हिचकिचाएगा. मैने हमेशा एक आम इंसान बनकर ही लोगों से बातचीत की है.

 

 

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था कठिन समय

उदास स्वर में बरखा कहती है कि जीवन का कठिन समय मेरे पिता का कोविड में गुजर जाना रहा. दो साल से मैंने कोविड को कवर किया और बहुत सारे ऐसे स्टोरी को कवर किया जिसमे लोगों को ऑक्सीजन, बेड और प्रॉपर चिकित्सा नहीं मिल रही थी. मेरे लिए अच्छी बात ये रही कि मैने फ़ोन कर पिता को एक हॉस्पिटल मुहैय्या करवाया था. मैं उस समय बहुत सारे हॉस्पिटल गई, लेकिन मेरे पिता जिस हॉस्पिटल में थे, वहां नहीं जा पाई. जबतक मैं पहुंची, बहुत देर हो चुकी थी. वही मेरे लिए जीवन का सबसे कठिन समय था.

मिली प्रेरणा

बरखा आगे कहती है कि मेरा प्लान वकील बनने का था, फिर फिल्म बनाने की सोची, लेकिन जब मैंने मास्टर की पढाई पूरी की, तो कोई प्राइवेट प्रोडक्शन हाउस इंडिया में नहीं थी. केवल दूरदर्शन के पास प्रोडक्शन हाउस था. मैंने एन डी टीवी में ज्वाइन किया और मुझे एक स्टोरी करने के लिए भेजा दिया गया, उन्हें मेरा काम पसंद आया और मैं रिपोर्टर बन गई

विकास का आधार

विकास का आधार हर इंसान का हक बराबर होने से है. मेरी राय में घर्म, जाति, क्लास आदि से किये गए आइडेंटिटी कई बार लोगों को डिसाइड करती है तो कई बार डीवाईड करती है. विकास मेरे लिए एक्रोस आइडेंटिटी, केटेगोरी, डिवीज़न आदि सबके अधिकार एक जैसे होने चाहिए, तभी विकास संभव हो सकेगा.

विश्व प्रसिद्ध डिज़ाइनर रॉकी स्टार क्या कहते है फैशन मिस्टेक पर, जाने यहाँ

फैशन की दुनिया हमेशा ही आबाद रहती है. जगह हो या कोई अवसर, फैशन और स्टाइल हमेशा अपने रंगों से सबको सरोबार कर देती है. सही फैशन, जिंदगी के माइने बदल सकती है, ऐसे में डिज़ाइनर भी हमेशा कुछ नया कर लोगों को आकर्षित करते रहते है. मुंबई की रॉकी स्टार ऐसे ही एक डिज़ाइनर है, उन्होंने हमेशा कुछ अलग ट्रेडिशन और फैब्रिक को लेकर काम किया है. उनके डिजाईन में रॉयल, गोथिक और कंटेम्पररी सभी को शामिल किया है, जिसे सेलेब्रिटी से लेकर साधारण इंसान सभी पहनने के लिए उत्सुक रहते है. उनकी कंटेम्पररी डिजाईन में इंडियन क्राफ्ट और एम्ब्रायडरी की प्रधानता होती है, जो देखने में सुंदर और एलीगेंट होते है. डिज़ाइनर रॉकी मिलान फैशन वीक में अपने कपड़ों की शो केस करने वाले है, जिसमे फैशन से जुडी कुछ खास बातों का उल्लेख किया है, आइये जानते है.

 

 

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फैशन ट्रेंड

फैशन में बदलाव हर बार कुछ न कुछ आता रहता है और ये पुराने ड्रेस से अधिकतर प्रेरित हुई होती है. आज के फैशन में पुराने ट्रेंड को डालकर बनाने से ड्रेस की लुक अलग और ग्लैमरस हो जाती है. इस बार फंकी और प्लेफुल स्टाइल की वापसी का संकेत है. वर्ष 1960 और 1970 के दशक के आइकॉनिक लुक की याद दिलाते हुए इस बार मिनी ड्रेसेज़ और अल्ट्रा-शॉर्ट स्कर्ट्स की वापसी हो रही है. लेसी और क्रोशेट फेब्रिक्स, रेट्रो लुक को फेमिनिन टच देती है. इसके अलावा इस बार आर्म वार्मर्स एक एक्सेसरीज की तरह प्रयोग में है, जो किसी भी ऑउटफिट को कोज़ी लुक देती है.

मिली प्रेरणा

रॉकी अपनी प्रेरणा के बारें में कहते है कि कपड़े बनाने में मेरी दिलचस्पी कम उम्र से ही शुरू हो चुकी थी, और मैं हमेशा नई ट्रेंड और स्टाइल के लिए तैयार रहता था. वास्तुकला में खासकर ‘बारोक’ एक वास्तुशिल्पीय शैली, मेरे लिए खास इंस्पिरेशन की वजह बनी. उसमे मैं बिल्डिंग के आकार, रंग और पैटर्न को अपने डिजाईन में सम्मिलित करता था. इन दो चीजों ने मुझे फैशन इंडस्ट्री में कैरियर बनाने के लिए प्रेरित किया. मैं लगातार कुछ नई चीजों की खोज में रहता हूँ, ताकि उसे मैं अपनी डिजाईन में जगह देकर कुछ नया क्रिएट कर सकूँ.

 

 

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फैशन वीक देती है मौका

डिज़ाइनर रॉकी एस आगे कहते है कि मिलान फैशन वीक में मेरे कलेक्शन को प्रदर्शित करने के लिए आमंत्रित किया जाना मेरे लिए एक बहुत बड़ा सम्मान है. मैं ऐसे प्रतिष्ठित मंच पर कलेक्शन को पेश करने के अवसर के लिए उत्साहित, गौरवान्वित और आभारी हूँ. मेरे ऊपर एक प्रभावशाली और यादगार शो को प्रस्तुत करने की एक बड़ी प्रेशर है. उम्मीद है मैं दर्शकों के लिए एक मिसाल बन सकूँगा. मैंने चुनौती को स्वीकार किया है और आगे कदम बढाया है. उम्मीद है मैं इस पर कायम रहकर एक अच्छी कलेक्शन पेश करने में समर्थ रहूँगा, जिसमे वे मेरी विजन और क्राफ्टमेनशिप को देख पायेंगे.

नई कलेक्शन की होगी प्रस्तुति

डिज़ाइनर आगे कहते है कि हमारा नया कलेक्शन ‘मिड नाईट ब्लूम’ यानि रात में खिलने वाला जादुई फूल (nocturnal blossoms) से प्रेरित है. यह कलेक्शन अज्ञात, अस्थाई और वाइल्ड है. मेरी टीम और मैंने फूलों की भव्यता और उसकी मनमोहिनी रूप को फेब्रिक पर उतारने की कोशिश की है. हर पीस में हेंडीक्राफ्ट की डिटेलिंग को दिखाने की कोशिश की गई है. इसके लिए रिफाइंड वेलवेट, डेलिकेट ट्युल फैब्रिक, ऑर्गेनिक और मसलिन के प्रयोग किये गए है. इसमें कलर पैलेट भी नेचर से प्रभावित रंग है, जिसमे डीप रेड और ब्राइट पिंक्स की प्रधानता है.

 

 

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अंतर देशी और विदेशी फैशन का

रॉकी का कहना है कि भारत और विदेशों में फैशन के बीच मुख्य अंतर कल्चरल इन्फ्लुएंस का है. भारतीय फैशन पारंपरिक परिधानों से काफी प्रभावित है, जबकि विदेशों में फैशन अधिक समकालीन और आधुनिक है. मार्केटिंग स्ट्रेटिजी भी अलग-अलग हैं, भारत में ईवेंट और शो का प्रयोग मार्केटिंग के लिए किया जाता है, जबकि विदेशों में डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म काफी पोपुलर है. भारतीय फैशन में प्रयोग की जाने वाली सामग्री जटिल और हेंडीक्राफ्ट होती है, जबकि विदेशों में उच्च गुणवत्ता वाले फेब्रिक के साथ-साथ नई तकनीकों का प्रयोग किया जाता है. दोनों फैशन में ही अनूठी विशेषताएं और प्रभावशाली होने के प्रमाण हैं, जो उन्हें अपने तरीके से सुंदर बनाते हैं.

फैशन मिस्टेक्स

फैशन का कोई दायरा नहीं होता, ये व्यक्ति विशेष के शारीरिक बनावट और हाव-भाव पर निर्भर करता है. रॉकी कहते है कि मैं उसे फैशन मिस्टेक मानता हूँ, जिस व्यक्ति ने अपनी पर्सनल स्टाइल और बॉडी टाइप को बिना ध्यान दिए लेटेस्ट ट्रेंड को फोलो किया है. कपडे ऐसे पहने जो आपके व्यक्तित्व और शारीरिक काया को निखारे. आँख बंद कर कभी किसी स्टाइल को फोलो न करें. इसके अलावा ख़राब फिटिंग वाले कपडे, किस अवसर को बिना ध्यान दिए और बेसिक हायजिन को नजरअंदाज करना ही फैशन मिस्टेक है. ये हमेशा याद रखे कि फैशन मजेदार और एक्सप्रेसिव होना चाहिए, साथ ही फंक्शनल और आरामदायक होने की भी जरुरत है.

जिम्मेदारी है सस्टेनेबल फैशन का

मैं जितना संभव हो सस्टेनेबल फैशन की प्रैक्टिस करने की कोशिश करता हूँ. मसलन आर्गेनिक फैब्रिक का प्रयोग करना, वेस्ट प्रोडक्ट को कम करना, श्रम का नैतिकता से प्रयोग करना आदि. इसे करना आसान नहीं, पर एक छोटी सी कदम ही सस्टेनेबलिटी की ओर बढ़ाना, अपने आप में एक बड़ी बात होती है. मैने अपने सभी कंज्यूमर्स से भी कहना चाहता हूँ कि कपड़ों की खरीदारी करते वक्त पोशाक का चयन उत्तरदायित्व के साथ करें,

पैसे की कमी के कारण कई बार हौकी छोड़ने का विचार आया- रानी रामपाल, हौकी खिलाड़ी

हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले के शाहबाद में एक गरीब परिवार में 4 दिसंबर, 1994 को जन्मी रानी रामपाल के पिता परिवार का पेट पालने के लिए टांगा चलाते थे. दिन भर में बमुश्किल 100 रुपए उन की कमाई होती थी जिस में पत्नी, 3 बच्चे, अपना और घोड़े का खाना जुटाना मुश्किल होता था. रानी के दोनों बड़े भाइयों ने जब होश संभाला तो पिता का हाथ बंटाने के लिए एक भाई ने एक दुकान में सेलसमैन की नौकरी कर ली और दूसरा बढ़ई बन गया.

पिता की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण रानी का स्कूल में एडमिशन बड़ी मुश्किल से हुआ. रानी स्कूल के मैदान में दूसरे बच्चों को हौकी खेलते हुए देखती थी. उस समय उन की उम्र सिर्फ 6 साल थी. हौकी का खेल उन्हें आकर्षित करती थी.

कभीकभी वे दूसरे बच्चों से हौकी स्टिक ले कर खेलने लगती थीं. धीरेधीरे हौकी पर उन का हाथ जमने लगा. स्कूल के बच्चे अकसर उन को अपने साथ खिलाने लगे.

पैसे की समस्या

एक दिन रानी ने अपने पिता से हाकी खेलने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन पिता राजी नहीं हुए. उस समय लड़कियों का हाफ पैंट पहन कर हौकी खेलना बहुत बड़ी बात थी. जिस लोकैलिटी में उन का परिवार रहता था वहां बेटियों का हाफ पैंट पहनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था.

रानी के बहुत जिद करने के बाद उन के पिता ने रानी का दाखिला शाहाबाद हौकी ऐकैडमी में करवा दिया. एडमिशन तो मिल गया, लेकिन मुश्किल यह थी कि रानी के पिता के पास इतने पैसे नहीं होते थे कि वे उन की कोचिंग की फीस चुका सकें. कई बार भाइयों ने कुछ पैसे जमा कर बहन को दिए तो कभी पिता ने उधार ले कर फीस चुकाई. रानी ने इस कारण कई बार हौकी छोड़ने के बारे में सोचा. लेकिन जब पैसे की समस्या की बात उन के कोच बलदेव सिंह और कुछ सीनियर खिलाडि़यों के सामने आई तो उन्होंने रानी को समझाया और उन की आर्थिक मदद की.

खेल के साथ पढ़ाई

खेल के साथसाथ रानी की पढ़ाई भी चलती रही. स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने बीए में एडमिशन ले लिया लिया लेकिन अभ्यास के कारण वे ग्रैजुएशन पूरा नहीं कर पाईं.

रानी रामपाल ने 212 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले और भारतीय महिला हौकी टीम की कप्तान बनीं. रानी ने जून, 2009 में रूस के कजान में आयोजित चैंपियंस चैलेंज टूरनामैंट में खेला और फाइनल में 4 गोल कर के भारत को जीत दिलाई. उन्हें ‘द टौप गोल स्कोरर’ और ‘यंग प्लेयर औफ द टूरनामैंट’ चुना गया. नवंबर, 2009 में आयोजित एशिया कप में भारतीय टीम के लिए रजत पदक जीतने में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.

2010 राष्ट्रमंडल खेलों और 2010 एशियाई खेलों में भारत की राष्ट्रीय टीम के साथ खेलने के बाद रानी रामपाल को 2010 की एफआईएच महिला औल स्टार टीम में नामांकित किया गया. वे ‘वर्ष की युवा महिला खिलाड़ी’ पुरस्कार के लिए नामांकित हुईं. उन्हें ग्वांगझोउ में 2010 एशियाई खेलों में उन के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें एशियाई हौकी महासंघ की औल स्टार टीम में भी शामिल किया गया था. 2010 में अर्जेंटीना के रोसारियो में आयोजित महिला हौकी विश्व कप में उन्होंने कुल 7 गोल किए, जिस ने भारत को विश्व महिला हौकी रैंकिंग में 9वें स्थान पर रखा.

लाजवाब प्रदर्शन

उन्हें 2013 जूनियर विश्व कप में ‘टूरनामैंट का खिलाड़ी’ चुना गया था. 2013 के जूनियर विश्व कप में उन्होंने भारत को पहला कांस्य पदक दिलाया. उन्हें 2014 के फिक्की कमबैक औफ द ईयर अवार्ड के लिए नामित किया गया. वे 2017 महिला एशियाई कप का हिस्सा रहीं और 2017 में जापान के काकामीगहारा में दूसरी बार खिताब भी जीता था.

रानी ने भारतीय खेल प्राधिकरण के साथ सहायक कोच के रूप में भी काम किया. राष्ट्रमंडल खेलों में रानी रामपाल का प्रदर्शन लाजवाब रहा है. 2020 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया.

सफल स्टार्टअप खड़ा करना है तो सबसे पहले खुद पर भरोसा करना होगा- विनीता सिंह

गुजरात के एक छोटे से गांव में जन्मीं विनीता सिंह ऐसी ही युवा व्यवसायी हैं. अपने पहले 2 स्टार्टअप में सफल न हो पाने के बावजूद विनीता का खुद पर भरोसा डगमगाया नहीं. अपनी योग्यता और मेहनत के दम पर फिर से एक ऐसी कंपनी शुरू करने का प्लान बनाया जो महिलाओं के लिए हो और जिस में महिलाएं रोजगार भी पा सकें. उन्होंने चुनौतियों के सामने कभी घुटने नहीं टेके और फिर इस तरह शुगर कौस्मैटिक्स का जन्म हुआ.

जिंदगी का सफरनामा

विनीता का जन्म 1983 में हुआ था. उन के पिता तेज पाल सिंह एम्स के साइंटिस्ट थे और मां पीएचडी होल्डर. विनीता ने दिल्ली पब्लिक स्कूल से पढ़ाई की और ग्रैजुएशन करने के लिए आईआईटी मद्रास चली गईं. इस के बाद उन्होंने आईआईएम अहमदाबाद से एमबीए की डिगरी प्राप्त की. विनीता के पति कौशिक मुखर्जी हैं. दोनों की मुलाकात एमबीए करने के दौरान हुई थी और 2011 में दोनों ने शादी कर ली.

स्टार्टअप्स की प्लानिंग के शुरुआती दिनों को याद करते हुए विनीता कहती हैं, ‘‘मुझे और कौशिक को यह एहसास हो गया था कि अब युवतियां बंधनों से आजाद हो कर बाहर भी निकल रही हैं और अपना रास्ता भी खुद बना रही हैं. फिर हम ने फैबबैग की शुरुआत की.’’

शुगर की शुरुआत

अपने व्यवसाय के अनुभवों से विनीता को यह एहसास हो गया था कि महिलाएं आखिर ब्यूटी इंडस्ट्री से किस बात की उम्मीद रखती हैं. उन्होंने फैबबैग के दौरान मिले कंज्यूमर फीडबैक को आधार बना कर यह समझ लिया कि ब्यूटी इंडस्ट्री में ट्रांसफर प्रूफ और लंबे समय तक टिकने वाले मेकअप की डिमांड ज्यादा है. विनीता ने ब्यूटी वर्ल्ड में पाई जमाने की शुरुआत की क्रेयौन लिपस्टिक्स से.

विनीता ने स्टार्टअप शुरू करने की चाह रखने वालों को प्रोत्साहित करने के लिए एक बार ट्वीट किया था, ‘‘यदि आप अपनी कौरपोरेट जौब को छोड़ कर स्टार्टअप शुरू करना चाहते हैं तो सफल होने के लिए सब से जरूरी है खुद पर भरोसा करना. यदि खुद पर भरोसा न हो तो उतारचढ़ाव भरे इस सफर में आप डगमगा सकते हैं.’’

आज शुगर कौस्मैटिक्स भारत के टौप 3 ब्यूटी ब्रैंड्स में शामिल है और देशभर में इस के 45 हजार से भी ज्यादा आउटलेट्स हैं.

शुगर ब्रैंड शुरू करने के उद्देश्य के बारे में विनीता कहती हैं, ‘‘मैं हमेशा से ऐसा काम करना चाहती थी जिस में मेरी मुख्य ग्राहक महिलाएं ही हों. जब मेरे पहले 2 स्टार्टअप सफल नहीं हुए तो मैं ने अपने पति कौशिक के साथ 2012 में सब्सक्रिप्शन मौडल पर आधारित ब्यूटी ब्रैंड शुरू करने का प्लान बनाया. धीरेधीरे हमारे पास लगभग 2 लाख महिलाओं ने अपनी ब्यूटी से जुड़ी प्राथमिकताएं भेजीं और फिर 2015 में कंज्यूमर ब्यूटी ब्रैंड शुगर कॉस्मेटिक्स लौंच हुआ.’’

अब जज करने की बारी

स्टार्टअप्स को बढ़ावा देने वाले ‘शार्क टैंक’ के बारे में आज हरकोई जानता है. ‘शार्क टैंक’ के सफर के बारे में बात करते हुए विनीता कहती हैं, ‘‘लगभग 15 साल पहले तक स्टार्टअप व्यवसायी को बेरोजगार ही माना जाता था. अब ‘शार्क टैंक’ की वजह से यह सोच बदल रही है. खुद के लिए फंड रेज करने से ले कर इनवैस्टर बनने तक की राह थोड़ी मुश्किल भरी थी, लेकिन खुश हूं कि अपने आत्मविश्वास के बलबूते मैं यह सब कर सकी.’’

अपने दम पर पहचान बनाने की चाह रखने वाली महिलाओं के लिए विनीता का कहना है, ‘‘आज जो भी महिला स्टार्टअप शुरू करने की सोच रही है उसे सब से पहले खुद की स्किल्स पर अटूट भरोसा करना होगा. माना कि आज भी महिलाओं का नंबर स्टार्टअप की दुनिया में बेहद कम है, लेकिन जिस तरह से महिलाएं आगे आ रही हैं उस से साफ है कि वह दिन दूर नहीं जब इस क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों से आगे निकल जाएंगी.’’

मेरे जीवन में काम और परिवार के अलावा कुछ भी नहीं है- मनोज बाजपेयी

फिल्म ‘गुलमोहर’ अभिनेता मनोज बाजपेयी के लिए एक अलग और चुनौतीपूर्ण कहानी है, जिसे निर्देशक राहुल चित्तेला ने बहुत ही सुंदर तरीके से पर्दे पर उतारा है. ये नई जेनरेशन की फॅमिली ड्रामा फिल्म है, जिसमे मनोज बाजपेयी ने अरुण बत्रा की भूमिका निभाई है, जो काबिलेतारीफ है. मनोज कहते है कि मुझे एक ऐसी ही अलग कहानी में काम करने की इच्छा थी, जिसे निर्देशक राहुल लेकर आये और मुझे करने का मौका मिला. खास कर इस फिल्म के ज़रिये मुझे शर्मीला टैगोर और अमोल पालेकर जैसी लिजेंड के साथ काम करने का मौका मिला. मुझे बहुत ख़ुशी मिलती है, जब मैं ऐसे लिजेंड कलाकार के साथ काम करता हूँ. मैंने अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता के साथ भी काम किया है. मुझे दुःख इस बात का है कि मैं अभिनेता संजीव कुमार के साथ काम नहीं कर पाया. एक बार मैं लिजेंड दिलीप कुमार से भी मिला हूँ, उन्होंने सिर्फ कहा था कि मैं उम्दा काम करता हूँ. ये सारी बातें एक कलाकार को अच्छा काम करने के लिए प्रेरित करती है.

फिल्म ‘बेंडिट क्वीन’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी को फिल्म ‘सत्या’ से प्रसिद्धी मिली. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. बिहार के पश्चिमी चंपारण के एक छोटे से गाँव से निकलकर कामयाबी हासिल करना मनोज बाजपेयी के लिए आसान नहीं था. उन्होंने धीरज धरा और हर तरह की फिल्में की और कई पुरस्कार भी जीते है. बचपन से कवितायें पढ़ने का शौक रखने वाले मनोज बाजपेयी एक थिएटर आर्टिस्ट भी है. उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी में हर तरह की कवितायें पढ़ी है. साल 2019 में साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री अवार्ड से भी नवाजा गया है.

रिलेटेबल है कहानी

मनोज ने हमेशा रिलेटेबल कहानियों में काम करना पसंद किया है, क्योंकि वे खुद को इससे जोड़ पाते है. इसी कड़ी में उन्होंने फिल्म ‘गुलमोहर’ किया है, जो ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘डिजनी प्लस हॉटस्टार’ पर रिलीज होने वाली है, इस फिल्म में काम करने की खास वजह के बारें में पूछने पर वे बताते है कि ये इसकी स्क्रिप्ट और उलझन मेरे लिए आकर्षक है, एक परिवार के अंदर हर व्यक्ति कुछ पकड़ना चाह रहा है, लेकिन वह रेत की तरह उसके हाथ से छूट रहा है, ये मुझे बहुत अच्छा लगा. ये आज की कहानी है, जहाँ रिश्तों और संबंधों के बारें में लोग कम सोचते है. आज मैं काम में व्यस्त हूँ और अपने परिवार के साथ रहना मुमकिन नहीं होता, इसलिए जब भी थोडा समय मिलता है मैं परिवार के साथ रहने की कोशिश करता हूँ.

 

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रिश्तों को दे समय

रिश्ते और संबंधों में हल्कापन आने के बारें में मनोज का कहना है कि रिश्ते है, खासकर शहरों में किसी के पास समय नहीं है, जबकि गांव में ऐसा आज भी नहीं है, लेकिन रिश्ते तो है. व्यक्ति काम से अपने आप को बाहर नहीं निकाल पाता, ताकि रिश्तों को मजबूत कर पाएं. रिश्तों को उतना ही महत्व दें, जितना काम को देते है, ताकि बाद में कोई अफ़सोस न हो.

हैप्पी यादे जीवन की

मनोज आगे कहते है कि मुझे याद आता है, मैं एक्टर बनना चाहता था और मैंने 18 साल की उम्र में गांव छोड़ा था. गांव में तब फ़ोन की व्यवस्था नहीं थी, बाद में टेली फ़ोन आया और कम्युनिकेशन स्मूथ हो गया और अब सबके हाथ में मोबाइल फ़ोन है, लेकिन बात नहीं होती.

इसके अलावा जब गांव से निकला, तो परिवार से दूर हो गया, जब मैने उन्हें गांव से दिल्ली लाया, तो मैं मुंबई आ गया, इस तरह से मैं उनके साथ नहीं रह पाया. ये खाली है और कभी भर नहीं सकते. उसे याद करता हूँ और ये सारे हैप्पी यादें है. मैंने कुछ अपनी माँ से और कु अपने पिता से अडॉप्ट किया है. परिवार का साथ मिलकर रहना और बातचीत करना बहुत जरुरी होता है. इससे इमोशनल बोन्डिंग बढती है, जिसकी आज की स्ट्रेसफुल लाइफ में बहुत जरुरी होता है.

 

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ओटीटी ने दिया मौका

इंडिपेंडेंट फिल्मों के बनने से कलाकारों को काम करने का अधिक मौका मिला है और ये आगे तक चल सकेगी. मनोज आगे कहते है कि इंडिपेंडेंट सिनेमा में पैसे नहीं होते, लेकिन कहानी को अपने हिसाब से कहने और फिल्म मेकिंग को ऑर्गनाइज कर दिया है. आज सबके पास वौयस् है, पहले ऐसा नहीं था.

इस फिल्म को करते हुए मैंने बहुत एन्जॉय किया है. फिल्म किसी को कुछ सिखाती नहीं, रिलेट कराती है. इसलिए विश्वास के साथ काम करें, तो सफल अवश्य होगी. मुझे याद है, मुझे फिल्मों में एंट्री मिलना थोडा मुश्किल था, लेकिन मैंने एक्टिंग की ड्रीम को मैंने नहीं छोड़ा. बदलाव जरुरी था, लेकिन ओटीटी ने इस बदलाव को जल्दी ला दिया. फिल्म मेकिंग की तकनीक भी बहुत बदली है.

महिलाओं को आगे बढ़ने में होती है समस्या

मनोज आगे कहते है कि परिवार और पुरुष को इस बात को समझना पड़ेगा कि समय बदल गया है और महिलाओं के सामने पूरा आसमान है और वह पूरी तरह से स्वतंत्र ख्याल की हो चुकी है. उनपर किसी प्रकार की बंदिश लगाने से वह सम्बन्ध नहीं रहेगा. परिवार को मजबूत करने के लिए महिलाओं को अपनी स्वतंत्रता के साथ उड़ पाए, इसके लिए पुरुष की तरफ से एक समझदारी की जरुरत है. मेरे परिवार में मेरी माँ एक स्ट्रोंग महिला रही, उनकी कई बातों को मैं अपने जीवन में उतारता हूँ. ये बातें मेरी जीवन में महत्वपूर्ण है और अंत तक मेरे साथ रहेंगी. मेरे जीवन में काम और परिवार के अलावा कुछ भी नहीं है.

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फिल्म गुलमोहर’, जो आज की पारिवारिक परिवेश पर आधारित एक ऐसी ड्रामा फिल्म है, जिसमे एक परिवार के सभी सदस्य साथ रहते हुए भी अलग विचारधारा रखते है, लेकिन उनमे प्यार और आदर की कोई कमी नहीं है. परिवार की बड़ी बुजुर्ग जब एक निर्णय लेती है, तो पूरा परिवार उस निर्णय से हिल जाते है और 35 साल से रह रहे इस घर को छोड़ने के बारें में सोचने लगते है, जहाँ उनकी यादें और भावनाएं है, लेकिन उन्हें इस निर्णय को मानना है.

परिवार की बड़ी बुजुर्ग का ये निर्णय 4 दिन बाद होली की त्यौहार को साथ मनाने के बाद ख़त्म होने वाला है, लेकिन कैसे पूरा परिवार इस निर्णय के साथ उन चार दिनों को जी रहा है, कैसे सबकी सोच एक दूसरे से अलग है, कुछ इसी ताने-बाने के साथ फिल्म अंजाम तक पहुँचती है. ये फिल्म डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर 3 मार्च को रिलीज होने वाली है.

पद्मभूषण और राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता लीजेंड अभिनेत्री शर्मिला टैगोर ने इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण और मुख्य भूमिका निभाई है. 12 साल की गैप के बाद उन्होंने इस फिल्म में बहुत ही उम्दा अभिनय किया है, जिसमे उन्होंने अपने अनुभव और निर्देशक राहुल चित्तेला के विजन को पर्दे पर उतारने की कोशिश की है.

चाहत रही अच्छी कहानी की

बातचीत के दौरान शर्मिला कहती है कि मुझे एक अच्छी फिल्म में काम करने की इच्छा थी और वह निर्देशक राहुल लेकर आये और मैंने किया. इसमें रिश्ते और संबंधों को बहुत ही खूबसूरत तरीके से पेश किया गया है. साथ ही एक बड़ी अच्छी स्टारकास्ट और टीम है. सभी की भूमिका एक सामान है. परिवार की कहानी है और दिल को छू लेने वाली कहानी है. बहुत ही मिठास है, ऐसी फिल्म में काम करना मेरे लिए बहुत ख़ुशी की बात है.

ये आज की कहानी है, आज लोगों के पास समय नहीं है, ऐसा सभी गलत कहते है और एक मकान में रहते हुए भी फ़ोन पर बात करते है. मेरे हिसाब से जब आप किसी से मिलते है और गले लगते है, तो अलग ही एहसास होता है. किसी से गले मिलना बात करना, इसमें प्लानिंग करनी पड़ती है और समय भी मिलता है, बस रिश्ते को फ्लरिश करने के लिए एक चाहत की जरुरत होती है.

रिलेटेबल है कहानी

रियल लाइफ में भी शर्मिला इस भूमिका से खुद को काफी रिलेट कर पाती है, उनका कहना है कि मेरे परिवार में भी कुछ लोग मेरी बात से असहमत होते है, ‘गिव एंड टेक’ का सिलसिला चलता रहता है. मैं उस पर अधिक ध्यान नहीं देती और किसी को हर्ट भी नहीं करती, लेकिन कभी-कभी एक दृढ़ निश्चय लेना पड़ता है और मैं उसे लेती हूँ. मैं सभी से बातचीत करना और दोस्ती रखना पसंद करती हूँ.

है अच्छा दौर

इस दौर को शर्मिला क्रिएटिविटी का सबसे अच्छा दौर मानती है, जहाँ सबको काम करने का मौका मिलता है. वह कहती है कि फिल्म और क्रिकेट का दौर हमेशा चलता रहता है. ये कभी बंद नहीं हो सकता, लेकिन फिल्मों में कोर को टच करना जरुरी होता है, तभी दर्शक उससे खुद को जोड़ पाते है. इसके अलावा अभी फिल्मों में तकनीक काफी आ चुकी है, जो पहले नहीं थी. अगर कहानी से दर्शक खुद को नहीं जोड़ पाते है, तो आज के दर्शक रियेक्ट करते है. टेस्ट और आशाएं बदली है, इमोशनल चीजों को हटाया नहीं जा सकता. दर्शकों ने ही इसे महत्व दिया है, उन्हें वे हटा नहीं सकते. इस फिल्म की लोकेशन रियल है और पूरी विजन निर्देशक की है. जिसमे प्यार, आदर, भावनाएं आदि पूरी तरह से है, जो कहानी को सपोर्ट करती है.

जरुरी है परिवार का सहयोग

शर्मिला ने हमेशा उन टैबू को तोडा, जिसे समाज नहीं मानती थी. वह कहती है कि मैंने हमेशा उन टैबू को तोड़ा जिसे समाज मानता नहीं था, लेकिन लगता है आज ये गलत नहीं. प्रेशर बहुत होता है, इसमें मेरे पति और प्रसिद्ध क्रिकेटर टाइगर पटौदी का हमेशा साथ रहा है. मैंने शादी की, बच्चों की माँ बनी, लेकिन इस दौरान मेरे परिवार ने काम करने से मना भी किया, पर मैंने काम किया, क्योंकि मेरे साथ मेरे पति थे, उन्होंने कभी काम करने से मना नहीं किया. मैंने भी बच्चों को कभी नेगलेक्ट नहीं किया, उन्हें सिखाया है कि काम से मैं हैप्पी फील करती हूँ. अभी मेरी कुछ सोशल एक्सपेक्टेशन है, जिसे पूरा करना है. कई बार इसे सोचकर रिग्रेट होता है, लेकिन कम हो, इसकी कोशिश करनी है.

महिलाओं को आज भी है समस्या

पुरुषसत्तात्मक समाज में महिलाओं को आगे बढ़ने में समस्याएं आज भी होती है, लेकिन शहरों में महिलाएं लकी है, उन्हें हर तरह की आज़ादी होती है, जबकि छोटे शहरों और गांव में महिलाएं अभी भी काफी समस्या का सामना करती है.

शर्मिला कहती है कि हम सभी लकी है और शहरों में रहते है. मेरे ग्रैंडमदर की शादी 5 साल की उम्र में हुई थी, पहला बच्चा 13 साल की उम्र में हुआ था. मेरी माँ को को-एड यूनिवर्सिटी में जाने की अनुमति नहीं थी. मुझे हमेशा ये पूछा गया कि शादी के बाद फिल्म में काम करने की अनुमति कैसे दी गई और मेरे बच्चे भी उसी फील्ड में है. हर साल हमारी आजादी बढ़ रही है, हमें धैर्य रखने की जरुरत है. महिलाओं के पक्ष में समाज पूरी तरह से बदल नहीं सकती, लेकिन ये भी समझना है कि महिलाएं आगे बढ़ रही है और एक महिला को दूसरी महिला को कभी क्षति न पहुंचाएं.

साथ में आयें, साथ रहे और एक दूसरे की सहायता करें. पुरुषों के बिना समाज नहीं चल सकता. समाज में महिला और पुरुष दोनों को साथ में काम करना है. महिलाये एक दूसरे को बहन की तरह देखें और किसी को जज न करें. महिलाएं कई बार दूसरी महिला या जेनरेशनके लिए बहुत अधिक जजिंग हो जाती है, ये ठीक नहीं. सभी को साथ में लेकर चलना ही हमारे लिए एक अच्छी बात है.

स्ट्रोंग महिला को होती है मुश्किलें

शर्मिला आगे कहती है कि स्ट्रोंग महिला की भूमिका फिल्म में हो या रियल लाइफ में निभाना बहुत मुश्किल होता है. परिवार का सहयोग इसमें सहायक होता है. मुझे मेरी पिता और पति का सहयोग मिला. हम तीन बहने है, मेरे पिता ने कभी लड़के की चाहत नहीं रखी. वे कहते रहे कि मेरी सभी लड़कियां बराबर है और मैं लड़के को कभी मिस नहीं करता. हम सभी वैसे ही बड़े हुए है. मेरे पति ने भी मुझे वैसे ही सहरा दिया है. मुझे उनके लिए कुछ पैक्ड नहीं था. डिनर के लिए उनका इंतजार करने जैसी स्टीरियोटाइप महिला मुझे नहीं बनना पड़ा. उन्होंने मुझे हमेशा उतनी आज़ादी दी, जितनी मुझे चाहिए थी.

कम होती है रिश्तों की अहमियत

शर्मिला आगे कहती है कि पहले बच्चा माँ के बिना नहीं रह सकता, बाद में माँ ग्रांटेड हो जाती है. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ, जब मैंने शादी की तो मेरी पूरी नजर टाइगर पर था, बच्चे होने पर उनपर शिफ्ट हो गयी, अब ग्रैंड चिल्ड्रेन पर हो चुकी है. इस बीच माँ भी छूट जाती है. मैं अपनी दादी से बहुत प्रभावित रही. मेरे तीनों बच्चे हम दोनों से किसी न किसी रूप में मेल खाते है.

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