अंजली खेर, (भोपाल)

संकल्‍प के कमरे का दरवाजा खोलते ही वीणा का मन कसैला सा हो गया. कितना बे‍तरतीब सा कर रखा हैं सब, धुले कपड़े चादर की गठरी से बाहर निकलकर जैसे चिढ़ा रहे थे– ‘’बहुत तहज़ीब पसंद हो ना, अब अपने बेटे को थोड़ा शरूर सिखाओं तो जानें.‘’

चादर झटकारने के लिए तकिया उठाया ही था कि देखा, तकिये के नीचे रोमांटिक पत्रिका रखी हुई हैं, पन्‍ने पलटे तो मन घृणा से भर उठा –‘’ये मेरा ही बेटा है? घिन आती है इसकी सोच पर मुझे. सोचने को मजबूर हो जाती हूं कि क्‍या वाकई बच्‍चों के गुण-अवगुण, आदतें माता- पिता के जींस पर ही निर्भर करते हैं? संकल्‍प के पापा और मैं तो ऐसे नहीं थे, फिर ये हमारा बेटा ऐसा कैसे हो गया?

चादर झटकारकर वीणा से मैग्‍जीन जस की तस तकिये के नीचे रख दी. कमरा थोड़ा सलीके से करके वह बाहर आई तभी डोरबेल बजी. दरवाजा खोला तो सामने संकल्‍प कौलेज का बैग पकड़े खड़ा था.

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हाय मौम, कैसी हो, क्‍या कर रही हो? मैं तो ठीक हूं, चाय बना रही हूं, पिएगा मेरे साथ?

मेरे मन की बात कह दी मौम, आप चाय बनाओ जल्‍दी से, बहुत थकान सी लग रही हैं. मैं फ्रेश होकर आता हूं. वीणा दो कप चाय और बिस्किट ट्रे में ले आई. संकल्‍प टौवेल से मुंह पोंछकर चाय का कप उठाता हैं.

कैसा रहा कौलेज, आज तो चार घंटे लेट आये हो, कोई खास वजह? अरे मौम, आज हम लोग कौलेज के बाद ग्रुप डिस्‍कशन कर रहे थे, इंटर कौलेज कौम्‍पटीशन होने वाले हैं ना.

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